दिनांक 14
जनवरी 1979;
श्री
रजनीश आश्रम, कोरेगांव पार्क
पूना।
प्रश्न
सार:
1--क्या
प्रति स्नेह,
प्रेम,
श्रद्धा से
गुजर कर स्वभावत:
ही भक्ति में
रूपांतरित
होती है?
2--वर्णनातीत
को कहकर क्यों
कोई शांडिल्य
मनुष्यता के
सामने एक पत्थर
धर देता है?
3--क्या
परमात्मा
काअनुभव
प्रत्येक का
अलग-अलग तरह
का है?
4--क्या
प्रार्थनाएं
प्रभु तक
पहुंचती है?
पहला
प्रश्न :
क्या
प्रीति स्नेह, प्रेम,
श्रद्धा से
गुजरकर
स्वभावत ही
भक्ति में रूपांतरित
होती है?
स्वभावत:
और
अनिवार्यत:।
जैसे बीज बोया, सम्यक
ऋतु हो, ठीक
भूमि हो, जल
मिले,
सूर्य की किरण
मिले, तो
स्वभावत: और
अनिवार्यत:
अंकुरित
होगा। बाधाएं
हो, तो
कठिनाई होगी।
भूमि ठीक न हो,
पथरीली हो;
सूरज
उपलब्ध न ही, जल न मिल, तो
बीज अंकुरित
नहीं होगा।
पूरी क्षमता
थी, लेकिन
मार्ग में
चट्टानें पड़
गयीं।
बीज
अंकुरित हो, तो
स्वभावत और
अनिवार्यत:
वृक्ष बनेगा। लेकिन
बाधाएँ हा
गमाती हैं, दुर्घटनाएँ
हो सकती हैं।
कोई पशु आए और
चर जाए। कोई
बागुड न लगाए,
रक्षा न करे,
कोई बच्चा
खेल-खेल में' तोड़ जाए। तो
बागुड़ चाहिए
होगी। थोडे
दिन रक्षा
करनी होगी।
जल्दी ही घड़ी
आ जाएगी जब
वृक्ष अपने ही
बल हार खड़ा हो
सकेगा, फिर
कोई बागुड़ की
जरूरत न होगी,
किसी माली
की 'भी
जरूरत न होगी।
और
जब वृक्ष हो
और सम्यक पोषण
मिले, तो
एक-न-एक दिन
फूल भी
खिलेंगे और फल
भी लगेंगे। यह
सब सहज ही
होता है।
प्रीति
की ऊर्जा बननी
ही चाहिए
भक्ति। प्रीति
भक्ति बनने को
ही पैदा हुई
है। रगों
शब्दों में
कहें तो मनुष्य
भगवान होने को
पैदा हुआ है।
मनुष्यता
भगवत्ता में
रूपांतरित
होनी ही
चाहिए। वह
उसका अंतर्निहित
स्वभाव है।
ऐसा
कौन आदमी है
जो प्रभुता न
पाना चाहता
हो। भला गलत
ढंग से पाना
चाहता हो--धन
पाकर प्रभुता
पाना चाहता
हो। नहीं
मिलती धन पाकर, लेकिन
आकांक्षा तो
सच है। पद
पाकर प्रभुता
पाना चाहता
हो। नहीं
मिलती पद पाकर।
दशा गलत है, लेकिन
प्रेरणा तो सच
है।
प्रत्येक
व्यक्ति
प्रभु होना
चाहता है। प्रभु
हुए बिना चैन
नहीं। इसलिए
जहाँ-जहाँ तुम्हारी
प्रभुता को
चोट पड़ती है, वहीं
सताप होता है।
जहाँ कोई
दीन-हीन कर
देता है, वहीं
पीड़ा होती है,
वहीं काँटा
चुभता है। तुम
परम प्रभुता
चाहते हो। तुम
परम
स्वातंत्रय
चाहते हो। तुम
अपने ऊपर कोई
बाधा नहीं
चाहते। यही तो
धर्म की खोज है।
तो
इसे हम ऐसा
कहें कि
मनुष्य
परमात्मा
होना चाहता है, या,
हम ऐसा कहें
कि प्रीति की
ऊर्जा भक्ति
होना चाहती है,
एक ही बात
है। प्रीति जब
भक्ति बनती है,
तभी
व्यक्ति
समष्टि बनता
है।
लेकिन
मार्ग में
बाधाएँ बहुत
है। असली सवाल
बाधाओं का है।
स्नेह, प्रेम
और श्रद्धा से
गुजर ही नहीं
पाते तुम। तुम्हारा
स्नेह भी
दूषित होता है,
इसलिए अटक
जाता है।
तुम्हारे
स्नेह में
शुद्धता नहीं
होती कि उड़
जाए आकाश की
तरफ।
तुम्हारे
स्नेह में पंख
नहीं होते, पत्थर बँधे
हैं। तुम
स्नेह भी करते
हो तो बड़ी कंजूसी
से करते हो, वही कंजूसी
खा जाती है, वही कृपणता
खा जाती है।
जितना कृपण
स्नेह होगा, उतनी ही
संभावना कम है
कि वह प्रेम
बन सके।
फिर
प्रेम में भी
तुम्हारे बड़ी
ईष्याएँ हैं।
बड़ी घृणाएँ
हैं। तुम्हारा
प्रेम भी
पवित्र नहीं।
तुम्हारे
प्रेम में भी
पावनता नहीं।
तुम्हारे
प्रेम की
अग्नि में
बहुत धुआँ है।
ज्योति शुद्ध
नहीं। इसलिए
वहाँ अटक जाते
हो। फिर वहीं
उलझ जाते हो।
फिर प्रेम की
उस तथाकथित
भँवर में ही
डोलते रहते हो।
वहीं नष्ट हो
जाते हो।
श्रद्धा का' जन्म
नहीं हो पाता।
स्नेह शुद्ध.
हो तो प्रेम बने,
प्रेम
शुद्ध हो तो
श्रद्धा बने
और श्रद्धा शुद्ध
हो तो भक्ति।
शुद्धि
के सूत्र को
सँभालना
होगा।
तुम्हें अपने
बेटे से प्रेम
है,
' अपने ' के
कारण प्रेम
किया तो
अशुद्ध हो
गया। फिर तो
बेटे से न हुआ
प्रेम, अपने
अहंकार से ही
हुआ--मेरा
बेटा है। यह
तो मैं को ही
प्रेम किया
प्रकारांतर
से। बेटे के
माध्यम से
अपने अहंकार
की ही पूजा
की। कल तुम्हें
पता चल जाए, पुरानी
किताबें
उलटते- पलटते
कोई पत्र मिल
जाए और पत्र
से पता चले कि
तुम्हारी
पत्नी किसी के
प्रेम में थी
जब यह बेटा
पैदा हुआ, संदेह
उमग आए, उसी
क्षण स्नेह
तिरोहित हो
गया। यह कोई
स्नेह था! इस
बेटे से संबंध
ही न था। अब
अहकार की तृप्ति
नहीं होती, बात खतम हो
गयी।
तुम्हें
अपनी पत्नी से
प्रेम है। यह ' मेरी
है इसलिए
है? जहाँ ' मेरा ' बहुत
वजनी हो जाता
है, वहीं
बीज के मार्ग
पर चट्टान आ
जाती है।
अहंकार
बड़ी-से- बड़ी
चट्टान है, जब तक न टूटे,
तब तक कोई
बीज अंकुरित
नहीं होगा।
अंकुरित हो जाए
तो भी वृक्ष न
बनेगा। वृक्ष
बन जाए तो फूल न
आएंगे। फूल लग
जाएँ तो फल न
आएँगे। हजार
तलों पर
अहंकार बाधा
देता है। और
उसके
अतिरिक्त और
कोई बाधा नहीं
है।
जिस
स्त्री को
तुमने प्रेम
किया है, इसको
दो ढंग से
प्रेम किया जा
सकता है। एक
ढंग तो कि ' मेरी
है ', इसलिए।
और एक ढंग कि
परमात्मा का
सौंदर्य प्रगट
हुआ है, परमात्मा
की है। वही
झलका है।
तुम्हारे घर
बेटा पैदा हुआ
है, वह
परमात्मा का
ही आगमन हुआ
है। परमात्मा
मेहमान बना है
तुम्हारे घर,
स्वागत करो,
सन्मान
करो। मोह-ममता
के बंधन मत
डालो। बेटे को
मुक्त रखो। और
जब तक बाप
बेटे का
सन्मान न करे,
तब तक यह
आकांक्षा आज
नहीं कल बड़ा
दुख देगी कि बेटा
मेरा सम्मान
करे। सम्मान
के उत्तर में
सम्मान आता
है।
इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता कि
तुम्हारी
उम्र ज्यादा
है। बेटा
अभी-अभी
परमात्मा के
घर से आया है, ताजा
है। अभी-अभी
परमात्मा का
स्पर्श उस पर
है। अभी-अभी
परमात्मा की
गंध भी कुछ उस
पर है। इसीलिए
तो सभी बच्चे
सुंदर होते
हैं--कुरूप
बच्चा खोजना
कठिन है। अभी
डूबे हैं। अभी
आ गये हैं
लेकिन पूरे
नहीं आ पाए हैं
संसार में', समय लगेगा।
संसार की भाषा
सीखेंगे, गणित-
चालबाजियाँ
सीखेंगे, धोखाधड़ी
सीखेंगे, समय
लगेगा। अभी
कोरे कागज
हैं। सम्मान
दो। सत्कार
दो। स्नेह दो।
लेकिन ' मेरे
हैं ', इसलिए
नहीं। इसलिए
कि परमात्मा
ने फिर:
पृथ्वी पर
अवतरण किया।
अगर
तुम अपने
बच्चे में
परमात्मा को
देख सको तो
किसी कृष्ण की
पूजा करने, किसी
बालगोपाल की
पूजा करने
जाना पड़ेगा!
बालगोपाल रोज
तुम्हारे घर
आते हैं और
तुम्हें सूरदास
की शरण लेनी
पड़ती है
बालगोपाल की
भक्ति करने के
लिए। थोथे हो
तुम, सूरदास
का भजन जब तुम
पढ़ते हो कि
पैर में
पैजनिया बाँधकर
कृष्ण
ठुमक-ठुमक कर
चलते हैं, तब
तुम आह्लादित
होते हो, और
तुम्हारे घर
कृष्ण पैर में
पैजनिया
बाँधकर
ठुमक-ठुमक अभी
चल रहे
हैं--गीत नहीं
सचाई में; सपने
में नहीं, किसी
कवि की कविता
में नहीं, यथार्थ
में--मगर वहाँ तुम्हें
कुछ नहीं
दिखायी पड़ता,
वहाँ ' मेरे
' का पत्थर
पड़ा है। वहाँ '
मेरे ' के
कारण पाँव में
बँधी पैजनिया
नहीं सुनायी पड़ती।
तुम्हारे कान
बहरे हों गये
हैं। तुम दीवाल
की तरह हो।
तुम्हारा
दर्पण कुछ भी
प्रतिफलित
नहीं करता।
सूरदास
के वचन सुनकर
तुम आंदोलित
होते हो, और
कितने
बालगोपाल
चारों तरफ खेल
रहे हैं, उन
बालगोपाल को
देखकर तुम
सिर्फ नाराज
होते हो। कि
शोरगुल न करो,
भाग जाओ
यहाँ से! अभी
मैं अखबार
पड़ता हूँ, अभी
यहाँ पास न आओ!
अभी मैं गणित
का हिसाब करता
हूँ, अभी
मै खाताबही
लिखता हूँ।
अभी मैं
पूजापाठ कर
रहा हूँ! अभी
बच्चों का
आगमन यहाँ
निषिद्ध है।
तुम
क्या पूजा-पाठ
करोगे!
तुम्हारे पास
आँखें पत्थर
की है।
तुम्हें कुछ
दिखायी नहीं
पड़ रहा है। हर
बच्चे में
कृष्ण उतना ही
है जितना कृष्ण
में था, देखने
की आंखें
चाहिए। हर
पत्थर में
मूर्ति छिपी
है, खोजने
की आँख चाहिए।
कण-कण में वह
विराजमान है।
जिस
क्षण तुम
छोटे-से बच्चे
में कृष्ण को
देख सकोगे, कि
क्राइस्ट को,
उसी क्षण
स्नेह शुद्ध
हुआ। स्नेह को
पंख लगे। अब
स्नेह को
पृथ्वी पर
नहीं रोका जा
सकता, बीज
फूटा, अंकुर
बना, उठने
लगा ऊपर।
देखते
हो रूपांतरण? जब
तक बीज बीज था
तो ऊपर नहीं
उठ सकता था; नीचे गिर
सकता था, ऊपर
नहीं उठ सकता
था, ऊर्ध्वगमन
नहीं था। नीचे
तो जा सकता था,
कितने ही
गहरे गड्ढे
में उतर सकता
था, लेकिन
एक इंच भी ऊपर
नहीं उठ सकता
था। क्रांति
देखते हो? बीज
टूटकर
अंकुरित हो
गया, क्रांति
घट गयी, अब
अंकुर ऊपर
उठने लगा, चमत्कार
हो गया!
तुमने
कहानी सुनी है, जिस
व्यक्ति ने.
गुरुत्वाकषण
का सिद्धांत
खोजा, न्यूटन
ने, वह एक
बगीचे में
बैठा है और एक
सेव का फल
वृक्ष पर पक
गया और गिरा।
उस वृक्ष से
गिरते फल को
देखकर उसके मन
में जिज्ञासा
उठी कि हर चीज
नीचे की तरफ
ही क्यों
गिरती है? पत्थर
को ऊपर फेंकते
हैं, वह भी
नीचे लोट आता
है। छलाँग
लगाओ, छलाँग
पूरी भी नहीं
हो पाती कि
वापिस जमीन पर
आ जाते हो। हर
चीज जमीन पर
लौट आती है।
इससे उसने
गुरुत्वाकर्षण
का सिद्धांत
निकाला कि जमीन
खींचती है
चीजों को अपनी
तरफ।
यह
अधूरा
सिद्धांत है।
अगर
मेरा कहीं
न्यूटन से मिलना
हो जाए तो
उससे में कहूँ
कि तूने यह
प्रश्न तो
पूछा, लेकिन
इससे भी गहरा
प्रश्न यह था
कि फल यह ऊपर पहुँचा
कैसे? हमने
तो बीज बोया
था जमीन में, हमने तो
गड्ढे में
डाला था बीज, फल लगा आकाश
में! यह फल चढ़ा
कैसे? फल
टुटकर गिरता
है तो जमीन पर
गिरता hऐ, यह सच है। तो
इससे एक
सिद्धांत तय
होता है कि
जमीन खींचती
है। मगर कोई
ताकत होनी
चाहिए जो ऊपर
की तरफ भी
खींचती है, नहीं तो
वृक्ष उठेगा
ही कैसे?
चमत्कार
है वृक्ष का
उठना! होना
नहीं चाहिए, नियम
के अनुकूल
नहीं है। और
ऊपर की फुनगी
तक भी पानी की
धार पहुँचती
है। कोई पंप
भी नहीं लगा
हुआ है। ऊपर
की आखिरी
फुनगी तक
जल-गर उठती
है--उठना पड़ता
है; गुरुत्वाकर्षण
के नियम को
तोड़कर उठती
है।
कोई
नीचे की तरफ
खींच रहा है, कोई
ऊपर की तरफ भी
खींच रहा है, तुम कहाँ
खिंचोगे, तुम
पर निर्भर है।
बीज अगर: टूटे
न, तो नीचे
की तरफ जाएगा
बीज अगर टूट जाए
तो ऊपर जाएगा।
अहंकार अगर
टूटे न, तो
नीचे की तरफ
ले जाता है, नर्क की
यात्रा
करवाएगा; अहंकार
अगर टूट जाए, तो सारा
स्वर्ग
तुम्हारा है,
तुम्हारे
लिए
प्रतीक्षा कर
रहा है-ऊपर की
तरफ ले जाएगा।
अहंकार टूटे न
तो पत्थर है, छाती में
लटकी चट्टान
है-उड़ोगे कैसे?
--अहंकार
टूट जाए तो
पंख। फिर खूब उडान
हो सकती है।
तो
स्नेह सै
अहंकार को हटा
लो,
ममत्व को
विदा कर दो और
तुमने जहर
छाँट दिया। फिर
स्नेह प्रेम
में बदलेगा।
फिर ध्यान
रखना कि प्रेम
में कहीं छिपा
हुआ पीछे से
अहंकार न आ
जाए। नहीं तो
सारे प्रेम का
आनद विषाक्त
हो जाता है।
तुम देखते हो
प्रेमियों को,
सुख तो कम
दुख ज्यादा
पाते मालूम
पड़ते हैं। प्रेम
के नाम पर सुख
तो कमी-कभार
मिलता है, दुख
रोज मिलता है।
प्रेम में
जितना दुख
मिलता है और
कहीं भी नहीं
मिलता। इसलिए
बहुत समझदारों
ने तो तय कर
लिया है कि
प्रेम की झंझट
में ही न
पड़ेंगे। कभी
सौ में एक
मौके पर तो
सुख और
निन्न्यानबे
मौकों पर दुख।
कभी एक फूल
खिलता है, निन्न्यानबे
तो काँटे ही
चुभते हैं।
छाती क्षार-क्षार
हो जाती है।
प्रेमियों को
तुम रोते पाओगे--हँसते
कभी
प्रेमियों को
पाते। द्वेष चलता,
ईर्ष्या
जगती, वैमनस्य
पैदा
होता--मालकियत
अड़चन लाती।
मेरी पत्नी!
अब तुम्हें
फिकिर करनी
पड़ती कि मेरी
पत्नी, इसके
चारों तरफ एक
दीवाल उठा दो।
इसपर किसी की
नजर न लग जाए।
इसके चारों
तरफ ऐसी दीवाल
उठा दूँ कि
कोई इसे देख न
पाए--यह भी
किसी और को न
देख पाए। बड़ा
भय तुम्हारे
भीतर पैदा हो
गया है कि आज है
तुम्हारी, कल
कहीं किसी और
की न हो जाए!
कौन किसका है
यहाँ?! सब
अजनबी हैं।
राह पर दो घड़ी
साथ हो लिये
हैं, नदी-नाव-संयोग
है। कौन किसका
हो सकता है! यह
मालकियत का
दावा! इसी
दावे में
अहंकार आ गया।
जब
तुमने
कहा--मेरी
पत्नी, मेरा
पति, तभी
अहंकार आ गया।
और अहंकार
पाया कि पंख
कटे। अहंकार
आया कि नर्क
की तरफ यात्रा
शुरू हुई। अब
चिंता आएगी, अब फिकिर
लगेगी, भय
पैदा होगा; दफ्तर में
बैठे रहोगे, घर की
सोचोगे
--पत्नी
न-मालूम किसी के
साथ
हँसती-बोलती न
हो! अब हजार
दुश्चिताएँ तुम्हें
घेरेंगी। और
तुम चौबीस
घंटे पहरेदार
की तरह खड़े
रहोगे।
पति-पत्नी
एक-दूसरे पर
पहरा देते
रहते हैं। काम
ही उनका यह हो
जाता है--
मुक्ति के
पहरेदार! उनका
धंधा ही यह हो
जाता है। पति.
को घड़ी देर हो
गयी आने में
कि बस पत्नी
आगबबूला है, तैयार
बैठी है; टूट
ही पड़ेगी पति
पर। पति
रास्ते में
चला आ रहा है, हजार तरह की
कहानियाँ गढ़
रहा है--क्या
कहूँगा, कैसे
बचूँगा? दफ्तर
में ज्यादा
काम आ गया था, कि कहीं
मजबूरी में
रुक जाना पड़ा,
कि किसी
मित्र से
मिलना हो गया?
हजार बहाने
खोज रहा है।
यह प्रेम है!!
इसमें
भरोसा ही नहीं
है,
इसमें कैसा
प्रेम! इसमें
जरा-सा भी, अंशमात्र
भी एक दूसरे
के प्रति
सन्मान नहीं
है, अपमान
है। इसमें
दूसरे की बड़ी
गहरी निंदा
है। दूसरे की
क्षुद्रता की
तलाश है। तो
फिर अटक गये।
फिर भक्ति तक
न पहुँच
पाओगे। और
भक्ति तक न पहुँचे
तो भगवान कहाँ?
फिर लाख
तर्क करो, लाख
सोच करो, लाख
शास्त्र पढ़ो,
सब व्यर्थ
है।
प्रेम
को शुद्ध होने
दो। अहंकार से
प्रेम को
मुक्त होने दो।
बीच में
मेरे-तेरे का
भाव न आए।
मालकियत का
प्रश्न न उठे।
देखते हैं, पति
को हम ' स्वामी
' कहते हैं,
स्वामी का
मतलब मालिक।
हालाँकि
पत्नी अपने को
' दासी ' कहती
है, मगर
मानता कौन है!
मानती कौन
पत्नी अपने को
दासी। कहने की
बात है। दासी
होने में भी
उसका ढंग है मालिक
होने का। वह
स्त्रैण ढंग
है मालिक होने
का। पुरुष
गर्दन पकड़ता
है गर्दन
पकड़नी हो, स्त्री
पैर पकड़ती है
अगर गर्दन
पकड़नी हो।
अलग-अलग ढंग
हैं। उनके अलग
मनोविज्ञान
हैं।
पुरुष
क्रोध में आ
जाए,
तो स्त्री
को मारता है।
स्त्री क्रोध
में आ जाए तो
खुद को मारती
है। उनके अलग
मनोविज्ञान
हैं। मगर खुद
को मारकर वह
पुरुष को। ही
मार रही है।
तुमने देखा, जब कोई
स्त्री अपने
बच्चे को
मारने लगती है,
तो वह पड़ोसी
के बच्चे को
मार रही है, अपने बच्चे
को नहीं मार
रही है। अगर
पड़ोसी ने शिकायत
की है, तो
वह टूट पड़ती
है अपने बच्चे
पर। मगर अगर
गौर से देखो
उसे, तो वह
पड़ोसी के
बच्चे को मार
रही है। मगर
पड़ोसी के
बच्चे को तो
मारा नहीं जा
सकता, इसलिए
अपने को ही
मार रही है।
पति पर तो हाथ
उठाया नहीं जा
सकता है, इसलिए
स्त्रियाँ
अपने को पीट
लेती हैं।
अपने बाल नोच
लेती हैं। पति
जब भी सोचता
है क्रोध में
तो सोचता
है--इस पत्नी
को मार ही
डालूँ। पत्नी
जब भी सोचती
है क्रोध में,
सोचती है
आत्महत्या
हइउा कर लूँ।
ये उनकी भाषाओं
के भेद हैं।
मगर हिंसा, क्रोध, वैमनस्य,
सब
पूरा-का-पूरा
खड़ा है।
नहीं, प्रेम
अगर ऐसे उलझ
गया अद्रुकार
में, तौ उठ
न पाएगा।
मुक्त करो
प्रेम को, मालकियत
तजो। किसी तरह
की काराएँ मत
खड़ी करो एक-दूसरे
के ऊपर।
पिंजड़े मत
बनाओ। पक्षी
सुंदर हैं जब
वे आकाश में
उड़ते हैं--और
इसीलिए तो तुम
मोहित हो गये
थे उस आकाश
में उड़ते हुए
पक्षी का
सौंदर्य
देखकर। फिर उस
पक्षी को
तुमने पिंजड़े
में बंद कर
लिया, और
माना कि तुमने
बड़ा प्रेम
दिखलाया और
पिंजड़ा सोने
का बनवाया, और माना कि.
तुमने बड़ा
प्रेम
दिखलाया और
पिंजड़े पर
तुमने
हीरे-जवाहरात
जड़े, मगर
पिंजड़ा
पिंजड़ा है, आकाश नहीं।
फिर
तुम पाओगे कि
यह पक्षी जो
पिंजड़े में
बैठ गया उदास
हो गया है, तो
तुम बेचैन
होते हो। और
तुम बड़े सोचते
हो अनेक बार
कि क्या हुआ, अब वैसा
सौंदर्य नहीं!
यह स्त्री अब
वैसी सुंदर
नहीं मालूम
होती जैसी तब
मालूम होती
थी! लेकिन तब
यह खुला हुआ पक्षी
थी आकाश में, अब यh तुम्हारे
पिंजड़े में
बंद पत्नी है।
तब यह स्त्री
थी, अब यह
पत्नी है।
स्त्री में एक
सौंदर्य है, पत्नी में
सौंदर्य नहीं
रह जाता। तब
यह पुरुष था, पुरुष में
एक सौंदर्य है
क्योंकि
स्वतंत्र था,
अब यह पति
है! पति में
कहाँ सौंदर्य!
कहते
हैं,
कितना ही
बड़ा हो पति और
कितना ही महान
हो पति, अपनी
पत्नी के
सामने बड़ा और
महान नहीं
होता। वहाँ तो
सिकंदर भी
दब्बू हो जाते
हैं। अगर
असलियत जाननी
हो पति की तो
पत्नी से पूछना।
कोई पत्नी
अपने पति को
सम्मान नहीं
करती। कर ही
नहीं सकती। और
पति कितना ही
पत्नी के
सौंदर्य. की
प्रशंसा करे,
सब थोथी है,
औपचारिक है,
झूठी है।
उसे सौंदर्य
अब दिखायी
नहीं पड़ता।
कभी दिखा था।
अब तो यही मन
में ख्याल
उठता है--यह
स्त्री धोखा
दे गयी'! क्य।-
सिर्फ
सौंदर्य
सजावट का था!
इतने सुंदर वस्त्र
पहने थे, प्रसाधन
किया था, इसलिए
सुदर लगी थी? क्योंकि अब
यह सुंदर नहीं
लगती। किस पति
को अपनी पत्नी
सुंदर लगती है?
कई बार तो ऐसा
हो जाता है कि
राहु चलती कोई
साधारण
स्त्री भी
ज्यादा सुंदर
लगती है, अपनी
सुंदरतम
पत्नी से भी।
क्यों ' स्वतंत्रता
है वहाँ।
तुम्हारी
पत्नी तुम्हारी
मुट्ठी में
है। जो
तुम्हारी
मुट्ठी में है,
दो कौड़ी का
हो गया। जो
खुले आकाश में
उड़ रहा है,. एक
तोता
तुम्हारे पिंजड़े
में बंद है और
एक तोता एक आम
से दूसरे आम पर
जा रहा है, इन
दोनों में कुछ
भेद है? कुछ
फर्क दिखायी
पड़ता है? यह
जो
स्वतंत्रता
है, यही
भेद है।
प्रेम
स्वतंत्र
करता है। और
जब प्रेम
स्वतंत्र
करता है, तो
प्रेम में पंख
होते हैं'।
और जब प्रेम
स्वतंत्र
करता है तो आज
नहीं कल
श्रद्धा में
रूपांतरित.
होगा। और अगर
प्रेम
परतंत्रता
बनता है, तो
फिर श्रद्धा
तक नहीं जा
सकेगा।
तो
प्रेम को
स्वतंत्रता
दो। जिसे
तुमने चाहा है, उसे
मुक्त करो, उसे मुक्ति
दो। और तुम
जितनी मुक्ति
अपने प्रेमपात्र
को दे सकोगे, उतनी ही
मुक्ति
तुम्हारा प्रेमपात्र
भी तुम्हें दे
सकेगा। तुम
जितना परतंत्र
अपने
प्रेमपात्र
को करोगे, उतने
ही परतंत्र
तुम भी हो
जाओगे। ध्यान
रखना, किसी
को गुलाम
बनाते वक्त
हमेशा याद
रखना, तुम
भी गुलाम बन
रहे हो।
गुलामी
इकतरफा नहीं होती
है, दोहरी
होती है। बनाओ
किसीको गुलाम
और तुम गुलाम
के भी गुलाम
बन गये। मुक्त
करो किसीको, उसी मुक्ति
में तुम्हारी
मुक्ति भी है।
तब श्रद्धा का
तत्व जन्मता
है। श्रद्धा
का अर्थ है--इस
संसार के भीतर
प्रीति का
बिरवा जितना
ऊँचा आ सकता
था, आ गया।
पौधे ने अपनी
पूरी ऊँचाई पा
ती। अब इससे
ऊपर जाने की
कोई जगह नहीं ह।
जब पौधा अपनी
पूरी ऊँचाई पा
लेता है, तो
उसके भीतर जो
रसस्रोत अब तक
ऊँचाई पाने
में लगे थे, वे ही
रसस्रोत अब
फूल बनते हैं,
फल बनते
हैं। जब तक
पौधा ऊँचाई
पाने में लगा
है तब तक उसकी
सारी अजी
ऊँचाई पाने
में लग जाती है।
तब तक फूल और
फल नहीं
निर्मित हो
सकते। फुल और
फल निर्मित
होते हैं
अत्याधिक्य
से आधिक्य से।
जब इतना
ज्यादा हैं अब
और उसका कोई
उपयोग भी नहीं
रहा है, जितना
बढ़ना था बढ़
लिये, जो
होना था हो
लिये, अब
इस ऊर्जा का
कोई उपयोग
नहीं, यही
ऊर्जा भर-भर
कर फलों में
वापिस पृथ्वी
पर गिरने लगती
है।
जब
श्रद्धा आ गयी, तो
प्रीति का
बिरवा अपनी
पूरी ऊँचाई पर
आ गया। अब
इसीमें भक्ति
के फूल, भक्ति
के फल लगेंगे।
तुम मंदिर फूल
ले जाते हो न, वे प्रतीक
है सिर्फ; वे
असली फूल नहीं
हैं, असली
फूल तो भक्ति
है, वह
श्रद्धा के
वृक्ष मे
लगेगा।
वृक्षों से तोड़कर
तुम जो फूल
मंदिर में चढ़ा
आते हो, वे
तो प्रतीक हैं,
संकेत हैं।
अपने वृक्ष को
बढ़ने दो और
अपने फूल किसी
दिन चढ़ाओ, ऐसी
आशा रखो, ऐसा
संकल्प जगाओ,
किसी दिन
मैं अपने फूल
चढ़ा सकूँ, उसी
दिन
प्रार्थना
फ्री होगी।
श्रद्धा
के बाद भक्ति
का जन्म है।
और यह सब अनिवार्यत:
स्वभावत होता
है। तुम्हारे
किये नहीं
होता, लेकिन
तुम बाधा जरूर
डाल सकते हो, तुम्हारे
किये एक ही
काम हो सकता
है इस दुनिया
में, वह है
बाधा। तुम
बाधा जरूर डाल
सकते हो, और
तुम्हारी कोई
जरूरत नहीं है,
बाधा भर न
डालो तो सब
चीजें अपने से
हो रही हैं।
और जब तुम-
अपने को पाओ
कि कोई बाधा
डाल रहे हो, तब हट जाओ, बाधा को हटा
लो।
तन-मन
का मधु सब रीत
चुका अब मधु
केवल मधुसूदन में'।
सब
दिन जी भर
ममता बाँटी
तन्मय होकर, मन्मय
होकर
प्राणों
का सार लुटा
डाला, अंतs के
जल में
धो-धोकर
भीतर
इतना रस उमड़ा
था,
कुछ ओर न था
कुछ छोर न था
लगता
था भर दूँ
सबका घट, लगता
था भर दूं
सबका घर
अवशेष
हुई रस की
चर्चा, अब रस.
केवल रस-नंदन
में
मत
मीत करों मधु
की बातें, अब
मधु केवल
मधुसूदन में।
इस
छवि को छूकर
सिक्त हुई
सपनों की चंचल
दाहकता
इस
रूप-जयी के
जादू में जकड़ी
है मेरी
चेतनता
निर्बाध
निरंतर जब
जिसने देखा है
इस लीलाधन को
कुछ
और न देखा फिर
उसने., कैवल्य
बनी उसकी जड़ता
साकार
हुआ
लप्तिलत्य
स्वयं इस
ज्योतिरमण सम्मोहन
में
गीतों
में मधु
अवशिष्ट कहाँ, अब
मधु केवल
मध्सूदन में।
अब
प्रीति उसी
रसबर्षी में, जीवनधर्मी
चिरनूतन में
अवशेष
नहीं मधु की
गाथा, अब मधु
केवल मधुसूदन
में।
लेकिन
लंबी यात्रा
है।
तीर्थयात्रा
कहें। स्नेह
से लेकर शक्ति
तक। ये सव बीच
के पड़ाव हैं।
प्रेम और
श्रद्धा, इन
पड़ावों को
मंजिल मत समझ
लेना, कहीं
रुकना नहीं है,
जब तक कि
मधुसूदन तक
पहुँचना न हौ
जाए। तन-मन का
मधु सब रीत
चुका, टाब
मधु केवल
मधुसूदन में।
लुटा दौ सब--स्नेह
में, प्रेम
में श्रद्धा
में। बाँट दो
सब, बचाना
मत। बचाया तो
सड़ जाएगा, बाँटा
तो बच जाएगा।
उलीच दो, दोनो
हाथों से उलीच
दो।
अगर
तुमने स्नेह
पूरा उलीचा, तुम
पाओगे प्रेम
पका। तुमने
अगर प्रेम
पूरा उलीचा, तुम पाओगे
श्रद्धा पकी।
तुमने अगर:
श्रद्धा पूरी
उलीची तो तुम
पाओगे भक्ति
पक गयी। जिसने
स्नेह में
कंजूसी की, वह स्नेह पर
अटक गया।
जिसने प्रेम
में कंजूसी की,
वह प्रेम पर
अटक गया। जहाँ
कंजूसी की, वहीं अटके।
कंजूसी भर मत
करना, मैं
इसे ही
संन्यास कहता
हूँ, कंजूसी
भर मत करना, कृपणता भर
मत करना। जैसा
प्रभु ने' तुम्हें
दिया है, बेशर्त,
वैसा ही तुम
दे डालो। जो
तुम्हें
मित्रा
है, उसे
बाँट दो। यहाँ
से कुछ ले
जाने का भाव न
हो, यहाँ
सब दे जाने का
भाव हो। फिर
तुम्हें कोई भी
रोक न सकेगा, आज नहीं कल
तुम उसी घड़ी
में आ जाओगे
जहाँ कह सकोगे--अब
प्रीति उसी
रसबर्षी में,
जीवनधर्मी
चिरनूतन में।
अब
प्रीति उसी
रसबर्षी में, जीवनधर्मी
चिरनूतन में
अवशेष
नहीं मधु की
गाथा, अब मधु
केवल मधुस्दन
में
एक
दिन परमात्मा
में ही
एकमात्र रस रह
जाता है।
क्योंकि सब
रसों में
उसीकी झलक
मिलती है। स्नेह
में भी उसीको
देखा था, सात
पर्दों के पार
से। प्रेम में
भी उसीको देखा
था, पर्दे
कुछ और: कम हो
गये थे।
श्रद्धा में
भी उसे देखा
था, एक ही
पर्दा रह गया
था। इसीलिए तो
गुरु भगवान जैसा,
कहा
शास्त्रों ने,
गुरुर्ब्रह्मा।
क्यों कहा? इसीलिए कहा
कि श्रद्धा और
भक्ति में एक
ही पर्दा है।
गुरु और
ब्रह्मा में
एक ही कदम का
फासला है।
झीना-सा पदी
है। इसलिए
गुरु में
थोड़ी-थोड़ी
भगवान की झलक
मिलने लगती
है। पारदर्शी
पर्दा हैं।
जैसे स्वच्छ
काँच हो।
लेकिन
अशेष भाव से
लुटा डालना
प्रक्रिया
है। इसे यज्ञ
कहो,
तप कहो, भक्ति
कहो, नाम
के भेद हैं।
सब समर्पित कर
देना, इतना
सूत्र आ जाए तो
तुम्हें कहीं
कोई रुकावट न
पड़ेगी। जहाँ
तुम क़ुपण होते
हो, वहीं
रुक जाते हो।
अकृपणता मे
प्रवाह है। और
प्रवाह एक दिन
निश्चित
मधुसूदन तक
पहुँच जाता है
दूसरा
प्रश्न.
जो
वर्णनातीत है, उसे
कहकर क्यों
कोई शांडिल्य
मनुष्यता के
सामने एक
पत्थर धर देता
है?
शांडिल्य
ने न कहा हो कि
वर्णनातीत है, तो
तुम्हें यह भी
पता न चलेगा
कि वर्णनातीत
है। शांडिल्य
ने न कहा हो कि
शब्दों में
नहीं कहा जा
सकता, तो
तुम्हें यह भी
पता न चलेगा
कि शब्दों में
नहीं कहा जा
सकता।
शब्दों
में नहीं कहा
जा सकता, यह सच
है, लेकिन
इशारे किया जा
सकते हैं।
शब्द में सत्य
नहीं है।
लेकिन शब्द में
इशारे हैं।
इशारे पकड़ो!
अगर शब्द पकड़
तो पत्थर
रास्ते में पड़
जाएँगे। फिर
तुम हिंदू हो जाओगे,
मुसलमान हो
जाओगे, ईसाई
हो जाओगे, जैन'
हो जाओगे, फिर
तुम्हारे
रास्ते में
बहुत पत्थर आ
गये। अगर शब्द
न पकड़े, इशारा
पकड़ा.. भेद बड़ा
है, मील के
पत्थर लगे' हैं न
रास्ते पर, मील के
पत्थरों को
पकड़ कर तुम
बैठ नहीं
जाते। कोई मील
का पत्थर
पकड़कर बैठने
के लिए नहीं
है, उसपर
तीर लगा है कि
आगे चलो।
झेन
फकीर रिंझाई
से किसीने
पूछा--इस जगत
में सबसे
महत्वपूर्ण
बात सीखने
योग्य क्या है? रिंझाई
ने कहा--' वॉक
ऑन ', आगे
बढ़ो। वह थोड़ा
चौंका-- आगे
बढ़ो! यह आदमी
मुझ पर नाराज
है, मुझसे
आगे बढ़ो यह कह
रहा है, या
कि इसने कहा
संसार में
सीखने योग्य
एकही बात
है--आगे बढ़ो!
उसको थोड़ा
चिंतामग्न
देखकर रिंझाई
ने कहा कि
देखो, तुमने
यह भी पकड़
लिया। तुम
इससे भी आगे न
बढ़ सके।
संसार
में कुछ पकड़ो
मत। बढ़ते जाओ।
एक दिन वह जगह
आ जाती है
जिसको
परमात्मा
कहें। यह
संसार यात्रापथ
है। इसपर बहुत
मील के पत्थर
हैं। लेकिन
लोगों ने मील
के पत्थर पकड़
लिये हैं। जब
पहली दफा
अँग्रेजों ने
भारत में मील
के पत्थर: लगाए
तो बड़ी अड़चन
हुई। क्योंकि
गाँव-देहात के
लोग लाल रँगा
हुआ पत्थर
देख- कर समझें--हनुमान
जी! फूल चढ़ाकर, टीका
लगाकर
उन्हेंने
पूजा शुरू कर
दी। वह जो तीर-मीर
बना जाएँ, लिख
जाएँ इतने मील
दूरी, फलाँ-ढिकाँ,
वह सब बेकार
कर दी
उन्होंने, वे
उस पर और
सेंदुर वगैरह
पोतकर हनुमान
जी बना दें।
कहते हैं कई
वर्षों तक
अँग्रेजों को
यह झंझट करनी
पड़ी कि भई यह
मील का पत्थर
है, हनुमान
भी नहीं हैं।
पूजा
की ऐसी अंधी
वृत्ति!
शांडिल्य
ने कुछ कहा है, उसे
पक्डोगे तो
पत्थर हो
जाएगा; समझोगे
तो मुक्ति।
तुम पर निर्भर
है, शांडिल्य
ने तुम्हारे
रास्ते में
पत्थर नहीं
रखे हैं। अगर
रखे भी हों तो
पत्थर इसलिए
रखे हैं कि
तुम सीढ़ियाँ
बना लो। और जब
तुम सीढ़ी बना
लेते हो किसी
पत्थर को तो
वह पत्थर नहीं
रह जाता, उस
पत्थर के कारण
तुम ऊँचे उठ
जाते हो।
तुम्हारी
दृष्टि
व्यापक हो
जाती है।
शास्त्रों
पर चढ़ो, शास्त्रों
को सिर पर मत
ढोओ। शास्त्रों
को सीढ़ियाँ
बनाओ, ताकि
तुम ऊँचे उठ
सको, ताकि
तुम्हारी
दृष्टि बड़ी हो
जाए, ताकि
विराट
तुम्हें
दिखायी पड़
सके। शास्त्रों
का उपयोग करो,
पूजा नहीं।
पूजा की तो
पत्थर हो गये।
लोग पत्थर की
पूजा थोड़े ही
करते हैं, मैं
तुमसे कहता
हूँ--तुम
जिसकी पूजा
करोगे वही पत्थर
हो जाता है।
पूजा करने में
ही पत्थर हो
जाता है। पूजा
करने के क्षण
में ही तुमने
सब नष्ट कर
दिया।
शांडिल्य
ने जो कहा है, उसे
समझ लो और भूल
जाओ। मेरे पास
लोग आने हैं, वे कहते हैं
आप कहते हैं
जब कुछ, तो
समझ में आता
है, लेकिन
फिर हम भूल
जाते हैं। तो
मैंने उनसे
कहा कि फिर
याद रखने की
जरूरत ही नहीं,
समझ में आ
गया बात खतम
हो गयी। याद
रखने की जरूरत
क्या है? कंजूस
मन, कृपण
मन, वह हर
चीज को याद रख
लेना चाहता
है। समझने की
उतनी चिंता
नहीं है, जितनी
याद रखने की
चिता है। समझ
गये, आत्मसात
हो गया, तुम्हारे
खून में मिल गया,
तुम्हारी
मज्जा में
सम्मिलित हो
गया। तुम्हारा
हिस्सा हो गया,
जब जरूरत
पड़ेगी, काम
आएगा। कल जब
कोई गाली देगा,
तब उसी तरह
क्रोध पैदा न
होगा जैसे
पहले हुआ था--यह
काम आया। कल
दुख आएगा और
फिर भी तुम
अनुद्विग्न
रह सकोगे-यह
काम आया। मैने
जो कहा उसको
शब्दश याद रख
लिया, कोई
परीक्षा थोड़े
ही देनी है!
कोई
विश्वविद्यालय
की परीक्षा
में थोड़े ही
बैठना है! कि
वहाँ जाकर वमन
कर दिया, जो-जो
शब्द कंठस्थ
कर लिये थे
उनको उल्टी कर
दी, फैला
दिया कागजों
पर, सर्टिफिकेट
ले लिया।
विश्वविद्यालय
में जो
परीक्षा है, वह
वमन है। सिर्फ
उल्टी है।
इसलिए
विश्वविद्यालय
से कोई समझदार
होकर थोड़े ही
लौटता है--लोग
समझदार जाते
हैं और नासमझ
होकर लौट आते
हैं। जब गये
थे तब थोड़ी बहुत
बुद्धि भी थी,
जब आते हैं
तो बिलकुल
बुद्धू होते
हैं। बहूत मुश्किल
से कोई आदमी
विश्वविद्यालय
से अपनी बुद्धि
बचाकर लौट
पाता है।
यह
कोई
विश्वविद्यालय
थोड़े ही है!
यहाँ कोई शिक्षा
थोड़े ही दी जा
रही है। बोध
दिया जा रहा
है,
ज्ञान
नहीं। सुरति
दी जा रही है, स्मृति
नहीं। संकेत
दिये जा रहे
हैं, अँलार्म
बजाया जा रहा
है कि जागो।
समझो फर्क को।
तुम
सुबह-सुबह पड़े
हो--सर्दी की
प्यारी सुबह, कंबल
में दुबके
हो--अएलार्म
बज रहा है,, अब
तुम गिनती कर
रहे कितनी
घंटी बज रही
है--एक, दो, तीन, चार,
पाँच, छ,
सात, आठ,
नौ, दस; सब घंटियाँ
गिन लीं, याद
रख लिया कि
पचास घंटी बजी
थी और करवट ली
और सो गये। यह
याद तो रख
लिया, लेकिन
इशारा खो गया।
वे घंटियाँ
इसलिए नहीं बज
रही थीं कि
गिनो। वे
घंटियाँ
इसलिए बज रही थीं
कि जगो।
मैं
जो तुमसे कह
रहा हूँ, वह
तुमने अगर
शब्दशः याद कर
लिया, नोट
ले लिय
मस्तिष्क में,
और कोई पूछे
तुमसे तो
तुमने सब
उत्तर दे डाले,
वह किसी काम
का नहीं आया।
जागो।
तुम्हारी जीवन-प्रक्रिया
में प्रवेश हो
जाएगा। तुम
पाओगे कि तुम
और ढ़ग से
संवेदना करने'
लगे। अब कोई
गाली देता है,
तो वैसी चोट
नहीं लगती
जैसे पहले
लगती थी--यह बात
समझ- में आयी।
अब तुम स्नेह
करते हो, मेरे
का भाव क्षीण हो
रहा है; यह
बात समझ में
आयी। तुम्हें
याद भी रहा कि
नहीं कि मैंने
कहा था कि ' मेरा-भाव
' क्षीण हो
जाना चाहिए, वह बात कोई
मूल्य की नहीं
है। लेकिन ' मेरा-भाव ' क्षीण होने
लगा। समझ
तत्क्षण
रूपांतरण
करती है।
स्मृति
रूपांतरण
नहीं करती।
स्मृति तो रेकॉर्ड
है, क्या
सुना, तुम
दोहरा सकते
हो। समझ जीवन
है, क्या
सुना तुम जीने
लगते हो।
मैंने
अँगुली बतायी
चाँद की तरफ, तुमने
अँगुली याद
रखी, अँगुली
के फोटो ले
लिये सब तरफ
से और चित्र
बना लिये और
उनकी पूजा
शुरू कर दी और
चाँद की तरफ तुम्हारी
आँख भी न उठी, यह स्मृति।
और मैंने
अँगुली उठायी
और तुमने मेरी
अँगुली का
इशारा देखा और
चाँद देखा--और
अँगुली को तो
भूल. ही गये, चाँद देखोगे
तो अँगुली को
कैसे देखोगे,
दोनों एक
साथ तो देख
नहीं सकते; चाँद देखा
तो अँगुली की
क्या जरूरत
रही, बात
समाप्त हो गयी,
अँगुली ने
काम कर दिया।
अब अगर कल
तुमसे कोई पूछे
कि अंगुली
गोरी थी कि
काली थी, कि
बूढ़ी थी कि
जवान थी, तुम
कहोगे--कुछ याद
नहीं। चाँद
देखा था, चाँद
प्यारा था!
चाँद अद्भुत
था! खूब
चाँदनी में
नहा लिये, चाँदनी--एमी-चाँदनी
भर गयी
प्राणों में,
रोआं-रोआं
आनंदित हुआ था,
नाचे थे; अँगुली की
तो याद नहीं!
अँगुली कोई
याद तो कोई मूढ़
रखेगा; ज्ञानी
चाँद को देखता
है।
अब
तुम कहते
हो--जो वर्णनातीत
है,
उसे कहकर
क्यों कोई
शांडिल्य
मनुष्यता के
सामने एक
पत्थर धर देता
है? शांडिल्य
ने तो सीढियाँ
बनायीं, इशारे
किये, तुम
पकड़ लो जोर से
तो पत्थर हो
जाएँगे। तुम
वहीं रुक जाओ,
तो पत्थर हो
गये--ध्यान
रखना--लेकिन
दोष तुम्हारा
है, शांडिल्य
का नहीं।
मगर
प्रश्न में एक
और बात भी
छिपी है--कि जब
कहा नहीं जा
सकता तो कहा
क्या? इसीलिए
कहा की तुम्हें
यह याद रहे- कि
ऐसा भी जीवन
मैं कुछ है जो
जाना जो सकता
है और कहा
नहीं जा सकता।
इसीलिए कहा कि
तुम्हें भूल न
जाए कि कहे
हुए पर ही सब
समाप्त नहीं
है, अनकहे
की खोज जारी
रखना। जो
शब्दों में
बँध जाता है, उसे. ही जीवन
की इति मत समझ
लेना। जो
शब्दों में
बँध जाता है, उसमें तो
याद
रखना--नेति-नेति,
यह भी
नहीं-यह भी
नहीं। यह तो
शब्द में बँध
गया, तो यह
नहीं हो सकता।
यह भी शब्द
में बँध गया, तो यह भी
नहीं हो सकता।
स्मरण रहे
तुम्हें, तुम्हारे
भीतर एक खोज
जारी रहे, अन्वेषण
बना रहे, एक
जिज्ञासा
जगती रहे, एक
दीया जलता रहे
कि एक दिन उसे
जानना है जो
शब्दों में
नहीं बँधता।
वही सत्य है।
और
जब तुम जानोगे, तब
तुम भी
कहोगे--कहना
ही पड़ेगा। और
कह न सकोगे, तुतलाओगे; सभी ज्ञानी
तुतलाए
हैं--जितना
बड़ा ज्ञानी, उतना ही
ज्यादा
तुतलाता है।
अज्ञानी को
तुतलाने की
जरूरत नहीं, वह जो जानता
है सब कहा जा
सकता है, सिर्फ
ज्ञानी अड़चन
में पड़ता है।
उसने ऐसा कुछ जाना
है, जिसे
भाषा में नहीं
लाया जा सकता।
इतना बड़ा है, कि शब्दों
में समाता
नहीं, शब्द
बड़े छोटे-
सकरे हैं। इतना
विराट है कि
शब्द में कहो
तो अन्याय हो
जाता है। और
इतना
विरोधाभासी
है कि जब भी
शब्द में कहो
तो आता ही आता
है। और आधा
यानी अन्याय।
समझो--
किसीने
कहा--ईश्वर
प्रकाश है। यह
आधी बात है। और
किसीने कल--
ईश्वर अंधकार
है। यह भी आधी
बात है। ईश्वर
दोनों है।
जिसने जाना, उसने
ईश्वर के
दोनों अंग
जाने, दोनों
पहलू जाने।
मगर अब भाषा
में कहो तो
यही उपाय हैं,
या तो कहो
प्रकाश है, तो तुमने
आधे ईश्वर को
इंकार कर दिया,
अन्याय
हुआ। या कहो
कि अंधकार है,
तब भी आधे
को इनकार कर
दिया, अन्याय
हुआ। या कहो
कि
प्रकाश-अंधकार,
दोनों है, तब तुमने
तर्कहीन बात
कही, क्योंकि
तुमने
द्वंद्व एक
साथ उपस्थित
कर दिया, विरोधी
बात कही। तो
कोई भी पूछेगा
कि प्रकाश और
अंधकार, दोनों
कैसे हो सकता
है? फिर
तुम तर्क की
झंझट में
पड़ोगे। कोई
कहेगा--तो फिर
ऐसा करें, उस
कमरे: में आप
प्रकाश और
अंधकार, दोनों
एकसाथ. करके
दिखला दें। यह
तो हो ही नहीं
सकता। या तो प्रकाश
होगा, या
अंधकार होगा।
अब तुम कैसे
सिद्ध करोगे
कि प्रकाश और
अंधकार दोनों
है।
या
चौथा रास्ता
है कि तुम
कहो--न प्रकाश
है,
न अंधकार।
तो पूछने वाला
पूछेगा--फिर
क्या है? क्योंकि
दो में से कोई
एक होना ही
चाहिए। दो का
ही हमारा
अनुभव है, दो
में से एक
होना ही
चाहिए। अगर
दोनों में से नहीं
है, तो फिर
कहने- की
कोशिश क्या कर
रहे हो? न
प्रेम है न
घृणा है, न
पदार्थ है न
चेतना है, न
प्रकाश है न
अंधकार है, न जीवन है न
मृत्यु है, तो फिर है
क्या? फिर
पहेलियाँ
क्यों बूझ रहे
हो? क्या
ऐसी भी कोई
चीज हो सकती
है जो जीवन भी
न हो और
मृत्यु भी न
हो! या तो जीवन
होगी, या
मृत्यु होगी।
जो कुछ भी कहो,
य चार ही
उपाय हैं कहने
के। ये
चतुर्भगियाँ
हैं। ये चार
ढंग है कहने
के। पर जिस
ढंग से भी कहो,
वही ढंग गलत
हो जाता है।
और बेचैनी
मालूम होती है।
न कहो, चुप
रह जाओ, तो
मनुष्यता के
साथ तुमने बड़ी
कठोरता की।
करुणा नहीं
दिखायी।
बुद्ध चुप हो
गये थे, जब
उन्हें ज्ञान
हुआ, सात
दिन चुप रह
गये। देवता
विह्वल हो
गये। देवता आए
और उन्होंने
कहा--आप
बोलें।
क्योंकि सदियों
में कोई
बुद्धत्व को
उपलब्ध होता
है, सदियों
में कोई भगाता
पाता है, और
करोड़ों-करोड़ों
लोग. जो
अँधेरे में
राह टटोल रहे
हैं, आपके
थोड़े-से शब्द
भी उनके लिए
दिशासूचक
होंगे। उन पर
करुणा करें।
अब
फर्क समझना।
अगर
बुद्ध सत्य की
तरफ देखते हैं
तो लगता है--जो
भी कहूंगा वह
अधूरा होगा, गलत
होगा, अन्यायपूर्ण
होगा। अगर
मनुष्यता की
तरफ देखते हैं,
पीछे चले
आने- वाले
लोगों की तरफ
देखते हैं, जिनके बीच
वह भी जीए हैं,
तो लगता है
इनके साथ
कठोरता होगी
अगर कुछ न कहूँ।
ये
प्रतीक्षातुर
हैं, ये
राह देख रहे
हैं कि कुछ
कहो, अब
तुम पहुँच गये
मंजिल पर, हम
अंधे हैं, हमे
पूकारो, हमें
जगाओ। हम भटक
रहे हैं, हम
खोज रहे हैं
और तुम पहुँच
गये, अपना
बोध, थोड़ा
ही सही, हम
तक पहुँचाओ।
एक धागा भी
हमारे हाथ में
आ जाएगा तो हम
उसीके सहारे
सरकते- सरकते
मंजिल को पा
लेंगे। एक
किरण भी हमें
मिल जाएगी तो
हम सूरज को
खोजें लैंगे।
मगर किरण तो
कम-सें-कम दे
दो--सूरज नहीं
दिया जा सकता,
छोड़ो; सूरज
हम माँगते भी
नहीं। सूरज के
पाने की हमारी
पात्रता भी
नहीं। लेकिन
एक किरण ही हम
पर बरसाओ।
सागर न सही, एक बूँद
हमारे कठ में
आ जाने दो, स्वाद
तो लग जाएगा।
भरोसा तो आ
जाएगा कि पानी
होता है। कि
अगर खोज जा२ाई
रखी तो
मिलेगा--अगर
बूँद मित्र
सकती है तो
सागर भी मिल
सकेगा। बूँद
है तो सागर भी
होता होगा।
बूँद से आस्था
आएगी, श्रद्धा
आएगी, खोज
में त्वरा
आएगी, खोज
में प्राण आ
जाएँगे, बल
आ जाएगा, आत्मविश्वास
जगेगा। हम यूँ
ही नहीं भटक
रहे हैं। हम
किसी व्यर्थ
सपने के पीछे
नहीं पड़े है।
लोग पहुँचते
हैं, मंजिल
है, देर-अवेर
हम भी पहुँच
जाएँगे। पैर
जो थकने लगे
थे, पैर जो
डगमगाने लगे
थे--पैर जो
सोचने लगे थे
अब रुक जाएं? --फिर गतिमान
हो जाएँगे।
फिर चैतन्य का
प्रवाह जगेगा।
तो
देवताओं ने.
बुद्ध से कहा, आप
कहते हैं ठीक
कि सत्य कहा
नहीं जा सकता,
लेकिन आप
सत्य की तरफ
ही देख रहे
हैं, जो
अँधेरे में
भटक रहे हैं
उनकी तरफ नहीं
देख रहे। उनकी
तरफ भी देखें,
और हो जाने
दें सत्य के
साथ थोड़ा
अन्याय-- सत्य को
इससे कोई पीड़ा
नहीं होगी--हो
जाने दें परमात्मा
के साथ थोड़ा
अन्याय-- इससे
परमात्मा को कोई
हानि नहीं हो
जाएगी--यह
अन्याय करने
जैसा है। और
अगर परमात्मा
और इन भटकते
हुए लोगों के
बीच चुनाव
करना है, इनके
साथ अन्याय न
हो, इन
भटकते लोगों
के साथ अन्याय
न हो, इसलिए
शांडिल्य
बोलते हैं।
इसलिए बुद्ध
को बोलना पड़ा।
यह
उनकी
महाकरुणा है।
तुम्हारे
मार्ग में पत्थर
नहीं रखे हैं, तुम्हारे
मार्ग में जो
पत्थर पड़े हैं,
उनको कैसे
तुम सीढ़ियाँ
बना लो इसके
सूत्र दिये
हैं। और कम-
से-कम
शांडिल्य के
साथ तो तुम इस
तरह की बात
कहकर अन्याय
मत करो।
क्योंकि
शांडिल्य तो
तुम से नहीं
कह रहे हैं कि
स्नेह छोड़ दो,
कह रहे हैं
स्नेह को
शुद्ध कर लो, पत्थर है
सीढ़ी बन
जाएगा।
शांडिल्य तो
नहीं कह रहे
हैं कि प्रेम
छोड़ दो।
शांडिल्य कह
रहे हैं प्रेम
सीढ़ी बन सकता
है, शुद्ध
कर लो श्रद्धा
बन जाएगा, ऊपर
चढ़ जाओगे।
शांडिल्य तो
नहीं कह रहे
हैं संसार छोड़
दो, शांडिल्य
तो कह रहे हैं
द्वेष करो ही
मत संसार से, अन्यथा वही
बाधा हो
जाएगी।
शांडिल्य तो
विराग का, वैराग्य
का, तप का, तपश्चर्या
का कोई उपदेश
नहीं दे रहे
हैं, शांडिल्य
तो द्वार खोल
रहे हैं प्रेम
के मंदिर के, और तुम कहते
हो मार्ग में
पत्थर...!
नहीं, तुम्हारी
अड़चन मैं
समझता हूँ, कुछ और है, शायद
तुम्हें भी
साफ नहीं।
!शांडिल्य के
सूत्र
तुम्हें
बेचैन करते
हैं। बेचैन करते
इस कारण, क्योंकि-
उनके कारण
तुम्हें याद
आनी शुरू होती
है कि तुम जो
कर रहे हो, वह
सब दो कौड़ी का
है। असली करने'
योग्य बात
तुमने अभी की
नहीं। खोजने
योग्य चीज
खोजी नहीं।
तुम्हारे
भीतर नाराजगी
पैदा होती है।
इसलिए तो जीसस
को लोगों ने
सूली चढ़ा दइया,
सुकरात को
जहर दिया।
जिन्होंने
जाना है, उनके
साथ हमने
हमेशा बड़ी
कठोरता बरती,
क्यों? उनकी
मौजूदगी हमें
अड़चन देती है।
उनकी मौजूदगी
हमें पीड़ा
देती है। जब
क्राइस्ट
तुम्हारे पास
से गुजरते हैं
तो तुमको लगता
है--मेरा जीवन
बेकार गया। इस
आदमी ने पा
लिया, मैं
क्या कर रह
हूँ? मैं
दुकान पर ही
बैठा हुआ हूँ।
ये चाँदी के
ठीकरे इकट्ठे
कर रहा हूँ!
इन्हीं को
जोड़ते-जोड़ते
मर जाऊँगा? ऐसे ही मर
जाऊँगा, बिना
एक किरण पाए
परमात्मा की,
बिना एक
दिया जलाए
समाधि. का--और
इस आदमी के
भीतर
ज्योति-ही-ज्योति!
यह बरदाश्त
नहीं होता। या
तो अपने को
बदलो, या
इसको खतम करो,
इसको हटाओ;
यh न रहे
तो बेचैनी मिट
जाती है।
इसलिए जीसस को
सूली लगायी।
उससे बेचैनी
मिटती है।
तुम्हें भरोसा
आ जाता है।
तुमने
कभी देखा, अखबार
पढ़ते तुम्हें
कितना सुख
मिलता है! वह
सुख क्या है? वह वही सुख
है, उसका
ही दूसरा
पहलू।
क्राइस्ट को,
बुद्ध को, शांडिल्य को
देखकर
तुम्हें दुख
मित्रता है--मिलना
तो नहीं चाहिए,
मगर मिलता
है--अखबार
पढ़कर सुख
मिलता है।
सुबह से तुम
अखबार न पढ़ लो
तो बेचैनी बनी
रहती है, क्यों?
कितनी जगह
डाका पड़ा, कितनी
जगह हत्या हुई,
कितनी जगह
चोरियाँ हुईं,
सब पढ़-पढ़ाकर
तुम्हारे मन
में एक भाव
उठता है--इससे
तो हमीं भले!
तो हम कोई खास
बुरे नहीं
हैं! अखबार
तुम्हें बड़ा
आश्वासन देता
है। अखबार कहता
है कि तुम्हीं
भले।
तुम्हारी
चिंता मिट जाती
है। तुम्हारे
भीतर जो
अंतःकरण में
कचोट होती है
वह मिट जाती है।
तुमने कल जरा
चोरी की
थी--कौन नहीं
कर रहा? तुमने
कल किसीसे झूठ
बोला था--कौन
नहीं बोल रहा?
तुमने कल
किसीकी जेब
काटी थी--कौन
नहीं काट रहा?
तुमने
जरा-सी
बेईमानी की
थी--कौन नहीं
कर रहा? तुमने
रिश्वत
खिलायी थी, तुमने किसी
की खुशामद की
थी, यह सब
तुम्हारे ऊपर भारी
है, अखबार
पढ़कर सब
निर्भार हो
जाता है। तुम
कहते हो--हम
कोई खास नहीं
कर रहे हैं, यहाँ भारी
उपद्रव चल रहे
हैं! छोटे से
लेकर बड़े तक, चपरासी से
लेकर
राष्ट्रपति
तक सब बेईमान
हैं! चित्त का
भार उतर जाता
है, छाती
से पत्थर हट
जाता है।
सुबह
का अखबार बड़ी
जरूरत है। पढ़
लिया, दिन भर
के लिए
निश्चित हो
गये। करो चोरी
खूब, करो
बेईमानी खूब,
अंतःकरण
में चोट नहीं
लगती--सारी
दुनिया कर रही,
कोई
तुम्हीं थोड़े
ही कर रहे!
आदमी मात्र कर
रहा है, करना
ही पड़ता है, यहाँ बिना
किये चल ही
नहीं सकता, करना ही
एकमात्र उपाय
है।
लेकिन
बुद्ध जब पास
से गुजरते हैं, या
शांडिल्य की
बात कानों में
पड़ती है, तब
बेचैनी होती
है। तब यह
लगता है, तो
हम जो कर रहे
हैं, वह
करने योग्य
नहीं है। करने
योग्य कुछ और
है, जो हम
चूके जा रहे
हैं।
शांडिल्य ने
कर लिया। इस
आदमी पर
नाराजगी आती
है कि हम चूक
गये और तुमने
कर लिया! यह
नहीं होने
देंगे!
मानेंगे ही
नहीं हम। इसीलिए
तो दुनिया में
इतने लोग
अश्रद्धा करते
हैं, वे
कहते हैं ये
कुछ बातें
होतीं नहीं, बातें-ही-बातें
हैं। यह समाधि,
यह भक्ति, यh भाव, यh सब
बातें-ही-बातें
हैं। ये होती
नहीं।
तुमने
देखा, फ्रॉयड
का दुनिया में
इतना प्रभाव
पड़ा--इस सदी
में जिस आदमी
का सर्वाधिक प्रभाव
पड़ा है दुनिया
पर, वह
सिग्मंड फॉयड
है। क्यों पड़ा
उस आदमी का
इतना प्रभाव?
क्योंकि
उसने आदमी की
निम्नतम
बातों को स्वीकृति
दी।
श्रेष्ठतम
बातों को
अस्वीकार कर
दिया। उसने कह
दिया न कोई
परमात्मा है,
न कोई आत्मा
है, न कोई
समाधि है, यह
सब बकवास है।
असली बात तो
कामवासना है।
करोड़ों लोगों
ने राहत की
साँस ली। थक
गये थे
सुनते-सुनते
समाधि
निश्चित होकर
अपने
बिस्तरों पर
लेट गये और
उन्होंने
कहा--सब बकवास
है। हम जो कर रहे
हैं, वही
ठीक है। नाहक
भटकाया
बुद्धों ने।
नाहक उलझाया।
चैन ही नहीं
लेने देते। धन
कमाओ तो बीच
में खड़े हो
जाते हैं, स्त्री
के पीछे दौड़ो
तो बीच में
खड़े हो जाते हैं,
पद की
यात्रा करो तो
बीच में खड़े
हो जाते. हैं, जीना
दुश्वार कर
दिया बुद्धों
ने। फ्राँयड आया
त्राता की
तरह--तरण-तारण!
उसने एकदम मन
हलका कर दिया,
उसने कहा
यही आदमी कर
रहा है, सदा
से कर रहा है।
और जो नहीं कर
रहा है वह या
तो पागल है या
धोखेबाज है' या खुद धोखे
में है। भारी
बोझ उतर गया।
पत्थर, जो
तुम कह रहे हो
न शांडिल्य ने
पत्थर रख दिये,
वे फ्राँयड
ने हटा दिये।
फ्रॉयड ने
कहा--करो खूब
जो तुम कर रहे
हो। फ्राँयड--त्राता,
मसीहा।
लेकिन
उसका परिणाम
देखते हो क्या
हुआ?
आदमी इतना
नीचा कभी नहीं
गिरा था जितना
फ्राँयड के
बाद गिरा।
ऊँचे उठने की
बात ही झूठी
हो गयी। जब
ऊँचे उठने की
बात ही झूठी
हो गयी, कोई
क्यों प्रयास
करे? जब
एवरेस्ट है ही
नहीं, तो
कोई क्यों
पहाड़ चढ़े? हो,
तो चुनौती
है। जब है ही
नहीं, चुनौती
समाप्त हो
गयी। जब हीरे
की खदानें होतीं
ही नहीं, तो
कोई क्यों
गड्ढे खोदता
फिरे! तो अपना-
अपना कूड़ा-करकट
जो है, वही
सँभालो, हीरे
की खदानें तो
होतीं नहीं!
अंाऐर हीरे की
खदानें-ही-खदानें
हैं।
फ्रॉयड
के बाद
मनुष्यजाति
के चैतन्य में
एक अपूर्व पतन
आया। ऐसा कभी
नहीं हुआ था।
दो आदमियों के
ऊपर
मनुष्यजाति
का पतन लाने का
जुम्मा
है--फ्राँयड
और मार्क्स।
एक ने कहा--कामवासना
सब है, दूसरे
ने
कहा--अर्थ-वासना,
धन- वासना
सब है। दोनों
ने तुम्हें
मुक्त कर दिया।
दोनों ने
तुम्हें धर्म
से मुक्त कर
दिया। दोनों
ने तुम्हें
शांडिल्य और
नारद और बुद्ध
और महावीर और
कृष्ण से
मुक्त कर
दिया। दोनों
ने कहा--बस, दो
चीजें करने
यौग्य
हैं--काम की
तृप्ति करो और
धन, बस यh दो चीजें
मूल्यवान हैं;
इनके
अतिरिक्त न
कोई लक्ष्य है,
न कोई सत्य
है। स्वभावत:
आदमी पागल
होकर दोनों के
पीछे पड़ गया।
वैसे ही आदमी
डूबा था गर्त
में अब कोई
उपाय ही न रहा
मुक्ति का।
शांडिल्य
की बातों से
इसलिए तुम्हें
लगेगा कि
क्यों ये
पत्थर, क्यों
अड़चन पैदा
करते हो? क्यों
चुनौती देते
हो ' कहाँ
है पहाड़.? क्यों
व्यर्थ हमें
पहाड़ों पर
चढ़ाने ? के
लिए बुलाते हो।
हमें गड्ढों
में उतरने में
रस है। गड्ढे
में उतरने में
एक सुविधा रौ'--कुछ करना
नहीं पड़ता।
उतार में कुछ
करना ही नहीं
पड़ता। पहाड़ से
उतरे हो कभी? कुछ श्रम
नहीं करना
पड़ता, उतरते
जाओ, भागे
चले जाओ, लुढ़कों
तो भी लुढ़क
सकते हो। चढ़ने
में अड़चन है, चढ़ाव में
अड़चन है।
तुमने
जो पत्थर शब्द
प्रयोग किया, वह
यही बता रहा
है कि
शांडिल्य को
समझो तो चढ़ाव
दिखायी पड़ने
लगता है। शिखर
सामने खड़े हो
जाते हैं। फिर
उनको न चढ़ो, तो बेचैनी
होती है और
चढ़ो तो
कठिनाई। उलझन
खड़ी कर दी।
मगर
मैं तुमसे
कहता
हूँ--महाकरुणा
है शांडिल्य
जैसे
व्यक्तियों
की। तो ही
तुम्हारे लिए
थोड़ी आशा है।
कभी शायद
तुम्हारे कान
में कोई बात
पड़ जाए, कोई
बीज तुम्हारे
हृदय में उतर
जाए और तुम
उसकी खोज पर
निकल पड़ो जिसे
बुद्धि से
पाया नहीं जा
सकता शब्दों
में बाँधा
नहीं जा सकता,
जो
अनिर्वचनीय
है, अव्याख्य
है, वर्णन
के अतीत है।
उसकी खोज ही
जीवन है।
तीसरा
प्रश्न :
क्या
परमात्मा का
अनुभव भी
प्रत्येक का
अलग-अलग होता
है?
अनुभव तो
अलग-अलग नहीं
होता, अभिव्यक्ति
अलग-अलग होती
है।
अनुभव
तो अलग-अलग हो
ही नहीं सकता!
क्योंकि परमात्मा
एक है, दो. नहीं
तीन नहीं। जब
कोई व्यक्ति
परमात्मा के
अनुभव की घड़ी
में आता है, तो
व्यक्तित्व
के जितने भेद
हैं, सब
विलीन हो जाते
हैं, जिनके
कारण भेद पड़
सकता था। समझो
कि तुम सबने अलग-अलग
रंग के चश्मे
लगा रखे हैं, इस बगीचे
में तुम आओ, तो, तुम्हें
अलग-अलग रग के
फूल दिखायी
पड़े। तुम्हारे
चश्मों के
कारण। मन यानी
चश्मा। मन
यानी विचार।
मन यानी परदे।
परमात्मा का
अनुभव तो तभी
होता है जब मन
समाप्त हो गया,
सब चश्मे
उतर गये, सब
मंतव्य हट गये,
सब शास्त्र
विदा हो गये, सब शब्द
तिरोहित हो
गये, शून्य
रह गया। शून्य
दो तरह के
नहीं होते। मन
तो अलग-अलग
तरह के होते हैं,
मन तो
तरह-तरह के
होते हैं। दो
मन एक जैसे
नहीं होते।
तुमने
रंग की बात की
मन
को बाँधते हैं
रंग
और
रूप भी
मगर
ध्वनियाँ
ज्यादा
पकड़ती हैं
मुझको
जैसे
लहरों पर
टुटती हुई
ध्वनि
तट
की
या
हवा से पैदा
हुई ध्वनि
अकेले
एक पीपल की
वट
की
या
बाँस की
या
उस दिन- की
मेरी-तुम्हारी
तेज साँस की
तुमने
रग की बात की
मन
को बाँधते हैं
रग
और
रूप
मगर
ज्यादा पकड़ती
हैं
ध्वनियाँ
मुझको!
भिन्न-भिन्न
लोग हैं।
किसीको ध्वनि
पकड़ती है, किसीको
रूप पकड़ता है,
किसीको रंग
पकड़ता है।
जिसको ध्वनि
पकड़ती है, वह
संगीतज्ञ हो
जाएगा। उसके
पास कान अनूठे
होते हैं।
उसके पास कान
ही होते हैं।
उसके पास
आंखें वैसी
नहीं होतीं।
इसलिए
तुमने देखा, अंधे
आदमी संगीत
में प्रवीण हो
जाते हैं। अंधे
आदमी की ध्वनि
गर पकड़ गहरी
हो जाती है।
क्योंकि जो
ऊर्जा आँख से
बहती थी, वह
आँख से नहीं
बहती, उसको
भी कान से
बहना पड़ता है।
कान बलशाली हो
जाते हैं।
अंधा आदमी
जैसा सुनता है,
तुमने कभी
नहीं सुना। और
बहरा आदमी
जैसा देखता है,
वैसा तुमने
कमी नहीं
देखा। बहुरा
आदमी तुम्हारे
ओंठ के कंपन
को भी देखता
हैं।
तुम्हारे आख
दा इशारे को
भी देखता है।
तुम्हारी
भावभंगिमा को
देखता है।
क्योंकि वही
उसको पकड़ में
आता है और तो
उसकी पकड़ में
कुछ आ नहीं
सकता। उसके
सारे कान आंख
में उँडल जाते
हैं।
किसीको
ध्वनि प्यारी
लगती है तो
संगीतज्ञ हो जाता
है। अगर
संगीतज्ञ
मरमात्मा को
जानेगा, संगीतज्ञ
की तरह, तो
परमात्मा का
अनुभव नाद का
होगा। ओंकार।
चित्रकार रूप
का प्रेमी
होता, उसे
रंग दिखायी
पड़ते हैं। उसे
रंगों में बड़ी
गहराइयाँ
दिखायी पड़ती
हैं, जो
तुम्हें नहीं
दिखायी पड़ती।
अगर चित्रकार 'की तरह कोई
परमात्मा तक
पहुँचेगा, तो
परमात्मा की
मनमोहनी सूरत
पकड़ में आएगी।
उसका प्यारा
लावण्य पकड़
में आएगा।
लेकिन वहाँ तक
पहुँचते-पहुँचते
न तो तुम
चित्रकार रह
जाते हो, न
तुम संगीतज्ञ
रह जाते हो, न कवि रह
जाते हो, न
दुकानदार रह
जाते हो, क्योंकि
ये सब तो मन की
ही भावदशाएँ
हैं। वहाँ
पहुँचते-पहुँचते
तो एक चीज
बचती है, तुम.
शून्य हो जाते
हो। शून्य जो
हो जाता है, वही वहाँ
पहुँचता है।
तो शून्य में
कैसा भेद?
परमात्मा
एक है, उसमें
तो कोई भेद है
नहीं, और
जो पहुँचा है
वह शून्य होकर
पहुँचा है।
शून्य में और
पूर्ण में जब
मेल होता है, मिलन होता
है--वही तो
परमात्मा का
मिलन है, वही
तो
परमात्म-साक्षात्कार
शै, तुम
शून्य हो गये
और वह पूर्ण
है, पूर्ण
शून्य में
-उतरा। अनुभव
अलग-अलग नहीं
हो सकते। सच
तो यह है, यह
कहना कि अनुभव
होता है
परमात्मा का,
ठीक नहीं
है। क्योंकि
अनुभव होने के
लिए तो अनुभोक्ता
चाहिए। अनुभव
होने के लिए
तो मन चाहिए।
अनुभव
करनेवाला ही
नहीं बचता, तब अनुभव
होता है, तो
इसको अनुभव
कैसे कहोगे? इसलिए हमारे
पास दो शब्द
हैं--अनुभव और
अनुभूति।
दूसरा शब्द
इसीलिए
बनाया।
दुनिया की
किसी भाषा में
अनुभव के लिए
दो शब्द नहीं
हैं। जैसे अँग्रेजी
में 'एक्स्पीरियंस'
एक शब्द है।
काम एक से हो
जाता छुँ, अब
दूसरे शब्द की
क्या जरूरत है?
कृष्णमूर्ति
चूँकि
अँग्रेजी में ही
बोलते हैं, उन्हें एक
शब्द गढ़ना पडा
है--' अनुभूति
' के लिए-- वह
उसको कहते है--'एक्स्पीरियसिंग'। वह भाषा के
लिहाज से ठीक
नहीं है, मगर ' एक्स्पीरियंस
' से, अनुभव
से अलग कुछ
कहना पड़ेगा।
हमारे
पास दो शब्द
है--अनुभव और
अनुभूति।
अनुभव का
अर्थ. है--तुम
मौजूद हो और
अनुभव हो रहा
है। किसीने
वीणा बजायी और
तुम आल्हादित
हुए और तुमने
कहा--बड़ी
आंनदपूर्ण थी, बड़ी
रसपूर्ण थी।
यह अनुभव।
लेकिन किसीने
वीणा बजायी और
तुम डूब गये
उसमें, तुम
बचे ही नहीं, अनुभव
करनेवाला
अज़ुभोक्ता
बचाही नहीं, शून्य हो
गया, तुम
लौटकर क्या
कहोगे? तुम
अवाक खड़े रह
जाओगे। तुम
कुछ न कह
पाओगे। तुम्हारी
वाणी अवरुद्ध
हो जाएगी।
शायद आख से
आँसू बहे, शायद
ओंठों पर
मुस्कुराहट
हो, मगर
कहोगे क्या? कहनेवाला था
ही नहीं वहाँ,
पकड़नेवाला
था ही नहीं, तुम मिट गये
थे, यह
अनुभूति।
अनुभव
में तुम रहते
हो,
लेखाजोखा
करनेवाला मौजूद
रहता है, अनुभूति
में तुम नहीं
रहते, शून्य
रहता है।
तो
परमात्मा के
अनुभव को
अनुभव भी नहीं
कहा जा सकता।
शून्य को क्या
अनुभव होगा? और
शून्य को ही
अनुभव होता
है। इसलिए
अनुभूति कहें।
अलग-अलग तो हो
ही नहीं सकती,
क्योंकि
अलग-अलग तो
करता था मन, मन तो गया।
ऐसा
समझो, तुमने
एक मकान बनाया
है। पड़ोसी का
एक और मकान है।
कितने मकान
हैं, मकान-ही-मकान
हैं! हर मकान
एक ही आकाश
में बना है।
लेकिन हर मकान
का स्थापत्य
अलग-अलग है।
किसीने गोल
कमरे बनाए हैं,
किसीने
चौकोर कमरे
बनाए हैं, किसीने
कुछ और किया
है, किसीने
कुछ और किया
है। ऐसी दशा
है मन की।
शून्य सबके
भीतर है, लेकिन
किसीके भीतर
चौकोन, किसीके
भीतर तिकोन, किसीके भीतर
अष्टकोन।
समाधि
का अर्थ होता
है--मन हट गया।
तुमने मकान गिरा
दिया, तुमने
दीवालें हटा
दीं। तुम जब
मकान गिरा देते
हो तो
तुम्हारे
मकान के भीतर
जो शून्य था, वह नहीं मिट
जाता सिर्फ
दीवालें हट
जाती है, बाहर
के शून्य से
भीतर के शून्य
का मिलन हो जाता
है, आकाश
बाहर भी था, आकाश भीतर
भी था, तुमने
बीच में
दीवालें खड़ी
कर रखी थीं, दीवालें हट
गयीं, आकाश
का आकाश से
मिलन हो गया।
मन हमारा
स्थापत्य है।
तुमने एक ढंग
का मन बनाया
है, पडोसी
ने और ढंग का
मन बनाया है, मन हमारा घर
है, आवास
है। किसीको
गोल कमरे पसंद
हैं, किसीको
चौकोन कमरे
पसंद हैं; किसीको
ऊँचा छप्पर
पसंद है, किसीको
नीचा छप्पर
पसंद है, ये
पसंदगियाँ
हैं। लेकिन
तुम न तो ऊँचे
छप्पर में
रहते हो, न
नीचे छप्पर
में रहते हो, रहते तो तुम
मकान के भीतर
के खालीपन में
हो। न तुम गोल दीवाल
में रहते हो, न चौकोन
दीवाल में
रहते हो, रहते
तो तुम
दीवालों के
बीच में जो
आकाश है उसमें
रहते हो। वह
जा अवकाश है
मकान के भीतर
उसमें रहते
हो। मगर फिर
भी मकान
अलग-अलग हैं, मन अलग-अलग
हैं।
समाधि
तो एक है। सब मकान
गिर गये, स्थापत्य
गया, दीवालें
गयीं। तुम ऐसा
समझो कि तुम
अपने कमरे में
बैठे हो। जब
तुम कमरे में
बैठे थे तो
चारों तरफ गोल
कमरा था। तुम
वहीं बैठे हो
और गोल कमरे
की दीवालें
हटा ली
गयीं--कुछ और
नहीं बदला गया,
तुम जैसे
बैठे हो वैसे
ही बैठे हो, चारों तरफ
से दीवालें
हटा ली गयीं; समझो तंबू
था, खींच
लिया, तुम
जहाँ बैठे हो
वैसे ही बैठे.
हो, लेकिन
तb नो हटते
ही सारा आकाश
तुम्हारे
छोटे-से आकाश
में मिल गया।
सब चाँद-तारे
तम्हारे भीतर
आ गये। पहले
बाहर थे तंबू
के, अब तबू
के भीतर आ गये,
अब सारा
आकाश
तुम्हारा
तंबू हो गया।
इस घड़ी में
कोई भेद नहीं
रह जाएँगे.।
परमात्मा
का अनुभव तो
एक है, लेकिन
अभिव्यक्ति
जरूर
भिन्न-भिन्न
हैं, क्योंकि
अभिव्यक्ति
का मतलब हुआ
तुम्हें फिर
मन का उपयोग
करना पड़ेगा।
बुद्ध जानकर
लौटे, शांडिल्य
जानकर लौटे, जीसस जानकर
लौटे, मुहम्मद
जानकर लौटे; फिर आए तुम्हारे
बीच बाजार में,
तुमसे कहने
आए; अब जब
कहना है तो
फिर मन का
उपयोग करना
पड़ेगा, बोलना
है तो फिर
भाषा को बीच
में लाना
पड़ेगा--यह
भाषा अलग-अलग
होगी।
मुहम्मद की
अपनी भाषा में;
उस भाषा में,
महावीर की
भाषा में बड़ा
भेद है। मगर
अनुभव में
जरा-भी भेद
नहीं है।
ऐसा
ही समझो कि इस
बगीचे से तुम
गये घर, और
किसीने. तुमसे
कहा—तुम्हारे बच्चों
ने कहा कि
हमें भी तो
कुछ बताओ कि
बगीचा कैसा था?
जो
चित्रकार
होगा वह शायद
चित्र बनाकर
बता देगा कि
ऐसा था। जो
कवि होगा, वह
एक कविता
लिखेगा-वृक्षों
की, वृक्षों
के बीच से
गुजरती हवाओं
की, वृक्षों
के बीच-बीच से
छनती सूरज की
किरणों की, वह कविता
लिखेगा। अब एक
कविता में और
एक चित्र में
बड़ा फर्क है।
या हो सकता है
कोई संगीतज्ञ हो,
वह कविता भी
नहीं लिखेगा,
वह अपनी
वीणा उठा
लेगा। क्यों
लिखे कविता? हवाएँ
गुजरती थीं
वृक्षों से और
आवाज होती थी और
नाद पैदा होता
था, वह
वीणा पर वही
नाद पैदा कर
देगा। रंग थे
वृक्षों में,
रंगों को वह
ध्वनियों में
बदल देगा।
धूप-छाँव थी, वह धूप- छाँव
को संगीत में
उतार देगा। वह
अपनी वीणा पर
बजाएगा बगीचे
को। कोई कविता
में लिखेगा, कोई कागज पर
उतारेगा।
तीनों की
अभिव्यक्तियाँ
अलग हो
जाएँगी। और
अगर तीनों की
अभिव्यक्तियाँ
तुम देखो, तो
उन्हीं को
देखकर तुम यह
न कह सकोगे--यह
एक ही जगह की
बात कर रहे
हैं। तुम
कहोगे कोई
वीणा बजा रहा
है, किसीने
कविता लिखी है,
किसीने
चित्र बनाया
है। और हो
सकता है कोई
गणितज्ञ हो, तो वह कुछ
अनुपात
बनाएगा, वह
गणित में कुछ
बात रखेगा। हो
सकता है इस
बगीचे में आकर
उसे ' सिमेट्री
', समतुलता
दिखायी पड़ी हो,
तो' वह
लिखे--दों
बराबर दो, ऐसा
था बगीचा। हर
चीज समान थी, अनुपात में
थी। या कोई
ज्यामिति का
जानकार हो, तो रेखाएँ
खींचेगा कागज
पर। ज्यामिति
से बताएगा।
भेद हो जाएँगे।
बड़े भेद हो
जाएँगे। हजार
तरह के लोग हो
सकते हैं। कोई
मिठाईवाला आ
गया हो.. एक मिल
अभी यहाँ हैं,
कल ही
उन्होंने
संन्यास लिया,
वह मिठाई की
दूकान करते
हैं--स्वामी
विष्णु भारती--अब
अगर तुम उनसे
पूछोगे कि
क्या पाया वहाँ,
तो वह एक
मिश्री का
टुकड़ा
तुम्हारे मुँह
में रख देंगे
कि तुम्हीं
स्वाद ले लो; मीठा था, खूब
मीठा था।
सभी
ठीक कह रहे
हैं। सभी एक
की बात कर रहे
हैं। फिर भी
अनेक हो गयी
बात,
फिर भी
भिन्न-भिन्न
हो गयी बात।
अभिव्यक्तियाँ
भिन्न-भिन्न
हैं, अनुभव
एक है।
आखिरी
प्रश्न :
क्या
प्रार्थनाएँ
प्रभु तक पहुँचती
हैं?
प्रार्थना
का प्रयोजन ही
प्रभु तक
पहुँचने में
नहीं है।
प्रार्थना
तुम्हारे
हृदय का भाव है।
फूल खिले, सुगंध
किसी के
नासापुटों तक
पहुँचती है, यह बात
प्रयोजन की
नहीं है।
पहुँचे तो ठीक,
न पहुँचे तो
ठीक। फूल को
इससे भेद नहीं
पड़ता।
प्रार्थना
तुम्हारी फूल
की गंध की तरह
होनी चाहिए।
तुमने निवेदन
कर दिया, तुम्हारा
आनंद निवेदन
करने में ही
होना चाहिए।
इससे ज्यादा
का मतलब है कि
कुछ माँग छिपी
है भीतर। तुम
कुछ माँग रहे
हो। इसलिए
पहुँचती है कि
नहीं? पहुँचे
तो ही माँग
पूरी होगी।
पहुँचे ही न
तो क्या सार
है सिर मारने
से! और
प्रार्थना
प्रार्थना ही
नहीं है जब उसमें
कुछ माँग हो।
जब तुमने
माँगा, प्रार्थना
को मार डाला, गला घोंट
दिया।
प्रार्थना तो
प्रार्थना ही
तभी है जब
उसमें कोई
वासना नहीं
है। वासना से
मुक्त होने के
कारण ही
प्रार्थना
है। वही तो उसकी
पावनता है।
तुमने अगर प्रार्थना
में कुछ भी
वासना
रखी--कुछ
भी--परमात्मा
को पाने की ही
सही, उतनी
भी वासना रखी,
तो
तुम्हारा
अहंकार बोल
रहा है। और
अहंकार की बोली
प्रार्थना
नहीं है।
अहंकार तो
बोले ही नहीं,
निरअहंकार
डाँवाडोल हो।
प्रार्थना
आनंद है।
कोयल
ने कुh-कुहू का
गीत गाया, मोर
नाचा, नदी
का कलकल नाद
है, फूलों
की गंध है, सूरज
की किरणें हैं,
कहीं कोई
प्रयोजन नहीं
है, आनंद
की
अभिव्यक्ति
है, ऐसी
तुम्हारी
प्रार्थना
हो। तुम्हें
इतना दिया है
परमात्मा ने,
प्रार्थना
तुम्हारा
धन्यवाद होना
चाहिए--तुम्हारी
कृतज्ञता।
लेकिन
प्रार्थना
तुम्हारी माँग
होती है। तुम
यह नहीं कहने-
जाते मंदिर कि
हे प्रभु, इतना
तूने दिया, धन्यवाद! कि
मैं अपात्र, और मुझे
इतना भर दिया!
मेरी कोई
योग्यता नहीं,
और तू
औघड़दानी, और
तूने इतना
दिया। मैंने
कुछ भी अर्जित
नहीं किया, और तू दिये
चला जाता है, तेरे दान का
अत नहीं है।
धन्यवाद देने
जब तुम जाते
हो मंदिर, तब
प्रार्थना।
पहुँची या
नहीं पहुँची,
यह सवाल
नहीं है।
सूफी
फकीर
जलालुद्दीन' रूमी
ने कहा है--लोग
प्रार्थनाएँ
करते हैं ताकि
परमात्मा को
बदल दें।
पत्नी बीमार
है--अगर उसकी
आज्ञा से ही
पत्ता हिलता
है, तो
उसकी आज्ञा से
ही पत्नी बीमार
होगी-आप गये
प्रार्थना
करने, जरा
सुझाव देने कि
बदलो यह इरादा,
मेरी पत्नी
बीमार नहीं
होनी चाहिए, यह भूल-चूक
सुधार लो-- ' अल्टीमेटम
' देने चले
गये, कि
नहीं तो फिर
दुबारा मुझसे
बुरा कोई
नहीं। कि मेरी
श्रद्धा
डगमगाने लगी
है अब। या तो
मेरी पत्नी
ठीक हो, या
फिर कभी भरोसा
न कर सकूँगा
कि तुम हो। हो
तो प्रमाण दो!
कि घर पहुँचूँ
कि पत्नी ठीक
हो जाए। कि
मैं गरीब हूँ,
धन चाहिए।
कि चुनाव में
खड़ा हुआ हूँ, इस बार तो
जिता ही दो।
तुमने
कुछ माँगा, तो
उसका अर्थ हुआ
कि तुम
परमात्मा को
बदलने गये।
उसका इरादा
मेरे अनुसार
चलना चाहिए। यh
प्रार्थना
हुई। तुम
परमात्मा से
अपने को ज्यादा
समझदार समझ
रहे हो? तुम
सलाह दे रहे
हो? यह
अपमान हुआ। यह
नास्तिकता है,
आस्तिकता
नहीं है।
आस्तिक तो
कहता है--तेरी
मर्जी, ठीक।
तेरी मर्जी ही
ठीक! मेरी
मर्जी सुनना
ही मत। मैं
कमजोर हूँ और
कभी-कभी बात
उठ पाती है, मगर मेरी
सुनना ही मत, क्योंकि
मेरी सुनी तो
सब भूल हो
जाएगी। मैं समझता
ही क्या हूँ? तू अपनी
किये चले
जाना। तू जो
करे, वही
ठीक है। ठीक
की और कोई
परिभाषा नहीं
है, तू जो
करे वही ठीक
है।
जलालुद्दीन
रूमी ने
कहा--लोग जाते
हैं प्रार्थना
करने ताकि परमात्मा
को बदल दें।
और,
उसने यह भी
कहा कि असली
प्रार्थना वह
है जो तुम्हें
बदलती है, परमात्मा
को नहीं। यह
बात समझने की
है--असली प्रार्थना
वह है जो
तुम्हें
बदलती है।
प्रार्थना
करने में तुम
बदलते हो।
परमात्मा
सुनता है कि
नहीं, यह
फिकर नहीं, तुमने सुनी
या नहीं?
तुम्हारी
प्रार्थना ही
अगर तुम्हारे
हृदय तक पहुँच
जाए, सुन
लो तुम. तो
रूपांतरण हो
जाता है।
प्रार्थना
का जवाब नहीं
मिलता
हवा
को हमारे शब्द
शायद
आस-मान में
हिला
जाते हैं
मगर
हमें उनका
उत्तर नहीं
मिलता
बंद
नहीं करते तो
भी हम
प्रार्थना
मंद
नहीं करते हम अपने
प्रणिपातों
की गति
धीरे-धीरे
सुबह-शाम
ही नहीं
प्रतिपल.
प्रार्थना
का भाव हममें
जागता रहे
ऐसी
एक कृपा हमें
मिल जाती है
खिल
जाती है
शरीर
की कँटीली
झाड़ी
प्राण
बदल जाते हैं
तब
वे शब्दों का
उच्चारण नहीं
करते
तल्लीन
कर देने वाले
स्वर गाते हैं
इसलिए
मैं प्रार्थना
छोड़ता नहीं
हूँ
उसे
किसी उत्तर से
जोड़ता नहीं
हूँ
प्रार्थना
तुम्हारा सहज
आनंदभाव।
प्रार्थना
साधन नहीं, साध्य।
प्रार्थना
अपने में
पर्याप्त।
अपने में पूरी,
परिपूर्ण।
नाचो, गाओ
आह्लाद प्रगट
करो, उत्सव
मनाओ। बस वहीं
आनंद है। वही
आनंद तुम्हें
रूपांतरित
करेगा। आनंद
रसायन है। उसी
आनंद में
लिप्त
होते-होते तुम
पाओगे-अरे, परमात्मा तक
पहुँचे या
नहीं, इससे
क्या प्रयोजन
है, मैं
बदल गया, मैं
नया हो आया.!
प्रार्थना
स्नान है
आत्मा का।
उससे तुम
शुद्ध होओगे,
तुम
निखरोगे। और
एक दिन तुम
पाओगे कि
प्रार्थना
निखारती गयी,
निखारती
गयी, निखारती
गयी एक दिन
अचानक चौंक कर
पाओगे कि तुम
ही परमात्मा
हो। इतना
निखार जाती है
प्रार्थना कि
एक दिन तुम
पाते हो तुम
ही परमात्मा
हो।
और
जब तक यह न जान
लिया जाए कि
मैं परमात्मा
हूँ',
तब तक कुछ
भी नहीं
जाना--या जो
जाना, सब
असार है।
आज
इतना ही।
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