दिनांक
2 सितम्बर, 1971;
प्रथम
पर्युषण व्याख्यानमाला,
पाटकर
हाल, बम्बई
धम्म-सूत्र
धम्मो
मंगलमुक्किट्ठं,
अहिंसा
संजमो तवो।
देवा
वि तं नमंसन्ति,
जस्स धम्मे सया
मणो ।।
धर्म
सर्वश्रेष्ठ
मंगल है। (कौन
सा धर्म?) अहिंसा, संयम
और तपरूप
धर्म। जिस
मनुष्य का मन
उक्त धर्म में
सदा संलग्न
रहता है, उसे
देवता भी
नमस्कार करते
हैं।
तीसरा
अंतरत्तप
महावीर ने कहा
है, वैयावृत्य। वैयावृत्य
का अर्थ होता
है--सेवा।
लेकिन महावीर
सेवा से बहुत
दूसरे अर्थ
लेते हैं।
सेवा का एक
अर्थ है मसीही,
क्रिश्चियन
अर्थ है। और
शायद पृथ्वी
पर ईसाइयत ने,
अकेले धर्म
ने सेवा को
प्रार्थना और
साधना के रूप
में विकसित
किया। लेकिन
महावीर का
सेवा से वैसा
अर्थ नहीं है।
ईसाइयत का जो
अर्थ है, वही
हम सबको ज्ञात
है। महावीर का
जो अर्थ है, वह हमें ज्ञात
नहीं है। और
महावीर के
अनुयायियों
ने जो अर्थ कर
रखा है वह अति
सीमित, अति
संकीर्ण है।
परंपरा
वैयावृत्य
से इतना ही
अर्थ लेती रही
है, वह
सुविधापूर्ण
है इसलिए।
वृद्ध साधुओं
की सेवा, रुग्ण
साधुओं की
सेवा--ऐसा
परंपरा अर्थ
लेती रही है।
ऐसा अर्थ लेने
के कारण हैं, क्योंकि
साधु यह सोच
ही नहीं सकता
कि वह असाधु
की सेवा करे।
जो साधु नहीं
हैं, वे ही
साधु की सेवा
करने आते हैं।
जैनों में तो
प्रचलित है कि
जब वे साधु का
दर्शन करने
जाते हैं तो
उनको आप
पूछें--कहां
जा रहे हैं? तो वे कहते
हैं--सेवा के
लिए जा रहे
हैं। धीरे-धीरे
साधु का दर्शन
करना भी सेवा
के लिए जाना
ही हो गया।
इसलिए गृहस्थ
साधु से जाकर
पूछेगा--कुशल
तो है, मंगल
तो है, कोई
तकलीफ तो नहीं?
कोई असाता
तो नहीं, वह
इसीलिए पूछ
रहा है कि कोई
सेवा का अवसर
मुझे दें तो
मैं सेवा
करूं।
साधु
की सेवा, ऐसा
वैयावृत्य
का अर्थ ले लिया
गया। निश्चित
ही साधु, तथाकथित
साधु का इस
अर्थ में हाथ
है। क्योंकि महावीर
ने--किसकी
सेवा, यह
नहीं कहा है।
तो यह अर्थ
महावीर का
नहीं है। जो
अर्थ है उसमें
वृद्ध साधु और
रुग्ण साधु और
साधु की सेवा
भी आ जाएगा।
लेकिन यही
इसका अर्थ
नहीं है।
दूसरा सेवा का
जो प्रचलित
रूप है आज, वह
ईसाइयत के
द्वारा दिया
गया अर्थ है।
और भारत में
विवेकानंद से
लेकर गांधी तक
ने जो भी सेवा
का अर्थ किया
है, वह
ईसाइयत की
सेवा है। और
अब जो लोग
थोड़े अपने को
नयी समझ का
मानते हैं वे
महावीर की
सेवा से भी
वैसा अर्थ
निकालने की
कोशिश करते
हैं।
पंडित बेचरदास दोशी ने
महावीर-वाणी
पर जो
टिप्पणियां
की हैं, उनमें
उन्होंने
सेवा से वही
अर्थ निकालने
की कोशिश की
है, जो
ईसाइयत का है।
उन्होंने
अर्थ निकालने
की कोशिश की
है, जो
ईसाइयत का है।
असल में
ईसाइयत अकेला
धर्म है जिसने
सेवा को के*नदरीय
स्थान दिया
है। और इसलिए
सारी दुनिया
में सेवा के
सब अर्थ ईसाइयत
के अर्थ हो
गए। और
विवेकानंद
कितना पश्चिम
को प्रभावित
कर पाए, इसमें
संदेह है, लेकिन
विवेकानंद
ईसाइयत से अत्याधिक
प्रभावित हुए,
यह
असंदिग्ध है।
विवेकानंद से
कितने लोग प्रभावित
हुए इसका कोई
बहुत निश्चित
मामला नहीं
है। वे एक सेंसेशन
की तरह अमरीका
में उठे और खो
गए। लेकिन
विवेकानंद
स्थायी रूप से
ईसाइयत से प्रभावित
होकर भारत
वापस लौटे। और
विवेकानंद ने
जो रामकृष्ण
मिशन को गति
दी, वह ठीक
ईसाई मिशनरी
की नकल है।
उसमें हिंदू
विचारणा नहीं है।
और फिर
विवेकानंद से
गांधी तक या
विनोबा तक जिन
लोगों ने भी
सेवा पर विचार
किया है, वे
सभी ईसाइयत से
प्रभावित
हैं। असल में
गांधी हिंदू
घर में पैदा
हुए तो मन
होता है मानने
का कि वे
हिंदू थे।
लेकिन उनके
सारे
संस्कार--नब्बे
प्रतिशत
संस्कार
जैनों से मिले
थे। इसलिए मानने
को मन होता है
कि वे मूलतः
जैन थे। लेकिन
उनके
मस्तिष्क का
सारा
परिष्कार
ईसाइयत ने किया।
गांधी पश्चिम
से जब लौटे तो
यह सोचते हुए
लौटे कि क्या
उन्हें हिंदू
धर्म बदलकर
ईसाई हो जाना
चाहिए। और उन
पर जिन लोगों
का सर्वाधिक
प्रभाव पड़ा
है--इमर्सन का,
थोरो का, या
रस्किन
का--ईसाइयत की
धारा से सेवा
का विचार उनका
के*नदर था--उन
सबका। तो
इसलिए वैयावृत्य
पर थोड़ा ठीक
से सोच लेना
जरूरी है, क्योंकि
ईसाइयत की
सेवा की धारणा
ने और सेवा की
सब धारणाओं को
डुबा
दिया है।
दो तीन
बातें--एक तो
ईसाइयत की जो
सेवा की धारणा
है और वही इस
वक्त सारी
दुनिया में
सबकी धारणा
है। वह धारणा फियूचर ओरिएंटेड
है, वह
भविष्य
उन्मुख है।
ईसाइयत मानती
है कि सेवा के
द्वारा ही
परमात्मा को
पाया जा सकता
है। सेवा के
द्वारा ही
मुक्ति होगी।
सेवा एक साधन है,
साध्य
मुक्ति है। तो
सेवा का जो
ऐसा अर्थ है वह
सप्रयोजन है,
विद परपज
है। वह परपजलैस
नहीं है, वह
निषपरयोजन
नहीं है। चाहे
मैं सेवा कर
रहा हूं धन
पाने के लिए, चाहे यश
पाने के लिए
और चाहे मोक्ष
पाने के लिए, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। मैं कुछ
पाने के लिए
सेवा कर रहा
हूं। वह पाना
बुरा भी हो
सकता है, अच्छा
भी हो सकता है,
यह दूसरी
बात है। नैतिक
हो सकता है, अनैतिक हो
सकता है, यह
दूसरी बात है।
एक बात
निश्चित है कि
वैसी सेवा की
धारणा वासनाप्रेरित
है।
इसलिए
ईसाइयत की जो
सेवा है वह
बहुत पैशोनेट
है। इसलिए
ईसाइयत के
प्रचारक के
सामने दुनिया
के धर्म का
कोई प्रचारक
टिक नहीं
सकता। नहीं
टिक सकता
इसलिए कि ईसाई
प्रचारक एक पैशन, एक
तीव्र वासना
से भरा हुआ
है। उसने सारी
वासना को सेवा
बना दिया है।
इसलिए नकल
करने की कोशिश
चलती है।
दूसरे धर्मो
के लोग ईसाइयत
की नकल करते
हैं, पोच
निकल जाती है
वह नकल, उसमें
से कुछ निकलता
नहीं।
क्योंकि
कम-से-कम कोई
भारतीय धर्म
ईसाइयत की
धारणा को नहीं
पकड़ सकता।
उसका कारण यह
है कि भारतीय
मन सोचता ही ऐसा
है कि जिस
सेवा में
प्रयोजन है वह
सेवा ही न
रही। महावीर
कहते हैं--जिस
सेवा में
प्रयोजन है, वह सेवा ही न
रही। सेवा
होनी चाहिए निषपरयोजन।
उससे कुछ पाना
नहीं है।
लेकिन
अगर कुछ भी न
पाना हो तो
करने की सारी
प्रेरणा खो
जाती है। नहीं, महावीर बहुत
उल्टी बात
कहते हैं।
महावीर कहते
हैं--सेवा जो
है, वह
पास्ट ओरिएंटेड
है, अतीत
से जन्मी है; भविष्य के
लिए नहीं है।
महावीर कहते
हैं--अतीत में
जो कर्म हमने
किए हैं, उनके
विसर्जन के
लिए सेवा है।
इसका कोई
प्रयोजन नहीं
है आ गे। उससे
कुछ मिलेगा
नहीं। बल्कि
कुछ गलत
इकट्ठा हो गया
है, उसकी
निर्जरा होगी,
उसका
विसर्जन
होगा। यह
दृष्टि बहुत
उल्टी है।
महावीर कहते
हैं कि अगर
मैं आपके पैर
दाब रहा हूं
या गांधी जी, परचुरे शास्त्री कोढ़ी के
पैर दाब रहे
हैं--गांधी
भला सोचते हों
कि वे सेवा कर
रहे हैं, महावीर
सोचते हैं कि
वे अपने किसी
पाप का प्रक्षालन
कर रहे हैं।
यह बड़ी उल्टी
बात है। गांधी
भला सोचते हों
कि वे कोई
पुण्य कार्य
कर रहे हैं, महावीर
सोचते हैं कि
वे अपने किए
पाप का प्रायश्चित
कर रहे हैं।
यह परचुरे
शास्त्री को
उन्होंने कभी
सताया होगा
किसी जन्म की
किसी यात्रा
में। यह उसका
प्रतिफल है। सिर्फ
किए को अनकिया
कर रहे हैं, अनडन करते हैं।
इसमें
कोई गौरव नहीं
हो सकता।
ध्यान रहे, ईसाइयत की
सेवा गौरव बन
जाती है और
इसलिए अहंकार
को पुष्ट करती
है। महावीर की
सेवा गौरव
नहीं है
क्योंकि गौरव
का क्या कारण
है, वह
सिर्फ पा प का
प्रायश्चित
है। इसलिए
अहंकार को
तृप्त नहीं
करती है, अहंकार
को भर नहीं
सकती। सच तो
यह है कि
महावीर ने जो
सेवा की धारणा
दी है, बहुत
अनूठी है।
उसमें अहंकार
को खड़े होने
का उपाय नहीं
है।
नहीं
तो मैं कोढ़ी
के पैर दाब
रहा हूं तो
मैं कोई विशेष
कार्य कर रहा
हूं--अकड़ भीतर
पैदा होती है।
मैं बीमार को कंधे
पर टांग कर
अस्पताल ले जा
रहा हूं तो
मैं कुछ विशेष
कार्य कर रहा
हूं, मैं कुछ
पुण्य अर्जन
कर रहा हूं।
महावीर कहते हैं--कुछ
पुण्य अर्जन
नहीं कर रहे
हो, इस
आदमी को तुम
किसी गङ्ढे
में किसी दिन
गिराए होओगे,
सिर्फ पूरा
कर रहे हो
अस्पताल पहुंचाकर।
इसे तुमने कभी
चोट पहुंचायी
होगी, अब
तुम मल्हम
पट्टी कर रहे
हो। यह पास्ट
ओ रिएंटेड
है। यह
तुम्हारा
किया हुआ ही, तुम
पश्चात्ताप
कर रहे हो, प्रायश्चित
कर रहे हो, उसे
पोंछ रहे हो।
लिखे हुए को
पोंछ रहे हो, नया नहीं
लिख रहे हो।
इसमें कुछ
गौरव का कारण नहीं
है।
निश्चित
ही ऐसी सेवा
करनेवाला
अपने को सेवक
न मान पाएगा।
तो महा वीर
कहते हैं--जिस
सेवा में सेवक
आ जाए वह सेवा
नहीं है। बिना
सेवक बने अगर
सेवा हो जाए, तो ही सेवा है।यह जरा कठिन
पड़ेगा हमें
समझना।
क्योंकि रस तो
सेवक का है, रस सेवा का
नहीं है। अगर कोढ़ी के
पैर दाबते
वक्त आसपास के
लोग कहें --
अच्छा, तो
किसी पाप का
प्रक्षालन कर
रहे हो! तो कोढ़ी
के पैर दाबने
का सब मजा चला
जाए। हम चाहते
हैं कि लोग
तस्वीर निकालें,
अखबारों
में छापें और
कहें कि महासेवक
है यह आदमी।
यह कोढ़ियों
के पैर दाब
रहा है।
नीत्शे
ने संत
फ्रांसिस की
एक जगह बहुत
गहरी मजाक की
है। संत
फ्रांसिस
ईसाई सेवा के
साकार प्रतीक
हैं। संत
फ्रांसिस को
कोई कोढ़ी
मिल जाता तो न
केवल उसे गले
लगाते, बल्कि
उसके कोढ़ से
भरे हुए ओंठों
को चूमते भी।
फ्रेडरिक
नीत्शे ने कहा
है कि संत
फ्रांसिस, अगर
मेरे वश में
होता तो मैं
तुमसे पूछता
कि कोढ़ी
के ओंठ चूमते
वक्त
तुम्हारे मन
को क्या हो रहा
है? और मैं कोढ़ियों
से कहता कि
बजाय संत
फ्रांसिस को
मौका देने के
कि वे तुम्हें
चूमें, जहां वे
तुम्हें मिल
जाएं, तुम
उन्हें चूमो। कोढ़ियों
से कहता कि
जहां भी संत
फ्रांसिस मिल
जाएं, छोड़ो मत। उन्हें
पकड़ो, गले
लगाओ और चूमो।
और तब देखो कि
संत फ्रांसिस
के चेहरे पर
क्या परिणाम
होते हैं।
जरूरी
नहीं है कि
नीत्शे जैसा
सोचता है वैसा
संत फ्रांसिस
के चेहरे पर परिणाम
हो, क्योंकि
वह आदमी गहरा
था। लेकिन यह
बात बहुत दूर
तक सच है कि जो
आदमी कोढ़ी
के पास उसको
चूमने जाता है
वह किसी बहुत
गरिमा के भाव
से भरकर जा
रहा है, वह
कोई काम कर
रहा है जो बड़ा
कठिन है, असंभव
है। असल में
वह वासना के विपरीत
काम करके
दिखला रहा है।
कोढ़ी के
ओंठ से दूर
हटने का मन
होगा, चूमने
का मन नहीं
होगा। और वह चूमकर
दिखला रहा है।
वह कुछ कर रहा
है, कोई
कृत्य।
महावीर
कहेंगे--अगर
इस करने में
थोड़ी भी वासना
है--इस करने
में अगर थोड़ी
भी वासना है, अगर इस करने
में इतना भी
मजा आ रहा है
कि मैं कोई
विशेष कार्य
कर रहा हूं, कोई असाधारण
कार्य कर रहा
हूं तो मैं
फिर नए कर्मो
का संग्रह कर
रहा हूं। फिर
सेवा भी पाप
बन जाएगी, क्योंकि
वह भी कर्म
बंधन लाएगी।
अगर मैं कुछ कर
रहा हूं, किए
हुए को अनकिया
कर रहा हूं तो
फिर भविष्य में
कोई कर्म बंधन
नहीं है। अगर
मैं कोई फ्रेश
ऐक्ट, कोई
नया कृत्य कर
रहा हूं कि कोढ़ी
को चूम रहा
हूं तो फिर
मैं भविष्य के
लिए पुनः आयोजन
कर रहा हूं, कमो* की
श्रृंखला का।
महावीर
कहते
हैं--पुण्य भी
अगर
भविष्य-उन्मुख
है तो पाप बन
जाता है। यह
बड़ा मुश्किल
होगा समझना।
पुण्य भी अगर
भविष्य
उन्मुख है तो
पाप बन जाता
है, क्यों? क्योंकि वह
भी बंधन बन
जाता है।
महावीर कहते हैं--पुण्य
भी पिछले किए
गए पापों का
विसर्जन है।
तो महावीर एक मैटा-मैथाफिजिक्स
या मैटा-मैथमेटिक्स
की बात कर रहे
हैं, परा
गणित की। वे
यह कह रहे हैं
जो मैंने किया
है उसे मुझे
संतुलन करना
पड़ेगा। मैंने
एक चांटा आपको
मा र दिया है
तो मुझे आपके
पैर दबा देने
पड़ेंगे। तो वह
जो विश्व का
जागतिक गणित
है उसमें
संतुलन हो
जाएगा। ऐसा
नहीं कि पैर
दबाने से मुझे
कुछ नया
मिलेगा, सिर्फ
पुराना कट
जाएगा। और जब
मेरा सब
पुराना कट जाए;
मैं शून्यवत
हो जाऊं; कोई
जोड़ मेरे
हिसाब में न
रहे; मेरे
खाते में
दोनों तरफ
बराबर हो जाएं
आंकड़े; जो
मैंने किया वह
सब अनकिया हो
जाए; जो
मैंने लिया वह
सब दिया हो
जाए; ऋण और
धन बराबर हो
जाएं और मेरे
हाथ में शून्य
बच रहे तो
महावीर कहते
हैं--वह शून्य
अवस्था ही मुक्ति
है।
अगर
ईसाइयत की
धारणा हम
समझें तो सेवा
शून्य में
नहीं ले जाती, धन में ले
जाती है, प्लस
में। आपका प्लस
बढ़ता चला जाता
है, आपका
धन बढ़ता चला
जाता है। आप
जितनी सेवा
करते हैं उतने
धनी होते चले
जाते हैं।
उतना आपके पास
पुण्य
संग्रहीत
होता है। और
इस पुण्य का
प्रतिफल आपको
स्वर्ग में, मुक्ति में,
ईश्वर के
द्वारा
मिलेगा।
जितना आप पाप
करते हैं, आपके
पास ऋण इकट्ठा
होता है और
इसका प्रतिफल
आपको नरक में,
दुख में, पीड़ा में
मिलेगा ।
महावीर कहते
हैं--मोक्ष तो
तब तक नहीं हो
सकता जब तक ऋण
या धन कोई भी
ज्यादा है। जब
दोनों बराबर
हैं और शून्य
हो गए, एक
दूसरे को काट
गए, तभी
आदमी मुक्त
होता है, क्योंकि
मुक्ति का
अर्थ ही यही
है कि अब न मुझे
कुछ लेना है
और न मुझे कुछ
देना है। इसको
महावीर ने
निर्जरा कहा
है।
और
निर्जरा के
सूत्रों में वैयावृत्य
बहुत कीमती
है। तो महावीर
इसलिए नहीं
कहते कि दया
करके सेवा करो
क्योंकि दया
ही बंधन
बनेगा। कुछ भी
किया हुआ बंधन
बनता है।
महावीर यह
नहीं कहते कि
करुणा करके
सेवा करो कि
देखो यह आदमी
कितना दुखी है, इसकी सेवा
करो। महावीर
यह नहीं कहते
कि यह इतना
दुखी है इसलिए
सेवा करो।
महावीर कहते
हैं कि अगर
तुम्हारा कोई
पिछला कर्म
तुम्हारा
पीछा कर रहा
हो तो सेवा
करो और
छुटकारा पा
लो। इसका मतलब?
इसका मतलब
यह हुआ कि तुम
अपने को सेवा
के लिए खुला
रखो, पैशोनेट सेवा नहीं।
निकलो मत झंडा
लेकर सुबह से
कि मैं सेवा
करके लौटूंगा,
ऐसा नहीं।
घोषणा करके मत
तय कर रखो कि
सेवा करनी ही
है। जिद्द
मत करो, राह
चलते हो, कोई
अवसर आ जाए तो
खुला रखो। अगर
सेवा हो सकती हो
तो अपने को
रोको मत।
इसमें
फर्क है। एक
तो सेवा करने
जाओ प्रयोजन से, सक्रिय हो
जाओ, सेवक
बनो, धर्म
समझो सेवा को।
महावीर कहते
हैं--खुला रखो,
कहीं सेवा
का अवसर हो, और सेवा
भीतर उठती हो
तो रोको मत, हो जाने दो।
और चुपचाप
विदा हो जाओ।
पता भी न चले किसी
को कि तुमने
सेवा की।
तुमको स्वयं
भी पता न चले
कि तुमने सेवा
की, तो वैयावृत्य
है।
वैयावृत्य
का अर्थ
है--उत्तम सेवा।
साधारण सेवा
नहीं। ऐसी
सेवा जिसमें
पता भी नहीं
चलता कि मैंने
कुछ किया। ऐसी
सेवा जिसमें
बोध है कि
मैंने कुछ
किया हुआ
अनकिया, अनडन,
कुछ था जो
बांधे था, उसे
मैंने छोड़ा।
इस आदमी से
कोई संबंध थे
जो मैंने
तोड़े। लेकिन
अगर इसमें रस
ले लिया तो
फिर संबंध
निर्मित होते
हैं--फिर
संबंध
निर्मित होते
हैं। और रस एक
तरह का शोषण
है--यह भी समझ
लेना
चाहिए--महावीर
की दृष्टि में
अगर एक आदमी
दुख है और
पीड़ित है और मैं
उसकी सेवा
करके स्वर्ग
जाने की
चेष्टा कर रहा
हूं तो मैं
उसके दुख का
शोषण कर रहा
हूं। मैं उसके
दुख को साधन
बना रहा हूं।
अगर वह दुखी न
होता तो मैं
स्वर्ग न जा
पाता। इसे ऐसा
सोचें थोड़ा।
तब इसका मतलब
यह हुआ कि जिसके
दुख के माध्यम
से आप स्वर्ग
खोज रहे हैं, यह तो बहुत
मजेदार मामला
है। इस गणित
में थोड़े गहरे
उतरना जरूरी
है।
एक
आदमी दुखी है
और आप सेवा
करके अपना सुख
खोज रहे हैं, तो आप उसके
दुख को साधन
बना रहे हैं।
यही तो सारी दुनिया
कर रही है। यह
तो सारी
दुनिया कर रही
है। एक धनपति
अगर धन चूस
रहा है तो आप
उससे कहते हैं
कि दूसरे लोग
दुखी हो रहे
हैं। आप उनके
दुख पर सुख
इकट्ठा कर रहे
हैं। लेकिन एक
पुण्यात्मा, दीन की, दुखी
की सेवा कर
रहा है और
अपना स्वर्ग
खोज रहा है, तब आपको
खयाल नहीं आता
कि वह भी किसी
गहरे अर्थो
में यही कर रहा
है। सिक्के
अलग हैं, इस
जमीन के
नहीं--परलोक
के, पुण्य
के। बैंक
बैलेंस वह
यहां नहीं खोल
पाएगा, लेकिन
कहीं खोल रहा
है। कहीं किसी
बैंक में जमा
होता चला
जाएगा।
नहीं, महावीर कहते
हैं--दूसरे के
दुख का शोषण
नहीं, क्योंकि
शोषण कैसे
सेवा हो सकता
है? दूसरा
दुखी है तो
उसके दुख में
मेरा हाथ हो
सकता है। उस
हाथ को मुझे
खींच लेना है,
उसी का नाम
सेवा है। वह
मेरे कारण
दुखी न हो, इतना
हाथ मुझे खींच
लेना है। इसके
दो अर्थ हुए--मेरे
कारण कोई दुखी
न हो, ऐसा
मैं जियूं।
और अगर मुझे
कोई दुखी मिल
जाता है तो
मेरे कारण
अतीत में वह
दुख पैदा न हुआ
हो, ऐसा
मैं व्यवहार
करूं कि अगर
मेरा कोई भी
हाथ हो तो हट
जाए। इसमें
कोई पैशन
नहीं हो सकता;
इसमें कोई
त्वरा और
तीव्रता नहीं
हो सकती; इसमें
कोई रस नहीं
हो सकता करने
का क्योंकि यह
सिर्फ न करना
है; यह
सिर्फ मिटाना
और पोंछना है।
इसलिए
महावीर की
सेवा समझी
नहीं जा सकी
क्योंकि हम सब
पैशोनेट
हैं। अगर धर्म
भी हमको
पागलपन न बन
जाए तो हम धर्म
भी नहीं कर
सकते। अगर
मोक्ष भी
हमारी जिद्द
न बन जाए तो हम
मोक्ष भी नहीं
जा सकते। अगर
पुण्य भी किसी
अर्थ में शोषण
न हो तो हम
पुण्य भी नहीं
कर सकते, क्योंकि
शोषण हमारी
आदत है; शोषण
हमारे जीवन का
ढंग है।
व्यवस्था है
हमारी। और
वासना हमारा
व्यवहार है।
जिस चीज में
हम वासना जोड़
दें वही हम कर
सकते हैं, अन्यथा
हम नहीं कर
सकते। तो अगर
सेवा धन वासना
हो जाए तो हम
सेवा भी कर
सकते हैं।
इसलिए सेवा के
लिए आपको
उन्मुख
करनेवाले लोग
कहते हैं कि
सेवा से
क्या-क्या
मिलेगा, दान
से क्या-क्या
मिलेगा। सवाल
यह नहीं है कि दान
क्या है, सेवा
क्या है। सवाल
क्या है कि
आपको
क्या-क्या
मिलेगा, आप
क्या-क्या पा
सकोगे। वे
आपको स्वर्ग
की पूरी झलक
दिखाते हैं।
आपसे कुछ भी
करवाना हो तो
आपकी वासना को
प्रज्जवलित
करना पड़ता है।
आपकी वासना
प्रज्जवलित न
हो तो आप कुछ
भी नहीं करने
को राजी हैं।
जीसस
से मरने के
पहले जीसस के
एक शिष्य ने
पूछा कि घड़ी आ
गयी पा स, सुनते
हैं हम कि आप
नहीं बच
सकेंगे। एक
बात तो बता
दें। यह तो
पक्का है कि
आप ईश्वर के
हाथ के पास
सिंहासन पर
बैठेंगे। हम
लोगों की जगह
क्या होंगी? हम कहां
बैठेंगे? वह
जो ईश्वर का
राज्य होगा, सिंहासन
होगा, आप
तो पड़ोस में
बैठेंगे, यह
पक्का है। हम
लोगों की क्रम
संख्या क्या
होगी? कौन
कहां बैठेगा ,
किस नम्बर
से बैठेगा? जब भी आदमी
कोई त्याग
करता है तो
पहले पूछ लेता
है कि फल क्या
होगा? इतना
छोड़ता हूं, मिलेगा
कितना? और
ध्यान रहे, जब छोड़ने
में मिलने का
खयाल हो, तो
वह छोड़ना है? वह बागनिंग
है, वह
सौदा है। इससे
क्या फर्क
पड़ता है कि
आपको क्या
मिलेगा--मोक्ष
मिलेगा, स्वर्ग
मिलेगा, धन
मिलेगा, प्रेम
मिलेगा, आदर
मिलेगा, इससे
कोई सवाल नहीं
पड़ता--मिलेगा
कुछ।
महावीर
कहते
हैं--सेवा से
मिलेगा कुछ भी
नहीं, कुछ
कटेगा। कुछ मिलेगा
नहीं, कुछ
कटेगा। कुछ छूटेगा, कुछ हटेगा।
सेवा को अगर
हम महावीर की
तरह समझें तो
वह मेडीसिनल
है, दवाई
की तरह है।
दवाई से कुछ
मिलेगा नहीं,
सिर्फ
बीमारी कटेगी।
ईसाइयत की
सेवा टानिक
की तरह है, उसमें
कुछ मिलेगा।
उसका भविष्य
है। महावीर की
सेवा मेडीसिन
की तरह है, उससे
बीमारी भर कटेगी,
मिलेगा कुछ
नहीं।
यह भेद
इतना गहरा है, और इस भेद के कारण
ही जैन परंपरा
सेवा को जन्मा
न पायी। नहीं
तो जीसस से
पांच सौ वर्ष
पहले महावीर
ने सेवा की
बात की थी और
उसे अंतरत्तप
कहा था जो जैन
परंपरा उसे
जगा न पायी, जरा भी न जगा
पायी।
क्योंकि कोई पैशन न था,
उसमें कोई
त्वरा नहीं
पैदा होती थी।
फिर कुछ कटेगा,
कुछ मिटेगा,
कुछ छूटेगा,
कुछ कमी ही
हो जाएगी
उल्टी। पापी
के भी पाप का ढेर
थोड़ा कम हो तो
उसको भी लगता
है कुछ कम हो
रहा है।
समथिंग इज
मिसिंग।
मेरे पास जो
था उसमें कमी
हो गयी। बीमार
भी लंबे दिनों
की बीमारी के
बाद जब स्वस्थ
होता है तो
लगता है समथिंग
इज मिसिंग,
कुछ खो रहा
है। इसलिए जो
लंबे दिनों तक
बीमारी रह जाए
और बीमारी में
रस ले ले, वह
कितना ही कहे,
स्वस्थ
होना चाहता है,
भीतर कहीं
कोई हिस्सा
कहता है, मत
होओ।
मनोवैज्ञानिक
कहते
हैं--सत्तर
प्रतिशत बीमार
इसलिए बीमार
बने रहते हैं
कि बीमारी में
उन्हें रस
पैदा हो गया
है, वे
बीमारी को बचाना
चाहते हैं। आप
कहते हैं--अगर
बीमारी को
बचाना चाहते
हैं तो चिकित्सक
के पास क्यों
जाते हैं, दवा
क्यों लेते
हैं? यही
तो मनुष्य का
द्वंद्व है कि
वह दोहरे काम एक
साथ कर सकता
है। इधर दवा
ले सकता है, उधर बीमारी
को बचा सकता
है। क्योंकि
बीमारी के भी
रस हैं और कई
बार
स्वास्थ्य से
ज्यादा
रसपूर्ण हैं।
जब आप बीमार
पड़ते हैं तो
सारा जगत आपके
प्रति
सहानुभूतिपूर्ण
हो जाता है।
कितना चाहा कि
जब आप स्वस्थ
होते हैं तब
जगत सहानुभूतिपूर्ण
हो जाए, लेकिन
तब कोई
सहानुभूतिपूर्ण
नहीं होता है।
जब आप बीमार
होते हैं तो
घर के लोग
प्रेम का व्यवहार
करते हुए मालूम
पड़ते हैं। जब
आप बीमार होते
हैं तो ऐसा मालूम
होता है कि आप
सेंटर हो गए
सारी दुनिया के।
सारी दुनिया
परिधि पर है, आप केनदर
पर हैं।
नर्सें घूम
रही हैं; डाक्टर
चक्कर लगा रहे
हैं; परिवार
आपके इर्द-गिर्द
घूम रहा है; मित्र आ रहे
हैं; देखनेवाले
आ रहे हैं। आप
ध्यान रखते
हैं कि कौन
देखने नहीं
आया।
मेरे
एक मित्र का
लड़का मर गया।
जवान लड़का मर
गया। उनकी
उम्र तो सत्तर
वर्ष है। छाती
पीटकर रो रहे
थे। जब मैं
पहुंचा तो पास
में उन्होंने टेलीग्राम
का ढेर लगा
रखा था। जल्दी
से मैंने उनसे
एक-दो मिनट
बात की। लेकिन
मैंने देखा
उनकी
उत्सुकता बात
में नहीं है, टेलीग्राम
मैं देख जाऊं,
इसमें है।
तो उन्होंने
वे टेलीग्राम
मेरी तरफ
सरकाए और कहा
कि प्रधानमंत्री
ने भी भेजा है
और राष्ट्रपति
ने भी भेजा
है। जब तक
मैंने
टेलीग्राम सब न
देख लिए तब तक
उनको तृप्ति न
हुई। बड़े दुख
में हैं।
लेकिन दुख में
भी रस लिया
जाता है। ये
टेलीग्राम वे फाड़कर न
फेंक सके, ये
टेलीग्राम वे
भूल न सके, इनका
वे ढेर लगाए
रहे।
पंद्रह
दिन बाद जब
मैं गया तब वह
ढेर और बड़ा हो गया
था। ढेर लगाए
हुए थे। अपने
पास ही रखे
रहते थे। कहते
थे, आत्महत्या
कर लूंगा, क्योंकि
अब क्या जीना।
जवान लड़का मर
गया, मरना
मुझे चाहिए
था। कहते थे, आत्महत्या
कर लूंगा, वह
तारों का ढेर
बढ़ाते जाते
थे। मैंने
कहा--कब करिएगा?
पंद्रह दिन
हो गए हैं।
जितने दिन बीत
जाएंगे उतना
मुश्किल होगा
करना। तो
उन्होंने
मुझे ऐसे देखा
जैसे कोई
दुश्मन को
देखे।
उन्होंने कहा--आप
क्या कहते हैं,
आप और ऐसे!
ऐसी बात कहते
हैं! क्योंकि
वह आत्महत्या
करने के लिए
इसलिए कह रहे
थे पंद्रह दिन
से निरंतर कि
जब आत्महत्या
की कोई भी
सुनता था तो
बहुत
सहानुभूति
प्रगट करता
था। मैंने
कहा--मैं
सहानुभूति
प्रगट न
करूंगा।
इसमें आप रस ले
रहे हैं। उसी
दिन से वे
मेरे दुश्मन
हो गए।
इस
दुनिया में सच
कहना दुश्मन
बनाना है। इस
दुनिया में
किसी से भी सच
कहना दुश्मन
बनाना है। झूठ
बड़ी
मित्रताएं
स्थापित करता
है। कभी एक दफा
देखें, चौबीस
घण्टे तय कर
लें, सच ही
बोलेंगे! आप
पाएंगे सब
मित्र बिदा हो
गए। चौबीस
घण्टा, इससे
ज्यादा नहीं।
पत्नी अपना
सामान बांध
रही है; लड़के
बच्चे कह रहे
हैं, नमस्कार--मित्र
कह रहे हैं कि
तुम ऐसे आदमी
थे! सारा जगत
शत्रु हो
जाएगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन सुबह
बैठकर अपना
अखबार पढ़ रहा
है। और जैसा
अखबार पर सभी पत्नियां
नाराज होती
हैं, ऐसा उसकी
पत्नी भी नाराज
हो रही थी कि
क्या सुबह से
तुम अखबार
लेकर बैठ जा
ते हो! एक
जमाना था कि
तुम सुबह से
मेरे सूरत की
बातें करते थे
और अब तुम कुछ
बात नहीं करते
हो। एक वक्त
था कि तुम
कहते थे कि
तेरी वाणी
कोयल जैसी
मधुर है; अब
तुम कुछ भी
नहीं कहते।
मुल्ला ने
कहा--है तेरी
वाणी मधुर, मगर बकवास
बंद कर, मुझे
अखबार पढ़ने
दे। है तेरी
वाणी मधुर, पर बकवास
बंद कर, मुझे
अखबार पढ़ने
दो।
दोहरा
है आदमी।
मजबूरी है
उसकी क्योंकि
सीधा और सच्चा
होने नहीं
देता समाज।
महंगा पड़ जाएगा।
इसलिए झूठ को
पोंछता चला
जाता है।
मुल्ला
ने जब तीसरी
शादी की, तो
तीसरे दिन रात
को पत्नी ने
कहा कि अगर
तुम बुरा न मानो
तो मैं अपने
नकली दांत
निकालकर रख
दूं, क्योंकि
रात मुझे
इनमें नींद
नहीं आती।
मुल्ला ने कहा
-- थैंक्स, गुडनेस।
नाउ आई
कैन पुट आफ
माई फाल्स लैग,
माई विग, माई
ग्लास-आय एण्ड
रिलैक्स। तो
मैं अब अपनी
लकड़ी की टांग
अलग कर सकता हूं,
और अपने
झूठे बाल अलग
कर सकता हूं
और कांच की आंख
रख सकता हूं
और विश्राम कर
सकता हूं।
धन्य भाग, हे
परमात्मा!
तूने अच्छा
बता दिया।
नहीं तो हम भी
तने थे, तीन
दिन से हम खुद
भी कहां सो पा
रहे हैं! वह भी
नहीं सो पा
रही है।
क्योंकि वे
झूठे दांत
सोने कैसे
देंगे?
हम सब
एक दूसरे के
सामने चेहरे
बनाए हुए हैं, जो झूठे
हैं। लेकिन रिलैक्स
कैसे करें।
सत्य रिलैक्स
कर जाता है, लेकिन सत्य
में जीना कठिन
पड़ता है।
इसलिए दोहरा
हम जीते हैं।
एक कोने में
कुछ, एक
कोने में कुछ,
और सब चलाते
हैं। बीमारी
में रस है, यह
कोई बीमार
स्वीकार करने
को राजी नहीं
होता, लेकिन
बीमारी में रस
है। इतना रस
स्वास्थ्य में
भी नहीं आता
है जितना
बीमारी में
आता है। इसलिए
स्वास्थ्य को
कोई बढ़ा-चढ़ाकर
नहीं बताता, बीमारी को
सब लोग बढ़ा-चढ़ाकर
बताते हैं।
यह जो
हमारा चित्त
है, यह
द्वंद्व से
भरा है। इसलिए
हम करते कुछ
मालूम पड़ते
हैं, कर
कुछ और रहे
होते हैं।
कहते
हैं--गरीब पर
बड़ी दया आ रही
है, लेकिन
उस दया में भी
रस लेते मालूम
पड़ते हैं। अगर
दुनिया में
कोई गरीब न रह
जाए तो सबसे
ज्यादा तकलीफ
उन लोगों को
होगी जो गरीब
की सेवा करने
में पैशोनेट
रस ले रहे
हैं। वे क्या
करेंगे? अगर
दुनिया नैतिक
हो जाए तो
साधु जो समाज
को नैतिकता
समझाते फिरते
हैं, ये
ऐसे उदास हो
जाएंगे जिसका
हिसाब लगाना
मुश्किल है।
ऐसा कभी होता
नहीं है इसलिए
मौका नहीं
आता। एक दफा
आप मौका दें
और नैतिक हो
जाएं, और
जब साधु कहे
कि आप चोरी मत
करो; आप
कहें, हम
करते ही नहीं।
कहे, झूठ
मत बोलो; आप
कहें, हम
बोलते ही
नहीं। कहे, बेईमानी मत
करो; आप
कहें, हम
करते ही नहीं।
वह कहे, दूसरे
की स्त्री की
तरफ मत देखो; आप कहें, बिलकुल
अंधे हैं।
देखने का सवाल
ही नहीं है। तो
आप साधु के
हाथ से उसका
सारा काम छीने
ले रहे हैं।
पूरी जड़ें उखाड़
ले रहे हैं।
अब साधु क्या
करेगा?
साधु
क्या करेगा? यह कठिन
होगा समझना, लेकिन
साधु-असाधु के
रोगों पर जीता
है। वह पैरासाइट
है। वह जो
असाधु चारों
तरफ दिखाई
पड़ते हैं, उन
पर ही साधु
जीता है। वह पैरासाइट
है। अगर
दुनिया सच में
साधु हो जाए
तो साधु एकदम
काम के बाहर हो
जाए। उसको कोई
काम नहीं
बचता। और कुछ
आश्चर्य न
होगा जो साधु
आप को समझा
रहे थे, अगर
समझाने में
उनको रस था
--यही कि
समझाते वक्त
आदमी गुरु हो
जाता है, ऊपर
हो जाता है, सुपीरियर हो
जाता है उससे
जिसे समझाता
है। इसलिए
समझाने का रस
है। अगर
समझाने में रस
था, अगर
समझाने में
आपके अज्ञान
का शोषण था, अगर समझाने
में आप सीढ़ी
थे उसके ज्ञान
की तरफ बढ़ने
के, तो
इसमें कोई
हैरानी न होगी
कि जिस दिन
सारे लोग साधु
हो जाएं, उस
दिन जो साधुता
की समझा रहा
था, ईमानदारी
की समझा रहा
था, वह बेईमानी
के राज बताने
लगे कि
बेईमानी के
बिना जीना
मुश्किल है।
चोरी करनी ही
पड़ेगी, असत्य
बोलना ही
पड़ेगा, नहीं
तो मर जाओगे।
जीवन में सब
रस ही खो
जाएगा।
अगर
उसको समझाने
में ही रस आ रहा
था तब अगर वह
सच में ही
साधु था, समझाना
उसका रस न था, शोषण न था।
तो वह प्रसन्न
होगा, आनंदित
होगा। वह
कहेगा--समझाने
की झंझट भी
मिटी। लोग
साधु हो गए, अब बात ही
खत्म हो गयी।
अब मुझे
समझाने का उपद्रव
भी न रहा। अगर
सेवा में आपको
रस आ रहा था कि आप
कहीं जा रहे
थे--स्वर्ग, सुख में, आदर
में, प्रतिष्ठा
में, सम्मान
में--अगर सेवा
करवाने को कोई
भी न मिले तो
आप बड़े उदास
और दुखी हो
जाएंगे। लेकिन
अगर सेवा वैयावृत्य
थी, जैसा
महावीर मानते
हैं तो आप
प्रसन्न
होंगे कि अब
आपका ऐसा कोई
भी कर्म नहीं
बचा है कि
जिसके कारण
आपको किसी की
सेवा करनी
पड़े। आप
प्रसन्न
होंगे, प्रफुल्लित
होंगे, प्रमुदित
होंगे, आनंदित
होंगे। आप
कहेंगे धन्यभाग,
निर्जरा
हुई।
यह भेद
है। सेवा में
कोई रस नहीं
है। सेवा केवल
मेडिसिनल
है। जो किया
है उसे पोंछ
डालना है, मिटा देना
है। ध्यान रहे,
जो व्यक्ति
सेवा करेगा
दूसरे की, कहेगा
वह बीमार है इसलिए
सेवा करता हूं, वृद्ध है इसलिए
सेवा करता हूं—वह
बीमार होने पर
सेवा मांगेगा,
वृद्ध होने
पर सेवा मांगेगा।
क्योंकि ये एक
ही तर्क के दो
हिस्से हैं।
लेकिन महावीर
की सेवा करने
की जो धारणा
है, उसमें
सेवा मांगी
नहीं जाएगी।
क्योंकि सेवा कभी
इस दृष्टि से
की नहीं गयी, मांगी भी
नहीं जाएगी।
मांगने का कोई
कारण नहीं है।
और अगर कोई
सेवा न करेगा
तो उससे क्रोध
भी पैदा नहीं
होगा, उससे
कष्ट भी मन
में नहीं
आएगा। उसे ऐसा
भी नहीं लगेगा
कि इस आदमी ने
सेवा क्यों
नहीं की।
इसलिए
जो लोग भी
सेवा करते हैं
वे बड़े टार्च मास्टर्स
होते हैं। अगर
आप सेवकों के
आश्रम में
जाकर देखें, जो कि सेवा
करते हैं, तो
आप एक और
मजेदार बात
देखेंगे कि वह
सेवा लेते भी
हैं, उतनी
ही मात्रा
में। और उतनी
ही सख्ती से।
सख्ती उनकी
भयंकर होती
है। जरा-सी
बात चूक नहीं
सकते। और
कभी-कभी
अत्यंत
हिंसात्मक हो
जाते हैं। यह
बहुत मजे की
बात है कि आप
जितने सख्त
अपने पर होते
हैं उससे कम
सख्त अपने पर
होते हैं उससे
कम सख्त आप
किसी पर नहीं
होते। आप
ज्यादा ही
सख्त होंगे।
कभी-कभी बहुत
छोटी-छोटी
बातों में बड़ी
अजीब घटना
घटती है।
गांधी जी
नोआखाली
में यात्रा पर
थे। कठिन था
वह हिस्सा, एक-एक गांव
खून और लाशों
से पटा था। एक
युवती उनकी
सेवा में है, वह उनके साथ
चल रही है। एक
गांव से अड्डा
उखड़ा है, दोपहर वहां
से चले हैं, सांझ दूसरे
गांव पहुंचे
हैं। लेकिन गांधीजी
स्नान करने
बैठे हैं।
देखा तो उनका
पत्थर, जिससे
वे पैर घिसते
थे, वह
पीछे छूट गया
पिछले गांव
में। रात उतर
रही है, अंधेरा
उतर रहा है।
उन्होंने उस
लड़की को बुलाया
और कहा कि यह
भूल कैसे हुई?
क्योंकि गांधी
तो कभी भूल
नहीं करते हैं
इसलिए किसी की
भूल बर्दाश्त
नहीं कर सकते।
वापस जाओ, वह
पत्थर लेकर
आओ। नोआखाली,
चारों तरफ
आगें जल रही
हैं, लाशें
बिछी
हैं। वह अकेली
लड़की, रोती,
घबराती, छाती
धड़कती
वापस लौटी।
उस
पत्थर में कुछ
भी न था। वैसे
पचास पत्थर उसी
गांव से उठाए
जा सकते थे।
लेकिन डिसीप्लेनेरियन, अनुशासन! जो
आदमी अपने घर
पर पक्का
अनुशासन रखता
है वह दूसरों
की गर्दन दबा
लेता है।
क्योंकि खुद
नहीं भूलते
कोई चीज।
दूसरा कैसे
भूल सकता है? तब दिखने
वाला ऊपर से
जो अनुशासन है,
गहरे में
हिंसा हो जा
ता है। यह भी
कोई बात थी!
आदमी भूल सकता
है, भूलना
स्वाभाविक
है। और कोई
बड़ा कोहिनूर
हीरा नहीं भूल
गया है। पैर घिसने
का पत्थर भूल
गया है। लेकिन
सवाल पत्थर का
नहीं है, सवाल
सख्ती का है, सवाल नियम
का है। नियम
का पालन होना
चाहिए।
अगर आप
अनुशासन, सेवा,
नियम, मर्यादा,
इस तरह की
बातें माननेवाले
लोगों के पास
जाकर देखें तो
आपको दूसरा
पहलू भी बहुत
शीघ्र दिखाई पड़ना शुरू
हो जाएगा।
जितने सख्त वे
अपने पर हैं
उससे कम सख्त
वे दूसरे पर
नहीं है। जब
आप किसी के पैर
दाब रहे हैं, तब आप किसी
दिन पैर दबाए जाने
का इंतजाम भी कर
रहे है मन के किसी
कोने में। और अगर
आपके पैर न दाबे
गए उस दिन, तब
आपकी पीड़ा का
अंत नहीं होगा।
लेकिन महावीर
की सेवा का इससे कोई संबंध
नहीं है। महावीर
तो कहते है कि अगर
सेवा करेगा तो
भी वह इसलिए कर
रहा है उसके किसी
पाप का प्रक्षालन
है। अगर नहीं है
कोई पाप का प्रक्षालन
तो बात समाप्त
हो गई। कोई मेरी
सेवा नहीं कर रहा
है। इसमें दूसरे
को गौरव दिया जाए
तो फिर दूसरे की
निंदा भी दी जा
सकती है। लेकिन
न कोई गौरव है,
न कोई निंदा है।
वैयावृत्य
का ऐसा अर्थ है।
तो आप जब
भी सेवा कर रहे
है तब ध्यान रखे,वह
भविष्य–उन्मुख
न हो। तो आप अंतर—तप
कर रहे है। जब आप
सेवा कर रहे हों
तो वह निष्प्रयोजन
हो, अन्यथा
आप अंतर तप नहीं
कर रहे है। जब आप
सेवा कर रहे है
तब उससे किसी तरह
के गौरव की, गरिमा की, अस्मिता की
कोई भावना भीतर
गहन न हो, अन्यथा
आप सेवा नहीं कर
रहे है। वैयावृत्य
नहीं कर रहे हे।
वह सिर्फ किए गए
पाप को, किए
गए कर्म को
अनकिया करना
हो, बस
इतना--तो तप
है।
और
क्यों इसको अंतरत्तप
कहते हैं
महावीर! इसलिए
अंतरत्तप
कहते हैं, कि यह करना
कठिन है। वह
सेवा सरल है
जिसमें कोई रस
आ रहा हो। इस
सेवा में कोई
भी रस नहीं है,
सिर्फ
लेना-देना ठीक
करना है।
इसलिए तप है
और बड़ा आंतरिक
तप है।
क्योंकि हम कुछ
करें और कर्ता
न बनें, इससे
बड़ा तप क्या
होगा? हम
कुछ करें और
कर्ता न बनें;
इससे बड़ा तप
क्या होगा? सेवा जैसी
चीज करें जो
कोई करने को
राजी नहीं है--कोढ़ी के
पैर दबाएं और
फिर भी मन में
कर्ता न बनें
तो तप हो
जाएगा और बहुत
आंतरिक तप हो
जाएगा।
आंतरिक
क्यों कहते
हैं? आंतरिक
इसलिए कहते
हैं कि सिवाय
आपके और कोई न
पहचान सकेगा।
बात भीतरी है।
आप ही जा सकेंगे;
लेकिन आप
बिलकुल जांच
लेंगे, कठिनाई
नहीं होगी। जो
व्यक्ति भी
भीतर की जांच
में संलग्न हो
जाता है वह
ऐसे ही जान
लेता है। जब
आपके पैर में
कांटा गड़ता
है तो आप कैसे जानते
हैं कि दुख हो
रहा है! और जब
कोई आलिंगन से
आपको अपने गले
लगा लेता है
तो आप कैसे
जानते हैं कि
हृदय
प्रफुल्लित
हो रहा है! और
जब कोई आपके
चरणों में सिर
रख देता है तो
आपके भीतर जो
लहर दौड़ जाती
है वह आप कैसे
जान लेते हैं?
नहीं, उसके
लिए बाहर कोई
खोजने की जरूरत
नहीं, आंतरिक
मापदंड आपके
पास है।
तो जब
सेवा करते
वक्त आपको
किसी तरह भी
भविष्य
उन्मुखता
मालूम पड़े, तो समझना कि
महावीर ने उसे
सेवा के लिए
नहीं कहा है।
अगर कोई पुण्य
का भाव पैदा
हो, तो
कहना, तो
जानना कि
महावीर ने उस
सेवा के लिए
नहीं कहा है।
अगर ऐसा लगे कि
मैं कुछ कर
रहा हूं, कुछ
विशिष्ट, तो
समझना कि
महावीर ने उस
सेवा के लिए
नहीं कहा है।
अगर यह कुछ भी
पैदा न हो और
सेवा सिर्फ ऐसे
हो जैसे तख्ते
पर लिखी हुई
कोई चीज को
किसी ने
पोंछकर मिटा
दिया है।
तख्ता खाली हो
गया है और
भीतर खाली हो
गए, तो आप अंतरत्तप
में प्रवेश
करते हैं।
महावीर
ने वैयावृत्य
के बाद ही जो
तप कहा है, वह है
स्वाध्याय--चा
था तप।
निश्चित ही, अगर सेवा का
आप ऐसा प्रयोग
करें तो आप
स्वाध्याय
में उतर
जाएंगे, स्वयं
के अध्ययन में
उतर जाएंगे।
लेकिन स्वाध्याय
से बड़ा गौण
अर्थ लिया
जाता रहा
है--वह है
शास्त्रों का
अध्ययन, पठन,
मनन।
महावीर
अध्ययन ही कह
सकते थे, स्वाध्याय
कहने की क्या
जरूरत थी? उसमें
"स्व' जोड़ने का क्या
प्रयोजन था? अध्ययन काफी
था। स्वयं का
अध्ययन, स्वाध्याय
का अर्थ होता
है। शास्त्र
का अध्ययन
नहीं। लेकिन
साधु शास्त्र
खोल बैठे हैं
सुबह से, उनसे
पूछिए--क्या
कर रहे हैं? वे कहते
हैं--स्वाध्याय
करते हैं।
शास्त्र निश्चित
ही किसी और का
होगा।
स्वाध्याय
शास्त्र नहीं
बन सकता। अगर
खुद का ही
लिखा शास्त्र
पढ़ रहे हैं तो
बिलकुल बेकार
पढ़ रहे हैं।
क्योंकि खुद
का ही लिखा
हुआ है, अब
उसमें और पढ़ने
को क्या बचा
होगा? जानने
को क्या है?
स्वाध्याय
का अर्थ
है--स्वयं का
अध्ययन। बड़ा कठिन
है। शास्त्र पढ़ना तो
बड़ा सरल है।
जो भी पढ़ सकता
है, वह
शास्त्र पढ़
सकता है। पठित
होना काफी है,
लेकिन
स्वाध्याय के
लिए पठित होना
काफी नहीं है।
क्योंकि
स्वाध्याय
बहुत जटिल मामला
है। आप बहुत काम्प्लेक्स
हैं, आप
बहुत उलझे हुए
हैं। आप एक
ग्रंथियों का
जाल हैं। आप
एक पूरी
दुनिया हैं, हजार तरह के
उपद्रव हैं
वहां। उस सबके
अध्ययन का नाम
स्वाध्याय
है। तो अगर आप
अपने क्रोध का
अध्ययन कर रहे
हैं तो
स्वाध्याय कर
रहे हैं। हां,
क्रोध के
संबंध में
शास्त्र में
क्या लिखा है,
उसका
अध्ययन कर रहे
हैं तो
स्वाध्याय
नहीं कर रहे
हैं। अगर आप
अपने राग का
अध्ययन कर रहे
हैं तो
स्वाध्याय कर
रहे हैं। राग
के संबंध में शास्त्र
में क्या लिखा
है, उसका
अध्ययन कर रहे
हैं तो
स्वाध्याय
नहीं कर रहे
हैं। और आपके
भीतर सब मौजूद
है, जो भी
किसी शास्त्र
में लिखा है
वह सब आपके भीतर
मौजूद है। इस
जगत में जितना
भी जाना गया
है, वह
प्रत्येक
आदमी के भीतर
मौजूद है। और
इस जगत में जो
भी कभी जाना
जाएगा वह
प्रत्येक
आदमी के भीतर
आज भी मौजूद है।
आदमी एक
शास्त्र
है--परम
शास्त्र है, द अल्टीमेट स्क्रिप्चर।
इस बात को
समझें तो
महावीर का
स्वाध्याय
समझ में आएगा।
मनुष्य
परम शास्त्र
है। क्योंकि
जो भी जाना गया
है, वह
मनुष्य ने
जाना। जो भी
जाना जाएगा वह
मनुष्य
जानेगा। काश,
मनुष्य
स्वयं को ही
जान ले, तो
जो भी जाना
गया है और जो
भी जाना जा
सकता है वह सब
जान लिया जाता
है। इसलिए
महावीर ने कहा
है--एक को
जानने से सब
जान लिया जाता
है। स्वयं को
जानने से सर्व
जान लिया जाता
है। इसके कई
आयाम हैं।
पहली तो बात
यह है कि
जानने योग्य
जो भी है उसके
हम दो हिस्से
कर सकते
हैं--एक तो आब्जेक्टिव,
वस्तुगत; दूसरा सब्जेक्टिव,
आत्मगत।
जानने में दो
घटनाएं घटती
हैं--जाननेवाला
होता है और जानीजाने
वाली चीज होती
है। विषय होता
है जिसे हम
जानते हैं, और
जाननेवाला
होता है जो
जानता है।
विज्ञान का
संबंध विषय से
है, आब्जेक्ट से है, वस्तु
से है। जिसे
हम जानते हैं उसे
जानने से है।
धर्म का संबंध
उसे जानने से है
जिससे हम
जानते हैं; जो जानता है
उसे जानने से
है।
ज्ञाता
को जानना धर्म
है और ज्ञेय
को जानना विज्ञान
है। ज्ञेय को
हम कितना ही
जान लें तो ज्ञाता
के संबंध में
तो भी पता
नहीं चलता ।
कितना ही हम
जान लें चांद--तारे, सूरजों के संबंध
में तो भी
अपने संबंध
में कुछ पता
नहीं चलता।
बल्कि एक बड़े
मजे की बात है
कि जितना हम
वस्तुओं के
संबंध में
ज्यादा जान
लेते हैं उतना
ही हमें वह
भूल जाता है, जो जानता
है। क्योंकि
जानकारी बहुत
इकट्ठी हो जाए
तो ज्ञाता छिप
जाता है। आप
इतनी चीजों के
संबंध में
जानते हैं कि
आपको खयाल ही
नहीं रहता कि
अभी जानने को
कुछ शेष बच
रहा है इसलिए
विज्ञान बढ़ता
जाता है रोज, जानता जाता
है रोज। कितने
प्रकार के
मच्छर हैं, विज्ञान
जानता है।
प्रत्येक
प्रकार के
मच्छर की क्या
खूबियां
है, विज्ञान
जानता है।
कितने प्रकार
की वनस्पतियां
हैं, विज्ञान
जानता है। प्रत्येक
वनस्पति में
क्या-क्या छिपा
है, विज्ञान
जानता है।
कितने सूरज
हैं, कितने
तारे हैं, कितने
चांद हैं, विज्ञान
जानता है।
आइंस्टीन
ने मरते वक्त
कहा कि अगर
मुझे दुबारा
जीवन मिले तो
मैं एक संत
होना
चाहूंगा।
क्यों? जो
खाट के आसपास
इकट्ठे थे, उन्होंने
पूछा--क्यों? तो आइंस्टीन
ने कहा--जानने
योग्य तो अब
एक ही बात
मालूम पड़ती है
कि वह जो जान
रहा था, वह
कौन है? जिसने
जान लिया कि चांद--तारे
कितने हैं, लेकिन होगा
क्या? दस
हैं कि दस
हजार हैं, कि
दस करोड़
हैं कि दस अरब
हैं, इससे
होगा क्या। दस
हैं, ऐसा
जाननेवाला भी
वहीं खड़ा रहता
है, दस करोड़
हैं, ऐसा
जाननेवाला भी
वहीं खड़ा रहता
है; दस अरब
हैं, ऐसा
जाननेवाला भी
वहीं खड़ा रहता
है। जानकारी से
जाननेवाले
में कोई भी
परिवर्तन
नहीं होता।
लेकिन एक भ्रम
जरूर पैदा
होता है कि
मैं जाननेवाला
हूं।
महावीर
ऐसे
जाननेवाले को
मिथ्या ज्ञानी
कहते हैं।
कहते
हैं--जाननेवाला
जरूर है, लेकिन
मिथ्या
जाननेवाला
है। ऐसी चीजें
जाननेवाला है
जिसे बिना
जाने भी चल
सकता था, और
ऐसी चीज को
छोड़ देनेवाला
है जिसके बिना
जाने नहीं चल
सकता। जो
कीमती है, वह
छोड़ देते हैं
हम और जो गैरकीमती
है वह जान
लेते हैं हम। आखिर
में जानना
इकट्ठा हो
जाता है और
जाननेवाला खो
जाता है। मरते
वक्त हम बहुत
कुछ जानते हैं,
सिर्फ उसे
ही नहीं जानते
जो मर रहा है।
अदभुत है यह
बात कि आदमी
अपने को नहीं
जानता! इसलिए
महावीर ने
स्वाध्याय को
कीमती अंतरत्तपों
में गिना है
स्वाध्याय
चौथा अंतरत्तप
है। इसके बाद
दो ही तप बच
जाएंगे और उन
दो तपों के
बाद
एक्सप्लोजन, विस्फोट
घटित होता है।
तो स्वाध्याय
बहुत निकट की
सीढ़ी है
विस्फोट के।
जहां क्रांति
घटित होती है,
जहां जीवन
नया हो जाता
है, जहां
आपका
पुनर्जन्म
होता है, नया
आदमी आपके भीतर
पैदा होता है,
पुराना
समाप्त होता
है।
स्वाध्याय
बहुत करीब आ
गया। अब दो ही
सीढ़ी बचती हैं
और। इसलिए शास्त्र-अध्ययन
स्वाध्याय का
अर्थ नहीं हो
सकता।
शास्त्र-अध्ययन
कितना कर रहे
हैं लोग, लेकिन
कहीं कोई
क्रांति घटित
नहीं मालूम
होती। कहीं
कोई विस्फोट
नहीं होता है।
सच तो यह है कि
जितना आदमी
शास्त्र को जानता
है, उतना
ही स्वयं को
जानने की जरूरत
कम मालूम पड़ती
है। क्योंकि
उसे लगता है कि
सब जो भी जाना
जा सकता है, मुझे मालूम
है। महावीर
क्या कहते हैं;
बुद्ध क्या
कहते हैं, क्राइस्ट
क्या कहते हैं,
वह जानता
है। आत्मा
क्या है, परमात्मा
क्या है, वह
जानता
है--बिना जाने!
यह मिरेकल
है--बिना जाने!
उसे कुछ भी
पता नहीं है
कि आत्मा क्या
है! उसे कोई
स्वाद नहीं
मिला कभी
आत्मा का। उसने
परमात्मा की
कभी कोई झलक
नहीं पायी।
उसने मुक्ति
के आकाश में
कभी एक पंख
नहीं मारा।
उसके जीवन में
कोई किरण नहीं
उतरी जिससे वह
कह सके कि यह
ज्ञान हैं, जिससे
प्रकाश हो गया
हो। सब अंधेरा
भरा है और फिर
भी वह जानता
है कि सब
जानता हूं!
इसे महावीर
मिथ्या ज्ञान
कहते हैं।
शास्त्र
से जो मिलता
है वह सत्य
नहीं हो सकता, स्वयं से जो
मिलता है वही
सत्य होता है।
यद्यपि स्वयं
से मिला गया
शास्त्र में
लिखा जाता
है--स्वयं से
मिला गया
शास्त्र में
लिखा जाता है,
लेकिन
शास्त्र से जो
मिलता है वह
स्वयं का नहीं
होता।
शास्त्र कोई
और लिखता है।
वह किसी और की
खबर है जो
आकाश में उड़ा।
वह किसी और की
खबर है जिसने
प्रकाश के
दर्शन किए। वह
किसी और की
खबर है जिसने
सागर में
डुबकी लगाई।
लेकिन आप
किनारे पर
बैठकर पढ़ रहे
हैं। इसको मत
भूल जाना कि
किनारे पर
बैठकर आप
कितना ही पढ़ें,
सागर में
डुबकी लगानेवाले
के वक्तव्य से
आपकी डुबकी
नहीं लग सकती।
मगर डर यह है
कि शास्त्र
में डुबकी लगा
लेते हैं लोग।
और जो शास्त्र
में डुबकी लगा
लेते हैं वे
भूल ही जाते
हैं कि सागर
अभी बाकी है।
कभी-कभी तो
ऐसा होता है
कि शास्त्र में
डुबकी ऐसी लग
जाती है कि वह
भूल ही जाता
है कि सागर भी
आगे है। तो
शास्त्र सागर
की तरफ ले जानेवाला
कम ही सिद्ध
होता है, सागर
की तरफ जाने
में रुकावटवाला
ज्यादा सिद्ध
होता है।
इसलिए महावीर शास्त्राध्ययन
को स्वाध्याय
नहीं कहते।
इसका
यह मतलब नहीं
है कि महावीर
शास्त्र के अध्ययन
को इनकार कर
रहे हैं।
लेकिन वह
स्वाध्याय
नहीं है। इसको
अगर खयाल में
रखा जाए तो
शास्त्र का
अध्ययन भी
उपयोगी हो
सकता है।
उपयोगी हो
सकता है। अगर
यह खयाल में
रहे कि
शास्त्र का
सागर सागर
नहीं; और
शास्त्र का
प्रकाश
प्रकाश नहीं;
और शास्त्र
का आकाश आकाश
नहीं; और
शास्त्र का
परमात्मा
परमात्मा
नहीं; और
शास्त्र का
मोक्ष मोक्ष
नहीं--अगर यह
स्मरण रहे, और यह स्मरण
रहे कि किसी
ने जाना होगा,
उसने
शब्दों में
कहा है; लेकिन
शब्दों में
कहते ही सत्य
खो जाता है, केवल छाया
रह जाती है--यह
स्मरण रहे तो
शास्त्र को
फेंककर किसी
दिन सागर में
छलांग लगाने
का मन आ
जाएगा। अगर यह
स्मरण न रहे, सागर ही बन
जाए शास्त्र,
सत्य ही बन
जाए शास्त्र,
शास्त्र
में ही सब
भटकाव हो जाए
तो सागर को
छिपा लेगा
शास्त्र।
और
इसलिए कई बार
अज्ञानी कूद
जाते हैं
परमात्मा में
और ज्ञानी
वंचित रह जाते
हैं। तथाकथित ज्ञानी, द सो काल्ड
नोअर्स, वे वंचित रह
जाते हैं।
इसलिए उपनिषद
कहते हैं कि
अज्ञानी तो
अंधकार में
भटकते ही हैं,
ज्ञानी महाअंधकार
में भटक जाते
हैं।
स्वाध्याय का
अर्थ है--स्वयं
में उतरो और
अध्ययन करो।
पूरा जगत भीतर
है। वह सब्जेक्टिव,
वह आत्मगत
जगत पूरा भीतर
है। उसे जानने
चलो, लेकिन
रुख बदलना पड़ेगा।इसलिए
स्वाध्याय का
पहला सूत्र
है--रुख।
वस्तु के अध्ययन
को छोड़ो, अध्ययन करनेवाले
का अध्ययन
करो।
जैसे
उदाहरण के लिए, आप मुझे सुन
रहे हैं। जब
आप मुझे सुन
रहे हैं तो
आपने कभी खयाल
किया है कि
जितनी
तल्लीनता से
आप मुझे
सुनेंगे उतना
ही आपको भूल
जाएगा कि आप
सुननेवाले
हैं। जितनी
तल्लीनता से
आप मुझे
सुनेंगे उतना
ही आपके स्मरण
के बाहर हो
जाएगा कि आप
भी यहां मौजूद
हैं जो सुन
रहा है। बोलनेवाला
प्रगाढ़
हो जाएगा, सुननेवाला
भूल जाएगा।
हालांकि आप बोलनेवाले
नहीं, सुननेवाले
हैं। जब आप
सुन रहे हैं
तब दो घटनाएं
घट रही हैं।
शब्द जो आपके
पास आ रहे हैं,
आपसे बाहर
हैं; और आप
जो भीतर हैं।
शब्द
महत्वपूर्ण
हो जाएंगे
सुनते वक्त और
सुननेवाला
गौण हो जाएगा।
और अगर आप
पूरी तरह
तल्लीन हो गए
तो बिलकुल भूल
जाएगा। सेल्फ-फार्गेटफुलनैस
हो जाएगी, आत्म
विस्मरण हो
जाएगा।
मेरे
पास लोग आते
हैं। जब कोई
मेरे पास आता
है और वह कहता
है--आज आप बहुत
अच्छा बोले, तो मैं
जानता हूं कि
आज क्या हुआ।
आज यह हुआ कि वह
अपने को भूल
गए, और कुछ
नहीं हुआ
--आत्म-विस्मरण
हुआ। आज घण्टेभर
उनको अपनी याद
न रही इसलिए
वे कह रहे हैं
कि बहुत अच्छा
बोले। घण्टेभर
उनका मनोरंजन
इतना हुआ कि
उनको अपना पता
भी न रहा।
पंद्रह वर्ष
से निरंतर
सुबह-सांझ मैं
बोलता रहा
हूं। एक भी
आदमी नहीं है
वह, जो आकर
कहता हो--कि आप
आज बहुत ठीक
बोले। वह कहता
है--बहुत
अच्छा बोले
हैं। क्योंकि
अगर ठीक बोले
तो कुछ करना
पड़ेगा। अच्छा
बोले तो हो
चुकी है बात।
नहीं कहता कोई
आदमी मुझसे कि
सत्य बोले--सुखद
बोले! सत्य बोले,
तो बेचैनी
पैदा होगी।
सुखद बोले, बात खत्म हो
गई। सुख मिल
चुका। लेकिन
सुख आपको कब
मिलता है वह
मैं जानता
हूं। जब भी आप
अपने को भूलते
हैं तभी सुख
मिलता
है--चाहे
सिनेमा में
भूलते हों;
चाहे संगीत
में भूलते हों;
चाहे कहीं
सुनकर भूलते
हों; चाहे
पढ़कर भूलते
हों; चाहे
सेक्स में
भूलते हों; चाहे शराब
में भूलते
हों। आपका सुख
मुझे भलीभांति
पता है कि कब
मिलता है--जब
आप अपने को
भूलते हैं, तभी मिलता
है।
लेकिन
जब आप अपने को
भूलते हैं तभी
स्वाध्याय बंद
होता है; जब आप
अपने को स्मरण
करते हैं तब
स्वाध्याय
शुरू होता है।
तो जब मैं बोल
रहा हूं--एक
प्रयोग करें,
यहीं और अभी
सिर्फ बोलनेवा
ले पर ही
ध्यान मत रखें,
ध्यान को
दोहरा कर दें,
डबल एरोड,
दोहरे तीर
लगा दें ध्यान
में--एक मेरी
तरफ और एक
अपनी तरफ। सुननेवा
ले का भी
स्मरण रहे, वह जो
कुर्सी पर
बैठा है, वह
जो आपकी
हड्डी-मांस-मज्जा
के भीतर छिपा
है, जो कान
के पीछे खड़ा
है, जो आंख
के पीछे देख
रहा है, उसका
भी स्मरण रहे।
रिमेंबर,
उसको स्मरण
रखें।
कोई
फिक्र नहीं कि
उसके स्मरण
करने में अगर
मेरी कोई बात
चूक भी जाए, क्योंकि
मेरी इतनी
बातें सुन लीं
उनसे कुछ भी नहीं
हुआ, और
चूक जाएगा तो
कोई हर्ज
होनेवाला
नहीं है।
लेकिन उसका
स्मरण रखें, वह जो भीतर
बैठा है, सुन
रहा है, देख
रहा है, मौजूद
है। उसकी
प्रेजेंस
अनुभव करें।
हड्डी, मांस,
कान, आंख
के भीतर वह जो िछपा
है, वह
अनुभव करें, वह मालूम
पड़े। ध्यान उस
पर जाए तो आप
हैरान होंगे,
तब आपको जो
मैं कह रहा हूं
वह सुखद नहीं,
सत्य मालूम पड़ना शुरू
होगा।
और तब
जो मैं कह रहा
हूं वह आपके
लिए मनोरंजन नहीं, आत्म-क्रांति
बन जाएगा। और
तब जो मैं कह
रहा हूं, आपने
सिर्फ सुना ही
नहीं, जिया
भी, जाना
भी। क्योंकि
जब आप भीतर की
तरफ उन्मुख होकर
खड़े होंगे तो
आपको पता
लगेगा कि जो
मैं कह रहा
हूं वह आपके
भीतर छिपा पड़ा
है। उससे
ताल-मेल बैठना
शुरू हो
जाएगा। जो मैं
कह रहा हूं वह
आपको दिखाई भी
पड़ने लगेगा कि
ऐसा है। अगर
मैं कह रहा
हूं कि क्रोध
जहर है, तो
मेरे सुनने से
वह जहर नहीं
हो जाएगा, लेकिन
अगर आप अपने
प्रति जाग गए
उसी क्षण और आपने
भीतर झांका,
तो आपके
भीतर काफी जहर
इकट्ठा है
क्रोध का--रिजर्वायर
है, वह
दिखाई पड़ेगा।
अगर वह दिख
जाए मेरे
बोलते वक्त तो
मैंने जो कहा
वह सत्य हो
गया। क्योंकि
उसका पैरेलल,
वास्तविक
सत्य मेरे
शब्द के पास
जो होना चाहिए
था, वह
आपके अनुभव
में आ गया। तब
शब्द कोरा शब्द
न रहा, तब
आपके भीतर
सत्य की
प्रतीति भी
हुई।
सुनते
वक्त बोलनेवाले
पर कम ध्यान
रखें, सुननेवाले
पर ज्यादा
ध्यान
रखें--सुननेवालों
पर नहीं, सुननेवाले
पर।
सुननेवालों
पर भी लोग
ध्यान रख लेते
हैं। देख लेते
हैं आस-पास कि
किस-किस को जंच
रहा है। मुझे
वैसे लोग भी आकर
कहते हैं आज
बहुत ठीक हुआ।
मैं उनसे
पूछता
हूं--क्या बात
हुई? वे
कहते हैं -- कई
लोगों को
जंचा। वे
आसपास देख रहे
हैं कि किस
किसको जंच रहा
है। और कई लोग
ऐसे हैं, जब
तक दूसरों को
न जंचे, उनको नहीं जंचता।
बड़ा म्यूचुअल
नानसेंस--पारस्परिक
मूर्खता चलती
है। देख लेते
हैं आसपास कि
जंच रहा है तो
उनको भी जंचता
है। और उनको
पता नहीं है
कि बगलवाला
उनको देखकर, उसको भी जंचता
है।
हिटलर
अपनी सभाओं
में दस आदमी
बिठा देता था
जो वक्त पर
ताली बजाते थे, और दस हजार
आदमी साथ
बजाते थे। जब
हिटलर ने पहली
दफा अपने दस
मित्रों को
कहा कि तुम
भीड़ में दूर-दूर
खड़े होकर ताली
बजाना तो
उन्होंने
कहा--हम बजाएंगे
तो बड़े बेहूदे
लगेंगे। दस
आदमी ताली बजाएंगे,
दस हजार में
और कोई नहीं बजाएगा!
हिटलर ने कहा
कि मैं
आदमियों को
जानता हूं। पड़ोस
के आदमी को
देखकर वे
बजाते हैं। तुम
फिक्र छोड़ो।
तुम सिर्फ जस्ट
स्टार्ट, बजेगी
ताली। हिटलर
के इशारे पर
वे ताली बजाते
थे। वे चकित
हुए कि दस
हजार आदमी
ताली बजा रहे हैं।
क्यों? क्या
हो गया? इन्फेक्शन
है। पड़ोस का
बजा रहा है, जरूर कोई
बात होगी। और
जब आप बजाते
हैं, तो
आपका पड़ोसवाला
सोचता है कि
जरूर कोई बात
कीमती होगी।
लोग ऐसा न
समझें -- बुद्धू
है, अपनी
समझ में नहीं
आया। वे भी
बजा रहे हैं।
दस आदमी दस
हजार लोगों को
ताली बजवा
लेते हैं।
कभी
खयाल में नहीं
आता कि आप
क्या कर रहे
हैं? आप जो
कपड़े पहने हुए
हैं, वे
किसी दूसरे
आदमी ने आपको पहनवा दिए
हैं, क्योंकि
उसने पहने हुए
थे। नहीं, सुननेवालों
पर ध्यान नहीं,
सुननेवाले
पर ध्यान, स्वयं
पर ध्यान भूल
जाएं
सुननेवालों
को। उनकी कोई
जरूरत नहीं है
बीच में आकर
खड़े होने की। रास्ते
पर चल रहे हैं
तो भीड़ दिखाई
पड़ती है, दुकानें
दिखाई पड़ती
हैं; एक
आदमी भर नहीं
दिखाई पड़ता है,
वह जो चल
रहा है। वह भर
मौजूद नहीं
होता । उसका आपको
पता ही नहीं
होता जो चल
रहा है। और सब
होते हैं। बड़ी
अदभुत
अनुपस्थिति
है! हम अपने से
अनुपस्थित
हैं। यह
अनुपस्थिति
को तोड़ने का
नाम ही
स्वाध्याय
है। टु बी प्रेजेंट
टु वनसेल्फ।
गुरजिएफ
ने इसे सेल्फ
रिमेंबरिंग
कहा है, स्व-स्मृति
कहा है--स्वयं
का स्मरण। कोई
भी काम ऐसा न
हो पाए, कोई
भी बात ऐसी न
हो पाए, कोई
भी घटना ऐसी न
घटे जिसमें
मेरे भीतर जो
चेतना है वह
विस्मृत हो
जाए। उसका होश
मुझे बना रहे।
तो फिर शराब
भी कोई पी रहा
हो और अगर होश
बनाए रखे अपने
भीतर कि मैं
शराब पी रहा
हूं और मैं, मैं मौजूद
हूं, तो
शराब भी बेहोश
नहीं कर पाएगी,
और नहीं तो
पानी भी बेहोश
कर देता है।
अगर यह स्मरण
बना रहे कि
मैं हूं तो
शराब एक तरफ
पड़ी रह जाएगी
और वह चेतना
निरंतर अलग
खड़ी रहेगी। यह
अलग खड़ा रहना
चेतना का हम पानी
के साथ भी नहीं
कर पाते, शराब
के साथ तो
बहुत दूर होता
है। जब हम
पीते हैं पानी
तो प्यास होती
है, पानी
होता है, पीनेवाला नहीं होता
है। होना
चाहिए। पीनेवाला
पहले, प्यास
बाद में, पानी
और बाद में, तो
स्वाध्याय
शुरू हो गया।
स्वाध्याय
का अर्थ
है--मेरे जीवन
का कोई कृत्य, कोई विचार, कोई घटना
मेरी
अनुपस्थिति
में न घट जाए।
मैं मौजूद
रहूं--क्रोध
हो तो मैं
मौजूद रहूं, घृणा हो तो
मैं मौजूद
रहूं, काम
हो तो मैं मा
जूद रहूं। कुछ
भी हो तो मैं
मौजूद रहूं।
मेरी मौजूदगी
में घटे।
और
महावीर कहते
हैं कि बड़ा
अदभुत है, जब तुम
मौजूद होते हो
तो जो गलत है
वह नहीं घटता।
स्वाध्याय
में गलत घटता
ही नहीं। जब
मैंने
कहा--शराब
पीते वक्त अगर
आप मौजूद हों,
तो आप यह मत
समझना कि आपको
शराब पीने की
सलाह दे रहा
हूं कि मजे से
पियो, मौजूद
रहो। मौजूद
किसको रहना है,
लेकिन पीना
तो जारी रख
सकते हैं! मैं
आपसे यह कह
रहा हूं कि
अगर शराब पीते
वक्त आप मौजूद
रहे तो हाथ से
गिलास छूटकर
गिर जाएगा, शराब पीना
असंभव है, क्योंकि
जहर सिर्फ
बेहोशी में ही
पिये जा सकते
हैं।
जब मैं
आपसे कहता
हूं--क्रोध
करते वक्त
मौजूद रहो तो
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
मजे से करो क्रोध
और मौजूद रहो।
बस शर्त इतनी
है कि मौजूद
रहो, और क्रोध
करो, फिर
कोई हर्ज नहीं
है। मैं आपसे
यह कह रहा हूं कि
क्रोध करते
वक्त अगर आप
मौजूद रहे तो
दो में से एक
ही हो सकता है,
या तो क्रोध
होगा या आप
होंगे। दोनों
साथ मौजूद
नहीं हो सकते।
जब आप क्रोध
करते वक्त
मौजूद होंगे
तो क्रोध खो
जाएगा, आप
होंगे।
क्योंकि आपकी
मौजूदगी में
क्रोध जैसी रद्दी
चीजें नहीं आ
सकतीं। जब घर
का मालिक जगा हो
तो चोर प्रवेश
नहीं करते। जब
आप जगे
हों तब क्रोध
घुस जाए, यह
हिम्मत क्रोध
कर सकता है! आप
जब सोए होते
हैं तभी क्रोध
प्रवेश कर
सकता है। वह आपके
उस कमजोर क्षण
का ही उपयोग
कर सकता है, जब आप बेहोश
हैं। जब आप
होश में हैं
तो क्रोध नहीं
होगा।
इसलिए
महावीर जब
कहते हैं कि
होशपूर्वक
जियो, अप्रमाद
से जियो, जागते
हुए जियो, तो
मतलब केवल
इतना ही है कि जागकर
जीने में
जो-जो गलत है
वह अपने आप
गिर जाएगा। और
यह अनुभव आपको
होगा
स्वाध्याय से
कि गलत इसलिए हो
रहा था कि मैं
सोया हुआ था।
गलत के होने
का और कोई
कारण नहीं है,
नो रीजन
एट आल। सिर्फ
एक ही कारण है
कि आप सोए हुए
हैं।
इसलिए
महावीर ने
कहा--क्षण में
भी मुक्ति हो
सकती है। इसी
क्षण भी
मुक्ति हो
सकती है। अगर
कोई पूरा जाग
जाए, तो गलत
इसी वक्त गिर
जाता है। तो
महावीर यह भी नहीं
कहते कि कल के
लिए भी रुकना
जरूरी है। यह दूसरी
बात है कि आप न
जाग पाएं तो
कल के लिए रुकना
पड़े। अगर
समग्रता से
क्रोध इसी
क्षण में जाग
जाए तो सब गिर
गया कचरा।
जिससे हमें
लगता था कि हम
बंधे हैं, जिससे
लगता था
जन्मों-जन्मों
का कर्म और
पाप--वह सब गिर
गया।
स्वाध्याय
से यह पता
चलेगा कि एक
ही पाप है--मूर्च्छा, और एक ही
पुण्य
है--जाग्रत।
और स्वाध्याय
से यह पता
चलेगा कि जब
भी हम सोए
होते हैं तो
जो भी हम करते
हैं, वह
गलत होता
है--ऐसा नहीं
कि कुछ गलत
होता है, कुछ
ठीक होता
है--जो भी हम
करते हैं वह
गलत होता है।
और जब हम जागे
होते हैं तो
ऐसा नहीं कि
कुछ गलत और
कुछ सही हो
सकता है--जो भी
होता है वह
सही होता है।
तो महावीर ने
यह नहीं कहा
है कि तुम सही
करो; महावीर
ने कहा है, जागकर
करो, होशपूर्वक
करो, स्मृतिपूर्वक करो।
क्योंकि स्मृतिपूर्वक
गलत होता ही
नहीं, ऐसे
ही जैसे
अंधेरे में
मैं टटोलूं
और दीवार से
सिर टकरा जाए
और दरवाजा न
मिले और प्रकाश
हो जाए तो
दरवाजा मिल
जाए, दीवार
से टकराना न
पड़े।
तो
महावीर यह
नहीं कहते कि
बिना टकराए
हुए निकलो।
महावीर कहते
हैं, रोशनी कर
लो और निकल
जाओ। क्योंकि
अंधेरे में टकराओगे
ही। मोक्ष भी खोजोगे तो टकराओगे।
परमात्मा को
भी खोजोगे
तो टकराओगे।
अंधेरे में तो
कुछ भी करोगे
तो टकराओगे,
क्योंकि
अंधेरा है। और
अंधेरे का कोई
और कारण नहीं
है क्योंकि हम
आब्जेक्ट
फोकस्ड हैं, हम वस्तुओं
पर सारा ध्यान
लगाए हुए हैं।
वह ध्यान ही
रोशनी है।
वस्तुओं पर पड़ती
हैं तो
वस्तुएं
चमकने लगती
हैं।
कभी
आपने खयाल
किया, रोज
रास्ते से
निकलते हैं।
आपके पास
साइकिल भी
नहीं है। तो
कार देखकर
आपके मन में
ऐसा खयाल नहीं
आता कि कार
खरीद लें।
इसलिए कार पर
आपका बहुत
ध्यान नहीं
पड़ता। हां कभी-कभी
पड़ता है जब
कार बगल से
कीचड़ उछाल
देती है आपके
ऊपर निकलते
वक्त, तब
ध्यान जाता
है। ऐसे ध्यान
नहीं जाता।
आपका फोकस कार
पर नहीं बैठता,
और जब तक
कार पर आपके
ध्यान का आपका
फोकस नहीं बैठता,
तब तक का र
को लेने की
वासना नहीं
उठती।
लेकिन
आज आपको लाटरी
मिल गयी--लाख
रुपए मिल गए।
अब आप उसी सड़क
से गुजरिए, आप हैरान
होंगे, आपका
फोकस बदल गया।
आज आप वह
चीजें देखते
हैं जो कल
आपने देखी
नहीं थीं। कल
आपके पास
साइकिल भी
नहीं थी तो
कभी-कभी
साइकिल पर
फोकस लगता था कि
कभी दो सौ
रुपए इकट्ठे
हो जाएं तो एक
साइकिल खरीद
लें। कभी-कभी
रात सपने में
साइकिल पर
बैठकर निकल
जाते थे।
कभी-कभी
साइकिल पर
बैठा हुआ आदमी
ऐसा लगता था कि
पता नहीं कैसा
आनंद ले रहा
होगा। लेकिन
फोकस की सीमा
है। कार वाले
आदमी से
प्रतिस्पर्धा
नहीं जगती थी,
सिर्फ
क्रोध जगता
था। साइकिल
वाले आदमी से
प्रतिस्पर्धा
जगती थी, क्रोध
नहीं जगता था--ऐप्रोचेबल
था। सीमा के
भीतर था, हम
भी हो सकते थे
साइकिल पर, जरा वक्त की
बात थी।
लेकिन
आज आपको लाख
रुपए मिल गए
हैं, आज
साइकिल पर आपका
ध्यान ही नहीं
जमता, आज
साइकिल खयाल
में नहीं आती
कि साइकिल भी
चल रही है। आज
एकदम कारें
दिखाई पड़ती
हैं। आज कारों
में पहली दफा
फर्क मालूम
पड़ते हैं कि
कौन-सी कार
बीस हजार की
है, कौन-सी
पचास हजार की
है, कौन-सी
लाख की है। यह
फर्क कभी नहीं
दिखाई पड़ा था,
कार--कार
थी। यह फर्क
कभी नहीं
दिखाई पड़ा था,
यह फर्क आज
दिखाई पड़ेगा
फोकस में। आज
चेतना उस तरफ
बह रही है, आज
लाख रुपए जेब
में हैं। आज
वे लाख रुपए
उछलना चाहते
हैं। आज वे
लाख कहते हैं
लगाओ ध्यान कहीं।
ये लाख रुपए
कैसे बैठे
रहेंगे, वे
कहीं जाना
चाहते हैं। वे
गति करना
चाहते हैं। आज
आपका ध्यान
दूसरी ही
चीजों को पकड़ेगा।
आज मकान दिखाई
पड़ेंगे जो लाख
में खरीदे जा
सकते हैं। कार
दिखाई पड़ेगी। दुकानों
में चीजें
दिखाई पड़ेंगी
जो आपको कभी नहीं
दिखाई पड़ीं
थी। सदा थीं, पर आपको कभी
दिखाई नहीं
पड़ी थीं। बात
क्या है? आपको
वही दिखाई
पड़ता है जिस
तरफ आपका
ध्यान होता
है। वह नहीं
दिखाई पड़ता है
जिस तरफ आपका
ध्यान नहीं
होता।
हमारा
सारा ध्यान
बाहर की तरफ
है, इसलिए
भीतर अंधेरा
है। आता भीतर
से ही है यह ध्यान,
लेकिन भीतर
अंधेरा है
क्योंकि
ध्यान वस्तुओं
की तरफ है।
स्वाध्याय का
अर्थ है--इस
रोशनी को भीतर
की तरफ मोड़
लो--भीतर
देखना शुरू
करना। कैसे
देखेंगे? तो
एक दो उदाहरण
ध्यान में ले
लें। एक आदमी
आता है और
आपको गा ली
देता है। जब
वह गाली देता
है तब दो
घटनाएं घट रही
हैं। वह आदमी
गाली दे रहा
है, यह घट
रही है, आब्जेक्टिव है, बाहर
है। वह आदमी
बाहर है, उसकी
गाली बाहर है।
आपके भीतर
क्रोध उठ रहा
है, यह
दूसरी घटना घट
रही है। यह
भीतर है, यह
सब्जेक्टिव
है। आप कहां
ध्यान देते
हैं? उसकी
गाली पर ध्यान
देते हैं तो
स्वाध्याय नहीं
हो पाएगा।
अपने क्रोध पर
ध्यान देते
हैं, स्वाध्याय
हो जाएगा।
एक
सुंदर स्त्री
रास्ते पर
दिखाई पड़ी, कामवासना
भीतर उठ गयी।
आप उस स्त्री
का पीछा करते
हैं, ध्यान
में, तो स्वाध्याय
नहीं हो
पाएगा। आप उस
स्त्री को
छोड़ते हैं और
भीतर जाते हैं
और देखते हैं
कि कामवासना
किस तरह भीतर
उठ रही है, तो
स्वाध्याय
शुरू हो
जाएगा। जब भी
कोई घटना घटती
है उसके दो
पहलू होते
हैं--आब्जेक्टिव
और सब्जेक्टिव,
वस्तुगत और
आत्मगत। जो
आत्मगत पहलू
है, उस पर
ध्यान को ले
जाने का नाम
स्वाध्याय
है। जो वस्तुगत
पहलू है उस पर
ध्यान को ले
जाने का नाम
मूर्च्छा है।
लेकिन हम सदा
बाहर ध्यान ले
जाते हैं।
जब कोई
हमें गाली
देता है तो हम
उसकी गाली को
कई बार
दोहराते हैं
कि किस तरह दी, उसके चेहरे
का ढंग क्या
था, क्यों
दी, वह
आदमी कैसा है,
हम उसका
पूरा इतिहास
खोजते हैं। जो
बातें हमने उस
आदमी में पहले
कभी नहीं देखी
थीं, वह हम
सब देखते हैं
कि नहीं, वह
आदमी ऐसा था
ही, पहले
से ही पता था, अपनी भूल थी,
खयाल न
किया। वह गाली
कभी भी देता, वह औरों को
भी गाली दिया
है। फलां आदमी
ने यह कहा था
कि वह आदमी
गाली देता है।
आप उस आदमी पर
सारी चेतना को
दौड़ा
देंगे और जरा
भी खयाल न
करेंगे कि आप
आदमी कैसे हैं
भीतर, भीतर
क्या हो रहा
है? उसकी
छोटी-सी गाली
आपके भीतर
क्या कर गयी
है।
हो
सकता है, वह
आदमी तो गाली
देकर घर सो
गया हो मजे
में। आप रातभर
जग रहे हैं और
सोच रहे हैं।
हो सकता है, उसने गाली
यों ही दी हो, मजाक ही
किया हो। कुछ
लोग गाली मजाक
तक में दे रहे
हैं। उसे खयाल
ही न हो कि
उसने गाली दी
है।
मेरे
गांव में, मेरे घर के
सामने एक बूढ़ा
मिठाईवाला
था। वह बहरा
भी था, और
गाली, तकियाकलाम
थी। मतलब
चीजें भी खरीदे
तो बिना गाली
दिए नहीं खरीद
सकता था किसी
से। तो अकसर
यह हो जाता था
कि वह घासवाली
से घास खरीद
रहा है और
गाली दे रहा
है। और वह घासवाली
कह रही है कि
लेना हो तो ले
लो, मगर गा
ली तो मत दो! तो
वह अपने को
गाली देकर कहता
है कि कौन
साला गाली दे
रहा है? उसको
पता ही नहीं
है। वह कहता
है--कौन साला
गाली दे रहा
है? गाली
दे ही कौन रहा
है? वह
गाली दे रहा
है, वह
इसमें भी.... अब
वह अपने को ही
गाली दे रहा
है। और अपने
को तो कोई
गाली नहीं
देना चाहता
है!
नहीं, इसका कोई
बोध नहीं है, गाली इतनी
सहज हो गयी है
कि जो आदमी
आपको गाली दे
गया, हो
सकता है उसे
पता ही न हो।
आप जो
व्याख्याएं निकाल
रहे हैं वह आप
ही निकाल रहे
हैं। भीतर जाएं
कृपा करके, उस आदमी की
फिक्र छोड़ें।
भीतर देखें कि
उस आदमी ने
गाली दी तो
मेरे भीतर
क्या-क्या
व्याख्या
पैदा होती है,
उसकी गाली
की। वह व्याख्या
उस आदमी के
संबंध में कुछ
भी नहीं कहती,
सिर्फ आपके
संबंध में कुछ
कहती है कि आप
आदमी कैसे
हैं।
अगर
आपको गाली दी
जाए तो आपके
भीतर
क्या-क्या होगा, इसको देखें।
आप क्या-क्या
व्याख्या
करते हैं, आपके
भीतर क्रोध
कैसे उठता है,
आप उससे
क्या-क्या
प्रतिकार लेना
चाहते हैं? हत्या करना
चाहते हैं; गाली देना
चाहते हैं; गर्दन दबाना
चाहते हैं; क्या करना
चाहते हैं? इस पूरे को
उतर जाएं
देखने। आप
अनुभवी होकर
बाहर
लौटेंगे। आप
इस स्वाध्याय
से ज्ञानी
होकर बाहर
लौटेंगे।
इसके
दो मजे
होंगे--एक तो
आपकी अपने
संबंध में जानकारी
बढ़ गयी होगी।
और साथ ही
आपको यह भी
पता चल गया
होगा कि
महत्वपूर्ण
यह नहीं है कि
उसने गाली दी, महत्वपूर्ण
यह है कि
मैंने कैसा
अनुभव किया। और
मजा यह है कि
आप उसका गाली
का उत्तर देने
अब कभी न
जाएंगे।
क्योंकि आप
बदल गए होंगे
इस ज्ञान से, इस
स्वाध्याय से,
आप वही आदमी
नहीं रह गए
जिसको गाली दी
गयी थी।
समथिंग हैज
बीन एडेड,
समथिंग हैज
बीन िरवील्ड।
नया कुछ जुड़
गया। सुबह आप
दूसरे आदमी
होंगे। हो
सकता है, आप
उससे क्षमा
मांग आएं। हो
सकता है, आप
पाएं कि उसने
गाली ठीक ही
दी। हो सकता
है, आप
पाएं कि उसकी
गाली उतनी
मजबूत न थी जितनी
होनी चाहिए थी,
जितना बुरा
मैं आदमी हूं।
हो सकता है कि
आप उससे जाकर
कहें कि तेरी
गाली बिलकुल
ठीक थी और अण्डर
एस्टिमेटेड
थी--यानी मैं
आदमी जरा
ज्यादा बुरा
हूं। यह सब हो
सकता है। या
हो सकता है, सुबह आप
पाएं कि उसकी
गाली पर सिर्फ
आपको हंसी औरही
है, और कुछ
भी नहीं हो
रहा है।
यह
स्वाध्याय है, यह मैंने
उदाहरण के लिए
कहा। आपके
जीवन की प्रत्येक
छोटी-सी
वृत्ति में, छोटी-सी लहर
में इसका
उपयोग करें।
यह शास्त्र आपके
भीतर का खुलना
शुरू हो
जाएगा। पहले
इस शास्त्र
में गंदगी ही
गंदगी मिलेगी,
क्योंकि
वही हमने
इकट्ठी की है,
वही हमारा
संग्रह है।
लेकिन जितनी
वह गंदगी मिलेगी
उतने आप
स्वच्छ होते
चले जाएंगे।
क्योंकि
गंदगी बचाना
हो तो गंदगी
को न जानना
जरूरी है, और
गंदगी को
मिटाना हो तो
जानना ही
एकमात्र सूत्र
है। जितना आप
छिपाए रखते
हैं अपनी
गंदगी को, वह
उतनी ही गहरी
बनती जाती है,
मजबूत होती
चली जाती है।
जब आप खुद ही
उसको उखाड़ने
लगते हैं और
देखने लगते
हैं तो उसकी
पर्तें टूटने
लगती हैं, उसकी
जड़ें उखड़ने
लगती हैं।
जाएं
भीतर और आप
पाएंगे कि
बहुत गंदगी है
लेकिन जितनी
गंदगी आपको
दिखाई पड़ेगी, एक और
मजेदार और
विपरीत घटना
घटेगी और आपको
लगेगा आप उतने
ही स्वच्छ
होते जा रहे
हैं। जितने
भीतर जाएंगे,
उतनी गंदगी
कम होती
जाएगी। और
इसलिए एक मजा
और आने लगेगा
कि भीतर गंदगी
कम होती जाती
है तो और भीतर
जाने का रस और
आनंद आने लगता
है। भीतर कंकड़-पत्थर
नहीं, हीरे-जवाहरात
दिखाई पड़ने
लगते हैं, तो
दौड़ तेज हो जाती
है। और एक घड़ी
आएगी कि आप जब
सच में भीतर पहुंचेंगे
-- सच में भीतर, क्योंकि यह
जो भी है, यह
भी बाहर और
भीतर के बीच
में है। इसे
हम भीतर कह
रहे हैं सिर्फ
इसलिए कि
स्वाध्याय के
लिए इसे भीतर
समझना जरूरी
है।
जितने
आप भीतर
जाएंगे, जिस
दिन आप सेंटर
पर पहुंचेंगे,
केंद्र पर
पहुंचेंगे, उस दिन कोई
गंदगी नहीं रह
जाएगी। उस दिन
आप पाएंगे कि
जीवन में उस
स्वच्छता का
अनुभव हुआ है
जिसका अब कोई
अंत नहीं है।
आपने वह ताजगी
पा ली जो अब
बूढ़ी नहीं
होगी। आपने उस
निर्दोषता के
तल को छू लिया
जिसको कोई
कालिमा
स्पर्श नहीं कर
सकती है। आप
उस प्रकाश को
पा लिए जहां
कोई अंधकार
प्रवेश नहीं
करता है।
लेकिन
यह क्रमशः
भीतर उतरना।
इसलिए
स्वाध्याय को
महावीर ने
अंतिम नहीं
कहा, चौथा तप
कहा है। अभी
और भी कुछ
करने को भीतर
शेष रह जाता
है। उन दो
तपों के संबंध
में हम आगे आने
वा ले दो
दिनों में बात
करेंगे।
पांचवां तप है
ध्यान, छठवां तप है कायोत्सर्ग।
पर स्वाध्याय
के बिना कोई
ध्यान में
नहीं जा सकता।
इस िलए
महावीर ने जो सीढ़ियां
कही हैं, वे
अति
वैज्ञानिक
हैं।
लोग
मेरे पास आते
हैं और कहते
हैं--ध्यान
में जाना है।
मैं उनकी क िठनाई
जानता हूं। वे
स्वाध्याय
में नहीं जाना
चाहते, क्योंकि
स्वाध्याय
बहुत पीड़ादायी
है। और ध्यान
में क्यों
जाना चाहते
हैं? क्योंकि
किताबों में
पढ़ लिया है, गुरुओं को
कहते सुन लिया
है कि ध्यान
में जाने से
बड़ा आनंद आता
है।
लेकिन
जो अपने
अर्जित दुख
में जाने को
तैयार नहीं है
वह अपने स्वभा
व के आनंद में
जा नहीं सकता
है। पहले तो
दुख से गुजरना
पड़ेगा; तभी,
तभी सुख की
झलक मिलेगी।
नरक से गुजरे
बिना कोई
स्वर्ग नहीं
है। क्योंकि
हमने नरक
निर्मित कर
लिया है, हम
उसमें खड़े
हैं।
प्रत्येक
आदमी यह चाहता
है कि नरक में
से एकदम
स्वर्ग मिल
जाए, यहीं।
इस नरक को
मिटाना न पड़े
और स्वर्ग मिल
जाए। यह नहीं
हो सकता।
क्योंकि
स्वर्ग तो
यहीं मौजूद है,
लेकिन
हमारे बनाए
हुए नरक में
छिप गया है, ढंक गया है।
ध्यान रहे, स्वर्ग
स्वभाव है और
नरक हमारा एचीवमेंट,
हमारी
उपलब्धि है।
बड़ी मेहनत
करके हमने नरक
को बनाया है, बड़ा श्रम
उठाया है। उसे
गिराना
पड़ेगा। स्वाध्याय
उसे गिराने के
लिए कुदाली का
काम करता है।
जैसे कोई मकान
को खोदना शुरू
कर दे।
आज
इतना ही।
पर
पांच मिनट रुकें, धुन में
भागीदार हों
और फिर जाएं।
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