दिनांक
6 सितम्बर, 1972;
द्वितीय
पयुषण व्याख्यानमाला,
पाटकर
हाल, बम्बई।
सत्य--सूत्र
:
निच्चकालऽप्पमत्तेणं, मुसावायविवज्जण।
भासियब्ब
हिय सच्चं, निच्चाऽऽउत्तेण
रूर।।
तहेव सावज्जऽणुमोयणी
गिरा,
ओहारिणी
जा य
परोवघायणी।
से कोह
लोह भय हास
माणवो,
न
हासमाणो वि
गिर वएज्जा।।
सदा
अप्रमादी व
सावधान रहते
हुए असत्य को
त्याग कर
हितकारी सत्य—वचन
ही बोलना
चाहिए। इस
प्रकार का
सत्य बोलना
सदा बड़ा कठिन
होता है।
श्रेष्ठ
साधु पापमय, निश्रयात्मक
और दूसरों को
दुख देने वाली
वाणी न बोलें।
इसी प्रकार
श्रेष्ठ मानव
को क्रोध, लोभ,
भय और हंसी—मजाक
में भी पापवचन
नहीं बोलना
चाहिए।
सूत्र के पहले
एक दो प्रश्न
पूछे गये हैं।
मैने
परसों कहां कि
हिंदू विचार
संन्यास को
जीवन की अंतिम
अवस्था की बात
मानता है।
किन्हीं
मित्र को इसे
सुनकर अड़चन
हुई होगी। मैं
निकलता था
बाहर, तब
उन्होंने
पूछा कि हिंदू
शास्त्रों
में तो जगह—जगह
ऐसे वचन भरे
पड़े है कि जब
शक्ति हो, तभी
साधना कर लेनी
चाहिए!
चलते
हुए रास्ते में
उनसे ज्यादा
नहीं कहां जा
सकता था।
मैंने उनसे
इतना ही कहां
कि ऐसे वचन
अगर आपको पता
हों तो उनका
आचरण शुरू
देना चाहिए।
लेकिन
हमारा मन बड़ा
अनुदार है, सभी का।
हम सभी सोचते
हैं कि मेरे
धर्म में सब
कुछ है। यह
अनुदार
वृत्ति है।
क्योंकि इस
पृथ्वी पर कोई
भी धर्म पूरा
नहीं है, हो
भी नहीं सकता।
जैसे ही सत्य
अभिव्यक्त
होता है, अधूरा
हो जाता है।
और जब यह
अधूरा सत्य
संगठित होता
है तो और भी अधूरा
हो जाता है।
और जब हजारों
लाखों सालों
तक यह संगठन
जकड़ बनता चला
जाता है, तो
और भी क्षीण
होता चला जाता
है।
सभी
संगठन अधूरे
सत्यों के
संगठन होते
हैं। इसलिए इस
जगत के सारे
धर्म मिलकर एक
पूरे धर्म की
संभावना पैदा
करते हैं। कोई
अकेला धर्म
पूरे धर्म की
संभावना पैदा
नहीं करता।
क्योंकि सभी
धर्म सत्यों
को अलग—अलग
पहलुओं से
देखी गयी
चेष्टाएं हैं।
हिंदूविचार
अत्यंत
व्यवस्था को
स्वीकार करता
है। इसलिए
हिंदू विचार
ने जीवन को
चार हिस्सों
में बांट दिया
है।
ब्रह्मचर्य
आश्रम है, गृहस्थ
आश्रम है, वानप्रस्थ
आश्रम है और
फिर संन्यास
आश्रम है। यह
बड़ी गणित की
व्यवस्था है,
इसके अपने
उपयोग हैं, अपनी कीमत
है।
लेकिन
जीवन कभी भी
व्यवस्था में
बंधता नहीं, जीवन सब
व्यवस्था को
तोड़कर बहता है।
इस व्यवस्था
को हमने दो
नाम दिये है, वर्ण और
आश्रम। हमने
समाज को भी
चार हिस्सों
में बांट दिया
और हमने जीवन
को भी चार
हिस्सों में
बांट दिया। यह
बंटाव उपयोगी
है।
हिंदूमन
को यह कभी
स्वीकार नहीं
रहा कि कोई जवान
आदमी
संन्यासी हो
जाये, कि
कोई बच्चा
संन्यासी हो
जाये।
संन्यास आना
चाहिए, लेकिन
वह जीवन की
अंतिम बात है।
इसका अपना
उपयोग है, इसका
अपना अर्थ है,
क्योंकि
हिदू ऐसा
मानता रहा है
कि संन्यास इतनी
बडी घटना है
कि सारे जीवन
के अनुभव के
बाद ही खिल
सकती है। इसका
अपना उपयोग है।
लेकिन
महावीर और
बुद्ध ने एक क्रांति
खड़ी की इस
व्यवस्था में।
और वह क्रांति
यह थी कि
संन्यास का
फूल कभी भी खिल
सकता है। कोई
वृद्धावस्था
तक रुकने की
जरूरत नहीं है।
न केवल इतना, बल्कि
महावीर ने कहां
कि जब युवा है
चित्त और जब
शक्ति से भरा
है शरीर, तभी
जो भोग में
बहती है ऊर्जा,
वह अगर योग
की तरफ बहे, तो संन्यास
का फूल खिल
सकता है।
यह एक
दूसरे पहलू से
देखने की
चेष्टा है, इसका भी
अपना मूल्य है।
इसमें बहुत
फर्क है, और
कारण हैं
फर्कों के।
इसे हम
थोड़ा समझ लें।
हिंदू
विचार
ब्राह्मण की
व्यवस्था है।
ब्राह्मण का
अर्थ होता है, गणित, तर्क,
योजना, नियम,
व्यवस्था।
जैन और बौद्ध
विचार
क्षत्रियों
के मस्तिष्क की
उपज हैं—क्रांति,
शक्ति, अराजकता।
जैनियों
के चौबीस
तीर्थंकर
क्षत्रिय हैं।
बुद्ध
क्षत्रिय हैं।
बुद्ध के
पिछले सारे
जन्मों की जो
और भी कथाएं
है, वे
भी क्षत्रिय
की ही हैं।
बुद्ध ने जिन
और बुद्धों की
बात की है, वे
भी क्षत्रिय
हैं।
क्षत्रिय
के सोचने का
ढंग ऊर्जा पर
निर्भर होता
है, शक्ति
पर। ब्राह्मण
के सोचने का
ढंग अनुभव पर,
गणित पर, विचार पर, मनन पर
निर्भर होता
है। इसलिए
ब्राह्मण एक
व्यवस्था
देता है।
क्षत्रिय
अराजक होगा।
शक्ति सदा
अराजक होती है।
इसलिए जवान
अराजक होते है,
बूढ़े अराजक
नहीं होते।
जवान
क्रांतिकारी
होते है, बूढ़े
क्रांतिकारी
नहीं होते।
अनुभव उनकी
सारी क्रांति
की नोकों को
झाडू देता है।
जवान गैर
अनुभवी होता
है। गैर
अनुभवी होता
है, शक्ति
से भरा होता है।
उसके सोचने के
ढंग अलग होते
है।
फिर
इतिहासज्ञ
कहते हैं, और ठीक
कहते है कि
भारत की यह जो
वर्ण—व्यवस्था
थी, जिसमें
ब्राह्मण
सबसे ऊपर था।
उसके बाद
क्षत्रिय था,
वैश्य था, शूद्र था।
निश्चित ही,
जब भी बगावत
होती है किसी
विचार, किसी
तंत्र के
प्रति, तो
जो निकटतम
होता है, नंबर
दो पर होता है,
वही बगावत
करता है। नंबर
तीन और चार के
लोग बगावत
नहीं कर सकते।
इतना फासला
होता है कि
बगावत का कारण
भी नहीं होता।
इसलिए
ब्राह्मणों
के खिलाफ जो
पहली बगावत हो
सकती थी, वह
क्षत्रियों
से ही हो सकती
थी। वे बिलकुल
निकट थे, दूसरी
सीढ़ी पर खड़े
थे। उनको आशा
बनती थी कि वे
धक्का देकर
पहली सीढ़ी पर
हो सकते हैं।
शूद्र बगावत
नहीं कर सकता
था, वह
बहुत दूर था, बहुत
सीढ़ियां पार
करनी थीं।
वैश्य बगावत
नहीं कर सकता
था।
बड़े
मजे की बात है, मनुष्य
के ऐतिहासिक
उत्वरम में
ब्राह्मणों
के प्रति पहली
बगावत क्षत्रियों
से आयी।
ब्राह्मणों
को सत्ता से
उतार दिया
क्षत्रियों
ने। लेकिन
आपको पता है
कि
क्षत्रियों
को फिर वैश्यों
ने सत्ता से
उतार दिया, और अब
वैश्यों को
शूद्र सत्ता
से उतार रहे
है।
हमेशा
निकटतम से
होती है
क्रांति। जो
नीचे था, वह आशान्वित
हो जाता है कि
अब मै निकट
हूं सत्ता के,
अब धक्का
दिया जा सकता
है। बहुत दूर
इतना फासला
होता है कि
आशा और आश्वासन
भी नहीं बंधता
है।
जैन और
बौद्ध, क्षत्रिय
मस्तिष्क की
उपज है।
क्षत्रिय
जवानी पर
भरोसा करता है,
शक्ति पर।
शक्ति ही सब
कुछ है। इसके
सब आयामों में
प्रयोग हुए, सब आयामों
में। महावीर
ने इसका ही
प्रयोग साधना
में किया, और
महावीर ने कहां
कि जब ऊर्जा
अपने शिखर पर
है, तभी
उसका
रूपांतरण कर
लेना उचित है।
क्योंकि
रूपांतरण
करने के लिए
भी शक्ति की
जरूरत है। और
जब शक्ति
क्षीण हो
जायेगी तब कई
दफा धोखा भी
पैदा होता है।
जैसे, बूढ़ा
आदमी सोच सकता
है कि मैं
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हो
गया।
असमर्थता
ब्रह्मचर्य
नहीं है। अगर
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध कोई
होता है, तो युवा
होकर ही हो
सकता है।
क्योंकि तभी
कसौटी है, तभी
परीक्षा है।
वृद्ध होकर
ब्रह्मचर्य
होना, ब्रह्मचारी
होना मजबूरी
हो जाती है।
साधन खो जाते
है। जब साधन
खो जाते है तो
साधना का कोई
अर्थ नहीं रह
जाता। जब साधन
होते हैं, उत्तेजना
होती है, कामपिटिशन
होता है, जब
ऊर्जा दौड़ती
हुई होती है
किसी प्रवाह
में, तब
उसके रुख को
बदल लेना
साधना है।
इसलिए
महावीर का
सारा बल युवा
शक्ति पर है।
दूसरी
बात, महावीर
और बुद्ध
दोनों की
क्रांति वर्ण
और आश्रम के
खिलाफ है। न
तो वे समाज
में वर्ण को
मानते हैं कि
कोई आदमी बंटा
हुआ है खण्ड़—खण्ड़
में, न वे
व्यक्ति के
जीवन में
बंटाव मानते
है कि व्यक्ति
बंटा हुआ है खण्ड़—खण्ड़
में।
वे
कहते हैं, जीवन एक
तरलता है। और
किसी को वृद्धावस्था
में अगर
संन्यास का
फूल खिला है, तो उसे समाज
का नियम
बनाने. की कोई
भी जरूरत नहीं
है। किसी को
जवानी में भी
खिल सकता है।
किसी को बचपन
में भी खिल
सकता है। इसे
नियम बनाने की
कोई भी जरूरत
नहीं है, क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति
बेजोड़ है।
इसे
थोड़ा समझ लें।
हिंदू
चिंतन मानकर
चलता है कि
सभी व्यक्ति
एक जैसे हैं।
इसलिए बांटा
जा सकता है।
जैन और बौद्ध
चिंतन मानता
है कि व्यक्ति
बेजोड़ है, बांटे
नहीं जा सकते।
हर आदमी बस
अपने जैसा ही
है। इसलिए कोई
नियम लागू
नहीं हो सकता।
उस आदमी को
अपना नियम खुद
ही खोजना
पड़ेगा। और
इसलिए कोई
व्यवस्था ऊपर
से नहीं
बिठायी जा
सकती। न तो हम
समाज को बांट
सकते हैं कि
कौन शूद्र है और
कौन ब्राह्मण
है। क्योंकि
महावीर जगह—जगह
कहते हैं कि
मै उसे
ब्राह्मण
कहता हूं जो ब्रह्म
को पा ले।
उसको
ब्राह्मण
नहीं कहता जो
ब्राह्मण घर
में पैदा हो
जाये। मैं उसे
शूद्र कहता
हूं जो शरीर
की सेवा में
ही लगा रहे।
उसे शूद्र
नहीं कहता जो
शूद्र के घर
पैदा हो आये।
जो शरीर की ही
सेवा में और
शृंगार में
लगा रहता है
चौबीस घंटे, वह शूद्र है।
बड़े
मजे की बात है, इसका
अर्थ हुआ कि
एक अर्थ में
हम सभी शूद्र
की भांति पैदा
होते हैं, सभी।
जरूरी नहीं है
कि हम सभी
ब्राह्मण की
भांति मर सकें।
मर सकें तो
सौभाग्य है।
सफल हो गये।
और फिर
एक—एक व्यक्ति
अलग है, क्योंकि
महावीर कहते
हैं कि
प्रत्येक
व्यक्ति
हजारों—हजारों
जन्मों की
यात्रा के बाद
आया है। इसलिए
बच्चे को
बच्चा कहने का
क्या अर्थ है?
उसके पीछे
भी हजारों
जीवन का अनुभव
है। इसलिए दो
बच्चे एक जैसे
बच्चे नहीं
होते। एक
बच्चा बचपन से
ही बूढ़ा हो
सकता है। अगर
उसे अपने
अनुभव का थोड़ा—सा
भी स्मरण हो
तो बचपन में
ही संन्यास
घटित हो
जायेगा। और एक
बूढ़ा भी
बिलकुल
बचकाना हो
सकता है। अगर
उन्हें इसी
जीवन की कोई
समझ पैदा न
हुई हो, तो
बुढ़ापे में भी
बच्चों जैसा
व्यवहार कर
सकता है।
तो
महावीर कहते
हैं, यात्रा
है लंबी। सभी
हैं बूढ़े; एक
अर्थ में, सभी
को अनुभव है।
इसलिए जब
ऊर्जा ज्यादा
हो तब इस अनंत—अनंत
जीवन के अनुभव
का उपयोग करके
जीवन को रूपांतरित
कर लेना चाहिए।
लेकिन
इसका यह मतलब
नहीं कि हिंदू
परिवारों में
युवा
संन्यासी
नहीं हुए।
लेकिन वे
अपवाद हैं। और
जो
महत्वपूर्ण
संन्यासी
हिंदू परंपरा
में हुए, शंकर जैसे
लोग, वे सब
बुद्ध और
महावीर के बाद
हुए।
संन्यास
की जो धारा
शंकर ने हिंदू
विचार में चलायी, उस पर
महावीर और
बुद्ध का
अनिवार्य
प्रभाव है।
क्योंकि
हिंदू विचार
से मेल नहीं
खाती कि जवान
आदमी संन्यास
ले ले। इसलिए
शंकर के जो
विरोधी हैं, रामानुज, वल्लभ, निंबार्क,
वे सब कहते
हैं कि वे
प्रच्छन्न
बौद्ध हैं, छिपे हुए
बौद्ध हैं। वे
असली हिंदू
नहीं है। ठीक
हिंदू नहीं है,
क्योंकि
सारी गड़बड़ कर
डाली है। बड़ी
गड़बड़ तो यह कर
दी कि आश्रम
की व्यवस्था
तोड़ डाली।
शंकर तो बच्चे
ही थे, जब
उन्होंने
संन्यास लिया।
महावीर तो
जवान थे, जब
उन्होंने
संन्यास लिया।
शंकर तो
बिलकुल बच्चे
थे। तैंतीस
साल में तो
उनकी मृत्यु
ही हो गयी।
लेकिन
कोई विचार पर
किसी की बपौती
भी नहीं होती
कि कोई विचार
जैन का है कि
बौद्ध का है।
विचार तो जैसे
ही मुक्त आकाश
में फैल जाता
है, सब
का हो जाता है।
लेकिन फिर भी
स्रोत का
अनुग्रह सदा
स्वीकार होना
चाहिए, और
इतनी उदारता
होनी चाहिए कि
हम स्वीकार
करें कि कौन—सी
बात किसने दान
दी है।
युवक
संन्यासी हो, और जीवन
जब प्रखर शिखर
पर है ऊर्जा
के, तब
रूपांतरण
शुरू हो जाये।
इस दिशा में
जो दान है, वह
जैन और
बौद्धों का है।
इसके खतरे भी
हैं। हर सुविधा
के साथ खतरा
जुड़ा होता है।
हर उपयोगी बात
के साथ गड्डा
भी जुड़ा होता
है खतरे का।
निशित
ही, जब युवा
व्यक्ति
संन्यास
लेंगे तो
संन्यास में खतरे
बढ़ जायेंगे।
जब बूढ़ा आदमी
संन्यास लेगा,
संन्यास
में खतरे नहीं
होंगे। के को
संन्यासी
होना मुश्किल
है, लेकिन
अगर का
संन्यासी
होगा तो खतरे
बिलकुल नहीं
हैं। इसलिए
महावीर को
अतिशय नियम
निर्मित करने
पड़े। क्योंकि
जब युवा
संन्यासी
होंगे, तो
खतरे निश्चित—निश्चित
बढ़ जानेवाले
हैं। युवक और
युवतियां जब
संन्यासी
होंगे और उनकी
वासना प्रबल
वेग में होगी,
तब खतरे
बहुत बढ़
जानेवाले हैं।
इसलिए एक बहुत
पूरी की पूरी
आयोजना करनी
पड़ी नियमों की
कि ये खतरे
काटे जा सकें।
इसलिए
जैन विचार कई
दफा बहुत
सप्रेसिव, बहुत
दमनकारी
मालूम होता है।
वह है नहीं।
दमनकारी
इसीलिए मालूम
होता है कि एक—एक
चीज पर अंकुश
लगाना पड़ा है।
क्योंकि इतनी
बढ़ती हुई
उद्दाम वासना
है, अगर इस
पर चारों तरफ
से व्यवस्था न
हुई तो संभावना
इसकी कम है कि
योग की तरफ
बहे। संभावना
यह है कि यह
भोग की तरफ बह
जाये।
इसलिए
हिंदू विचार
आज के युग को
ज्यादा अपील करेगा; क्योंकि
उसमें इतना
नियम का जोर
नहीं है; क्योंकि
वृद्ध अगर
संन्यासी
होगा तो उसका
वृद्ध होना ही,
उसकी समझ ही
नियम बन
जायेगी। उस पर
बहुत अतिशय, चारों तरफ
बाड़ लगाने की
जरूरत नहीं है।
उसे छोड़ा जा
सकता है, उसकी
समझ पर। उससे
कहने की जरूरत
नहीं है कि
ऐसा मत करना, ऐसा मत करना,
ऐसा मत करना
—हजार नियम
बनाने की
जरूरत नहीं है।
बुद्ध
से आनंद पूछता
है कि
स्त्रियों की
तरफ देखना कि
नहीं? तो
बुद्ध कहते
हैं, कभी
नहीं देखना।
आनंद पूछता है,
और अगर
मजबूरी में
अनायास, आकस्मिक
स्त्री
दिखायी ही पड़
जाये, तो? तो बुद्ध
कहते हैं, बोलना
मत। आनंद कहता
है, ऐसी
हालत हो, सी
बीमार हो या
कोई ऐसी
स्थिति बन
जाये कि बोलना
ही पड़े? तो
बुद्ध कहते है,
होश रखना कि
किससे बोल रहे
हो।
ऐसा
विचार हिंदू
चिंतन में कहीं
भी खोजे न
मिलेगा। कहीं
भी खोजे न
मिलेगा।
लेकिन उसका
कारण है। यह
युवकों को
दिया गया
संदेश है।
हिंदू चिंतन
ने तो
क्रमबद्ध
व्यवस्था की
है—ब्रह्मचर्य।
यह
ब्रह्मचर्य
बुद्ध और
महावीर के
ब्रह्मचर्य
से भिन्न है।
कभी—कभी शब्द
भी बड़ी दिक्कत
देते है।
ब्रह्मचर्य
पहला है हिंदू
विचार में। यह
ब्रह्मचर्य
गृहस्थ के
विपरीत नहीं
है। बुद्ध और
महावीर का
ब्रह्मचर्य
गृहस्थ के विपरीत
है। हिंदू
ब्रह्मचर्य
गृहस्थ की
तैयारी है, उसके
विपरीत नहीं
है। युवक को
ब्रह्मचारी
होना चाहिए, इसलिए नहीं
कि वह योग में
चला जाये, बल्कि
इसलिए कि शक्ति
संगृहीत हो, इकट्ठी हो, तो भोग की
पूरी गहराई
में उतर जाये;
यह बड़ा अलग
मामला है।
इसलिए
ब्रह्मचर्य
पहले। पच्चीस
वर्ष तक युवक
ब्रह्मचारी
हो, इसलिए
नहीं कि योग
में चला जाये,
अभी योग
बहुत दूर है, बल्कि इसलिए
कि ठीक से भोग
में चला जाये।
क्योंकि
हिंदू मानता ही
यह है कि अगर
ठीक से कोई
भोग में चला
जाय, तो
भोग से
छुटकारा हो
जाता है।
जिस
चीज को भी हम
ठीक से जान
लेते हैं, वह
व्यर्थ हो
जाती है। अगर
ठीक से न जान
पायें तो वह
पीछा करती है।
अगर बुढ़ापे
में भी आपको
कामवासना
पीछा करती हो
तो उसका मतलब
ही यह है कि आप कामवासना
जान न पाये, आप पूरी
ऊर्जा न लगा
पाये कि अनुभव
पूरा हो जाता,
कि आप उसके
बाहर निकल आते।
जब अनुभव पूरा
होता है, हम
उसके बाहर हो
जाते हैं। जब
अधूरा होता है,
हम अटके रह
जाते हैं।
तो
ब्रह्मचर्य
इसलिए है कि
शक्ति पूरी
इकट्ठी हो
जाये, और
प्रबल वेग से
आदमी गृहस्थ
में प्रवेश कर
सके, वासना
में प्रवेश कर
सके, प्रबल
वेग से।
पच्चीस वर्ष,
पचास वर्ष
तक वह वासना
के जीवन में
पूरी तरह डूबा
रहे, पूरी
तरह समग्रता
से। यही उसे
बाहर निकालने
का कारण बनने
लगेगा।
और तब
पच्चीस वर्ष
तक वह जंगल की
तरफ मुंह कर ले, वानप्रस्थ
हो जाये। रहे
घर में, अभी
जंगल चला न
जाये, क्योंकि
एक दम से घर और
जंगल जाने में
हिंदू विचार
को लगता है, छलांग हो
जायेगी, क्रमिक
न होगा। और जो
आदमी एकदम घर
से जंगल में
चला गया, वह
घर को जंगल
में ले जायेगा।
उसके
मस्तिष्क में
जंगल.. .जंगल
बाहर होगा, मस्तिष्क
में घर आ
जायेगा।
हिंदू
विचार कहता है, पच्चीस
साल तक वह घर
पर ही रहे, जंगल
की तरफ मुंह
रखे। ध्यान
जंगल का रखे, रहे घर पर।
अगर जल्दी चला
जायेगा तो
रहेगा जंगल
में, ध्यान
होगा घर का।
पच्चीस साल तक
सिर्फ ध्यान
को जंगल ले
जाये। जब पूरा
ध्यान जंगल
पहुंच जाये, तब वह भी
जंगल चला जाये,
तब वह
संन्यासी हो।
पिचहत्तर
वर्ष की उम्र
में संन्यासी
हो।
इसके
अपने उपयोग
हैं। कुछ
लोगों के लिए
शायद यही
प्रीतिकर
होगा।
लेकिन
हम हैं बेईमान।
हम हर सत्य से
अपने हिसाब की
बातें निकाल
लेते हैं। हम
सोचेंगे, ठीक, यह
हमारे लिए
बिलकुल
उपयोगी जंचता
है। इसलिए
नहीं कि आपके
लिए उपयोगी है,
बल्कि
सिर्फ इसलिए
कि इसमें
पोस्टपोन, स्थगन
करने की
सुविधा है। न
बचेंगे
पिचहत्तर साल
के बाद, और
न यह झंझट
होगी। और घर
में ही रहेंगे,
रहा
वानप्रस्थ, वन की तरफ
मुंह रखने की
बात सो वह
भीतरी बात है,
किसी को
उसका पता
चलेगा नहीं।
अपने
को धोखा हम
किसी भी चीज
से दे सकते
हैं।
फिर
महावीर की
सारी जो साधना
प्रक्रिया है, वह हिंदू
साधना
प्रक्रिया से
अलग है। और
इसलिए महावीर
की साधना
प्रक्रिया का
ही उपयोग करना
पड़ेगा, अगर
जवान
संन्यासी हो
तो। क्योंकि
तब ऊर्जा के
प्रबल वेग को
रूपांतरित करने
की क्रियाओं
का उपयोग करना
पड़ेगा
बूढ़ा
सौम्यता से
संन्यास में
प्रवेश करता
है। जवान
तूफान, आधी की तरह
संन्यास में
प्रवेश करता
है। इन सबकी
प्रक्रियाएं
अलग हैं। एक
बात लेकिन तय
है कि महावीर
और बुद्ध ने
युवा जीवन
ऊर्जा को
संन्यास में
बदलने की जो
कीमिया है, उसके पहले
सूत्र
निर्मित किये।
वह हिंदू
विचार की देन
नहीं है। और
अगर हिंदू
संन्यासी, पीछे
युवक संन्यास
भी लिये, और
युवा संन्यास
के आंदोलन भी
चलाये
शंकराचार्य
ने, तो उन
पर अनिवार्य
रूप से महावीर
और बुद्ध की छाप
है।
इतना
अनुदार नहीं
होना चाहिए कि
सभी कुछ हमसे ही
निकले।
परमात्मा सब
तरफ है, और परमात्मा
हजार आवाजों
में बोला है, और सब
आवाजें
परिपूरक हैं।
किसी न किसी
दिन हम उस
सारभूत धर्म
को खोज लेंगे,
जो सब
धर्मों में
अलग—अलग
पहलुओं से
छिपा है। उस
दिन ऐसा कहने
की जरूरत न
होगी कि हिंदू
धर्म, जैन
धर्म, बौद्ध
धर्म। ऐसा ही
कहने की बात
रह जायेगी, धर्म की तरफ
जाने वाला जैन
रास्ता, धर्म
की तरफ जाने
वाला बौद्ध
रास्ता, धर्म
की तरफ जाने
वाला हिंदू
रास्ता; ये
सब रास्ते हैं
और धर्म की
तरफ जाते हैं।
इसलिए
हम अपने मुल्क
में इनको
संप्रदाय
कहते थे, धर्म नहीं।
कहना भी नहीं
चाहिए। धर्म
तो एक ही हो
सकता है, संप्रदाय
अनेक हो सकते
हैं।
संप्रदाय का
अर्थ है, मार्ग।
धर्म का अर्थ
है, मंजिल।
एक और
मित्र ने पूछा
है कि अधर्म
का आचरण मनुष्य
इसलिए करता है
कि मैं
सामान्य नहीं
हूं विशेष हूं।
उससे अहंकार
को पुष्टि
मिलती है।
क्रोध से दूर
रहने का, अस्तित्व
जैसा है वैसा
स्वीकार करने
का, साधना
करने का, मैं
भी यथाशक्ति
प्रयत्न
करता हूं। इन
कार्यों में
आनंद भी मिलता
है। हो सकता
है, उसमें
अहंकार की पुष्टि
भी होती हो।
अहंकार को
विलीन करने की
प्रक्रिया
में भिन्न
प्रकार का
अहंकार भी
समर्पित हो
जाता है। सामान्य
मनुष्य
अहंकार के
सिवाय और है
क्या? क्या
यह संभव है कि
अहंकार का ही
किसी इष्ट दिशा
में संशोधन
होते—होते
आखिर में कुछ
प्राप्त करने
योग्य तत्व बच
रह जाये?
ये दो
साधना
पद्धतियां
हैं। एक, कि अहंकार
को हम शुद्ध
करते चले
जायें।
क्योंकि जब
अहंकार
शुद्धतम हो जाता
है तो बचता
नहीं। शुद्ध
होते—होते, होते—होते
ही विलीन हो
जाता है। एक।
इसके सारे
मार्ग अलग हैं
कि हम अहंकार
को कैसे शुद्ध
करते चले
जायें। खतरे
भी बड़े हैं।
क्योंकि
अहंकार शुद्ध
हो रहा है या
परिपुष्ट हो
रहा है, इसकी
परख रखनी बड़ी
कठिन है।
दूसरा
रास्ता है, हम
अहंकार को
छोड़ते चले
जायें, शुद्ध
करने की कोशिश
ही न करें, सिर्फ
छोड़ने की
कोशिश करें।
जहां—जहां
दिखायी पड़े, वहां—वहां
त्याग करते
जायें। इसके
भी खतरे हैं।
खतरा यह है कि
हमारे भीतर एक
दूसरा अहंकार
जन्म जाये कि
मैंने अहंकार
का त्याग कर
दिया है, कि
मैं ऐसा हूं
जिसके पास
अहंकार
बिलकुल नहीं
है।
साधना निश्चित
ही खतरनाक है।
जब भी आदमी
किसी दिशा में
बढ़ता है तो
भटकने के ड़र
भी निशित हो
जाते हैं। और
कोई रास्ता ऐसा
बंधा हुआ
रास्ता नहीं
है कि सुनिश्चित
हो, कि
आप जायें और
मंजिल पर
पहुंच ही
जायें।
क्योंकि इस
अज्ञात के लोक
में आपके चलने
से ही रास्ता
निर्मित होता
है। रास्ता
पहले से
निर्मित हो तब
तो आसानी हो
जाये। यह कोई
रेल की
पटरियों जैसा
मामला हो कि
डिब्बों के
भटकने का उपाय
ही नहीं है, पटरी पर
दौड़ते चले
जायें, तब
तो ठीक है।
यह रेल
की पटरियों
जैसा मामला
नहीं है। यहां
रास्ता, लोह—पथ
निर्मित नहीं
है कि आप एक
दफे पटरी पर
चढ़ गये तो
फिर उतरने का
उपाय नहीं है,
चलते ही चले
जायेंगे और
मंजिल पर
पहुंचेंगे ही।
नियति इतनी
स्पष्ट नहीं
है।
और
अच्छा है कि
नहीं है, इसलिए जीवन
में इतना रस, और रहस्य और
आनंद है। अगर
रेल की
पटरियों की
तरह आप
परमात्मा तक
पहुंच जाते
हों, तो
परमात्मा भी
एक व्यर्थता
हो जायेगी।
खोजना
पड़ता है। सत्य
की खोज, परमात्मा की
खोज, मूलतः
पथ की खोज है।
और पथ भी अगर
निर्मित हों
बहुत से, तो
भी आसान हो
जाये कि हम अ
को चुनें, ब
को चुनें, स
को चुनें। एक
दफा तय कर लें
और फिर चल पड़े।
पथ की
खोज, पथ
का निर्माण भी
है। आदमी चलता
है, और चल
कर ही रास्ता
बनाता है, इसलिए
खतरे है।
इसलिए भटकने
के सदा उपाय
हैं। पर अगर
सचेतना हो, तो सभी
विधियों से
जाया जा सकता
है। अगर
अप्रमाद हो, अगर होश हो, जागरूकता हो,
तो कोई भी विधि
का उपयोग किया
जा सकता है।
और अगर होश न
हो, तो सभी
विधियां खतरे
में ले
जायेंगी।
इसलिए एक तत्व
अनिवार्य है—रास्ता
कोई हो, मार्ग
कोई हो, विधि
कोई हो—होश, अवेयरनेस
अनिवार्य है।
अगर आप
अहंकार को
शुद्ध करने
में लगे हैं
तो अहंकार के
शुद्ध करने का
क्या अर्थ होता
है? पापी
का अहंकार
होता है कि
मुझसे बड़ा
डाकू कोई भी
नहीं है। यह
भी एक अहंकार
है। साधु का
अहंकार होता
है कि मुझसे
बड़ा साधु कोई
भी नहीं है।
पापी का
अहंकार कहें
कि काला
अहंकार है।
साधु का
अहंकार कहें
कि शुभ्र
अहंकार है।
लेकिन अगर
साधु को होश न
हो, डाकू
को तो होगा ही
नहीं होश, नहीं
तो डाकू होना
मुश्किल है।
साधु को अगर
होश न हो, और
यह बात मन को
ऐसा ही रस
देने लगे कि
मुझसे बड़ा
साधु कोई नहीं
है, जैसा
कि डाकू को
देती है, कि
मुझसे बड़ा
डाकू कोई नहीं
है, तो यह
भी काला
अहंकार हो गया,
यह भी अशुद्ध
हो गया।
मुझसे
बड़ा साधु कोई
नहीं, इसमें
अगर साधुता पर
जोर हो और होश
रखा जाये, तो
अहंकार शुद्ध
होगा। इसमें 'मुझसे बड़ा' इस पर जोर
रखा जाये, तो.?
.तो अहंकार
अशुद्ध होगा।
मुझसे बड़ा
साधु कोई नहीं,
इस भाव में
साधुता ही
महत्वपूर्ण
हो, और
मुझे यह भी
पता चलता रहे
कि जब तक मुझे
यह लग रहा है
कि मुझसे बड़ा
कोई नहीं, तब
तक मेरी
साधुता में
थोड़ी कमजोरी
है। क्योंकि
साधु को यह भी
पता चलना कि
मैं बड़ा हूं
असाधु का
लक्षण है।
कोई
मुझसे छोटा है, तो यह
हिंसा है।
इसको धीरे—
धीरे छोड़ते
जाना है। एक
दिन साधु ही
रह जाये, मुझसे
बडा, मुझसे
छोटा कोई भी न
रह जाये। मैं
साधु हूं इतना
ही भाव रह
जाये तो
अहंकार और
शुद्ध हुआ।
लेकिन
अभी मैं साधु
हूं तो असाधु
से मेरा फासला
बना हुआ है।
अभी असाधु के
प्रति मैं सदय
नहीं हूं। अभी
असाधु मुझे
अस्वीकार है।
अभी कहीं गहरे
में असाधु के
प्रति निंदा
है, कंडेमनेशन
है। इसे भी
चला जाना
चाहिए, नहीं
तो मैं साधु
पूरा नहीं हूं।
तो जिस
दिन मुझे यह
भी पता न चले
कि मैं साधु
हूं कि असाधु
हूं इतना ही
रह जाये कि 'मैं हूं '
साधु असाधु
का फासला गिर
जाये, तो
अहंकार और भी
शुद्ध हुआ।
लेकिन, मैं हूं
इसमें भी अभी
दो बातें रह
गयीं— 'मैं'
और 'होना'। यह मैं भी
बाधा है, यह
भी वजन है। यह
होने को जमीन
से बांध रखता
है। अभी पंख
पूरे नहीं खुल
सकते, अभी
उड़ नहीं सकते,
अभी आकाश
में पूरा नहीं
उड़ा जा सकता।
इस मैं
को भी आहिस्ता—आहिस्ता
विलीन कर देना
है, और
इतना ही रह
जाये कि हूं
होना मात्र रह
जाये, जस्ट
बीइंग, इतना
भर खयाल रह
जाये कि 'हूं,
तो यह
अहंकार की
शुद्धतम
अवस्था है।
लेकिन यह भी
अहंकार की
अवस्था है। जब
यह भी खो जाता
है कि हूं या
नहीं। जब
मात्र
अस्तित्व रह
जाता है, तब
अहंकार से हम
आत्मा में
छलांग लगा गये।
यह
शुद्ध करने की
बात हुई।
लेकिन शुद्ध
करने में भी छोड़ते
तो जाना ही
होगा। और एक
होश सदा रखना
होगा कि जो भी
मेरा भाव है, उस भाव
में आधा
हिस्सा गलत
होगा, आधा
हिस्सा सही
होगा। तो पचास
प्रतिशत जो
गलत है, वह
मैं पचास
प्रतिशत सही
के लिए
कुर्बान करता रहूं
और करता चला
जाऊं, जब
तक कि एक ही न
बच जाये।
लेकिन एक जब
बचता है, तब
भी अहंकार की
आखिरी रेखा बच
गयी; क्योंकि
एक का भी दो से
फासला तो होता
है। जब एक भी न
बचे, जब
अद्वैत भी न
बचे, जब
अद्वैत भी खो
जाये, जब
हम ऐसे हो
जायें, जैसे
फूल हैं, जैसे
पत्थर हैं, जैसे आकाश
है, हैं
लेकिन इसका भी
कोई पता नहीं
कि 'हैं', जब इतनी सरलता
हो जाये भीतर
कि दूसरे का
सारा बोध खो
जाये, तब
छलांग आत्मा
में लगी।
यह तो
शुद्ध करने का
उपाय है, लेकिन खतरे
हैं। क्योंकि
जोर अगर हमने
गलत पर दिया
तो शुद्ध होने
की बजाय
अशुद्ध होता
चला जायेगा।
और जब अशुद्धि
शुद्धता के
रूप में आती
है तो बड़ी
प्रीतिकर
होती है।
जंजीरें अगर
आभूषण बन कर
आयें तो बड़ी
प्रीतिकर
होती हैं, और
कारागृह भी
अगर स्वर्ण का
बना हो, हीरे
मोतियों से
सजा हो तो
मंदिर मालूम
हो सकता है।
दूसरा
उपाय है कि हम
प्रतिपल, जहां भी 'मैं'
का भाव उठे,
जहां भी; उसे उसी
क्षण छोड़ दें।
मेरा मकान, तो हम सिर्फ मकान
पर ध्यान रखें,
और मेरा को
उसी क्षण छोड़
दें; क्योंकि
कोई मकान मेरा
नहीं है। हो
भी नहीं सकता।
मैं नहीं था, तब भी मकान
था; मैं
नहीं रहूंगा
तब भी मकान
होगा। मैं
केवल एक
यात्री हूं एक
विश्रामालय
में थोड़े क्षण
को, और
बिदा हो जाने
को।
यह
मेरा 'मैं'
जहां भी जुड़े
तत्काल उसे
वहीं तोड़ देना
है। मेरी
पत्नी, मेरा
पुत्र, मेरा
धन, मेरा
नाम, मेरा
वंश, जहां
भी यह मेरा
जुड़े उसे
तत्काल तोड़
देना। उसे
जुड्ने ही
नहीं देना।
शुद्ध करने की
कोशिश ही नहीं
करनी, उसे
जुड्ने नहीं
देना है, उसे
छोड़ते ही चले
जाना है।
मेरा
धर्म, मेरा
मंदिर, मेरा
शास्त्र—जहां
भी मेरा जुड़े
उसे तोड़ते
जाना है। फिर
मेरा शरीर, मेरा मन, मेरी
आत्मा, जहां
भी मेरा जुड़े,
उसे तोड़ते
चले जाना है।
अगर यह मेरा
टूट जाये, सब
जगह से और एक
दिन आपको लगे
कि मेरा कुछ
भी नहीं, मैं
भी मेरा नहीं,
उस दिन
छलांग हो
जायेगी।
लेकिन रास्ता
अपना—अपना चुन
लेना पड़ता है।
क्या आपको
प्रीतिकर
लगेगा।
प्रतिपल तोड़ते
जाना
प्रीतिकर
लगेगा, या प्रतिपल
शुद्ध करते
जाना
प्रीतिकर
लगेगा।
श्रेष्ठतर
मेरा बनाना
उचित लगेगा कि
मेरे को जड़ से
ही तोड़ देना
ही उचित लगेगा।
इसकी
जांच भी
अत्यंत कठिन
है। इसलिए
साधना में
गुरु का इतना
मूल्य हो गया।
उसकी जांच अति
कठिन है कि
आपके लिए क्या
ठीक होगा।
अकसर तो यह
होता है कि जो
आपके लिए गलत
होगा, वह
आपको ठीक
लगेगा। यह
कठिनाई है। जो
गलत होगा आपके
लिए वह आपको
तत्काल ठीक
लगेगा, क्योंकि
आप गलत है।
गलत आपको
आकर्षित
करेगा तत्काल।
जो
आपको आकर्षित
करे, जरूरी
मत समझ लेना
कि आपके लिए
ठीक है।
होशपूर्वक
प्रयोग करना
पड़े —
होशपूर्वक जो
आप कहते हैं
कि यह मेरे
लिए ठीक है, सौ में
निन्यानबे
मौके तो यह
हैं कि वह
आपके लिए गलत
होगा।
क्योंकि आप
गलत हैं और
आपके आकर्षण
अभी गलत हणै
इसलिए गुरु की
जरूरत पड़ी, ताकि शिष्य
अपनी
आत्महत्या न
कर ले। शिष्य
आत्महत्याएं
करते हैं। और
कई बार तो
बहुत मजा होता
है, शिष्य
गुरु को भी
जाकर बताते
हैं कि मेरे
लिए क्या उचित
है। आप ऐसा
करवाइए, यह
मेरे लिये
उचित है।
वे खुद
ही अनुचित हैं, वे जो भी
चुनेंगे वह
अनुचित होगा।
उचित नहीं हो
सकता। और जो
उचित है, वह
उन्हें
विपरीत मालूम
पड़ेगा कि यह
तो विपरीत है,
यह मुझसे न
हो सकेगा।
इसलिए गुरु की
जरूरत पड़ी कि
वह सोच सके, निदान कर
सके, खोज
सके कि क्या
ठीक होगा; निष्पक्ष
दूर खड़े होकर
पहचान सके कि
क्या ठीक होगा।
आप खुद
ही उलझे हुए
हैं, आप पहचान
न सकेंगे। आप
खुद ही बीमार
हैं, अपनी
बीमारी का
निदान करना
जरा मुश्किल
हो जाता है।
क्योंकि मन
बीमारी की वजह
से बेचैन होता
है। मन जल्दी
ठीक होने के
लिए अधैर्य से
भरा होता है।
मन किसी भी
तरह बीमारी
इसी वक्त
समाप्त हो जाये,
इसमें
ज्यादा
उत्सुक होता
है। बीमारी
क्या है, इसकी
शांति से
परीक्षा की
जाये, इसमें
उत्सुक नहीं
होता। इसलिए
बीमार अपना
निदान नहीं कर
पाता है।
लेकिन, बिना
गुरु के भी
चला जा सकता
है। तब एक ही
रास्ता है, 'ट्रायल ऐण्ड
एरर'। एक
ही रास्ता है
कि मूल करें।
और सुधार करें,
प्रयोग करे।
और जो आपको
ठीक लगे उस पर
प्रयोग करें।
एक वर्ष तय कर
लें कि इस पर
प्रयोग करता
ही रहूंगा फिर
इसके परिणाम
देखें, वे
दुखद हैं, अप्रीतिकर
हैं, अहंकार
को घना करते
हैं। दूसरा
प्रयोग करें,
छोड़ दें।
एक
उपाय है भूल—चूक, अनुभव।
दूसरा उपाय है,
जो भूल—चूक
से गुजरा हो, अनुभव तक पहुंचा
हो, उससे
पूछ लें।
दोनों की सुविधाएं
हैं, दोनों
के खतरे हैं।
अब
सूत्र।
'सदा
अप्रमादी, सावधान
रहते हुए, असत्य
को त्याग कर
हितकारी सत्य
वचन ही बोलने चाहिए।
इस प्रकार का
सत्य बोलना
सदा बड़ा कठिन
है।'
बड़ी
शर्तें
महावीर ने
सत्य में
लगायी है।
सत्य बोलना
चाहिए, इतना महावीर
कह सकते थे।
इतना नहीं कहां।
महावीर पर्त—पर्त
चीजों को
उघाड़ने में
अति कुशल हैं।
इतना काफी था
कि सत्य वचन
बोलना चाहिए।
इससे ज्यादा
और क्या
जोड्ने की
जरूरत है? लेकिन
महावीर आदमी
को भलीभांति
जानते है, और
आदमी इतना
उपद्रवी है कि
सत्य बोलना
चाहिए, इसका
दुरुपयोग कर सकता
है। इसलिए
बहुत—सी
शर्तें
लगायीं।
सदा
अप्रमादी, होशपूर्वक
सत्य बोलना
चाहिए।
कई बार
आप सत्य बोलते
हैं सिर्फ
दूसरे को चोट पहुंचाने
के लिए। असत्य
ही बुरा होता
है, ऐसा
नहीं, सत्य
भी बुरा होता
है बुरे आदमी
के हाथ में।
आप कई बार
सत्य इसलिए
बोलते हैं कि
उससे हिंसा
करने में
आसानी होती है।
आप अंधे आदमी
को कह देते
हैं, अंधा।
सत्य है
बिलकुल। चोर
को कह देते
हैं, चोर।
पापी को कह
देते हैं, पापी।
सत्य है
बिलकुल।
लेकिन महावीर
कहेंगे, बोलना
नहीं था।
क्योंकि
जब आप किसी को
चोर कह रहे
हैं तो
वस्तुत: आप
उसकी चोरी की
तरफ इंगित
करना चाहते
हैं, या
चोर कह कर उसे
अपमानित करना
चाहते है? वस्तुत:
आपको प्रयोजन
है सत्य बोलने
से? या एक
आदमी को
अपमानित करने
से? वस्तुत:
जब आप किसी को
चोर कहते है, तो आपको पका
है कि वह चोर
है? या
आपको मजा आ
रहा है किसी
को चोर कहने
में? क्योंकि
जब भी हम किसी
को चोर कहते
हैं, तो
भीतर लगता है
कि हम चोर
नहीं हैं। वह
जो रस मिल रहा
है, वह
सत्य का रस है?
वह सत्य का
रस नहीं है।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, 'सदा
अप्रमादी'।
पहली शर्त
होशपूर्वक
सत्य बोलना।
बेहोशी में
बोला गया सत्य,
असत्य से भी
बदतर हो सकता
है। सावधान
रहते हुए, एक—एक
बात को देखते
हुए, सोचते
हुए
सावधानीपूर्वक,
ऐसे मत बोल
देना तत्काल।
बोलने के पहले
क्षणभर चेतना
को सजग कर
लेना, रुक
जाना, ठहर
जाना, सब
पहलुओं से देख
लेना ऊपर उठकर;
अपने से, परिस्थिति
सावधान
का अर्थ है, क्या
होगा परिणाम?
क्या है
हेतु? जब
आप बोल रहे
हैं सत्य, क्या
है हेतु? क्यों
बोल रहे हैं? क्या परिणाम
की इच्छा है? बोलकर क्या
चाहते हैं कि
हो जाये?
सत्य
बोलकर आप किसी
को फंसा भी दे
सकते हैं।
सत्य बोलकर..
आपके भीतर
क्या हेतु है, क्या
मोटिव? क्योंकि
महावीर का
सारा जोर इस
बात पर है कि
पाप और पुण्य
कृत्य में
नहीं होते, हेतु में
होते हैं।
मोटिव में
होते हैं, एक्ट
में नहीं होते।
एक मां
अपने बेटे को
चांटा माररही
है। इस चांटा
मारने में.. और
एक दुश्मन एक
दुश्मन को
चांटा मार रहा
है, फिजियोलाजिकली
शरीर के अर्थ
में कोई भेद
नहीं है। और
अगर एक वैज्ञानिक
मशीन पर दोनों
के चांटे को
तौला जाये तो
मशीन बता नहीं
सकेगी चांटे
का वजन बता
देगी, कितने
जोर से पड़ा, कितनी चोट
पड़ी, कितनी
शक्ति थी
चांटे में, कितनी
विद्युत थी, सब बता देगी।
लेकिन यह नहीं
बता पायेगी कि
हेतु क्या था?
लेकिन मां
के द्वारा
मारा गया
चांटा, दुश्मन
के द्वारा
मारा गया
चांटा, दोनों
एक से कृत्य
है लेकिन एक
से हेतु नहीं
हैं।
जरूरी
नहीं है कि
मां का चांटा
भी हर बार मां
का ही चांटा
हो। कभी—कभी
मां का चांटा
भी दुश्मन का
चांटा होता है।
इसलिए मां भी
दो बार चांटा
मारे तो जरूरी
नहीं है कि
हेतु एक ही हो।
इसलिए माताएं
ऐसा न समझें
कि हर वक्त
चांटा मार रही
हैं, तो
हेतु मां का
होता है। सौ
में
निन्यानबे
मौके पर
दुश्मन का
होता है। मां
भी इसलिए
चांटा नहीं
मारती कि लड़का
शैतानी कर रहा
है, मां भी
इसलिए चांटा
मारती है कि
लड़का मेरी नहीं
मान रहा है।
शैतानी बड़ा
सवाल नहीं है,
सवाल मेरी
आज्ञा है, सवाल
मेरा अधिकार
है, सवाल
मेरा अहंकार
है।
तो मां
का चांटा भी
सदा मां का
नहीं होता।
महावीर मानते
हैं कि मोटिव
क्या है? भीतर क्या
है? किस
कारण?
इस
फर्क को समझ
लें।
एक
बच्चा शैतानी
कर रहा है और
मां ने चांटा
मारा। आप कहेंगे, कारण साफ
है कि बच्चा
शैतानी कर रहा
था। लेकिन यह
हेतु नहीं है,
यह कारण
नहीं है कि
बच्चा शैतानी
कर रहा था।
हेतु आपके
भीतर होगा, क्योंकि कल
भी यह बच्चा
इसी वक्त
शैतानी कर रहा
था, लेकिन
आपने नहीं
मारा। आज मारा।
कल भी
परिस्थिति
यही थी। परसों
भी यह बच्चा
शैतानी कर रहा
था। लेकिन तब
आपने
पड़ोसियों से
उसकी प्रशंसा
की कि मेरा
बच्चा बडा
शैतान है। कल
मारा नहीं, देख लिया, आज मारा।
क्या बात है? हेतु बदल
रहे है, कारण
तो तीनों में
एक हैं; आपके
भीतर हेतु बदल
रहे हैं। जब
आपने पड़ोसी से
कहां, मेरा
बच्चा बड़ा
शैतान है, तब
आपके अहंकार
को तृप्ति मिल
रही थी। इस
बच्चे की
शैतानी आपको
रस पूर्ण
मालूम पड़ी। कल
बच्चा शैतानी
कर रहा था, आप
अपने भीतर
खोये थे, आप
अपने में लीन
थे। इस बच्चे
की शैतानी ने
आपको कोई चोट
नहीं पहुंचाई।
आज सुबह ही
पति से या
पत्नी से कलह
हो गयी है और आप
आपने भीतर
नहीं जा पाते
और क्रोध उबल
रहा है, और
यह बच्चा
शैतानी कर रहा
है। चांटा पड़
जाता है।
यह
चांटा आपके
भीतर के क्रोध
के हेतु से
उपजता है। यह
बच्चे का कारण
सिर्फ बहाना
है, खूंटी
है, कोट
आपके भीतर से
आकर याता है।
महावीर कहते
हैं, सावधानीपूर्वक।
उसका अर्थ है—हेतु
को देखते हुए
कि मैं क्यों
सच बोल रहा
हूं।
'सावधान
रहते हुए
असत्य को
त्याग कर
हितकारी सत्य
वचन ही बोलने
चाहिए।’
सावधान
रहें और जो भी
असत्य मालूम
पड़े, उसे
त्याग दें।
कोई भी मूल्य
हो, महावीर
मूल्य नहीं
मानते। साधक
के लिए एक ही
मूल्य है, उसकी
आत्मा का
निर्माण, सृजन।
कोई भी कीमत
हो, अप्रमाद
से
सावधानीपूर्वक
हेतु की
परीक्षा करके,
जो भी असत्य
है, उसे
तत्काल छोड़
दें।
यह
निगेटिव बात
हुई, नकारात्मक,
असत्य को
छोड़ दें। और
इसके बाद वे
कहते हैं
हितकारी सत्य
वचन ही बोलें।
अभी सत्य वचन
में फिर एक
शर्त है, वह
यह कि वह
दूसरे के हित
में हो।
आपके
भीतर कोई हेतु
न हो बुरा, यह भी
काफी नहीं है।
क्योंकि मेरे
भीतर कोई हेतु
बुरा न हो, फिर
भी आपका अहित
हो जाये। तो
महावीर कहते
है, वैसा
जो दूसरे का
अहित कर दे
वैसा सत्य भी
नहीं। बडी
शर्तें हो
गयीं। असत्य
का त्याग सीधी
बात न रही।
असत्य के त्याग
में असावधानी
का त्याग हो
गया। प्रमाद
का त्याग हो
गया। और दूसरे
के अहित का भी
त्याग हो गया,
और तब जो
सत्य बचेगा
वही बोलें। आप
मौन हो
जायेंगे।
बोलने को शायद
कुछ बचेगा
नहीं।
महावीर
बारह वर्ष तक
मौन रहे, इस साधना
में। न
बोलेंगे वे।
हम कहेंगे
हद्द हो गयी।
अगर सत्य भी
बोलना है, तो
भी बोलने को
बहुत बातें है।
आप गलती में
हैं। अगर
महावीर जैसी
निकट कसौटी
आपके पास हो
तो मौन हो
जाना पड़ेगा।
क्योंकि
असत्य बहुत
प्रकार के हैं।
पहले तो असत्य
ऐसे है, जिनको
आप सत्य माने
हुए बैठे हैं,
जो सत्य हैं
नहीं। और अगर
आपके समाज ने
भी उनको माना
है तो आपको
पता ही नहीं
चलता कि ये
असत्य है।
आप
कहते हैं, ईश्वर है।
आपको पता है? महावीर नहीं
बोलेंगे। वे
कहेंगे यह
मेरे लिए
असत्य है, मुझे
पता नहीं।
लेकिन जिस
समाज में आप
पैदा हुए हैं,
अगर यह
असत्य कि
ईश्वर है—असत्य
इसलिए नहीं कि
ईश्वर नहीं है,
असत्य
इसलिए कि बिना
जाने इसे
मानना असत्य
है। जिस समाज
में आप पैदा
हुए हैं, वह
मानता है कि
ईश्वर है, तो
आप भी मानते
है कि ईश्वर
है। आपने फिर
कभी लौटकर
सोचा ही नहीं
कि है भी?
जब मैं
मंदिर के
सामने हाथ जोड़
रहा हूं तो यह
हाथ जोड़ना तब
तक असत्य है
जब तक मुझे ईश्वर
का कोई पता न
हो। महावीर
मंदिर के
सामने हाथ न
जोड़ेंगे।
क्योंकि
महावीर कहते
हैं, सामूहिक
असत्य है, कलैक्टिव
अनट्रुथ। जब
पूरा समूह
बोलता है, तो
आपको पता ही
नहीं चलता।
बल्कि पता ही
तब चलता है, जब समूह में
कोई बगावती
पैदा हो जाता
है। वह कहता
है, कहां
है ईश्वर? तब
आपको क्रोध
आता है।
अगर
आपके पास सत्य
है तो उसे
दिखा देना
चाहिए। क्रोध
का कोई कारण
नहीं। लेकिन
जब कोई पूछता
है, कहां
है ईश्वर? तो
आप दिखाने को
उत्सुक नहीं
होते, उसको
मारने को
उत्सुक हो
जाते हैं। यह
आपकी वृत्ति
बताती है, क्योंकि
क्रोध सदा
असत्य से पैदा
हेता है, सत्य
से पैदा नहीं
होता। अगर
ईश्वर है, तो
दिखा दो। इस
गरीब ने कुछ
गलत नहीं पूछा
है। एक
जिज्ञासा की
है। लेकिन
नास्तिक को हम
सदा मारने को
उत्सुक होते
हैं। इसका
मतलब है कि
आस्तिकता
झूठी है। होकस—पोकस
है। उसमें कुछ
नहीं है, ऊपरी
ढांचा है। जरा
ही कोई उंगली
डाल देता है
तो भीतर खलबली
मच जाती है।
आप
मानते हैं कि
आपके भीतर
आत्मा है।
आपको पता है? कभी
मुलाकात हुई?
छोड़ो ईश्वर!
ईश्वर बड़ी दूर
है। भीतर
आत्मा बिलकुल
पास है, कहते
हैं हृदय से
भी करीब।
मुहम्मद कहते
हैं कि गले की
फड़कती नस से
भी करीब। इसका
आपको पता है ? यह भी किताब
में पढ़ा है? बड़ा मजेदार
है।
रामकृष्ण
के पास एक दिन
एक आदमी आया।
रामकृष्ण ने कहां
कि सुना है कि
पड़ोस में
तुम्हारे
मकान गिर गया।
उसने कहां, मैंने
सुबह का अखबार
अभी देखा नहीं।
जरा जाता हूं
देखता हूं।
पड़ोसी का मकान
गिरे, तो
भी अखबार में
ही पता चलता
है। मगर यह भी
ठीक है, क्योंकि
पड़ोस अब कोई
छोटी बात नहीं
है, बड़ी
बात है। और
पड़ोस पुराने
गांव से भी
बड़ी बात है।
नहीं पता चला
होगा। लेकिन
आपको आपकी
आत्मा का पता
भी अखबार में
पढने से चलता
है कि है, कि
नहीं है।
अखबार
में एक लेख
निकल जाये कि
आत्मा नहीं है, तो आपको
भी शक आ जाता
है। किताब में
पढ़ लें कि
आत्मा है, आपको
भरोसा आ जाता
है। लोग पूछते
फिरते हैं, आत्मा है? बड़े मजे की
बात है, और
सब चीजें पूछी
जा सकती हैं
दूसरे से। यह
भी दूसरे से
पूछने की बात
है? आप यह
पूछ रहे हैं, मैं हूं? कोई
मुझे बता दे
कि मैं हूं।
महावीर
कहते हैं, यह भी
असत्य है। मत
कहो कि मैं
हूं जब तक
तुम्हें पता न
चल जाये। मत
कहो कि भीतर
आत्मा है, जब
तक तुम्हें
पता न चल जाये।
कौन जाने, सिर्फ
हड्डी मांस का
जोड़ हो, और
यह बोलना और
चालना सिर्फ
एक बाई
प्रोडेक्ट हो।
जैसा कि
चार्वाक ने कहां
है कि पान में
हम पांच चीजें
मिला लेते हैं,
फिर होठों
पर लाली आ
जाती है। वह
लाली बाई
प्रोडेक्ट है।
क्योंकि उन
पांच चीजों को
अलग—अलग मुंह
में ले जायें
तो लाली नहीं
आती। पांचों
को मिला दें
तो पांचों के
मिलने से लाली
पैदा हो जाती
है! लेकिन
लाली कोई चीज
नहीं है, पांचों
का दान है।
पांचों को अलग
कर लें, लाली
खो जाती है।
पांच को अलग
करके आप यह
नहीं कह सकते
कि लाली अब
कहीं है। छिप
गयी, अदृश्य
हो गयी, सिर्फ
खो जाती है।
तो
चार्वाक ने कहां
कि यह शरीर भी
पांच तत्वों
का जोड़ है।
इसमें जो
आत्मा दिखायी
पड़ती है, वह बाई प्रोडेक्ट
है, उत्पति
है। वह कोई
तत्व नहीं है।
तत्व तो पांच
हैं। उनके जोड़
से, उनके
संयोग से
आत्मा दिखायी
पड़ती है।
पांचों
तत्वों को अलग
कर लें आत्मा
बचती नहीं। खो
जाती है।
समाप्त हो
जाती है।
तो
महावीर कहते
हैं, कौन
जाने, चार्वाक
सच हो। तो झूठ
मत बोलें कि
मैं आत्मा हूं
कि मैं अमर हूं
यह मत बोलें।
मत कहें कि
पुर्नजन्म है,
जब तक जान न
लें। मत कहें
कि पीछे जन्म
थे, जब तक
जान न लें। मत
कहें कि पुण्य
का फल सदा ठीक
होता है। मत
कहें कि पाप
सदा दुख में
ले जाता है।
जब तक जान न
लें।
अगर
सत्य की ऐसी
बात हो तो चुप
हो जाना पड़े।
सामूहिक
असत्य है। फिर
रोजमर्रा के
कामचलाऊ
असत्य है, जिनको हम
कभी सोचते
नहीं कि असत्य
हैं।
रास्ते
पर एक आदमी
मिला, पूछते
है, कैसे
हैं, कहते
हैं बड़े मजे
में हैं। कभी
नहीं सोचते कि
क्या कहां! बड़े
मजे में हैं!
एक दफा फिर से
सोचें, बड़े
मजे में है? कहीं कोई
भीतर समर्थन न
मिलेगा।
लेकिन जब कोई
पूछता है, रास्ते
पर, कैसे
हैं? तो
कहते है, बड़े
मजे में हैं।
और जब कहते है,
बड़े मजे में
हैं, तो
पैर की चाल
बदल जाती है।
टाई वगैरह ठीक
करके चलने
लगते हैं। ऐसा
लगता भी है कि
बड़े मजे में
है।
दूसरे
से कहने में
ऐसा लगता भी
है। चार लोग
पूछ लें तो
दिल खुश हो
जाता है। कोई
न पूछे, दिल उदास हो
जाता है। जब
कोई आदमी कहता
है, हे! हलो!
भीतर गुदगुदी
हो जाती है।
लगता भी है उस
क्षण में कि
जिंदगी बड़े
मजे में जा
रही है। हम
दूसरे से ही
कह रहे हों, ऐसा नहीं है,
इसलिए ये
कामचलाऊ
असत्य हैं। ये
उपयोगी है, एक दूसरे को
हम ऐसे सहारा
देते रहते हैं
उसके छो में।
महावीर
कहते है, काम चलाऊ
असत्य भी नहीं।
कुछ भी हम
बोलते रहते है।
आदतन असत्य
हैं—आदतन। कोई
कारण नहीं
होता, कोई
हेतु नहीं
होता, आदतन
बोलते रहते है।
मेरे
एक प्रोफेसर
थे। किसी भी
किताब का नाम
लो, वे
सदा कहते, हां
मैने पढ़ी थी, पंद्रह—बीस
साल हो गये।
यह आदतन था।
क्योंकि
पंद्रह—बीस
साल वे सदा
कहते थे। सारी
किताबें
उन्होंने
पंद्रह—बीस
साल पहले नहीं
पढ़ी होंगी।
कोई सोलह साल
पहले पढ़ी होगी,
कोई दस साल
पहले पढ़ी होगी,
कोई पचास
साल पहले पढ़ी
होंगी। बूढ़े
आदमी थे, लेकिन
वे सदा कहते, पंद्रह—बीस
साल पहले
मैंने यह
किताब पढ़ी थी।
यह तकिया कलाम
था — आदतन।
फिर
मैंने ऐसी—ऐसी
किताबों के
नाम लिए जो कि
हैं ही नहीं, पर वे
उनके लिए भी
कहते कि हां
मैंने पढ़ी थी,
पंद्रह—बीस
साल पहले। तब
मुझे पता चला,
कि वे झूठ
नहीं बोलते है,
आदतन झूठ
बोलते हैं।
ऐसा उनकी आंख
से भी पता
नहीं चलता था
कि वे झूठ बोल
रहे है। और
झूठ बोलने का
कोई कारण भी
नहीं था। कोई
उन किताबों को
पढ़ा हो, न
पढ़ा हो, इससे
उनकी
प्रतिष्ठा
में भी फर्क
नहीं पड़ता था।
वे काफी
प्रतिष्ठित
थे।
एक दिन
मैंने उनको
जाकर कहां कि
यह किताब तो
है ही नहीं, जिसको
आपने पंद्रह—बीस
साल पहले पढ़ा
था। न तो यह
कोई लेखक है, न यह कोई
किताब है। तो
उन्हें होश
आया।
उन्होंने कहां,
कि वह मेरी
आदत हो गयी है।
पर यह
आदत क्यों हो
गयी है? इस आदत के
पीछे कहीं
गहरा कोई हेतु
है! ऐसी कोई किताब
हो कैसे सकती
है जो
प्रोफेसर ने न
पढ़ी हो। वह
हेतु है, बहुत
गहरा दब गया
वर्षों पीछे।
लेकिन अब आदतन
है।
आप
बहुत—सी बातें
आदतन बोल रहे
हैं। जो असत्य
हैं।
महावीर
बारह साल तक
चुप हो गये।
फिर ऐसी बातें
है, जो अनिश्चित
हैं। इसलिए जब
आप कह देते है
कि फलां आदमी
पापी है, तो
आप गलत बात कह
रहे हैं; क्योंकि
आपको जो खबर
है वह पुरानी
पड़ चुकी है।
पापी इस बीच
पुण्यात्मा
हो गया हो।
क्योंकि पापी
कोई ठहरी हुई
बात नहीं है, जो आज सुबह
पापी था, सांझ
साधु हो सकता
है। और जो आज
सुबह परम साधु
था, सांझ
पापी हो सकता
है।
जिंदगी
तरल है, लेकिन शब्द
फिक्स होते है।
आप कहते है
फलां आदमी
पापी है।
महावीर न
कहेंगे। वे
कहेंगे कि
आदमी एक
प्रवाह है। तो
महावीर
कहेंगे स्वात।
शायद पापी हो,
शायद
पुण्यात्मा
हो।
फिर जो
आदमी पापी है
वह पाप करने
में भी पूरा पापी
नहीं होता।
उसके पाप में
भी पुण्य का
हिस्सा हो
सकता है, और जो आदमी
पुण्य कर रहा
है, उसके
पुण्य में भी
पाप का हिस्सा
हो सकता है।
आदमी
बड़ी घटना है, कृत्य
बड़ी छोटी बात
है। चोर भी
आपस में सत्य
बोलते हैं और
ईमानदार होते
है। और जिनको
हम साधु कहते
हैं, उनसे
ज्यादा सत्य
बोलते हैं आपस
में, और
ज्यादा
ईमानदार होते
हैं। दस
साधुओं को पास
बिठाना
मुश्किल है, दस चोर गले
मिल जाते हैं।
दस साधुओं को
इकट्ठा करना
ही मुश्किल है।
पहले तो इस पर
ही झगड़ा हो
जायेगा कि कौन
कहां बैठे; कौन नीचे
बैठे, कौन
ऊपर बैठे।
किसी चोर में
कभी झगड़ा नहीं
हुआ है इस बात
पर।
साधु
के भीतर भी
असाधु छिपा है, चोर के
भीतर भी साधु
छिपा है। चोर
की चोरी बाहर
है, पीछे
साधु छिपा है।
चोरी भी करनी
हो तो वचन
मानना पड़ता है,
नियम मानने
पड़ते हैं, सच्चाई
रखनी पड़ती है,
ईमानदारी
रखनी पड़ती है।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला
नसरुद्दीन पर
चोरी का एक
मुकदमा चला। पकड़
इसलिए गया कि
वह सात बार एक
ही रात में एक
दुकान में
घुसा। सातवीं
बार पकड़ा गया।
मजिस्ट्रेट
ने उससे पूछा
कि नसरुद्दीन, चोरी भी
हमने बहुत
देखी, मुकदमे
भी बहुत देखे।
एक ही रात में
सात बार घुसना,
एक ही मकान
में, मामला
क्या है? अगर
ज्यादा ही
सामान ढोना था,
तो संगी
साथी क्यों
नहीं रखते हो?
अकेले ही
सात दफा!
नसरुद्दीन
ने कहां, 'बड़ा मुश्किल
है। लोग इतने
बेईमान हो गये
हैं कि किसी
को संगी साथी
बनाना चोरी तक
में मुश्किल
हो गया है। एक
ओर दुकान भी
कपड़े की, जो
भी चुरा कर ले
गया, पली
ने कहां, नापसंद
है। फिर वापस।
रात भर कपड़े
ढोता रहा, उसमें
ही फंसा। और
लोग इतने
बेईमान हो गये
हैं कि अकेले
ही चोरी करनी
पड़ती है।
किसी का भरोसा
नहीं किया जा
सकता, चोरी
तक में।’ साधुओं
में तो कभी
भरोसा आपस में
रहा नहीं, लेकिन
चोरों में सदा
रहा है।
और चोर
कभी चोर को
धोखा नहीं
देता। चोरी का
भी कोड़ है।
जैसे हिंदू कोड़
बिल है वैसा
चोरों का कोड़
है। उनका अपना
नियम है, वे कभी धोखा
नहीं देते।
महावीर
कहते हैं, जब हम
किसी को चोर
कहते हैं, तो
हम पूरा ही
चोर कह देते
है, जो कि
गलत है। जब हम
किसी को साधु
कहते हैं तो
पूरा ही साधु
कह देते हैं
जो कि गलत है।
जीवन मिश्रण
है, सभी
चीजें मिली—जुली
हैं। मत कहो।
बड़ा मुश्किल
है। फिर क्या
बोलिएगा? क्या
बोलिएगा।
एक
आदमी कहता है, सुबह
सूरज निकला है,
बडा सुंदर
है। यह सत्य
है? मुश्किल
है कहना, क्योंकि
यह सत्य निजी
सत्य है। और
एक का निजी
सत्य दूसरे का
निजी सत्य न
भी हो। जिसका
बच्चा आज सुबह
मर गया है, सूरज
आज उसे सुंदर
नहीं मालूम
पड़ेगा। तो
सूरज सुंदर है,
यह निजी
सत्य है। यह
एकक सत्य नहीं
है। जिसका
बच्चा मर गया
है वह रो रहा
है, और आज
वह चाहता है
कि सूरज उगे
ही न। अब कभी
सूरज न उगे।
अब दिन कभी हो
ही न। अब
अंधेरा ही छा
जाये, और
सब रात ही हो
जाये। अब यह
सूरज उसे
दुश्मन की तरह
मालूम होगा, जब सुबह अली।
यह सुंदर नहीं
हो सकता।
सूरज
कब सुंदर होता
है? जब
आपके भीतर
सूरज को सुंदर
बनाने की कोई
घटना घटती है।
सूरज असुंदर
हो जाता है, जब आपके
भीतर सूरज को
अंधेरा करने
की कोई घटना
घट जाती है।
आप
अपने को ही
फैलाकर जगत
में देखते
रहते हैं। तो
जो आप देखते
हैं वह निजी
सत्य है, प्राइवेट
ट्रुथ। और
सत्य कभी निजी
नहीं होता।
असत्य निजी
होते है। सत्य
तो सार्वजनिक
होता है, यूनिवर्सल
होता है।
सार्वभौम
होता है।
इसलिए महावीर
कहेंगे, शायद
सूरज सुंदर है।
कभी न कहेंगे
कि सूरज सुंदर
है। कहेंगे, शायद, परहेप्स।
क्यों? महावीर
एक वचन में भी
ऐसा न कहेंगे
कभी कि ऐसा है।
वे ऐसा कहेंगे,
हो सकता है।
वे यह भी
कहेंगे, इससे
विपरीत भी हो
सकता है।
यह
सूरज हजारों
लाखों लोगों
के लिए निकला
है। कोई दुखी
होगा, सूरज
असुंदर होगा।
कोई सुखी होगा,
सूरज सुंदर
होगा।
कोई
चिंतित होगा, सूरज
दिखाई ही नहीं
पड़ेगा। कोई
कविता से भरा
होगा और सूरज
पूरा जीवन और
आत्मा बन
जायेगी। कुछ कहां
नहीं जा सकता,
यह निजी
सत्य है।
महावीर
बारह वर्ष तक
चुप रह गये, क्योंकि
सत्य बोलना
बहुत कठिन है।
इसलिए महावीर
कहते हैं, इस
प्रकार का
सत्य बोलना
सदा बड़ा कठिन
है। ऐसा सत्य
जो बोलना
चाहता हो उसे
लंबे मौन से गुजरना
पड़ेगा। गहरे
परीक्षण से
गुजरना पड़ेगा।
और तब महावीर
ने बोला।
इसलिए
अगर जैन यह कहते
हैं कि महावीर
जैसी वाणी फिर
नहीं बोली गयी
तो इसका कारण
है। महावीर
जैसा मौन भी
कभी नहीं साधा
गया। इसलिए
महावीर जैसी
वाणी भी फिर
नहीं बोली गयी।
इतने मौन से, इतने
परीक्षण से, इतनी
कठिनाइयों से,
इतनी
कसौटियों से,
गुजरकर जो
आदमी बोलने को
राजी हुआ, उसने
जो वह बोला है
वह बहुत गहरा
और मूल्य का
ही है। नहीं
तो वह बोलता
ही नहीं।
'श्रेष्ठ
साधु पापमय, निश्रयात्मक,
और दूसरों
को दुख देने
वाली वाणी न
बोले।’ श्रेष्ठ
साधु पापमय, निश्रयात्मक,
सटेंन
बातें न बोले।
ऐसा न कह दे कि
वह आदमी चोर
है। इतना
निश्रयात्मक
होना असत्य की
तरफ ले जाता है।
यह बड़ी
अदभुत बात है, यह थोड़ा
सोच लेने जैसी
बात है। हम तो
कहेंगे कि
सत्य निश्रय
होता है।
लेकिन महावीर
कहते हैं, सत्य
इतना बड़ा है
कि हमारे किसी
निश्चित
वाक्य में
समाहित नहीं
होता। जब हम
कहते हैं, फलां
आदमी पैदा हुआ,
तब यह अधूरा
सत्य है, क्योंकि
उस आदमी ने
मरना शुरूकर
दिया।
संत
आस्तीन ने
लिखा है, उसका बाप मर
रहा है। मरण
शैय्या पर पड़ा
है। डाक्टर
इलाज कर रहे
हैं। आखिर
इलाज काम नहीं
आया। एक दिन
तो काम आता
नहीं। कभी न
कभी डाक्टर
हारता है, और
मौत जीतती है।
वह लड़ाई हारनेवाली
ही है। डाक्टर
बीच—बीच में
कितना ही
जीतता रहे, आखिर में
हारेगा ही। उस
लड़ाई में
अंतिम जीत
डाक्टर के हाथ
में नहीं है, सदा मौत के
हाथ में है।
इसलिए
मामला ऐसा है, जैसे एक
बिल्ली को
आपने चूहा दे
दिया, वह
उससे खेल रही
है। वह छोड़
देती है, क्योंकि
छोड़ने में मजा
आता है। फिर पकड़
लेती है। फिर
छोड़ देती है।
उससे चूहा
चौकता है, भागता
है, और
बिल्ली निशित
है, क्योंकि
अंत में वह पकड़
ही लेगी। यह
सिर्फ खेल है।
तो मौत
आदमी के साथ
ऐसे ही खेलती
है। कभी छोड़
देती है, जरा बीमारी
ज्यादा
बीमारी छोड़
दी.. .डाक्टर बड़ा
प्रसन्न! मरीज
भी बड़ा
प्रसन्न! और
मौत सबसे
ज्यादा प्रसन्न!
क्योंकि वह
खेल चलता है, क्योंकि जीत
निश्चित है।
इस खेल में
कोई अड़चन नहीं
है। कभी चूहा
बिल्ली से चूक
भी जाये, मौत
से आदमी नहीं
चूकता।
डाक्टर
इकट्ठे हुए, सारे
गांव के
डाक्टर
इकट्ठे हो गए
और उन्होंने कहां,
नाउ वी आर
हेल्पलेस।
नाउ नथिंग कैन
बी ड़न। नाउ
दिस मैन कैन
नाट रिकवर। अब
कुछ हो सकता
नहीं, अब
यह आदमी मरेगा
ही। नाउ दिस
मैन कैन नाट
रिकवर।
अगस्तीन
ने अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि उस दिन
मुझे पता चला
कि जो बात
डाक्टर मरते
वक्त कहते हैं
यह तो जब
बच्चा पैदा
होता है तभी
कहनी चाहिए, नाउ दिस
चाइल्ड कैन
नाट रिकवर। यह
बच्चा जो पैदा
हो गया, अब
नहीं बच सकता।
उसी दिन कह
देना चाहिए कि
नाउ दिस
चाइल्ड कैन नाट
रिकवर। पैदा
होने के बाद
मौत से बच
सकते है? फिजूल
इतने दिन
रुकते हैं
कहने के लिए
कि नाउ दिस
मैन कैन नाट
रिकवर। उसी दिन
कह देना चाहिए।
महावीर
कहते है, निश्रयात्मक
मत होना, अगर
सत्य होना है
तो। सत्य होने
का मतलब ही यह
है कि जीवन है
अनंत पहलुओं वाला,
और जब भी हम
बोलते है, एक
पहलू जाहिर
होता है। एक
पहलू अनंत
पहलुओं में से।
अगर हम उस
पहलू को इतना
निश्रय से
बोलते है कि ऐसा
मालूम होने
लगे कि यही
पूर्ण सत्य है,
तो असत्य हो
गया।
इसलिए
महावीर ने
सप्त—भंगी
निर्मित की—बोलने
का सात अंगों
वाला ढंग। तो
महावीर से आप
एक सवाल पूछिए
तो वे सात
जवाब देते थे।
क्योंकि वे
कहते कि... और
सात जवाब
सुनते—सुनते
आपकी बुद्धि
चकरा जाए, और फिर
आपको एक भी
जवाब समझ में
न आये।
क्योंकि आप
पूछ रहे हैं
कि यह आदमी
जिंदा है कि
मर गया। अब यह
साफ कहना
चाहिए कि हां,
मर गया कि
हां, जिंदा
है, इसमें
सात का क्या
सवाल है।
लेकिन महावीर
कहते, स्वात
मर गया, शायद
जिंदा है, शायद
दोनों है।
शायद दोनों
नहीं है। ऐसा
वे सात भंगियों
में उत्तर
देते। आपको
कुछ समझ में न
पड़ता। लेकिन
महावीर सत्य
बोलने की अथक
चेष्टा किए हैं,
ऐसी चेष्टा
किसी आदमी ने
पृथ्वी पर कभी
नहीं की।
लेकिन
सत्य बोलने की
चेष्टा अति
जटिल मामला है।
जब कहते हैं
आप, एक
आदमी मर गया, जरूरी नहीं
है, मर गया
हो। क्योंकि
अभी इसकी छाती
पर मसाज की जा
सकती है। अभी
इसे आक्सीजन
दी जा सकती है।
अभी खून
दौड़ाया जा
सकता है और हो
सकता है यह जिंदा
हो जाये। तो
आपका कहना कि
यह मर गया है, गलत है।
रूस
में पिछले
महायुद्ध में
कोई बीस लोगों
पर प्रयोग
किये गये।
उसमें से छह
जिंदा हो गये, वे अभी भी
जिंदा हैं।
डाक्टर ने लिख
दिया था, वे
मर गये।
मृत्यु
भी कई हिस्सों
में घटित होती
है शरीर में।
मृत्यु कोई
इकहरी घटना
नहीं है। जब
आप मरते हैं
तो पहले आपके
जो बहुत
जरूरी.. .बहुत
जरूरी हिस्से
है, वे
टूटते हैं,ऊपरी
हिस्से टूट
जाते हैं, जो
आपको परिधि पर
संभाले हुए है,
जो आपको
शरीर से जोड़े
हुए है, वे
हिस्से टूटते
है। लेकिन अभी
आप मर नहीं
गये। अभी आप
जिलाये जा
सकते हैं। अभी
अगर हृदय
दूसरा लगाया
जा सके तो आप
फिर जी उठेंगे,
धड़कन फिर
शुरू हो
जायेगी। लेकिन
यह हो जाना
चाहिए छह
सेकेंड़ के
भीतर। अगर छह
सेकेंड़ पार
हो गये. तो जो
लोग भी हृदय
के टूट जाने
से मरते हैं, हार्ट फेल्योर
से मरते हैं
वे छह सेकेंड़
के भीतर उनमें
से बहुत—से
लोग
पुनरुज्जीवित
हो सकते है, और इस सदी के
भीतर
पुनरुज्जीवित
हो जायेंगे।
लेकिन छह
सेकेंड़ के
भीतर उनका
हृदय बदल दिया
जाना चाहिए।
इसका तो इतना
जल्दी उपाय हो
नहीं सकता, इसका एक ही
उपाय
वैज्ञानिक
सोचते है जो
कि जल्दी
कारगर हो
जायेगा कि एक
एक्सट्रा, स्पेयर
हृदय पहले से
ही लगा रखना
चाहिए। और यह
आटोमेटिक
चेंज होना
चाहिए। जैसे
ही पहला हृदय
बंद हो, दूसरा
धड़कना शुरू हो
जाये, तो
ही छह सेकेंड़
के भीतर यह हो
जायेगा। आदमी
जिंदा रहेगा।
लेकिन अगर छह
सेकेंड़ से
ज्यादा हो गया,
तो
मस्तिष्क के
गहरे तंतु टूट
जाते हैं, उनको
स्थापित करना
मुश्किल है।
और एक दफा वे
टूट जायें तो
फिर हृदय भी
नहीं धड़क सकता।
क्योंकि वह भी
मस्तिष्क की
आज्ञा से ही धड़कता
है। आपको पता
हो आशा का या न
पता हो।
इसलिए
अगर आदमी कोई
पूरे मन से
भाव कर ले
मरने का, तो इसी वक्त
मर सकता है।
या कोई जीवन
की बिलकुल आशा
छोड़ दे इसी
वक्त, तो
मस्तिष्क अगर
आशा छोड़ दे
पूरी तो हृदय
धड़कना बंद कर
देगा, क्योंकि
आशा मिलनी बंद
हो जायेगी।
इसलिए आशावान
लोग ज्यादा जी
लेते है, निराश
लोग जल्दी मर
जाते हैं।
ध्यान
रखना, दुनिया
में सहज
मृत्युएं
बहुत कम होती
है।
स्वाभाविक
मृत्यु बडी
मुश्किल घटना
है। अधिक लोग
आत्महत्या से
मरते हैं—अधिक
लोग। लेकिन जब
कोई छुरा
मारता है, तो
हमें दिखायी
पड़ता है और जब
कोई निराशा
मारता है भीतर,
तो हमें
दिखायी नहीं
पड़ता है। जब
कोई जहर पी
लेता है तो
हमें दिखायी
पड़ता है कि
उसने आत्मघात
कर लिया, बिचारा!
और आप भी
आत्मघात से ही
मरेंगे। सौ
में
निन्यानबे
मौके पर आदमी
आत्मघात से मरता
है।
पशु
मरते हैं
स्वाभाविक
मृभू आदमी
नहीं मरता। मर
नहीं सकता आदमी, क्योंकि
उसके जीवन पर
वह पूरे वक्त
प्रभाव डाल
रहा है—आशा, निराशा, जीना,
नहीं जीना,
वह भीतर से
प्रभावित कर
रहा है। और
जिस दिन मन
पूरा राजी हो
जाता है कि
नहीं, उसी
दिन हृदय की
धड़कन बंद हो
जाती है।
इसलिए अगर
मस्तिष्क के
तंतु टूट गए तो
फिर मुश्किल
है। अभी
मुश्किल है, सौ दो सौ साल
में मुश्किल
नहीं होगा, क्योंकि
मस्तिष्क के
तंतु भी
रिप्लेस, किसी
न किसी दिन
किये जा सकते
हैं। कोई अड़चन
नहीं है। तब
आदमी जिंदा हो
जायेगा।
तो
आदमी कब मरा
हुआ है, कब कहें?
जब तक
शरीर और आत्मा
का संबंध नहीं
टूट जाता तब
तक आदमी मरा
हुआ नहीं है।
और यह संबंध
कब टूटता है, अभी तक तय
नहीं हो सका।
कहीं टूटता है,
लेकिन कब
टूटता है, अभी
तक तय न हो सका।
किसी गहरे
क्षण में जाकर
टूट जाता है, फिर कुछ भी
नहीं किया जा
सकता। फिर मस्तिष्क
बदल डालो, फिर
हृदय बदल डालो,
फिर सारा खून
बदल डालो, फिर
पूरा शरीर बदल
डालो, तो
भी वह लाश ही
होगी।
एक दफा शरीर
और आत्मा का संबंध
टूट जाये तो क्या
शरीर और आत्मा
का संबंध टूट जाये, तब हमें कहना
चाहिए कि आदमी
मर गया? लेकिन
तब भी यह बात
अधूरी है, क्योंकि
मरा कोई भी
नहीं, शरीर
सदा से मरा
हुआ था, वह
मरा हुआ है।
और आत्मा सदा
से अमर थी, वह
अब भी अमर है।
मरा कोई भी
नहीं। तो कब
हम कहें कि
आदमी मर गया!
यह
मैंने एक
उदाहरण के लिए
लिया।
महावीर
कहेंगे, स्वात।
निश्रयात्मक
कुछ मत बोलना,
'एब्सोत्थूटिस्टिक
कुछ मत बोलना।
इसलिए
महावीर शंकर
को पसंद न पड़े।
बुद्ध को भी
पसंद न पड़े।
हिंदुस्तान
में बहुत कम
विचारकों को
पसंद पड़े।
क्योंकि
विचारक का मजा
यह होता है कि
कुछ निशित बात
पता चल जाये, नहीं तो
मजा ही खो
जाता है।
शंकर
कहते है, ब्रह्म है।
महावीर
कहेंगे, स्वात।
शंकर कहेंगे,
माया है।
महावीर
कहेंगे स्वात।
चार्वाक कहता
है, आत्मा
नहीं है।
महावीर कहते
हैं, स्वात।
ईश्वर नहीं है,
महावीर उसे
भी कहेंगे, स्यात। वे
कहते यह हैं
कि हम जो भी
बोल सकते हैं,
जो भी कहां
जा सकता है वह
सदा ही अंश
होगा। और उस
अंश को पूर्ण
मान लेना
असत्य है।
इसलिए महावीर
कहते है, सभी
दृष्टियां
असत्य होती है—सभी
दृष्टियां।
सभी देखने के ढंग
अधूरे होते है,
इसलिए
असत्य होते हैं।
और पूर्ण देखने
का कोई ढंग नहीं
है। क्योंकि
सभी ढंग अधूरे
होंगे।
मै
आपको कही से
भी देखूं वह
अधूरा होगा।
कैसे भी देखूं
वह अधूरा होगा।
इसलिए महावीर कहते
है, पूर्ण
को तो वही देख
सकता है, जो
सब दृष्टियों
से मुक्त हो
गया हो। इसलिए
महावीर के
दर्शन का, 'सम्यक
दर्शन' का
अर्थ है—सब
दृष्टियों से
मुक्त हो जाना।
एक ऐसी स्थिति
में पहुंच
जाना, जहां
कोई दृष्टि
शेष नहीं रह जाती,
देखने का
कोई ढंग शेष
नहीं रह जाता।
तब आदमी पूर्ण
सत्य को जानता
है। लेकिन जान
सकता है, जब
कहेगा, फिर
दृष्टि का उपयोग
करना पड़ेगा।
तब वह फिर
अधूरा हो जायेगा।
इसलिए महावीर
की यह बात समझ
लेने जैसी है।
सत्य
पूरा जाना जा
सकता है, लेकिन कहां
कभी नहीं जा
सकता। जब भी कहां
जायेगा, वह
असत्य हो ही
जायेगा।
इसलिए
सावधानी
बरतना और
निश्रयात्मक
रूप से कुछ भी
मत कहना।
हम तो
असत्य को भी
इतने निश्रय
से कहते हैं
जिसका हिसाब
नहीं। और
महावीर कहते
हैं सत्य को
भी निश्रय सेमत
कहना। हम तो
असत्य को भी बिलकुल
दावे की तरह कहते
है। सच तो यह है
कि जितना बडा
असत्य होता है, उतना जोर से
हम टेबल पीटते
हैं। क्योंकि
सहारा देना
पड़ता है।
जितना असत्य
बोलना हो, उतना
जोर से बोलना
चाहिए। धीमे
बोलो, लोग
समझेंगे, कुछ
गड़बड़ है। जोर
से बोलो। टेबल
को पीटकर बोलो।
सागर
यूइनवर्सिटी
के वाइस
चांसलर थे डा.
गौड़। वे बड़े
वकील थे।
उन्होंने मुझ
से कहां कि
मेरे गुरू ने
मुझे कहां कि
जब तुम्हारे
पास कानूनी
प्रमाण हों
अदलत में, तो धीरे
बोलने से भी
चल जायेगा। जब
तुम्हारे पास
प्रमाण हों
कानूनी, तो
किताबें ले
जाने की और
कानूनों का
उल्लेख करने
की कोई
आवश्यकता
नहीं। जब
तुम्हारे पास
कानूनी
प्रमाण न हों
तो अदालत बड़े—बड़े
ग्रंथ लेकर
पहुंचना। और
जब तुम्हें
पका हो कि
इसके विपरीत
प्रमाण है, तब टेबल को
जितने जोर से
पीट सको, जज
के सामने
पीटना।
जितना
बड़ा असत्य हो, उतने
निश्रय से
बोलना पड़ता है।
नहीं तो आपके
असत्य को कोई
मानेगा कैसे?
इसलिए
असत्य बोलने
के लिए भोली
शक्ल हो, निश्रयवाला
मन हो, आवाज
तेज हो, तो
आप कुशल हो
सकते हैं, नहीं
तो मुश्किल
में पड़ेंगे।
साधु होने के
लिए भोली शक्ल
उतनी आवश्यक
नहीं। इसलिए
अकसर भोली
शक्ल के साधु
खोजना
मुश्किल है, लेकिन भोली
शक्ल के
अपराधी
निरंतर मिल
जायेंगे; क्योंकि
अपराध के लिए
भोली शक्ल
अनिवार्य
जरूरत है! झूठ
बोलने के लिए
और तरह के प्रमाण
चाहिए, हवा
चाहिए।
महावीर
कहते हैं, सत्य को
भी निश्रय से
मत बोलना।
इसलिए महावीर
का बहुत
प्रभाव नहीं
पड़ा। हैरानी
की बात है, महावीर
जैसी ज्वलंत
प्रतिभा के
व्यक्ति का प्रभाव
न्यून पड़ा, न के बराबर
पड़ा। जीसस को
माननेवाली
आधी दुनियां
है। बुद्ध को
माननेवाले
करोड़ों—करोड़ों
लोग हैं।
मोहम्मद को
माननेवाले
करोड़ों—करोड़ों
लोग हैं।
महावीर को
माननेवाला
कोई भी नहीं
है। वह जो
पच्चीस लाख
लोग दिखायी पड़ते
हैं उनको
मानते हुए, वे भी
मजबूरी में।
कोई
माननेवाला
नहीं है।
महावीर
को मानना कठिन
है, क्योंकि
मानने में
गुरु के पास
आदमी जाता है
इसलिए कि हम अनिश्चित
हैं, आप
निश्रयता से
कुछ कहें तो
भरोसा मिले, और महावीर
निश्रय से
बोलते नहीं।
वे कहते है, एक ही बात
निशित है कि निश्चित
रूप से सत्य
बोला नहीं जा
सकता।
तो जो
आदमी आश्वासन
खोजने आया है—और
सभी लोग
आश्वासन
खोजने आते हैं
गुरु के पास —
वह ऐसे गुरु
को कैसे अमान
पलोयगा!
महावीर को मानने
के लिए तो बड़ी
गहन जिज्ञासा
चाहिए, बड़ी गहन
जिज्ञासा।
आश्वासन की
तलाश नहीं, सांत्वना
इसलिए बहुत
थोड़े—से लोग
महावीर को मान
पाये। ज्यादा
लोग कभी भी
मान सकेंगे, यह शक मालूम
पड़ता है।
लेकिन किसी न
किसी दिन जैसे—जैसे
मनुष्य का मन
विस्तीर्ण
होगा और सत्य
के अनंत पहलू
हमें दिखायी
पड़ने शुरू
होंगे, वैसे—वैसे
हमें, निश्रय
का जोर हरि
जायेगा।
निश्रय
कमजोरी है, अनिश्रय बड़ी
प्रज्ञा है।
आइंस्टीन
अनिश्रत है
विज्ञान के
जगत में।
महावीर
अनिश्रत हैं
दर्शन के जगत
में। ये दो
शिखर हैं, अदभुत।
महावीर ने
दर्शन को
जितना दिया
उतना ही आइंस्टीन
ने विज्ञान को
दिया। दोनों अनिश्चित
हैं। महावीर
का नाम है
स्यातवाद, आइंस्टीन
का नाम है
ज़िरलेटिविहटी।
आइंस्टीन
कहता है, कोई
भी सत्य
निरपेक्ष
नहीं है, सापेक्ष
है, तुलना
में है, किसी
की तुलना में
है, सीधा
पूर्ण सत्य
कुछ भी नहीं
है।
विज्ञान
को हम सोचते
थे, बहुत
निश्चित बात,
लेकिन नया
विज्ञान एकदम
अनिश्चित
होता चला जाता
है। मेरी अपनी
समझ यह है कि
जहां भी सत्य
के निकट पहुंचता
है मनुष्य, वहीं अनिश्चित
हो जाता है।
जब हम
दर्शन में
सत्य के निकट
पहुंचे
महावीर के साथ, तो
अनिश्रय हो
गया। स्यात, रिलेटिव, निरपेक्ष
नहीं, सापेक्ष।
कहो, लेकिन
जानकर, कि
अधूरा है। अंश
है, पूरा
नहीं है। और
कहो जानकर कि
उससे विपरीत
भी सही हो
सकता है।
तुम्हारा
वक्तव्य, तुम
जो कहते हो वह बताता
है, लेकिन
किसी का खंड़न
नहीं करता।
विज्ञान
में आइंस्टीन
के साथ हम फिर
दूसरी दिशा से
सत्य के निकट
पहुंचे। सब अनिश्चित
हो गया।
आइंस्टीन ने कहां, कहो, लेकिन
ध्यान रखना कि
सब तुलनात्मक
है। कोई चीज
पूर्ण नहीं है,
सब अधूरा है।
और इसलिए
अनिश्रय
ज्ञान का
अनिवार्य अंग
है। वक्तव्य अनिश्चित
होंगे, अनुभव
निशित हो सकता
है।
सत्य
के लिए इतनी
कठिन शर्तें—क्रोध, लोभ, भय,
हंसी—मजाक
में भी असत्य
नहीं बोलना
चाहिए।
हंसी—मजाक
में भी हम
अहैतुक नहीं
बोलते सत्य, उसमें
हेतु होता है।
अकसर तो जब आप
मजाक करते हैं
किसी का, तो
चोट पहुंचाने
के लिए ही
करते हैं।
इसलिए
बुद्धिमान
आदमी दूसरे का
मजाक न करके, अपना ही
मजाक करता है।
दूसरे पर कोई
मजाक हिंसा हो
सकती है।
यह
मुल्ला
नसरुद्दीन की
मैं इतनी कहांनियां
आपको कहता हूं।
इसकी कहांनियां
खुद के ऊपर
किये गये मजाक
हैं, खुद
के ऊपर किये
गये मजाक है।
हर कहांनी में
मुल्ला खुद ही
फंसता है। खुद
ही छू सिद्ध
होता है। अपने
पर हंस रहा है।
नसरुद्दीन
ने कहां है कि
जो दूसरों पर
हंसता है, वह नासमझ
और जो अपने पर
हंस सकता है, वह समझदार
है।
हम
मजाक भी करते
हैं, तो
उसमें चोट है,
आघात है
किसी के लिए।
फ्रायड़ ने
मजाक पर बड़ी
खोज की है। वह
महावीर से
राजी होता, अगर उसको
पता चलता कि
महावीर ने कहां
है कि मजाक
में भी असत्य
मत बोलना।
फ्रायड़ ने कहां
है, तुम्हारी
सब मजाके
तरकीबें हैं।
तुम जो हिम्मत
से सीधा नहीं
बोल पाते, वह
तुम मजाक से
बोलते हो।
इसलिए
कभी खयाल किया
आपने कि अगर
आप जितनी जोक्स
आपने सुनी हों
उनमें
निन्यानबे
प्रतिशत सेक्स
से संबंधित
क्यों होती है? और जिस
मजाक में
कामवासना न आ
जाये, उसमें
मजाक जैसा भी
मालूम नहीं
पड़ता। क्यों?
क्योंकि
सेक्स के
संबंध में हम
सीधा नहीं बोल
सकते, इसलिए
मजाक से बोलते
हैं। वह झूठ
है हमारा, छिपाया
हुआ। जो हम
सीधा नहीं बोल
सकते, उसे
हम गोल—गोल
घुमा—घुमा कर
बोलते है।
कभी
आपने खयाल
किया कि मजाक
में आप किसको
अपमानित करते
हैं?
समझ
लें कि एक
रास्ते पर एक
राजनीतिक
नेता एक केले
के छिलके पर
फिसलकर गिर
पड़े, तो
आपको ज्यादा
मजा आयेगा, बजाय एक
मजदूर गिर पड़े
तो। क्यों? क्योंकि
राजनीतिक
नेता को आप
नीचे गिराकर
देखने की बड़ी
दिल से इच्छा
रखकर बैठे है।
एक मजदूर गिर
पड़े तो दया भी
आयेगी कि
बेचारा। एक
राजनीतिक गिर
पड़े तो दिल
खुश हो जायेगा।
केला, छिलका
वही है, गिरने
की घटना वही है।
लेकिन
राजनीतिक
नेता गिरता है
तो इतना मजा
क्यों आता है?
बहुत दिनों
से चाहा था कि
गिरे। जो हम न
कर पाये वह
केले के छिलके
ने कर दिखाया।
इसलिए दिल खुश
हो जाता है।
हमारी
मजाक में भी
हमारे हेतु
हैं। हम जब
हंसते है, तब भी
हमारे हेतु है।
हम न तो अकारण
हंस सकते हैं
और न अकारण रो
सकते हैं। सब
जगह हेतु है।
महावीर
कहते है, वहां भी
खोजते रहना, सावधान रहना,
मजाक में भी
असत्य नहीं।
आज
इतना ही रुके
पांच मिनट, कीर्तन
करें।
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