कुल पेज दृश्य

रविवार, 1 जुलाई 2018

अमृत की दशा-(प्रवचन-05)

 प्रवचन--पांचवां 

मैं विचार में हूं--किस संबंध में आपसे बातें करूं। और बातें इतनी ज्यादा हैं और दुनिया इतनी बातों से भरी है कि संकोच होना बहुत स्वाभाविक है। बहुत विचार हैं, बहुत उपदेश हैं, सत्य के संबंध में बहुत से सिद्धांत हैं। यह डर लगता है कि कहीं मेरी बातें भी उस बोझ को और न बढ़ा दें, जो कि मनुष्य के ऊपर वैसे ही काफी है। बहुत संकोच अनुभव होता है। कुछ भी कहते समय डर लगता है कि कहीं वह बात आपके मन में बैठ न जाए। बहुत डर लगता है कि कहीं मेरी बात को आप पकड़ न लें। बहुत डर लगता है कि कहीं वह बात आपको प्रिय न लगने लगे; कहीं वह आपके मन में स्थान न बना ले।
चूंकि मनुष्य विचारों और सिद्धांतों के कारण ही पीड़ित और परेशान है। उपदेशों के कारण ही मनुष्य के जीवन में सत्य का आगमन नहीं हो पाता है। दूसरों के द्वारा कही गई और दी गई बातें ही उस सत्य के बीच में बाधा बन जाती हैं जो हमारे पास है और निरंतर है।
ज्ञान बाहर से उपलब्ध नहीं होता; और जो भी बाहर से उपलब्ध हो जाए, वह ज्ञान को रोकने में कारण बन जाता है। मैं भी बाहर हूं। मैं जो भी कहूंगा, वह भी बाहर है। उसे ज्ञान मत समझ लेना। वह ज्ञान नहीं है। वह आपके लिए ज्ञान नहीं हो सकता। जो भी कोई दूसरा आपको देता हो, वह आपके लिए ज्ञान नहीं हो सकता। हां, उससे एक खतरा हो सकता है कि वे बातें आपके अज्ञान को ढंक दें, आपका अज्ञान आवृत हो जाए, छिप जाए, और आपको ऐसा प्रतीत होने लगे कि मैंने कुछ जाना है।
सत्य के संबंध में जान कर यह भ्रम पैदा हो जाता है कि मैंने सत्य को जाना है। सत्य के संबंध में पढ़ कर यह धारणा बन जाती है कि मैं सत्य को जान गया हूं। और जिनकी ऐसी धारणाएं बन जाती हैं वे ही सत्य को पाने में असमर्थ हो जाते हैं और पंगु हो जाते हैं।
तो सबसे पहले यह कह दूं, बाहर से जो भी आता है, कुछ भी ज्ञान नहीं हो सकता।
स्वाभाविक, मुझसे पूछा जा सकता है, फिर मैं क्यों बोलूं? मैं क्यों कहूं? मैं बाहर हूं और कुछ कहूंगा।
मैं इतनी ही बात कहना चाहता हूं कि बाहर जो भी है, उसे बाहर का समझें और ज्ञान न समझें। वह चाहे मेरा हो और चाहे किसी और का हो। ज्ञान प्रत्येक मनुष्य के भीतर उसका स्वरूप है। उस स्वरूप को जानने के लिए बाहर खोजने की कोई भी जरूरत नहीं है। बाहर से जो भी हम सीख लेंगे, यदि उस सत्य को जानना हो जो हमारे भीतर है, तो उसे अनसीखा करना होगा, उसे अनलर्न करना होगा, उसे छोड़ देना होगा। सत्य जिन्हें जानना है, उन्हें शास्त्र को छोड़ देना होता है। जो शास्त्र को पकड़ेंगे, सत्य उन्हें उपलब्ध नहीं होगा। हम सारे लोग शास्त्र को पकड़े बैठे हैं। दुनिया में यह जो इतना उपद्रव है, वह शास्त्र को पकड़ने के कारण है। ये जो हिंदू हैं, ये जो मुसलमान हैं, ये जो जैन हैं, या ईसाई हैं, या पारसी हैं, ये कौन हैं? इनको कौन लड़ा रहा है? इनको कौन एक-दूसरे से अलग कर रहा है?
शास्त्र अलग कर रहे हैं! शास्त्र लड़ा रहे हैं! सारी मनुष्यता खंडित है, क्योंकि कुछ किताबें कुछ लोग पकड़े हुए हैं; कुछ दूसरी किताबें दूसरे लोग पकड़े हुए हैं। किताबें इतनी मूल्यवान हो गई हैं कि हम मनुष्य की हत्या कर सकते हैं। और पिछले तीन हजार वर्षों में हमने लाखों लोगों की हत्या की है, क्योंकि किताबें बहुत मूल्यवान हैं। क्योंकि किताबें बहुत पूज्य हैं, इसलिए मनुष्य के भीतर जो परमात्मा बैठा है, उसका भी अपमान किया जा सकता है, उसकी भी हत्या की जा सकती है। क्योंकि शब्द और शास्त्र बहुत मान्य हैं, इसलिए मनुष्यता को इनकार किया जा सकता है, अस्वीकार किया जा सकता है। यह हुआ है। यह आज भी हो रहा है।
मनुष्य-मनुष्य के बीच जो दीवाल है, वह शास्त्रों की है। और क्या कभी यह खयाल पैदा नहीं होता कि जो शास्त्र मनुष्य को मनुष्य से अलग करते हों, वे मनुष्य को परमात्मा से कैसे जोड़ सकेंगे? जो मनुष्य को मनुष्य से ही तोड़ देता हो, वह मनुष्य को परमात्मा से जोड़ने की सीढ़ी कैसे बन सकता है? लेकिन हम सोचते हैं कि शायद वहां कुछ मिले। जरूर कुछ मिलता है। शब्द मिल जाते हैं। सत्य को दिए गए शब्द मिल जाते हैं और शब्द स्मरण हो जाते हैं। वे हमारी स्मृति में प्रविष्ट हो जाते हैं और स्मृति को हम ज्ञान समझ लेते हैं।
स्मृति ज्ञान नहीं है। मेमोरी ज्ञान नहीं है। कुछ चीजें सीख लेना, स्मरण कर लेना, ज्ञान नहीं है। ज्ञान का जन्म बहुत दूसरी बात है। स्मृति का प्रशिक्षण बहुत दूसरी बात है। स्मृति के प्रशिक्षण से कोई पंडित हो सकता है, लेकिन प्रज्ञा जाग्रत नहीं होती। और ज्ञान तो सारे जीवन को क्रांति कर देता है।
तो मैं आपको कोई उपदेश देने का किंचित भी पाप करने को तैयार नहीं हूं। जो भी उपदेश देते हैं, हिंसा करते हैं और पाप करते हैं। मैं कोई उपदेश देने को नहीं हूं। मैं कुछ थोड़ी सी बातें आपसे कहने को हूं। इसलिए नहीं कि आप उन्हें मान लें। क्योंकि जो भी कहता है मान लो, वह आपका दुश्मन है। जो भी कहता है श्रद्धा कर लो, जो भी कहता है विश्वास करो, वह घातक है। वह आपके जीवन को विकसित होने से रोकेगा। जो भी कहता है विश्वास करो, वह विवेक के जागने में बाधा बन जाएगा। और हमने बहुत दिन विश्वास किया है और विश्वास का यह परिणाम है जो हमारी दुनिया है! इससे रद्दी दुनिया और हो सकती है? इससे ज्यादा करप्टेड? लेकिन हम विश्वासी लोग हैं और हमने बहुत दिन विश्वास किया है। और इससे ज्यादा बुरा मनुष्य हो सकता है, जो आज है? इससे सड़े हुए मस्तिष्क हो सकते हैं और ज्यादा, जैसे आज हैं? इससे ज्यादा पीड़ा और दुख और अशांति हो सकती है? लेकिन हमने बहुत दिन विश्वास किया है और सारी दुनिया विश्वास करती है--कोई इस मंदिर में, कोई उस मस्जिद में, कोई उस चर्च में; कोई इस किताब में, कोई उस किताब में; कोई इस मसीहा में, कोई उस मसीहा में। सारी दुनिया विश्वास करती है। लेकिन विश्वास के बावजूद यह परिणाम है। शायद लोग कहेंगे कि विश्वास कम है इसलिए यह परिणाम है।
और मैं आपसे कहना चाहता हूं, परमात्मा करे कि विश्वास बिलकुल शून्य हो जाए। अगर कहीं विश्वास पूरा हुआ, तो मनुष्य गया! क्योंकि विवेक नष्ट हो जाएगा। विश्वास विवेक का विरोधी है। जब भी कोई कहता है कि हमारी बात मान लो, तभी वह यह कहता है कि तुम्हें खुद जानने की कोई जरूरत नहीं है। जब भी कोई कहता है विश्वास कर लो, तो वह यह कहता है, तुम्हें अपने पैरों की कोई आवश्यकता नहीं है। जब भी कोई कहता है श्रद्धा करो, तब वह यह कहता है, तुम्हें अपनी आंख की क्या जरूरत? हमारे पास आंख है।
मैंने एक छोटी सी कहानी पढ़ी है। एक गांव में एक आदमी की आंखें चली गईं। वह बूढ़ा था। वह बहुत बूढ़ा था। उसकी कोई नब्बे वर्ष उम्र थी। उसके घर के लोगों ने, उसके आठ लड़के थे, उन आठों ने उससे प्रार्थना की कि आंखों का इलाज करवा लिया जाए। चिकित्सक कहते हैं कि आंखें ठीक हो जाएंगी। उस बूढ़े आदमी ने कहा, मुझे आंखों की क्या जरूरत? मेरे आठ लड़के हैं। उनकी सोलह आंखें हैं। उनकी आठ पत्नियां हैं। उनकी सोलह आंखें हैं। मेरे पास बत्तीस आंखें हैं। मुझे आंख की क्या जरूरत है? मुझे कौन सी जरूरत है आंख की? मैं अंधा भी जी लूंगा। उन लड़कों ने बहुत प्रार्थना की। लेकिन वह बूढ़ा माना नहीं। उसने कहा, मुझे आंख की जरूरत क्या है? मेरे घर में मेरी बत्तीस आंखें हैं।
दिन आखिर बीत गए। एक रात उस भवन में आग लगी। वे बत्तीस आंखें बाहर हो गईं, वह बूढ़ा भीतर रह गया। उस घर में आग लगी, वह बूढ़ा भीतर रह गया, वे बत्तीस आंखें बाहर हो गईं। और तब उसे याद आया कि अपनी ही आंख काम आती है, किसी और की आंख काम नहीं आती है। अपना ही विवेक काम आता है, किसी दूसरे से मिले हुए विश्वास काम नहीं आते हैं।
जीवन में चारों तरफ चौबीस घंटे आग लगी हुई है। हम चौबीस घंटे जीवन की आग में घिरे हुए हैं। वहां अपनी ही आंख काम आ सकती है, किसी और की नहीं--न महावीर की, न बुद्ध की, न कृष्ण की और न राम की। किसी की आंख किसी दूसरे के काम नहीं आ सकती।
लेकिन धार्मिक पुरोहित, धर्म के व्यवसायी, धर्म के नाम पर शोषण करने वाले लोग, वे यह समझाते हैं--विश्वास करो। विवेक की क्या जरूरत है? तुम्हें खुद विचार की क्या जरूरत है? विचार तो उपलब्ध हैं। दिव्य विचार उपलब्ध हैं, इन पर विश्वास करो। और हम उन विचारों पर विश्वास करते रहे हैं और निरंतर नीचे से नीचे चले गए हैं। हमारी चेतना निरंतर नीचे से नीचे चली गई है।
विश्वास से कोई चेतना ऊपर नहीं उठती। विश्वास तो आत्महत्या है। इसलिए मैं नहीं कहता कि किसी बात पर विश्वास करें। मैं कहता हूं: विश्वास से अपने को मुक्त कर लें।
जिस व्यक्ति को भी सत्य को जीवन में अनुभव करना हो, और जिस व्यक्ति को भी परमात्मा के निकट पहुंचना हो, और जिस व्यक्ति को भी प्रभु के प्रकाश और प्रेम को अनुभव करना हो, वह स्मरण रखे, सब भांति के विश्वासों से स्वतंत्र हो जाना पहली शर्त है। स्वतंत्रता, चित्त की स्वतंत्रता, विवेक की स्वतंत्रता पहली शर्त है सत्य को जानने के लिए। और जिसका चित्त स्वतंत्र नहीं है, वह स्मरण रखे, वह और कुछ भी जान ले, सत्य को कभी नहीं जान सकेगा। सत्य के द्वार पर प्रवेश पाने के लिए चेतना का स्वतंत्र होना अत्यंत अनिवार्य है।
विश्वास बांधते हैं, परतंत्र करते हैं। श्रद्धाएं बांधती हैं, परतंत्र करती हैं। शास्त्र और सिद्धांत बांधते हैं और परतंत्र करते हैं। कितनी आश्चर्य की बात है, एक घर में आप पैदा हो जाते हैं, संयोग से वह घर हिंदू का हो या मुसलमान का हो, और जन्म के साथ आपको विश्वास दे दिया जाता है। फिर जीवन भर आप कहेंगे--मैं हिंदू हूं; मुसलमान हूं; ईसाई हूं; जैन हूं। कहीं जन्म के साथ कोई ज्ञान मिलता है? खून से ज्ञान का कोई संबंध है? पैदाइश से कोई धर्म का संबंध हो सकता है? अगर पैदाइश से दुनिया में लोग धार्मिक होते तो सारी दुनिया धार्मिक होनी चाहिए थी। यह दुनिया इतनी अधार्मिक है, इस बात का सबूत है कि जन्म के साथ धर्म का कोई संबंध नहीं हो सकता है। लेकिन हम सब जन्म से धार्मिक बने हुए हैं। और ये जन्म से बने हुए धार्मिक ही सारे उपद्रव का कारण हैं। दुनिया में इनके कारण ही धर्म का अवतरण नहीं हो पाता है।
जन्म से कोई धार्मिक नहीं होता, जीवन से धार्मिक होता है। जन्म से किसी का कोई संबंध किसी विश्वास से होने का कोई कारण नहीं है। लेकिन इसके पहले कि हमारा विवेक जाग्रत हो, हमारा समाज, हमारा परिवार, हमारे मां-बाप, शिक्षक, उपदेशक हमें विश्वास पकड़ा देते हैं। इसके पहले कि विवेक मुक्त आकाश में विचरण करे, विश्वास की जंजीरें उसे जमीन पर रोक लेती हैं और बांध लेती हैं। फिर जीवन भर हम उसी विश्वास के घेरे में लड़खड़ाते रहते हैं। फिर हम कभी सोच नहीं पाते। जिस आदमी का कोई भी विश्वास है, जिसकी कोई बिलीफ है, वह आदमी कभी विचार नहीं कर सकता, क्योंकि हमेशा वह अपने विश्वास के बिंदु से देखना शुरू करता है। वह जो भी विचार करेगा, वह पक्षपातग्रस्त होगा। वह जो भी विचार करेगा, वह उसकी पूर्वधारणा में आबद्ध होगा। वह जो भी विचार करेगा, वह हमेशा उधार और झूठा होगा। उसका निज का नहीं हो सकता है। और जो विचार अपना न हो, जो विवेक अपना न हो, वह असत्य है। उसकी कोई सच्चाई नहीं है। वह कोई वास्तविक आधार नहीं है जिस पर जीवन खड़ा किया जा सके।
तो देश भर में लोगों से यही पूछ रहा हूं, आपके पास विश्वास तो बहुत हैं, कोई विचार भी है? वे कहेंगे, बहुत विचार हैं। मैं पूछता हूं, उसमें कोई आपका है? अपना है? या कि सब दूसरों के हैं? जो संपत्ति दूसरों की है, उससे आपके जीवन को कौन सा प्राण मिलेगा?
लेकिन हमारी सारी विचार की संपत्ति उधार है और पराई है और दूसरों की है। यह चित्त की पहली परतंत्रता है और चित्त को सबसे पहले इस परतंत्रता से मुक्त होना ही चाहिए। मनुष्य का नया जन्म तभी संभव होता है जब उसकी चेतना उधार विचारों और पराई धारणाओं से मुक्त हो जाए। इसलिए स्वतंत्रता को मैं पहला तत्व कहता हूं।
जो भी सत्य की खोज में जाना चाहते हैं, जिनके भीतर भी प्यास जगी है कि वे जानें कि जीवन का अर्थ क्या है? जिनके भीतर भी यह अभीप्सा सरकी है कि वे समझें कि यह सब जो है विराट, यह जो चारों तरफ फैली हुई सत्ता है, इसका प्रयोजन क्या है? यदि वे चाहते हैं कि जानें कि क्या है अमृत और क्या है आनंद और क्या है परमात्मा? तो स्मरण रखें, पहली शर्त, पहली भूमिका होगी, वे अपने चित्त को स्वतंत्रता की तरफ ले जाएं, चित्त को स्वतंत्र कर लें। अगर अंततः स्वतंत्रता चाहिए, तो प्रथम चरण में ही स्वतंत्रता के आधार रख देने होंगे।
लेकिन हम सारे बंधे हुए लोग हैं। हम सारे लोग किसी न किसी विश्वास से बंधे हुए हैं। और क्यों बंधे हुए हैं? इसलिए बंधे हुए हैं कि ज्ञान के लिए साहस और श्रम करना होता है। और विश्वास के लिए कोई साहस और कोई श्रम करने की जरूरत नहीं है। विश्वास करने के लिए किसी तरह की तपश्चर्या की, किसी तरह की साधना की कोई जरूरत नहीं है। किसी दूसरे पर विश्वास कर लेने के लिए आपके भीतर अत्यंत साहस की कमी, श्रम की कमी, तपश्चर्या की कमी, गहरा आलस्य और तामसिक वृत्ति हो, तो विश्वास सहज हो जाता है। जो खुद नहीं खोजना चाहता, वह मान लेता है कि जो दूसरे कहते हैं, ठीक ही कहते होंगे।
सत्य के प्रति जिसके मन में कोई श्रद्धा नहीं है, वही सत्य के संबंध में प्रचलित सिद्धांतों में श्रद्धा कर लेता है। सत्य के प्रति जिसकी प्यास सच्ची नहीं है, वही केवल दूसरों के दिए हुए विचारों पर विश्वास कर लेता है। अगर सत्य की अभीप्सा हो, तो कोई किसी धर्म में, कोई किसी सिद्धांत में, कोई किसी संप्रदाय में आबद्ध नहीं होगा। खोजेगा, निज खोजेगा। अपने सारे प्राणों की शक्ति लगा कर खोजेगा। और जो उस भांति खोजता है, वह निश्चित पा लेता है। और जो इस भांति विश्वास करता चला जाता है, वह जीवन तो खो देता है, लेकिन जीवन-सत्य उसे उपलब्ध नहीं होता है।
जीवन-सत्य की उपलब्धि श्रम मांगती है और तप मांगती है। लेकिन हम विश्वास कर लेते हैं। हम डरे हुए भयभीत लोग हैं। हम किसी के चरण पकड़ लेते हैं। हम किसी की बांह पकड़ लेना चाहते हैं और जीवन के समाधान को उपलब्ध हो जाना चाहते हैं। किसी गुरु की, किसी साधु की, किसी संत की छाया में हम भी तैर जाना चाहते हैं और तर जाना चाहते हैं। यह असंभव है। यह बिलकुल ही असंभव है। इससे ज्यादा असंभव कोई दूसरी बात नहीं हो सकती है।
स्वतंत्रता चित्त की अनिवार्य शर्त है।
कैसे हमारा चित्त स्वतंत्र हो? कैसे हम चित्त को स्वतंत्र करें और मुक्त करें? यह बंधा हुआ चित्त, जो ढांचों में कैद है, इसे हम कैसे इन पिंजड़ों के बाहर ले जाएं? उस संबंध में ही चाहूंगा कि इन तीन-चार चर्चाओं में विस्तार से आपसे बात कर सकूं। क्योंकि मनुष्य के सामने सबसे बड़ी समस्या उसकी चित्त की मुक्ति और स्वतंत्रता की है। प्रश्न परमात्मा का नहीं है, प्रश्न चित्त की स्वतंत्रता का है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे पूछते हैं, ईश्वर है? तो मैं उनसे कहता हूं, ईश्वर की फिकर छोड़ दो, मुझे यह बताओ कि तुम्हारा चित्त स्वतंत्र है? कोई मुझसे पूछे, आकाश है? कोई मुझसे पूछे, सूरज है? तो उससे मैं क्या कहूंगा? उससे मैं कहूंगा, तुम्हारी आंखें खुली हैं? सूर्य तो है, लेकिन सूर्य के होने के लिए आंखों का खुला होना चाहिए। परमात्मा तो है, लेकिन परमात्मा को होने के लिए चित्त का खुला होना चाहिए। बंधे हुए चित्त और बंद आंखें उसे कैसे देख सकेंगी?
जो विश्वास में ग्रस्त है, उसकी आंखें बंद हैं और चित्त बंधा हुआ है। जिसने कोई भी मान्यता बना ली है, कोई भी कंसेप्शन बना लिया है, कोई भी धारणा बना ली है, जिसने जानने के पहले कोई मान्यता बना ली है, उस आदमी का चित्त बंद हो गया। उसने अपने द्वार बंद कर लिए। और अब वह पूछता है कि परमात्मा है? सत्य है?
निश्चित ही बंद मन के लिए न सत्य है, न परमात्मा है। इसलिए असली प्रश्न, असली सवाल, असली समस्या ईश्वर के होने, न होने की नहीं है; न आत्मा के होने और न होने की है; न सत्य के होने और न होने की है। असली समस्या है: वह चित्त आपके पास है जो जान सके? उस चित्त के बिना कोई मार्ग जीवन की उपलब्धि का, जीवन की सार्थकता को जानने का न है, न कभी था और न कभी हो सकता है। केवल वे ही जान सकते हैं जिनका विवेक परिपूर्ण रूप से मुक्त होकर जानने में समर्थ है।
कैसे हम अपने चित्त को मुक्ति की ओर ले जाएं? कैसे उसके द्वार खोलें? कैसे उसकी खिड़कियां खुलें और उनमें प्रकाश आ सके? कैसे हमारी आंख खुले और हम देख सकें जो है। जब भी हम कुछ मान लेते हैं तो हमारी आंख पर एक पर्दा पड़ जाता है और हम उसे देख नहीं पाते जो है, बल्कि उसे देखने लगते हैं जिसे हम मानते हैं।
लोगों ने कृष्ण के दर्शन किए हैं, राम के दर्शन किए हैं, क्राइस्ट के दर्शन किए हैं, बुद्ध के दर्शन किए हैं। ये दर्शन हो सकते हैं। अगर हम किसी बात को मान लें, विश्वास कर लें, आग्रहपूर्वक चित्त में उसे ग्रहण कर लें और फिर निरंतर उसका स्मरण करें और निरंतर उसका विचार करें और अपने को आत्म-सम्मोहित कर लें; उपवास से और तप से, निरंतर चिंतन और मनन से, निरंतर विचार और विश्वास से अगर हम अपने को पूरा का पूरा ग्रसित कर लें, तो हमें दर्शन हो सकते हैं। और वे दर्शन सत्य के नहीं होंगे। वे हमारी ही कल्पना के दर्शन होंगे। वे हमारे ही विचार के दर्शन होंगे। वे हमारी मान्यता का ही प्रोजेक्शन, प्रक्षेप होगा। वह हमारा ही स्वप्न होगा जो हमने पैदा किया है। इसलिए दुनिया में अलग-अलग धर्मों के लोग अलग-अलग ढंग से दर्शन कर लेते हैं। वे दर्शन वास्तविक नहीं हैं।
वास्तविक दर्शन के लिए तो जरूरी है, परमात्मा जैसा है उसे जानने के लिए, सत्य जैसा है उसे जानने के लिए तो जरूरी है कि हम अपनी सारी कल्पनाओं को और धारणाओं को छोड़ दें। हमारी सारी कल्पनाएं शून्य हो जाएं। हमारे सारे विचार विलीन हो जाएं। हमारे अपने भीतर कोई मान्यता न हो और फिर हम देख सकें। मान्यता-शून्य जो दर्शन है, वह तो सत्य का दर्शन है; मान्यता के आधार पर जो दर्शन है, वह अपनी ही कल्पना का प्रक्षेप है, अपनी ही कल्पना का दर्शन है।
इस तरह का दर्शन धार्मिक दर्शन नहीं है; इस तरह का दर्शन एक मानसिक कल्पना और स्वप्न का दर्शन है। यह अनुभूति वास्तविक नहीं है। यह अनुभूति तैयार की हुई, बनाई गई, अपने ही मन से सृष्ट है। हमने ही उसे निर्मित किया है।
और दुनिया में बहुत लोगों ने इस भांति परमात्मा के दर्शन किए हैं। वे परमात्मा के दर्शन नहीं हैं, क्योंकि परमात्मा का कोई रूप नहीं है और उसका कोई आकार नहीं है। और सत्य की कोई मूर्ति नहीं है, और सत्य के कोई गुण नहीं हैं। उस सत्य को, जो समस्त में व्याप्त है, जानने के लिए मुझे परिपूर्ण रूप से शांत और शून्य हो जाना जरूरी है। अगर मेरा चित्त बिलकुल निर्विकल्प हो, शांत और सरल हो; अगर मेरे चित्त में कोई विचार न बहते हों, कोई कल्पनाएं न उठती हों; अगर मेरा चित्त बिलकुल ही मौन हो, तो उस मौन में मैं किसे जानूंगा? उस मौन में भी कुछ जाना जाता है। उस शून्य में भी किसी से संबंध और संपर्क हो जाता है। उस शांति में भी कहीं किसी अलौकिक सत्ता से संबंध स्थापित हो जाता है। वही संबंध, वही संपर्क, वही समझ, वही बोध, वही प्रतीति परमात्मा की और सत्य की प्रतीति है।
उस तक जाने के लिए जरूरी है, जैसा मैंने कहा: पहला चरण जरूरी है कि चित्त स्वतंत्र हो जाए। विश्वास से मुक्त हो जाए। संप्रदाय और सिद्धांत की धूल झाड़ दी जाए और अलग कर दी जाए।
कितने ग्रसित हम हैं और कितने भरे हुए हम हैं! कितना ज्यादा विचार का, सिद्धांत का, शास्त्र का हमारे ऊपर भार है! हम उससे दबे जा रहे हैं। कोई पांच हजार साल से मनुष्य चिंतन करता है। पांच हजार साल का चिंतन का भार एक-एक छोटे-छोटे आदमी के सिर पर है। पांच हजार वर्षों में जो भी विचार हुए हैं, उनका भार हमारे ऊपर है। उस भार के कारण चित्त मुक्त नहीं हो पाता, ऊपर नहीं उठ पाता। हम जब भी विचार करना शुरू करते हैं, उसी भार के घेरे में घूमने लगते हैं। वे ढांचे हैं, उन्हीं में हम चलने लगते हैं। जैसे कोल्हू का बैल चलता है अपने रास्ते पर, वैसे ही हमारा चित्त चलता है। इसके पहले कि किसी को सत्य के अज्ञात जगत में प्रवेश करना हो, उसे सारे ज्ञात मार्गों को छोड़ देना बहुत-बहुत आवश्यक है। वह जो भी हम जानते हैं, उसे छोड़ देना जरूरी है, ताकि ज्ञान उत्पन्न हो सके। और जो भी हम मानते हैं, उसे हटा देना जरूरी है, ताकि उसका दर्शन हो सके जो है।
एक तो हौजों में भरा हुआ पानी होता है। ऊपर से पानी भर देते हैं। ईंट-गारे से जोड़ देते हैं हौज को, ऊपर से पानी भर देते हैं। एक कुएं का भी पानी होता है। उसमें जितना भी मिट्टी और पत्थर है, उसे निकाल बाहर कर देते हैं और तब नीचे से जल-स्रोत आते हैं। हौज का पानी थोड़े ही दिन में गंदा हो जाएगा। वह भरा हुआ है। और जिसके जल-स्रोत हैं कुएं के, उसका पानी गंदा नहीं होगा। उसके तो प्राणों का संबंध बहुत गहरे तल से है, जहां बहुत जल है। वह तो अंततः सागर से जुड़ा है। हौज किसी से नहीं जुड़ी है। उसमें ऊपर से पानी भरा है। कुआं तो अंततः सागर से जुड़ा है। उसमें ऊपर से कुछ नहीं भरा गया है।
दो तरह के ज्ञान भी होते हैं। एक तो हौज का ज्ञान होता है जो ऊपर से भर दिया जाता है। वह बहुत जल्दी सड़ जाता है। इसलिए दुनिया में पंडित के मस्तिष्क से सड़ा हुआ मस्तिष्क और कोई मस्तिष्क नहीं होता। वह सोच-विचार करने में असमर्थ ही होता है। उसकी स्थिति अत्यंत पंगु, क्रिपिल्ड होती है। उसका सब भरा हुआ रहता है। वह उसी को दोहराता है। वह मशीन की भांति होता है। इसलिए पंडित की बातें बिलकुल यंत्र की भांति चलती हैं। उससे कुछ भी पूछिए, सब पहले से तैयार है। प्रश्न बाद में है, समाधान पहले है। उत्तर उसे मालूम है। उत्तर ऊपर से भर दिए गए हैं। अब तो पश्चिम में, हमारे मुल्क में भी जल्दी आ जाएंगी, वे मशीनें तैयार हो गई हैं, जिनसे आप प्रश्न पूछें, वे उत्तर दे देंगी। पंडितों की दुनिया में अब जरूरत नहीं रह जाएगी। क्योंकि मशीनें होंगी, जिनमें प्रश्न पहले से भरे हुए हैं, उत्तर भरे हुए हैं। आप प्रश्न लगा दीजिए, कि पांचवां प्रश्न, वे उत्तर दे देंगी। मशीन भीतर से उत्तर दे देगी कि यह उत्तर है। अब पंडित की दुनिया में कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि मशीनें उसका काम कर देंगी और ज्यादा कुशलता से कर देंगी। और मशीनों में एक और भी सुविधा होगी, वे किसी को लड़ाएंगी नहीं, झगड़ा नहीं खड़ा करवाएंगी। एक पंडित के खिलाफ दूसरे पंडित को खड़ा नहीं करेंगी। विवाद नहीं करेंगी। सिर्फ उत्तर देंगी।
यह ऊपर से भरा हुआ जो ज्ञान है, घातक है। यह मस्तिष्क को मुक्त नहीं करता, मस्तिष्क को बांध देता है और खंडित कर देता है। उसकी क्षमता उड़ने की तोड़ देता है, उसके पंख नष्ट कर देता है। एक दूसरा ज्ञान है जो भीतर से आता है, कुएं के जल की तरह आता है। निश्चित ही दोनों की प्रक्रिया बिलकुल अलग और विरोधी है। कुएं में मिट्टी को, पत्थर को बाहर निकालना पड़ता है; और हौज में मिट्टी और पत्थर को जोड़ना पड़ता है। एक में पानी आता है, एक में पानी डालना पड़ता है।
क्या आप ज्ञान को हौज की तरह इकट्ठा कर रहे हैं? अगर इकट्ठा कर रहे हैं तो सावधान हो जाएं। आप अपने ही हाथ से अपने मस्तिष्क को नष्ट कर रहे हैं। वह मस्तिष्क जो कि परमात्मा तक उड़ सकता है, आप उसको जमीन से बांध रहे हैं।
बाहर से ज्ञान न इकट्ठा करें। भीतर से ज्ञान को आने दें। भीतर से ज्ञान के आने देने के लिए जरूरी है कि ईंट-पत्थर जो इकट्ठे कर लिए हैं वे अलग कर दिए जाएं। जितना ज्ञान हमने इकट्ठा कर लिया है, उसे हम हटा दें, सरल हो जाएं। अगर ज्ञान को हम हटा दें और सरल हो जाएं तो कुछ आपके भीतर से नई ऊर्जा का जन्म आपको अनुभव होगा। कोई चीज पैदा होनी शुरू हो जाएगी।
और जगत में संपत्ति को छोड़ना आसान है, विचार को छोड़ना कठिन है। निश्चित ही, आप पूछेंगे, कैसे अलग कर दें? विचार को छोड़ना बहुत कठिन है। एक आदमी साधु हो जाता है। संपत्ति छोड़ देता है, घर छोड़ देता है, मित्र-प्रियजन छोड़ देता है, पत्नी-बच्चे छोड़ देता है; लेकिन जिन विचारों को उसने गृहस्थ रहते हुए पकड़ा था, उनको नहीं छोड़ता। उनको पकड़े रहता है। अगर वह जैन था, तो वह कहता है, मैं जैन साधु हूं। अगर वह मुसलमान था, तो वह कहता है, मैं मुसलमान साधु हूं। अगर वह ईसाई था, तो वह कहता है, मैं ईसाई साधु हूं। जिन विचारों को उसने पकड़ा था, उनको पकड़े रहता है, और सब छोड़ देता है। और गृहस्थी बाहर है। विचार की गृहस्थी भीतर है, और कठिन है छोड़नी। जो उसको छोड़ देता है, वह सत्य को जानने में समर्थ होता है। घर-वर छोड़ने से कोई कभी किसी सत्य को नहीं जान सकता, क्योंकि सत्य में घर की दीवाल बाधा नहीं है। मैं इस घर में बैठा हूं कि दूसरे घर में बैठा हूं, ये दीवालें घर की कोई बाधा नहीं हैं सत्य को जानने में। मैं किनके साथ बैठा हूं, यह भी कोई बाधा नहीं है। मैं कहां हूं, यह भी कोई बाधा नहीं है। सत्य को जानने में एक ही चीज बाधा है कि भीतर जो विचार की दीवाल खड़ी हो जाती है, वही और वही केवल बाधा है। इसलिए निश्चित उसका विसर्जन कठिन है। और जब मैं कहता हूं कि विचार को छोड़ दें, तो प्रश्न उठता है, उसे कैसे छोड़ेंगे? कैसे विचार जाएगा? वह तो निरंतर हमारे भीतर है। जो हमने सीख लिया, उसे हम कैसे भूल सकते हैं?
जरूर जो सीखा गया है, उसे भूलने का रास्ता होता है। और जो इकट्ठा किया गया है, उसे बांट देने का रास्ता होता है। और जो भर लिया गया है, उसे खोल देने का रास्ता होता है। असल में जो भी भीतर लाया गया है, उसे बाहर वापस पहुंचाने का वही रास्ता है जिस रास्ते से वह भीतर लाया गया है। रास्ता हमेशा वही होता है। मैं जिन सीढ़ियों से चढ़ कर ऊपर आया हूं, उन्हीं सीढ़ियों से वापस चला जाऊंगा। और जिस रास्ते से आप तक आया हूं, उसी रास्ते से वापस लौट जाऊंगा। रास्ता हमेशा वही होता है, आने और जाने में रास्ते का फर्क नहीं पड़ता, केवल दिशा का फर्क पड़ता है, मुंह के बदल लेने का फर्क पड़ता है।
जिन-जिन रास्तों से हमने विचार को इकट्ठा किया है, उनके विपरीत मुंह कर लेने से विचारों को विसर्जित भी किया जा सकता है। किन-किन रास्तों से हमने विचार को इकट्ठा किया है? विचार को इकट्ठा करने में सबसे महत्वपूर्ण, सबसे गहरा जो तल है, वह है ममत्व का। वह इस भाव का कि वे मेरे हैं। लगता है विचार मेरे हैं।
कोई विचार आपका है? अगर मैं विवाद करने लगूं, तो आप कहेंगे, मेरा विचार ठीक है। थोड़ा विचार करिए, आपका कोई विचार है? या कि सब विचार बाहर से आए हैं? व्यर्थ ही हम कहते हैं कि मेरा विचार। जो लोग कहने लगते हैं--मेरी कोई पत्नी नहीं है, मेरा कोई बच्चा नहीं है, मेरा कोई मकान नहीं है; वे भी कहते हैं--मेरा धर्म! वे भी कहते हैं--मेरा विचार! मेरा दर्शन! उनको भी वह विचार के तल पर जो ममत्व का भाव है, मेरे होने का भाव है, नहीं जाता। और जिनका उस तल पर ममत्व का भाव नहीं गया है, उनका किसी तल पर ममत्व का भाव नहीं जाएगा। वे चाहे कितना ही कहें कि मेरी पत्नी नहीं है यह, लेकिन बहुत गहरे में उनका यह भाव रहेगा कि यह मेरी पत्नी है।
स्वामी रामतीर्थ अमरीका से वापस लौटे। सारे यूरोप में, सारे अमरीका में उन्होंने बड़ी तत्वदर्शन की चर्चा की। उनका बड़ा प्रभाव हुआ। लाखों-करोड़ों लोगों ने उन्हें पूजा और माना। फिर वे भारत वापस लौट आए। फिर वे कुछ दिन तक हिमालय में थे। उनकी पत्नी उनसे मिलने गई, तो स्वामी राम ने मिलने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा, मैं नहीं मिलूंगा। तो उनके पास सरदार पूर्णसिंह नाम के एक व्यक्ति रहते थे, वे बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा कि मैंने आपको कभी किसी स्त्री को इनकार करते नहीं देखा। यूरोप में, अमरीका में हजारों स्त्रियां आपसे मिलीं और आपने कभी किसी को इनकार नहीं किया। इस स्त्री को इनकार क्यों करते हैं? क्या किसी तल पर अब भी इसे अपनी पत्नी नहीं मान रहे हैं? छोड़ कर चले गए थे उसे। लेकिन अपनी पत्नी से मिलने को इनकार कर रहे हैं। जरूर किसी तल पर वे मान रहे हैं कि वह पत्नी उनकी है। अन्यथा और स्त्रियां आती हैं, उन्हें मिलने से इनकार उन्होंने कभी किया नहीं।
जब तक आपका विचार पर ममत्व है, तब तक आप इस भ्रम में मत रहें कि आप कुछ भी छोड़ सकते हैं। क्योंकि असली पकड़ और संपत्ति तो केवल विचार की है, बाकी सारी चीजें बाहर हैं, उनकी कोई पकड़ नहीं है। पकड़ तो सिर्फ विचार की है। तो वह जो विचार का घेरा है, वह जो विचार की संपत्ति है, जिससे आपको लगता है कि मैं कुछ जानता हूं। विचारणीय है, क्या उसमें कुछ भी आपका है?
एक बहुत बड़ा साधु था। कुछ ही दिन पहले उसके आश्रम में एक युवा संन्यासी आया। दो-चार-दस दिन तक उस संन्यासी की बातें उसने सुनीं। वह जो वृद्ध साधु था, उसकी बातें बड़ी थोड़ी सी थीं। और युवा संन्यासी थक गया उन्हीं-उन्हीं बातों को बार-बार सुन कर और उसने सोचा, इस आश्रम को छोडूं, यहां तो सीखने को कुछ दिखाई नहीं पड़ता। और तभी एक और संन्यासी का आगमन आश्रम में हुआ। रात्रि को उस संन्यासी ने जो चर्चा की, वह बहुत अदभुत थी, बहुत गंभीर थी, बहुत सूक्ष्म थी, बहुत गहरी थी। यह युवा संन्यासी उसकी बातें सुना, उस आगंतुक संन्यासी की, अतिथि की, और इसको लगा कि गुरु हो तो ऐसा हो, जिसके पास ऐसा ज्ञान है, इतना गंभीर और गहरा। और एक यह वृद्ध संन्यासी है, जिसके आश्रम में मैं रुका हूं आकर। इसको तो थोड़ी सी बातें आती हैं, और कुछ आता नहीं। फिर उसे यह भी लगा कि यह वृद्ध संन्यासी इस युवा संन्यासी की बातें सुन कर मन में कैसा दुखी नहीं होता होगा? कैसा इसे नहीं अपमान अनुभव होता होगा? यह तो कुछ भी नहीं जानता। जीवन इसने व्यर्थ गंवा दिया है।
उस नये आए साधु ने अपनी बात पूरी की और गौरव से सबकी तरफ देखा कि उन पर क्या प्रभाव पड़ा। उसने वृद्ध साधु की तरफ भी देखा। वह वृद्ध साधु बोला कि मैं दो घंटे से बहुत स्मृतिपूर्वक सुन रहा हूं, लेकिन मैं देखता हूं कि तुम तो बोलते ही नहीं।
उस संन्यासी ने कहा, आप पागल तो नहीं हैं? दो घंटे से मैं ही बोल रहा हूं, और तो सब लोग चुप हैं। और आप कहते हैं कि दो घंटे से आप सुन रहे हैं और मैं बोलता नहीं हूं!
उस साधु ने कहा, निश्चित ही मैंने बहुत गौर से सुना, तुम कुछ भी नहीं बोले। जो भी तुम बोले, सब दूसरों का है। कोई विचार तुम्हारी अपनी अनुभूति से नहीं है। और इसलिए मैं कहता हूं कि तुम नहीं बोले। दूसरे तुम्हारे भीतर से बोले, लेकिन तुम नहीं बोले।
विचार की मुक्ति के लिए और विचार की स्वतंत्रता के लिए और विवेक के जागरण के लिए, पहली बात, पहला बोध, विचार कोई भी मेरा नहीं है। कोई भी विचार मेरा नहीं है। वह जो मेरे का संबंध है विचार से, उसे देख लें, वह आपका सच नहीं है, वह झूठ है। कोई विचार मेरा नहीं है। वह जो तादात्म्य है विचार से, उसे तोड़ दें।
हम हर विचार से अपना तादात्म्य कर लेते हैं। हम कहते हैं: जैन धर्म मेरा; हिंदू धर्म मेरा; राम मेरे; कृष्ण मेरे; क्राइस्ट मेरे; हम तादात्म्य कर लेते हैं। हम अपने मैं से उनको जोड़ लेते हैं। बड़ा आश्चर्य है!
कोई विचार आपका नहीं है। कोई धर्म आपका नहीं है। यह स्मरणपूर्वक अगर प्रज्ञा में प्रतिष्ठित हो जाए यह बोध कि कोई विचार मेरा नहीं है। आप सारे विचारों को फैला कर देख लें, वे कहीं से आए होंगे। जैसे वृक्ष पर आते हैं पक्षी और संध्या बसेरा करते हैं, ऐसे ही विचार मन में आते और निवास करते हैं। आप केवल एक धर्मशाला की तरह हैं, जहां लोग ठहरते हैं और चले जाते हैं।
एक सराय का मुझे स्मरण आता है। एक छोटी सी सराय थी, वहां कुछ लोग आ रहे थे संध्या को ठहरने को। कुछ लोग जिनका काम पूरा हो गया, वे संध्या को विदा हो रहे थे। और एक फकीर उस सराय के बाहर बैठा था और हंस रहा था। एक नया-नया आदमी भीतर सराय में आ रहा था, उसने उस फकीर से पूछा, हंसते क्यों हो? उसने कहा, इस सराय को देख कर मुझे अपने मन का खयाल आ गया, इसलिए हंसी आ गई। ऐसे ही कुछ विचार आते हैं और कुछ चले जाते हैं। और मन केवल सराय है। और कोई भी विचार उसका अपना नहीं है। मन केवल सराय है। वहां ठहरते हैं विचार और चले जाते हैं।
जरा अपने मन को गौर से देखें, तो पता चलेगा, कल जो विचार थे, वे आज नहीं हैं; परसों जो विचार थे, वे आज नहीं हैं; साल भर पहले जो विचार थे, वे आज नहीं हैं; दस साल पहले जो विचार थे, वे आज नहीं हैं; बीस साल पहले जो विचार थे, उनका कोई पता नहीं है। इन पिछले, अगर आप पचास साल जीए हैं, या चालीस साल, या तीस साल, या बीस साल, तो लौट कर देखें, बीस साल में कौन से विचार आपके रहे हैं? विचार आए हैं और गए हैं। और आप केवल सराय हैं, ठहरने की जगह हैं। और फिर भूल से समझ लेते हैं कि मेरे हैं। जैसे ही समझ लेते हैं कि मेरे हैं, वैसे ही विचार को पकड़ मिल जाती है और दीवाल बननी शुरू हो जाती है।
पहला स्मरण, चित्त की स्वतंत्रता के लिए जरूरी है, जानें कि कोई विचार आपका नहीं है। अगर कोई विचार आपका नहीं है और विचार आते हैं और चले जाते हैं, तो आप कौन हैं फिर? आप क्या हैं वहां? आप निश्चित ही साक्षी से ज्यादा नहीं हैं। आप निश्चित ही देखने वाले से ज्यादा नहीं हैं। आप वहां केवल एक दर्शक हैं।
लेकिन हम तो नाटक में भी तादात्म्य कर लेते हैं। हम तो फिल्म में भी तादात्म्य कर लेते हैं। वहां फिल्म चलती हो और कोई दुखद चित्र आता हो तो हमारे आंसू बहने लगते हैं। और यह छोटे-मोटे आदमी की बात नहीं है।
बंगाल में एक बहुत बड़े विचारक हुए, ईश्वरचंद्र विद्यासागर। वे तो विद्या के सागर समझे जाते थे। एक छोटा सा नाटक हो रहा था कलकत्ते में। उस नाटक को वे देखने गए। उस नाटक में एक पात्र था, जो एक महिला पर अनाचार करता है, अत्याचार करता है। वह अत्याचार करने लगा, वह उस स्त्री को सताने लगा और विद्यासागर इतने गुस्से में आ गए कि उठ कर उन्होंने अपना जूता निकाला और उसको मार दिया, नाटक में! और वे विद्या के सागर समझे जाते थे। उन्होंने जूता मार दिया उठ कर उसे। वह जो अभिनेता था, उनसे ज्यादा समझदार रहा होगा। उसने जूते को लिया और नमस्कार किया और उसने कहा कि मैं सफल हो गया। इतने बड़े आदमी ने भी धोखा खा लिया। उसने कहा, यह मेरा पुरस्कार जीवन का हुआ। इससे बड़ा पुरस्कार मुझे कभी नहीं मिला। यानी मेरे अभिनय की कुशलता सफल हो गई।
बाद में बहुत घबड़ाए विद्यासागर और कहने लगे, यह क्या भूल मुझसे हो गई! लेकिन मैं भूल ही गया कि यह मामला नाटक का है और मैंने तादात्म्य कर लिया।
इस जीवन में विचार के तल पर भी हम दर्शक से ज्यादा नहीं हैं, लेकिन हम विचार से तादात्म्य कर लेते हैं। वे जो विचार मन के पर्दे पर आते और जाते हैं, उनके हम सिर्फ साक्षी हैं।
खयाल करें, रात आपने स्वप्न देखे, सुबह आप उठे, आप कहते हैं कि स्वप्न आए और गए। फिर आपने दिन देखा। आप बच्चे थे, आपने बचपन देखा। फिर युवा हुए। फिर बूढ़े हुए। जरा खयाल करें कि आपके भीतर कौन सा तत्व शाश्वत पूरे वक्त मौजूद है? सतत मौजूद है?
सिवाय देखने वाले के और कोई मौजूद नहीं है। बाकी सब आता है और चला जाता है। बचपन आता है, चला जाता है; जवानी आती है, चली जाती है; बुढ़ापा आता है, चला जाता है। जन्म होता है, मृत्यु हो जाती है; सुख आते हैं, दुख आते हैं; धूप आती है, छाया आती है; सम्मान आता है, अपमान आता है। लेकिन ये सारी चीजें आती हैं और जाती हैं। पूरे जीवन में कौन सा तत्व है जो न आता है और न जाता है? वह सिर्फ देखने वाले के सिवाय और कोई दूसरा तत्व नहीं है। वह जो इन सबको देखता है। वह जो देखता है कि धूप आई, जो देखता है कि धूप गई; जो देखता है कि युवा हुआ, जो देखता है कि बूढ़ा हो गया; जो देखता है कि एक विचार आया, जो देखता है कि दूसरा विचार गया। एक देखने वाले सूत्र के सिवाय आपके भीतर बाकी सब आता है और जाता है। बाकी कोई तत्व टिकता नहीं है। हां, एक चीज टिकी रहती है, वह है देखने की शक्ति और देखने की क्षमता और वह द्रष्टा होने का, वह साक्षी होने का भाव।
विचार के तल पर साक्षी हो जाएं। विचार को देखें, पकड़ें नहीं। विचार को बांधें नहीं, देखें। मात्र साक्षी होकर देखें।
लेकिन हम साक्षी नहीं हो पाते, क्योंकि हमने मान रखा है कि कुछ विचार बुरे हैं और कुछ अच्छे हैं। इसलिए हम अच्छे को पकड़ना चाहते हैं, बुरे को धक्का देना चाहते हैं। इसलिए हम साक्षी नहीं हो पाते। अच्छे और बुरे का जो भेद करता है, वह साक्षी नहीं हो सकता। जो अच्छे-बुरे का भेद करता है विचार में कि यह विचार अच्छा है, तो जो अच्छा है उसे पकड़ना चाहता है और जो बुरा है उसे हटाना चाहता है।
विचार केवल विचार है। विचार न अच्छा होता है, न बुरा होता है, विचार न अच्छा होता है, न बुरा होता है। विचार केवल विचार है। जैसे ही हमने अच्छा और बुरा कहा, वैसे ही हम एक को पकड़ने और दूसरे को छोड़ने में लग जाएंगे। और जो एक को पकड़ेगा और दूसरे को छोड़ेगा, वह समझ ले, अच्छे और बुरे जिन्हें हम कह रहे हैं, वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो अच्छे को पकड़ेगा, बुरा भी बच जाएगा; और जो बुरे को धकाएगा, तो अच्छा भी धकेगा। वे दोनों संयुक्त हैं।
विचार संयुक्त है। और इसीलिए जिसको हम अच्छा आदमी कहते हैं, आप यह मत सोचें कि उसके भीतर बुरे विचार नहीं हैं। उसके भीतर बुरे विचार हैं। ऐसा अच्छा आदमी आप नहीं खोज सकते जिसके भीतर बुरे विचार न हों और ऐसा बुरा आदमी भी नहीं खोज सकते जिसके भीतर अच्छे विचार न हों। हां, ऐसा आदमी जरूर होता है जिसके भीतर विचार ही न हों। वह बिलकुल अलग बात है। वह बिलकुल अलग बात है। उसके बाबत मैं नहीं अभी चर्चा कर रहा। ऐसा आदमी होता है जिसके भीतर विचार ही न हों। वह न अच्छा है, न बुरा है। वह तो आदमी के भी ऊपर गया। वह अच्छाई और बुराई के ऊपर गया। उसको मैं साधु कहता हूं। उसने ही जाना। जो अच्छे को पकड़ता है, वह स्मरण रखे, अभी बुरा उसके भीतर रहेगा।
इसलिए आप यह जान कर हैरान होंगे, जो सज्जन है वह स्वप्न में वह काम करता है, जो दुर्जन दिन में जागने में करता है। क्योंकि बुरा विचार उसके भीतर है। जो दुर्जन जागने में करता है, सज्जन सपने में करता है। और आप बहुत हैरान होंगे जान कर कि बुरे आदमी बुरे सपने नहीं देखते; अच्छे आदमी बुरे सपने देखते हैं। बुरे आदमी अच्छे सपने देखते हैं। बुरे आदमी साधु होने के सपने देखते हैं और अच्छे आदमी असाधु होने के सपने देखते हैं। जिसको उन्होंने होश में पकड़ा है और जिसको धकाया है, वह बेहोशी में वापस लौट आता है। वह तो मौजूद था, लेकिन होश में आप उसे प्रकट नहीं होने देते थे। वह बेहोशी में प्रकट होता है।
अगर दुनिया के सज्जन लोगों का मन खोल कर रखा जाए, तो जितने पाप वे लोग करते हैं जो कि जेलखानों में बंद हैं, उतने पाप वे भी मन में करते हैं। उसमें कोई बहुत भेद नहीं है। वे सारे के सारे वे ही पाप जो दुर्जन करता है, वे सज्जन भी करते हैं। वे मन में ही करते हैं, दुर्जन बाहर कर देता है। और वे सारी अच्छी बातें जो सज्जन करता है, उनकी कल्पना दुर्जन भी करते रहते हैं। उनके सपने वे भी देखते रहते हैं। वे दोनों ही पहलू साथ ही रहते हैं। कोई अच्छा आदमी ऐसा नहीं होता कि उसकी पीठ के साथ बुरा आदमी न जुड़ा हो। और कोई बुरा आदमी ऐसा नहीं होता कि उसकी पीठ के पास ही अच्छा आदमी न खड़ा हो। जिसे हम दबा देते हैं, वह पीछे दब जाता है; जिसे उभार लेते हैं, वह ऊपर निकल आता है। जैसे सिक्के का चेहरा हम ऊपर कर लें, तो पीठ नीचे चली जाती है; और पीठ ऊपर कर लें, तो सिक्के का चेहरा नीचे चला जाता है। वैसे ही अच्छा और बुरा एक ही विचार के दो पहलू हैं।
जिसको साक्षी होना है और जिसे सत्य को जानना है, उसे समस्त विचार को मात्र विचार समझना होगा। न कोई अच्छा है, न कोई बुरा है। क्योंकि जैसे ही हमने यह तय किया कि कुछ अच्छा है और कुछ बुरा है, वैसे ही हम एक को पकड़ने में, दूसरे को हटाने में लग जाएंगे और साक्षी नहीं रह सकेंगे। साक्षी होने के लिए जरूरत है कि हम निष्पक्ष हों। हमारी कोई धारणा न हो; हमारी कोई कामना न हो; हमारी कोई कल्पना न हो; हम कुछ आरोपित न करना चाहते हों। विचार जैसे हैं, हम उनको वैसे ही देखने को राजी हों। और यह आश्चर्यजनक तत्व है कि अगर आप विचार के मात्र साक्षी हो जाएं, निर्णय न लें, अच्छा-बुरा न सोचें, कंडेमनेशन न करें, किसी विचार की निंदा और किसी की प्रशंसा न करें, तो आप बहुत हैरान हो जाएंगे--इस भांति जो मात्र साक्षी की तरह चुप, मौन देखता रह गया है, वह धीरे-धीरे पाता है कि विचार विलीन हो गए, विचार शून्य हो गए। उसके चित्त के द्वार पर विचार आने बंद हो जाते हैं जो उनके प्रति समस्त राग के संबंध छोड़ देता है।
समस्त राग के संबंध से अर्थ है: उनके प्रति प्रेम भी छोड़ देता है और उनके प्रति घृणा भी छोड़ देता है। वे दोनों ही राग के संबंध हैं। और जिसको हम प्रेम करते हैं, वह भी हमारे द्वार आता है; और जिसको हम घृणा करते हैं, वह भी हमारे द्वार आता है। मित्र भी हमको घेरे रहते हैं और शत्रु भी हमको घेरे रहते हैं। एक बार मित्र चाहे न भी घेरें, लेकिन शत्रु जरूर घेरे रहते हैं। वे हमारे चित्त में घूमते ही रहते हैं।
अगर कोई आदमी समझ ले कि धन बुरा है, इसका विचार बुरा है, तो वह पाएगा कि चौबीस घंटे धन का विचार ही उसको घेरे हुए है। अगर कोई आदमी समझ ले कि भोजन बुरा है और करना ठीक नहीं है, तो उसका विचार, भोजन का विचार ही उसे घेरे रहेगा। कोई आदमी समझ ले कि सेक्स पाप है, काम पाप है और उससे लड़ने लगे, तो वह पाएगा कि चौबीस घंटे उसका चित्त उसी विचार से घिरा हुआ है। जिस विचार से आप लड़ते हैं, वही विचार आपका आमंत्रण स्वीकार कर लेता है। जिससे आप लड़ते हैं, वही आने लगता है। मन का नियम है: जिससे लड़ेंगे, वही आमंत्रित हो गया। जिसको आपने धक्का दिया, वह आपके धक्का देने के कारण ही आना शुरू हो जाएगा।
इसलिए विचार से न तो लड़ना है, न विचार को स्वीकार करना है। न उसे पकड़ना है, न धक्के देना है। विचार को मात्र देखना है।
बड़े साहस की जरूरत है। क्योंकि बुरा विचार भी आएगा और मन होगा कि धक्का दे दें। और अच्छा विचार आएगा और मन होगा कि पकड़ लें। इस मन की यह जो पकड़ने और धक्का देने की वृत्ति है, इस पर थोड़ा सा बोधपूर्वक, विचारपूर्वक, स्मृतिपूर्वक अगर कोई ध्यान करेगा तो यह वृत्ति धीरे-धीरे शिथिल हो जाती है और आप विचार को देखने में समर्थ हो जाते हैं।
जो व्यक्ति विचार को देखने में समर्थ हो जाता है, वह व्यक्ति विचार से मुक्त होने में समर्थ हो जाता है। जो व्यक्ति विचार को देखने में समर्थ हो जाता है, वह व्यक्ति विचार से मुक्त होने में समर्थ हो जाता है।
हम विचार को देखते ही नहीं। हम कभी रुक कर, ठहर कर देखते नहीं कि वहां क्या चल रहा है? आपने शायद ही कभी देखा हो कि आधा घंटा बैठ कर आपने देखा हो कि क्या आपके भीतर चल रहा है? वह चल रहा है और आप भी चले जा रहे हैं; वह चल रहा है और आप भी काम किए जा रहे हैं; वह चल रहा है, आप खाना खा रहे हैं; वह चल रहा है, आप दुकान जा रहे हैं; वह चल रहा है, आप लिख रहे हैं, बोल रहे हैं; वह चल रहा है, मैं बोल रहा हूं, आप सुन रहे हैं। वह भीतर आपके चले जा रहा है। वह अलग ही चलता जा रहा है। धीरे-धीरे आपने उसकी फिकर ही छोड़ दी है कि भीतर क्या चल रहा है। आप अपना किए चले जा रहे हैं। इसलिए आप करीब-करीब सोए हुए आदमी हैं। भीतर मन कुछ और कर रहा है, आप कुछ और किए चले जा रहे हैं। आप अनुपस्थित आदमी हैं। आप अपने प्रति उपस्थित नहीं हैं। आप अपने प्रति जागे हुए नहीं हैं।
महावीर से किसी ने एक दिन पूछा, साधु कौन है? तो महावीर ने कहा, असुत्ता मुनि। जो सोया हुआ नहीं है, वह साधु है। पूछा, असाधु कौन है? उन्होंने कहा, सुत्ता अमुनि। जो सोया है, वह असाधु है। बहुत अदभुत, बहुत अदभुत सूत्र है। जो सोया है।
तो हम सारे लोग सोए हुए हैं। हम, भीतर क्या चल रहा है, उसके प्रति बिलकुल सोए हुए हैं। और वह भीतर ही हमारा असली होना है। हम उसके प्रति सोए हुए हैं। बाहर क्या चल रहा है, बाहर क्या हो रहा है, उसके प्रति जागे हुए हैं। जो बाहर चल रहा है, उसके प्रति जागे हैं; जो भीतर चल रहा है, उसके प्रति सोए हैं--यही जीवन का दुख और यही जीवन का अज्ञान है और यही जीवन की परतंत्रता और यही उसका बंधन है।
उसके प्रति जागना होगा जो भीतर चल रहा है। तो वह विचार की समस्त धारा के प्रति जो जागेगा, देखेगा, समझेगा, साक्षी होगा, वह एक बड़े अदभुत अनुभव से गुजरता है। उसे अनुभव में आना शुरू होता है: जिन-जिन विचारों का वह विराग-शून्य साक्षी हो जाता है, वे-वे विचार आने बंद हो जाते हैं। जिस-जिस विचार को वह देखने में समर्थ हो जाता है, वह-वह विचार आने में असमर्थ हो जाता है। और एक घड़ी आती है कि विचार नहीं रह जाते। और तब जो शेष रह जाता है, उसका नाम विवेक है। एक घड़ी आती है कि कोई विचार नहीं होता और आप होते हैं। तब जो आपके भीतर जाग गया है, वह मुक्त विवेक है, वह स्वतंत्र हुआ विवेक है। यही स्वतंत्र विवेक सत्य को जानने में समर्थ होता है। परतंत्र विवेक सत्य को जानने में असमर्थ होता है।
स्वतंत्रता पहली भूमिका है। यह स्वतंत्रता साधनी ही होगी। इसे साधे बिना कभी कोई सत्य के संबंध में कोई गति नहीं होगी। कितने ही शास्त्र पढ़ें, कितना ही समझें, कितने ही सिद्धांत याद कर लें। शब्द ही याद हो जाएंगे, और कुछ भी नहीं होगा। और शब्द मस्तिष्क को भर लेंगे। और बहुत शब्द किसी ज्ञान का लक्षण नहीं हैं। शब्द तो पागल में भी बहुत होते हैं। आपसे ज्यादा होते हैं। लेकिन शब्द कोई ज्ञान का लक्षण नहीं हैं। और यह भी आप निश्चित समझें, बहुत शब्द बढ़ जाएं तो आप भी पागल हो सकते हैं। पागल में और सामान्य हममें कोई बहुत भेद नहीं है। हममें शब्द थोड़े अभी कम हैं, उसमें थोड़े और ज्यादा हो गए।
हर आदमी पागलपन के किनारे पर खड़ा रहता है। जरा सा ही धक्का और पागल हो सकता है। शब्द अगर और जोर से घूमने लगें, तो वह पागल हो जाएगा। अभी मनोवैज्ञानिक यह कहते हैं कि हर तीन आदमी में एक आदमी तो करीब-करीब पागल होने की हालत में है। हर तीन आदमी में! यहां जितने लोग हैं, उनमें से एक तिहाई तो पागल होने की हालत में हैं। और आप यह मत सोचना कि आपका पड़ोसी इस हालत में है, क्योंकि यह इस बात का लक्षण है कि आप गड़बड़ हैं। अगर आपको यह खयाल आ जाए कि मेरा पड़ोसी गड़बड़ हालत में है, तो आप समझना कि आप गड़बड़ हालत में हैं। क्योंकि यह, पागल कभी यह नहीं समझ पाता कि वह पागल है। वह हमेशा समझता है कि दूसरे पागल हैं। यानी पागल का एक अनिवार्य लक्षण यह है कि वह हमेशा यह समझता है कि दूसरे लोग पागल हैं। पागल को आप समझा नहीं सकते कि वह पागल है। क्योंकि अगर इतना ही वह समझ जाए तो सबूत हो गया कि वह पागल नहीं है। हम करीब-करीब उस हालत में पहुंचते जा रहे हैं।
अमरीका में इस समय कोई पंद्रह लाख आदमी रोज अपने मस्तिष्क के बाबत सलाह लेते हैं, कि उनका दिमाग कुछ गड़बड़ है। ये तो सरकारी आंकड़े हैं उनके। और पंद्रह लाख अंदाज है कि व्यक्तिगत, प्राइवेट डाक्टर से सलाह लेते होंगे। ये कोई तीस लाख आदमी रोज सलाह ले रहे हैं। और काहे की सलाह ले रहे हैं ये? कि विचार बहुत ज्यादा हैं। और धीरे-धीरे तो इतना ज्यादा होता जा रहा है कि उनका काबू छूटा जा रहा है। अब वे क्या करेंगे, उनकी कुछ समझ में नहीं पड़ रहा है। उनके विचार की गति इतनी तीव्र होती जा रही है कि उनका अपने जीवन पर से काबू छूटा जा रहा है।
आप भी विचार करें, आप भी खयाल करें, क्या विचार इतना तीव्र है? दस मिनट बैठ जाएं और जो भी विचार मन में आए उसे लिखें, ईमान से। उसमें से एक भी न छोड़ें। जो भी आए, आधा आए तो आधा लिखें, पूरा आए तो पूरा। एक दस मिनट एक कागज पर लिखें और फिर किसी को उसे दिखाएं। तो वह कहेगा, यह किस पागल ने लिखा है? किसी को भी दिखा लें फिर। वह आपसे कहेगा, यह किस पागल ने लिखा है? असल में आपको खुद ही समझ में आएगा कि यह किस पागल ने लिखा है? जो आपके भीतर चल रहा है, अगर दस मिनट उघाड़ कर देखा जा सके, तो आप खुद ही घबड़ा जाएंगे कि मैं कैसा पागल हूं! यह क्या चल रहा है? यह क्या मेरे भीतर हो रहा है?
लेकिन हम कभी रुक कर देखते नहीं कि वहां क्या भीतर हो रहा है। और हम समझते हैं कि हम बहुत विचारशील हैं। सभी पागल ऐसा समझते हैं। और इसलिए, आपको यह पता हो कि जो विचारक अति विचार में पहुंच जाते हैं, वे पागल हो जाते हैं।
अभी यूरोप में पिछले पचास सालों में जो बड़े-बड़े विचारक थे, वे करीब-करीब सभी पागल हुए। कोई साल भर पागलखाने में था, कोई दो साल पागलखाने में था। मुझे तो ऐसा लगने लगा कि अब जो और दूसरे विचारक पागल नहीं हुए, वे जरूर कुछ थोड़े कम विचारक होंगे। एक वक्त आ जाएगा कि जो विचारक पागलखाने होकर न आया हो, हम समझेंगे कि कुछ छोटी कोटि का विचारक है। ठीक भी है। विचार की अंतिम परिणति पागलपन है, विक्षिप्तता है, मैडनेस है। इसलिए महावीर को, बुद्ध को मैं विचारक नहीं कहता हूं। वे विचारक नहीं हैं। वे ज्ञानी हैं। ज्ञानी और विचारक में जमीन-आसमान का फर्क है। वे जानते हैं, वे विचार नहीं करते। और जो नहीं जानता, वही केवल विचार करता है। अभी मैं यहां बैठा हूं, सभा खत्म होगी, हम सब उठेंगे और दरवाजों से निकल जाएंगे। कोई विचार नहीं करेगा कि दरवाजा कहां है? क्योंकि दरवाजा हमें दिखाई पड़ रहा है। एक अंधा आदमी यहां बैठा हो। जैसे ही सभा खत्म होगी, वह सोचेगा, कहां से जाऊं? कहां दरवाजा है? कहां दीवाल है? वह विचार करेगा। जो देख सकता है, वह विचार नहीं करता। जो नहीं देख सकता, वह विचार करता है। विचार अज्ञान का लक्षण है, ज्ञान का लक्षण नहीं है। तो जितना ज्यादा विचार आप करते हैं, समझें कि उतना गहन अज्ञान है। ज्ञान उत्पन्न हो तो विचार क्षीण हो जाएगा, शून्य हो जाएगा।
मैंने कहा कि विचार को देखें और उसको क्षीण होने दें, शून्य होने दें। सजग होने से विचार शून्य होता है। साक्षी होने से विचार शून्य होता है। और जब विचार शून्य हो जाता है तो विवेक मुक्त होता है। फिर वह विवेक शास्त्र को नहीं, सिद्धांत को नहीं, सत्य को जानने में उसकी गति हो जाती है। स्वतंत्र विवेक छोड़ देता है किनारा और अनंत सागर में प्रवेश करता है।
एक छोटी सी कहानी और अपनी चर्चा को मैं पूरा करूंगा।
एक रात कुछ मित्र मौज में थे और उन्होंने कहीं जाकर खूब शराब पी और फिर वे सोचे कि चांद पूरा है, रात बहुत सुंदर और रम्य, हम चलें और चल कर झील में यात्रा करें। वे गए और वे एक नाव पर बैठे और यात्रा शुरू की। उन्होंने पतवारें उठाईं और पतवारें चलाईं। और वे रात के बहुत आखिरी पहर तक नाव चलाते रहे। फिर सुबह की ठंडी हवाएं आने लगीं और चांद डूबने को होने लगा। ठंडी हवाओं ने उनके नशे को उखाड़ दिया। उनमें से कुछ लोग ताजे हुए और उन्होंने कहा, हम बहुत दूर निकल आए, अब वापस लौटें, क्योंकि घर पहुंचते-पहुंचते दोपहर हो जाएगी। इतने दूर निकल आए हैं किनारे से। उन्होंने सोचा कि चल कर नीचे देखें कि हम कितने दूर आ गए हैं! वे नीचे गए और वे हैरान हो गए। वे कहीं भी नहीं गए थे। नाव वहीं खड़ी थी, क्योंकि वे जंजीर खोलना भूल गए थे। वह जंजीर वहीं बंधी थी। वह नाव की जंजीर वहीं बंधी थी। उन्होंने पतवार बहुत चलाई, लेकिन वे कहीं पहुंच नहीं सके और वे बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा, हम व्यर्थ रात भर परेशान हुए और बड़ा सोचते रहे कि बड़ी यात्रा हो रही है। हम तो वहीं के वहीं खड़े हैं।
जिसका विचार, विवेक मुक्त होना चाहता है, उसे विश्वास के किनारे से जंजीर को खोल लेना होगा। और जिसकी विश्वास से कहीं जंजीर बंधी है, वह स्मरण रखे, सत्य के जगत में उसकी कोई यात्रा नहीं हो सकती। वह कहीं नहीं पहुंचेगा। अंतिम जीवन में वह पाएगा, जहां से शुरू किया था, मां-बाप ने जो विश्वास दे दिए थे, वह वहीं खड़ा हुआ है। यात्रा व्यर्थ गई। पतवार चलाना व्यर्थ हुआ। श्रम व्यर्थ गया। मां-बाप ने जो विचार दे दिए थे और समाज ने जो विचार दे दिए थे, उन्हीं विश्वासों पर वह खड़ा है मरते वक्त। ऐसे आदमी का जीवन दुर्भाग्य है। उसकी यात्रा व्यर्थ हो गई। वह नाव की जंजीर को किनारे से खोलना भूल गया।
किनारे से खोल लें अपनी जंजीर को। समाज ने जो दिया है, किसी दूसरे ने जो दिया है, उससे अपनी जंजीर को खोल लें और विवेक को मुक्त होने दें। मुक्त विवेक ही परमात्मा तक ले जाने का पंख बनता है और बंधे हुए विचार और विश्वास परमात्मा से रोकने वाली जंजीरें हो जाते हैं। हम सब जंजीरों में बंधे हैं। यह सारी दुनिया जंजीरों में बंधी है। इन जंजीरों में बंधे होने के कारण परमात्मा का अनुभव नहीं हो पाता। साहस करें और जंजीरों को छोड़ दें और फिर देखें कि आपकी नाव कहां जाती है!
रामकृष्ण का एक अंतिम वचन कहूंगा। रामकृष्ण ने कहा है कि तू अपनी नाव तो खोल, अपनी नाव के पालों को तो उड़ा, परमात्मा की हवाएं तुझे हमेशा अनंत में ले जाने को तैयार हैं। तू अपनी नाव तो खोल, अपने पालों को तो उड़ा, और परमात्मा की हवाएं तुझे अनंत में ले जाने को हमेशा तैयार हैं।
धन्य हैं वे लोग, जो अपनी नाव खोल लेते हैं और अपने पाल खोल देते हैं। और अभागे हैं वे लोग, जो कहीं अपनी नाव को बांधे रखते हैं और श्रम करते हैं और अंत में असफल हो जाते हैं।
अंत में मैं यही प्रार्थना करूं कि प्रभु आपको भी वैसी सामर्थ्य और साहस दे कि आपकी नाव खुल सके किनारे से विश्वास के और ज्ञान के अनंत सागर में उसका प्रवेश हो सके। जो हिम्मत करते हैं, परमात्मा उनके साथ है। और जो कमजोर हैं और रुके रह जाते हैं, परमात्मा भी उनके लिए क्या कर सकता है? इतनी ही थोड़ी सी बातें कहूंगा और धन्यवाद दूंगा।

मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। मेरे प्रणाम अपने भीतर परमात्मा के लिए स्वीकार करें।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें