अब तुम जा सकते हो—पंद्रहवां प्रवचन
दिनांक 15 जुलाई, 1973; संध्या,
माउंट आबू राजस्थान।
प्रश्न सार :
*हिंदू पौराणिक देवी— देवताओं का क्या वास्तव में अस्तित्व है?
और उनके दर्शन का क्या अर्थ है?
*क्या पश्चिमी मनोविज्ञान की ट्रांसफरन्स यानी हस्तांतरण की घटना
समर्पण की पूर्वीय धारणा के अनुरूप ही है?
*मुझे अक्सर ऐसा क्यों महसूस होता है कि मैं किसी कठपुतली की भांति अज्ञात शक्तियों द्वारा नियंत्रित हूं?
पहला प्रश्न :
क्या हिंदू पौराणिक देवी— देबताओं, जैसे कि शिव उमा तथा इंद्र आदि का किसी तल पर वास्तय में आस्तित्व है या कि ये इसके प्रतीक हैं जैसा कि आपने पिछले दो प्रवचनों में बतलाया? और यदि वे सिर्फ प्रतीक ही हैं तो लोग ध्यान में उनके दर्शन कैसे करते हैं और ऐसे देवी—देवताओं के दर्शन का क्या अर्थ है?
पुराणों में प्रतीक है। वे कोई इतिहास नहीं हैं, उनका.
वस्तुगत वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है। लेकिन इसका यह भी नहीं है कि
उनका वास्तविकता से कोई लेना—देना नहीं है। उनका आत्मगत वास्तविकता से
संबंध है। देवी—देवता ये पौराणिक प्रतीक, इनका तुम्हारे बाहर कोई आस्तित्व नहीं है। लेकिन इनका मनोवैज्ञानिक अस्तिस्व है, उसका
उपयोग किया जा सकता है। अस्तित्व सहायक हो सकता है। इसलिए.. पहली बात जो
कि समझने योग्य है वह यह कि वे कोई वरस्तविक व्यक्ति नहीं हैं जो कि इस
जगत में रहते हो, लेकिन मनुष्य के चित्त के वास्तविक प्रतीक हैं।
उदाहरण के लिए कार्ल गुस्ताव खुश इन. प्रतीकों के रहस्य. के उदधाटन के बहुत करीब पहुंच गया था। वह मानसिक रोगियों पर काम कर रहा ' था। वह अपने मरीजों से कहता था कि वे जायें और चित्र बनायें—जो भी उनके मन में आये। एक आदमी जो कि सीजोफ्रेनिक है, खंड—खंड बंटा है, टूटा हुआ है, वह कु्छ विशेष चीजें बनायेगा, और वे चीजें एक विशेष ढांचा लिए हुए होंगी। सभी खंडित मानसिकता के लोग कुछ विशेष चीजें बनायेंगे, और उन सबका ढांचा वही होगा। और जब वे रोगमुक्त हो जायेंगे, स्वस्थ
हो जायेंगे तो वे बिलकुल भिन्न चित्र बनायेंगे और यह बात प्रत्येक मरीज के
साथ होगी। सिर्फ उनके चित्रों को देखकर ही तुम कह सकते हो कि मरीज बीमार
है या नहीं।
तब जुंग को अनुभव में आया कि जब भी कोई व्यक्ति जो कि विभाजित व्यक्तित्व के रोग से र्ग्रासप था, जब वह वापस एक हो गया, ठीक हो गया, तब वह ऐसे चित्र बनाता है जैसे कि मंडल होता है, वर्तुल की तरह के चित्र बनाता है। वह वर्तुल, वह मंडल उसके भीतर के मंडल से गहरे में संबंधित है जो कि पुन: उपलब्ध कर लिया गया है। अब भीतर वह भी एक वर्तुल हो गया है, जुड़
गया है। वह एक हो गया है। तब उसके चित्रों में यकायक वर्तुल फूट पड़ते हैं।
तो कं इस नतीजे पर पहुंचा कि तुम्हारा अंतर्मन किसी खास अवस्था में कुछ
विशेष चीजें अभिव्यक्त करता है। यदि मन की स्थिति बदल जाती है तो तुम्हारे
स्वप्न भी बदल जायेंगे, तुम्हारी अभिव्यक्तियां भी बदल जायेंगी।
हिंदू पौराणिक देवी—देवता एक विशेष मनोदशा के विशेष स्वप्न हैं। जब तुम उस मनोदशा में होते हो, तो
तुमको वैसे स्वप्न दिखलाई पड़ने लगते हैं। उनमें एक प्रकार की समानता होगी।
सारे संसार में उनमें एक प्रकार की समानता होगी। थोड़ी—बहुत भिन्नता
संस्कृति, शिक्षा, प्रशिक्षण आदि के कारण होगी, लेकिन गहरे में उनमें समानता होगी।
उदाहरण
के लिए मंडल एक पौराणिक प्रतीक है। सारे संसार में यह बार—बार आता रहा है।
प्राचीन ईसाई चित्रों में भी यह है। पुराने तिब्बती चित्रों में भी यह है।
चीनी, जापानी तथा भारतीय कला में भी मंडल का एक आकर्षण रहा है। किसी भी तरह जब तुम्हारी अंतर्दृष्टि वर्तुलाकार हो जाती है, जब एक धारा की तरह हो जाती है, अखंड हो जाती है, अविभाजित हो जाती है, तो तुम अपने स्वप्न में वर्तुल देखने लगते हो। यह वर्तुल तुम्हारी वास्तविकता को बताता है।
इसी
तरह सभी प्रतीक व्यक्तिगत सत्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। और यदि कोई
समाज किसी देवता को कोई विशेष रूप देता है तो यह बहुत सहायक सिद्ध होता है।
यह साधक के लिए बहुत सहायक सिद्ध होता है, क्योंकि अब वह बहुत से आतरिक स्वप्न—दर्शनों को समझ सकता है।
फ्रायड
ने सपनों की व्याख्या करके पश्चिम में एक नये युग का प्रारंभ किया। फ्रायड
के पहले पश्चिम में कोई भी सपनों में दिलचस्पी नहीं रखता था। किसी ने सोचा
भी नहीं था कि सपनों का भी कुछ अर्थ हो सकता है या कि सपनों की भी अपनी
कुछ वास्तविकता हो सकती है या कि उनके पास भी कोई गुप्त कुंजियां हो सकती
हैं जो कि मनुष्य के व्यक्तित्व को खोल सकती हैं। लेकिन भारत में सदा से
इसका शान था। हम सदा से सपनों की व्याख्या करते रहे हैं ' और केवल सपने ही नहीं, क्योंकि सपने तो साधारण हैं, हम
दर्शनों की भी व्याख्या करते रहे हैं। दर्शन उन लोगों के सपने हैं जो कि
ध्यान कर रहे हैं और अपनी चेतना को रूपांतरित कर रहे हैं। वे भी सपने ही
हैं। सामान्य चेतना में सपने घटित होते हैं। और अब फ्रायड के मनोविज्ञान से
यह निष्कर्ष निकला है कि विशेष प्रकार के सपने एक विशेष अर्थ रखते हैं।
उदाहरण के लिए, एक आदमी लगातार सपनों में देखता है कि वह आसमान में उड़ रहा है, कि वह पक्षी हो गया है। वह उड़ता रहता है पहाड़ों पर, नदियों पर, शहरों पर, वह उड़ता ही चला जाता है। फ्रायड कहता है कि इस प्रकार का सपना, उड़ने का सपना, ऐसे
चित्त को आता है जो कि बहुत महत्वाकांक्षी है। महत्वाकाक्षा सपने में उड़ना
बन जाती है। तुम सबके ऊपर उठ जाना चाहते हो—पहाड़ों से भी ऊपर, सबके
ऊपर। यदि तुम उड़ सको तो तुम सबके ऊपर हो जाओगे। महत्वाकाक्षा सबके ऊपर
उड़ने का प्रयत्न है। सपने में महत्वाकांक्षा उड़ने का एक चित्रमय रूप ले
लेती है।
सारी दुनिया में कामवासना के सपनों का ढंग एक जैसा होता है। जब लड़के कामवासना की दृष्टि से परिपक्व हो जाते हैं तो वे छिद्रों के, सुरंगों के सपने देखने लगते हैं। वे छिद्र, वे सुरंगें स्त्री के काम—केंद्र की प्रतीक हैं, योनि की प्रतीक हैं। लड़कियां लिंग के समान वस्तुओं के सपने देखने लगती हैं जैसे कि स्तंभ हैं, मीनारें हैं।
और ऐसा पूरी दुनिया में होता है। पूरी दुनिया में इसमें कोई भी भेद नहीं है, ऐसा सब जगह होता है। स्तंभ के सपने लड़कियों को आयेंगे और छिद्रों की तरह के सपने लड़कों को आयेंगे।
यदि एक खास काम—स्थिति में कोई विशेष सपने आते हैं तो उनकी एक वास्तविकता है। यह वास्तविकता व्यक्तिगत है, सब्जेक्टिव है। ऐसा ही होता है जब तुम ध्यान में प्रवेश करते हो, तुम चेतना की भिन्न दशा में प्रवेश कर रहे हो—तुम्हें खास तरह के दर्शन होने लगेंगे। वे भी सपने ही हैं, लेकिन हम उन्हें दर्शन कहते हैं, क्योंकि वे सामान्य नहीं हैं। जब तक ध्यान में तुम एक विशेष दशा तक नहीं पहुंच जाते, वे
घटित नहीं होंगे। वे बताते हैं कि भीतर कुछ घटित हो रहा है। वे तुम्हारी
आंतरिक वास्तविकताओं को मन के पर्दे पर चित्रमय ढंग से प्रक्षेपित करते
हैं।
स्मरण
रहे कि तुम्हारा अचेतन मन कोई भाषा नहीं जानता। तुम्हारा अचेतन मन केवल
अति प्राचीन भाषा जानता है—चित्रों की भाषा। तुम्हारे चेतन मन ने भाषा के
संकेत सीख लिए हैं, लेकिन अचेतन अभी भी चित्रों की ही भाषा जानता है जैसे कि एक छोटे बच्चे का मन होता है। वह सभी चीजों को चित्रों में बदल लेता है।
उदाहरण के लिए शिवलिंग के बहुत—से अर्थ होते हैं। एक तो मैंने आज सुबह ही कहा, कि
यह जीवन—ऊर्जा का मूल स्रोत है—काम—प्रतीक। लेकिन यह एक अर्थ हुआ। शिवलिंग
अंडे के आकार का होता है—सफेद व अंडाकार। ऐसा ध्यान की विशेष स्थिति में
होता है कि यह तुम्हारे सामने प्रगट होता है—एक सफेद अंडाकार वस्तु प्रकाश
से परिपूर्ण। प्रकाश उसमें से बाहर निकलता होता है, किरणें बाहर की ओर फूटती रहती हैं।
जब भी तुम भीतर गहरे में, शांत व शीतल हो जाते हो, और जब सारा स्वरूप उत्ताप खो देता है, तो यह प्रतीक प्रकट होता है। इसीलिए पौराणिक कथाओं में शिव हिमालय पर रहते हैं जो कि संसार की सर्वाधिक ठंडी जगह है, जहां
सब शीतल है। शिवलिंग की ओर जरा देखो—एक संगमरमर के शिवलिंग की ओर—सिर्फ
उसकी ओर देखने भर से तुम्हें अपने भीतर एक शीतलता मालूम होगी। इसीलिए
शिवलिंग के ऊपर एक मटका रखा रहता है, और
उस मटके से सतत पानी की बूंदें शिवलिंग पर पड़ती रहती हैं। यह सिर्फ उसे
शीतल रखने के लिए है। ये सारे प्रतीक हैं तुम्हें शीतलता का भाव देने के
लिए।
कश्मीर में एक शिवलिंग है, प्राकृतिक शिवलिंग, जो
कि अपने— आप उभरता है जब बर्फ गिरती है। यह बर्फ का शिवलिंग है। एक गुफा
में बर्फ पड़ने से यह शिवलिंग निर्मित हो जाता है। वह शिवलिंग ध्यान के लिए
श्रेष्ठतम है—क्योंकि वह इतना ठंडा है चारों तरफ से कि वह उस आतरिक घटना की
झलक देता है, जब तुम्हारे भीतर, तुम्हारी चेतना में शिवलिंग प्रकट होता है, जब वह एक चित्र, एक प्रतीक, एक दर्शन बनता है।
ये प्रतीक सदियों—सदियों की मेहनत और प्रयास से खोजे गये हैं। वे मन की एक विशेष दशा की ओर इशारा करते हैं। मेरे लिए, सभी
पौराणिक देवी—देवता व्यक्तिगत रूप से अर्थपूर्ण हैं। बाहर वे कहीं भी नहीं
पाये जाते। और यदि तुम उन्हें बाहर पाने का प्रयास करो तो तुम अपनी ही
कल्पना के शिकार हो जाओगे। क्योंकि तुम उन्हें पा सकते हो, तुम इतनी त्वरा से उन्हें प्रक्षेपित कर— सकते हो कि तुम उन्हें पा भी सकते हो।
मनुष्य की कल्पना इतनी शक्तिशाली है, उसमें
इतनी अधिक शक्ति है कि यदि तुम सतत किसी चीज की कल्पना करो तो तुम उसे
अपने चारों ओर अनुभव कर सकते हो। तब तुम उसे देख भी सकते हो, तब तुम उसे पा भी सकते हो। वह एक वस्तु की तरह हो जायेगा। वह वस्तु की तरह है नहीं, लेकिन तुम उसे अपने बाहर अनुभव कर सकते हो। इसलिए कल्पना के साथ खेलना खतरनाक है, क्योंकि तब तुम अपनी ही कल्पना से सम्मोहित हो सकते हो, और तुम ऐसी चीजें देख और महसूस कर सकते हो जो कि वास्तव में नहीं हैं।
यह एक अपनी निजी कल्पना निर्मित करना है, एक सपनों का संसार बनाना है, यह एक तरह की विक्षिप्तता है। तुम कृष्ण को देख सकते हो, तुम क्राइस्ट को देख सकते हो, तुम बुद्ध को देख सकते हो, लेकिन यह सारी मेहनत बेकार है क्योंकि तुम सपने देख रहे हो न कि सत्य।
इसीलिए मेरा जोर सदा इस बात पर है कि ये पौराणिक आकृतियां सिर्फ प्रतीक हैं। वे अर्थपूर्ण हैं, वे काव्यात्मक हैं, उनकी अपनी एक भाषा है। वे कुछ कहती हैं, उनका कुछ अर्थ है, किंतु
वे कोई वास्तविक व्यक्तित्व नहीं हैं। यदि तुम इस बात को स्मरण रख सको तो
तुम उनका सुंदरता से उपयोग कर सकते हो। वे बहुत सहायक सिद्ध हो सकते हैं।
किंतु यदि तुम उन्हें वास्तविक की तरह सोचते हो तो फिर वे हानिकारक सिद्ध
होंगे, और
धीरे— धीरे तुम एक स्वम्मलोक में चले जाओगे और तुम वास्तविकता से संबंध खो
दोगे। और वास्तविकता से संबंध खोने का अर्थ है विक्षिप्त हो जाना। सदा
वास्तविकता से संबंध बनाये रखो। फिर भी वस्तुगत वास्तविकता को भीतर की
आत्मगत वास्तविकता को नष्ट मत करने दो। भीतर के जगत में सजग तथा सचेत रहो, लेकिन उन दोनों को मिलाओ मत।
यह हो रहा है. या तो हम बाहरी वस्तुगत सत्य को भीतर की आत्मगत वास्तविकता को नष्ट करने देते हैं, अथवा हम आत्मगत सत्य को वस्तुगत वास्तविकता पर प्रक्षेपित कर देते हैं, और तब वस्तुगत खो जाता है। ये दो अतियां हैं। विज्ञान वस्तुगत के बारे में सोचता रहता है और सब्जेक्टिव को, आत्मगत को इनकार करता रहता है, और धर्म आत्मगत की बात करता रहता है और वस्तुगत को इनकार करता रहता है।
मैं दोनों से बिलकुल भिन्न हूं। मेरा जोर इस बात पर है कि वस्तुगत वस्तुगत है और उसे वस्तुगत ही रहने दो, और आत्मगत आत्मगत है, उसे आत्मगत ही रहने दो। उन दोनों की शुद्धता बनाये रखो, और तुम ऐसा करके पहले से अधिक बुद्धिमान रहोगे। यदि तुम उन्हें मिला दोगे, यदि तुम उनमें भ्रम पैदा कर लोगे तो तुम विक्षिप्त हो जाओगे, तुम्हारा संतुलन डगमगा जायेगा।
दूसरा प्रश्न :
कल
आपने मनोविश्लेषण तथा रोगियों के अपने मनोविश्लेषकों के प्रेम में पड़ जाने
की चर्चा की। विश्लेषण इस घटना को ट्रांसफरन्स यानी हस्तांतरण कहता है और
एक विशेष उद्देश्य से ऐसा घटे इसकी चेष्टा करता है। अपनी सारी प्रेम की
भावना को अपने मनोविश्लेषक पर उड़ेलने से व्यक्ति विकसित होता है और एक
स्वस्थ ढंग से प्रेम करना सीखता है। क्या यह धारणा पूर्वी परंपरा में
समर्पण जैसी ही नहीं है? क्या यह संभव नहीं है कि किसी गुह्य स्रोत से यह कीमती रहस्य फ्रायड के पास आया हो?
हां, ट्रासफरन्स, हस्तातरण सहायक हो सकता है, लेकिन
किसी मनोविश्लेषक के साथ नहीं। यह गुरु के साथ सहायक सिद्ध हो सकता है। यह
केवल तभी सहायक हो सकता है यदि वह व्यक्ति जिसके प्रेम में तुम पड़ते हो वह
स्वयं आसक्ति के पार जा चुका हो, उसके प्रेम की कोई समस्या न रही हो। यदि तुम किसी गुरु के प्रेम में पड़ते हो...। गुरु से मेरा अर्थ है ऐसा व्यक्ति जो कि सब संबंधों, सब आसक्तियो, प्रेम की सब समस्याओं के पार चला गया हो।
अन्यथा यह हस्तांतरण दोहरा हो जाता है। रोगी हस्तांतरण करता है, प्रक्षेपण करता है अपनी प्रेम की आवश्यकता अपने चिकित्सक पर, और चिकित्सक अपने प्रेम की आवश्यकता अपने रोगी पर प्रक्षेपित करता है। और ऐसा चिकित्सक जिसकी अपनी प्रेम की आवश्यकता बाकी हो, अधिक सहायता नहीं कर सकता। वस्तुत: वह स्वयं ही अभी रुग्ण है, और दो रुग्ण व्यकिा स्वस्थ होने में एक—दूसरे की मदद नहीं कर सकते। यह पुन: एक विषाद ही पैदा करने वाला है, न कि प्रेम में विकास।
प्रेम तभी विकसित हो सकता है यदि दूसरा व्यक्ति साधारण समस्याओं के, प्रेम के सामान्य द्वंद्वों के ऊपर उठ गया हो। प्रेम की समस्या क्या है? एक तो समस्या यह है कि जैसे ही तुम किसी व्यक्ति के प्रेम में होते हो, उसी से तुम घृणा भी करते हो। यह पहली समस्या है, क्योंकि जिसे भी तुम प्रेम करते हो साथ—साथ तुम घृणा भी करते हो।
जिस व्यक्ति से तुम प्रेम करते हो उससे तुम घृणा क्यों करते हो? प्रेम एक जरूरत है, और प्रेम की ही भांति एक दूसरी भी जरूरत है, वह है स्वतंत्रता। जिस क्षण तुम किसी को प्रेम करते हो, तुम उस पर निर्भर महसूस करने लगते हो, तुम्हारी
स्वतंत्रता खो गई। और जो र्व्याक्ते तुम्हारी स्वतंत्रता को नष्ट कर रहा
है उसे तुम घृणा करोगे ही। और जो व्यक्ति तुम्हें निर्भर बना रहा है वह
तुम्हें दुश्मन ही नहीं मालूम पड़ेगा बल्कि कट्टर दुश्मन मालूम पड़ेगा, क्योंकि वह तुम्हारी स्वतंत्रता, तुम्हारी आजादी, तुम्हारी निजता को नष्ट कर रहा है। लेकिन प्रेम एक जरूरत है, इसलिए तुम स्वतंत्रता की कीमत पर प्रेम को पूरा करते हो; इसीलिए तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो और तुम उसी से घृणा भी करते हो।
फिर दूसरी समस्या सामने आती है जिस क्षण तुम किसी के प्रेम में होते हो, तुम अपने होश में नहीं रहते। तुम पागल हो जाते हो। सचमुच तुम पागल हो जाते हो। तुम सजग नहीं रहते, तुम होश में नहीं रहते। तुम ऐसे चल रहे होते हो जैसे नींद में। और यदि दूसरा आदमी भी तुम्हारी ही तरह है—और मनोचिकित्सक वैसा ही है, कोई भी भेद नहीं है, उसकी
चेतना तुम्हारी चेतना से ऊंची नहीं है—तब वह भी नींद में चल रहा है। नींद
में चल रहे दो आदमी टकरायेंगे ही। वे द्वंद्व में पड़ेंगे, संघर्ष में पड़ेंगे।
हमने भारत में गुरु के प्रेम में पड़ने को दूसरा ही शब्द दिया है, केवल
अंतर बतलाने के लिए। हम उसे श्रद्धा कहते हैं—एक प्रेमपूर्ण श्रद्धा। यदि
तुम गुरु के प्रेम में पड़ते हो—और तुम पड़ोगे ही—तो उसमें बड़ा अंतर है। तुम
नींद में हो, लेकिन गुरु नींद में नहीं है। तुम सब भांति प्रयास करोगे कि द्वंद्व खड़ा हो, हिंसा हो, आक्रमण हो, लेकिन वह तुम पर हंस सकता है। वह करुणावान हो सकता है, और वह चीजों को ऐसे व्यवस्थित कर सकता है कि कोई टकराव न हो। वह चीजों को ऐसा ढंग दे सकता है कि कोई घृणा अथवा हिंसा न हो।
लेकिन मनोचिकित्सक के पास, तुम तुम्हारी जैसी ही मनस्थिति वाले मनुष्य के साथ मिल रहे हो। मन की गुणवत्ता वैसी ही है, तुम दोनों एक—दूसरे के लिए समस्याएं खड़ी करोगे।
प्रेम में, प्रेमी
एक—दूसरे के लिए समस्याएं खड़ी करते रहते हैं। वे अपनी समस्याएं एक—दूसरे
पर डालते रहते हैं। और यदि दोनों एक—दूसरे पर अपनी— अपनी समस्याएं डाल रहे
हैं, तो फिर कोई विकास नहीं हो सकता, उससे
किसी स्वस्थ प्रौढ़ता तक नहीं पहुंचा जा सकता। यह असंभव है। यह फिर एक असफल
अनुभव ही होने वाला है। और जितने अधिक तुम असफल होते हो, उतने
ही तुम असफलता में अनुभवी होते जाते हो। तब तुम जानते हो कि असफल किस भाति
हुआ जाता है। और प्रत्येक प्रेम के अनुभव तथा संबंध से यदि दुख ही निर्मित
होता है, तो धीरे— धीरे तुम्हें ऐसा प्रतीत होने लगता है कि प्रेम एक प्रकार का रोग है।
ऐसे लोग हुए हैं... आस्कर वाइल्ड ने कहीं पर कहा है कि प्रेम एक ज्वर है, एक ज्वर की स्थिति है। यह कोई स्वास्थ्य नहीं है, क्योंकि जब भी तुम प्रेम में होते हो तो तुम एक ज्वर में होते हो। तुम ठीक से सो नहीं सकते, जब तुम प्रेम में हो, तुम चैन से नहीं रह सकते—बेचैन, भीतर एक तूफान है, एक ज्वर तुम्हें पकड़ लेता है।
तीसरी समस्या है कि जब भी तुम प्रेम में होते हो, तो तुम दूसरे के मालिक बनने का प्रयत्न करते हो, तुम दूसरे पर मालकियत करने की कोशिश करते हो। और यही दूसरा भी करता है, वह भी तुम पर मालकियत करने की कोशिश करता है। और इस मालकियत का अर्थ क्या है त्र: क्या है मालकियत? मालकियत का अर्थ होता है व्यक्ति को वस्तु में बदल देना, ताकि
तुम उसका जो चाहो कर सको। तब उस व्यक्ति की कोई स्वतंत्रता नहीं बचती। और
प्रत्येक प्रेमी इस कोशिश में लगा है कि वह दूसरे के व्यक्तित्व को पोंछ
दे।
केवल
गुरु के साथ यह नहीं होगा। गुरु के साथ शिष्य सब भांति प्रयास करेगा कि
गुरु पर मालकियत हो जाए लेकिन तुम गुरु पर मालकियत नहीं कर सकते। यह बात
बिलकुल असंभव है, क्योंकि
तुम किसी व्यक्ति पर मालकियत तभी कर सकते हो जब वह भी गहरे में तुम्हारे
साथ सहयोग कर रहा हो। वह भले ही कहता हो कि वह स्वतंत्रता चाहता है, लेकिन एक गहरी आवश्यकता मालकियत करने देने की भी है।
गुरु पर मालकियत नहीं की जा सकती, इसलिए
तुम्हारा सारा प्रयास मालकियत करने का व्यर्थ चला जायेगा। और वह तुम पर
मालकियत नहीं करेगा। बल्कि उल्टे वह तुम्हारी सहायता कर रहा है कि तुम और
भी ज्यादा व्यक्ति हो जाओ, ज्यादा जीवंत हो जाओ, ज्यादा स्वतंत्र, ज्यादा सजग, ज्यादा
सचेतन हो जाओ। उसकी सारी कोशिश तुम्हें बजाय एक वस्तु के ज्यादा से ज्यादा
व्यक्ति बनाने की ओर होगी। लेकिन प्रेमी एक—दूसरे को वस्तु बनाने की कोशिश
में लगे हैं। मनोविश्लेषक एक सामान्य मनुष्य है, थोड़ा वह कुशल है, लेकिन उसकी चेतना वैसी ही है।
कुछ मनोविश्लेषक, जैसे कि विलहेम रैख तथा उसके अनुयायी, कहते हैं कि यह ट्रासफरन्स, यह रोगी का चिकित्सक के प्रेम में पड़ जाना, अच्छा है। लेकिन मैं विलहेम रैख की पत्नी के संस्मरण पढ़ रहा था, और वह कहती है कि रैख प्रत्येक स्त्री रोगी के साथ प्रेम करता था, लेकिन वह अपनी पत्नी को किसी और पुरुष से बात भी नहीं करने देता था।
उसकी
पत्नी किसी पहाडी स्थान पर दो माह के लिए गई हुई थी। जब वह लौटकर आई तो
उसने एक—एक बात पूछी कि वह वहां क्या करती रही—वह किस—किस से मिली, क्या वह किसी के प्रेम में पड़ी... और उसकी पत्नी कहती है कि वह हर रोज नई स्त्री के साथ प्रेम करता था, फिर भी अपनी पत्नी के बाबत ईर्ष्यालु था, और उस पर मालकियत करता था। यह व्यक्ति कैसे सहायक हो सकता है? ऐसे व्यक्ति से क्या सहायता प्राप्त हो सकती है? वह स्वयं ही अपनी प्रेम—समस्याओं में पड़ा हुआ है। यह संभव है कि वह सिर्फ एक तर्क दे रहा हो। वह एक विक्षिप्त है, कुंठित है, और वह सारी बात पर एक फिलासफी का रंग दे रहा है, वह पूरी बात तर्कसम्मत बना रहा है।
मैं
यह नहीं कहता कि प्रेम सहायक नहीं हो सकता—प्रेम सहायक हो सकता है—लेकिन
यह तभी सहायक हो सकता है जब तुम अपने से ज्यादा ऊंचाई वाले व्यक्ति के
प्रेम में पड़ते हो; अन्यथा यह सहायता नहीं कर सकता। और ऐसे प्रेम को हम श्रद्धा कहते हैं।
यदि तुम गुरु के प्रेम में हो, एक बुद्धपुरुष के प्रेम में हो—और निश्चित ही तुम होओगे; यदि
तुम एक बुद्धपुरुष के निकट हो तो तुम उसके प्रेम में हो ही जाओगे—तो
शुरू—शुरू में बुद्धपुरुष के प्रति तुम्हारे प्रेम में थोड़ा काम— भाव होगा; यह
होना अनिवार्य है। इसीलिए बुद्ध के साथ या महावीर के साथ ऐसा होता है...
ऐसा जाना गया है कि महावीर के चालीस हजार शिष्य थे। उन चालीस हजार शिष्यों
में तीस हजार स्त्रियां थीं, केवल दस हजार पुरुष थे। तीन स्त्रिया और एक पुरुष का अनुपात था। चार शिष्यों में से तीन स्त्रियां थीं, और एक पुरुष था।
ये जो तीस हजार स्त्रिया थीं, ये जरूर महावीर के गहन प्रेम में, और शुरू में एक काम—आकर्षण में रही होंगी। ऐसा होना अनिवार्य है, यह स्वाभाविक ही है। लेकिन धीरे— धीरे महावीर की उपस्थिति उस कामुक हिस्से को बदल देगी। धीरे— धीरे उनके निकट रहते—रहते, कामुकता गिर जायेगी और प्रेम शुद्ध होगा—यह और भी ज्यादा आध्यात्मिक हो जायेगा।
और
प्रारंभ में यह मालकियत करने वाला प्रेम होगा। मुझे भी यह महसूस होता है
कि यह मालकियत करने वाला हो जाता है। मेरे चारों ओर बहुत—सी स्त्रियां हैं, और वे अनजाने ही मालिक बनना शुरू कर देती हैं। और उसमें कुछ भी गलत नहीं है; यह
स्वाभाविक ही है। लेकिन यदि मैं भी उसी मनोदशा में हूं तो फिर मैं उनकी
कोई सहायता नहीं कर सकता। तब बजाय कि मैं उनको चेतना के ऊंचे तल पर ले जाऊं, वे मुझे अपने तल पर नीचे खींच लेंगी। और समानता के लिए सतत संघर्ष चलता रहता है। स्मरण रहे, जैसे पानी अपने तल को खोज लेता है, वैसे
ही जब भी तुम किसी व्यक्ति से मिलते हो तो तुम दोनों में एक संघर्ष चलता
है तल निर्मित करने का। तुम ऊपर की ओर जाओ या वह नीचे की ओर आए, लेकिन देर— अबेर तुम्हें एक समान तल पर आना पड़ेगा। वरना मामला कठिन हो जायेगा, तुम दोनों में कोई संबंध नहीं बन सकता।
जैसे पानी तल खोजता है, वैसे ही संबंध भी तल खोजता है। यदि तुम मेरे प्रेम में पड़े हो तो फिर संघर्ष होने ही वाला है। चाहे वह लंबा चले, चाहे थोड़े दिन ही चले, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम किस प्रकार के व्यक्ति हो, लेकिन
संघर्ष तो होगा ही। तुम मुझे नीचे खींचने की कोशिश करोगे ताकि समानता बन
जाए। प्रकृति को समानता पसंद है। लेकिन यदि तुम मुझे नीचे ला सकते हो तो
मैं तुम्हारे किसी भी काम का नहीं हूं। तो जब तुम मुझे नीचे खींचने की
कोशिश कर रहे हो, मुझे तुम्हें ऊपर एक उच्चतर तल पर उठाने का प्रयत्न करना है। और स्मरण रहे, नीचे उतरना बड़ा आसान है; किसी को ऊंचे तल पर लाना बड़ा मुश्किल है। यह एक कठिन संघर्ष है।
जब चिकित्सक और रोगी एक ही चेतना के तल पर हैं तो केवल उनका ज्ञान भिन्न है—उनका होना नहीं। एक ने मनोविज्ञान, मनोविश्लेषण, मनोचिकित्सा का अध्ययन किया है; वह एक कुशल विशेषज्ञ है। दूसरे ने इन सबका अध्ययन नहीं किया है, केवल इतना ही भेद है। उनकी स्मृतिया भिन्न हैं, उनकी जानकारी भिन्न है। जहां तक उनके मन का प्रश्न है वे भिन्न—भिन्न हैं, लेकिन जहा तक उनकी चेतना का है दोनों एक जैसे हैं इसलिए मैं नहीं सोचता कि यह ट्रासफरन्स, यह प्रेम का प्रक्षेपण कुछ भी सहायक हो सकता है। यह नहीं हो सकता। यह तभी हो सकता है यदि मनोविश्लेषक एक गुरु भी हो, तभी
यह सहायक हो सकता है। अन्यथा यह किसी काम का नहीं है। जिस व्यक्ति के तुम
प्रेम में पड़ो वह ऐसी स्थिरता का व्यक्ति होना चाहिए कि तुम उसे नीचे न
खींच सको, चाहे तुम कुछ भी करो। और तुम बहुत प्रयत्न करोगे, तुम जी—जान से प्रयत्न करोगे कि तुम उसे नीचे ले आओ। यह स्वाभाविक है, क्योंकि जो व्यक्ति तुमसे ऊंचा है तुम उसके साथ बड़ी बेचैनी अनुभव करणैं। या तो तुम ऊपर जाओ, जो कि मुश्किल काम है, या वह नीचे उग जाये—और तुम्हें यह सरल मालूम होता है कि उसे भी नीचे ले आया जाये।
यदि वह नीचे आ सकता है, अथवा यदि वह पहले से ही नीचे है और सिर्फ दिखावा कर रहा है कि वह नीचे नहीं है, तो वह सहायक सिद्ध नहीं होगा। लेकिन यदि वह तुमसे ऊपर ही बना रहता है, तो तुम्हारा प्रेम वस्तुत: एक विकास हो सकता है।
शिष्य और गुरु एक सतत संघर्ष में होते हैं, इसे स्मरण रखो, सतत संघर्ष में, क्योंकि शिष्य गुरु को नीचे लाने की कोशिश में लगे हैं; और गुरु शिष्यों को ऊपर ले जाने की कोशिश कर रहा है। यह एक बहुत ही गहरा संघर्ष है, और शिष्य कुछ भी करने को बाकी नहीं छोड़ेंगे। ऐसा नहीं है कि वे जानते हों, उन्हें पता भी नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं। वे मूर्च्छित हैं और उन्हें क्षमा किया जा सकता है। गुरु को क्षमा नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसे तो सजग होना चाहिए, जागरूक होना चाहिए, उसे तो पता होना चाहिए कि उसके चारों ओर क्या चल रहा है।
मनोविश्लेषक कोई गुरु नहीं है। इसीलिए मैंने कहा : पश्चिम में, मनोविश्लेषक और रोगी के बीच का संबंध कामुकता के लिये लाइसेंस हो गया है—इससें ज्यादा नहीं। वह किसी की भी सहायता नहीं कर रहा है।
और इसी प्रश्न का दूसरा हिस्सा है
क्या यह धारणा पूर्वीय परंपरा में समर्पण जैसी ही नहीं है? क्या यह संभव नहीं है कि किसी गुह्य स्रोत से यह कीमती रहस्य फ्रायड के पास आया हो?
नहीं, समर्पण
प्रेम से भिन्न है। प्रेम में तुम तुम्हीं बने रहते हो। प्रेम एक संबंध है
दो व्यक्तियों के बीच जो कि दो बने रहते हैं। यह एक संबंध है, यह एक सेतु है। समर्पण कोई संबंध नहीं है। तुम सिर्फ विलीन हो जाते हो, तुम बचते ही नहीं। जब तुम किसी गुरु को समर्पण करते हो, तो तुम कहते हो, ''अब मैं नहीं रहा, अब तुम्हें जो करना हो सो करो; मैं हूं ही नहीं। ''यह कोई संबंध नहीं है।
समर्पण कोई संबंध नहीं है, क्योंकि इसमें व्यक्ति बिलकुल ही मिट जाता है, और संबंध के लिए दो चाहिए। केवल गुरु ही बचता है।
वास्तव में, जब तुम समर्पण कर देते हो तो गुरु ही काम करता है, तुम वहा नहीं होते। तब बड़ा सरल होता है काम करना, कगेंकि जो संघर्ष शिष्य बीच में लाता है, वह जो प्रतिरोध खड़ा करता है, अब वहां नहीं होता। वह बिलकुल विश्राम में होता है, ''लेट गो '' की स्थिति में होता है। जब गुरु कहता है बायें जाओ तो वह बायें जाता है, जब गुरु कहता है दायें जाओ तो वह दायें जाता है। जो भी गुरु कहता है, वह सिर्फ उसका अनुसरण करता है। वह अपने अहंकार को खड़ा नहीं होने देता। यह कोई संबंध नहीं है।
प्रेम एक संबंध है। दोनों प्रेमी स्वयं बने रहने की कोशिश करते हैं; इसीलिए संघर्ष होता है। दोनों जुड़े भी रहना चाहते हैं और फिर स्वतंत्र भी रहना चाहते हैं।
यह विरोधाभासी है, क्योंकि संबंध के कारण ही और तुम्हें समझौता करना पड़ेगा और दूसरे के साथ तालमेल बिठाना पड़ेगा। और तुम फिर वही नहीं रहोगे।
एक आदमी जो कि अविवाहित है, वह शादी के बाद वैसा ही नहीं रहेगा। वह रह ही नहीं सकता। वैसा ही बने रहना असंभव है, क्योंकि अब एक नया समझौता प्रवेश कर गया है। अब एक नया व्यक्ति प्रवेश कर गया है, और एक संबंध निर्मित हो गया है। यह संबंध दोनों को बदलेगा। स्मरण रहे कि प्रेम में दोनों बदलते हैं; समर्पण में केवल जिसने समर्पण किया है, वही बदलता है—न कि गुरु। वह संबंधित ही नहीं है। वह दूर खड़ा रहता है, वह दूर ही बना रहता है, वह एक दृरी पर है। तुम समर्पण करते हो, और तुम बदलते हो। प्रेम में सदा एक शर्त होती है : तुम कुछ पाने के लिए कुछ देते हो। यह लेन—देन है। समर्पण में तुम सिर्फ देते हो, उसमें कोई शर्त नहीं होती।
समर्पण एक बिलकुल ही भिन्न घटना है। वास्तव में, पश्चिम इस घटना से पूर्णत: अपरिचित है। गुरु—शिष्य संबंध पूरी तरह से एक पूर्वीय घटना है। पश्चिम में शिक्षक और विद्यार्थी हैं, गुरु और शिष्य नहीं। इसीलिए कृष्णमूर्ति की शिक्षायें पश्चिम में इतनी प्रभावी हो सकीं, क्योंकि वे कहते हैं कि कोई गुरु नहीं है और कोई शिष्य नहीं है।
पूर्व एक भिन्न ही तरह का संबंध विकसित कर सका—यदि तुम उसे संबंध कहो तो—जिसमें एक होता है, और दूसरा उसमें घुलमिल जाता है; जिसमें समर्पण करने वाला तो बदलता है, लेकिन गुरु कोई समझौता नहीं करता। यह एकतरफा मार्ग है।
प्रेम दोतरफा है। दोनों कुछ करते हैं, दोनों कुछ लेते हैं, देते हैं। वह एक लेन—देन है। समर्पण एकतरफा है। शिष्य सिर्फ अपने को समर्पित करता है, और गुरु अछूता ही रहता है। केवल तभी वह काम कर सकता है। यदि वह भी तुम्हारे द्वारा बदला जाए, तो फिर वह तुम्हें नहीं बदल सकता। इसलिए बहुत बार गुरु बहुत कठोर मालूम पड़ते हैं। वे बहुत क्रूर प्रतीत होते हैं, वे निर्दयी दिखलाई पड़ते हैं, क्योंकि तुम रोते—चिल्लाते हो और वे अस्पर्शित ही रहते हैं। या यदि वे दिखलाते भी हैं कि वे भी स्पर्शित हुए हैं, तो तम देख सकते हो कि वे सिर्फ बहाना कर रहे हैं, नाटक कर रहे हैं।
समर्पण एकतरफा बात है, पूरी
तरह एकतरफा। इसीलिए यह इतना कठिन है। क्योंकि यदि तुम्हें लगता हो कि
दूसरा भी झुक रहा है तो यह ज्यादा सरल हो जाता है। तब यह एक सौदा है, तब यह एक विवाह है। विवाह एक सौदा है।
समर्पण कोई विवाह नहीं है, उसमें कोई अनुबंध नहीं है। तुम सिर्फ अपनी तरफ से अपने को खो देते हो, और गुरु तुम्हें धन्यवाद भी नहीं देगा। तुम अपने को पूरी तरह मिटा रहे हो, समर्पित कर रहे हो, और वह तुम्हें धन्यवाद भी नहीं देगा। वह शायद तुम्हारी तरफ देखे भी नहीं।
ऐसा कहा जाता है कि बायजीद, एक सूफी फकीर, अपने गुरु के पास आया और गुरु ने कहा, '' क्या तुम समर्पण करने के लिए तैयार हो? अन्यथा संसार में जाओ और संसार का थोड़ा और अनुभव कर लो, अहंकार की असफलता का स्वाद थोड़ा और चख लो, ताकि तुम प्रतिरोध न करो। ''
लेकिन बायजीद ने कहा, ''मैं तैयार हूं। ''
गुरु ने बायजीद से कहा, ''तो अब तुम चुप हो जाओ, जब तक कि मैं तुम्हें कुछ न कह तुम्हें कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है।''
कहते हैं कि बारह वर्ष तक बायजीद बिलकुल मौन ही रहा। वह रोज उगता, गुरु के पास बैठ जाता ' ओाए र प्रतीक्षा करता। और कहते हैं कि सिर्फ प्रतीक्षा करते—करते ही उसने पा लिया।
एक दिन, बारह वर्ष बाद, गुरु ने पहली बार उसकी तरफ देखा, और वही क्षण था, बायजीद याद करता है, जब वह पूरी तरह से प्रतीक्षा में था। एक भी विचार भीतर नहीं था। तब गुरु ने उसकी ओर देखा। यह एक स्वीकृति थी कि ''अब तुम स्वीकार कर लिए गये। ''
उसके
बाद तीन वर्ष और बीत गये और एक दिन गुरु ने बायजीद का हाथ अपने हाथ में
लिया। बायजीद स्मरण करता है कि उस दिन प्रतीक्षा भी समाप्त हो गई थी। वह भी
एक सूक्ष्म विचार था. ''प्रतीक्षा, प्रतीक्षा, प्रतीक्षा... एक दिन कुछ होने वाला है। '' वह भी खो गया था। गुरु ने उसका हाथ अपने हाथ में लिया।
फिर तीन वर्ष और बीत गये, और एक दिन गुरु ने उसे अपने पास बुलाया, अपने हृदय के निकट लिया, उसे छाती से लगा लिया और कहा, '' अब तुम जा सकते हो। '' ये बोले गये पहले शब्द थे : ''अब तुम जा सकते हो। ''
यह समर्पण है। और बायजीद स्मरण करता है ''वही क्षण था जबकि वह अस्तित्व के साथ इतना एक हो गया था, वर्तमान क्षण में खो गया था, कि गुरु भी विलीन हो गया था। मैं उनके करीब बैठा था, लेकिन गुरु विलीन हो गया था, वहां कोई नहीं था—केवल अस्तित्व ही वहा था। वही क्षण था जब गुरु ने मुझे पास बुलाया, छाती से लगाया, और कहा : अब तुम जा सकते हो। ''
यह समर्पण है—एकतरफा। लेकिन जब शिष्य g]रु के निकट आते हैं तो वे शुरू में प्रेम में पड़ते हैं, समर्पण में नहीं। और वे उस प्रेम को ही समर्पण कहते हैं। इससे ही समस्याएं खड़ी होती हैं, क्योंकि प्रेम समर्पण नहीं है। समर्पण एक ऊंची अवस्था है—पूर्णतः गुणात्मक रूप से भिन्न, बिना मांग के, बिना मालकियत के, बिना आकाक्षा के, बेशर्त। लेकिन यह स्वाभाविक ढंग है, क्योंकि समर्पण का तुम्हें कुछ पता नहीं होता, जबकि
प्रेम एक प्राकृतिक घटना है। पहले तुम्हें प्रेम घटता है और यदि दूसरा
व्यक्ति भी प्रेम का आकांक्षी नहीं है तो ही वह तुम्हारे प्रेम को समर्पण
की ओर ले जा सकता है।
यह
इस पर निर्भर करेगा कि तुम कितना प्रतिरोध करते हो। तुम सारी जिंदगी
प्रतिरोध कर सकते हो : तब वह नहीं होगा। और कोई गुरु तब तक कुछ भी नहीं कर
सकता जब तक कि तुम सहयोग न करो, जब तक तुम अवसर न दो। क्योंकि कोई भी गुरु आक्रामक नहीं हो सकता। यदि तुम खुले हो, वह प्रवेश कर सकता है; यदि तुम कोई प्रतिरोध खड़ा नहीं करते तो वह तुम्हें बदल सकता है और रूपांतरित कर सकता है।
समर्पण सबसे सरल रास्ता है रूपांतरण का। बाकी सारे रास्ते बड़े कठिन हैं, और बहुत लंबा समय लेते हैं। यदि तुम अपने को अलग रख सको, तो ग्गुरु तुम्हारे भीतर प्रवेश कर सकता है, और
तुम्हारा पूरा अस्तित्व ही रूपांतरित कर सकता है। लेकिन कोई गुरु आक्रामक
नहीं हो सकता। बिना तुम्हारी मर्जी के कुछ भी नहीं हो सकता। समर्पण का अर्थ
है कि तुम पूर्णरूप से सहयोगी हो। जो भी किया जाये, तुम सहयोग करोगे।
पश्चिम में ऐसा कभी भी नहीं हुआ। जीसस के बारह अनुयायी भी वास्तव में समर्पित नहीं थे, क्योंकि जब आखिरी रात को पीटर ने पूछा. जब जीसस शत्रुओं द्वारा पकड़े जाने वाले थे, और अफवाह थी कि जीसस को वे सूली पर चढ़ा देने वाले हैं, मार डालने वाले हैं, तब पीटर ने कहा, ''जहा भी आप जायेंगे, मैं आपके पीछे—पीछे चलूंगा। ''
जीसस हैसे और बोले, ''सुबह सूरज ऊगने के पहले तुम मुझे तीन बार मना कर चुके होओगे।''
और ऐसा ही हुआ। जीसस पकड़ लिये गये। अभी अंधेरा था, और वे लोग, शत्रु, जीसस
को पकड़ कर कहीं ले जा रहे थे। पीटर भी उनके पीछे—पीछे चल रहा था। किसी ने
उसका चेहरा देखा। उन्होंने मशालें जला रखी थीं और किसी ने उसका चेहरा देखा।
पीटर अजनबी सा मालूम हुआ, क्योंकि जो उस समूह में थे वे सब एक—दूसरे को जानते थे, तो किसी ने पूछा, ''तुम कौन हो? क्या तुम जीसस के अनुयायी हो? ''
उसने कहा, ''नहीं, मैं जानता भी नहीं हूं जीसस को। ''
और जीसस ने पीछे मुड़कर देखा और उन्होंने कहा, ''तुमने अभी ही मुझे मना कर दिया है!''
उस आखिरी रात, जब वे विदा हो रहे थे, शिष्यों ने जीसस से पूछा, ''हम जानते हैं कि जल्दी ही हम परमात्मा के राज्य में प्रवेश करेंगे। आप तो परमात्मा के दाहिने बैठेंगे, क्योंकि आप उसके एकमात्र बेटे हैं, लेकिन अच्छा होगा कि आप हमें बता दें कि हम बारह कहां बैठे होंगे। हमारी क्या जगह होगी?''
यह कोई समर्पण नहीं है। यह जरा भी समर्पण नहीं है। वे सब महत्वाकांक्षी हैं, उनके अपने अहंकार हैं, और वे लोभ तथा सौदेबाजी की भाषा में सोच रहे हैं।
जीसस को समर्पित शिष्य नहीं मिले। इसीलिए ईसाइयत जीसस के विपरीत चली गई। वे क्राइस्ट का नाम लेते हैं, लेकिन उनका क्राइस्ट से कुछ लेना—देना नहीं है। ईसाइयत जीसस के बिलकुल ही विपरीत है, क्योंकि केवल समर्पित शिष्य ही सच्चा संदेश ले जा सकते हैं, प्रामाणिक संदेश ले जा सकते हैं। जो समर्पित नहीं हैं, वे उसे तोड़—मरोड़ देंगे। इसलिए यह कहा जा सकता है कि दुनिया में पोप सबसे ज्यादा क्राइस्ट—विरोधी व्यक्ति है।
समर्पण की धारणा पूर्वीय है। किसी ने बुद्ध से एक दिन पूछा, '' आपके साथ दस हजार भिक्षु हैं, उनमें से कितने बुद्ध हो चुके हैं, शान को उपलब्ध हो चुके हैं? ''
बुद्ध ने कहा, ''बहुत से। ''
तो उस व्यक्ति ने पूछा, ''यदि इन दस हजार भिक्षुओं में बहुत—से बुद्ध हो चुके हैं तो वे आपकी तरह चमकते क्यों नहीं हैं? वे आपकी तरह जाने क्यों नहीं जाते? क्यों उन्हें आपकी तरह पूजा और चाहा नहीं जाता है? वे अब तक भगवान क्यों नहीं हुए हैं?''
तो बुद्ध ने कहा, ''वे
मेरी अनुमति की प्रतीक्षा कर रहे हैं—सिर्फ प्रतीक्षा कर रहे हैं। यदि मैं
कह दूं तो वे जाहिर कर देंगे। वे समर्पित शिष्य हैं। यदि मैं कह दूं तो वे
स्वयं को प्रगट कर देंगे—वे केवल मेरी अनुमति के लिए रुके हुए हैं। यदि
मैं कुछ न कहूं तो वे इस विराट में खो जायेंगे बिना एक भी शब्द बोले। '' यह बात ही बिलकुल अलग है, जो और कहीं भी घटित नहीं हुई है।
पूर्व ही अकेला है जिसने प्रेम के तत्वों से, समर्पण की घटना पैदा की है। लेकिन यह एक नया संश्लेषण, एक नई घटना है। यह प्राकृतिक नहीं है। प्रेम प्राकृतिक है, समर्पण प्रकृति के पार की घटना है, परा—प्राकृतिक
है। यह कुछ ऐसा नया है जो कि विकास के दौरान अपने आप घटित नहीं होता। इसे
अति—चेतन लोगों ने सृजित किया है। यह एक बिलकुल ही नवीन घटना है; एक नया सृजन है।
अंतिम प्रश्न :
मुझे
बहुत गहरे में ऐसा अनुभव होता है कि जैसे कोई अज्ञात शक्तियां मेरे
विचारों तथा कृत्यों को नियंत्रित करती हैं मुझे लगता है कि मैं अज्ञात
धागों द्वारा चालित एक कठपुतली हूं जैसे कि क्षण—क्षण मेरी परीक्षा ली जा
रही है फिर भी मैं इसके प्रति सजग नहीं हूं और यह भी नहीं जानता हूं कि
कहीं यह सब मेरे मन का खेल तो नहीं है! यह प्रश्न भी किसी अन्य शक्ति
द्वारा ही बनाया गया लगता है जो कि मेरी शक्ति और नियंत्रण के बाहर है
कृपया बतायें कि यह सब क्या है?
यह इतना साफ है! इसमें कुछ भी बताने की आवश्यकता नहीं है। यह कोई प्रश्न नहीं है, केवल तथ्य का कथन है। और यह शुभ है। यदि वस्तुत: ही तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम एक कठपुतली हो, तो फिर तुम्हें कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। यदि तुम्हें सच में ऐसी प्रतीति हो रही है कि तुम अज्ञात शक्तियों के हाथ में हो, तो तुम नहीं हो। यही तो चाहिए—कि तुम नहीं हो जाओ।
लेकिन मैं सोचता हूं कि जब तुम कहते हो कि तुम्हें लगता है तुम एक कठपुतली की भांति हो, तो
उसमें कुछ निंदा का भाव है। तुम्हें यह अच्छा नहीं लगता—कठपुतली की भांति!
लेकिन फिर भी तुम तो हो ही। कौन है जो कठपुतली की भांति महसूस कर रहा है? यदि वास्तव में ही तुम कठपुतली हो तो फिर कठपुतली की भांति महसूस कौन कर रहा है? कौन महसूस कर सकता है? कौन है वहां जो महसूस करे? तुम कठपुतली हो और बात खतम हो गई।
इसलिए
एक काम करो : यह खयाल छोड़ दो कि तुम एक कठपुतली हो। सिर्फ अपने चारों ओर
उपस्थित विराट की शक्तियों के प्रति सजग होओ। तुम कुछ भी नहीं हो, कठपुतली भी नहीं। तुम सिर्फ बहुत—सी शक्तियों का एक मिलन—बिंदु हो, सिर्फ
एक चौराहा हो जहां से बहुत—सी शक्तियां गुजरती हैं। और क्योंकि बहुत—सी
शक्तियां गुजरती हैं तो एक बिंदु बन जाता है। यदि तुम बहुत—सी रेखाएं खींचो
जो कि एक—दूसरे को काटती हों तो एक बिंदु पैदा हो जायेगा। वह बिंदु ही
तुम्हारा अहंकार बन जाता है, और तुम्हें प्रतीति होती है कि तुम हो।
तुम नहीं हो, केवल विराट है। तुम एक कठपुतली की भांति भी नहीं हो, वह भी अहंकार को एक नये रूप में बनाये रखना है। और चूंइक अहंकार अभी बना है, इसलिए इस परिस्थिति के प्रति एक निंदा का भाव महसूस होता है।
आनंदित होओ कि तुम नहीं हो, क्योंकि तुम्हारे खोते ही, सारे
दुख भी खो जाते हैं। अहंकार के विलीन होते ही फिर कोई नर्क नहीं है। तुम
मुक्त हो गये—अपने आप से मुक्त हो गये। फिर केवल विराट की शक्तियां ही शेष
बची जो हमेशा से क्रियाशील हैं। तुम तो कहीं भी नहीं हो, कठपुतली की भांति भी नहीं।
यदि
यह बात तुम्हारे भीतर चली जाये तो तुम पहुंच गये। तुम उस सत्य तक पहुंच
गये जहां कि सारे धर्म तुम्हें लाना चाहते हैं। तुमने अंतिम केंद्र को छू
लिया, अंतिम आधार पर पहुंच गये।
लेकिन यह कठिन है। शायद तुम कल्पना कर रहे हो या सच में तुम्हीं इसे गढ़ रहे हो। यह बहुत ही कठिन है। तुम सोच सकते हो, लेकिन सोचने से कुछ भी न होगा—जब तक कि तुम इसे महसूस न करो, जब तक कि यह तुम्हारी प्रतीति न हो जाये। यह सिर्फ गहरे ध्यान से ही हो सकता है, अन्यथा यह नहीं हो सकता। केवल ध्यान में ही तुम उस बिंदु पर आ सकते हो जहां तुम्हें प्रतीति होती है कि ''सब कुछ हो रहा है और मैं कर्ता नहीं हूं। ''और केवल इतना ही नहीं कि ''मैं करने वाला नहीं हूं'', बल्कि तुम वहा हो ही नहीं और चीजें अवकाश में घटित हो रही हैं। तुम एक खाली स्थान हो गये हो, और वहां चीजें घट रही हैं, और तुम वहा नहीं हो।
यह तभी हो सकता है जब तुम्हारे सारे विचार बंद हो जायें, और तुम्हारा अस्तित्व बादलों से रिक्त हो जाये—विचार के बादलों से रिक्त। तुम उस शुद्ध अस्तित्व में होते हो, तुम
इसे महसूस कर सकते हो। लेकिन यदि तुम महसूस करते हो कि ऐसा हो रहा है तो
यह एक अच्छा संकेत है। आगे बढ़ों... और इस कठपुतली को भी छोड़ो, इसे लादे मत रहो। जब तुम ही नहीं हो तो फिर इस कठपुतली को क्यों ढोना? उसे भी गिरा दो। अहंकार से पूरी तरह मुक्त हो जाओ।
यही तो मैं यहां कर रहा हूं—तुम्हें पूर्णतया अहंकार से मुक्त करने के लिए। इसीलिए मैं कहता हूं कि कूदो, नाचो, गाओ, आनंद मनाओ, पागल की भांति। यदि तुम यह कर सको तो फिर अहंकार नहीं बच सकता, क्योंकि
अहंकार सदा नियंता की तरह जीता है। यदि तुम कुछ भी नियंत्रित न करो तो यह
विलीन हो जाता है। यह नियंत्रण की रचना है। जब तुम नाचने लगते हो तो अहंकार
कहता है, ''यह तुम क्या कर रहे हो? तुम मूर्ख दिखलाई पड़ोगे। तुम्हारे जैसा बुद्धिमान आदमी और जंगलियों की तरह नाच रहा है। '' अहंकार कहेगा, ''ऐसा मत करो। अपने पर नियंत्रण रखो। '' यदि तुम नियंत्रण रख लेते हो तो अहंकार बना रहता है। बिना नियंत्रण के रहो, इस नियंत्रण—शक्ति की एक मत सुनो। अपने को पहली बार बिना नियंत्रण के केवल जीवंत छोड़ दो, और तुम्हें तत्कण पता चलेगा कि अहंकार नहीं बचा। अस्तित्व है, शक्तियां हैं, लेकिन अहंकार नहीं है। मेरे लिए, बिना
किसी नियंत्रण के जीना ही अनुशासन है। यदि तुम बिना नियंत्रण के जी सको तो
तुमने बड़े से बड़ा अनुशासन उपलब्ध कर लिया है। यदि तुम अपने को नियंत्रित
नहीं करते हो और फिर भी एक अनुशासन है, तो
फिर यह अनुशासन तुम्हारा अपना नहीं है। यह अनुशासन उच्चतर स्रोत्रों से
आता है। यदि तुम अपने को अनुशासित करते हो तो फिर तुम्हारे जीवन के तुम
स्वयं ही स्रोत हो गये। तब तुम विराट के स्रोत से टूट गये। स्वयं को पूरी
तरह गिरा दो।
मैं तुम्हें एक घटना सुनाता हूं और फिर हम इसे गिराने का प्रयास करेंगे।
एक दिन एक सम्राट बुद्ध के पास आया; उसके एक हाथ में एक बहुत ही बहुमूल्य हीरा था, और दूसरे हाथ में एक कमल का फूल। उसने सोचा कि शायद बुद्ध को हीरा पसंद नहीं आये क्योंकि उन्होंने सब धन आदि त्याग दिया है, इसलिए वह दूसरे हाथ में कमल का फूल ले आया था, ताकि अवसर हाथ से न जाये। वह तो हीरा ही भेंट करना चाहता था। वह बहुत दुर्लभ हीरा था, केवल उसी के पास ऐसा हीरा था। और यही असली बात भी थी, बुद्ध
असली सवाल नहीं थे। वह बुद्ध को ऐसा हीरा भेंट करना चाहता था जो कोई और
नहीं कर सकता। और तब सारे संसार में यह खबर फैल जायेगी कि इस सम्राट ने
बुद्ध को इतना बहुमूल्य हीरा भेंट किया।
यही असली बात थी; बुद्ध तो एक बुहाना थे। लेकिन शायद बुद्ध हीरा पसंद न करें, वे शायद स्वीकार न करें, इसलिए वह एक कमल का फूल भी लाया था। वह फूल भी दुर्लभ था, क्योंकि इस समय उसका मौसम न था, वह बेमौसम का फूल था।
वह अपने दायें हाथ में हीरा लेकर बुद्ध के पास आया। बुद्ध ने उसे देखते ही कहा, ''गिरा दो। ''उस व्यक्ति ने समझा कि बुद्ध को पसंद नहीं आया, इसलिए उसने हीरा जमीन पर डाल दिया।
फिर वह कमल का फूल अपने बायें हाथ में आगे लाया तो बुद्ध ने कहा, ''इसे भी गिरा दो। '' अत: उसने उसे भी जमीन पर गिरा दिया। उसके बाद वह अपने दोनों खाली हाथों को जोड़ कर आया। बुद्ध ने तीसरी बार भी कहा, ''इसको भी गिरा दो। ''
अब तो उसके हाथ में कुछ गिराने को भी न था, अत: उसकी कुछ समझ में नहीं आया। बुद्ध ने कहा, ''सोचो मत, इसे भी गिरा दो!''
तब
अचानक उसकी समझ में आया कि बुद्ध हीरा या फूल गिराने के लिए नहीं कह रहे
थे बल्कि इस अहंकार को गिराने के लिए कह रहे थे जो यह हीरा और फूल लाया था।
वह बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा, और बुद्ध ने सभा से कहा, ''यह आदमी समझ वाला व्यक्ति है। ''जब वह व्यक्ति खड़ा हुआ तो वह दूसरा ही व्यक्ति था, बिलकुल ही भिन्न। पुराना विलीन हो गया था। जो व्यक्ति बुद्ध के चरणों में गिरा था, वह वहां नहीं था, एक नया ही आदमी सामने था। क्या बदल गया था? अहंकार...।
दिनांक 15 जुलाई, 1973; संध्या,
माउंट आबू राजस्थान।
दिनांक 15 जुलाई, 1973; संध्या,
माउंट आबू राजस्थान।
प्रश्न सार :
*हिंदू पौराणिक देवी— देवताओं का क्या वास्तव में अस्तित्व है?
और उनके दर्शन का क्या अर्थ है?
*क्या पश्चिमी मनोविज्ञान की ट्रांसफरन्स यानी हस्तांतरण की घटना
समर्पण की पूर्वीय धारणा के अनुरूप ही है?
*मुझे अक्सर ऐसा क्यों महसूस होता है कि मैं किसी कठपुतली की भांति अज्ञात शक्तियों द्वारा नियंत्रित हूं?
पहला प्रश्न :
क्या हिंदू पौराणिक देवी— देबताओं, जैसे कि शिव उमा तथा इंद्र आदि का किसी तल पर वास्तय में आस्तित्व है या कि ये इसके प्रतीक हैं जैसा कि आपने पिछले दो प्रवचनों में बतलाया? और यदि वे सिर्फ प्रतीक ही हैं तो लोग ध्यान में उनके दर्शन कैसे करते हैं और ऐसे देवी—देवताओं के दर्शन का क्या अर्थ है?
पुराणों में प्रतीक है। वे कोई इतिहास नहीं हैं, उनका.
वस्तुगत वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है। लेकिन इसका यह भी नहीं है कि
उनका वास्तविकता से कोई लेना—देना नहीं है। उनका आत्मगत वास्तविकता से
संबंध है। देवी—देवता ये पौराणिक प्रतीक, इनका तुम्हारे बाहर कोई आस्तित्व नहीं है। लेकिन इनका मनोवैज्ञानिक अस्तिस्व है, उसका
उपयोग किया जा सकता है। अस्तित्व सहायक हो सकता है। इसलिए.. पहली बात जो
कि समझने योग्य है वह यह कि वे कोई वरस्तविक व्यक्ति नहीं हैं जो कि इस
जगत में रहते हो, लेकिन मनुष्य के चित्त के वास्तविक प्रतीक हैं।
उदाहरण के लिए कार्ल गुस्ताव खुश इन. प्रतीकों के रहस्य. के उदधाटन के बहुत करीब पहुंच गया था। वह मानसिक रोगियों पर काम कर रहा ' था। वह अपने मरीजों से कहता था कि वे जायें और चित्र बनायें—जो भी उनके मन में आये। एक आदमी जो कि सीजोफ्रेनिक है, खंड—खंड बंटा है, टूटा हुआ है, वह कु्छ विशेष चीजें बनायेगा, और वे चीजें एक विशेष ढांचा लिए हुए होंगी। सभी खंडित मानसिकता के लोग कुछ विशेष चीजें बनायेंगे, और उन सबका ढांचा वही होगा। और जब वे रोगमुक्त हो जायेंगे, स्वस्थ
हो जायेंगे तो वे बिलकुल भिन्न चित्र बनायेंगे और यह बात प्रत्येक मरीज के
साथ होगी। सिर्फ उनके चित्रों को देखकर ही तुम कह सकते हो कि मरीज बीमार
है या नहीं।
तब जुंग को अनुभव में आया कि जब भी कोई व्यक्ति जो कि विभाजित व्यक्तित्व के रोग से र्ग्रासप था, जब वह वापस एक हो गया, ठीक हो गया, तब वह ऐसे चित्र बनाता है जैसे कि मंडल होता है, वर्तुल की तरह के चित्र बनाता है। वह वर्तुल, वह मंडल उसके भीतर के मंडल से गहरे में संबंधित है जो कि पुन: उपलब्ध कर लिया गया है। अब भीतर वह भी एक वर्तुल हो गया है, जुड़
गया है। वह एक हो गया है। तब उसके चित्रों में यकायक वर्तुल फूट पड़ते हैं।
तो कं इस नतीजे पर पहुंचा कि तुम्हारा अंतर्मन किसी खास अवस्था में कुछ
विशेष चीजें अभिव्यक्त करता है। यदि मन की स्थिति बदल जाती है तो तुम्हारे
स्वप्न भी बदल जायेंगे, तुम्हारी अभिव्यक्तियां भी बदल जायेंगी।
हिंदू पौराणिक देवी—देवता एक विशेष मनोदशा के विशेष स्वप्न हैं। जब तुम उस मनोदशा में होते हो, तो
तुमको वैसे स्वप्न दिखलाई पड़ने लगते हैं। उनमें एक प्रकार की समानता होगी।
सारे संसार में उनमें एक प्रकार की समानता होगी। थोड़ी—बहुत भिन्नता
संस्कृति, शिक्षा, प्रशिक्षण आदि के कारण होगी, लेकिन गहरे में उनमें समानता होगी।
उदाहरण
के लिए मंडल एक पौराणिक प्रतीक है। सारे संसार में यह बार—बार आता रहा है।
प्राचीन ईसाई चित्रों में भी यह है। पुराने तिब्बती चित्रों में भी यह है।
चीनी, जापानी तथा भारतीय कला में भी मंडल का एक आकर्षण रहा है। किसी भी तरह जब तुम्हारी अंतर्दृष्टि वर्तुलाकार हो जाती है, जब एक धारा की तरह हो जाती है, अखंड हो जाती है, अविभाजित हो जाती है, तो तुम अपने स्वप्न में वर्तुल देखने लगते हो। यह वर्तुल तुम्हारी वास्तविकता को बताता है।
इसी
तरह सभी प्रतीक व्यक्तिगत सत्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। और यदि कोई
समाज किसी देवता को कोई विशेष रूप देता है तो यह बहुत सहायक सिद्ध होता है।
यह साधक के लिए बहुत सहायक सिद्ध होता है, क्योंकि अब वह बहुत से आतरिक स्वप्न—दर्शनों को समझ सकता है।
फ्रायड
ने सपनों की व्याख्या करके पश्चिम में एक नये युग का प्रारंभ किया। फ्रायड
के पहले पश्चिम में कोई भी सपनों में दिलचस्पी नहीं रखता था। किसी ने सोचा
भी नहीं था कि सपनों का भी कुछ अर्थ हो सकता है या कि सपनों की भी अपनी
कुछ वास्तविकता हो सकती है या कि उनके पास भी कोई गुप्त कुंजियां हो सकती
हैं जो कि मनुष्य के व्यक्तित्व को खोल सकती हैं। लेकिन भारत में सदा से
इसका शान था। हम सदा से सपनों की व्याख्या करते रहे हैं ' और केवल सपने ही नहीं, क्योंकि सपने तो साधारण हैं, हम
दर्शनों की भी व्याख्या करते रहे हैं। दर्शन उन लोगों के सपने हैं जो कि
ध्यान कर रहे हैं और अपनी चेतना को रूपांतरित कर रहे हैं। वे भी सपने ही
हैं। सामान्य चेतना में सपने घटित होते हैं। और अब फ्रायड के मनोविज्ञान से
यह निष्कर्ष निकला है कि विशेष प्रकार के सपने एक विशेष अर्थ रखते हैं।
उदाहरण के लिए, एक आदमी लगातार सपनों में देखता है कि वह आसमान में उड़ रहा है, कि वह पक्षी हो गया है। वह उड़ता रहता है पहाड़ों पर, नदियों पर, शहरों पर, वह उड़ता ही चला जाता है। फ्रायड कहता है कि इस प्रकार का सपना, उड़ने का सपना, ऐसे
चित्त को आता है जो कि बहुत महत्वाकांक्षी है। महत्वाकाक्षा सपने में उड़ना
बन जाती है। तुम सबके ऊपर उठ जाना चाहते हो—पहाड़ों से भी ऊपर, सबके
ऊपर। यदि तुम उड़ सको तो तुम सबके ऊपर हो जाओगे। महत्वाकाक्षा सबके ऊपर
उड़ने का प्रयत्न है। सपने में महत्वाकांक्षा उड़ने का एक चित्रमय रूप ले
लेती है।
सारी दुनिया में कामवासना के सपनों का ढंग एक जैसा होता है। जब लड़के कामवासना की दृष्टि से परिपक्व हो जाते हैं तो वे छिद्रों के, सुरंगों के सपने देखने लगते हैं। वे छिद्र, वे सुरंगें स्त्री के काम—केंद्र की प्रतीक हैं, योनि की प्रतीक हैं। लड़कियां लिंग के समान वस्तुओं के सपने देखने लगती हैं जैसे कि स्तंभ हैं, मीनारें हैं।
और ऐसा पूरी दुनिया में होता है। पूरी दुनिया में इसमें कोई भी भेद नहीं है, ऐसा सब जगह होता है। स्तंभ के सपने लड़कियों को आयेंगे और छिद्रों की तरह के सपने लड़कों को आयेंगे।
यदि एक खास काम—स्थिति में कोई विशेष सपने आते हैं तो उनकी एक वास्तविकता है। यह वास्तविकता व्यक्तिगत है, सब्जेक्टिव है। ऐसा ही होता है जब तुम ध्यान में प्रवेश करते हो, तुम चेतना की भिन्न दशा में प्रवेश कर रहे हो—तुम्हें खास तरह के दर्शन होने लगेंगे। वे भी सपने ही हैं, लेकिन हम उन्हें दर्शन कहते हैं, क्योंकि वे सामान्य नहीं हैं। जब तक ध्यान में तुम एक विशेष दशा तक नहीं पहुंच जाते, वे
घटित नहीं होंगे। वे बताते हैं कि भीतर कुछ घटित हो रहा है। वे तुम्हारी
आंतरिक वास्तविकताओं को मन के पर्दे पर चित्रमय ढंग से प्रक्षेपित करते
हैं।
स्मरण
रहे कि तुम्हारा अचेतन मन कोई भाषा नहीं जानता। तुम्हारा अचेतन मन केवल
अति प्राचीन भाषा जानता है—चित्रों की भाषा। तुम्हारे चेतन मन ने भाषा के
संकेत सीख लिए हैं, लेकिन अचेतन अभी भी चित्रों की ही भाषा जानता है जैसे कि एक छोटे बच्चे का मन होता है। वह सभी चीजों को चित्रों में बदल लेता है।
उदाहरण के लिए शिवलिंग के बहुत—से अर्थ होते हैं। एक तो मैंने आज सुबह ही कहा, कि
यह जीवन—ऊर्जा का मूल स्रोत है—काम—प्रतीक। लेकिन यह एक अर्थ हुआ। शिवलिंग
अंडे के आकार का होता है—सफेद व अंडाकार। ऐसा ध्यान की विशेष स्थिति में
होता है कि यह तुम्हारे सामने प्रगट होता है—एक सफेद अंडाकार वस्तु प्रकाश
से परिपूर्ण। प्रकाश उसमें से बाहर निकलता होता है, किरणें बाहर की ओर फूटती रहती हैं।
जब भी तुम भीतर गहरे में, शांत व शीतल हो जाते हो, और जब सारा स्वरूप उत्ताप खो देता है, तो यह प्रतीक प्रकट होता है। इसीलिए पौराणिक कथाओं में शिव हिमालय पर रहते हैं जो कि संसार की सर्वाधिक ठंडी जगह है, जहां
सब शीतल है। शिवलिंग की ओर जरा देखो—एक संगमरमर के शिवलिंग की ओर—सिर्फ
उसकी ओर देखने भर से तुम्हें अपने भीतर एक शीतलता मालूम होगी। इसीलिए
शिवलिंग के ऊपर एक मटका रखा रहता है, और
उस मटके से सतत पानी की बूंदें शिवलिंग पर पड़ती रहती हैं। यह सिर्फ उसे
शीतल रखने के लिए है। ये सारे प्रतीक हैं तुम्हें शीतलता का भाव देने के
लिए।
कश्मीर में एक शिवलिंग है, प्राकृतिक शिवलिंग, जो
कि अपने— आप उभरता है जब बर्फ गिरती है। यह बर्फ का शिवलिंग है। एक गुफा
में बर्फ पड़ने से यह शिवलिंग निर्मित हो जाता है। वह शिवलिंग ध्यान के लिए
श्रेष्ठतम है—क्योंकि वह इतना ठंडा है चारों तरफ से कि वह उस आतरिक घटना की
झलक देता है, जब तुम्हारे भीतर, तुम्हारी चेतना में शिवलिंग प्रकट होता है, जब वह एक चित्र, एक प्रतीक, एक दर्शन बनता है।
ये प्रतीक सदियों—सदियों की मेहनत और प्रयास से खोजे गये हैं। वे मन की एक विशेष दशा की ओर इशारा करते हैं। मेरे लिए, सभी
पौराणिक देवी—देवता व्यक्तिगत रूप से अर्थपूर्ण हैं। बाहर वे कहीं भी नहीं
पाये जाते। और यदि तुम उन्हें बाहर पाने का प्रयास करो तो तुम अपनी ही
कल्पना के शिकार हो जाओगे। क्योंकि तुम उन्हें पा सकते हो, तुम इतनी त्वरा से उन्हें प्रक्षेपित कर— सकते हो कि तुम उन्हें पा भी सकते हो।
मनुष्य की कल्पना इतनी शक्तिशाली है, उसमें
इतनी अधिक शक्ति है कि यदि तुम सतत किसी चीज की कल्पना करो तो तुम उसे
अपने चारों ओर अनुभव कर सकते हो। तब तुम उसे देख भी सकते हो, तब तुम उसे पा भी सकते हो। वह एक वस्तु की तरह हो जायेगा। वह वस्तु की तरह है नहीं, लेकिन तुम उसे अपने बाहर अनुभव कर सकते हो। इसलिए कल्पना के साथ खेलना खतरनाक है, क्योंकि तब तुम अपनी ही कल्पना से सम्मोहित हो सकते हो, और तुम ऐसी चीजें देख और महसूस कर सकते हो जो कि वास्तव में नहीं हैं।
यह एक अपनी निजी कल्पना निर्मित करना है, एक सपनों का संसार बनाना है, यह एक तरह की विक्षिप्तता है। तुम कृष्ण को देख सकते हो, तुम क्राइस्ट को देख सकते हो, तुम बुद्ध को देख सकते हो, लेकिन यह सारी मेहनत बेकार है क्योंकि तुम सपने देख रहे हो न कि सत्य।
इसीलिए मेरा जोर सदा इस बात पर है कि ये पौराणिक आकृतियां सिर्फ प्रतीक हैं। वे अर्थपूर्ण हैं, वे काव्यात्मक हैं, उनकी अपनी एक भाषा है। वे कुछ कहती हैं, उनका कुछ अर्थ है, किंतु
वे कोई वास्तविक व्यक्तित्व नहीं हैं। यदि तुम इस बात को स्मरण रख सको तो
तुम उनका सुंदरता से उपयोग कर सकते हो। वे बहुत सहायक सिद्ध हो सकते हैं।
किंतु यदि तुम उन्हें वास्तविक की तरह सोचते हो तो फिर वे हानिकारक सिद्ध
होंगे, और
धीरे— धीरे तुम एक स्वम्मलोक में चले जाओगे और तुम वास्तविकता से संबंध खो
दोगे। और वास्तविकता से संबंध खोने का अर्थ है विक्षिप्त हो जाना। सदा
वास्तविकता से संबंध बनाये रखो। फिर भी वस्तुगत वास्तविकता को भीतर की
आत्मगत वास्तविकता को नष्ट मत करने दो। भीतर के जगत में सजग तथा सचेत रहो, लेकिन उन दोनों को मिलाओ मत।
यह हो रहा है. या तो हम बाहरी वस्तुगत सत्य को भीतर की आत्मगत वास्तविकता को नष्ट करने देते हैं, अथवा हम आत्मगत सत्य को वस्तुगत वास्तविकता पर प्रक्षेपित कर देते हैं, और तब वस्तुगत खो जाता है। ये दो अतियां हैं। विज्ञान वस्तुगत के बारे में सोचता रहता है और सब्जेक्टिव को, आत्मगत को इनकार करता रहता है, और धर्म आत्मगत की बात करता रहता है और वस्तुगत को इनकार करता रहता है।
मैं दोनों से बिलकुल भिन्न हूं। मेरा जोर इस बात पर है कि वस्तुगत वस्तुगत है और उसे वस्तुगत ही रहने दो, और आत्मगत आत्मगत है, उसे आत्मगत ही रहने दो। उन दोनों की शुद्धता बनाये रखो, और तुम ऐसा करके पहले से अधिक बुद्धिमान रहोगे। यदि तुम उन्हें मिला दोगे, यदि तुम उनमें भ्रम पैदा कर लोगे तो तुम विक्षिप्त हो जाओगे, तुम्हारा संतुलन डगमगा जायेगा।
दूसरा प्रश्न :
कल
आपने मनोविश्लेषण तथा रोगियों के अपने मनोविश्लेषकों के प्रेम में पड़ जाने
की चर्चा की। विश्लेषण इस घटना को ट्रांसफरन्स यानी हस्तांतरण कहता है और
एक विशेष उद्देश्य से ऐसा घटे इसकी चेष्टा करता है। अपनी सारी प्रेम की
भावना को अपने मनोविश्लेषक पर उड़ेलने से व्यक्ति विकसित होता है और एक
स्वस्थ ढंग से प्रेम करना सीखता है। क्या यह धारणा पूर्वी परंपरा में
समर्पण जैसी ही नहीं है? क्या यह संभव नहीं है कि किसी गुह्य स्रोत से यह कीमती रहस्य फ्रायड के पास आया हो?
हां, ट्रासफरन्स, हस्तातरण सहायक हो सकता है, लेकिन
किसी मनोविश्लेषक के साथ नहीं। यह गुरु के साथ सहायक सिद्ध हो सकता है। यह
केवल तभी सहायक हो सकता है यदि वह व्यक्ति जिसके प्रेम में तुम पड़ते हो वह
स्वयं आसक्ति के पार जा चुका हो, उसके प्रेम की कोई समस्या न रही हो। यदि तुम किसी गुरु के प्रेम में पड़ते हो...। गुरु से मेरा अर्थ है ऐसा व्यक्ति जो कि सब संबंधों, सब आसक्तियो, प्रेम की सब समस्याओं के पार चला गया हो।
अन्यथा यह हस्तांतरण दोहरा हो जाता है। रोगी हस्तांतरण करता है, प्रक्षेपण करता है अपनी प्रेम की आवश्यकता अपने चिकित्सक पर, और चिकित्सक अपने प्रेम की आवश्यकता अपने रोगी पर प्रक्षेपित करता है। और ऐसा चिकित्सक जिसकी अपनी प्रेम की आवश्यकता बाकी हो, अधिक सहायता नहीं कर सकता। वस्तुत: वह स्वयं ही अभी रुग्ण है, और दो रुग्ण व्यकिा स्वस्थ होने में एक—दूसरे की मदद नहीं कर सकते। यह पुन: एक विषाद ही पैदा करने वाला है, न कि प्रेम में विकास।
प्रेम तभी विकसित हो सकता है यदि दूसरा व्यक्ति साधारण समस्याओं के, प्रेम के सामान्य द्वंद्वों के ऊपर उठ गया हो। प्रेम की समस्या क्या है? एक तो समस्या यह है कि जैसे ही तुम किसी व्यक्ति के प्रेम में होते हो, उसी से तुम घृणा भी करते हो। यह पहली समस्या है, क्योंकि जिसे भी तुम प्रेम करते हो साथ—साथ तुम घृणा भी करते हो।
जिस व्यक्ति से तुम प्रेम करते हो उससे तुम घृणा क्यों करते हो? प्रेम एक जरूरत है, और प्रेम की ही भांति एक दूसरी भी जरूरत है, वह है स्वतंत्रता। जिस क्षण तुम किसी को प्रेम करते हो, तुम उस पर निर्भर महसूस करने लगते हो, तुम्हारी
स्वतंत्रता खो गई। और जो र्व्याक्ते तुम्हारी स्वतंत्रता को नष्ट कर रहा
है उसे तुम घृणा करोगे ही। और जो व्यक्ति तुम्हें निर्भर बना रहा है वह
तुम्हें दुश्मन ही नहीं मालूम पड़ेगा बल्कि कट्टर दुश्मन मालूम पड़ेगा, क्योंकि वह तुम्हारी स्वतंत्रता, तुम्हारी आजादी, तुम्हारी निजता को नष्ट कर रहा है। लेकिन प्रेम एक जरूरत है, इसलिए तुम स्वतंत्रता की कीमत पर प्रेम को पूरा करते हो; इसीलिए तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो और तुम उसी से घृणा भी करते हो।
फिर दूसरी समस्या सामने आती है जिस क्षण तुम किसी के प्रेम में होते हो, तुम अपने होश में नहीं रहते। तुम पागल हो जाते हो। सचमुच तुम पागल हो जाते हो। तुम सजग नहीं रहते, तुम होश में नहीं रहते। तुम ऐसे चल रहे होते हो जैसे नींद में। और यदि दूसरा आदमी भी तुम्हारी ही तरह है—और मनोचिकित्सक वैसा ही है, कोई भी भेद नहीं है, उसकी
चेतना तुम्हारी चेतना से ऊंची नहीं है—तब वह भी नींद में चल रहा है। नींद
में चल रहे दो आदमी टकरायेंगे ही। वे द्वंद्व में पड़ेंगे, संघर्ष में पड़ेंगे।
हमने भारत में गुरु के प्रेम में पड़ने को दूसरा ही शब्द दिया है, केवल
अंतर बतलाने के लिए। हम उसे श्रद्धा कहते हैं—एक प्रेमपूर्ण श्रद्धा। यदि
तुम गुरु के प्रेम में पड़ते हो—और तुम पड़ोगे ही—तो उसमें बड़ा अंतर है। तुम
नींद में हो, लेकिन गुरु नींद में नहीं है। तुम सब भांति प्रयास करोगे कि द्वंद्व खड़ा हो, हिंसा हो, आक्रमण हो, लेकिन वह तुम पर हंस सकता है। वह करुणावान हो सकता है, और वह चीजों को ऐसे व्यवस्थित कर सकता है कि कोई टकराव न हो। वह चीजों को ऐसा ढंग दे सकता है कि कोई घृणा अथवा हिंसा न हो।
लेकिन मनोचिकित्सक के पास, तुम तुम्हारी जैसी ही मनस्थिति वाले मनुष्य के साथ मिल रहे हो। मन की गुणवत्ता वैसी ही है, तुम दोनों एक—दूसरे के लिए समस्याएं खड़ी करोगे।
प्रेम में, प्रेमी
एक—दूसरे के लिए समस्याएं खड़ी करते रहते हैं। वे अपनी समस्याएं एक—दूसरे
पर डालते रहते हैं। और यदि दोनों एक—दूसरे पर अपनी— अपनी समस्याएं डाल रहे
हैं, तो फिर कोई विकास नहीं हो सकता, उससे
किसी स्वस्थ प्रौढ़ता तक नहीं पहुंचा जा सकता। यह असंभव है। यह फिर एक असफल
अनुभव ही होने वाला है। और जितने अधिक तुम असफल होते हो, उतने
ही तुम असफलता में अनुभवी होते जाते हो। तब तुम जानते हो कि असफल किस भाति
हुआ जाता है। और प्रत्येक प्रेम के अनुभव तथा संबंध से यदि दुख ही निर्मित
होता है, तो धीरे— धीरे तुम्हें ऐसा प्रतीत होने लगता है कि प्रेम एक प्रकार का रोग है।
ऐसे लोग हुए हैं... आस्कर वाइल्ड ने कहीं पर कहा है कि प्रेम एक ज्वर है, एक ज्वर की स्थिति है। यह कोई स्वास्थ्य नहीं है, क्योंकि जब भी तुम प्रेम में होते हो तो तुम एक ज्वर में होते हो। तुम ठीक से सो नहीं सकते, जब तुम प्रेम में हो, तुम चैन से नहीं रह सकते—बेचैन, भीतर एक तूफान है, एक ज्वर तुम्हें पकड़ लेता है।
तीसरी समस्या है कि जब भी तुम प्रेम में होते हो, तो तुम दूसरे के मालिक बनने का प्रयत्न करते हो, तुम दूसरे पर मालकियत करने की कोशिश करते हो। और यही दूसरा भी करता है, वह भी तुम पर मालकियत करने की कोशिश करता है। और इस मालकियत का अर्थ क्या है त्र: क्या है मालकियत? मालकियत का अर्थ होता है व्यक्ति को वस्तु में बदल देना, ताकि
तुम उसका जो चाहो कर सको। तब उस व्यक्ति की कोई स्वतंत्रता नहीं बचती। और
प्रत्येक प्रेमी इस कोशिश में लगा है कि वह दूसरे के व्यक्तित्व को पोंछ
दे।
केवल
गुरु के साथ यह नहीं होगा। गुरु के साथ शिष्य सब भांति प्रयास करेगा कि
गुरु पर मालकियत हो जाए लेकिन तुम गुरु पर मालकियत नहीं कर सकते। यह बात
बिलकुल असंभव है, क्योंकि
तुम किसी व्यक्ति पर मालकियत तभी कर सकते हो जब वह भी गहरे में तुम्हारे
साथ सहयोग कर रहा हो। वह भले ही कहता हो कि वह स्वतंत्रता चाहता है, लेकिन एक गहरी आवश्यकता मालकियत करने देने की भी है।
गुरु पर मालकियत नहीं की जा सकती, इसलिए
तुम्हारा सारा प्रयास मालकियत करने का व्यर्थ चला जायेगा। और वह तुम पर
मालकियत नहीं करेगा। बल्कि उल्टे वह तुम्हारी सहायता कर रहा है कि तुम और
भी ज्यादा व्यक्ति हो जाओ, ज्यादा जीवंत हो जाओ, ज्यादा स्वतंत्र, ज्यादा सजग, ज्यादा
सचेतन हो जाओ। उसकी सारी कोशिश तुम्हें बजाय एक वस्तु के ज्यादा से ज्यादा
व्यक्ति बनाने की ओर होगी। लेकिन प्रेमी एक—दूसरे को वस्तु बनाने की कोशिश
में लगे हैं। मनोविश्लेषक एक सामान्य मनुष्य है, थोड़ा वह कुशल है, लेकिन उसकी चेतना वैसी ही है।
कुछ मनोविश्लेषक, जैसे कि विलहेम रैख तथा उसके अनुयायी, कहते हैं कि यह ट्रासफरन्स, यह रोगी का चिकित्सक के प्रेम में पड़ जाना, अच्छा है। लेकिन मैं विलहेम रैख की पत्नी के संस्मरण पढ़ रहा था, और वह कहती है कि रैख प्रत्येक स्त्री रोगी के साथ प्रेम करता था, लेकिन वह अपनी पत्नी को किसी और पुरुष से बात भी नहीं करने देता था।
उसकी
पत्नी किसी पहाडी स्थान पर दो माह के लिए गई हुई थी। जब वह लौटकर आई तो
उसने एक—एक बात पूछी कि वह वहां क्या करती रही—वह किस—किस से मिली, क्या वह किसी के प्रेम में पड़ी... और उसकी पत्नी कहती है कि वह हर रोज नई स्त्री के साथ प्रेम करता था, फिर भी अपनी पत्नी के बाबत ईर्ष्यालु था, और उस पर मालकियत करता था। यह व्यक्ति कैसे सहायक हो सकता है? ऐसे व्यक्ति से क्या सहायता प्राप्त हो सकती है? वह स्वयं ही अपनी प्रेम—समस्याओं में पड़ा हुआ है। यह संभव है कि वह सिर्फ एक तर्क दे रहा हो। वह एक विक्षिप्त है, कुंठित है, और वह सारी बात पर एक फिलासफी का रंग दे रहा है, वह पूरी बात तर्कसम्मत बना रहा है।
मैं
यह नहीं कहता कि प्रेम सहायक नहीं हो सकता—प्रेम सहायक हो सकता है—लेकिन
यह तभी सहायक हो सकता है जब तुम अपने से ज्यादा ऊंचाई वाले व्यक्ति के
प्रेम में पड़ते हो; अन्यथा यह सहायता नहीं कर सकता। और ऐसे प्रेम को हम श्रद्धा कहते हैं।
यदि तुम गुरु के प्रेम में हो, एक बुद्धपुरुष के प्रेम में हो—और निश्चित ही तुम होओगे; यदि
तुम एक बुद्धपुरुष के निकट हो तो तुम उसके प्रेम में हो ही जाओगे—तो
शुरू—शुरू में बुद्धपुरुष के प्रति तुम्हारे प्रेम में थोड़ा काम— भाव होगा; यह
होना अनिवार्य है। इसीलिए बुद्ध के साथ या महावीर के साथ ऐसा होता है...
ऐसा जाना गया है कि महावीर के चालीस हजार शिष्य थे। उन चालीस हजार शिष्यों
में तीस हजार स्त्रियां थीं, केवल दस हजार पुरुष थे। तीन स्त्रिया और एक पुरुष का अनुपात था। चार शिष्यों में से तीन स्त्रियां थीं, और एक पुरुष था।
ये जो तीस हजार स्त्रिया थीं, ये जरूर महावीर के गहन प्रेम में, और शुरू में एक काम—आकर्षण में रही होंगी। ऐसा होना अनिवार्य है, यह स्वाभाविक ही है। लेकिन धीरे— धीरे महावीर की उपस्थिति उस कामुक हिस्से को बदल देगी। धीरे— धीरे उनके निकट रहते—रहते, कामुकता गिर जायेगी और प्रेम शुद्ध होगा—यह और भी ज्यादा आध्यात्मिक हो जायेगा।
और
प्रारंभ में यह मालकियत करने वाला प्रेम होगा। मुझे भी यह महसूस होता है
कि यह मालकियत करने वाला हो जाता है। मेरे चारों ओर बहुत—सी स्त्रियां हैं, और वे अनजाने ही मालिक बनना शुरू कर देती हैं। और उसमें कुछ भी गलत नहीं है; यह
स्वाभाविक ही है। लेकिन यदि मैं भी उसी मनोदशा में हूं तो फिर मैं उनकी
कोई सहायता नहीं कर सकता। तब बजाय कि मैं उनको चेतना के ऊंचे तल पर ले जाऊं, वे मुझे अपने तल पर नीचे खींच लेंगी। और समानता के लिए सतत संघर्ष चलता रहता है। स्मरण रहे, जैसे पानी अपने तल को खोज लेता है, वैसे
ही जब भी तुम किसी व्यक्ति से मिलते हो तो तुम दोनों में एक संघर्ष चलता
है तल निर्मित करने का। तुम ऊपर की ओर जाओ या वह नीचे की ओर आए, लेकिन देर— अबेर तुम्हें एक समान तल पर आना पड़ेगा। वरना मामला कठिन हो जायेगा, तुम दोनों में कोई संबंध नहीं बन सकता।
जैसे पानी तल खोजता है, वैसे ही संबंध भी तल खोजता है। यदि तुम मेरे प्रेम में पड़े हो तो फिर संघर्ष होने ही वाला है। चाहे वह लंबा चले, चाहे थोड़े दिन ही चले, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम किस प्रकार के व्यक्ति हो, लेकिन
संघर्ष तो होगा ही। तुम मुझे नीचे खींचने की कोशिश करोगे ताकि समानता बन
जाए। प्रकृति को समानता पसंद है। लेकिन यदि तुम मुझे नीचे ला सकते हो तो
मैं तुम्हारे किसी भी काम का नहीं हूं। तो जब तुम मुझे नीचे खींचने की
कोशिश कर रहे हो, मुझे तुम्हें ऊपर एक उच्चतर तल पर उठाने का प्रयत्न करना है। और स्मरण रहे, नीचे उतरना बड़ा आसान है; किसी को ऊंचे तल पर लाना बड़ा मुश्किल है। यह एक कठिन संघर्ष है।
जब चिकित्सक और रोगी एक ही चेतना के तल पर हैं तो केवल उनका ज्ञान भिन्न है—उनका होना नहीं। एक ने मनोविज्ञान, मनोविश्लेषण, मनोचिकित्सा का अध्ययन किया है; वह एक कुशल विशेषज्ञ है। दूसरे ने इन सबका अध्ययन नहीं किया है, केवल इतना ही भेद है। उनकी स्मृतिया भिन्न हैं, उनकी जानकारी भिन्न है। जहां तक उनके मन का प्रश्न है वे भिन्न—भिन्न हैं, लेकिन जहा तक उनकी चेतना का है दोनों एक जैसे हैं इसलिए मैं नहीं सोचता कि यह ट्रासफरन्स, यह प्रेम का प्रक्षेपण कुछ भी सहायक हो सकता है। यह नहीं हो सकता। यह तभी हो सकता है यदि मनोविश्लेषक एक गुरु भी हो, तभी
यह सहायक हो सकता है। अन्यथा यह किसी काम का नहीं है। जिस व्यक्ति के तुम
प्रेम में पड़ो वह ऐसी स्थिरता का व्यक्ति होना चाहिए कि तुम उसे नीचे न
खींच सको, चाहे तुम कुछ भी करो। और तुम बहुत प्रयत्न करोगे, तुम जी—जान से प्रयत्न करोगे कि तुम उसे नीचे ले आओ। यह स्वाभाविक है, क्योंकि जो व्यक्ति तुमसे ऊंचा है तुम उसके साथ बड़ी बेचैनी अनुभव करणैं। या तो तुम ऊपर जाओ, जो कि मुश्किल काम है, या वह नीचे उग जाये—और तुम्हें यह सरल मालूम होता है कि उसे भी नीचे ले आया जाये।
यदि वह नीचे आ सकता है, अथवा यदि वह पहले से ही नीचे है और सिर्फ दिखावा कर रहा है कि वह नीचे नहीं है, तो वह सहायक सिद्ध नहीं होगा। लेकिन यदि वह तुमसे ऊपर ही बना रहता है, तो तुम्हारा प्रेम वस्तुत: एक विकास हो सकता है।
शिष्य और गुरु एक सतत संघर्ष में होते हैं, इसे स्मरण रखो, सतत संघर्ष में, क्योंकि शिष्य गुरु को नीचे लाने की कोशिश में लगे हैं; और गुरु शिष्यों को ऊपर ले जाने की कोशिश कर रहा है। यह एक बहुत ही गहरा संघर्ष है, और शिष्य कुछ भी करने को बाकी नहीं छोड़ेंगे। ऐसा नहीं है कि वे जानते हों, उन्हें पता भी नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं। वे मूर्च्छित हैं और उन्हें क्षमा किया जा सकता है। गुरु को क्षमा नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसे तो सजग होना चाहिए, जागरूक होना चाहिए, उसे तो पता होना चाहिए कि उसके चारों ओर क्या चल रहा है।
मनोविश्लेषक कोई गुरु नहीं है। इसीलिए मैंने कहा : पश्चिम में, मनोविश्लेषक और रोगी के बीच का संबंध कामुकता के लिये लाइसेंस हो गया है—इससें ज्यादा नहीं। वह किसी की भी सहायता नहीं कर रहा है।
और इसी प्रश्न का दूसरा हिस्सा है
क्या यह धारणा पूर्वीय परंपरा में समर्पण जैसी ही नहीं है? क्या यह संभव नहीं है कि किसी गुह्य स्रोत से यह कीमती रहस्य फ्रायड के पास आया हो?
नहीं, समर्पण
प्रेम से भिन्न है। प्रेम में तुम तुम्हीं बने रहते हो। प्रेम एक संबंध है
दो व्यक्तियों के बीच जो कि दो बने रहते हैं। यह एक संबंध है, यह एक सेतु है। समर्पण कोई संबंध नहीं है। तुम सिर्फ विलीन हो जाते हो, तुम बचते ही नहीं। जब तुम किसी गुरु को समर्पण करते हो, तो तुम कहते हो, ''अब मैं नहीं रहा, अब तुम्हें जो करना हो सो करो; मैं हूं ही नहीं। ''यह कोई संबंध नहीं है।
समर्पण कोई संबंध नहीं है, क्योंकि इसमें व्यक्ति बिलकुल ही मिट जाता है, और संबंध के लिए दो चाहिए। केवल गुरु ही बचता है।
वास्तव में, जब तुम समर्पण कर देते हो तो गुरु ही काम करता है, तुम वहा नहीं होते। तब बड़ा सरल होता है काम करना, कगेंकि जो संघर्ष शिष्य बीच में लाता है, वह जो प्रतिरोध खड़ा करता है, अब वहां नहीं होता। वह बिलकुल विश्राम में होता है, ''लेट गो '' की स्थिति में होता है। जब गुरु कहता है बायें जाओ तो वह बायें जाता है, जब गुरु कहता है दायें जाओ तो वह दायें जाता है। जो भी गुरु कहता है, वह सिर्फ उसका अनुसरण करता है। वह अपने अहंकार को खड़ा नहीं होने देता। यह कोई संबंध नहीं है।
प्रेम एक संबंध है। दोनों प्रेमी स्वयं बने रहने की कोशिश करते हैं; इसीलिए संघर्ष होता है। दोनों जुड़े भी रहना चाहते हैं और फिर स्वतंत्र भी रहना चाहते हैं।
यह विरोधाभासी है, क्योंकि संबंध के कारण ही और तुम्हें समझौता करना पड़ेगा और दूसरे के साथ तालमेल बिठाना पड़ेगा। और तुम फिर वही नहीं रहोगे।
एक आदमी जो कि अविवाहित है, वह शादी के बाद वैसा ही नहीं रहेगा। वह रह ही नहीं सकता। वैसा ही बने रहना असंभव है, क्योंकि अब एक नया समझौता प्रवेश कर गया है। अब एक नया व्यक्ति प्रवेश कर गया है, और एक संबंध निर्मित हो गया है। यह संबंध दोनों को बदलेगा। स्मरण रहे कि प्रेम में दोनों बदलते हैं; समर्पण में केवल जिसने समर्पण किया है, वही बदलता है—न कि गुरु। वह संबंधित ही नहीं है। वह दूर खड़ा रहता है, वह दूर ही बना रहता है, वह एक दृरी पर है। तुम समर्पण करते हो, और तुम बदलते हो। प्रेम में सदा एक शर्त होती है : तुम कुछ पाने के लिए कुछ देते हो। यह लेन—देन है। समर्पण में तुम सिर्फ देते हो, उसमें कोई शर्त नहीं होती।
समर्पण एक बिलकुल ही भिन्न घटना है। वास्तव में, पश्चिम इस घटना से पूर्णत: अपरिचित है। गुरु—शिष्य संबंध पूरी तरह से एक पूर्वीय घटना है। पश्चिम में शिक्षक और विद्यार्थी हैं, गुरु और शिष्य नहीं। इसीलिए कृष्णमूर्ति की शिक्षायें पश्चिम में इतनी प्रभावी हो सकीं, क्योंकि वे कहते हैं कि कोई गुरु नहीं है और कोई शिष्य नहीं है।
पूर्व एक भिन्न ही तरह का संबंध विकसित कर सका—यदि तुम उसे संबंध कहो तो—जिसमें एक होता है, और दूसरा उसमें घुलमिल जाता है; जिसमें समर्पण करने वाला तो बदलता है, लेकिन गुरु कोई समझौता नहीं करता। यह एकतरफा मार्ग है।
प्रेम दोतरफा है। दोनों कुछ करते हैं, दोनों कुछ लेते हैं, देते हैं। वह एक लेन—देन है। समर्पण एकतरफा है। शिष्य सिर्फ अपने को समर्पित करता है, और गुरु अछूता ही रहता है। केवल तभी वह काम कर सकता है। यदि वह भी तुम्हारे द्वारा बदला जाए, तो फिर वह तुम्हें नहीं बदल सकता। इसलिए बहुत बार गुरु बहुत कठोर मालूम पड़ते हैं। वे बहुत क्रूर प्रतीत होते हैं, वे निर्दयी दिखलाई पड़ते हैं, क्योंकि तुम रोते—चिल्लाते हो और वे अस्पर्शित ही रहते हैं। या यदि वे दिखलाते भी हैं कि वे भी स्पर्शित हुए हैं, तो तम देख सकते हो कि वे सिर्फ बहाना कर रहे हैं, नाटक कर रहे हैं।
समर्पण एकतरफा बात है, पूरी
तरह एकतरफा। इसीलिए यह इतना कठिन है। क्योंकि यदि तुम्हें लगता हो कि
दूसरा भी झुक रहा है तो यह ज्यादा सरल हो जाता है। तब यह एक सौदा है, तब यह एक विवाह है। विवाह एक सौदा है।
समर्पण कोई विवाह नहीं है, उसमें कोई अनुबंध नहीं है। तुम सिर्फ अपनी तरफ से अपने को खो देते हो, और गुरु तुम्हें धन्यवाद भी नहीं देगा। तुम अपने को पूरी तरह मिटा रहे हो, समर्पित कर रहे हो, और वह तुम्हें धन्यवाद भी नहीं देगा। वह शायद तुम्हारी तरफ देखे भी नहीं।
ऐसा कहा जाता है कि बायजीद, एक सूफी फकीर, अपने गुरु के पास आया और गुरु ने कहा, '' क्या तुम समर्पण करने के लिए तैयार हो? अन्यथा संसार में जाओ और संसार का थोड़ा और अनुभव कर लो, अहंकार की असफलता का स्वाद थोड़ा और चख लो, ताकि तुम प्रतिरोध न करो। ''
लेकिन बायजीद ने कहा, ''मैं तैयार हूं। ''
गुरु ने बायजीद से कहा, ''तो अब तुम चुप हो जाओ, जब तक कि मैं तुम्हें कुछ न कह तुम्हें कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है।''
कहते हैं कि बारह वर्ष तक बायजीद बिलकुल मौन ही रहा। वह रोज उगता, गुरु के पास बैठ जाता ' ओाए र प्रतीक्षा करता। और कहते हैं कि सिर्फ प्रतीक्षा करते—करते ही उसने पा लिया।
एक दिन, बारह वर्ष बाद, गुरु ने पहली बार उसकी तरफ देखा, और वही क्षण था, बायजीद याद करता है, जब वह पूरी तरह से प्रतीक्षा में था। एक भी विचार भीतर नहीं था। तब गुरु ने उसकी ओर देखा। यह एक स्वीकृति थी कि ''अब तुम स्वीकार कर लिए गये। ''
उसके
बाद तीन वर्ष और बीत गये और एक दिन गुरु ने बायजीद का हाथ अपने हाथ में
लिया। बायजीद स्मरण करता है कि उस दिन प्रतीक्षा भी समाप्त हो गई थी। वह भी
एक सूक्ष्म विचार था. ''प्रतीक्षा, प्रतीक्षा, प्रतीक्षा... एक दिन कुछ होने वाला है। '' वह भी खो गया था। गुरु ने उसका हाथ अपने हाथ में लिया।
फिर तीन वर्ष और बीत गये, और एक दिन गुरु ने उसे अपने पास बुलाया, अपने हृदय के निकट लिया, उसे छाती से लगा लिया और कहा, '' अब तुम जा सकते हो। '' ये बोले गये पहले शब्द थे : ''अब तुम जा सकते हो। ''
यह समर्पण है। और बायजीद स्मरण करता है ''वही क्षण था जबकि वह अस्तित्व के साथ इतना एक हो गया था, वर्तमान क्षण में खो गया था, कि गुरु भी विलीन हो गया था। मैं उनके करीब बैठा था, लेकिन गुरु विलीन हो गया था, वहां कोई नहीं था—केवल अस्तित्व ही वहा था। वही क्षण था जब गुरु ने मुझे पास बुलाया, छाती से लगाया, और कहा : अब तुम जा सकते हो। ''
यह समर्पण है—एकतरफा। लेकिन जब शिष्य g]रु के निकट आते हैं तो वे शुरू में प्रेम में पड़ते हैं, समर्पण में नहीं। और वे उस प्रेम को ही समर्पण कहते हैं। इससे ही समस्याएं खड़ी होती हैं, क्योंकि प्रेम समर्पण नहीं है। समर्पण एक ऊंची अवस्था है—पूर्णतः गुणात्मक रूप से भिन्न, बिना मांग के, बिना मालकियत के, बिना आकाक्षा के, बेशर्त। लेकिन यह स्वाभाविक ढंग है, क्योंकि समर्पण का तुम्हें कुछ पता नहीं होता, जबकि
प्रेम एक प्राकृतिक घटना है। पहले तुम्हें प्रेम घटता है और यदि दूसरा
व्यक्ति भी प्रेम का आकांक्षी नहीं है तो ही वह तुम्हारे प्रेम को समर्पण
की ओर ले जा सकता है।
यह
इस पर निर्भर करेगा कि तुम कितना प्रतिरोध करते हो। तुम सारी जिंदगी
प्रतिरोध कर सकते हो : तब वह नहीं होगा। और कोई गुरु तब तक कुछ भी नहीं कर
सकता जब तक कि तुम सहयोग न करो, जब तक तुम अवसर न दो। क्योंकि कोई भी गुरु आक्रामक नहीं हो सकता। यदि तुम खुले हो, वह प्रवेश कर सकता है; यदि तुम कोई प्रतिरोध खड़ा नहीं करते तो वह तुम्हें बदल सकता है और रूपांतरित कर सकता है।
समर्पण सबसे सरल रास्ता है रूपांतरण का। बाकी सारे रास्ते बड़े कठिन हैं, और बहुत लंबा समय लेते हैं। यदि तुम अपने को अलग रख सको, तो ग्गुरु तुम्हारे भीतर प्रवेश कर सकता है, और
तुम्हारा पूरा अस्तित्व ही रूपांतरित कर सकता है। लेकिन कोई गुरु आक्रामक
नहीं हो सकता। बिना तुम्हारी मर्जी के कुछ भी नहीं हो सकता। समर्पण का अर्थ
है कि तुम पूर्णरूप से सहयोगी हो। जो भी किया जाये, तुम सहयोग करोगे।
पश्चिम में ऐसा कभी भी नहीं हुआ। जीसस के बारह अनुयायी भी वास्तव में समर्पित नहीं थे, क्योंकि जब आखिरी रात को पीटर ने पूछा. जब जीसस शत्रुओं द्वारा पकड़े जाने वाले थे, और अफवाह थी कि जीसस को वे सूली पर चढ़ा देने वाले हैं, मार डालने वाले हैं, तब पीटर ने कहा, ''जहा भी आप जायेंगे, मैं आपके पीछे—पीछे चलूंगा। ''
जीसस हैसे और बोले, ''सुबह सूरज ऊगने के पहले तुम मुझे तीन बार मना कर चुके होओगे।''
और ऐसा ही हुआ। जीसस पकड़ लिये गये। अभी अंधेरा था, और वे लोग, शत्रु, जीसस
को पकड़ कर कहीं ले जा रहे थे। पीटर भी उनके पीछे—पीछे चल रहा था। किसी ने
उसका चेहरा देखा। उन्होंने मशालें जला रखी थीं और किसी ने उसका चेहरा देखा।
पीटर अजनबी सा मालूम हुआ, क्योंकि जो उस समूह में थे वे सब एक—दूसरे को जानते थे, तो किसी ने पूछा, ''तुम कौन हो? क्या तुम जीसस के अनुयायी हो? ''
उसने कहा, ''नहीं, मैं जानता भी नहीं हूं जीसस को। ''
और जीसस ने पीछे मुड़कर देखा और उन्होंने कहा, ''तुमने अभी ही मुझे मना कर दिया है!''
उस आखिरी रात, जब वे विदा हो रहे थे, शिष्यों ने जीसस से पूछा, ''हम जानते हैं कि जल्दी ही हम परमात्मा के राज्य में प्रवेश करेंगे। आप तो परमात्मा के दाहिने बैठेंगे, क्योंकि आप उसके एकमात्र बेटे हैं, लेकिन अच्छा होगा कि आप हमें बता दें कि हम बारह कहां बैठे होंगे। हमारी क्या जगह होगी?''
यह कोई समर्पण नहीं है। यह जरा भी समर्पण नहीं है। वे सब महत्वाकांक्षी हैं, उनके अपने अहंकार हैं, और वे लोभ तथा सौदेबाजी की भाषा में सोच रहे हैं।
जीसस को समर्पित शिष्य नहीं मिले। इसीलिए ईसाइयत जीसस के विपरीत चली गई। वे क्राइस्ट का नाम लेते हैं, लेकिन उनका क्राइस्ट से कुछ लेना—देना नहीं है। ईसाइयत जीसस के बिलकुल ही विपरीत है, क्योंकि केवल समर्पित शिष्य ही सच्चा संदेश ले जा सकते हैं, प्रामाणिक संदेश ले जा सकते हैं। जो समर्पित नहीं हैं, वे उसे तोड़—मरोड़ देंगे। इसलिए यह कहा जा सकता है कि दुनिया में पोप सबसे ज्यादा क्राइस्ट—विरोधी व्यक्ति है।
समर्पण की धारणा पूर्वीय है। किसी ने बुद्ध से एक दिन पूछा, '' आपके साथ दस हजार भिक्षु हैं, उनमें से कितने बुद्ध हो चुके हैं, शान को उपलब्ध हो चुके हैं? ''
बुद्ध ने कहा, ''बहुत से। ''
तो उस व्यक्ति ने पूछा, ''यदि इन दस हजार भिक्षुओं में बहुत—से बुद्ध हो चुके हैं तो वे आपकी तरह चमकते क्यों नहीं हैं? वे आपकी तरह जाने क्यों नहीं जाते? क्यों उन्हें आपकी तरह पूजा और चाहा नहीं जाता है? वे अब तक भगवान क्यों नहीं हुए हैं?''
तो बुद्ध ने कहा, ''वे
मेरी अनुमति की प्रतीक्षा कर रहे हैं—सिर्फ प्रतीक्षा कर रहे हैं। यदि मैं
कह दूं तो वे जाहिर कर देंगे। वे समर्पित शिष्य हैं। यदि मैं कह दूं तो वे
स्वयं को प्रगट कर देंगे—वे केवल मेरी अनुमति के लिए रुके हुए हैं। यदि
मैं कुछ न कहूं तो वे इस विराट में खो जायेंगे बिना एक भी शब्द बोले। '' यह बात ही बिलकुल अलग है, जो और कहीं भी घटित नहीं हुई है।
पूर्व ही अकेला है जिसने प्रेम के तत्वों से, समर्पण की घटना पैदा की है। लेकिन यह एक नया संश्लेषण, एक नई घटना है। यह प्राकृतिक नहीं है। प्रेम प्राकृतिक है, समर्पण प्रकृति के पार की घटना है, परा—प्राकृतिक
है। यह कुछ ऐसा नया है जो कि विकास के दौरान अपने आप घटित नहीं होता। इसे
अति—चेतन लोगों ने सृजित किया है। यह एक बिलकुल ही नवीन घटना है; एक नया सृजन है।
अंतिम प्रश्न :
मुझे
बहुत गहरे में ऐसा अनुभव होता है कि जैसे कोई अज्ञात शक्तियां मेरे
विचारों तथा कृत्यों को नियंत्रित करती हैं मुझे लगता है कि मैं अज्ञात
धागों द्वारा चालित एक कठपुतली हूं जैसे कि क्षण—क्षण मेरी परीक्षा ली जा
रही है फिर भी मैं इसके प्रति सजग नहीं हूं और यह भी नहीं जानता हूं कि
कहीं यह सब मेरे मन का खेल तो नहीं है! यह प्रश्न भी किसी अन्य शक्ति
द्वारा ही बनाया गया लगता है जो कि मेरी शक्ति और नियंत्रण के बाहर है
कृपया बतायें कि यह सब क्या है?
यह इतना साफ है! इसमें कुछ भी बताने की आवश्यकता नहीं है। यह कोई प्रश्न नहीं है, केवल तथ्य का कथन है। और यह शुभ है। यदि वस्तुत: ही तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम एक कठपुतली हो, तो फिर तुम्हें कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। यदि तुम्हें सच में ऐसी प्रतीति हो रही है कि तुम अज्ञात शक्तियों के हाथ में हो, तो तुम नहीं हो। यही तो चाहिए—कि तुम नहीं हो जाओ।
लेकिन मैं सोचता हूं कि जब तुम कहते हो कि तुम्हें लगता है तुम एक कठपुतली की भांति हो, तो
उसमें कुछ निंदा का भाव है। तुम्हें यह अच्छा नहीं लगता—कठपुतली की भांति!
लेकिन फिर भी तुम तो हो ही। कौन है जो कठपुतली की भांति महसूस कर रहा है? यदि वास्तव में ही तुम कठपुतली हो तो फिर कठपुतली की भांति महसूस कौन कर रहा है? कौन महसूस कर सकता है? कौन है वहां जो महसूस करे? तुम कठपुतली हो और बात खतम हो गई।
इसलिए
एक काम करो : यह खयाल छोड़ दो कि तुम एक कठपुतली हो। सिर्फ अपने चारों ओर
उपस्थित विराट की शक्तियों के प्रति सजग होओ। तुम कुछ भी नहीं हो, कठपुतली भी नहीं। तुम सिर्फ बहुत—सी शक्तियों का एक मिलन—बिंदु हो, सिर्फ
एक चौराहा हो जहां से बहुत—सी शक्तियां गुजरती हैं। और क्योंकि बहुत—सी
शक्तियां गुजरती हैं तो एक बिंदु बन जाता है। यदि तुम बहुत—सी रेखाएं खींचो
जो कि एक—दूसरे को काटती हों तो एक बिंदु पैदा हो जायेगा। वह बिंदु ही
तुम्हारा अहंकार बन जाता है, और तुम्हें प्रतीति होती है कि तुम हो।
तुम नहीं हो, केवल विराट है। तुम एक कठपुतली की भांति भी नहीं हो, वह भी अहंकार को एक नये रूप में बनाये रखना है। और चूंइक अहंकार अभी बना है, इसलिए इस परिस्थिति के प्रति एक निंदा का भाव महसूस होता है।
आनंदित होओ कि तुम नहीं हो, क्योंकि तुम्हारे खोते ही, सारे
दुख भी खो जाते हैं। अहंकार के विलीन होते ही फिर कोई नर्क नहीं है। तुम
मुक्त हो गये—अपने आप से मुक्त हो गये। फिर केवल विराट की शक्तियां ही शेष
बची जो हमेशा से क्रियाशील हैं। तुम तो कहीं भी नहीं हो, कठपुतली की भांति भी नहीं।
यदि
यह बात तुम्हारे भीतर चली जाये तो तुम पहुंच गये। तुम उस सत्य तक पहुंच
गये जहां कि सारे धर्म तुम्हें लाना चाहते हैं। तुमने अंतिम केंद्र को छू
लिया, अंतिम आधार पर पहुंच गये।
लेकिन यह कठिन है। शायद तुम कल्पना कर रहे हो या सच में तुम्हीं इसे गढ़ रहे हो। यह बहुत ही कठिन है। तुम सोच सकते हो, लेकिन सोचने से कुछ भी न होगा—जब तक कि तुम इसे महसूस न करो, जब तक कि यह तुम्हारी प्रतीति न हो जाये। यह सिर्फ गहरे ध्यान से ही हो सकता है, अन्यथा यह नहीं हो सकता। केवल ध्यान में ही तुम उस बिंदु पर आ सकते हो जहां तुम्हें प्रतीति होती है कि ''सब कुछ हो रहा है और मैं कर्ता नहीं हूं। ''और केवल इतना ही नहीं कि ''मैं करने वाला नहीं हूं'', बल्कि तुम वहा हो ही नहीं और चीजें अवकाश में घटित हो रही हैं। तुम एक खाली स्थान हो गये हो, और वहां चीजें घट रही हैं, और तुम वहा नहीं हो।
यह तभी हो सकता है जब तुम्हारे सारे विचार बंद हो जायें, और तुम्हारा अस्तित्व बादलों से रिक्त हो जाये—विचार के बादलों से रिक्त। तुम उस शुद्ध अस्तित्व में होते हो, तुम
इसे महसूस कर सकते हो। लेकिन यदि तुम महसूस करते हो कि ऐसा हो रहा है तो
यह एक अच्छा संकेत है। आगे बढ़ों... और इस कठपुतली को भी छोड़ो, इसे लादे मत रहो। जब तुम ही नहीं हो तो फिर इस कठपुतली को क्यों ढोना? उसे भी गिरा दो। अहंकार से पूरी तरह मुक्त हो जाओ।
यही तो मैं यहां कर रहा हूं—तुम्हें पूर्णतया अहंकार से मुक्त करने के लिए। इसीलिए मैं कहता हूं कि कूदो, नाचो, गाओ, आनंद मनाओ, पागल की भांति। यदि तुम यह कर सको तो फिर अहंकार नहीं बच सकता, क्योंकि
अहंकार सदा नियंता की तरह जीता है। यदि तुम कुछ भी नियंत्रित न करो तो यह
विलीन हो जाता है। यह नियंत्रण की रचना है। जब तुम नाचने लगते हो तो अहंकार
कहता है, ''यह तुम क्या कर रहे हो? तुम मूर्ख दिखलाई पड़ोगे। तुम्हारे जैसा बुद्धिमान आदमी और जंगलियों की तरह नाच रहा है। '' अहंकार कहेगा, ''ऐसा मत करो। अपने पर नियंत्रण रखो। '' यदि तुम नियंत्रण रख लेते हो तो अहंकार बना रहता है। बिना नियंत्रण के रहो, इस नियंत्रण—शक्ति की एक मत सुनो। अपने को पहली बार बिना नियंत्रण के केवल जीवंत छोड़ दो, और तुम्हें तत्कण पता चलेगा कि अहंकार नहीं बचा। अस्तित्व है, शक्तियां हैं, लेकिन अहंकार नहीं है। मेरे लिए, बिना
किसी नियंत्रण के जीना ही अनुशासन है। यदि तुम बिना नियंत्रण के जी सको तो
तुमने बड़े से बड़ा अनुशासन उपलब्ध कर लिया है। यदि तुम अपने को नियंत्रित
नहीं करते हो और फिर भी एक अनुशासन है, तो
फिर यह अनुशासन तुम्हारा अपना नहीं है। यह अनुशासन उच्चतर स्रोत्रों से
आता है। यदि तुम अपने को अनुशासित करते हो तो फिर तुम्हारे जीवन के तुम
स्वयं ही स्रोत हो गये। तब तुम विराट के स्रोत से टूट गये। स्वयं को पूरी
तरह गिरा दो।
मैं तुम्हें एक घटना सुनाता हूं और फिर हम इसे गिराने का प्रयास करेंगे।
एक दिन एक सम्राट बुद्ध के पास आया; उसके एक हाथ में एक बहुत ही बहुमूल्य हीरा था, और दूसरे हाथ में एक कमल का फूल। उसने सोचा कि शायद बुद्ध को हीरा पसंद नहीं आये क्योंकि उन्होंने सब धन आदि त्याग दिया है, इसलिए वह दूसरे हाथ में कमल का फूल ले आया था, ताकि अवसर हाथ से न जाये। वह तो हीरा ही भेंट करना चाहता था। वह बहुत दुर्लभ हीरा था, केवल उसी के पास ऐसा हीरा था। और यही असली बात भी थी, बुद्ध
असली सवाल नहीं थे। वह बुद्ध को ऐसा हीरा भेंट करना चाहता था जो कोई और
नहीं कर सकता। और तब सारे संसार में यह खबर फैल जायेगी कि इस सम्राट ने
बुद्ध को इतना बहुमूल्य हीरा भेंट किया।
यही असली बात थी; बुद्ध तो एक बुहाना थे। लेकिन शायद बुद्ध हीरा पसंद न करें, वे शायद स्वीकार न करें, इसलिए वह एक कमल का फूल भी लाया था। वह फूल भी दुर्लभ था, क्योंकि इस समय उसका मौसम न था, वह बेमौसम का फूल था।
वह अपने दायें हाथ में हीरा लेकर बुद्ध के पास आया। बुद्ध ने उसे देखते ही कहा, ''गिरा दो। ''उस व्यक्ति ने समझा कि बुद्ध को पसंद नहीं आया, इसलिए उसने हीरा जमीन पर डाल दिया।
फिर वह कमल का फूल अपने बायें हाथ में आगे लाया तो बुद्ध ने कहा, ''इसे भी गिरा दो। '' अत: उसने उसे भी जमीन पर गिरा दिया। उसके बाद वह अपने दोनों खाली हाथों को जोड़ कर आया। बुद्ध ने तीसरी बार भी कहा, ''इसको भी गिरा दो। ''
अब तो उसके हाथ में कुछ गिराने को भी न था, अत: उसकी कुछ समझ में नहीं आया। बुद्ध ने कहा, ''सोचो मत, इसे भी गिरा दो!''
तब
अचानक उसकी समझ में आया कि बुद्ध हीरा या फूल गिराने के लिए नहीं कह रहे
थे बल्कि इस अहंकार को गिराने के लिए कह रहे थे जो यह हीरा और फूल लाया था।
वह बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा, और बुद्ध ने सभा से कहा, ''यह आदमी समझ वाला व्यक्ति है। ''जब वह व्यक्ति खड़ा हुआ तो वह दूसरा ही व्यक्ति था, बिलकुल ही भिन्न। पुराना विलीन हो गया था। जो व्यक्ति बुद्ध के चरणों में गिरा था, वह वहां नहीं था, एक नया ही आदमी सामने था। क्या बदल गया था? अहंकार...।
दिनांक 15 जुलाई, 1973; संध्या,
माउंट आबू राजस्थान।
thank you guruji
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