दिनांक:
1 अक्टूबर, 1976;
श्री रजनीश
आश्रम पूना।
सूत्र:
अष्टावक्र
उवाच।
न ते
संगोउस्ति केनायि
किं शद्धस्त्यक्तमिच्छसि।
संघातविलयं
कुर्वन्नेमेव
लयं व्रज।।66।।
उदेति
भवतो विश्वं वारिधेरिव
बुदबुद:।
इति
ज्ञात्वैकमात्मानमेवमेव
लय व्रज।। 67।।
प्रत्यक्षमथ्यवस्तुत्वद्विश्वं
नास्तमले त्वयि।
रज्जुसर्प
इव व्यकृमेवमेव
लय व्रज।। 68।।
समदु:ख
सुख: पूर्ण आशानैराश्ययो:
सम:।
समजीवित
मृत्यु: सन्नैवमेव
लयं व्रज।। 69।।
जनक उवाच।
आकाशवदनंतोऽहं
धटवत् प्राकृतं
जगत्।
इति
ज्ञानं तथैतस्थ
न त्यागो न ग्रहो
लय:।।70 ।।
महौदधिरिवाहं
स प्रपंचो वीचिसन्निभि:।
इति
ज्ञानं तथैतस्थ
न त्यागो न ग्रहो
लय:।। 71।।
अहं
स शुक्तिसंकाशो
रूप्पवद्विश्वकल्यना।
इति
ज्ञानं तथैतस्थ
न त्यागो न ग्रहो
लय:।। 72।।
अहं
वा सर्वभूतेषु
सर्वभतान्ययो
मयि।
इति
ज्ञानं तथैतस्य
न त्यागो न ग्रहो
लय:।। 73।।