तीसरी लेश्या को महावीर ने ‘’कापोत’’ कहा है—कबूतर के कंठ के रंग की। नीला रंग और भी फीका हो गया। आकाशी रंग हो गया। ऐसा व्यक्ति खुद को थोड़ी हानि भी पहुंच जाए, तो भी दूसरे को हानि नहीं पहुँचाता। खुद को थोड़ा नुकसान भी होता हो तो सह लेगा। लेकिन इस कारण दूसरे को नुकसान नहीं पहुँचाएगा। ऐसा व्यक्ति प्रार्थी होने लगेगा। उसके जीवन में दूसरे की चिंतना और दूसरे का ध्यान आना शुरू हो जायेगा।
ध्यान रहे पहली दो लेश्याओं के व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकते। कृष्ण लेश्या वाला तो सिर्फ घृणा कर सकता है। नील लेश्या वाला व्यक्ति सिर्फ स्वार्थ के संबंध बना सकता है। कापोत लेश्या वाला व्यक्ति प्रेम कर सकता है। प्रेम का पहला चरण उठा सकता है; क्योंकि प्रेम का अर्थ ही है कि दूसरा मुझसे ज्यादा मुल्य वान है। जब तक आप ही मूल्य वान है और दूसरा कम मूल्यवान है, तब तक प्रेम नहीं है। तब तक आप शोषण कर रहे है। तब तक दूसरे का उपयोग कर रहे है। तब तक दूसरा एक वस्तु है, व्यक्ति नहीं। जिस दिन दूसरा भी मूल्यवान है, और कभी आपसे भी ज्यादा मूल्यवान है कि वक्त आ जाये तो आप हानि सह लेंगे लेकिन उसे हानि न सहने देंगे। तो आपके जीवन में एक नई दिशा का उद्भव हुआ।
यह तीसरी लेश्या अधर्म की धर्म-लेश्या के बिलकुल करीब है, यही से द्वार खुलेगा। परार्थ प्रेम करूणा की छोटी सी झलक इस लेश्या में प्रवेश होगी। लेकिन बस छोटी सी झलक।
आप दूसरे पर ध्यान देते है, लेकिन यह भी अपने ही लिए। आपकी पत्नी है, अगर कोई हमला कर दे तो आप बचायेंगे उसको—यह कापोत लेश्या हे। आप बचायेंगे उसको—लेकिन आप बचा इसलिए रहे है कि वह आपकी पत्नी हे। किसी और की पत्नी पर हमला कर रहा हो तो आप खड़े देखते रहेगें।
‘मेरे’ का विस्तार हुआ, लेकिन ‘मेरे’ मौजूद है। और अगर आपको यह भी पता चल जाए कि यह पत्नी धोखे बाज है, तो आप हट जायेंगे। आपको पता चल जाये कि इस पत्नी का लगाव किसी और से भी है, तो सारी करूणा, सारा प्रेम, सारी दया खो जायेगी। इस प्रेम में भी एक गहरा स्वार्थ है कि पत्नी के बिना मेरा जीवन कष्ट पूर्ण होगा,पत्नी जरूरी हे, आवश्यक है। उस पर ध्यान गया है, उस को मूल्य दिया है; लेकिन मूल्य मेरे लिए ही है।
कापोत लेश्या अधर्म की पतली से पतली कम-से-कम भारी लेश्या है। लेकिन अधर्म वहां है। हममें से मुश्किल से कुछ लौग ही इस लेश्या तक उठ पाते है। दूसरा मूल्यवान हो जाये। लेकिन इतना भी जो कर पाते है, वह भी काफी बड़ी घटना है। अधर्म के द्वार पर आप आ गये, जहां से दूसरे जगत में प्रवेश हो सकता हे। लेकिन आम तौर से हमारे संबंध इतने भी ऊंचे नहीं होते। नील-लेश्या पर ही होते है। और कुछ के तो प्रेम के संबंध भी कृष्ण लेश्या पर होते है।
ये जो कृष्ण लेश्या है इसमें प्रेम भी जन्म हो तो वह भी हिंसा के ही माध्यम से होगा। ऐसे प्रेमियों की अदालतों में कथायें है, जिन्होंने अपनी प्रेयसी को मार डाल। और बेड़ प्रेम से विवाह किया था। थोड़ी बहुत तो आप में भी, सब में यह वृति होती है—दबाने की, नाखून चुभाने की। वात्सायन ने अपने काम-सूत्रों में इसको भी प्रेम का हिस्सा कहा है; दाँत से काटो, इसको उसने जो प्रेम की जो प्रक्रिया बताई है; कैसे प्रेम करें। उसने दाँत से काटना भी कहा है, नाखुन चुभाओं, शरीर पर निशान छूट जायें—इनको लव माक्र्स, प्रेम के चिन्ह कहा है।
छोटे बच्चे में भी जग जाता है, कोई बड़ों में ही जगता है, ऐसा नहीं। छोटा बच्चा भी कीड़ा दिख जाये, फौरन मसल देगा,उसको पैर से। तितली दिख जाए—पंख तोड़कर देखेगा। क्या हो रहा है। मेंढक को पत्थर मार मर कर देखेगा। क्या हो रहा है। कुत्ते को मारेगा,उसे सतायेगा। ये आप प्रवर्ती बच्चे में बचपन से ही देख सकते है।
छोटा बच्चा भी आपका ही छोटा रूप है...बड़ा हो रहा है। आप कुत्ते की पूछ में डिब्बा नहीं बाँधते, आप आदमियों की पूछ में डिब्बा बाँधते है—रस लेते है, फिर क्या है, कुछ लोग उस को राजनीति कहते है। कुछ लोग उसको व्यवसाय कहते है, कुछ लोग जीवन के प्रतिस्पर्धा कहते है; लेकिन दूसरे को सतानें में बड़ा रस आता है। जब दूसरे को बिलकुल चारों खाने चित कर देते है तब आपको बड़ी प्रसन्नता होती है। जीवन में कोई परम गुहा की उपलब्धि हो गई।
नील लेश्या वाला व्यक्ति आमतौर से, जिसको हम विवाह कहते है वह नील लेश्या वाले व्यक्ति का लक्षण है—दूसरे से कोई मतलब नहीं है, प्रेम की कोई घटना नहीं है। इसलिए भारतीयों ने अगर विवाह पर इतना जोर दिया और प्रेम विवाह पर बिलकुल जोर नहीं दिया तो उसका बड़ा कारण यही ह। कि सौ में से निन्यानवे लोग नील लेश्या में जीते है। प्रेम उनके जीवन में है ही नहीं,इसलिए प्रेम को कोई जगह देने का कारण नहीं। उनको जीवन में केवल एक स्त्री चाहिए। जिसका वे उपयोग कर सकें—एक उपकरण की तरह।
कापोत....आकाश के रंग की जो लेश्या है, उसमें प्रेम की पहली किरण उतरती है। इसलिए अधर्म के जगत में प्रेम सबसे ऊंची घटना है। ज्यादा से ज्यादा धर्म की घटना। और अगर आपके जीवन में प्रेम मूल्यवान है, तो उसका अर्थ है कि दूसरा व्यक्ति मूल्यवान हुआ। यद्यपि यह भी अभी आपके लिए ही है। इतना मूल्यवान नहीं है कि आप कह सकें कि मेरा न हो तो भी मूल्यवान है। अगर मेरी पत्नी किसी और के भी प्रेम में पड़ जाये तो भी मैं खुश होऊंगा—खुश होऊंगा,क्योंकि वह खुश है। वह इतनी मूल्यवान नहीं है; उसके व्यिक्तत्व का कोई मूल्य नहीं है। कि मेरे सुख के अलावा किसी और का सुख उससे निर्मित होता हो, तो भी मैं सुखी रहूँ।
फिर तीन लेश्याएं है: तेज, पद्म और शुक्ल, तेज का अर्थ हे। अग्नि की तरह सुर्ख लाल। जैसे ही व्यक्ति तेज लेश्या में प्रवेश करता है, वैसे ही प्रेम गहन प्रगाढ़ हो जाता है। अब यह प्रेम दूसरे व्यक्ति का उपयोग करने के लिए नहीं है। अब यह प्रेम लेना नहीं है। अब यह प्रेम देना है, यह सिर्फ दान है। और इस व्यक्ति का जीवन प्रेम के इर्द-गिर्द निर्मित होता है।
ओशो
महावीर वाणी भाग:2,
प्रवचन—चौदहवां, दिनांक 29 अगस्त,1973,
पाटकर हाल, बम्बई
बहुत अच्छी जानकारी मिली।
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