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गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

कुशीनाला के शालवन में बुद्ध की अंतिम विदा—(कथा यात्रा—98)

 कुशीनाला के शालवन में बुद्ध की अंतिम विदा-(एस धम्‍मो सनंतनो)


गवान की इस पृथ्वी पर अंतिम घड़ी। भगवान कुसीनाला के शालवन उप्पवतन में अपने भिक्षुको से अंतिम विदा लेकर लेट गए हैं! दो शालवृक्षों के नीचे उन्होंने अपनी मृत्यु का स्वागत करने का आयोजन किया है।
मौत आ रही है। तो बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा, तुम्हें कुछ पूछना हो तो पूछ लो। कुछ कहना हो तो कह लो, अब मैं चला। अब यह देह जाती है। मैं तो चला गया था बयालीस साल पहले ही, देह भर रह गयी थी, अब देह भी जाती है। तो बौद्ध दो शब्दों का उपयोग करते हैं—निर्वाण और महापरिनिर्वाण। निर्वाण तो उस दिन उपलब्ध हो गया जिस दिन बुद्ध को शान हुआ। फिर महापरिनिर्वाण उस दिन हुआ जिस दिन देह विसर्जित हो गयी। उस दिन वे महाशून्य में खो गए, महाकाश के साथ एक हो गए। आकाश हो गए।

तो भिक्षु क्या पूछते? बुद्ध ने इतना तो कहा, वही कहा सुना! कितना तो कहा, वही कहा सुना! पूछने को बचा क्या ' जो पूछा था, वह कहा, जो नहीं पूछा, वह भी कह दिया है। बुद्ध ने तो खूब लुटाया है, बयालीस साल सुबह से सांझ तक लुटाते ही रहे। जो कहा है, वह भी समझ में नहीं आया है, अब और पूछने को क्या है! तो भिक्षु तो चुप रह गए। उन्होंने कहा, पूछने को भगवान क्या है? बस आपका आशीष! ऐसा बुद्ध ने तीन बार पूछा—ऐसी उनकी आदत थी कि शायद किसी को याद पड़ जाए, शायद किसी को खयाल आ जाए, फिर ऐसा न हो कि मैं जा चुका होऊं और मन में एक खटक रह जाए कि पूछना था, नहीं पूछ पाया, अब किससे पूछे? अब कौन उत्तर देगा? तो बुद्ध ने तीन बार पूछा, तीनों बार भिक्षुओं ने स्वीकृति दी कि हमें कुछ पूछना नहीं। आपने हमें, जितना देना चाहिए, उससे ज्यादा दे दिया। हम उसका उपयोग कर लें, रत्तीभर भी उपयोग कर लें तो पर्याप्त है।
तो फिर बुद्ध दो शालवृक्षों के मध्य में, आनंद ने उनकी शथ्या तैयार कर दी, उस पर लेट गए। और धीरे—धीरे वह अपनी देह से मुक्त होने लगे।
तभी सुभद्र नाम का एक व्यक्ति गांव से भाग? हुआ आया?
उसे खबर मिली, वह एक दुकानदार था, उसे खबर मिली कि बुद्ध का आखिरी दिन। तो वह घबड़ा गया। तीस साल में बुद्ध अनेक बार उसके गांव से निकले, कहते हैं, करीब तीस बार उसके गांव से निकले—वह गाव उनके मार्ग में पड़ता था। और तीस साल में उसने अनेक बार सोचा कि बुद्ध को सुनने जाना है, लेकिन कभी कोई बाधा आ गयी, कभी कोई बाधा आ गयी।
तुम तो जानते हो कितनी बाधाएं आती है! कभी पत्नी बीमार हो गयी—अब पत्नियों का क्या भरोसा कब बीमार हो जाएं! और ऐसे मौके पर जरूर बीमार हो जाएं। कभी बेटी घर आ गयी। कभी बेटे से झगड़ा हो गया। कभी मेहमान आ गए, कभी दुकान पर ग्राहक ज्यादा। कभी काम का बोझ आ गया। कभी कुछ, कभी कुछ। हर बार टालता रहा कि अगली बार, अगली बार।
आज अचानक गांव में खबर आयी, एक सन्नाटे की तरह छा गया सारे गांव में कि बुद्ध शरीर छोड़ रहे हैं, गांव के बाहर ही दो शालवृक्षों के नीचे उन्होंने अपनी अंतिम घड़ी चुन ली है। अब वे जा रहे हैं।
तो उसने जल्दी—जल्दी दुकान बंद की—आज उसने फिकर न की कि पत्नी बीमार, कि बेटी घर आयी, कि मेहमान आए, कि दुकान पर ग्राहक, उसने कहा, हटो भी! अब जाने दो बहुत हो गया, तीस साल मैं टालता रहा। अब अगर टालूंगा तो फिर, फिर कब? मुझे कुछ पूछना है। वह भागा।
जब तक वह पहुंचा तब तक बुद्ध ने आखें बंद कर लीं। वह तो लेट भी गए हैं। सुभद्र जोर—जोर से रोने लगा, उसने कहा कि मुझे पूछने दो। मैं तीस साल से तडूफ रहा हूं। आनंद ने उसे बहुत समझाया कि पागल, तीस साल तूने स्थगित किया, हमने तो स्थगित नहीं किया! अब वे विश्राम में जा रहे हैं, अब वे अपनी देह छोड़ रहे हैं, अब उनको लौटाना ठीक नहीं, अशोभन है। हमने उन्हें काफी बयालीस साल में पीड़ा दी है, हमने बहुत पूछा, हमने न मालूम क्या—क्या पूछा, नहीं पूछना था वह भी पूछा, उसके भी उत्तर उनसे चाहे हैं; अब नहीं!
लेकिन कहते हैं, भगवान ने सुभद्र की और आनंद की बातें सुनकर आंख खोल दी और उन्होंने कहा कि नहीं—नहीं आनंद, रोको मत, उसे आने दो। अभी मैं जिंदा हूं। नहीं तो यह एक दोष रह जाएगा, यह सुभद्र सदा के लिए मुझे दोषी ठहराएगा कि मैं पूछने गया था और भगवान के द्वार से बिना पूछे आ गया। इसे पूछ लेने दो। तो सुभद्र आकर उनके पास बैठ गया और उसनै जो प्रश्न पूछे, वे भी बड़े अजीब हैं। व्यर्थ के प्रश्न पूछे। दार्शनिक प्रश्न पूछे, जिनसे कुछ व्यावहारिक उपयोग नहीं है।
उसने प्रश्न पूछा कि भंते मुझे तीन प्रश्न पूछने हैं पहला क्या आकाश में पद हैं क्या आकाश में पदचिह्न बनते हैं? दूसरा क्या बाहर श्रमण हैं? और तीसरा क्या संस्कार शाश्वत हैं?

अब इनका कोई मूल्य नहीं है। इनको जान लेने से भी क्या होगा? ये हवाई बातें पूछीं।तुँम कभी बुद्धपुरुषों के पास भी जाते हो तो मूढ़तापूर्ण प्रश्न पूछते हो। जिनको तुम बड़ी आध्यात्मिक बातें कहते हो, वे अक्सर मूढ़तापूर्ण बातें हैं।
मेरे पास कोई आ जाता, वह कहता, भगवान ने संसार बनाया या नहीं? क्या मतलब है! क्या फर्क पड़ेगा! बनाया तो तुम ऐसे ही जीओगे, नहीं बनाया तो तुम ऐसे ही जीओगे। तुम्हारे जीने में कुछ फर्क पड़े, ऐसी बात पूछो। आदमी मरने के बाद बचता या नहीं? क्या फर्क पड़ेगा! अभी तुम जैसे हो, यहीं भीतर डुबकी लगाने की कोई बात पूछो। तो शायद तुम्हें पता चल जाए उसका भी जो बचेगा। पहचान हो जाए। मगर नही, इसमें उत्सुकता नहीं, ध्यान में उत्सुकता नहीं, योग में उत्सुकता नहीं, हवाई बातें! एब्‍स्‍ट्रेक्‍ट! जिनका कोई मूल्य नहीं है।
उस आदमी ने क्या प्रश्न पूछे! भंते, क्या आकाश में पद हैं ' बाहर श्रमण हैं? क्या संस्कार शाश्वत हैं '
उसको भी उत्तर भगवान ने दिया। साधारणत: वह इस तरह की बातों के उत्तर नहीं देते थे लेकिन यह अंतिम जिज्ञासु था और इसे इनकार करना ठीक नहीं था। ये अंतिम दो सूत्र सुभद्र कौ उत्तर में दिए गए सूत्र हैं।

आकासे व पदं नत्थि समणो नत्‍थि बाहिरे।
पपज्वाभिरता पजा निएप्पपन्चा तथागता।।
आकासे व पदं नत्थि समणो नत्थि बाहिरो।
संखारा सस्सता नत्थि नत्थि बुद्धानमिब्जितं।।

'आकाश में पथ नहीं होता—कोई पदचिह्न नहीं बनते—बाहर में (बुद्ध—शासन से बाहर ) श्रमण नहीं होता। लोग प्रपंच में लगे रहते हैं, लेकिन तथागत प्रपंच रहित हैं।
आकाश में पथ नहीं होता—पदचिह्न नहीं बनते—बाहर में श्रमण नहीं होता, संस्कार शाश्वत नहीं होते हैं और बुद्धों का इंगित, अता—पता नहीं होता है। '
बुद्ध ने कहा, आकाश में कोई पदचिह्न नहीं बनते। पूछने वाले ने तो व्यर्थ की बात पूछी थी, पूछने वाले को तो इससे कुछ सार न था, लेकिन बुद्ध ने जो उत्तर दिया, वह बड़ा सार्थक है।
तुम भी बहुत बार प्रश्न पूछते हो जो व्यर्थ होते हैं। जिनसे तुम्हें कोई लाभ नहीं होने वाला है। इसलिए कई बार तुम्हें ऐसा भी लगता होगा कि मैं जो उत्तर देता हूं वह शायद ठीक—ठीक तुम्हारे प्रश्न का उत्तर नहीं है। क्योंकि मैं उत्तर तुम्हें वही देता हूं जिससे तुम्हें कुछ लाभ हो सके। तुम्हें तो क्षमा किया जा सकता है गलत प्रश्न पूछने के लिए, मुझे क्षमा नहीं किया जा सकता गलत उत्तर देने के लिए। तुम कुछ भी पूछो, मैं तुम्हें वही उत्तर देता हूं जिसका कोई परिणाम हो सके। जिससे तुम्हारे जीवन में कोई रूपांतरण हो सके। मैं तुम्हारे गलत प्रश्न से भी कुछ खोज लेता हूं जिसका ठीक उत्तर हो सके।
उसने जो पूछा था, वह व्यर्थ की बात थी। उसका कोई मूल्य नहीं था। लेकिन बुद्ध ने उसमें मूल्य डाल दिया। उन्होंने कहा, आकाश में पथ नहीं होता। और जीवन आकाश जैसा ही है। इसमें कोई पदचिह्न नहीं छूटते हैं। बुद्ध चलते हैं, उनके कोई पदचिह्न नहीं छूटते।
इसलिए तुम अगर चाहो कि हम बुद्ध के पदचिह्नों पर चलकर पहुंच जाएंगे, तो तुम गलती में हो। आकाश में पक्षी चलते हैं, उडते हैं, कोई पदचिह्न नहीं छूटते। इसलिए उनके पीछे कोई उनके पदचिह्नों पर चलकर कहीं जा नहीं सकता।
बुद्ध बार—बार कहते थे, अप्प दीपो भव, अपने दीए खुद बनो, किसी के पीछे चलकर कोई कभी नहीं पहुंवता, क्योंकि यहां चिह्न बनते ही नहीं। यहा चिह्न निर्मित ही नहीं होते। तुम अनुगमन कर ही नहीं सकते। तुम अनुकरण कर ही नहीं सकते। तुम किसी की छाया बनना चाहो तो भूल हो जाएगी। फिर तुम आत्मा न बन सकोगे। आकाश में पथ नहीं होता। '

आकासे व पदं नति समणो नत्थि बाहिरे।

उसने पूछा कि बाहर में श्रमण होता है या नहीं न इसका बौद्धों ने जो अब तक अर्थ किया है, वह एकदम गलत है। बौद्ध इसका अर्थ करते हैं कि उसने पूछा कि भगवान के संघ के बाहर कोई आदमी समाधि को उपलब्ध होता है? श्रमण होता है ' और बोद्ध—शायद उसने यह पूछा भी हो, हम उसको क्षमा कर सकते हैं, वह अज्ञानी आदमी, हो सकता है पूछा हो उसने कि आपके संघ के बाहर कोई शान को उपलब्ध होता है, आपके संघ के बाहर, आपके भिक्षुओं के बाहर कोई समाधि को उपलब्ध होता है g हो सकता है पूछने वाले ने यही पूछा हो। लेकिन बुद्ध तो इस तरह का उत्तर नहीं दे सकते हैं कि बाहर में (बुद्ध—शासन से बाहर ) श्रमण नहीं होता। यह बात गलत है। यह तो बुद्ध कतई नहीं कह सकते।
फिर बुद्ध का क्या अर्थ होगा? सूत्र सीधा—साफ है, उसके अर्थ भी खूब बिगाड़े गए हैं।

आकासे व पदं नत्‍थि।

'आकाश में पदचिह्न नहीं बनते। '

समणो नत्थि बाहिरे।

      बाहर श्रमण नहीं होता। '
अब इसका अर्थ जो मैं करता हूं वह यह है कि जो बहिर्मुखी है, वह श्रमण नहीं होता। जो बाहर दौड़ रहा है, बाहर की तरफ जा रहा है, वह कभी ज्ञान को उपलब्ध नहीं होता। जिसकी यात्रा अंतर्मुखी है, वही ज्ञान को उपलब्ध होता है। 

समणो नत्थि बाहिरे।

जो बहिर्मुखी है, एक्सॉवर्ट, वह कभी शान को उपल्वध नहीं होता। यह मेरा अर्थ है।
बौद्धों का तो अब तक का अर्थ यही रहा है कि बुद्ध—शासन के बाहर कोई ज्ञान को उपलब्ध नहीं होता। यह बात तो बड़ी ओछी है। फिर महावीर शान को उपलब्ध नहीं होते। फिर कृष्ण ज्ञान को उपलब्ध नहीं होते। फिर क्राइस्ट, मोहम्मद, जरथुस्त्र ज्ञान को उपलब्ध नहीं होते। फिर तो यह बड़ी संकीर्ण बात हो जाएगी। बुद्ध ऐसा वचन बोलेंगे, यह असंभव है।
इसलिए मैं इस अर्थ को इनकार करता हूं। मैं अर्थ करता हूं—

समणो नत्थि बाहिरे।

बाहर घूमती चेतना, बाहर—बाहर जाती चेतना, कभी ज्ञान को उपल्वध नहीं होती। अंतर्यात्रा पर जो जाता है, वही शान को उपलब्ध होता है, वही श्रमण, वही समाधि को पाता है।
'लोग प्रपंच में लगे रहते हैं और जो शान को उपलब्ध हो गया वह प्रपंचरहित हो जाता है।
आकाश में पथ नहीं।

आकासे व पदं नत्थि समणो नत्थि बाहिरे।
संखारा सस्सता नत्थि........

संस्कार का अर्थ होता है, हमारे ऊपर जो—जो प्रभाव पड़े हैं, संस्कार, कंडीशनिंग। उस आदमी ने पूछा है, क्या संस्कार शाश्वत होते हैं? जो हम पर प्रभाव पड़े हैं, वे सदा रहने वाले हैं?
बुद्ध कहते हैं, नहीं, जो भी प्रभाव हैं, वे पानी पर खींचे गए प्रभाव हैं। जैसे पानी पर कोई लकीरें खींच दे। वे खींचते—खींचते मिट जाती हैं। या कोई रेत पर लकीरें खींचे; खींच देता है, थोड़ी देर टिकती हैं, फिर हवा आती है तब मिट जाती हैं।
तुम कहोगे, कोई पत्थर पर लकीरें खींच दे? वे भी समय आने पर मिट जाती हैं। कोई लोहे पर लकीरें खींच दे, वे भी एक दिन समय आने पर मिट जाती हैं। कोई हीरे पर लकीरें खींच दे, तो शायद करोड़ों वर्ष रहें, लेकिन वे भी समय आने पर मिट जाती हैं। कोई संस्कार शाश्वत नहीं है। यहां जो भी प्रभाव है, अशाश्वत है।
और इसलिए प्रभाव के बाहर हो जाना ही शाश्वत को पाना है। सब लकीरें मिट
ध्यान की खेती संतोष की भूमिए मे जाएं—सब खींची लकीरें, कि मैं हिंदू कि मैं मुसलमान, कि मैं ब्राह्मण, कि मैं पुरुष, कि मैं स्त्री, कि मैं धनी, कि मैं त्यागी, सब लकीरें हैं—सब लकीरें जब मिट जाएं, जब कोरा कागज तुम्हारे भीतर हो जाए, प्रपंचरहित, कोई उपद्रव तुम्हारे भीतर न रह जाए, शून्य विराजमान हो जाए।

संखारा सस्सता नत्थि नत्थि बुद्धानमिज्‍जितं।

संस्कार शाश्वत नहीं हैं, सुभद्र, और बुद्धों का इंगित नहीं होता। यह बड़ी अदभुत बात कही बुद्ध ने—

नत्थि बुद्धानमिज्‍जितं

'बुद्धों का कुछ अता—पता नहीं होता।
तुम अगर चाहो भी तो तुम बुद्धों को खोज नहीं सकते। उनको खोजना संभव नहीं है। उनका कोई अता—पता नहीं होता।
यह बुद्ध ने जो बात कही, अंतिम, कि अब देह के खो जाने के बाद तुम मुझे खोजना चाहोगे तो खोज न सकोगे। जब तक संस्कार थे, तब तक मेरा अता—पता था। देह थी मेरी, मन था मेरा, तब तक मेरा अता—पता था। तुम कह सकते थे, बुद्ध इस समय कहां हैं? क्या हैं? कौन हैं? किस रूप में, किस वय में, स्त्री कि पुरुष, आदमी कि देव? लेकिन अब मेरा सब अता—पता खो जाएगा। अब मैं महाशून्य के साथ एक होने जा रहा हूं।
'बुद्धों का कोई अता—पता नहीं होता। '
इसलिए कोई उनकई तरफ इंगित नहीं कर सकता कि वे यहां हैं। यह तो ठीक जो भगवान की परिक्सा होती है, वही बुद्ध की परिभाषा है। भगवान का कोई अता—पता नहीं। द्य यह नहीं कह सकते कि भगवान कहां है। तुम इतना ही कह सकते हो, भगवान कहां नहीं है! इंगित नहीं कर सकते। या तो सब कहीं है, या कहीं भी नहीं है। इशारा नहीं हो सकता।

संखारा सस्सता नत्थि नत्थि बुद्धानमिज्जितं।

बुद्ध ने कहा, अब संस्कारों से छुटकारा हो गया, आखिरी संस्कार छूटा जा रहा है, आखिरी लकीर हाथ से छूटी जा रही है, अब इसके आगे मेरा कोई अता—पता न होगा। अब मैं महाशून्य में जा रहा हूं। मैं उस आकाश में जा रहा हूं जहां कोई पदचिह्न नहीं होते। मैं उस अंतर—आकाश मे जा रहा हूं, जहां बुद्धत्व फलता है, केवल जहां बुद्धत्व फलता है। मैं उस अंतर्यात्रा का आखिरी कदम उठा रहा हूं। और अब तुम मुझे खोज न सकोगे, इसके बाद तुम मुझे खोज न सकोगे।
यही भगवत्ता की परिभाषा है। आदमी को खोज सकते हो, पशु—पक्षी को खोज सकते हो, सीमा है तो खोज सकते हो। जब असीम हो गया तो फिर कैसे खोजोगे? 
फिर असीम की क्या खोज का कोई उपाय नहीं? नहीं, उपाय है। तुम भी असीम हो जाओ। बूंद अगर सागर को पाना चाहे तो एक ही उपाय है कि सागर में डूब जाए और एक हो जाए। फिर बुद्ध को बाहर नहीं खोजा जा सकता, फिर तो तुम जब बुद्धत्व को उपलब्ध होओगे तभी खोज पाओगे। तुम उसी क्षण खोज पाओगे जब तुम भी अपना अता—पता खो दोगे।
यह अता—पता खो देना ही आवागमन से मुक्‍त हो जाना है। फिर न कोई आना है, न कोई जाना है। फिर शाश्वत में निवास है। फिर तुम्हें अपना. घर मिल गया। उसी घर की तलाश है।
ओशो
एस धम्‍मो संनतनो

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