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रविवार, 28 अगस्त 2016

समाधि कमल--(प्रवचन--10)

अज्ञान का बोध, रहस्य का बोध—(प्रवचन—दसवां)

अज्ञान का बोध, इस संबंध में थोड़ी सी बात मैं आपसे कहना चाहता हूं।
जैसा मुझे दिखाई पड़ता है, अज्ञान के बोध के बिना कोई व्यक्ति सत्य के अनुभव में प्रवेश न कभी किया है और न कर सकता है। इसके पहले कि अज्ञान छोड़ा जा सके, ज्ञान को छोड़ देना आवश्यक है। इसके पहले कि भीतर से अज्ञान का अंधकार मिटे, यह जो ज्ञान का झूठा प्रकाश है, इसे बुझा देना जरूरी है। क्योंकि इस झूठे प्रकाश की वजह से, जो वास्तविक प्रकाश है, उसे पाने की न तो आकांक्षा पैदा होती है, न उसकी तरफ दृष्टि जाती है। एक छोटी सी घटना इस संबंध में कहूंगा और फिर आज की चर्चा शुरू करूंगा।

एक पूर्णिमा की रात्रि में, एक बहुत विलक्षण कवि एक नौका पर बजरे में यात्रा कर रहा था। छोटा सा झोपड़ा था बजरे का, नौका थी, पूर्णिमा की रात थी। वह भीतर बैठ कर, मोमबत्ती को जला कर, उसके प्रकाश में किसी ग्रंथ को पढ़ता रहा। फिर जब आधी रात हो गई और वह थक गया तो उसने मोमबत्ती को बुझाया, सोने की तैयारी की।

समाधि कमल--(प्रवचन--09)

ध्यान आंख के खुलने का उपाय है—(प्रवचन—नौवां)

आपके कुछ प्रश्न आज लूंगा। कोई प्रश्न आज छूट जाएंगे तो परेशान न हों, कल उन पर चर्चा हो जाएगी। ईश्वर सगुण है या निर्गुण? ईश्वर है या नहीं है? ईश्वर में विश्वास मैं करता हूं या नहीं करता हूं? इस भांति के जो भी प्रश्न हैं, उनको मैं लूंगा।

एक बात जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण और विचार करने जैसी है वह यह है कि हजारों वर्षों से मनुष्य को विश्वास करने की प्रेरणा दी गई है। उसे समझाया गया है कि तुम विश्वास करो! ईश्वर में विश्वास करो, आत्मा में विश्वास करो, धर्म में विश्वास करो, गुरुजनों में विश्वास करो, शास्त्रों में विश्वास करो। इस भांति कोई हजारों वर्षों से मनुष्य को विश्वास के लिए दीक्षित और तैयार किया गया है।

सबसे पहले जो मैं कहना चाहूंगा वह यह कि मेरा विश्वास में ही विश्वास नहीं है। मैं इस पूरी धारा को ही गलत मानता हूं। मनुष्य को दीक्षित किया जाना चाहिए विवेक में, विश्वास में नहीं। क्योंकि विश्वास तो अंधी चीज है। विश्वास का अर्थ है, जिस बात को तुम नहीं जानते हो उसे मान लो। जैसे एक अंधा आदमी प्रकाश को जानता तो नहीं है, लेकिन विश्वास कर सकता है कि प्रकाश है।

समाधि कमल--(प्रवचन--08)

आज का दिन अंतिम—(प्रवचन—आठवां)

आज की रात तो हम विदा होंगे। इन तीन दिनों में बहुत सी बातें कही हैं। और इतने प्रेम से इतनी शांति से आपने उन्हें सुना है कि उनका परिणाम निश्चित होगा। वे आपके भीतर जाकर बीज बनेंगी और आपके जीवन में उनसे कुछ हो सकेगा।
इस आशा में ही उन बातों को मैं कहा हूं। और जीवन की एक संक्षिप्त व्यवस्था साधक की कैसी हो, उसकी रूप—रेखा आपके सामने स्पष्ट हुई होगी। यह भी लगा होगा कि क्या करने जैसा है। अब यह आपके ऊपर है कि जो प्रीतिकर लगा है वह जीवन का हिस्सा हो जाए।
मनुष्य की कमजोरी यह नहीं है यह बिलकुल नहीं है कि वह पहचान नहीं पाता कि क्या ठीक है। कमजोरी वहां है जहां वह पहचान करने के बाद भी, जो गलत है, उस पर ही चले चला जाता है। बहुत दिन गलत के भीतर रहने पर गलत से भी मोह हो जाता है।

समाधि कमल--(प्रवचन--07)

साधना के जगत में प्रवेश—(प्रवचन—सातवां)

उसके पहले कि आपके प्रश्नों को लूं थोड़ी सी बात कुछ और मुझे कह देनी
है वह कह दूं और फिर आपके प्रश्नों को लूंगा।
साधना की भूमिका के लिए कुछ अंगों पर मैंने प्रकाश डाला, उसकी आपसे चर्चा की। लेकिन मैंने दो बातें बताईं, एक तो साधना कैसे करनी यह बताया और एक यह बताया कि साधना के लिए भूमिका कैसे बनेगी। भूमिका भी ज्ञात हो जाए, साधना करने की पद्धति भी ज्ञात हो जाए, तो भी साधना शुरू नहीं हो जाती। आपको यह भी ज्ञात हो गया कि क्या करना है और यह भी ज्ञात हो गया कि कैसे करना है, तो भी करना शुरू नहीं हो जाता है। भूमिका समझ में आ गई, पद्धति समझ में आ गई, आपको पता चल गया कि इस भांति जमीन को साफ करना होता है, फिर इस भांति इसमें बीज डालने होते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप बागवानी शुरू कर देंगे।
बागवानी शुरू करने के लिए इन दो के अलावा और भी कुछ बात जरूरी है। तो उन थोड़े से तत्वों पर मैं आपको प्रकाश और डाल दूं जिसके बिना बागवानी का ज्ञान कोरा ज्ञान होगा और कोई फायदा नहीं होगा।

समाधि कमल--(प्रवचन--06)

विचार के प्रति अपरिग्रह, तटस्थता ओर स्वतंत्र बोध—(प्रवचन—छठवां)

कैसी भूमिका बने तो समाधि उत्पन्न होना सरल होगा, उस संबंध में थोड़ा सा आज सुबह आपको कहना चाहता हूं। भुमिका के तल पर तीन बातें स्मरणीय है। एक बात, सबसे प्रथम बात है: विचार का अपरिग्रह। हम जिन विचारों को अपना समझते हैं वे अपने नहीं हैं। वे हमने दूसरों से ग्रहण किए हैं, वे उधार हैं। जितने भी विचार आपके पास होंगे उनमें से आपका कोई भी नहीं है। वे कहीं से आपके भीतर आए हैं। आप एक धर्मशाला की तरह हैं जिसमें आकर वे ठहर गए हैं। वे आपके मेहमान हैं। वे आपके भीतर निवास कर गए हैं, वे कहीं बाहर से आए हैं, दूसरी जगह से आए हैं।

इन विचारों को अपना समझ लेना भूल है। इनमें ममत्व धारण कर लेना भूल है। तो विचार के प्रति अपरिग्रह—कि जो भी विचार मेरे भीतर इकट्ठे हैं वे मेरे नहीं हैं, इसका स्पष्ट बोध मनुष्य की चित्त—शांति के लिए अनिवार्य शर्त है।

समाधि कमल--(प्रवचन--05)

मैत्री भाव, आनंद भाव, समता भाव—(प्रवचन—पांचवां)

इसके पहले कि हम रात्रि के ध्यान के प्रयोग पर बैठें, थोड़ी सी बातें आपको मैं कहूं। सुबह सम्यक आचार के संबंध में थोड़ा सा मैंने आपको कहा, वह एक भूमिका है। वह भूमिका बने, तो ध्यान में अनायास गहराई उपलब्ध होगी। उस भूमिका के बनने पर एक पृष्ठभूमि बनेगी और उसके माध्यम से चित्त की शांति और शून्यता संभव होगी। लेकिन और भी कुछ भूमिकाएं हैं, उनकी भी इसके पहले कि हम यहां से विदा हों, मैं आपसे चर्चा कर लेना चाहूंगा।
तीन बातों की मैंने चर्चा की—सम्यक आहार की, सम्यक व्यायाम की, सम्यक निद्रा की। वे तीनों ही शरीर से संबंधित हैं। शरीर एक भूमिका है साधक की, लेकिन अकेली भूमिका नहीं है। उसके और भीतर प्रवेश करें, तो उसका एक भाव जगत भी है।
और भीतर प्रवेश करें, उसका एक विचार जगत भी है। शरीर के तल पर तीन बातें कहीं ऐसी ही तीन बातें भाव के तल पर और ऐसी ही तीन बातें विचार के तल पर और आपको मुझे कहनी हैं। अभी रात्रि में मैं, भाव के तल पर कौन सी तीन बातें हैं जो भूमिका बनेंगी उनकी थोड़ी चर्चा कर लूं और फिर ध्यान के लिए हम बैठेंगे।

समाधि कमल--(प्रवचन--04)

सबसे बड़ा चमत्कार—जल में कमलवत—(प्रवचन—चौथा)

बहुत से प्रश्न हैं, थोड़े से के उत्तर मैं दे पाऊंगा।
लेकिन अगर आपने ठीक—ठीक अपने ही प्रश्न के शब्दों को खोजने की कोशिश की तो हो सकता है उत्तर न भी मिले। लेकिन जो उत्तर मैं दे रहा हूं उनमें बाकी प्रश्नों के उत्तर भी होंगे। और सच तो यह है कि जो भी मैं कह रहा हूं अगर वह आपको ठीक से समझ में आ जाए, तो शायद ही आपके मन में कोई प्रश्न होने की गुंजाइश है।

एक प्रश्न पूछा है कि ओशो यदि जल में कमल की भांति मनुष्य अपने सांसारिक कामों में निमज्जित रह कर ही: उसमें डूबा रह कर ही शांति लाभ कर सकता है तो माथेरान और एकांत में आने की जरूरत क्या है? इस एकांत में आने की और सारी चीजों से दूर हो जाने की जरूरत क्या है?

सोमवार, 22 अगस्त 2016

समाधि कमल--(प्रवचन--03)

सम्यक आहार सम्यक व्यायाम, सम्यक निंद्रा—(प्रवचन—तीसरा)

सम्यक आहार से अर्थ है कि भोजन इतना न हो कि वह शरीर की सारी शक्तियों को पचाने के लिए आमंत्रित कर ले। भोजन के बाद इसीलिए नींदमालूम होती है, क्योंकि शरीर की सारी शक्ति भोजन को पचाने में लग जाती है, इसलिए सारा शरीर शिथिल होने लगता है। जितनी शक्ति है शरीर के पास वह पचाने में लग जाती है, इसलिए शरीर के लिए जरूरी होता है कि वह सो जाए, और कोई काम न करे। अगर वह काम करेगा तो पाचन में बाधा होगी, क्योंकि उतनी शक्ति
काम में लगेगी और पाचन नहीं हो सकेगा।
सम्यक आहार का अर्थ है इतना भोजन कि वह आपको नींद न लाए। उसका अर्थ हुआ इतना भोजन, उसकी जो परिसीमा है वह इतनी कि पेट, जब आप भोजन करें, तो भोजन के बाद पेट का आपको पता न चले।

समाधि कमल--(प्रवचन--02)

अप्रमत्त जीवन—निराधार, निरालंब, निर्विचार—(प्रवचन—दूसरा)

प्रश्नसार:
1—प्रश्न का ध्वनि मुद्रण नहीं।
असुविधा न मालूम हो, बस इतना ख्याल रखें। फिर वह सबके लिए अलग—अलग समय होगा। आराम रहे, उसमें तकलीफ न मालूम हो।

प्रश्न: पीठ झुक जाए तो?

कोई हर्जा नहीं है यूं तकलीफ न हो आपको बस इस तरह से, कोई तकलीफ की
बात नहीं है।

 ध्वनि— मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

सिर्फ गहरा नहीं लेना है, धीमा और गहरा।

प्रश्न : श्वास लेते वक्त आधार…….

चित्त की तो आदत है कि उसे कुछ न कुछ आधार चाहिए। अगर कोई भी आधार न हो
तो चित्त की मृत्यु हो जाएगी। उसी मृत्यु में आपको समाधि का अनुभव होगा। जब चित्त बिलकुल मर जाएगा, बिलकुल शून्य होगा, तब आपको आत्मा का पता चलेगा। तो चित्त अपने जीवन के लिए भोजन चाहता है। वह आधार माँगता है, कोई आधार हो। राम—राम जपते रहें, तो चित्त को बड़ी प्रसन्नता है, कोई दिक्कत नहीं है। कोई भजन गाते रहें, तो चित्त को कोई कठिनाई नहीं है।

समाधि कमल--(प्रवचन--01)

जीवन की सहज स्वीकृति—(प्रवचन—पहला)

क बात जो मैंने रात को आपको कही वह इस संबंध में थी कि हम जीवन को एक स्वीकार दे सकें। जीवन की स्वीकृति एक साधना है। जैसा जीवन उपलब्ध हुआ है हम यदि उसे वैसा ही स्वीकार कर सकें यदि हम उसे वैसा ही देख सकें तो एक क्रांति, एक ट्रांसफार्मेशन अपने आप होना
शुरू हो जाता है।
साधारणत: हम अपने से लड़ते हैं संघर्ष करते हैं। और जैसे हम बाहर के जगत में संघर्ष करते हैं वैसे ही अपने मन के जगत में भी संघर्ष करते हैं। मैं संघर्ष के विरोध में हूं। यह प्राथमिक रूप से आपको समझा दूं यह हमारी पहली बैठक है, यह आपको समझा दूं कि मैं संघर्ष के विरोध में हूं।
मैं आपको अपने मन से लड़ने के लिए, विरोध करने के लिए नहीं कहने को हूं। मैं आपसे कहना चाहता हूं इसके पूर्व कि हम मन के साथ कुछ भी करें हमारा मन को जान लेना, मन से ठीक तरह परिचित हो जाना जरूरी है।

समाधि कमल—(ओशो)

समाधि कमल-(ध्यान-साधना)-ओशो
(ओशो द्वारा दिए गए 15 अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन। जो ध्यान साधना शिविर, माथेरान में ध्यान प्रयोग के साथ प्रश्नचर्चा सहित।)
समाधि की भूमिका:
माधि का अर्थ ही यह होता है : जिससे चित्त की समस्त अशांति का समाधान हो गया। जिसे वे लगाते होंगे वह समाधि नहीं है, वह केवल जड्मूर्च्छा है। जो चीज लगाई जा सकती है वह समाधि नहीं है, वह केवल जडमूर्च्छा है। वह अपने को बेहोश करने की तरकीब है। ट्रिक सीख गए होंगे, और तो कुछ नहीं। तो वह ट्रिक अगर सीख ली जाए तो कोई भी आदमी उतनी देर तक बेहोश रह सकता है उतनी देर उसे कुछ पता नहीं होगा। अगर आप उसको मिट्टी में दबा दें तो भी कुछ पता नहीं होगा। उस वक्त श्वास भी बंद हो जाएगी और सब चेतन कार्य बंद हो जाएंगे।

शुक्रवार, 19 अगस्त 2016

पद घूंघरू बांध--(प्रवचन--20)

प्रेम श्वास है आत्मा की—(प्रवचन—बीसवां)
प्रश्न-सार :

1—प्यारे भगवान! मैं रोऊं, गाऊं या मुस्कुराऊं, नौ साल दूर कैसे रह गई, समझ नहीं पाती हूं। अब पास आकर ऐसी दशा है कि हमेशा रोआं-रोआं कांपता रहता है, चाहे सोई रहूं या जागी रहूं। इस अवस्था पर आनंद भी अनुभव होता है और झुंझलाहट भी। कोई रास्ता दिखाने की कृपा करें।

2—जीवन के बंधनों से मुक्ति कैसे हो? आवागमन कैसे मिटे?

3—आप जब गांधी, विनोबा, अरविंद और विवेकानंद के विरोध में बोलते हैं, तो मुझे रंज होता है। वैसे ही जब कोई आपके विरोध में बोलता है तो मुझे रंज होता है। विनती है कि जैसे आप बुद्ध और महावीर को समझाने में सहायक होते हैं, वैसे ही श्री अरविंद को समझाने में सहायक हों।

4—आप कहते हैं--प्रेम है द्वार प्रभु का। मैंने भी कभी किसी को प्रेम किया था, लेकिन उसे पाने में असफल रहा। अब तो तीस वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन फिर किसी और को प्रेम न कर पाया। भगवान, क्या कभी मेरा उससे मिलन होगा?

गुरुवार, 18 अगस्त 2016

पद घूंघरू बांध--(प्रवचन--19)

पद घुंघरू बांधी—(प्रवचन—उन्नीसवां)
 
भक्ति: चाकर बनने की कला
सूत्र:
म्हानें चाकर राखोजी, म्हाने चाकर राखोजी।
चाकर रहसूं बाग लगासूं, नित उठ दरसन पासूं।
बिन्द्राबन की कुंज गलिन में, तेरी लीला गासूं।।
चाकरी में दरसन पाऊं, सुमिरण पाऊं खरची।
भाव—भगति जागीरी पाऊं, तीनों बातां सरसी।।
मोरमुकुट पीताम्बर सोहे, गल बैजंती माला।
बिन्द्राबन में धेनु चरावें, मोहन मुरली वाला।।
ऊंचे—ऊंचे महल चिनाऊं, बिच—बिच राखूं बारी।
सांवरिया के दरसन पाऊं, पहर कुसुंबी सारी।।