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गुरुवार, 18 सितंबर 2014

कितना भागे जग से आगे (कवीता)




कितना भागे जग से आगे।
टूटे पल—छल  जीवन धागे।
किसको पकड़े किसको  छोड़े।
कदम—कदम पर आग बीछी है।
राह—राह में शूल सजी  है।
पथ है नीरव, न दिखता आगे।
लाशों का अंबार लगा है।
पल पल मरना,
पल—पल जलना।
किसे पता है, कौन है आगे।
अपना होना ढूंढ—ढूंढ कर
जग में उलझ—उलझ हम जाते

आना नहीं था जब मुझे जगाने
राह दिखाते, हो तरसाते।
दिल कि नैया डूब रही है
अपने को ही खोते  पाते।
कितने सोय कितने जागे
यूग—यूग बित—बित है जाते
बीते युग पल और मधमंतर,
क्‍यों न करूण कर तुम पाते
समझ गया थी मेरी चालकी
नित—नूतन तुम तो हो जगाते।
कहीं बोलते पक्षी बन कर
कहीं विभिषिका तांडव बन कर
कहीं मोर मधुमास दिखता
कहीं सागर उमड़ घुमड़ में
कहीं तृषा की एक बूंद में
कहीं ममता के आंसू बनकर
जीवन के इस जटिल जाल में
मेरी तो मति नहीं सूझती
कितने सुलझे..उलझे धागे।।

स्‍वामी आनंद प्रसाद ‘’मनसा’’


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