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शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

अष्‍टावक्र महागीता--(प्रवचन--21)

ज्ञान मुक्‍ति है—प्रवचन—छटवां

दिनांक: 1 अक्‍टूबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्र:

अष्‍टावक्र उवाच।

न ते संगोउस्ति केनायि किं शद्धस्त्‍यक्तमिच्छसि।
संघातविलयं कुर्वन्नेमेव लयं व्रज।।66।।
उदेति भवतो विश्वं वारिधेरिव बुदबुद:।
इति ज्ञात्वैकमात्मानमेवमेव लय व्रज।। 67।।
प्रत्यक्षमथ्यवस्तुत्वद्विश्वं नास्तमले त्वयि।
रज्जुसर्प इव व्यकृमेवमेव लय व्रज।। 68।।
समदु:ख सुख: पूर्ण आशानैराश्ययो:  सम:।
समजीवित मृत्यु: सन्नैवमेव लयं व्रज।। 69।।

 जनक उवाच।

            आकाशवदनंतोऽहं धटवत् प्राकृतं जगत्।
इति ज्ञानं तथैतस्थ न त्यागो न ग्रहो लय:।।70 ।।
महौदधिरिवाहं स प्रपंचो वीचिसन्निभि:।
इति ज्ञानं तथैतस्थ न त्यागो न ग्रहो लय:।। 71।।
अहं स शुक्तिसंकाशो रूप्‍पवद्विश्वकल्यना।
इति ज्ञानं तथैतस्थ न त्यागो न ग्रहो लय:।। 72।।
अहं वा सर्वभूतेषु सर्वभतान्ययो मयि।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लय:।। 73।।

बुधवार, 29 जनवरी 2014

अष्‍टावक्र महागीता--(प्रवचन--20)

क्रांति: निजी और वैयक्‍तिक—प्रवचन—पांचवां  

      दिनांक: 30 सितंबर, 1976;
      श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

आप आज मौजूद हैं, तो भी मनुष्य नीचे और नीचे की ओर जा रहा है; जबकि बद्धों के आगमन पर मनुष्यता कोई शिखर छूने लगती है। हजारों आंखें आपकी ओर लगी हैं कि शायद आपके द्वारा फिर नवजागरण होगा और धर्म का जगत निर्मित होगा। कृपया बताएं कि यह विस्फोट कब और कैसे होगा? क्योंकि बदलना तो दूर, उलटे लोग आपका ही विरोध कर रहे हैं।


 हली बात, मनुष्यता सदा ऐसी की ऐसी ही रही है। कुछ विरले मनुष्य बदलते हैं, मनुष्यता जरा भी नहीं

 बदलती बाहर की स्थितियां बदलती हैं, व्यवस्थाएं बदलती हैं, भीतर मनुष्य वैसा का ही वैसा रहता है! तो पहले तो इस भ्रांति को छोड़ दो कि आज का मनुष्य पतित हो गया है।

सोमवार, 27 जनवरी 2014

जुहो! जुहो! जुहो! --(कथा यात्रा-019)

जुहो! जुहो! जुहो!-(एस धम्मो सनंतनो)

मैं एक छोटी सी कहानी कहूंगा।
हिमालय की घाटियों में एक चिड़िया निरंतर रट लगाती है—जुहो! जुहो! जुहो!
अगर तुम हिमालय गए हो तो तुमने इस चिड़िया को सुना होगा। इस दर्द भरी पुकार से हिमालय के सारे यात्री परिचित हैं। घने जंगलों में, पहाड़ी झरनों के पास, गहरी घाटियों में निरंतर सुनायी पड़ता है—जुहो! जुहो! जुहो! और एक रिसता दर्द पीछे छूट जाता है। इस पक्षी के संबंध में एक मार्मिक लोक—कथा है।

किसी जमाने में एक अत्यंत रूपवती पहाडी कन्या थी, जो वर्ड्सवर्थ की लूसी की भांति झरनों के संगीत, वृक्षों की मर्मर और घाटियों की प्रतिध्वनियों पर पली थी। लेकिन उसका पिता गरीब था और लाचारी में उसने अपनी कन्या को मैदानों में ब्याह दिया। वे मैदान, जहां सूरज आग की तरह तपता है। और झरनों और जंगलों का जहां नाम—निशान भी नहीं। प्रीतम के स्नेह की छाया में वर्षा और सर्दी के दिन तौ किसी तरह बीत गए, कट गए, पर फिर आए सूरज के तपते हुए दिन—वह युवती अकुला उठी पहाड़ों के लिए। उसने नैहर जाने की प्रार्थना की। आग बरसती थी—न सो सकती थी, न उठ सकती थी, न बैठ सकती थी। ऐसी आग उसने कभी जानी न थी। पहाड़ों के झरनों के पास पली थी, पहाड़ों की शीतलता में पली थी, हिमालय उसके रोएं—रोएं में बसा था। पर सास ने इनकार कर दिया।

अष्‍टावक्र महागीता--(प्रवचन--19)

संन्यास का अनुशासन : सहजता—प्रवचन—चौथा 

 दिनांक: 29 सितंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
सूत्र:

हंतात्मज्ञस्य धीरस्थ खेलतो भोगलीलया।
न हि संसारवाहीकैर्मूढ़ै सह समानता।।60।।
यत्यदं प्रेम्मवो दीना: शक्राद्या सर्वदेइवता:।
अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुयगच्छति।।61।।
तज्‍जस्‍य पुण्ययायाथ्यां स्पर्शो ह्रयन्तर्न जायते।
न हयकाशस्थ धूमेन झयमानोऽयि संगति:।।62।।
आत्यवेदं जगत्सर्वं ज्ञातं येन महात्मना।
यदृच्छया वर्तमान तं निषेद्युं क्षमेत क्र:।।63।।
आब्रह्मस्तम्बयर्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे।
विज्ञस्यैव हि सामर्थ्यमिच्छानिच्छाविवर्जने।। 64।।
आत्मानमद्वयं कश्चिज्जानति जगदीश्वरम।
यद्वेति तत्स कुस्ते न भयं तस्य कुत्रचित्।। 65।।

रविवार, 26 जनवरी 2014

अष्‍टावक्र महागीता--(प्रवचन--18)

विस्‍मय है द्वार प्रभु का—प्रवचन--तीसरा

      दिनांक: 28, सितंबर, 1976;
      श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न:

मनोवैज्ञानिक विक्टर ई. फ्रैंकल ने 'अहा—अनुभव' (Aha-Experience) एवं 'शिखर—अनुभव' (peakExperience) की चर्चा करके मनोविज्ञान को नया आयाम दिया है। क्या आप कृपा करके इसे अष्टावक्र एवं जनक के आश्चर्य—बोध के संदर्भ में हमें समझाएंगे?

 हली बात. जिसे फ्रैंकल ने 'अहा—अनुभव' कहा है, वह ' अहा 'तो है' अनुभव बिलकुल नहीं। अनुभव का तो अर्थ होता है 'अहा' मर गई। अहा का अर्थ ही होता है कि तुम उसका अनुभव नहीं बना पा रहे; कुछ ऐसा घटा है, जो तुम्हारे अतीत—ज्ञान से समझा नहीं जा सकता, इसीलिए तो अहा का भाव पैदा होता है, कुछ ऐसा घटा है जो तुम्हारी अतीत— श्रृंखला से जुड़ता नहीं, श्रृंखला टूट गई; अनहोना घटा है, अपरिचित घटा है, असंभव घटा है; जिसे न तुमने कभी सोचा था, न विचारा था, न सपना देखा था—ऐसा घटा है।

शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

अष्‍टावक्र माहागीता--(प्रवचन--17)

परीक्षा के गहन सोपान—प्रवचन—दूसरा

दिनांक: 27 सितंबर, 1976
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र्?

इहामुत्र विरक्तस्थ नित्यानित्यविवेकिन:।
आश्चर्य मोक्षकामस्य मोक्षादेव विभीषिका।। 53।।
धीरस्तु भोज्यमानोउयि यीड्यमानोऽपि सर्वदा।
आत्मानं केवलं पश्यन् न तुष्यति न कुष्यति।।54।।
चेष्टमानं शरीरं स्व पश्यत्यन्यशरीरवत्।
संस्तवे चापि निदाया कथं मुध्येत् महाशय:।।55।।
मायामात्रमिद विश्व पश्यन् विगतकौतुक।
अपि सन्निहिते मृत्यौ कथं त्रस्यति धीरधी।! 56।।
निस्थृहं मानस यस्य नैराश्येउयि महात्मन:।
तस्यात्म ज्ञानतृप्तस्थ तुलना केन जायते।।57।।
स्वभावादेव जानानो झयमेतब्र किंचन।
हद ग्राह्यमिदं त्याज्य स किं पश्यति धीरधी।। 58।।
अन्तस्लक्तकषायस्थ निर्द्वन्द्वस्थ निराशिष।
यद्वच्छयागतो भोगो न दुःखाय न तुष्टतेये।। 59।।

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

ओशो एक परिचय--

ओशो के विषय मे

शो की चेतना बचपन से ही मुक्त और विद्रोही थी। बचपन से ही वे धर्म, समाज व राजनीति की स्वीकृत परंपराओं को चुनौती देते रहे और सत्य के लिए दूसरों द्वारा दिए गए ज्ञान व मतों को मानने की अपेक्षा स्वयं ही प्रयोग करने का आग्रह करते रहे।
21 मार्च 1953 को इक्कीस वर्ष की आयु में ओशो परम संबोधि को उपलब्ध हुए। अपने विषय में वे कहते हैं, '' अब मैं किसी भी चीज की खोज में नहीं हूं। अस्तित्व ने अपने सब द्वार मेरे लिए खोल दिए हैं; मैं तो यह भी नहीं कह सकता कि मैं अस्तित्व से संबंध रखता हूं क्योंकि मैं तो इसी का एक हिस्सा हूं... जब कोई फूल खिलता है, तो उसके साथ मैं भी खिलता हूं। जब सूर्य ऊगता है तो उसके साथ मैं भी ऊगता हूं। अहंकार, जो लोगों को विभाजित करता है, अब मुझमें नहीं है। मेरा शरीर प्रकृति का हिस्सा है और मेरा होना पूरी समग्रता का अंग है। मैं कोई भिन्न इकाई नहीं हूं। ''

अष्‍टावक्र: महागीत--(प्रवचन--16)

अष्‍टावक्र महागीता—(भाग—2)
ओशो

इन सूत्रों पर खूब मनन करना—बार—बार; जैसे कोई जूगाली करता है। फिर—फिर,
      क्‍योंकि इनमें बहुतरस है। जितना तुम चबाओगे, उतना ही अमृत झरेगा।
      वे कुछ सूत्र ऐसे नहीं है कि जैसे उपन्‍यास, एक दफे पढ़ लिया, समझ गए,
बात खत्‍म हो गई, फिर कचरे में फेंका। यह कोई एक बार पढ़ लेने वाली बात नहीं है, यह तो किसी शुभमुहूर्त में,किसी शांत क्षण में किसी आनंद की अहो—दशा में, तुम
इनका अर्थ पकड़ पाओगे। यह तो रोज—रोज, घड़ी भर बैठ कर, इन परम सूत्रों को फिर
से पढ़ लेने की जरूरत है। अनिवार्य है।

——ओशो


धर्म है जीवन का गौरी शंकर—प्रवचन—एक

दिनांक: 26 सितंबर, 1976,
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न:

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक ए. एच. मैसलो ने मनुष्य की जीवन आवश्यकताओं के
क्रम में आत्मज्ञान (Self—actualization) को अंतिम स्थान दिया है। क्या आपके जाने आत्मज्ञान मनुष्य—जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है, और धर्म, अध्यात्म जैसे संबोधन अनावश्यक रूप से आत्मज्ञान के साथ जोड़ दिए गए हैं? कृपा करके समझाएं।

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--15)

जीवन की एक मात्र दीनता: वासना—प्रवचन—पंद्रहवां

25 सितंबर, 1976;
ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क,
पूना।

अष्टावक्र उवाब।

            अविनाशिनमात्मानमेकं विज्ञाय तत्वत:।
            तवात्मज्ञस्य धीरस्य कथमर्थार्जने रति: ।।46।।
            आत्माउज्ञानादहो प्रीतिर्विषयभ्रमगोचरे।
            शुक्तेरज्ञानतो लोभो यथा रजतविभ्रमे ।।47।।
            विश्व स्फुरति यत्रेदं तरंग इव सागरे।
            सोउहमस्मीति विज्ञाय किं दीन हव धावसि ।।48।।
            श्रुत्वाउयि शुद्धचैतन्यमात्मानमतिसुन्दरम् ।
            उपस्थेऽत्यन्तसंसक्तो मालिन्यमधिगच्छति ।।49।।
            सर्वभतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
            मनेजनित आश्चर्य ममत्वमनवर्तंते ।।50।।
            आस्थित: परमाद्वैतं मोक्षार्थेउयि व्यवस्थित:।
            आश्चर्य कामवशगो विकल: केलिशिक्षया ।।51।।
            उद्भूतं ज्ञात्तर्मित्रभवधार्याति दुर्बल:।
            आश्चर्य काममाकाक्षेत् कालमंतमनुश्रित ।।52।।

रविवार, 5 जनवरी 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--14)

उद्देश्‍य—उसे जो भावे—प्रवचन—चौदहवां

24 सितंबर, 1976;
ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क,
पूना।

पहला प्रश्न :

मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ्रायड ने मृत्यु—एषणा, थानाटोस की चर्चा की। आपने कल जीवेषणा, ईरोस की चर्चा की। फ्रायड की धारणा को क्या आप आधुनिक युग की आध्यात्मिक विकृति कहते हैं? कृपा करके हमें समझाएं।

जीवन द्वंद्व है। और जो भी यहां है उससे विपरीत भी जरूर होगा, पता हो न पता हो। जहां प्रेम है वहां घृणा है। और जहां प्रकाश है वहां अंधकार है। और जहां परमात्मा है वहां पदार्थ है। तो जीवेषणा के भीतर भी छिपी हुई मृत्यु—एषणा भी होनी ही चाहिए।

शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--13)

    जब जागो तभी सवेरा—प्रवचन—तैरहवां

23 सितंबर,1976 ओशो आश्रम कोरेगांव पार्क, पूना।

जनक उवाच।

अहो जनसमूहेउयि न द्वैत यश्यतो मम।
अरण्यमिव संवृत्त क्य रति करवाण्यहम् ।।41।।
नाहं देहो न मे देहरे जीवो नाहमहं हि चित्!
अयमेव हि मे बंध आसीधा जीविते स्‍पृहा ।।42।।
अहो भुवन कल्लोलैर्विचित्रैद्रकि समुन्धितम्।
मयनतमहाम्भोधौ चित्तवाते समुझते ।।43।।
मयनंतमहाम्मोधरै चित्तवाते प्रशाम्यति।
अभाग्याजीववणिजो जगतयोतो विनश्वर: ।।44।।
मयनंतमहाम्मोधावाश्चर्य जीववीचय:।
उद्यन्ति ध्यन्ति खेलन्ति प्रविशन्ति स्वभावत: ।।45।।

ज्ञान और ज्ञान में बड़ा भेद है। एक तो ज्ञान है, जो बांझ होता है, जिसमें फल नहीं लगते, न फूल लगते। एक ज्ञान है, जिसमें मुक्ति के फल लगते हैं, सच्चिदानंद के फूल लगते, फल लगते, सुगंध उठती समाधि की। जिस ज्ञान से समाधि की सुगंध न उठे, उसे थोथा और व्यर्थ जानना। उससे जितनी जल्दी छुटकारा हो जाए, उतना अच्छा। क्योंकि मुक्ति के मार्ग में वह बाधा बनेगा। मुक्ति के मार्ग में जो साधक नहीं है, वही बाधक हो जाता है। धन भी इतनी बड़ी बाधा नहीं है, जितनी बड़ी बाधा थोथा ज्ञान हो जाता है। धन इसलिए बाधा नहीं है कि धन से कोई साधन ही नहीं बनता, धन से कोई साथ ही नहीं मिलता मोक्ष की तरफ जाने में, तो धन के कारण बाधा नहीं हो सकती।

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--12)

प्रभु प्रसाद—परिपूर्ण प्रयत्‍न से—प्रवचन—बारहवां

 22 सितंबर,1976
ओशो आश्रम
कोरेगांव पार्क, पूना।

पहला प्रश्न :

मेरे इस प्रश्न का उत्तर अवश्य दें, ऐसी प्रार्थना है। गुरु—दर्शन को कैसे आऊं? जब शिष्य गुरु के पास जाए तो कैसे जाए? गुरु के पास शिष्य किस तरह रहे, क्या—क्या करे और क्या—क्या न करे?

पूछा है 'विष्णु चैतन्य' ने
शिष्य का अर्थ होता है, जिसे सीखने की दुष्‍पूर आकांक्षा उत्पन्न हुई है; जिसके भीतर सीखने की प्यास जगी है। सीखने की प्यास साधारण नहीं होती; सिखाने का मन बड़ा साधारण है। सीखने की प्यास बड़ी असाधारण है।
गुरु तो कोई भी होना चाहता है, शिष्य होना दुर्लभ है। जो तुम नहीं जानते, वह भी तुम दावा करते हो जानने का, क्योंकि जानने के दावे में अहंकार की तृप्ति है।

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-02)

अज्ञात की पुकार—प्रवचन—दूसरा

दिनांक: 2अक्‍टूबर, 1978;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

प्रश्न-- हर बार यहां आती हूं तो बिना संन्यास लिये चली जाती हूं। संन्यास का भाव तो कई बार मन में उठता है, लेकिन लेने का साहस नहीं जुटा पाती हूं। मैं डर जाती हूं। सोचती हूं : क्या इस मार्ग पर मैं आनंद से चल सकूंगी? या रास्ता आधा छोड्कर वापिस लौट आना पड़ेगा? छोड़ देती हूं संन्यास का भाव तो इस दुनिया में जहा मैं अब तक चल रही हूं चलना निरर्थक मालूम पड़ता है। मैं क्या करूं? मार्ग बताने की अनुकंपा करें।

प्रश्‍नतंत्र, वाममार्ग, अघोरपंथ, नाथपंथ जैसे नामों से लोग क्यों डरते हैं? इन मार्गों के सही विश्लेषण और सम्यक अभ्यास से क्या ऐसी संभावना नहीं है कि लोग फिर नये आयाम से इन्हें समझें और इनकी और उपेक्षा न करें?

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-01)


हंसिबा खेलिबा धरिबा ध्‍यानं—प्रवचन—पहला
(न जाने समझोगे या नहीं: मृत्‍यु बन सकती है द्वार अमृत का)
दिनांक: 1अक्‍टूबर, 1978;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्र:
     
      बसती न सुन्यं सुन्यं न बसती अगम अगोचर ऐसा।
      गगन सिषर महिं बालक बोले ताका नांव धरहुगे कैसा।।
      हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं। अहनिसि कथिबा ब्रह्मगियानं।
      हंसै षेलै न करै मन भंग। ते निहचल सदा नाथ के संग।।
      अहनिसि मन लै उनमन रहै, गम की छाडि अग की कहै।
      छाडै आसा रहे निरास, कहै ब्रह्मा हूं ताका दास।।
      अरधै जाता उरधै धरै, काम दग्ध जे जोगी करै।
      तजै अल्यंगन काटै माया, ताका बिसनु पषालै पाया।।
            मरी वे जोगी मरी, मरी मरन है मीठा।
      तिस मरणी मरौ, जिस मरणी गोरष मरि दीठा।।

हाकवि सुमित्रानंदन पंत ने मुझसे एक बार पूछा कि भारत के धर्माकाश में वे कौन बारह लोग हैं—मेरी दृष्टि में—जो सबसे चमकते हुए सितारे हैं? मैंने उन्हें यह सूची दी : कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, नागार्जुन, शंकर, गोरख, कबीर, नानक, मीरा, रामकृष्ण, कृष्णमूर्ति। सुमित्रानंदन पंत ने आंखें बंद कर लीं, सोच में पड़ गये...।