वृक्षों के संवेगों पर, भावनाओं पर। वह बड़ा हैरान करने वालो प्रयोग हुआ। पहले किसी नह सोचा भी नहीं था कि वृक्षों में संवेग हो सकते है। महावीर के बाद जगदीश चंद्र बसु तक बात ही भूल गई थी। फिर जगदीश चंद्र बसु ने थोड़ा बात उठाई कि वृक्षों में जीवन है। लेकिन बसु भी धीरे-धीरे विस्मृत हो गए। विज्ञान से यह बात ही खो गई। इसकी चर्चा ही बंद हो गई।
अभी अमरीका में फिर पुन: एक नया उद्भव हुआ, आकस्मिक हुआ। दुनिया की बहुत सी खोजें आकस्मिक हुई है। जो वैज्ञानिक काम कर रहा था वह किसी और दृष्टि से काम कर रहा था। लेकिन खोज में उसको यह अनुभव हुआ कि वृक्षों में कुछ संवेदनाएं मालूम होती है। तो उसने वृक्षों में महीन तार जोड़े और यंत्र बनाए देखने के लिए कि वृक्ष भी कुछ अनुभव करते है।
तो तुम अगर वृक्ष के पास जाओ कुल्हाड़ी लेकिर तो तुम्हें कुल्हाड़ी लेकिर आता देखकर वृक्ष कंप जाता है। अगर तुम मारने के विचार से जा रहे हो, वृक्ष को काटने के विचार से जा रहे हो तो बहुत भयभीत हो जाता है। अब तो यंत्र है जो तार से खबर दे देते है। नीचे ग्राफ बन जाता है। की वृक्ष कांप रहा है कि नहीं। घबड़ा रहा है, बेचैन हो रहा है, तुम्हें कुल्हाड़ी लिए आता देख कर। लेकिन अगर तुम कुल्हाड़ी लेकर जा रहे हो, और आप का काटने का कोई इरादा नहीं है। कोई विचार नहीं है मन में। सिर्फ गुजर रहे हो वहां से तो वृक्ष बिलकुल नहीं कंपता है। वृक्ष के भीतर कोई परेशानी नहीं होती।
यह तो बड़ी हैरानी की बात है। इसका मतलब यह हुआ की तुम्हारे भीतर जो काटने का भाव है, वह वृक्ष को संवादित हो जाता है। फिर जिस आदमी ने वृक्ष काटे है पहले, वह बिना कुल्हाड़ी के भी निकलता है तो वृक्ष कंप जाता है। क्योंकि उसकी दुष्टता जाहिर है। उसकी दुश्मनी जाहिर है।
लेकिन जिस आदमी ने कभी वृक्ष नहीं काटे है, पानी दिया है पौधों को जब वह पास से आता है तो वृक्ष प्रफुल्लता से भर जाता है। उसके भी ग्राफ बन जाते है। कि वह कब प्रफुल्ल है, कब प्रसन्न है कब परेशान है, भय भीत है।
और वैज्ञानिक अद्भुत आश्चर्यजनक निष्कर्षों पर पहुंचे है कि एक वृक्ष को काटो तो सारे वृक्ष बग़ीचे के कंप जाते है। पीड़ित हो जाते है। और एक वृक्ष को पानी दो तो बाकी वृक्ष भी प्रसन्न हो जाते है—जैसे एक समुदाय है।
इससे भी गहरी बात जो पता चली है, यह कि एक वृक्ष के पास बैठ कर तुम एक कबूतर को मरोड़ कर मार डालों, तो वृक्ष कंप जाता है। जैसे कबूतरों से भी बड़ा जोड़ है। जैसे सारी चीजें जुड़ी है संयुक्त है।
होना भी ऐसा ही चाहिए, क्योंकि हम एक ही आस्तित्व की तरंग है। सागर तो एक है, हम उसकी ही लहरें है। एक लहर वृक्ष बन गई एक लहर पशु बन गई, एक लहर मनुष्य बन गई। लेकिन हम सब भीतर जुड़े हुए है।
--ओशो
जिन सूत्र—2
इक्कीसवां प्रवचन,
ओशो आश्रम, पूना।
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