इसलिए मैं तुम्हें न तो सरल ढंग बता सकता हूं। न कठिन; न तो आसान रास्ता बता सकता हूं, न खतरनाक; न तो धीमा, न तेज। मैं तो सिर्फ इतना ही कह सकता हूं: जागों और जागने को ही मैं ध्यान कहता हूं।
आदमी दो ढंग से जी सकता है। एक मूर्च्छित ढंग है, जैसा हम सब जीते है। चले जाते है। यंत्रवत,किए जाते है काम यंत्रवत, मशीन की भांति। थोड़ी सी परत हमारे भीतर जागी है। अधिकांश हमारा अस्तित्व सोया पडा है। और वह जो थोड़ी सी परत जागी। वह भी न मालूम कितनी धूल ध्वांस, कितने विचारों, कितनी कल्पनाओं, कितने सपनों में दबी है।
सबसे पहला काम है; वह जो थोड़ा सी हमारे भीतर जागरण की रेखा है। उसे सपनों से मुक्त करो, उसे विचारों से शून्य करो। उसे साफ करो, निखारों,धोआ,पखारो। और जैसे ही वह शुद्ध होगी वैसे ही तुम्हारे हाथ में कीमिया लग जाएगी। राज लग जाएगा। कुंजी मिल जाएगी। फिर जो तुमने उसे थोड़ी सी पर्त के साथ किया है। वहीं तुम्हें उसके नीचे की पर्त के साथ करना है। फिर से नीचे की पर्त, फिर और नीचे की पर्त....। धीरे-धीरे तुम्हारा अंत जगत पूरा का पूरा आलोक से, आभा से मंडित हो जाएगा। एक ऐसी घड़ी आती है। जब भीतर अलोक होता है। और जहां आलोक हुआ भीतर। अंधकार नहीं पाया जाता है। अंधकार नहीं अंहकार नहीं।
--ओशो
आपुई गई हिराय
प्रवचन—5
ओशो इंटरनेशनल कम्यून पूना
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