ओशो
ने अपने धर्म
को संप्रदाय की
लकीर से बचाने
की हर संभव कोशिश
की। ताकि कोई
लकीर का फकीर
न बन सके।
प्रत्येक व्यक्ति
अनूठा है। और
उसे चलना भी
अपने ही स्थान
से है। फिर वह
नकल क्या
करे। केवल
मार्ग को समझ,
अपनी स्थिति
को समझें और
चल पड़े। ओशो
पूरी उम्र हम
लोगों को
जगाते रहे और
बताता रहे कि
हम कहां पर
खड़े और किसी
और जाना।
प्रत्येक
प्रवचन यही
कहता है। परन्तु
मनुष्य चाल
बाज है। उसका
मन और भी चतुर
चालाक हो गया।
वह कहीं न कही
उसमे से छेद
निकाल ही लेता
है। और तो और
देखिये कितनी,
बेबूझी पहली
है। पूरी उम्र
आडम्बर और
गुरु डोम से
बचाने और शास्त्र
के पीछे नहीं
भागने के लिए
ओशो प्रयास
करते रहे
लेकिन कुछ
उनके ही
परिवार के लोग
दुनियां को
ब्रह्म ज्ञान
दे रहे है।
खुद ओशो भी जो
नहीं जानते
थे। ये वो भी
लोगों को बता
रहे है। कितनी
बड़ी विडम्बना
है।
मनुष्य ने न जागने का संकल्प कर लिया है। चाहे हजारों-हजार गुरु आयें हम करवट ले कर सो जायेगे। आपने देखा जब आप एक बार जाग जाये सुबह, और फिर सो जाये तब कितनी गहरी नींद आती है। यही हाल हो गया है। ओशो के संन्यासियों का। आत्म ज्ञान, गुरु, पैसा, नाम, दिखावा सब चारों और आप देखेंगे भिन्न-भिन्न प्रकार के महापुरुष मिलेंगे। जिनमे एक बात सभी में कॉमन होगी। ‘’पैसा’’।
मैं चाहता हूं, ओशो आश्रम चलाने वाले अपने अंदर झांके और गुरु ने जो दिशा निर्देश दिये है उन पर अमल करे। ताकि गुरु की कार्य शैली जिंदा रह सके। आज वो अपने ही अंहकार के चक्रव्यूह में फँसते चले जा रहे है। और-और अहंकारी होते जा रहे है। ओशो ने पूर्व और पश्चिम का मधुर मिलन किया था। कितना स्वर्णिम यूग था। मैंने एक बार एक सन्यासी से पूछ लिया था कि तुम किस देश के हो। उसने मेरे मुंह की और देखा और कहां कि आप क्या बात करते है, कैसा देश और कैसा धर्म। हमारा न कोई देश है और न कोई धर्म हम केवल संन्यासी है। कितना मधुर लगा था उस सन्यासी का कहना। न कोई यूरोप का है और कोई पूर्व का सब सन्यासी है। और सब को मिल कर ओशो का कार्य उसी तरह से करना चाहिए। जिस तरह से गुरु ने हमे निर्देश दिया है। इसमे न कोई छोटा है और न बड़ा। पूरा जीवन ओशो का समर्पित करने वाले उन अनमोल संन्यासियों को इस तरह की बातें आज संध्या के समय अच्छी नहीं लगती। आज तो उन्होंने उस उँचाई को छू लिया है। छोड़े अपने अहं को। और आश्रम को सुचारु रूप से चलाये। वरना ये सब खत्म हो जायेगा। झांके सब अपने अंतस में और सुने गुरु की पूकार....प्रणाम
मनुष्य ने न जागने का संकल्प कर लिया है। चाहे हजारों-हजार गुरु आयें हम करवट ले कर सो जायेगे। आपने देखा जब आप एक बार जाग जाये सुबह, और फिर सो जाये तब कितनी गहरी नींद आती है। यही हाल हो गया है। ओशो के संन्यासियों का। आत्म ज्ञान, गुरु, पैसा, नाम, दिखावा सब चारों और आप देखेंगे भिन्न-भिन्न प्रकार के महापुरुष मिलेंगे। जिनमे एक बात सभी में कॉमन होगी। ‘’पैसा’’।
ओशो
जी के जमाने
में जब ‘’ओशो
टाईम्स’’
पत्रिका का
लागत मुल्य
भी नहीं आता
था। तब भी ओशो
उसका मुल्य
बढ़ाने के
पक्ष में नहीं
थे। कहते थे सामर्थ्यवान
संन्यासियों
के पास जाकर
विज्ञान लो।
ताकि यह आम
आदमी की पहूंच
में बनी रहे।
ओशो साहित्य
लागत मुल्य
पर बेचा जाता
था। 1999 तब जिस
पतंजलि के योग
सूत्र को में 100/-
रू में खरीद
कर लाया था आज
उसी संस्करण
का मुल्य 450/- किया
हुआ है। कौन
सुनता है।
गुरु की बात।
इन यूरोप के
लोगों की भी
कुछ खासियत
है। ये ईमानदार
होते है,
मेहनती होते
है, परन्तु
ये अहंकारी
बहुत होते है।
और इन में
श्रद्धा नहीं
होती। ध्यान
के बाद बुद्धा
हाल में, मैं
अकसर झुक कर
माथा जमीन पर
टेक कर, यहीं
भाव करता था
जो मुझे मिला
है। वह
सर्व-सब में
बंट जाये।
इससे आज्ञा
चक्र जब मार्बल
के फर्श को छूता
है। ध्यान
में जगी उतप्त
उर्जा सोख ली
जाती है। और
आपका सर कभी
भारी नहीं
होता। एक पाने
का अंहकार भी
जाता है।
क्योंकि
कंजुसियत
इंसान का पहला
द्वार है।
मेरे देखे वह
केवल 2 से 10 प्रतिशत
लोगों का ही
खुल पाता है। बाकी
केवल उस जाल
में फंसे ही
रहते है। इस
लिए प्रत्येक
धर्म में आपने
देखा दान का
विशेष महत्व
है। तब एक
यूरोपियन
मेरे पास आया
और उसने सोचा
में ओशो जी फोटो
के सामने माथा
टेक कर कुछ
मांग रहा हूं।
सोच अपनी-अपनी।
उसने कहां: ‘’देखो,
आप जो करते है
वह ठीक नहीं
है। एक तो यह
फर्श हाई जिनिक
नहीं है।, और आपको
ऐसी मूढता
नहीं करनी
चाहिए जिस से
लोगों के मन
में ठेस लगे।‘’
मैं अभी गहरे
ध्यान से
बहार भी नहीं
आया था, बोलने
का मन भी नहीं
करता, कुछ समय
तक। कुछ भी
मेरी समझ में
नहीं आ रहा
था। कि ये क्या
बात हुई।
लेकिन फिर वह चुप
हुआ ही नहीं
तब मैंने उससे
पूछा, आप जो
लड़का-लड़की मुहँ
के मुहँ लगाते
हो वह हाईजिनिक
कर के लगाता
हो। जो बात
तुम्हारी
समझ में न आये,
वह मत करो....।
एक
बार एक संन्यासी
की दोनों
टांगे खराब
थी। बुद्ध हाल
की चढ़ाई
चढ़ने में उसे
काफी दिक्कत
हो रही थी।
मैं पास से
गुजर रहा था।
मैंने मदद के
लिए हाथ बढ़ा,
मानों उसको
कोई करंट लगा।
‘’नौ थैंक्स’’
हमारे यहां तो
अभद्रता मानी
जायेगी, किसी
बुजुर्ग,
असहाय की मदद
न करना। और
मदद के बाद भी कितनी
ही आशिष मिलेंगे
आपको।
ओशो
ने किसी के
लिए कोई बंधन
नहीं। सब धर्म
ग्रंथ जाला
डाले, सब दकियानूसी
विचार समुद्र
में फेंक
दिये। वह
चाहते थे एक
नया मनुष्य
बने। जिस के
पीछ कोई लेबल
ने हो। वह
कोरा है। सब
लिखा उन्होंने
साफ कर दिया।
आप सन्यास ले
कर घर ग्रहस्थी
में रहो,
काम-धंधा करो।
कुछ भी मत छोड़ो,
कोई नैतिकता
नहीं, कोई
नियम नहीं। बस
वह देना चाहते
थे एक समझ, जो
मिलती है ध्यान
से। लेकिन हम
भी कितने
मुर्ख है,
हमने वो सब
किया, जो नहीं
करते तो भी
चलता और नहीं
किया तो ‘’ध्यान’’। ओशो ने
कहां था। ‘’मैं
तुम्हारे 99
जहर पी लुंगा।
तुम मेरा एक
जहर पी लो ‘’ध्यान’’।
अगर उसमे ताकत
होगी तो वह
तुम्हें नया
मनुष्य बना
देगा। तुम्हें
न छोड़ना है, न
थोपना है...सब
ऐसे झड़
जायेगा जैस
सूखा पत्ता
वृक्ष से
खूद-ब खूद गिर
जाता है।‘’
ध्यान
से आदमी का
चरित्र
निर्मित होता
है, संस्कार
आते है,
हजारों बंधन
खुद खुल जाते,
आदमी मुक्त
आकाश में जीता
है, कोई दिखाव
नहीं करता।
प्रेम और आनंद
उसके आस पास
झरता है। और
शांति जिस के
लिए लोग मारे
फिर रह है। एक
दासी की तरह
उसके पीछे-पीछे
चली आती है।
ओशो
से जुड़ने के
बाद जीवन में
इतनी मधुरता
मिली है कि
कुछ खट्टी-नमकीन
बातें तो न
जाने कहां दब
कर रह गई। ये
लेख में किसी
से कोई शिकायत
के लिए नहीं
लिख रहा हूं,
मुझे किसी से
कोई सिकवा
गिला नहीं है।
जिसने जो करना
है वह करेगा।
कौन सुनता है
किसी की सब
आदमी आपने को
महान और समझ
दार समझते है।
परंतु एक भाव
है, जो स्वणिम
यूग मैंने
देखा, जो
मधुरता उपवन
की मैने जानी वह
खो न जाये। इस
लिए केवल उसे
अंकित कर रहा हूं
ताकि आने वाली
पीढ़ी उस सब
से वंचित न रह
जाये। जो
पवित्र गंगा
वहां बहती थी।
जो कल मैंने
देखा और जाना
था और जो आज है
उनका तुलनात्मक
विवेचन कर रहा
हूं। कृपा इस
को कोई अपना
अपमान न समझे।
पहले
और आज
पहले--- 1
संन्यास
ओशो जी के
जमाने से ही
प्रत्येक
शनि वार के
दिन दिया
जाता रहा है। वह
भी ठीक रात के
9-30 मिनट पर। क्योंकि
ओशो ने वचन
दिया था। कि
इस समय मेरी
उपस्थिति
आप महसूस
करेंगे। और
महीने
के आखरी
इतवार के दिन,
तीन दिन के
शिविर के बाद
दिन में 12 बजे,
जो आज भी संन्यास
शिवरों में
लागू होता
है।
पहले—2
संन्यास
देने के लिए
किसी
चुनिंदा सन्यासी
को ही अधिकार
होता था। जो
गहरा ध्यानी
हो। और मां
शुन्य उन
गहरे ध्यानियों
में एक थी।
जिसे ओशो ने
संन्यास
देने के लिए
चूना था। ओशो
के शरीर छोड़ने
के बाद दस साल
तक फिर वह क्या
संन्यास
देने का
दिखावा करती
रही। अगर
साहस था तो पहले
ही दूर हट
जाती।
पहले—3
सन्यासी
का नाम किसी
विशेष
प्रक्रियाँ
से निकाला
जाता था।
उसके ध्यान
के अनुभव या
विचार उसमे
सहयोगी होते
थे। जो ओशो का
सुझाया हुआ
ही मार्ग था।
जब मुझ नाम
दिया गया
‘’आनंद प्रसाद’’
तब ये नाम
मेरी समझ से
बहार था। क्यों
मैं निर्वाण
या बोधि सत्व
नाम चाहता
था। ताकि कि
कुछ भारी
भरकम लगे। परंतु
आज उस नाम का
महत्व खूद
बे खुद मुझे
महसूस हो
रहा
है....कि मेरा
मार्ग क्या
है....ओर नाम
उसमे कितना सार्थक
होता है।
पहले—4
भारतीय
लोग खाने को
प्रसाद
समझते है, और
इसे धर्म के
साथ शरीर के
लिए बहुत
जरूरी समझते
है। ओशो जी
जानते थे कि
भारतीय गरीब
है। इस लिए उनके
जमाने में एक
तंदूर लगा
होता था। जिस
कि रोटी, एक
रूपये, और घी
लगी दो रूपये
होती थी। और
पाँच रूपये
में दाल, सब्जी,
दही, यानी
सलाद फ्री
होता था।
यानि एक सन्यासी
10 रू में पेट भर
सकता है। और
चाहे तो कम
पैसे में 10-20
आश्रम में रह
सकता था।
पहले— 5
हम
जब 1994 में आश्रम
में गये तो
वहां पर
प्रवेश शुल्क
मात्र 20 रूपये
था। विदेशियों
के लिए 80 रूपये
होता था। हमे
वह भी बहुत
अधिक लगाता
था। कि
बेचारे को
कितना पैसा
देना होता
है।
पहले—6
पहले
भारतीयों के
लिए
स्विमिंग
पूल आदि बंद
होता था।
मेरी कमर में
दर्द था।
सोचा क्यों
न एक दो घंटा
ध्यान के
आलावा समय
रहते तैर
लिया जाये।
लेकिन मेरा
एक घंटे तक
अनेक संन्यासी
साक्षात्कार
लेते है, इनकी
हेड़ होती थी
मां धर्म ज्योति।
उन्हें मुझ
से कहां आप
तैरना क्यों
चाहते है। आप
ध्यान करो।
मैने कहां क्यों
तैरना कुछ
गलत है।
हजारों
यूरोप के लोग
तैर रहे आप
उन्हें तो
नहीं कहती
फिर
भारतीयों के
लिए तैरना
गलत क्या
है। घंटो बहस
करने के बाद
मुझे तीन दिन
कि मंजूरी
मिली। वह भी
इस हिदायत पर
की कोई
शिकायत आई तो
ठीक नहीं
होगा। मानों हम
यहां हजारों
मिल से चल
लड़कियों को
छेड़ने के
परपज़ से
यहां आ रहे
है। आज ये लोग
महान गुरु है,
और आने वाली
पीढ़ी के लिए
मार्ग
र्निधारित
कर रहे है।
उस
समय एक दिन की
फीस थी मात्र 20
रूपये।
पहले—7
उस
समय ओशो की
समाधि पर
जाने के लिए
प्रत्येक
घंटे का 35
रूपये देना
होता था। जो
प्रवेश शुल्क
के अलावा
होता था। वह 20
रूपये के
सामने काफी
अधिक था। फिर
अगर आप दो या
तीन बार जाना
चाहे तो वह और
अधिक बढ़
जाता था। हम
लोग परिवार
के साथ जाते
थे। पाँच
सदस्यों के
लिए हर रोज
ओशो की समाधि
करना अधिक
महंगा था।
पहले—8
महिला
और पुरूषों
का बाथरुम
पहले एक ही
होता था। क्या
चमत्कार भरा
आश्रम था दुनियां
में हमारा।
किसी को किसी
के शरीर में
कोई रस नहीं न
ही कोई पुरूष
था न स्त्री।
न कोई जवान न बूढ़ा।
सब इस शरीर की
पकड़ से दूर
होते जा रहे
थे। जब मैंने
पहली बार ये
नजारा देखा
तो मेरी आंखे
भर आई। कितने
गहरे है
हमारे गुरू
और उनको समर्पित
उनके वे शिष्य।
वे इस लोक के
इंसान नहीं
लगते थे। तुम
धन्य हो सतगुरु।
न तुझ से साहसी
गुरु पहले
हुआ था और न
होने की संभावना
है।
पहले—9
रोज
श्याम सात
बजे संध्या सत्संग
में ओशो जी
उपस्थित
होते थे।
उनके शरीर
छोड़ने के कई
साल बाद तक...उनकी
खाली कुर्सी
आती उनकी चप्पल
आती थी।
कितनी
बेसब्री से
ओशो की उर्जा
के आने का सब
इंतजार
करते। क्योंकि
ओशो ने शरीर
छोड़ने से
पहले हम संन्यासियों
को वादा किया
था कि जब आप
मुझे तीन बार
ओशो-ओशो-ओशो
कह कर
पूकारोगे तो
मेरी उपस्थित
महसूस
करोगे।
पहले—10
जिस
जगह पर बैठ कर
ओशो ने सालों
अपनी ऊर्जा
और ध्यान हम
पर लुटाया और
जिस जगह से वह
अपनी अंतिम विदाई
कर के हम लोगो
शरीर रूप
हमेशा के लिए बिछुड़
गये। जो जगह
हजारों संन्यासियों
के लिए ध्यान
का मंदिर थी।
जहां संन्यासी,
भव में आकर
गद्द-गद्द हो
अपने को
अकेला महसूस
नहीं करते
थे। जहां पर
छिकना, बोलना,
खाना तक मना
था। आज वह जगह वीरान
कर दी गई। जिस
पवित्र जगह
से ओशो जी ने
अपने अंतिम
दर्शन दिये,
वहां पर आज
लोगे जूते
पहन कर घूमते
है। आसमान को
छूते बांस और
वृक्ष, कलरव
करते हजारों
पक्षी आज मूक
है। वह जगह
कभी बुद्धों
का उपवन लगती
थी आज बहुत
वीरान और
रूखी हो गई
है। क्या
परम्परा के
नाम पर ये दकियानूसी
पन नहीं है।
कि उस गंगा को
सुखा दिया
जाये ताकी
आने समय में,
उस के आस पास
घट न बन जाये,
उसकी पूजा न
की जा सके। जो
है नहीं जो
शायद हो भी
नहीं। उस के
लिए आज का
बलिदान ठीक
नहीं है। ये
कही हमारा
अंहकार ही
बोल रहा
है...
इस
बारे में
सदगुरू सब
जानते थे।
नहीं तो अपने
जीते जी, अपनी
समाधि क्यों
बना कर जाते।
आज जहां ओशो
की समाधि बनी
है। उस का डिजाइन
खुद ओशो ने तैयार
किया है।
इटली से
सुंदर
मार्बल मँगवाया
गया। और जब वह
समाधि तैयार
हो गई तब एक
रात ओशो जी उस
समाधि में
सोये थे।
जहां ओज ओशो
जी की भस्म
रखी है। असल
में वो सीसे
का खुबसूरत
ओशो जी का पलंग
है। उस जगह को
ओशो जी अपने
सामने ही
जीवत कर के
चले गये। और सालों
पहले वहीं पर
उर्जा दर्शन
होता था। इस
लिए वह फर्श
ओशो जी ऊर्जा
से लबरेज था।
इस लिए ओशो
ने
आनंद स्वभाव
जी कहां था इस फर्श
के टुकडे
मेरे संन्यासियों
में बाद देना,
ये मेरी
ऊर्जा से
लबालब भरे, है
वे इसे अपने
ध्यान के स्थान
पर रख लेंगे।
तब
ये बात परम्परा
नहीं रह कर, ध्यान
में सहयोगी
हो गई। एक
चित्र आप को
त्राटक ध्यान
में गहरा भी
ले जा सकता
है। और आप उस
पर हार पहना
कर पूजा भी कर
सकते हो। ये
सब हम पर
निर्भर करता
है। आप को ये
जान कर आश्चर्य
होगा की जो
चित्र ओशो की
समाधि पर लगा
है। उस चित्र
के बहुत
से पोज लिए
गये थे। उन
में से खुद
ओशो ने इसे
चूना था।
कितनी
शर्म की बात
है, जो गुरु
रोज दो घंटे
फोटो सैशन के
लिए देता था
आज उनके फोटो
बुद्धा हाल
से या ओशो
पत्रिका से
हटा दिये
जायेंगे इस
की कभी ओशो जी
ने कल्पना
भी नहीं की
थी।
पहले—11
आश्रम
के सारे काम
संन्यासी
ही करते थे।
वह अपनी
उर्जा आश्रम
को देते थे
आश्रम बदले में
उन्हें फूड
पास( आश्रम की
करसी) देता था
जिस सन्यासी
खान-पुस्तक
या कुछ भी
आश्रम से
खरीद सकता
था। इससे
आश्रम को काम
की उर्जा तो
मिलती थी
बदले में
आश्रम से
बहार कुछ भी
नहीं जाता
था। क्योंकि
वहां पैसा का
कोई लेने देन
नहीं था। इसके
अलावा आश्रम
की उर्जा भी विक्रीत
नहीं होती थी,
वहां चारों
और कार्य ध्यान
करने वाले ही
लोग विचरते
थे।
पहले—12
पहले प्रत्येक
सन्यासी
आश्रम में
रहकर कार्य
ध्यान का
आनंद ले सकता
था। उसे 6 घंटे
कार्य करना होता
था, बदले में
आश्रम उसे 5 से 10
हजार के फूड
पास देता था।
जिससे सन्यासी
अपनी जरूरत
की वस्तुएँ
आश्रम से
खरीद सकता
था। क्योंकि
फूड पास
आश्रम के
बाहर नहीं
चलता था। वह
केवल आश्रम
की करसी थी।
पहले—13
एक
बात के बारे
में इन यूरोप
के लोगो की
दाद देनी
होगी। ये जिस
कार्य को ठान
लेते है उस
नियम और ईमानदारी
से करते है।
आज चाल साल से
जो ध्यान
सुबह छ: बजे
होता था, और
जिस तरह सक
होता था। आज
भी ठीक वहीं का
वहीं। कुछ भी
नहीं बदला।
ये देख कर
बड़ी खुशी
होती है। सब
कार्य एक दम
से सुचारु
रूप से चल रहा
है।
पहले—14
ओशो
परिवार या
कुछ मित्र
लोगों को
आश्रम की और
से पास
वितरित किये
जाते थे।
ताकि पैसे की
कमी की वजह से
कोई ध्यान
से वंचित न रह
जाये। और ओशो
परिवार जो
अपना सब कुछ
छोड़ चूका है,
मां शशी, स्वामी
अमीत, स्वामी
निखिलंक, मां
सोहन पूना
में बस गये
है। उन्हें
भी आश्रम में
जाने के लिए
रोज 475 रूपये
देने होते
है.......जो इस
उम्र में
बहुत कठिन
है।
पहले—15
ध्यान
एक प्रकार की
आजादी है।
प्रत्येक
व्यक्ति
को छूट है, वह
बाल रख सकता
है दाढ़ी रख
सकता है। ये
उसकी अपनी
मोज थी। उसे
ध्यान में
जैसे सुविधा
जनक लगता वह करता
था। कोई उसे
कुछ नहीं
कहता था। क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति
की अपनी
जरूरत है।
आश्रम
के एक कोने
में स्मोकिंग
टेम्पल था।
बार था। ये
उसकी जरूरत
थी। परंतु वह
किसी को बाधा
नहीं पहुंचाते
थे।
|
आज--1
ये
सिलसिला 2000 तक
चला, फिर
अचानक शुन्य
जी के आश्रम
सम्हालना
और उसके के
बाद खत्म हो
गया वह संन्यास
का समय। जिसे
बदल
शुक्रवार कर
दिया। शायद ईसाई
धर्म की छाप
कहीं गहरे से
निकली न हो।
आज—2
सन्यास
आश्रम में
संन्यास
उत्सव में
काई संन्यास
नहीं देता।
जिसने संन्यास
लेना होता है
वह खुद आकर एक
खाली गद्दी
पर बैठ जाता
है। न किसी ध्यानी
की छूआन, न
प्रेम, न
संग...अंनत
गहराईयों में
उसने जाना
है। कोई साहसी
हाथ पकड़ कर
कुछ कदम चल
पड़े तो
कितना साहस
बढ़ता है।
फिर तो जीवन
भर अकेले ही
जाना है। कुछ
तो मार्ग दूर
संन्यासियों
का काफिला
संग चले। पर
नहीं .....केवल एक
शोर और तमाशा
बन कर रहे गया
है सन्यास।
आज—3
आप
कोई भी नाम
चुन सकते है,
भला सोया हुआ
आदमी कहां
चून सकता है।
अपना भविष्य।
जो नाम मैं छुपा
हो और उसे
बहाये लिये
जाये। जैसे
विधाता की
मर्जी......
आज—4
खाना
एक अति महत्व
पूर्ण है,
हमारे शरीर
और मन के लिए।
लेकिन यूरोप
के लोग तो इसे
व्यवसाय की
तरह देखते
है। क्योंकि
उन्होंने
जीवन भर इस
बजार से खरीद
कर खाया है। ओशो जी
इस बात को
जानते थे।
परंतु ये यूरोप
के लोग चाहते
थे कि मांस
हार भी परोसा
जाये। उन के
कहने से
आश्रम में
अंडा तो आज भी
परोसा जाता
है, शराब, नाच,
जो यूरोप कर कल्चर
है, सब हो रहा
है। रात 9 बजे
के बाद आश्रम
एक क्लब में तबदील
हो जाता है।
और ध्यान
करने वाले जो
दिन में बहुत
कम रह गये है।
रात के समय
रंग बिरंगे
कपड़ों में झुंड
के झुंड न
जाने रात के राज
रानी कहां से
आ जाते है। ये
मैं देख कर
अचरज करता
हूं।
आज
आप 35 रूपये में
चाय, 45 रूपये
में छोटी
पलेट चावल
यानि एक बार
आश्रम में आप
खाये तो 300 से 500
रूपये में भी
आपका पेट
नहीं भर
सकता।
भारतीय
तंदूरी की
बनी रोटी बंद
कर दी गई। क्योंकि
यूरोप के
लोगों को वह
हाईजिनिक
नहीं लगती
थी। यहाँ 97
प्रतिशत लोग
बिना साफ
किया पानी
पीते रहते
है। ही नहीं
जीते भी रहते
है।
आज—5
आज
वो बढ़ कर भारतीयों
के लिए 475 हो गया
है। और
विदेशियों
के लिए 900 रूपये।
ये केवल अंदर
जाने का
प्रवेश शुल्क
है। भला आदमी
कैसे ध्यान
कर सकता है।
आज—6
मां
शुन्य के
आने के बाद ये
गुलामी का
फंदा कट गया।
आज हम आपने आप
को हीन नहीं
समझते।
हमारे पास
पैसा है। हम
जहां चाहे जा
सकते है। जो
चाहे थेरेपी
करा सकते है।
भारतीय
मानसिकता
में और यूरोप
की मानसिकता
में यही भेद
है। आज की फीस
है 175 रूपये।
आज—7
आज
मां शुन्य
ने उसे
निशुल्क कर
दिया है, एक
बार आप ने
प्रवेश शुल्क
दे
दिया फिर
आपको कोई फीस
नहीं देनी होती
थी। 2007 तक तो आप
स्विमिंग,
सोना बाथ, झिकूजि,
टेनिस बैडमिंटन,
जिम कुछ भी कर
सकते थे। आप
अपना कार्ड
जमा कर, टेनिस रॉकेट
के साथ जितनी
चाहे टेनिस
बाल भी फ्री
ले सकते थे। परन्तु
आज उसकी अगल
से फीस देनी
होती है।
लेकिन पहले
से तो बेहतर
है। आज वहां
एक हफ्ते के
लिए गये। तो
पूरा आनंद ले
सकते है।
बंधन
तो टूटा।
आज—8
ध्यान
ही मनुष्य को जीने
की कला दे
सकता है।
वहीं तोड़ सकता
है, परंपरा की बेड़ियां,
दिखाव, समय ने
वो सब छिन
लिया जो ओशो
ने सालों मेहनत
करके अर्जित
किया था। आज
लोग शरीर के
तल पर जीने लगे,
ध्यान इधर
उधर अपने
घोंसलों में
उड़ गये, खली
पड़े आश्रम
में जामा लिया
संसारी आदमियों
अपना डेरा।
जो जीवन से
भयभीत है। खो
गया आश्रम स्वर्णिम
यूग। अब तो
महिला पुरूष
के लाकर तक
अलग हो गये
है। इंतजार
है, कब हम अलग-अलग
बैठ कर ध्यान
करे.....
आज—9
आज
कोई उस जगह को
साफ करता,
आपने होश भरे हाथों
से, छूकर पोचा
लगा कर, गुरु
को निमन्त्रण
देता, न
कुर्सी आती, न
चप्पल, डर ये
है की कहीं हम भेड़
न बज जाये।
फिर उस
परंपरा को दस
साल तक क्या
ढोया गया। जब
उसमे कोई उत्सव
या आनंद नहीं
था। ओशो के
शरीर छोड़ने
के बाद से ही
उसे खत्म कर
देते.....चलो जब
जागे तभी
सवेरा,
आज—10
बौद्ध
भिक्षु आज भी 2500
सौ साल बद
भगवान बुद्ध अस्थियां
को कितने प्यार
से संभाले
हुए है। कश्मीर
में आज भी
किसी मस्जिद
में मोहम्मद
साहब का एक
बाल है। वो बौद्ध
वृक्ष जिसे हिंदुओं
न जला दिया था
भगवान बुद्ध
के शरीर
छोडने के बाद।
उसे जीवित
रखा गया, राज
अशोक के
द्वारा अपनी
लड़की संध
मित्रा के
द्वारा उसकी
एक कलम श्री
लंका भेज कर।
क्या अशोक
जानते थे। कि
बाद में ये सब
होने वाला है।
अभी जब श्री
लंका के राष्ट्रपति
श्री भंडार नायिके
1965 में भारत आये
तो भारत के
प्रधान
मंत्रि श्री लाल
बहादूर शस्त्री
को उसी बोधि
वृक्ष की कलम
दी जिसे उन्होंने
दिल्ली के
बुद्धा
जयंती उपवन
में रोपा गया
जो आज भी ध्यान
करने वालों
को ध्यान की
गहराई में ले
जाता है।
लेकिन आश्रम
ने ओशो की
किसी भी याद सामन
का न जाने क्या
किया।
हजारों चोगे, घड़िया।
चप्पलें, न
जाने आज कहा
है। जो ओशो की
ऊर्जा से सरा
बोर है। उस मौलश्री
के वृक्ष की
भी कोई परवाह
नहीं की। जिस
के तले ओशो को
प्रकाश हुआ
था। भला हो जबलपुर
के ओशो
प्रेमियों
और उस भँवर
ताल के रख
रखाव वालों
का जिन्होंने
मृत प्राय उस
वृक्ष को बचा
लिया, उसके चारों
और पानी भर कद
तारों की रेलिंग
लगा दी। ताकि
उस बोधि
वृक्ष को अनायास
ही कोई
नुकसान न पहुँचे।
परंतु
आश्रम अपनी
मस्त नींद
में सो रहा
है। मेरे मन
कितनी बार
भाव आता है।
ओशो की उन
यादगार वस्तुओं
का एक संग्रहालय
बना दिया
जाये जिससे
आश्रम को भी
कुछ आमदनी हो
जायेगी। जो
बेचार आज
गरीबी के रसा
तल पहूंच
गया...ओर ओशो प्रेमियों
को ओशो की वस्तुओं
के दर्शन हो
जायेगे।
वरना तो न
जाने बाद में
आने वाली
पढ़ी उसका क्या
करेगी। कहीं
होंगे या
नहीं। कितना बेहूदा
बात है, जिन
यूरोप के
लोगों ने ओशो
जी के प्रवचनों
को विडियो
में
रिर्काडिंग
किया, जिन के
हजारों आने
वाली पीढ़ियाँ
गुण नहीं बिसरेगी।
शायद ओशो दुनियां
के पहले सतगुरु
है। जो जीवित
छवि में केद
किये गये। और
आज वहीं
यूरोप के लोग
उनके अमर वस्तुओं
क्यों छुपा
कर रखे है।
आज—11
कुछ
कामों को
छोड़ कर बाकी
के सभी कार्य
बाहर से
नौकरी पर रखे
लोग कार्य
करते है। एक
तो उनके
कार्य में
होश नहीं
होता। उनके
आस पास की तरंगें,
बोझल होती
है। और दूसरा
आपका सामन भी
अब सुरक्षित
नहीं है। आप
कुछ रख कर
भूले कि
सामान गायब।
और उसके
अलावा आश्रम
का लाखों रूपये
रोज बारह चले
जाते है। जो
कभी लोट कर नहीं
आते।
आज—12
सन्यासी
को कार्य ध्यान
के बदले में
फूड पास
मिलता था। और
आज कार्य ध्यान
करने के लिए
आपको 20-25 हजार
रूपये महीना
देना होता
है। भला
नवयुवक सन्यासी
जो आश्रम में
रहकर कार्य
ध्यान का
अनुभव इतने
पैसे जुटा कर
कहां से ले
सकता है, बदले
में उसे अभी खाना
भी अपने ही
पैसे से खाना
होता है, यानि
कम से कम 10 हजार
और चाहिए। इस
लिए कार्य ध्यान
करने वाले
रोज कम से कम
होत जा रहे
है। ओशो ने जो
व्यवस्था
पहले चलाई उस
समय आश्रम को
कभी पैसे की
कमी महसूस
नहीं हुई। जब
की अब उसे
अपनी कार्य
प्रणाली के
बारे में
सोचना होगा।
कोन मानता है
सदगुरू की
बात।
आज—13
मैं
कितने ही
आश्रम में
घूमा हूं, सब
ने अपने ध्यानों
को अपने-अपने
मन बुद्धि के
अनुरूप बदल
दिया है। क्योंकि
वह भी तो एक
गुरु का
आश्रम है। वह
कोई लकीर का फकीर
नहीं......कई-कई
ध्यान तो आज
इस तरह के लो
गये है, उनका
मैन मुद्दा ही
खो गया है। बस
एक छिलका
मात्र रह गया
है। अभी जबलपुर
जाना हुआ, तब
वहां मैने
देखा की बहुत
जोर से संगीत
बजा रहे थे।
मैंने पास
जाकर उन स्वामी
से कहां की ये
संगीत सर में
लग रहा है कृपा
आवाज कम कर दो
उन्होंने
कहा ओशो ने
कहा है, फास्ट
संगीत पर
नृत्य करो,
मैंने कहा
गति की लय तेज
से तेज करने
को कहां है
ताकि तुम्हारी
नृत्य तेज
हो जाये। न की
कान फाड़ने
को।
आज—14
भावुकता
की कमी है।
वरना तो
प्रवेश के
लिए इतना
पैसा कुछ
उचित नहीं
है। भला एक
गरीब देश का
एक नागरिक जो
200-300 रूपये तक
रोज कमा पाता
है। वह कहां
से देगा। 475
रूपये रोज,
फिर इसके
अलावा, कमरे
का किराया,
खाना। तब ध्यान
एक दूर की
कोड़ी बन कर
रह गया। अब
लगता है की
लोग जो ओशो के
बारे में
बोलते थे कि
आपका गुरु तो अमीरों
का गुरु है।
हमने उसे सच
में बना ही
दिया।
आज—15
लेकिन
आज आप दाढ़ी
नहीं रख
सकते। क्योंकि
उनका सोचना
है, आप अपने आप
को ओशो समझने लगे
हो। मैंने 17
साल से बाल और
दाढ़ी नहीं
कटाई उसका एक
आनंद था। असल
में बाल जो ध्यान
की उर्जा पी
लेते है और वे
बड़ होते है
तो उन में से निष्कासित
होने में भी
समय लगता है।
इस लिए वह
ऊर्जा आपके
संग साथ
सहयोगी बनी
रहती है। ऐसा
मैंने महसूस
किया। लेकिन
सन् 2004 में मां साधना
ने वैल्कम डे
ध्यान में संन्यासियों
के बीच में
कहां की आप
दाढ़ी रख कर
हम सब का ह्रासमैंट
कर रहे है।
मैंने कहा
ह्रास मैट मो
आप मेरा हजारों
संन्यासियों
के बीच कर रही
है। मैं तो
किसी को नहीं
कहता की तुमने
दाढ़ी क्यों
नहीं रखी ये
उसकी निजिता
है। मैं तो
आपको भी नहीं
कहता की आप
मेरा ह्रासमैंट
कर रही हे। क्योंकि
औरत की धारना
बड़े बालों
की है और आपने
बाल पुरूष की
तरह कटा रखे
है। अब इनर सर्कल
में जो ओशो
टाईम्स की
संपादक है, उस
के ऐसे विचार
है। शायद ही
उस समय किसी
संन्यासी
की लंबी
दाढ़ी हो।
आप
दाढ़ी रखने
के कारण
दकियानूसी
और रुढि वाद
बन जायेंगे।
और रात 10बजे के
बाद जो संगीत
और शराब का
दोर आज आश्रम
में चलता है।
उसमें बुद्धा
हाल में ध्यान
करने से भी
अधिक भीड़
होती है। क्योंकि
ये कल्चर
यूरोप का है।
ये रुढि वादी
नहीं है। और
गुरु के
चित्र के
सामने आप हाथ
जोड़ कर खड़े
हो गये तो आप रुढि
वादी हो
गये।
सन्यास के समय कि दि हुई माला भी आज आश्रम में पहनना मना है। क्योंकि आप परंपरा पर लकिर की तरह से चल रहे हो। मेरी समझ में नही आ रहा कि फिर ये माना आज से 25 साल पहले मुझे संन्यास के समय क्या दि गई, आश्रम में शराब पीना, रात भर नाचना रूढी वादी नहीं है। भुविक सन्यासी अगर हाथ जोड़ दे तो वह पागल है।
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मैं चाहता हूं, ओशो आश्रम चलाने वाले अपने अंदर झांके और गुरु ने जो दिशा निर्देश दिये है उन पर अमल करे। ताकि गुरु की कार्य शैली जिंदा रह सके। आज वो अपने ही अंहकार के चक्रव्यूह में फँसते चले जा रहे है। और-और अहंकारी होते जा रहे है। ओशो ने पूर्व और पश्चिम का मधुर मिलन किया था। कितना स्वर्णिम यूग था। मैंने एक बार एक सन्यासी से पूछ लिया था कि तुम किस देश के हो। उसने मेरे मुंह की और देखा और कहां कि आप क्या बात करते है, कैसा देश और कैसा धर्म। हमारा न कोई देश है और न कोई धर्म हम केवल संन्यासी है। कितना मधुर लगा था उस सन्यासी का कहना। न कोई यूरोप का है और कोई पूर्व का सब सन्यासी है। और सब को मिल कर ओशो का कार्य उसी तरह से करना चाहिए। जिस तरह से गुरु ने हमे निर्देश दिया है। इसमे न कोई छोटा है और न बड़ा। पूरा जीवन ओशो का समर्पित करने वाले उन अनमोल संन्यासियों को इस तरह की बातें आज संध्या के समय अच्छी नहीं लगती। आज तो उन्होंने उस उँचाई को छू लिया है। छोड़े अपने अहं को। और आश्रम को सुचारु रूप से चलाये। वरना ये सब खत्म हो जायेगा। झांके सब अपने अंतस में और सुने गुरु की पूकार....प्रणाम
स्वामी
आनंद प्रसाद
‘मनसा’
Man bhut dukhi hua yai sab per ker.bagwan sri un ko sdbudhi dai.we miss u dear master.
जवाब देंहटाएंkya shandar post likhi hai..adbhut
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