जिन सूत्र--(भाग--2)
सूत्र:
ण
वि दुक्खं
ण वि सुक्खं,
ण वि पीडा णेव
विज्जदे
बाहा।
णवि मरणं ण वि जणणं,तत्थेव य होई णिव्वाणं।।
156।।
ण
वि इंदिय उवसग्गा,
तत्थेव
य होइ णिव्वाणं।
ण
य तिण्हा
णे व छुहा,
तत्थेव य
होइ णिव्वाणं।।
157।।
ण
वि कम्मं
णोकम्मं,
ण वि चिंता णेव
अट्टरूद्दाणि।
ण
वि धम्मसुक्कझाणे,
तत्थेव
य होइ णिव्वाणं।।
158।।
णिव्वाणं ति
अवाहंति,सिद्धीलोगाग्गमेव य।
लाउअ एरण्डफले,
अग्गीधूमे
उसू धणुविमुक्के।
गइ
पुव्वपओगेणं,
एवं सिद्धाण
वि गती तु।। 160।।
अव्वाबाहमणिंदिय—मणोवमं पुण्णपावणिम्मुक्कं।
पुणरागमणविरहियं,
णिच्चं अचलं अणालंबं।।
161।।
पानी
पर तिरता
है आईना
आंख
झिलमिलाने
लगी
पात-पात
डोलती है
प्रार्थना
सांझ
गुनगुनाने
लगी
रोक
लूं मैं
बादलों की घंटियां
बजने
से पुरवा के
पांव में
झलकने
लगीं पीली
बत्तियां
जले
हुए दीपों के
गांव में
अंधकार
झूलता है
पालना
याद
घर बुलाने लगी
याद घर
बुलाने लगी!
इन थोड़े-से
शब्दों में
सारे धर्म का
सार है--याद घर
बुलाने लगी।
जहां हम हैं, वहां हम
तृप्त नहीं।
जो हम हैं
उससे हम तृप्त
नहीं। एक बात
निश्चित है कि
हम अपने घर
नहीं, कहीं
परदेश में
हैं। कहीं
अजनबी की
भांति भटक गए
हैं। कहां
जाना है यह
भला पता न हो, लेकिन इतना
सभी को पता है
कि जहां हम
हैं, वहां
नहीं होना
चाहिए।
एक
बेचैनी है।
कुछ भी करो, कितना ही धन कमाओ, कितनी
ही
पद-प्रतिष्ठा जुटाओ, कुछ
कमी है, जो
मिटती नहीं।
कोई घाव है, जो भरता
नहीं। कोई
पुकार है जो
भीतर कहे ही
चली जाती है:
यह भी नहीं, यह भी नहीं; कहीं और
चलो। खोजो घर।
द्वार-द्वार
दरवाजे-दरवाजे
दस्तक दिए। न
मालूम कितने-
कितने जन्मों
में, कितने-कितने
ढंग से अपने
घर को खोजा
है।
मगर
सारी खोज एक
ही बात की है
कि कोई ऐसा
स्थान हो, जहां तृप्ति
हो। कोई ऐसी भावदशा हो,
जिसमें कोई
वासना न उठती
हो।
वासना
का अर्थ ही है
कि जो हम हैं, उसमें रस
नहीं आ रहा, कुछ और होना
चाहिए। चाह का
अर्थ ही है
बेचैनी। चाह
उठती ही
बेचैनी से।
राहत नहीं है।
कोई कांटा चुभ
रहा है। कोई
अतृप्ति सब
तरफ से घेरे
है। सब मिल
जाता है। फिर
भी अतृप्ति
वैसी की वैसी
बनी रहती
है--अछूती, अस्पर्शित।
धर्म
का जन्म मनुष्य
के भीतर इस
महत घटना से
होता
है--बेचैनी की
इस घटना से
होता है। जैसे
परदेश में हैं, जहां न कोई
अपनी भाषा
समझता, न
कोई अपना है।
जहां सब संबंध
सांयोगिक
हैं। जहां सब
संबंध मन के मनाये हुए
हैं; वास्तविक
नहीं हैं। और
जहां पानी का
धोखा तो बहुत
मिलता है, पानी
नहीं
मिलता--मृग-मरीचिका
है। दूर से
दिखाई पड़ता जल
का स्रोत, पास
आते रेत ही
रेत रह जाती
है।
इस
भटकाव को हम
कहते हैं
संसार। इस
भटकाव में घर
की याद आने
लगी तो धर्म
की शुरुआत
हुई।
पानी
पर तिरता
है आईना
आंख
झिलमिलाने
लगी
अगर
बाहर
देख-देखकर ऊब
पैदा हो गई हो, देख-देखकर
देख लिया हो, कुछ देखने
जैसा नहीं है,
आंख झपकने
लगी हो, भीतर
देखने का खयाल
उठने लगा हो, आंख बंद
करके देखने का
भाव जगने लगा
हो तो हो गई
शुरुआत।
हाथ
भर-भरके
देख लिए, जब
पाया तब राख
से भरे पाया।
कभी हीरों से
भरा लेकिन
हीरे राख हो
गए। सोने से
भरा, सोना
मिट्टी हो
गया। संबंधों
से भरा, तथाकथित
प्रेम से भरा
और सब अंततः
मूल्यहीन सिद्ध
हुआ। और अब
हाथ को और
भरने की
आकांक्षा न रही।
पात-पात
डोलती है
प्रार्थना
सांझ
गुनगुनाने
लगी।
तो जिस
दिन बाहर से
आंख हटने लगती
है, उसी दिन:
पात-पात
डोलती है
प्रार्थना
सांझ
गुनगुनाने लगी
तो अब
घर जाने का
समय करीब आ
गया।
प्रार्थना, जो बाहर से
घर की तरफ
लौटने लगे और
अभी घर नहीं पहुंचे--बीच
का पड़ाव
है। जो संसार
में हैं उनके
हृदय में
प्रार्थना
नहीं उठती। जो
परमात्मा में
पहुंच गए, उनको
प्रार्थना की
जरूरत नहीं रह
जाती। प्रार्थना
सेतु है बाहर
से भीतर आने
का; परदेश
से स्वदेश आने
का; विभाव
से स्वभाव में
आने का।
पात-पात
डोलती है
प्रार्थना
सांझ
गुनगुनाने
लगी।
संसार
की सांझ आ गई।
और जो संसार
की सांझ है वही
निर्वाण की
सुबह है।
रोक
लूं मैं
बादलों की घंटियां
बजने
से पुरवा के
पांव में
झलकने
लगी पीली बत्तियां
जले
हुए दीपों के
गांव में
अंधकार
झूलता है
पालना
याद
घर बुलाने
लगी।
आज के
सूत्र महावीर
की अंतिम निष्पत्तियां
हैं। ये सूत्र
निर्वाण के
हैं। ये सूत्र
घर आ गए
व्यक्ति का
आखिरी
वक्तव्य हैं।
ये सूत्र ऐसे
हैं, जो कहे
नहीं जा सकते,
जिन्हें
कहने की
चेष्टा भर की
जा सकती है।
ये सूत्र ऐसे
हैं, जो
अभिव्यक्त
नहीं होते, भाषा छोटी
पड़ती है, शब्द
संकीर्ण हैं।
और विराट को
संकीर्ण शब्दों
के सहारे लाना
पड़ता है।
इसलिए
इन शब्दों को
बहुत कसकर मत पकड़ना।
इन्हें बहुत
सहानुभूति से, बहुत
श्रद्धा से
भाषा की
असमर्थता को
याद रखते हुए
समझना।
एक तो
गणित की भाषा
होती है, जहां
दो और दो चार
होते हैं। बस,
दो और दो
चार होता और
कुछ भी नहीं
होता। सब सीधा-साफ
होता है।
लेकिन
सत्य का अनुभव
ऐसा है कि
उससे मिलता
हुआ कोई भी
अनुभव इस
संसार में
नहीं है। जो
बाहर देखा है
उससे किसी से
भी जो भीतर
दर्शन होते
हैं, उसका
तालमेल नहीं।
जो परदेश में
जाना है और जो
स्वदेश लौटने
का अनुभव होता
है, उसे
परदेश की भाषा
में कहने का
कोई उपाय
नहीं।
तो
यह स्वभाव को
विभाव में
कहने की
चेष्टा है।
रहिमन
बात अगम्य की
कहन-सुनन की
नाहीं
जे जानत ते कहत नहीं, कहत
ते जानत
नाहीं
कुछ बात
ऐसी है अगम्य
की, कि
कहने-सुनने की
नहीं है। जो
जानते हैं, कहते नहीं।
जो कहते हैं, जानते नहीं।
इसका
यह अर्थ नहीं
कि जाननेवालों
ने नहीं कहा
है; कहा है और
कहकर भी कह
नहीं पाया है।
कहा है और फिर
कहा कि कह
नहीं पाए।
फिर-फिर कहा
है। महावीर
जीवनभर
निर्वाण के
संबंध में
अनेक-अनेक
ढंगों से, अनेक-अनेक
इशारों का
उपयोग करके
बोलते रहे, लेकिन कैसे
कहो उसे? कैसे
कहो उसे, जो
शब्दों के
शून्य हो जाने
पर अनुभव होता
है? कैसे
कहो उसे, जो
भाषा के
अतिक्रमण पर
अनुभव होता है?
कैसे कहो
उसे, जो घर
के भीतर आने
का अनुभव होता
है?
भाषा तो
सब घर के बाहर
की है। भाषा
तो सब बाजारू
है। भाषा तो
दूसरे से
बोलने के लिए
है। जब तुम
अकेले हो, बिलकुल
अकेले हो, अपने
नितांत
स्वरूप में आ
गए, वहां
कोई दूसरा
नहीं है तो
भाषा का कोई
प्रयोजन नहीं
है। वहां
बोलने का कोई
उपाय नहीं है।
वहां तो परम
मौन है।
अपने
से बाहर गए, दूसरे से
मिले-जुले,
संबंध
बनाया तो
बोलना पड़ता
है। तो ऐसा
नहीं है कि
जिन्होंने
जाना, नहीं
बोला, लेकिन
बोल-बोलकर
भी बोल नहीं
पाए। बोल-बोलकर
अंततः यही कहा
कि क्षमा करना,
हम जो कहते
थे, वह कह
नहीं पाए।
लेकिन
फिर भी
जिन्होंने
कहा है उनमें
महावीर का वक्तव्य
अत्यधिक
वैज्ञानिक
है।
वैज्ञानिक होना
कठिन है, लेकिन
अगर सारे
वक्तव्यों को
तौला जाए तो
महावीर का
वक्तव्य अतिवैज्ञानिक
है। सत्य को
देखा जाए, तब
तो बहुत दूर
है सत्य से।
सभी वक्तव्य
दूर होते हैं।
और वक्तव्यों
को देखा जाए
तो निकटतम है।
पहला
सूत्र:
ण
वि दुक्खं
ण वि सुक्खं, ण वि पीडा णेव
विज्जदे
बाहा।
ण
वि मरणं ण
वि जणणं, तत्थेव य होइ णिव्वाणं।।
"जहां
न दुख है न सुख,
न पीड़ा है न
बाधा, न
मरण है न जन्म,
वहीं
निर्वाण है।'
अब यह
भी कुछ कहना
हुआ? यह तो
"नहीं' से
कहना हुआ, नकार
से कहना हुआ।
क्या नहीं है
वहां, यह कहा।
क्या है, यह
तो कहा नहीं।
क्या है उसे
कहा भी नहीं
जा सकता।
यह तो
ऐसे ही हुआ, कि किसी
स्वस्थ आदमी
को हमने कहा
कि, न टी. बी.
है, न
कैंसर है
उसमें, न
मलेरिया लगा
है, न
प्लेग हुई; स्वस्थ है।
स्वास्थ्य को
बताया, बीमारियां
नहीं हैं
इससे। यह कोई
स्वास्थ्य की परिभाषा
हुई? बीमारियों
का अभाव
स्वास्थ्य है?
लेकिन बस
यही निकटतम
परिभाषा है।
स्वास्थ्य तो
ज्यादा है
बीमारियों के
अभाव से।
स्वास्थ्य की
तो अपनी
विधायकता है।
स्वास्थ्य की
तो अपनी
उपस्थिति है।
खयाल
किया? सिरदर्द
न हो तो जरूरी
नहीं है कि
सिर स्वस्थ हो।
जैसे सिरदर्द
नकार की तरफ
ले जाता है, पीड़ा की तरफ
ले जाता है, ऐसा सिर का
स्वास्थ्य
आनंद की तरफ
ले जाएगा। दर्द
का न होना तो
मध्य में हुआ,
दोनों के
मध्य में हुआ।
दर्द का होना
एक अति, स्वास्थ्य
का होना एक
अति, दोनों
के मध्य में
हुई इतनी-सी
बात कि दर्द
नहीं है।
अगर कोई
तुमसे पूछे, कैसे हो? तुम
कहो, दुखी
नहीं हैं, तो
वह भी थोड़ा
चिंतित होगा।
तुम यह नहीं
कह रहे हो कि
सुखी हो, तुम
इतना ही कह
रहे हो कि
दुखी नहीं
हूं। जरूरी
नहीं कि तुम
सुखी हो। दुख
का न होना सुख
के होने के
लिए शर्त तो
है लेकिन सुख
के होने की
परिभाषा नहीं
है। पर मजबूरी
है।
उस परम
सत्य को हम
इतना ही कह
सकते हैं कि
संसार नहीं
है। निर्वाण
संसार नहीं
है। इन सारे
सूत्रों में
अलग-अलग ढंग
से महावीर यही
कहते हैं कि
संसार नहीं
है।
न वहां
दुख, न सुख।
सुख और दुख
संसार है।
द्वंद्व
संसार है। दो
के बीच सतत
संघर्ष संसार
है। इसलिए
संन्यासी का
अर्थ होता है,
जिसने
अकेला होना
सीख लिया।
इसका यह अर्थ
नहीं होता कि
जंगल भागकर
अकेला हो गया।
क्योंकि इस
संसार में
अकेले होने का
तो कोई उपाय
नहीं है।
जंगल
में रहोगे तो
भी अकेले नहीं
हो। बैठोगे वृक्ष
के नीचे, कौआ
बीट कर जाएगा।
संबंध जुड़ गया
क्रोध का।
बैठोगे वृक्ष
के नीचे, वृक्ष
छाया देगा।
संबंध जुड़ गया
राग का। फिर उसी-उसी
वृक्ष के नीचे
आकर बैठोगे।
फिर अगर कोई लकड़हारा
किसी दिन उस
वृक्ष को
काटने आ गया
तो तुम लड़ने को
तैयार हो
जाओगे कि मत
काटो। यह मेरा
वृक्ष है।
भागोगे
कहां? जहां
जाओगे...संसार
तो संसार है, वहां तो
हमेशा दो हैं।
इसलिए
संन्यास का
अर्थ होता है; अकेले होने
की क्षमता।
अकेला होना
नहीं, अकेले
होने की
क्षमता। जहां
भी हो, यह
स्मरण बना रहे
कि "मैं अकेला
हूं।' तब
बीच-बाजार में
तुम संन्यासी
हो। गृहस्थ होकर
संन्यासी हो।
पत्नी है, बच्चे
हैं, दुकान
है, बाजार
है--तुम
संन्यासी हो।
इतनी याद बनी
रहे कि "मैं
अकेला हूं।'
तुम
अपने को दो
में बांटने की
आदत छोड़ दो।
"जहां
न दुख न सुख, न पीड़ा न
बाधा, न
मरण न जन्म, वहीं
निर्वाण है।'
नदियां
दो-दो अपार, बहती हैं
विपरीत छोर
कब
तक मैं दोनों
धाराओं में
साथ बहूं
ओ
मेरे
सूत्रधार!
नौकाएं
दो भारी
अलग-अलग दिशा
में जातीं
कब
तक मैं दोनों
को साथ-साथ खेता
रहूं
एक
देह की पतवार!
दो-दो
दरवाजे हैं
अलग-अलग
क्षितिजों
में
कब
तक मैं दोनों
की देहरियां
लांघा करूं
एक
साथ!
छोटी-सी
मेरी कथा, छोटा-सा
घटना क्रम
हवा
के भंवर-सा पलव्यापी
यह इतिहास
टूटे
हुए असंबद्ध टुकड़ों
में बांट दिया
तुमने
ओ
अदृश्य
विरोधाभास!
जैसे
आदमी दो नावों
पर साथ-साथ
सवार हो और
दोनों नावें
विपरीत
दिशाओं में
जाती हों, ऐसा है
संसार। जैसे
आदमी दो दरवाजों
से एक साथ
प्रवेश करने
की कोशिश कर
रहा हो और दोनों
दरवाजे इतने
दूर हों जैसे
जमीन और आकाश,
ऐसा है
संसार। जैसे
कोई एक ही साथ
जन्मना भी चाहता
हो और मरने से
भी बचना चाहता
हो, दो
विपरीत आकांक्षाएं
कर रहा हो और
दोनों के बीच
उलझ रहा हो, परेशान हो
रहा हो, ऐसा
है संसार।
हमारी
सभी आकांक्षाएं
विपरीत हैं।
इसे थोड़ा
समझना। इसकी
समझ तुम्हारे
भीतर एक दीये
को जन्म दे
देगी। एक तरफ
तुम चाहते हो, दूसरे लोग
मुझे सम्मान
दें और दूसरी
तरफ तुम चाहते
हो, कोई
अपमान न करे।
साधारणतः
दिखाई पड़ता है
इन दोनों में
विरोध कहां?
इन
दोनों में
विरोध है। यह
तुम दो नौकाओं
पर सवार हो
गए।
इसका
विश्लेषण करो:
तुम चाहते हो, दूसरे मुझे
सम्मान दें।
ऐसा चाहकर
तुमने दूसरों
को अपने ऊपर
बल दे दिया।
दूसरे शक्तिशाली
हो गए, तुम
कमजोर हो गए।
अपमान तो शुरू
हो गया। अपमान
तो तुमने अपना
कर ही लिया।
दूसरे जब
करेंगे तब
करेंगे। तुम
अपमानित तो
होना शुरू ही
हो गए। यह कोई
सम्मान का ढंग
हुआ? जहां
दूसरे हमसे
बलशाली हो गए।
दूसरों
से सम्मान
चाहा इसका
अर्थ है कि
दूसरों के हाथ
में तुमने
शक्ति दे दी
कि वे अपमान
भी कर सकते
हैं। और
निश्चित ही
अपमान करने
में उन्हें
ज्यादा रस
आएगा।
क्योंकि
तुम्हारे अपमान
के द्वारा ही
वे सम्मानित
हो सकते हैं।
वे भी तो
सम्मान चाहते
हैं, जैसा तुम
चाहते हो। तुम
किसका सम्मान
करते हो? तुम
सम्मान
मांगते हो। वे
भी सम्मान
मांग रहे हैं।
वे तुम्हारा
सम्मान करें
तो उन्हें कौन
सम्मान देगा?
प्रतिस्पर्धा
है। एक-दूसरे
के
प्रतिद्वंद्वी
हो तुम। तुम
जब दूसरे से
सम्मान
मांगते हो तब तुमने
उसे क्षमता दे
दी, हाथ में
कुंजी दे दी
कि वह
तुम्हारा
अपमान कर सकता
है। अब सौ में
निन्यानबे
मौके तो वह
ऐसे खोजेगा कि
तुम्हारा
अपमान कर दे।
कभी मजबूरी में
न कर पाएगा तो
सम्मान
करेगा।
सम्मान तो लोग
मजबूरी में
करते हैं।
अपमान
नैसर्गिक
मालूम पड़ता
है। सम्मान
बड़ी मजबूरी
मालूम पड़ती
है। झुकता तो
आदमी मजबूरी
में है। अकड़ना
स्वाभाविक
मालूम पड़ता है।
तो
जैसे ही तुमने
सम्मान मांगा, अपमान की
क्षमता दे दी।
और दूसरा भी
सम्मान की
चेष्टा में
संलग्न है। वह
भी चाहता है, अपनी लकीर
तुमसे बड़ी
खींच दे। जैसा
तुम चाहते हो
वैसा वह चाहता
है।
अब
अड़चन शुरू
हुई। सम्मान
देगा तो भी
तुम सम्मानित
न हो पाओगे
क्योंकि
सम्मान
देनेवाला तुमसे
बलशाली है और
अपमान करेगा
तो तुम पीड़ित
जरूर हो
जाओगे।
तुमने
धन मांगा, तुमने अपनी
निर्धनता की
घोषणा कर दी।
क्योंकि
निर्धन ही धन
मांगता है। जो
हमारे पास
नहीं है वही
हम मांगते
हैं।
मैंने
सुना है, शेख
फरीद से एक
धनपति ने कहा,
यह बड़ी अजीब
बात है। मैं
तुम्हारे पास
आता हूं तो
सदा ज्ञान की,
आत्मा की, परमात्मा की
बात करता हूं।
तुम जब कभी
आते हो तो तुम
सदा धन मांगते
आते हो। तो
सांसारिक कौन
है?
शेख
फरीद ने कहा, मैं गरीब
हूं इसलिए धन
मांगता हूं।
तुम अज्ञानी
हो इसलिए
ज्ञान मांगते
हो। जो जिसके
पास नहीं है
वही मांगता
है। मैं तो
तुम्हारी याद
ही तब करता हूं
जब गांव में
कोई तकलीफ
होती है, मदरसा
खोलना होता है,
अकाल पड़
जाता है, कोई
बीमार मर रहा
होता उसको दवा
की जरूरत होती
है तो मैं आता
हूं। मैं दीन
हूं, दरिद्र
हूं। यह मेरा
गांव गरीब और
दरिद्र है। स्वभावतः
मैं कोई
ब्रह्म और
परमात्मा की
बात करने
तुम्हारे पास
नहीं आता। वह
तो हमारे पास है।
तुम जब
मेरे पास आते
हो तो तुम धन
की बात नहीं करते
क्योंकि धन
तुम्हारे पास
है। तुम
ब्रह्म की बात
करते आते हो, जो तुम्हारे
पास नहीं है।
इसे
थोड़ा सोचना।
जिससे तुमने
धन मांगा, तुमने घोषणा
कर दी कि तुम
निर्धन हो। धन
मांगनेवाला
निर्धन है। पद
मांगा, घोषणा
कर दी कि तुम
हीन हो।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं पद
के आकांक्षी हीनग्रंथि
से पीड़ित होते
हैं--इनफीरियारिटी
काम्पलेक्स।
सभी
राजनीतिज्ञ हीनग्रंथि
से पीड़ित होते
हैं। होंगे ही;
कोई दूसरा
और उपाय नहीं
है। जब तुम
सिद्ध करना
चाहते हो कि
मैं
शक्तिशाली
हूं तो तुमने
अपने भीतर मान
रखा है कि तुम
शक्तिहीन हो।
अब किसी तरह
सिद्ध करके
दिखा देना है
कि नहीं, यह
बात गलत है।
कमजोर
बहादुरी
सिद्ध करना
चाहता है।
कायर अपने को
वीर सिद्ध
करना चाहता
है। अज्ञानी
अपने को ज्ञानी
सिद्ध करना
चाहता है। हम
जो नहीं हैं
उसकी ही
चेष्टा में
संलग्न होते
हैं। और जो हम
नहीं हैं, हमारी
चेष्टा से
प्रगट होकर
दिखाई पड़ने
लगता है। पीड़ा
और बढ़ती चली
जाती है।
जन्म
तो हम मांगते
हैं, जीवन तो
हम मांगते हैं,
मौत से हम
डरते हैं। हम
चिल्लाते हैं,
मौत नहीं।
और सब हो, मृत्यु
नहीं। मृत्यु
की हम बात भी
नहीं करना चाहते।
लेकिन जन्म के
साथ हमने
मृत्यु मांग
ली। क्योंकि
जो शुरू होगा
वह अंत होगा।
मृत्यु
जन्म के
विपरीत नहीं
है, जन्म की
नैसर्गिक
परिणति है। जो
शुरू होगा वह
अंत होगा। जो
बनेगा वह
मिटेगा।
जिसका सृजन
किया जाएगा
उसका विध्वंस
होगा। तुमने
एक मकान बनाया,
उसी दिन
तुमने एक
खंडहर बनाने
की तैयारी
शुरू कर दी।
खंडहर बनेगा।
तुम जब भवन
बना रहे हो तब तुम
एक खंडहर बना
रहे हो।
क्योंकि बनाने
में ही गिरने
की शुरुआत हो
गई। तुमने एक
बच्चे को जन्म
दिया, तुमने
एक मौत को
जन्म दिया।
तुम जन्म के
साथ मौत को
दुनिया में ले
आए।
नदियां
दो-दो अपार, बहती हैं
विपरीत छोर
कब
तक मैं दोनों
धाराओं में
साथ बहूं
ओ
मेरे
सूत्रधार!
नौकाएं
दो भारी
अलग-अलग दिशा
में जातीं
कब
तक मैं दोनों
को साथ-साथ खेता
रहूं
एक
देह की पतवार!
--पतवार
एक, नौकाएं
दो विपरीत
दिशाओं में
जातीं!
दो-दो
दरवाजे हैं
अलग-अलग
क्षितिजों
में
कब
तक मैं दोनों
की देहरियां
लांघा करूं
एक
साथ!
छोटी-सी
मेरी कथा, छोटा-सा
घटनाक्रम
हवा
के भंवर-सा पलव्यापी
यह इतिहास
टूटे
हुए असंबद्ध टुकड़ों
में बांट दिया
तुमने
ओ
अदृश्य
विरोधाभास!
जिसे
हम संसार कहते
हैं वह
विरोधाभास है, और
विरोधाभास से
जो पार हो गया
वही निर्वाण
को उपलब्ध हो
जाता है।
तो
महावीर का
पहला सूत्र
हुआ: विरोध के
पार है निर्वाण।
"जहां
न दुख है न सुख,
न पीड़ा न
बाधा, न
मरण न जन्म, वहीं
निर्वाण है।'
जहां
विरोध नहीं, द्वंद्व
नहीं; जहां
दो नहीं, दुई
नहीं; जहां
द्वैत नहीं, जहां अद्वैत
है, वहीं
है निर्वाण।
जहां एक ही
बचता है, आत्यांतिक रूप से एक
बचता है, वहीं
है निर्वाण।
जब तक
तुम्हारे
भीतर विरोध है,
जब तक तुम
दो की आकंाक्षा
करते, जब
तक तुम्हारी
आकांक्षाओं
में संघर्ष और
द्वंद्व है तब
तक तुम कैसे
शांत हो सकोगे?
तब तक कैसा
सुख? कैसी
शांति? कैसा
चैन? तब तक
कभी विराम
नहीं हो सकता।
तुम्हारी
मांग में ही
भूल हुई जा
रही है। नहीं, कि तुम जो
मांगते हो वह
नहीं मिलता है,
इसलिए तुम
दुखी हो।
तुमने मांगा,
उसी में
तुमने दुख
मांग लिया।
अक्सर लोग
संसार से ऊबते
भी हैं तो
उनके ऊबने का
कारण गलत होता
है।
एक जैन
मुनि मुझे
मिलने आए, कोई पांच
साल हुए।
मैंने उनसे
पूछा, आपने
संसार क्यों
छोड़ दिया, उन्होंने
कहा, संसार
में कुछ मिलता
ही नहीं। कोई
सार ही नहीं।
संसार
में कुछ मिलता
नहीं, कुछ
सार नहीं है, इसलिए छोड़
दिया? तो
मिलने की
आकांक्षा अब
मोक्ष की तरफ
लगा दी। अब
वहां मिलेगा।
परमात्मा की
तरफ लगा दी, आत्मा की
तरफ लगा दी।
लोभ गया नहीं,
वासना गई
नहीं, सिर्फ
दिशा बदली। और
जहां वासना है
वहां संसार है।
तो यह
संन्यास
संसार का
अतिक्रमण न
हुआ, संसार का
ही फैलाव हुआ।
अब यह आदमी नए
लोभ में परेशान
है। मैंने
पूछा, मेरे
पास किसलिए
आए हो? वे
कहने लगे, शांति
नहीं मिलती।
मैंने कहा, जिसने संसार
छोड़
दिया--छोड़ते
ही शांति मिल
जानी चाहिए।
फिर छोड़ने के
बाद अब बचा
क्या है, जो
अशांत करे? सांसारिक
व्यक्ति कहता
है मैं अशांत
हूं, समझ
में आता है।
आप कहते हैं, अशांत हैं? तो फिर फर्क
क्या हुआ?
फिर इस
बात को फिर से
सोचें। संसार
छूटा नहीं है।
द्वंद्व अभी
मौजूद है। लाभऱ्हानि
की दृष्टि अभी
मौजूद है।
मिलना चाहिए
और नहीं मिलता
है। जहां
मिलना चाहिए
का भाव आया, वहां नहीं
मिलता है, इसकी
छाया भी पड़ी।
जहां अपेक्षा
आयी वहां विफलता
हाथ लगी--लग ही
गई; थोड़ी
देर-अबेर
होगी। तुमने
बीज तो बो दिए,
फसल काटने
में कितनी देर
लगेगी? अगर
संन्यासी भी
अशांत है, साधु-मुनि
भी अशांत हैं,
तो फिर भेद
क्या करते हो
सांसारिक में
और साधु और
मुनि में? दोनों
अशांत हैं।
संसार
में कुछ मिलता
नहीं इसलिए
संसार मत छोड़ना।
संसार के
मांगने में
भूल हो गई है।
पाने में भूल
नहीं हो रही
है, मांगने
में भूल हो गई
है। भूल अपनी
वासना में हो
गई है, अपनी
चाहत में हो
गई है, अपनी
चाह में हो गई
है। वहीं हमने
द्वंद्व मांग
लिया। संसार उसी
द्वंद्व का
फैलाव है।
इसे
ऐसा समझो, संसार के
कारण वासना
नहीं है।
वासना के कारण
संसार है। अगर
तुमने सोचा
संसार के कारण
वासना है, तो
तुम्हारा
पूरा जीवन का
गणित गलत हो
जाएगा। तब तुम
संसार को
छोड़ने में लग
जाओगे और
वासना तो छूटेगी
नहीं। ऐसा
देखो कि वासना
संसार है ताकि
वासना छूटे।
वासना छूटे तो
संसार छूट
जाता है।
महावीर
कहते हैं:
ण
वि इंदिय उवसग्गा, ण वि मोहो
विम्हयो
ण णिद्दा
य।
ण
य तिण्हा णेव छुहा, तत्थेव य होइ णिव्वाणं।।
"जहां
न इंद्रियां
हैं न उपसर्ग,
न मोह है न विस्मय,
न निद्रा है
न तृष्णा, न
भूल, वहीं
निर्वाण है।'
अब एक
बात काफी
सूक्ष्म है।
याद न रहे तो
भूल जा सकती
है। महावीर यह
नहीं कह रहे
हैं कि तुमने
अगर भूख मिटा
दी, तृष्णा
मिटा दी, निद्रा
मिटा दी तो
निर्वाण हो
जाएगा। इसको
ऐसा मत पकड़
लेना जैसा कि
जैन मुनियों ने
पकड़ा है और
सदियों से
भटकते हैं।
महावीर
यह नहीं कह
रहे हैं कि
निद्रा छोड़
दोगे तो
निर्वाण
उपलब्ध हो
जाएगा।
महावीर यह कह
रहे हैं, निर्वाण
उपलब्ध हो जाए
तो वहां
निद्रा नहीं है।
इन दोनों
बातों में बड़ा
फर्क है। ये
एक-सी लगती
हैं बातें, इसलिए भूल
होनी बड़ी स्वाभाविक
है। जिनसे भूल
हो गई वे
क्षमायोग्य
हैं क्योंकि
भूल बड़ी बारीक
है। जरा-सा
धागे भर का फासला
है।
महावीर
निर्वाण की
परिभाषा कर
रहे हैं। वे
कह रहे हैं कि
निर्वाण ऐसी
चित्त की दशा
है, ऐसे
चैतन्य की दशा
है, जहां न
दुख है न सुख, न नींद है, न भूख है न
प्यास। क्योंकि
वहां
इंद्रियां
नहीं, वहां
देह नहीं तो
देह से बंधे
हुए धर्म
नहीं।
लेकिन
इसका तुम
उल्टा अर्थ ले
सकते हो। तुम
यह अर्थ ले
सकते हो कि
महावीर
निर्वाण की
साधना बता रहे
हैं। यह सिर्फ
निर्वाण की
परिभाषा है।
वे यह नहीं कह
रहे हैं कि
तुम नींद का
त्याग कर दो, भोजन का
त्याग कर दो
तो तुम
निर्वाण को
उपलब्ध हो
जाओगे। अगर
भोजन का त्याग
किया तो सूखोगे,
निर्वाण को
उपलब्ध नहीं
हो जाओगे। अगर
निद्रा का
त्याग किया तो
दिनभर
उनींदे बने
रहने लगोगे; निर्वाण को
उपलब्ध नहीं
हो जाओगे।
उदास हो जाओगे,
महासुख का अनुभव
नहीं होगा।
अगर तुमने
सुख और दुख से
अपने को सब
भांति तटस्थ करने
की चेष्टा की
तो तुम कठोर
हो जाओगे।
तुम्हारी संवेदनक्षमता
खो जाएगी, लेकिन
निर्वाण को
उपलब्ध न हो
जाओगे।
निर्वाण
को उपलब्ध
होने से ये सब
बातें घटती हैं।
इन बातों को
घटाने में मत
लग जाना।
क्योंकि तब
तुमने बैल को
गाड़ी के पीछे
बांध लिया।
बैल को गाड़ी
के आगे ही
रखना तो गाड़ी
चलेगी। अगर
बैल को गाड़ी
के पीछे बांध
लिया तो गाड़ी
तो चलेगी नहीं, बैल भी न चल
पाएंगे।
हालांकि कुछ
ज्यादा फर्क नहीं
कर रहे हो।
कुछ लोग बैल
को गाड़ी के
आगे रखते हैं,
तुमने गाड़ी
को बैल के आगे
रखा। ऐसा कुछ
बड़ा फर्क नहीं
है, जरा-सा
फर्क है।
ये
सारी बातें
निर्वाण के
परिणाम हैं, निर्वाण के
साधन नहीं
हैं। इन्हें
निर्वाण के
पीछे आने
देना। इन्हें
निर्वाण के
आगे मत रख
लेना, जैसा
जैन मुनियों
ने किया है।
सोचते हैं
उपवास करें
क्योंकि
महावीर कहते
हैं, वहां
भूख नहीं लगती।
अगर वहां भूख
नहीं लगती तो
वहां उपवास कैसे
करोगे, थोड़ा
सोचो! उपवास
तो वहीं हो
सकता है, जहां
भूख लगती है।
महावीर कहते
हैं वहां निद्रा
नहीं आती; तो
जगे रहो, खड़े रहो।
एक
गांव में मैं
गया तो एक
संन्यासी की
बड़ी धूम थी।
मैंने पूछा, मामला क्या
है? दस साल
से खड? हैं।
खड़े श्री बाबा
उनका नाम। वे
सोते ही नहीं।
मैं उनको
देखने गया, वह आदमी
करीब-करीब
मुर्दा हालत
में है। अब दस साल
से जो न सोया
हो और खड़ा रहा
हो--क्योंकि
डरते हैं कि
बैठे, लेटे,
कि नींद
आयी। खड़े हैं।
तो पैर हाथीपांव
हो गए। सारा
खून शरीर का सिकुड़कर
पैरों में समा
गया। पैर सूज
गए हैं। लकड़ियों
का सहारा लिए
हुए, रस्सियां बांधे हुए
छत से, उनके
सहारे खड़े
हैं।
अब यह
आदमी--फांसी
लगाए हुए है।
और यह
फांसी और
कठिन। दस क्षण
में लग जाए, खतम हुआ। यह
दस साल से
फांसी पर लटका
हुआ है। बैठ
नहीं सकता, लेट नहीं
सकता। और
सम्मान बहुत
मिल रहा है
इसलिए अहंकार
खूब बढ़ रहा है।
और
इसकी आंखें
देखो, तो
पशुओं की
आंखों में भी
थोड़ी-बहुत
बुद्धि दिखाई
पड़े, वह भी
इसकी आंखों
में दिखाई
नहीं पड़ेगी।
दिखाई पड़ भी
कैसे सकती है?
क्योंकि
बुद्धि के लिए
विश्राम
चाहिए। यह आदमी
विश्राम नहीं
ले रहा है।
इसके भीतर की
तुम अवस्था
ऐसे ही समझो
कि जैसे शाकभाजी
हो गया। अब यह
आदमी कोई आदमी
नहीं है, गोभी
का फूल है!
इसके भीतर अब
कोई मस्तिष्क
नहीं है।
मस्तिष्क के
सूक्ष्म तंतु
विश्राम के न
मिलने से टूट
जाते हैं।
इसलिए
अक्सर ऐसा
होता है कि
साधुओं में
प्रतिभा नहीं
दिखाई पड़ती।
तुम उनकी पूजा
किसी और कारण
से करते हो, प्रतिभा के
कारण नहीं
करते। उनके
जीवन में कोई
सृजनात्मक
ऊर्जा नहीं
दिखाई पड़ती; न कोई
आभामंडल है।
तुम्हारी
पूजा के कारण
और हैं। तुम
कहते हो इस
आदमी ने सौ
दिन का उपवास
किया इसलिए
पूजा करते
हैं। अब सौ
दिन का उपवास
करने के लिए
किसी बुद्धि
की तो जरूरत
नहीं है। सच
तो यह है कि
जितना बुद्धू
आदमी हो, उतनी
आसानी से कर
सकता है।
जितना जड़बुद्धि
हो, जिद्दी
हो, दंभी
हो, उतनी
आसानी से कर
सकता है।
बुद्धिमान
आदमी तो शरीर
की जरूरत को
समझेगा, मन
की जरूरत को
समझेगा, बुद्धिपूर्वक
जीयेगा, संयम
से...यह तो
असंयम हुआ।
कुछ जड़ हैं, जो खाए चले
जा रहे हैं; जो खाने के
लिए ही जीते
हैं। और कुछ जड़बुद्धि
हैं, जो
अपने को भूखा
मार रहे हैं।
भूखा मारने के
लिए ही जीते
हैं।
महावीर
की बात समझना।
महावीर
निर्वाण की
परिभाषा कर
रहे हैं। ऐसा
समझो कि कोई
मीरा से पूछे
कि प्रभु को
पाकर तुझे
क्या हुआ? तो वह कहे, उमंग उठी, नाच उठा, गीत
उठे--पद
घुंघरू बांध
मीरा नाची रे।
तुम सोचो तो
ठीक है, तो
नाचना सीख लें
तो प्रभु से
मिलन हो
जाएगा।
तो नर्तकियां
तो बहुत हैं।
नर्तक तो बहुत
हैं। उनको कोई
प्रभु तो
उपलब्ध नहीं
हो रहा। नाचने
से अगर प्रभु
उपलब्ध होता
तो नर्तकियों
को उपलब्ध हो
गया होता, नर्तकों को
उपलब्ध हो गया
होता। कितने
तो लोग "तात्ता
थै-थै' कर
रहे हैं, कुछ
भी तो नहीं हो
रहा।
मीरा
जो कह रही है
वह परिभाषा
है। मीरा कह
रही है, प्रभु
को पाने से
हृदय खिला, नाच जन्मा, रसधार बही, गंगा चली, घूंघर बजे।
यह बैलों के
पीछे गाड़ी है।
तुमने देखा कि
अरे! तो फिर
नाचना तो हम
भी सीख ले
सकते हैं।
नाचना सीखने
से प्रभु नहीं
मिलता, प्रभु
मिलने से नाच
घटता है।
ऐसा ही
महावीर की
निर्वाण की
परिभाषा को
समझना। जैन
मुनि कितनी
तकलीफ झेल रहा
है--अकारण। जड़ता
की भर सूचना
मिलती है।
महावीर की
प्रतिमा देखी
तुमने? और
जैन मुनि को
साथ खड़ा करके
देख लो तो
तुमको समझ में
आ जाएगा।
महावीर की
प्रतिमा का
रूप ही कुछ और
है, रंग ही
कुछ और है।
कहते हैं, महावीर
जैसा सुंदर
आदमी पृथ्वी
पर बहुत मुश्किल
से होता है।
और जैन मुनि
को देख लो।
उसने असुंदर
होने को अपनी
साधना बना रखी
है।
महावीर
ने अपने शरीर
को सताया हो
ऐसा मालूम नहीं
होता। शरीर के
पार गए होंगे
ऐसा तो मालूम
होता है, लेकिन
शरीर को सताया
हो ऐसा नहीं
मालूम होता। और
जिसको तुम
सताते हो उससे
पार जा नहीं
सकते। जिसको
तुम सताते हो
उसको सताने
के लिए उसी के
पास बने रहना
पड़ता है। जरा
दूर गए कि घबड़ाहट
होती है कि
कहीं शरीर फिर
न लगाम के
बाहर निकल जाए,
नियंत्रण
के बाहर निकल
जाए।
जो
आदमी
कामवासना दबाएगा
वह कामवासना
पर ही बैठा
रहेगा। उसी की
छाती पर चढ़ा
रहेगा। जरा
उतरा कि चारों
खाने चित्त! कामवासना
उसकी छाती पर
बैठ जाएगी। तो
वह उतर ही नहीं
सकता। जिसने
क्रोध को
दबाया वह
क्रोध से इंचभर
हट नहीं सकता।
क्योंकि हटा
कि क्रोध
प्रगट हुआ। और
ज्वालाएं
लपट रही हैं
भीतर। तो उन ज्वालाओं
को किसी तरह
दबाए पड़ा रहता
है। क्रोध को दबानेवाला
क्रोध के साथ
ही खड़ा रहता
है। काम को दबानेवाला
काम के साथ ही
खड़ा रहता है।
"जहां
न इंद्रियां
हैं न उपसर्ग,
न मोह है न
विस्मय, न
निद्रा है न
तृष्णा, न
भूख, वहीं
निर्वाण है।'
महावीर
यह कह रहे हैं
कि जब तुम
निर्वाण में पहुंचोगे
तो कैसे पहचानोगे
कि निर्वाण आ
गया? यह उसकी
पहचान बता रहे
हैं। वे कह
रहे हैं, वहां
तुम न दुख
पाओगे न सुख, वहां तुम न
पीड़ा पाओगे न
बाधा, वहां
तुम न मरण
पाओगे न
जन्म--समझ
लेना आ गया घर।
वहां तुम
इंद्रियां न
पाओगे, न
इंद्रियों के
कष्ट, न
मोह पाओगे न
विस्मय, न
निद्रा पाओगे
न तृष्णा, न
भूख--तो समझ
लेना कि आ गया
घर।
जब कोई
व्यक्ति
ध्यान की
गहराइयों में
उतरते-उतरते, उतरते-उतरते
आत्मा के भीतर
प्रवेश करता
है, अचानक
पाता है कि
यहां न तो
शरीर है...इसका
यह अर्थ नहीं
कि शरीर छूट
गया। महावीर
निर्वाण को उपलब्ध
होने के बाद
भी चालीस साल
तक शरीर में रहे।
चालीस-ब्यालीस
साल तक शरीर का
उपयोग किया; और ऐसा
उपयोग किया, जैसा किया
जाना चाहिए।
हम तो चालीस
जन्मों में
ऐसा उपयोग
नहीं करते, उन्होंने
चालीस वर्ष
में कर लिया।
उनके कारण कल्याण
की धारा बही। श्रेयस
पृथ्वी पर
उतरा। खूब फूल
खिले लोगों की
आत्मा के। खूब
वर्षा हुई
उनके कारण; और जिनके
बीज जन्मों से
दबे पड़े थे, अंकुरित
हुए।
निर्वाण
की उपलब्धि के
बाद भी चालीस-ब्यालीस
साल तक भी
शरीर था, इंद्रियां
थीं। लेकिन
महावीर कहते
हैं, निर्वाण
की अवस्था, आंतरिक ऐसी
अवस्था है कि
वहां पहुंचकर
तुम्हें पता
चलता है, अरे!
शरीर बड़े पीछे
रह गया। शरीर
बड़े दूर छूट गया।
शरीर परिधि पर
पड़ा रह गया और
तुम केंद्र पर
आ गए।
इंद्रियां भी
वहीं पड़ी रह
गईं शरीर पर।
स्वभावतः जब
शरीर पीछे छूट
गया तो शरीर
की भूख, प्यास,
निद्रा, जागृति,
सब पीछे छूट
गई। अचानक तुम
पाते हो कि
तुम्हारे
भीतर कोई
चौबीस घंटे
जागा हुआ
चैतन्य है, जिसको निद्रा
की कोई जरूरत
ही नहीं है, जो कभी पहले
भी नहीं सोया
था। तुम्हें
याद न थी।
तुम्हें
पहचान न थी।
वह कभी भी न
सोया था। वह
सो ही नहीं
सकता। सोना
उसका गुणधर्म
नहीं है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, "या निशा
सर्व भूतानां,
तस्यां जागर्ति
संयमी।' सब
जब सोते हैं
तब भी संयमी
जागता है।
इसका यह मतलब
नहीं है कि
संयमी पागल की
तरह टहलता
रहता है कमरे
में; कि
बैठा रहता है
अपनी खाट पर
पालथी मारे, कि संयमी सो
कैसे सकता है?
हालांकि
ऐसे मूढ़
संयमी भी हैं, जो नींद में
उतरने से घबड़ाते
हैं क्योंकि
नींद में उतरे
कि जो संयम
किसी तरह साधा
है वह टूटता
है। दिनभर
किसी तरह
स्त्रियों की
तरफ नहीं देखा,
सपने में
क्या करोगे? सपने में तो
तुम्हारा बस
नहीं। आंख बंद
हुई कि
जिन-जिन
स्त्रियों से दिनभर आंख
चुराते रहे, वे सब आयीं--और
सुंदर होकर, और सजकर
आ जाती हैं।
जैसी सुंदर
स्त्री सपने
में होती है
वैसी कहीं वस्तुतः
थोड़े ही होती
है! जैसा
सुंदर पुरुष
सपने में होता
है, वस्तुतः
थोड़े ही होता
है!
तो
भागोगे कहां? नींद में तो
भाग भी न
सकोगे। और
नींद में भूल
गए सब शास्त्र
कि तुम जैन हो
कि हिंदू हो
कि मुसलमान कि
संसारी कि
संन्यासी--गया
सब!
तो
आदमी नींद से
डरता है। मगर जो
नींद से डर
रहा है वह कोई
निर्वाण को
उपलब्ध नहीं
हो जाता।
महावीर
कहते हैं, जो निर्वाण
को उपलब्ध हो
जाता है वह
जानता है कि
नींद तो है ही
नहीं। यहां तो
नींद कभी घटी
ही नहीं। इस
गहराई के तल
पर तो नींद का
कभी प्रवेश ही
नहीं हुआ। यह
तल तो नींद से
अछूता रहा है।
कुंआरा है यह
तल। इस पर न
नींद कभी आयी,
न कभी सपना
उतरा।
इंद्रियां
यहां तक पहुंचीं
नहीं। शरीर
यहां तक
पहुंचा नहीं।
यह शरीर और इंद्रियों
के पार।
यह
अनुभव है और
अनुभव की
व्याख्या है।
और तुम जब इस
अनुभव में
उतरोगे तो
तुम्हारे लिए
मील के पत्थर
बना रहे हैं
वे। कि तुम
यहां से समझ
लेना कि
निर्वाण शुरू
होता है।
तुमसे यह नहीं
कहा जा रहा है
कि तुम ऐसा करना
शुरू कर दो।
छोड़ दो भोजन, नींद छोड़ दो,
बैठ जाओ। यह
तो पागलपन
होगा।
जहां
तुम हो शरीर
पर...ऐसा समझो
कि कोई आदमी
अपने घर की
चारदीवारी के
पास ही खड़ा
रहता है और सोचता
है, यही घर
है। धूप आती
तो उसके सिर
पर धूप पड़ती
है, सिर
फटने लगता है।
वर्षा आती तो
वर्षा में भीगता,
शरीर कंपने
लगता। लेकिन
वह जानता है
यहीं चारदीवारी
के बाहर, यहीं
मेरा घर है।
महावीर
कहते हैं, तुम्हारा घर,
तुम्हारा अंतर्गृह--वहां
न वर्षा होती,
न धूप आती।
तुम जरा पीछे
सरको। तुम जरा
परिधि को छोड़ो
और केंद्र की
तरफ चलो।
जैसे-जैसे तुम
केंद्र की
छाया में
पहुंचोगे, तुम
अचानक पाओगे,
सुरक्षित।
सभी बाधाओं से
सुरक्षित। वे
सभी घटनाएं
परिधि पर घटती
हैं।
जैसे
सागर की सतह
पर तूफान आते, आंधियां आतीं,
लेकिन सागर
की गहराई में
न तो कभी कोई
तूफान आता, न कोई आंधी
आती।
जैसे-जैसे
गहरे जाने
लगो...जो लोग
सागर की गहराई
में खोज करते
हैं वे कहते
हैं कि सागर
की गहराई में
अनूठे अनुभव
होते हैं।
अनूठा अनुभव
होता है। एक
अनुभव तो यह
होता है कि
वहां कोई
तूफान नहीं, कोई आंधी
नहीं, कोई
लहर नहीं। सब
परम सन्नाटा
है।
जैसे-जैसे
गहरे जाते
हो...जैसे
पैसिफिक
महासागर पांच
मील गहरा है।
आधा मील की
गहराई के बाद
सूरज की
किरणें भी
नहीं पहुंचतीं।
पांच मील की
गहराई पर सूरज
की किरण कभी
पहुंची ही
नहीं। अनंत
काल से गहन
अंधकार वहां
सोया है। वहां
सतह की कोई
खबर ही नहीं
पहुंची। हवा
है, तूफान है,
आंधी है, बादल है, बरसात
है, धूप है,
ताप है, शीत
आयी, गर्मी
आयी, कुछ
वहां पता नहीं
चलता। वहां
कोई मौसम
बदलता नहीं।
वहां सदा
एकरस।
पैसिफिक
महासागर की जो
गहराई है, वह तो कुछ भी
नहीं; जब
तुम अपनी
गहराई में
उतरोगे, वहां
भूख कभी नहीं
पहुंची, कोई
नींद कभी नहीं
पहुंची, कोई
दुख, कोई
सुख वहां कभी
नहीं पहुंचा।
ये मील के
पत्थर हैं।
और आज
नहीं कल इस
परिधि से हटना
पड़ता है, क्योंकि
शरीर
क्षणभंगुर है,
मरेगा। तो
जो परिधि पर
खड़े हैं, कंप
रहे हैं।
क्योंकि मौत
उन्हें कंपा
रही है। यह
बड़ा
विस्मयकारी
मामला है। तुम
कभी नहीं मरते
और कंप रहे हो,
घबड़ा रहे
हो। ऐसा ही
समझो कि रस्सी
देख ली अंधेरे
में और भाग
खड़े हुए सांप
समझकर; पसीना-पसीना
हुए जा रहे
हैं। छाती धड़क
रही है। रुकते
ही नहीं
रोके--सांप!
ऐसे ही
समझो कि किसी
सिनेमाघर में
बैठे थे और कोई
चिल्ला दिया
पागल कि "आग, आग लग गई।' और भागे।
शब्द ही था, कहीं कोई आग
न थी। लेकिन
भीतर एक भाव
समा गया कि
आग। फिर तो
तुम्हें कोई
रोके भी तो न रुकोगे।
जिसे
अभी हम अपना
जीवन समझ रहे
हैं वह परिधि
का जीवन
है--बड़ा अधूरा, बड़ा खंडित।
उसी खंड को हम
पूरा मान बैठे
हैं। यही अड़चन
है। इसलिए घबड़ाहट
स्वाभाविक
है। वहां मौत
भी आएगी, दुख
भी आएगा, बुढ़ापा
आएगा, शरीर
जीर्ण-जर्जर
होगा, कंपोगे।
महावीर
यह नहीं कह
रहे हैं कि इस
शरीर को काट डालो, मिटा
डालो।
महावीर कह रहे
हैं, इस
शरीर का उपयोग
कर लो। जैसा
यह शरीर संसार
में जाने के
लिए वाहन बनता
है, ऐसा ही
यह शरीर
अंतर्यात्रा
के लिए भी
वाहन बन जाता
है। चोरी करने
जाओ कि मंदिर
में ध्यान करने
जाओ, शरीर
दोनों जगह ले
जाता है। किसी
की हत्या करने
जाओ या किसी
को प्रेम से
आलिंगन करो, शरीर दोनों
में वाहन बन
जाता है। शरीर
तो बड़ा अदभुत
यंत्र है।
तुमने एक ही
तरकीब
सीखी--इससे
बाहर जाना।
इसमें शरीर का
कोई कसूर
नहीं।
शायद
तुम्हें पता
हो, हेनरी
फोर्ड ने जब
पहली कार बनाई
तो उसमें रिवर्स
गेयर
नहीं था। खयाल
ही नहीं था कि
पीछे भी ले
जाना पड़ेगा।
जो पहला माडल
था, बस वह
आगे की तरफ
जाता था। मोड़ना
हो तो बड़ा
चक्कर लगाना
पड़े। आधामील
का चक्कर
लगाकर आओ तब
कहीं मोड़कर
आ पाओ। तब उसे
समझ में आया
कि यह बात तो
ठीक नहीं।
गाड़ी पीछे भी लौटनी
चाहिए। तो फिर
रिवर्स गेयर
आया।
तुम
करीब-करीब
हेनरी फोर्ड
के माडल हो।
बस एक ही गेयर
पता है--कि चले!
और ऐसा भी
नहीं है कि गेयर
तुम्हारे
भीतर नहीं है।
है, लेकिन
तुम्हें
लगाना नहीं
आता। तुम्हें
पता नहीं कि
पीछे भी लौट
सकता है यह
यंत्र। यह अपने
भीतर भी डुबकी
मार सकता है।
तुमने दूसरों
में ही डुबकी
लगाई तो उसी
का अभ्यास हो
गया है।
ध्यान
का इतना ही
अर्थ है:
रिवर्स गेयर--पीछे
लौटने की
प्रक्रिया, अपने में
जाने की प्रक्रिया।
यह
शरीर तो
जाएगा। इसके
पहले कि यह
चला जाए, इसकी
लहर पर सवार
होकर जरा भीतर
की यात्रा कर लो।
यह अश्व तो
मरेगा।
अश्वारोही बन
जाओ। जरा भीतर
की यात्रा कर
लो।
क्या
करोगे शब्दवेदी
धुन चुकेगी जब?
तब
कहां, किस
छोर पर, किसके
लिए
कौन
से संदर्भ
जाएंगे दिए?
बैजयंती
आकाश टुकड़ों
में बंटेगा
जब
क्या
करोगे तब?
एक
गहरी खनक
अविनीता हवाएं
शीर्षकों
पर शीर्षकों
की आहटें आएं
न आएं
एक
कोई रक्त-निचुड़ा
शब्द
जिसका
अर्थ हम शायद
न समझें
और
शायद समझ पाएं
घटाएं
घिरकर न बरसें तो न बरसें
कि ऋतुएं उसी
कोमल कोण से परसें न परसें
कि
हम तरसें, कि हम तरसें,
कि हम तरसें
किंतु
सारी तरसनें
भी चुक जाएंगी
जब
क्या
करोगे तब?
और
केसर झर
चुकेगी जब
क्या
करोगे तब?
यह
होनेवाला है।
केसर तो झरेगी।
यह वीणा तो रुकेगी।
ये तार तो टूटेंगे।
ये टूटने को
बने हैं। यह
वीणा बिखरने
को सजी है।
परिधि पर तो
सब बनेगा और
मिटेगा।
केंद्र पर
शाश्वत है।
तुम परिधि में
रहते-रहते
केंद्र को
बिलकुल ही भूल
मत जाना।
परिधि में रहो
जरूर, केंद्र
की याद करते
रहो। परिधि
में रहो जरूर,
कभी-कभी
केंद्र में
सरकते रहो।
परिधि में रहो
जरूर, केंद्र
की सुरति न
भूले, स्मृति
न भूले।
केंद्र से संबंध
न टूटे।
यह
केसर तो झरेगी।
क्या करोगे तब? तब बहुत
पछताओगे, तब
रोओगे। लेकिन
रोने से कुछ
आता नहीं।
रोने से कुछ
होता नहीं। जागो! इसके
पहले कि केसर
झर जाए, इसके
पहले कि जीवन
का दीया बुझे,
तुम जीवन के
उस शाश्वत
दीये को देख
लो जो कभी नहीं
बुझता। उससे
संबंध जोड़ लो।
इस लहर का
उपयोग कर लो।
यह लहर
तुम्हारी शत्रु
नहीं है, यह
तुम्हारी
मित्र है। इसी
से संसार, इसी
से सत्य, दोनों
की यात्राएं
पूरी होती
हैं।
महावीर
केवल मील के
पत्थर दे रहे
हैं। जब तक तुमने
स्वयं के भीतर
के अमृत को
नहीं जाना तब
तक तुम मरघट
में हो, कब्रिस्तान
में।
इब्राहीम
फकीर हुआ।
उससे कोई
पूछता कि गांव
कहां? बस्ती
कहां? तो
वह कहता, बायें
जाना। दायें
भूलकर मत जाना
बायें जाना, नहीं तो भटक
जाओगे। बायें
से बस्ती
पहुंच जाओगे।
बेचारा
राहगीर चलता।
चार-पांच मील
चलने के बाद
मरघट पहुंच
जाता। वह बड़े
क्रोध में आ
जाता कि यह
आदमी कैसा है!
फकीर वहां चौरस्ते
पर बैठा है।
वह लौटकर आता,
भनभनाता कि
तुम आदमी कैसे
हो जी! मुझे
मरघट भेज दिया?
मैं बस्ती
की पूछता था।
इब्राहिम
कहता, बस्ती
की पूछा
इसीलिए तो
वहां भेजा
क्योंकि जिसको
लोग बस्ती
कहते हैं वह
तो बस उजड़
रही है, उजड़ रही है। रोज
कोई मरता है।
इस मरघट में
जो बस गया सो
बस गया।
"बस्ती!' कभी
इधर किसी को उजड़ते
देखा ही नहीं।
इसलिए तुमने
बस्ती पूछी तो
मैंने कहा, बस्ती भेज
दें।
कबीर
कहते हैं, "ई मुर्दन
के गांव।' हमारे
गांव को कहते
हैं मुर्दों
के गांव।
हम जब
तक परिधि पर
हैं, हम
मुर्दे ही
हैं। हमने
अपने मर्त्य
रूप से ही
संबंध बांध
रखा है तो
मुर्दे हैं।
और हम कंप रहे
हैं और घबड़ा
रहे हैं। घबड़ाहट
स्वाभाविक है,
मिटेगी न।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे कहते
हैं बड़ा भय
लगता है। मैं
पूछता हूं, किस बात का
भय? वे
कहते हैं किसी
बात का खास भय
नहीं, बस
भय लगता है।
ठीक कह रहे
हैं। लगेगा
ही। वे कहते हैं,
किसी तरह यह
भय मिट जाए।
यह भय ऐसे
नहीं मिटेगा।
यह तो तुम
रूपांतरित
होओगे तो ही
मिटेगा। यह तो
अमृत का स्वाद
लगेगा तो ही
मिटेगा। यह भय
मौत का है।
मौत का
भय है और
मिटना तुम
चाहते नहीं।
और तुम्हें यह
पता नहीं कि मिट
तुम सकते
नहीं। ऐसी
उलझन है। जो
आदमी मिटने को
राजी है वह
उसको पा लेता
है जो कभी
नहीं मिटता।
उसको पाते ही
से भय मिट
जाता है।
मिटा
दे अपनी हस्ती
को गर कुछ
मर्तबा चाहे
कि
दाना खाक में
मिलकर
गुले-गुलजार
होता है
परिधि
पर तो मिटना
होगा--
कि
दाना खाक में
मिलकर
गुले-गुलजार
होता है।
मिटता
है बीज। परिधि
पर ही मिटता
है। खोल टूटती
है और तत्क्षण
अंकुरण हो
जाता--है नया
जीवन। और एक
बीज से करोड़ों
बीज पैदा होते
हैं। और जो बंद
बीज था वह
हजारों फूलों
में खिलता और
नाचता और
हंसता है।
कि
दाना खाक में
मिलकर
गुले-गुलजार
होता है
मिटा
दे अपनी हस्ती
को गर कुछ
मर्तबा चाहे
अगर
कुछ होना
चाहते हो तो
मिटना सीखो।
अगर कोई
मर्तबा चाहते
हो, अगर
वस्तुतः
चाहते हो
हस्ती मिले, होना मिले, अस्तित्व
मिले तो--मिटो।
परिधि पर मिटो
ताकि केंद्र
पर हो सको।
परिधि से
डुबकी लगा लो
और केंद्र पर उभरो।
परिधि को छोड़ो
और केंद्र पर
सरको।
"जहां
न कर्म हैं न नोकर्म, न चिंता है न आर्तरौद्र
ध्यान, न धर्मध्यान
है न शुक्लध्यान,
वहीं
निर्वाण है।'
ण
वि कम्मं णोकम्मं, ण वि चिंता णेव अट्टरुद्दाणि।
ण
वि धम्मसुक्कझाणे, तत्थेव य होइ णिव्वाणं।।
जहां न
कर्म हैं, न कर्मों की
आधारभूत शृंखलाएं--नोकर्म। न
जहां कर्म है
न कर्मों को
बनानेवाली
सूक्ष्म
वासनाएं। न
चिंता है, न
चिंतन, न आर्तरौद्र
ध्यान।
ठीक है, आर्तरौद्र ध्यान तो हो
ही कैसे सकते
हैं? क्रोध
और दुख में
भरे हुए चित्त
की अवस्थाएं हैं।
लेकिन महावीर
कहते हैं न
जहां धर्मध्यान,
न शुक्लध्यान।
जहां ध्यान की
आत्यंतिक
अवस्थाएं भी
पीछे छूट गईं।
सविकल्प
समाधि पीछे
छूट गई, निर्विकल्प
समाधि पीछे
छूट गई। समाधि
ही पीछे छूट
गई। जहां बस
तुम हो शुद्ध;
और कुछ भी
नहीं है। कोई
तरंग, कोई
विकार, कुछ
भी नहीं है।
बस तुम हो
शुद्ध
निर्विकार। जहां
तुम्हारा
सिर्फ धड़कता
हुआ जीवन है, वहीं
निर्वाण है।
संसार
ही नहीं छोड़
देना है, धर्म
भी छोड़ देना
है। महावीर
कहते हैं धर्मध्यान,
शुक्लध्यान। शुक्लध्यान
महावीर का
आत्यंतिक
शब्द है ध्यान
के लिए। जहां
ध्यान इतना
शुद्ध हो जाता
है कि कोई
विषय नहीं रह
जाता--निर्विकल्प
ध्यान। लेकिन
महावीर कहते
हैं वह भी छूट
जाता है। वह
भी कुछ है। वह
भी उपाधि है।
तुम कुछ कर
रहे हो। ध्यान
कर रहे हो।
कुछ अनुभव हो
रहा है। अनुभव
यानी
विजातीय।
इधर
मैं तुम्हें
देख रहा हूं
तो तुम मुझसे
अलग। फिर तुम
भीतर ध्यान
में प्रविष्ट
हुए। तो धर्मध्यान
में आदमी शुभ
भावनाएं करता, शुभ भावनाओं
का दर्शन होता
है; जिसको
बुद्ध ने ब्रह्मविहार
कहा है, महावीर
ने बारह
भावनाएं कहीं,
उनका अनुभव
करता। लेकिन
विषय अभी भी
बना है। दो
अभी भी हैं।
फिर
निर्विकल्प
ध्यान में ऐसी
अवस्था आ जाती
है कि कोई
विकल्प न रहा,
लेकिन
सिर्फ एक महासुख
का अनुभव है।
मगर फिर भी
सूक्ष्म रेखा
अनुभव की बनी
है।
तो
महावीर कहते
हैं जहां सब
अनुभव समाप्त
हो जाते हैं, जहां केवल
अनुभोक्ता रह
जाता है बिना
अनुभव के; जहां
शुद्ध चैतन्य
रह जाता है और
कोई विषय नहीं
बचता, सच्चिदानंद
भी जहां नहीं
बचता, वहीं
निर्वाण है।
खयाल
रखना; धन, पद, प्रतिष्ठा
तो रोकती ही
है; दान, दया, धर्म
भी रोकता है।
पद-प्रतिष्ठा
छोड़कर दान-धर्म
करो, फिर
दान-धर्म
छोड़कर भीतर
चलो। बाहर तो
रोकता ही है, फिर भीतर भी
रोकने लगता
है। पहले बाहर
छोड़कर भीतर
चलो, फिर
भीतर को भी छोड़ो।
सब छोड़ो।
ऐसी घड़ी ले आओ,
जहां बस तुम
ही बचे। एक
क्षण को भी यह
घड़ी आ जाए, तो
तुम्हारा
अनंत-अनंत
जन्मों से
घिरा हुआ अंधकार
क्षण में
तिरोहित हो
जाता है।
पहुंच
सका न मैं बरवक्त
अपनी मंजिल पर
कि
रास्ते में
मुझे राहबरों
ने घेर लिया
लुटेरे
तो रास्ते में
लूट ही रहे
हैं। रहजन
तो लूट ही रहे
हैं, फिर
राहबर भी लूट
लेते हैं।
क्रोध
तो लूट ही रहा
है, ध्यान भी
लूटने लगता है
एक दिन। हिंसा
तो लूट ही रही
है, एक दिन
अहिंसा भी
लूटने लगती
है। तो खयाल
रखना कि
अहिंसा सिर्फ
हिंसा को
मिटाने का
उपाय है। और
ध्यान केवल मन
की चंचलता को
मिटाने का उपाय
है। जब चंचलता
मिट गई तो इस
औषधि को भी लुढ़का
देना कचरेघर
में। इसको लिए
मत चलना। जब
ध्यान की भी
जरूरत न रह
जाए तभी
वस्तुतः
ध्यान हुआ। तो
कांटे को कांटे
से निकाल लेना,
फिर दोनों
कांटों को
फेंक देना।
स्वभावतः
यह बड़ी लंबी
यात्रा है।
इससे बड़ी कोई
और यात्रा
नहीं हो सकती।
आदमी चांद पर
पहुंच गया, मंगल पर
पहुंचेगा, फिर
और दूर के
तारों पर
पहुंचेगा।
शायद कभी इस
अस्तित्व की
परिधि पर
पहुंच
जाए--अगर कोई
परिधि है।
लेकिन यह भी
यात्रा इतनी
बड़ी नहीं है जितनी
स्वयं के भीतर
जानेवाली
यात्रा है।
सारे अनुभव के
पार, जहां
सिर्फ प्रकाश
रह जाता है
चैतन्य का।
जहां
रंचमात्र भी
छाया नहीं पड़ती
अन्य की, अनन्यभाव से तुम्हीं
होते हो बस, तुम ही होते
हो।
यह
धीरे-धीरे
होगा। बड़े
धैर्य से होगा
अधीरज से नहीं
होगा। तुम
सारे प्रयास
करते रहो तो
भी सिर्फ
तुम्हारे
प्रयास तुमने
कर लिए इससे
नहीं हो
जाएगा। सारे
प्रयास
करते-करते, करते-करते
एक घड़ी ऐसी
आती है कि
तुम्हें अपने प्रयास
भी बाधा मालूम
पड़ने लगते
हैं। प्रयास करते-करते
एक दिन प्रयास
भी छूट जाते
हैं तब घटता
है।
धीरे-धीरे
रे मना धीरे
सब कुछ होय
माली
सींचे सौ
घड़ा ऋतु आए फल
होय
कबीर
का वचन है, धीरे-धीरे
रे मना।
धीरे-धीरे सब
कुछ होता है।
और सिर्फ माली
सौ घड़े
पानी डाल दे
इससे कोई फल
नहीं आ जाते।
माली
सींचे सौ
घड़ा ऋतु आए फल
होय
ठीक
समय पर, अनुकूल
समय पर, सम्यक
घड़ी में घटना
घटती है। इसका
यह अर्थ नहीं
है कि माली
पानी न सींचे।
क्योंकि माली
पानी न सींचे
तो फिर ऋतु
आने पर भी फल न
लगेंगे। माली
पानी तो सींचे,
लेकिन
जल्दबाजी न
करे।
प्रतीक्षा
करे। श्रम और
प्रतीक्षा।
श्रम और
धैर्य।
धीरे-धीरे
रे मना धीरे
सब कुछ होय
और यह
यात्रा बड़ी
धीमी है
क्योंकि
फासला अनंत है।
तुम्हारी
परिधि और
तुम्हारा
केंद्र इस जगत
में सबसे बड़ी
दूरी है।
तुम्हारी परिधि
पर संसार है
और तुम्हारे
केंद्र पर परमात्मा।
स्वभावतः
दूरी बहुत बड़ी
होने ही वाली है।
तुम्हारी
परिधि पर
दृश्य है, तुम्हारे
केंद्र पर
अदृश्य।
तुम्हारी
परिधि पर रूप
है, तुम्हारे
केंद्र पर
अरूप।
तुम्हारी
परिधि पर सगुण
है, तुम्हारे
केंद्र पर
निर्गुण।
यात्रा
बड़ी बड़ी है; काफी बड़ी
है। अनंत
यात्रा है।
अनंत धैर्य
चाहिए होगा।
"जिस
स्थान को
महर्षि ही
प्राप्त करते
हैं, वह
स्थान
निर्वाण है।
अबाध है, सिद्धि
है, लोकाग्र है, क्षेम,
शिव और अनाबाध
है।'
णिव्वाणं
ति अवाहंति
सिद्धी लोगाग्गमेव
य।
खेमं सिवं अणाबाहं, जं चरंति महेसिणो।।
सिर्फ
महर्षि ही जिस
स्थान को
प्राप्त करते
हैं।
जिन्होंने सब
भांति अपने
ध्यान को
शुद्ध किया
ऐसे ऋषि इस
स्थान को
प्राप्त करते
हैं। जिनके
ध्यान में
जरा-सी भी
कलुष न
रही--संसार की भी
नहीं, परलोक
की भी नहीं।
"जिस
स्थान को
महर्षि ही
प्राप्त करते
हैं, वह
स्थान
निर्वाण है।
अबाध है...।'
परिभाषा
चल रही है।
अंततः इसके
पहले कि महावीर
विदा हों, अपने सूत्र
पूरे करें, वे अंतिम
अवस्था के
संबंध में
दिशा-निर्देश
दे रहे।
"अबाध
है'--उसकी
कोई सीमा
नहीं।
"सिद्धि है'--वहां
पहुंचकर
अनुभव होता है
आ गए, पहुंच
गए। वहां
पहुंचकर पता
चलता है, अब
जाने को कहीं
न रहा। वहां
पहुंचकर पता
चलता है अरे!
यात्रा
समाप्त हुई।
एक अहोभाव। सब
पूरा हो गया, परिपूर्ण हो
गया। अब कुछ
भी न होने को
शेष रहा, न
जाने को शेष
रहा। घर वापस
आ गए।
"सिद्धि,
लोकाग्र।' जो
व्यक्ति इस
अवस्था में
पहुंच गया, वह लोक के
अग्रभाग में
स्थित हो जाता
है। वह वहां
पहुंच जाता है,
जहां
पहुंचने के
लिए हम सदा से
दौड़ते
रहे--प्रथम हो
जाता है।
"क्षेम'--कल्याण की
अनुभूति होती
है। परम
स्वास्थ्य की
अनुभूति होती
है।
"शिव'--बड़ी शुद्धता,
सुगंध, सुरभि।
बड़ी गहन
पावनता। जैसे
कमल और कमल और
हजारों कमल
भीतर प्राण पर
खिलते चले
जाते हैं।
"और अनाबाध
है।' इस
स्थिति में
कोई भी बाधा
नहीं पड़ती।
कोई बाधा पड़
नहीं सकती।
बेशर्त है।
इसे कोई डिगा
नहीं सकता।
इसमें कोई
विघ्न नहीं
डाल सकता। यह
विघ्नों के
पार है, अनाबाध है।
"जैसे
मिट्टी से
लिप्त तुंबी
जल में डूब
जाती है और
मिट्टी का लेप
दूर होते ही
तैरने लग जाती
है।'
कभी
करके देखना।
तुंबी को अगर
मिट्टी में
लपेट दो तो जल
में डूब
जाएगी।
मिट्टी के वजन
से डूब जाएगी।
जो नहीं डूबना
थी, वह डूब
जाएगी। तुंबी
तो लोग तैरने
के काम में लाते
हैं। बांध लेता
है आदमी। नहीं
तैरना जानता
है तो तुंबी
के सहारे तैर
जाता है। वह
तुंबी जो
दूसरों को तैरा
देती है, खुद
भी डूब जाती
है, अगर
मिट्टी का
आवरण हो जाए।
महावीर
कहते हैं शरीर
के आवरण से हम
डूबे। मिट्टी
ने डुबाया।
जो डूबने को न
बने थे वे डूब
गए। उबरे
रहना जिनका स्वभाव
था, जिनके
सहारे और भी
तर जाते और
तैर जाते, जो
तरणत्तारण
थे, वे डूब
गए।
तुंबी
डूब जाती है
मिट्टी के
आवरण से।
"जैसी
मिट्टी से
लिप्त तुंबी
जल में डूब
जाती है और
मिट्टी का लेप
दूर होते ही
तैरने लग जाती
है...।'
बस, इतना ही
फर्क है
तुममें और सिद्धपुरुषों
में। तुममें
और बुद्धपुरुषों
में। तुममें
और
जिन-पुरुषों
में। इतना ही
फर्क है। तुम
भी वैसी ही
तुंबी, जैसी
वे। तुम जरा
मिट्टी से लिपे-पुते
पड़े, तो
डूबे जल में।
उन्होंने
अपनी मिट्टी
से अपने को
दूर जान लिया,
पृथक जान
लिया।
तादात्म्य
तोड़ दिया।
मिट्टी खिसक
गई, तुंबी
उठ गई।
जब
तुंबी उठती है
जल में तो
जाकर अग्रभाग
में स्थिर हो
जाती है। पानी
की सतह पर
स्थिर हो जाती
है। ऐसा
महावीर कहते
हैं, जो डूबे
हैं इस संसार
में वे तुंबियों
की तरह हैं
मिट्टी
लगी--डूबे
हैं। जब
मिट्टी छूटती
है, तादात्म्य
छूटता है, यह
मोह भंग होता
है, तो उठी
आत्मा, चली।
और
इसको महावीर
कहते हैं लोकाग्र्र--आत्यंतिक
अवस्था। जहां
लोक समाप्त
होता है, उस
जगह जाकर सिद्धपुरुष
ठहर जाते हैं।
ये तो सिर्फ
प्रतीक हैं।
इन प्रतीकों
का अर्थ ले
लेना। इन
प्रतीकों को
लेकर नक्शे मत
खींचने लगना।
"जैसे
मिट्टी से
लिप्त तुंबी जल
में डूब जाती
है और मिट्टी
का लेप दूर
होते ही तैरने
लगती है, अथवा
जैसे एरण्ड
का फूल धूप से
सूखने पर फटता
है तो उसके
बीज ऊपर को
जाते हैं, अथवा
जैसे अग्नि या
धूम की गति
स्वभावतः ऊपर
की ओर होती है,
अथवा जैसे
धनुष से छूटा
हुआ बाण
पूर्व-प्रयोग से
गतिमान होता है,
वैसे ही
सिद्ध जीवों
की गति भी
स्वभावतः ऊपर
की ओर होती
है।'
तो
निर्वाण की
सूचना समझना
कि घर पास आने
लगा, जब
तुम्हारी गति
ऊपर की ओर
होने लगे।
हिंसा से
अहिंसा की ओर
होने लगे।
क्रोध से
करुणा की ओर होने
लगे, बेचैनी
से चैन की ओर
होने लगे, पदार्थ
से परमात्मा
की ओर होने
लगे। धन से
ध्यान की ओर
होने लगे, तो
समझना कि गति
ऊपर की तरफ
शुरू हो गई।
तुंबी छूटने
लगी मिट्टी
से। आज नहीं
कल लोकाग्र
में ठहर
जाएगी। वहां
पहुंच जाएगी,
जिसके आगे
और जाना नहीं
है।
लाउअ एरण्डफले अग्गीधूमे
उसू धणुविमुक्के।
गइ
पुव्वपओगेणं
एवं सिद्धाण
वि गती तु।।
"परमात्मतत्व अव्याबाध,
अतींद्रिय,
अनुपम, पुण्य-पापरहित,
पुनरागमन-रहित,
नित्य, अचल
और निरालंब
होता है।'
यह जो परमात्मतत्व
है, यह जो
निर्वाण है, यह जो घर लौट
आना है, यह
कैसा तत्व है?
इसके संबंध
में क्या कहा
जा सकता है?
इतना
ही--"परमात्म
तत्व अव्याबाध।' इसमें कोई
बाधा कभी नहीं
पड़ती। इसके
विपरीत ही कोई
नहीं है, जो
बाधा डाल सके।
यह सबके पार
है। इस तक
किसी चीज की
पहुंच नहीं
है। सब चीजें
इससे पीछे छूट
जाती हैं।
जिनसे बाधा पड़
सकती है वे
बहुत पीछे छूट
जाती हैं।
अतींद्रिय
है।
इंद्रियों के
पार है, क्योंकि
देह के पार
है।
"अनुपम'--यह शब्द
समझना। अनुपम
का अर्थ है, जैसा कभी न
जाना था; जैसा
कभी न देखा
था। न कानों
सुना, न
आंखों देखा।
जो कभी अनुभव
में आया ही न
था। बहुत
अनुभव हुए सुख
के, दुख के,
सफलता के, विफलता के।
बहुत अनुभव
हुए--रस-विरस, स्वाद-बेस्वाद,
सुंदर-असुंदर,
लेकिन यह
अनुपम है। ऐसा
भी नहीं कह
सकते यह सुंदर
है। क्योंकि
तब भ्रांति
होगी कि शायद
जो हमारे
सुंदर के
अनुभव हैं, उन जैसा है।
नहीं, यह
हमारे किसी
अनुभव जैसा
नहीं है। यह
तो बस अपने
जैसा है।
अनुपम का अर्थ
होता है अपने
जैसा। इसकी
कोई तुलना
नहीं हो सकती।
यह अतुलनीय
है।
"पुण्य-पापरहित,
पुनरागमनरहित,
नित्य, अचल
और निरालंब...।'
हमें
तो वही शब्द
समझ में आते
हैं, जो हमारे
अनुभव के हैं।
मैंने
सुना, मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन शराबघर
गया। शेखी
मारना उसकी
आदत है। शेखी
मार रहा था
शराबघर के
मालिक के
सामने कि मैं
हर तरह की
शराब स्वाद
लेकर पहचान
सकता हूं। और
ऐसा ही नहीं
है, अगर
तुम दस-पांच
शराबें भी
इकट्ठी एक
प्याली में
मिला दो तो भी
मैं बता सकता
हूं कि
कौन-कौन सी
शराब मिलाई गई
है।
मालिक
ने कहा तो
रुको। वह भीतर
गया, मिला
लाया एक ग्लास
में मार्टिनी,
ब्रांडी, रम, ह्विस्की--जो भी उसके
पास था, सब
मिला लाया।
मुल्ला पी गया
और एक-एक शराब
का नाम उसने
ले लिया कि येऱ्ये
चीजें इसमें
मिली हैं।
चकित हो गया
वह मालिक भी।
उसने कहा, एक
बार और। वह
भीतर गया और
एक गिलास में
सिर्फ पानी भर
लाया। मुल्ला
ने पीया, बड़ा बेचैनी
में खड़ा रह
गया। कुछ सूझे
न। शुद्ध पानी
है। स्वाद ही
उसे इसका याद
नहीं रहा है
शुद्ध पानी
का।
उसने
इतना ही कहा, कि यह मैं
नहीं जानता यह
क्या है! मगर
एक बात कह सकता
हूं, इसकी
बिक्री न
होगी।
हमारा
जो भी अनुभव
है वह कई तरह
की शराबों का
है। शुद्ध जल
का तो हम
स्वाद ही भूल
गए हैं। बेहोशियों
का है; होश
का तो हम
स्वाद ही भूल
गए। विक्षिप्तताओं
का है, स्वास्थ्य
का तो हम
स्वाद ही भूल
गए। गर्हित, व्यर्थ, असार
का है; सार
का तो हम
स्वाद ही भूल
गए।
इसलिए
महावीर कहते
हैं अनुपम।
हमारे अनुभव से
किसी से उसका
मेल नहीं है।
इसलिए तुम
किसी अपने
अनुभव के आधार
से उसके संबंध
में मत सोचना।
खतरा यही हो
जाता है। जैसे
कि कोई कहे, कोई ज्ञानी,
सिद्ध--कहे महासुख; तो हमको
लगता है हमारा
ही सुख होगा; करोड? गुना,
अरब गुना
बड़ा, लेकिन
है तो सुख ही।
बस भूल हो गई।
उसकी
मजबूरी है। वह
क्या कहे? किन शब्दों
में कहे? महासुख
कहता है तो भी
अड़चन हो जाती
है। क्योंकि
तुम अपने सुख
को ही सोचते
हो। तुम अपने
सुख में ही गुणनफल
करके सोच सकते
हो लेकिन
तुम्हारा सुख
सुख ही कहां
है? उसको
तुम करोड़
गुना कर लो तो
भी वह सुख
नहीं है।
आनंद
कहो तो झंझट।
क्योंकि
तुमने जो आनंद
जाना है वे
अजीब-अजीब
आनंद जाने
तुमने। कोई
ताश ही खेल
रहा है, कहता
है बड़ा आनंद आ
रहा है। अब
क्या करो? कोई
शराब पी रहा
है, कहता
है बड़ा आनंद आ
रहा है। कोई
वेश्या का नृत्य
देख रहा है, और कहता है
बड़ा आनंद आ
रहा है। अब
कहो कि परमात्मा
आनंद है तो इस
आदमी के मन
में कुछ ऐसे
ही लगेगा, कि
होगा कुछ
वेश्या का नाच
देखने जैसा, शराब पीने
जैसा, ताश
खेलने जैसा।
जरा बड़ा करके
सोच लो।
लेकिन
जो भेद
होनेवाला है
इसके आनंद में
और सिद्ध के
आनंद में, इसकी कल्पना
में, वह
परिमाण का
होगा, मात्रा
का होगा। और सिद्धपुरुष
का आनंद
गुणात्मक रूप
से भिन्न है।
मात्रा का भेद
नहीं है। यह
बात ही अनुपम
है।
इसलिए
महावीर ठीक
कहते हैं कि
अनुपम है। तुम
अपने किसी
अनुभव से
विचार मत
करना।
तुम्हारा कोई
अनुभव मापदंड
नहीं बन
सकेगा।
यह
निर्वाण तो जब
घटता है तभी
जाना जाता है।
यह तो स्वाद
जब मिलता है
तभी पहचाना
जाता है।
तो
सत्पुरुषों
के पास तुम
सिर्फ प्यास
ले लो, बस
काफी है। उनकी
बातें सुन, उनके जीवन
को अनुभव कर, उनकी
उपस्थिति से
तुम सिर्फ
प्यास ले लो, तो बस काफी
है। उनके कारण
तुम उतावले हो
उठो, व्यग्र
हो उठो खोजने
के लिए; बस
काफी है। उनसे
सिद्धांत मत
लेना; सिद्धांत
मिल ही नहीं
सकते। उनसे
शास्त्र मत
लेना।
शास्त्र
बनाया कि भूल
हो गई। उनसे
तो प्यास लेना
जीवंत और चल पड़ना।
मेघ
बजे धिन-धिन
धा धमक-धमक
दामिनी
गई दमक
मेघ
बजे, दादुर का
कंठ खुला
धरती
का हृदय धुला
मेघ
बजे, पंक बना हरिचंदन
फूले
कदम्ब
टहनी-टहनी
में कंदुक सम
फूले कदम्ब,
फूले
कदम्ब
जाने
कबसे वह
बरस रहा
ललचायी
आंखों से नाहक
जाने
कबसे तू
तरस रहा
मन
कहता है छू ले कदम्ब,
फूले
कदम्ब
मेघ
बजे, धिन-धिन धा धमक-धमक
दामिनी
गई दमक
मेघ
बजे
अगर
सत्पुरुषों
के पास ऐसा
कुछ हो
जाए--मेघ बजे, दामिनी चमके,
कोई अनूठा
नाद सुनाई
पड़ने लगे, कोई
अदृश्य की पुकार
खींचने लगे, कोई चुनौती
मिले तो फिर
ललचायी आंखों
से देखते ही
मत रहना।
फूले
कदम्ब
जाने
कबसे वह
बरस रहा
ललचायी
आंखों से नाहक
जाने
कबसे तू
तरस रहा
मन
कहता है छू ले कदम्ब,
फूले
कदम्ब
जब यह
चाहत उठे, यह चाहत का
ज्वार उठे तो
रुकना मत। तोड़त्ताड़
सारी जंजीरें
चल पड़ना।
छोड़-छाड़
सारा मोह-मायापाश
चल पड़ना।
लौटकर देखना
भी मत। यह
आह्वान मिल
जाए सतपुरुषों
से, बस
इतना काफी है।
पर लोग
अजीब हैं।
शास्त्र लेते
हैं, प्यास
नहीं लेते।
सिद्धांत ले
लेते हैं, सत्य
की चुनौती
नहीं लेते।
एक
अपूर्व घटना
है। इस जगत की
सबसे अपूर्व
घटना है किसी
व्यक्ति का
सिद्ध या
बुद्ध हो
जाना। इस जगत
की अनुपम घटना
है किसी
व्यक्ति का जिनत्व को
उपलब्ध हो
जाना, जिन
हो जाना। उस
अपूर्व घटना
के पास जला
लेना अपने
बुझे हुए
दीयों को।
अवसर देना
अपने हृदय को,
कि फिर धड़क
उठे उस अज्ञात
की आकांक्षा
से, अभीप्सा
से। तो शायद
कभी तुम जान
पाओ निर्वाण
क्या है।
बताने का कोई
उपाय नहीं।
लिखा-लिखी
की है नहीं
देखा-देखी बात
तुम देखोगे तो
ही जानोगे।
लिखा-लिखी में
उलझे मत रह
जाना। समय मत
गंवाना। ऐसे
भी बहुत
गंवाया है।
महावीर
के इन सूत्रों
पर बात की है
इसी आशा में
कि तुम्हारे
भीतर कोई स्वर
बजेगा, तुम
ललचाओगे,
चाह उठेगी,
चलोगे।
पाना तो
निश्चित है।
पा तो लोगे, चलो भर। न
चले तो जो सदा
से तुम्हारा
है, उससे
ही तुम वंचित
रहोगे। चले तो
जो मिलेगा वह
कुछ बाहर से
नहीं मिलता, तुम्हारा ही
था। सदा से
तुम्हारा था।
भूले-भटके, भूले-बिसरे
बैठे थे। अपने
ही खजाने
की खबर मिली।
मेघ
बजे धिन-धिन
धा धमक-धमक
दामिनी
गई दमक
मेघ
बजे, दादुर का
कंठ खुला
धरती
का हृदय धुला
मेघ
बजे, पंक बना हरिचंदन
फूले
कदम्ब
टहनी-टहनी
में कंदुक सम
फूले कदम्ब,
फूले
कदम्ब
जाने
कबसे वह
बरस रहा
ललचायी
आंखों से नाहक
जाने
कबसे तू
तरस रहा
मन
कहता है छू ले कदम्ब,
फूले
कदम्ब।
आज
इतना ही।
समाप्त
THANK YOU GURUJI
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