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गुरुवार, 27 अगस्त 2015

मेरा स्‍वर्णिम भारत--(प्रवचन--11)

स्‍वस्‍थ हो जाना उपनिषद् है—(प्रवचन—ग्‍याहरवां)

प्‍यारे ओशो!

तैत्‍तरीयोपनिषद में एक कथा है कि गुरु ने शिष्‍य से नाराज होकर
उसे अपने द्वारा सिखाई गयी विद्या त्‍याग देने को कहा।
तो एवमस्‍तु कहकर शिष्‍य ने विद्या को वमन कर दिया,
जिसे देवताओ ने तीतर का रूप धारण कर एकत्र कर लिया।
      वहीं तैत्‍तरीयोपनिषद् कहलाया।

प्‍यारे ओशो! इस उच्‍छिष्‍ट ज्ञान के संबंध में समझाने की कृपा करें।

जिनस्वरूप! इस संबंध में बहुत—सी बातें विचारणीय हैं। पहली तो बात यह है कि गुरु नाराज नहीं होता। दिखाए भला, अभिनय भला करे, नाराज नहीं होता।
जो अपने से राजी हो गया, अब किसी और से नाराज नहीं हो सकता है। वह असंभावना है। इसलिए गुरु नाराज हुआ हो तो गुरु नहीं था।
'गुरु' शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। गुरु का अर्थ अध्यापक नहीं। गुरु का अर्थ शिक्षक नहीं, आचार्य नहीं। गुरु बनता है दो शब्दों से—गु और रु। गु का अर्थ होता है अंधकार, रु का अर्थ होता है दूर करनेवाला। और क्रोध तो अंधकार है। यह तो ऐसे ही हुआ कि कोई कहे कि दीए के पास अंधकार इकट्ठा हो गया। गुरु और नाराज हो जाए, क्रुद्ध हो जाए—यह स्वभाव के नियम के अंतर्गत आता नहीं। यह जीवन का आधारशिलाओं के विपरीत है।
लेकिन हम ऐसे गुरुओं के संबंध में सुनते रहे हैं, जो नाराज हो जाते हैं। दुर्वासा की कथाएं हैं। वे कथाएं केवल इतना ही कहती हैं कि हमने भूल से किसी शिक्षक को गुरु समझ लिया था। और यह भूल आसान है, क्योंकि शिक्षक वे ही शब्द बोलता है जो गुरु; शायद गुरु से भी ज्यादा सुसंबद्ध उसकी तर्कसरणी हो। गुरु तो थोड़ा अटपटा होगा। इसलिए अटपटा होगा कि जिसने सत्य को जाना है, उसके जीवन में सारे विरोधाभास एक ही ऊर्जा में लीन हो जाते हैं। उसके जीवन में जीवन और मृत्यु का मिलन हो जाता है। उसके अस्तित्व में पदार्थ और आत्मा का भेद नहीं रह जाता। उसकी चर्या में सार और असार में कोई चुनाव नहीं बचता। उसके लिए सोना—मिट्टी; और मिट्टी—सोना। उसके लिए संसार—मोक्ष; और मोक्ष—संसार।
झेन फकीर बोकोजू से किसी ने पूछा : 'मोक्ष के संबंध में कुछ कहें।
बोकोजू ने कहा : 'संसार मोक्ष है।
यह केवल कोई गुरु ही बोल सकता है; कोई शिक्षक बोलने की इतनी छाती कहीं रखता—इतनी विराट छाती कि जिसमें मोक्ष को संसार कहा जा सके, आसान मामला नहीं है। विराट के मिलन पर ही संभव हो सकती है यह अभूतपूर्व घटना।
यह जो तैत्तरीय उपनिषद्में कथा है, इसमें गुरु नहीं हो सकता, शिक्षक रहा होगा। सुंदर शिक्षक रहा होगा। शिक्षा देने की कला में निष्णात रहा होगा। और सौ गुरुओं में निन्यान्नबे केवल शिक्षक होते हैं। कोई गीता में पारंगत होता है, कोई वेद में, कोई कुरान में, कोई बाइबिल में—मगर ये सब शिक्षक हैं। गुरु तो वह जो परमात्मा को पीकर बैठा है। गुरु तो वह जिसके पीछे परमात्मा छाया की तरह चले। कबीर ठीक कहते हैं : 'हरि लागे पाछे फिरत कहत कबीर—कबीर!' कबीर कहते हैं : 'मैं तो फिक्र भी नहीं करता। क्या लेना—देना मुझे हरि से? मगर हरि मेरे पीछे लगे फिरते हैं। जहां जाता हूं वहीं लगे फिरते हैं—जाग तो, सोऊ तो। और दिन—रान धुन लगाए रखते हैं—कबीर—कबीर!
भक्तों ने तो परमात्मा को बहुत पुकारा है, लेकिन यह छाती कबीर की किसी गुरु की हो सकती है जो कहे—'हरि लागे पाछे
फिरत कहत कबीर—कबीर!' तैत्तरीय उपनिषद् का गुरु पहली तो बात गुरु नहीं है। गुरु और कैसा क्रोध! न तो गुरु गुरु है और न शिष्य शिष्य।
शिष्य और विद्यार्थी का भेद वैसे ही समझना जरूरी है जैसे गुरु और शिक्षक का भेद। शिक्षक के पास विद्यार्थी इकट्ठे होते हैं; गुरु के पास शिष्य। गुरु के पास विद्यार्थी पहुंच जाए तो भी टिक नहीं सकता—ज्यादा देर नहीं टिक सकता; टिके भी तो कुछ पाएगा नहीं।

 गुणा ने एक प्रश्न पूछा है कि 'आपकी कुछ बातें तो बुद्धि को रुचती हैं, कुछ बातें नहीं रुचतीं। इसलिए समर्पण पूरा नहीं हो पाता।

 जैसे कि समर्पण भी पूरा और अधूरा हो सकता है! जैसे समर्पण के भी खंड हो सकते हैं! जैसे समर्पण का भी प्रतिशत हो सकता है—दस प्रतिशत, बीस प्रतिशत, पचास प्रतिशत, अस्सी प्रतिशत, निन्यान्नबे प्रतिशत! नहीं गुणा, समर्पण या तो होता है या नहीं होता। गुरु की बात शिष्य को जंचती ही है; दुनिया को न जंचे तो भी जंचती है। तर्क में न बैठे, बुद्धि की पकड़ में न आए, तो भी जंचती है। शिष्य वह है कि जिसके सामने अगर सवाल हो कि गुरु कि बात मानूं या अपने तर्क की, तो वह गुरु की मानता है, तर्क को कहता है, नमस्कार।
विद्यार्थी वह है जो वहा तक शिक्षक के साथ जाता है जहां तक उसका तर्क जाने देता है। विद्यार्थी कभी भी अपने तर्क से एक इंच दूर शिक्षक के साथ नहीं जाता। शिक्षक के साथ जाता ही नहीं, वह तो अपने तर्क का ही भरण—पोषण करता है। वह तो शिक्षक से कुछ ज्ञान, कुछ सूचना एकत्रित करके ले जाएगा। जीवन—रूपांतरण उसकी आकांक्षा नहीं, उसकी अभीप्सा नहीं।
गुणा तो बहुत बर्षों से मुझे जानती है। लेकिन दूरी वैसी की वैसी बनी है और लगता है वैसी की वैसी ही बनी रहेगी। मेरी तरफ से तो पूरी चेष्टा है कि तोड़ दूं दूरी, मगर अगर तेरी बुद्धि को अभी भी निर्णय करता है—कोन—सी बात जंचती है और कोन—सी नहीं जंचती—तो समर्पण अर्सभव है। जहां समर्पण नहीं वहां शिष्यत्व नहीं।
और यह खयाल रखना, गुरु जानकर बहुत—सी ऐसी बातें कहता है जो बुद्धि को जंचेगी नहीं। जानकर कहेगा, क्योंकि वही तो कसौटी है। वही तो परीक्षा है। उसको जो पार कर लेगा, वह शिष्य; जो पार नहीं कर पाएगा, वह विद्यार्थी। गुरु अगर वही—वही कहता रहे जो तुम्हारी बुद्धि को जंचता ही है तो शिष्य और विद्यार्थी में भेद करना ही असंभव हो जाएगा।
विद्यार्थी शिष्य की गरिमा को नहीं पा सकता। विद्यार्थी घिसटता है शिक्षक के प्रति। शिष्य गुरु के आगे नाचता है। गुरु तो इशारा करता है और शिष्य यह गया वह गया! वह यह भी नहीं पूछता—'नक्‍शा कहां है, किस मार्ग से जाऊं, राह में कोई खतरे तो नहीं हैं? सारी सुविधाएं—सुरक्षाए जुटा लूं फिर जाऊंगा। पहले मेरा पूरा तर्क राजी हो जाए, फिर जाऊंगा। थोड़ा और सोच लूं थोड़ा और विचार कर लूं।

एक महानुभाव ने पूछा है : 'मैं संन्यास लेना चाहता हूं लेकिन कुछ बातें अड़चन बन जाती हैं। जैसे कि आपने कहा था कि जब तक मैं रहना चाहूंगा? कोई छुरा भी मारे तो भी मुझे मिटा न सकेगा। और जिस दिन मैं न रहना चाहूंगा, उस दिन एक क्षण कोई लाख उपाय करे तो मुझे टिका न सकेगा।

ह बात उनको जंची। संन्यास का भाव उठा होगा तब। फिर अब उनको अड़चन हो गयी, क्योंकि यहां वे देखते हैं कि संन्यासी
सुरक्षा का आयोजन किए हैं, द्वार पर प्रत्येक व्यक्ति का निरीक्षण किया जाता है, पहरेदार हैं। तो अब उनको अड़चन आयी। अब बुद्धि को चिंता शुरू हुई कि मगर छुरा मारने से भी हटाया नहीं जा सकता, तो सुरक्षा का आयोजन क्यों?
उन्होंने बात को अधूरा ही सुना। हम उतना ही सुनते हैं जितना हम सुनना चाहते हैं। मैंने कहा था : 'छुरा' मारकर मुझे उठाया नहीं जा सकता। सुरक्षा करके मुझे बचाया नहीं जा सकता। न तो मैं छुरा मारनेवालो को रोकने को कुछ कहूंगा और न सुरक्षा करनेवालों को रोकने को कुछ कहूंगा। जब छुरा मारनेवाले स्वतंत्र हैं तो सुरक्षा करनेवालों को क्यों बाधा देनी?
इतनी अकल उनमें न उठी। इतनी अकल अकल में होती ही नहीं। अकल तो बेअकल है!
महात्मा गांधी की मृत्यु के समय उनके पटशिष्य सरदार वल्लभ भाई पटेल के हाथ में सारी सुरक्षा का आयोजन था। वे गृहमंत्री थे, उपप्रधानमंत्री थे। और सरदार को खबर मिली थी सुनिश्चित स्रोतों से कि गांधी की हत्या का आयोजन किया जा रहा है। एक—दो प्रयास भी हो चुके थे, असफल गए थे। तो सरदार ने जाकर महात्मा गांधी को पूछा कि हम सुरक्षा का आयोजन करें? इस पूछने में ही बेईमानी है। क्योंकि जो बंदूक मारने आ रहे थे वे तो पूछकर आ नहीं रहे थे, जब दुश्मन नहीं पूछ रहा है, तो दोस्त क्यों पूछे? और इस पूछने में बेईमानी है इसलिए कि अगर महात्मा गांधी कहते कि ही सुरक्षा का आयोजन करो, तो सरदार वल्लभभाई पटेल की श्रद्धा ही महात्मा गांधी में खत्म हो जाती कि अरे, यह व्यक्ति कहता था कल तक कि राम जब उठाना चाहेगा तब उठाएगा और अब कहने लगा कि सुरक्षा का इंतजाम करो! सरदार की श्रद्धा ही खिसक गयी होती। सरदार अचेतन मन में तो यही आकांक्षा लेकर गए हतौ कि गांधी कहेंगे कि कोई सुरक्षा की आवश्यकता नहीं है। यह मैं सुनिश्चित रूप से कहता हूं कि वे यही आकांक्षा लेकर गए होंगे कि गांधी कहेंगे, 'सुरक्षा की क्या आवश्यकता है? परमात्मा सुरक्षा है।और वही गांधी ने कहा और सरदार प्रसन्न लौटे। विद्यार्थी के अनुकूल हो गयी बात और सारे देश को अच्छी लगी, कि यह है श्रद्धा! ईश्वर पर कैसी श्रद्धा है! कोई सुरक्षा की जरूरत नहीं!
मगर, नाथूराम गोडसे में जो आया था वह भी ईश्वर है। और सरदार वल्लभ भाई पटेल में जो आया था वह भी ईश्वर है। तुम ईश्वर—ईश्वर में चुनाव कैसे करते हो? नाथूराम गोडसे का ईश्वर कुछ ज्यादा ईश्वर मालूम होता है? मैं इसे श्रद्धा नहीं कहता। मैं तो मानता हूं यह विनम्रता के रूप में छिपा हुआ अहंकार है। मैं तो कहूंगा गांधी में अगर सच में ही श्रद्धा थी तो वे कहते न 'जो उसकी मरजी! अगर वह किसी को छुरा मारने भेजता है, किसी को गोली चलाने भेजता है और किसी से सुरक्षा करवाता है—जो उसकी मरजी! जो उसकी लीला! मैं तो द्रष्टा हूं देखूंगा। उठ जाऊं तो ठीक, न उठूं तो ठीक। रहा तो उसका काम करूंगा, उठा तो उसका काम करते हुए उठूंगा।मैं उसको श्रद्धा कहता।
गांधी श्रद्धालु नहीं हैं। गांधी हत्यारे में तो भरोसा करते हैं; लेकिन रक्षक में नहीं। और सरदार पटेल बिलकुल निश्चित हो गए कि बिलकुल ठीक बात है। सच पूछो तो नाथूराम गोडसे से ज्यादा मोरारजी देसाई और सरदार वल्लभ भाई पटेल, ये दो आदमी महात्मा गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार हैं। क्योंकि मोरारजी देसाई महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे और उनको भी खबर थी कि महाराष्ट्र से ही आयोजन चल रहा है हत्या का। और सरदार वल्लभ भाई पटेल केंद्र के गृहमंत्री थे और उनको भी पता था कि हत्या का आयोजन चल रहा है। लेकिन दोनों चुप बैठे रहे। और चुप बैठने के लिए एक सुंदर सुरक्षा का उपाय मिल गया कि गांधी कहते हैं : 'क्या करना सुरक्षा का? जब तक उसको रखना है रखेगा, जब हटाना है हटा लेगा।
मैं कुछ और ढंग से सोचता हूं। जिनसे उसे हटवाना है उनसे हटवाएगा, जिनसे उसे रुकवाना है उनसे रुकवाएगा। न मैं किसी को कहता हूं कि आकर मुझे गोली मारो, न मैं किसी को कहता हूं कि जो गोली आकर मारे उसे रोको। मैं कोन हूं? जिसकी मरजी हो गोली मारे, जिसकी मरजी हो गोली रोके! मेरे लिए दोनों खेल हैं।
मगर जिन महानुभाव ने पूछा है, उनकी संन्यास की धारणा, संन्यास लेने की इच्छा डगमगा गयी कि कैसे संन्यास लेना! संन्यास बुद्धि से नहीं लिए जाते। समर्पण बुद्धि से नहीं होते। संन्यास और समर्पण पर्यायवाची हैं। और शिष्य वही है जो समर्पित है, जो स्वस्थ हो जाना उपनिषद्है संन्यस्त है—जो गुरु के साथ अगम्य में जाने को राजी है। और अगम्य का तुम कैसे पार पाओगे, तर्क से कैसे नापोगे, बुद्धि के तराजू पर कैसे तौलोगे?
……..तो न तो यह गुरु था तैत्तरीय उपनिषद् का व्यक्ति और न उसके पास जो सीखने बैठा था वह शिष्य था। यह शिक्षक था, वह विद्यार्थी था। यह रटी हुई बातें दोहरा रहा था, वह उन बातों को रट रहा था, ताकि कल वह भी शिक्षक हो जाएगा और दूसरों को रटवाएगा। गुरु नाराज हो गया किसी बात से शिष्य पर।
गुरु नाराज नहीं होता शिष्य पर। यह तो असंभव है। शिष्य नाराज नहीं होता गुरु पर; वह भी असंभव है। गुरु की तो बात ही छोड़ दो कि वह नाराज होगा। अरे शिष्य भी नाराज नहीं होता! यह प्रेम की पराकाष्ठा है। यहां कहां नाराजगी का प्रवेश? यह तालमेल का आत्यंतिक रूप है। यहां स्वर टूटते नहीं, छूटते नहीं। यहां लयबद्धता समग्र है, सम्पूर्ण है।
लेकिन विद्यार्थी नाराज हो जाते हैं, जरा—जरा सी बात में नाराज हो जाते हैं। हजारों विद्यार्थी मेरे पास आए और गए—जरा सी बात में। उनको हटाने में देरी नहीं लगती। मुझे जिस दिन विद्यार्थियों को छांटना हो, एक क्षण में छांट देता हूं। अकसर छांटता रहता हूं क्योंकि कचरा—कूडा इकट्ठा होता है तो उसे छांटना ही पड़ता है। कंकड़—पत्थर आ जाते हैं, उनको छांटना ही पड़ता है। और छांटना इतना आसान है, जिसका हिसाब नहीं। एक बात कह दो, वे नाराज हो जाएंगे। फिर जो भागे वे लौटकर न देखेंगे। फिर जिंदगीभर गालियां देंगे। यूं यहां चरणों में गिरने को उत्सुक बैठे थे, एक क्षण में उनका चरणों में गिरना गाली बन सकता है—एक क्षण में! उसमें देर ही नहीं लगती।
यह कथा कहती है, गुरु शिष्य से नाराज हो गया। और नाराज हो, तो गुरु करे क्या? गुरु तो था ही नहीं, करेगा क्या नाराज हो तो? उसने कहा : 'वापिस कर दे मेरी इस विद्या को, जो मैंने सिखायी है!' यह केवल शिक्षक ही कह सकता है, क्योंकि गुरु जो .सिखाता है वह वापिस किया ही नहीं जा सकता, न वापिस मांगा जा सकता है। वह तो जीवन रूपांतरण है, उसको वापिस करने का कोई उपाय नहीं है। जिस भोजन को तुमने पचा लिया, जो तुम्हारा रक्त—मांस—मज्जा बन गया, जो तुम्हारी हड्डियों में प्रविष्ट हो गया, जो तुम्हारी आत्मा तक चला गया—उसका वमन कैसे करोगे? हां, जो अनपचा है, जो खून नहीं बना है, जो पत्थर की तरह पेट में पड़ा रह गया है, जो भार है—उसका वमन किया जा सकता है। उसका वमन करने से हल्कापन ही लगेगा। उसका वमन स्वास्थ्यप्रद है।
गुरु नाराज हुआ। उसने कहा 'मेरी सिखाई विद्या वापिस कर दे।ये बातें बचकानी हैं। ये गुरु के मुंह से शोभा नहीं देती। —गुरु, पहली तो बात, कुछ सिखाता ही कहा है? गुरु तो तुम जो सीखे हो, उसको मिटाता है। गुरु शिक्षण नहीं देता। गुरु शिक्षण छीनता है। गुरु शान नहीं देता, गुरु ज्ञान छीनता है। गुरु तुम्हें ज्ञान से मुक्त करता है, निर्दोष करता है। शिक्षक ज्ञान देता है, तो शिक्षक छीन भी सकता है। जो दिया जा सकता है वह छीना भी जा सकता है। गुरु तो कुछ देता ही नहीं, छीनेगा क्या? गुरु तो साफ करता है, कूड़े —करकट से तुम्हें मुक्त करता है। वापिस लेने को तो कुछ है नहीं; दिया ही नहीं कभी।
जिनका मन लोभ से भरा है वे शिक्षकों के पास इकट्ठे होते हैं, क्योंकि वहां कुछ मिलेगा। सिर्फ निर्लोभी गुरु के पास बैठ सकते हैं, क्योंकि वहा कुछ खोना पड़ेगा। कुछ ही नहीं, अंततः स्वयं को खोना पड़ेगा। वहा शून्य होना पड़ेगा। जो शून्य हुआ वही शिष्य है। गुरु के पास से तुम रोज—रोज और—और खाली होकर लौटते हो। बुद्धि चली जाती, तर्क चला जाता, अहंकार चला जाता, इच्छाएं चली जाती हैं, महत्त्वाकांक्षाएं चली जाती हैं, अभीप्साएं चली जाती हैं। संसार ही नहीं, मोक्ष, निर्वाण, सब चला जाता है। कुछ बचता ही नहीं। गुरु कुछ छोडता ही नहीं। उठाता है तलवार और काटता चला जाता है। जब तुम्हारे भीतर सन्नाटा हो जाता है—न कोई शोर, न कोई आवाज—जब वैसी महाशांति तुम्हारे भीतर घनीभूत होती है, तब तुम योग्य हुए शिष्य कहलाने के। अब तुमसे छीनेगा क्या? जो छिनने का था वह तो छीन ही लिया गया।
और इस शून्य को कोई नहीं छीन सकता, क्योंकि शून्य तुम्हारा स्वभाव है। इसका वमन नहीं हो सकता। वमन तो उसका हो सकता है जो पर— भाव है। बाहर से डाला गया है, उसको तुम फेंक सकते हो। लेकिन जो भीतर ही है, जो तुम्हारा अंतर्तम है, उसका वमन नहीं हो सकता।
जिनस्वरूप, तुमने यह कथा उठाकर ठीक किया। यह कथा महत्त्वपूर्ण है। इसमें न तो गुरु गुरु है, न शिष्य शिष्य है। और 'इसलिए शिक्षक नाराज हो गया विद्यार्थी से, उसने कहा कि लौटा दे मेरी विद्या। क्या बचकानी बातें हैं! क्या टुच्ची बातें हैं! क्या थोथे वक्तव्य हैं! 'लौटा दे।जरा—जरा सी बात मैं —'मैंने दिया, वह लौटा दे।यह देना भी सशर्त है कि छीन लूंगा अगर जरा गड़बड़ की; अगर जरा मेरे: विपरीत गया, अनुकूल न हुआ तो छीन लूंगा, वापिस ले लूंगा! यह कैसी विद्या, जो वापिस दी जा सकती है!
इस जगत में जो तुमने ठीक—ठीक .जान लिया है, उसे तुम कैसे वापिस करोगे? जैसे अंधे आदमी की आंख खुल गयी, उसने रोशनी देख ली, अब वह लाख उपाय करे, कैसे वापिस करेगा? वह कितना ही कहे 'कि मैंने नहीं देखी, मान लिया कि मैंने नहीं देरद्वा; मगर देख तो ली है।
जीवन के परम सत्यों में एक सत्य यह है : जौ जाना जाता है उसे फिर अनजाना नहीं किया जा सकता। और जिसे अनजाना किया जा सकता है उसे तुमने कभी जाना ही नहीं था। जो चीज तुम्हारे रग—रेशे में समा' जाती है, उसका परित्याग असंभव है। कुछ चीजें तुम्हारे अनुभव में हैं, उनका मैं उल्लेख करूं तो समझ में आ जाए। क्योंकि जो तुम्‍हारे अनुभव में नहीं हैं, उसके' उल्लेख करने सै कुछ सार नहीं है। तुमने अगर तैरना सीखा है तो का तुम उसे कभी भूल सकते हो? अब तक दुनिया में ऐसा कभी नही हुआ कि कोई तैरना भूल गया हो। चाहै पचास साल न तैरे, तैरना कोई भूलता ही नहीं। असंभव। क्यों? तैरना भूलना असंभव क्यों है? इस पर गहन शौध की जरूरत है कि तैरना भूलना असंभव क्यों है, इसकी विस्मृति क्यों नहीं हो सकती? गणित भूल जाता, भूगोल भूल जाता, इतिहास भूल जाता, विज्ञान भूल जाता, हर चीज भूल जाती हैं—लेकिन तैरना! तैरना नहीं भूलता। राज है। असल में तैरना हम सीखते नहीं, केवल पुनःस्मरण करते हैं। हम उसे जानते ही हैं स्वभाव से। मां के पेट में बच्चा नौ महीने पानी में ही तैरता है। मां के पेट में समुद्र के जल जैसा जल इकट्ठा हो जाता है। वह जो पेट मां का इतना बडा दिखाई पड़ता है, उसमें बच्चे का होना तो कारण होता ही है, ज्यादा कारण होता है बच्चे के तैरने के लिए जल का इकट्ठा होना। और उस जल का जो रासायनिक रूप है, वह वही है जो समुद्र के जल का है। और बच्चे की जो पहली अभिव्यक्ति है वह मछली जैसी है। इसी' से वैज्ञानिकों ने यह खोज की है कि मनुष्य का जन्म सबसे पहले समुद्र में हुआ होगा। कराड़ों वर्ष हो गए इस बात को हुए, लेकिन मनुष्य सबसे पहले मछली की तरह प्रगट हुआ होगा।
संभवत: हिंदुओं की मत्‍स अवतार के पीछे यही धारणा है। ईश्वर ने पहला अवतार मछली की तरह लिया। यह कहने का एक और ढंग है, मगर बात वही है कि जीवन पहली दाव मछली की तरह उतरा। और हर बच्चे को नौ महीने में, करोड़ों वर्षो में जो मनुष्य—जाति ने यात्रा की है, वह नौ महीने में त्वरा से, तेजी सै पूरी करनी पड़ती है। बच्चे के नौ महीने के विकास के जो अलग—अलग अंग हैं, उनको समझकर हम मनुष्य—जाति के पूरे विकास को समझ सकते हैं। और तब चार्ल्स डारविन सत्य सिद्ध मालूम होता है, क्योंकि बच्चे के जीवन में एक घड़ी आती है मां के पेट में जब वह बंदर जैसा होता है, उसका पूंछ भी होती है। फिर पूंछ गिर जाती है। नौ महीने होते—होते वह मनुष्य की प्रतिकृति में आ पाता है। लेकिन शरुआत होती, है मछली से।
अगर करोड़ों वर्ष पहले आदमी का प्राथमिक जीवन मछली की तरह शुरू हुआ था तो उसके स्वभाव के अंतर्तम में तैरना है। हम भूल गए हैं भाषा, यह और बात है, लेकिन हमारा स्वभाव अर्भा भी उसे याद किए है।
और तैरने मैं हम करते भी क्या हैं! कोई तैरना सिखाता है! वस्तुत: किसी को भी पानी मैं फेंक दो, वह हाथ—पैर तड़फड़ाने लगेगा। वह जरा गैर—ढंग से हाथ—पैर तड़फड़ाता है क्योंकि उसे अभी सलीका नहीं है। थोड़ा इन्हीं हाथ—पैर को ढंग से फेंकने लगे कि तैरना आ गया। जो तैरना सिखाता है वह सत्य को जानता है कि कुल काम इतना ही है कि तैरना सीखनेवाले को यह भरोसा बना रहे कि कोई मेरी रक्षा के लिए मौजूद है, घबड़ाने की कोई जरुरत नहीं; उसका आत्मविश्वास बढ़ जाए। तैरना तो उसके भीतर छिपा है, वह प्रगट हो जाएगा।
जापान. के एक मनोवैज्ञानिक ने छह महीने के बच्चों को तैरना सिखाया है! और अब वह तीन महीने के बच्चों पर प्रयोग कर रहा है। छह महीने के बच्चे तैरने लगते हैं। कल्पनातीत मालूम होती है यह बात। छह महीने का बच्चा कैसे तेलो! लेकिन जब मां के पेट मैं नौ महीने बच्चा तैरता ही रहता है तो छह महीने का भी तैरेगा, तीन महीने का भी तैरेगा, तीन दिन का भी तैरेगा। तैरना हमारा स्वभाव है।
सच्ची विद्या वही है जो हमारे स्वभाव का आविष्कार है। गुरु के पास हमें कुछ सिखला नही जाता, वरन हम जो विस्मरण कर बैठे हैं, उसकी सुरति दिलायी जाती है, उसकी याद दिलायी जाती है। भूली भाषा को गुरु हमारे भीतर पुन: जगा देता है। जो स्वर हमारे सोए पड़े हैं, गुरु के स्वरों की झनकार में झनझना उठते हैं। गुरु गाता है, उसकी अनुगूंज हमारे भीतर भी गुनगुनाहट बन जाती है। गुरु नाचता है। उसके पैरों की झनकार हमारे भीतर के घुंघरुओं को हिला देती है। गुरु सितार बजाता है, उसका तार का छेड़ देना हमारी हृदय—तंत्री पर एक आघात हो जाता है।
विद्या साधारण शिक्षा नहीं है। विद्या से वह जाना जाता है, जिसे हम जानते ही थे और भूल गए हैं। और शिक्षा से वह जाना जाता है, जिसे हम कभी जानते ही नहीं थे, इसलिए कभी भी भूल सकते हैं।
तो इस शिक्षक ने—मैं कहूंगा शिक्षक ने—विद्यार्थी से नाराज होकर कहा कि लौटा दे, मेरी विद्या लौटा दे। क्या करता विद्यार्थी' भी! उसने 'एवमस्तु' कहकर विद्या का वमन कर दिया। यह कहानी बड़ी प्रीतिकर है। उसने उल्टी कर दी कि ले रख, अब और क्या कर सकता हूं? अनपचा तो था ही। बोझ ही हो रहा होगा। उसने उतारकर बोझ रख दिया। उसने कहा. 'सम्हाल अपना कचरा!' उसने हल्कापन ही अनुभव किया होगा।
'और देवताओं ने तीतर का रूप धारण कर उसे एकत्र कर लिया।ये देवता भी गजब के लते। हैं! देवताओं से हमने ऐसे—ऐसे काम करवाए हैं जो कोई न करे। अब किसी ने उल्टी की है, इन्होंने तीतर बनकर उसकी उल्टी को भी इकट्ठा कर लिया! इसलिए हम देवताओं को कोई परम अवस्था नहीं मानते।
इस देश के हजारों साल के आध्यात्मिक अनुभवों का यह नतीजा और निष्कर्ष है कि मनुष्य चौराहा है। और जिस व्यक्ति को भी मोक्ष' की यात्रा पर जाना है, उसे मनुष्य से ही. मोक्ष की यात्रा पर जाना होगा। देवता को भी मनुष्य होना पड़ेगा, तभी वह मोक्ष की यात्रा पर जा सकता है। देवता मनुष्य से ऊपर नहीं है; भिन्न है, मगर ऊपर नहीं है। मनुष्य से ज्यादा सुखी होगा। नर्क में जो हैं, वे मनुष्य से ज्यादा दुखी .हैं। स्वर्ग में जो हैं, वे मनुष्य से ज्यादा सुखी हैं। स्वर्ग यूं समझो संपन्न है, समृद्ध है! नर्क यूं समझो, विपन्न है, दरिद्र है। लेकिन बहुत दरिद्रता का एक खतरा है कि आदमी दरिद्रता सै राजी हो जाता हैं। हम पूरब के देशों में यह देख सकते हैं—लोग दरिद्रता से राजी हो गए हैं! न केवल राजी हो गए हैं, बल्कि अगर तुम उनकी दरिद्रता पर चोट करो तो वे नाराज होते हैं। वे' तुमसे सघर्ष लेंगे। वे तुमसे लड़ेंगे। वै अपनी दरिद्रता को बचाएंगे। सदियों पुरानी प्राचीन दरिद्रता, सनातन दरिद्रता, उनका सनातन धर्म—कैसे छोड दें! इतनी आसानी से छोड़ दें? दरिद्र—नारायण होने को यूं छोड़ दें, यूं गंवा दें? मुफ्त में नारायण होकर बैठे हैं! कैसे छोड़ दें? नहीं छोड़ा जाता उनसे...!
अब तुम देखते हो, हरिजनों पर इतने अत्याचार होते हैं जिसका कोई हिसाब नहीं है।

 एक मित्र ने पूछा है कि हरिजनों पर अत्याचार हो रहे हैं, उनकी बस्तियां जलायी जा रही हैं, उनके झोपडे जलाए जा रहे हैं। हरिजन मारे जा रहे हैं। उनके कुओं में जहर डाल दिया जाता है। उनकी स्त्रियों के साथ बलात्कार किया जाता है। गर्भवती स्त्रियों के साथ बलात्कार किया जाता है। बलात्कार में उनके बच्चे गिर जाते हैं। यह सब हो रहा है। आप इसे रोकने के लिए कुछ क्यों नहीं करते?

जिन पर हो रहा है, वे कम से कम इतना तो कर सकते हैं कि हिंदू धर्म का त्याग कर दें। वे इतना नहीं करते तो मैं क्यों करूं कुछ? जिन मूढ़ताओं के कारण उनको सताया जा रहा है, उसी धर्म को वे पकड़े बैठे हुए हैं। मेरे करने से क्या होगा? जिन पंडित पुजारियों के द्वारा यह सारा का सारा उपद्रव आयोजित किया गया है सदियों—सदियों से, वे उन्हीं के चरण धोकर पी रहे हैं, वे उन्हीं की पूजा कर रहे हैं। इतना ही नहीं, वे उन्हीं मंदिरों में प्रवेश का आग्रह रखते हैं जिन मंदिरों के बैठे देवता उनकी सारी की सारी कठिनाइयों का कारण हैं।
मैं एक गांव में था, उस गांव के हरिजनों ने मुझसे आकर कहा कि आप आए हैं, आपकी लोग बात मानते हैं यहां, हमें मंदिर में प्रवेश का अधिकार दिला दो। मैंने कहा कि तुम अभी इनसे थके नहीं! इनके ही मंदिर में जाना चाहते हो? उसी मंदिर में जिस मंदिर में वे ही शास्त्र, वे ही देवता, वे ही पुजारी, वे ही पंडित हैं जिन्होंने तुम्हारे प्राणों का शोषण किया है सदियों—सदियों से, थुको इस मंदिर पर! अगर वे तुम से कहें भी कि मंदिर में आओ तो मत जाना। लात मारो इस मंदिर पर!
अरे—उन्होंने कहा—आप कैसी बातें रहे हैं! मंदिर पर और लात मारें, यूके मंदिर पर! आप कहते क्या हैं? क्या आप नास्तिक हैं?
मैं नास्तिक हूं और ये आस्तिक हैं! और तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इनके लिए कुछ क्यों नहीं करता? ये मूढ़ अपनी बीमारियों से, रोगों से चिपके हुए हैं? कोन इनको पकड़ रहा है? ये छोड़ते क्यों नहीं? हटते क्यों नहीं? कोन इन्हें रोक रहा है? और तुम देखते हो, फौरन अंतर हो जाता है वही हरिजन, जिसको तुम अपने साथ गद्दी पर न बिठालते, अगर ईसाई हो जाए और आए तो तुम उठकर खड़े होते हो। कहते हो : ' आइए साहब, बैठिए!' वही सज्जन अब गद्दी पर बिठालने के योग्य हो गए। वही मुसलमान हो जाए तो आप कहते हैं. 'आइए, मीर साहब '!' नहीं तो सीढ़ियों के बाहर...।
मैं एक मित्र को जानता हूं लियोनर्ड थियोलाजिकल कालेज जबलपुर के वे प्रिंसिपल थे—मैक्‍वान—गुजराती थे। एक दिन मुझे अपने घर ले गए। कहा कि मैं कुछ चीजें दिखाना चाहता हूं। उन्होंने अपनी मां से मुझे मिलाया। उनकी मां काफी उम्र की थी, कोई नब्बे वर्ष की होगी। और उन्होंने अपने पिता की तस्वीर मुझे दिखायी। फिर अपनी लड़की को बुलाया—सरोज मैक्‍वान को। वह अमरीका से अभी—अभी पी. एच. डी. होकर लौटी थी और एक अमरीकन युवक से शादी करके आयी थी। और कहा कि देखें मेरी ये तीन पीढ़िया—यह मेरे पिता, यह मेरी मां, यह मैं, यह मेरी पत्नी, यह मेरी लडकी, यह मेरा दामाद। तीन पीढ़ियों में इतनी क्रांति हो गयी!
बाप उनका भिखमंगा था। वह एक टूटा—फूटा भिक्षापात्र लिए बैठा है—उसकी तस्वीर। वह भूखा ही रहा, भूखा ही जीया, भूखा ही मरा। उसने कभी जीवन में और कुछ न जाना। वह हरिजन था। उसे सिर्फ दुत्कारा गया। जब बाप मर गया तो मां परेशान हो गयी, भूख और परेशानी में ईसाई हो गयी। अभी भी उनकी मां के चेहरे पर दरिद्रता की सारी लकीरें हैं। अभी भी उनकी मां को पहचाना जा सकता है कि हिंदू सनातन धर्म की छाप गयी नहीं है।
मैंने उनसे. पूछा कि तुम्हारी मां ईसाई हो गयी, तो अब तो ये हिंदू धर्म में कोई रस नहीं रखती? वे बोले 'यह मत पूछो आप, अभी भी हनुमान चलीसा पढ़ती हैं। अभी भी बजरंग बली को मानती हैं।खुद एक बड़े कालेज के प्रिंसिपल हैं। पत्नी भी प्रोफेसर है। जोड़ना मुश्किल पड़ता है, क्योंकि जब मां ईसाई हो गयी तो ईसाइयों ने मैक्‍वान को पढ़ने के लिए अमरीका भेज दिया। वहीं वे बड़े हुए, वहीं उन्होंने शादी की। और उनकी लड़की को देखकर तो भरोसा ही न आएगा। सुंदरतम युवतियों में से एक जो मैंने देखी हैं। और ये तीन पीढ़ियों में इतनी क्रांति हो गयी।
हरिजनों को कोन रोक रहा है कि तुम हिंदू घेरे में रहो? इस सड़े घेरे को छोडो। जहां तुमने सिवाय दुख और पीड़ा के कुछ भी नहीं पाया, जहां सिवाय अपमान के, दुत्कार के, लातें खाने के तुम्हें कुछ और मिला नहीं—वहां किस आशा पर रुके हुए हो? जिस राम ने एक शूद्र के कानों में सीसा पिघलवाकर भरवा दिया, तुम उसी राम की अभी स्तुति कर रहे हो, गुणगान कर रहे हो? संकोच भी नहीं, शर्म भी नहीं! जिस मनु ने तुम्हारी गिनती मनुष्यों में नहीं की है, तुम उसी मनु महाराज के द्वारा निर्मित समाज—व्यवस्था के अंग बने हुए हो? जिन तुलसीदास ने तुम्हें पशुओं के साथ गिना है—ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी—और कहा है कि तुम्हें ताड़ा ही जाना चाहिए, तुम इसके अधिकारी हो; तुम्हें सताया ही जाना चाहिए, यह तुम्हारा अधिकार है; सताया जाना तुम्हारा अधिकार है और हम तुम्हें सताए यह हमारा अधिकार है—तुम इन्हीं तुलसीदास की चौपाइयां रट रहे हो! और उन्हीं के माननेवाले लोग तुम्हारी पत्नियों के साथ व्यभिचार कर रहे हैं—गर्भपात कर रहे हैं, आग लगा रहे हैं, हत्याएं कर रहे हैं, गोलियां चला रहे हैं—और फिर भी तुम उन्हीं के घेरे में रुके रहना चाहते हो!
आदमी दुख से भी राजी हो जाता है, दुख को भी पकड़ लेता है। इसलिए नर्क से कोई छुटकारा नहीं। यह बड़े मजे की बात है कि आदमी सुख से ऊब जाता है, दुख से नहीं ऊबता, यह मनुष्य के मनोविज्ञान के संबंध में एक अपूर्व सत्य है कि मनुष्य दुख से नहीं ऊबता, सुख से ऊब जाता है। दुख में एक आशा रहती है कि शायद कल सुखी हो जाऊं; आज नहीं कल दुख कट ही जाएगा; आखिर कर्म—बंधन कभी तो क्षीण होंगे! लेकिन सुख में सब आशा खो जाती है।
स्वर्ग हमारी कल्पना है—सुखी लोगों की, जहां जिन्होंने खूब पुण्य—अर्जन कर लिया है वे लोग देवी—देवता हो जाते हैं। मगर वे ऊब जाते हैं। ऐसी कथाएं हैं, जिनमें देवता और देवियों ने प्रार्थना की है कि हम पृथ्वी पर वापिस जाना चाहते हैं। लेकिन मैंने ऐसी कोई अब तक कहानी नहीं सुनी न पढ़ी, जिसमें नरक में किसी ने कहा हो कि हम वापिस पृथ्वी पर जाना चाहते हैं। उर्वशी थक जाती है इंद्र के सामने नाचते—नाचते और प्रार्थना करती है कि कुछ दिन की छुट्टी मिल जाए। मैं पृथ्वी पर जाना चाहती हूं। मैं किसी मिट्टी के बेटे से प्रेम करना चाहती हूं। देवताओं से प्रेम बहुत सुखद हो भी नहीं सकता। हवा हवा होंगे। मिट्टी तो है नहीं, ठोस तो कुछ है नहीं। ऐसे हाथ घुमा दो देवता के भीतर से, तो कुछ अटकेगा ही नहीं। कोरे खयाल समझो, सपने समझो। कितने ही सुंदर ही सुंदर लगते हों, मगर इंद्रधनुषों जैसे।
स्वभावत: उर्वशी थक गयी होगी। स्त्रियां पार्थिव होती हैं। उन्हें कुछ ठोस चाहिए। नाचते—नाचते इंद्रधनुषों के पास उर्वशी थक गयी होगी, यहु मेरी समझ में आता है। उर्वशी ने कहा कि मुझे जाने दो। मुझे कुछ दिन पृथ्वी पर जाने दो। मैं पृथ्वी की सौंधी सुगंध लेना चाहती हूं। मैं पृथ्वी पर खिलनेवाले गुलाब और चंपा के फूलों को देखना चाहती हूं। फिर से एक बार मैं पृथ्वी के किसी बेटे को प्रेम करना चाहती हूं।
चोट तो इंद्र को बहुत लगी, क्योंकि अपमानजनक थी यह बात। लेकिन उसने कहा : ' अच्छा जा, लेकिन एक शर्त है। यह राज किसी को पता न चले कि तू अप्सरा है। और जिस दिन यह राज तूने बताया उसी दिन तुझे वापिस आ जाना पड़ेगा।
उर्वशी उतरी और पुरुरवा के प्रेम में पड़ गयी। बड़ी प्यारी कथा है उर्वशी और पुरुरवा की! पुरुरवा—पृथ्वी का बेटा; धूप आए तो पसीना निकले और सर्दी हो तो ठंड लगे। देवताओं को न ठंड लगे, न पसीना निकले। मुर्दा ही समझो। मुर्दों को पसीना नहीं आता, कितनी ही गर्मी होती रहे, और न ठंड लगती। तुमने मुर्दों के दांत किटकिटाते देखे? क्या खाक दांत किटकिटाके! और मुर्दा दांत किटकिटाए तो तुम ऐसे भागोगे कि फिर लौटकर नहीं देखोगे। पुरुरवा के प्रेम में पड़ गयी। ऐसी सुंदर थी उर्वशी कि पुरुरवा को स्वभावत: जिज्ञासा होती थी—जिज्ञासा मनुष्य का गुण है—कि पुरुरवा उससे बार—बार पूछता था : 'तू कोन है? हे अप्सरा जैसी दिखाई पड़नेवाली उर्वशी, तू कोन है? तू आयी कहां से? ऐसा सौंदर्य, ऐसा अलौकिक सौंदर्य, यहां पृथ्वी पर तो नहीं होता!'
और कुछ चीजों से वह चिंतित भी होता था। उर्वशी को धूप पड़े तो पसीना न आए। उर्वशी वायवीय थी, हल्की—फुल्की थी, ठोस नहीं थी। प्रीतिकर थी, मगर गुड़िया जैसी, खिलौने जैसी। न नाराज हो, न लड़े—झगड़े। जिज्ञासाएं उठनी शुरू हो गयीं पुरुरवा को।
आखिर एक दिन पुरुरवा जिद ही कर बैठा। रात दोनों बिस्तर पर सोए हैं, पुरुरवा ने कहा कि आज तो मैं जानकर ही रहूंगा कि तू है कोन? तू आयी कहा से? नहीं तू हमारे बीच से मालूम होती। अजनबी है, अपरिचित है। नहीं तू बताएगी तो यह प्रेम समाप्त हुआ। यह तो धमकी थी, मगर उर्वशी घबड़ा गशई और उसने कहा कि फिर एक बात समझ लो। मैं बता तो की, लेकिन बता देते ही मैं तिरोहित हो जाऊंगी। क्योंकि यह शर्त है।
पुरुरवा ने कहा : 'कुछ भी शर्त हो...।उसने समझा कि यह सब चालबाजी है। औरतों की चालबाजिया! क्या—क्या बातें निकाल रही है! तिरोहित कहां हो जाएगी! तो उसने बता दिया कि मैं उर्वशी हूं _ थक गयी थी देवताओं से। पृथ्वी की सौंधी सुगंध बुलाने लगी थी। चाहती थी वर्षा की बूंदों की टपटप छप्पर पर, सूरज की किरणें, चांद का निकलना, रात तारों से भर जाना, किसी ठोस हड्डी—मांस—मज्जा के मनुष्य की छाती से लगकर आलिंगन। लेकिन अब रुक न सकूंगी।
पुरुरवा उस रात सोया, लेकिन उर्वशी की साड़ी को पकड़े रहा रात नींद में भी। सुबह जब उठा तो साड़ी ही हाथ में थी, उर्वशी जा चुकी थी। तब से कहते हैं _ पुरुरवा घूमता रहता है, भटकता रहता है, पूछता फिरता है : 'उर्वशी कहां है?' खोज रहा है।
शायद यह हम सब मनुष्यों की कथा है। प्रत्येक आदमी उर्वशी को खोज रहा है। कभी—कभी किसी स्त्री में धोखा होता है कि यह रही उर्वशी, फिर जल्दी र्हा? धोखा टूट जाता है। हनीमून पूरा होते—होते ही टूट जाता है। जो बहुत होशियार हैं, हनीमून पर जाते ही नहीं, कि न जाएंगे हनीमून पर, न टूटेगा।
चंदूलाल का विवाह हुआ। बड़ा शोरगुल मचा रहे थे कि हनीमून पर शिमला जा रहे हैं, शिमला जा रहे हैं, शिमला जा रहे हैं! मैंने पूछा : 'कब जा रहे हो?'
उसने कहा कि बस एक—दो दिन में जाता हूं। दों—चार दिन बाद मुझे फिर मिल गए, मैंने पूछा. 'चंदूलाल, शिमला नहीं गए?' कहा कि पत्नी को भेज दिया है। मैंने कहा : 'पली को तुमने भेज दिया, हनीमून पर, अकेले ही!'
बोले : 'शिमला मैं तो पहले ही देख चुका हूं अब दोबारा जाने की क्या जरूरत है? अब पत्नी देख आएगी।
ऐसा हनीमून टिकेगा। मारवाड़ी का हनीमून टिक सकता है। गए ही नहीं तो टूटेगा क्या खाक! इसलिए विवाह टिकते हैं इस दुनिया में, प्रेम नहीं टिकता, क्योंकि प्रेम में एक छलांग है आकाश की तरफ। गिरना पड़ेगा। विवाह में छलांग ही नहीं है, जमीन पर ही सरकते रहते हैं, गिरेंगे कैसे? विवाह तो यूं है जैसे मालगाड़ी पटरियों पर दौड़ती हुई। प्रेम यूं है जैसे नदियों का प्रवाह; कब किस दिशा में मुड़ जाएगा, कुछ कहना कठिन है।
प्रत्येक उर्वशी को खोज रहा है।उर्वशी' शब्द भी बड़ा प्यारा है—हृदय में बसी, उर्वशी। कहीं कोई हृदय में एक प्रतिमा छिपी हुई है, जिसकी तलाश चल रही है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं : 'प्रत्येक व्यक्ति के भीतर स्त्री की एक प्रतिमा है, प्रत्येक स्त्री के भीतर पुरुष की एक प्रतिमा है, जिसको वह तलाश रहा है, तलाश रही है। मिलती नहीं है प्रतिमा कहीं। कभी—कभी झलक मिलती है कि हां यह स्त्री लगती है उस प्रतिमा जैसी; बस लेकिन जल्दी ही पता चल जाता है कि बहुत फासला है। कभी कोई पुरुष लगता है उस जैसा; फिर जल्दी ही पता चल जाता है कि बहुत फासला है। और तभी दूरियां शुरू हो जाती हैं। पास आते, आते, आते, सब दूर हो जाता है।
स्वर्ग से तो कहानियां हैं देवताओं के उतरने की। तुमने बहुत—सी कहानियां सुनी होंगी कि देवता आते हैं, ऋषि—मुनियों की स्त्रियों को प्रेम कर जाते हैं। बेचारे ऋषि—मुनि, उनको समझा दिया है कि ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करने जाओ, सो वे चले ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करने और देवी—देवता ब्रह्ममुहूर्त की प्रतीक्षा करते रहते कि जब गए ऋषि—मुनि ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करने, तब चंद्रमा, इंद्र इत्यादि—इत्यादि आकर दरवाजा खटखटाते हैं। ऋषि—पत्नी को क्या पता, वह सोचती है ऋषि महाराज लौट आए! और देवता हैं तो वे ऋषि का रूप धरकर लौट आते हैं, जटाजुटधारी बनकर। प्रेम—वेम करके नदारद हो जाते हैं। स्वर्ग से तो ऐसी कहानियां है पुराणों में कि देवता उतर आते हैं जमीन पर, अप्सराएं उतर आती हैं; मगर नरक से मैंने कोई कहानी नहीं सुनी। कारण साफ है। कारण बहुत मनोवैज्ञानिक है, गहरा है। दुख को आदमी छोड़ना नहीं चाहता, सुख को छोड़ दे। सुख से कब जाता है। सुख से धीरे— धीरे मन भर जाता है, ऊब पैदा हो जाती है। लेकिन दुख से मन नहीं भरता, क्योंकि आशा बनी रहती है। सुख में कोई आशा नहीं।
लेकिर चाहे नरक हो और चाहे स्वर्ग, हमारा सदियों का निरीक्षण यह है? मैं इस निरीक्षण से राजी हूं कि प्रत्येक व्यक्ति को मनुष्य के चौराहे पर लौट आना पड़ता है। मनुष्य चौराहा है। वहां से सब तरफ रास्ते जाते हैं—पशु की तरफ, पक्षियों की तरफ, नरकों की तरफ, देवताओं की तरफ। और अंतिम मार्ग भी वहां है—निर्वाण की तरफ, मोक्ष की तरफ—जहां सब खो जाता है; जहां योनि मात्र खो जाती है; जहां न तुम मनुष्य रह जाते, न पशु, न पक्षी, न देवता; जहां तुम केवल निर्विचार, शून्य चेतना मात्र रह जाते हो। वहां से कोई कभी नहीं लौटना चाहता। वहां से लौटने का कोई सवाल नहीं, लौटने वाला ही नहीं बचता है।
विद्या तो वही है जो तुम्हें निर्वाण दे। विद्या तो वही है... 'सा विद्या या विमुक्तये'! वही है विद्या जो तुम्हें मुक्त करे, मोक्ष दे। यह विद्या न रही होगी, तथाकथित ज्ञान रहा होगा। सूचना मात्र रही होगी। शिष्य ने उसका वमन कर दिया। और अभागे देवता, ये उस वमन को भी पचा गए। तीतर बनकर पचा गये! शायद सीधे—सीधे आना अच्छा न लगा होगा, छुपकर आए, आड़ में आए, तीतर बनकर आए। उस कूड़े—कचरे को, वमन किए हुए को, उस दुर्गंधयुक्त को ये फिर से लील गए। और उसी को इकट्ठा करके तैत्तरीय उपनिषद् बना।
तैत्तरीय उपनिषद् मत पढ़ना। अब यह देवताओं का वमन... वमन का वमन होगा। और सब कुछ करना, तैत्तरीय उपनिषद् मत पढ़ना।
मुझसे बहुत बार कहा गया है कि मैं तैत्तरीय उपनिषद् पर क्यों नहीं बोला? यही कहानी मुझे अटका देती है। इससे आगे ही बात नहीं बढ़ती। मैं तो तुम्हें उच्छिष्ट ज्ञान से मुक्त करना चाहता हूं और इसमें उच्छिष्ट शान का संग्रह है। मगर यह एक ही उपनिषद् की बात होती तो भी ठीक था; तुम्हारे अधिकतर उपनिषद् तुम्हारे अधिकतर वेद, तुम्हारे कुरान, तुम्हारी बाइबिल, तुम्हारे तालमुद, इसी तरह के उच्छिष्ट ज्ञान से भरे हैं।
यह कहानी किसी हिम्मतवर आदमी ने जोड़ी होगी। रहा होगा कोई उपद्रवी मेरे जैसा, जिसने उपनिषद् के ऊपर यह कहानी लगा दी। और भोंदू पंडित ऐसे हैं कि आज तक किसी ने इस कहानी को ठीक—ठीक समझने की कोशिश भी नहीं की। यह कहानी पर्याप्त है यह बताने को कि कूड़ा—कचरा से बचो।
सब ज्ञान उच्छिष्ट है, अगर तुम्हारे अनुभव से नहीं आए।
'उपनिषद् शब्द प्यारा है। उपनिषद् का अर्थ होता है : गुरु के पास बैठना, सिर्फ गुरु के पास बैठना। उपनिषद् यानी बैठना। गुरु के पास बैठना जिसने जाना है, उसके पास बैठना। उसकी श्वासों की श्वास बन जाना। उसकी श्वासों के साथ डोलना। उसके हृदय की धड़कन बन जाना। उसकी और तुम्हारी धड़कन के बीच का फासला समाप्त हो जाए, एक साथ हृदय धड़कने लगे। उसकी श्वास भीतर जाये तो तुम्हारी श्वास भीतर जाये। उसकी श्वास बाहर आए तो तुम्हारी श्वास बाहर आए। यह है उपनिषद् तैत्तरीय उपनिषद् नहीं।
और यूं, ही जिन्होंने जाना है, उन्होंने ही केवल जाना है। फिर उसे कोई छीन नहीं सकता, उसे कोई तुमसे वापिस नहीं ले सकता क्योंकि वह तुम्हारा अपना स्वभाव है, तुम्हारे स्वभाव का आविष्कार है।
स्वस्थ हो जाना उपनिषद् है। वही वेद है। वेद यानी शान, बोध। वही कुरान है। कुरान यानी तुम्हारे प्राणों का गीत, तुम्हारे प्राणों की गुनगुनाहट। वही बाइबिल। बाइबिल यानी किताबों की किताब। किताब नहीं—सारी किताबों की किताब! सारे रहस्यों का रहस्य। तुम अपने हृदय में संजोए बैठे हो। तीतर वगैरह बनने की जरूरत नहीं। उच्छिष्ट इकट्ठा करने की आवश्यकता नहीं।
जिनस्वरूप, तुमने इस कहानी की याद दिलाकर ठीक किया। यही मेरा पूरा प्रयोग है यहां। तुम्हें मैं उच्छिष्ट कुछ भी नहीं देना मेरा स्वर्णिम भारत चाहता। हालांकि तुम उच्छिष्ट के लिए बहुत आतुर हो, क्योंकि वह सस्ता है, मुफ्त मिल जाता है। तीतर बनना पड़े तो भी कोई हर्जा नहीं, तीतर बन जाएंगे, मुर्गा बन जाएंगे—तुम कुछ भी बन सकते हो, मुफ्त कुछ मिलता हो। लेकिन जहां कुछ चुकाना पड़ता है, जहां जीवन को दाव पर लगाना पड़ता है, वहां तुम्हारे प्राण कंपते हैं। मगर जीवन का जो राज है, वह जीवन को दाव पर लगाए बिना मिलता नहीं है। वह व्यापारियों के लिए नहीं है, वह केवल जुआरियों के लिए है।
मेरे संन्यासी को जुआरी होना सीखना ही पड़ेगा। वह व्यवसायी रहा तो विद्यार्थी रह जाएगा। जुआरी हो जाए तो शिष्य होने का अभूतपूर्व लोक तत्‍क्षण अपने द्वार खोल देता है।

'बहुरि न ऐसा दांव 'प्रवचनमाला से
दिनांक 4 अगस्त 1980; श्री रजनीश आश्रम, पूना

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