कुल पेज दृश्य

बुधवार, 29 जुलाई 2015

तंत्र--सूत्र--(भाग--2) प्रवचन--21

अंतर्यात्रा में आँख के उपयोग—(प्रवचन—इक्‍कीसवां)

      सूत्र:

30—आंखें बंद करके अपने अंतरस्‍थ अस्‍तित्‍व को
विस्‍तार से देखो। इस प्रकार अपने सच्‍चे
स्‍वभाव को देखो।
31—किसी कटोरेकेो उसके पार्श्‍व—भाग या पदार्थ को
देखे बिना देखो। थोड़ी ही क्षणों में बोध को
उपलब्‍ध हो जाओ।
32—किसी सुंदर व्‍यक्‍ति या सामान्‍य विषय को ऐसे
देखो जैसे उसे पहली बार देख रहे हो।

ज रात हम जिन विधियों की चर्चा करेंगे, वे दर्शन की, देखने की साधना से संबंध रखती हैं। इसलिए इन विधियों में प्रवेश के पहले आंख के संबंध में कुछ बातें समझ लेनी जरूरी हैं। क्योंकि ये सातों विधियां आंख पर ही निर्भर हैं।
पहली बात, आंख मनुष्य के शरीर का सबसे कम शारीरिक अंग है, उसे सर्वाधिक अशरीरी कहना उचित होगा। अगर पदार्थ अपदार्थ हो सकता है तो आंख के प्रसंग में यह बात सच है। आंख पदार्थ है; लेकिन साथ—साथ वह अपदार्थ भी है।

आंख तुम और तुम्हारे शरीर के बीच मिलन—बिंदु है; शरीर में और कहीं भी यह मिलन इतना गहरा नहीं है। मानव शरीर और तुम बहुत पृथक—पृथक हो, उनके बीच की दूरी बड़ी है। लेकिन आंख के बिंदु पर तुम अपने शरीर के निकटतम हो और शरीर तुम्हारे निकटतम है। यही कारण है कि आंख को अंतर्यात्रा के उपयोग में लाया जा सकता है। एक ही छलांग में तुम आंख से स्रोत पर पहुंच जाओगे।
वह हाथ से संभव नहीं है; हृदय से भी संभव नहीं है। वह शरीर के और किसी अंग से संभव नहीं है। शरीर के अन्य किसी भी भाग से यात्रा लंबी होगी; दूरी बड़ी है। लेकिन आंख से एक कदम तुम्हें तुम्हारे भीतर ले जाने के लिए काफी है।
इसी वजह से योग और तंत्र की साधना में, धर्म की साधना में निरंतर आंख का उपयोग किया जाता रहा है। इसका पहला कारण यह है कि तुम अपनी आंख के निकटतम हो। अगर तुम किसी की आंख में आंख डालकर देखना जानते हो तो तुम उसे उसके गहरे तलों तक देख ले सकते हो। वह वहीं है—आंख में। वह अपने शरीर के अन्य किसी हिस्से में उतना मौजूद नहीं है, लेकिन तुम उसे उसकी आंखों में देखो और उसे पा लोगे।
किसी की आंख में झांकना कठिन कला है। और यह कला तुम तब सीखते हो जब तुम अपनी आंख से अपने भीतर छलांग लगाते हो; अन्यथा नहीं देख सकते। अगर तुमने अपनी ही आंखों के पार उसे नहीं देखा है जो तुम्हारा अंतरस्थ है तो तुम किसी दूसरे की आंख में नहीं देख सकते। लेकिन अगर आंख में देखना सीख लो तो तुम किसी के भी अंतरस्थ को स्‍पर्श कर सकते हो।
इसीलिए केवल प्रेम में ही तुम दूसरे की आंख में सीधा झांक सकते हो, घूर कर देख सकते हो। प्रेम के बिना अगर तुम किसी की आंख में लेगे तो वह बुरा मानेगा। यह अनधिकार प्रवेश होगा। शरीर को देखना अनधिकार प्रवेश नहीं है; लेकिन जिस क्षण तुम किसी की आंख में झांकते हो, तत्थण तुम उसकी निजता में, उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता में अनधिकार प्रवेश करते हो, तुम उसके भीतर बिन बुलाए प्रवेश करते हो।
इसलिए एक सीमा है। और अब तो उस सीमा की माप भी निश्चित हो गयी है। ज्यादा से ज्यादा तीन सेकेंड तक तुम किसी को घूर सकते हो। उसका मतलब हुआ कि किसी पर एक सरसरी निगाह डालकर तुम्हें अपनी आंखें फेर लेनी होंगी, अन्यथा दूसरा बुरा मानेगा। यह हिंसा है; क्योंकि तुम दूसरे की गोपनीयता में झांक रहे हो, और वह निषिद्ध है।
केवल गहन प्रेम में ही तुम दूसरे की आंख में झांक सकते हो। प्रेम का अर्थ ही है कि तुम अपने प्रेमी से कुछ छिपाना नहीं चाहते हो, कि अब तुम दूसरे के लिए खुले हो और तुममें प्रवेश करने के लिए दूसरे का स्वागत है। जब प्रेमी एक—दूसरे की आंख में झांकते हैं तो एक मिलन घटित होता है जो शरीर का नहीं है, जो अशरीरी है।
इसलिए दूसरी बात यह याद रखने की है कि तुम्हारा मन, तुम्हारी चेतना, तुम्हारी आत्मा, जो भी तुम्हारा अंतरस्थ है, सबमें आंखों के माध्यम से झांका जा सकता है।
यही कारण है कि अंधे आदमी का चेहरा मृतवत होता है। इतना ही नहीं है कि उसकी आंखें नहीं हैं; बल्कि उसका चेहरा भी निर्जीव होता है। आंखें चेहरे की रोशनी हैं। वे तुम्हारे चेहरे को दीप्त बनाती हैं। वे उसे आंतरिक सजीवता प्रदान करती हैं। आंखों के अभाव में तुम्हारे चेहरे की सजीवता जाती रहती है। अंधा आदमी सच में बंद आदमी है; उसमें आसानी से प्रवेश संभव नहीं है।
इसी वजह से अंधे लोग बहुत गोपनीय होते हैं; अंधे आदमी पर तुम भरोसा कर सकते हो। तुम उसे कोई अपनी गुप्त बात बताओ तो इसका भरोसा कर सकते हो कि वह उसे गुप्त रखेगा। किसी के लिए यह भी पता लगाना मुश्किल होता है कि अंधे आदमी ने कोई राज छिपा रखा है।
लेकिन जीवित आंख वाले को देखकर तुरंत कहा जा सकता है कि इसके भीतर कुछ गोपनीय है। उदाहरण के लिए तुम रेलगाड़ी में टिकट के बिना सफर कर रहे हो, तब तुम्हारी आंखें बता देंगी कि तुम्हारे पास टिकट नहीं है। यद्यपि कोई दूसरा यह नहीं जानता है, सिर्फ तुम जानते हो, तो भी तुम्हारी आंखें और ढंग की हो जाएंगी और तुम्हारे डिब्बे में प्रवेश करने वाले किसी भी नवागंतुक को वे और ही ढंग से देखेंगी। अगर उसे इसकी पहचान हो तो वह तुरंत समझ जाएगा कि तुम्हारे पास टिकट नहीं है। और जब तुम्हारे पास टिकट है तो तुम्हारी आंखें कुछ और ही होंगी। उनकी निगाह भिन्न होगी।
तो अगर तुमने कोई भेद छिपा रखा है तो तुम्हारी आंखें उसे कह देंगी। और आंख को नियंत्रण में रखना बहुत कठिन है। शरीर में आंख वह इंद्रिय है जिसका नियंत्रण सबसे कठिन है। इसलिए हर कोई बड़ा जासूस नहीं बन सकता है। जासूस के लिए आंख का प्रशिक्षण
सबसे बुनियादी प्रशिक्षण है। उसकी आंखें ऐसी होनी चाहिए कि कुछ प्रकट न करें, बल्कि विपरीत को प्रकट करें। जब. वह बिना टिकट भी यात्रा करे तो उसकी आंखें कहें कि टिकट है। यह कठिन है; क्‍योंकि आंखें स्‍वैच्‍छक नहीं है, गैर—स्‍वैच्‍छिक है।
अब तो आंख पर बहुत से प्रयोग हो रहे हैं। कोई व्यक्ति ब्रह्मचारी है और कहता है कि स्त्रियों के लिए मेरे मन में कोई चाव नहीं है। लेकिन उसकी आंखें सब कुछ कह देंगी, वह अपने लगाव को छिपा रहा होगा। उसके कमरे में एक सुंदर स्त्री प्रवेश करे तो हो सकता है कि वह उसकी ओर न देखे, लेकिन उसका यह न देखना भी बहुत कुछ प्रकट कर देगा। इस न देखने में प्रयत्न होगा, सूक्ष्म दमन होगा; और उसकी आंखें यह सब बता देंगी। इतना ही नहीं, उसकी आंख की पुतली फैल जाएगी। जब एक सुंदर स्त्री प्रवेश करेगी तो उसकी आंख की पुतलियां उस सुंदर स्त्री को अपने भीतर प्रवेश देने के लिए तुरंत फैल जाएंगी। और तुम इस संबंध में कुछ भी नहीं कर सकते हो, क्योंकि पुतलियों और उनके घटने—बढ़ने पर तुम्हारा बस नहीं है। तुम कुछ भी नहीं कर सकते; उन्हें नियंत्रित करना सर्वथा असंभव है।
तो दूसरी बात यह याद रखने की है कि तुम्हारी आंखों से तुम्हारे भेद जाने जा सकते हैं। अगर कोई व्यक्ति तुम्हारी निजता के, तुम्हारे भेदों के जगत में प्रवेश करना चाहे तो उसके लिए तुम्हारी आंखें द्वार का काम करेंगी। अगर वह उन्हें खोलना जानता है तो तुम उसके लिए प्रकट हो जाओगे, खुल जाओगे। और अगर तुम अपने ही गुह्य जीवन में, अंतरस्थ जीवन में प्रवेश करना चाहते हो, तो भी तुम्हें इसी द्वार का उपयोग सीखना होगा, तुम्हें अपनी आंख पर काम करना होगा; तभी भीतर प्रवेश संभव है।
तीसरी बात, आंखें बहुत तरल हैं और सतत गतिमान हैं। और उनकी गति की अपनी लय है, अपनी व्यवस्था है। तुम्हारी आंखें कोई बेतरतीब, अराजक ढंग से नहीं घूमती हैं; बल्कि उनकी अपनी लयबद्धता है। और वह लयबद्धता कई चीजें बताती है। अगर तुम्हारे मन में कोई कामुक विचार है तो तुम्हारी आंखें भिन्न ढंग से, भिन्न लय के साथ गति करेंगी। सिर्फ तुम्हारी आंख और उसकी गति को देखकर कोई कह सकता है कि तुम्हारे भीतर किस भाति के विचार चल रहे हैं।
तुम जब भूखे होते हो और भोजन का विचार मन में चलता है तो तुम्हारी आंखें और ही ढंग से गति करती हैं। अब तो आंखों के जरिए तुम्हारे सपनों में भी प्रवेश किया जा सकता है। जब तुम सो रहे हो तब भी तुम्हारी आंखों की गति पढ़ी जा सकती है।
और स्मरण रहे, सपना देखते समय भी तुम्हारी आंखें गति करती हैं। अगर तुम सपने में किसी नग्न स्त्री को देख रहे हो तो यह बात भी तुम्हारी आंख की गति को देखकर कही जा सकती है। अब उन्होंने आंख की गति को जानने—समझने के यांत्रिक उपाय भी कर लिए हैं। वे इन गतियों को 'रेम' नाम देते हैं, जिसका अर्थ है रैपिड व्यई मूवमेंट, यानी आंख की तीव्र गति। जैसे हृदय की गति का ग्राफ कार्डियोग्राम में उतारा जाता है वैसे ही आंख की गति भी ग्राफ पर उतारी जा सकती है। रातभर नींद में तुम्हारी आंखों की पूरी गति ग्राफ पर उतारी जा सकती है। और वह ग्राफ बता देगा कि तुम कब सपने देखते थे और कब नहीं।
जब तुम सपने नहीं देखते तो आंखें ठहर जाती हैं, स्थिर हो जाती हैं। और जब तुम सपना देखते हो तो आंखें गति करती हैं और वह गति वैसी ही होती है जैसी गति पर्दे पर फिल्म देखते हुए होती है। अगर तुम फिल्म देख रहे हो तो आंख चलती रहती है, वैसे ही सपने में आँख चलती है, वह कुछ देखती है। फिल्‍म में आँख की जैसी गति होती है वैसी ही गति सपने में होती है। आंख के लिए पर्दे की फिल्म और स्वप्न की फिल्म में कोई फर्क नहीं है।
तो रेम रिकार्डर बता देता है कि रात में तुम कितनी देर सपना देखते रहे और कितनी देर बिना सपनों के सोए; क्योंकि जब तुम स्वप्न नहीं देखते हो तो आंख की गति ठहर जाती है। अनेक लोग हैं जो कहते हैं कि हम कभी सपना नहीं देखते हैं। इन लोगों की स्मृति कमजोर है, और कुछ नहीं। उन्हें याद नहीं रहता है, इतनी सी बात है। वे स्वप्न देखते हैं, सारी रात स्‍वप्‍न देखते हैं, लेकिन उन्हें याद नहीं रहता। इतना ही है कि उनकी याददाश्त अच्छी नहीं है। इसलिए जब वे सुबह उठकर कहें कि रात हमने सपने नहीं देखे, तो उनका भरोसा मत करना।
सपना देखते हुए आंखें गति क्यों करती हैं और गैर—स्‍वप्‍न की अवस्था में वे ठहर क्यों जाती हैं?
आंख की प्रत्येक गति विचारणा की प्रक्रिया से जुड़ी हुई है। यदि विचार चलता है तो उसके साथ आंख भी चलेगी। और अगर विचार नहीं चलता है तो आंख भी नहीं चलेगी; उसकी जरूरत न रही। तो इस तीसरे बिंदु को भी खयाल में रख लो कि आंख की गति और विचारणा दोनों आपस में जुड़े हैं। यही कारण है कि अगर तुम आंख और उसकी गति को रोक दो तो तुम्हारी विचार—प्रक्रिया भी तुरंत ठहर जाएगी। या अगर विचार की प्रक्रिया बंद हो जाए तो आंखें अपने आप ही ठहर जाएंगी।
एक और बात—चौथी बात। आंखें सतत एक विषय से दूसरे विषय की ओर गति करती रहती हैं; अ से ब तक और ब से स तक चलती रहती हैं। गति उनकी प्रकृति है। यह वैसे ही है जैसे नदी बहती है, प्रवाह नदी की प्रकृति है। और इस गति के कारण ही वे इतनी जीवंत हैं। गति जीवन भी है। तुम अपनी आंखों को किसी खास बिंदु पर, किसी खास विषय पर रोकने की चेष्टा कर सकते हो, उन्हें गति करने से रोकने की चेष्टा कर सकते हो, लेकिन यह संभव नहीं होगा। गति आंखों की प्रकृति है। तुम गति को नहीं रोक सकते, लेकिन तुम आंख को ठहरा सकते हो। इस भेद को समझ लो।
तुम अपनी आंखों को एक निश्चित बिंदु पर, दीवार पर लगे एक चिह्न पर स्थिर कर सकते हो। तुम चिह्न को घूर सकते हो; तुम आंखों की गति बंद कर सकते हो। लेकिन गति तो आंखों का स्वभाव है। तो हो सकता है, आंखें विषय अ से विषय ब पर गति न करें, क्योंकि तुमने उन्हें अ पर ठहरा दिया है। लेकिन तब एक हैरानी की बात घटित होगी। गति तो होगी ही, क्योंकि गति उनकी प्रकृति है। अगर तुम आंखों को अ से ब पर जाने से रोक दोगे तो वे बाहर से भीतर की ओर जाने लगेंगी। या तो वे अ से ब पर जाएंगी, या बाहर से भीतर जाएंगी। तुम अगर उनकी बाहरी यात्रा बंद कर दोगे तो उनकी भीतर की ओर यात्रा शुरू हो जाएगी। गति उनका स्वभाव है; गति की उन्हें जरूरत है। यदि तुम अचानक उन्हें रोक दो, उनकी बाहर की गति बंद कर दो, तो वे भीतर की ओर गति करना शुरू कर देंगी।
तो गति की ये दो संभावनाएं हैं। एक है विषय अ से विषय ब की ओर गति; यह बाहरी गति है। और यही स्वाभाविक रूप से घटित होती है। लेकिन एक दूसरी संभावना भी है। और योग की संभावना है। उसमें बाहर के एक विषय से दूसरे विषय तक
आंखों की गति रोक दी जाती है, बाह्य गति रोक दी जाती है। और तब आंखें बाहर के विषय से भीतर की चेतना में छलांग लगाती हैं। वे भीतर की ओर गति करती हैं।
इन चार बिंदुओं को खयाल में रख लो, तब विधियों को समझना सरल हो जाएगा।

देखने की पहली विधि :

आंखें बंद करके अपने अंतरस्थ अस्तित्व को विस्तार से देखो। इस प्रकार अपने सच्चे स्वभाव को देख लो।
'आंखें बंद करके......।
पनी आंखें बंद कर लो। लेकिन आंखें बंद करना ही काफी नहीं है, समग्र रूप से बंद करना है। उसका अर्थ है कि आंखों को बंद करके उनकी गति भी रोक दो। अन्यथा आंखें बाहर की ही चीजों को देखती रहेंगी; बंद आंखें भी चीजों को चीजों के प्रतिबिंबों को देखती रहेंगी। असली चीजें तो नहीं रहेंगी, लेकिन उनके चित्र, विचार, संचित यादें तब भी सामने तैरती रहेंगी। ये चित्र, ये यादें भी बाहर की हैं। इसलिए जब तक वे तैरती रहेंगी तब तक आंखों को समग्ररूपेण बंद मत समझो। समग्र रूप से बंद होने का अर्थ है कि अब देखने को कुछ भी नहीं है।
इस फर्क को ठीक से समझ लो। तुम अपनी आंखें बंद कर सकते हो; वह आसान है। हर कोई हर क्षण आंखें बंद करता है। रात में भी तुम आंखें बंद रखते हो। लेकिन इससे अंतरस्थ स्वभाव प्रकट नहीं हो जाएगा। आंखें ऐसे बंद करो कि देखने को कुछ भी न बचे—न बाहर का विषय बचे और न भीतर बाहरी विषय का बिंब बचे। तुम्हारे सामने बस खाली अंधेरा रह जाए, मानो तुम अचानक अंधे हो गए हों—यथार्थ के प्रति ही नहीं, स्वप्न—यथार्थ के प्रति भी।
इसमें अभ्यास की जरूरत पडेगी—एक लंबे अभ्यास की जरूरत पड़ेगी। यह अचानक संभव नहीं है; एक लंबे प्रशिक्षण की जरूरत है। आंखें बंद कर लो। जब भी तुम्हें लगे कि यह आसानी से किया जा सकता है और जब भी तुम्हें समय हो तब आंखें बंद कर लो और आंखों की सभी भीतरी हलन—चलन को भी बंद कर दो। किसी तरह की भी गति मत होने दो। आंखों की सारी गतियां बंद हो जानी चाहिए। भाव करो कि आंखें पत्थर हो गई हैं, और तब आंखों की पथराई अवस्था में ठहरे रहो। कुछ भी मत करो; मात्र स्थित रहो। तब किसी दिन अचानक तुम्हें यह बोध होगा कि तुम अपने भीतर देख रहे हो।
तुम इस मकान के बाहर जा सकते हो और इसके चारों ओर घूमकर इसे देख सकते हो। लेकिन यह बाहर से मकान को देखना होगा। फिर तुम इस कमरे में वापस आ सकते हो और कमरे के अंदर खड़े होकर इसे देख सकते हो। यह मकान को भीतर से देखना है। जब तुम मकान के बाहर चक्कर लगाते हो तो तुम उन्हीं दीवारों को देखते हो, लेकिन उनके उसी पहलू को नहीं देखते हो। दीवारें वही हैं, लेकिन पहलू बाहरी है। लेकिन जब तुम मकान के अंदर आ जाते हो तो उन्हीं दीवारों का भीतरी पहलू दिखायी देता है।
तुमने अपने शरीर को बाहर से ही देखा है। उसे किसी आईने में तुम ने देखा है, या बाहर से तुम अपने हाथ वगैरह देख सकते हो। लेकिन तुम्हारा शरीर भीतर से क्या है, यह तुम नहीं जानते। तुम अपने भीतर कभी नहीं गए हो। तुमने अपने शरीर और अस्तित्व के केंद्र में प्रवेश नहीं किया है; तुमने वहां से अपने अंतरस्‍थ को नहीं देखा है।
यह विधि भीतर से देखने के लिए बहुत सहयोगी है। और यह दर्शन तुम्हारी समग्र चेतना को, तुम्हारे समूचे अस्तित्व को रूपांतरित कर देता है। कारण यह है कि जब तुम अपने को भीतर से देखते हो तो तुम तुरंत संसार से भिन्न हो जाते हो। यह झूठा तादात्म्य कि मैं— शरीर हूं इसीलिए है क्योंकि हम अपने शरीर को बाहर से देखते हैं। अगर कोई उसे भीतर से देख सके तो द्रष्टा शरीर से भिन्न हो जाता है। और तब तुम अपनी चेतना को अंगूठे से सिर तक अपने शरीर के भीतर गतिमान कर सकते हो; अब तुम शरीर के भीतर परिभ्रमण कर सकते हो।
और एक बार तुम शरीर को अंदर से देखने और उसमें गति करने में समर्थ हो गए तो फिर बाहर जाना जरा भी कठिन नहीं है। एक बार तुम गति करना सीख गए, एक बार तुम ने जान लिया कि तुम शरीर से पृथक हो, तो तुम एक महाबंधन से मुक्त हो गए। अब तुम पर गुरुत्वाकर्षण की पकड़ न रही, अब तुम्हारी कोई सीमा न रही। अब तुम परिपूर्ण स्वतंत्र हो, अब तुम शरीर के बाहर जा सकते हो। अब बाहर— भीतर होना आसान है। अब तुम्हारा शरीर महज निवास—स्थान है।
आंखें बंद करो और अपने अंतरस्थ प्राणी को विस्तार से देखो। और भीतर— भीतर शरीर के अंग—अंग में परिभ्रमण करो। सबसे पहले अंगूठे के पास जाओ। पूरे शरीर को भूल जाओ और अंगूठे पर पहुंचो। वहां रुको और उसका दर्शन करो। फिर पांव से होकर ऊपर बढो; और ऐसे प्रत्येक अंग को देखो।
तब बहुत सी बातें घटित होंगी—बहुत बातें। तब तुम्हारा शरीर ऐसा संवेदनशील वाहन बन जाएगा जिसकी तुम कल्पना नहीं कर सकते। तब अगर तुम किसी को स्पर्श करोगे तो तुम पूरे के पूरे अपने हाथ में गति कर जाओगे और वह स्पर्श रूपांतरकारी होगा। गुरु के स्पर्श का वही अर्थ है। गुरु अपने किसी अंग में भी समग्र रूप .से पहुंच सकता है और वहां एकाग्र हो सकता है।
अगर तुम समग्र रूप से अपने किसी अंग में चले जाओ तो वह अंग जीवंत हो जाता है, इतना जीवंत कि तुम कल्पना नहीं कर सकते कि उसे क्या हो गया है। तब तुम अपनी आंखों में समग्ररूपेण समा सकते हो। इस तरह आंखों में समग्रत: समाकर अगर तुम किसी की आंखों में झांकोगे तो तुम उसमें प्रवेश कर जाओगे, उसकी गहनतम गहराई को छू लोगे।
अभी मनोविश्लेषक मनोविश्लेषण के जरिए गहराई में उतरने की चेष्टा कर रहे हैं। इसमें वे दो—दो, तीन—तीन वर्ष लगा देते हैं। यह केवल समय की बर्बादी है। जीवन इतना छोटा है कि अगर तीन वर्ष मनुष्य के मन के विश्लेषण में ही लगाए जाएं तो वह मूढ़ता है। और तीन वर्ष के बाद भी तुम भरोसा नहीं कर सकते कि विश्लेषण पूरा हुआ। तुम अंधेरे में ही टटोल रहे हो।
पूरब यह प्रयोग आंख के माध्यम से करता है। इतने लंबे समय तक विश्लेषण करने की जरूरत नहीं है। यह काम उसकी आंखों में समग्ररूप से प्रवेश कर और उसकी गहराई को छूकर किया जा सकता है। तब उस व्यक्ति के संबंध में बहुत बातें जानी जा सकती हैं जिनका उसे भी पता नहीं है।
गुरु अनेक काम करता है। उनमें से एक बुनियादी काम यह है कि तुम्हारा विश्लेषण करने के लिए तुम में गहरे उतरता है और वह तुम्हारे अंधेरे तलघरों में प्रवेश करता है। तुम्हें भी अपने इन तलघरों का पता नहीं है; अगर गुरु कहेगा कि तुम्‍हारे भीतर कुछ चीजें छीपी पड़ी है, तो तुम उसका विश्वास नहीं करोगे। कैसे विश्वास करोगे? तुम्हें उनका पता ही नहीं है। तुम अपने मन के एक ही हिस्से को जानते हो। और वह उसका बहुत छोटा हिस्सा है, ऊपरी हिस्सा है। वह उसकी पहली पर्त भर है, उसके पीछे नौ और पर्तें छिपी हैं जिनकी तुम्हें कोई खबर नहीं है। लेकिन आंखों के द्वारा उनमें प्रवेश किया जा सकता है।
'आंखें बंद करके अपने अंतरस्थ अस्तित्व को विस्तार से देखो।
इस दर्शन का पहला चरण, बाहरी चरण अपने शरीर को भीतर से, अपने आंतरिक केंद्र से देखना है। केंद्र पर खड़े हो जाओ और देखो। तब तुम शरीर से पृथक हो जाओगे; क्योंकि द्रष्टा कभी दृश्य नहीं होता है, निरीक्षक अपने विषय से भिन्न होता है। अगर तुम अंदर से अपने शरीर को समग्रत: देख सको तो तुम कभी फिर इस भ्रम में नहीं पडोगे कि मैं शरीर हूं। तब तुम सर्वथा पृथक रहोगे। तब तुम शरीर में रहोगे, लेकिन शरीर नहीं रहोगे।
यह पहला चरण है। फिर तुम और गति कर सकते हो। तब तुम गति करने के लिए स्वतंत्र हो। शरीर से मुक्त होकर, तादात्म्य से मुक्त होकर तुम गति करने के लिए मुक्त हो। अब तुम अपने मन में, मन की गहराइयों में प्रवेश कर सकते हो। अब तुम उन नौ पर्तों में, जो भीतर हैं और अचेतन हैं, प्रवेश कर सकते हो।
यह मन की अंतरस्थ गुफा है। और अगर मन की गुफा में प्रवेश करते हो तो तुम मन से भी पृथक हो जाते हो। तब तुम देखोगे कि मन भी एक विषय है जिसे देखा जा सकता है और जो मन में प्रवेश कर रहा है वह मन से पृथक और भिन्न है।
'अंतरस्थ अस्तित्व को विस्तार से देखो' इसका यही अर्थ है—मन में प्रवेश। शरीर और मन दोनों के भीतर जाना है और भीतर से उन्हें देखना है। तब तुम केवल साक्षी हो। और इस साक्षी में प्रवेश नहीं हो सकता है। इसी से यह तुम्हारा अंतरतम है; यही तुम हो। जिसमें प्रवेश किया जा सकता है, जिसे देखा जा सकता है, वह तुम नहीं हो। जब तुम वहां आ गए जिससे आगे नहीं जाया जा सकता, जिसमें प्रवेश नहीं किया जा सकता, जिसे देखा नहीं जा सकता, तभी समझना कि तुम अपने सच्चे स्व के पास, अपनी आत्मा के पास पहुंचे।
तुम साक्षी के साक्षी नहीं हो सकते; यह स्मरण रहे। यह बात ही बेतुकी है। अगर कोई कहता है कि मैंने अपने साक्षी को देखा है तो वह गलत कहता है। यह बात ही अनर्गल है। यह अनर्गल क्यों है?
यह इसलिए है कि अगर तुम ने साक्षी आत्मा को देख लिया तो वह साक्षी आत्मा साक्षी आत्मा ही नहीं है। साक्षी वह है जिसने उसको देखा। जिसे तुम देख सकते हो वह तुम नहीं हो। जिसका तुम निरीक्षण कर सकते हो वह तुम नहीं हो। जिसका तुम्हें बोध हो सकता है वह तुम नहीं हो।
लेकिन मन के पार एक बिंदु आता है जहां तुम मात्र हो, बस हो। अब तुम अपने अखंड अस्तित्व को दो में नहीं बांट सकते, दृश्य और द्रष्टा में नहीं बांट सकते।
वहां केवल द्रष्टा है, मात्र साक्षीभाव है। इस बात को बुद्धि से, तर्क से समझना बहुत कठिन है, क्योंकि वहां बुद्धि की सभी कोटियां समाप्त हो जाती हैं।
तर्क की इस कठिनाई के कारण चार्वाक ने, जिसने संसार के एक अत्यंत तर्कपूर्ण दर्शनशास्त्र की स्थापना की, कहा कि तुम आत्मा को नहीं जान सकते हो, कोई आत्म—ज्ञान नहीं होता है। और क्योंकि आत्म—ज्ञान नहीं होता है, इसलिए तुम कैसे कह सकते हो कि आत्मा है! जो भी तुम जानते हो वह आत्मा नहीं है। जो जानता है वह आत्मा है, जो जाना जाता है वह आत्मा नहीं हो सकता। इसलिए तुम तर्क के अनुसार नहीं कह सकते कि मैंने अपनी आत्मा को जान लिया। वह बेतुका है, तर्कहीन है। तुम अपनी आत्मा को कैसे जान सकते हो? क्योंकि तब कौन जानेगा और किसको जानेगा?
ज्ञान का अर्थ है द्वैत—विषय और विषयी के बीच, ज्ञाता और ज्ञात के बीच। इसलिए चार्वाक कहता है कि जो लोग कहते हैं कि हमने आत्मा को जान लिया है वे मूढ़ता की बात करते हैं। आत्म—ज्ञान असंभव है; क्योंकि आत्मा निर्विवाद रूप से जानने वाला है, उसे जाना जाने वाले में बदला नहीं जा सकता। और तब चार्वाक कहता है कि अगर तुम आत्मा को नहीं जान सकते तो यह कैसे कह सकते हो कि आत्मा है?
चार्वाक जैसे लोग, जो आत्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते, अनात्मवादी कहलाते हैं। वे कहते हैं कि आत्मा नहीं है; जिसे जाना नहीं जा सकता वह नहीं है।
और वे तर्क के अनुसार सही हैं, अगर तर्क ही सब कुछ है तो वे सही हैं। लेकिन जीवन का यह रहस्य है कि तर्क सिर्फ आरंभ है, अंत नहीं। एक क्षण आता है जब तर्क समाप्त हो जाता है, लेकिन तुम समाप्त नहीं होते। एक क्षण आता है जब तर्क खतम हो जाता है, लेकिन तुम तब भी होते हो। जीवन अतर्क्य है। यही कारण है कि यह समझना बहुत कठिन होता है कि सिर्फ साक्षी बचता है।
उदाहरण के लिए अगर इस कमरे में एक दीया हो तो तुम्हें अपने चारों ओर बहुत सी चीजें दिखाई देती हैं। और अगर दीए को बुझा दिया जाए तो अंधेरा हो जाएगा, कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा। और उसे फिर जला दिया जाए तो प्रकाश हो जाएगा और कमरे की सब चीजें तुम्हें दिखाई देंगी। लेकिन क्या तुमने इस बात का निरीक्षण किया है कि इसमें घटित क्या होता है? अगर कमरे में कोई आब्जेक्ट नहीं हो, कोई चीज नहीं हो, तो क्या तुम दीए और उसके प्रकाश को देख सकोगे?
तुम दीए के प्रकाश को नहीं देख सकते, क्योंकि देखे जाने के लिए प्रकाश को कुछ प्रकाशित करना जरूरी है। प्रकाश को किसी आब्जेक्ट पर, किसी वस्तु पर पड़ना चाहिए। जब उसकी किरणें किसी विषय—वस्तु पर पड़ती हैं तब वह चीज प्रकाशित होती है और तभी वह तुम्हारी आंखों के लिए दृश्य होती है। पहले तुम्हें चीजें दिखाई देती हैं और उनसे तुम अनुमान लगाते हो कि प्रकाश है।
जब तुम कोई दीया या मोमबत्ती जलाते हो तो तुम पहले प्रकाश को कभी नहीं देखते, पहले तुम्हें चीजें दिखाई देती हैं और उन चीजों के कारण तुम प्रकाश को जान पाते हो। वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर चीजें न हों, विषय न हों, तो प्रकाश को नहीं देखा जा सकता।
आकाश को देखो, वह नीला दिखाई देता है। लेकिन आकाश नीला नहीं है; वह कास्मिक—किरणों से भरा है। क्योंकि वहां कोई विषय—वस्तु नहीं है, इसीलिए आकाश नीला
दिखाई देता है। वे किरणें प्रतिबिंबित नहीं कर सकतीं, तुम्हारी आंखों तक नहीं आ सकतीं। अगर तुम अंतरिक्ष में जाओ और वहां कोई वस्तु न हो तो तुम्हें वहां अंधेरा ही अंधेरा मालूम पड़ेगा। हालांकि तुम्‍हारे बगल से किरणें गुजरती रहेंगी, लेकिन तुम्‍हें अँधेरा ही मालूम पड़ेगा। प्रकाश को जानने के लिए विषय—वस्तु का होना जरूरी है।
तो चार्वाक कहता है कि अगर तुम भीतर जाते हो और उस बिंदु पर पहुंचते हो जहां सिर्फ साक्षी बचता है और कुछ देखने को नहीं बचता, तो तुम यह बात कैसे जानोगे? देखने के लिए कोई विषय अवश्य चाहिए; तभी तुम साक्षित्व को जान सकते हो।
तर्क के अनुसार, विज्ञान के अनुसार यह सही है; लेकिन यह अस्तित्वत सही नहीं है। जो लोग सचमुच भीतर प्रवेश करते हैं वे ऐसे बिंदु पर पहुंचते हैं जहां मात्र चैतन्य के अतिरिक्त कोई भी विषय नहीं रहता है। तुम हो, लेकिन देखने को कुछ भी नहीं है—मात्र द्रष्टा है, एकमात्र द्रष्टा। अपने आस—पास किसी विषय के बिना शुद्ध विषयी होता है। जिस क्षण तुम इस बिंदु पर पहुंचते हो, तुम अपने अस्तित्व के परम लक्ष्य पर पहुंच गए। उसे तुम आदि कह सकते हो। उसे तुम अंत भी कह सकते हो, वह आदि और अंत दोनों है। वह आत्म—ज्ञान है। भाषागत रूप से यह आत्म—ज्ञान शब्द गलत है; क्योंकि भाषा में इसके संबंध मैं कुछ भी नहीं कहा जा सकता। जब तुम अद्वैत के जगत में प्रवेश करते हो, तो भाषा व्यर्थ हो जाती है। भाषा तभी तक सार्थक है जब तक तुम द्वैत के जगत में हो। द्वैत के जगत में भाषा अर्थवान है; क्योंकि भाषा द्वैतवादी जगत की कृति है, उसका हिस्सा है। अद्वैत में प्रवेश करते ही भाषा व्यर्थ हो जाती है।
यही कारण है कि जो जानते हैं वे चुप ही रहते हैं; और यदि वे कुछ कहते भी हैं तो वे उसमें तुरंत यह जोड़ देते हैं कि जो कहा जा रहा है वह महज प्रतीकात्मक है, और जो कहा जा रहा है वह सर्वथा सच नहीं है, वह गलत है।
लाओत्से ने कहा है कि जो कहा जा सकता है वह सच नहीं हो सकता और जो सच है वह कहा नहीं जा सकता। वह मौन रह गया। जिंदगी के अंतिम दिनों तक उसने कुछ भी लिखने से इनकार किया। उसने कहा कि अगर मैं कुछ कहूं तो वह असत्य हो जाएगा; क्योंकि उस जगत के संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता जहां एक ही बचता है।
'आंखें बंद करके अपने अंतरस्थ अस्तित्व को विस्तार से देखो।
शरीर और मन दोनों को विस्तार से देखो।
'इस प्रकार अपने सच्चे स्वभाव को देख लो।
अपने शरीर और मन और पूरी संरचना को देखो। और याद रहे, शरीर और मन दो नहीं हैं, बल्कि तुम दोनों हो—शरीर—मन, मनो—शरीर। मन शरीर का सूक्ष्म अंश है और शरीर मन का स्थूल अंश है। तो अगर तुम शरीर—मन की संरचना के प्रति जागरूक हो जाओ, अगर तुम उनकी संरचना को जान लो, तो तुम संरचना से मुक्त हो जाते हो। तब तुम वाहन से मुक्त हो गए तुम भिन्न हो गए।
और यह जानना ही कि मैं शरीर—मन से पृथक हूं तुम्हारा सच्चा स्वभाव है। यही तुम यथार्थत: हो। यह शरीर मर जाएगा, लेकिन सच्चा स्वभाव कभी नहीं मरता है। यह मन भी बदलेगा और मरेगा, बार—बार मरेगा, लेकिन सच्चा स्वभाव कभी नहीं मरता है। सच्चा स्वभाव शाश्वत है। यही कारण है कि स्वभाव तुम्हारा नाम—रूप नहीं है, वह दोनों के पार है।
तो इस विधि का प्रयोग कैसे करें? आंखों का समग्र रूप से बंद होना जरूरी है। अगर तुम इसका प्रयोग करते हो तो पहले आंखें बंद करो और फिर आंखों की सारी गति रोक दो। अपनी आंखों को पत्थर की तरह हो जाने दो, गति बिलकुल बंद कर दो। इसका अभ्यास करते हुए किसी दिन अचानक, हठात तुम अपने अंदर देखने में समर्थ हो जाओगे। वे आंखें जो सतत बाहर देखने की आदी थीं भीतर को मुड़ जाएंगी और तुम्हें अपने अंतरस्थ की एक झलक मिल जाएगी। और तब कोई कठिनाई नहीं रहेगी।
एक बार तुम्हें अंतरस्थ की झलक मिल गई तो तुम जानते हो कि क्या किया जाए और कैसे गति की जाए। पहली झलक ही कठिन है। उसके बाद तुम्हें तरकीब हाथ लग गई। तब वह एक खेल, एक युक्ति की बात हो जाएगी। किसी भी क्षण तुम अपनी आंखें बंद कर सकते हो, उन्हें स्थिर कर सकते हो और अंतस में प्रवेश कर सकते हो।
बुद्ध मर रहे थे। यह उनके जीवन का अंतिम दिन था। और उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि कुछ पूछना हो तो पूछो। शिष्य रो रहे थे, आंसू बहा रहे थे। उन्होंने बुद्ध से कहा कि आपने हमें इतना समझाया; अब पूछने को क्या बाकी है! बुद्ध की आदत थी कि वे एक बात को तीन बार पूछते थे। वे एक बार ही पूछकर नहीं रुकते थे। उन्होंने एक बार फिर पूछा। और फिर तीसरी बार पूछा कि कोई प्रश्न तो नहीं पूछना है।
कई बार बुद्ध से पूछा गया कि आप एक ही बात को तीन—तीन बार क्यों पूछते हैं? उन्होंने कहा 'क्योंकि मनुष्य इतना अचेतन है, बेहोश है कि हो सकता है कि वह पहली बार नहीं सुने और दूसरी बार भी चूक जाए।
तो तीन बार उन्होंने पूछा और हर बार उनके भिक्षुओं ने, शिष्यों ने कहा कि हम अब कुछ भी नहीं पूछना चाहते; आपने हमें इतना समझाया है। तब बुद्ध ने अपनी आंखें बंद कर लीं और कहा : अगर तुम कुछ नहीं पूछना चाहते हो तो मैं शरीर की मृत्यु के पहले ही उससे हट जाऊंगा; इसके पहले कि मृत्यु शरीर में प्रवेश करे मैं शरीर से हट जाऊंगा। और उन्होंने आंखें बंद कर लीं और वे शरीर से अलग होने लगे।
कहा जाता है कि बुद्ध की इस आंतरिक यात्रा के चार चरण थे। पहले उन्होंने आंखें बंद कीं और तब उन्होंने आंखों को स्थिर कर लिया। उनमें कोई गति न रही। उस समय यदि तुम रेम—रिकार्डिंग कर प्रयोग करते, तो उसमें कोई ग्राफ नहीं बनता। आंखें स्थिर हो गईं, यह दूसरी बात हुई। और तीसरी बात कि उन्होंने अपने शरीर को देखा और अंत में अपने मन को देखा। यह उनकी पूरी यात्रा थी। मृत्यु घटित होने के पहले वे अपने केंद्र पर, मूल स्रोत पर पहुंच गए।
यही वजह है कि उनकी मृत्यु मृत्यु नहीं कहलाती है। हम उसे निर्वाण कहते हैं, मृत्यु नहीं। यह फर्क है। सामान्यत: हम मरते हैं, क्योंकि हमारी मृत्यु घटित होती है। बुद्ध के साथ यह मृत्यु नहीं घटित हुई। मृत्यु के आने के पहले वे अपने स्रोत को वापस लौट गए थे। उनके मृत शरीर की ही मृत्यु हुई। वे वहां मौजूद नहीं थे।
बौद्ध परंपरा में कहा जाता है कि बुद्ध की कभी मृत्यु नहीं घटित हुई; मृत्यु उन्हें पकड़ ही नहीं पाई। मृत्यु ने उनका पीछा तो किया, जैसे कि वह सबका पीछा करती है; लेकिन वे उसके जाल में नहीं आए। मृत्यु उनके द्वारा छली गई। बुद्ध मृत्यु के पार खड़े होकर हंस रहे होंगे; क्योंकि मृत्यु मृत शरीर के पास खड़ी थी।
यह वही विधि है। इसक़े चार चरण करो और आगे बढ़ो। और जब एक झलक मिल जाएगी तो पूरी चीज आसान और सरल हो जाएगी। तब तुम किसी भी क्षण अंदर जा सकते हो और बाहर आ सकते हो—वैसे ही जैसे तुम अपने घर के बाहर— भीतर होते हो।

देखने की दूसरी विधि:
किसी कटोरे को उसके पार्श्व— भाग या पदार्थ को देखे बिना देखो। थोड़े ही क्षणों में बोध को उपलब्ध हो जाओ।

किसी भी चीज को देखो। एक कटोरा या कोई भी चीज काम देगी। लेकिन देखने की गुणवत्ता भिन्न हो।
'किसी कटोरे को उसके पार्श्व— भाग या पदार्थ को देखे बिना देखो।
किसी भी चीज को देखो; लेकिन इन दो शर्तों के साथ। चीज के पार्श्व— भाग को, किनारों को मत देखो, पूरे विषय को, पूरी चीज को देखो। आमतौर से हम अंशों को देखते हैं। हो सकता है कि यह सचेतन न हो; लेकिन हम अंशों को ही देखते हैं। अगर मैं तुम्हें देखता हूं तो पहले तुम्हारा चेहरा देखता हूं तब धड़ को और तब पूरे शरीर को देखता हूं।
किसी विषय को पूरे का पूरा देखो, उसे टुकड़ों में मत बांटो। क्यों? इसलिए कि जब तुम किसी चीज को हिस्सों में बांटते हो तो आंखों को हिस्सों में देखने का मौका मिलता है। चीज को उसकी समग्रता में देखो। तुम यह कर सकते हो।
मैं तुम सभी को दो ढंग से देख सकता हूं। मैं एक तरफ से देखता हुआ आगे बढ़ सकता हूं। पहले अ को देखूं तब ब को और तब स को, और इस तरह आगे बढूं। लेकिन जब मैं अ, ब या स को देखता हूं तो मैं उपस्थित नहीं रहता हूं; यदि उपस्थित भी रहूं तो किनारे पर, परिधि पर उपस्थित रहता हूं। और उस हालत में मेरी दृष्टि एकाग्र और समग्र नहीं रहती है। क्योंकि जब मैं ब को देखता हूं तो अ से हट जाता हूं और जब स को देखता हूं तो अ पूरी तरह खो जाता है, मेरी निगाह से बाहर चला जाता है। इस समूह को देखने का एक ढंग यह है। लेकिन मैं इस पूरे समूह को व्यक्तियों में, इकाइयों में बांटे बगैर भी पूरे का पूरा देख सकता हूं। इसका प्रयोग करो। पहले किसी चीज को अंश—अंश में देखो—प्ल अंश के बाद दूसरे अंश को। और तब अचानक उसे पूरे का पूरा देखो, उसे टुकड़ों में बांटो मत। जब तुम किसी चीज को पूरे का पूरा देखते हो, तो आंखों को गति करने की जरूरत नहीं रहती। आंखों को गति करने का मौका न मिले, इस उद्देश्य से ही ये शर्तें रखी गई हैं।
एक कि पूरे विषय को उसकी समग्रता में देखो, पूरे का पूरा देखो। और दूसरी कि पदार्थ को मत देखो। अगर कटोरा लकड़ी का है तो लकड़ी को मत देखो, सिर्फ कटोरे को देखो, उसके रूप को देखो। पदार्थ को मत देखो; वह सोने का हो सकता है, चांदी का हो सकता है। उसे देखो, वह किस चीज का बना है यह मत देखो। केवल उसके रूप को देखो। पहली बात कि उसे पूरे का पूरा देखो, और दूसरी कि उसके पदार्थ को नहीं, रूप को देखो। क्यों? पदार्थ कटोरे का भौतिक भाग है और रूप उसका अभौतिक भाग है। और तुम्हें पदार्थ से अपदार्थ की ओर गति करनी है। यह सहयोगी होगा, प्रयोग करो। किसी व्यक्ति के साथ भी प्रयोग कर सकते हो। कोई पुरूष या कोई स्‍त्री खड़ी है, उसे देखो। उस स्‍त्री या पुरूष को पूरे का पूरा, समग्रत: अपनी दृष्टि में समेटो।
शुरू—शुरू में यह कुछ अजीब सा लगेगा; क्योंकि तुम इसके आदी नहीं हो। लेकिन अंत में यह बहुत सुंदर अनुभव होगा। और तब यह मत सोचो कि शरीर सुंदर है या असुंदर, गोरा है या काला, मर्द है या औरत। सोचो मत; रूप को देखो, सिर्फ रूप को। पदार्थ को भूल जाओ और केवल रूप पर निगाह रखो।
'थोड़े ही क्षणों में बोध को उपलब्ध हो जाओ।
रूप को समग्रता में देखते जाओ। आंखों को गति मत करने दो और यह मत सोचने लगो कि कटोरा किस चीज का बना है। ऐसे देखने से क्या घटित होगा?
तुम एकाएक स्वयं के प्रति, अपने प्रति बोध से भर जाओगे। किसी चीज को देखते हुए तुम अपने को जान लोगे। क्यों? क्योंकि आंखों को बाहर गति करने की गुंजाइश न रही। रूप को समग्रता में लिया गया है, इसलिए तुम उसके अंशों में नहीं जा सकते। पदार्थ को छोड़ दिया गया है, शुद्ध रूप को लिया गया है। अब तुम उसके पदार्थ सोना, चांदी, लकड़ी वगैरह के —संबंध में नहीं सोच सकते। रूप शुद्ध है; उसके संबंध में सोचना संभव नहीं है। रूप बस रूप है, उसके संबंध में क्या सोचोगे?
अगर वह सोने का है तो तुम हजार बातें सोच सकते हो। तुम सोच सकते हो कि यह मुझे पसंद है, कि मैं इसे चुरा लूं र या इसके संबंध में कुछ करूं, या इसे बेच दूं या हो सकता है कि तुम उसकी कीमत की सोचो। बहुत सी बातें संभव हैं। लेकिन शुद्ध रूप के संबंध में सोचना संभव नहीं है। शुद्ध रूप सोच—विचार को बंद कर देता है।
और तुमने कटोरे को उसकी समग्रता में लिया है। इसलिए उसके एक भाग से दूसरे भाग पर गति करने की संभावना न रही। तुम्हें समग्र के साथ रहना है और रूप के साथ रहना है। तब हठात तुम स्वयं को, अपने को जान लोगे। क्योंकि अब आंखें गति नहीं कर सकती हैं। और आंखों को गति करने की जरूरत है, यह उनका स्वभाव है। इसलिए अब तुम्हारी दृष्टि तुम पर लौट आएगी। यह दृष्टि की अंतर्यात्रा है; दृष्टि स्रोत पर लौट आएगी और तुम अचानक स्वयं के प्रति जाग जाओगे।
यह स्वयं के प्रति जागना जीवन का सर्वाधिक आनंदपूर्ण क्षण है, यही समाधि है। जब पहली बार तुम स्वयं के बोध से भरते हो तो उसमें जो सौंदर्य, जो आनंद होता है, उसकी तुलना तुम किसी भी जानी हुई चीज से नही कर सकते। सच तो यह है कि पहली बार तुम स्वयं होते हो, आत्मवान होते हो, पहली बार तुम जानते हो कि मैं हूं। तुम्हारा होना बिजली की कौंध की तरह पहली बार प्रकट होता है। लेकिन यह क्यों होता है?
तुम ने देखा होगा, खासकर बच्चों की किताबों में या किसी मनोविज्ञान की किताब में—मुझे आशा है कि हरेक ने कहीं न कहीं देखा होगा—एक की स्त्री का चित्र। इस चित्र में, जिन रेखाओं से वह चित्र बना है, उसके भीतर ही एक सुंदर युवती का चित्र भी छिपा है। चित्र एक ही है, रेखाएं भी वही हैं, लेकिन आकृतियां दो हैं—एक बूढ़ी स्त्री की और दूसरी युवती की।
उस चित्र को देखो तो एक साथ दोनों चित्रों को नहीं देख पाओगे। एक बार में उनमें से एक का ही बोध तुम्हें हो सकता है। अगर की स्त्री दिखाई देगी तो वह जवान स्त्री नहीं दिखाईं देगी, वह छिपी रहेगी। तुम उसे ढूंढना भी चाहोगे तो कठिन होगा; प्रयास बाधा बन जाएगा। कारण कि तुम की स्त्री के प्रति बोधपूर्ण हो गए हो, की स्त्री तुम्हारी निगाह में बैठ गई है। इस दृष्टि के साथ युवती को ढूंढ पाना असंभव होगा, तुम उसे न ढूंढ सकोगे। तो इसके लिए तुम्हें एक तरकीब करनी होगी।
बूढ़ी स्त्री को एकटक देखो; युवती को बिलकुल भूल जाओ। की स्त्री पर, उसके चित्र पर टकटकी लगाओ। टकटकी! एकटक देखते जाओ। अकस्मात बूढ़ी स्त्री विदा हो जाएगी और उसके पीछे छिपी युवती को तुम देख लोगे। क्यों? अगर तुमने उसको ढूंढने की कोशिश की तो तुम चूक जाओगे।
इस भांति के चित्र बच्चों को पहेली के रूप में दिए जाते हैं और उनसे कहा जाता है कि दूसरे को ढूंढो। वे झट ढूंढने लगते हैं और इस प्रयास के कारण ही चूक जाते हैं।
तरकीब यह है कि उसे खोजो मत; चित्र को एकटक देखो और तुम उसे जान लोगे। दूसरे को भूल जाओ, उसका विचार करने की भी जरूरत नहीं है।
तुम्हारी आंखें किसी एक बिंदु पर रुकी नहीं रह सकती हैं। अगर तुम बूढ़ी स्त्री के चित्र पर टकटकी लगाओगे, तो तुम्हारी आंखें थक जाएंगी। तब वे अकस्मात उस चिएत्र से हटने लगेंगी। और इस हटने के क्रम में ही तुम दूसरे चित्र को देख लोगे, जो उस की स्त्री के चित्र के बाजू में छिपा था, उन्हीं रेखाओं में छिपा था।
लेकिन चमत्कार यह है कि अब तुम्हें युवा स्त्री का बोध होगा तो बूढ़ी स्त्री तुम्हारी आंखों से ओझल हो जाएगी। पर अब तुम्हें पता है कि दोनों वहां हैं। शुरू में तो चाहे तुम को विश्वास नहीं होता कि वहा एक युवती छिपी है, लेकिन अब तो तुम जानते हो कि बूढ़ी स्त्री छिपी है, क्योंकि तुम उसे पहले देख चुके हो। अब तुम जानते हो कि बूढ़ी स्त्री वहां है, लेकिन जब तक युवती को देखते रहोगे, तुम साथ—साथ की स्त्री को नहीं देख सकोगे। और जब बूढ़ी स्त्री को देखोगे तो युवती गायब हो जाएगी। दोनों चित्र युगपत नहीं देखे जा सकते; एक बार में एक ही देखा जा सकता है।
बाहर और भीतर को देखने के संबंध में भी यही बात घटित होती है; तुम दोनों को एक साथ नहीं देख सकते। जब तुम कटोरे या किसी चीज को देखते हो तो तुम बाहर देखते हो। चेतना बाहर गति कर रही है, नदी बाहर बह रही है। तुम्हारा ध्यान कटोरे पर है; उसे एकटक देखते रहो। यह टकटकी ही भीतर जाने की सुविधा बना देगी। तुम्हारी आंखें थक जाएंगी; वे गति करना चाहेंगी। बाहर जाने का कोई उपाय न देखकर नदी अचानक पीछे मुड़ जाएगी। वही एकमात्र संभावना बची है। तुम ने अपनी चेतना को पीछे लौटने के लिए मजबूर कर दिया। और जब तुम अपने प्रति जागरूक होगे तो कटोरा विदा हो जाएगा, कटोरा वहां नहीं होगा।
यही वजह है कि शंकर या नागार्जुन कहते हैं कि सारा जगत माया है। उन्होंने ऐसा ही जाना। जब हम अपने को जानते हैं तो जगत नहीं रहता है। हकीकत में जगत माया नहीं है; वह है। लेकिन समस्या यह है कि तुम दोनों जगतों को एक साथ नहीं देख सकते हो। जब शंकर अपने में प्रवेश करते हैं, अपनी आत्मा को जान लेते हैं, जब वे साक्षी हो जाते हैं, तो संसार नहीं रहता है। वे भी सही हैं। वे कहते हैं यह माया है, यह भासता है, है नही।
तो तथ्य के प्रति जागो। जब तुम संसार को जानते हो तो तुम नहीं हो। तुम हो, लेकिन प्रच्छन्न हो, और तुम विश्वास नहीं कर सकते कि मैं प्रच्छन्न हूं। तुम्हारे लिए संसार अतिशय मौजूद है। और अगर तुम अपने को सीधे देखने की कोशिश करोगे तो यह कठिन होगा। प्रयत्न ही बाधा बन जा सकता है।
इसलिए तंत्र कहता है कि अपनी दृष्टि को कहीं भी संसार में, किसी भी विषय पर स्थिर करो, और वहा से मत हटो। वहा टिके रहो। टिके रहने का यह प्रयत्न ही यह संभावना पैदा कर देगा कि चेतना प्रतिक्रमण करने लगे, पीछे लौटने लगे। तब तुम स्वयं के प्रति बोध से भरोगे।
लेकिन जब तुम स्वयं के प्रति जागोगे तो कटोरा नहीं रहेगा। कटोरा तो है, लेकिन वह तुम्हारे लिए नहीं रहेगा। इसलिए शंकर कहते हैं कि संसार माया है। जब तुम स्वयं को जान लेते हो तो जगत नहीं रहता है, स्‍वप्‍नवत विलीन हो जाता है।
लेकिन चार्वाक, एपिकुरस और मार्क्स, वे भी सही हैं। वे कहते हैं कि जगत सत्य है और आत्मा मिथ्या है, वह कहीं मिलती नहीं। वे कहते हैं, विज्ञान सही है। विज्ञान कहता है कि केवल पदार्थ है, केवल विषय हैं, विषयी नहीं है। वे भी सही हैं; क्योंकि उनकी आंखें अभी विषय पर टिकी हैं। वैज्ञानिक का ध्यान निरंतर विषयों से बंधा होता है, वह आत्मा को बिलकुल भूल बैठता है।
शंकर और मार्क्स दोनों एक अर्थ में सही हैं और एक अर्थ में गलत हैं। अगर तुम संसार से बंधे हो, अगर तुम्हारी दृष्टि संसार पर टिकी है, तो आत्मा माया मालूम होगी, स्‍वप्‍नवत लगेगी। और अगर तुम भीतर देख रहे हो तो संसार स्‍वप्‍नवत हो जाएगा। संसार और आत्मा दोनों सत्य हैं, लेकिन दोनों के प्रति युगपत सजग नहीं हुआ जा सकता है। यही समस्या है, और इसमें कुछ भी नहीं किया जा सकता है। या तो तुम की स्त्री से मिलोगे या युवती से। उनमें से एक सदा माया रहेगी।
यह विधि सरलता से उपयोग की जा सकती है। और यह थोड़ा समय लेगी। लेकिन यह कठिन नहीं है। एक बार तुम चेतना की प्रतिगति को, पीछे लौटने की प्रक्रिया को ठीक से समझ लो, तो इस विधि का प्रयोग कहीं भी कर सकते हो। किसी बस या रेलगाड़ी से यात्रा करते हुए' भी यह संभव है, कहीं भी संभव है। और कटोरा या किसी खास विषय की जरूरत नहीं है। किसी भी चीज से काम चलेगा। किसी भी चीज को एकटक देखते रहो, देखते ही रहो। और अचानक तुम भीतर मुड़ जाओगे और रेलगाड़ी या बस खो जाएगी।
निश्चित ही जब तुम अपनी आंतरिक यात्रा से लौटोगे तो तुम्हारी बाहरी यात्रा भी काफी हो चुकेगी; लेकिन रेलगाड़ी खो जाएगी। तुम एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन पहुंच जाओगे और उनके बीच रेलगाड़ी नहीं, अंतराल रहेगा। रेलगाड़ी तो थी; अन्यथा तुम दूसरे स्टेशन पर कैसे पहुंचते! लेकिन वह तुम्हारे लिए नहीं थी।
जो लोग इस विधि का प्रयोग कर सकते हैं वे इस संसार में सरलता से रह सकते हैं। याद रहे, वे किसी भी क्षण किसी भी चीज को गायब करा सकते हैं। तुम अपनी पत्नी या अपने पति से तंग आ गए हो, तुम उसे विलीन करा सकते हो। तुम्हारी पत्नी तुम्हारे बाजू में ही बैठी है, और वह नहीं है। वह माया हो गई है, प्रच्छन्न हो गई है। सिर्फ टकटकी बांधकर और अपनी चेतना को भीतर ले जाकर उसे तुम अपने लिए अनुपस्थित कर सकते हो। और ऐसा कई बार हुआ।
मुझे सुकरात की याद आती है। उसकी पत्नी जेनथिप्पे उसके लिए बहुत चिंतित रहा करती थी। और कोई भी पत्नी उसकी जगह वैसे ही परेशान रहती। सुकरात को पति के रूप में बर्दाश्त करना महाकठिन काम है। सुकरात शिक्षक के रूप में तो ठीक है; लेकिन पति के रूप में नहीं।
एक दिन की बात है, और इस घटना के चलते सुकरात की पत्नी दो हजार वर्षों से निरंतर निंदित रही है; लेकिन मेरे विचार में यह निंदा उचित नहीं है। उसने कोई भूल नहीं की थी। सुकरात बैठा था और उसने इस विधि जैसा ही कुछ किया होगा; इसका उल्लेख नहीं है, यह मेरा अनुमान भर है। उसकी पत्नी उसके लिए ट्रे में चाय लेकर आई। उसने देखा होगा कि सुकरात वहा नहीं है। और इसलिए, कहा जाता है कि, उसने सुकरात के चेहरे पर चाय उड़ेल दी। और अचानक वह वापस आ गया। आजीवन उसके चेहरे पर जलने के दाग पड़े रहे।
इस घटना के कारण सुकरात की पत्नी की बहुत निंदा हुई। लेकिन कोई नहीं जानता है कि सुकरात उस समय क्या कर रहा था। क्योंकि कोई पत्नी अचानक ऐसा नहीं कर सकती, उसकी कोई जरूरत नहीं है। उसने अवश्य कुछ किया होगा। कोई ऐसी बात अवश्य हुई होगी जिस वजह से जेनथिप्पे को उस पर चाय उड़ेल देनी पड़ी। वह जरूर किसी आंतरिक समाधि में चला गया होगा। और गरम चाय की जलन के कारण समाधि से वापस लौटा होगा। इस जलन के कारण ही उसकी चेतना लौटी होगी। ऐसा हुआ होगा, यह मेरा अनुमान है। क्योंकि सुकरात के संबंध में ऐसी ही अनेक घटनाओं का उल्लेख मिलता है।
एक बार ऐसा हुआ कि सुकरात अड़तालीस घंटों तक लापता रहा। सब जगह उसकी खोजबीन की गई। सारा एथेंस सुकरात की तलाश में संलग्न हो गया। लेकिन वह कहीं नहीं मिला। और जब मिला तो वह नगर से बहुत दूर किसी वृक्ष के नीचे खड़ा था। उसका आधा शरीर बर्फ से ढंका था। बर्फ गिर रही थी और वह भी बर्फ हो गया था। वह खड़ा था और उसकी आंखें खुली थीं, लेकिन वे आंखें किसी भी चीज को देख नहीं रही थीं।
जब लोग उसके चारों तरफ जमा हो गए और उन्होंने उसकी आंखों में झांका तो उन्हें लगा कि वह मर गया है। उसकी आंखें पत्थर जैसी हो गई थीं; वे देख रही थीं, लेकिन किसी खास चीज को नहीं देख रही थीं। वे स्थिर थीं, अचल थीं। फिर लोगों ने उसकी छाती पर हाथ रखा और तब उन्हें भरोसा हुआ कि वह जीवित है। उसकी छाती हौले—हौले धड़क रही थी। तब उन्होंने उसे हिलाया—डुलाया और उसकी चेतना वापस लौटी।
होश में आने पर उससे पूछताछ की गई। पता चला कि अड़तालीस घंटों से वह यहां था और उसे इन घंटों का पता ही नहीं चला। मानो ये घंटे उसके लिए घटित नहीं हुए। इतनी देर वह देश—काल के इस जगत में नहीं था। तो लोगों ने पूछा कि तुम इतनी देर कर क्या रहे थे? हम तो समझे कि तुम मर गए। अड़तालीस घंटे!
सुकरात ने कहा: 'मैं तारों को एकटक देख रहा था और तब अचानक ऐसा हुआ कि तारे खो गए। और तब, मैं नहीं कह सकता, सारा संसार ही विलीन हो गया। लेकिन मैं ऐसी शीतल, शांत और आनंदपूर्ण अवस्था में रहा कि अगर उसे मृत्यु कहा जाए तो वह मृत्यु हजारों जिंदगी के बराबर है। अगर यह मृत्यु है तो मैं बार—बार इस मृत्यु में जाना पसंद करूंगा।
संभव है, यह बात उसकी जानकारी के बिना घटित हुई हो; क्योंकि सुकरात न योगी था न तांत्रिक। सचेतन रूप से वह किसी आध्यात्मिक साधना से संबंधित नहीं था। लेकिन वह बड़ा चिंतक था। और हो सकता है यह बात आकस्मिक घटित हुई हो कि रात में वह तारों को देख रहा हो और अचानक उसकी निगाह अंतर्मुखी हो गई हो।
तुम भी यह प्रयोग कर सकते हो। तारे अदभुत हैं और सुंदर हैं। जमीन पर लेट जाओ, अंधेरे आसमान को देखो और तब अपनी दृष्टि को किसी एक तारे पर स्थिर करो। उस पर अपने को एकाग्र करो, उस पर टकटकी बांध दो। अपनी चेतना को समेटकर एक ही तारे के साथ जोड़ दो, शेष तारों को भूल जाओ। धीरे—धीरे अपनी दृष्टि को समेटो, एकाग्र करो।
दूसरे सितारे दूर हो जाएंगे और धीरे— धीरे विलीन हो जाएंगे और सिर्फ एक तारा बच रहेगा। उसे एकटक देखते जाओ, देखते जाओ। एक क्षण आएगा जब वह तारा भी विलीन हो जाएगा। और जब वह तारा विलीन होगा तब तुम्हारा स्वरूप तुम्हारे सामने प्रकट हो जाएगा।

 देखने की तीसरी विधि:

किसी सुंदर व्यक्ति या सामान्य विषय को ऐसे देखो जैसे उसे पहली बार देख रहे हो।

हले कुछ बुनियादी बातें समझ लो, तब इस विधि का प्रयोग कर सकते हो। हम सदा चीजों को पुरानी आंखों से देखते हैं। तुम अपने घर आते हो तो तुम उसे देखे बिना ही देखते हो, तुम उसे जानते हो, उसे देखने की जरूरत नहीं है। वर्षों से तुम इस घर में सतत आते रहे हो। तुम सीधे दरवाजे के पास आते हो, उसे खोलते हो और अंदर दाखिल हो जाते हो। उसे देखने की क्या जरूरत है?
यह पूरी प्रक्रिया यंत्र—मानव जैसी, रोबोट जैसी है। पूरी प्रक्रिया यांत्रिक है, अचेतन है। यदि कोई चूक हो जाए, ताले में कुंजी न लगे, तो तुम ताले पर दृष्टि डालते हो। कुंजी लग जाए तो ताले को क्या देखना!
यांत्रिक आदत के कारण, एक ही चीज को बार—बार दुहराने के कारण तुम्हारी देखने की क्षमता नष्ट हो जाती है, तुम्हारी दृष्टि का ताजापन जाता रहता है। सच तो यह है कि तुम्हारी आंख का काम ही खतम हो जाता है। इस बात को खयाल में रख लो तो अच्छा। तुम बुनियादी रूप से अंधे हो जाते हो; आंख की जरूरत जो न रही।
स्मरण करो कि तुमने अपनी पत्नी को पिछली दफा कब देखा! संभव है, तुम्हें अपनी पत्नी या पति को देखे वर्षों हो गए हों, हालांकि दोनों साथ ही रहते हो। कितने वर्ष हो गए एक—दूसरे को देखे! तुम एक—दूसरे पर भागती नजर डालकर निकल जाते हो; लेकिन कभी उसे देखते नहीं, पूरी निगाह नहीं डालते। तो जाओ और अपनी पत्नी या पति को ऐसे देखो जैसे कि पहली बार देख रहे हो। क्यों?
क्योंकि जब तुम पहली बार देखते हो तो तुम्हारी आंखों में ताजगी होती है; तुम्हारी आंखें जीवंत होती हैं। समझो कि तुम रास्ते से गुजर रहे हो। एक सुंदर स्त्री सामने से आती है। उसे देखते ही तुम्हारी आंखें सजीव हो उठती हैं, दीप्त बन जाती हैं, उनमें अचानक एक ज्योति
जलने लगती है। हो सकता है, यह स्त्री किसी की पत्नी हो। उसका पति उसे नहीं देखना चाहेगा; वह इस स्त्री के प्रति वैसे ही अंधा है जैसे तुम अपनी पत्नी के प्रति अंधे हो। क्यौं? क्‍योंकि पहली बार ही आंखों की जरूरत पड़ती है; दूसरी बार उतनी नहीं और तीसरी बार बिलकुल नहीं। कुछ पुनरुक्तियों के बाद हम अंधे हो जाते हैं। और हम अंधे ही जीते हैं।
जरा होश से देखो। जब तुम अपने बच्चों से मिलते हो, क्या तुम उन्हें देखते भी हो? नहीं, तुम उन्हें नहीं देखते। नहीं देखने की आदत आंखों को मुर्दा बना देती है। आंखें ऊब जाती हैं, थक जाती हैं। उन्हें लगता है कि पुरानी चीज को ही बार—बार क्या देखना!
सच्चाई यह है कि कोई भी चीज पुरानी नहीं है। तुम्हारी आदत के कारण ऐसा दिखाई पड़ता है। तुम्हारी पत्नी वही नहीं है जो कल थी; हो नहीं सकती। अन्यथा वह चमत्कार है। दूसरे क्षण कोई भी चीज वही नहीं रहती जो थी। जीवन एक प्रवाह है; सब कुछ बहा जा रहा है। कुछ भी तो वही नहीं है।
वही सूर्योदय कल नहीं होगा जो आज हुआ। ठीक—ठीक अर्थों में सूरज कल वही नहीं रहेगा। हर रोज वह नया है। हर रोज उसमें बुनियादी बदलाहट हो रही है। आकाश भी कल वही नहीं रहेगा। आज की सुबह कल फिर नहीं आएगी। और प्रत्येक सुबह की अपनी निजता है, अपना व्यक्तित्व है। आसमान और उसके रंग फिर उसी रूप—रंग में नहीं प्रकट होंगे।
लेकिन तुम ऐसे जीते हो जैसे कि सब कुछ वही का वही है। कहते हैं कि आसमान के नीचे कुछ भी नया नहीं है। लेकिन सच्चाई यह है कि आसमान के नीचे कुछ भी पुराना नहीं है। सिर्फ तुम्हारी आंखें पुरानी हो गई हैं, चीजों की आदी हो गई हैं। तब कुछ भी नया नहीं है।
बच्चों के लिए सब कुछ नया है, इसलिए उन्हें सब कुछ उत्तेजित करता है। समुद्र—तट पर एक रंगीन पत्थर का टुकड़ा देखकर बच्चा मचल उठता है। और तुम स्वयं भगवान को अपने घर आते देखकर भी उत्तेजित नहीं होंगे। तुम कहोगे कि मैं उन्हें जानता हूं मैंने उनके बारे में पढ़ा है। बच्चे उत्तेजित होते हैं; क्योंकि उनकी आंखें नई और ताजा हैं। और हरेक चीज एक नई दुनिया है, नया आयाम है। बच्चों की आंखों को देखो। उनकी ताजगी, उनकी प्रभापूर्ण सजीवता, उनकी जीवंतता को देखो। वे दर्पण जैसी हैं—शांत, किंतु गहरे जाने वाली और ऐसी आंखें ही भीतर पहुंच सकती हैं।
यह विधि कहती है : 'किसी सुंदर व्यक्ति या सामान्य विषय को ऐसे देखो जैसे उसे पहली बार देख रहे हो।
कोई भी चीज काम देगी। अपने जूतों को ही देखो। तुम वर्षों से उनका इस्तेमाल कर रहे हो। आज उन्हें ऐसे देखो जैसे कि पहली बार देख रहे हो और फर्क को समझो। तुम्हारी चेतना की गुणवत्ता अचानक बदल जाती है।
पता नहीं, तुम ने वानगाग का अपने जूते का चित्र देखा है या नहीं। यह एक अति दुर्लभ चित्र है। एक पुराना जूता है—थका हुआ, उदास, मानो मृत्यु के मुंह में हो। यह एक महज फटा—पुराना जूता है; लेकिन उसे देखो, उसे महसूस करो। और तब तुम्हें प्रतीति होगी कि इस जूते ने कैसी लंबी, ऊब भरी जिंदगी काटी है। यह इतना दुखी है, बिलकुल थका—मादा है, जर्जरित है, कि बूढ़े आदमी की तरह यह बूढ़ा जूता प्रार्थना कर रहा है कि हे परमात्मा, मुझे दुनिया से उठा लो। सर्वाधिक मौलिक चित्रों में इस चित्र की गिनती है।
लेकिन सवाल यह है कि वानगाग को यह दिखाई कैसे पड़ा? तुम्हारे पास उससे भी पुराने जूत होंगे—ज्यादा थके—हारे, ज्यादा मरेमराए, ज्यादा दुखी, ज्यादा विपन्न। लेकिन तुम ने कभी उन पर निगाह न डाली होगी। तुम ने यह नहीं देखा होगा कि तुमने उनके साथ क्या किया है, कि तुम्हारा व्यवहार कैसा रहा है। सच तो यह है कि वे तुम्हारी जीवन—गाथा कह रहे हैं; क्योंकि वे तुम्हारे जूते हैं। वे तुम्हारे संबंध में सब कुछ बता सकते हैं। अगर उन्हें लिखना आता हो तो वे उस आदमी की सबसे प्रामाणिक जीवनी लिख डालते, जिनके साथ उन्हें रहना पड़ा। वे उसकी हर मुद्रा, हर मूड को बता देते। जब उनका मालिक प्रेमपूर्ण था तो उसका उनके साथ व्यवहार कुछ और था और जब क्रोध में था तब कुछ और ही। यद्यपि जूतों का उनसे कुछ लेना—देना नहीं था, तो भी हर चीज उन पर छाप छोड़ गई है।
वानगाग के चित्र को गौर से देखो, और तब तुम्हें पता चलेगा कि उसे जूते में क्या—क्या दिखाई पडा था। उसमें सब कुछ है—उसके पहनने वाले का संपूर्ण जीवन—चरित्र। लेकिन उसने यह कैसे देखा होगा?
चित्रकार होने के लिए बच्चे की दृष्टि की ताजगी फिर से प्राप्त करनी होती है। तभी वह किसी चीज को देख सकता है, छोटी से छोटी चीज को भी देख सकता है। और केवल वही देख सकता है।
सिझान ने एक कुर्सी का चित्र बनाया है—महज मामूली कुर्सी का। और तुम हैरान होगे कि एक कुर्सी का क्या चित्र बनाना, उसकी जरूरत क्या है! लेकिन उसने उस चित्र पर महीनों काम किया। तुम उस कुर्सी को देखने के लिए एक क्षण भी नहीं देते और सिझान ने उस पर महीनों काम किया। कारण कि वह कुर्सी को देख सका। कुर्सी के अपने प्राण हैं; उसकी अपनी कहानी है, उसके अपने सुख—दुख हैं। वह जिंदगी से गुजरी है। उसने जिंदगी देखी है। उसके अपने अनुभव हैं, अपनी स्मृतियां हैं। सिझान के चित्र में यह सब अभिव्यक्त हुआ है। लेकिन क्या तुम अपनी कुर्सी को कभी देखते हो? नहीं, कोई नहीं देखता है और न किसी को ऐसे भाव ही उठते हैं।
कोई भी चीज चलेगी। यह विधि तुम्हारी आंखों को ताजा और जीवंत बना देगी—इतना ताजा और जीवंत कि वे भीतर मुड़ सकें और तुम अपने अंतरस्थ को देख लो। लेकिन ऐसे देखो, मानो पहली बार देख रहे हो। इस बात को खयाल में रख लो कि किसी चीज 'को ऐसे देखना है जैसे कि पहली बार देख रहे हो। और तब अचानक किसी समय तुम चकित रह जाओगे कि कैसा सौंदर्य भरा संसार तुम चूके जा रहे थे।
अचानक होश से भर जाओ और अपनी पत्नी को देखो—ऐसे कि पहली बार देख रहे हो। और आश्चर्य नहीं कि तुम्हें उसके प्रति फिर उसी प्रेम की प्रतीति हो जिसका उद्रेक प्रथम मिलन में हुआ था। ऊर्जा की वह लहर, आकर्षण की वह पूर्णता तुम्हें अभिभूत कर देगी। लेकिन 'किसी सुंदर व्यक्ति या सामान्य विषय को ऐसे देखो जैसे कि पहली बार देख रहे हो।
उससे क्या होगा? तुम्हारी दृष्टि तुम्हें वापस मिल जाएगी। तुम अंधे हो। अभी जैसे हो तुम अंधे हो। और वह अंधापन शारीरिक अंधेपन से ज्यादा घातक है; क्योंकि आंख के रहते हुए भी तुम नहीं देख सकते।
जीसस बार—बार कहते हैं 'जिनके आंखें हों वे देखें और जिनके कान हों वे सुनें।
ऐसा लगता है कि जीसस अंधे और बहरे लोगों से बोल रहे हैं। लेकिन वे इस बात को दुहराए चले जाते हैं। क्या वे किसी अंधों की संस्था के अधीक्षक थे? वे कहे ही चले जाते हैं कि देखो, अगर तुम्‍हारे पास आंखें है। वे आंखें वाले सामान्‍य लोगों से ही बोल रहे होंगे। फिर भी आंख के होने पर इतना जोर क्यों देते हैं?
वे उस आंख की बात कर रहे हैं जो आंख तुम्हें इस विधि के प्रयोग से मिल सकती है। जो भी चीज दिखाई पड़े ऐसे देखो जैसे कि पहली बार देख रहे हो। इसे अपनी सतत स्थायी दृष्टि बना लो। किसी चीज को ऐसे छुओ जैसे कि पहली बार छू रहे हो। तब क्या होगा? अगर तुम ऐसा कर सको तो तुम अपने अतीत से मुक्त हो जाओगे। अतीत के बोझ, उसकी गंदगी, उसके संगृहीत अनुभव, उसकी गहनता, सबसे मुक्त हो जाओगे।
प्रत्येक क्षण अपने को अतीत से तोड़ते चलो। अतीत को अपने भीतर प्रवेश मत करने दो। अतीत को अपने साथ मत ढोओ। अतीत को अतीत में ही छोड़ दो। और प्रत्येक चीज को ऐसे देखो जैसे कि पहली बार देख रहे हो। तुम्हें तुम्हारे अतीत से मुक्त करने की यह एक बहुत कारगर विधि है।
इस विधि के प्रयोग से तुम सतत वर्तमान में जीने लगोगे। और धीरे— धीरे वर्तमान के साथ तुम्हारी घनिष्ठता बन जाएगी। तब हरेक चीज नई होगी। और तब तुम हेराक्लाइटस के इस कथन को ठीक से समझ सकोगे कि तुम एक ही नदी में दोबारा नहीं उतर सकते।
तुम एक ही व्यक्ति को दोबारा नहीं देख सकते। क्यों? क्योंकि जगत में कुछ भी स्थायी नहीं है। हर चीज नदी की भांति है—प्रवाहमान और प्रवाहमान। यदि तुम अतीत से मुक्त हो जाओ और तुम्हें वर्तमान को देखने की दृष्टि मिल जाए तो तुम अस्तित्व में प्रवेश कर जाओगे। और यह प्रवेश दोहरा होगा। तुम प्रत्येक चीज में, उसके अंतरतम में प्रवेश कर सकोगे, और तुम अपने भीतर भी प्रवेश कर सकोगे।
वर्तमान द्वार है। और सभी ध्यान किसी न किसी रूप में तुम्हें वर्तमान से जोड्ने की चेष्टा करते हैं, ताकि तुम वर्तमान में जी सको।
तो यह विधि सर्वाधिक सुंदर विधियों में से एक है और सरल भी है। और तुम इसका प्रयोग बिना किसी हानि के कर सकते हो।
तुम किसी गली से दूसरी बार गुजर रहे हो; लेकिन अगर उसे ताजा आंखों से देखते हो तो वही गली नई गली हो जाएगी। तब मिलने पर एक मित्र भी अजनबी मालूम पड़ेगा। ऐसे देखने पर तुम्हारी पत्नी ऐसी लगेगी जैसी पहली बार मिलने पर लगी थी—एक अजनबी। लेकिन क्या तुम कह सकते हो कि तुम्हारी पत्नी या तुम्हारा पति तुम्हारे लिए आज भी अजनबी नहीं है? हो सकता है, तुम उसके साथ बीस, तीस या चालीस वर्षों से रह रहे हो; लेकिन क्या तुम कह सकते हो कि तुम उससे परिचित हो?
वह अभी भी अजनबी है। तुम दो अजनबी एक साथ रह रहे हो। तुम एक—दूसरे की बाह्य आदतों को, बाहरी प्रतिक्रियाओं को जानते हो; लेकिन अस्तित्व का अंतरस्थ अभी भी अपरिचित है, अस्पर्शित है। फिर अपनी पत्नी या पति को ताजा निगाह से देखो, मानो पहली बार देख रहे हो। और वह अजनबी तुम्हें फिर मिल जाएगा। कुछ भी पुराना नहीं हुआ है; सब नया—नया है।
यह प्रयोग तुम्हारी दृष्टि को ताजगी से भर देगा; तुम्हारी आंखें निर्दोष हो जाएंगी। वे निर्दोष आंखें ही देख सकती है। वे निर्दोष आंखें ही अंतरस्‍थ जगत में प्रवेश कर सकती है।

 आज इतना ही।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें