ओशो
मनन नियो-संन्यास
कम्यून महसाना
गुजरात।
महसाना-अहमदाबाद
मार्ग पर
रेलवे ओवर
ब्रिज के पास
पलावासना में
एक सुंदर
रमणीक एकांत
में बना है।
ओशो इसी मार्ग
से अनेक बार माऊँ
टाबू शिविर
लेने के लिए
जाते थे। एक
दिन अचानक कार
को रूकवाया और
उसे पीछे ले
जाने के लिए
कहा। और आज
जहां कम्यून
बना है उस और
इशारा कर के
कहां। देखो
उसे वह कितनी सुंदर
जगह ध्यान और
मौन लिए खड़ी
है। वहां जगह
केवल ध्यान
के लिए बनी
है। वहां कुछ
करो, साधकों के
लिए यहां पर
एक आश्रम बनाओ।
और ठीक कुछ
दिनों बाद
वहां की जमीन
खरीद ली गई और
वहां पर आश्रम
का काम चलने
लगा। ओशो के
अमेरिका से
आने के बाद
यहां के ट्रस्टी
ओशो से मिलने
मनाली गए और
चाहा की यह
आश्रम की जमीन
बेच कर ओशो के
लिए धन
एकत्रित किया
जाये। बाद में
ओशो से भेट होने
के बाद जब उन्हें
यह स्थान
बेचने को कहां
तो ओशो हंस
दिये। और कहां
की नहीं तुम
नहीं जानते यह
जगह भारतीय संन्यासियों
के काम आयेगी।
इसे बेचना नहीं है। वक्त के गर्भ में क्या छुपा है। यह केवल प्रकृति और बुद्ध पुरूष ही जानते है। हम तो केवल अनुसरण करता मात्र है। जो अपने को उनके समर्पण के साथ बहने देता है वहीं धन्य हो जाता है। ये बातें करते हुए आश्रम का कार्य भार सम्हाले हुए यह बात मुझे श्री राधे श्याम सरस्वती जी ने बताई। उनकी उर्जा और जोश देखते ही बनता है। यू पी के अयोध्या के पास जन्मे, जो एक ब्रह्मण शुक्ला परिवार था। शुक्ला परिवार जन्म लेने के बाद भी उनकी प्रज्ञा अति प्रखर थी। वह उन रूढ़ी और जरजर परम्परा के पार इस तरह से हुए मानों ये कितना सरल है। परम्पराओं की धूल तो मानों उन पर जमी ही नहीं। जैसे वह मुक्त और बंधन रहित जीवन लेकिर ही पैदा हुए थे। और ओशो की किरण छूने के बाद तो सभी अंधकार समाप्त हो गई। मानों वह इस सब के लिए तो तैयार थे ही। छोटी उमर में ही घर छोड़ कर गुजरात आ गये। शायद जब वह हाई स्कूल में पढ़ते थे तो उनकी शादी कर दी गई। परिवार को बोझ, रिश्तेदारों का दबाव। उन्हें जरा भी ओशो के मार्ग से नहीं हिला पाया। ओशो का कार्य और उनका प्रेम आज सभी बाधाओं को पार करते हुए भी सुगमता से चल रहा है। जितनी भी मार्ग में बाधाएँ आई उन्हें और मजबूत और परिपक्व बना गई। उनकी एक बात जो मुझे अति प्रिय लगी की वह। साफगोई इंसान है। और छोटे बड़े का भेद उनके मन में जरा भी नहीं है। और यह सब वह शायद इस लिए कर पा रहे है क्योंकि ओशो के प्रति उनकी लगन और श्रद्धा अपार है।
इसे बेचना नहीं है। वक्त के गर्भ में क्या छुपा है। यह केवल प्रकृति और बुद्ध पुरूष ही जानते है। हम तो केवल अनुसरण करता मात्र है। जो अपने को उनके समर्पण के साथ बहने देता है वहीं धन्य हो जाता है। ये बातें करते हुए आश्रम का कार्य भार सम्हाले हुए यह बात मुझे श्री राधे श्याम सरस्वती जी ने बताई। उनकी उर्जा और जोश देखते ही बनता है। यू पी के अयोध्या के पास जन्मे, जो एक ब्रह्मण शुक्ला परिवार था। शुक्ला परिवार जन्म लेने के बाद भी उनकी प्रज्ञा अति प्रखर थी। वह उन रूढ़ी और जरजर परम्परा के पार इस तरह से हुए मानों ये कितना सरल है। परम्पराओं की धूल तो मानों उन पर जमी ही नहीं। जैसे वह मुक्त और बंधन रहित जीवन लेकिर ही पैदा हुए थे। और ओशो की किरण छूने के बाद तो सभी अंधकार समाप्त हो गई। मानों वह इस सब के लिए तो तैयार थे ही। छोटी उमर में ही घर छोड़ कर गुजरात आ गये। शायद जब वह हाई स्कूल में पढ़ते थे तो उनकी शादी कर दी गई। परिवार को बोझ, रिश्तेदारों का दबाव। उन्हें जरा भी ओशो के मार्ग से नहीं हिला पाया। ओशो का कार्य और उनका प्रेम आज सभी बाधाओं को पार करते हुए भी सुगमता से चल रहा है। जितनी भी मार्ग में बाधाएँ आई उन्हें और मजबूत और परिपक्व बना गई। उनकी एक बात जो मुझे अति प्रिय लगी की वह। साफगोई इंसान है। और छोटे बड़े का भेद उनके मन में जरा भी नहीं है। और यह सब वह शायद इस लिए कर पा रहे है क्योंकि ओशो के प्रति उनकी लगन और श्रद्धा अपार है।
आप
बस ओशो
मनन-नियो कम्यून
में कदम रखते
ही वहां बहती ध्यान
की सरस उर्जा
से सराबोर हो उठेंगे।
ध्यान और
हरियाला का अनूठा
गठजोड़ है
वहां। वहां का
बुद्धा हाल
आपको अनायास
ही पूना की
याद दिला
देगा। उसके
चारो और बने
पैदल पथ पर
चलते हुए आपको
लगेगा कि आप
पूना के
पुराने
बुद्धा हाल के
चारो और धूम
रहे है। और
कुछ कदम आगे
चलने के बाद,
ओशो जी का
पोर्च जहां वह
गाड़ी से उतर
कर मधुर मुस्कराहट
बिखेरते हुए संन्यासियों
के बीच बुद्धा
हाल में प्रवेश
करते थे। ठीक उसी
तरह सक बनाया गया
है। क्षण भर
के लिए तो
आपको मंत्र
मुग्ध कर देखते
ही रह जायेगे की
कहीं में 10 साल पहले
पूना तो नहीं आ
गया। और अंदर
बना पोडियम
जिस पर बैठ कर
ओशो जी प्रवचन
देते थे। एक
दम पूना की ही
तरह से ही बना हुआ
है है। खूब
सूरत बुद्ध
हाल। एक अंडा कार
आकार में है।
जिसकी लंबाई 200
फीट और चौड़ाई
70 फीट के करीब
है। प्रवेश द्वार
पर
पीतल की बनी
आदम कद की मूर्ति
जिसमें भगवान
बुद्ध ध्यान
मुद्रा में
बैठे मानों
आपको
निमंत्रण दे रहे
है कि आओ और मेरे
साथ ध्यान की
सरिता में बह
चलो।
मैं
और अदवीता गुजरात
एक मित्र के निमंत्रण
पर गये थे। ये तो
सूना था कि आनंद
स्वभाव की देखरेख
में महसाना में
खुबसूरत बुद्धा
हाल बन रहा है।
एक बार पूना में
उनसे मूलकता भी
हुई थी। तब उन्होंने
वहां आने का निमंत्रण
भी दिया था। सब
ये संयोजित सा
लगता है। परंतु
है ये प्रकृति
से साथ होने का
आनंद। स्वभाव
जी तो इस समय पूना
में गले की बीमारी
के कारण स्वस्थ
लाभ ले रहे है।
और देखे वक्त
कैसे हम महसाना
ले आया। कहां हम
महुआ, गुजरात में
थे और वहां से सुबह
7 बजे बस पकड़ी और
सीधा 4:30 पर हम महसाना
थे। किस
अनजान शक्ति से
हम अचानक यहां
पहूंच गये। एक
हवा के झोंके
की तरह। सच
कहुं तो पूना के
मानसरोवर का
जल पीने के
बाद किसी
दूसरे कूँड़ों
या तालाबों का
जल नहीं भाता।
बस प्यास तो
बुझती है वहीं
पूना मानसरोवर
में। और सही
मायनों हम ओशो
से जुड़ने के
इन 23 सालों में
किन्हीं आश्रमों
में गये भी
नहीं। मात्र
पिछले साज जबलपुर
गये थे। ओशो
की पूण्य भूमि
और उस मौलश्री
के दर्शन
करने
के लिए। वहां
से गाड़रवाड़ा
वह पूण्य
नगरी कुछ दिन
के लिए चले
गये। जहां ओशो
जी का बचपन
गुजरा। कोई भी
कुआँ या तालाब
प्यास नहीं
बूझा पाया। इस
के लिए आप
मेरी पोस्ट ‘’गाड़रवाड़ा
एक परिक्रमा’’ पढ़ सकते
है। महसाना एक
तरह से ओशो की
उर्जा के
साथ-साथ उसका
बाल बन भी
अपने में समेट
है। अगर पूना
ऐ सागर है तो
महसाना एक
सरोवर। जो
आपको वही सीतलता
और स्वाद
देगा जो आपको
ओशो के समय
में पूना में
मिलता था।
सागर में
नहाना एक
अनुभव है।
उसकी गहराई
अनंत है,
उसके ह्रदय
में हिलोरे
लेता तूफ़ान
है। उसकी
विशालता,
उसकी भव्यता
आपको पल भर
में ही मंत्र
मुग्ध कर
सकती है। दूर
तक जहां तक
नजर जाती है, जल ही जल और
उसमें झाँकता
नीला आसमान।
परंतु ये नहीं
है कि झील का
भी अपना ही सौन्दर्य
है। अपना आनंद
है, सीतल
पवन है,
मधुर और आनंद
के हिलोरे ।
पानी कम गहरा
है....माना,
लहरे छोटी है, परंतु एक
बात है ध्यान
का आनंद-उत्सव
नये हो या पुराने
दो के लिए ही
अपनी पूर्णता
समेटे है। जब
साधक तैरने लग
जाता है तो उस
के पाँव जमीन
पर नहीं होते।
फिर उसे गहराई
से कोई भय
नहीं है। इस
लिए जब साधक
ध्यान शुरू
करता है तो वह
तरना सीखता
है। परंतु
जैसे गहराई बढ़ती
है। उसके ध्यान
ओर तैरना उतना
ही समस्वर हो
जाता है। छोटी
लहरे उसे मधुरता
से छूती है।
उसके अंतर स्थल
तक जाकर एक
अजीब सी तृप्ति
का एहसास देती
रहती है। इस
मायने में
महसाना नये और
पुराने दोनों साधक
के लिए स्वर्ग
तुल्य है।
यहां शायद
पूरी दुनियां
में कम कीमत
की
डोरमेट्री है।
मात्र आप 150/-
रूपये देकर
सुबह की चाय, दिन का भोजन, श्याम की
चाय। और रात
का खाना। जो
पौष्टिक और
साधक की साधना
के अनुरूप
बनाया जाता
है। और काम ध्यान
का भी यहां सुनहरा
मोका है।
मंहगाई की वजह
से कुछ साधक
पूना में
काम-ध्यान का
आनंद नही ले
सकते वह यहां 6घंटे
काम करके,आवास
और भोजन मुफ्त
में पा सकते
है। तीन या तीन
से अधिक समय
तक काम करने
के बाद साध को 1300/-
जेब खर्च के
रूप में भी
दिया जाता है।
काम
ध्यान की
अपनी ही गहराई
है। और ओशो के
यूग में तो
हजारों लोगों
ने काम-ध्यान
का उठाया था,
परंतु आज की युवा
पीढ़ी इस आनंद
से वंचित है।
जिस भी युवा
को काम ध्यान
करने की उमंग
हो या वह उसका
आनंद लेना चाहता
है। उसे जरूर
महसाना मनन
नियो ध्यान
केंद्र में एक
बार आना
चाहिए।
एक
बात सत्य है
आपकी चाहत ही
आपकी मंजिल
बनती है। आपकी
सोच ही आपको
मांग देती है।
आपकी चाहत और
प्रेम ही आपके
चारों और
बरसता है।
यहां पर मिला
प्रत्येक
सन्यासी
बहुत ही प्रेम
पूर्ण है। क्योंकि
यहां काम ध्यान
करना एक
प्रकाश से
निस्वार्थ
है। आप पैसे
या पद या भोजन
के लिये तो ये सब
नही करोगे। ये
सब तो आपको
समाज में भी
मिल सकता है।
यहां तो आप
आये है तो
आपको शुद्ध ध्यान
की प्यास है।
सब साधक बहुत
मधुर और सौम्य
भाषा का उपयोग
करते है। आप
उनके चेहरे को
देख कर समझ
सकते है। वह
यहां जीने का
एक उत्सव मना
रहा है। और
होना भी ऐसा
ही चाहिए। जब
कोई साधक साधना
के जगत में
प्रवेश करता
है तो उसका
प्रत्येक
काम एक पूजा हो
जाना चाहिए।
लेकिन समाज की
आपा धापी में
हम ऐसा अनुभव
नहीं ले पाते।
क्योंकि
आपके आस पान
आपको नोचने
खसोटने वाले
अधिक लोग है।
और साधक अभी
परिपक्व
नहीं है। उसके
पास साक्षी
भाव उतना गहरा
नहीं है। इस
लिए ओशो ने
काम ध्यान को
अति आवश्यक
माना था। एक
तो काम ध्यान
से आपकी विक्रीत
उर्जा अहंकार
का सदउपयोग हो
जाता है और
उसके बदले में
मिलता है
शुद्ध ध्यान।
अगर कार्य ध्यान
किसी साधक ने
कर लिए लिया
तो फिर वह घर
पर भी उसे उसी
तरह से जी
सकता है। वह
अति परिपक्व
और संतुलित हो
जाता है।
सुबह
की शुरू आत
ओशो ‘सक्रिय ध्यान’ से शुरू
होती है।
लेकिन यहां
सक्रिय ध्यान
का भी अपना
अलग अंदाज है।
आप खुल आसमान
में प्रकृति
के बीच,
मधुर
पक्षियों के
कलरव के बीच
शुद्ध स्वास, रेचन और हूं
के साथ-साथ
नृत्य का
मधुर आनंद ले
सकते है। क्योंकि
ये आश्रम भीड़
भाड़ से कहीं
दूर। एक एकांत
रमणीक स्थान
पर बना है। और
एक समानता ने
मुझे
मंत्रमुग्ध
कर दिया। ओशो
जब बोलते थे
तो उनके
प्रवचनों आपने
रेल की आवाज
सुनी होगी। जो
कुछ दूर से गुजरती
थी। और ठीक
ऐसा ही यहां
पर है। पास से
जब रेल गुजरती
है। तो पूना
का एहसास दिला
जाती है।
और
संध्या सत्संग
प्रत्येक
शनिवार और
रविवार को विडियो
द्वारा कराया
जाता है। और
आप पूरा दिन
मौन मंदिर से
साथ-साथ अनेक
ध्यानों का
आनंद ले सकते
है।
यहां
के कार्य क्रम
कुछ इस प्रकार
से है।
सुबह 06:00 से 07:00
बजे सक्रिय
ध्यान
सुबह 07:00 से 08:30
बजे
चाय नाश्ता
सुबह 08:00 से 08:45
बजे
मौन बैठक*
सुबह 09:00 से 09:45
बजे
ओशो ऑडियो
प्रवचन
सुबह 10:00 से 11:00
बजे नाद
ब्रह्मा ध्यान
सुबह 11:15 से 12:20
बजे
नटराज ध्यान
दोपहर
12:30 से 01:30 बजे दोपहर भोजन
दोपहर
02:00 से 03:15 बजे ओशो ऑडियो
प्रवचन
दोपहर
03:00 से 03:30 बजे मौन
बैठक*
दोपहर
03:30 से 04:00 बजे दोपहर
चाय
दोपहर
04:15 से 05:15 बजे कुंडलिनी
ध्यान
सायं 06:30 से 08:30
बजे
संध्या सत्संग
ध्यान
रात्रि 08:30 से 09:30
बजे रात्रि
भोजन
रात्रि 09:20 से 10:00
बजे
मौन बैठक*
*मौन
बैठक स्थल:
ओशो मौन
मदिरालय है।(
यहां पर ओशो
जी का एक चोगा
और चपल
सुरक्षित रखी
है। जिस की
उर्जा साधक को
ध्यान में
अति गहरा और
मौन कर देती
है। यहां आपको
ओशो समाधि का
सा अनुभव
होगा।)
यहां
पर बोधिवृक्ष मौलश्री
को देख कर आप
अति आनंदित हो
उठेंगे। जिसे
स्वामी जयेश
और मां नीलम
ने अपने हाथों
से 1994 में रोपा
था। और आज अति
स्वास्थ और
गदराई हई है।
जिसके पाप पात
पर ओशो की उर्जा
टपकती है।
उसके शानदार चबूतरे
पर बैठ कर आप
गेट-लेस-गेट
के से एक
अज्ञात की और निहार
सकते हो।
कुल
मिला कर एक
बार साधक को
यहां पर आकर
मायूस नहीं
होगा। भारतीय
साधकों के लिए
अपनी जेब के
अनुसार यहां
ओशो की ध्यान
और उर्जा की
पूना जैसी ही
अनुभूति
होगी। चारों
और महंगे होते
ध्यान
केंद्र। लोगो
को उनके अंदर
जाने से रोक
रहे है। आप
चाहे तो ए सी
कमरा भी ले
सकते है। जो
कृष्णा हाऊस
में बने है।
या आप सुदामा
हाऊस में रह
कर। कम खर्च
में ध्यान कर
सकते है। खाना
और ध्यान
प्रत्येक
साधक के लिए
समान है। फिर
चाहे आप
डोरमेट्री
में रहे या
कृष्णा हाऊस
में।
आश्रम
में चारों और
मौलश्री के
वृक्षों की भरमार
है। वहां के
वातावरण में
एक मधुर सुगंध
फैली रहती है।
लेकिन एक बात
कुछ मुझे अजीब
सी लगी की कुछ
लोग सुबह की
सैर के लिए
आश्रम के अंदर
प्रवेश कर
जाते है। जो की
संन्यासी
जैसे नहीं
दिखते। उनका
चलना। उनका
बैठना। साधक
का नहीं है।
इस लिए मेरी
गुजारिश है की
बिना ध्यान करने
वालों को सुबह
की सैर के लिए
यहां प्रवेश न
दे। क्योंकि
दूसरी और
सक्रिय ध्यान
हो रहा होता
है। और लोग
अपनी कार ले
कर मात्र एक
दर्शक की तरह
यहां भ्रमण
करने के लिए
आये। आपका
स्वागत है।
लेकिन आपका
लक्ष्य ध्यान
होना चाहिए।
घूमने के लिए
और बहुत पार्क
है। आशा करता
हूं की स्वामी
जी इस बात पर
गोर करेंगे।
स्वामी
आनंद प्रसाद ‘मनसा’
मां
अदवीता नियति
स्वामी जी -- कृपया इसमें कम्यून आने के लिये अहमदाबाद से दूरी व मार्ग सम्बन्धी जानकारी भी दें ,
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