मोरारजी देसाई जब इस प्यारी दुनियां से चल बसे, तब उन्होंने सोचा की हो-न-हो मुझे तो जरूर ही स्वर्ग में जगह मिलेगी। पर ये स्वर्ग दिल्ली तो नहीं था। न ही वहां दिल्ली की कोई साठ गांठ ही चल सकती थी। पहुंच गये नर्क में। शैतान ने कहा कि आप ऐसे भले आदमी है, खादी पहनते है। और एक कुर्ता भी मोरारजी देसाई दो दिन पहनते है। इसलिए जब वह बैठते है, कुर्सी पर तो पहले कुरते को दोनों तरफ से उठा लेते है। क्या बचत कर रहे है, अरे गरीब देश है, बचत तो करनी ही पड़ेगी। इस तरह एक दफा और लोहा करने की बचत हो जाती है। पहले दोनों पुछल्ला ऊपर उठा कर बैठ गए, ताकि सलवटें न पड़े। सिद्ध पुरूष है, चर्खा हमेशा बगल में दबाए रखते है। चलाएँ या न चलाए। शैतान ने कहा कि और आप काम ऊंचे करते रहे, गजब के काम करते रहे, तो आपको हम एक अवसर देते है कि नरक में तीन खंड है, आप चुन ले। आम तौर से हम चुनने नहीं देते, हम भेजते है। आपको हम सुविधा देते है कि आप चुनाव कर लें।
इससे उनका दिल प्रसन्न भी हुआ कि चलो कम से कम इतनी सुविधा तो मिली। पहला खंड जाकर देखा तो बहुत घबड़ा गए। आग के कढ़ा हों में लोगों को तला जा रहा था, जैसे आदमी न हो पकौड़े हो। बहुत घबरा गए, यह तो कुछ ज्यादा हो गया। कहां की चलो दूसरे खँड़ में देखते है।
दूसरे खंड में देखा, बडी घबराहट हुई कीड़े-मकोड़े आदमियों में छेद कर रहे थे। एक-एक आदमी में हजार-हजार छेद कर डाले थे। आदमी ऐसे लग रहा है जैसे मधुमक्खी का छत्ता हो। छेद ही छेद, कोई कीड़ा इधर से आ रहा है, कोई उधर से जा रहा है, मरते भी नहीं आदमी, छेद पर छेद हुए जा रहे है। और कीड़े यहां से वहां दौड़ रहे है। उन्होंने कहा, यह हालत तो दिल्ली से भी बुरी है। इससे तो दिल्ली में अच्छे थे। तीसरे खंड में ले चलो।
तीसरे खंड में जरा अच्छा लगा। ऐसे तो अच्छा नहीं था, मगर पुराना अभ्यास था इसलिए अच्छा लगा। तीसरे खंड में उन्होंने देखा कि लोग घुटना-घुटना मल-मूत्र में खड़े है। कोई चाय पी रहा है, कोई काफी पी रहा है। यहां तक की कोई फेंटा-कोका कोला पी रहा है। उन्होंने कहा ये जंचेगा। क्योंकि फिफ्टी पर सेंट तो मेरा भी अभ्यास है। मल-मूत्र में मूत्र का तो मेरा भी अभ्यास है। अब खड़े ही होना है तो कोई हर्ज नहीं। परमहंस मेरी वृति पुरानी ही है। और यह अच्छा है कि सिर्फ खड़े ही रहना है। शैतान थोड़ा मुस्कुराया। अब मोरारजी देसाई मे इतनी बुद्धि तो है नहीं कि उसकी मुस्कुराहट का मतलब समझ लेते। खड़े हो गये, फौरन कोक-कोला का आर्डर दे दिया। क्योंकि तरसे जो रहे थे कोको-कोला को। शिवांबु पीते-पीते थक गये थे। और अब यहां कोई देखनेवाला भी नहीं था। कोई गांधी वादी भी नहीं था। कोई चुनाव का भी सवाल नहीं था। कोई मत का भी सवाल नहीं था। अब कौन मौका चूके, पी ही लो कोका-कोला, कोका-कोला आया, और आधा ही पी पाए थे कि एकदम से घंटी बजी और एक आदमी ने आकर खबर दी कि बस, चाय-काफी-कोका कोला ब्रेक खत्म। अब सब अपना शीर्षासन के बल खड़े हो जाओ। सो जल्दी से लोग शीर्षासन के बल खड़े हो गये। तब मोरारजी देसाई को पता चला कि कहां फंसे। मगर फिर भी अभ्यास तो था ही। फिफ्टी परसैंट अभ्यास तो वे नरक का यहीं कर लिए है। रह फिफ्टी परसैंट से वहां कर लेंगे।
लोग अभ्यास कर रहे है, जैसे कि यहां दुःख की कुछ कमी है। अपनी तरफ से दुःख खड़े करते है। यह भी एक मनोवैज्ञानिक उपाय है। क्योंकि जब दुःख तुम पर बाहर से आता है। आकस्मिक आता है। तो तुम्हारे अहंकार को चोट पहुँचती है। लेकिन जब तुम खुद ही खड़ा करते हो तो तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है। यही तो अनशन में और उपवास में भेद है। भूख मरो तो दुःख होता है; उपवास करो तो अहंकार को मजा आता है। काम एक ही है, दोनों में कुछ भेद नहीं है। लेकिन उपवास करने वाला महात्मा हो जाता है। उसकी शोभा यात्रा निकाली जाती हे। उसको फूल मालाएँ चढ़ाई जाती है। भूखे मरते आदमी की तरफ कोई देखता भी नहीं। आँख बचा कर चला जाता है।
--ओशो
आपुई गई हिरास,
प्रवचन—1, ओशो आश्रम
पूना
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