दिनांक
दिनांक 3 जून, 19?5, प्रातः,
ओशो
कम्यून
इंटरनेशनल, पूना
प्रश्नसार
:
1—सूत्रों
की अपेक्षा
हमारे
प्रश्नों के
उत्तर में
आपके प्रवचन
अधिक अच्छे
लगते हैं। ऐसा
क्यों?
2—झटका
क्यों, हलाल
क्यों नहीं?
3—शिक्षक
देता है ज्ञान
और गुरु देता
है ध्यान।
ध्यान देने का
क्या अर्थ है?
4—आपके सतत
बोलने में
मिटाने की कौन
सी प्रक्रिया
छिपी है?
5—आपने
कहा, शिष्य
की जरूरत और
स्थिति के
अनुसार
सदगुरु मार्गदर्शन
करता है। आपके
कथन में आस्था
के बावजूद
मार्गनिर्देशन
के अभाव की
प्रतीति।
6—आशा से
आकाश टंगा है।
क्या आशा
छोड़ने से आकाश
गिर न जाएगा?
7—क्या
ब्राहमणों ने
जातिगत
पूर्वाग्रह
के कारण कबीर
को अस्वीकार
कर दिया?
पहला
प्रश्न :
आप
जब किन्हीं
सूत्रों पर
बोलते हैं, तो
उससे भी
ज्यादा अच्छा
लगता है, जब
आप हमारे
प्रश्नों के
उत्तर देते
हैं। ऐसा
क्यों?
स्वाभाविक
है। अर्जुन का
प्रश्न हो, कृष्ण
का उत्तर हो, तुम्हारा
उससे क्या
लेना—देना? बड़ा फासला
है। जिज्ञासा
हो सकती है, आत्मीयता
नहीं हो सकती।
वह
प्रश्नोत्तर
.शास्त्रीय हो
गया, जीवन्त
न रहा। जब तुम
पूछते हो, तो
तुम्हारे
प्रश्न में
तुम्हारा
हृदय धड़कता है।
तुम उसमें
मौजूद होते हो।
वह तुम्हारी
जरूरत है।
तुम्हारी भूख,
तुम्हारी
प्यास उसमें
छिपी है।
स्वभावत:
तुम्हारे
प्रश्न का
उत्तर
तुम्हें एक
तृप्ति देता
है। वैसी ही
तृप्ति
अर्जुन को भी
हुई होगी
कृष्ण के
उत्तर से।
तुम्हारा
प्रश्न होता
और कृष्ण
उत्तर देते तो
अर्जुन की भी
तृप्ति न होती।
अपना प्रश्न
खोज लेना बहुत
जरूरी है।
मुझे
कोई भेद नहीं
पड़ता।
क्योंकि मैं
देखता हू कि
अर्जुन का जो
प्रश्न है, वह
कभी न कभी
तुम्हारा भी
बन जायेगा।
इसीलिए
सूत्रों पर भी
बोलता हू
अन्यथा बोलूं ही
नहीं। आज
तुम्हें भी
पता न हो, कि
कल तुम्हारा
प्रश्न क्या
बन जानेवाला
है। लेकिन
.शास्त्रों का
निर्माण ही
इसलिए किया गया
है। वे बड़ी
गहन खोज —बीन
से निर्मित
हुए हैं। वह
खोज —बीन यह है,
कि जो
व्यक्ति भी
मार्ग पर चला
है सत्य को
खोजने, आज
नहीं कल
अर्जुन के
प्रश्न उसके
मन में उठेंगे
ही।
उन्हीं
सारभूत
प्रश्नों के
उत्तर गीता
में दिये हैं।
या उन्हीं
सारभूत
प्रश्नों के
उत्तर बाइबिल में
हैं,
कुरान में
हैं, जो हर
खोजी को
उठेंगे ही।
लेकिन
फिर भी जब
तुम्हारा
प्रश्न
तुम्हारे वाक्यों
में और
तुम्हारे —शब्दों
में आता है, तो
संवाद की
संभावना बढ़ती
है। अन्यथा सब
उधार मालूम
पड़ता है, तुम्हारे
सिर पर से
निकल जाता
लगता है, जैसे
तुमसे कुछ
लेना—देना न
था।
मैंने
सुना है, एक
आदमी बहुत
परेशान था।
उसका बेटा
विवाह करने को
राजी नहीं
होता था। बहुत
समझाया —बुझाया,
उम्र भी
बीतने के करीब
होने लगी।
बहुत आग्रह
किया तो
बामुश्फिल वह
राजी हुआ।
लेकिन उसने एक
ऐसी लड़की चुन
ली पड़ोस में, कि बाप राजी
न था उस लड़की
से। और बेटा
जिद पकड़ गया
कि अब शादी
करूंगा तो इसी
से; नहीं
तो नहीं
करूंगा। आप ही
पीछे पड़े थे, शादी करो, शादी करो; अब लड़की
मैंने चुन ली,
तो आपको
एतराज है!
एतराज क्या है?
कारण बताओ।
लड़की
सुंदर थी, शिक्षित
थी, सुसंस्कृत
थी। और लड़के
ने कहा, अगर
कारण नहीं बता
सकते तो यह
.शादी की बात
सदा के लिए
भूल ही जाओ; या कारण बता
दो।
मजबूरी
में बाप को
कारण बताना
पड़ा। बाप ने
कहा तू मानता
नहीं तो तुझसे
कहता हू कि वह
लड़की तेरी बहन
है। वह मुझसे
ही पैदा हुई
है,
इसलिए उससे
विवाह ठीक न
होगा।
बहुत
धक्का लगा
बेटे को। बाप
पर सारी
श्रद्धा भी खो
गई। बड़ा आघात
था,
एक घाव बन
गया हृदय में।
किसी और से तो
न कह सका, लेकिन
अपनी मां से
तो कहा। और मा
बहुत प्रसन्न
थी, कि
उसने लड़की चुन
ली है और
जल्दी ही
विवाह होगा।
मा से उसने
कहा, कि
ऐसी —ऐसी बात
है। अब असंभव
है। मा ने कहा,
तू बिलकुल
घबड़ा ही मत।
तू जा और .शादी
कर। चिंता की
कोई जरूरत
नहीं, क्योंकि
तू तेरे बाप
से पैदा ही
नहीं हुआ।
न
लड़की अपने बाप
से पैदा हुई
है,
न लड़का अपने
बाप से पैदा
हुआ है।
न
प्रश्न
तुम्हारा है, न
उत्तर तुम्हारे
हृदय के पास
पहुंच पाएगा।
सब उधार रह
जायेगा। इस
प्रश्न और
उत्तर का
विवाह न हो
सकेगा, संवाद
न हो सकेगा।
मेल न हो
सकेगा।
इसलिए
सवाल यह नहीं
है कि प्रश्न
मूल्यवान है या
नहीं, गहरे
में सवाल यही
है कि वह
तुम्हारा है
या नहीं। किसी
और ने गहरे से
गहरा सवाल पूछा
हो, वह
तुम्हारे लिए
छिछला है।
क्योंकि
गहराई तो
तुम्हारे
प्राणों से
आती है, किसी
के पूछने से
नहीं आती। और
तुमने छोटा सा
सवाल पूछा हो,
दुनिया
नासमझी का कहे;
लेकिन
तुम्हारे
प्राणों से
आया है, तुमने
न मालूम कितने
दिनों तक उसको
अपने हृदय में
सम्हाला है, सोचा है, गुना
है, सपनों
में वह प्रश्न
तुम्हारे गूंजा
है, तो
तुमने उसे
पाला—पोसा है।
वह तुम्हारे
गर्भ में
निर्मित हुआ
है। वह
तुम्हारी
संतान है।
उससे
तुम्हारा एक
सब ध है, गहरा
सब ध है। उस
प्रश्न के
द्वारा तुम ही
प्रगट हुए हो।
इसलिए
जब मैं उसे
उत्तर देता
हूं तब तुम्हारे
कठ में एक
संतोष मालूम
पड़ता है और प्राणों
में एक तृप्ति।
कुछ हल होता
है,
कोई गांठ
खुलती है; इसलिए।
दूसरा
प्रश्न :
जब गुरु
शिष्य की मौत
ही है, तो
झटके से क्यों
नहीं मार
डालते? हलाल
क्यों करते
हैं?
कारण
है। एक छोटी
कहानी से कहूं।
एक
आदमी दात के
डाक्टर के पास
गया। उसका
दांत निकाला
गया। लेकिन
उसने इतना
.शोरगुल मचाया
और इतनी हुल्लड़
की,
कि बाकी
मरीज जो आए थे,
वे सब भाग
गए। जब डाक्टर
ने उसको अपना
बिल दिया, तो
वह बिल साधारण
से आठ गुना
ज्यादा था। उस
आदमी ने कहा, क्या मजाक
कर रहे हो?
कभी सुना है, एक दांत के
निकालने का
इतना पैसा?
यह तो आठ—दस
गुना ज्यादा
मालूम पड़ता है।
उस
डाक्टर ने कहा, कि
नहीं, वे
जो आठ मरीज
भाग गए, उनका
पैसा कौन देगा?
तुम्हें
एक झटके से तो
मार डालुं मगर
और मरीज भाग
जाएंगे। ऐसे
धीरे— धीरे
हलाल करना
पड़ता है। और
जैसे —जैसे
तुम तैयार
होते हो, वैसे —वैसे
ही मारे जा
सकते हो।
क्योंकि
मृत्यु कोई
साधारण घटना
नहीं है।
गुरु
के पास जो
मृत्यु घटित
होती है, वह तो
परम घटना है।
वह तो परम
जीवन का द्वार
है। उसकी
तुम्हारी
तैयारी भी तो
होनी चाहिए।
वह कोई
आत्महत्या
थोड़े ही है, कि जिसने
चाहा, उसने
कर ली। आत्महत्या
के लिए कोई
गुणधर्म तो
नहीं चाहिए।
कोई भी कूद
पड़े पहाड़ से
मर जाएगा।
पानी में गिर
पड़े, डूब
जाएगा। कुएं
में गिर जाए, मर जाएगा।
जहर खा ले।
आत्महत्या
तो नहीं है, गुरु
के पास जो
घटना घटती है,
वह तो परम—मृत्यु
है। उसको ही
तो हमने समाधि
कहा है।
यह
हमारा —शब्द 'समाधि'
बड़ा
बहुमूल्य है।
जब संन्यासी
मरता है तो
उसकी कब को भी
हम समाधि कहते
हैं। और जब
कोई व्यक्ति
ध्यान को उपल्बध
होता है तब भी
उसको हम समाधि
कहते हैं। वह
भी एक कब बन गई।
पुराना
तो गया, नहीं
बचा; नए का
जन्म हुआ। रात
टूट गई, सुबह
हुई। अब सुबह
का रात से क्या
लेना —देना? सुबह का
सूरज और सुबह
पक्षियों के
गीत और आकाश
में फैला
किरणों का जाल,
इससे क्या
सब ध है उस
अंधेरी रात का,
जो अभी — अभी
थी? रात तो
मर गई। रात
में और दिन
में कोई
सिलसिला थोड़े
ही है! रात और
दिन किसी एक
ही चीज का
फैलाव थोड़े ही
मालूम होते
हैं! दोनों के
बीच एक
अन्तराल है।
रात रात है, दिन दिन है।
जब
ध्यान गहरा
होगा तो तुम
अचानक पाओगे
कि तुम्हारा
जो कल तक था, तुम्हारा
अतीत, वह
ऐसे ही चला
गया, जैसे
सुबह रात खो
जाती है। और
एक नए
व्यक्तित्व
का जन्म हुआ, एक नई आत्मा
बिलकुल
कुंआरी और
ताजी पैदा हुई;
जिससे तुम
अपरिचित थे, जिसे तुमने
कभी जाना ही न
था। यह द्वार
भी है
तुम्हारे
भीतर। यह
तुमने कभी
खोला ही न था।
और
इस द्वार के
भीतर
परमात्मा
विराजमान है
सिंहासन पर।
इसकी तुम्हें
कभी भनक भी न
पड़ी थी। तुम
तो अपने घर के
बाहर —बाहर जी
लिए थे। तुम
तो भीतर कभी
आए ही न थे। जो
भीतर आया है, वह
बिलकुल नया है।
मृत्यु का यही
अर्थ है।
गुरु
मृत्यु है; इसका
अर्थ है, कि
गुरु के पास
तुम्हारा
अतीत, तुम्हारा
जराजीर्ण, तुम्हारा
पुराना मरेगा;
अभिनव का, अलौकिक का, अज्ञात का
जन्म होगा।
यह
आत्महत्या
होती तो एक
क्षण में भी
हो जाती।
तैयार होना
पड़ेगा। यह
मृत्यु
तुम्हारी
तैयारी
से आएगी। यह
तो तुम्हें
अहंकार को
छोड़ने की
क्षमता आएगी, तभी
हो सकती है।
यह गुरु के
हाथ में नहीं
है, कि वह
तुम्हें हलाल
कर दे या झटके
से मार डाले।
धीरे — धीरे
मारे, या
जल्दी मार
डाले; यह
तुम्हारे हाथ
में है। अगर
तुम राजी हो, तो एक क्षण
में भी गुरु
मार डाल सकता
है। गुरु को
क्या अड़चन है? तुम्हारी
देर से ही देर
होती है।
लेकिन तुम
राजी नहीं हो,
इसलिए गुरु
तुम्हें
लुभाता है, समझाता है, बुझाता है, राजी करता
है। हजार
बातें समझाता
है, जिनके
बिना समझाए चल
जाता। लेकिन
तब तुम भाग
खड़े होते। तब
तुम डर जाते।
तब तुम भयभीत
हो जाते।
क्योंकि
तुम तो मृत्यु
का एक ही अर्थ
जानते हो—मर
जाना, मिट
जाना। वह
दूसरा अर्थ, कि मृत्यु
के बाद एक
पुनरुज्जीवन
है, वह तो
तुम्हें पता
नहीं है। वह
गुरु को पता
होगा, लेकिन
उसका पता होना
तुम्हारे काम
नहीं आ सकता।
तुम तो उसके
हाथ में छुरी
देखकर घबड़ा
जाओगे।
तो
वह छुरी
छिपाकर रखता
है। फूलों में
ढांकता है।
.शब्दों और
सिद्धान्तों
में रखता है।
.शास्त्रों
में दबा देता
है। वह
तुम्हें
देखने नहीं
देता। वह
तुम्हें उसी
दिन देखने
देगा, जिस दिन
तुम्हें इस
बोध की थोड़ी
सी भनक पड़नी .शुरू
हो जाएगी, कि
मरे बिना
महाजीवन नहीं
मिलता। मिटे
बिना
परमात्मा
होने का कोई
उपाय नहीं।
खोना ही पाना
है।
जिस
दिन तुम राजी
हो जाओगे, जैसे
सागर में नदी
खोने को राजी
हो जाती है, गिर जाती है,
तो खोती
थोड़े ही है!
पूरा सागर
उसका अपना हो
जाता है।
लेकिन
उसके लिए तो
नदी को भी बड़ी
लंबी यात्रा
करनी पड़ती है।
गंगोत्री से
लेकर समुद्र
तक आते — आते
गांगा को
कितनी यात्रा
करनी पड़ती है!
अगर गंगोत्री पर
ही सागर कहता, कि
सुन, गिर
जा मुझ में; तो नंगा
राजी नहीं हो
सकती।
नंगा
भी कहती, अभी
तो हुई भी
नहीं। यह तो
गर्भपात हो
जाएगा। इस सागर
से तो गंगा
घबडाती।
लेकिन सागर
बड़ा दूर है, उसका पता ही
नहीं। गंगा
उसी को खोजती
हुई अनंत
यात्रा करती
है। उसी गंगा
के किनारे
तीर्थ बनते
चले जाते हैं।
हमने
क्यों नदियों
के किनारे
तीर्थ बनाए
हैं?
कारण है।
क्योंकि
नदियां सागर
की तरफ जा रही
हैं, खोने
की तरफ जा रही
हैं, मिटने
की तरफ जा रही
हैं। तीर्थ तो
वही है, जहां
तुम्हें खोने
का बोध मिले, जहां .शून्य
होने की
सामर्थ्य
मिले। इसलिए
गंगा पर हमने
तीर्थ बनाए
हैं।
वह
गंगा जा रही
है सागर की
तरफ। —शायद
उसे भी पक्का
पता न हो। तुम
मेरे पास आ गए
हो,
.शायद
तुम्हें भी ठीक—ठीक
पता न हो, तुम
क्यों आ गए हो।
अनत— अनत कारण
ले आते हैं, संयोग ले
आते हैं, जन्मों—जन्मों
की यात्रा ले
आती है।
तुम्हें पता
भी नहीं हो
सकता।
कल
रात एक युवक
ने संन्यास
लिया। वह मुझे
जानता भी नहीं
था। एक सप्ताह
पहले वह
अफ्रीका से
भारत आया।
भारत घूमने
आया था। मेरा
तो उसे सपने
में भी कोई
खयाल न था।
लेकिन
भारत आकर उसको
पता चला कि उस
की कोई पुरानी
मित्र, एक
युवती यहां
मेरी
सन्यासिनी है,
तो सोचा एक
दिन के लिए
उससे मिल जाए।
उससे आठ वर्ष
से मिला भी
नहीं। तो उसे
मिलने आ गया।
उस युवती में
अंतर देखे, जैसा वह
जानता था, वैसी
वह नहीं रही
है। और जैसा
उसने सोचा भी
नहीं था, कभी
उसके जीवन में
घटेगा, उसकी
उसे झलक मिली।
वह रुका रहा
तीन दिन के
लिए। ध्यान
करने लगा। फिर
सात दिन के
लिए रुक गया।
फिर कल
सन्यस्त हो
गया; अब तो
जैसे रुक ही
गया।
वह
कल मुझे कहने
लगा कि आया था
मैं भारत की
यात्रा पर और
क्या हो गया? यह
तो मैंने सोचा
ही न था।
मैंने उससे
कहा कि यही है
भारत की
यात्रा। तुझे
भारत मिल गया।
उसे
अपने जन्मों
का पिछले
जन्मों का
हिसाब भी तो
पता नहीं है।
कौन सी
आकांक्षा उसे
भारत ले आई है।
कौन से अनजाने
सूत्र उसे
भारत ले आए।
क्यों आ गया है?
कैसे संयोग
बनते चले गए।
और अब तो जीवन
वही न होगा।
अब
वह कल कहने
लगा,
मेरी पत्नी
का क्या होगा? मेरे
बच्चों का
क्या होगा?
यह तो उसने
कभी सोचा ही न
होगा, कि
मैं संन्यस्त
हो जाऊंगा।
इसका मुझे भी
कभी सपना न था।
और मैं कभी
ध्यान करूंगा
इसका भी मुझे
खयाल न था। और
अब जो हो गया
है, इससे
पीछे लौटने का
उपाय नहीं है।
जीवन, तुम
जैसा सोचते हो,
कि
तुम्हारे
जाने —जाने चल
रहा है, ऐसा
नहीं है।
तुम्हारे
जाने —जाने तो
बहुत थोड़ा सा
हिस्सा चल रहा
है, जहां
टिमटिमाती
रोशनी है।
अधिक हिस्सा
तो अचेतन के
अंधकार में
दबा है।
तुम
आ गए हो। अब
तुम्हें खयाल
भी नहीं है कि
तुम मरने को आ
गए हो, मिटने
को आ गए हो।
तुम .शायद कुछ
लेने को आए हो।
शिष्य और गुरु
का गणित अलग —
अलग है। शिष्य
कुछ लेने आता
है। और गुरु
उसे समझाता है
देंगे, बैठो;
और फिर छीन
लेता है।
शिष्य
आता है सुखी
होने, और गुरु
जानता है, जो
भी सुखी होने
आया है, वह
दुख से न बच
सकेगा। इसलिए
गुरु कहता है,
देंगे सुख।
समझाता सुख है,
देता .शांति
है। .शांति
सुख से बड़ी
अलग बात है।
.शांति का
अर्थ है, जहां
न दुख रह जाता
है, न सुख।
लेकिन वही
महासुख है।
निश्चित
ही,
तुम्हें
मैं चाहूं तो
अभी मार डाल' लेकिन उससे
तुम्हारा
पुनर्जन्म न
होगा। सिर्फ
मैं अदालत के
चक्कर में फंस
जाऊंगा। तुम
नाहक मुझे
उलझा दोगे, तुम तो सुलझ
न पाओगे।
नहीं, धीरे
— धीरे, क्रमश:,
आहिस्ता—
आहिस्ता
तुम्हें राजी
करना पड़ेगा।
जिस दिन तुम
राजी हो जाओगे,
उसी दिन
घटना घट जाएगी।
क्योंकि यह
मृत्यु कोई
.शरीर की
मृत्यु थोड़े
ही है, यह
मृत्यु तो
तुम्हारे अहंकार
की मृत्यु है।
और
इस जगत में
सबसे बड़ी
कुशलता चाहिए
अहंकार को मार
डालने के लिए, क्योंकि
अहंकार बहुत
कुशल है। वह
सब तरह से बच
जाता है। तुम
उसे एक जगह से
मारोगे, वह
दूसरी जगह खड़ा
हो जाएगा। तुम
उसका एक सिर
काटोगे, नया
सिर पैदा हो
जाएगा।
रावण
की हमने कथा
लिखी है, कि
उसके दस सिर
हैं। एक काटो,
प्रतिक्षण
दूसरा पैदा
होता चला जाता
है। उसे मारना
मुश्किल है।
रावण की कथा
अहंकार की कथा
है। अहंकार को
मारना बहुत
मुश्किल है।
तुम इधर काटते
हो, वह उ धर
से खड़ा हो
जाता है। इधर
मारते हो, वहां
बन जाता है।
लेकिन वह अपने
को बचाए जाता
है। बड़ी
सूक्ष्म उसकी
गतिविधि है।
उसे मारने के
लिए बड़ा होश
चाहिए। इतना
होश, कि
तुम्हारे
भीतर के घर
में कहीं भी
कोई अंधेरा
कोना न रह जाए,
जहां वह खड़ा
हो जाए और बच
जाए।
जिस
दिन तुम्हारे
भीतर का दीया
पूरा जलता है, रोशन
होते हो तुम, कहीं कोई
अंधेरा नहीं
होता, उसी
दिन अहंकार मर
पाता है। जिस
दिन गुरु
देखता है कि
अब घटना घट गई,
उस दिन वह
कह देता है, छोड़ दो, फेंक
दो, अब इस
कचरे को मत
ढोओ। और तब एक
बूंद भी खून
नहीं गिरता और
तुम मर जाते
हो।
अगर
एक बूंद खून
भी गिर जाए तो
गुरु, गुरु न
था; सिक्खड़
ही रहा होगा।
गुरु की
गुरुता यही है
कि एक बूंद
खून न गिरे और
तुम मर जाओ।
जरा सी चोट न
लगे और सब
विसर्जित हो
जाए। गंगा
सागर में गिर
जाए, कहीं
.शोरगुल न हो।
तुमने
कभी पक्षियों
को पर तौलकर
आकाश में उड़ते
देखा? कहीं
कुछ पता भी
नहीं चलता।
जरा सा पंख
खुल जाते हैं
और पक्षी आकाश
में उड़ जाता
है।
तुमने
कभी चीलों को
तिरते देखा
आकाश में—कि
पंख भी नहीं
हिलते?
ठीक
ऐसी ही
जीवनदशा है, जहां
जरा सा भी शोरगुल
नहीं होता, एक बूंद खून
भी नहीं गिरता,
जरा सी चोट
नहीं लगती और
सब सुलझ जाता
है —सब! सारी
गांठें खुल
जाती हैं। तुम
निर्ग्रंथ हो
जाते हो।
गुरु
के पास जो
मृत्यु घटित
होती है, वह
महाजीवन है।
उसके लिए
तैयार होना
जरूरी है।
तुम्हारा
इतने कहने से
कि तुम मरने
को तैयार हो, काफी नहीं
है। तुम्हें
जीने के लिए
तैयार होना
जरूरी है।
और
मैं तुमसे जो
आखिरी बात इस
संबंध में
कहना चाहूंगा, वह
यह है कि
दुनिया में
बहुत लोग हैं,
जो मरने को
तैयार हैं।
दुनिया में
बहुत कम लोग
हैं, जो
जीने को तैयार
हैं। अगर
तुम्हें
चाहिए हों
मरने के लिए
लोग, तो
बहुत मिल जाते
हैं। .शहीद
होने के लिए
बहुत पागल
तैयार हैं।
हिंदू
धर्म खतरे में
है,
बहुत से
नासमझ मरने को
तैयार हो
जायेंगे।
इस्लाम खतरे
में है, बहुत
से नासमझ कूद
कर मर जाएंगे।
भारत पर हमला
हो जाए, पाकिस्तान
से झगड़ा हो
जाए, चीन
से हो जाए, मरने
को लोग तैयार
हैं।
मरना
तो बिलकुल
आसान मालूम
पड़ता है।
क्यों?
क्योंकि
तुम्हारा जीवन
इतने दुख से
भरा है। इस
दुख में तुम
जी ही नहीं पा
रहे हो। इसलिए
तुम कोई भी
बहाना खोज कर
मरने के लिए
तैयार हो जाते
हो। जरा सी
बात हो जाती
है—दिवाला
निकल गया; क्या
हुआ है दिवाला
निकल जाने में?
जो रकम के आंकड़े
तुम्हारे नाम
लिखे थे बैंक
में, अब
नहीं लिखे। जो
कागज के टुकड़े
तुम्हारी
तिजोड़ी में थे,
अब नहीं हैं।
दिवाला निकल
गया, जान
खोने को तैयार
हो! कूद पड़े
बड़े मकान से!
आग लगा ली!
पत्नी
मर गई, मरने को
तैयार हो।
जिसके जीने से
कभी कोई रस न
पाया था, उसके
लिए मरने को
तैयार हो!
बच्चा मर गया;
जिस बच्चे
के चेहरे को देखने
की तुम्हें
कभी फुरसत न
मिली थी, उसके
लिए मरने को
तैयार हो!
ऐसा
लगता है, तुम
बहाना ही खोज
रहे हो, कि
कोई बहाना मिल
जाए कि हम मर
जाए। जीना तो
बोझ है।
नहीं, असली
.शहीद मैं
उन्हें कहता
हू जो जीने की
हिम्मत रखते
हैं। मरते तो
कायर हैं।
चाहे वे
शहीदगी का बाना
ओढ़ लें, .शहीदों
के कपड़े ओढ़
लें; इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
राष्ट्र, धर्म
—हजार तरह के
पागलपन हैं, जिनके लिए
आदमी मर सकता
है।
जीना
असली सवाल है।
जीना कठिन है।
और जो आदमी जी
सकता है, वही
परमात्मा तक
पहुंच सकता है।
इसलिए
गुरु को जो हम
मृत्यु कहते
हैं,
वह सिर्फ इस
अर्थ में कहते
हैं कि तुम
जैसे हो, वैसे
मरोगे। तुम
मरोगे नहीं, वस्तुत: तो
तुम और भी
पुनरुज्जीवित
हो जाओगे। तुम
क्षुद्र की
तरह मरोगे और
विराट की तरह
हो जाओगे।
तो
गुरु मृत्यु
भी है और जन्म
भी। अधंकार की
मृत्यु और
प्रकाश का
जन्म। लेकिन
अंधकार तभी
मिट सकता है, जब
प्रकाश के
जलने की घड़ी
करीब आ जाए।
और तो अधंकार
के मिटाने का
कोई उपाय नहीं
है।
तो
तुम जल्दी मत
करो।
तुम्हारा मन
बड़ा बेचैन है
और जल्दी
चाहता है; सब
चीजें जल्दी
हो जाएं।
लेकिन कुछ
चीजें हैं, जो समय
मांगती हैं।
और जितनी बड़ी
चीजें हैं, उतना ही
ज्यादा समय
मांगती हैं।
अगर
तुम्हें
मौसमी फूल
लगाने हैं, तो
आज बो दो; तीन
—चार सप्ताह
में फूल आने
.शुरू हो
जाएंगे।
लेकिन अगर
तुम्हें ऐसे
वृक्ष लगाने
हैं, जो
हजारों साल तक
रहें, और
जिनके नीचे
लाखों लोगों
को विश्राम और
छाया मिले, तो तीन
सप्ताह में
आने वाले नहीं
हैं; तो
वक्त लगेगा।
तो हो सकता है,
तुम्हें
पूरा जीवन लगा
देना पड़े, तब
ऐसे वृक्ष तुम
पैदा कर पाओ।
अमरीका
के जंगलों में
ऐसे वृक्ष हैं, जिनकी
उम्र पांच
हजार साल है।
पांच हजार साल
जो वृक्ष
जीता
है,
उसको एक
आदमी अपने
जीवन में, एक
जीवन में नहीं
लगा पाता।
उसको लगाने के
लिए अनेक
लोगों के अनेक
जीवन लग जाते
हैं।
तुम
जिस वृक्ष की
खोज में हो —
आत्मा का, परमात्मा
का, मोक्ष
का, वह कोई
तुम जल्दी में
न लगा पाओगे।
इधर तुम ने
चाहा, उधर
लग गया, ऐसा
न होगा। वह
कोई कल्पना का
वृक्ष नहीं है।
वह कोई
कल्पवृक्ष
नहीं है, कि
तुमने चाहा और
हो गया।
तुम्हें
बड़ी सा धना से
गुजरना पड़ेगा, निखरना
पड़ेगा, .शुद्ध
होना पड़ेगा।
जिस दिन तुम
परम रूप में
हो जाओगे, उसी
क्षण वह घड़ी
घटेगी। उसी
क्षण मिलन
होगा। उसी
क्षण
परमात्मा का
बीज तुम्हारे
भीतर पड़ता है।
तुम मर जाते
हो और
परमात्मा हो
जाता है।
तीसरा
प्रश्न :
आपने
कहा कि शिक्षक
देता है ज्ञान
और गुरु देता
है ध्यान।
ध्यान देने का
क्या अर्थ है?
ज्ञान
और ध्यान बड़े
संयुक्त हैं।
ज्ञान का अर्थ
है,
जानकारी और
जानकारी से
भरा हु आ
चित्त। और
ध्यान का अर्थ
है, जानकारी
से शून्य
चित्त।
जैसे
एक कमरे में
फर्नीचर भरा
है —यह ज्ञान
की अवस्था।
फिर फर्नीचर
कमरे के बाहर
निकाल दिया, कमरा
बिलकुल खाली —यह
ध्यान की
अवस्था।
ध्यान
उसी का अभाव
है,
ज्ञान
जिसका भाव है।
ज्ञान में जो
कूड़ा —करकट
तुम इकट्ठा कर
लेते हो ——शब्द,
सिद्धान्त,
—शास्त्र; ध्यान में
वे सब छोड़
देने होते हैं।
शिक्षक
देता है ज्ञान
और गुरु देता
है ध्यान; इसका
अर्थ हुआ कि
शिक्षक जो
देता है, गुरु
वह छीन लेता
है। तो तुमने
जो भी सीखा है
जीवन के
विद्यालय में,
जो भी अनुभव,
जो भी ज्ञान
तुमने अर्जित
किया है
विश्यविद्यालयों
में, अध्यापकों
और शिक्षकों
से, शास्त्रों—सिद्धान्तों
से, तुमने
जो —जो
संगृहीत किया
है, गुरु
सब छीन लेगा।
वह सब में
माचिस लगा
देगा। वह सबको
जला देगा।
वह
तुम्हारे मन
के पूरे
फर्नीचर से
तुम्हें खाली
कर देना चाहता
है। उस खालीपन
में ही
तुम्हें पहली
बार अपने विस्तार
का पता चलता
है। उस खालीपन
में ही
तुम्हें पहली
दफा शांति की
किरण उतरती
मालूम होती है।
उस खालीपन में
ही तुम्हें
पता चलता है, कि
अहंकार नहीं
है, परमात्मा
है। तुम नहीं
हो, वह है। 'ओम् तत् सत्'
का बोध उसी
क्षण में होता
है।
तो
ध्यान और
ज्ञान की
प्रक्रियाएं
बिलकुल अलग
हैं। ध्यान
भूलने का नाम
है,
खाली होने
का नाम है।
जैसे
स्लेट पर
बच्चे ने कुछ
लिखा है और
फिर पोंछ डाला
है,
ऐसे संसार
ने जो —जो
तुम्हारे मन
पर लिख दिया
है, उसे
पोंछ डालने का
नाम ध्यान है।
ध्यान
को केवल वे ही
लोग उपलब्ध
हो सकते हैं, जो
ज्ञान से बहुत
परेशान हो गए
हों। अगर तुम
अभी ज्ञान से
परेशान नहीं
हुए, तो
तुम ध्यान को उपलब्ध
न हो सकोगे।
और जहां ध्यान
की वर्षा हो
रही होगी, वहा
से भी तुम कुछ
सीख कर लौट
पाओगे।
ऐसा
हुआ,
कि उन्नीस
सौ पचास में
एक किताब मेरे
हाथ आई। एक
जैन साध्वी ने
योगशास्त्र
पर एक किताब
लिखी थी।
जैनों में एक
अदभुत योगी
हुआ, हेमचंद्राचार्य।
तो हेमचन्द्र
के सूत्र पर
उसने वह किताब
आधारित की थी।
हेमचंद्र के
सूत्र बड़े
अनूठे हैं।
जैसे पतंजलि
के सूत्र
अनूठे हैं, ऐसे
हेमचंद्र के
हैं। पतंजलि
की कोटि का
आदमी है
हेमचन्द्र।
तो
हेमचन्द्र के
सूत्रों से
संबंध जोड़कर
उस महिला ने
किताब लिखी।
किताब उसने
बड़ी बढ़िया
लिखी थी।
लेकिन मैं बड़ी
उलझन में पड़ा, क्योंकि
सब ठीक था, लेकिन
कुछ —कुछ गलत
था; जो कि
नहीं हो सकता।
अगर उसने
अनुभव से लिखा
हो, ध्यान
का उसे अनुभव
हो, तो जो
भूलें उसने
कीं, वे
नहीं हो सकतीं।
परेशानी मेरी
यह थी, कि
जो भी उसने
लिखा था, वह
बहुत साफ —सुथरा
और ऐसा लगता
था, जैसे
किसी ने अनुभव
से लिखा हो।
लेकिन कुछ
भूलें भी थीं,
जो बताती
थीं कि अनुभव
वाला आदमी वे
भूलें नहीं कर
सकता।
खैर!
बात आई—गई हो
गई। मैं उस
किताब को भूल
गया। कोई
पद्रह साल बाद, उन्नीस
सौ पैंसठ में
मैं राजस्थान
के दौरे पर था,
एक गांव में
वह साध्वी
मुझसे मिलने
आई। नाम मुझे
कुछ पहचाना
हुआ मालूम पड़ा,
तो मैंने
उससे पूछा कि
क्या
हेमचन्द्र के
ऊपर योगशास्त्र
तुम्हीं ने
लिखा?
उसने
कहा,
मैंने ही
लिखा।
तो
मैंने उससे
पूछा, तुम
मेरे पास
किसलिए आई हो?
उसने
कहा,
ध्यान
सीखने आई हू।
तुमने
तो ध्यान और
योग पर इतनी
अच्छी किताब
लिखी।
उसने
कहा,
वह बस, .शास्त्र
को पढ़कर लिखी
है। जानकारी
मुझे कुछ भी
नहीं है। अपनी
जानकारी नहीं
है। खुद नहीं
जाना है। और
अब मैं उस
किताब को
लिखकर बड़ी
मुश्किल में पड़
गई हू। लोग
मेरे पास
पूछने आते हैं।
और मैं उनको
बताती हू कि
कैसे ध्यान
करो। अब यह तो
आपसे मैं निजी,
एकांत में
कह रही हूं
मुझे ध्यान का
अ, ब, स
भी नहीं आता।
आप मुझे
सिखाएं।
यह
चल रहा है।
बहुत जोर से
चल रहा है।
सदा से चलता
रहा है एक
अर्थों में।
अगर
ध्यान की
जानकारी से
अभी तृप्ति न
हो गई हो, तो
जहां ध्यान की
वर्षा हो रही
है, वहा भी
तुम ध्यान के
संबंध में कुछ
सीखकर लौट
जाओगे, ध्यान
न सीख पाओगे।
क्योंकि
ध्यान के
संबंध में
जानना, ध्यान
जानना नहीं है।
ध्यान जानना
तो एक बड़ी
क्रांति है।
ध्यान जानने
का तो अर्थ है,
तुम्हारा
आमूल
रूपांतरण। वह
तो एक अनुभव
है। उस अनुभव
में तो
जानकारी
बिलकुल
जल जाती
है। तुम ही
बचते हो खालिस।
सोना ही बचता
है,
कूड़ा —करकट
जल जाता है।
गुरु
देता है ध्यान, इसका
अर्थ है कि
गुरु छीन लेता
है ज्ञान। और जहां
तुम्हें ऐसा
गुरु मिले, जो तुमसे
ज्ञान छीनता
हो, वहां
हिम्मत करके
रुक जाना।
क्योंकि वहां
से भागने का
मन होगा।
क्योंकि यहां
हम तो कुछ
लेने आए थे, उल्टा और
गंवाने लगे।
आदमी
लेने के लिए
घूम रहा है।
कहीं से भी
कुछ मिल जाए
तो थोड़ा और
अपनी सम्पति
बढ़ा ले। अपनी
तिजोड़ी में
थोड़ी जानकारी
और रख ले, थोड़ा
और पंडित हो
जाए।
एक
जर्मन खोजी
रमण के पास
आया और उसने
कहा,
कि मैं आपके
चरणों में आया
हू कुछ सीखने।
आप मुझे
सिखाएं। रमण
ने कहा, तुम
गलत जगह आ गए।
अगर सीखना है,
तो कहीं और
जा ओ। अगर
भूलना है, तो
हम राजी हैं।
रमण
के वचन हैं, इफ
यू हैव कम टु
लर्न देन यू
हैव कम टु दि
रांग परसन। इफ
यू आर रेडी टु
अनलर्न देन आई
एम रेडी टू
हेल्प यू।
अनलर्न!
अगर अन—सीखने
को राजी हो
अगर सीखने को
आए हो —कहीं और।
खोजो कोई
शिक्षक। अगर
अन —सीखना
करने आए हो, सीख
चुके बहुत, थक गए, अब
इस कचरे से
छुटकारा पाना
है —तो गुरु
राजी है।
ध्यान, जो
तुमने जाना है
अब तक, उसके
भूल जाने का
नाम है। अब यह
बड़े मजे की
बात है। जिस
दिन तुमने जो —जो
जाना है, उसे
तुम बिलकुल
विस्मरण कर
दोगे, उस
दिन तुम्हें
आत्म — स्मरण
आएगा।
क्योंकि वह जो
तुमने जाना है,
उसी के कारण
तुम्हें अपना
पता नहीं चल
पा रहा है।
तुम्हारे और
तुम्हारे
जानने के बीच
में तुम्हारी
जानकारी की
दीवाल खड़ी हो
गई है।
अगर
तुम्हें स्वय
को जानना है, तो
और सब जानने
के वस्त्र
उतारकर रख दो।
स्वय का जानना
तभी घटता है, जब और कोई
जानने का भीतर
उपद्रव नहीं
रह जाता। सब
जानना .शून्य
हो जाता है, तब आती है
आत्म —स्मृति;
कबीर उसको 'सुरति ' कहते
हैं। तब होता
है आत्म —स्मरण।
तब आदमी स्व —विवेक
से भर जाता है,
आत्मज्ञान
से।
आत्मज्ञान
कोई जानकारी
नहीं है।
क्योंकि वह तो
तुम हो ही।
तुम्हारी
जानकारियों
के पर्दे जरा
हट जाएं, थोड़ा
तुम घूंघट के
पट खोलो, तो
दुलहन तो भीतर
छिपी है —वह
तुम्हीं हो।
लेकिन घूंघट
के पट बहुत
ज्यादा घने हो
गए हैं। तुम
घूंघट का पट
डाले दर्पण के
सामने खड़े हो,
कुछ दिखाई
नहीं पड़ता।
जरा घूंघट का
पट खोलो, तुम्हें
अपनी छवि
दिखाई पड़नी —शुरू
हो जाएगी।
यह
सारा
अस्तित्व
दर्पण है। जिस
दिन तुम्हारी
आख पर घूंघट
नहीं होता, उस
दिन तुम्हें
अपनी छवि सब
जगह दिखाई
पड़ने लगती है।
चांद —तारे
तुम्हीं को
गुंजाते हैं।
पक्षी
तुम्हारा ही
गीत गाते हैं।
झरने
तुम्हारा ही
कल —कल नाद
करते हैं। फूल
तुम्हीं को
खिलाते हैं।
तुम ही इस
अस्तित्व में
फूले —फूले
समाए हुए होते
हो।
लेकिन
एक .शर्त
अनिवार्य है; कि
सब जानकारी
हटा कर रख दी
जाए। सत्य तक
जाना हो, तो
निर्वस्त्र
जाना होगा। सत्य
तक जाना हो, तो जानने के
सारे वस्त्र
छोड़ देने
होंगे। सत्य
तक कोई नग्न
होकर, शून्य
होकर ही
पहुंचता है। शून्यता
यानी ध्यान।
चौथा
प्रश्न :
आपने
कहा, गुरु
सिखाता नहीं,
मिटाता है।
लेकिन आप तो
प्रति दिन
बोल—बोल कर हमें
सिखाते ही चले
जाते हैं।
आपके सतत बोलने
में मिटाने की
कौन सी
प्रक्रिया
छिपी है?
मेरे
बोलने से
दोनों बातें
हो सकती हैं।
अगर तुम कुछ
सीखने आए हो, तुम
सीखकर लौट
जाओगे। अगर
तुम कुछ भूलने
आए हो, तुम
भूलकर रुक
जाओगे। मेरे
बोलने से, तुम्हारे
ऊपर निर्भर है,
कि क्या तुम
करोगे।
जो
पंडित ढग के
लोग हैं, वे भी
यहां मौजूद
हैं। वे मेरी
बातों को
कंठस्थ कर
लेंगे। वे
तोते हो
जाएंगे। वे
तोते होकर लौट
जाएंगे। वे
जाकर जो
उन्होंने सीख
लिया है, वह
दूसरों को
सिखाने
लगेंगे। वे
चूक गए। वे
मेरे पास आए
ही नहीं। जो
वे लेकर गए, वह तो कहीं
और भी ले सकते
थे। वह पानी
इस कुए का
पानी ही न था।
वे प्यासे ही
लौट गए। या
कुएं की
तस्वीर लेकर
लौट गए। या
कुए पर
पीनेवालों की
जो भीड़ थी, उनकी
बातचीत सुनकर
ही लौट गए। या
कुएं से जो
तृप्त हुए थे,
उनकी
तृप्ति की बात
सुनकर, इकट्ठा
करके लौट गए।
लेकिन
उन्होंने खुद
कुए का पानी
नहीं पीया।
पानी के सबंध
में जानकर लौट
गए —पंडित हो
जाएंगे।
लेकिन
जो भूलने आए
हैं,
मेरा रोज का
सुनना उनके
ज्ञान को
काटता चला जाएगा।
मैं बोलता हूं
तुम्हें
सिखाने को
नहीं, तुम्हें
भुलाने को ही।
और अगर तुम
मुझे गौर से
सुनोगे, तो
जल्दी ही तुम
पाओगे, सब
मैंने काट
डाला।
इसलिए
तो तुम्हें
इतने
विरोधाभास
मुझमें दिखाई
पड़ते हैं।
क्योंकि आज
मैं कुछ कहूगा, कल
मैंने कुछ कहा
था, परसों
कुछ और कहूंगा।
अगर तुम मुझे
सुनते ही रहे
तो मैं इतना
विरोधाभासी
हूं इतना
कंट्राडिक्टरी
हू कि तुम मुझे
कुछ भी न पकड़
पाओगे।
तुम्हारे हाथ
से सब छूट
जाएगा। अगर तुम्हें
मुझे पकड़ना है,
तो
तुम्हारे हाथ
से सब छूट
जाएगा।
अगर
मुझे तुम्हें
कुछ सिखाना
होता तो मैं
विरोधाभासी
नहीं हो सकता
था। फिर तो
मुझे संगत
होना चाहिए, ताकि
रोज—रोज मैं
तुम्हें
सिखाता जाऊं
और रोज —रोज
मकान बनता जाए
ज्ञान का
तुम्हारे
भीतर। मेरा
काम ऐसा है, कि आज मैं एक
ईंट रखता हू
कल खींच लेता
हू। मकान मैं
कभी बनने न
दूंगा।
अगर
मुझे सुनते ही
रहोगे तो, और
तुमसे कोई
किसी दिन
पूछेगा कि
मैंने क्या सिखाया,
तो तुम
तुम
मौन खड़े रह
जाओगे। तुम
कहोगे, कहना
मुश्किल है।
क्योंकि
मैंने जो भी
सिखाया, जल्दी
ही उसे मिटा
भी दिया।
मैंने लकीर
खींची और
मिटाई। इसके
पहले कि तुम
पकड़ लेते, मैं
मिटा देता हूं।
अंतत:
तो तुम खाली
मेरे पास खाली
रह जाओगे। तुम
पर निर्भर है।
और ऐसा कुछ
मेरे पास हो
रहा है ऐसा
नहीं; ऐसा सदा
होता रहा है।
महावीर, बुद्ध
जो बोले उसमें
से कुछ तो
ध्यान को उपलब्ध
हो गए
सुननेवाले, कुछ
पांडित्य को उपलब्ध
हो गए। जो
पांडित्य को उपलब्ध
हो गए, उन्होंने
ही जैन धर्म
बनाया।
क्योंकि जो
ध्यान को उपलब्ध
हो गए, वे
कहां फिक्र
करते हैं!
जिसने रस पी
लिया, मगन
हो गया, वह
कहा फिक्र
करता है
संप्रदाय खड़े
करने की, धर्म
खड़े करने की? बात खत्म हो
गई। कबीर ने
कहा है, मन
जब मगन भया तब
क्यों बोले? फिक्र ही
छोड़ दी
उन्होंने।
लेकिन
जो पंडित थे, उन्होंने
.शब्द ——शब्द
संगृहीत कर
लिया। अब यह
बड़े मजे की
बात है, कि
महावीर के जो
ग्यारह गणधर
हैं, वे
ग्यारह ही
ब्राहमण
पंडित हैं।
खुद महावीर
क्षत्रिय हैं।
खुद महावीर की
सारी चितना और
देशना वेदों
के विपरीत है।
लेकिन महावीर
के जो ग्यारह,
जिन्होंने
महावीर के
धर्म को
स्थापित किया
है, जैन
धर्म का
निर्माण किया
है वे ग्यारह
ही ब्राहमण
पंडित थे। यह
बड़े आश्चर्य
की बात है।
बुद्ध
क्षत्रिय हैं, लेकिन
जिन्होंने
बुद्धधर्म
बनाया, वे
सब ब्राहमण
पंडित हैं।
तुम जरा गौर
करो, कृष्ण
क्षत्रिय हैं,
राम
क्षत्रिय हैं,
लेकिन राम
और कृष्ण का
धर्म
जिन्होंने
खड़ा किया, वे
सब ब्राहमण
पंडित हैं!
पंडित
.शब्दों को
संगृहीत करता
है। उन पर भवन
निर्मित करता
है। ज्ञानी से
तो धर्म का
जन्म होता है, पंडित
संप्रदाय
बनाता है।
तुममें
से भी कुछ
मेरी बातों को
सुन कर संग्रह
इकट्ठा
करेंगे।
हालांकि मैं
सब तरह की
अड़चन पैदा कर
रहा हू। वह
तुम कर न
पाओगे। और तुम
करोगे, तो
लोग तुम्हें
मुश्किल में
डालेंगे।
क्योंकि मैं
इतनी विरोधी
बातें कह रहा
हूं कि कोई
पंडित समर्थ
नहीं हो सकता
समझाने में, कि इन विरो
धी बातों में
क्या संबंध है?
महावीर
की बातों में
विरोध नहीं है।
महावीर की
वाणी एक संगति
से भरी है।
पंडित उसे
समझा सकता है।
बुद्ध की वाणी
में विरोध
नहीं है; उसमें
एक संगीत है।
जान कर मेरी
वाणी में
मैंने संगीत
नहीं रखी है, क्योंकि उसी
से संप्रदाय
पैदा होता है।
तो
मेरे पास से, जो
पंडित है, भला
पंडित होकर
लौट जाए, खुद
को ही नुकसान
पहुंचा सकता
है; किसी
और को नहीं।
तुम
पर निर्भर है।
मैं रोज
इसीलिए बोल
रहा हूं कि
मैं तुम्हारे मन
को खाली कर दूं।
मेरा बोलना
तुम्हें कुछ
देने को नहीं
है,
मेरा बोलना
ऐसे ही है, जैसे
रोज सुबह हम
घर में बुहारी
लगाते
हैं
सफाई के लिए।
तुम चौबीस
घंटे में
इकट्ठा कर
लेते हो, रोज
सुबह मैं फिर
बुहारी लगाता
हूं कि थोड़ी
सफाई हो जाए।
पांचवां
प्रश्न :
आपने
कहा, कि
सदगुरु जानते
हैं कि कब
शिष्य को क्या
कहा जाए। और
शिष्य की
जरूरत और
स्थिति के
अनुसार उसको
मार्ग
—निर्देशन
दिया करते
हैं। शिष्य को
बताने और
मांगने और
पूछने की
जरूरत नहीं
है।
मुझे
अनेक बार आपके
मार्ग
—निर्देशन का
अभाव प्रतीत
होता है और
आपके पास
दर्शन में आने
का मन भी होता
है,
लेकिन
उपरोक्त कथन
में भी आस्था
होने के कारण
मैं धैर्य और
प्रतीक्षा का
सूत्र अपना
लिया करता
हूं।
यह
आस्था पक्की न
होगी। नहीं तो
यह प्रश्न
कैसे उठता?
अगर
यह आस्था
पक्की है, कि
गुरु जब जरूरत
होगी, बुला
लेगा, जब
जरूरत होगी
कहेगा, जो
जरूरत होगी वह
निर्देश दे
देगा, तो
फिर अभाव कैसे
पता चलता है? और फिर साथ
में आस्था का
क्या अर्थ रह
जाता है?
यह
आस्था बड़ी
नपुंसक है। यह
झूठी है। कुछ
कारण और होगा
न आने का।
अहंकार कारण
होगा —कि कैसे
जाएं पूछने?
मैं और जाऊं
पूछने, कि
मार्ग —निर्देशन
चाहिए?
कठिनाई
होती है।
पूछने में पता
चलता है कि
तुम्हें पता
नहीं है; तो
आदमी पूछने से
बचना चाहता है।
उस कारण रुक
रहे होओगे।
लेकिन
अगर आस्था
पक्की है — और
आस्था कच्ची
होती ही नहीं।
आस्था का मतलब
ही पक्का होना
होता है।
कच्ची आस्था
का क्या मतलब? कोई
मतलब नहीं
होता कच्ची
आस्था का।
आस्था यानी
आस्था। फिर यह
सवाल कैसे
उठेगा? फिर
प्रतीक्षा
करने में और
धैर्य रखने
में कठिनाई
क्या आएगी? फिर एक जन्म
भी गुरु न
बुलाए तो भी
कोई फर्क नहीं
पड़ता। कभी न
बुलाए तो भी
कोई फर्क नहीं
पड़ता। हो सकता
है, न
बुलाना ही
उसका निर्देश
हो। हो सकता
है धैर्य रखो,
अनंत धैर्य
रखो, यही
उस की
व्यवस्था हो
तुम्हारे लिए।
लेकिन
हमारा मन बड़ा
दुविधा में
रहता है सदा।
न तो आस्था
पूरी रहती है, न
संदेह पूरा
रहता है। न घर
के न घाट के।
मन की अवस्था
बिलकुल धोबी
के गधे की है —न
घर का न घाट का।
संदेह
भी होता है
वह
भी पूरा नहीं
है,
नहीं तो
पूछने आ जाओ।
फिर रुको मत।
आस्था
है.....
वह
भी अधूरी, लंगड़ी
है।
रुकते
हो,
तो पूरे ही
रुक जाओ।
पूछते हो, तो
पूरा ही पूछ
लो। या तो
धैर्य रख लो—पूरा
धैर्य। या फिर
अधैर्य कर लो—पूरा
अधैर्य।
ध्यान
रखना, पूरे से
मुक्ति होती
है। पूरा
संदेह भी
बेहतर है, अधूरी
श्रद्धा से।
पूरी
नास्तिकता
बेहतर है आधी
आस्तिकता से।
पूरा तनाव, पूरी अशांति
बेहतर है आधी
.शांति और
विश्राम से।
क्योंकि पूरे
से क्रांति
घटित होती है।
जहां पूरा हो
जाता है, वहां
से पार जाना
ही पड़ेगा।
वहां से ऊपर
उठना ही पड़ेगा।
पूरे का अर्थ
ही यह होता है,
कि अब इसमें
और कोई गीत के
लिए सुविधा न
रही। अब कुछ
करना ही पड़ेगा।
आखिरी पड़ाव आ
गया है।
आधे
— आधे लोग मरते
हैं। व्यर्थ
ही मरते हैं
और व्यर्थ ही
जीते हैं। एक
में से कुछ तय
कर लो। अपने
मन की ठीक
जांच करो।
अगर
ऐसा लगता हो, कि
धैर्य करना
मुश्किल है तो
पूछने चले आओ।
अगर ऐसा लगता
हो, कि
धैर्य संभव है,
आस्था
पूर्ण है, तो
फिर यह प्रश्न
भी मत पूछो।
इसलिए
मैंने सूचना
दी है, कि हर
व्यक्ति अपने
प्रश्न में
अपना नाम भी
लिखे। कुछ लोग
प्रश्न में
नाम नहीं
लिखते। उसमें
भी अंहकार को
बचाने की
कोशिश करते
हैं, कि
मुझे यह पता न
चल जाए कि
प्रश्न किसका
है। ऐसे तुम
अपने अहंकार
को बचा—बचा कर
कहां पहुंच
पाओगे?
प्रश्न
है,
तो है। उसे
पूछना है, और
हल करना है और
उसके पार जाना
है। यह तो ऐसे
ही होगा कि
जैसे कोई
चिकित्सक से
अपनी बीमारी
छिपाए।
चिकित्सक को
तो बीमारी बता
ही देनी पड़ेगी।
नहीं तो निदान
ही न हो पाएगा।
और तब बिना
निदान के दी
गई औषधि और
नुकसान करेगी।
इससे बिना
औषधि के रह
जाते वह अच्छा
था। गलत औषधि
मिल जाएगी तो
भयंकर हानि
होगी क्योंकि
सभी औषधिया
जहर हैं। वह
ठीक बीमारी हो
तो जहर काम का
हो जाता है।
ठीक बीमारी पर
न लगे तो जहर
नुकसान का हो
जाता है।
तो
गुरु के पास
होने का अर्थ, अग्नि
के पास है।
वहां थोड़ा सोच
समझकर, साफ
—सुथरा होकर
रहना। रहना हो
तो ही रहना, नहीं तो भाग
जाना।
प्रश्न
पूछना हो तो
ईमानदारी से
प्रश्न कर लेना।
श्रद्धा करनी
हो,
तो
ईमानदारी से
श्रद्धा कर
लेना— और साफ
होना एकदम
जरूरी है।
बंटा —बंटा
होना तुम्हें
कहीं न ले
जाएगा। तुम
ऐसे ही
त्रिशंकु के
भांति लटके रह
जाओगे।
छठवां
प्रश्न :
आशा
से आकाश टंगा
है। क्या आशा
छोड़ देने से
आकाश गिर न
जाएगा?
आकाश न
गिरेगा, आशा
ही गिरेगी।
कोई आकाश आशा
से मय भी नहीं
है।
लेकिन
आदमी इसी तरह
सोचता है, जैसे
तुमने उस छिपकली
के संबंध में
सुना हो; कि
छिपकलियों
में कहीं कोई
विवाह था। और
एक महल की
छिपकली को भी
निमंत्रण
मिला। निश्चित
ही सबसे पहले
मिला, क्योंकि
वह महल में
रहती थी। उसने
कहा, मैं आ
न सकूंगी।
क्योंकि अगर
मैं आ गई तो
छप्पर गिर
जाएगा महल का।
मैं ही तो
सम्हाले रहती
हू।
छिपकली
सोचती है, कि
महल के छप्पर
को सम्हाले
हुए है। अगर
चली गई, महल
गिर जाएगा!
तुमने
उस बूढ़ी की
कहानी सुनी है, जो
सोचती थी कि
उसका मुर्गा
बांग देता है,
इसलिए सूरज
उगता है।
लेकिन गांव के
लोग हंसते थे।
उसका तर्क भी
ठीक था
क्योंकि ऐसा
कभी न हुआ था।
जब भी मुर्गा
बांग देता तभी
सूरज उगता था।
गांव के लोग
हंसते थे, कि
बूढ़ी तू पागल
हो गई है।
एक
दिन वह नाराज
होकर अपने
मुर्गे को
लेकर दूसरे
गाव चली गई।
और उसने कहा, कि
अब रोओगे, अब
भटकोगे। अब
खोजोगे मुझे
और तड़पोगे, पछताओगे, कि क्या
गंवा दिया! अब
कभी सूरज न
उगेगा। मुर्गा
मैं लिये जा
रही हूं। और
दूसरे गांव
में मुर्गे ने
बांग दी, तब
सूरज उगा।
उसने कहा, अब
रो रहे होंगे
नासमझ! सूरज
यहां निकला है।
जहां मुर्गा
है, वहा
सूरज है।
आशा
से कुछ भी
नहीं टंगा है।
आशा ही
तुम्हें भटका
रही है। फांसी
लगी है आशा से
ही। इसे थोड़ा
समझो।
आशा
के कारण ही
तुम जीवन में
कुछ भी नहीं
सीख पाते। एक
आदमी दस हजार
रुपये कमा
लेता है।
सोचता था पहले, कि
दस हजार हो
जाएंगे, सब
ठीक हो जाएगा।
दस हजार हो गए,
कुछ ठीक
नहीं हुआ। आशा
कहती है कि दस
लाख हो जाएं
तो सब ठीक हो
जाएगा। वह
बिलकुल भूल ही
जाता है कि
यही आशा पहले
कहती थी कि दस
हजार हो जाए
तो सब ठीक हो
जाएगा।
इसकी
पहले मानकर
चले,
कुछ ठीक न
हुआ। अब भी यह
आशा कहती है, दस लाख हो
जाए तो सब ठीक
हो जाएगा। फिर
दस लाख भी हो
जाते हैं, फिर
भी कुछ ठीक
नहीं होता।
बल्कि जो ठीक
था, वह भी
गड़बड़ हो जाता
है। आशा अब भी
कहती है, कि
दस लाख में
क्या होगा?
यह भी कोई
संपत्ति है? दस करोड़! ऐसे
आशा से आकाश टंगा
है। आकाश क्या
है ये।
भ्रान्ति, भ्रम,
मृग —मरीचिका
—सपने टंगे
हैं।
आदमी
दौड़ता चला
जाता है। आशा
अनुभव को
पराजित कर
देती है और
तुम्हें कुछ
सीखने नहीं
देती।
एक
स्त्री से
तुम्हारा
प्रेम होता है
या एक पुरुष
से प्रेम होता
है —बड़ी आशा से, उमंग
से भरे बैंड —बाजे
बजाकर .शुरुआत
करते हो। बड़े
फूल बिछाकर, बड़े सुगंध
छिड़ककर
यात्रा —शुरू
होती है।
जल्दी ही सब
दुर्गंध हो
जाता है।
जल्दी ही सब
कलह हो जाती
है, विषाद
हो जाता है, दुख हो जाता
है।
आशा
फिर भी छोड़ती
नहीं पीछा। वह
कहती है, यह
स्त्री गलत है,
यह पुरुष
गलत है। दूसरा
स्त्री
— अगर पड़ोस की
स्त्री मिल
जाती तो सब
ठीक हो जाता।
मैंने चुनाव
में भूल की।
तो
पश्चिम में
उन्होंने
चुनाव की
सुविधा बना ली
है। ऐसे लोग
हैं,
जिन्होंने
दस—दस बार
जीवन में तलाक
दिये। और अभी
भी आशा कर रहे
हैं, कि
ग्यारहवीं
पत्नी से सब
ठीक हो जाएगा,
या
ग्यारहवें
पति से सब ठीक
हो जाएगा!
अनुभव
पर जीत हो
जाती है आशा
की। आशा के
कारण ही अनुभव
से तुम कुछ
निचोड़ नहीं पाते
सार।
तुम्हारा
जीवन नहीं बदल
पाता। फिर तुम
वही भूल करते
हो,
फिर वही भूल
करते हो! और
आशा कहे चली
जाती है, कि
इस बार हो गई, कोई बात
नहीं! अगली
बार सब ठीक हो
जानेवाला है।
आशा भटकाती है,
सम्हालती
नहीं है।
अगर
तुम्हारे
जीवन में से
आशा हट जाए, मैं
यह नहीं कह
रहा हू कि तुम
निराश हो जाओ—इसे
थोड़ा समझ लेना।
क्योंकि
निराशा भी आशा
का ही निषे
धात्मक रूप है।
वह भी आशा ही
है हारी हुई।
वह भी आशा का
ही पराजित रूप
है, लेकिन
है आशा ही।
जब
तुम एक आदमी
को देखते हो, बिलकुल
निराश होकर
बैठा है —तो
क्या हुआ है? यह कोई
ज्ञान को उपलब्ध
नहीं हो गया।
आशा अभी भी है,
लेकिन
परास्त हो गया,
अब दौड़ने की
हिम्मत छूट गई।
आशा तो अभी भी
है, कि
ताकत होती
.शरीर में, अगर
धन पास होता, अगर सुविधा
होती, अगर
मौका मिल जाता,
अवसर बन
जाता; भाग्य,
भगवान अगर
साथ दे देता
तो करके कुछ
दिखा देते।
अभी भी आशा तो
जगी ही है
भीतर।
लेकिन
बाहर थक गया
और हार गया और
टूट गया; इसलिए
निराश है।
निराश के भीतर
आशा का दीया
तो जलता ही
रहता है।
सिर्फ चारों
तरफ से अंधेरा
घिर जाता है।
आशा
से मुक्त का
अर्थ होता है, आशा
—निराशा दोनों
से मुक्त। ऐसा
व्यक्ति, जो
भविष्य में
जीता ही नहीं।
ऐसा व्यक्ति,
जो अनुभव को
खुली आख से
देखता है, आशा
के मा ध्यम से
नहीं। और जो
जीवन कि सचाई
को उसके रूखे —सूखेपन
में पहचानता,
है, आशा
की आर्द्रता
के माध्यम से
नहीं। जो
वासना, तृष्णा,
कामना के
सपने लगाकर
जीवन के
सत्यों को
नहीं देखता, उघाड़ कर
नग्न सत्यों
को देखता है।
न तो वह
आशावान है, न निराशावान
है। आशा—निराशा
दोनों एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
उसने वह
सिक्का ही
फेंक दिया। अब
वह यथार्थ में
जीता है। और
जो यथार्थ में
जीता है, वही
रोज —रोज
यथार्थ होता
चला जाता है।
जीवन रोज सत्य
के करीब आने
लगता है।
सत्य
में जीने की
क्षमता बड़ा
साहस है। आशा
तो कोई भी कर
लेता है।
कमजोर से
कमजोर आदमी भी
पहलवान होने
की आशा करता
है। गरीब से
गरीब सम्राट
होने की आशा
करता है। भोगी
से भोगी
त्यागी होने
की आशा करता
है। आशा में
तो कोई अड़चन
ही नहीं है।
आशा तो कोई भी
कर सकता है।
आशा तो मुफ्त
मिलती है।
इसलिए मैं
कहता हू आशा
के अतिरिक्त
इस संसार में
मुफ्त कुछ भी
नहीं मिलता। सत्य
तो मिलता ही
नहीं; बस आशा
मिलती है —कोरी
आशा!
मैंने
सुनी है, एक
बहुत पुरानी
कहानी है। एक
आदमी ने
परमात्मा की
बड़ी
प्रार्थना
पूजा की।
परमात्मा
प्रसन्न हुआ।
और जिस .शंख को
बजाकर वह आदमी
पूजा करता था,
परमात्मा
ने कहा, अब
यह .शंख तेरे
लिये वरदान है।
तू इसे सम्हाल
कर रख। और
तुझे जो भी
इससे मांगना
हो, माग
लेना, वह
तुझे मिल
जाएगा।
वह
आदमी घर आ गया।
पहले तो बड़ा
उत्तेजित रहा।
घर आते ही
द्वार —दरवाजे
बंद करके उसने
.शंख से कहा, कि
एक महल मिल
जाए; महल
मिल गया। हीरे
बरस जाएं घर
में, हीरे
बरस गये। एक
सुंदर स्त्री
आ जाए, सुंदर
स्त्री आ गई।
फिर धीरे —
धीरे, जब
सभी होने लगा,
तो बड़ा
निराश हो गया।
कुछ बचा ही
नहीं करने को।
आशा करने को
नहीं बचा। वह
जो आशा से
आकाश टंगा था,
बिलकुल गिर
गया, ऐसा
लगा। अब जो
कहे, वह हो
जाता है। बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया। आदमी
आशा में
जीनेवाला था।
सत्य में तो
जी नहीं सकता
था।
अब
यह जो .शंख था, यह
हर चीज को
सत्य बना देता
था। सपने को
भी सत्य बना
देता था। वह
बड़ी मुश्किल
में पड़ गया।
बड़ी ऊब आने
लगी। सबसे
सुंदर स्त्री
भी ऊब देने
लगी। हीरे —जवाहरात
पड़े रहते। कौन
सम्हाले? क्या
करे? महल
बड़ा था, सब
कुछ था। जो
चाहता, सब
उसी वक्त हो
जाता।
एक
दिन एक
संन्यासी घर
में मेहमान
हुआ। रात उस
संन्यासी ने
कहा,
कि मेरे पास
एक —शंख है। यह —शंख
बड़ा अदभुत है।
इससे तुम
मांगो दस हजार,
यह फौरन
कहता है, ' दस
हजार क्या
करोगे? बीस
हजार ले लो। ' यह बड़ा
अदभुत —शंख है।
वह
आदमी बड़ा
उत्सुक हुआ इस
.शंख में।
क्योंकि उसकी
तो आशा मर गई
थी। वह जो .शंख
उसके पास था, यथार्थ
था। वह हर चीज
को सत्य बना
देता। उसकी
आशा मर गई थी।
उसने कहा, 'शंख
मेरे पास भी
है, जिससे
मैं बड़ा ऊब
गया हू। ऐसा
करो, हम
बदल लें।'
शंख
बदल लिये गये।
वह संन्यासी
आया ही शंख
बदलने था।
संन्यासी आते
ही इसलिए हैं
गृहस्थ के घर, .शंख
बदलने। नहीं
तो किसलिए
आएगा? संन्यासी
को हिमालय पर
रहना है। उसको
घर आने की
गृहस्थ के
क्या जरूरत? शंख बदलने
आता है। कुछ
है गृहस्थ के
पास, जो
उसके पास नहीं
है।
संन्यासी
तो लेकर —शंख
चलता बना।
इसने अपना नया
.शंख रखा, फिर
उसे बड़े
उत्साह से कहा,
'दस करोड़
रुपये दे दे '। उसने कहा, ' दस करोड़ में
क्या होगा? बीस करोड़ ले
ले। ' वह
बड़ा प्रसन्न
हुआ, कि यह
है शंख तो!
उसने कहा, ' अच्छा
बीस करोड़ दे
दे। ' उसने
कहा, ' बीस
करोड में क्या
होगा? चालीस
करोड ले ले '।
वह
महाशंख था। वह
सिर्फ बोलता
ही था। तुम
जितना कहो, उसका
दोगुना करके
बोलता था।
थोड़ी देर में
तो उसने छाती
पीट ली, कि
यह तो मारे गए।
यह शंख देता
तो कुछ भी
नहीं है।
वह
कहता, ' पचास
मंजिल का मकान
', वह कहता, 'क्या करोगे?
सौ मंजिल का
मकान ले लो। ' तुम कहो सौ, वह कहता है
दो सौ!
वह
शंख आशा का शंख
था,
कामना का, तृष्णा का।
तृष्णा
दुष्पूर है।
वह कभी भरती
नहीं। तुम जो
मांगो, उससे
दोगुना सपना
दिखाती है। वह
कहता, एक
स्वर्ग? दो
स्वर्ग ले लो।
एक परमात्मा
चाहिए? हम
दो दिये देते
हैं। मगर देना
—लेना कुछ भी
नहीं, सिर्फ
कोरी बातचीत
थी। छाती
पीटता, लेकिन
अब देर हो
चुकी थी।
तुमने
भी —सभी ने, जीवन
के यथार्थ को
छोड्कर आशा का
.शंख पकड़ लिया
है। जीवन का
यथार्थ तो
देने को तैयार
है वह सब, जिससे
तुम्हारी
तृप्ति हो
सकती है, लेकिन
तुम्हारी आशा
मानने को राजी
नहीं है और ज्यादा—
और ज्यादा।
आशा का अर्थ
है ' और — और—
और। ' जितना
हो, उससे
ज्यादा। जो हो,
उससे
ज्यादा। कुछ
भी मिल जाए, आशा तृप्त
नहीं होती।
आशा अतृप्ति
का सूत्र है।
इसलिए जब मैं
कहता हू आशा
छोड़ दोगे, तभी
तुम जीवन के
सत्य के साथ
एक हो पाओगे; तो मैं बहुत
सी बातें कह
रहा हूं। मैं
कह रहा हू
भविष्य की
चिंता छोड़ो; वर्तमान
पर्याप्त है।
जो तुम्हारे
पास नहीं है, उसकी फिक्र
मत करो। जो
तुम्हारे पास
है, वह
जरूरत से
ज्यादा है, जरा उसे
भोगो। सपने मत
फैलाओ। सत्य
काफी है; काफी
से ज्यादा है।
सपने
फैला —फैलाकर
ही तुम सत्य
से वंचित हुए
हो। तुम मांगो
मत,
जो मिला है,
तुम उसके लिए
अनुगृहीत हो
जाओ।
और
तुम्हारी आशा
के मिटते ही
निराशा मिट
जाएगी।
क्योंकि वह
उसी की संगी —साथिन
है,
वह जोड़ा है।
आशा पति हो, तो निराशा
पत्नी है। वे
साथ—साथ हैं।
उनको अलग कभी
किया नहीं जा
सकता। उनमें
कभी तलाक हुआ
ही नहीं है।
तो
जब तुम किसी
आदमी को निराश
देखो, तो यह मत
समझ लेना कि
यह कोई त्याग
को उपलब्ध हो
गया है। इसने
अति आशा की और
वह पूरी नहीं
हुई, इसलिए
वह परेशान
बैठा है, दुखी
बैठा है। यह
फिर आशा से भर
जाएगा। जल्दी
ही यह फिर भूल
जाएगा अपनी
निराशा को।
फिर नई आशा की
उमंग ले लेगा।
जो
व्यक्ति
वैराग्य को उपलब्ध
होता है, उसकी
आशा —निराशा
दोनों जा
चुकीं। उसने
एक निर्णय उपलब्ध
किया है। एक
सार जीवन का
निचोड़ लिया है,
किं आज और
अभी है सब; कल,
कल व्यर्थ
है। कल कभी
आता नहीं।
इस
क्षण तुम पूरे
जी लो, इस क्षण
से बाहर जाने
की कोई भी
जरूरत नहीं है।
इस क्षण में
सभी कुछ मौजूद
है। पूरा
अस्तित्व इस
क्षण में ही
मौजूद है। इस
क्षण में ही
सारा विराट
मौजूद है, सारा
बह्म मौजूद है।
इस क्षण में
ही सारे
अस्तित्व की
सरिताए गिर रही
हैं। यह क्षण
ही सागर है।
तुम इसको पूरा
जी लो। इस
जीने से ही
तुम्हारा
दूसरा क्षण भी
निकलेगा। इस
जीने के ऊपर ही
उभरेगा। इस
जीने से विराट
होगा, गहरा
होगा, बड़ा
होगा।
लेकिन
आशा के कारण
नहीं; जीकर
उसे निकलने दो।
दुनिया
के दो ढंग हैं
या तो तुम
जीयो, और या
तुम केवल सपने
देखो। अधिक
लोग सपने
देखते हैं। और
उनसे अगर कहो
कि सपने छोड़
दो, तो वे
कहते हैं 'आशा
से आकाश टंगा
है। ' निश्चित,
उनका आकाश
सपनों से ही
टंगा है। अगर
वह गिर गया तो
वे कहीं के न
रह जाएंगे। वे
सोच—सोच कर ही
जीते हैं।
उनकी
हालत ऐसी है, जैसे
किसी आदमी को
भूख लगी हो, और वह भोजन
तो न करता हो; राजमहल में
भोज चल रहा है,
उसके सपने
देखता हो। यह
मरेगा।
क्योंकि चाहे
राजमहल का
सपना देखो, चाहे कितने
ही सुस्वादु
भोजन का सपना
देखो, उससे
खून नहीं
बनेगा, उससे
हड्डी नहीं
बनेगी। उससे
ज्यादा से
ज्यादा इतना
हो सकता है कि
मुंह की लार
गतिमान हो जाए;
और कुछ भी न
होगा। लार के
गतिमान होने
से कोई पेट
नहीं भरता, और भूख बढ़ती
है।
सूखी
रोटी भी पास
हो,
तो सपनों के
महोसत्व से और
सपनों के भोज
से बेहतर है।
सूखी रोटी को
भी ठीक से पचा
लेना। उससे
खून बनेगा, हड्डी बनेगी।
अस्तित्व
को वासना के
माध्यम से मत
जीयो —इसे ही
मैं संन्यास
कहता हू।
मैं
यह नहीं कहता
कि भाग जाओ
संसार छोड्कर।
संसार को पूरी
तरह जीयो।
ध्यान के
माध्यम से
जीयो, वासना
के माध्यम से
मत जीयो।
वासना का
माध्यम आशा के
द्वारा चलता
है। और ध्यान
का माध्यम, 'जो है ', बस
उसको ही
पर्याप्त
मानता है।
ध्यान
संतोष है, संतुष्टि
है।
आशा
असंतोष है, अधैर्य
है।
सातवां
प्रश्न :
आप
कहते हैं कि
कबीर परमज्ञानी
थे;
लेकिन उनका
प्रभाव केवल
तथाकथित
निम्न वर्ग के
लोगों में
दिखाई पड़ता
है। क्या
ब्राहमणों ने
जातिगत
पूर्वाग्रह
के कारण
उन्हें अस्वीकार
कर दिया?
बहुत
कारण थे।
एक
तो,
कबीर की
जाति—पांति का
कुछ पता नहीं।
.शायद मुसलमान
घर में पैदा
हुए थे और
हिंदू घर में
पले। तो न तो
मुसलमान पूरी
तरह आश्वस्त
हैं, न
हिंदू। दोनों
संदिग्ध थे।
और ऐसे यह बड़ा
प्रतीकात्मक
है। कोई भी
संत न तो
हिंदू होता, न मुसलमान।
हो नहीं सकता।
संत और हिंदू
और मुसलमान? बात ही
बचकानी लगती
है। पर कबीर
के जीवन का तो
वह बिलकुल
यथार्थ था।
अनचाही
संतान थे।
.शायद
अविवाहित
व्यक्तियों
की संतान थे, नाजायज
थे। मां—बाप
तालाब के
किनारे
छोड्कर चले गए
थे सुबह के अं
धेरे में। एक
हिंदू
संन्यासी
रामानन्द
सुबह स्नान
करने सरोवर पर
गए थे, उनके
पैर की चोट
बच्चे को लग
गई, बच्चा
रोने लगा।
उन्होंने उसे
उठा लिया। वे
उसे घर ले आए।
रामानन्द ने
ही बड़ा किया।
तो पले तो
हिंदू घर में,
.शायद जन्मे
थे मुसलमान घर
में, ऐसी
लोकोक्ति है।
तो
हिंदु
मुसलमान
समझते थे, मुसलमान
हिंदू समझते
थे। स्वभावत:
स्वीकार करने
के लिए कोई भी
समाज राजी न
था।
दूसरी
बात अत्यंत
दीन दरिद्र थे।
अगर बुद्ध भी
भिखारी के घर
में पैदा हुए
होते तो यही
गति हुई होती।
अगर महावीर भी
भिखारी के घर
पैदा हुए होते
तो यही गति
हुई होती।
जैनों
के चौबीस ही
तीर्थंकर
राजपुत्र हैं।
हिंदुओं के सब
अवतार राजा
हैं। बुद्ध
राजपुत्र हैं।
भारत ने जितने
धर्म पैदा किए, उनके
सब अवतारी
पुरुष राजवंशों
से आए हैं।
इसके पीछे कुछ
कारण होना
चाहिए।
तुम्हारी
धन के प्रति
पूजा इतनी
गहरी है कि तुम
त्यागी को भी
तभी पूजते हो, जब
तुम्हें
पक्का पता चल
जाए, त्याग
कितने का किया? त्याग के
नापने का भी
एक ही ढंग है
तुम्हारे पास,
कि छोड़ा
कितना? तुम
भोगी को भी
नापते हो कि
इसके पास दस
करोड़ रुपये
हैं; तुम
त्यागी को
नापते हो, इसने
दस करोड़ छोड़े।
तुम्हारा
तराजू एक है।
अगर
त्यागी ने कुछ
भी नहीं छोड़ा
तो तुम कहोगे छोड़ा
क्या? कबीर तो
गरीब हैं।
छोड़ने को कुछ
भी नहीं।
इसलिए जो लोग
धन को छोड़ने
को त्याग
समझते हैं, उनको कबीर
में कोई त्याग
न दिखाई पड़ा
होगा। त्याग
करने को कुछ
है ही नहीं।
तो
यह परम
संन्यासी
हमारी आंखों
से ओझल हो गया।
मैं
तुमसे कहता
हूं कि बहुत
और भी लोग
बुद्ध की
हैसियत के हुए
हैं,
बहुत और भी
लोग महावीर की
हैसियत के हुए
हैं। उनको कोई
स्वीकार न कर
पाया क्योंकि
लोगों ने कहा,
था ही क्या? नंगा
नहायेगा, निचोड़ेगा
क्या? तुम
पर कुछ था ही
नहीं और त्याग
कर दिया!
त्याग में
मतलब ही क्या
है? त्याग
है महावीर का—देखो,
कितने घोड़े,
कितने हाथी,
कितने रत्न!
जैनियों
की किताबें
पढ़ो;
तो वे इतना
विस्तार करते
हैं, हाथी,
घोड़े, रथों
का कि संदिग्ध
मालूम पड़ता है।
क्योंकि
महावीर कोई
बहुत बड़े
सम्राट के
लड़के नहीं थे।
छोटी सी
जमींदारी थी।
ज्यादा से
ज्यादा जिसको
आज हम एक जिला
कहते हैं, बस
उतनी हैसियत
रही होगी।
डिप्टी
कलेक्टर की
हैसियत थी बाप
की, इससे
ज्यादा नहीं।
एक छोटी सी
जायदाद थी।
लेकिन
जैनियों के —शास्त्र
में इतने हाथी
घोड़े हैं, कि
अगर इतने थे
तो पूरी जमीन
पर वे ही खड़े
रहे होंगे; और कोई जगह
ही न बची होगी।
फिर
भक्त बढ़ाते
चले जाते हैं।
क्योंकि
भक्तों को ऐसा
लगता है, कि
थोड़ा और दान
किया होता तो
महावीर और बड़े
हो जाते। और
थोड़ा दान बढ़ा
दो। अब तो कोई
अड़चन नहीं है।
किताब में
लिखना है।
संख्याएं
बढ़ाते चले जाओ,
—शून्य पर
.शून्य रखते
चले जाओ।
अब
कोई दावा भी
नहीं कर सकता, कोई
झंझट भी नहीं
कर सकता; और
अगर कोई झंझट
भी करे, कोई
लिखे भी कि यह
बात ठीक नहीं
है तो फौरन
तुम अदालत में
ले जा सकते हो
कि हमारे धर्म
की हानि हो गई;
कि हमारे
धर्म पर .शक
पैदा कर दिया।
तो कोई किसी
के धर्म के
संबंध में कुछ
कह ही नहीं
सकता। सच झूठ
जो भी चलता है,
चलता है।
बहुत
महावीर के
हैसियत के लोग
हुए,
लेकिन वे
तीर्थंकर की
तरह स्वीकार न
हो सके। तुम
तीर्थंकर तो
उसी को मानोगे,
जिसके पास
धन रहा हों—चाहे
छोड़ दिया हो
अब!
बड़ी
मीठी कहानी है
—मीठी भी, कड्वी
भी। मीठी
इसलिए किं
आदमी के
बुद्धि के
संबंध में खबर
देती है।
कड्वी इसलिए,
कि यह
बुद्धि आदमी
की रुग्ण
मालूम होती है।
कहानी
है कि महावीर
वस्तुत: तो एक
ब्राहमणी के
गर्भ में पैदा
होने वाले थे।
गर्भ भी ले
लिया था एक
ब्राहमणी के
पेट में।
लेकिन कहीं
कोई तीर्थंकर
गरीब
ब्राहमणों के घर
में पैदा हुआ
है? यह बात कभी
हुई नहीं। जैन
—शास्त्र कहता
है, कि
तीर्थंकर तो
सदा राज—घर, क्षत्रिय के
घर में पैदा
होता है।
तो
क्या करना?
देवता बड़े
चिंतित और
परेशान हुए कि
यह तो अनघट
घटा जा रहा है।
महावीर ने
जन्म ही ले
लिया, वे
जाकर गर्भ में
प्रविष्ट हो
गए हैं। तो छ :
महीने का जब
गर्भ था, तब
देवताओं ने
साजिश की।
करनी जरूरी थी,
क्योंकि
.शास्त्र सही
होने ही चाहिए।
.शास्त्र को
सही सिद्ध
करने में
देवता तक बेईमानी
कर रहे हैं!
उन्होंने
ब्राहमणी के पेट
से महावीर को
निकाल लिया —यह
पहली सर्जरी
है। और
त्रिशला, जिनके
कि महावीर बाद
में बेटे हुए —महारानी
त्रिशला —उसके
पेट से भी
गर्भ निकाल
लिया। उसके
गर्भ को
ब्राहमणी के
गर्भ में रख
दिया और
ब्राहमणी के
गर्भ को
त्रिशला के
गर्भ में रख
दिया; तब
देवताओं को
.शांति मिली, अब .शास्त्र
के अनुसार सब
हो रहा है!
इतनी
भी
स्वतंत्रता
नहीं है आदमी
को,
कि कहां
पैदा होना है!
वह भी
.शास्त्र के
अनुसार! जिंदा
रहना —शास्त्र
के अनुसार,मरना
.शास्त्र के
अनुसार!
.शास्त्र तो
फांसी मालूम
होती है।
तो
महावीर पैदा
हुए क्षत्रिय
घर में। ऐसे बेटे
वे ब्राहमण ही
थे,
लेकिन गरीब
ब्राहमण! और
ब्राहमण तो
गरीब होगा ही।
ब्राहमण धनी
नहीं हो सकता,
क्योंकि धन
के लिए जितनी
हिंसा चाहिए,
जितनी
हिंसा, चालबाजी,
बेईमानी
चाहिए, वह
ब्राहमण के
पास नहीं है।
वे क्षत्रिय
घर में पैदा
हुए।
कबीर
की तकलीफ यह
है कि देवताओं
ने कुछ इंतजाम
न किया! एक तो
घर का ठिकाना
नहीं —लावारिस।
बिलकुल
.शास्त्र से
असम्मत। या तो
देवता सो गए
कबीर के पैदा
होते वक्त, या
तब तक देवता
बचे नहीं, या
कलियुग में
सोचा होगा कि
अब चलने दो, जो चल रहा है;
होने दो, जो हो रहा है।
न
केवल गरीब के
घर में पैदा
हुए हैं, नाजायज
भी हैं। नहीं
तो क्या मां —बाप
छोड़ जाते
सरोवर के तट
पर? किसी
कुंआरी लड़की
के बेटे होंगे।
तो
कुछ पता —ठिकाना
नहीं। बिलकुल
लावारिस हैं।
फिर दीन—हीन
रहे। कौन
स्वीकार करे?
कौन उन्हें
पूजे भगवान की
तरह? कौन
घोषणा करे कि
वे बुद्ध हैं?
और
बुद्ध से रत्ती
भर कबीर कम
नहीं हैं।
किसी महावीर.
से उनकी महिमा
में जरा भी
कमी नहीं है।
लेकिन संयोग
कबीर के
विपरीत है।
इसलिए मैं तो
तुमसे कहता हू
कि यह भी
आश्चर्य है कि
कबीर का नाम
बच गया। हमारे
जैसे अंधे
लोगों के समाज
में,
जहां धन की
ही पूजा होती
हो, पद की
ही पूजा होती
हो, जहां
सिंहासन ही
दिखाई पड़ता हो,
और कुछ न
दिखाई पड़ता हो,
जहां कुल और
गोत्र की पूजा
होती हो, वहां
एक नाजायज
बेटा, जिसके
मा —बाप का कोई
ठिकाना नहीं —
अनाथ, उसका
नाम भी बच गया
और थोड़े से
लोग उसको
प्रेम करनेवाले
बच गए, यह
चमत्कार है।
बुद्ध
के पीछे अगर
राज्य की
.शक्ति न होती —
और ध्यान रखना, उनके
पीछे राज्य की
.शक्ति है।
बुद्ध सन्यास
तो ले लिए, लेकिन
राज्य की
.शक्ति का तो
पूरा उपयोग
साथ चलता रहा
जीवन भर।
महावीर के
पीछे राज्य की
.शक्ति है।
महावीर
संन्यास तो ले
लिए लेकिन जिस
राज्य में
प्रवेश
करेंगे, उसी
राज्य का राजा
सम्मान करेगा।
क्योंकि वे सब
संबंधित हैं।
कोई भाई है, कोई भतीजा
है, कोई
ममेरा है, कोई
चचेरा है। सब
राजाओं के
संबंध।
क्योंकि राजा
गैर राज —परिवारों
में तो विवाह
करते नहीं। तो
सब संबंधी हैं।
जहां भी
महावीर
जाएंगे, वहा
राजा सम्मान
करेगा। तो जब
राजा सम्मान
करेगा तो वजीर
सम्मान
करेंगे, जब
वजीर सम्मान
करेगा तो और
नासमझ, भीड़,
कतार चली
आएगी।
तुम
सोच लो कि अगर
तुम्हारे
गुरु को मिलने
राष्ट्रपति आ
जाए तो सब
नालायक पीछे
चले आएंगे। जब
राष्ट्रपति
जा रहा है, तो
ठीक ही है।
कबीर
को तो मिलने
कोई राजा कभी
आया नहीं। कोई
वजीर कभी
द्वार पर
दस्तक न दिये।
तो भीड़ तो कभी
आएगी नहीं।
भीड़ तो राजा
से चलती है।
तो
बुद्ध और
महावीर को जो
प्रतिष्ठा
मिली, उसमें
बुद्ध और
महावीर की गुण—गरिमा
नहीं, क्योंकि
वैसी गुण —गरिमा
तो कबीर में
भी है, दादू
में भी है, फरीद
में भी है।
गुण
—गरिमा की तो कोई
महिमा ही नहीं
है। महिमा तो
किसी और बात
की है। नाते—रिश्तेदारी
की है, सम्राटों
की है। जहां
बुद्ध जाते
हैं, वहीं
सम्राट आकर
चरणों में
झुकते हैं। और
सम्राट
समझाता है कि
लौट जाएं घर।
आपके पिता
दुखी हैं।
अनेक
सम्राटों ने
कहा, आपको
अपने घर न
जाना हो, हमारे
घर आ जाएं यह
भी राज्य आपका
है। मैं अपनी
पुत्री को
ब्याह देता हू।
यह सारी
संपत्ति तुम
सम्हालो।
तो
इस सुविधा में
बड़े फर्क हैं।
फिर बुद्ध का
जो इतना
प्रचार हुआ
सारे संसार में, उसका
मूल आ धार
अशोक है।
बुद्ध की
गरिमा से वह
नहीं पहुंच
सकता था। यह
जो प्रभाव है,
उसके पीछे
अशोक है, उसकी
राज्यसत्ता
है। अशोक ने
भेजे
संन्यासी, भिक्षु
—चीन, जापान,
लंका, बर्मा,
स्याम, अनाम।
सारे एशिया को
भर दिया। और
जब अशोक जैसा
सम्राट भेजा,
तो दूसरे
सम्राटों ने
भी अहोभाग्य
से स्वीकार
किया। यह
धन्यभाग्य थे
कि अशोक जैसा
सम्राट छोटे —छोटे
राज्यों को
भिक्षु भेज
रहा है। और
उसने अपने
बेटे, बेटी
तक को भेजा
भिक्षु बना कर।
अशोक
ने फैलाया
बुद्धधर्म।
कबीर
को कोई सम्राट
नहीं मिला।
काशी में नरेश
थे,
लेकिन वे
कभी आए नहीं।
क्योंकि कौन
जाए इस
लावारिस के
पास?
फिर
कबीर के जीवन —ढंग
की व्यवस्था
बड़ी भिन्न है।
उन्होंने सब
तरह से
.शास्त्र तोड़ा
है। वे परम
संत हैं।
बुद्ध ने भी
.शास्त्र तोड़ा
है,
लेकिन पूरी
तरह नहीं।
महावीर ने भी
.शास्त्र तोड़ा
है लेकिन पूरी
तरह नहीं।
महावीर ने
.शास्त्र का
उतना ही
हिस्सा तोड़ा है,
जो तोड़ा जा
सकता है।
लेकिन जो
अपरिहार्य है,वह तो बचा लिया
है।
जैसे, .शास्त्र
कहते हैं, गृहस्थ
अलग, सन्यासी
अलग—इसको तो
बचा लिया है।
तो महावीर
संन्यासी हैं,
उनके
गृहस्थ हैं।
तो उन्होंने
चार तीर्थ
बनाए साधु, सानी; श्रावक,
श्राविका।
वह भेद तो
बहुत पुराना
है, वह
उन्होंने
कायम रखा है।
बुद्ध ने भी
कायम रखा है।
कबीर
ने सब तोड़
दिया। कबीर
साधु हैं कि
गृहस्थ? कबीर
गृहस्थ
संन्यासी हैं,
या
संन्यासी
गृहस्थ हैं? पत्नी है, बच्चे हैं, कबीर काम
करते हैं और
संन्यस्त हैं!
यह बड़ी अपूर्व
घटना है।
इसलिए
कौन इनको
पूजेगा? सन्यासी
समझते हैं
भ्रष्ट; गृहस्थ
समझते हैं
पागल।
क्योंकि
गृहस्थों में
भी ठीक नहीं
बैठता यह आदमी;
संन्यासी
है।
ऐसे
ही संन्यासी
मैं बना रहा
हूं। वे कहीं
भी ठीक न
बैठेंगे।
गृहस्थ
कहेंगे, कुछ
गड़बड़ हो गए, दिमाग फिर
गया है। ये
गेरुए कपड़े
पहन लिए?
यह क्या भजन —कीर्तन
और पूजन में
और ध्यान में
लगे हो? घर —द्वार
सम्हालो। और
संन्यासी
कहेंगे, ये
भ्रष्ट हैं।
क्योंकि
पत्नी बच्चे
सन्यासी को
कैसे हो सकते
हैं? और
तुम दुकान
करते हो? ऐसा
कभी सुना है
कि संन्यासी—
और दुकान करता
है।
कबीर
ऐसे संन्यासी
थे,
जिनको मैं
संन्यासी कह
रहा हूं। कबीर
दुकान भी करते,
कपड़ा भी
बुनते।
जुलाहे थे, जुलाहे ही
रहे। बहुत
लोगों ने कहा
बाद में, बहुत
शिष्य भी हो
गए, कि आप
यह बद कर दें, तो कबीर
कहते कि नहींर
जो परमात्मा
ने चाहा है, वह होने दो।
मैं बद करने
वाला कौन? और
जब तक हाथ
चलते हैं, तब
तक करूंगा भी
क्या? बुनते
रहने दो। और
फिर बहुत ' राम
' हैं, जो
बाजार में
मेरे कपड़ों की
प्रतीक्षा
करते हैं।
तो
वे कपड़ा बुनते;
नाचते, बाजार
जाते।
क्योंकि उनके
लिए तो सभी
राम थे। और
ग्राहक जब आता,
तब उससे
कहते, राम
थोड़ा
सम्हालकर
पहनना। बड़े
प्रेम से बुना
है
झीनी
झीनी बीनी रे
चदरिया।
राम
—रस भीनी रे
चदरिया।।
चादर
बुनते रहते और
राम की धुन
चलाते रहते।
कबीर ने जो
कपड़े बुने, वे
अनूठे हैं।
उनमें राम का
रस डूबा हुआ
है। और कबीर
ने कहा कि
ज्यों कि
त्यों धर
दीन्ही चदरिया.
खूब जतन से
ओढी रे चदरिया।
तो कबीर कहते
हैं कि ओढ़ी तो,
पर खूब जतन
से ओढ़ी।
संन्यासी
वह है, जो ओढ़े
ही न। क्योंकि
ओढ़ने में डर
है, कहीं
चदरिया खराब न
हो जाए! और
गृहस्थ वह है,
जो डट कर
ओढ़े; चाहे
फटे, चाहे
गंदी हो, कुछ
भी हो जाए। और
कबीर ने ओढ़ी —खूब
जतन से ओढी रे
चदरिया!
लेकिन
' जतन ' से
ओढ़ी। यह जतन
.शब्द बड़ा
अद्भुत है।
कृष्णमूर्ति
जिसको
अवेयरनेस
कहते हैं, वही
है जतन। बड़े
होश से, बड़े
प्रयत्न से, बड़ी
जागरूकता से
ओढ़ी। और ' ज्यों
की त्यों धर
दीन्ही
चदरिया '।
और जब
परमात्मा के
पास वापस
लौटने लगे, तो उसे वैसी
लौटा दी जैसी
उसने दी थी — और
ओढी भी। ऐसा
नहीं, कि
बिना ओढ़े, नंगे
बैठे रहे।
कबीर
यह कह रहे हैं
कि गृहस्थ भी
रहे और सन्यस्त
भी रहे। रहे संसार
में और अछूते
रहे —कमलवत।
बहुत
मुश्किल है।
इसलिये कबीर
को ऊपर की
जातियों का तो
कोई सम्मान न
मिल सका, क्योंकि
उनको डर लगा
जाने में।
अपनी से छोटी
जाति के पास
कौन जाना चाहे?
ब्राहमण
डरता है अगर
क्षत्रिय
ज्ञानी हो जाए
तो उसके पास
जाने से।
क्षत्रिय
डरता है अगर
वैश्य ज्ञानी
हो जाए, उसके
पास जाने से।
वैश्य डरता है
अगर .शूद्र
ज्ञानी हो जाए,
उसके पास
जाने से।
चमार
रैदास के पास
कोई भी न गया।
सेना नाई के
पास कोई भी न
गया। जुलाहे
कबीर के पास
कोई भी न गया।
वे आखिरी हैं।
उनके पास ऊंची
श्रेणी के लोग
भयभीत होते
हैं।
स्वभावत:
वे ही लोग गये, जो
उसी श्रेणी के
थे। इसलिए
कबीर को मानने
वालों की
संख्या निम्न
वर्ग के लोगों
में मिलेगी।
निम्नवर्ग के
लोगों के पास
न तो धन है, न
पद है, न
प्रतिष्ठा है।
वे किसी को
ऊपर आकाश में
उठाना भी
चाहें तो नहीं
उठा सकते। सच
तो यह है, उन
के कारण ही
कोई
आकाश में हो
तो वह भी जमीन
पर उतर आएगा।
उनके
पास कुछ भी तो
नहीं है।
इसलिए कबीर को
माननेवाले
कबीर को तो
ऊपर नहीं उठा
सके। कैसे
उठाते? कोई
उपाय न था।
कोई सीढ़ियां न
थीं उनके पास।
बल्कि उनके
मानने के कारण
—चमार, भंगी,
शूद्र और
हरिजन कबीर को
मानने लगे; उस कारण और
भी अड़चन हो गई
पंडित को, ब्राहमण
को, क्षत्रिय
को, वैश्य
को आने की।
ऐसा
हुआ कि मैं एक
गांव में था।
और वहां रैदास
की जयंती मनाई
जा रही थी।
रैदास तो चमार
थे। गांव के
चमार मेरे पास
आ गए और बोले
कि आप भी चलें
और रैदास पर
दो शब्द कह
दें। मैं राजी
हो गया। मैं
जिनके घर में
मेहमान था, वे
बड़ी मुश्किल
में पड़ गये, जैन घर था, बड़े सम्पन्न
व्यक्ति थे।
उनको जरा
बेचैनी मालूम
होने लगी।
सांझ को
उन्होंने
मुझसे कहा ऐसा
है कि मुझे जरूरी
काम है। अच्छा
तो नहीं मालूम
पड़ता कि आपको
अकेला भेजूं —
क्योंकि
चमारों की
सभा! अब उसमें
गाव का
प्रतिष्ठित
श्रेष्ठ, नगरसेठ,
वह कैसे जाए
चमारों की सभा
में? और
मैं तो कल चला
जाऊंगा और यह
झंझट सदा के
लिए पीछे बंध
जाएगी, कि
चमारों की सभा
में गए थे।
तो
उन्होंने कहा, 'मुझे
जरा जरूरी काम
आ गया है। आना
तो आपके साथ
था। '
मैंने
कहा,
' आप बिलकुल
फिक्र न करें।
जरूरी काम
मुझे पता है, नहीं आया है,
मगर कोई
चिंता की बात
नहीं, मैं
अकेला ही
जाऊंगा। आपको
आने की कोई
आवश्यकता भी
नहीं। '
'नहीं ',
उन्होंने
कहा, ' आप
बुरा न मानें।
आप ठीक कहते
हैं, कोई
काम नहीं आया
है। आप से
क्या झूठ
बोलना!
लेकिन डर लगता
है चमारों की सभा
— और आप भी न
जाते तो अच्छा
था।
मैंने
कहा,
' मैं तो
जाऊंगा। किसी
और की होती तो
मना भी कर
देता। चमार आए,
उनको मना
करना भी ठीक
नहीं। कोई
जाने को राजी
भी नहीं है। '
सेठ
तो गए नहीं, वह
तो ठीक ही है; ड्राइवर भी
मुझे छोड्कर
दूर गाड़ी खड़ी
करके अपनी कार
में बैठा रहा।
कोई घर से
मेरे साथ न
गया। और सब
जगह जाने से
मेरे साथ
प्रतिष्ठा
मिलती थी।
जहां भी जाते,
मच पर बैठते।
चमारों की सभा
में मंच पर भी
बैठने में डर!
ड्राइवर भी
मेरे पास नहीं
खड़ा रहा। वह
भी दूर कार
खड़ी करके खड़ा
रहा। मैंने
उससे पूछा, तू सुनने
नहीं आया?
तू हमेशा गाड़ी
बंद करके और
सभा में आकर
बैठता है।
बोला, 'चमारों
में बैठना ठीक
नहीं। फिर जो
सेठ ने किया —सेठ
क्यों नहीं
आये आपको पता
है? वही
कारण मेरा भी
है। मैं
ब्राहमण हूं।
सेठ तो वैश्य
हैं। अगर
वैश्य नहीं आ
सकता, तो
मैं तो
ब्राहमण हूं।
और ब्राहमण भी
कोई साधारण नहीं,
कान्यकुब्ज
ब्राहमण हूं। '
पागलों
की दुनिया है।
तरह —तरह के
पागल हैं—कान्यकुब्ज, देशस्थ,
कोंकणस्थ —तरह
—तरह के पागल
हैं। चमारों
की सभा में
कौन जाए! चमार
बड़े प्रसन्न हुए,
बड़े
आनन्दित हुए।
उन्होंने कहा
हम
सदा बुलाते
हैं,
निमंत्रण
देते हैं। कोई
आता ही नहीं।
कबीर
के पास कौन
जाए?
जबलपुर
में जहां मैं
रहता था
वर्षों तक, वहां
नाई 'सेन
उत्सव' मनाते
हैं सेना नाई
का। कोई जाने
को राजी नहीं।
मैं जब बोलता
था तो मुझे
कोई दस हजार, पन्द्रह
हजार लोग
सुनने आते थे।
यह सोच कर
सेना के
भक्तों ने
सोचा, कि
अगर मैं बोलूं
सेना नाई पर
तो दस —पन्द्रह
हजार आदमी
सुनने आएंगे।
सेना नाई की
बड़ी ख्याति
होगी। मैंने
उनको कहा, ' तुम
गलती में हो।
वे जो मुझे
सुनने आते हैं
दस —पन्द्रह
हजार लोग वे
जब मैं
तुम्हारे
सेना नाई पर
बोलूंगा तो
नहीं आएंगे। '
उन्होंने
कहा,
'आप बात
छोड़िए। वे
आपको प्रेम
करते हैं, सेना
नाई से क्या
लेना —देना? आप जिस पर भी
बोलते हैं, वे सुनने
आते हैं। गीता
पर बोलते हैं,
तो सुनने
आते हैं, महावीर
पर बोलते हैं
तो सुनने आते
हैं, बुद्ध
पर बोलते हैं
तो सुनने आते
हैं। '
मैंने
कहा,
' वह ठीक है।
बुद्ध, महावीर,
कृष्ण, वह
सभी सवर्णों
की दुनिया है।
मगर तुम नहीं
मानते तो मैं
आऊगा।
मैं
गया। कोई नहीं
आया। पन्द्रह
हजार तो दूर, पन्द्रह
चेहरे न दिखे
मुझे, जिनको
मैं पहचानता
था। सिर्फ नाई
दिखाई पड़े। और
बेचारे बड़ी
राह देखते रहे,
कि कोई आए।
बस, पंद्रह
—बीस! वह भी एक
नाईबाड़े के
सामने
उन्होंने
मुझे बिठा
दिया।
उन्होंने बड़ी
आशा की थी, बड़ा
इंतजाम किया
था, पंडाल
बिछाया था, लगाया था —कोई
नहीं आया!
मैंने
उनसे कहा, वे
नहीं आएंगे।
सेना नाई पर
मुझे सुनने
नहीं आ सकते
तो सेना नाई
के पास तो
कैसे गये
होंगे? असंभव।
और
भारत तो बहुत
ही ज्यादा
अहंकारी
मुल्क है। तुम
कहते इसको
धार्मिक हो, यह
धार्मिक है
नहीं। इससे
ज्यादा
अहंकारी समाज
खोजना ससार
में कठिन है।
मैं तुमसे
कहता हू भारत
के बाहर ही यह
घटना घटी है, जिनको तुम
धार्मिक नहीं
कहते।
जीसस
बढ़ई थे, फिर
भी ' ईश्वर
के पुत्र ' की
घोषणा हो सकी।
मुहम्मद किसी
बहुत ऊंचे
वर्ण से नहीं
आते थे। भेड़ों
को चराने और
भेड़ों के बाल
काटने का धंधा
करते थे, फिर
भी पैगंबर हो
सके। भारत के
बाहर ही यह
अनूठी घटना
घटी है कि
मुहम्मद जैसा
अपढ़, गरीब,
—शूद्र वर्ग
से संबंधित, जीसस जैसा
अपढ़ गरीब —शूद्र
वर्ग से
संबंधित
व्यक्ति जीवन
के उच्चतम
शिखर पर
विराजमान हो
सका है।
भारत
तो बहुत
अहंकारी है।
अगर यहां
क्राइस्ट
पैदा होते भूल
से,
तो उनकी वही
गति होती, जो
कबीर की हुई
है। अगर यहीं
मुहम्मद पैदा
हो जाते तो
वही गति होती,
जो कबीर की
हुई; कोई
फर्क न पड़ता।
भारत
बहुत अहंकारी
है। यहां धर्म
भी अहंकार का
हिस्सा हो गया
है। और
धार्मिक
अहंकार!
पवित्र
अहंकार और भी
खतरनाक हो
जाता है —पवित्र
जहर जैसा
खतरनाक
क्योंकि जहर
में अगर थोड़ा
कुछ और मिला
हो तो जहर जरा
कम जहरीला हो
जाता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
मरना चाहता था।
तो बाजार गया, जहर
खरीद लिया, रात को खाकर
सो गया। कई
बार उठ —उठ कर
देखा, अभी
तक मरे नहीं? सुबह भी हो
गई। आंखें बद
किए थोड़ी देर
पड़ा रहा, कि
.शायद मर गए
हों। दूधवाले
की आवाज सुनाई
पड़ने लगी, घर
के बरतन —
भाण्डे बजने
लगे —क्या
मामला है? आख
खोलकर देखा, सब वैसे ही
है, मरे
नहीं। सोचता
था, —शायद
नर्क में
पहुंचे कि
स्वर्ग में—क्या
हुआ? लेकिन
मरे ही नहीं!
भागा
हुआ दुकान पर
पहुंचा जहर के
और कहा ' हद हो
गई! तुमने
धोखा दिया। 'उसने कहा, ' भई, मैं
भी क्या कर
सकता हूं? सभी
चीजों में मेल
चल रहा है। ' जहर भी —शुद्ध
कहा है आज? दूध
ही अशुद्ध
नहीं मिल रहा,
जहर भी
अशुद्ध है।
उसको भी खाकर
पक्का भरोसा
नहीं कर सकते,
कि मर ही
जाओगे।
शुद्ध
जहर तो बहुत
खतरनाक हो
जाता है।
धार्मिक
व्यक्ति का
अहंकार .शुद्ध
जहर है। उसमें
से सब अशुद्धि
बाहर निकाल दी
गई। धनी आदमी
के अहंकार में
थोड़ी अशुद्धि
है। वह
अशुद्धि यह है, कि
धन खो जाए तो
अहंकार को
गिरना पड़ेगा।
पहलवान के अहंकार
में थोड़ी
अशुद्धि है, .शरीर कल
बीमार पड़ जाए—
और पहलवान
अक्सर बीमार
पड़ते हैं।
भयंकर
बीमारियों से
मरते हैं।
क्योंकि
पहलवानी .शरीर
के साथ
ज्यादती है।
वह
अप्राकृतिक
है। इसलिए
गामा हो, कि
कोई भी हो, कैन्सर,
क्षयरोग, खतरनाक
बीमारियों से
मरते हैं —मरेंगे
ही। क्योंकि
.शरीर के साथ
जबरदस्ती कर
रहे हैं।
पहलवानी कोई
स्वास्थ्य
नहीं है।
तो
एक दिन शरीर
मरेगा, टूटेगा,
खराब होगा;
तब अकड़ चली
जाएगी। आज पद
पर हो, मिनिस्टर
हो कि चीफ
मिनिस्टर हो,
कल नहीं
रहोगे। फिर
भीख मांगते
वोट की फिरोगे।
इसलिए वह अकड़
भी —शुद्ध
नहीं है।
लेकिन
धार्मिक आदमी
की अकड़ बिलकुल
.शुद्ध है।
उसको तुम छीन
नहीं सकते। वह
चरित्रवान है।
चरित्र को
कैसे छीनोगे?
वह राम —चदरिया
ओढ़ता है, राम
—राम जपता है; उसको कैसे
छीनोगे? वह
मंदिर जाता है,
पूजा—प्रार्थना
करता है, यज्ञ—हवन
करता है; उसको
कैसे. छीनोगे? उसका अहंकार
छीनना
मुश्किल।
भारत
महा — अहंकारी
है। उसने अपने
अहंकार को बड़े
आभूषणों से
सजा लिया है।
और इसलिए बहुत
से परम—ज्ञानियों
से देश लाभ
लेने से वंचित
रह गया। बहुत
पैदा हुए हैं
इस मुल्क में, जिन्होंने
परम सत्य को
जाना है।
इसलिए
मैं एक तरफ
उपनिषदों पर
बोल रहा हूं कृष्ण
पर बोल रहा
हूं लेकिन
कबीर को भूलता
नहीं। बीच —बीच
में कबीर को
भी ले आता हूं।
किसी तरह
राजपुत्रों
को और शूद्रों
को करीब लाना
है। किसी तरह
सिंहासन और
भिखारी को पास
लाना है। ताकि
हम यह समझ
सकें, कि सत्य
को पाने का
कोई भी संबंध
न तो जाति से है,
न वर्ण से
है, न धर्म
से है, न
कुल से है, न
गोत्र से है।
सभी के लिए
खला आकाश है
सत्य का। जो
भी आने को
राजी है, उसका
ही स्वागत
आज
इतना ही।
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