गुरुता
और लघुता
जो
हलका है, उसका
आधार ठोस है, गंभीर है;
और
निश्चल
चलायमान का
स्वामी है।
इसलिए
संत दिन भर
यात्रा करता
है,
लेकिन
जीवन-ऊर्जा के
स्रोत से जुड़ा
रहता है।
सम्मान
व गौरव के बीच
भी
वह
विश्रामपूर्ण
व अविचल जीता
है।
एक
महान देश का
सम्राट कैसे
अपने राज्य
में
अपने
शरीर को
उछालता फिर
सकता है?
हलके
छिछोरेपन
में केंद्र खो
जाता है,
जल्दबाजी
के काम में
स्वामित्व,
स्वयं
की मालकियत
नष्ट हो जाती
है।
मन
सोचता है सदा
द्वंद्व में।
निर्द्वंद्व
की उसे कोई
झलक भी नहीं
है। विचार
बांट लेता है
अस्तित्व को
दो में। एक का
उसे कोई अनुभव
नहीं है।
जो
अद्वैत की बात
भी करते हैं, वे
भी द्वैत में
ही ग्रस्त
होते हैं। जो
एक की चर्चा
भी करते हैं, उनकी चर्चा
में भी दो ही
समाया रहता
है। जो कहते
हैं कि एक ही
है, वे भी संसार
और मोक्ष में
फर्क करते
हैं। जो कहते
हैं सब अद्वैत
है, वे भी
कहते हैं
ब्रह्म और
माया अलग-अलग
हैं। जो कहते
हैं कि एक का
ही विस्तार है,
वे भी सुख
और दुख में
भेद मानते
हैं। शुभ और
अशुभ में तो
निश्चय ही भेद
मानते हैं।
लाओत्से
अद्वैत का इस
जगत में अब तक
हुए मनीषियों
में सबसे बड़ा
प्रतिपादक
है। यह थोड़ी
हैरानी की बात
लगेगी।
क्योंकि हमने
शंकर को पैदा
किया है; और
ऐसा लगता है
कि शंकर से
बड़ा अद्वैतवादी
खोजना
मुश्किल है।
लेकिन शंकर के
अद्वैत में भी
द्वैत की
चर्चा जारी ही
रहती है। बहुत
चेष्टा शंकर
करते हैं दो
को मिटाने की;
लेकिन
जिसको मिटाने
की हम चेष्टा
करते हैं, उसे
हमने स्वीकार
कर ही लिया।
जिसे हम इनकार
करने की कोशिश
करते हैं, कहीं
गहरे तल पर
हमने उसे मान
लिया है। शंकर
अथक चेष्टा
करते हैं कि
माया नहीं है;
लेकिन पूरे
जीवन शंकर, माया नहीं
है, यह
सिद्ध करने
में लगे रहते
हैं। जो नहीं
है उसकी इतनी
चिंता भी क्या?
जो नहीं है
उसे नहीं है, ऐसा सिद्ध
करने का
प्रयोजन भी
क्या? शंकर
को भी उसका
होना कहीं
खटकता है।
सपना
ही सही, लेकिन
सपना भी होता
है। और कितना
ही इनकार करो,
कितना ही
कहो झूठ है, फिर भी नहीं
तो नहीं हो
जाता। होता तो
है ही। और रात
सपने के बाद
सुबह जाग कर
भी जब पता भी
चल जाता है कि
सपना था, तब
भी उसके
परिणाम तो
जारी रहते
हैं। जिसने रात
एक सुखद सपना
देखा है, सुबह
जाग कर भी
उसके चेहरे पर
उसकी खुशी
होती है। और
जिसने रात एक
दुख-स्वप्न से
घिरा रहा है, सुबह उठ कर
भी उसका मन
उदास और म्लान
बना रहता है।
जाग कर भी! तो
सपना भी एकदम
सपना तो नहीं
है। और जब हम
कहते हैं कि
सपना सपना ही
है, तब हम
सिर्फ इतना ही
कह रहे हैं कि
वह ठोस जाग्रत
के जगत जैसा
नहीं है।
लेकिन फिर भी
है तो।
लाओत्से
अद्वैत को
दार्शनिक की
तरह नहीं, एक
अनुभोक्ता की तरह
प्रतिपादित
करता है; एक
सिद्धांत की
तरह नहीं, क्योंकि
यहीं कठिनाई
है। और यह
कठिनाई थोड़ी जटिल
है। जब भी हम
सिद्धांत
बनाते हैं, तभी विचार
का उपयोग करना
पड़ता है। और
विचार द्वैत
के पार नहीं
जा सकता। वह
उसकी मजबूरी
है। इसलिए जब
हम विचार से
द्वैत के पार
जाने की कोशिश
करते हैं, तो
हम अद्वैत की
चर्चा भला
करते रहें, लेकिन द्वैत
उस चर्चा के
भीतर भी तलहटी
में मौजूद
रहता है।
विचार दो के
पार जा ही
नहीं सकता। तो
या तो अद्वैत
के संबंध में
कुछ कहना हो
तो चुप रह
जाना उपाय है;
और या फिर
एक उपाय है जो
लाओत्से ने
अख्तियार किया।
यह उपाय शंकर
से बहुत
बुनियादी रूप
से भिन्न है।
इसे हम थोड़ा
समझें।
लाओत्से
कहता है कि
विरोध दिखाई
पड़ता है, विरोध
है नहीं।
विरोध केवल
भासमान है।
संसार और
मोक्ष में जो
विरोध है, वह
भी दिखाई पड़ता
है। क्योंकि
हम पूरा नहीं
देख पाते, हम
अधूरा देखते
हैं।
हमारे
देखने की एक
सीमा है। आप
मुझे देख रहे
हैं;
तो मेरा
चेहरा दिखाई
पड़ता है, लेकिन
मेरी पीठ
दिखाई नहीं
पड़ती। आप मेरी
पीठ देखें तो
मेरा चेहरा
दिखाई पड़ना
बंद हो जाता
है। आप मुझे
पूरा नहीं देख
सकते। जब भी
देखेंगे, आधा
ही देखेंगे।
शेष आधा
अनुमानित है।
मेरी पीठ भी
होगी, यह
आपका अनुमान
है; क्योंकि
देख तो आप
मेरा चेहरा ही
रहे हैं। कभी
आपने मेरी पीठ
भी देखी है।
इन दोनों को
आप जोड़ लेते
हैं और एक का
निर्माण करते
हैं। लेकिन एक
को आपने कभी
देखा नहीं।
देखते आप दो
को हैं।
यह बड़े
मजे की बात
है। एक छोटा
सा कंकड़
भी आप पूरा
नहीं देख सकते
हैं। उसका भी
एक हिस्सा
अनदेखा ही रह
जाता है। एक
रेत का छोटा
सा टुकड़ा भी
आप पूरा नहीं
देख सकते हैं।
छोटे होने से
कोई फर्क नहीं
पड़ता, आधा ही
देखते हैं।
आधा-आधा दो
बार देखते हैं,
दोनों को
विचार में जोड़
कर पूरा बना
लेते हैं।
इसलिए जिस रेत
के टुकड़े को
आप कल्पना में
देखते हैं, वह आपके
अनुमान से
निर्मित है--हाइपोथेटिकल
है, परिकल्पित
है। वह आपका
अनुभव नहीं
है। अनुभव तो
आधे का है। दो
आधे आपने देखे
हैं और दोनों
को जोड़ कर
विचार में एक
का निर्माण
किया है।
विचार
की सीमा है।
वह आधे को ही
देख पाता है; पार्ट
को, हिस्से
को देख पाता
है। इस देखने
की वजह से हमें
विरोध दिखाई
पड़ता
है--अंधेरा
अलग और प्रकाश
अलग। और उन
दोनों को हम
जोड़ नहीं पाते,
क्योंकि वे
बड़ी घटनाएं
हैं। हम जोड़
नहीं पाते कि
अंधेरा और
प्रकाश एक ही
चीज के दो
पहलू हैं। अगर
प्रकाश चेहरा
है, तो
अंधेरा पीठ
है। लेकिन
प्रकाश और
अंधेरे को हम
जोड़ नहीं
पाते। वे बहुत
बड़ी घटनाएं
हैं, विराट
घटनाएं हैं।
लेकिन
विज्ञान कहता
है कि अंधेरे
का अर्थ इतना
ही होता है, जितना
कम प्रकाश
कहने से हो।
और प्रकाश का
अर्थ इतना ही
होता है जितना
कम अंधेरा
कहने से हो।
आप प्रकाश को
अंधेरे के
बिना सोच भी
नहीं सकते।
अंधेरे को
प्रकाश के बिना
कल्पना करने
का कोई उपाय
नहीं है। अगर
अंधेरा मिट
जाए तो आप ऐसा
मत सोचना कि
प्रकाश ही प्रकाश
शेष रह जाएगा।
अंधेरा मिट
जाए तो प्रकाश
बिलकुल शेष
नहीं रह
जाएगा। आप यह
मत सोचना कि
प्रकाश नष्ट
हो जाए तो जगत
अंधकार ही
अंधकार में
डूब जाएगा।
प्रकाश के
नष्ट होते ही
अंधेरा भी
नष्ट हो
जाएगा। वे
दोनों एक ही चीज
के दो पहलू
हैं। उनमें जो
अंतर है, वह
विरोध का नहीं
है। विरोध
हमारे आंशिक
देखने के कारण
पैदा होता है।
यह बात बहुत
मौलिक है लाओत्से
की, यह समझ
लेनी चाहिए।
सुख और
दुख में हम
विरोध देखते
हैं। लाओत्से
कहता है, वे
विरोधी नहीं
हैं। इसलिए जो
आदमी सोचता है
कि ऐसा कोई
क्षण आ जाए जब
दुख बिलकुल न
रहे, तो
उसे पता नहीं
है, उस
क्षण सुख भी
बिलकुल न रह
जाएगा। अगर आप
सुख चाहते हैं
तो दुख को
चाहना ही
पड़ेगा। अगर आप
सुख चाहते हैं
तो दुख को
बनाए ही
रखेंगे। दुख
आपकी सुख की
चाह से ही निर्मित
हो रहा है।
क्योंकि वे
दोनों एक हैं।
आपने जाना है
कि दो हैं, आपके
जानने से
अस्तित्व में
कोई फर्क नहीं
पड़ता। यह आपका
जानना भ्रांत
है।
थोड़ा
सोचें कि आपके
घर कोई मित्र
आए और आपको खुशी
हो;
तो आपके घर
कोई शत्रु
आएगा तो दुख
होगा। आप
सोचते हों, कुछ ऐसा कर
लें कि शत्रु
आए तो दुख न
हो। जिस दिन
आप ऐसा इंतजाम
कर लेंगे, उस
दिन मित्र भी
आएगा और सुख न
होगा। आप
सोचते हों कि
यश मिले और
सुख न हो; तो
अपयश मिलेगा,
दुख न होगा।
वे संयुक्त
घटनाएं हैं।
उन घटनाओं को
हम तोड़ कर देख
लें, लेकिन
अस्तित्व में
तोड़ नहीं
सकते।
लाओत्से
कहता है कि
विरोध केवल
दिखाई पड़ते हैं; विरोध
हैं नहीं।
विरोध एक ही
अस्तित्व के
दो छोर हैं।
लेकिन इतना
विस्तार है
अस्तित्व का कि
जब हम देखते
हैं तो एक छोर
को देख पाते
हैं; जब तक
हम दूसरे छोर
तक जाते हैं, एक छोर
हमारे लिए ओझल
हो जाता है।
और इन दोनों
को हम अब तक
नहीं जोड़ पाए।
जो जोड़ लेते
हैं, वे
परम संत हैं।
इन दोनों
छोरों को जो
जोड़ लेते हैं,
देख लेते
हैं जुड़ा हुआ,
वे परम संत
हैं। जो नहीं
जोड़ पाते, उन्हें
हम अज्ञानी
कहते हैं।
इतना ही
अज्ञान है कि
अस्तित्व
हमारे लिए सदा
दो में बंटा
हुआ दिखाई
पड़ता
है--मित्र में,
शत्रु में;
प्रेम में,
घृणा में; प्रकाश में,
अंधकार में;
शुभ में, अशुभ में; स्वर्ग में,
नरक
में--हमें
बंटा हुआ
दिखाई पड़ता
है।
स्वर्ग
और नरक एक ही
चीज के दो छोर
हैं। और इसलिए
स्वर्ग से नरक
जाने में, नरक
से स्वर्ग आने
में अड़चन नहीं
होती। यात्रा
सुगम है। सुख
से दुख में
जाने में
कितनी देर
लगती है? कभी
आपने खयाल
किया कि जब आप
सुख से दुख
में प्रवेश
करते हैं, तो
कौन सा क्षण
है जहां सुख
दुख बन जाता
है? किस
जगह आकर सुख
समाप्त होता
है और दुख
शुरू होता है?
अगर आप
इतनी खोज करें
तो आपको पता
चलेगा, वह
क्षण आता ही
नहीं कभी।
जितना आप
खोजेंगे उतना
आप पाएंगे कि
दुख और सुख के
बीच में कोई
अंतराल नहीं
है, कोई
खाई नहीं है।
सुख और दुख के
बीच में कोई
गैप नहीं है।
जितना आप
खोजेंगे, उतना
ही आप पाएंगे
कि सुख दुख का
ही एक छोर है। दुख
कभी शुरू नहीं
होता। जब आप
सुख में थे, तब भी मौजूद
था। सिर्फ आप
आधे को देख
रहे थे। धीरे-धीरे
जब पूरा आपकी
झलक में आता
है, दूसरा
छोर दिखाई
पड़ता है, तो
दुख हो जाता
है। सब दुख
सुख बन सकते
हैं, सब
सुख दुख बन
सकते हैं। इंटरचेंजेबल
हैं, उनमें
कहीं कोई
अवरोध नहीं
है। कहीं कोई
झटका भी नहीं
लगता जब आप
सुख से दुख में
जाते हैं।
इतना भी नहीं
जितना कि गियर
बदलने में
गाड़ी में लगता
है। इतना भी
नहीं। कोई बदलाहट
ही नहीं होती;
आप एक ही
पटरी पर होते
हैं।
इसलिए
एक बहुत मजे
की बात है और
वह यह है कि
जहां-जहां
आपको विरोध
दिखाई पड?ता
हो, वहां-वहां
विरोध नहीं है,
अविरोध है।
यह जो अविरोध
है, यह
सिर्फ अविरोध
ही नहीं है।
लाओत्से
दूसरी बात भी
कहता है। वह
कहता है, न
केवल यह
अविरोध है, बल्कि यह
परिपूरक है, यह कांप्लीमेंटरी
है। इतना ही
नहीं है कि
सुख और दुख
में विरोध नहीं
है, बल्कि
इतना भी कि सुख
का आधार दुख
है और दुख का
आधार सुख है।
इतना ही नहीं
कि शुभ और
अशुभ दुश्मन
नहीं हैं, बल्कि
मित्र हैं, और एक-दूसरे
के सहयोगी
हैं।
ऐसी
कोई दुनिया की
कल्पना करें
जहां कोई असाधु
न हो,
साधुओं की
एकदम मृत्यु
हो जाएगी।
जहां कोई अज्ञानी
न हो, वहां
ज्ञानी एकदम
व्यर्थ हो
जाएंगे। उनका
पता ही नहीं
चलेगा। एक के
साथ दूसरा
जुड़ा है। और
एक के सहारे
दूसरा खड़ा है।
यह
साधक के लिए
बहुत कीमत की
बात है।
क्योंकि साधक
पूरी जिंदगी
इसी उपद्रव
में पड़ा होता
है। संसारी भी
इसी उपद्रव
में पड़ा होता
है और साधक
भी। फर्क उनके
विषयों के
चुनाव का होता
है। संसारी
इसमें पड़ा
होता है कि सुख
बचे और दुख हट
जाए। और साधक
इसमें पड़ा
होता है कि
शुभ बचे और
अशुभ हट जाए।
लेकिन दोनों
की भूल एक ही
है। जिसको आप
संन्यासी
कहते हैं, वह
भी उसी भूल
में होता है
जिसमें
संसारी होता
है। उनके
चुनाव अलग
हैं। संसारी
कहता है, मैं
सुख बचा लूंगा,
दुख को काट
डालूंगा। आज
नहीं कल श्रम
से, पुरुषार्थ
से दुख को
मिटा दूंगा, सुख को बचा
लूंगा।
संन्यासी
कहता है कि
सुख-दुख में
मुझे रस नहीं
है, मैं
शुभ को बचाऊंगा,
अशुभ को
मिटा दूंगा।
जो बुरा है
उसे हटा दूंगा
और जो भला है
उसे बचा
लूंगा।
ऊपर से
दोनों बड़े
विपरीत दिखाई
पड़ते हैं, लेकिन
लाओत्से के
हिसाब से
दोनों की
दृष्टि एक सी
भ्रांत है।
शुभ और अशुभ
भी एक ही चीज
के दो छोर
हैं। कहां शुभ
अशुभ बन जाता
है, कहना
मुश्किल।
कहां अशुभ शुभ
बन जाता है, कहना
मुश्किल। और
जिंदगी इतना
बड़ा विस्तार है
कि अगर हम
पूरे को देख
पाएं तो हम यह
द्वैत की भाषा
ही छोड़ दें।
अच्छा
करने वालों ने
अच्छा किया है
जगत में या
बुरा करने
वालों ने बुरा
किया है, अगर
हम विस्तीर्ण
इतिहास देखें
तो बड़ी कठिनाई
हो जाती है।
बड़ी कठिनाई हो
जाती है। एक
सीमा पर जाकर
बुराई अच्छी
बन जाती है।
अब जैसे
उदाहरण के लिए, जिन्होंने
अणु-बम खोजा
और जिन्होंने
नागासाकी और
हिरोशिमा पर
अणु-बम गिराया,
शायद
मनुष्य-जाति
के इतिहास में
इससे बुरा कृत्य
दूसरा नहीं
है। इस मामले
में निश्चित
हुआ जा सकता
है। गिराने
वाले भी
निश्चित हैं
कि इससे बुरा
कृत्य दूसरा
नहीं है। लेकिन
संभावना यह है
कि अणु-बम के
कारण ही
दुनिया में
युद्ध समाप्त
हो जाएं।
नागासाकी और
हिरोशिमा के
कारण ही
दुनिया में अब
तीसरा
महायुद्ध हो
नहीं सकता। तब
बड़ी मुश्किल
है। यह हो
सकता है कि
आने वाला
भविष्य अब महायुद्धों
का नहीं होगा।
तब
नागासाकी-हिरोशिमा
पर गिराए गए
बम शुभ थे या
अशुभ? लंबे
विस्तार में
तय करना
मुश्किल हो
जाता है। अगर
एक-एक घटना को
हम
अकेला-अकेला
सोचें तो तय
करना आसान
है--शुभ है, अशुभ
है। लंबे
विस्तार में
देखें तो शुभ
अशुभ में
बदलता दिखाई
पड़ता है।
अब
जैसे महावीर
और बुद्ध, दोनों
ने भारत को
अहिंसा की शिक्षा
दी। इस शिक्षा
को कोई भी
अशुभ नहीं कह
सकता। लेकिन
इस शिक्षा का
हाथ है भारत
की ढाई हजार
साल की दीनता
में, गुलामी
में। इस
शिक्षा को कोई
अशुभ नहीं कह
सकता। इससे
ज्यादा शुभ
कोई बात नहीं
हो सकती। लेकिन
जब भी किसी
मुल्क को आप
अहिंसा सिखा
देंगे, तो
उसकी क्षमता
संघर्ष की
क्षीण हो
जाएगी, प्रतिकार
की क्षमता टूट
जाएगी। उसके
परिणाम होंगे।
आपने
अहिंसा सीख ली, इसलिए
आपका पड़ोसी भी
सीख लेगा, यह
जरूरी तो नहीं
है। बल्कि हो
सकता है, आपकी
अहिंसा पड़ोसी
को हिंसक होने
के लिए मौका दे।
यह भी हो सकता
है कि आपकी
अहिंसा के
कारण ही आपका
पड़ोसी हिंसक
हो जाता हो।
उसकी हिंसा की
भी
जिम्मेवारी
आपकी होगी।
क्योंकि
कमजोर दूसरों
को निमंत्रण
देता है कि
मेरा शोषण
करो। जब कोई
आपके गाल पर
एक चांटा
मारता है, तो
सिर्फ उसके
हाथ का ही हाथ
नहीं होता, आपके गाल का
भी हाथ होता
है। आपका गाल
बुलाता है कि
मारो। यह
बुलावा ऐसा ही
है जैसे कि
पानी बहता है
और गङ्ढा
बुलाता है, और गङ्ढे
में समा जाता
है।
जीवन
में भी गङ्ढे
हैं। जब आप
लड़ने की
क्षमता खो
देते हैं, तो
आप गङ्ढा
बन जाते हैं।
तो किसी की
लड़ाई की
वृत्ति आप में
प्रवाहित हो
जाती है; कोई
चांटा आपके
चेहरे पर पड़
जाता है।
इसमें अकेला
एक जिम्मेवार
नहीं है, आप
भी जिम्मेवार
हैं। इस
जिंदगी में
जिम्मेवारी
बंटी हुई नहीं
है, संयुक्त
है।
महावीर
और बुद्ध की
शिक्षा तो
श्रेष्ठतम
है। लेकिन अगर
लंबे विस्तार
में देखें तो
परिणाम क्या
हुआ?
महावीर खुद
तो एक
क्षत्रिय हैं,
लेकिन उनका
मानने वाला
पूरा वणिक
वर्ग खड़ा हो गया।
बनियों की एक
जमात खड़ी हो
गई। यह जरा
हैरानी की बात
है कि एक
बहादुर
क्षत्रिय
के--उनको हमने
नाम दिया
महावीर का
सिर्फ इसीलिए
कि उन जैसा
वीर खोजना
मुश्किल
है--लेकिन
उनके पीछे कमजोरों
और कायरों की
एक जमात क्यों
खड़ी हो गई? अहिंसा
कायरता क्यों
बन जाती है
लंबे अर्से में?
बहादुरी
अच्छी चीज है।
लंबे अर्से
में हिंसा क्यों
बन जाती है?
सभी
चीजें बदल
जाती हैं अपने
से विपरीत
में। विपरीत
विपरीत नहीं
है,
दूसरा छोर
है। सिर्फ समय
की जरूरत है
और आप दूसरे
छोर में बदल
जाएंगे।
बच्चे ही तो
बूढ़े हो जाते
हैं। जन्म ही
तो मृत्यु
बनता है। कब
बच्चा बूढ़ा
होता है, आप
बता सकते हैं?
कब जन्म मौत
बन जाता है, आप बता सकते
हैं? साथ
ही साथ चलते
हैं। साथ-साथ
चलते हैं, यह
कहना भी भाषा
की भूल है। एक
ही चीज के दो
छोर हैं। एक
ही चीज है--जन्म
यानी मौत, बचपन
यानी बुढ़ापा।
और मजा
यह है, दूसरा
जो सूत्र है
लाओत्से का वह
यह कि ये परिपूरक
हैं। अगर हम
बुढ़ापे को
मिटा दें तो
दुनिया से
बचपन मिट
जाएगा। यह
मुश्किल पड़ता
है समझना, क्योंकि
हम सोच सकते
हैं कि यह हो
सकता है बुढ़ापा
न हो। ईजाद हो
जाएं दवाइयां,
स्वास्थ्य-व्यवस्था
ठीक हो जाए, तो यह हो
सकता है कि
आदमी बूढ़ा न
हो। लेकिन जिस
दिन हम यह कर
पाएंगे कि
आदमी बूढ़ा न
हो, उस दिन
बचपन तिरोहित
हो जाएगा।
क्योंकि वह जो
बचपन है, वह
बुढ़ापे का छोर
है। वह उसके
साथ ही जी
सकता है। उसके
अलग नहीं जी
सकता। कांप्लीमेंटरीनेस
है, दोनों
जुड़े हैं और
एक-दूसरे के
आधार हैं।
इस
सूत्र को हम
समझें।
"जो
हलका है, उसका
आधार ठोस है, उसका आधार
गंभीर है; जो
निश्चल है, वह चलायमान
का स्वामी है।'
गाड़ी
का चाक चलता
है एक कील पर।
वह कील ठहरी
रहती है और
चाक घूमता
रहता है।
गर्मी के
दिनों में अंधड़
उठता है, हवा
के बवंडर खड़े
होते हैं, धूल
उठती है। गोल
वर्तुलाकार
घूमती है, आकाश
की तरफ उठती
है। कभी जाकर
जमीन पर उसका
छोड़ा हुआ
चिह्न देखें
तो आप बहुत
चकित हो जाएंगे।
वह हवा का
बवंडर नीचे की
रेत पर अपना
चिह्न छोड़
जाता है; लेकिन
बीच में एक
बिंदु होता है
जो बिलकुल
शांत होता है,
जिसमें जरा
भी चिह्न नहीं
होता। वह जो
बवंडर है, उसके
बीच में एक
केंद्र
बिलकुल शांत
और थिर होता
है।
गति
स्थिर के ऊपर
चलती है।
स्थिर को तोड़
दें,
गति टूट
जाएगी। गति को
तोड़ दें, स्थिर
समाप्त हो
जाएगा। वह जो
हलका है, वह
ठोस पर खड़ा
है। वह जो गंभीर
है, वह
गैर-गंभीर पर
निर्मित है।
ऐसा
समझें, जिस
दिन आदमी
हंसना बंद कर
देगा, उस
दिन आदमी का
रोना भी खो
जाएगा। जानवर
न तो हंसते
हैं, न
रोते हैं। जब
तक जानवर हंस
न सकें, तब
तक रो भी न
सकेंगे। जिस
जानवर को हम
रोना सिखा
सकते हैं, उसको
हम हंसना भी
सिखा लेंगे।
अकेला आदमी
ऐसा जानवर है
जो हंसता है। अनिवार्य
रूप से, अकेला
वही है जो
रोता है।
किसी
जानवर को आप
ऊब से भरा हुआ
न पाएंगे, बोरियत
से, बोर्डम से भरा हुआ
नहीं पाएंगे।
देखें एक भैंस
को, घास चर
रही है; एक
गधे को, वृक्ष
के नीचे खड़ा
चिंतन कर रहा
है। कोई ऊब नहीं
है। ऊब का कोई
पता ही नहीं
है। बोर्डम
है ही नहीं।
ऊबते ही नहीं
हैं। रोज वही
घास है, रोज
वही वृक्ष है।
और गधा कुछ
नया-नया सोचता
होगा, इसकी
भी संभावना
नहीं है।
सोचता होगा, इसकी भी
संभावना नहीं
है। लेकिन कोई
ऊब नहीं है।
सिर्फ
आदमी ऊबता है।
इसलिए आदमी को
मनोरंजन के
साधन खोजने
पड़ते हैं। ऊब
के साथ मनोरंजन।
गरीब आदमी कम
ऊबता है।
इसलिए कम
मनोरंजन के
साधन खोजता
है। अमीर आदमी
ज्यादा ऊबता
है तो ज्यादा
मनोरंजन के
साधन खोजता
है। सम्राट हुए
जो चौबीस घंटे
मनोरंजन में
पड़े रहते थे; क्योंकि
बिलकुल ऊबे
हुए थे, जिंदगी
में कोई रस ही
न था। दूसरा
छोर तत्काल
निर्मित हो जाता
है।
आदमी
को छोड़ कर
किसी
पशु-पक्षी को
सौंदर्य का बोध
नहीं मालूम
होता; क्योंकि
कुरूपता की
कोई पहचान
नहीं है। आदमी
हट जाए जमीन
से तो सुंदर
और कुरूप
दोनों शब्द व्यर्थ
हो जाते हैं।
आदमी के साथ, विचार के
साथ द्वंद्व
निर्मित होता
है। चीजें बंट
जाती हैं। एक
चीज सुंदर हो
जाती है; एक
कुरूप हो जाती
है। हमारा मन
चाहेगा कि ऐसी
घड़ी आ जाए, जब
कुरूप बिलकुल
न रहे, सुंदर
ही सुंदर रह
जाए।
ऐसी
घड़ी आ सकती
है। लेकिन तब
सुंदर को
सुंदर कहने
में कोई अर्थ
न रह जाएगा।
वह सदा कुरूप
के विपरीत ही
सार्थक है।
हमारी सारी
भाषा ही द्वंद्व
में सार्थक
है।
लाओत्से
कहता है, जो
निश्चल है, वह चलायमान
का स्वामी है।
जहां-जहां
गति है, वहां-वहां
खोजना, बीच
में एक केंद्र
होगा जहां कोई
गति न होगी। मगर
हमारी अड़चन यह
है कि हम एक को
पकड़ लेते हैं।
अगर हम गति को पकड़ते हैं
तो हम केंद्र
को भूल जाते
हैं। अगर हम
केंद्र को पकड़ते
हैं तो हम गति
को भूल जाते
हैं। दुनिया
ने दो तरह के
लोग पैदा किए,
वे दोनों ही
अधूरे हैं।
एक
आदमी है जो
गति को इतना पकड़ता है, बाजार
में, दुकान
में, व्यापार
में, राजनीति
में गतिमान
रहता है, वह
यह भूल ही
जाता है कि
मेरे भीतर एक
केंद्र भी है,
उसी केंद्र
के ऊपर यह
सारी गति है।
और वह केंद्र
चलता नहीं, चलायमान
नहीं है, थिर
है। वह भूल ही
जाता है। यही
भूल उसका दुख
बन जाती है।
फिर इस
भूल से एक
दूसरी भूल
पैदा होती है।
फिर वह सोचता
है--जब थक जाता
है,
ऊब जाता है
इस दौड़-धूप से,
इस आपा-धापी
से बेचैन हो
उठता है, तब
वह सोचता है--छोड़ो सब
गति, अब तो
थिर हो जाओ, ठहर जाओ, हटाओ सब
यह भाग-दौड़, अब तो उस
केंद्र को पा
लो जो चलता ही
नहीं है। तब
वह सारी गति
के विपरीत
केंद्र को
खोजने लगता
है। तब वह
सारी गति छोड़
कर, आंख बंद
करके, प्रतिमा
बन कर सोचता
है कि केंद्र
को पा लूं। तब
वह दूसरी भूल
कर रहा है।
पहले उसने एक
भूल की थी कि
केंद्र को छोड़
कर गति को पा
लूं। अब वह एक
दूसरी भूल कर
रहा है कि गति
को छोड़ कर
केंद्र को पा
लूं। चुनाव कर
रहा है अधूरे
का।
अधूरा
इस जगत में
नहीं है। गति
में ही जो
केंद्र को पा
ले,
वही केंद्र
को पा सकता
है। केंद्र के
साथ भी जो गति
में रह ले, उसी
ने केंद्र को
पाया ऐसा
जानना। जो
अपनी सारी
भाग-दौड़ में
भी थिर हो, वही
साधु है। और
जो अपनी थिरता
में भी भाग
सके, दौड़
सके, वही
साधु है।
जगत
में दो तरह के
असाधु हैं। असाधु
का मतलब अंश
को चुनने वाले
लोग। एक, वे
कहते हैं कि
हम संसारी हैं,
हम ध्यान
कैसे करें? क्योंकि
ध्यान तो उस
बिंदु को
खोजने की विधि
है, जहां
गति नहीं है।
वे कहते हैं, हम संसारी
हैं, हम
ध्यान कैसे
करें? वे
कहते हैं, हम
संसारी हैं, हम संन्यासी
कैसे हो जाएं?
जब संसार छोड़ेंगे, तब संन्यासी
हो जाएंगे। और
जब छोड़ेंगे
सब दौड़-धूप, तब ध्यान कर
लेंगे। इसलिए
कुशल, होशियार,
चालाक
लोगों ने बना
रखा है कि जब
मरने के करीब होंगे--जब
गति छोड़ना भी
न पड़ेगी, अपने
आप छूटने
लगेगी, जब
दौड़ना भी
चाहेंगे तो
पैर जवाब दे
देंगे--तब हम
ध्यान कर
लेंगे। वह
मौका अच्छा
है।
इसलिए
हमने संन्यास
को बूढ़े के
साथ जोड़ रखा
है। उसका कोई
संबंध बूढ़े से
नहीं है। मगर
हमारी द्वैत
की सोचने की
व्यवस्था में
यही उचित मालूम
पड़ता है। वह
तो हमारा बस
नहीं है, नहीं
तो हम मरने के
बाद, क्योंकि
तब फिर कोई
उपद्रव ही
नहीं रह जाएगा,
न दुकान, न बाजार; मर
ही गए, फिर
कब्र में
ध्यान साधते
रहेंगे।
लेकिन वह उपाय
नहीं मालूम
पड़ता, इसलिए
बिलकुल
मरते-मरते, मरते-मरते...।
आदमी मर रहा
है और लोग
उसको गंगाजल
पिला रहे हैं
और राम-नाम
पिला रहे हैं।
इनको जिंदगी
भर फुर्सत न
मिली गंगाजल
पीने की। बहुत
काम था, व्यस्त
थे। और जल्दी
भी क्या थी? आखिरी क्षण
पी लेंगे।
ये
जो...मेरे पास
लोग आते हैं, वे
कहते हैं कि
हम संसारी हैं,
हम ध्यान
कैसे कर सकते
हैं? वे
क्या कह रहे
हैं? वे
यही कह रहे
हैं कि अभी हम
गति में हैं
तो हम ठहर
कैसे सकते हैं?
उनको हम जरा
और तरफ से
समझें।
आप
किसी से जाकर
कहें कि मैं
तो दिन भर काम
में लगा रहता
हूं,
इसलिए
विश्राम कैसे
कर सकता हूं? विश्राम तो
विपरीत है।
किसी से आप
कहें कि मेरा
तो काम जागने
का है, मैं
सो कैसे सकता
हूं?
लेकिन
दिन भर आप
जागते हैं और
रात आप सो
जाते हैं। न
केवल इतना, बल्कि
जितना ठीक से
जागते हैं, उतना ठीक से
सो जाते हैं।
सोना और जागना
विपरीत आपको
दिखाई पड़ते
हों, विपरीत
नहीं हैं, परिपूरक
हैं। जो आदमी
दिन में ठीक
से जागा है, रात गहरी
नींद सो जाता
है। जो आदमी
दिन में ऊंघता
रहा है, वह
रात सो नहीं
पाता। जो दिन
भर खाली बिस्तर
पर पड़ा रहा है,
वह रात कैसे
सो पाएगा? अगर
हमारा तर्क
सही होता तो
जिसने दिन भर ऊंघने का
अभ्यास किया,
उसको गहरी
नींद आनी
चाहिए; क्योंकि
दिन भर का
अभ्यासी है।
और अभ्यास का
तो फल मिलना
चाहिए। यह
क्या उलटा हो
रहा है? और
जो आदमी दिन
भर गङ्ढा
खोदता रहा, लकड़ियां काटता रहा, पत्थर तोड़ता
रहा, इसको
तो रात नींद
आनी ही नहीं
चाहिए। दिन भर
का अभ्यास
जागने का!
लेकिन
जो दिन भर
लकड़ी काटा है, वह
बिस्तर पर
गिरता भी नहीं
है और नींद आ
जाती है। उसे
पता भी नहीं
चलता कि कब
उसके शरीर ने
बिस्तर को छुआ,
उसके पहले
उसके प्राण
निद्रा को छू
लेते हैं। और
वह जो आदमी
दिन भर ऊंघता
रहा है, अपनी
आरामकुर्सी
पर बैठा रहा
है, बिस्तर
पर लेटा रहा
है, वह रात
करवटें बदलता
है।
आपको
पता है, ये
करवटें
परिपूरक हैं।
जो दिन में
नहीं कर पाया,
वह उसे रात
में करना पड़ता
है। उतना श्रम
तो करना जरूरी
है। हजार, पांच
सौ करवटें बदल
कर थोड़ा-बहुत
सुबह-सुबह सो
पाता है। ये
करवटें, जिसने
लकड़ी फाड़ी
है, दिन
में ही बदल
लीं उसने। और
अच्छी तरह बदल
लीं, बिस्तर
भी कोई जगह है
व्यायाम करने
के लिए? लेकिन
अधिक लोग, जो
दिन में
व्यायाम नहीं
कर रहे, रात
बिस्तर में
व्यायाम
करेंगे ही।
उनकी जिंदगी
बड़ी
अस्तव्यस्त
हो जाएगी। जब
व्यायाम करना
था, तब वे ऊंघते रहे;
जब सोना था,
तब वे
व्यायाम करते
रहे। उनका सब
जीवन विपरीत जालों
में उलझ
जाएगा--अपने
ही कारण।
नींद
विपरीत नहीं
है जागने के।
और लाओत्से कहता
है,
गति विपरीत
नहीं है थिरता
के, परिपूरक
है।
तब एक
नया आयाम
खुलता है
सोचने का।
इसका मतलब यह हुआ
कि दौड़ते हुए
भी ऐसा हुआ जा
सकता है कि
भीतर कोई न
दौड़े। और जब
तक ऐसा सूत्र
न मिल जाए कि दौड़ते
हुए भी आप
जानें कि आप
नहीं दौड़ रहे
हैं,
तब तक आपको
जिंदगी के
रहस्य का
द्वार नहीं
मिलेगा। तब
काम करते हुए
भी कोई विश्राम
में बना रह
सकता है। और
तब, तब
जीवन के सब
द्वंद्वों के
बीच में एक
सूत्र मिल
जाता है। तब
रात सोए हुए
भी भीतर कोई
जागा रह सकता
है। और तब दिन
के सारे श्रम
के बीच भी भीतर
कोई विश्राम
में बैठा रह
सकता है। और
तब चाहे जीवन
में कितनी ही
धूप हो, भीतर
एक छाया बनी
रहती है। और
चाहे कितनी ही
बेचैनी के
बवंडर उठें,
एक केंद्र
पर सब शांत और
मौन रहता है।
और मजा यह है
कि जितनी
तीव्रता होती
है इन बवंडरों
की, उतनी
ही गहरी वह
शांति अनुभव
होती है। वह
इससे नष्ट
नहीं होती।
क्योंकि ये
परिपूरक हैं।
इसलिए जीवन
में जितना
तूफान होता है,
उतनी ही गहन
शांति का
अनुभव होता
है। और जीवन में
चारों तरफ
कितने ही
दुखों की
वर्षा होती रहे,
एक भीतर सुख
की वीणा बजती
रहती है।
जितने जोर से
दुखों की होती
है वर्षा, उतने
ही जोर से उस
वीणा का स्वर
गतिमान हो जाता
है। क्योंकि
परिपूरक है, विपरीत नहीं
है। एक-दूसरे
का दुश्मन
नहीं है, साथी
है।
अद्वैत
की यह अनूठी
बात है।
लाओत्से
अद्वैत की
दिशा में यह
अनूठा कदम उठा
रहा है। वह यह
कह रहा है कि
जहां-जहां
तुम्हें
विपरीत दिखाई
पड़े,
तुम विपरीत
मान लेते हो, वहीं भूल हो
जाती है।
विपरीत मानना
ही मत। और जहां
तुम्हें
विपरीत दिखाई
पड़े, वहां
तुम विपरीत को
साधना, एक
को छोड़ कर
नहीं, दोनों
को साध कर, साथ
ही साध कर।
इसका मतलब हुआ
कि संन्यास
अगर वास्तविक
हो तो संसार
में ही हो
सकता है।
इसलिए
जब मुझसे कोई
आकर कहता है
कि हम संसारी हैं, हम
संन्यासी
कैसे हो जाएं?
लोग मुझसे
आकर कहते हैं कि
आप यह क्या
उपद्रव कर रहे
हैं? संसारियों को संन्यास
दे रहे हैं!
संन्यास तो
तभी हो सकता
है, जब कोई
घर-द्वार छोड़
कर, सब छोड़
कर भाग जाए।
पलायन में ही
संन्यास हो सकता
है, त्याग
में ही
संन्यास हो
सकता है। उनका
कसूर नहीं है।
द्वंद्व की
भाषा में
सोचने की आदत।
मेरी
दृष्टि में तो
संन्यास हो ही
केवल संसार में
सकता है। और
जिसका
संन्यास
संसार में
नहीं हो सकता, उसका
संन्यास कभी
नहीं हो सकता।
लाओत्से
कहता है, इसलिए
संत दिन भर
यात्रा करता
है, और फिर
भी यात्रा
नहीं करता।
बुद्ध
चालीस वर्ष तक
चलते रहे
ज्ञान के बाद।
ज्ञान के बाद
ही वे बुद्ध
हुए। चालीस
वर्ष तक चलते
रहे,
एक गांव से
दूसरे गांव, दूसरे गांव
से तीसरे
गांव। अनथक
यात्रा चलती रही।
एक शिष्य उनका,
मोग्गलायन,
एक दिन
बुद्ध को
पूछता है, आप
इतना चलते हैं,
थकते नहीं?
बुद्ध ने
कहा, जो
चलता हो, वह
थकेगा ही;
मैं चलता ही
नहीं हूं। मोग्गलायन
ने कहा, मजाक
करते हैं आप।
आपको अपनी
आंखों से चलते
देखता हूं।
बुद्ध ने कहा,
मैं
तुम्हारी
आंखों का
भरोसा करूं या
अपनी आंखों का?
मैं भीतर
देखता हूं, वहां कोई
चलता ही नहीं
है। तुम मुझे
बाहर से देखते
हो, वहां
कोई चलता है।
जो चलता है, वह मेरी
छाया है; जो
नहीं चलता, वह मेरी
आत्मा है। और
छाया के चलने
से कोई थकता
है?
लेकिन
आप थकेंगे, क्योंकि
आपकी छाया
नहीं चलती, आपने छाया
से अपने को एक
ही मान रखा
है।
हमारे
मन में सवाल
उठते हैं कि
जब बुद्ध को
ज्ञान हो गया, तो
अब बोलते
क्यों हैं? जब ज्ञान हो
गया, तो अब
चलते क्यों
हैं? जब
ज्ञान हो गया,
तो अब क्या
उन्हें
प्रयोजन है? हमें लगता
है कि जब
ज्ञान हो गया,
तो अब सब
गति बंद हो
जानी चाहिए।
गति
बंद नहीं होती
ज्ञान से।
सिर्फ गति में
जो ज्वर होता
है,
फीवर होता
है, वह बंद
हो जाता है।
गति तो जारी
रहती है। बल्कि
सच पूछें तो
गति पहली दफे निखर कर
स्वच्छ हो
जाती है। नदी
तो अब भी बहती
है, लेकिन
उसमें कूड़ा-करकट
नहीं बहता, अब उसमें
गंदगी नहीं
बहती। अब नदी
शुद्ध धार हो
जाती है। ऐसा
समझ लें कि
पानी भी न रह
जाए और सिर्फ
गति रह जाए
नदी में, इतनी
शुद्ध हो जाती
है।
लाओत्से
कहता है, "इसलिए
संत दिन भर
यात्रा करता
है, देयरफोर दि सेज ट्रैवेल्स
आल डे, यट नेवर लीव्स हिज प्रोवीजन
कार्ट।'
और वह
जो भीतर
जीवन-ऊर्जा है, वह
जो भीतर जीवन
का मूल स्रोत
है, प्रोवीजन कार्ट, जहां
जीवन की सारी
शक्ति
संरक्षित है,
जहां उसके
जीवन का भोजन
छिपा है, उसे
कभी नहीं
छोड़ता।
यात्रा करता
है दिन भर, चलता
है दिन भर, और
भीतर कोई भी
नहीं चलता।
भीतर वह अपने
मूल केंद्र
में थिर बना
रहता है।
परिधि चलती है,
केंद्र
ठहरा रहता है।
चाक चलता है, कील रुकी
रहती है।
बोलता भी है
और नहीं भी
बोलता; क्योंकि
मौन से बोलता
है।
बुद्ध
बोलते हैं। उस
बोलने में और
आपके बोलने
में फर्क है।
आप जब बोलते
हैं,
तब शब्दों
से बोलते हैं।
बुद्ध भी
शब्दों का उपयोग
करते हैं।
लेकिन शब्दों
से नहीं बोलते,
मौन से
बोलते हैं। आप
जब बोलते हैं,
तो आपके
भीतर शब्दों
का इतना
उपद्रव मच
जाता है कि
उसे आप पर
किसी को
उलीचना पड़ता
है। बुद्ध जब
बोलते हैं, तो शब्दों
के उपद्रव से
नहीं बोलते।
भीतर मौन इतना
घना है, उस
मौन से ही जो
दृष्टि दिखती
है, उस मौन
से ही जो रिस्पांस,
जो
प्रतिसंवेदन
होता है, उससे
बोलते हैं।
आप जब
बोलते हैं, तो
आप कभी खयाल
करना, आप
जब बोलते हैं,
तो जिससे आप
बोलते हैं, उससे आपका
प्रयोजन नहीं
होता। आपका
बोलना एक बुखार
है; वह
आपके भीतर
परेशान कर रहा
होता है। किसी
न किसी से
बोलना पड़ता
है। निकल जाता
है, थोड़ी
राहत मिलती
है। आपने अपना
कचरा दूसरे को
सम्हाल दिया;
वह किसी को
सम्हाले, वह
जाने! अब आपका
कोई प्रयोजन
नहीं है। अब
आप निश्चिंत
सो सकते हैं।
आप खयाल करना कि
जब आप बोलते
हैं, तो
आपका दूसरे से
प्रयोजन है? आपका दूसरे
से कोई
प्रयोजन नहीं
है। इसलिए कोई
न मिले तो
आदमी अकेले
में अपने से
भी बात कर लेता
है। ताश बिछा
कर दोनों तरफ
से चाल चल
लेता है।
आदमी
विक्षिप्तता
से बोलता है।
बुद्ध शून्य
से बोलते हैं।
इसलिए बुद्ध के
बोलने में आप
प्रयोजन हैं।
इसलिए बुद्ध, जब
कोई उनसे कुछ
पूछता है, तो
लोग एक से
सवाल भी पूछते
हैं, लेकिन
बुद्ध सभी को
अलग-अलग जवाब
देते हैं। बुद्ध
के भिक्षु
अनेक बार
मुश्किल में
पड़ जाते हैं
और वे बुद्ध
से कहते हैं
कि सवाल तो एक
ही था और आपने
जवाब अलग-अलग
लोगों को
अलग-अलग दिए!
बुद्ध
ने कहा, सवाल
महत्वपूर्ण
नहीं है, पूछने
वाला
महत्वपूर्ण
है। और जवाब
मैं सवाल को
नहीं देता, पूछने वाले
को देता हूं।
पूछने वाले
अलग-अलग थे।
उनके
सवाल एक से
दिखाई पड़ते
हैं। लेकिन
अगर हम पूछने
वाले की
पूरी-पूरी
व्यवस्था को
समझें तो हर
सवाल का मतलब
अलग हो जाएगा।
वह जब आपके
भीतर से आता
है,
तो आपका रंग,
आपका खून, आपकी मज्जा
उसमें
सम्मिलित हो
जाती है।
एक
आदमी आकर
पूछता है, ईश्वर
है? यह
सवाल नहीं है
सिर्फ, यह
आकाश शून्य से
पैदा नहीं हुआ
है, एक आदमी
से पैदा हुआ
है। एक दूसरा
आदमी आकर
पूछता है, ईश्वर
है? ये
दोनों सवाल
शब्दों में एक
से हैं, लेकिन
ये दो आदमी
अलग-अलग हैं।
एक आदमी
नास्तिक हो
सकता है, और
पूछता हो, ईश्वर
है? उसका
मतलब हो कि है
तो नहीं, आपसे
भी पूछना
चाहता हूं कि
है? लेकिन
वह जानता है, नहीं है।
दूसरा आदमी
आस्तिक हो। वह
भी आपसे पूछना
चाहता है, वह
भी आपकी सलाह
लेना चाहता है,
लेकिन भीतर
जानता है कि
है। उन दोनों
के सवाल एक से
नहीं हैं; उनके
भीतर का आदमी
अलग-अलग है।
भीतर की छाया
उनके सवालों
को बदल देगी।
इसलिए
सिर्फ बुद्धू
एक से जवाब
देंगे। बुद्ध तो
अलग-अलग जवाब
देंगे।
क्योंकि बुद्धुओं
को सवाल सुनाई
पड़ते हैं, बुद्धों
को पूछने वाला
सुनाई पड़ता
है। और जब पूछने
वाला
महत्वपूर्ण
होता है, तो
जो उत्तर आते
हैं, वे
देने वाले के
बोझ के कारण
नहीं आते, देने
वाले के शून्य
से उनकी
प्रतिध्वनि
होती है।
बुद्ध
मौन से बोलते
हैं। यह हमें
कठिन लगेगा। हम
कहेंगे, जब
मौन ही हो गए, तो बोलना
क्या? हमारा
सब तरफ
द्वंद्व चलता
है सोचने में
कि जब मौन हो
गए तो बोलना
क्या? और
जब बोलते हैं
तो मौन कैसे
हो सकते हैं?
जो बोल
सकता है, वह
मौन हो सकता
है। जो मौन हो
गया, वह
बोल सकता है।
क्वालिटी बदल
जाती है, गुण
बदल जाता है।
जब बोलने वाला
मौन हो जाता है,
तो उसके
बोलने में मौन
के स्वर
समाविष्ट हो
जाते हैं। जब
बोलने वाला
मौन हो जाता
है, तो
उसका बोलना एक
बीमारी नहीं
रह जाती, एक
संवाद हो जाता
है। और जब बोलने
वाला मौन हो
जाता है, तो
उस मौन से
सत्य का जन्म
होता है। और
जब बोलने वाला
मौन नहीं होता,
तो शब्द
शब्दों को
पैदा करते
रहते हैं, शब्द
शब्दों को
जन्माते रहते
हैं। शब्दों
की शृंखला
चलती रहती है।
और जब मौन कोई
हो जाता है, तब बोलता
है...।
महावीर
बारह वर्ष तक
मौन रहे। तब
लाख लोगों ने
कहा,
लाख लोगों
ने सवाल पूछे,
लेकिन वे न
बोले। आप
समझते हैं
कारण क्या था?
कारण केवल
इतना था कि
महावीर के
भीतर अभी भी शब्द
मौजूद थे।
इसलिए महावीर
अभी जानते थे
कि यह उत्तर
जो मेरा आएगा,
मौन से नहीं
आएगा, मेरे
शब्दों से
आएगा। तो अभी उत्तर
देने का कोई
अर्थ नहीं है।
इन उत्तरों से
मैं खुद ही
परेशान हूं, दूसरे को
देकर और क्या
परेशानी में
डालना है? जिन
शब्दों से
मुझे राहत न
मिली, उन
शब्दों से
किसे राहत मिल
जाएगी?
इसलिए
महावीर चुप
हैं। बारह
वर्ष वे चुप
रहे। शब्द खो
गए,
तब महावीर
ने बोलना शुरू
कर दिया। यह
मजे की बात है,
हम शब्दों
से बोलते हैं,
महावीर
जैसे लोग मौन
से बोलते हैं।
बारह वर्ष जंगल
में रहे, और
जब बिलकुल मौन
हो गए तो शहर
में वापस लौट
आए। अब उनके
पास भीतर एक
मौन शून्य था।
अब कोई भी उत्तर
पूछे तो यह
शून्य उत्तर
दे सकता था।
अब महावीर को
बीच में आने
की कोई भी
जरूरत न थी।
अब महावीर खो
गए। अब यह
आत्मा ही जवाब
देती। महावीर
का मतलब है
शिक्षा, संस्कार,
वे सब खो
गए। अब ये
उत्तर शिक्षा
और संस्कार से
नहीं आएंगे।
अब ये उत्तर
उस गहन खाई से
आएंगे, उस
अतल शून्य से
आएंगे, जिसको
हम अस्तित्व
कह सकते हैं।
महावीर
भाग गए संसार
से;
फिर लौट
क्यों आए? यह
बड़े मजे की
बात है कि
महावीर के
अनुयायी उनके
भागने की तो
चर्चा करते
हैं, लौटने
की चर्चा नहीं
करते। लेकिन
इस जगत में जो
भी भागा है, वह लौट आया
है। महावीर हट
गए; फिर
लौट क्यों आए?
लौटने का
मतलब कि
उन्होंने कोई आकर
शादी कर ली हो,
ऐसा नहीं।
लौटने का मतलब
है कि जिन
सबको छोड़ कर
वे चले गए थे, वापस आ गए
उनके बीच। जो
संबंध छोड़ दिए
थे, वे
पुनर्निर्मित
किए। इससे
क्या फर्क
पड़ता है कि वे
संबंध अब गुरु
और शिष्य के
थे; जब
भागे थे तब वे
संबंध भाई और
भाई के थे; जब
भागे थे तब वे
संबंध पति और
पत्नी के थे।
इससे क्या
फर्क पड़ता है?
संसार का
अर्थ है
संबंधों का
जगत। बारह
वर्ष बाद जब
महावीर लौट आए,
फिर
संबंधों में
लौट आए।
लेकिन
अब महावीर तो
हैं ही नहीं, इसीलिए
वे लौट पाए।
वह महावीर तो
समाप्त हो गए
बारह वर्ष
में। अब तो एक
मौन शून्य बचा,
एक दर्पण
बचा, जो
लौटा। अब इस
दर्पण में कोई
भी देखे तो
दर्पण को अब
दिखाने का कोई
सवाल नहीं रह
गया। अब तो जो
शक्ल देखेगी,
वही शक्ल
दिखाई पड़
जाएगी। एक
दर्पण वापस
लौट आया। और
दर्पण
गांव-गांव
घूमने लगा।
इसमें जो प्रतिबिंब
बने, वे
आपके अपने थे।
इसमें जो
बीमारियां
दिखाई पड़ीं, वे आपकी
अपनी थीं।
इसमें से जो
उत्तर आए, वे
प्रतिध्वनियां
थीं।
लाओत्से
कहता है, संत
दिन भर यात्रा
करता, लेकिन
जीवन-ऊर्जा के
स्रोत से जुड़ा
रहता है। सम्मान
और गौरव के
बीच भी
विश्रामपूर्ण
और अविचल।
यह
थोड़ा सोचने
जैसा है। कहना
चाहिए था:
अपमान, असम्मान,
अगौरव, दुख,
अपयश के बीच
भी
विश्रामपूर्ण
और अविचल!
लेकिन लाओत्से
उलटा कह रहा
है। वह कह रहा
है, सम्मान
और गौरव के
बीच भी।
जरा
कठिन है। दुख
में तो हम
विचलित हो ही
जाते हैं; लेकिन
अगर थोड़ी
चेष्टा करें
तो दुख में
अविचलित होना
ज्यादा कठिन
नहीं है।
लेकिन
सुख में
अविचलित होना
बिलकुल
स्वाभाविक
है। और सुख
में अविचलित
रह जाना बड़ा
मुश्किल है। दुख
में तो आदमी
दुख के कारण
ही अपने को
थिर कर लेता
है। दुख सहना
हो तो थिर
करना जरूरी
है। जितना आप
थिर होंगे, उतनी
आसानी से दुख
को झेल लेंगे।
तो थिर होना तो
झेलने की
व्यवस्था हो
सकती है।
लेकिन सुख में
तो आप खुद ही
नाचना चाहते
हैं। और अगर
सुख में आप
थिर होंगे, तो जैसे दुख
कम हो जाता है
थिर होने से, वैसे ही सुख
भी कम हो
जाएगा थिर
होने से। सुख
का मतलब ही है
कि आप कंपित
हो जाएं, डोल
जाएं, नाच उठें, रोआं-रोआं
पुलकित हो
जाए। अगर सुख
में आप
अविचलित रह
जाएं तो सुख
व्यर्थ हो जाएगा।
लाओत्से
कहता है, सम्मान
और गौरव के
बीच भी! जब उन
पर फूल बरसते
हैं, तब
भी। और जब
चारों तरफ
देवी-देवता
उनके आस-पास
मोहर लेकर झूलने
लगते हैं, तब
भी। तब भी
अविचलित और तब
भी
विश्रामपूर्ण!
यह बड़ी
मजे की बात
है। क्योंकि
हम कहेंगे, सुख
में, गौरव
में तो
विश्राम होगा
ही। गलती है
आपका खयाल।
सुख जितना
विश्राम तोड़ता
है, उतना
दुख नहीं तोड़ता।
सुखी होकर
देखें। यह बात
मुश्किल है कि
सुखी होने का
मौका कम लोगों
को मिलता है, इसलिए पता
नहीं चलता।
सुखी आदमी भी
रात में सो
नहीं सकता।
सुख भी एक तरह
की परेशानी
है। माना कि
आप पसंद करते
हैं; यह
दूसरी बात।
लेकिन सुख भी
एक तरह की
परेशानी है।
लाटरी मिल गई
है आपको।
कितने दिन से
सोचा था--मिल
जाए, मिल
जाए, मिल
जाए। फिर मिल
गई। अब रात सोइएगा?
कैसे सोइएगा?
अब बहुत
मुश्किल है।
अब एक क्षण भी
चैन मुश्किल
है। लाटरी न
मिली थी तो
जितनी बेचैनी
थी, यह
बेचैनी उससे
ज्यादा है।
जिस
दिन कोई सुख
में भी शांत
हो जाता, संत
हो जाता।
दुख
में शांत बने
रहना तो
व्यवस्था की
बात है। आदमी
को झेलने में
सुविधा होती
है। सुरक्षा बना
लेता है चारों
तरफ। कड़ा कर
लेता है मन को, समझा
लेता। सुख में
जब समझाए, तब
पता चले। सुख
में, हम
कहेंगे, पागल
होगा जो अपने
को समझाए।
मुश्किल से तो
सुख मिला है, अब समझा कर
क्या सुख को
नष्ट करना है?
दुख आ
जाए,
तो हम कहते
हैं, चला
जाएगा; कोई
ज्यादा देर
थोड़े ही रुकने
वाला है।
संसार में सब
चीजें अनित्य हैं।
जब सुख आता है,
तब कहिए
अपने से, चला
जाएगा, कोई
घबड़ाने
की जरूरत नहीं
है। संसार में
सब चीजें
अनित्य हैं।
जब घर में कोई
मर जाए, तो
हम कहते हैं, आत्मा अमर
है; मृत्यु
तो सब भासमान
है। जब घर में
बच्चा पैदा हो
जाए, तब
कहिए कि आत्मा
तो अमर है, जन्म
वगैरह सब भासमान
हैं, कुछ
भी नहीं हुआ।
इसलिए
लाओत्से जान
कर कहता है कि
सम्मान और गौरव
के बीच भी वह
विश्रामपूर्ण
और अविचल जीता
है। एक महान
देश का सम्राट
कैसे अपने
राज्य में
अपने शरीर को
उछालता फिर
सकता है?
संत को
अनेक जगह
लाओत्से उस
आंतरिक
साम्राज्य का
मालिक मानता
है।
हम
अपने को
उछालते फिरते
हैं चारों तरफ
अनेक तरह से।
हमारे उछालने
की
व्यवस्थाएं
आदतन हो गई
हैं,
इसलिए पता
नहीं चलता।
लोग कपड़े
पहनते हैं। हम
सोचते हैं
ढांकने को
पहनते होंगे।
गलत! बहुत कम
ही लोग हैं जो
शरीर ढांकने
को कपड़े पहनते
हों। शरीर
दिखाने को
कपड़े पहनते
हैं; शरीर
उछल कर दिखाई
पड़े, इसलिए
कपड़े पहनते
हैं। शरीर
ढांकने को जब
कोई कपड़े
पहनने लगता है,
तब साधु हो
गया। शरीर
दिखाने को
कपड़े पहने जाते
हैं। बड़ा उलटा
मालूम पड़ता
है। लेकिन
जितने ढंग से
शरीर को कपड़ों
से दिखाया जा
सकता है, नग्न
शरीर को उतने
ढंग से नहीं
दिखाया जा
सकता।
और बड़े
मजे की बात है
कि कपड़े ढंके
शरीर को देखने
की जितनी
इच्छा पैदा
होती है, उतने
नग्न शरीर को
देखने की
इच्छा पैदा
नहीं होती। एक
आदमी नग्न खड़ा
हो, सुंदरतम
स्त्री भी
नग्न खड़ी हो, कितनी देर देखिएगा? थोड़ी देर
में मन
यहां-वहां
भागने लगेगा।
नग्न स्त्री,
सुंदरतम
स्त्री पर भी
एकाग्र होना
मन के बस की
बात नहीं है।
मन यहां-वहां
भागने लगेगा।
लेकिन ढंकी
स्त्री
हो--ढंकी ऐसी, ढंकी ढंग से,
ढंकी
व्यवस्था से,
ढंकी इस ढंग
से कि आपकी
कल्पना को गति
दे, सामने
न उघड़ी हो,
आपका मन उघाड़ने
लगे--तो फिर आप
बड़े
एकाग्रचित्त
हो सकते हैं। तो
फिर आप घंटों
लीन हो सकते
हैं। कपड़े
नग्नता से
ज्यादा
अश्लील हो
सकते हैं।
लेकिन
कठिन है थोड़ा।
क्योंकि कपड़े
बड़ी तरकीब है, लंबी
तरकीब है
सभ्यता की। और
हम भूल ही गए
हैं कि कपड़ों
का हम
क्या-क्या
उपयोग करते
हैं। जो शरीर
में नहीं है, जैसा शरीर
नहीं है, कपड़े
वैसा वहम भी
दे सकते हैं।
देते हैं। मगर
हम आदी हैं, हमें खयाल
भी नहीं है।
हमें
खयाल भी नहीं
है कि एक आदमी
अपने कोट के दोनों
कंधों में रुई
भरे हुए है।
उसे खयाल भी नहीं
है। सभी के
कोट में रुई
भरी हुई है।
लेकिन क्यों वह
रुई भरे हुए
है,
उसे कुछ
खयाल नहीं है।
असल में, पुरुष
के कंधे अगर
उठे हुए न हों
और छाती अगर फैली
हुई न हो, तो
स्त्रियों के
लिए आकर्षक
नहीं है।
इसलिए रुई भर
कर भी धोखा
चलता है।
लेकिन हम आदी
हैं। जब कोट
बना कर दर्जी
दे जाता है, तो हम यह
नहीं सोचते कि
यह कोई हमें
अश्लील बनाने
की कोशिश कर
रहा है, कि
यह हमारे शरीर
को उछालने की
कोशिश कर रहा
है। कंधे
ढले-ढले, तो
भीतर से प्राण
निकल जाते
हैं। चाहे रुई
से ही उठे हों,
तो भी पैरों
में तेजी आ
जाती है।
हम
अपने को
उछालते फिर
रहे हैं--शरीर
की दृष्टि से, मन
की दृष्टि से।
कोई आदमी कुछ
कहता है, फिर
आपसे रुका
नहीं जाता। आप
अपना ज्ञान
फिर रोक नहीं
पाते। ज्ञान
को रोकना बड़ा
दूभर है। निकल
ही पड़ता है, ज्ञान उछलता
फिरता है। आप
तरकीब में
रहते हैं कि
कोई फंस भर
जाए, एक
सवाल भर पूछ
ले। ऐसे इतना
ही पूछ ले कि
कैसे हैं!
काफी है। फिर
आप छोड़ नहीं
सकते। फिर आप
उछाल देंगे, जो भीतर उबल
रहा है। शरीर
को उछाल रहे
हैं दूसरों पर,
मन को उछाल
रहे हैं
दूसरों पर।
लाओत्से
कहता है, लेकिन
संत ऐसा है
जैसे कोई
सम्राट अपने
ही राज्य में
घूमता हो।
उछालने का कोई
कारण भी नहीं है।
उछाल कर भी अब
वह सम्राट से
ज्यादा और
क्या हो सकता
है? उछाल
कर भी अब
सम्राट से
ज्यादा क्या
हो सकता है? इसलिए एक
बड़े मजे की
घटना घटती है।
सम्राट सादगी
से जी सकते
हैं; आसान
है। दरिद्र
सादगी से नहीं
जी सकते; बहुत
कठिन है।
सम्राट सादगी
से जी सकते
हैं।
मैंने
सुना, रॉकफेलर इंग्लैंड
आया और उसने एयरपोर्ट
पर जाकर
पूछताछ की कि
सबसे सस्ती
होटल लंदन में
कौन सी है।
उसके चेहरे को
कौन नहीं पहचानता
था? वह
आदमी जो सूचना
देने वाला था,
वह पहचान
गया। उसने कहा
कि आप? आपका
चेहरा तो रॉकफेलर
जैसा मालूम
पड़ता है। वह
भी डरा, क्योंकि
छोटी, सस्ती
होटल! तो उसने
कहा, आपका
चेहरा तो रॉकफेलर
जैसा मालूम
होता है। रॉकफेलर
ने कहा, जैसे
का क्या सवाल,
मैं रॉकफेलर
हूं। तो उसने
कहा, आप और
सस्ती होटल
पूछते हैं? आपके लड़के
आते हैं तो वे
तो पूछते हैं
कि सबसे बढ़िया
होटल कौन सी
है। और फिर भी
उनको तृप्ति नहीं
मिलती। और आप
यह कोट कैसा
पहने हुए हैं?
फटा कोट
पहने हुए हैं! रॉकफेलर
ने कहा, क्या
फर्क पड़ता है?
मैं कोट कोई
भी पहनूं,
रॉकफेलर मैं हूं ही।
अभी लड़के जरा
नए-नए हैं, उछालते
फिरते हैं।
इससे क्या
फर्क पड़ता है
मैं छोटे, सस्ते
होटल में ठहरूं?
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। रॉकफेलर
ने कहा कि अगर
मैं सस्ते
होटल में
ठहरता हूं तो
होटल
सम्मानित
होता है; और
कोई फर्क नहीं
पड़ता। हम
अपमानित नहीं
होते; मैं रॉकफेलर
हूं ही।
गरीब
आदमी जब सस्ते
होटल में
ठहरता है, तो
अपमानित होता
है। खुद पर
भरोसा नहीं
है। और रॉकफेलर
ने कहा, कोट
कोई भी हो, इससे
क्या रॉकफेलर
को फर्क पड़ता
है! वह तो गरीब
आदमी...।
इसलिए
जब कोई
नया-नया अमीर
होता है, तब
देखें, कैसा
उछालता फिरता
है। कभी-कभी
ताकत के बाहर
कूद जाता है, हाथ-पैर तोड़
लेता है। नए
अमीर अक्सर
हाथ-पैर तोड़
लेते हैं। जब
किसी के घर
में घुसें
और दिखाई पड़े
कि धन उछल रहा
है, तो
समझना, अभी
यह आदमी गरीब
ही है। अभी
अमीर हुआ नहीं,
अभी
आश्वस्त नहीं
हुआ। वह जो
उछालने की
वृत्ति है, दीनता का
हिस्सा है।
जो सच
में सुंदर
होता है, वह
अपने सौंदर्य
के प्रति
विनम्र होता
है। वह इतना
विनम्र होता
है कि उसे बोध
भी नहीं होता कि
वह सुंदर है।
जो कुरूप होता
है, वह
इतना विनम्र
नहीं हो सकता।
कुरूप अपने को
सुंदर बनाए
रखता है। और
पूरे वक्त
सचेष्ट रहता है
कि कहीं कोई
ऐसा तो नहीं
है जो उसके
सौंदर्य को न
मान रहा हो।
जो सच
में
बुद्धिमान है, वह
दूसरों को
विवाद करके
हराने में
उत्सुक नहीं
होता। जो बुद्धिहीन
है, वह
किसी को भी
हराने में
उत्सुक होता
है। शास्त्रार्थ
बुद्धिहीनों
के कृत्य हैं।
क्योंकि
दूसरे को हरा
कर ही उसको
भरोसा मिल
सकता है कि
मैं भी जानता
हूं। मैं
जानता हूं, इसके प्रति
जो आश्वस्त है,
वह दूसरे को
हराने के लिए
क्या...? दूसरे
को हरा कर भी
क्या अर्थ हो
सकता है? कोई
अंतर नहीं
पड़ता है।
लाओत्से
कहता है, संतजन,
जैसे एक
महान देश का
सम्राट अपने
ही राज्य में
घूमता हो, ऐसे
इस पूरे
अस्तित्व में
जीते हैं।
इस
सारे
अस्तित्व में
जो गहनतम
है,
जो
केंद्रीय है,
उसका
उन्हें अनुभव
है। अब उछालने
का कोई भी सवाल
नहीं है। अब
किसी को
दिखाने का भी
कोई सवाल नहीं
है। अब कोई
देखे, कोई
माने, यह
बात भी व्यर्थ
हो गई। किसी
को कनवर्ट
किया जाए, किसी
को राजी किया
जाए, किसी
को बदला जाए, यह बात भी
अर्थहीन हो
गई।
यह जो
परम आश्वासन
है स्वयं के
प्रति, यह इस
जगत में सबसे
बड़ा सौंदर्य
है। स्वयं के
प्रति जो परम
आश्वासन है, यह सबसे बड़ा
सौंदर्य है।
इतना आश्वस्त
है व्यक्ति
अपने प्रति कि
अब कोई और
आश्वासन का
सहारा खोजने
की जरूरत नहीं
है। यही कारण
है कि बुद्ध
और महावीर सड़क
पर निःसंकोच
भिक्षा मांग
सके। आपको
मांगने में
कठिनाई
पड़ेगी। आप
भिक्षा
मांगने
जाएंगे तो
अड़चन मालूम
पड़ेगी। लेकिन
बुद्ध और
महावीर
भिक्षा मांग
सके सड़क पर।
इससे केवल वे
इतना ही जाहिर
करते हैं कि
वे अपने सम्राट
होने के प्रति
पूरे आश्वस्त
थे। भिक्षा का
पात्र कोई
फर्क नहीं ला
सकता। बुद्ध
के हाथ में
भिक्षा का
पात्र
गौरवान्वित
हो जाता है; बुद्ध
भिक्षु नहीं
बनते हैं।
उनके हाथ में
भिक्षा का
पात्र
गौरवान्वित
हो जाता है।
बड़े
मजे की बात है
कि बुद्ध की
भिक्षा
मांगने के
कारण भिक्षु
शब्द आदृत हो
गया। भिक्षु
शब्द आदृत हो
गया। भिक्षु
भिखारी नहीं
है। भिक्षु का
मतलब भिखारी
नहीं है।
बुद्ध तो अपने
संन्यासियों
के आगे भिक्खु, भिक्षु,
लगाते ही
थे। बड़े मजे
की बात है, उन्होंने
कहा...स्वामी
हटा दिया
बुद्ध ने। अपने
संन्यासियों
के सामने
स्वामी लगाना
बंद कर दिया, भिक्षु लगा
दिया। यह थोड़ा
सोचने जैसा
मामला है कि
क्यों ऐसा
हुआ।
ब्राह्मण
अपने
संन्यासी के
सामने सदा
स्वामी लगाते
थे। ब्राह्मण
भिखारी थे। स्वामी
होने में थोड़ा
रस था। सदा के
भिखारी थे, और
तो कोई उपाय
नहीं था
स्वामी होने
का। संन्यासी
होकर जो पहला
खयाल
ब्राह्मण को
आएगा, वह
यह कि अब मैं
मालिक हुआ। यह
बिलकुल ठीक
है।
ये
बुद्ध सदा के
सम्राट थे।
सम्राट होने की
हवा में ही
बड़े हुए थे।
ये अपने आगे
अगर स्वामी
लगाते तो फीका
ही लगता।
उसमें कोई
मतलब न था
बहुत। अगर
स्वामी ही
लगाना था तो
सम्राट बने
रहने में क्या
बुराई थी? बुद्ध
को जो पहला
शब्द सूझा,
वह सूझा
भिक्षु।
ये
शब्द भी अकारण
पैदा नहीं हो
जाते। इनके
पीछे लंबी यात्राएं
होती हैं; अनेक
अर्थ होते
हैं।
ब्राह्मणों
ने स्वामी रखा
तो सिर्फ
स्वामी होने
की वजह से
नहीं। खयाल था
कि भीतर की
मालकियत
मिली। लेकिन
मालकियत महत्वपूर्ण
मालूम पड़ी।
बुद्ध को तो
सारी मालकियत
व्यर्थ हो गई।
अब उस मालकियत
वाले शब्द का
उपयोग करना भी
ठीक न मालूम
पड़ा। बुद्ध
अपने
संन्यासियों
को भिक्षु कह
सके। और उनके
कहने के कारण
भिक्षु शब्द
ऐसा समादृत
हुआ कि सम्राट
होना फीका पड़
गया, भिक्षु
होना
महत्वपूर्ण
हो गया। और
बुद्ध जब भिक्षा
का पात्र लेकर
सड़कों पर
निकले होंगे,
तो वही
दृश्य थोड़ा
खयाल में लें
तो लाओत्से की
बात समझ में आ
जाए।
"एक
महान देश का
सम्राट कैसे
अपने राज्य
में अपने शरीर
को उछालता फिर
सकता है?'
दिखाने
की कोई जरूरत
ही न रही।
राज्य ही मेरा
है,
अस्तित्व
ही पूरा मेरा
है।
"हलके छिछोरेपन
में केंद्र खो
जाता है; जल्दबाजी
के काम में
स्वामित्व, स्वयं की
मालकियत नष्ट
हो जाती है।'
इस
आखिरी सूत्र
को थोड़ा समझना
पड़े। मैंने
आपसे कहा, गति
में केंद्र के
खोने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। सच तो यह
है कि गति में
ही स्थिर को
जाना जा सकता
है। लेकिन गति
दो तरह की है।
एक छिछोरेपन
की गति है।
छिछोरापन
ज्वरग्रस्त
गति का नाम है--फीवरिश, बुखार से
भरी।
एक
आदमी
सन्निपात में
है,
और दौड़ रहा
है। यह दौड़ और
आप सुबह जाकर
बीच पर दौड़
रहे हैं, दोनों
दौड़ें
हैं, लेकिन
इन दौड़ों
में बड़ा फर्क
है। आप दौड़
रहे हैं, आप
मालिक हैं
अपने दौड़ के।
सन्निपात से
ग्रस्त जो दौड़
रहा है, वह दौड़ाया जा
रहा है। वह
मालिक नहीं
है। यह दौड़
उसके ऊपर सवार
है; पजेस्ड है। आप
मालिक हैं। आप
चाहें तो इसी
वक्त दौड़ रुक
सकती है। भीतर
आप नहीं दौड़
रहे हैं, इसलिए
कंट्रोल है, नियंत्रण
है। आप दौड़ ही
नहीं हो गए
हैं। आप चाहें
तो इसी वक्त
दौड़ रुक जाएगी;
चाहें तो
तेज हो जाएगी।
सन्निपात में
जो भाग रहा है,
इसके चाहने
का कोई सवाल
ही नहीं है।
यह दौड़ ही हो
गए हैं। इनका
केंद्र खो गया
है, धूमिल
हो गया है।
हलके छिछोरेपन
का अर्थ है
ऐसी गति
जिसमें आप
बीमार की तरह
दौड़ते हैं।
अक्सर
मुझे लंबी
यात्राओं में
ऐसे लोग मिल
जाते थे, क्योंकि
लंबी
यात्राओं में
एक आदमी ट्रेन
में बैठा हुआ
है। थर्ड
क्लास का डिब्बा
इस लिहाज से
बहुत बेहतर है;
वहां संसार
मौजूद रहता
है। वहां
ज्यादा दिक्कत
नहीं आती। हर
स्टेशन पर
इतने उपद्रव
होते हैं कि
रुचि कायम
रहती है। और
अपनी जगह इतनी
असुरक्षित
रहती है कि
जीवन का
संघर्ष चलता
रहता है। थर्ड
क्लास में
यात्रा करना
एक लिहाज से
बहुत अच्छा
है। क्योंकि
संसार की जो
हमारी आदत है,
बाजार की, उसमें कोई, उसमें कोई
गतिरोध खड़ा
नहीं होता, कोई बाधा
नहीं पड़ती।
लेकिन अगर आप
फर्स्ट क्लास
में सफर कर
रहे हैं तो
बड़ी मुश्किल
खड़ी हो जाती
है--क्या करें?
तो कई
बार मुझे, अगर
मैं बीस या
तीस घंटे एक
ही डिब्बे में
एक आदमी के
साथ हूं, तो
उसे देखने का
बड़ा आनंद है।
जिस अखबार को
वह सुबह से कई
दफे पढ़ चुका, उसको फिर पढ़
रहा है।
चिटकनी
खोलेगा, खिड़की
खोलेगा, फिर
दो मिनट बाद
बंद कर देगा।
फिर थोड़ी देर
बैठेगा, फिर
पंखा चलाएगा।
और अगर एक
आदमी चुपचाप
बैठा देख रहा
है तो उसकी
गति और फीवरिश
होने लगती है।
अब वह और
बेचैन है कि
अब क्या करे, क्या न करे!
सूटकेस
खोलेगा, कोई
सामान
निकालेगा, फिर
वापस रख देगा।
उसकी सारी
गतिविधि फीवरिश
है। इस
गतिविधि से वह
कुछ करना नहीं
चाह रहा है।
क्योंकि जिस
अखबार को छह
दफे पढ़ चुका, अब सातवें
दफे पढ़ने का
कोई प्रयोजन
नहीं। और अगर
सातवें दफे भी
पढ़ने का
प्रयोजन है तो
सत्तर दफे भी
पढ़ने से कोई
हल नहीं होगा।
अगर छह दफे में
भी समझ में
नहीं आया कि
अखबार में
क्या लिखा है,
तो सातवीं
दफे भी कैसे
समझ में आने
वाला है? नहीं,
लेकिन पढ़ने
से प्रयोजन
नहीं है। वह
आदमी बिना कुछ
किए नहीं रह
सकता, उसकी
तकलीफ यह है। आक्युपेशन
चाहिए, व्यस्तता
चाहिए। खाली
नहीं रह सकता।
खाली में
बेचैनी होती
है कि क्या कर
रहे हो? कुछ
तो करो! अखबार
ही पढ़ो, खिड़कियां खोलो, सूटकेस बंद
करो, कुछ
करो!
क्यों
यह कुछ करना, इसके
आप मालिक हैं?
अगर आप
मालिक हैं तो
अखबार सात बार
नहीं पढ़ सकते
हैं। यह आदमी
चाहे भी कि
मैं अखबार पढ़ना
रोक दूं तो
नहीं रोक
सकता। यह
सन्निपात है।
और हम सब
सन्निपात में
हैं। मात्रा
थोड़ी कम है, इसलिए हास्पिटलाइज
करने की कोई
जरूरत नहीं
है। और फिर
आस-पास सभी
लोग इस अवस्था
में हैं, इसलिए
नार्मल
सन्निपात है।
इसमें कोई ऐसी
बात नहीं है
कि कोई परेशान
हो। इसमें कोई
परेशानी की
बात नहीं है।
पत्नी जानती
है कि पति
तीसरी दफे
अखबार पढ़ रहा
है। पति जानता
है कि यह
पत्नी क्यों
बर्तन बार-बार
पटक रही है।
सबको पता है, सबको पता
है। हम अपनी
गति के मालिक
नहीं हैं। मालिक
वही हो सकता
है, जिसको
अपनी अगति के
केंद्र का पता
हो।
लाओत्से
कहता है, हलके छिछोरेपन
में केंद्र खो
जाता है। यह
हलका
छिछोरापन है।
जल्दबाजी में
स्वामित्व खो
जाता है।
आपको
पता होगा, सबको
अनुभव में आता
है, जल्दबाजी
में क्या होता
है। जल्दबाजी
में, जो आप
बिना
जल्दबाजी के
कर लेते, वह
नहीं हो पाता।
आप जल्दी में
हैं ट्रेन पकड़ने
की और बटन लगा
रहे हैं। जो
बटन रोज लग
जाती थी, वह
आज नहीं लग
रही है, या
उलटे काज में
लग जाती है।
आप रोज लगाते
थे इस बटन को, इस बटन ने
कभी बगावत
नहीं की। यह
बटन भली, सज्जन,
सदा ठीक लग
जाती थी। और
आज इसको न
मालूम क्या हो
रहा है कि
अंगुलियों की
पकड़ में नहीं
आ रही, छूट-छूट
जा रही है। और
लगती भी है तो
गलत काज में
प्रवेश कर
जाती है। और
एक बटन गलत
काज में चली
जाए तो फिर
आगे की बटनें
कभी ठीक काज
में नहीं जा
सकतीं। यह सब
लंबा सिलसिला
है। फिर कर्म
का फल भोगना
ही पड़ता है, जब तक कि
पहली बटन न
बदली जाए। और
जितनी जल्दी करिए,
उतना सब
गड़बड़ हो जाता
है। होता
क्यों है ऐसा?
क्या मामला
है?
जल्दबाजी
में
स्वामित्व खो
जाता है। आप
मालिक नहीं रह
जाते; छिछोरापन
हो जाता है।
आश्वस्त हैं
तो आप मालिक हैं।
अंगुली आपकी
मालकियत से
चलती है। यह
बटन गड़बड़ नहीं
कर रही है, बटन
को कोई मतलब
ही नहीं है।
आपकी अंगुली गड़बड़ा रही
है। अंगुली भी
क्यों गड़बड़ाएगी,
यह आपका मन गड़बड़ा रहा
है। मन भी
क्यों गड़बड़ाएगा,
आपकी आत्मा
कंपित हो गई
है। सब भीतर
तक, यह
छोटी सी बटन
जो हिल रही है,
यह भीतर की
आत्मा के हिल
जाने का
परिणाम है।
बड़े से
बड़ा सर्जन भी
अपनी पत्नी का
आपरेशन नहीं
कर पाता; नहीं
कर सकता। यह
दूसरी बात है
कि डाइवोर्स
की हालत आ गई
हो और फिर
आपरेशन कर दे।
वह दूसरी बात
है। लेकिन अगर
पत्नी से थोड़ा
भी प्रेम हो
जारी--जो कि
बड़ी कठिन बात
है--अगर थोड़ा
भी प्रेम चल
रहा हो, घिसट
रहा हो, तो
भी आपरेशन
करना मुश्किल
है। हाथ कंप
जाएंगे। यही
सर्जन पत्थर
की मूर्ति की
तरह किसी का भी
आपरेशन कर
देता है।
परमात्मा को
भी लाकर लिटा
दो इसकी
आपरेशन टेबल
पर तो यह
फिक्र न
करेंगे। एपेंडिक्स
न निकालनी हो
तो भी निकाल
देंगे। मगर
अपनी पत्नी के
साथ इनको क्या
अड़चन आ रही है?
क्या
मुश्किल हो
रही है? हाथ
क्यों कंपता
है?
हाथ
नहीं कंपता, आत्मा
भीतर कंप जाती
है। और प्रेम
से ज्यादा आत्मा
को कंपाने
वाली और कोई
चीज नहीं है।
मोह बहुत जोर
से कंपा देता
है। भीतर जब
आत्मा कंपती है,
तो मालकियत
खो जाती है।
और जब भी हम
जल्दी में होते
हैं, तब यह
कठिनाई हो
जाती है।
लेकिन
अब तो ऐसा है
कि हम चौबीस
घंटे जल्दी में
हैं। अब कोई
ऐसा नहीं है
कि कभी-कभी हम
जल्दी में
होते हैं। वह
पुराने जमाने
की बात होगी, जब
लोग कभी-कभी
जल्दी में
होते थे। फिर
भी ऐसी कोई
जल्दी नहीं
होती थी। बैलगाड़ी
पकड़ने की
कोई जल्दी तो
होती नहीं। बैलगाड़ी
ही पकड़नी
है तो कभी भी
पकड़ सकते हैं।
दिक्कत तो
रेलगाड़ी के
साथ शुरू होती
है। हवाई जहाज
के साथ और मुश्किल
हो जाती है।
लेकिन अभी
भारत में इतनी
मुश्किल नहीं
है। क्योंकि
कोई गाड़ी, कोई
हवाई जहाज
टाइम पर नहीं
चलता। लेकिन
बिलकुल टाइम
पर चलने लगे
तो मुसीबत
बढ़ती चली जाती
है।
स्विटजरलैंड
में वे कहते
हैं कि वे
सूचना ही नहीं
करते कि अब
गाड़ी छूटने
वाली है। जब
छूटती है, तब
छूटती ही है।
वह टाइम टेबल
में लिखा हुआ
है। उसके
अतिरिक्त और
कोई सूचना करने
की जरूरत नहीं
है। सूचना ही
तब करते हैं, जब कभी वर्ष,
छह महीने
में कोई गाड़ी
लेट होती है।
तो ही सूचना
करते हैं।
यहां हमारे
मुल्क में तो
हालत ऐसी है
कि यही समझ
में नहीं आता
कि टाइम टेबल
क्यों छापते
हैं! सिर्फ एक ही
कारण मालूम
पड़ता है कि
टाइम टेबल से
पता चल जाता
है कि गाड़ी
कितनी लेट है।
और तो कोई
कारण नहीं समझ
में आता।
लेकिन
जैसे जीवन की
त्वरा बढ़ती है, गति
बढ़ती है, वैसे
जल्दबाजी
बढ़ती है।
लेकिन इसका
अर्थ आप यह मत
समझना कि यह
जल्दबाजी
जीवन की त्वरा
के कारण बढ़ती
है। न, यह
जीवन की त्वरा
के कारण प्रकट
होती है। आपमें
मौजूद है, चाहे
आप बैलगाड़ी
में चलते हों
और चाहे हवाई
जहाज में। बैलगाड़ी
में प्रकट
नहीं हो पाती,
हवाई जहाज
प्रकट कर देता
है।
इसलिए
सभ्यता आदमी
को बीमार नहीं
करती, बीमार
आदमियों को
जाहिर कर देती
है। पुरानी सभ्यताओं
में सब आदमी
ऐसे ही बीमार
थे, लेकिन
जाहिर होने का
मौका नहीं था।
तो मैं तो मानता
हूं, अच्छा
हुआ है।
बीमारी जाहिर
हो तो इलाज भी
हो सकता है।
बीमारी जाहिर
न हो तो इलाज
का भी कोई उपाय
नहीं है।
"हलके छिछोरेपन
में केंद्र खो
जाता है; जल्दबाजी
में
स्वामित्व, स्वयं की
मालकियत नष्ट
हो जाती है।'
आज
इतना ही। रुकें, कीर्तन
करके जाएं। रुकें
पांच मिनट।
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