राजगृह
में
प्रतिवर्ष एक
विशेष समारोह
में नटों के
खेलों का
आयोजन होता
था। एक बार जब
नटों का खेल
हो रहा था तब
राजगृह नगर के
श्रेष्ठी का
उग्गसेन नामक
पुत्र एक नट—
कन्या के खेल
को देखकर उस
पर मोहित हो
उसी से अपना
विवाह कर नटों
के साथ हो
लिया। वह उनके
साथ घूमते हुए
थोडे ही
वर्षों में
नट— विद्या
में निपुण हो
गया। फिर एक
उत्सव में भाग
लेने वह भी
राजगृह आया।
उसका खेल
देखने
स्वभावत: हजारों
लोग इकट्ठे
हुए। वह नगर
के सब से बड़े सेठ
का बेटा था——
नगरसेठ का
बेटा था।
उस
दिन जब भगवान
भिक्षाटन को
निकले तो
श्रेष्ठीपुत्र
उग्गसेन साठ
हाथ ऊंचे दो
भवनों के बीच
में बंधी
रस्सी पर चलकर
अपना खेल
दिखाना शुरू करने
ही वाला था।
लेकिन भगवान
को देखकर सभी
दर्शक
उग्गसेन की ओर
से मुख मोड़कर
भगवान को
देखने लग गए!
उग्गसेन उदास
हो बैठ रहा।
भगवान
ने उसे उदास
देख
महामौद्गल्यायन
स्थविर से कहा
मौद्गल्यायन।
उग्गसेन को
कहो कि अपना
खेल दिखाए।
बेचारा उदास
और दुखी होकर
बैठ गया!
फिर
भगवान ने उसे
प्रसन्न करने
को कहा. मैं भी
देखूंगा
उग्गसेन! तू
खेल दिखा।
फिर
उग्गसेन खूब
प्रसन्न होकर
साठ हाथ ऊंची
बंधी रस्सी पर
स्वयं को
सम्हालने के
नाना प्रकार
के खेल दिखाने
लगा। तब
शास्ता ने
कहा. उग्गसेन
ये खेल अच्छे
हैं। लोगों का
मनोरंजन भी
करेंगे। लेकिन
मनोरंजन से
होता क्या! जब
तक मनोभंजन न
हो। सार तो
इनमें जरा भी
नहीं है।
मनोरंजन में ही
तो जीवन
व्यर्थ गए। और
यह जीवन भी
व्यर्थ चला
जाएगा। तू
तमाशा दिखाते—
दिखाते तमाशे
में ही समाप्त
हो जाएगा? सार
इनमें जरा नही
उग्गसेन।
जितने
समय में तूने
स्वयं को
रस्सी पर
सम्हालना
सीखा इतने समय
में तो तू घ्यान
पर अपने को
सम्हाल लेता।
और रस्सी पर
सम्हलकर कहां
पहुंचेगा? चेतना
में सम्हल।
वह तुझे जीवन—
मरण के पार ले
जाता अगर ध्यान
में सम्हल
जाता।
उग्ग्सेन
बुद्धिमान
व्यक्ति को
समय से मुक्त
हो परम सत्य
में लीन होना
सीखना चाहिए।
तू मेरे पास
आ। मैं तुझे
वह परम कला और
परम कीमिया
सिखाऊंगा। और
तब भगवान ने
यह गाथा कही :
मुज्च
पुरे मुज्चपच्छतो
मज्झे मुज्च
भवस्स
पारगू।
सब्बत्थ
विमुत्तमानसो
न पुन जतिजरं
उपेहिसि ।।
'भूत को छोड़ो,
भविष्य को
छोड़ो और
वर्तमान को भी
छोड़ो—इस तरह इन्हें
छोड़कर संसार
के पार हो और
मुक्त—मानस होकर
तुम फिर जन्म
और जरा को
नहीं प्राप्त
होओगे।’
उग्गसेन
मेरे पास आओ, मैं
तुम्हें परम
कीमिया
सिखाऊंगा।
पहले
हम इस दृश्य
को समझें।
राजगृह
में
प्रतिवर्ष एक
विशेष समारोह
में नटों के
खेल का आयोजन
होता था। एक
बार जब नटों
का खेल हो रहा
था,
तब राजगृह
नगर के
श्रेष्ठी का
ऊगसेन नामक
पुत्र एक
नट—कन्या के
खेल को देखकर
उस पर मोहित
हो उसी से
अपना विवाह कर
नटों के साथ
हो लिया।
आदमी
जिससे प्रेम
करता है, वैसा
ही हो जाता
है। प्रेम
सावधानी से
करना। प्रेम
अपने से
श्रेष्ठ से
करना। अपने से
निकृष्ट से
प्रेम करोगे,
तो वैसे ही
हो जाओगे।
प्रेम रसायन
है। जिससे प्रेम
करोगे, वैसे
ही हो जाओगे।
तुमने
देखा जो लोग
धन को प्रेम
करते हैं, उनके
चेहरे पर वैसा
ही
घिसा—घिसापन
दिखायी पड़ने
लगता है, जैसे
घिसे सिक्कों
पर दिखायी
पड़ता है। जो
लोग नोटों को
प्रेम करते
हैं, उनके
चेहरे पर
देखा! वैसे ही
घिसे —पिटे
नोट की हालत
हो जाती है।
गंदा! न मालूम
कितने हाथों से
गया! न मालूम
कितने —कितने
हाथों से
उतरा।
जो
आदमी जिसको
प्रेम करता है, वैसा
ही हो जाता
है। कहानियां
तुमने पढ़ी
होंगी कि जब
कोई धनी मरता
है, तो
सांप होकर अपने
खजाने पर बैठ
जाता है। वह
पहले ही से
सांप था। तुम
मरने के बाद
की बात कर रहे
हो! वह पहले ही से
सांप बना बैठा
था फन मारे।
उसका कोई और
काम नहीं था।
अब
यह उग्गसेन
नगर श्रेष्ठी
का पुत्र था, सब
से बड़े धनी का
पुत्र था।
राजगृह बिहार
की सब से धनी
नगरी थी। उस
सब से धनी
नगरी के सब से
बड़े धनी का
बेटा था।
लेकिन एक
नट—कन्या, एक
मदारी की लड़की
के प्रेम में
पड़ गया, तो
मदारी हो गया।
ये
छोटी—छोटी
कहानियां बडी
सूचक हैं, बड़ी
मनोवैज्ञानिक
हैं। इनको तुम
ऐसे ही पढ़ लोगे,
तो इनका मजा,
इनका स्वाद
तुम्हें नहीं
आएगा। इनमें
धीरे— धीरे
उतरना। तुम
जरा गौर करना।
तुमने जिससे
दोस्ती की है,
आखिर में
तुमने पाया
नहीं कि तुम
उसी जैसे हो गए?
दोस्ती
की तो बात
छोड़ो, किसी से
दुश्मनी भी
अगर कर ली, तो
भी उस जैसे हो
जाओगे।
क्योंकि उसी
का चिंतन
करोगे। उसी का
हिसाब रखोगे।
वह कैसी चालें
चल रहा है, वैसी
चालें तुम
चलोगे। उस से
कैसे रक्षा
करनी, इसका
विचार करते
रहोगे। सदा
उसका विचार
करते —करते
तुम भी उस
जैसे हो
जाओगे।
दुश्मन भी एक
जैसे हो जाते
हैं। क्योंकि
दुश्मनी भी एक
ढंग की दोस्ती
है।
नट—कन्या
के खेल को
देखकर उस पर
मोहित हो उससे
विवाह कर नटों
के साथ हो लिया।
सुसंस्कृत
परिवार का
बेटा, ऐसे
गांव—गांव
घूमने वाले
सडक—छाप
मदारियों के
साथ हो गया!
मोह
गिराता है।
मोह उठा भी
सकता है। अगर
बुद्ध जैसे
व्यक्ति से
मोह हो जाए, तो
तुम्हारी
आंखें आकाश की
तरफ उठने
लगीं। तुमने
जमीन पर सरकना
बंद कर दिया।
बुद्ध को देखने
के लिए ऊपर
देखना पड़ेगा,
चांद—तारों
की तरफ देखना
पड़ेगा। जब
मैसूर को सूली
हुई, वह
खिलखिलाकर
हंसने लगा। और
किसी ने भीड़
में से पूछा
कि मंसूर!
तुम्हारे
हंसने का कारण?
क्योंकि
तुम मर रहे हो!
ऊंचे
खंभे पर उसे
सूली लगायी जा
रही थी। मंसूर
ने कहा कि मैं
इसलिए खुश हूं
कि एक लाख
आदमी मुझे
देखने इकट्ठे
हुए हैं। और
एक लाख
आदमियों की
आंखें पहली
दफे थोड़ी ऊपर
उठीं, क्योंकि
मुझे देखने के
लिए इस ऊंचे
खंभे की तरफ
देखना पड़ रहा
है। यही क्या
कम है कि
तुम्हारी
आंखें जमीन
में गड़ी—गडी
रही हैं सदा, आज चलो मेरे
बहाने ऊपर
उठीं! और हो
सकता है कि
मुझे देखकर
तुम्हें
परमात्मा की
थोड़ी याद आए!
और मेरे आनंद
को देखकर
तुम्हें याद
आए कि परमात्मा
जिसके साथ हो
जाता है, वह
मरने में भी
खुश है। और
परमात्मा
जिसके साथ
नहीं, वह
जीवन में भी
दुखी है। यह
तुम भूल न
सकोगे। तुम्हें
मेरी
मुस्कुराहट
याद रहेगी, कभी—कभी तुम्हें
चौंकाकी।
कभी—कभी
तुम्हारे
सपनों में उतर
आएगी। कभी—कभी
शांत बैठे
क्षणों में
मेरी तस्वीर
तुम्हें
फिर—फिर याद
आएगी। चलो, यही क्या कम
है! मेरा इतना
ही उपयोग हो
गया। मरना तो
सभी को पड़ता
है। एक लाख
आदमियों के
दिल में मेरी
तस्वीर टंगी
रह जाएगी।
शायद उन्हें
परमात्मा की
याद दिलाएगी।
जब
तुम बुद्ध के
प्रेम में
पड़ते हो, तो
धीरे — धीरे
तुम में
बुद्धत्व
छाने लगता है।
इसलिए साधु
—संग की बड़ी
महिमा है।
उसका मतलब इतना
है कि उनके
प्रेम में पड
जाना, जो
तुम से आगे गए
हैं। जो तुम
से दो कदम भी
आगे हैं, उनके
प्रेम में पड़
जाना। कम से
कम दो कदम तो
तुम्हें आगे
जाने में सहायता
मिल जाएगी।
अपने
से पीछे लोगों
के प्रेम में
मत पड़ना, नहीं
तो तुम
गिरोगे।
वह
उनके साथ
घूमते —घूमते
थोड़े ही
वर्षों में नट—विद्या
में निपुण हो
गया। और तो
सीखता भी क्या!
नट से प्रेम
करोगे, नट हो
जाओगे। नट हो
गया।
फिर
एक उत्सव में
भाग लेने वह
भी राजगृह
आया।
लोक—लाज
भी खो दी
होगी। संकोच
भी खो दिया
होगा। यह भी
फिकर न की कि
उस गांव में
मेरा पिता सब
से बड़ा धनी है, प्रतिष्ठित
है। राजा के
बाद उसी का
नंबर है। उस
गांव में मैं
मदारियों के
खेल
दिखाऊंगा—यह उचित
है?
लेकिन
एक समय आता है, जब
तुम धीरे —
धीरे बेशर्मी
में भी ठहर
जाते हो। वह
भी जड़ हो जाता
है। शर्म भी
नहीं उठती; लज्जा भी
नहीं उठती!
उसका
खेल देखने
स्वभावत:
हजारों लोग
इकट्ठे हुए।
खेल
से ज्यादा तो
उसको देखने
इकट्ठे हुए—कि
यह भी कैसा
दुर्भाग्य!
इतनी बड़ी
संपत्ति, इतनी
सुविधा, इतने
संस्कार, इतनी
सभ्यता में
पैदा हुआ आदमी
और इस तरह
गिरेगा!
उस
दिन जब भगवान
भिक्षाटन को
निकले, तो
श्रेष्ठीपुत्र
उग्गसेन साठ
हाथ ऊंचे दो भवनों
के बीच में
बंधी रस्सी पर
चलकर अपना खेल
दिखाना शुरू
करने वाला ही
था—सब तैयारी
हो गयी
थी—लेकिन
भगवान को देखकर
सभी दर्शक
उग्गसेन की ओर
से मुख मोड़कर
भगवान को ही
देखने लगे।
बुद्ध
की मौजूदगी!
एक क्षण को
लोग भूल गए
तमाशा। एक
क्षण को लोग
भूल गए
उग्गसेन को।
एक क्षण को
लोग भूल गए
मनोरंजन को।
यहां आ रहा है
कोई,
जिसका मन
समाप्त हो
गया। यहां आ
रहा है कोई, जो दूसरे
लोक की खबर
लाता। यह
प्रसादपूर्ण
बुद्ध का आगमन,
यह उनके
पीछे
भिक्षुओं का
आगमन! यह
बुद्ध का आकर
अचानक वहां
खड़े हो जाना!
एक क्षण को
लोग भूल ही
गए। जहां इतना
विराट घट रहा
हो, वहां
क्षुद्र की
कोन चिंता
करता!
उग्गसेन
उदास हो बैठ
रहा। भगवान ने
उसे उदास देख
अपने एक शिष्य
महामौद्गल्यायन
से कहा, मौद्गल्यायन!
उग्गसेन को
कहो, अपना
खेल दिखाए। और
मैं भी उसका
खेल देखूंगा,
प्रसन्न
होकर दिखाए।
सदगुरु
इस तरह के
उपाय भी करता
है। तुम्हें
उठाना हो
तुम्हारी
भूमिका से, तो
तुम्हारी
भूमिका तक उसे
आना पड़ता है।
तुम्हें
तुम्हारे
खाई—खड्ड से निकालना
हो, तो
उसको भी अपने
शिखर को
छोड़कर
तुम्हारे गड्ढे
में आना पड़ता
है।
उग्गसेन
का पिता बुद्ध
का शिष्य था।
शायद बहुत बार
रोया होगा
बुद्ध के पास।
शायद बहुत बार
कहा होगा कि
क्या होगा
मेरे बेटे का!
यह कैसा पतन
हुआ!
और
ध्यान रखना, उन
दिनों के
धनपति और आज
के धनपतियों
में बड़ा फर्क
है। तुम जानते
हो. सेठ शब्द
उन दिनों के
श्रेष्ठी
शब्द से आया
है। अब तो सेठ
एक तरह की
गाली है। उन
दिनों
श्रेष्ठी.......।
जो व्यक्ति
बडे श्रेष्ठ
थे, वे ही
कहे जाते थे
श्रेष्ठी।
जिनके भीतर एक
आत्मिक
संपन्नता थी।
बाहर का धन तो
ठीक था, जिनके
पास भीतर का
धन भी था।
इस
उग्गसेन के
पिता ने बुद्ध
के लिए सारा
धन बहाया था।
कहते हैं. एक
बार तो ऐसा
हुआ था कि बुद्ध
गांव आए। उनके
ठहरने के लिए
एक बगीचे को
खरीदना था।
लेकिन बगीचे
को बेचने वाला
दुष्ट और जिद्दी
प्रकृति का
था। उसने कहा, उतने
रुपए में
बेचूंगा, जितने
रुपए मेरी
जमीन पर
बिछाओगे।
पूरी जमीन ढंक
जाए रुपयों से,
उतने
रुपयों में
बेचूंगा।
यह
हजार गुना
मूल्य मांग
रहा था; या
लाख गुना
मूल्य मांग
रहा था। लेकिन
उग्गसेन के
पिता ने फिर
भी वह बगीचा
खरीद लिया।
जमीन पर रुपए
बिछाकर! जितने
रुपए जमीन पर
बिछे, उतने
रुपए देकर।
एक
महिमाशाली
व्यक्ति रहा
होगा। बुद्ध
के पास रोया
होगा बहुत बार
इस बेटे के
लिए। कहा होगा
: कुछ करें। आप
कुछ करें, तो
ही अब कुछ हो
सकता है। अब
हमारे हाथ के
बाहर की बात
है।
शायद
इसीलिए बुद्ध
उस दिन गए। गए
ताकि उग्गसेन
को खींच लें।
उग्गसेन का
तमाशा देखा, सिर्फ
इसीलिए कि
उग्गसेन के
भीतर बुद्ध के
प्रति थोड़ा
भाव पैदा हो
जाए। जैसे कोई
मछली को पकड़ने
के लिए कांटे
में आटा लगाता
है न, ऐसे
बुद्ध ने थोड़ा
सा आटा लगाया
काटे में। उग्गसेन
फंस गया।
बुद्ध जैसा
व्यक्ति बंसी
डाले, फंसो
न तो क्या हो!
इसीलिए
तो बुद्धपुरुषों
के संबंध में
यह बात लोक
प्रचलित हो
गयी कि उनसे
लोग सम्मोहित
हो जाते हैं; कि
लोग उनके
मेस्मेरिज्म
में आ जाते
हैं; कि
लोग उनके हाथ
में बंध जाते
हैं। उनसे
सावधान रहना,
जरा दूर
—दूर रहना।
उनसे जरा बचकर
रहना!
बुद्ध
ने कहा. मैं भी
तेरा खेल
देखने आया
उगसेन।
अब
बुद्ध को क्या
इस खेल में हो
सकता है? सारे
संसार का खेल
जिसके लिए
व्यर्थ हो गया,
उसको किसी
के रस्सी पर
चलने में क्या
सार हो सकता
है?
लेकिन
अगर उग्गसेन
को अपनी तरफ
लाना है, तो
उग्गसेन की
तरफ जाना
होगा। तो गुरु
कई बार शिष्य
की भूमिका में
उतरता है। कई
बार उसका हाथ
पकड़ने वहां
आता है, जहां
शिष्य है। अगर
शिष्य
वेश्यागृह
में है, तो
गुरु वहां आता
है। और अगर
शिष्य
कारागृह में
है, तो
गुरु वहां आता
है। इसके
सिवाय कोई
उपाय भी नहीं।
उग्गसेन
अति आनंदित हो
उठा। उसने तो
यह सोचा भी
नहीं था। ऐसा
धन्यभाग कि
बुद्ध और उसका
तमाशा देखने
आएंगे! इसका
तो सपना भी
नहीं देखा था! यह
तो सोच भी
नहीं सकता था।
बुद्ध ने तो
किसी का खेल
कभी नहीं
देखा। किसी का
तमाशा कभी
नहीं देखा।
उसने
बहुत तरह के
खेल दिखाए; बड़ी
उमंग, बड़े
उत्साह से।
तब
शास्ता ने
उससे कहा :
उग्गसेन, ये
खेल बड़े अच्छे
हैं, लोगों
का मनोरंजन भी
करेंगे।
लेकिन तमाशा
आखिर तमाशा
है। तमाशे में
ही जिंदगी
गंवा देगा? मनोरंजन तो
ठीक है। असली
बात तो तब
घटती है, जब
मनोभंजन होता
है।
मनोरंजन
तो मन की
खुशामद है।
वही तो अर्थ
है मनोरंजन
शब्द का—मन की
खुशामद। मन पर
मक्खन लगाना।
वही मनोरंजन
है—मन जो कहे, वैसा
ही करते रहना।
मन जहां ले
जाए उसके साथ
चले जाना। मन
कहे शराबघर, मन कहे
वेश्याघर, मन
कहे सिनेमा, मन कहे यह, मन कहे वह; उसी के पीछे
चलते रहना।
इसी तरह तो
संसार है। संसार
का अर्थ होता
है मन के पीछे
चलना। चैतन्य
को मन के पीछे
चलाना अर्थात
संसार।
मनोभंजन
चाहिए, बुद्ध
ने कहा। और यह
भी कोई कला है!
अगर कला ही दिखानी
है, तो आ
मैं तुझे
सिखाऊं।
रस्सी पर चलने
में क्या रखा
है? यह तो
साठ हाथ ऊंची
बंधी है न, मैं
तुझे शिखरों
पर चलना
सिखाऊं, बादलों
पर चलना
सिखाऊं। मैं
तुझे ध्यान
में सधना
सिखाऊं।
उससे
ऊपर और कुछ भी
नहीं है। कोई
रस्सी उतने
ऊपर नहीं
बांधी जा सकती।
और जो ध्यान
में चलता है, उससे
बडा कुशल कोई
कलाकार नहीं
है। क्योंकि ध्यान
में अपने को
साधना, ठीक
रस्सी पर चलने
जैसा ही है।
बाएं गिरे, दाएं गिरे; पूरे वक्त
सम्हालना
पड़ता है। अब
गिरे, तब
गिरे। और खतरा
हर वक्त! लेकिन
ध्यान में जो
सम्हल जाता
है., एक दिन
समाधिस्थ हो
जाता है, फिर
कोई गिरना
नहीं है। तूने
स्वयं को
रस्सी पर
सम्हालना
सीखा, इतने
समय में तो
उग्गसेन, तू
ध्यान भी
सम्हाल सकता
था!
जितनी
देर में तुम
धन कमाते हो, ध्यान
भी कमाया जा
सकता है।
जितनी देर तुम
संसार में
लगाते हो, उतनी
देर में
परमात्मा भी
पाया जा सकता
है। इसी ऊर्जा
से, इसी
क्षमता से परम
मिल सकता है।
तुम क्षुद्र में
गंवाते हो।
कंकड़—पत्थर
बीनते रहते हो,
जब कि हीरे
की खदानें
बिलकुल पास
थीं।
उग्गसेन!
बुद्धिमान
व्यक्ति को
जीवन—मरण के पार
जाने की कला
सीखनी चाहिए।
तू आ। मेरे
पास आ। मैं
तुझे वह परम
कला और परम
कीमिया
सिखाऊंगा।
क्या है वह
परम कीमिया? वही
इस सूत्र का
अर्थ है।
'भूत को छोड़ो,
भविष्य को
छोड़ो, वर्तमान
को भी छोड़ो।'
क्योंकि
मन को छोड़ना
हो—मनोभजन
करना हो—तो
समय को छोड़ना
जरूरी है। मन
है क्या? भूत
की स्मृतिया,
जो हो चुका
उसकी
स्मृतियों का
जाल, स्मृति।
और भविष्य की
योजनाएं, भविष्य
की कल्पनाएं,
आकांक्षाए।
वर्तमान की
चिंता, फिकर।
अगर
ठीक से समझो, तो
मन और समय
पर्यायवाची
हैं। इसलिए जो
भी ध्यान को
उपलब्ध हुए, उन्होंने
कहा कालातीत
है ध्यान, समय
के पार है
ध्यान। मनातीत
और कालातीत एक
ही अर्थ रखते
हैं।
तो
बुद्ध ने कहा
है '
भूत को छोड़,
भविष्य को
छोड़, वर्तमान
को छोड—यह है
असली कला—इस
तरह इन्हें छोड़कर
संसार के पार
हो जा।
मुक्त—मानस
होकर, मन
से मुक्त होकर,
तू फिर जन्म
और जरा को
प्राप्त नहीं
होगा।’
उग्गसेन
को ऐसे वचन
सुनकर बोध
हुआ। और जैसे
बिजली कौंधी, ऐसे
भगवान के वचन
उसके प्राणों
में कौंधे। फिर
उसने क्षणभर
भी न खोया। वह
रस्सी से उतर
भगवान का
भिक्षु हो
गया। और जब
मरा तो
अर्हत्व को पाकर
मरा। वह सच ही
परम नट—विद्या
को उपलब्ध होकर
मरा। भगवान ने
वचन पूरा
किया।
इसमें
एक बात, अंतिम
बात समझ लेनी
चाहिए।
यह
आदमी था तो
जुआरी। इसलिए
मैं अक्सर
कहता हूं.
धर्म
व्यवसायियों
के लिए नहीं, जुआरियों
के लिए है। यह
आदमी था तो
जुआरी। बाप की
बड़ी संपत्ति,
बाप का बडा
उत्तराधिकार
छोड़कर एक
मदारी की बेटी
के साथ हो
लिया था। था
तो आदमी
हिम्मत का। गलत
भी गया था, तो
डरा नहीं था
जाने में।
दांव पर सब
लगा दिया था।
इस साधारण सी
युवती के लिए,
झोली टांगे
हुए मदारी, गांव—गांव
भटकते होंगे,
इनके साथ हो
लिया था
राजमहल
छोड़कर। था तो
आदमी जुआरी, दाव पर लगा
दिया था सब।
ऐसे
आदमी बड़े काम
के भी होते
हैं! अगर कभी
बुद्धपुरुषों
से मिलना हो
जाए,
तो फिर वे
देर नहीं
करते। अगर
नीचे जाने में
सब दाव पर लगा
सकते हैं, तो
ऊपर जाने में
क्यों दाव पर
नहीं लगा
सकेंगे!
दुकानदार
हमेशा डरता
रहता है। न
नीचे जाता, न
ऊपर जाता।
जाता ही नहीं
कहीं। यहीं
कोल्हू के
बैल की तरह
घूमता रहता
है। सोचता ही
रहता है? करूं
कि न करूं? इसमें
फायदा कितना,
हानि कितनी,
लाभ कितना?
इतना धन
लगेगा! ब्याज
भी मिलेगा कि
नहीं मिलेगा?
इससे सार
क्या होगा? चिंता—फिकर
में ही, हिसाब—किताब
में ही, गणित
बिठालने में
ही समय बीत
जाता है।
यह
आदमी था तो
जुआरी, बाप
की सारी
संपत्ति को लात
मार दी। बाप
ने कहा भी
होगा शायद कि
देख, तू
क्या कर रहा
है! दाने—दाने
को मुहताज हो
जाएगा! उसने
कहा होगा कोई
फिकर नहीं; जिससे लगाव
हो गया, उसके
साथ जाता हूं।
आप अपनी
संपत्ति
सम्हालो।
आपकी
प्रतिष्ठा
सम्हालो। मैं
प्रतिष्ठा खोता
हूं। धन खोता
हूं। सब खोता
हूं। लेकिन
जिससे मोह हो
गया, उसके
साथ जाता हूं।
मैं सब दाव पर
लगाता हूं।
था
तो आदमी
हिम्मतवर, था
तो साहसी।
इसीलिए दूसरी
घटना भी घट
सकी। जब बुद्ध
ने उसे पुकारा
रस्सी पर खड़ा
था। और जब बुद्ध
ने कहा कि यह
भी कोई कला है
उग्गसेन! तू
मेरे साथ आ, मैं तुझे
असली कला सिखाता
हूं। तू ध्यान
में सम्हल जा।
तू जीवन—मरण
के पार हो जा।
बुद्ध
ने फांस लिया।
किया सम्मोहन!
फेंका जाल।
बुद्ध देखने
क्या रुके, उग्गसेन
को सदा के लिए
अपने साथ ले
गए।
उग्गसेन
के मन में
जैसे बिजली
कौंध गयी। बात
तो सच है। और
उसे समझ में
भी आ गयी यह
बात—कि नटी के
प्रेम में पडा, तो
नट हो गया।
काश! बुद्ध के
प्रेम में पड़
जाऊं, तो
बुद्धत्व
मेरा है।
और
दाव लगाने में
तो कुछ था ही
नहीं। अब दाव
को कुछ था भी
नहीं। यह
तमाशागिरी थी, यह
दाव पर लगती
थी, लग
जाए। और यह भी
वह देख चुका
था कि जो
हजारों लोग
देखने इकट्ठे
हुए थे, जब
बुद्ध आए, तो
उसकी तरफ पीठ
करके खड़े हो
गए। तो
मनोरंजन से
मनोभंजन बड़ा
है, इसका
प्रत्यक्ष
साक्षात्कार
हो गया।
और
उसने भी देखी
होगी, बुद्ध
की यह महिमा; बुद्ध का यह
रूप; बुद्ध
का यह प्रसाद;
बुद्ध के
साथ चलती यह
शांति की हवा,
यह आनंद की
लहर, यह
सुगंध! क्षण
में बुद्ध का
हो गया। उसी
क्षण भिक्षु
हो गया। सोचा
भी नहीं। यह
भी न कहा कि कल
आऊंगा। कल कभी
आता भी नहीं।
यह भी न कहा कि
सोचने का थोडा
मौका दें।
नहीं; उतरा
रस्सी से और
चरणों में गिर
गया। उस गिरने
में ही
क्रांति घट
गयी। ऐसा जो
समर्पण कर सकता
है—एक क्षण
में—बुद्धि को
बिना बीच में
लाए, उसका
हृदय से हृदय
का संबंध जुड
जाता है।
वह
बुद्ध का हो
गया। बुद्ध
उसके हो गए।
जब मरा तो
अर्हत्व को
पाकर मरा।
अर्हत्व का
अर्थ होता है.
जिसका ध्यान
समाधि बन गया, अर्हत
हो गया जो।
जिसके सारे
शत्रु नष्ट हो
गए। काम, क्रोध,
मोह, लोभ,
तृष्णा—सब
समाप्त हो गए।
जिसके सब
शत्रु समाप्त
हो गए, जो
सब के पार आ
गया। ऐसे
व्यक्तित्व
को अर्हत्व
कहा जाता है।
अर्हत परम दशा
है।
शास्त्र
कहते हैं. वह
सच ही परम
नट—विद्या को
उपलब्ध होकर
मरा। बुद्ध ने
जो वचन दिया
था,
वह पूरा
किया गया था।
बुद्ध
के वचन खाली
नहीं जाते
हैं। जिनमें
हिम्मत है
उनके साथ चलने
की,
वे निश्चित
पहुंच जाते
हैं।
ओशो
एस धममो
सनंतनो
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