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गुरुवार, 14 सितंबर 2017

भारत का भविष्य-(प्रवचन-05)

भारत का भविष्य--(राष्ट्रीय-सामाजिक)
 

पांचवां-प्रवचन-(ओशो)

भारत किस ओर?

मेरे प्रिय आत्मन्!
विदर इंडिया? भारत किस ओर? यह सवाल भारत के लिए बहुत नया है। कोई दस हजार वर्षों से भारत की दिशा सदा निश्चित रही है, उसे सोचना नहीं पड़ा है। दस हजार सालों से भारत एक अपरिवर्तित, अनचेंजिंग सोसाइटी रहा है। जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता रहा। एक स्टैग्नेंट, ठहरा हुआ समाज रहा है। जैसे कोई तालाब होता है, ठहरा हुआ, चारों तरफ से बंद, तो हम तालाब से नहीं पूछते किस ओर? उसकी कोई गति नहीं होती। नदी से पूछते हैं, किस ओर? उसकी गति होती है। भारत की जिंदगी और भारत का मनुष्य आज तक एक तालाब की भांति रहा है। उसके आस-पास यह सवाल कभी नहीं उठा, किस ओर?
किस ओर का कोई सवाल न था, जाना ही नहीं था कहीं। जहां हम थे वहां हम थे। हम मनुष्यों की भांति नहीं जीए हैं पांच हजार वर्षों में, वृक्षों की भांति जीए हैं; जमीन पर गड़े हुए, जिनमें कोई गति नहीं है।

ऐसे मैं सुनता हूं कि कुछ वृक्ष भी थोड़ी सी गति करते हैं। कुछ वृक्ष शायद अफ्रीका के जंगलों में वर्ष में पांच-सात फीट हट जाते हैं। लेकिन भारत उतना भी नहीं हटा है। हमने न हटने की कसम खाई हुई थी। और हम न हटने को गौरवपूर्ण समझते थे। हमारा ख्याल था कि जो चीज जितनी पुरानी है, उतनी मूल्यवान है। और परिवर्तन तो तब आता है जब नई चीज को हम पुरानी चीज से ज्यादा मूल्य दें। जब हम कहें कि जो नया है वह पुराने से श्रेष्ठतर हो सकता है, तो परिवर्तन शुरू होता है। जब हम ऐसा मानते हैं कि पुराना नये से श्रेष्ठतर होता ही है, तो परिवर्तन का कोई सवाल नहीं उठता।
भारत के मन में सदा से ही पुराने का आदर रहा है। भारत के मन में जितनी पुरानी चीज हो, उतनी कीमती मालूम पड़ती है। तो भारत विकासमान एवलूशनरी नहीं, बल्कि घासमान है। पतित हो रहा है। यह जो दस हजार साल की कहानी है, इसमें अगर किसी ने मनु से पूछा होता..विदर इंडिया? भारत किस ओर? तो वह कहता, क्या पागलपन की बात कर रहे हैं! भारत जहां है वहां है। अडिग अपनी जगह खड़ा है। कहीं जाने का कोई सवाल नहीं। सब जाना गलत था।
आज यह सवाल संगत है, रिलेवेंट है। हम पूछ सकते हैं..भारत किस ओर?
यह सवाल क्यों उठा है? यह सवाल दो कारणों से उठा है। एक तो पहली बार हम जगत की संस्कृति के संपर्क में आए, पहली बार हम मनुष्य की विभिन्न संस्कृतियों और समाजों को देखे और पहचाने। तो पहली बार हमारा परिचय औरों से हुआ है। हमारा सिर्फ परिचय अपने से था। इस औरों से परिचय ने हमें संदिग्ध कर दिया है। अब हम यह नहीं कह सकते कि जो हमारे पास है वही श्रेष्ठ है। अब हम यह भी नहीं कह सकते कि जो हमारे पास है वही सही है। दूसरों के पास भी बहुत कुछ है। और हजार चीजें हैं जो हमसे ज्यादा सही दूसरों के पास भी हैं, एक। दूसरी बात, सारे जगत में एक मौलिक ज्ञान की क्रांति हो गई है। उस क्रांति के परिणाम हमारे पास भी आने शुरू हुए। उसने भी यह सवाल उठा दिया है कि अब भारत किस ओर? क्योंकि पुरानी दिशा धूमिल हो गई है। पुराने रास्ते काफी चले जा चुके हैं, और अब बेमानी हो गए हैं, और नये रास्ते चुनने की हमारी हिम्मत नहीं है, क्योंकि दस हजार साल से हमने कभी नये रास्ते चुने नहीं।
जो दूसरी बात मैं कहना चाहता हूं वह भी आपसे कह दूं, फिर बात समझ में आसान हो जाएगी।
जीसस के मरने के बाद सारी दुनिया में अठारह सौ वर्षों में जितना ज्ञान विकसित हुआ है उतना ज्ञान पिछले डेढ़ सौ वर्षों में विकसित हुआ। और जितना डेढ़ सौ वर्षों में विकसित हुआ है उतना पिछले पंद्रह वर्षों में विकसित हुआ है। और जितना पिछले पंद्रह वर्षों में विकसित हुआ है उतना पिछले पांच वर्षों में विकसित हुआ है। आदमी जिस ज्ञान को पैदा करने में अठारह सौ साल लगाता था, अब हम पांच साल में उतना ज्ञान पैदा कर लेते। और यह गति रोज बढ़ती चली जाती है। इसके परिणाम बड़े अदभुत हुए हैं।
इसका एक परिणाम तो यह हुआ है कि कोई भी चीज थिर नहीं हो पाती। अगर एक ज्ञान अठारह सौ साल तक सच हो तो समाज थिर हो जाता है, ठहर जाता है। लेकिन अगर ज्ञान हर पांच वर्ष में बदल जाता हो और नये ज्ञान का एक्सप्लोजन हो जाता हो तो समाज कभी थिर नहीं हो पाता। इसके पहले कि आप ठहरें, आप पाते हैं वह जमीन हट गई है नीचे से, जिस पर आपने भवन बनाया था। उसके पहले कि आप निश्चित होकर बच जाएं, वे रास्ते गलत हो जाते हैं जिन रास्तों पर आपने बसने की इच्छा की थी। इसलिए पुराना समाज अगर कभी बदलता भी था तो बदलाहट का क्रम इतना धीमा था कि एक छोटी सी बदलाहट लाने में बीस पीढ़ियां गुजर जाती थीं। इसलिए बदलाहट का कभी पता नहीं चलता था।
एक वैज्ञानिक के संबंध में मैंने सुना है कि वह बदलाहट के संबंध में कुछ प्रयोग कर रहा था। उसने एक मेढक को एक उबलते हुए गरम पानी में डाल दिया। वह मेढक छलांग लगा कर बाहर हो गया। उबलता हुआ पानी था, जान का खतरा था। फिर उसने उसी मेढक को साधारण ठंडे पानी में रखा, और बहुत धीरे-धीरे पानी को गरम करना शुरू किया। थोड़ा पानी गरम हुआ, उतनी गर्मी मेढक को छलांग लगाने के लिए काफी नहीं थी। वह उतनी गर्मी के लिए राजी हो गया, एडजेस्ट हो गया। फिर और थोड़ा गर्म किया, फिर और थोड़ा गर्म किया। चैबीस घंटे के लंबे फासले में पानी उबलने के बिंदु पर आ गया। मेढक अब भी भीतर था। उसने छलांग नहीं लगाई, वह उबला और मर गया। क्या हुआ? यह मेढक चैबीस घंटे में राजी हो गया।
यह मेढक एकदम से गरम पानी में डाला गया तो छलांग लगा कर बाहर निकल गया। अगर अठारह सौ साल में या दो हजार साल में या चार हजार साल में एक बात बदलती हो तो समाज बदलता नहीं था, बल्कि उस बदलाहट को आत्मसात कर लेता था, राजी हो जाता था, ठहरा रहता था।
अब बदलाहट इतनी तीव्र है कि हम बदल भी नहीं पाते कि बदलाहट हो जाती है। अब बदलाहट करीब-करीब कपड़ों के फैशन की तरह है। अब जिंदगी में ज्ञान जो है वह ऐसा हो गया है कि आप कपड़े बनवा नहीं पाते कि वे आउट ऑफ फैशन हो जाते हैं।
मैंने सुना है कि एक आदमी रास्ते से पेरिस की ओर भागा हुआ जा रहा था। और लोगों ने उससे पूछा कि इतनी तेजी क्या है? उसने कहाः मैं अपनी पत्नी के कपड़े लेकर जा रहा हूं। उन्होंने कहाः फिर भी इतनी जल्दी क्या है? उसने कहा, इसके पहले कि फैशन न बदल जाए मुझे घर पहुंच जाना जरूरी है।
कभी हमने नहीं सोचा था कि फैशन की तरह ज्ञान बदल जाएगा। अब ज्ञान फैशन से भी तेजी से बदल रहा है। इसलिए आज विज्ञान की कोई बड़ी किताब लिखनी मुश्किल हो गई है। छोटी किताबें लिखी जा रही हैं। किताबें ही मुश्किल हो गई हैं।
असल में, पत्रिकाओं में विज्ञान की खोजों की खबर दी जा रही है। क्योंकि जब तक मोटी किताब लिखी जाए तो मोटी किताब को लिखने में भी कम से कम वर्ष भर लगेगा। वर्ष भर में जो हमने लिखा है वह पिछड़ जाएगा।
ज्ञान का जो एक्सप्लोजन है, यह जो ज्ञान का विस्फोट है, इसने सभी थिर समाजों के प्राण कंपा दिए हैं। बदलने की हिम्मत नहीं, बदलने की आदत नहीं, बदलने का अनुभव नहीं, और बदलाहट इतने जोर से टूटी है कि या तो, या तो हम अंधे हो जाएं और दुनिया से अपने को तोड़ लें और अपने कुएं में बंद हो जाएं या फिर हमें जोर से बदलना पड़ेगा।
टूटने का भी कोई उपाय नहीं है, अपने कुएं में बंद होने का भी कोई रास्ता नहीं है। दीवालें खड़ी करके भी हम दुनिया के ज्ञान को रोक नहीं सकते। वह ज्ञान आएगा ही। और अगर हम रोकेंगे तो हम मरेंगे। बिना ज्ञान के भी मर जाएंगे। वह अज्ञान भी हमारी मौत बन जाएगा।
यह जो ज्ञान का विस्फोट है इसने एक और कठिनाई पैदा की है, वह कठिनाई भी ख्याल में ले लेनी जरूरी है, तो ‘भारत किस ओर’ उसे समझने में आसानी हो जाएगी।
वह यह कठिनाई हुई है कि पुरानी दुनिया में बूढ़ा आदमी सदा ही ज्यादा जानता था। शिक्षक विद्यार्थी से हमेशा अनिवार्य रूप से ज्यादा जानता था। बाप बेटे से हमेशा ज्यादा जानता था। मां बेटी से हमेशा ज्यादा जानती थी। स्वभावतः, क्योंकि इतनी कम बदलाहट होती थी कि जिस आदमी के पास ज्यादा अनुभव था वही ज्यादा ज्ञानी था। अब बदलाहट इतनी तेजी से होती है कि जिस आदमी के पास जितना पुराना ज्ञान है वह उतना ही अज्ञानी हो जाता। आज शिक्षक और विद्यार्थी के बीच बहुत फासला नहीं है। अक्सर तो एक घंटे का फासला होता है। घंटे भर पहले वह तैयार करके आया होता है। बस उतना ही फासला होता है। और जब शिक्षक घंटे भर स्कूल या कालेज में पढ़ा चुका होता है तो विद्यार्थी और शिक्षक बराबर ज्ञान की स्थिति में आ गए होते हैं। और अगर कोई बहुत प्रतिभाशाली विद्यार्थी हो तो शिक्षक से ज्यादा जान सकता है। उसकी कोई कठिनाई नहीं रह गई। बेटा बाप से ज्यादा जानता है, क्योंकि बाप तीस साल पहले युनिवर्सिटी से निकला होता है। बेटा तीस साल बाद युनिवर्सिटी से आता है। तीस साल में ज्ञान नये आकाश छू लेता है। नई उपलब्धियां हो जाती हैं।
हमेशा पहली दुनिया में बेटे ने बाप से पूछा था। लेकिन बहुत ज्यादा दिन वह दूर नहीं है जब हमेशा बाप को बेटे से पूछना पड़ेगा कि नया ख्याल क्या है? नई स्थिति क्या है? नई समझ क्या है? नया सोच क्या है? नया विचार क्या है? नई उपलब्धि क्या है? और बहुत हैरानी न होगी कि हमें बूढ़े आदमियों को वापस रिफ्रेशर कोर्सेज के लिए युनिवर्सिटीज में भेजना पड़े। अभी इस संबंध में सुझाव चलता है। पश्चिम के बहुत बुद्धिमान लोग यह सुझाव दे रहे हैं कि अगर पिता को अपना पिता की हैसियत बनाए रखनी है तो उसे बेटे के ज्ञान से निरंतर परिचित होना जरूरी हो गया है। बेटा जो जान रहा है उसे जान लेना जरूरी हो गया है।
यह जो बेटे के पास, नई उम्र के आदमी के पास ज्यादा ज्ञान हो गया है इससे बड़ा उपद्रव पैदा हुआ है। स्वभावतः बाप जब सब कुछ जानता था और बेटा कुछ भी नहीं जानता था तो बाप के प्रति एक आदर था, जो डगमगा गया है, वह आदर अब आगे नहीं रह सकता। क्योंकि वह आदर ज्ञान पर खड़ा था। बाप ज्यादा जानता था बेटा कम जानता था। इसलिए बाप आदृत था। अब वह बात खत्म हो गई है। गुरु और शिष्य के बीच हजारों साल का फासला था। गुरु जानता था हजारों साल के अनुभव को और शिष्य को कुछ भी पता नहीं था। तो शिष्य गुरु के चरणों में सिर रखता था। अब यह सिर रखना बहुत मुश्किल हो गया। क्योंकि अब फासला, डिस्टेंस बहुत कम है, न के बराबर है। नहीं रह गया है।
यह जो स्थिति है इस स्थिति ने पहली दफा यह सवाल ठीक से उठा दिया है..भारत किस ओर? अब भारत कहां जाएगा? क्या भारत को अब भी भारत का बूढ़ा आदमी दिशा देगा? अगर देगा, तो भारत कहीं भी नहीं जाएगा। वह जहां था वहीं रहेगा। बूढ़े आदमी की हिम्मत बदलाहट की कम हो जाती है। बुढ़ापे का मतलब ही यही है बायोलॉजिकली भी, जो जीवशास्त्र आपमें से पढ़ते होंगे वे भी कहेंगे कि बुढ़ापे का मतलब ही यह है कि बदलाहट की क्षमता कम हो गई, बूढ़े की नसें सख्त हो जाती हैं अब बदल नहीं सकतीं।
बच्चा बदल सकता है, लोचपूर्ण है, फ्लेक्जिबल है। अगर बूढ़े भारत को दिशा देंगे तो वे दिशा नहीं देंगे। भारत जैसा सरोवर था तालाब वह उसे वैसा ही बनाए रखना चाहेंगे। लेकिन अगर बच्चे भारत को दिशा देंगे तो भी कम खतरा नहीं है। क्योंकि बूढ़े दिशा देंगे तो तालाब सड़ जाएगा, बंद रह जाएगा, हम दुनिया के साथ गति न कर सकेंगे। और अगर बच्चों ने दिशा दी तो सिर्फ अनार्की पैदा होगी अराजकता पैदा होगी, हजार दिशाएं हो जाएंगी। नदी नहीं बनेगी हजार छोटी-छोटी धाराएं टूट जाएंगी, समाज बिखर जाएगा, व्यवस्था खंडित हो जाएगी, और एक अराजकता, एक अनार्की पैदा हो जाएगी।
अगर हम बूढ़े से दिशा मांगें, तो डेडनेस परिणाम में आएगी, मृत्यु, एक मुर्दा समाज। और अगर हम बच्चों से दिशा मांगें, तो एक अनार्की पैदा होगी, एक अराजक समाज। ये दोनों ही विकल्प चुनने जैसे नहीं हैं। अगर बूढ़े दिशा देंगे तो भारत के अतीत को ही वे भारत पर फिर से थोपना चाहेंगे। वे फिर रामराज्य ही लाना चाहेंगे। हालांकि कोई चीज कभी लौटाई नहीं जा सकती, जो गई वह गई। इतिहास पुनरुक्त नहीं होता है। इस जगत में कुछ भी लौटता नहीं, जो गया वह गया। पुनरुक्ति नहीं होती। रामराज्य लौटाया नहीं जा सकता है। लेकिन अगर बूढ़े भारत के भविष्य की भी कल्पना करेंगे तो राम-राज्य की भाषा में करेंगे। अतीत ही उनके लिए नक्शा होगा। वे उसी नक्शे को भारत पर थोपना चाहेंगे।
यह संभव नहीं है। इस चेष्टा में भारत के विकास की संभावनाएं क्षीण होंगी। अगर भारत के बच्चे भारत को दिशा देना चाहेंगे, तो स्वभावतः वे भारत के ऊपर पश्चिम को थोपना चाहेंगे। क्योंकि आज भारत के बच्चे के पास जो भी ज्ञान उपलब्ध हो रहा है वह पश्चिम से उपलब्ध हो रहा है। और ध्यान रहे, जिस तरह अतीत को नहीं ओढ़ा जा सकता उसी तरह किसी दूसरी संस्कृति और दूसरे समाज में पनपे हुए ख्यालों को भी हम कभी आत्मसात नहीं कर सकते हैं। वे कभी हमारी आत्मा नहीं बन सकते हैं। हम कपड़े तो बदल सकते हैं दूसरों से, आत्माएं नहीं बदल सकते हैं। आत्माओं की जड़ें होती हैं, रूट्स होती हैं, लंबी उसकी कथा और यात्रा होती है।
अगर भारत के बूढ़ों ने भारत को दिशा दी तो भारत अपने अतीत को ओढ़ने की कोशिश करेगा। जो असंभव है। और अगर भारत के बच्चों ने भारत को दिशा दी तो भारत पश्चिम को ओढ़ने की कोशिश करेगा। जो कि उतना ही असंभव है। न तो हम पूरब के अतीत को ओढ़ सकते हैं और न पश्चिम के वर्तमान को ओढ़ सकते हैं। फिर भारत के लिए उपाय क्या है?
साधारणतः ये दो ही विकल्प दिखाई पड़ते हैं। या तो हंड्रेड परसेंट भारतीय रहो, सौ प्रतिशत भारतीय, कोई होता नहीं दुनिया में, होगा तो मरा हुआ आदमी होगा। सौ प्रतिशत भारतीय बनाना चाहेगा भारत का बूढ़ा मन और या फिर सौ प्रतिशत पाश्चात्य, वेस्टर्न बनाना चाहेगा भारत का नया मन। ये दोनों ही विकल्प मेरे लिए सार्थक नहीं मालूम होते। और ये दो ही विकल्प दिखाई पड़ रहे हैं। और आज जो संघर्ष है भारत में वह इन दो विकल्पों, दो ऑल्टरनेटिव्स के बीच है। बूढ़े खींच रहे हैं पीछे की तरफ, जवान खींच रहे हैं पश्चिम की तरफ। लेकिन आगे की तरफ इनमें से कोई भी ले जाने वाला नहीं है। न तो पश्चिम की तरफ जाने से हम आगे जाएंगे और न पूरब के पीछे की तरफ जाने से हम आगे जाएंगे। आगे जाना बहुत और बात है। और उस और बात के लिए दो-तीन सूत्र आपसे कहना चाहूंगा।
पहली बात तो यह कहना चाहूंगाः बच्चों के पास ज्ञान कितना ही ज्यादा हो जाए; अनुभव ज्यादा नहीं हो पाता है। नालेज कितनी भी बच्चों के पास ज्यादा हो जाए; वि.जडम कभी भी ज्यादा नहीं हो पाती है। सूचनाएं कितनी ही ज्यादा मिल जाए, लेकिन जीवन के अनुभूति की गंभीरता उनके पास नहीं होती है। अगर हम आज बुद्ध को फिर से पैदा कर पाएं तो शायद मैट्रिक क्लास पास होना उन्हें बहुत मुश्किल पड़ेगा, लेकिन फिर भी, आज जमीन पर आदमी खोजना मुश्किल होगा जो उतना ज्ञानी हो। सूचनाओं में हमारे बच्चे भी उनसे परीक्षा में आगे निकल जाएंगे, लेकिन अनुभव, वि.जडम, प्रज्ञा में हमारे बूढ़े भी उनके पीछे रह जाएंगे।
ज्ञान के संबंध में विस्फोट हो गया है। और बच्चों के पास ज्यादा ज्ञान बढ़ता जा रहा है लेकिन अनुभव आज भी उम्र के साथ है, अनुभव आज भी वृद्ध के पास है। जीवन के अनंत-अनंत अनुभव हैं, जो सिर्फ स्कूल से नहीं मिलते; जीवन में जीने से ही मिलते हैं। जो ज्ञान युनिवर्सिटी में मिल जाता है उस मामले में बूढ़ा पीछे पड़ गया है, पड़ता ही रहेगा अब आगे। लेकिन जो ज्ञान जीवन से मिलता है उस ज्ञान के संबंध में बूढ़े के पास अब भी अनुभूति है। वह अनुभूति उपयोग में लाई जानी जरूरी है। कहीं ऐसा न हो कि बूढ़े की इनफार्मेशन की कमी, हमारे मन में उसके अनुभव की कमी बन जाए। अगर ऐसा हुआ तो खतरा होगा।
इससे उलटा भी न हो कि सिर्फ ज्ञान की बढ़ती हुई मात्रा कहीं हमें अनुभव की प्रतीति न कराने लगे। बच्चों के पास बढ़ता हुआ ज्ञान है लेकिन यह ज्ञान ठीक वैसा ही है जैसा कंप्यूटर के पास होता है। ये बच्चों के दिमाग में डाली गई सूचनाएं हैं जिन्हें उन्होंने परीक्षाएं देकर तय कर दिया है कि उन्हें मालूम है। लेकिन इससे ज्ञान नहीं बढ़ता, केवल स्मृति ही बढ़ती है, केवल याददाश्त ही बढ़ती है। ज्ञान नहीं बढ़ता। ज्ञान जीवन के, निरंतर के अनुभव से धीरे-धीरे आता; उसकी कोई परीक्षा नहीं होती, उसकी कोई क्लास नहीं होती और उसके लिए कोई सर्टिफिकेट नहीं होता।
और जिन चीजों के लिए सर्टिफिकेट होते हैं, परीक्षाएं होती हैं, वे केवल इनफार्मेशन के संबंध में सही हैं, जीवन के संबंध में सही नहीं हैं। और ऐसा हो सकता है कि एक आदमी प्रेम के संबंध में सारी बातें जान ले और फिर भी प्रेम उसने न जाना हो। और ऐसा भी हो सकता है कि जिस आदमी ने प्रेम जाना हो उसे प्रेम के संबंध में कही गई बातों का कुछ भी पता न हो। ऐसा हो सकता है कि एक आदमी तैरने के संबंध में लिखे गए सारे शास्त्र पढ़ ले, परीक्षाएं पास कर ले, और यह भी हो सकता है कि वह तैरने के संबंध में एक पीएचड़ी. की थीसिस भी लिखे और डाक्टर हो जाए, लेकिन इस आदमी को नदी में भूल से भी धक्का मत दे देना, क्योंकि वह आदमी तैर नहीं पाएगा। उसे तैरने के संबंध में पता है, तैरने का पता नहीं है।
एण्ड यू नो समथिंग, एण्ड यू नो अबाउट समथिंग। इनमें जमीन-आसमान का फर्क है।
कोई चीज जाननी और किसी चीज के संबंध में जानना, बहुत बुनियादी फर्क की बातें हैं। जब हम जीवन को जानते हैं तो ज्ञान पैदा होता है और जब हम जीवन के संबंध में जानते हैं तो सिर्फ सूचना, इनफार्मेशन पैदा होती है। नई पीढ़ियों के पास सूचनाएं ज्यादा हैं, अनुभव बिल्कुल नहीं हैं। वृद्धों के पास, पुरानी पीढ़ी के पास, ओल्डर जनरेशन के पास अनुभव है, सूचनाओं में वे बिल्कुल पिछड़ गए हैं। बूढ़े आदमी के अनुभव के उपयोग की जरूरत है, नये आदमी की सूचनाओं के उपयोग की जरूरत है।
यह करीब-करीब स्थिति वैसी है जैसा कि एक पंचतंत्र की एक छोटी सी कहानी जरूर ही सुनी होगी कि एक जंगल में आग लग गई है और एक लंगड़ा और एक अंधा आदमी उस जंगल से बचने की कोशिश कर रहे हैं। स्वभावतः जब आग लगी हो तो आदमी अपने बचाने की कोशिश में लगता है। अंधा भाग रहा है। लेकिन अंधा अगर आग में भागेगा तो बचने की उम्मीद कम मरने की उम्मीद ज्यादा है। बेहतर है कि अंधा जहां है वहीं बैठा रहे तो शायद बच भी जाए। लेकिन लगी हुई आग के जंगल में अंधे के भागने की कोशिश बड़ी खतरनाक है। अंधा भाग कर बचेगा कैसे? क्योंकि जिसे दिखाई नहीं पड़ता वह लगे हुए आग से भरे हुए जंगल में बचने के उपाय में सिर्फ मर सकता है। लेकिन अंधा भी भाग रहा है। लंगड़े को दिखाई पड़ रहा है लेकिन भाग नहीं सकता।
कहानी है पंचतंत्र की। बड़े बुद्धिमान रहे होंगे वे अंधे और लंगड़े। उन दोनों ने साथ कर लिया और सहयोग किया। उन्होंने एक कोआपरेशन किया। और उन्होंने यह तय किया कि अंधा आदमी चले और लंगड़ा आदमी अंधे के कंधों पर बैठ जाए। लंगड़ा आदमी देखे और अंधा आदमी चले, और वे दोनों आदमी एक आदमी की तरह व्यवहार करें, दो आदमियों की तरह नहीं। वे एक-दूसरे के लिए कांप्लीमेंट्री हो जाएं, वे एक-दूसरे के लिए परिपूरक हो जाएं। वे अंधे और लंगड़े जंगल के बाहर आ गए थे। आश्चर्य नहीं कि बाहर आ गए। क्योंकि बाहर आने का जो सुगमतम उपाय हो सकता था उसका उन्होंने उपयोग किया था।
मेरी दृष्टि में भारत आज करीब-करीब पंचतंत्र की कहानी की स्थिति में है। एक तरफ लंगड़े बूढ़े हैं, जिनके पास आंखें हैं, दूर तक देखने का अनुभव है। दूसरी तरफ ताकत से भरे हुए जवान हैं, जिनके पास दूर तक दौड़ने के लिए मजबूत पैर हैं, लेकिन अनुभव की आंखें नहीं हैं। ये लंगड़े नक्सलाइट हुए जा रहे हैं। और ये बूढ़े मंदिरों में भजन-कीर्तन कर रहे हैं। इन दोनों के बीच कोई कोआपरेशन नहीं है। इन दोनों के बीच कांफ्लिक्ट है, इन दोनों के बीच विरोध है, इन दोनों के बीच संघर्ष है। इन दोनों के बीच ऐसा संबंध है जैसा दुश्मनों के बीच होता है। मित्रों के बीच नहीं।
भारत किस ओर? यह निर्णय रास्ते का कम और चलने वालों के बीच सहयोग का ज्यादा है। और अगर जवान और बूढ़े नई और पुरानी पीढ़ी के बीच एक सहयोग हो सके, तो बहुत कठिन नहीं है कि हम तय कर लें कि किस ओर? लेकिन तय करना बेकार है। क्योंकि जो तय कर सकते हैं, जो देख सकते हैं उनके पास पैर नहीं और जो चल सकते हैं वे आंख वालों की बात सुनने को राजी नहीं।
भारत अगर मरेगा तो चीन के हमले से शायद बच भी जाए, पाकिस्तान से उसे कोई बड़ा खतरा नहीं; तीसरा महायुद्ध अगर दुनिया में हो तो शायद भारत में तो शायद ही हो। उसकी कोई संभावना नहीं। लेकिन भारत अगर मरेगा तो वह जो जनरेशन गैप है, वह जो भारत की दो पीढ़ियों के बीच बढ़ता हुआ फासला है, टूटते हुए ब्रिज, टूटते हुए सेतु हैं, बूढ़े और जवान के बीच कहीं कोई बोलचाल नहीं रह गया, कोई कम्युनिकेशन नहीं है।
मैं बहुत, सैकड़ों घरों में ठहरता हूं। लेकिन मुझे ऐसा दिखाई नहीं पड़ता कि बाप और बेटे के बीच कोई बोलचाल की स्थिति है। ऐसा नहीं कि वे नहीं बोलते, जरूर बोलते हैं। लेकिन बोलने में और बोलचाल में बहुत फर्क है। बाप जरूर बोलता है बेटे से, जब उसे कोई उपदेश देना होता है। और ध्यान रहे, दिए गए उपदेश कभी भी नहीं लिए जाते हैं। और यह भी ध्यान रहे कि दिए गए उपदेश मन में बड़ा क्रोध पैदा करते हैं। इसलिए बाप उपदेश देता रहता है, बेटा कान बंद करके सुनता रहता है। बेटे भी बाप से कभी मिलते हैं, जब उनकी जेब खाली होती है और बाप के जेब पर हाथ रखना होता है। लेकिन जिसकी भी जेब पर आप हाथ रखते हैं उससे बातचीत नहीं हो पाती। उससे बहुत मुश्किल हो जाता। ऐसे बाप-बेटे घर में बच कर निकलते हैं। पहले हम सोचते थे, घर वह जगह है जहां सारे लोग साथ रहते हैं। अब मैं हजारों घरों को देख कर आपसे कहना चाहता हूंः घर वह जगह है जहां सारे लोग एक-दूसरे से बच कर रहते हैं। बाप डरा रहता है बेटा सामने न पड़ जाए, कोई उपद्रव न हो जाए। बेटा डरा रहता है कि बाप सामने न पड़ जाए कोई उपद्रव न हो जाए। बेटी मां से बच रही है, बहू सास से बच रही है, भाई भाई से बच रहा है, वे सब बच रहे हैं। घर वह जो जगह है जहां हम एक-दूसरे से बच कर रहते हैं।
घर वह कन्वीनियंस है जहां हम साथ भी होते हैं और साथ होते भी नहीं। घर एक सुविधापूर्ण व्यवस्था है जिसमें साथ रहने का धोखा पैदा होता है और कोई साथ नहीं होता। यह जो भारत की दो पीढ़ियों के बीच बढ़ता हुआ अंतराल है, इसके नाम हजार होंगे..यह कभी हड़ताल बनता है, कभी पथराव बनता है, कभी घेराव बनता है। इसके नाम हजार होंगे लेकिन इसकी पहचान एक है। और वह पहचान यह है कि भारत के अतीत, भारत के बूढ़े, और भारत के भविष्य, भारत के जवान एक-दूसरे की तरफ पीठ करके खड़े हुए हैं। वे एक-दूसरे से दूर हटते जा रहे हैं।
और देश की सारी की सारी शक्ति उनके इस विरोध में नष्ट और क्षीण हो रही है। यदि हम इन दो पीढ़ियों के बीच संवाद ला सकें, लाया जा सकता है। और मैं मानता हूं प्रत्येक शिक्षण संस्था को दो पीढ़ियों के बीच संवाद लाने की कोशिश करनी चाहिए। जहां बाप-बेटे, मां और बेटियां आमने-सामने बैठ कर खुले दिल से हार्ट टु हार्ट, हृदय की बात कर सकें, और सीधी और साफ बात कर सकें। एक-दूसरे को अपनी बात सीधी और साफ कह सकें, बिना किसी भय के। जो सच है उसे हम एक-दूसरे से बात कर सकें। तो शायद अंधे और लंगड़े के बीच संबंध जोड़ा जा सकता है। अभी भी देर नहीं हो गई। और अगर वह संबंध जुड़ जाए तो भारत की दिशा बहुत स्पष्ट है।
भारत की दिशा स्पष्ट है इस अर्थों में कि हम अपने अतीत को तो कभी बदल नहीं सकते। और अतीत हमारे खून का हिस्सा हो गया होता है, हमारी हड्डी, हमारी मांस-मज्जा बन जाता हैं। अतीत वह नहीं है जो इतिहास की किताबों में लिखा है, अतीत वह है जो हमारे खून में बहता है। इतिहास की किताबें जल जाएं तो भी अतीत मिट नहीं जाएगा, हम अपने अतीत हैं। वी ऑर अवर ओन पास्ट। हम सारे अतीत को अपने में समाए हुए खड़े हैं। इसलिए कोई भी अतीत से बिल्कुल टूटने की कोशिश करे तो सुसाइडल है, मरेगा, बच नहीं सकता। क्योंकि हड्डी मेरी अतीत की है, मांस मेरा अतीत का है, खून मेरा अतीत का है। मैं खुद मेरे पूरे अतीत से पैदा हुआ हूं। वह जो लंबा पास्ट है, जिसमें करोड़ों लोगों का हाथ है..वृक्षों का, पशुओं का, पक्षियों का, आकाश का, उस सबका मैं अंतिम छोर हूं। उस बड़ीशृंखला की आखिरी कड़ी हूं।
हम सब अपने अतीत हैं। काश, हम नई पीढ़ी को यह समझा पाएं कि अतीत हमारे जीवन का आधार है। और काश हम पुरानी पीढ़ी को यह समझा पाएं कि हम सिर्फ अतीत नहीं हैं, हम अपने भविष्य भी हैं। अतीत वह है जो हम हो गए, भविष्य वह है जो हम होंगे, जो हम हो सकते हैं। अतीत हमारा आधार है, भविष्य हमारा शिखर है। अतीत हमारी बुनियाद है, भविष्य हमारे मंदिर का स्वर्ण-शिखर है, जो कल हम चढ़ाएं। अतीत हम हो गए हैं, भविष्य हमें होना है। और कोई शिखर मंदिर का बुनियाद के बिना नहीं होता। और कोई फूल जड़ के बिना नहीं खिलता। जड़ अतीत है, फूल भविष्य है।
काश हम भारत की नई पीढ़ी को समझा पाएं कि अतीत तुम्हारा खून, तुम्हारी हड्डी है, उससे तुम टूट नहीं सकते। तुम बुद्ध की प्रतिमा तोड़ो, तुम विद्यासागर की प्रतिमा गिराओ, तुम मंदिर जला दो, तुम मस्जिदों में आग लगा दो, तुम गुरुद्वारों की तरफ पीठ कर लो, तुम गीता, कुरान बाइबिल भूल जाओ, सब हो जाए लेकिन फिर भी अतीत से तुम टूट नहीं सकते, क्योंकि तुम्हारा होना ही, तुम्हारे होने में ही, दि वेरी बीइंग, उसमें ही तुम्हारा अतीत समाविष्ट है। उसमें बुद्ध मौजूद हैं, उसमें महावीर, रामकृष्ण, नानक, सब उसमें मौजूद हैं। सब किताबें मिट जाएं, सब अतीत खो जाए, तो भी हमारे खून के हिस्से हैं।
अतीत से हम मुक्त नहीं हो सकते हैं, वह है। मैं अब कुछ भी उपाय करूं अपने पिता से कैसे मुक्त हो सकता हूं। पिता का दुश्मन हो जाऊं, मैं उनकी हत्या कर दूं, तो भी मैं पिता से मुक्त नहीं हो सकता हूं। माना कि मां का मैं हिस्सा हूं, लेकिन मां तक ही सीमित नहीं रह सकता, अन्यथा मेरा कोई जीवन नहीं होगा। अतीत हमारा है लेकिन हम अतीत को भी ट्रांसेंड करते हैं, पार जाते हैं। वही हमारा भविष्य है। काश हम बूढ़ी पीढ़ी को समझा सकें कि भविष्य की तरफ फैलती हुई शाखाओं को अतीत में बांधो मत। मुक्त करो। अतीत की जड़ें फूलों के लिए रस दें, फूलों को बांधने वाली कड़ियां और जंजीरें न बन जाएं, तो भारत की दिशा बहुत साफ है। भारत को अपने पूरे अतीत को पचा कर अपने पूरे भविष्य को खोजना है। यह भविष्य अतीत जैसा नहीं होगा। नहीं हो सकता। यह भविष्य पश्चिम जैसा भी नहीं हो सकता। क्योंकि पश्चिम जैसा हमारा अतीत नहीं है। इसलिए ये फूल पश्चिम में जो खिले हैं, हमारी जिंदगी में ठीक वैसे नहीं खिल सकते जैसे वहां खिले हैं। और अगर हमने खिलाने की कोशिश की तो जिन फूलों की जड़ें हमारे पास नहीं हैं, क्योंकि अगर पश्चिम के पास अरस्तू की बुद्धि है, सुकरात का तर्क है, कांट और हीगल और फ्यूरवाक और माक्र्स और रसल की समझ है, तो हमारे पास बहुत दूसरे तरह के लोगों की हमारे खून में धाराएं हैं। बुद्ध सुकरात जैसे आदमी नहीं हैं। महावीर कांट जैसा व्यक्तित्व नहीं हैं। राम, कृष्ण, नानक, कबीर, मीरा, ये हीगल और कांट और माक्र्स जैसे लोग नहीं हैं। हमारे पास और ही तरह की जड़ें हैं।
तो अगर हमने पश्चिम का फूल ठीक पश्चिम की नकल में खिलाना चाहा तो वह प्लास्टिक का फूल होगा, असली फूल नहीं हो सकता। वह बाजार से खरीदा गया कागज का फूल होगा। इसलिए जब कोई भारतीय आदमी ठीक पश्चिमी हो जाता है तो एकदम कागजी हो जाता है। उसकी जिंदगी में सिर्फ कागज होते हैं। वे सब ऊपर-ऊपर होते हैं।
मेरे एक मित्र जर्मनी में थे बीस वर्षों से। वे हिंदी भाषा बोलना भूल गए। जर्मन ही उनकी मातृभाषा हो गई। वे यहां आते थे तो हिंदी समझ भी नहीं पाते थे। बहुत छोटे थे तब जर्मनी गए, मुश्किल से नौ साल के थे। स्वभावतः जर्मन भाषा उनके प्राणों में भर गई। फिर पिछले वर्ष एक बड़ी अजीब घटना घटी कि वे बीमार हो गए। और बीमारी इतनी घातक हुई कि वे कोमा में, बेहोशी में चले गए। तो उनके भाइयों को यहां से जर्मनी जाना पड़ा। अस्पताल में उनके भाइयों को रुकने के लिए आज्ञा न थी। दिन भर साथ रहते रात छोड़ देते। लेकिन डाक्टरों ने कहा कि रात बड़ी अजीब हालत होती है, कभी-कभी आपका भाई होश में आ जाता है तो न मालूम किस भाषा में बोलने लगता है, जिसे हम समझ नहीं पाते। तो आप रुकें। बड़ी हैरानी की बात, रात जब वह बेहोशी उनकी टूटती तो वे हिंदी में बोलने लगते। वह जो बीस साल में भी सीखा है ऊपर से, वह भी प्राणों के बहुत गहरे में नहीं जा पाता। जब वे बेहोशी में बड़बड़ाते तो हिंदी में और जब होश में बोलते तो जर्मन में। वह जो प्राणों के गहरे में जड़ें हैं वे वहां होती हैं।
मेरे एक मित्र मुझे लिखते थे कि दूसरे मुल्क में जाकर एक बड़ी कठिनाई होती है, वह कठिनाई साधारणतः अनुभव नहीं आती, अगर किसी के प्रेम में पड़ जाओ तो दूसरे की भाषा में बोलना बहुत कठिन हो जाता है या किसी से झगड़ा हो जाए तो भी दूसरे की भाषा में बोलना बहुत कठिन हो जाता है। दुकान चलानी हो, काम चलाना हो, चल जाता है, लेकिन प्रेम और झगड़े में, लगता है अपनी ही भाषा में बोला जाए।
एक छोटी सी कहानी मुझे याद आती है। सुना है मैंने कि राजाभोज के दरबार में एक पंडित आया। और वह पंडित तीस भाषाएं बोलता था। और इस भांति बोलता था कि लगता था प्रत्येक भाषा उसकी मातृभाषा है। बड़ी कठिन उपलब्धि है। उसने चैलेंज, उसने चुनौती की राजाभोज के दरबारियों को कि तुममें से अगर कोई मेरी मातृभाषा पहचान ले तो मैं लाख स्वर्ण-मुद्राएं भेंट करूंगा। और अगर नहीं पहचान पाया प्रतियोगी तो उसे दो लाख स्वर्ण मुद्राएं मुझे देनी पड़ेंगी।
राजाभोज के लिए बड़े अपमान की बात थी। भाषा बोलना तो दूर, उसकी भाषा पहचानने के लिए उसने यह चुनौती दी थी। भोज के दरबार के पंडित रोज हारने लगे, वह रोज भाषाएं बोलता और जो भी भाषा मातृभाषा बताई जाती वह कहता कि नहीं। कालिदास चुप थे। भोज ने कहा कि तुम प्रतियोगिता में उतरो, अन्यथा हार निश्चित है। कालिदास ने कहाः मैं तैयारी कर रहा हूं। आखिरी पंडित भी हार गया।
कल कालिदास का ही नंबर है। राजा भोज ने कहाः तैयारी हो गई या हम हारेंगे। कालिदास ने कहाः मैं तैयारी कर रहा हूं। फिर वह पंडित बाहर निकला। सीढ़ियों पर खड़े हुए वे बात करते थे। कालिदास ने उस पंडित को जोर से धक्का दे दिया। महल की सीढ़ियां थीं, वह दस-बारह सीढ़ियां नीचे जाकर गिरा। और गुस्से में जो पहले शब्द बोला, कालिदास ने कहा, माफ करना, यही तुम्हारी मातृभाषा है, इसके अलावा जानने का कोई उपाय न था। और धक्का देना अशिष्ट है। लेकिन हम सब उपाय करके देख चुके। तुम होश में तो जो भी बोल रहे हो, उससे तुम्हारे गहराई का पता नहीं चल सकता। लेकिन बेहोशी में, और क्रोध का क्षण बेहोशी का क्षण है, वह टेम्प्रेरी मैडनेस का क्षण है, जब कि स्थायी रूप से आदमी बेहोश हो जाता है। उस आदमी के मुंह से वह बात निकल गई जो उसकी मातृभाषा थी। मातृभाषा ही नहीं, मात्र संस्कृति भी, मातृभूमि भी। वह सब जो हमारी जड़ों में है हमारे गहरे में बैठा होता है।
इसलिए पश्चिम को अगर हमने थोपा तो हम ऊपर से कागजी या प्लास्टिक के फूल लगाए हुए दिखाई पड़ेंगे, उनसे हमारे प्राण मजबूत नहीं होंगे। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि पश्चिम से सीखना नहीं है। पश्चिम से बहुत कुछ सीखना है। लेकिन पश्चिम में भी जो हुआ है उसको हमारी ही भूमि में खिलाना होगा। हमारे अतीत में ही पश्चिम के बीजों को खिलाना होगा। और तब एक नया भविष्य भारत के लिए पैदा होगा। जिसमें न तो भारत सौ प्रतिशत भारतीय हो सकता है और न भारत सौ प्रतिशत पश्चिमी हो सकता है। भारत बिल्कुल एक नया ही सिंथेटिक, एक नई ही समन्वित संस्कृति होगा। जिसमें भारत का अतीत आधार बनेगा, पश्चिम की सारी खोजें निमित्त और सहयोग बनेंगी। और जो प्रकट होगा वह बिल्कुल नया होगा। वह क्रास-ब्रीडिंग होगी।
पुराने लोग समझते थे कि क्रास-ब्रीड जो है बड़ी बुरी बात है। पुराने लोग समझते थे संकर होना बड़ी बुरी बात है। लेकिन आधुनिक विज्ञान कहेगा कि क्रास-ब्रीड की बड़ी सामथ्र्य है।
अगर एक अंग्रेज सांड और हिंदुस्तानी गाय से बच्चा पैदा होता है तो उसके पास हिंदुस्तानी गाय की तो सारी क्षमताएं होती ही हैं, उसके पास अंग्रेज सांड की भी सारी शक्ति होती है। और वह जो बच्चा है वह हिंदुस्तानी गाय और अंग्रेज सांड दोनों से बेहतर होता है।
भारत किधर? तो मैं देखता हूं कि भारत का भविष्य पश्चिम के आधुनिक विज्ञान और भारत के अतीत में पैदा हुए धर्म, इनकी क्रास-ब्रीड से पैदा होगा। भारत का भविष्य, संकर भविष्य होगा। लेकिन अगर करपात्री जी से या शंकराचार्य से पूछिएगा तो वे बहुत नाराज होंगे। वे कहेंगे कि संकर! क्रास-ब्रीड! ये तो हम भ्रष्ट हो जाएंगे। हमें तो शुद्ध होना चाहिए।
लेकिन इस जगत में जितना विकास है वह सब क्रास-ब्रीडिंग है। सारा विकास। इस जगत में जितना विकास है उसमें जो शुद्ध रहना चाहेगा वह मरेगा, वह हिटलर जैसा पागल है। और इस जमीन पर बहुत कम पागल हुए हैं जो हिटलर जैसे पागल हों। बल्कि हिंदुस्तान में बहुत पागल हैं। जिनके दिमाग में हिटलरी सपने और ख्याल हैं। जो समझते हैं शुद्ध हंड्रेड परसेंट भारतीय। हंडेड परसेंट भारतीय कुछ नहीं बच सकता। हां, सिर्फ मरघट हो सकता है हंड्रेड परसेंट भारतीय। एक मरघट हम बनाना चाहें तो मुल्क बन सकता है। और जो कहते हैं कि हंड्रेड परसेंट भारतीय नहीं, वे भी उतने ही गलत बात कहते हैं। क्योंकि अगर हम हंड्रेड परसेंट भारतीय नहीं होने का तय कर लें तो हम सिर्फ कागजी आदमी रह जाएंगे। कागज की नावें, जिनके पास कोई लंगर भी नहीं है। जिनके पास कोई तट भी नहीं है जहां टिक कर खड़ी हो जाएं। जो सिर्फ हवा के झोंकों में और पानी की लहरों में डोलती रहेंगी और नष्ट हो जाएंगी।
भारत के सामने बहुत बड़े विचार की जरूरत है। भारत का पूरा अतीत समन्वित होना चाहिए और पश्चिम का समस्त शोध-विज्ञान समन्वित होना चाहिए। हमारे हृदय की सारी खोज और उनके तर्क की सारी प्रतिभा। अतीत पूरा और वर्तमान समग्र, अगर दोनों हम संयुक्त कर पाएं, संयुक्त कर सकते हैं, कोई कठिनाई नहीं; समझ के अतिरिक्त और कोई कठिनाई नहीं; एक अंडरस्टैंडिंग के अतिरिक्त और कोई कठिनाई नहीं। तो भारत एक बहुत ही नये फूल को जगत में खिला सकता है। और न केवल अपने लिए बल्कि सारे जगत के लिए एक सिंथेटिक कल्चर, एक समन्वित संस्कृति का, एक संवेद संस्कृति का आदर्श बन सकता है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। विस्तार की बात मैंने नहीं कही, डिटेल्स मैंने नहीं कहे। मैंने बहुत सूत्र की बात कही कि ये दो विकल्प हैं और दोनों विकल्प गलत हैं। और एक तीसरा विकल्प, एक थर्ड ऑल्टरनेटिव चुना जाना चाहिए। जिसमें हम हम भी होंगे और हम सारे जगत को भी अपने में समा लेंगे। तब भारत के पास एक शक्तिशाली, ऊर्जावान जीवंत संस्कृति का जन्म हो सकता है। लेकिन अगर हमने इन दो पीढ़ियों के बीच की खाई पूरी नहीं की, तो भारत किस ओर? तो सिवाय मरघट के तीर और कहीं नहीं जाता हुआ दिखाई पड़ेगा। भारत मर सकता है अगर जिद की पुराना रहने की, अगर जिद की बिल्कुल नया हो जाने की तो भारत मर सकता है। अगर लंगड़े और अंधे ने सहयोग न किया, अगर पुरानी और नई पीढ़ी एक-दूसरे के कंधे पर न बैठी तो भारत मर सकता है। भारत को अगर जीवंत भविष्य देना है तो एक समन्वित संस्करण, एक समन्वित सिंथेटिक कल्चर की जरूरत है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। मेरी बातें माननी जरूरी नहीं हैं, मैं कोई उपदेशक नहीं हूं। मेरी बातें सुनी यह बड़ी कृपा। इन पर सोच लेंगे तो पर्याप्त। सोचना, मेरी बातें गलत हो सकती हैं, क्योंकि किसी आदमी को इस भ्रम में होने की जरूरत नहीं है कि उसकी सभी बातें सही हों। यह भी पुराने आदमी का पागलपन था। कोई सर्वज्ञ नहीं है। हो भी नहीं सकता है। होने का ख्याल सिर्फ विक्षिप्तता है। तो मैंने जो कहा जैसा मुझे दिखाई पड़ता है। लेकिन मुझे जो दिखाई पड़ता है हो सकता है आपको दिखाई न भी पड़े। सिर्फ मेरे साथ देखने की कोशिश करना, हो सकता है उसमें से कुछ आपको भी दिखाई पड़े। और जो आपको भी दिखाई पड़ जाए वह सत्य आपके जीवन को रूपांतरित करने का कारण बन जाता है।
और आप तो आने वाली पीढ़ी हैं अगर इसमें से कुछ भी सत्य आपको दिखाई पड़ सके और भारत के अतीत को जमीन बना कर, जगत के वर्तमान को बीज बना कर अगर हम इस देश के भविष्य के फूल खिला सकें, तो यह देश बहुत दिन से दीन-दरिद्र, दुखी और पीड़ित है। इस देश में भी स्वर्ग का आगमन हो सकता है।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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