कुल पेज दृश्य

सोमवार, 30 मार्च 2015

मैं कहता आंखन देखी--(प्रवचन--30)

मृत्यु और परलोक(प्रवचनतीसवां)

'अमृत—वाणी' से संकलित
सुधा—बिंदु 19701971

स जगत में अज्ञान के अतिरिक्त और कोई मृत्यु नहीं है। अज्ञान ही मृत्यु है, 'इग्रोरेन्स इज़ डेथ'। क्या अर्थ हुआ इसका कि अज्ञान ही मृत्यु है? अगर अज्ञान मृत्यु है, तो ही ज्ञान अमृत हो सकता है। अज्ञान मृत्यु है, इसका अर्थ हुआ कि मृत्यु कही है ही नही। हम नहीं जानते इसलिए मृत्यु मालूम पड़ती है। मृत्यु असम्भव है। मृत्यु इस पृथ्वी पर सर्वाधिक असम्भव घटना है जो हो ही नहीं सकती, जो कभी हुई नहीं, जो कभी होगी नहीं, लेकिन रोज मृत्यु मालूम पड़ती है।

हम अंधेरे में खड़े हैं, अज्ञान में खड़े हैं। जो नहीं मरता वह मरता हुआ दिखाई पड़ता है। इस अर्थ में अज्ञान ही मृत्यु है। और जिस दिन हम यह जान लेते हैं, उस दिन मृत्यु तिरोहित हो जाती है और अमृत ही, अमृत्व ही शेष रह जाता है— 'इम्मारलिटी' ही शेष रह जाती है।
कभी आपने खयाल किया कि आपने किसी आदमी को मरते देखा? आप कहेंगे, बहुत लोगों को देखा। पर मै कहता हूं कि नहीं देखा! आज तक किसी व्यक्ति ने किसी को मरते नहीं देखा। मरने की प्रक्रिया आज तक देखी नहीं गयी। जो हम देखते हैं वह केवल जीवन के विदा हो जाने की प्रक्रिया है, मरने की नहीं।
जैसे बटन दबाया हमने, बिजली का बल्व बुझ गया। जो नहीं जानता, वह कहेगा बिजली मर गयी। जो जानता है, वह कहेगा बिजली अभिव्यक्त थी, अब अनभिव्यक्त हो गयी। प्रकट थी, अब अप्रकट हो गयी। मर नहीं गयी। फिर बटन दबेगा, बिजली फिर वापस लौट आएगी। फिर बटन दबाके, बिजली फिर भीतर तिरोहित हो जाएगी।
जीवन समाप्त नहीं होता। केवल शरीर से विदा होता है। लेकिन विदायी हमें मृत्यु मालूम पड़ती है। क्यों मालूम पड़ती है? क्योंकि हमने कभी अपने भीतर के शरीर से अलग किसी अस्तित्व का अनुभव नहीं किया। हमारा अनुभव यही है कि मैं शरीर हूं। इसलिए जब शरीर समाप्त होगा, जलाने के योग्य हो जाएगा, तब स्वभावत: निष्कर्ष होगा कि मर गए। शरीर से अलग अपने भीतर जिसने किसी तत्व को नहीं जाना, वह अज्ञानी
अज्ञानी का मतलब यह नहीं कि जिसे यूनिवर्सिटी की डिग्री नहीं मिली है। विश्वविद्यालय का कोई सर्टिफिकेट नहीं है। सच तो यह है, विश्वविद्यालय ने जितने सर्टिफिकेट दिये, अज्ञान उतना बढ़ा है, कम नहीं हुआ। कारण हैं इसके। कारण यह है कि विश्वविद्यालय के सर्टिफिकेट को लोग ज्ञान समझने लगे इसलिए असली ज्ञान की खोज की कोई जरूरत नहीं मालूम पड़ती।
अज्ञानी आदमी के पास सर्टिफिकेट नहीं होता, वह ज्ञान की खोज करता है। तथाकथित ज्ञानी के पास सर्टिफिकेट होता है, वह मान लेता है कि मैं ज्ञानी हूं। मेरे पास यूनिवर्सिटी की डिग्री है, और क्या चाहिए?
ज्ञान तो सिर्फ एक है—स्वयं का ज्ञान, बाकी सब सूचनाएं हैं— 'इकमेंशन' हैं, 'नालेज' नहीं! बाकी सब परिचय है, ज्ञान नहीं। रसल ने जान के दो हिस्से किये हैं, नालेज और अकेन्टेंस—ज्ञान और परिचय। ज्ञान तो सिर्फ एक ही चीज का हो सकता है, वह मैं हूं बाकी सब परिचय है, ज्ञान नहीं। अपने से पृथक जिसे भी मैं जानता हूं वह सिर्फ अकेन्टेंस, परिचय है।.. .जान तो सिर्फ अपने को सकता हूं क्योंकि अपने से जो भिन्न है उसके भीतर मेरा प्रवेश नहीं हो सकता, सिर्फ बाहर घूम सकता हूं—परिचय ही कर सकता हूं। ऊपर —ऊपर से जान सकता हूं भीतर तो नहीं जा सकता, भीतर तो सिर्फ एक ही जगह जा सकता हूं—जहां 'मैं हूं,
यह बहुत मजे की बात है कि अपना परिचय नहीं होता, और दूसरे का ज्ञान नहीं होता। दूसरे का परिचय होता है, अपना जान होता है। अपना परिचय इसलिए नहीं होता क्योंकि अपने बाहर घूमने का उपाय नहीं। दूसरे का ज्ञान इसलिए नहीं होता क्योंकि दूसरे के भीतर प्रवेश नहीं है।
लेकिन हम बड़े अजीब लोग हैं। हम अपना परिचय कर लेते हैं जो कि हो नहीं सकता, और हम दूसरे के ज्ञान को जान समझ लेते हैं जो हो नहीं सकता। यह अज्ञान की स्थिति है। अज्ञान में मृत्यु है—जब आप एक व्यक्ति को बुझते देखते हैं! बुझते—मरते नहीं! इसलिए बुद्ध ने ठीक शब्द का उपयोग किया है, वह शब्द है—निर्वाण।
निर्वाण का अर्थ है, दीये का बुझना। बस, दीया बुझ जाता है—कोई मरता नहीं। दिखाई पड़ती थी ज्योति, अब नहीं दिखाई पड़ती। देखने के क्षेत्र से विदा हो जाती है, अदृश्य में लीन हो जाती है। फिर प्रगट हो सकती है, फिर लीन हो सकती है। यह प्रगट—अप्रगट होने का क्रम अनंत चल सकता है, जब तक कि ज्योति पहचान न ले कि प्रगट में भी मैं वही हूं अप्रगट में भी मैं वही हूं। न मैं प्रगट होती, न मैं अप्रगट होती, सिर्फ रूप प्रगट होता और अप्रगट होता है।
वह जो रूप के भीतर छिपा हुआ सत्य है वह न प्रगट में प्रगट होता, अप्रगट में अप्रगट होता है—न जीवन में जीवित होता, न मृत्यु में मरता है। तब अमृत का अनुभव है। हम दूसरों को मरते देखकर, बुझते देखकर हिसाब लगा लेते हैं कि सब मरते हैं तो मैं भी मरूंगा। लेकिन कभी किसी मरनेवाले से पूछा, कि मर गए? लेकिन वह उत्तर नहीं देता। इसलिए मान लेते हैं कि 'हां' में उत्तर देता होगा!
मौन को सम्मति का लक्षण समझने की बात सभी जगह ठीक नहीं है। मरे हुए आदमी से पूछो, मर गए? अगर वह उत्तर दे तो समझना मरा नहीं और अगर मौन रह जाए तो हम समझ लेते हैं कि मर गया, लेकिन मौन सम्मति का लक्षण नहीं! नहीं बोल पा रहा है, इसलिए मर गया, ऐसा समझने का कोई कारण नहीं।
दक्षिण में ब्रह्मयोगी, एक साधु ने आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, कलकत्ता और सन यूनिवर्सिटी में मरने के प्रयोग करके दिखाए थे। वह दस, मिनट के लिए मर जाते थे। कलकत्ता यूनिवर्सिटी में दस डाक्टर मौजूद थे। जिन्होंने सर्टिफिकेट लिखा कि यह आदमी मर गया, क्योंकि मृत्यु के जो भी लक्षण हैं, चिकित्सा शास्त्र के पास, पूरे हो गए थे। श्वास नहीं, बोल नहीं सकता, खून में गति नहीं रही, ताप गिर गया, नाड़ी बंद हो गयी, हृदय की धड़कन नहीं है, सब सूक्ष्मतम यंत्रों ने कह दिया कि आदमी मर गया! उन दस ने लिखा, दस्तखत किए कि ब्रह्मयोगी कह गए थे कि दस्तखत करके 'डेथ सर्टिफिकेट' दे देना कि मैं मर गया!
फिर दस मिनट बाद सब वापस लौट आया। श्वास फिर चली, धड़कन फिर चली, खून फिर बहा, उस आदमी ने आंख भी खोली, वह बोलने भी लगा, उठकर बैठ गया! उसने कहा, अब मैं आपके सर्टिफिकेट के संबंध में क्या मानूं? आप बड़े जालसाज हैं, जिंदा आदमी को मरने का सर्टिफिकेट देते हैं। उन्होंने कहा, जहां तक हम जानते थे, मौत घट गयी थी। उसके आगे हम नहीं जानते।
लेकिन, उनमें से एक डाक्टर ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि उस दिन मैं फिर मृत्यु का सर्टिफिकेट नहीं दे सका किसी को भी। क्योंकि उस दिन जो मैंने देखा, उससे साफ हो गया कि मृत्यु के लक्षण, सिर्फ विदा होने के लक्षण हैं। और चूंकि आदमी लौटना नहीं जानता, इसलिए हमारे सर्टिफिकेट सही हैं, वरना सब गलत हो जाते।
वह ब्रह्मयोगी लौटना जानता है। तीन बार, लंदन, कलकत्ता और सन विश्वविद्यालय में उन्होंने मरकर दिखाया और तीनों जगह पृथ्वी पर पहला आदमी है, जिसने तीन दफा मृत्यु का सर्टिफिकेट लिया।
यह हुआ क्या? जब ब्रह्मयोगी से चिकित्सक पूछते कि हुआ क्या, किया क्या? तो वह कहते कि मैं सिर्फ सिकोड़ लेता हूं अपने जीवन को—जैसे कि सूरज अपनी किरणों को सिकोड़ ले, जैसे कि फूल अपनी पंखुड़ियों को बंद कर ले, जैसे पक्षी अपने पंखों को सिकोड़कर और अपने घोंसले में बैठ जाए—ऐसे!
मैं सिकोड़ लेता हूं जीवन को—भीतर—भीतर, वहां जहां तुम्हारे यंत्र नहीं पकड़ पाते। होता तो मैं हूं ही इसलिए वापस लौट आता हूं। फिर खोल देता हूं पंखों को, फिर जीवन के आकाश में उड़ आता हूं घोंसले के बाहर। हम सब के भीतर वह गुह्य स्थान है जहां आत्मा सिकुड़ जाए तो फिर यंत्र पता नहीं लगा पाते, इंद्रियां पता नहीं लगा पातीं। असल में यंत्र इंद्रियों के एक्सटेंशन से ज्यादा नहीं हैं।
यंत्र हमारी ही इंद्रियों का विस्तार है। आंख है, तो हमने दूरबीन और खुर्दबीन बनाई। वह आंख का विस्तार है जो आंख को मेग्रीफाई कर देती है। कान है, तो टेलिफोन बनाया, वह कान का विस्तार है। मेरा हाथ है यहां से बैठकर मैं आपको छू नहीं सकता। मै एक डंडा हाथ में पकड़ लूं और उससे आपको श्य तो डंडा मेरे हाथ का विस्तार हो गया। सारे यंत्र हमारी इंद्रियों के विस्तार हैं। अब तक एक भी यंत्र नहीं बना जो हमारी इंद्रियों से अन्य हों, विस्तार न हो। सब एक्सटेंशंस है।
इंद्रियां जिसे नहीं पकड़ पातीं, यंत्र कभी—कभी उसे पकड़ लेता है, सूक्ष्म होता है तो! लेकिन जो अतीद्रिय है उसे यंत्र भी नहीं पकड़ पाता। सूक्ष्म हो, इंद्रिय की पकड़ के बाहर हो, तो यंत्र पकड़ लेता है। लेकिन जो अतींद्रिय है,—सूक्ष्म नहीं, अतींद्रिय, यानी इंद्रियों के पार—पैरासाइकिक, उसको फिर यंत्र भी नहीं पकड़ पाता। जीवन ऊर्जा पैरासाइकिक है—अतीद्रिय है। इसलिए कोई यंत्र उसकी गवाही नहीं दे सकता।
इस जीवन ऊर्जा को जानने का एक ही उपाय है, वह इंद्रियों के द्वारा नहीं, इंद्रियों के पीछे सरककर—इंद्रियों के माध्यम से नहीं, इंद्रियों के माध्यम को छोड्कर! ज्ञानी इंद्रियों के माध्यम को छोड्कर स्वयं को जानता है और एक क्षण भी यह झलक मिल जाए स्वयं की तो वह अमृत उपलब्ध हो जाता है। जिसकी कोई मृत्यु नहीं वह सत्य दिखाई पड़ जाता है—जिसका कोई प्रारंभ नहीं, कोई अंत नहीं। तानी अमृत को उपलब्ध हो जाते हैं।
अलकेमिस्ट कहते हैं कि हम खोज रहे हैं वह तत्व, जिससे आदमी अमर हो जाएगा। वे कभी न खोज पाएंगे! आदमी अमर है ही, किसी चीज से अमर करने की जरूरत नहीं है। चेतना अमर है ही। और ऐसा मत सोचना कि पदार्थ मरता है और चेतना अमर है। पदार्थ भी अमर है और चेतना भी अमर है।
पदार्थ इसलिए अमर है कि वह जीवित ही नहीं है। जो जीवित हो वही मर सकता है। पदार्थ कैसे मरेगा जब जीवित ही नहीं है। इसलिए पदार्थ अमर है, उसकी मृत्यु का कोई उपाय नहीं है।
आत्मा इसलिए अमर है कि वह जीवित है। जो जीवित है वह मर कैसे सकता है? जीवन की कोई मृत्यु नहीं हो सकती, मृत्यु का कोई जीवन नहीं हो सकता। पदार्थ का सिर्फ अस्तित्व है, जीवन नहीं। आत्मा का जीवन भी है और अस्तित्व भी।
इस बात को खयाल में रख लें—'एक्जिस्टेंस एस्ट्र लाइफ बोथ'—आत्मा की; पदार्थ की—'एक्जिस्टेंस ओनली'! पदार्थ सिर्फ 'है', लेकिन पदार्थ को अपने होने का पता नहीं है। आत्मा 'है' भी और उसे 'अपने होने' का भी पता है। बस यह होने का पता उसे जीवन बना देता है।
हम आत्मा हैं, क्योंकि हम है और हमें अपने होने का भी पता है, हम जीवित भी हैं; लेकिन हम क्या हैं, इसका हमें कोई भी पता नहीं। होने का पता हो और यह पता न हो कि क्या हैं, तो अज्ञान की स्थिति है। होने का पता हो और यह भी पता हो कि क्या हैं, तो ज्ञान की स्थिति है।
अज्ञानी में उतनी ही आत्मा है जितनी ज्ञानी में—रत्तीभर कम नहीं है। लेकिन अज्ञानी अपने प्रति बेहोश है, ज्ञानी अपने प्रति होश से भरा हुआ है। ऐसे व्यक्ति जो ज्ञान, अमृत को उपलब्ध हो जाते हैं, वे परलोक में परम परात्‍पर ब्रह्म को पाते हैं।
परलोक का क्या अर्थ है? क्या मरने के बाद? आमतौर से हमें यही खयाल है कि परलोक का अर्थ मरने के बाद है। लेकिन जब आत्मा मरती ही नहीं तो मरने के बाद परलोक का अर्थ ठीक नहीं है। परलोक कहीं मरने के बाद और नहीं है, परलोक अभी और यहीं मौजूद है— 'जस्ट बाइ द कार्नर' —पर हमें उसका कोई पता नहीं।
जिसे अपना पता नहीं, उसे परलोक का पता नहीं हो सकता। क्योंकि परलोक में जाने का द्वार स्वयं का अस्तित्व है—स्वयं का ही होना है। जिसे अपना पता है, वह एक ही साथ परलोक और लोक की देहरी पर खड़ा हो जाता है। इस तरफ झांकता है तो लोक, उस तरफ झांकता है तो परलोक। बाहर सिर करता है तो लोक, भीतर सिर करता है तो परलोक।
परलोक अभी और यहीं है। ब्रह्म कहीं दूर नहीं है, आपके बिलकुल पड़ोस में है, आपके पड़ोसी से भी ज्यादा पड़ोस में है। आपके बगल में जो बैठा है आदमी, उसमें और आप में भी फासला है। लेकिन उससे भी पास ब्रह्म है। आपमें और उसमें फासला भी नहीं है।
'जब जरा गर्दन झुकायी, देख ली, दिल के आइने में है तस्वीरे यार' —बस इतना ही फासला है, गर्दन झुकाने का। यह भी कोई फासला हुआ? बाहर लोक हैं और भीतर परलोक है।
तो ध्यान रखें, लोक और परलोक का विभाजन समय में नहीं, स्थान में है। इस बात को ठीक से खयाल में ले लें। लोक और परलोक का विभाजन 'टाइम डिवीजन ' नहीं है कि मैं मरूंगा, मरने की घटना या विदा होने की घटना समय में घटेगी, और फिर उस मरने के बाद जो होगा वह परलोक होगा। हमने अब तक परलोक को टेम्पोरल समझा है, टाइम में बांटा है। परलोक भी स्पेसियल है, स्पेस में बंटा है, टाइम में नहीं। अभी यहीं, लोक भी मौजूद है, परलोक भी मौजूद है; पदार्थ भी मौजूद है, परमात्मा भी मौजूद है। फासला समय का नहीं, फासला सिर्फ स्थान का है और स्थान का भी फासला हमारी दृष्टि का फासला, अटेंशन का फासला है।
अगर हम बाहर की तरफ ध्यान दे रहे हैं तो परलोक खो जाता है, अगर हम परलोक की तरफ ध्यान दें तो लोक खो जाता है। रात आप सो जाते हैं तब लोक खो जाता है। मैं पूछता हूं क्या आपको तब याद रहता है कि बाजार में आपकी एक दुकान है? आपका एक बेटा है? कि आपकी एक पत्नी है? कि आपका बैंक बैलेंस इतना है? कि आप कर्जदार हैं? कि लेनदार हैं? यानी जब आप सोते हैं तो लोक खो जाता है। लेकिन परलोक शुरू नहीं होता।
निद्रा, लोक और परलोक के बीच में है। निद्रा मूर्च्छा है—लोक भी खो जाता है, परलोक भी शुरू नहीं होता। ध्यान की अवस्था लोक और परलोक के बीच में है। लोक खोता है, परलोक शुरू हो जाता है। जैसे एक आदमी अपने मकान के दरवाजे की दहलीज पर बैठ जाए आंख बंद करके तो न घर दिखाई पड़े, न बाहर दिखाई पड़े। फिर वह आदमी बाहर की तरफ देखे तो भीतर का दिखाई न पड़े, फिर वह मुड़कर खड़ा हो जाए, तो भीतर का दिखाई पड़े बाहर का दिखाई न पड़े।
ऐसी तीन स्थितियां हुई। लोक की—जब हम बाहर देख रहे हैं और 'कांशसनेस', चेतना बाहर की तरफ जाती हुई हो। परलोक की—जब चेतना भीतर की तरफ जाती हुई हो। निद्रा की—जब चेतना किसी तरफ जाती हुई नहीं, सो गई हो।
जब कहा जाता है कि परलोक में व्यक्ति आनंद को उपलब्ध होता है, तो क्या इसका यह मतलब है कि जिस व्यक्ति ने ब्रह्म को जाना, आत्मा की अमरता को जाना वह मरने के बाद आनंद को उपलब्ध होगा, और अभी नहीं होगा? नहीं, अभी हो जायेगा, यहीं हो जायेगा। लेकिन जो व्यक्ति इस अमृत्व को नहीं जानता वह उस परलोक में, उस भीतर के लोक में, उस पार के परलोक में, कैसे आनंद को उपलब्ध होगा? वह संसार में भी दुख पाता है, यानी बाहर भी दुख पाता है और भीतर भी दुख पाता है। इसे ठीक से समझ लें।
बाहर इसलिए दुख पाता है कि जिसको यह खयाल है कि मृत्यु है, वह बाहर कभी सुख नहीं पा सकता। मृत्यु का खयाल बाहर के सब सुखों को विषाक्त कर जाता है, 'पायजनस' कर जाता है। बाहर अगर सुख लेना है थोड़ा बहुत तो मृत्यु को बिलकुल भूलना पड़ता है। इसलिए हम मृत्यु को भुलाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ध्यान रहे, जिसे भी हम भुलाते हैं उसकी और याद आती है। स्मृति का नियम है. भुलाए! —याद आएगी!
अर्थी निकलती है द्वार से तो लोग घर का दरवाजा बंद करके बच्चों को भीतर कर लेते हैं। मौत याद न आ जाए, क्योंकि जिसे मौत याद आ गयी उसके जीवन में संन्यास को ज्यादा देर नहीं है। जो मौत को भुला ले वही संसार में हो सकता है। इसलिए मौत को छिपाते हैं, हजार ढंग से छिपाते हैं।
गांव के बाहर बनाते हैं मरघट। मरा नहीं आदमी कि ले जाने की इतनी जल्दी पड़ती है जिसका हिसाब नहीं। रहने दें थोड़ी देर, लोगों को देख लेने दें, स्मरण कर लेने दें कि यही घटना उनकी भी घटने वाली है। जिस आदमी को वर्षों चाहा और प्रेम किया, उसको विदा करने की इतनी शीघ्रता क्यों है? शीघ्रता का आंतरिक कारण है—जो मनोवैज्ञानिक है!
मरे हुए की मौजूदगी हमें अपने मरे होने की खबर लाती है। मृत्यु का निशान न रह जाए जीवन के पर्दे पर कहीं, उसे फौरन अलग कर दो। और मजे की बात यह है कि जन्म के बाद अगर कोई चीज की 'सरटेंटी' है, कोई चीज निश्चित है तो वह मृत्यु ही है। जन्म के बाद अगर कोई चीज प्रिडिक्टेबल है, किसी चीज की भविष्यवाणी की जा सकती है तो वह मृत्यु है, बाकी किसी चीज की भी भविष्यवाणी की नहीं जा सकती।
भविष्यवाणी का यह मतलब नहीं कि तारीख और दिन बताया जा सकता है, भविष्यवाणी का यह मतलब कि मृत्यु होगी ही, इतना तय है—बाकी सब चीजें, हों भी, न भी हों। विवाह हो भी सकता है, न भी हो। स्वास्थ्य रहे भी, न भी रहे। बीमारी आए भी, न भी आए। धन मिले भी, न भी मिले। लेकिन मृत्यु के बाबत ऐसा नहीं कहा जा सकता कि हो भी, न भी हो।
जो इतनी निश्‍चित है घटना उसे हम बाहर रखते हैं और कई चीजों से भुलाते हैं। लेकिन हर जगह उसकी खबर मिल जाती है। फूल सुबह खिलता और सांझ मुर्झा जाता है और कह जाता है कि मौत है! प्रेम घडीभर खिलता और सूख जाता है और खबर दे जाता है कि मौत है! जवानी आती और चली जाती है और खबर दे जाती है कि मौत है! हरे पत्ते लगते और पतझड़ में झड़ जाते हैं पर खबर दे जाते हैं, मौत है! सुबह सूरज उगता और सांझ डूबने लगता है और खबर दे जाता है कि मौत है!
जिसकी जिंदगी में अभी अमृत का पता नहीं चला, उसका सब विषाक्त हो जाता है—सब प्यायजंड हो जाता है। कोई सुख हो नहीं सकता। जब तक मृत्यु की कालिमा पीछे खड़ी है, सब सुख अंधेरे हो जाते हैं। सच तो यह है कि मृत्यु की कालिमा दुख के क्षण में उतनी गहन नहीं होती, सुख के क्षण में बहुत गहन होकर दिखाई पड़ती है।
किकेंगार्ड ने लिखा है, कि प्रेम के क्षण में मृत्यु जितनी प्रगाढ़ मालूम होती है उतनी कभी नहीं मालूम होती। अगर कृष्णमूर्ति को सुनें—अगर वह डेथ पर बोलना शुरू करें तो लव पर जरूर बोलेंगे, अगर लव पर बोलना शुरू करें तो फिर डेथ पर जरूर बोलेंगे—उसी भाषण में, बाहर नहीं जा सकते। यह बात क्या है? प्रेम की, जहां सुख की झलक आयी वहां तत्काल पता लगता है कि जिसे हम प्रेम कर रहे हैं वह मरेगा, जो प्रेम कर रहा है वह भी मर जाएगा, बीच में जो प्रेम बह रहा है वह भी मर जाएगा।
प्रेम के सघन क्षण में मृत्यु बहुत प्रगाढ होकर दिखाई पड़ती है। प्रेम सुख लाता है, पीछे से मृत्यु का स्मरण ले आता है। जहां—जहां सुख है वहां मौत पीछे खड़ी हो जाती है। इसीलिए तो सुख क्षणभंगुर है। हम ले भी नहीं पाते और मौत उसे हड़प जाती है। जिसको भीतर के अमृत का पता नहीं वह परलोक में तो आनंद पा ही नहीं सकता, इस लोक में भी सिर्फ दुख पाता है।
दूसरी बात भी कह देने जैसी है कि जो परलोक में आनंद पाता है वह इस लोक में भी आनंद पाता है। ये जुड़े हुए हैं। जिसे भीतर आनंद मिला उसे बाहर भी आनंद ही आनंद हो जाता है। ध्यान रहे, उसकी सारी दृष्टि बदल जाती है। जिसे भीतर आनंद नहीं मिला उसे बसंत में भी मृत्यु नजर आती है, पतझड़ दिखायी पड़ता है। उसे बच्चे के पीछे भी बूढ़े का जीर्ण—जर्जर शरीर दिखायी पड़ता है। उसे जवानी की तरंगों में भी मौत का गिर जाना और मिट जाना दिखाई पड़ता है। उसे सुख के क्षण में भी पीछे खड़े दुख की प्रतीति होती है। अज्ञान में सब सुख, दुख हो जाते है। ज्ञान में सब दुख भी सुख हो जाते हैं।
उस तरह के व्यक्ति को पतझड़ में भी आनेवाले बसंत की पदचाप सुनायी पड़ती है। वृक्ष से सूखे गिरते पत्ते में भी नए पत्तों के अंकुरित होने की ध्वनि का बोध होता है। सांझ डूबते हुए सूरज में भी सुबह के उगनेवाले सूरज की तैयारी का पता चलता है। विदा होते बूढ़े में भी पैदा होनेवाले बच्चों के जन्म की खबर मिलती है। मृत्यु का द्वार भी उसे जन्म का द्वार बन जाता है। अंधेरा भी उसे प्रकाश की पूर्व भूमिका मालूम पड़ती है। सुबह अंधेरा जब गहन हो जाता है तभी वह जानता है कि आनेवाली भोर निकट है। दृष्टि बदल जाती है, सब उल्टा हो जाता है।
एक युवक ने कल संन्यास लिया—मां को, पिता को, वरदान मालूम पडना चाहिए! लेकिन मां मेरे पास आई—छाती पीटकर रोती है, कहती है कि मैं जहर खाकर मर जाऊंगी। ये कपड़े उतरवा दो! मां कहती है, मेरे तीन बच्चे पहले मर चुके! मेरा मन उससे पूछने का होता है, लेकिन पूछता नहीं कि तीन बच्चे मर गए तब तूने जहर नहीं खाया।
इसने कुछ भी नहीं किया, सिर्फ गेरुआ वस्त्र ऊपर डाले और तू जहर खाकर मर जाएगी? यह तेरा लडका चोर हो जाता, तब तू जहर खाकर मरती? यह लड़का बेईमान हो जाता, तब तू जहर खाकर मरती? यह लड़का पोलिटीशियन हो जाता, तब तू जहर खाकर मरती?—नहीं, तब अभिशाप भी वरदान मालूम होते। अभी वरदान उतरा है इस लड़के के ऊपर! मां को नाचना चाहिए, पिता को आनंद मनाना चाहिए। फिर यह कहीं जा नहीं रहा है छोड़कर, घर ही रहेगा। लेकिन नही, अज्ञान में वरदान भी अभिशाप मालूम पड़ते हैं। वह छाती पीटती है और रोती है। नहीं, इसमें कुछ आकस्मिक नहीं है, बड़ी स्वाभाविक बात है। अज्ञान बडा स्वाभाविक है, आकस्मिक नहीं है।
बुद्ध जैसे व्यक्ति ने संन्यास लिया और जब बारह वर्ष के बाद ज्ञान के सूर्य को जगा कर घर वापस लौटे, तब भी बाप को दिखाई नहीं पड़ा कि बेटे का जीवन रूपांतरित हुआ। उन्हे दिखाई न पड़ा कि लाखों लोगो के जीवन में बुद्ध से रोशनी पहुंची। दस हजार भिक्षु बुद्ध के साथ पीछे खड़े हैं। उनके पीत वस्त्रों में उनके भीतर का प्रकाश झलकता है।
लेकिन बाप ने गांव के दरवाजे पर यही कहा कि मैं तुझे अभी भी माफ कर सकता हूं। तू वापस लौट आ। यह भूल छोड़, बहुत हो चुका, नासमझी बंद कर। मुझ बूढ़े को इस बुढ़ापे में मृत्यु के निकट होने में दुख मत दे। बाप को नहीं दिखाई पड़ सका कि किससे वह कह रहे हैं। बुद्ध हंसने लगे। बुद्ध ने कहा, गौर से तो देख लें। बारह वर्ष पहले जो घर से गया था, वही वापस नहीं लौटा, वह तो कभी का जा चुका। यह कोई और है, जरा गौर से तो देखें।
लेकिन बाप ने कहा, तू मुझे सिखाएगा? मैं तुझे जानता नही? मेरा खून बहता है तेरी नसों मे। मैं तुझे जितना जानता हूं उतना कौन तुझे जान सकता है? बुद्ध ने कहा, आप अपने को ही जान लें तो काफी है। मुझे जानने के भ्रम में मत पड़े। क्योंकि दूसरे के जानने के झम में वही पड़ता है जो स्वयं को नहीं जानता है।
बाप की तो आग भड़क गई, क्रोध भारी हो गया। उन्होंने कहा, यह मैने सोचा भी न था कि तू अपने ही बाप से इस तरह बातें बोलेगा। बुद्ध जैसा बेटा भी घर में हो तो बाप के लिए अभिशाप मालूम पड़ता है। अज्ञान सब वरदानों को अभिशाप कर लेता है। सब फूलों को कांटा बना लेता है। ज्ञान कांटों को भी फूल बना लेता
जिसे अंत: लोक में आनंद है उसे बाहर के जगत में दुख की कोई रेखा भी शेष नहीं रह जाती, और जिसे बाहर के लोक में दुःख है उसे भीतर के लोक का कोई पता ही नहीं होता, आनंद की तो बात ही मुश्किल है।

'अमृत—वाणी' से संकलित
सुधा—बिंदु 1970—1971



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें