बुधवार, 31 मई 2017
प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-16
प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-15
प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-14
सोमवार, 29 मई 2017
प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-13
प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-12
प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-11
रविवार, 28 मई 2017
प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-10
प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-09
प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-08
प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-07
शनिवार, 27 मई 2017
प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-06
प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-05
प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-04
गुरुवार, 25 मई 2017
प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-03
प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-02
प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-01
बुधवार, 24 मई 2017
प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-06
प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-05
प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-04
मंगलवार, 23 मई 2017
08 - पोनी - एक कुत्ते की आत्म कथा - (मनसा-मोहनी)
पापा और मम्मी जी को इतनी मेहनत करते देखता तो मुझे लगता की ये इंसान इतनी मेहनत कैसे कर सकता है। आप को ये सब कुछ जान कर अजीब लगा होगा, कि मैं मनुष्य की तरह पापा मम्मी बोलता हूं। अब मैं भी क्या करू जब सब बच्चे उन्हें इसी तरह से बुलाते है तब मैं कैसे उन्हें किस नाम से पुकार सकता हूं। मम्मी पापा जी ने कभी मुझे अपने बच्चों से अलग नहीं समझा। और सच कहुं तो मुझे मेरी मां की याद तो कही अंधेरे कोने में दबी हुई दिखाई देती है। परंतु प्रकृति का लगाव जो मुझे इस शरीर से मिला है, उसे मना नहीं कर सकता हूं। हाँ तो मैं कह रहा था कि मानव कितना मेहनती है ताकतवर है।
आदमी सुबह से उठ कर सार दिन काम करता ही रहता है। ये सब बातें में पूरी मनुष्य जाति के लिए नहीं कहा रहा हूं। केवल जिन लोगों के संग—साथ मैं रहा हूं या जिन्हें मैंने जाना था। दिन भर हमारा तो सो लेना ही पूरा नहीं होता था। जब देखो तब सोना जहां जाओगे आपको आस पास बस यहीं तो देखोगे। मानो हमारी जाति को कोई सोने की बीमारी है।
प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-03
प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-02
प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-01
रविवार, 21 मई 2017
09--दसघरा गांव की दस कहानियां--(मनसा-मोहनी)
दसघरा की दस कहानियां
पीपल का वो विशाल वृक्ष जो आज आबादी के घेरे में आ गया था। सालों पहले तालाब की शान और गांव का गौरव हुआ करता था। कैसे
अपने ही नन्हे सुकोमल
महरून नए निकले पत्तों की छवि
तालाब के स्फटिक
जल में देख कर वह आनन्द विभोर हो जाता था। जरा सी हवा के चलने भर से पत्ते कैसे
इठलाने झूमने लग जाते थे। उस समय आप उसके एक-एक पत्ते पर जीवंतता फैली हुई देख
सकते थे। उसके पत्तों और टहनियों पर लदे तोते अपने मुंह से बरबंटी कुचल-कुचल कर
ऐसे फेंक रहे होते मानो वो बरबंटी न खा रहें हो गोया मुंहों की सफाई कर रहे हो।
ऊपर की फुनगियों पर चील का चाल चौकस बैठना, मानो कोई रक्षक दूर दराज के आगंतुकों से सावधान कर रहा है। कभी-कभी
उसकी पुकार
सतर्कता के साथ-साथ चील के सुरों की कैसे मींड, मुरकी
लगाती है, जिसमें सुरों की माला
पिरोने जैसी चमत्कारी आभास होता
था। ये चील के सुर की मींड बड़े-बड़े संगीत कार को कानों को हाथ लगाने के साथ
आश्चर्य चकित भी कर देती है। श्याम के धुँधलके से पहले चिड़ियों का बेमतलब लड़ना,
फुदकना, एक दूसरे को अपने स्थान से भगाते हुए शोर मचाना, वातावरण में कैसी सजीवता
भर रहा था। पक्षियों की ये अठखेलियाँ पीपल के उस वृक्ष को अन्दर तक गुदगुदा देती
थी। वह आपने भाग्य पर इठलाता और उस मां की तरह गद्द-गद्द हो जाता था। जिस उसकी
गोद में पोते-पोतियाँ उछल कूद कर उसे सता रहे हो। ओर वह लोट-पोट हो अपने बाल पन
में पहुंच कर गई हो। उनके साथ होने मात्र से शायद उसका का भी बालपन अंदर से निकल
आया था। तब एक तरलता एक समानता वातावरण को कैसे गोरवंतित कर देती है।
शनिवार, 20 मई 2017
08--दसघरा गांव की दस कहानियां--(मनसा-मोहनी)
दसघरा की दस कहानियां
शब्द को सुनने के लिए कान, पीड़ा को महसूस करने के लिए ह्रदय का स्पंदन, सौंदर्य को देखने के लिए आँखें चाहिए। प्रत्येक बुद्ध पुरुष बार-बार यही दोहराता है, ‘ कान है तो सुन लो, आँखें हैं तो देख लो।’ जब मैं छोटा था तब यहीं सोचता था, क्या ये सब बुद्ध पुरूष किन्हीं अंधे-बहरे लोगों के सामने खड़े हो कर बोल रहे थे।‘’ नहीं पर हमारे पास आंखें हो कर भी नहीं देख पाते, कान हो कर भी हम बहरे की ही तरह से जीते है। क्योंकि विचारों का एक रैला मन के समतल हमेशा चलता रहता है। फिर हम वही अर्थ और वह शब्द ग्रहण कर लेते है जो हमारे अनुकूल पड़ते हो। बाकी को न तो कान ही सुनते है, और न आँख की देखती है। एक प्रकार से हम प्रकृति के सम्मोहन में निंद्रा की तरह से जीते रहते है। एक प्रकार से चलती फिरती कोई मशीन की तरह से जी रहे है। हम विचारों की पर्त के नीचे इतना दब गये है, की हम एक जीवित लाश बन कर जी रहे है। हम पर किसी बात का किस भी विचार का कोई असर नहीं होता है। हमारा जीवन एक गहरी तंद्रा है। प्रकृति की इस लय से हम एक दम से छिन्न भिन्न हो गये। प्रकृति की अपनी एक लय है, एक समस्वरता है, उसमें पेड़, पौधे, जल, थल, चाँद, तारे, क्षितिज उसी लयबद्धता का एक अंग है। फिर क्या मनुष्य ने प्रकृति की उस लयवदिता से अपने को अलग-थलग कर लिया है। उसके जीने के अंदाज से तो यही लगता है। चारों ओर अराजकता, हिंसा तनाव, मानो हम जी नहीं रहे एक जीवन को ढो रहा है। मनुष्य का जीवन आज छिन्न-भिन्न हो गया है। उसकी बहती जीवन सरिता में कही अवरोध पैदा हो गया है। आज उसकी जीवन नदिया रूखी-सुखी नीरस और बेजान हो गई है। उसमें कोई आनंद उत्सव की एक किरण भी कहीं दिखाई नहीं देता। आज वो उस सब से टूट कर अलग-थलग हो गया है। प्रकृति से अपने को विच्छिन्न कर उसने आधुनिक उपकरणों को अपने जीवन में इस प्रकार रचा-बसा लिया है कि वो खुद हाड़मांस की एक मशीन बन कर रह गया है। वही शायद उसके भाव और संवेदनशीलता को निगल गयी है। शायद समय ने इस प्रश्न को और अति प्रश्न बना दिया हैं।