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बुधवार, 28 जनवरी 2015

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--4) प्रवचन--74

अहंकार अटकाने को खूँटा नहीं—(प्रवचन—चौदहवां)

दिनांक 14 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना।  

प्रश्‍न–सार:
1—क्या संबुद्ध होना और साथ ही संबोधि के प्रति चैतन्‍य होना संभव है? क्या संबुद्ध का विचार स्वय में अहंकार उत्पन्न नहीं कर देता है?
2—मैं अक्‍सर दो मन में रहता हूं—सूर्य और चंद्र मन में। कृपया कुछ कहें।
3—आप कहते है कि बुद्ध पुरूष कभी स्‍वप्‍न नहीं देखते। फिर च्वांगत्‍सु ने कैसे स्‍वप्‍न देखा कि वह तितली है?
4—स्व—निर्भर होने के लिए पतंजलि की विधि या आपकी विधि क्या है?
अध्‍यात्‍मिक व्‍यक्‍ति ठीक—ठीक वर्तमान के क्षणों में कैसे जी सकता है?
रोज के व्‍यावहारिक जीवन में क्षण—क्षण, वर्तमान में जीने की आदत कैसे बनायी जाए?
 5—क्‍या राम संबोधि को उपलब्‍ध हो गया है?

पहला प्रश्न:
क्या संबुद्ध होना और साथ ही संबोधि के प्रति चैतन्य होना संभव है?  क्या संबुद्ध होने का विचार स्वयं में अहंकार उत्पन्‍न नहीं कर देता है? कृपया समझाएं।
हली बात जो समझ लेने की है वह यह है कि अहंकार क्या है?
अहंकार कोई वास्तविकता नहीं है। असल में तो अहंकार होता ही नहीं है। अहंकार एक विचार मात्र है, एक ऐसा विकल्प है जिसके बिना व्यक्ति का जीना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि तुम यह तो जानते ही नहीं हो कि तुम कौन हो, तुम्हें जीने के लिए अपने बारे में एक निश्चित प्रकार की धारणा बनानी पड़ती है, अन्यथा तो तुम विक्षिप्त ही हो जाओगे। तुम्हें अपने लिए कुछ ऐसे संकेत बना लेने पड़ते के जिनसे तुम जान सको — 'ही, मैं यह हूं।’
मैंने सुना है कि एक बार एक मूढ़ आदमी एक नगर में गया। वहां वह एक सराय में ठहरा। और भी बहुत से लोग उस सराय में ठहरे हुए थे, इससे पहले वह इतने सारे लोगों के साथ कभी सोया नहीं था। वह थोड़ा परेशान भी था और घबराया हुआ भी था। उसे इस बात का भय था कि अगर वह सो गया तो फिर सुबह जब वह जागेगा तो कैसे जानेगा कि सचमुच में वह स्वयं ही है। इतने सारे लोग, और वह तो सदा अपने कमरे में अकेला ही सोता आया था, इसलिए कभी कोई समस्या ही न उठी थी, क्योंकि किसी गड़बड़ी की कोई संभावना ही न थी। चूंकि वह अकेला सोता आया था तो कोई खतरा नहीं था, लेकिन अब इतने लोगों की भीड़ में सोना, क्या पता वह उनमें कहा गुम हो जाए। जब जाग रहे हों तब तो ठीक है, तब तो स्वयं का स्मरण रखा जा सकता है; लेकिन नींद आने के बाद तो कोई भी अपने को खो दे सकता है, भूल सकता है। सुबह होने तक कौन जाने क्या से क्या हो जाए, चीजें कितनी बदल जाएं? कौन जाने उस बड़ी भीड़ में गम ही हो जाए?
उसे परेशान और अपने बिस्तर में गुमसुम बैठा देखकर, किसी ने उससे पूछा, क्या बात है? तुम सोते क्यों नहीं हो?
उस मूढ़ ने अपनी सारी समस्या उस आदमी को बतायी। उसकी समस्या सुनकर उसे जोर से हंसी आ गई। वह उस मूढ़ से बोला, इस समस्या को सुलझाना तो बहुत आसान है। जरा उस ओर तो देखो, कोई बच्चा अपना गुब्बारा वहां छोड़ गया है। उसे लाकर तुम अपने पैर से बांध लो, ताकि सुबह होने पर गुब्बारे को देखकर तुम जान लोगे कि तुम्हीं हो।
वह मूढ़ बोला, बात तो ठीक है। और उसे 'नींद भी आ रही थी, क्योंकि वह बहुत थका हुआ भी था। तो उसने गुब्बारे में धागा बांधकर उसे अपने पैर से बांध लिया और सो गया।
जब वह मूढ़ सो गया तो उस आदमी को मजाक सूझा। रात को जब वह मूढ़ खर्राटे भरने लगा, उसने गुब्बारा उसके पैर से खोलकर अपने पैर में बाध लिया।
सुबह जब वह मूढ़ उठा और उसने अपने चारों और देखा और उसे गुब्बारा नजर नहीं आया, तो वह जोर—जोर से रोने —चिल्लाने लगा। उसका रोना —चिल्लाना सुनकर बहुत से लोग उसके आसपास इकट्ठे हो गए और उससे पूछने लगे, 'क्या बात है, क्या हुआ?'
वह मूढ़ कहने लगा, 'मैं यह तो जानता ही हूं कि वह आदमी तो मैं ही हूं —लेकिन फिर मैं
कौन हूं?
और यही है पूरी की पूरी समस्या। अहंकार इसीलिए है, क्योंकि तुम जानते नहीं क़ि तुम कौन हो। तो अहंकार को अपनी पहचान बनाए रखने के लिए नाम, पता, पद—प्रतिष्ठा, यश—यह सारी बातें, अहंकार को बनाए रखने में मदद करती हैं। यह सभी पहचान गुब्बारों की भाति तुम्हारे साथ बंधी रहती हैं। अगर अचानक तुम किसी दिन दर्पण में देखो और दर्पण में वह चेहरा न पाओ तुम जिसे आज तक देखते आए हो, तो तुम पागल हो उठोगे—कि वह पहचान का बंधा हुआ गुब्बारा कहा चला गया। हमारा चेहरा तो निरंतर परिवर्तित होता रहा है, लेकिन परिवर्तन इतनी धीमी गति से होता है कि उसे पहचानना मुश्किल होता है।
जरा घर में पड़ी हुई बचपन की तस्वीरों के एलबम को फिर से देखना। चूँकि तुम जानते हो कि वह तुम्हारा ही एलबम है, इसलिए तुम्हें शायद ज्यादा फर्क मालूम भी नहीं पड़े, लेकिन थोड़ा उन तस्वीरों को ध्यानपूर्वक देखना कि तुम में कितना कुछ बदल चुका है। वही चेहरा अब नहीं है, क्योंकि कहीं भीतर गहरे में तुम में कोई चीज स्थायी रूप से वही रहती है। और हो सकता है तुम्हारा नाम बदल गया हो, यही तो मैं प्रतिदिन कर रहा हूं। मैं तुम्हारे नाम बदलता रहता हूं, तुम्हें इस बात की अनुभूति देने के लिए कि नाम तो केवल तुम से बंधा हुआ गुब्बारा है, उसे बदला जा सकता है, ताकि नाम के साथ तुम्हारा तादात्म्य टूट जाए।
अहंकार आत्मा के झूठे विकल्प के. अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। तो इसलिए जब व्यक्ति जान लेता है कि वह कौन है, तो अहंकार की फिर कोई संभावना नहीं रह जाती है।
तुमने मुझसे पूछा है, 'क्या संबुद्ध होने का विचार स्वयं में अहंकार उत्पन्न नहीं कर देता है?'
विचार तो अहंकार केवल तभी हो सकता है, जब वह केवल विचार मात्र ही हो। तब तो वस्तुत: यह कहना भी ठीक नहीं है कि अहंकार उसे निर्मित कर सकता है तब तो अहंकार पहले से मौजूद ही होता है। यह विचार भी अहंकार के माध्यम से ही आया होता है। अगर अहंकार विलीन हो जाए, तो तुम सच में ही संबोधि को उपलब्ध हो जाओगे. और यही तो है संबोधि का अर्थ : अहंकार से आत्मा में चले जाना, अवास्तविकता से वास्तविकता की ओर चले जाना, मन से अ—मन की ओर चले जाना, शरीर से अ—शरीर की ओर चले जाना। एक बार अगर यह जान लो कि तुम कौन हो, तो फिर मुझे ऐसा नहीं लगता कि कोई भी तुम्हें इसके लिए राजी कर सके कि स्वयं का स्मरण रखने के लिए पैर में गुब्बारा बांध लो। ऐसा असंभव है।
संबोधि को उपलब्ध व्यक्ति में अहंकार रह ही नहीं सकता है। वह जो कुछ भी कहता हैं. चूँकि तब वह कोई भी बात दावे के साथ कहता है, तो उनके दावे के साथ कही हुई. बात तुम्हें अहंकार पूर्ण लग सकती है। जैसे कृष्ण गीता में अपने शिष्य अर्जुन से कहते हैं, 'सब कुछ छोड्कर मेरी शरण में आ जा। मैं ही हूं संसार को रचने वाला परमात्मा।’ इतना अहंकार से भरा हुआ वक्तव्य! क्या इससे बड़े और अहंकारी को खोजा जा सकता है? और जीसस कहते है : 'परमात्मा के राज्य में मेरे पिता और मैं हम दोनों एक ही हैं।’ वे कह रहे हैं, 'मैं हूं परमात्मा।’ बहुत ही अहंकार से भरा हुआ वक्तव्य है! मंसूर ने उदघोषणा की कि मैं सत्य हूं, मैं परम सत्य हूं — 'अनलहक।’ मुसलमान तो बहुत नाराज हो गए मंसूर से, उन्होंने मंसूर को मार ही डाला।, यहूदियों ने जीसस को सूली दे दी। इन लोगों के वचन हमें अहंकार से भरे हुए लगते हैं। उपनिषद कहते हैं, ' अहं ब्रह्मास्मि!' मैं ब्रह्म हूं। मैं पूर्ण हूं, समग्र हूं।
लेकिन ये वचन अहंकार से भरे हुए नहीं हैं, हमने उन्हें गलत समझा है। ये लोग जो कुछ कह रहे हैं वह सत्य है।
मैंने एक ऐसे आदमी के बारे में सुना है —जो अपनी हीनता की ग्रंथि से बहुत चिंतित और परेशान था, इसलिए वह एक एडलेरियन मनोविश्लेषक के पास गया। और मनोविश्लेषक .के पास जाकर उसने कहा, 'मैं अपनी हीनता की ग्रंथि से बहुत ज्यादा पीड़ित और परेशान हूं। क्या आप मेरी कुछ मदद कर सकते हैं?' मनोविश्लेषक ने उसकी ओर देखा और कहा, 'लेकिन तुम तो हीन हो ही। इसमें हीनता की ग्रंथि का सवाल ही कहां उठता है। तुम तो हीन हो ही, तो फिर मैं क्या तुम्हारी मदद कर सकता हूं?'
जब कृष्ण कहते हैं, 'मैं परमात्मा हूं,' तो वे परमात्मा ही हैं। इससे वे कोई अहंकारी नहीं कहलाने लगेंगे। इसमें वे क्या कर सकते हैं? अगर वे कहते हैं, 'मैं कुछ भी नहीं हूं, 'तो यह बात असत्य होगी। अगर वे कहते, जैसे कि तुम्हारे तथाकथित संत —महात्मा कहते हैं —कि मैं तो आपके चरणों की धूल हूं —तो वे असत्य होंगे, उनकी बात गलत होगी। तब तो वे तथ्य को छिपा रहे हैं। जब मंसूर कहता है, 'मैं सत्य हूं?' तो वह है।
लेकिन समस्या मंसूर, कृष्ण या जीसस के साथ नहीं है, समस्या तुम्हीं में है। तुम अहंकार की भाषा ही समझ सकते हो। तुम अपने ही ढंग से चीजों की व्याख्या किए जाते हो।
मैं तुम से एक कथा कहना चाहूंगा.
एक दुकानदार के पास बहुत ही सुंदर तोता था। वह तोता उस दुकानदार की हमेशा मदद करता था। वह दुकान पर आने वाले, ग्राहकों का दिल बहलाता, और दुकानदार की अनुपस्थिति में दुकान की देख —रेख भी करता था।
एक दिन जब वह दुकानदार किसी काम से बाहर गया हुआ था और तोता ऊपर बैठा हुआ दुकान की निगरानी कर रहा था, उसी समय दुकानदार की बिल्ली बिना किसी पूर्व सूचना के एक चूहे पर जाकर झपटी। वह तोता भय के मारे दुकान में इधर से उधर उड़ने लगा। और उसके उड़ने से बादाम के तेल का बर्तन गिर गया।
जब वह दुकानदार वापस लौटा और उसने यह सब दृश्य देखा तो आगबबूला हो गया। उसने क्रोध में एक छड़ी उठायी और तोते के सिर पर तब तक मारता गया, जब तक उसकी खोपड़ी के सारे पंख नहीं निकल गए।
बेचारा गंजा तोता एक कोने में जाकर चुपचाप बैठ गया। और कई दिन तक वह कुछ बोला नहीं। अब दुकानदार को अपने किए पर बहुत पश्चात्ताप हो रहा था। उसने अपने तोते साथी को मनाने की बहुत कोशिश की। इसके लिए उसने अपने ग्राहकों की भी मदद ली।
लेकिन उसकी सभी कोशिशें बेकार गईं, वह तोता नहीं बोला तो नहीं बोला।
एक दिन जब तोता रोज की तरह चुपचाप बैठा हुआ था, तो एक गंजा दरवेश दुकान में आया। तोता आकर काउंटर पर बैठ गया और बोला, 'अच्छा, तो आपने भी बादाम के तेल का बर्तन गिरा दिया था।’
तोता समझा कि वह दरवेश भी इसलिए गंजा हुआ है, क्योंकि उसने भी बादाम के तेल का बर्तन गिरा दिया होगा। अब वहा पर एक दरवेश आया, जो कि गंजा था, तो तत्‍क्षण उस तोते ने अपने अनुसार उसकी व्याख्या कर डाली।
हम वही भाषा समझ पाते हैं, जिसे हम ने अब तक जाना—समझा होता है।
संबुद्ध व्यक्ति में कहीं कोई अहंकार नहीं होता—न ही उसमें कोई विनम्रता भी होती है। विनम्रता तो परिष्कृत अहंकार ही है। जब अहंकार मिट जाता है, तो विनम्रता भी मिट जाती है।
संबुद्ध व्यक्ति जानता है कि वह कौन है, इसलिए उसे किसी प्रकार के झूठे व्यक्तित्व को ओढ़े रखने की कोई आवश्यकता नहीं होती। तुम्हें तो अहंकार पहले चाहिए होता है, वरना तो तुम कहीं किसी भीड़ में खो गए होते। तुम्हारा अहंकार के बिना जीना मुश्किल हो गया होता। जब तक व्यक्ति अज्ञानी रहता है, तब तक अहंकार की आवश्यकता होती है। लेकिन जब व्यक्ति संबुद्ध हो जाता है, बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता है, तब अहंकार अपने से ही गिर जाता है।
यह तो ऐसे ही है जैसे कोई अंधा आदमी अपनी लकड़ी के सहारे टटोल —टटोलकर चले, अंधा आदमी रास्ते पर पूछ—पूछकर चलता है। लेकिन जब उसकी आंखें ठीक हो जाएंगी तब वह लकड़ी के सहारे टटोल—टटोलकर चलेगा या नहीं? तब हम क्या कहेंगे? हम कहेंगे, 'जब आंखें ठीक हो जाती हैं तो लकड़ी का सहारा छोड़ दिया जाता है। फिर कौन लकड़ी पकड़ता है? और पकड़े भी क्यों? जब आंखें ठीक हों, तो कोई क्यों लकड़ी से टटोल—टटोलकर चलेगा?' लकड़ी का सहारा तो आंखों का विकल्प है—बहुत ही कमजोर विकल्प—लेकिन फिर भी जब आंखें न हों, अंधापन हो, तो लकड़ी के सहारे की आवश्यकता तो होती ही है।
अब थोड़ा इस प्रश्न को समझना 'क्या संबुद्ध होना और साथ ही संबोधि के प्रति चैतन्य होना संभव होता है? क्या संबुद्ध होने का विचार स्वयं में एक अहंकार उत्पन्न नहीं कर देता है?'
अगर अहंकार पहले से ही मौजूद हो तो फिर वह निर्मित कैसे हो सकता है—वह तो पहले से ही वहा पर विद्यमान है और संबोधि का विचार भी अहंकार के ही द्वारा निर्मित होता है। अगर अहंकार सच में मिट चुका हो और अहंकार के अंधकार में से जागरूकता, होश, बोध और आत्मा के प्रकाश का सूर्योदय हो जाए, तब फिर कुछ भी अहंकार का विचार निर्मित नहीं कर सकता, कोई भी चीज ऐसा नहीं कर सकती है। तब तुम अपनी भगवत्ता की उदघोषणा कर सकते हो, यहां तक कि तब स्वयं की भगवत्ता की घोषणा भी पुराने अहंकार के ढांचे का निर्माण नहीं करेगी—तब कुछ भी अहंकार को निर्मित नहीं कर सकता।
'क्या संबोधि के प्रति चैतन्य होना संभव है.?'
संबोधि चैतन्य स्वरूप ही है। तुम तो फिर से वही अपनी पुरानी भाषा का उपयोग कर रहे हो। मैं तुम्हारी बात को समझ सकता हूं पर इस तरह से पूछना गलत है। तुम चैतन्य के प्रति कैसे चैतन्य हो सकते हो? अन्यथा तो तुम अंतहीन चक्र के शिकार हो जाओगे। तब तो तुम अपने चैतन्य के प्रति चैतन्य के प्रति चैतन्यपूर्ण होते जाओगे, और इसका कोई अंत नहीं आने वाला है। फिर कहीं कोई अंत नहीं है पहला होश, तुम उसके प्रति होशपूर्ण होओगे, फिर दूसरा होश, तुम उसके प्रति होशपूर्णू होओगे, फिर तीसरा होश. और तुम इसी ढंग से चलते चले जा सकते हो। नहीं, ऐसा नहीं होता है; एक बार होश से भर जाना पर्याप्त होता है।
तो जब कोई व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होता है तो वह होशपूर्ण ही होता है, लेकिन फिर भी वह होश के प्रति होशपूर्ण नहीं होता है। वह बस पूर्णरूप से चैतन्यपूर्ण होता है, लेकिन उस चैतन्य के लिए किसी विषय—वस्तु की आवश्यकता नहीं होती। बस, वह तो चैतन्य —मात्र होता है, जैसे कि प्रकाश अपने आसपास के अंधकार को निरंतर प्रकाशित कर रहा हो। उसका कहीं कोई किसी विशेष विषय—वस्तु से संबंध नहीं होता है। फिर ऐसा नहीं होता है कि कुछ विशेष विषय —वस्तु ही उसके प्रकाश के द्वारा प्रकाशित हो सकेगी। वहां तो केवल शुद्ध चैतन्य की उपस्थिति होती है। विषय —वस्तु मिट जाती है, और आत्मा समग्र रूप से खिल जाती है। अब कहीं कोई विषय—वस्तु नहीं बच रहती है —और इसलिए कोई विषय भी नहीं बचता है। दृश्य और द्रष्टा दोनों ही मिट जाते हैं, केवल चैतन्य मात्र रह जाता है। किसी विशेष के प्रति चैतन्य नहीं शेष रह जाता है, बस चैतन्य मात्र रह जाता है। तुम चैतन्य हो ही।
मैं तुम्हें इसे अलग ही आयाम से समझाना चाहूंगा, जिसे समझना शायद कहीं ज्यादा आसान होगा। अगर तुमने कभी प्रेम किया होगा, तो तुम जानते होगे कि जब तुम प्रेम करते हो तब तुम प्रेमी नहीं होते. तुम प्रेम ही हो जाते हो। ऐसा नहीं कि इसके लिए तुम्हें कुछ करना पड़ता है। जब तुम कर्ता नहीं रह जाते हो, तो फिर कैसे— तुम स्वयं को प्रेमी कह सकते हो? सही मायने में तुम प्रेम ही हो जाते हो।
जब लोग मेरे पास आते हैं और मैं उनकी आंखों में छिपी हुई किसी बड़ी आशा को देखता हूं तो मैं उनसे ऐसा नहीं कहता हूं कि तुमसे बहुत आशा है। मैं कहता हूं 'तुम से ही एकमात्र आशा है।’ और थोड़ा समझना इस भेद को। जब कोई किसी से कहता है कि 'तुम से बड़ी आशाएं है।’ तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन अगर उससे कहो कि तुम से ही एकमात्र आशा है—तो इस बात का बड़ा मूल्य होता है, बड़ा महत्व होता है। जब तुम किसी से कहते हो, तुम से बड़ी आशा है, तो इसका मतलब होता है कि उस आदमी का उपयोग तुम अपनी किसी आकांक्षापूर्ति के लिए करना चाहते हो। जैसे कि एक पिता अपने बेटे से कहता है, 'तुम से बड़ी आशाएं हैं', तो उसका मतलब है कि मैं धनवान होना चाहता था, लेकिन मैं नहीं हो सका। तुम धनवान बन सकते हो—मुझे तुम से बड़ी आशाएं हैं।’ यह पिता की आकांक्षा है, वह समझ रहा है कि यह आकांक्षा बेटे के द्वारा पूरी हो सकती है।
जब मैं तुमसे कहता हूं कि तुमसे आशा है, तो मेरे पास ऐसी कोई आकांक्षा नहीं है जिसे मैं तुम्हारे द्वारा पूरी करना चाहता हूं। मैं तो बस कुछ कह देता हूं इसका मेरे साथ कोई लेना—देना नहीं है। मैं तो अपने आप में परितृप्त हूं। मैं किसी के माध्यम से किसी प्रकार की परितृप्ति पाने की कोई आकांक्षा नहीं कर रहा हूं। जब मैं कहता हूं, 'तुमसे आशा है,' तो मैं तुम्हारी एक वास्तविकता, एक संभावना के बारे में बता रहा हूं। मेरा ऐसा कहना तो केवल तुम्हारी क्षमता को, तुम्हारी संभावना को दर्शाता है।
और कभी तुमने खयाल किया। अगर तुम एक संगीतकार हो और तुम्हारे बेटे में संगीतकार बनने की कोई संभावना नहीं है, उसकी ऐसी प्रवृत्ति' ही नहीं है, उसकी ऐसी इच्छा ही नहीं है, उसमें ऐसी प्रतिभा ही नहीं है, तो तुम उससे किसी प्रकार की आशा नहीं कर सकोगे। वही बेटा किसी ऐसे बाप के लिए आशापूर्ण हो सकता है जो गणितज्ञ हो, लेकिन तुम्हारे लिए वह आशापूर्ण सिद्ध न होगा; वह इसके ठीक विपरीत होगा। जब तुम किसी से कोई आशा करते हो, तो उसमें तुम्हारी अपनी आकांक्षा जुड़ी होती है।
जब मैं कहता हूं कि 'तुम सै आशा है', तो मेरा मतलब होता है कि चाहे कोई सी भी दिशा हो, कोई सी भी दिशा तुम आगे बढ़ने के लिए चुन 'लो —तुम में विकसित होने की, खिलने की अदभुत क्षमता है।
जब तुम प्रेम में होते हो, तो तुम्हें ऐसा नहीं लगेगा कि तुम प्रेमी हो। उस समय यही प्रतीति होती है कि प्रेम ही हो। इसीलिए जीसस कहते हैं, परमात्मा प्रेम है। उन्हें कहना चाहिए था, 'परमात्मा बड़ा प्रेमपूर्ण है।’ उनकी भाषा ठीक नहीं है। आखिर इसका मतलब क्या है कि 'परमात्मा प्रेम है?' वे कह रहे हैं कि परमात्मा और प्रेम पर्यायवाची हैं। वस्तुत: उनका यह कहना कि 'परमात्मा प्रेम है', यह एक पुनरुक्ति ही है। ऐसा कहा जा सकता है कि वे कह रहे हैं, प्रेम प्रेम है, या परमात्मा परमात्मा है। प्रेम परमात्मा का गुणधर्म नहीं है परमात्मा का होना ही प्रेम है। परमात्मा प्रेममय नहीं है, परमात्मा प्रेम है। ऐसा ही तब होता है जब कोई व्यक्ति संबोधि को उपलब्ध हो जाता है। वह अपनी संबोधि के प्रति होशपूर्ण नहीं होता है, वह तो बस होश ही होता है। वह चैतन्य में ही जीता है, वह चैतन्य में ही सोता है, वह चैतन्य में ही उठता —बैठता है। वह चैतन्य में ही जीता है, वह चैतन्य में ही मरता है। चैतन्य स्वरूप होना उसके लिए एक शाश्वत स्रोत बन जाता है। उसके जीवन में चैतन्य अवस्था उसके अस्तित्व की न डगमगाने वाली लौ के समान होती है। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि यह अवस्था एक थिर अवस्था बन जाती है। यह व्यक्ति कार गुण नहीं होता है, यह कोई सांयोगिक बात नहीं है। लेकिन जब व्यक्ति चैतन्य अवस्था को उपलब्ध हो जाता है, तो इसे छीना नहीं जा सकता है। उसका संपूर्ण अस्तित्व ही चैतन्यमय हो जाता है।
 दूसरा प्रश्न:
मैं अक्सर दो मन में रहता हूं— सूर्य और चंद्र मन में। कृपया कुछ कहें।
न अक्सर ही दो भागों में विभाजित रहता है, इसी भांति तो मन कार्य करता है। पहले तो तुम्हें मन की पूरी प्रक्रिया को समझना होगा कि व)ह किस भांति कार्य करता है।
मन की आदत चीजों को तोड्ने की, विभाजन करने की होती है। अगर विभाजन करना छोड़ दो तो मन मिट जाता है। मन को विभाजन चाहिए होता है। मन हमेशा विपरीत अवस्थाओं को निर्मित करता है। मन कहता है मैं तुम्हें पसंद करता हूं मैं तुम्हें पसंद नहीं करता। मैं तुमसे प्रेम करता हूं, मैं तुमसे घृणा करता हूं। मन कहता है. यह सुंदर है, वह असुंदर है। मन कहता है: यह करना, वह मत करना। मन हमेशा चुनाव के सहारे ही जीता है। इसीलिए कृष्णमूर्ति का, जोर इस बात पर है कि अगर तुम चुनाव करना छोड़ दो, तो तुम अ—मन को उपलब्ध हो सकते हो। चुनाव रहित होने का अर्थ है कि संसार को बाटना छोड़ देना, विभक्त करना छोड़ देना।
थोड़ा सोचो। अगर मनुष्य इस पृथ्वी पर न रहे, तो क्या फिर सौंदर्य जैसा कुछ रह जाएगा? फिर क्या कुछ असुंदर और कुरूप रहेगा? फिर क्या. कुछ अच्छा और बुरा होगा?
मनुष्य—जाति के बिदा होते ही सारे भेद विलीन हो जाएंगे। संसार तो वैसे का वैसा ही रहेगा। फूल खिलते रहेंगे, तारे चलते रहेंगे, सूर्य निकलेगा, अस्त होगा —सभी कुछ उसी तरह चलता रहेगा। लेकिन मनुष्य के जाते ही भेद और विभाजन भी चला जाएगा। मनुष्य ही इस जगत में विभाजन को लाया है।’मनुष्य' का अर्थ है 'मन'।
बाइबिल में एक कथा है, उस पूरी कथा का अर्थ ही कुछ इसी तरह से है। परमात्मा ने अदम से कहा कि ज्ञान के वृक्ष का फल न चखना। अच्छा हो कि ज्ञान के वृक्ष को हम मन का वृक्ष कहें। तब पूरी कथा झेन कथा हो जाएगी। और इसका अर्थ भी यही है। ज्ञान का वृक्ष मन का वृक्ष है; वरना परमात्मा क्यों चाहेगा कि उसके बच्चे अज्ञानी रहें? नहीं, परमात्मा चाहता था कि आदमी बिना मन के जीए। परमात्मा चाहता था कि मनुष्य बिना किसी विभाजन के एक समस्वरता में, एक सुसंगतता में जीए। बाइबिल की कथा का यही अर्थ है। अगर किसी झेन गुरु को इस पर कुछ कहना हो, या मुझे इस पर कुछ कहना हो; तो मैं यही कहूंगा कि इसे मन का वृक्ष कहना ही ज्यादा अच्छा है। तब पूरी बात एकदम साफ हो जाती है।
परमात्मा यही चाहता था कि अदम बिना मन के अ—मन होकर जीए। जीवन को जीना, लेकिन जीवन को उसकी पूर्णता में, बिना विभक्त किए जीना; तब जीवन की गहराई अदभुत होती है। विभाजन व्यक्ति को भी विभक्त कर देता है।
क्या तुमने कभी इस पर ध्यान दिया है? जब कभी भी तुम विभाजन खड़े करते हो, तुम भीतर से सिकुड़ जाते हो, तुम में भी कुछ टूट जाता है। जिस क्षण तुम कहते हो, 'मैं उसे पसंद करता हूं 'तो तुरंत हाथ उस व्यक्ति की तरफ फैल जाता है। जिस क्षण तुम कहते हो, 'मैं उसे पसंद नहीं करता,' तो हाथ पीछे हो जाता है। तब तुम जीवन के प्रति समग्ररूपेण खुले नहीं होते हो। परमात्मा चाहता था कि अदम पूर्ण रहे, टोटल रहे।
और बाइबिल की कथा यही कहती है कि जब तक व्यक्ति अपने ज्ञान को छोड़ नहीं देगा, तब तक वह परमात्मा के बगीचे में वापस नहीं आ सकता। जीसस ने अपने ज्ञान को छोड़ दिया था। इसीलिए तो जीसस असंगत मालूम होते हैं, विरोधाभासी मालूम होते हैं। जो कुछ अदम ने परमात्मा के विपरीत किया था, जीसस ने उसे मिटा दिया, उसे जीसस ने मनुष्य जाति— की चेतना से पोंछ दिया, हटा दिया। अदम परमात्मा के बगीचे से बाहर आ गया, जीसस फिर से परमात्मा के बगीचे में प्रविष्ट हुए। जीसस फिर से कैसे प्रविष्ट हो गए? मन की विभाजन करने की प्रक्रिया को मिटाकर, वे फिर से परमात्मा के बगीचे में प्रविष्ट हो गए।
मन हमेशा विभाजन की प्रक्रिया के माध्यम से ही कार्य करता है। बस, मन की इस विभाजन की आदत को गिरा देना। जब किसी फूल को देखो तो मत कहना कि फूल सुंदर है। ऐसा कहने की कोई आवश्यकता भी नहीं है। तुम्हारे बिना कहे भी वह तो सुंदर रहेगा ही। ऐसा कहकर तुम कोई फूल को और अधिक सुंदर तो बना नहीं दोगे। तो फिर कहने में सार भी क्या है?
लाओत्सु के विषय में एक छोटी सी कथा है। वह रोज सुबह सैर के लिए जाया करता था। जब लाओत्सु जाता था, तो एक पड़ोसी भी उसके पीछे —पीछे हो लिया करता था। वह पड़ोसी इस बात को जानता था कि लाओत्सु बात करना पसंद नहीं करता, वह स्वयं तो सदा चुप ही रहता था। लेकिन एक बार उस पड़ोसी के यहां उसका एक मित्र आया हुआ था, और वह भी सुबह की सैर के लिए साथ आना चाहता था। तो उसका मित्र भी उसके साथ सैर के लिए आया।
लाओत्सु और लाओत्सु का पड़ोसी तो चुपचाप ही चलते रहे। लेकिन उस मित्र को चुपचाप चलने में थोड़ी अड़चन महसूस हो रही थी, लेकिन फिर भी वह किसी तरह चुप ही रहा, क्योंकि उसके मित्र ने उससे कहा था कि एकदम चुप रहना। जब वे सैर के लिए जा रहे थे, उस समय सूर्योदय हो रहा था और बहुत ही सुंदर सुबह थी। वह मित्र यह सब देखकर चुप रहना भूल गया और बोला, वाह, कितनी सुंदर सुबह है। केवल उसने इतना ही कहा। दोनों में से किसी ने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया—न तो उसका मित्र कुछ बोला और न ही लाओत्सु ने कुछ कहा।
घर वापस आकर लाओत्सु ने अपने पड़ोसी से कहा, 'इस आदमी को फिर से कभी अपने साथ, मत लाना। यह बहुत ही बातूनी आदमी है।’
बहुत ही बातूनी?
लाओत्सु का पड़ोसी बोला, 'उसने कुछ विशेष तो कहा नहीं था, उसने तो केवल इतना ही कहा था कि कितनी सुंदर सुबह है।’
लाओत्सु ने कहा, 'मैं भी तो वहीं पर था, फिर ऐसा कहने की क्या आवश्यकता थी? और सुबह तो बिना कहे भी सुंदर ही रहती। मन को बीच में लाने की जरूरत ही क्या थी? नहीं, यह आदमी बहुत ज्यादा बातूनी है, आगे से उसे साथ मत लाना।’
'उसने सुबह का पूरा मजा ही खराब कर दिया। उसने जगत का विभाजन कर दिया। उसने कहा कि सूर्योदय सुंदर है। जब हम कभी किसी चीज को सुंदर कहते हैं, तो उसके साथ ही किसी अन्य चीज की निंदा हो ही जाती है, क्योंकि कुरूप के बिना सुंदर का अस्तित्व ही नहीं हो सकता। जिस क्षण किसी चीज को सुंदर कहा, उसी क्षण यह भी कह दिया कि कुछ कुरूप है। जिस क्षण तुम कहते हो कि मैं तुमसे प्रेम करता हूं, तो तुमने साथ ही यह भी कह दिया कि तुम्हें किसी दूसरे से घृणा भी है।
अगर व्यक्ति अखंड रूप से बिना विभाजन किए, एक होकर जीता है.. बस फूल को देखना। वह जैसा भी है उसे वैसा ही रहने देना। उसे उसके स्वरूप में ही रहने देना, कुछ भी कहना मत। बस, उसे देखना। केवल बाहर से बोलकर ही कुछ नहीं कहना है, बल्कि भीतर भी कुछ नहीं कहना है।
फूल के लिए किसी भी प्रकार की मन में कोई धारणा मत बनाना। बस, फूल जैसा है उसे उसी भांति रहने देना, और तब तुम एक' बड़े बोध को उपलब्ध हो जाओगे।
जब तुम्हें उदासी का अनुभव हो, तो उसे उदासी मत कहना। मैंने इस ध्यान की प्रक्रिया को बहुत लोगों को दिया है, और वे चकित हुए हैं। मैं उनसे कहता हूं, 'अगली बार जब तुम्हें उदासी पकड़े, तो उसे उदासी मत कहना। बस उसे देखते रहना।’ तुम्हारा उसे उदास कहना ही उसे उदासी बना देता है। जो कुछ भी वह है, बस उसे देखना। मन को बीच में मत लाना, किसी तरह का कोई विश्लेषण मत करना, उस पर किसी प्रकार का कोई लेबल मत चिपकाना।
मन हर चीज को विभक्त कर देता है। मन बड़ा विभाजन कर्ता है, और वह निरंतर चीजों पर लेबल लगाता रहता है, उन्हें कोटियों में, श्रेणियों में बांटता रहता है। चीजों को कोटिबद्ध मत करना। सत्य को स्वयं ही अस्तित्व में आने देना, सत्य जैसा है उसको वैसा ही रहने देना, और तुम केवल साक्षी रहना। फिर एक दिन तुम कह सकोगे, ' अब समझ में आया कि उदासी कोई उदासी नहीं है, और प्रसन्नता कोई प्रसन्नता नहीं है, जैसा कि हम पहले समझा करते थे।’
जब हम चीजों को बांटना, उन्हें विभक्त करना छोड़ देते हैं, तो धीरे — धीरे सीमाएं आपस में विलीन हो जाती हैं, मिट जाती हैं, और एक दूसरे में समाहित हो जाती हैं। और तब तुम यह जान सकोगे कि वह एक ही ऊर्जा है —चाहे वह प्रसन्नता हो या उदासी—वें दोनों एक ही हैं। तुम्हारी व्याख्याएं ही उसमें विभेद खड़ा कर देती हैं, ऊर्जा तो एक ही है। आनंद व पीड़ा दोनों एक ही हैं, तुम्हारी व्याख्या उन्हें दो बना देती है। संसार और परमात्मा एक ही हैं, तुम्हारी अपनी व्याख्या उन्हें दो बना देती है।
अपनी व्याख्याओं को गिरा देना, और सत्य को सीधा देखना। कोई भी बात बिना व्याख्या के सत्य है, और व्याख्या के साथ वह भ्रामक हो जाती है।
प्रश्न है 'मैं अक्सर दो मन में रहता हूं।’
मन तो हमेशा ही दो मन में जीता है। इसी ढंग से मन कार्य करता है, इसी ढंग से मन फलता—फूलता और जीता है।
'सूर्य और चंद्र।’
इन्हें भी ठीक से समझ लेना। क्योंकि प्रत्येक पुरुष स्त्री भी है और प्रत्येक, स्त्री पुरुष भी है। तो इसकी पूरी संभावना है कि तुम भीतर से बंटे हुए, विभक्त भी रह सकते हो —पुरुष स्त्री से अलग होता है, भीतर की स्त्री भीतर के पुरुष से अलग होती है। तब तो वहां हमेशा ही संघर्ष बना रहेगा, एक प्रकार की खींचतान ही चलती रहेगी। यह मनुष्य—जाति की सामान्य अवस्था है। अगर भीतर के पुरुष और स्त्री गहन आलिंगन में लीन हो जाएं, एक —दूसरे में मिल जाएं; तो पहली बार तुम एक हो सकोगे—न तो पुरुष होगा और न ही स्त्री होगी। तुम दोनों का अतिक्रमण कर जाओगे, दोनों के पार हो जाओगे।
मैं तुम से एक कथा कहना चाहूंगा, जो कि बहुत ही निर्भीक और साहसी कथाओं में से एक कथा है। ऐसी साहसिक कथा केवल भारत में ही संभव हो सकती है। वर्तमान के भारत में नहीं, क्योंकि वर्तमान का भारत तो बहुत ही कायर और भीरु हो गया है।
तुमने भारत में शिवलिंग अवश्य ही देखा होगा। भारत में ऐसे सैकड़ों मंदिर हैं जहां शिवलिंग की पूजा होती है। सच तो यह है, शिव की प्रतिमा तो तुम्हें कहीं देखने को मिलेगी ही नहीं। शिव की प्रतिमाएं तो हैं ही नहीं, केवल उनका प्रतीक ही बचा हुआ है। प्रतीक केवल लिंग के रूप में ही नहीं है, वहां पर योनि भी है। उसमें दोनों हैं —पुरुष भी और स्त्री भी। वहां पुरुष स्त्री में विलीन हो रहा है, वहां सूर्य चंद्रमा में विलीन हो रहा है। यह पुरुष और स्त्री के मिलन का प्रतीक है। उसमें यिन और यांग एक दूसरे के गहन प्रेम में आलिंगनबद्ध हैं। यह एक संकेत सूत्र है कि भीतर के स्त्री और पुरुष कैसे एक दूसरे से मिलते हैं, क्योंकि भीतर के स्त्री —पुरुष का कोई चेहरा नहीं होता। इसी कारण भारत में शिव की प्रतिमाएं लुप्त हो गईं। अंत: अस्तित्व तो मात्र ऊर्जा है, इसीलिए लिंग का कोई रूप या आकार नहीं होता है, वह मात्र ऊर्जा है।
लेकिन कथा कहती है कि. इससे घबरा मत जाना, क्योंकि पश्चिमी मन वास्तविकता से, सच्चाई से बहुत अधिक भयभीत है कथा कहती है कि शिव अपनी देवी के साथ गहन प्रेम में लीन थे। और निस्संदेह जब शिव अपनी पत्नी के साथ प्रेम करते हैं, तो वह कोई साधाराग प्रेम नहीं होता। और वे द्वार—दरवाजे बंद करके प्रेम नहीं करते, द्वार —दरवाजे भी खुले थे।
उस समय देवताओं के जगत में कोई आपातकालीन परिस्थिति आ गयी थी। इसलिए ब्रह्मा और विष्णु और बहुत से देवताओं की भीड़ शिव के पास आई कि वे उनकी इस आपातकालीन समस्या को सुलझा दें। तो वे सब शिव के पास पहुंचे—शिव का एकांत तो समाप्त हौ गया, और वहां एक बाजार बन गया—लेकिन शिव प्रेम में इतने गहन रूप से डूबे हुए थे कि उन्हें कुछ ध्यान ही न रहा कि उनके चारों तरफ खड़ी भीड़ उन्हें देख रही है।
सारे देवता तो शिव को प्रेम करते हुए देखने में ही मग्न हो गए। वे वहां से हट भी नहीं सकते थे, क्योंकि कुछ अभूतपूर्व वहां पर घट रहा था। कुछ अदभुत घुटना घट रही थी। उन दोनों के प्रेम की गहराई में ऊर्जा अपने परम शिखर पर थी, देवताओं की भीड़ भी उस ऊर्जा को अनुभव कर रही थी। तो वे देवता वहां से जाना भी नहीं चाहते थे। और साथ वे उन्हें विध्‍न भी नहीं पहुंचाना चाहते थे, क्योंकि उनकी प्रेम में तल्लीनता, वह पूरा का पूरा कृत्य पवित्र और दिव्य था।
और शिव प्रेम में गहरे और गहरे डूबते ही चले गए। देवताओं को तो चिंता सताने लगी कि यह कभी समाप्त भी होगा या नहीं। और वे एक ऐसी समस्या से घिरे हुए थे कि उन्हें तुरंत समाधान की जरूरत थी। लेकिन शिव तो प्रेम में बिलकुल खोए हुए थे। वे और देवी तो' जैसे वहां थे ही नहीं—पुरुष और स्त्री पूर्ण रूप से आपस में विलीन हो गए थे। प्रेम में वे दोनों एक हो गए थे, उनकी ऊर्जाएं एक दूसरे में विलीन हो गई थीं, उनकी ऊर्जा एक ही लय में, एक ही स्वर में धड़क रही थीं। वे देवता वहीं पर रुक जाना चाहते थे, लेकिन साथ ही वे दूसरे देवताओं से भयभीत भी हो रहे थे। ऐसे ही तार्किक मन काम करता है। उन्हें शिव और पार्वती को प्रेम में तल्लीन और डूबा हुआ देखने में बहुत मजा आ रहा था, लेकिन साथ ही वे भयभीत भी थे। साथ ही क्योंकि अगर दूसरे लोग उन्हें इस तरह से देखते हुए और उसका मजा लेते हुए देख लेते, तो उनके सम्मान को, उनकी प्रतिष्ठा को बडा धक्का पहुंचता। इसलिए उन्होंने शिव को अभिशाप्त दिया कि. 'आज से तुम्हारी रूपाकृति संसार से लुप्त हो जाएगी और तुम्हें सदा लिंग के प्रतीक के रूप में ही स्मरण किया जाएगा'—योनी में लिंग, चंद्र में सूरज, कमल में रत्न।’ अब तुम्हें लिंग के रूप में ही स्मरण किया जाएगा।’ यही उन देवताओं का अभिशाप था।
ऐसा सदा से होता आया है। मेरे एक मित्र हैं, जो अश्लील साहित्य के बड़े विरोधी हैं, और उनकी पूरी लाइब्रेरी अश्लील पुस्तकों से भरी पड़ी है —एक बार मैं उनके यहां गया था, मैंने उनसे पूछा, 'यह सब क्या है?' वे बोले, 'मुझे यह सब अश्लील पुस्तकें उनकी आलोचना करने के लिए पढ़नी पड़ती हैं। मुझे इस बात के प्रति हमेशा सचेत रहना पड़ता है कि अश्लील साहित्य के जगत में क्या —क्या हो रहा है? क्योंकि मैं अश्लील साहित्य के एकदम खिलाफ हूं।’ वे हैं कुछ और बताते कुछ और हैं —उनकी कथनी और करनी में बड़ा अंतर है।
दूसरे सभी देवताओं ने शिव को अभिशाप दे दिया था, लेकिन मेरे देखे वह अभिशाप वरदान बन गया, क्योंकि प्रतीक तो सच में ही बड़ा सुंदर है। वह संसार भर में एकमात्र ऐसा प्रतीक है, जिसकी बिना किसी निंदा भाव के ईश्वर की तरह पूज्य? की जाती है। हिंदू तो भूल ही गए हैं कि वह लिंग का प्रतीक .है, हिंदू तो भूल ही गए हैं कि वह लिंग है। उन्होंने उसे पूरी तरह से स्वीकार कर लिया है। और यह प्रतीक बहुत ही सुंदर है, क्योंकि वहा केवल शिव ही नहीं हैं, वहां स्त्री की योनि भी है—यिन भी है वहां। लिंग योनि में समाहित है, दोनों मिल रहे है। यह प्रतीक मिलन का प्रतीक है, ऊर्जाओं के एक होने का प्रतीक है।
ऐसा ही हमारे भीतर भी घटित होता है, लेकिन यह केवल तभी घटित होता है जब मन पूरी तरह से गिर जाता है। प्रेम केवल तभी संभव है जब मन बीच में से हट जाए। लेकिन अगर मन बीच में से हट जाए, तो केवल प्रेम ही नहीं बल्कि परमात्मा भी संभव है, क्योंकि प्रेम ही परमात्मा है।
अगर सूर्य और चंद्र के बीच कोई आंतरिक द्वंद्व बना रहता है तो व्यक्ति की रुचि हमेशा बाहर की स्त्री में बनी रहेगी। अगर तुम पुरुष हो, तो तुम्हारा आकर्षण बाहर की स्त्री में बना ही रहेगा। तुम बाहर की स्त्री से आकर्षित होते ही रहोगे। अगर तुम स्त्री हो, तो तुम बाहर के पुरुष से आकर्षित होते रहोगे। जब भीतर का द्वंद्व शांत हो जाता है, और सूर्य —ऊर्जा चंद्र— ऊर्जा में प्रवाहित होने लगती है और भीतर कहीं कोई द्वंद्व, कोई छोटी सी दरार, कोई लकीर भी नहीं रह जाती है; तो उन दोनों ऊर्जाओं के बीच सेतु निर्मित हो जाता है। तब तुम बाहर की स्त्री या बाहर कै पुरुष के प्रति आकर्षित न हो सकोगे। पहली बार तुम काम के प्रति, सेक्स के प्रति संतुष्ट हो सकोगे।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तब तुम बाहर की स्त्री का त्याग ही कर दोगे। इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है। या तुम बाहर के पुरुष का त्याग ही कर दोगे। नहीं, इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन अब पूरा का पूरा संबंध ही बदल जाएगा—अब उसमें एक समस्वरता और तालमेल होगा। अब वह संबंध शारीरिक पूर्ति का न रह जाएगा, बल्कि अब वह संबंध बांटने का, एक दूसरे के साथ सहभागी होने का होगा। अभी तो जब पुरुष स्त्री से प्रेम का निवेदन करता है तो वह उसकी शारीरिक आवश्यकता ही होती है। वह स्त्री का उपयोग किसी साधन की भांति करना चाहती है। स्त्री पुरुष का उपयोग साधन की भांति करना चाहती है। इसीलिए तो सभी स्त्रियां और सभी पुरुष सतत संघर्ष में, सतत कलह में जी रहे हैं; और अगर इस बात की गहराई में जाकर देखा जाए तो वे अपने भीतर ही संघर्षरत हैं। भीतर का संघर्ष ही बाहर प्रतिबिंबित होता है।
और जब तुम स्त्री का उपयोग कर रहे होते हो, तो कैसे तुम सोच सकते हो कि वह स्त्री तुम्हारे साथ आराम से, सुख—चैन—शांति से और सहजता से रह सकती है? कैसे उसकी हृदय की धड़कन तुम्हारी धड़कन के साथ एक हो सकती है? स्त्री को लगता है वह तो भोग का साधन मात्र है। और फिर चाहे पुरुष हो या स्त्री, कोई भी साधन नहीं बनना चाहता है। स्त्री को लगता है कि उसका उपयोग किसी वस्तु की तरह किया जा रहा है, उसे वस्तुओं की कैटेगरी में ले आया गया है। उसे लगता है जैसे उसके पास तो कोई आत्मा है नहीं, वह तो बस एक भोग—विलास का साधन मात्र है, इसीलिए वह क्रोधित रहती है। और स्त्री भी पुरुष को वस्तु की कैटेगरी में ले आती है। वह पति को अपने वश में रखने की कोशिश करती है, और उसे अपनी इच्छा के अनुसार चलाने की कोशिश करती है। और बस यह खेल चलता चला जाता है।
यह जो पति —पत्नी के बीच का संबंध है, इसमें प्रेम कम कलह अधिक होती है—एक सतत कलह और संघर्ष चलता रहता है। पति—पत्नी के बीच प्रेम की अपेक्षा लड़ाई —झगडा अधिक होता है। प्रेम की अपेक्षा घृणा अधिक होती है।
जब व्यक्ति अपने भीतर की स्त्री और भीतर के पुरुष के साथ एक हो जाता है, तब दूसरे के अंतस स्वर के साथ उसके स्वर भी जुड़ जाते हैं। तब भीतर और बाहर का संघर्ष समाप्त हो जाता है। बाहर की अवस्था तो बस भीतर की अवस्था की छाया मात्र है। उसके बाद अगर वह किसी के साथ संबंधित होना चाहे तो हो सकता है, और अगर नहीं होना चाहे तो नहीं हो सकता है। तब व्यक्ति पूरी तरह से स्वतंत्र होता है। फिर जो भी वह चुनना चाहे, चुन सकता है। अगर संबंधित होना चाहे, तो संबंधित हो सकता है, लेकिन फिर उसमें कहीं किसी प्रकार का कोई द्वंद्व नहीं होता है। और अगर वह अकेले ही रहना चाहता है, किसी से संबंध नहीं बनाना चाहता है, तो वह अकेले रह सकता है। उस अकेलेपन में कहीं कोई अकेलापन नहीं होता। यही तो वह अप्रतिम सौंदर्य होता है जब व्यक्ति भीतर से एक हो जाता है, भीतर से आर्गेनिक यूनिटी को उपलब्ध हो जाता है।
पतंजलि का पूरा का पूरा प्रयास इसी बात के लिए है कि सूर्य —ऊर्जा चंद्र—ऊर्जा में कैसे रूपांतरित हो जाए। और उसके पश्चात व्यक्ति उन दोनों ऊर्जाओं के प्रति साक्षी कैसे हो जाए। और जो ऊर्जाएं आपस में मिल रही हैं, एक दूसरे में विलीन हो रही हैं, अंत में उनका भी अतिक्रमण कैसे हो जाए।
मन ऐसा कभी न होने देगा, जब तक कि मन को छोड़ ही न दो। मन हमेशा बंटा—बंटा, विभाजित रहता है, क्योंकि यही मन का सच्चा स्वभाव है, विभाजन के आधार पर ही मन जिंदा रहता है। तो पुरुष हो या स्त्री हो—यह विभाजन है, और यही है मन। बुद्ध कौन हैं—पुरुष हैं या स्त्री हैं? शिव का एक और रूप—अर्द्धनारीश्वर की प्रतिमा के रूप में—हमारे पास एक प्रतीक के रूप में है—आधा पुरुष, आधी स्त्री। वह प्रतीक पूर्ण है। और यह ठीक भी है, क्योंकि हमारा जन्म माता और पिता के सम्मिलन से होता है —हमारे भीतर आधा अंश हमारे पिता का है, और आधा अंश हमारी मां का है। तो स्त्री और पुरुष में बाहर से ही भेद होता है, उनकी गुणवत्ता में कोई भेद नहीं होता। स्त्री चेतन रूप से स्त्री होती है, और अचेतन रूप से पुरुष होती है। पुरुष चेतन रूप से पुरुष होता है, अचेतन रूप से स्त्री होता है। बस, स्त्री—पुरुष के बीच का भेद इतना ही है।
चूंकि हमारा मन पुरुष या स्त्री होने के लिए संस्कारित हो चुका है, और समाज में पुरुष और स्त्री की भूमिकाओं पर बड़ा जोर है, इसलिए बड़ी कठिनाई खडी हो जाती है। समाज व्यक्ति को सहज जीवन नहीं जीने देता, वह व्यक्ति को एकदम कठोर बना देता है। लड़का और लड़की जैसे ही थोड़े बड़े होते हैं और जब वे समझदार होने लगते हैं तो माता—पिता उन्हें कहने लगते हैं, 'तुम लड़के हो, गुड़िया से मत खेलो। लड़कों के लिए गुड़ियों से खेलना अच्छी नहीं। तुम्हें तो बड़े होकर मर्द बनना है। यह खेल तो लड़कियों के लिए हैं।’ और पुरुष लड़कियों को तो कुछ समझते ही नहीं हैं।’ और तो जैसी, लड़कियों जैसी बातें मत करो, मर्द बनो।’ और एक छोटा बच्चा, जिसे कुछ समझ तो होती नहीं, मर्द बनने की कोशिश करता रहता है। और धीरे — धीरे इस तरह वह बच्चा अपने स्वभाव से, अपनी प्रकृति से दूर होता चला जाता है। वह मर्द तो बन जाता है, लेकिन वह उसके अस्तित्व का आधा हिस्सा ही होता है। और लड़की स्त्री बन जाती है, जो उसके अस्तित्व का आधा हिस्सा ही होती है। लड़की से कहा जाता है कि वृक्षों पर मत चढ़ो, वृक्ष पर तो केवल लडके ही चढ़ते हैं। कैसी नासमझी है। वृक्ष तो सब के लिए होते हैं। नदी में तैरने मत जाओ, तैरना तो लड़कों का काम है। जब कि नदी तो सब के लिए है—स्त्री—पुरुष सबके लिए है।
इसी तरह से मनुष्य—जाति एक ढांचे में व्यवस्मित होती चली गयी।. समाज के द्वारा लड़की को एक 'निश्चित प्रकार की भूमिका दे दी जाती है और लड़के को भी एक निश्चित प्रकार की भूमिका दे दी जाती है। इस ढांचे में उनकी अपनी प्रकृति, अपना स्वभाव बिलकुल नष्ट ही हो जाता है। वे निश्चित सीमाओं में ही बंधकर रह जाते हैं। पूरे आकाS,ा को देखने की उनकी क्षमता नष्ट हो जाती है; छोटी—छोटी सीमाएं और झरोखे ही उनके लिए सब कुछ हो जाते हैं।
पुरुष और स्त्री को समाज के द्वारा एक तरह का ढाचा दे दिया गया है —वह तुम्हारा वास्तविक स्वरूप नहीं है। उस ढांचे के साथ तादात्म्य मत बना लेना। उस ढांचे से मुक्त हो जाना। जब व्यक्ति इस सामाजिक ढांचे की पकड़ से मुक्त होने लगता है, समाज के बंधनों से जब वह मुक्त लगता है, और सामाजिक उपेक्षा और अस्वीकृति को आत्मसात कर लेता है, तो वह अविश्वसनीय, अकल्पनीय रूप से, समृद्ध हो जाता है। तब उसका होना पूर्ण हो जाता है।
और जब मैं कहता हूं कि तुम धार्मिक हो जाओ तो मेरा अभिप्राय भी यही है। धार्मिक होने से मेरा मतलब यह नहीं है कि तुम कैथोलिक पादरी हो जाओ, या बौद्ध भिक्षु हो जाओ, या जैन मुनि हो जाओ। वे सब तो मूढ़ताएं हैं। मैं तो चाहता हूं कि तुम संपूर्ण अर्थों में धार्मिक हो जाओ। तुम समग्र हो जाओ, पूर्ण हो जाओ। जो भी समाज के द्वारा निंदित किया गया है उसे फिर से ग्रहण कर लो, उसे फिर से प्राप्त कर लेने से डरो नहीं, भयभीत मत होओ। अगर तुम पुरुष हो, तो कभी भी स्त्री—स्वरूप से मत घबराओ।
अगर कभी कोई मर जाता है, तो तुम पुरुष होने के कारण रो नहीं सकते हो। क्योंकि आंसू तो केवल स्त्रियों के लिए ही होते हैं। आंसू—आंसुओ में कितना सौंदर्य होता है—और समाज में पुरुषों के लिए रोना मना है। तो फिर पुरुष धीरे— धीरे कठोर होता चला जाता है, हिंसा से भर जाता है, तनाव से भर जाता है। और तब अगर अडोल्फ हिटलर जैसे लोग पैदा हो जाएं तो कोई भी आश्चर्य नहीं। जिस पुरुष की आख के आंसू खो जाएं, आंसू सूख जाएं, वह एक न एक दिन अडोल्फ हिटलर बन
ही जाएगा। जिस पुरुष को आख के आंसू खो गए हों, वह चंगेज खान बन ही जाएगा। तब उसमें सहानुभूति नाम की कोई चीज न बचेगी। तब वह इतना अधिक कठोर हो जाएगा कि उसमें इस बात की अनुभूति ही न बचेगी कि वह लोगों के प्रति कैसा व्यवहार कर रहा है। हिटलर ने लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया, और उसके हृदय में दुख की एक छोटी सी लहर तक न उठी। वह सच में एक पुरुष था, उसके भीतर की स्त्री तो पूरी तरह मिट ही चुकी थी—करुणा, प्रेम, यह सब तो गायब हो गए थे। उसकी आख के आंसू खो चुके थे।
मैं तो चाहूंगा कि पुरुषों को भी स्त्रियों की भांति रो लेना चाहिए। क्योंकि आंसू हृदय को कोमल बना जाते हैं। वे आंसू तुम्हारे हृदय को ज्यादा तरल और सरल बना देते हैं। वे तुम्हारी चौखटों के ढांचों को पिघला देते हैं, और वे आंसू भीतर विराट आकाश उपलब्ध करा देते हैं।
स्त्रियों से सरदार गुरदयाल की भांति ठहाकों वाली हंसी हंसने की भी आशा नहीं की जाती है —किसी स्त्री को जोर से हंसने की अनुमति नहीं है। जोर से हंसना स्त्री की गरिमा के खिलाफ माना जाता है। यह कैसी नासमझी है! अगर व्यक्ति को हंसने की भी स्वतंत्रता नहीं है, और वह अपनी अतल गहराई के साथ हंस भी नहीं सकता है, तो वह बहुत कुछ चूक जाएगा। हंसी ठीक पेट से आनी चाहिए। हंसी को इतना तीव्र होना चाहिए कि उसके साथ पूरा शरीर हिल जाए। हंसी मस्तिष्क से नहीं आनी चाहिए। लेकिन स्त्रियां तो बस मुस्कुरा देती हैं, वे हंसती ही नहीं हैं। जोर की ठहाकेदार हंसी स्त्री की गरिमा के अनुरूप नहीं मानी जाती है। इसीलिए स्त्रियां रुग्ण जीवन जीने लगती हैं। धीरे — धीरे उनका जीवन बनावटी और कृत्रिम हो जाता है; उनका जीवन सच्चा, वास्तविक और प्रामाणिक नहीं रह जाता है।
सज्जन बनने की कोशिश मत करो। पूरी तरह से धार्मिक और समग्र हो जाओ। और समग्रता में सभी कुछ समाहित हो जाता है। और समग्रता में परमात्मा भी शामिल है और शैतान भी, समग्रता में दोनों ही समाविष्ट हो जाते हैं। समग्रता में कोई भेद, कोई विभाजन नहीं रह जाता है, और तब मन गिर जाता है। समग्र मनुष्य में मन नहीं रह जाता है र मन विलीन हो जाता है।
अगर कोई आदमी कैथोलिक बना रहे, तो वह धार्मिक नहीं —क्योंकि उसका मन तो कैथोलिक ही बना रहेगा। अगर कोई आदमी हिंदू ही बना रहे, तो वह धार्मिक नहीं—क्योंकि उसका मन हिंदू ही बना रहेगा।
अभी कुछ दिन पहले मैं पागल बाबा की एक किताब पढ़ रहा था। उनके नाम का अर्थ है 'क्रेजी डैडी' — और पागल बाबा जरूर थोड़े —बहुत तो पागल रहे ही होंगे। और वे सूफी अर्थों में पागल नहीं रहे होंगे, क्योंकि सूफी लोग तो संबुद्ध पुरुषों को पागल कहते हैं। बल्कि वे तो मनोविश्लेषकों के ढंग से पागल रहे होंगे। वे मस्तिष्क रोगी हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक में कहा है —मैं तो उसे पढकर चकित रह गया और उन्हें धार्मिक समझा जाता है —उन्होंने अपनी पुस्तक में कहा है कि 'बहुत से पश्चिम के लोग मुझसे कहते हैं कि उन्हें हिंदू बनना है, और मुझे उनसे कहना पड़ता है कि उन्हें हिंदू बनाना संभव नहीं है। हिंदू तो व्यक्ति जन्म से होता है, किसी को हिंदू बनाया नहीं जा सकता है।’ ही, हिंदू तो जन्म लेता है —व्यक्ति को जन्मों — जन्मों तक उसे अर्जित करना होता है। अगर कोई आदमी कई—कई जन्मों तक अच्छे कर्म करता रहे, तब वह हिंदू के रूप में जन्म लेता है। किसी को भी हिंदू धर्म में परिवर्तित नहीं किया जा सकता है —यह कोई ईसाई बन जाने जैसी सस्ती बात नहीं है।
और यह धार्मिक आदमी पागल बाबा कहते हैं, 'मुझे उनको मना करना पड़ता है, क्योंकि उन्हें इसे अर्जित करने के लिए बहुत से जीवन लगाने होंगे —हिंदू होना तो भाग्य से मिलता है।’ और पागल बाबा कहते हैं कि अगर किसी का हिंदू के रूप में जन्म हो जाए और वह अच्छे कर्म न करे, और धार्मिक कार्य न करे, तो उसे निम्न श्रेणी की मनुष्य जाति में जाना पड़ेगा। उदाहरण के लिए, तब वह शायद अमेरिकन बन जाए। और पूरी पुस्तक इसी तरह की व्यर्थ की बातों से भरी पड़ी है। और मजा तो यह है कि पागल बाबा ने अपनी पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए अमरीकी प्रकाशक, साइमन एंड सचस्टर भी खोज निकाला। जिसने उनकी यह पुस्तक प्रकाशित की है।
ऐसे व्यक्ति धार्मिक नहीं होते। ऐसे लोग हिंदू धर्मांध लोग है, नासमझ हैं, मस्तिष्क से रुग्ण हैं। अगर व्यक्ति के पास मन है, तो वह धार्मिक नहीं हो सकता। फिर चाहे उसके पास कितना ही पवित्र मन हो, क्योंकि मन तो अधार्मिक ही रहता है, मन कभी भी अखंड नहीं हो सकता। इसे स्मरण रखना।
एक रात मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी से बोला, 'हमारे लिए थोड़ा पनीर ला दो, क्योंकि पनीर भूख बढ़ाता है और आंखों की रोशनी भी बढ़ाता है।’
पत्नी ने कहा, 'अपने पास तो पनीर खतम हो गया है।’
मुल्ला बोला, 'यह तो बड़ी अच्छी बात है, क्योंकि पनीर दांतो और मसूड़ों को नुकसान पहुंचाता है १।’
पत्नी ने मुल्ला से पूछा, 'तब तुम्हारी कौन सी बात सच है?'
मुल्ला ने जवाब दिया, ' अगर घर में पनीर है तो पहली बात, और पनीर नहीं है तो फिर दूसरी बात।’
मन इसी ढंग से कार्य करता है।
अगर कोई स्त्री मिल जाती है, तो तुम उससे प्रेम करते हो, अगर नहीं मिलती तो तुम घृणा करने लगते हो। अगर पनीर घर में मिल जाए तो पहली बात सच, अगर पनीर घर में न हो तो दूसरी बात सच हो जाती है।
अपने भीतर के भेदों को गिरा देना, चीजों को बांटना छोड़ देना। जीवन को उसके समग्र रूप में जीना। मैं समझता हू, यह तुम्हारे लिए कठिन होगा। क्योंकि सदियों —सदियों से हमारा मन चीजों में विभेद करने के लिए, बांटने के लिए संस्कारित होता आया है। तुम्हारे, लिए उससे निर्मुक्त होना, उससे निकलना काफी कठिन हो होगा। लेकिन अगर तुम उससे बाहर आ गए, तो तुम्हारा पूरा जीवन रूपांतरित हो जाएगा—क्योंकि मन के कारण तुम बहुत कुछ चूक रहे हो।
मनस्विद कहते हैं कि मनुष्य का अट्ठानबे प्रतिशत जीवन तो ऐसे ही खो जाता है, उसे लोग ऐसे ही चूक जाते हैं। अट्ठानबे प्रतिशत! केवल दो —प्रतिशत जीवन ही लोग जीते हैं, क्योंकि समाज के तंग ढांचे इससे ज्यादा की अनुमति देते भी नहीं हैं।
समाज के बंधनों को तोड़ दो, तोड़ दो चौखटों को, जला दो उन्हें! तुम अपने हिंदू ईसाई, जैन होने कों—जला दो! और उन चौखटों से बाहर आ जाओ। अगर तुम अपनी धारणाओं से, सिद्धांतो से, पूर्वाग्रहों से बाहर निकल सको तो तुम समग्रता को, पूर्णता को उपलब्ध हो सकते हो।
 तीसरा प्रश्न:
आप अक्सर कहते हैं कि संबुद्ध पुरुष कभी भी स्‍वप्‍न नहीं देखते हैं लेकिन आपने हमें बताया कि एक बार च्चांगत्‍सु ने स्‍वप्‍न देखा कि वह तितली बन गया है! कृपया इस पर कुछ कहें।
 पूछा है स्वामी योग चिन्मय ने। लगता है कि वे हंसी—मजाक तक को भी नहीं समझ सकते हैं। और मैं जानता हूं कि वे क्यों नहीं समझ सकते. क्योंकि वे बहुत गलत संग—साथ में रहे हैं —वे परंपरागत योगियों और साधुओं के साथ बहुत रहे हैं—और इसी कारण वे हंसी—मजाक को भी भूल गए हैं। और धार्मिक होने के लिए हास्य ही एकमात्र आधारभूत गुणवत्ता है। धार्मिक आदमी विनोदप्रिय होता है। लेकिन चिन्मय तो अभी भी एक निश्चित बंधी —बधाई धारणा से ही घिरे हुए हैं। जब मैंने कहा कि च्चांगत्सु ने स्वप्न देखा, तो च्चांगत्सु ने स्वयं उस स्वप्न से संबंधित कुछ बात बतायी थी। ऐसा नहीं कि उसने स्वप्न देखा। इस बहाने उसने स्वयं के ऊपर एक सुंदर मजाक किया है—वह अपने ऊपर ही हंस रहा है।
दूसरों के ऊपर हंस लेना तो बहुत ही आसान बात है, लेकिन अपने ऊपर हंसना बहुत कठिन होता है। लेकिन जिस दिन व्यक्ति स्वयं के ऊपर हंसने में सक्षम हो जाता है, वह निरहंकारिता को उपलब्ध हो जाता है। क्योंकि अहंकार दूसरों के ऊपर हंसकर बहुत प्रसन्नता अनुभव करता है। जब व्यक्ति स्वयं के ऊपर ही हंसने लगते हैं, तो फिर अहंकार का अस्तित्व नहीं रह जाता है।
ही, कोई भी संबुद्ध व्यक्ति कभी स्वप्न नहीं देखता है, लेकिन संबुद्ध व्यक्तियों के पास विनोदप्रियता का गुण होता है। वे हंस सकते हैं, और वे दूसरों को हंसने में सहयोग भी दे सकते हैं। ऐसा हुआ कि तीन आदमी सत्य की तलाश में थे, इसलिए वे दूर —दूर देशों की यात्रा कर रहे थे। उन तीनों में एक यहूदी था, दूसरा ईसाई था, और तीसरा मुसलमान था। उन तीनों में आपस में बड़ी गहरी दोस्ती थी। एक दिन उन लोगों को कहीं से एक रुपया मिल गया। उस रुपए से उन्होंने हलुवा खरीद लिया। मुसलमान और ईसाई आदमियों ने तो कुछ देर पहले ही कुछ खाया था, इसलिए वे थोड़े परेशान हुए कि कहीं यह यहूदी पूरा हलवा न खा जाए। उनके तो पेट भरे हुए थे, उन्होंने बहुत डटकर खा रखा था। इसलिए उन्होंने सुझाव दिया—उन्होंने यहूदी के विरुद्ध षड्यंत्र रचा—उन्होंने कहा, 'ऐसा करते हैं, अभी तो हम सो जाते हैं। सुबह हम अपने — अपने सपने एक —दूसरे को सुनाएंगे। उनमें से जिसका सपना सबसे अच्छा होगा वही हलवा खाएगा।’ और चूंकि उनमें से दो इस बात के पक्ष में थे —तो यहूदी को भी यह बात माननी पड़ी—लोकतांत्रिक ढंग से उसे भी बात माननी पड़ी और उसके पास इसके अलावा कोई उपाय भी न था।
यहूदी जो कि बहुत भूखा था, उसे भूख के कारण नींद ही नहीं आ रही थी। और ऐसे समय में सोना मुश्किल भी होता है जब कि हलवा रखा हो और तुम्हें भूख लगी हो और दो आदमियों ने तुम्हारे विरुद्ध षड्यंत्र रचा हो।
आधी रात वह उठा और हलवा खाकर फिर सो गया।
सुबह सबसे पहले ईसाई ने अपने सपने के बारे में बताया। उसने बताया, 'मेरे सपने में क्राइस्ट आए और जब वे स्वर्ग की यात्रा कर रहे थे तो उन्होंने मुझे भी साथ ले लिया। मैंने अभी तक जितने स्वप्न देखे हैं उसमें यह सबसे दुर्लभ स्‍वप्‍न है।’
मुसलमान ने कहा, 'मैंने देखा कि मुहम्मद आए और मुझे स्वर्ग के दौरे पर अपने साथ ले गए और वहा पर सुंदर—सुंदर युवतियां नाच रही थीं और शराब के चश्मे बह रहे थे —और सोने के पेडू थे और उन पर हीरों के फूल लगे हुए थे। वहां पर बड़ा अदभुत सौंदर्य बरस रहा था।’
अब इसके बाद यहूदी की बारी थी। वह बोला, 'मोजेज मेरे पास आए और कहने लगे, अरे नासमझ मूढ़, तू इंतजार किस बात का कर रहा है? तेरे एक दोस्त को तो क्राइस्ट अपने साथ स्वर्ग ले गए हैं, दूसरे का मनोरंजन स्वर्ग में मोहम्मद कर रहे हैं —कम से कम तू उठकर हलवा ही खा ले।’ विनोदप्रियता धार्मिकता का ही एक अंग है, और जब कभी तुम्हें कोई धार्मिक आदमी गंभीर मिले, तो वहा से भाग जाना, क्योंकि वह गंभीर आदमी खतरनाक हो सकता है। भीतर से जरूर वह रुग्ण होगा। गंभीरता तो एक प्रकार का रोग है, सर्वाधिक घातक रोगों में से एक रोग है —और धर्म के क्षेत्र में यह रोग प्राचीनतम रोगों में से एक है।
थोड़ा इस बात को समझने की कोशिश करना।
तुम अधिक होशियार, चतुर, चालाक बनने की कोशिश मत करना, क्यौंकि वह तो केवल तुम्हारी मूढ़ता को ही दर्शाती है, और किसी बात को नहीं। स्वयं को थोड़ा मूढ़ भी रहने देना, तभी तुम बुद्धिमान होओगे। एक मूढ़ आदमी बुद्धिमत्ता का विरोधी होता है, लेकिन जो व्यक्ति बुद्धिमान होता है वह मूढ़ता को भी स्वयं में समाहित कर लेता है। वह मूढ़ता का विरोधी नहीं होता है, वह उसका भी उपयोग कर लेता है।
इस पृथ्वी पर जो सर्वाधिक असंगत व्यक्ति हुए हैं उनमें से एक च्चांगत्सु एक था। इसीलिए मैंने इस सभागृह को 'च्चांगत्सु आडीटोरियम' नाम दिया है। मुझे उस आदमी से प्रेम है, वह इतना असंगत है। इस आदमी को प्रेम करने से कोई कैसे बच सकता है।
बुद्ध नहीं कहेंगे कि मैंने सपना देखा। वे थोड़े गंभीर हैं। पतंजलि ऐसा नहीं कहेंगे, क्योंकि वे चिन्मय से घबड़ाके। क्योंकि फिर कोई स्वामी ऐसा प्रश्न उठाएगा ही कि तुमने और सपना देखा? संबुद्ध व्यक्ति तो कभी सपना देखते ही नहीं। क्या कह रहे हो?
च्चांगत्सु को किसी से कोई भय नहीं है। वह कहता है, 'मैंने सपना देखा।’ वह बहुत प्यारा आदमी है। वह सच में धार्मिक आदमी है। वह स्वयं हंस सकता है और दूसरों को भी हंसने में मदद कर सकता है; उसकी धार्मिकता हंसी से परिपूर्ण है।
चौथा प्रश्न:
स्व— निर्भर होने के लिए पतंजलि की विधि या आपकी विधि क्या है? इस संबंध में कृपया यह भी समझाएं कि आध्यात्मिक व्यक्ति ठीक— ठीक वर्तमान के क्षणों में कैसे जी सकता है?
रोज के व्यावहारिक जीवन में क्षण— क्षण वर्तमान में जीने की आदत कैसे बनायी जाए?
ह प्रश्न जरूर किसी ऐसे आदमी ने पूछा है जो मुझे समझ नहीं सका है। यह किसी नए आदमी का प्रश्न है। लेकिन अभी बहुत से लोग नए ही हैं, तो इसे समझ लेना। यह तुम्हारे लिए भी सहयोगी होगा।
'स्व—निर्भर होने के लिए आपकी क्या विधि है?'
तुम्हें स्व —निर्भर बनाने में मेरा रस जरा भी नहीं है, क्योंकि वैसा असंभव है। तुम इस संपूर्ण अस्तित्व के साथ इतने जुड़े हुए हो कि तुम स्व—निर्भर हो कैसे सकते हो? यह भी अहंकार की ही कोशिश है कि स्व —निर्भर होना है। सभी से मुक्त होना है यह भी अहंकार की ही यात्रा है, अहंकार की ही चरम परिणति है। नहीं, तुम अपने आप से स्व —निर्भर नहीं बन सकते हो। तुम अपने में समग्र अस्तित्व को तो समाहित कर सकते हो, लेकिन स्व —निर्भर नहीं हो सकते। तुम समग्र में समाहित हो सकते हो या समग्र तुम में समाहित हो सकता है, लेकिन तुम स्व —निर्भर नहीं हो सकते हो। तुम स्वयं को इस ब्रह्मांड से कैसे अलग कर सकते हो? इस विराट ब्रह्मांड से अलग होकर तुम पल भर भी जीवित नहीं रह सकते।
अगर तुम श्वास न ले सको, तो तुम जीवित नहीं रह सकोगे। और श्वास भीतर रोककर नहीं रखी जा सकती है, श्वास को बाहर भी छोड़ना होता है। ऐसे हम श्वास को लेते रहते हैं, और छोड़ते रहते हैं। तुम्हारे और अस्तित्व के बीच यह कम निरंतर चलता रहता है।
जो लोग जानते हैं, वे कहते 'हैं कि ऐसा नहीं है कि तुम श्वास लेते हो, इसके विपरीत संपूर्ण अस्तित्व तुम्हारे माध्यम से श्वास लेता है।
अपनी श्वास को शांति से देखना प्रारंभ करो। और श्वास को देखते —देखते ऐसी घड़ी आ सकती है जब अचानक तुम्हारा ध्यान एक नए रहस्य की ओर जाएगा। पहले जब तुम अपनी श्वास पर ध्यान देते हो —अपनी कूर्म —नाड़ी पर, जिसे बुद्ध ने अनापानसती योग कहा है —तो जब तुम अपनी श्वास पर ध्यान देते हो, तुम सोचते हो कि तुम श्वास ले रहे हो, तुम श्वास छोड़ रहे हो। धीरे — धीरे तुम देखोगे —तुम्हें देखना ही होगा, क्योंकि यही सत्य है —कि तुम श्वास नहीं ले रहे हो। श्वास को चलने के लिए तुम्हारी कोई जरूरत नहीं होती है।
इसीलिए तो नींद में भी श्वास की प्रक्रिया जारी रहती है। अगर तुम बेहोश भी हो जाते हो, मूर्च्छित भी हो जाते हो, तो भी तुम श्वास लेते रहते हो। तुम श्वास को नहीं ले रहे हो; अन्यथा तो कई बार तुम श्वास लेना ही भूल जाओगे, और तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी। चूंकि श्वास की प्रक्रिया अपने आप चल रही है, इसलिए उसे भूलने का सवाल ही नहीं उठता है।
श्वास की किया अपने से ही चलती रहती है। एक दिन तुम पाओगे कि मैं श्वास ले रहा हूं यह बात ही नासमझी की है, इसके विपरीत श्वास मुझ में चल रही है। और फिर एक दिन चेतना में एक आत्यंतिक और क्रांतिकारी मोड़ आता है। जब तुम श्वास बाहर छोड़ते हो, और श्वास भीतर लेते हो एक दिन अचानक तुम पाओगे कि तुम्हारा बाहर श्वास छोड़ना परमात्मा द्वारा श्वास भीतर लिया जाना है, तुम्हारा श्वास भीतर लेना परमात्मा द्वारा श्वास बाहर छोड़ना है। समग्र अस्तित्व श्वास बाहर छोड़ता है वही घड़ी होती है जब तुम्हें लगता है कि तुम श्वास भीतर ले रहे हो। समग्र अस्तित्व श्वास भीतर लेता है. वही घड़ी होती है जब तुम्हें लगता है कि तुम श्वास बाहर छोड़ रहे हो।
एक आध्यात्मिक व्यक्ति हमेशा परमात्मा के लिए रहता है। वह परमात्मा से कहता है, 'जब भी तेरी मर्जी हो, मैं तैयार हूं। मैं अनंत — अनंत काल तक तेरी प्रतीक्षा करता रहूंगा। मुझे कोई जल्दी भी नहीं है। मैं तो अनंतकाल तक तुम्हारी प्रतीक्षा कर सकता हूं।’
आध्यात्मिक आदमी किसी अनुशासन से नहीं जीता। लेकिन भारत में या दूसरे अन्य मुल्कों में भी यही धारणा है कि आध्यात्मिक आदमी बहुत ही अनुशासनात्मक जीवन जीता है। यह आध्यात्मिक आदमी की परिभाषा नहीं है, न ही यह उसका परिचय है। और तुम इससे प्रभावित मत हो जाना, क्योंकि अगर व्यक्ति अपना जीवन स्वयं की मर्जी से जीने लगे, तो वह इस पूरे अस्तित्व के साथ एक अंतहीन संघर्ष में पड़ जाता है। यह तो ऐसे ही है, जैसे कोई व्यक्ति नदी में नदी की धारा के विपरीत तैरने की कोशिश करे।
नदी में नदी की धार के विरुद्ध मत तैरना। नदी की लहरों पर सवार होकर उसके साथ एक हो जाना। लहरों के साथ बहना, उनके साथ बढ़ना—तो एक दिन लहरों के साथ बहते —बहते सागर में पहुच जाओगे। नदी तो सागर की ओर जा ही रही है, तो चिंता की कोई बात ही नहीं है। सारी चिंता छोड़ दो और धारा के विरुद्ध तैरने का प्रयास मत करो, अन्यथा तुम थकोगे, परेशान होंगे। लेकिन एक धार्मिक आदमी के लिए, एक आध्यात्मिक आदमी के लिए हमारी इसी तरह की धारणा है —जैसे कि वह परमात्मा की प्राप्ति के लिए बड़ा संघर्ष कर रहा हो।
गुर्जिएफ अक्सर कहा करता था, 'तुम्हारे सारे तथाकथित धर्म परमात्मा के विरुद्ध हैं।’ और वह ठीक ही कहता था। यह तथाकथित धर्म अहंकार के सूक्ष्म आयोजन हैं। इनसे सावधान रहना। मैं यहां तुम्हें परमात्मा का शत्रु बनाने के' लिए नहीं हूं। मेरी सारी की सारी देशना यही है कि परमात्मा के साथ—साथ कैसे बहना, कैसे उसके साथ मैत्रीपूर्ण होना, कैसे उसे अपने में उतरने से रोकना। मैं यहां तुम्हारे सारे के सारे कुशल आयोजनों को तोड़ देने के लिए हूं —फिर वह चाहे तुम्हारी नीति हो, या नैतिकता हो, या अनुशासन हो —यह सभी बातें कुशल आयोजन हैं। तुम इनका उपयोग अपनी सुरक्षा के कवच के रूप में करते हो। इन बातों की आडू में तुम अस्तित्व से पृथक होकर स्व —निर्भर होने का प्रयास करते हो। मैं यहां पर तुम्हारी इन सभी बातों को पूरी तरह से मिटा डालने को और उनको नष्ट कर देने के लिए हूं।
और जब तुम्हारे सब कुशल आयोजन तुमसे छीन लिए जाते हैं, तो तुम मिट जाते हो। और तुम्हारे मिटने पर ही तुम्हारी आत्मा का जन्म होता है। और इसे किसी प्रयासपूर्ण ढंग से नहीं किया जा सकता है। जब तुम पूरी तरह से, आत्यंतिक रूप से सारे प्रयासों में असफल हो जाते हो, तब तुम्हारे भीतर धार्मिकता का प्रादुर्भाव होता है। तब तुम सच्चे अर्थों में धार्मिक और आध्यात्मिक हो जाते हो। आध्यात्मिक होने के लिए किसी प्रकार की सफलता की आवश्यकता नहीं होती है।
'…….क्षण — क्षण वर्तमान में जीने की आदत कैसे......?'
धर्म का आदत से कोई लेना —देना नहीं है। धर्म का आदत से कोई संबंध नहीं है। आध्यात्मिकता कोई आदत नहीं है, आध्यात्मिकता तो जागरूकता है, और आदत जागरूकता के ठीक विपरीत होती है। आदत का मतलब ही मूर्च्छा होता है, बेहोशी होता है। लेकिन अधिकांश लोग इसी भांति जीए चले जाते हैं। उदाहरण के लिए अगर कोई आदमी सिगरेट पीता है, तो वह उसकी एक आदत बन जाती है।
हम कब कहते हैं कि सिगरेट पीना एक आदत बन गयी है? जब सिगरेट पीना इतना स्वचालित हो जाता है कि वह उसे छोड़ नहीं सकता है, तब हम कहते हैं कि यह एक आदत बन गयी है। अब अगर वह सिगरेट नहीं पीए, तो उसे बड़ी परेशानी और उलझन महसूस होती है। उसे सिगरेट पीने की ऐसी तलब उठती है कि वह उसे रोक नहीं पाता है, उसे हर हाल में सिगरेट पीना ही पड़ती है, अब सिगरेट पीना उसकी एक आदत बन चुकी है। इसी ढंग से हम प्रार्थना को भी अपनी आदत बना लेते हैं। हम रोज पूजा—प्रार्थना करते हैं, फिर धीरे — धीरे वह पूजा—प्रार्थना भी धूम्रपान की भांति हो जाती है। फिर अगर पूजा—प्रार्थना नहीं करो तो कुछ खाली —खाली सा लगता है।
इसे तुम धार्मिकता कहते हो? तो फिर धूम्रपान को धार्मिकता क्यों नहीं कहते हो? धूम्रपान में क्या गलत है?
धूम्रपान भी एक मंत्र हो सकता है। एक मंत्र के जाप में तुम क्या करते हो? तुम किसी निश्चित शब्द को दोहराए चले जाते हो, तुम राम, राम, राम, राम. कहते हो। ठीक ऐसे ही धूम्रपान है। तुम सिगरेट का धुआं भीतर खींचते हो, फिर उसे बाहर फेंकते हो, तुम भीतर खींचते हो यह सिगरेट का धुआं बाहर फेंकना और भीतर खींचना मंत्र बन सकता है। यही है भावातीत ध्यान—ट्रांसेनडेंटल मेडीटेशन, टी एम.।
नहीं, धर्म का आदतो से कोई लेना—देना नहीं है। धर्म का आदतो से कोई संबंध नहीं है। हम सोचते हैं कि धर्म का संबंध अच्छी आदतो से है, बुरी आदतो से नहीं— धूम्रपान बुरी आदत है पूजा —प्रार्थना करना अच्छी आदत है। लेकिन सभी आदतें हमारी मूर्च्छा से संचालित होती हैं, और धर्म है अमूर्च्छा।
ऐसा भी संभव है कि कोई व्यक्ति अच्छा करने का इतना अभ्यस्त हो जाए कि उसके लिए बुरा करना असंभव ही हो जाए, लेकिन इससे वह कोई आध्यात्मिक नहीं हो जाएगा। इससे समाज में जीने में सुविधा हो सकती है। इससे अच्छे नागरिक बन सकते हो, इससे समाज में आदर—सम्मान मिल सकता है, लेकिन इससे तुम धार्मिक नहीं बन जाओगे। समाज ने व्यक्ति के साथ कुशल चालाकियां चली हैं। फिर तुम अच्छे काम किए चले जा सकते हो, किए चले जा सकते हो, क्योंकि तुम बुरा कर नहीं सकते हो, यह एक 'आदत ही बन जाती है। लेकिन आदत आदत है, आदत में कोई सच्चाई नहीं होती है। जीवन में जागरूकता चाहिए।
और कई बार ऐसा होता है कि परिस्थिति हमेशा वही की वही नहीं होती है, परिस्थिति बदल जाती है, आदतवश वैसे ही किए चले जाते हैं —हम परिस्थिति की ओर ध्यान दिए बिना बस आदतवश किए चले जाते हैं। कई बार कोई बात परिस्थिति विशेष में खराब होती है, और वही बात किन्हीं अन्य परिस्थितियों में ठीक होती है। किसी परिस्थिति में कोई प्रत्युत्तर पुण्यकारी होता है, किसी दूसरी परिस्थिति में वही प्रत्युत्तर पाप बन सकता है। लेकिन अगर हम आदतो के गुलाम हो जाएं, तो रोबोट की भाति, स्वचालित यंत्र की भांति व्यवहार करने लगते हैं।
मैं तुम से एक कथा कहना चाहूंगा, जो मेरी प्रिय कथाओं में से एक है।
मिस्टर गिन्सबर्ग मृत्यु के बाद स्वर्ग पहुंचे। और स्वर्ग में लोगों का विवरण लिखने वाले स्वर्गदूत ने उनका बड़ी प्रसन्नता से स्वागत किया।
'गिन्सबर्ग, तुम आदमी इतने भले हो कि हम सब तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। कृपया आप अपना लेखा —जोखा तो देख लें' —और लेखा रखने वाले स्वर्गदूत ने अपना लंबा —चौड़ा खाता खोलकर गिन्सबर्ग के सामने रख दिया और एक के बाद एक पृष्ठ दिखाता चला गया— 'जरा इधर तो देखो. अच्छा काम, अच्छा काम, अच्छा काम, अच्छा काम। गिन्सबर्ग, आप तो अच्छे कामों के बोझ के तले दबे हुए हैं।’
लेकिन जैसे —जैसे स्वर्गदूत पृष्ठ पलटता गया, वह गंभीर होने लगा और उसके चेहरे पर चिंता छाने लगी। अंतत: स्वर्गदूत खाता बंद करके बोला, 'गिन्सबर्ग, हम बड़ी मुश्किल में पड गए हैं।’ 'क्यों?' गिन्सबर्ग ने चौंकते हुए पूछा।
'मैंने तो इस बात पर पहले ध्यान ही नहीं दिया—लेकिन अब देखता हूं कि आपके खाते में तो केवल अच्छे ही अच्छे काम दर्ज हैं। एक भी पाप का कहीं नामो —निशान तक नहीं है।’
गिन्सबर्ग ने पूछा, 'लेकिन क्या यही लक्ष्य तो नहीं था?'
विवरण लिखने वाले स्वर्गदूत ने कहा, 'बोलने की दृष्टि से यही ठीक है। लेकिन व्यावहारिक जीवन में हम हमेशा कोई न कोई पाप करते ही हैं। वह देखो उधर जो आदमी है —अच्छा आदमी है। उसने केवल एक पाप किया है, लेकिन फिर भी वह सच में अच्छा आदमी था। अब अगर आपने एक भी पाप नहीं किया है, तो इससे स्वर्ग के लोगों में ईर्ष्या पैदा हो जाएगी, लोग मन ही मन आप से जलने लगेंगे और आपके खिलाफ चुगली प्रारंभ कर देंगे। कुल मिलाकर आपके कारण स्वर्ग में फूट पड़ जाएगी और अशुभ काम करने वाले लोग आ जाएंगे।’
बेचारा गिन्सबर्ग बोला, 'तो मुझे क्या करना चाहिए। मुझे बताएं कि मैं क्या करूं?'
लेखा —जोखा रखने वाला स्वर्गदूत बोला, 'मैं तुम्हें बताता हूं कि क्या करना है। ऐसा नियम तो नहीं है, लेकिन मेरा काम इससे चल सकता है। मैं तुम्हारे विवरण के अंतिम पृष्ठ का लेखा मिटा दूंगा और तुम्हें छह घंटे और दिए जाते हैं। तुम्हें एक और अवसर दिया जाता है। गिन्सबर्ग, कृपया आप कोई पाप कर लेना, कोई सचमुच का पाप —और फिर वापस लौट आना।’
स्वर्गदूत के यह कहते ही गिन्सबर्ग उसकी बात कों अमल करने के लिए चल पड़ा। गिन्सबर्ग ने अचानक अपने को पाया कि वह अपने शहर में पहुंच गया है। उसके पास कुछ ही घंटे थे, जिनमें उसे कोई पाप करके अपने अच्छे कार्यों की श्रृंखला का तोड़ना था। और वह भी ऐसा करने कै लिए उत्सुक था, क्योंकि वह स्वर्ग जाना चाहता था। लेकिन उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि वह करे तो कौन सा पाप करे? उसने हमेशा अच्छे काम किए थे, वह जानता ही नहीं था कि पाप कैसे करना।
खूब सोचने —विचारने के बाद उसे खयाल आया कि अगर ऐसी स्त्री से—जो अपनी पत्नी न हो, उससे काम —संबंध बनाया जाए, तो ऐसा करना पाप होगा। उसे याद आया कि एक अविवाहित स्त्री, जिसका यौवन बीत चुका था, उसकी ओर बड़े ध्यान से देखा करती थी, और उसने हमेशा उस स्त्री के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार ही किया था, क्योंकि वह तो बहुत ही नैतिक आदमी जो था। अब वह उसकी —उपेक्षा न करेगा। और समय तो तेजी से बीतता जा रहा था। बहुत ही सधे हुए कदमों से गिन्सबर्ग मिस लेविन के घर की ओर चल पड़ा और वहां पहुंचकर उसने उसका द्वार खटखटाया। स्त्री ने द्वार खोला। गिन्सबर्ग को द्वार पर खड़ा हुआ देखकर वह एकदम चकित रह गयी। फिर भी साहस बटोरकर बोली, 'अरे मिस्टर गिन्सबर्ग, आप! मैंने तो सुना था कि आप बीमार हैं —और यह भी सुना था कि आप मृत्यु —शय्या पर हैं। लेकिन आप तो पहले जैसे ही एकदम ठीक दिख रहे हैं।’ गिन्सबर्ग ने कहा, 'मैं एकदम ठीक हूं। क्या मैं अंदर आ सकता हूं?'
'क्यों नहीं,' मिस लेविन बड़े ही उत्साह से बोली और उसके अंदर आते ही दरवाजा बंद कर दिया। फिर इसके बाद जो होना था वह हुआ। उन्हें पाप—रत होने में जरा भी देर न लगी। और मिस्टर गिन्सबर्ग की आंखों में उनकी प्रतीक्षा करता हुआ स्वर्ग था—और स्वर्ग में लोग उत्साहपूर्वक उनकी राह देख रहे थे कि उन्होंने कौन से पाप का अनुभव लिया है।
पाप को ठीक से करने की सुन में, जिससे कि लेखा—जोखा रखने वाले स्वर्गदूत एकदम संतुष्ट और प्रसन्न हो जाएं, गिन्सबर्ग ने पूरा खयाल रखा कि किसी तरह की कोई जल्दबाजी न होने पाए। वह तब तक पाप करता ही रहा जब तक कि उसे अपने भीतर से यह भाव नहीं उठा कि उसका समय खतम होने को है।
मन में स्वर्ग की आशा और वहा के आनंद की कल्पना करते हुए गिन्सबर्ग उठा और क्षमा मांगते हुए बोला, 'मिस लेविन, मुझे अब जाना चाहिए। मुझे एक बहुत जरूरी काम से जाना है।’ और मिस लेविन बिस्तर में ही पड़े —पड़े उसकी ओर देखकर मुस्कुराई और बहुत ही मीठे स्वरों में बोली, ' ओह मिस्टर गिन्सबर्ग, डार्लिंग तुमने आज मेरे लिए कितना अच्छा काम किया है।’
कितना अच्छा काम! बेचारा गिन्सबर्ग।
अच्छाई के इतने अधिक अभ्यस्त मत हो जाना। आदतो से इतने ज्यादा मत जुड़ जाना कि फिर मशीन की तरह काम करने लग जाओ।
मत पूछो कि '…… क्षण—प्रतिक्षण वर्तमान में जीने की आदत कैसे बनायी जाए?'
इसका. आदत से कोई लेना—देना नहीं है, इसका संबंध तुम्हारी जागरूकता से, तुम्हारे होश से, तुम्हारे बोध से है। इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। अतीत जा चुका होता है, भविष्य अभी आया नहीं है। क्या तुम उस अतीत में जी सकते हो जो कि जा चुका है? कैसे तुम उसमें जी सकते हो? क्या तुम भविष्य में जी सकते. हों, जो अभी आया ही नहीं है? कैसे तुम उसमें जी सकते हो? यह एकदम सीधी और व्यावहारिक समझ की बात है कि केवल वर्तमान के क्षण में ही जीवन संभव है। इसे आदत नहीं बनाना है। इसका धर्म से कुछ लेना—देना नहीं है; इसका संबंध तो तुम्हारे विवेक से है। अतीत जा चुका है, तो कैसे तुम अतीत में जी सकते हो? भविष्य अभी आया नहीं है, तो कैसे तुम भविष्य में जी सकते हो? बस .केवल थोड़ी सी समझ और बुद्धिमत्ता की आवश्यकता है।
केवल वर्तमान का ही अस्तित्व होता है। जो कुछ भी है, वर्तमान ही है, और कुछ भी नहीं है। इसलिए अगर तुम वर्तमान को जीन,'….. चाहते हो, तो इसे जी लो। अगर तुम अतीत के और भविष्य के बारे में सोच रहे हो, तो तुम वर्तमान के क्षण को व्यर्थ ही गंवा रहे हो—और जब यही वर्तमान का क्षण भविष्य के रूप में था, तो तुम इसे लेकर तरह—तरह की योजनाएं बना रहे थे। और अब जब यह क्षण तुम्हें उपलब्ध है, तुम्हारे समक्ष मौजूद है; तो तुम उसके प्रति उपलब्ध नहीं हो, तुम मौजूद नहीं हो। तुम या तो अतीत की स्मृतियों में खोए रहते हो या भविष्य के स्वप्न संजोते रहते हो, तुम वर्तमान के क्षण में कभी नहीं होते हो।
अतीत की स्मृतियों को और भविष्य की परिकल्पना को गिर जाने दो। यहीं और अभी में जीओ। और इसका आदत से कोई संबंध नहीं है। केवल आदतवश तुम अभी और यहीं में कैसे जी सकते हो? आदत आती है अतीत से —आदत तुम्हें अतीत की ओर धकेलती है, अतीत की ओर खींचती है। या तो तुम आदत को ही एक अनुशासन बना सकते हो —लेकिन तब तुम भविष्य के लिए सोच रहे होते हो। तुम प्रतीक्षा करते हो: 'आज मैं आदत का निर्माण करूंगा और कल मैं उसका आनंद उठाऊंगा।’ लेकिन फिर तुम भविष्य में ही जी रहे होते हो।
आदत का प्रश्न ही नहीं है, इसका आदत से कोई संबंध नहीं है। बस, जागरूक हो जाओ। अगर खाना खा रहे हो, तो खाना ही खाओ —सिर्फ खाना ही खाओ। खाने में पूरी तरह से तल्लीन हो जाओ। अगर प्रेम कर रहे हो, तो शिव हो जाओ और अपनी संगिनी को देवी हो जाने दो। प्रेम करो और सभी देवताओं को देखने दो और आने दो और जाने दो —किसी की कोई चिंता मत लो। जो कुछ भी तुम करो अगर सड़क पर चल रहे हो, तो बस चलो भर! हवा का, सूरज की धूप का, वृक्षों का आनंद लो —वर्तमान के क्षण में जीओ, उसका आनंद मनाओ।
और ध्यान रहे, मैं तुम्हें इसका अभ्यास करने को नहीं कह रहा हूं। यह तो अभी इसी क्षण, बिना किसी अभ्यास के किया जा सकता है। इसे अभी इसी क्षण किया जा सकता है, केवल थोड़ा सा विवेक, थोड़ी सी बुद्धिमत्ता चाहिए। आदतें और आदतो का अभ्यास यह सब तो मूड लोगों के लिए है। क्योंकि वे बुद्धिमत्ता से नहीं जी सकते हैं। उन्हें आदतो की, अनुशासनों की या इस बात की या उस बात की मदद लेनी होती है।
अगर तुम समझदार हो, बुद्धिमान हो —और मेरे देखे तुम में समझ है, तुम में बुद्धिमत्ता है, मैं तुम पर भरोसा कर सकता हूं —और किसी बात की आवश्यकता नहीं है। बस, प्रारंभ कर दो! यह मत पूछो, कैसे करना है? अभी से प्रारंभ कर दो। तुम मुझे सुन रहे हो। बस केवल सुनो।
तुम में से बहुत से लोग सोच —विचार कर रहे होंगे, सुन नहीं रहे होंगे, अपनी — अपनी पूर्व धारणाओं के साथ तुलना कर रहे होंगे।
जिसने यह प्रश्न पूछा है वह मुझे सुन नहीं रहा है, यह बात मैं एकदम दावे के साथ कह सकता हूं —मैं नहीं जानता कि किसने पूछा है यह प्रश्न। मेरा दावा कहां से आ रहा है! क्योंकि मैं प्रश्न से ही पूछने वाले के मन को समझ सकता हूं। प्रश्न पूछने वाला तो जरूर मेरे ऊपर क्रोधित हो रहा होगा, और साथ ही परेशान भी हो रहा होगा।
लोग प्रश्न सांत्वना पाने के लिए पूछते हैं। लेकिन मैं यहां पर तुम्हें सांत्वना देने के लिए नहीं हूं। मैं तुम्हें पूरी तरह से झकझोर देना चाहता हूं, ताकि तुम पूरी तरह से मिट सको—अंतत: तुम अपनी चालाकियों से परेशान होकर उन्हें छोड दो।
और मैं जानता हूं, वैसे ही जैसे कि एक बार हुआ.
एक रहस्यवादी, एक सूफी रहस्यवादी शेख फरीद, एक राजा के द्वारा आमंत्रित किया गया। फरीद उस राजदरबार में पहुंचा तो राजा फरीद से बोला, 'मैंने आपके बारे में बहुत से चमत्कारों की बातें सुनी हैं। और अगर आप सचमुच यह दावा करते हैं कि आप एक बड़े संत और रहस्यवादी हैं तो मुझे कोई चमत्कार दिखाएं। क्योंकि आध्यात्मिक लोग हमेशा चमत्कारी हुआ करते हैं।’
फरीद ने राजा की आंखों में झांककर देखा और बोला, 'मैं तुम्हारे विचारों को पढ़ सकता हूं और उदाहरण देने के लिए मैं बता सकता हूं कि तुम्हारे मन में बिलकुल अभी यही विचार चल रहा है कि तुम मेरी बात पर भरोसा नहीं कर सकते हो। मैं तुम्हारे विचारों को पढ़ सकता हूं और इस क्षण मैं देख रहा हूं कि तुम मेरी बात पर भरोसा नहीं कर सकते हो। भीतर ही भीतर तुम कह रहे हो, मैं इस आदमी पर भरोसा नहीं कर सकता कि यह जो कह रहा है वह सही है या नहीं।’
राजा ने कहा, ' आपने मुझे रंगे हाथों पकड़ लिया है।’
जिस व्यक्ति ने यह प्रश्न पूछा है वह जरूर बहुत क्रोधित हो रहा होगा। तब तुम चूक जाओगे क्योंकि क्रोध में तुम मुझे सुन नहीं सकोगे, तुम अभी और यहीं नहीं हो सकोगे।
अंतिम प्रश्न:
प्यारे भगवान कोई कह रहा है कि आपने राम से कहा है कि वह संबोधि को उपलब्ध हो गया है कोई कह रहा है कि आपको कोई दिलचस्प झूठ बताना था।
राम कहता है कि आप मजाक कर रहे थे और मुझे आप से ही यह बात पूछनी चाहिए।
मैं स्वयं को समझाने की कोशिश भी कर रहा हू कि इस बात से मेरा कोई लेना— देना नहीं है लेकिन फिर भी क्या वह संबोधि को उपलब्ध हो गया है? क्या उसने पा लिया है?
पूछा है अनुराग ने।
अगर वह समझ गया है कि मैं मजाक कर रहा था, तो वह जरूर उपलब्ध हो गया है।
आज इतना ही।

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