एक बात, पहली बात स्पष्ट कर लेनी जरूरी है वह हय कि यह भ्रम छोड़ देना चाहिए कि हम पैदा हो गये है, इसलिए हमें पता है—क्या है काम, क्या है संभोग। नहीं पता नहीं है। और नहीं पता होने के कारण जीवन पूरे समय काम और सेक्स में उलझा रहता है और व्यतीत होता है।
मैंने आपसे कहा, पशुओं का बंधा हुआ समय है। उनकी ऋतु है। उनके मौसम है। आदमी का कोई बंधा हुआ समय नहीं है। क्यों? पशु शायद मनुष्य से ज्यादा संभोग की गहराई में उतरने में समर्थ है और मनुष्य उतना भी समर्थ नहीं रह गया है।
जिन लोगों ने जीवन के इन तलों पर बहुत खोज की है और गहराइयों में गये है और जिन लोगों ने जीवन के बहुत से अनुभव संग्रहीत किये है। उनको यह जानना, यह सुत्र उपलब्ध हुआ है कि अगर संभोग एक मिनट तक रुकेगा तो आदमी दूसरे दिन फिर संभोग के लिए लालायित हो जायेगा। अगर तीन मिनट तक रूक सके तो यह सप्ताह तक उसे सेक्स की वह याद भी नहीं आयेगी। और अगर साम मिनट तक रूक सके तो तीन महीने के लिए सेक्स से इस तरह मुक्त हो जायेगा कि उसकी कल्पना में भी विचार प्रविष्ट नहीं होगा। और अगर तीन घंटे तक रूक सके तो जीवन भर के लिए मुक्त हो जायेगा। जीवन में उसको कल्पना भी नहीं उठेगी।
लेकिन सामान्यत: क्षण भर का अनुभव है मनुष्य का। तीन घंटे की कल्पना करनी भी मुश्किल है। लेकिन मैं आपसे कहता हूं के तीन घंटे अगर संभोग की स्थिति में, उस समाधि की दशा में व्यक्ति रूक जाये तो एक संभोग पूरे जीवन के लिए सेक्स से मुक्त करने के लिए पर्याप्त है। इतनी तृप्ति पीछे छोड़ जाता है—इतनी अनुभव,इतनी बोध छोड़ जाता है कि जीवन भर के लिए पर्याप्त हो जाता है। एक संभोग के बाद व्यक्ति ब्रह्मचर्य को अपलब्ध हो सकता है।
लेकिन हम तो जीवन भी संभोग के बाद भी उपलब्ध नहीं होते। क्या है? बूढ़ा हो जाता है आदमी मरने के करीब पहुंच जाता है और संभोग की कामना से मुक्त नहीं होता। संभोग की कला और संभोग के शास्त्र को उसने समझा नहीं है। और न कभी किसी ने समझाया है, न विचार किया है। न सोचा है, न बात की है। कोई संवाद भी नहीं हुआ जीवन में—कि अनुभवी लोग उस पर संवाद करते और विचार करते हम बिलकुल पशुओं से भी बदतर हालत पर है। उस स्थिति में है। आप कहेंगे कि एक क्षण से तीन घंटे तक संभोग की दशा ठहर सकती है, लेकिन कैसे?
कुछ थोड़े से सूत्र आपको कहता हूं। उन्हें थोड़ा ख्याल में रखेंगे तो ब्रह्मचर्य की तरफ जाने में बड़ी यात्रा सरल हो जायेगी। संभोग करते क्षणों में क्षणों श्वास जितनी तेज होगी। संभोग का काल उतना ही छोटा होगा। श्वास जितनी शांत और शिथिल होगी। संभोग का काल उतना ही लंबा हो जायेगा। अगर श्वास को बिलकुल शिथिल करने का थोड़ा अभ्यास किया जाये, तो संभोग के क्षणों को कितना ही लंबा किया जा सकता है। और संभोग के क्षण जितने लंबे होंगे, उतने ही संभोग के भीतर से समाधि का जो सूत्र मैंने आपसे कहा है—निरहंकार भाव, इगोलेसनेस और टाइमलेसनेस का अनुभव शुरू हो जायेगा। श्वास अत्यंत शिथिल होनी चाहिए। श्वास के शिथिल होते ही संभोग की गहराई अर्थ और उदघाटन शुरू हो जायेंगे।
और दुसरी बात, संभोग के क्षण में ध्यान दोनों आंखों के बीच, जहां योग आज्ञा चक्र को बताता है। वहां अगर ध्यान हो तो संभोग की सीमा और समय तीन घंटे तक बढ़ाया जा सकता है। और एक संभोग व्यक्ति को सदा के लिए ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित कर देगा—न केवल एक जन्म के लिए, बल्कि अगले जन्म के लिए भी।
किन्हीं एक बहन ने पत्र लिखा है और मुझे पूछा है कि विनोबा तो बाल ब्रह्मचारी है, क्या उन्हें समाधि का अनुभव नहीं हुआ होगा। मेरे बाबत पूछा है कि मैंने तो विवाह नहीं किया, मैं तो बाल ब्रह्मचारी हूं मुझे समाधि का अनुभव नहीं हुआ होगा।
उस बहन को अगर वह यहां मौजूद हों तो मैं कहना चाहता हूं। विनोबा को या मुझे या किसी को भी बिना अनुभव के ब्रह्मचर्य उपलब्ध नहीं होता। वह अनुभव चाहे इस जन्म का हो, चाहे पिछले जन्म का हो—जो इस जन्म में ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है, वह पिछले जन्मों के गहरे संभोग के अनुभव के आधार पर और किसी आधार पर नहीं। कोई और रास्ता नहीं है।
लेकिन अगर पिछले जन्म में किसी को गहरे संभोग की अनुभूति हुई हो ता इस जन्म के साथ ही वह सेक्स से मुक्त पैदा होगा। उसकी कल्पना के मार्ग पर सेक्स कभी भी खड़ा नहीं होगा और उसे हैरानी दूसरे लोगों को देखकर कि यह क्या बात है। लोग क्यों पागल हैं, क्यों दीवाने है? उसे कठिनाई होगी यह जांच करने में कि कौन स्त्री है, कौन पुरूष है? इसका भी हिसाब रखने में और फासला रखने में कठिनाई होगी।
लेकिन कोई अगर सोचता हो कि बिना गहरे अनुभव के कोई बाल ब्रह्मचारी हो सकता है। तो बाल ब्रह्मचारी नहीं होगा, सिर्फ पागल हो जायेगा। जो लोग जबरदस्ती ब्रह्मचर्य थोपने की कोशिश करते है, वह विक्षिप्त होते है और कहीं भी नहीं पहुंचते।
ब्रह्मचर्य थोपा नहीं जाता। वह अनुभव की निष्पति है। वह किसी गहरे अनुभव का फल है। और वह अनुभव संभोग का ही अनुभव है। अगर वह अनुभव एक बार भी हो जाए तो अनंत जीवन की यात्रा के लिए सेक्स से मुक्ति हो जाती है।
तो दो बातें मैंने कहीं, उस गहराई के लिए—श्वास शिथिल हो इतनी शिथिल हो कि जैसे चलती ही नहीं और ध्यान, सारी अटैंशन आज्ञा चक्र के पास हो। दोनों आंखों के बीच के बिन्दु पर हो। जितना ध्यान मस्तिष्क के पास होगा, उतनी ही संभोग की गहराई अपने आप बढ़ जायेगी। और जितनी श्राव शिथिल होगी, उतनी लम्बाई बढ़ जायेगी। और आपको पहली दफा अनुभव होगा कि संभोग का आकर्षण नहीं है मनुष्य के मन में। मनुष्य के मन में समाधि का आकर्षण है। और एक बार उसकी झलक मिल जाए, एक बार बिजली चमक जाये और हमें दिखाई पड़ जाये अंधेरे में कि रास्ता क्या है फिर हम रास्ते पर आगे निकल सकते है।
एक आदमी एक गंदे घर में बैठा है। दीवालें अंधेरी है ओर धुएँ से पूती हुई है। घर बदबू से भरा हुआ है। लेकिन खिड़की खोल सकता है। उस गंदे घर की खिड़की में खड़े होकर वह देख सकता है दूर आकाश को तारों को सूरज को, उड़ते हुए पक्षियों को। और तब उसे उस घर के बहार निकलने में कठिनाई नहीं रह जायेगी।
जिस दिन आदमी को संभोग के भीतर समाधि का पहली थोड़ी सह भी अनुभूति होती है उसी दिन सेक्स का गंदा मकान सेक्स की दीवालें अंधेरे से भरी हुई व्यर्थ हो जाती है आदमी बाहर निकल जाता है।
लेकिन यह जानना जरूरी है कि साधारणतया हम उस मकान के भीतर पैदा होते है। जिसकी दीवालें बंद है। जो अंधेरे से पूती है। जहां बदबू है जहां दुर्गंध है और इस मकान के भीतर ही पहली दफ़ा मकान के बाहर का अनुभव करना जरूरी है, तभी हम बहार जा सकते है। और इस मकान को छोड़ सकते है। जिस आदमी ने खिड़की नहीं खोली उस मकान की और उसी मकान के कोने में आँख बंद करके बैठ गया है कि मैं इस गंदे मकान को नहीं देखूँगा, वह चाहे देखे और चाहे न देखे। वह गंदे मकान के भीतर ही है और भीतर ही रहेगा।
जिसको हम ब्रह्मचारी कहते है। तथाकथित जबर दस्ती थोपे हुए ब्रह्मचारी, वे सेक्स के मकान के भीतर उतने ही है जितना की कोई भी साधारण आदमी है। आँख बंद किये बैठे है, आप आँख खोले हुए बैठे है, इतना ही फर्क है। जो आप आँख खोलकर कर रहे है, वह आँख बंद कर के भीतर कर रहे है। जो आप शरीर से कर रहे है। वे मन से कर रहे है। और कोई फर्क नहीं है।
इसलिए मैं कहता हूं कि संभोग के प्रति दुर्भाव छोड़ दे। समझने की चेष्टा,प्रयोग करने की चेष्टा करें और संभोग को एक पवित्रता की स्थिति दे।
मैंने दो सूत्र कहे। तीसरी एक भाव दशा चाहिए संभोग के पास जाते समय। वैसा भाव-दशा जैसे कोई मंदिर के पास जा रहा है। क्योंकि संभोग के क्षण में हम परमात्मा के निकटतम होते है। इसीलिए तो संभोग में परमात्मा सृजन का काम करता है। और नये जीवन को जन्म देता है। हम क्रिएटर के निकटतम होते है।
संभोग की अनुभूति में हम सृष्टा के निकटतम होते है।
इसीलिए तो हम मार्ग बन जाते है। और एक नया जीवन हमसे उतरता है। और गतिमान हो जाता है। हम जन्मदाता बन जाते है।
क्यों?
सृष्टा के निकटतम है वह स्थिति। अगर हम पवित्रता से प्रार्थना से सेक्स के पास जायें तो हम परमात्मा की झलक को अनुभव कर सकते है। लेकिन हम तो सेक्स के पास घृणा एक दुर्भाव एक कंडेमनेशन के साथ जाते है। इसलिए दीवाल खड़ी हो जाती है। और परमात्मा का यहां कोई अनुभव नहीं हो पाता है।
सेक्स के पास ऐसे जाऐं, जैसे की मंदिर के पास जा रहे है। पत्नी को ऐसा समझें, जैसे की वह प्रभु है। पति को ऐसा समझें कि जैसे कि वह परमात्मा है। और गंदगी में क्रोध में कठोरता में द्वेष में, ईर्ष्या में, जलन में चिन्ता के क्षणों में कभी भी सेक्स के पास न जायें। होता उलटा है। जितना आदमी चिन्तित होता है। जितना परेशान होता है। जितना क्रोध से भरा होता है। जितना घबराया होता है, जितना एंग्विश में होता है। उतना ही ज्यादा वह सेक्स के पास जाता है।
आनंदित आदमी सेक्स के पास नहीं जाता। देखी आदमी सेक्स की तरफ जाता है। क्योंकि दुख को भुलाने के लिए इसको एक मौका दिखाई पड़ता है।
लेकिन स्मरण रखें कि जब आप दुःख में जायेंगे, चिंता में जायेंगे, उदास हारे हुए जायेगे, क्रोध में लड़े हुए जायेंगे। तब आप कभी भी सेक्स की उस गहरी अनुभूति को उपलब्ध नहीं कर पायेंगे। जिसका की प्राणों में प्यास है। वह समाधि की झलक वहां नहीं मिलेगी। लेकिन यहां उलटा होता है।
मेरी प्रार्थना है जब आनंद में हों, जब प्रेम में हों, जब प्रफुल्लित हों और जब प्राण ‘प्रेयर फुल’ हों। जब ऐसा मालुम पड़े कि आज ह्रदय शांति से और आनंद से कृतज्ञता से भरा हुआ है, तभी क्षण है—तभी क्षण है संभोग के निकट जाने का। और वैसा व्यक्ति संभोग से समाधि को उपलब्ध होता है। और एक बार भी समाधि की एक किरण मिल जाये। तो संभोग से सदा के लिए मुक्त हो जाता है। और समाधि में गतिमान हो जाता है।
स्त्री और पुरूष का मिलन एक बहुत गहरा अर्थ रखता है। स्त्री और पुरूष के मिलन में पहली बार अहंकार टूटता है और हम किसी से मिलते है।
मां के पेट से बच्चा निकलता है और दिन रात उसके प्राणों में एक ही बात लगी रहती है जैसे की हमने किसी वृक्ष को उखाड़ लिया जमीन से। उस पूरे वृक्ष के प्राण तड़पते है कि जमीन से कैसे जुड़ जाये। क्योंकि जमीन से जुड़ा हुआ होकर ही उसे प्राण मिलता था। रस मिलता था जीवन मिलता था। व्हाइटालिटी मिलती थी। जमीन से उखड गया तो उसकी सारी जड़ें चिल्लाये गी कि मुझे जमीन में वापस भेज दो। उसका सारा प्राण चिल्लाये गा कि मुझे जमीन में वापस भेज दो। वह उखड गया टूट गया। अपरूटेड हो गया।
आदमी जैसे ही मां के पेट से बाहर निकलता है, अपरूटेड हो जाता है। वह सारे जीवन और जगत से एक अर्थ में टूट गया। अलग हो गया। अब उसकी सारी पुकार और सारे प्राण की आकांशा जगत और जीवन और अस्तित्व से, एग्ज़िसटैंस से वापस जुड़ जाने की है। उसी पुकार का नाम प्रेम और प्यास है।
प्रेम का और अर्थ क्या है? हर आदमी चाह रहा है कि मैं प्रेम पाऊँ और प्रेम करूं। प्रेम का मतलब क्या है?
प्रेम का मतलब है कि मैं टुट गया हूं, आइसोलेट हो गया हूं। अलग हो गया हूं। मैं वापस जुड़ जाऊँ जीवन से। लेकिन इस जुड़ने का गहरे से गहरा अनुभव मनुष्य को सेक्स के अनुभव में होता है। स्त्री और पुरूष को होता है। वह पहला अनुभव है जुड़ जाने का। और जो व्यक्ति इस जुड़ जाने के अनुभव को—प्रेम की प्यास, जुड़ने की आकांशा के अर्थ में समझेगा,वह आदमी एक दूसरे अनुभव को भी शीध्र उपलब्ध हो सकता है।
योगी जुड़ता है, साधु भी जुड़ता है। संत भी जुड़ता है, समाधिस्थ व्यक्ति भी जुड़ता है। संभोगी भी जुड़ता है।
संभोग करने में दो व्यक्ति जुड़ते है। एक व्यक्ति दूसरे से जुड़ता है और एक हो जाता है।
समाधि में एक व्यक्ति समष्टि से जुड़ता है और एक हो जाता है।
संभोग दो व्यक्तियों के बीच मिलन है।
समाधि एक व्यक्ति और अनंत के बीच मिलन है।
स्वभावत: दो व्यक्ति का मिलन क्षण भर को हो सकता है। एक व्यक्ति और अनंत का मिलन अनंत के लिए हो सकता है। दोनों व्यक्ति सीमित है। उनका मिलन असीम नहीं हो सकता। यही पीड़ा है, यहीं कष्ट है, सारे दांपत्य का, सारे प्रेम का कि जिससे हम जुड़ना चाहते है। उससे भी सदा के लिए नहीं जुड़ पाते। क्षण भर को जुड़ते है और फिर फासले हो जात है। फासले पीड़ा देते है। फासले कष्ट देते है। और निरंतर दो प्रेमी इसी पीड़ा में परेशान रहते है। कि फासला क्यों है। और हर चीज फिर धीरे-धीरे ऐसी मालूम पड़ने लगती है कि दूसरा फासला बना रहा है। इसीलिए दूसरे पर क्रोध पैदा होना शुरू हो जाता है।
( क्रमश: अगले अंक में ..................देखें)
ओशो
संभोग से समाधि की ओर,
प्रवचन—4
गोवा लिया टैंक, बम्बई,
1 अक्टूबर—1968,
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