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रविवार, 6 मई 2012

शक्‍तियां है जो मन के बहार होने से प्राप्‍त होती है, लेकिन ये समाधि के मार्ग पर बाधाएं है—पतंजलि (योग-सूत्र)

ख्‍याल रहे वे भी शक्‍तियां है, अगर बाहर की और जाना हो तो—लेकिन अगर भीतर जाना हो ता यहीं शक्‍तियां बाधाएं बन जाती है। अगर व्‍यक्‍ति स्वयं के भीतर जा रहा हो, तो यही शक्‍तियां बाधा बन जायेगी।
      जो व्‍यक्‍ति बह्या संसार की और बढ़ रहा होता है, वह चंद्र से सूर्य की और से होता हुआ संसार में जा रहा होता है। और जो व्‍यक्‍ति स्‍वयं के भीतर जा रहा है, उसकी ऊर्जा सूर्य से चंद्र की और, और फिर चंद्र से भी पार की तरफ जा रही होती है। जो व्‍यक्‍ति अंतस की यात्रा पर जा रहा होता है। और एक वह व्‍यक्‍ति जो बह्या संसार की यात्रा पर जो रहा होता है उनके लक्ष्‍य और उद्देश्‍य एकदम अलग-अलग होते है, एकदम विपरीत होते है।

      और ऐसा उस समय होता है जब व्‍यक्‍ति को कई बार प्रतिभा की, एकदम पार की पहली-पहली झलकियाँ आने लगती है। और वह इतना शक्‍ति-संपन्‍न हो जाता है , इतना शक्‍ति से भर जाता है, इतना शक्‍तिशाली हो जाता है, वह घड़ी एक ऐसी घड़ी होती है। जब व्‍यक्‍ति फिर से नीचे गिर सकता है। शक्‍ति उसे विकृत कर सकती है। और इस कारण गिरना हो सकता है। वह व्‍यक्‍ति  अपने को इतना अधिक बुद्धिमान समझने लगता है कि वह अहंकारी हो जाता है—तब वह उस शक्‍ति पर सवार होने का मजा लेना चाहेगा। फिर वह चमत्‍कार या इसी प्रकार की कुछ मूढताएं करने लगेगा।
      सभी तरह के चमत्‍कार दिखाने वाले लोग एक तरह से मूढ़ और मूर्ख ही होते है—चाहे वे कहें कुछ भी। वह कह सकते है कि वे यह चमत्‍कार लोगों की मदद करने के लिए कर रहे है। वे किसी की भी मदद नहीं करते है: स्‍वयं को ही नुकसान और क्षति पहुंचाते है—और अपने साथ दूसरों का भी क्षति पहुंचाते है। क्‍योंकि इन चमत्‍कारों को दिखाने के चक्‍कर में वे पार जाने की जगह और नीचे गिर जाते है। और तब पूरी बात ही चालाकी और धूर्तता की बनकर रह जाती है।
      परा-मनोविज्ञान में इस तरह की चालाकियां की जा सकती है। अंतर्बोध के, चंद्र के जगत में कुछ ऐसे दांव-पेंच होते है। जिन्‍हें एक बार जान लेने के बाद उनके साथ खिलवाड़ किया जा सकता है। फिर भी वे है कलाबाजियां ही, और फिर अहंकार उन कला बाजियों का उपयोग कर सकता है।
      पतंजलि कहते है: ‘’यह वे शक्‍तियां है जब मन बाहर की और मुड़ रहा होता है, लेकिन यही समाधि के मार्ग में बाधाएं है।‘’
      अगर परम को उपलब्‍ध होना है तो इन सब मूढ़ताओं को छोड़ना होगा। इन सभी को छोड़ना होगा। और यही एक सच्‍चे खोजी का ढंग है: मार्ग में उसे जो कुछ भी मिलता है, वह उसे परमात्‍मा के चरणों में चढ़ा देता है। वह कहता है, तुमने मुझे दिया, लेकिन मैं इसका करूंगा क्‍या? मैं तो फिर से तुम्‍हारे चरणों में ही चढ़ा देता हूं। जो कुछ भी उसे प्राप्‍त होता है। वह उसे परमात्‍मा के चरणों में चढ़ा देता है। और स्‍वयं हमेशा रिक्‍त और खाली का खाली ही रहता है।
      यही है सच्‍ची आध्यात्मिकता : हमेशा उपलब्‍धि से, या जो भी आस्‍तित्‍व से मिला है उससे रिक्‍त और खाली रहना, और जो कुछ भी मार्ग में मिल जाए उसे परमात्‍मा के चरणों में चढ़ाए चले जाना।
      मैं तुम्‍हें एक कहानी कहता हूं:
      पुरोहित-पादरियों की एक मंडली इस बात पर चर्चा कर रही थी कि वे अपने धर्म-संचयन में आए दान का उपयोग किस तरह से करें।
      एक डि सेंटर पादरी ने उद्घोषणा की, मेरे लोग जो कुछ भी दान-पेटी में डालते है, वह सब का सक परमात्‍मा के कार्य में चला जाता है—अपने लिए तो एक पैसा तक नहीं रखता।
      ऐंग्‍लिकन ने उसके उत्‍साह की प्रशंसा करते हुए स्‍वीकार किया, ‘’मैं तांबे को दान-पेटी में डालता हूं, और चाँदी की चींजे परमात्‍मा के पास पहुँचती है।
      वहां मौजूद कैथोलिक पादरी ने स्‍वीकार किया। ‘’मैं चाँदी की चीजें रख लेता हूं, और तांबे का सब सामान परमात्‍मा के लिए जाता है—मैं तुम्‍हें यह बता दूँ कि गरीबों के चर्च में बहुत तांबा है।‘’
      अब तक रब्‍बी खामोश था, लेकिन जब उस पर जोर डाला गया तो वह बोला, हां, मैं तो इकट्ठा किया गया सारा धन एक कंबल में रख देता हूं, और मैं उसे हवा में उछाल देता हूं, परमात्‍मा को जो रखना होता है वह रख लेता है और जो वह नहीं चाहता है उसे मैं रख लेता हूं।‘’    
      धूर्त और चाला बाज मत बनो—रब्‍बी मत बनों। क्‍योंकि अंत में तुम्‍हारा ही नुकसान होगा, परमात्‍मा का नहीं। अंतर्विकास के मार्ग में जो भी बाधा आती है.....ओर बहुत सी बाधाएं आती भी है। आंतरिक पथ पर प्रत्‍येक क्षण नया अन्‍वेषण का होता है; हर क्षण कुछ न कुछ घटता रहता है—तुम तो उसकी कल्‍पना भी नहीं कर सकते हो, तुमने तो कभी उसकी मांग भी न की होगी। अंतर यात्रा के पथ पर अनेक भेंटें अस्‍तित्‍व की और से मिलती है, लेकिन परमात्‍मा को या परम को यही उपलब्‍ध होता है, जो इन भेंटों को वापस परमात्‍मा के चरणों में समर्पित कर देता है। और अगर उन भेंटों को पकड़ने लगो, तो फिर विकास वहीं का वहीं रूक जाता है। तब फिर व्‍यक्‍ति उसी जगह रूक जाता है। वहीं ठहर जाता है।
      ते समाधावुपसर्गाव्‍युत्‍थाने सिद्धय:।
      अगर तुम्‍हें समाधि की आकांक्षा है, अगर तुम्‍हें परम शांति चाहिए, परम मौन चाहिए, सत्‍य चाहिए—किसी भी तरह की प्राप्‍ति से , उपलब्‍धि से जुड़ाव मत बना लेना—फिर चाहे वह इस लोक की हो या उस लोक की , मनोवैज्ञानिक हो या परा-मनोवैज्ञानिक हो, बौद्धिक हो या अंतर्बोध युक्‍त हो, कुछ भी हो, किसी भी उपलब्‍धि के साथ मोह मत जोड़ लेना। उसे परमात्‍मा के चरणों में समर्पित करते चले जाना.......ओर फिर बहुत कुछ घटेगा। तुम तो बस उसे परमात्‍मा के चरणों में अर्पित किए चले जाना।
      जब व्‍यक्‍ति सभी कुछ परमात्‍मा के चरणों में चढ़ा देता है यहां तक कि अपने को भी परमात्‍मा के चरणों में चढ़ा देता है, तब परमात्‍मा आता है। जब सभी कुछ परमात्‍मा के चरणों में चढ़ा दिया, उसी परम को वापस सौंप दिया तो फिर परमात्मा अंतिम भेंट की तरह अंतिम उपहार की तरह चला आता है, और परमात्‍मा ह अंतिम उपहार है, अंतिम भेंट है।
ओशो
पतंजलि: योग सूत्र—4
प्रवचन—17
कोरेगांव पार्क ओशो आश्रम पुणे
     
 

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