तरूण भिक्षु स्त्री आग्रह पर चीवर छोड़ना (एस धम्मो सनंतनो)
भगवान जेतवन में विहरते थे। एक तरुण भिक्षु पर एक स्त्री मोहित होकर उसे गृहस्थ बनाने के लिए नाना प्रकार के प्रलोभन। वह भिक्षु अंतत: उसकी बातों में आकर चीवर छोड़कर गृहस्थ हो जाने के तैयार हो गया। भगवान यह सब चुपचाप देखते रहे थे। जब युवक गिरने को ही हो गया तब उन्होंने उसे पास बुलाया और कहा. स्मृति को सम्हाल! होश को जगा? पागल ऐसे ही तो पूर्व में भी तू गिरा है और बार— बार पछताया है। अब फिर वही! भूलों से कुछ सीख! स्मृति को सम्हाल. और तब उन्होंने ये दो गाथाएं कहीं :
वितक्कपमथितस्स
जंतुनो तिब्बरागस्स
सुभानुपास्सिनो।
भिय्यो
तण्हा
पबड्ढति एसो
खो दल्हं
करोति बंधनं
।।
वितक्कूपसमें
च यो रत्तो
असुभं भावयति
सदा सतो।
एस
खो व्यन्तिकाहिनी
एसच्छेच्छति
मारबंधनं ।।
'जो
मनुष्य संदेह
से मथित है, और तीव्र
राग से युक्त
है, शुभ ही
शुभ देखने
वाला है, उसकी
तृष्णा और भी
बढ़ती है। और
वह अपने लिए
और भी दृढ़
बंधन बनाता
है।'
'जो मनुष्य
.संदेह के
शांत हो जाने
में रत है, सदा
सचेत रहकर जो
अशुभ की भावना
करता है, वह
मार के बंधन
को छिन्न
करेगा और
तृष्णा का विनाश
करेगा।’ इसके
पहले कि हम
गाथाओं में
उतरें, इस
परिस्थिति को
ठीक से समझ
लें। ये
परिस्थितियां
मनुष्य के मन
की ही
परिस्थितियां
हैं। इन
परिस्थितियों
में मनुष्य के
मन में उठने वाले
संदेहों का ही
विश्लेषण है।
ऐसा
अक्सर हो जाता
है। जितना
दुर्लभ हो
व्यक्ति, उतना
ही आकर्षक हो
जाता है।
संन्यस्त
व्यक्ति
अक्सर आकर्षण
का कारण बन
जाता है।
स्त्रियों के
पीछे तुम भागो,
तो वे तुमसे
बचती हैं। तुम
स्त्रियों से
भागो, तो
वे तुम्हारा
पीछा करती
हैं! यही बात
पुरुष के
संबंध में भी
सच है। स्त्री
अगर पुरुष से
भागने लगे, तो पुरुष
उसका पीछा
करता है।
स्त्री अगर
पुरुष के पीछे
चलने लगे, तो
पुरुष उससे
भागने लगता
है।
मनुष्य
का मन बड़े
द्वंद्व से
भरा है! एक
हमेशा पीछा करेगा, और
एक हमेशा
भागता हुआ
रहेगा। ऐसे
आकर्षण कायम
रहता है।
प्रकृति की
बड़ी गहन रचना
है। जो मिल
जाए, उसमें
आकर्षण
समाप्त हो
जाता है। जो न
मिले, तो
आकर्षण बना
रहता है।
स्त्रियों
का आकर्षण उसी
मात्रा में
ज्यादा होगा, जिस
मात्रा में
उनका पाना
कठिन हो।
पुरुषों का
आकर्षण भी उसी
मात्रा में
ज्यादा होगा,
जिस मात्रा
में उन तक
पहुंचना
करीब—करीब
असंभव हो।
असंभव से
प्रेम कभी
मरता नहीं।
संभव से प्रेम
मर जाता है।
क्योंकि जो
मिला, उसमें
आकर्षण
समाप्त हुआ।
जो न मिले—न
मिले—उसमें ही
आकर्षण होता
है।
संन्यस्त
व्यक्ति
अक्सर—सदियों
से—स्त्रियों
का आकर्षण हो
गए हैं।
इस
भिक्षु
पर—युवा
भिक्षु पर—एक
स्त्री मोहित हो
गयी।
और
संन्यासी पर
मोहित हो जाने
का एक कारण
अन्य भी है।
संन्यास में
एक तरह का
सौंदर्य है, जो
संसारी में
नहीं हो सकता।
संसार
को छोड़कर जो
हटता है, उसके
संसार को
छोड़कर हटने
में ही वह
विशिष्ट हो
गया, असाधारण
हो गया। जो
ध्यान में
लगता है, उसके
भीतर एक
प्रसाद का
जन्म होता है।
एक
तो सौंदर्य
देह का है। एक
देह से पार
सौंदर्य और भी
है—आत्मा का
सौंदर्य है।
और जिसकी आत्मा
का सौंदर्य
थोडा सा भी
खिलने लगे, उसकी
देह कुरूप भी
हो, तो भी कुरूप
मालूम नहीं
होगी। जैसे
बुझा दीया हो,
तो तुम्हें
दीया दिखायी
पड़ता है। फिर
जल गया दीया, ज्योतिर्मय
हो गया, तो
ज्योति
दिखायी पड़ने
लगती है। फिर
दीए को कोन
देखता है! फिर
दीया सुंदर है
या नहीं, यह
बात गौण हो
जाती है। दीया
सुंदर है या
नहीं—तब तक
बात बड़ी महत्वपूर्ण
रहती है, जब
तक दीया बुझा
हो। क्योंकि
दीया ही है, और तो कुछ है
ही नहीं। जैसे
ही दीया जला, ज्योति का
अवतरण हुआ, अब कोन दीए
की चिंता करता
है?
ऐसी
ही घटना
संन्यासी को
भी घटती है।
संसारी के पास
तो देह मात्र
है;
मिट्टी का
दीया है; ज्योति
अभी जगी नहीं।
संन्यासी की
ज्योति कानी
शुरू होती है।
उस ज्योति के
अवतरण पर दीया
गौण हो जाता
है। महत्वपूर्ण
आ गया, तो
स्वभावत: जो
गैर—महत्वपूर्ण
है, वह गौण
हो गया। मालिक
आ जाए, तो
नौकर गौण हो
जाता है।
मालिक न हो, तो नौकर ही
मालिक जैसा
मालूम पड़ता
है।
संन्यास
में एक आकर्षण
और भी है
इसीलिए। भीतर
का आकर्षण है।
संन्यासी एक
आंतरिक
सौंदर्य से
दीप्त हो जाता
है,
एक आभामंडल
उसे घेर लेता
है।
और
ध्यान रहे, जैसा
मैं निरंतर
तुमसे कहा हूं
: मनुष्य
वस्तुत:
शाश्वत की खोज
में ही प्रेम
मैं पड़ता है।
तुम जब किसी
स्त्री के
प्रेम में
पड़ते या किसी पुरुष
के प्रेम में
पड़ते, तो
ऊपर से तो ऐसा
ही दिखता है
कि इस स्त्री
के प्रेम में
पड़ रहे, इस
पुरुष के
प्रेम में पड़
रहे, लेकिन
अगर ठीक
विश्लेषण करो
अपनी मनोदशा
का, तो
तुम्हें इस
स्त्री में
कुछ शाश्वत की
झलक मिली—इसलिए।
इस पुरुष में
तुम्हें
सनातन का कोई
स्वर सुनायी
पड़ा—इसलिए। इस
स्त्री की
आंखों में तुम्हें
कुछ बात
दिखायी पड़ी, जो आंखों के
पार की है।
इसके सौंदर्य
में भनक मिली
तुम्हें
परमात्मा की।
तो
संसारी में तो
बहुत धीमी
ध्वनि होती है
परमात्मा की, हजार
पर्तों में
दबी होती है।
संन्यासी का
अर्थ ही यही
है कि जिसने
पर्तें
उघाड़नी शुरू
कर दीं और
जिसका संगीत धीरे
— धीरे प्रगाढ़
होने लगा।
उसके पास
जाओगे, तो
उसके अंतरतम
के संगीत में
मोहित हो ही
जाओगे।
यह
बिलकुल
स्वाभाविक
है। क्योंकि
मनुष्य का प्रेम
वस्तुत:
परमात्मा के
लिए है। जब
तुम किसी के
देह में भी
उलझ जाते हो, तब
भी तुम
परमात्मा की
ही खोज में
उलझते हो।
इसलिए हर बार
देह में उलझकर
पछताते हो।
क्योंकि जो सोचा
था? वह तो
मिलता नहीं।
और जो मिलता
है, वह
सोचा नहीं था।
सोचा तो था कि
विराट मिलेगा,
कम से कम
विराट का
द्वार
मिलेगा।
लेकिन जो मिलता
है, वह
दीवार है। जो
मिलता है, वह
क्षणभंगुर
है।
जब
तुम फूल के
सौंदर्य में
अवाक खडे रह
जाते हो, तब यह
क्षणभंगुर
फूल के
सौंदर्य में
तुम अवाक नहीं
हुए हो। इस
क्षणभंगुर
में कोई किरण
दिखायी पड़ी है,
जो
क्षणभंगुर
नहीं है। इस
क्षणभंगुर पर
कोई आभा उतरी
है, जो
अनंत है, शाश्वत
है। यह
क्षणभंगुर उस
शाश्वत आभा से
दीप्त हो उठा
है, इसलिए क्षणभंगुर
में भी आकर्षण
है। आभा उड़
जाएगी। सांझ
फूल गिर जाएगा
झरकर धूल में।
फिर तुम इसे प्रेम
न करोगे।
जब
युवा होते हैं
लोग,
तब
परमात्मा की
झलक बडी साफ
होती है। फिर
जैसे —जैसे
वृद्ध होने
लगते हैं, देह
जड़ होने लगती
है, देह
मरने के करीब
आने लगती है, वैसे —वैसे
परमात्मा की
झलक कम होने
लगती है। इसलिए
यौवन का
आकर्षण है।
संन्यासी
का आकर्षण और
भी ज्यादा है।
क्योंकि
संन्यासी सदा
युवा है।
इसलिए तुमने
देखा. हमने
बुद्ध, महावीर,
कृष्ण, राम
की कोई
वार्धक्य, वृद्धावस्था
की मूर्तियां
नहीं बनायीं।
उनका कोई
चित्र नहीं है
हमारे पास।
के
तो वे जरूर
हुए थे। नियम
किसी की चिंता
नहीं करता।
राम भी के हुए; कृष्ण
भी बूढ़े हुए; बुद्ध और
महावीर भी के
हुए; लेकिन
हमने उनके
बुढ़ापे के
चित्र नहीं
बनाए। क्योंकि
हमने उनमें
पाया कि
क्षणभंगुर
गौण था, शाश्वत
प्रधान था।
हमने उनमें एक
ऐसा यौवन देखा,
जो कभी
कुम्हलाता
नहीं। हमने
उनकी देह की
चिंता नहीं की,
क्योंकि
दीए की कोन
फिक्र करता है
जब रोशनी उतर
आए! हमने उनकी
भीतर की रोशनी
की फिकर की।
साधारणजन
के पास तो
रोशनी नहीं है, दीया
ही सब कुछ है।
इसे तुम खयाल
करना। इस तथ्य
के तुम करीब
कई बार आओगे।
संन्यासी
में जो
तुम्हें
आकर्षण मालूम
होता है, उसके
प्रति झुक
जाने का जो
भाव होता है, उसके प्रेम
में पग जाने
की जो
आकांक्षा
होती है, वह
इसीलिए है।
क्षुद्र
कारण चाहे
दिखायी पड़ते
हों,
लेकिन हर
क्षुद्रता के
भीतर विराट
छिपा है। अगर
कण—कण में
परमात्मा है,
तो
क्षुद्रता
में भी विराट
है।
एक
तरुण भिक्षु
पर बुद्ध के, एक
स्त्री मोहित
होकर उसे
गृहस्थ बनाने
के नाना
प्रकार के
प्रलोभन दिए।
दूसरी
मन की बात
समझो अब यह
स्त्री
प्रभावित हुई
है वस्तुत:
इसके संन्यास
के सौंदर्य
से। और बनाना
चाहती है इसे
गृहस्थ। जैसे
ही यह गृहस्थ
हो जाएगा, यह
सौंदर्य खतम
हो जाएगा।
इसलिए
अक्सर हम अपने
पैरों पर खुद
ही कुल्हाडी
मारते हैं। वह
हमें दिखायी
नहीं पड़ता। हम
वही कर लेते
हैं,
जिससे
हमारा बनाया
हुआ मंदिर गिर
जाएगा। तुम्हें
एक स्त्री में
सौंदर्य
दिखायी पड़ता
है, क्योंकि
वह अभी
स्वतंत्र है।
हवा की तरंग
की तरह है, तुम्हारे
बंधन में नहीं
है। उसकी
स्वतंत्रता
में ही उसका
अल्हड़पन है।
फिर तुमने
उसको बांधा
विवाह में, कानून में, घर में लाकर
बंद कर दिया।
अब तुम्हारा
उसमें रस कम
होने लगे, तो
आश्चर्य नहीं
है। क्योंकि
तुम्हारे रस
का एक बुनियादी
कारण था—उसका
अल्हड़पन, उसकी
मुक्ति, उसका
सौंदर्य, उसकी
स्वतंत्रता
में था।
जैसे
तुमने आकाश
में उड़ते एक
पक्षी को देखा
और तुम
आकर्षित हो
गए। फिर तुम
उस पक्षी को
बांधे, पकड़े,
चाहे सोने
के पिंजड़े में
लाकर रखो, लेकिन
आकाश में उड़ता
हुआ पक्षी बात
ही और। सोने के
पिंजड़े में
बैठा पक्षी
बात ही और। ये
दो अलग पक्षी
हो गए। ये एक
ही पक्षी नहीं
.हैं। अब तुम्हें
पिंजड़े में
बंद इस पक्षी
में वह रस
नहीं मालूम
होता, जो
जब उसने पंख
फैलाए थे सूरज
की तरफ, तब
मालूम हुआ था।
तुमने अपने
हाथ से हत्या
कर दी।
एक
गुलाब का फूल
खिला। खूब
सुंदर था। तुम
जल्दी से तोड़
लिए। थोड़ी ही
देर में
तुम्हारे हाथ
में कुम्हला
जाएगा। थोड़ी ही
देर में तुम
रास्ते के
किनारे
फेंककर अपने मार्ग
पर चले जाओगे।
क्या हुआ!
सुंदर था फूल, अपूर्व
सुंदर था।
लेकिन उसके
सौंदर्य में
जो जीवंतता थी,
वह
तुम्हारे
तोड्ने में ही
नष्ट हो गयी।
जो
व्यक्ति
फूलों को
प्रेम करता है, तोड़ेगा
नहीं। जो
व्यक्ति किसी
को प्रेम करता
है —स्त्री हो
या पुरुष—उस
पर बंधन न
डालेगा। जो
किसी पक्षी को
प्रेम करता है,
वह पिंजड़ों
में उसे बंद
नहीं करेगा।
लेकिन अक्सर
हम यही करते
हैं। आदमी ऐसा
मूढ़ है, अपने
आनंद को अपने
ही हाथों नष्ट
कर लेता है!
तुम
देखना अपने
जीवन में। तुम
रोज—रोज इसके
प्रमाण
पाओगे। इसलिए
मैं कहता हूं :
ये छोटी—छोटी
कहानियां बड़ी
अर्थपूर्ण
हैं। इनके
भीतर मनुष्य
का पूरा का
पूरा
मनोविज्ञान
छिपा है।
यह
स्त्री
आकर्षित हो
गयी है।
दुनिया में
इतने लोग हैं, एक
संन्यासी पर
आकर्षित होने
की जरूरत
क्या! कोई
लोगों की कमी
है? जो
संसार छोड़कर
चला गया है, उसे क्षमा
करो, उसे
जाने दो! जो
अपने भीतर डूब
रहा है, उसे
मत खींचो
बाहर।
लेकिन
नहीं; जो अपने
भीतर डूब रहा
है, उसमें
अपूर्व
आकर्षण मालूम
होता है। उसकी
गहराई बढ़ जाती
है। उसके
व्यक्तित्व
में एक गरिमा
आ जाती है।
उसमें कुछ जुड़
जाता है जो
संसार से बाहर
का है। उसमें
पारलौकिक की
थोड़ी सी छबि
उतर आती है।
मगर
तब यह स्त्री
उसे प्रलोभन
देने लगी—कि
क्यों भटकते
हो?
क्यों भीख
मांगते हो? मैं तो हूं!
सब सुविधा है,
सब
संपन्नता है। महल
है, धन
है—सब
तुम्हारा है।
तुम
द्वार—द्वार
भीख मांगो, मुझे बड़ा
कष्ट होता है।
तुम आ जाओ
मेरे पास। हम
विवाहित
होंगे। और
जैसा
कहानियों में
होता है—विवाह
हो गया, फिर
सदा सुखी
रहेंगे!
कहानियों
में ही होता
है ऐसा। या
फिल्मों में होता
है। फिल्म खतम
हो जाती है अक्सर।
शहनाई बज रही, बाजे
बज रहे, विवाह
हो रहा है, फिल्म
खतम! क्योंकि
उसके बाद फिर
दोनों सुख से
रहने लगे!
जिंदगी
में हालत उलटी
है। उसके बाद
ही दुख शुरू
होता है
—शहनाई के बाद!
पहले शहनाई
बजती है, फिर
दुख बजता है।
विवाह के बाद
जीवन में दुख
की शुरुआत है।
जब एक व्यक्ति
सुखी नहीं हो
सका अकेले में,
तो दो दुखी
मिलकर दुख को
दुगुना
करेंगे, बहुगुना
करेंगे, कम
नहीं कर सकते।
दो बीमारियां
जुड़ गयीं, दुगुनी
हो गयी—या
अनतगुनी हो
जाएंगी।
गुणनफल हो
जाएगा। मगर कम
नहीं हो
सकतीं।
अकेला
आदमी जरूर
थोड़ा दुखी
होता है, क्योंकि
अकेला होता
है। मगर
विवाहित आदमी
के दुख का
उसको कुछ भी
पता नहीं है।
सभी विवाहित
लोग पछताते
हैं कि अकेले
ही क्यों न रह
गए! मगर अब बड़ी
देर हो चुकी।
अब अकेले होने
का उपाय नहीं
है।
सब
अविवाहित
चिंता करते
हैं कि कब तक
अविवाहित
रहना है! कब तक
अकेले रहना है?
यह
दुनिया बडी
अजीब है! यहां
अविवाहित
विवाह की
सोचता है।
यहां विवाहित
अविवाह की
सोचता है।
यहां जो जहां
है,
वहीं नहीं
रहना चाहता, कहीं और
होना चाहता
है। कोई कहीं
सुखी नहीं है।
कहीं और सुख
होगा; कहीं
और ही हो सकता
है। यहां तो
निश्चित ही नहीं
है।
तुम
जहां हो, वहां
सुख नहीं है।
और जो व्यक्ति
सुख चाहता है,
उसे वहीं
सुखी होना
पड़ता है जहां
है। संन्यास की
यही
अर्थवत्ता
है। संन्यास
का अर्थ है : इस क्षण
सुखी, जैसे
हैं, उसमें
सुखी। जहां
हैं, वहां
सुखी। अन्यथा
की माग का न
होना ही
तृष्णा का
विसर्जन है।
इसलिए
संन्यासी में
एक अपूर्व
शुद्धता
झलकने लगती
है। उसकी
आंखों में एक
शांति झलकने
लगती है। उसके
पास भी बैठोगे, तो
उसकी शांति
तुम्हें
छुएगी। उसकी
शांति तुम से
दुलार करेगी।
उसकी शांति
तुम्हारे
आसपास बहेगी।
यह
स्त्री इस
संन्यासी के
मोह में पड़
गयी। उसे सब
तरह के
प्रलोभन देने
लगी। धन था उसके
पास;
पद था उसके
पास, महल
था उसके पास।
वह कहती होगी
कि तुम्हें
मैं इतना
प्रेम करती, तुम्हारे
पैर दबाऊंगी।
तुम मेरे
मालिक, तुम
मेरे स्वामी।
तुम क्यों भीख
मांगो! क्यों नंगे
पैर रास्तों
पर भटको! यह
महल तुम्हारा;
यह सब
तुम्हारा।
तुम यहां आ
जाओ।
ऐसी
हजार चिंताएं—जैसे
तुम्हें
पकड़ती हैं—उसे
पकड़ी होंगी।
हजार विचार
उसे आए होंगे
कभी बीमार
होऊंगा, कभी
का होऊंगा, फिर कोन
मेरी चिंता
करेगा? फिर
कोन मुझे भोजन
देगा? कोन
मेरे पैर
दबाएगा? यह
सुंदर प्यारी
स्त्री सब
समर्पित करने
को राजी है।
इसका समर्पण
तो देखो! इसका
त्याग तो
देखो! इसका
प्रेम तो
देखो! ऐसे
बहुत—बहुत प्रलोभन
उसके मन में
पड़े होंगे। और
बहुत तरंगें उसके
मन में उठी
होंगी।
बुद्ध
चुपचाप देखते
रहे थे।
सदगुरु तभी
रोकता है, जब
तुम अपने से न
रुक पाओ। जब
तक तुम अपने
से रुक सकते
हो, सदगुरु
न रोकेगा।
क्योंकि
सदगुरु का आत्यंतिक
अर्थ यही है
कि तुम्हें
जितनी
स्वतंत्रता
दी जा सके, दी
जाए।
स्वतंत्रता
में निश्चित
ही गिरने की
स्वतंत्रता
भी सम्मिलित
है। ऐसी तो
कोई
स्वतंत्रता हो
ही नहीं सकती, जिसमें
हम कहें कि
ऊपर चढ़ो तो
स्वतंत्र, गिरो
तो स्वतंत्र
नहीं!
स्वतंत्रता
तो दोनों की
होती है —शुभ
की, अशुभ
की।
और
बुद्ध ने
परिपूर्ण
स्वतंत्रता
दी थी अपने भिक्षुओं
को। वे अपूर्व
सदगुरु थे। वे
देखते रहे।
देखते रहे, कई
कारणों से। एक
तो हर
छोटी—छोटी बात
में बाधा देनी
उचित नहीं है।
और हर
छोटी—छोटी बात
में बाधा दी
जाए, तो
व्यक्ति का
विकास रुकता
है। उसे सोचने
दो। उसे चिंतन
करने दो। उसे
गुजरने दो परेशानियों
से, उसे
चुनौतियों का
सामना करने
दो।
जैसे
मां देखती
रहती है अपने
बच्चे को—कि
वह चल रहा है, खड़ा
हो रहा है। एक
नजर से ध्यान
रखती है। अपने
काम में भी
लगी रहती है।
ऐसा भी ज्यादा
ध्यान नहीं
देती कि बच्चे
को ऐसा लगे कि
मा चौबीस घंटे
उसके पीछे पड़ी
है। पर देखती
रहती है
चुपचाप. कहीं
गिर न जाए; कहीं
आयन से नीचे न
उतर जाए; कहीं
सड़क पर न चला
जाए; कहीं
आग के पास न
पहुंच जाए; कुछ खतरा न
हो जाए। और तब
तक देखती रहती
है, जब तक
कि खतरा हो ही
न जाए, होने
के ही करीब न
पहुंच जाए।
अन्यथा
चुपचाप रहती
है, चलने
—फिरने देती
है। नहीं तो
बच्चा चलेगा
कैसे? खड़ा
कैसे होगा? जीवन के
योग्य कैसे
बनेगा?
ऐसा
ही सदगुरु है।
बुद्ध
देखते रहे। सब
पता है, क्या
हो रहा है। इस
युवक के मन
में कैसी
चिंताएं चल
रही हैं, कैसे
—कैसे प्रलोभन
इसे पकड़ रहे
हैं। यह
पिंजड़े में
जाने को किस
तरह आतुर हुआ
जा रहा है।
लेकिन बुद्ध
इस आशा में
रुके हैं कि
यह अपने से
रुक जाए, तो
महाशुभ है।
क्योंकि जब
तुम अपने से
रुकते हो, तब
तुम्हारे
जीवन में
क्रांति घटित
होती है। जब
कोई तुम्हें
रोक लेता है, तो क्रांति
नहीं घटित
होती।
जब
तुम अपने से
रुकते हो, तो
तुम्हारा बोध
बढ़ता है। जब
तुम अपने से
एक भूल से
बचते हो, तो
तुम्हारे
जीवन में
ऊंचाई आती है,
तुम पहाड़
थोड़ा और ऊपर
चढ़ गए। जब कोई
दूसरा तुम्हारे
हाथ को पकड़कर,
सहारा देकर,
ऊंचा चढ़ा
देता है
—ऊंचाई पर तो
पहुंच जाते हो,
लेकिन यह
ऊंचाई उधार होती
है। और सदगुरु
नहीं चाहता कि
शिष्यों की ऊंचाई
उधार हो।
बुद्ध
ने कहा है
बुद्धपुरुष
तो केवल इशारा
करते हैं, चलना
तो तुम्हीं को
पड़ता है।
इसलिए जब
मजबूरी हो
जाती है, तभी,
अत्यंत
विवश अवस्था
में सदगुरु
टोकता है। फिर
भी टोकना
टोकने जैसा
नहीं होता।
बुद्ध
ने उससे यह
नहीं कहा कि
तू ऐसा मत कर।
कोई आदेश नहीं
दिया। आशा
नहीं दी कि
पाप में पड़ेगा, नर्क
जाएगा। ऐसा मत
कर। उसे भयभीत
भी नहीं किया।
सिर्फ होश
सम्हालने के
लिए थोड़ी सी
चेतावनी दी—कि
थोड़ा जाग। फिर
जागकर भी तुझे
ऐसा ही लगे
करना, तो
जरूर कर।
क्योंकि मैं
कोन हूं तुझे
रोकने वाला।
तेरी जिंदगी
तेरी है। तेरा
भविष्य तेरा
है। तेरी
नियति तेरी
है। लेकिन तुझे
प्रेम करता
हूं —इतनी
चेतावनी मेरी
तरफ से, इतनी
सलाह मेरी तरफ
से। ले तो ठीक,
न ले तो
मेरी मर्जी।
वह
भिक्षु धीरे—
धीरे अतत:
उसकी बातों
में आकर चीवर
छोड़कर
गृहस्थ हो
जाने के लिए
तैयार हो गया।
अंततः
शब्द पर ध्यान
देना। उसने
बहुत देर तक लड़ाई
की। बहुत अपने
को रोकना
चाहा। ऐसे
जल्दी राजी
नहीं हो गया।
एकदम से राजी
नहीं हो गया।
स्त्री ने
पुकारा, और चल
नहीं पड़ा उसके
पीछे। जद्दो
—जहद की, सब
तरह से अपने
को सम्हालने
की कोशिश की।
इसलिए
बुद्ध और भी
चुप रहे।
देखते थे कि
वह कोशिश में
लगा है। अपने
से सम्हालने
की कोशिश में
लगा है। बचने
की चेष्टा
जारी है। काश!
अपने से बल जाए, तो
वे कभी न बोले
होते। अपने से
रुक गया होता,
तो बुद्ध ने
ये वचन न कहे
होते। ये
गाथाएं पैदा न
हुई होतीं।
अंततः
नहीं रोक
पाया।
प्रलोभन और
वासना प्रगाढ़
हो गयी। सुरक्षा, सुविधा
ज्यादा
बहुमूल्य
मालूम होने
लगे स्वतंत्रता
की बजाय।
स्वयं के भीतर
जाने की बजाय बाहर
की थोडी सी
सुविधाएं
ज्यादा
मूल्यवान मालूम
होने लगीं। जब
बुद्ध ने देखा
होगा कि अब तराजू
का ढंग बदल
रहा है, जो
पलड़ा अब तक
भारी था, कम
भारी हुआ जाता
है, जो अब
तक कम भारी था,
भारी हुआ
जाता है, इसका
चित्त डोल रहा
है; इसका
चित्त संसार
की तरफ बहा जा
रहा है।
जब
यह बात बिलकुल
पक्की हो गयी
होगी बुद्ध को
कि अब अगर एक
क्षण और देर
की गयी, तो
शायद फिर बहुत
देर हो जाएगी।
तब उन्होंने उस
युवक को अपने
पास बुलाया।
उससे कहा.
स्मृति को
सम्हाल।
इन
वचनों को खयाल
में रखना।
निंदा नहीं
की। डांटा
—डपटा नहीं।
अपराधी नहीं
ठहराया। तू
पाप करने जा
रहा है, महापाप
करने जा रहा
है, तुझे
नर्क की अग्नि
में जलाया
जाएगा—इस तरह
के भय नहीं
दिए। दंड की
घबड़ाहट पैदा
नहीं की। कहा
क्या? बड़े
मीठे शब्द कहे
स्मृति को
सम्हाल।
स्मृति
बुद्ध का अपना
विशिष्ट शब्द
है। स्मृति का
ठीक वही अर्थ
होता है, जो
मध्ययुग में
संतों ने
सुरति का
किया। सुरति
स्मृति का ही
बिगड़ा हुआ रूप
है। कबीर कहते
हैं. सुरति।
नानक कहते हैं
सुरति। सुरति
को सम्हालो।
क्या है सुरति?
क्या है
स्मृति?
तुम
जो स्मृति का
अर्थ समझते हो, वैसा
मत समझ लेना।
वह बुद्ध का
अर्थ नहीं है।
तुम्हारा तो
अर्थ होता है
स्मृति
से—मेमोरी, याददाश्त, अतीत की
याददाश्त। हम
कहते हैं फलां
आदमी की स्मृति
बड़ी अच्छी है,
क्योंकि वह
सैकड़ों लोगों
के नाम याद रख
लेता है। जो
किताब एक दफा
पढ़ता है, भूलता
ही नहीं। जो
फोन नंबर एक
दफे याद कर
लिया वह याद
सदा के लिए हो
गया।
तीस—चालीस साल
के बाद भी
पूछोगे, तो
वह फोन नंबर
बता देगा।
जिसकी
याददाश्त अच्छी
होती है, उसको
हम कहते
हैं—स्मृतिवान।
बुद्ध
का वैसा अर्थ
नहीं है।
बुद्ध के
स्मृति का
अर्थ मेमोरी
नहीं है, माइंडफुलनेस
है। स्मृति का
अर्थ है जागा
हुआ, स्मरण
को उपलब्ध।
अतीत की
स्मृति नहीं,
वर्तमान की
स्मृति। अभी
मैं क्या कर
रहा हूं अभी
मुझ से क्या
हो रहा है—यह
होशपूर्वक
करने का नाम
स्मृति है
बुद्ध के
वचनों में।
बुद्ध
ने कहा.
स्मृति को
सम्हाल! होश
को जगा। पागल।
पापी
नहीं कहा
बुद्ध ने, कहा
पागल। फर्क
समझना।
साधारणत:
तुम्हारे धर्मगुरु
कहेंगे पापी।
पापी में
निंदा हो गयी,
अपमान हो
गया। निंदा और
अपमान से कहीं
कोई रूपांतरित
होता है?
बुद्ध
ने कहा पागल।
पागल सार्थक
शब्द है। पागल
का अर्थ है
यही तो तू
पहले भी किया, बहुत
बार किया। फिर
करने लगा!
पापी
का क्या अर्थ
है?
?च्छइrत
आदमी को क्या
पापी कहना!
बुद्ध गाली
नहीं देते।
बुद्ध
चिकित्सक
हैं। उपचार
करते हैं। उपाय
करते हैं।
अब
बीमार आदमी को
पापी कहने से
क्या फायदा? बीमार
आदमी को उसकी बीमारी
के बाहर लाना
है। उसको हाथ
का सहारा चाहिए।
शायद पापी
कहने से तो तुम्हारे
और उसके बीच
दूरी बढ़
जाएगी। फिर
तुम्हारा हाथ
भी दूर हो
जाएगा। और
शायद पापी
कहने से उसके
अहंकार को तुम
ऐसी चोट
पहुंचा दोगे,
कि वह उसका
प्रतिकार
लेने के लिए
वही कर लेगा, जिसको तुम चाहते
थे कि न करे।
सोच—समझकर
एक—एक शब्द का
उपयोग करना
चाहिए।
बुद्ध
तो एक—एक शब्द
होशपूर्वक
बोलते हैं। कहा.
पागल! ऐसे ही
तू पूर्व में
भी गिरा है।
यह कोई नयी तो
बात नहीं। नयी
होती, तो
क्षम्य भी थी।
तू पहले भी तो
ऐसे गिरा है।
और बार—बार
पछताया है। अब
फिर वही करेगा?
भूल
भी करनी हो, तो
कुछ नयी करनी
चाहिए। तो कुछ
लाभ होता है।
उसी—उसी भूल
को दोहराना, तो जड़ता है।
खयाल
रखना : बुद्ध
कभी नहीं कहते
कि भूल मत करो।
बुद्ध सदा
कहते हैं कि
भूल के बिना
कोई सीखेगा
कैसे! भूल तो
होगी। लेकिन
एक ही भूल को
दुबारा मत
करो। दुबारा
की,
तो फिर
सीखने का उपाय
न रहा। एक बार
करो और सीख लो
उससे, जो
सीखना हो।
निचोड़ ले लो।
और उस निचोड़
के आधार पर
जीवन को
निर्मित करो।
फिर दुबारा
करने का तो
मतलब है कि
सिखावन नहीं
ली।
और
हम तो एक—एक
भूल हजारों
बार करते हैं!
तुमने क्रोध
कल भी किया था, परसों
भी किया था, उसके पहले
भी किया था।
जीवनभर से
क्रोध कर रहे
हो और हर बार
क्रोध करके
सोचा. अब नहीं
करेंगे। बहुत
हो गया। आखिर
बहुत…….। एक
सीमा होती है
हर बात की। अब
पक्का निर्णय है,
अब क्रोध
नहीं करेंगे।
और
फिर किसी ने
धक्का दे
दिया। फिर
किसी ने घाव
छू दिया। और
फिर एक क्षण
में तुम
आग—बबूला हो
गए। भूल गए सब
पछतावे; भूल
गए सब वचन जो
तुमने अपने को
दिए। भूल गए
कसमें, जो
तुमने ली थीं।
एक क्षण में
फिर आग भभकी।
फिर वही हो
गया।
ऐसे
अगर तुम
बार—बार
वही—वही करते
रहे,
तो एक
वर्तुल में
घूमते रहोगे।
तुम्हारा जीवन
रूपांतरित
कैसे होगा!
क्रांति कैसे
घटेगी?
तो
बुद्ध ने कहा :
पागल! ऐसे तो
तू पूर्व में
भी गिरा और
बार—बार
पछताया। फिर
वही?
अब फिर वही?
भूलों से
सीख। स्मृति
को सम्हाल।
सुनते
हो इन प्यारे
वचनों को!
इनमें कहीं
निंदा नहीं
है। इनमें
सहारे के लिए
बढ़ाया गया हाथ
है। इसमें
जागरण के लिए
पुकार है।
कहीं कोई
अपमान नहीं
है। कहीं कोई
नर्क का भय
नहीं है। और
कहीं कोई
स्वर्ग का
प्रलोभन नहीं
है।
बुद्ध
ने यह नहीं
किया। बुद्ध
ने सिर्फ इतना
ही कहा सम्हल
जाओ। सम्हलने
में सुख
है—निश्चित। गिरने
में दुख
है—निश्चित।
लेकिन परिणाम
की तरह नहीं।
सम्हलने में
सुख है।
सम्हलने का
स्वभाव सुख
है। और गिरने
में दुख है।
गिरने में चोट
लगती है।
गिरने का
स्वभाव दुख
है।
ऐसा
नहीं कि
गिरोगे, तो
फिर कभी
तुम्हें दुख
मिलेगा
भविष्य में, किसी जन्म
में। और अभी
होश सम्हालोगे,
तो किसी
भविष्य में
स्वर्ग
जाओगे। यह तो
हइ हो गयी
पागलपन की।
लेकिन इसी तरह
की बातें कही
गयी हैं।
अभी
आग में हाथ
डालोगे, अगले
जन्म में
जलोगे। यह
क्या बात हुई?
अभी हाथ
डालोगे, इसी
हाथ के डालने
में जलना हो
जाएगा। अभी
फूल छुओगे, अभी हाथ में
सुगंध आ जाएगी।
ऐसा ही है
जीवन।
जीवन
नगद है, उधार
नहीं। और सब
तुम्हारे
नर्क और
स्वर्ग उधार
हैं। कल्पित
मालूम होते
हैं।
वास्तविक नहीं
मालूम होते।
वस्तुत: तो
यही सत्य है।
तुम जैसा करते
हो अभी, तत्क्षण,
उस करने में
ही उसका फल
छिपा है।
तुमने
किसी की तरफ
करुणा से देखा
और सुख बरसा।
और तुमने किसी
की तरफ क्रोध
से देखा और
दुख बरसा।
परिणाम की तरह
नहीं; क्रोध
में ही दुख
छिपा है। और
प्रेम में ही
सुख छिपा है।
प्रेम
और स्वर्ग एक
ही बात के दो
नाम हैं। क्रोध
और नर्क एक ही
बात के दो नाम
हैं।
बुद्ध
ने कहा? तू
सम्हल। और ये
गाथाएं कहीं—
'जो मनुष्य
संदेह से मथित
है...।'
अब
यह युवक बड़े
संदेह में पड़ा
था. ऐसा करूं, वैसा
करूं? संन्यासी
बना रहूं कि
गृहस्थ हो
जाऊं? क्या
करूं? क्या
न करूं? ऐसा
डोल रहा था
घड़ी के
पेंडुलम की
तरह! जो घड़ी के
पेंडुलम की
तरह डोलता
रहेगा—यह करूं,
वह करूं—जो
ऐसा
अनिश्चित—मना
रहेगा, उसका
जीवन कभी भी
घिर न हो
पाएगा। और
थिरता में
असली राज है।
क्या
ने कहा.
स्थितप्रज्ञ—जिसकी
भीतर की प्रज्ञा
स्थिर हो गयी, वही
महासुख को
उपलब्ध होता
है।
बुद्ध
ने कहा 'जो
मनुष्य संदेह
से मथित है, तीव्र राग
से युक्त है…...।'
राग
शब्द बडा
प्यारा है। इसका
अर्थ होता है, रंग।
कहते हैं न, राग—रंग।
राग का अर्थ
होता है रंग!
जिसकी आंखों
पर रंग चढ़ा है,
वह जिंदगी
को वैसा नहीं
देख पाता, जैसी
जिंदगी है।
जब
तुम किसी
स्त्री के
प्रेम में पड़
जाते हो, या
किसी पुरुष के
प्रेम में पड़
जाते हो, तो
तुम वही नहीं
देख पाते, जो
असलियत है।
तुम वह देखने
लगते हो, जो
तुम कल्पना
करते हो कि
होना चाहिए।
रंग पड़ गया
आंख पर। और जब
रंग पड़ जाता
है, तो कुछ
का कुछ दिखायी
पड़ता है।
जहां सूखे वृक्ष
हैं, वहां
हरियाली
दिखायी पड़ने
लगती है। जहां
हड्डी—मास—मज्जा
के सिवाय कुछ
भी नहीं, वहां
बड़े सौंदर्य
के दर्शन होने
लगते हैं!
जहां सब तरह
की गंदगी भरी
है, वहां
तुम कल्पित
करने लगते हो :
सुगंध। तथ्य दिखायी
नहीं पडते
फिर। फिर
तुम्हारे
सपने तथ्यों
पर हावी हो
जाते हैं।
तो
बुद्ध ने कहा 'जो
तीव्र राग से
युक्त है, शुभ
ही शुभ देखने
वाला है.?।
'और जब राग से
भरे होते हो, तो सब ठीक ही
ठीक दिखायी
पड़ता है। गलत
तो दिखायी ही
नहीं पड़ता है।
और इस संसार
में गलत बहुत है।
ठीक तो न के
बराबर है, शायद
है ही नहीं।
गलत ही गलत
है। लेकिन जब
तुम राग से
भरे होते हो, तो सब ठीक
दिखायी पड़ता
है। जिस चीज
के राग से भर
जाते हो, उसमें
ही ठीक दिखायी
पड़ने लगता
है।
और
ठीक यहां कुछ
भी नहीं है।
यहां ठीक हो
कैसे सकता है? यहां
मृत्यु
प्रतिपल खड़ी
है तुम्हें
घेरे हुए, यहां
ठीक कुछ हो
कैसे सकता है?
यहां सब
क्षणभंगुर
है। पानी के
बबूले जैसा है।
ठीक कुछ हो
कैसे सकता है?
यहां सब आया
और गया, रुकता
कुछ भी नहीं।
यहां सुख संभव
नहीं है; यहां
दुख ही संभव
है। ठीक यहां
कुछ भी नहीं
है।
यह
वचन तुम्हें
हैरानी से
भरेगा। बुद्ध
कहते हैं 'जो
शुभ ही शुभ
देखने वाला है,
उसकी
तृष्णा और
बढ़ती है।'
'जो व्यक्ति
शुभ ही शुभ
देखता, तीव्र
राग से भरा है,
संदेह से
मथित है, उसकी
तृष्णा बढ़ती
है और वह अपने
लिए और भी दृढ़
बंधन बनाता है।'
'जो मनुष्य
संदेह के शांत
हो जाने में
रत है.।'
जो
अपने भीतर यह
पेंडुलम की
तरह घूमते हुए
मन को थिर
करने में लगा
है। संन्यास
थिरता का नाम
है। संन्यास
का अर्थ है :
शांत होना, बहुत
तरह के
द्वंद्वों
में न होना। क्या
करू, क्या
न करू—इसकी
बहुत चिंता
में न होना।
जो हूं ठीक
हूं। जैसा हूं
ठीक हूं। इसी
क्षण सब तरह से
संतुष्ट
होना। फिर
संदेह नहीं
उठते। फिर आकांक्षाए
—वासनाएं नहीं
डोलातीं, फिर
अंधड नहीं
उठते वासना के,
और
तुम्हारे
भीतर कंपन
नहीं होते।
धीरे — धीरे
तुम्हारी ज्योति
थिर होकर जलने
लगती है।
'जो सदा सचेत
रहकर अशुभ की
भावना करता है,
वह मार के
बंधन को छिन्न
करेगा और
तृष्णा का विनाश
करेगा।’
बुद्ध
ने शैतान के
लिए मार शब्द
का उपयोग किया
है। यह मार
शब्द बड़ा
प्यारा है।
अगर इसको ठीक उलटा
करो,
तो राम बन
जाता है।
राम
को पाना है, सत्य
को पाना है, और यह संसार
मार है। यह
राम से बिलकुल
उलटा है। यह
सत्य से
बिलकुल उलटा
है। इसमें जागना
है।
इस
संसार में जो
जागता है, वह
राम की तरफ
सरकने लगता
है। इस संसार
में जो सोया—सोया
चलता है, वह
मार के पंजे
में पड़ता जाता
है, वह
शैतान के
हाथों में
पड़ता जाता है।
और
तब बुद्ध ने
ये वचन कहे
थे।
वितक्कपमथितस्स
जंतुनो तिब्बरागस्स
सुभानुपास्सिनो।
भिय्यो
तण्हा
पबड्ढति एसो
खो दल्हं
करोति बंधनं
।।
वितक्कूपसमें
च यो रत्तो
असुभं भावयति
सदा सतो।
एस
खो व्यन्तिकाहिनी
एसच्छेच्छति
मारबंधनं ।।
ओशो
एस
धम्मो
सनंतनो
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