दिनांक
9 अक्टूबर, 1974.
श्री
ओशो आश्रम,
पूना।
भगवान!
सदगुरु जोशु उस
जगह पर गए
जहां एक
भिक्षु ध्यान
कर रहा था। उन्होंने
भिक्षु से
पूछा, 'जो
है, सो
क्या है?' 'What is, is what?'
भिक्षु
ने अपनी मुट्ठी
उठाई।
जोशु
ने उत्तर दिया, 'जहाज वहां
नहीं रह सकते
जहां पानी
बहुत उथला हो।'
और वे चले
गए।
कुछ
दिनों के बाद सदगुरु जोशु फिर
उस भिक्षु के
पास गए, और उन्होंने
वही प्रश्न
पूछा। भिक्षु
ने पुराने ढंग
से ही उत्तर
दिया।
जोशु
ने कहा, 'अच्छा दिया,
अच्छा लिया,
अच्छा मारा,
अच्छा
बचाया।' 'Well given, well taken,
well Killed, well saved.’और
उन्होंने
भिक्षु को
झुककर प्रणाम
किया।
भगवान!
इस झेन
बोध-कथा का
अभिप्राय
समझाने की कृपा
करें।
रैदास
ने गाया है: 'जस
हरि कहिए तस
हरि नाहीं; है अस जस कछु
तैसा।' जैसा
कहो वैसा सत्य
नहीं। कुछ-कुछ
वैसा है।
कहने
और न कहने के
बीच में सत्य
है। दो पंक्तियों
के बीच में
उसे पढ़ना
पड़ता है।
सीधे-सीधे उसे
कहने का कोई
उपाय नहीं।
क्योंकि शब्द
बड़े छोटे हैं, और सत्य
बहुत विराट
है। और शब्द
बड़े संकीर्ण हैं
और सत्य अनादि
और अनंत है।
फिर शब्द आदमी
के निर्मित
हैं। सत्य
अनिर्मित है।
शब्दों में जो
हम कहते हैं
वह कामचलाऊ
दुनिया के
तथ्य हो सकते
हैं। लेकिन
जिस उदगम से
हमारा जन्म हुआ,
और जिस मूल
स्रोत में हम
पुनः खो
जायेंगे, उसे
हमारा कोई भी
शब्द पकड़ नहीं
पायेगा।
फिर भी
आदमी कोशिश
करता है। और
उस कोशिश में अगर
भीतर सत्य का
अनुभव हुआ हो, तो शब्द में
थोड़ी सी झलक आ
जाती है। और
अगर भीतर सत्य
का अनुभव न
हुआ हो, तो
कोरा शब्द; जैसे तोते
दोहरा रहे हों,
वैसा दोहरा
दिया जाता है।
पंडित
एक तरह का तोतापन
है। जहां
दूसरे के
शब्दों को हम
दोहराते हैं।
जो हम ने
स्वयं नहीं
जाना उसे
बताने का तो
कोई उपाय ही
नहीं है। जो
हम ने स्वयं
जाना है उसे
तक बताना इतना
कठिन है। लेकिन
जाननेवाले के
सामने धोखा न
चलेगा। तुम अगर
उधार शब्द
दोहराओगे, तुम्हारी
आंखें, तुम्हारा
चेहरा, तुम्हारा
होना, सब
खबर दे देगा, कि झूठ है।
वे शब्द
तुम्हारे
ऊपर-ऊपर चिपके
मालूम
पड़ेंगे। वे
तुम्हारे
प्राणों का स्वर
न होंगे।
और अगर
तुमने जाना है, तो तुम्हारा
इशारा सार्थक
हो जाएगा।
पंडित और
प्रज्ञावान
पुरुषों के
शब्दों में
कुछ भी भेद
नहीं, पंडित
और
प्रज्ञावान
पुरुष के
अस्तित्व में भेद
है।
कृष्ण
ने गीता कही
है। तुम भी
वही शब्द
कंठस्थ करके
दोहरा सकते
हो। और
अर्जुनों की
क्या कमी है? वे तुम्हें
कहीं भी मिल
जायेंगे, लेकिन
फिर भी सब
धोखा होगा।
क्योंकि न
अर्जुन की
जिज्ञासा सच
होगी, न
कृष्ण की
अभिव्यक्ति
सच होगी--नाटक
होगा।
कृष्ण
के ही शब्द
तुम दोहराओ।
शब्द तो वही
हैं, लेकिन
तुम कृष्ण
नहीं हो, इसलिए
अर्थ बदल
जाएगा। भाषाकोश
में अर्थ नहीं
बदलेगा, अस्तित्व
के कोश में
अर्थ बदल
जायेगा। अगर
कोई नहीं
जानता, तो
तुम्हारे
शब्द और कृष्ण
के शब्द कान
पर एक ही तरह
की ध्वनि
करेंगे।
लेकिन अगर कोई
जानता है तो
कृष्ण के
शब्दों में जो
सत्य आयेगा, झलक आयेगी, जो स्वर
आयेगा, वह
तुम्हारे
शब्दों में न
आयेगा।
शब्द
तुम दोहरा
सकते हो, अस्तित्व
तुम कैसे
दोहराओगे? कृष्ण
हुए बिना, कृष्ण
के ही शब्द
बोलना असंभव
है। और कृष्ण
हुए बिना, कृष्ण
के शब्द बोलने
की बड़ी तीव्र
वासना होती है।
कम से कम मूढ़ों
को तो धोखा
दिया ही जा
सकता है।
ज्ञानी है ही
कहां, जिससे
कुछ भय की
जरूरत हो?
यही सब
इस छोटी सी
कथा में है।
इसके एक-एक
शब्द को
बारीकी से
समझने की
कोशिश करें।
सदगुरु जोशु उस
जगह गए जहां
एक भिक्षु
ध्यान कर रहा
था। उन्होंने
भिक्षु से
पूछा, 'जो है,
सो क्या है?'
'ूीज पे पे ूीज?'
यह झेन
परंपरा का
गहरा प्रश्न
है।
'जो
है वह क्या है?'
झेन
परंपरा
परमात्मा
शब्द का उपयोग
नहीं करती।
क्योंकि वह
शब्द झूठा हो
गया है। और
उसे इतने ओठों
ने दुहराया है, और इतने गलत
लोगों ने इसका
उपयोग किया है,
कि वह शब्द
गंदा हो गया
है। जैसे कपड़े
भी बहुत पहनने
से गंदे हो
जाते हैं, ऐसे
शब्द भी बहुत
दोहराने से
गंदे हो जाते
हैं। और गलत
लोगों के मुंह
से अगर शब्द
दोहराया जाता
रहे तो गलत
लोगों की
ध्वनि भी उस
शब्द में प्रविष्ट
हो जाती है।
झेन, परमात्मा
शब्द का उपयोग
नहीं करता।
आत्मा शब्द का
उपयोग नहीं
करता। झेन उन
सब शब्दों से
बचना चाहता है
जो परंपरा से
बोझिल हैं।
जिन में अतीत
की बहुत धूल
जम गई है।
इसलिए झेन परमात्मा
की जगह यह
प्रश्न उठाता
है, 'जो
है...दैट व्हिच इज--वह क्या
है?' यह
प्रश्न यही
पूछ रहा है कि
परमात्मा
क्या है? अस्तित्व
क्या है? लेकिन
'जो है, वह
क्या है', यह
ज्यादा शुद्ध
प्रश्न है।
जैसे
ही हम कहते
हैं, परमात्मा
क्या है? कोई
तस्वीर उठनी
शुरू हो जाती
है। मन कोई
आकार बना लेता
है। क्योंकि
बचपन से हमें
आकार सिखाये
गए हैं। कोई
कृष्ण का भक्त
है, कोई
राम का, कोई
बुद्ध का।
जैसे ही कहा
परमात्मा, कि
कृष्ण के भक्त
के मन में
बांसुरी
बजाते हुए
कृष्ण खड़े
हुए। जैसे ही कहा
परमात्मा, कि
राम के भक्त
के मन में धनुषबाण
लिए हुए राम
खड़े हुए। रूप
आ जाता है। उन
शब्दों के साथ
रूप जुड़ गया
है। वह संबंध
बड़ा गहरा हो गया
है। उसे तोड़ना
बहुत मुश्किल
है। राम कहो, और दशरथ के
राम न आयें मन
में, बहुत
मुश्किल है।
इसलिए
झेन कहता है
कि रूपवाची, सगुण शब्दों
का उपयोग ही
मत करो। 'जो
है' इससे
कोई रूप नहीं
बनता।
अस्तित्व
निराकार है।
उसकी कोई सीमा
नहीं। और
अस्तित्व
इतना विराट है
कि शब्द सुन
कर तुम्हारा
मन कोई भी
प्रक्षेप न कर
सकेगा। 'अस्तित्व'
कोरा शब्द
है। इसलिए झेन
कहता है 'जो
है, वह
क्या है?' भक्त
की भाषा में
यही प्रश्न बन
जायेगा, 'परमात्मा
क्या है?'
जोशु
एक सदगुरु
है। और जापान
में जिन लोगों
ने बड़ी ऊंचाइयां
पायीं उन
थोड़े से लोगों
में से एक है।
एक फकीर ध्यान
कर रहा है।
लेकिन
ध्यान भी जब
तुम करते हो, तब भी बड़े
फर्क होते
हैं। नासमझ जब
ध्यान करता है
तब वह और तनाव
से भर जाता
है। समझदार जब
ध्यान करता है
तो तनाव से
शून्य हो जाता
है। समझदार ध्यान
जब करता है तब
यह कहना ही
ठीक नहीं कि
वह ध्यान करता
है। क्योंकि
ध्यान तो न
करने की अवस्था
है। वह कुछ
नहीं करता। वह
सिर्फ बैठा
होता है।
एक
फकीर एक बार जोशु के घर
मेहमान हुआ।
उसने रात तीन
बजे से उठ कर बड़े
शोरगुल से
प्रार्थना
करनी शुरू कर
दी। सारे
आश्रम के
लोगों की नींद
खराब कर दी। जोशु के
पास एक छोटा
बच्चा था, जो उसके
छोटे-मोटे काम
कर देता। पानी
भर लाता, कपड़ा
उठा लाता, कोई
और जरूरत
होती... तो
बच्चे ने जोशु
से कहा, 'यहां
इतने पांच सौ
संन्यासी हैं,
आप हैं, लेकिन
ऐसी
प्रार्थना तो
कभी किसी ने
नहीं की जैसी
कि इस आदमी ने
की, जो
नया-नया
मेहमान है।'
बच्चा
प्रभावित हुआ
शोरगुल से।
तीन बजे रात, इतने जोर का
नाद उठाया उस
फकीर ने, कि
पूरा आश्रम जग
गया।
जोशु
ने कहा, 'जो
लोग तैरना
नहीं जानते वे
काफी हाथ-पैर फड?फड़ाते हैं। और जो
तैरना जानता
है, वह
चुपचाप लेट
जाता है जल
पर। आवाज भी
नहीं होती।
नासमझ! तू यह
मत समझना कि
यह आदमी
प्रार्थना
जानता है। यह
नहीं जानता, इसलिए इतना
शोरगुल मचा
रहा है।'
ध्यान
जब समझदार
आदमी करता है, तो कोई
शोरगुल नहीं
मचता--न बाहर, न भीतर। वह
कोई बड़ा आयोजन
नहीं करता। वह
कोई पूजा-पाठ
की विधि नहीं
जमाता। वह फूल,
हार, धूप,
दीप नहीं
सजाता। यह सब
तो बच्चों का
खेल है। यह तो
व्यर्थ की
भूमिका है, जो समझदार
छोड़ देता है।
वह न तो बाहर
कुछ करता है, न भीतर कुछ
करना है; न-करने
की दशा में वह
ठहर जाता है।
जैसे तैरनेवाले
ने तैरना बंद
कर दिया वह
पानी पर तिरने
लगा। जहां
पानी ले जाये,
जहां जल की
धार ले जाये, वहीं जाने
लगा। पानी के
साथ बहने लगा।
ऐसा ही ध्यान
है।
जोशु
ने देखा कि एक
फकीर ध्यान कर
रहा है। इसके
ध्यान करने से
ही पता चल गया
होगा कि यह
व्यर्थ की
मेहनत कर रहा
है। क्योंकि
जब तुम ध्यान
करने बैठते
हो...किसी छोटे
बच्चे को कहो, उस कोने में
आंख बंद करके
एक मिनट शांति
से बैठ जाये।
और फिर उसे
गौर से देखो।
तुम पाओगे उसकी
जैसी शांति और
उसकी जैसी
अशांति खोजनी
कठिन है। ऊपर
से वह बिलकुल
शांत, और
भीतर बिलकुल
अकड़ा और तनाव
से भरा, अपने
को दबा रहा
है। आंख भींचे
हुए है, बंद
नहीं किए हुए
है। ओंठ दबाये
हुए है। किसी तरह
अशांति बाहर न
फूट जाये, इसलिए
वह अपने को
संभाल कर बैठा
हुआ है। वह एक उबलती
हुई अवस्था
में है, जैसे
केतली गर्म हो
रही हो और भाप उबलने के
करीब हो। मिनट
भी बहुत लंबा
मालूम पड़ेगा।
ऐसा
हुआ, एक अदालत
में एक आदमी
पर मुकदमा था
हत्या का। कोई
गवाह न था।
कोई चश्मदीद
गवाह न होने
से बड़ी
मुश्किल थी।
हत्या उस आदमी
ने की है यह
करीब-करीब साफ
था और सिद्ध
था। लेकिन किसी
ने देखा नहीं।
जिन लोगों के
पास वह बैठा था
हत्या करने के
क्षण भर पहले,
उन्होंने
इतना कहा कि
केवल तीन मिनट
के लिए बाहर
गया था, और
तीन मिनट के
भीतर वापिस
लौट आया। इतने
जल्दी यह
हत्या कर कैसे
सकेगा?
मजिस्ट्रेट
को भी बात जमी
कि सिर्फ तीन
मिनट...कोई बीस
आदमी थे घर
में। उन सब ने
कहा कि हम सब
बैठे गपशप कर रहे
थे, यह आदमी
तीन मिनट के
लिए बाहर गया
होगा। फिर भीतर
आ गया। इससे
ज्यादा यह
हमारी आंख से
ओझल नहीं हुआ।
जो
आदमी विरोध का
वकील था वह
खड़ा हुआ और
उसने कहा, एक काम
करें। सब लोग
आंख बंद कर
लें और तीन
मिनट के लिए शांत
हो जायें। और
यह मैं घड़ी
रखे हुए हूं, तीन मिनट के
भीतर मैं
कहूंगा, कि
बस!
तीन
मिनट इतने
लंबे मालूम
पड़े; अदालत के
लोग...! सब गलत
तरह के लोग
वहां इकट्ठे होते
हैं। चुप होना
तो वहां कोई
जानता ही
नहीं। मौन
होकर वहां कभी
कोई बैठा
नहीं। मौन ही
बैठ जाते तो
अदालत तक आने
की जरूरत न
पड़ती।
तीन
मिनट, तीन
साल जैसे लंबे
लगे होंगे।
कभी आप को भी
खयाल होगा, कोई मर जाता
है तो मौन के
लिए खड़ा होना
पड़ता है एक
मिनट के लिए।
वह एक मिनट
इतना लंबा
पड़ता है, कि
जितने दुखी आप
उस आदमी के
मरने से नहीं
हुए, उतने
दुखी इस एक
मिनट चुपचाप खड़े
हो जाने से
होते हैं।
कितना लंबा
मालूम पड़ता
है। सेकेंड
ऐसे सरकते हैं
जैसे सरकते ही
न हों। तीन
मिनट! जब पूरे
तीन मिनट बीत
गए, तब
मजिस्ट्रेट
से उसने कहा
कि अब आप सोचिये
तीन मिनट में
क्या नहीं
किया जा सकता?
मजिस्ट्रेट
ने कहा कि
इसने हत्या की
होगी। तीन
मिनट काफी
लंबा वक्त है।
जब तुम
शांत होकर
बैठते हो तो
एक-एक सेकेंड
बहुत लंबा हो
जाता है।
क्यों? क्योंकि
अशांति भीतर
उबल रही है।
वह घनी होती जाती
है। वह जितनी
घनी होती है, जितना तनाव
बढ़ता है, उतना
ज्यादा समय
लंबा मालूम
होने जगता है।
उतनी मुश्किल
होने लगती है।
छोटे
बच्चे को एक
मिनट बिठा कर
देखो, तो
तुम्हें पता
चल जाएगा कि
गलत आदमी किस
तरह से ध्यान
करता है। उसके
तनाव को
विसर्जित करने
का तो उसे कुछ
भी पता नहीं
है। ज्यादा से
ज्यादा वह
तनाव को रोकना
जानता है। दमन
है तुम्हारा
ध्यान। गलत
आदमी का ध्यान
रिप्रेशन
है। और दमन से
कहीं कोई शांत
हुआ है? दमन
से तो और
अशांत हो
जायेगा। जो
दबाया है वह जहर
बन कर रग-रेशे
में फैल
जाएगा।
यह
फकीर जो बैठा
हुआ ध्यान कर
रहा था, निश्चित
ही दमन कर रहा
होगा, दबा
रहा होगा।
किसी तरह अपने
को शांत करने
की कोशिश कर
रहा होगा।
लेकिन कभी कोई
किसी तरह की
कोशिश से शांत
हुआ है? शांत
होना तो उस
समझदारी का
परिणाम है, जब तुम
जानते हो, सब
तरह की कोशिश
अशांति है। सब
प्रयत्न
अशांति में ले
जाता है। जब
तुम अपने को निष्प्रयत्न
छोड़ देते हो--इफर्टलेस!
जैसे कोई तैरनेवाला
तैरता ही नहीं,
नदी की धार
के साथ बहने
लगता है। ऐसे
जब तुम बह
जाते हो
अस्तित्व में,
तभी ध्यान
फलित होता है।
ध्यान परम
समर्पण है।
इस
आदमी को ऐसी
हालत में देख
कर जोशु
ने पूछा, 'जो
है, सो
क्या है?' 'ूीज पे
पे ूीज?'
भिक्षु
ने अपनी
मुट्ठी उठाई।
यह एक
पुराना उत्तर
है झेन फकीरों
का। मुट्ठी
अखंड का
प्रतीक है।
हाथ खोल दें
तो पांच अंगुलियां
हैं, पंचतत्त्व। यह विभाजन
का प्रतीक है।
पांच तत्त्वों
से सब कुछ बना
है; सारा
संसार। बांध
लें पांचों तत्त्वों
को एक में, तो
परब्रह्म। उस
एक से पांच
पैदा हुए हैं।
वह एक इन
पांचों में
समाया हुआ है।
वह इकट्ठा जहां
है, वही
अस्तित्व है,
वही
परमात्मा है।
तो मुट्टी
बहुत पुराना
प्रतीक है झेन
फकीरों
का। वह है
अखंडता का, इंटिग्रेशन का, इकट्ठे
हो जाने का
संकेत।
तो इस
आदमी ने
पुराने ढंग का
उत्तर देना
चाहा, लेकिन
उसकी मुट्ठी
ने कुछ और कहा
होगा। क्योंकि
मुट्ठी क्रोध
का प्रतीक भी
है। उसकी मुट्ठी
ऐसे रही होगी,
कि मार
डालूंगा, क्योंकि
मेरे ध्यान को
खराब कर दिया।
जो आदमी ध्यान
करने बैठता है,
सारी
दुनिया को
दुश्मन समझता
है। क्योंकि
सारी दुनिया
उसके ध्यान
में बाधा डाल
रही है।
तुमने
कभी ध्यान
किया है? सारी
दुनिया बाधा
डालती है।
पक्षी शोरगुल
करते हैं, सड़क
पर लोग हार्न
बजाते हैं, बच्चे
चिल्लाते हैं,
कोई रोता है,
पत्नी के
हाथ से बर्तन
गिर जाता है, सब तरफ
उपद्रव होता
है। ध्यान
करने बैठे कि
पता चलता है, सारी दुनिया
तुम्हारी
शत्रु है।
जरूर
कहीं कोई भूल
हो रही है।
क्योंकि
ध्यान में तो
लोगों को पता
चला है कि
सारी दुनिया
मित्र है। और
तुम्हें पता
चलता है कि
सारी दुनिया
शत्रु है? तुम्हारे
ध्यान में
कहीं भूल हो
रही है। बजाय यह
सोचने के कि
सारी दुनिया
इसी वक्त
अचानक अशांत
हो गई है, यही
सोचना उचित है
कि तुम कहीं
कुछ भूल कर
रहे हो। तुम
जबरदस्ती
शांत होने की
कोशिश कर रहे
हो। और चारों
तरफ शोरगुल तो
चल ही रहा है। तुम
कल तक उसमें
भागीदार थे।
एक क्षण पहले
तक भागीदार थे,
तुम्हें
पता नहीं चलता
था। अभी तुम
अकड़ कर खड़े हो
गए हो।
जैसे
कोई आदमी नदी
की धार के
विपरीत तैरने
लगे तो उसे
लगे, पूरी नदी
उसके खिलाफ
है। नदी को
क्या लेना-देना?
नदी तो अपनी
गति से बही जा
रही है। तुम
नहीं थे तब भी
बहती थी, तुम
नहीं होओगे तब
भी बहेगी। तुम
नदी की धार में
बहो तब भी वह
वैसी ही बहती
है। तुम उल्टे
बहो तब भी
वैसे ही बहती
है। लेकिन तुम
उल्टे बहे, तुम्हें
लगता है कि
सारी नदी मुझ
से लड़ रही है।
तुम लड़ रहे हो
नदी से, नदी
तुम से क्यों लड़ेगी?
अगर
तुम ध्यान में
बैठो और ऐसा
लगे, हर चीज
बाधा डाल रही
है, विघ्न
डाल रही है, तो समझ लेना
कि तुम धार
में उल्टे
बहने की कोशिश
कर रहे हो।
तुम जबरदस्ती
शांत होने की
कोशिश कर रहे
हो। जबरदस्ती
दुनिया में
कभी कोई शांत
नहीं हुआ।
जबरदस्ती ही
तो अशांति आती
है। शांत होना
तो एक सहज
साधना है।
साधना कहना भी
ठीक नहीं, एक
सहजता है।
यह
आदमी बैठा
होगा अकड़ा। यह
लड़ रहा होगा
भीतर। यह अपनी
ही छाती पर
सवार बैठा
होगा।
जब जोशु
ने पूछा कि 'परमात्मा
क्या है? अस्तित्व
क्या है? जो
है, वह
क्या है?' इसे
क्रोध आया
होगा, कि
यह कोई वक्त
है प्रश्न
पूछने का। हम
ध्यान कर रहे
हैं और
तुम्हें
फिलासफी सूझी
है। हम इधर
किसी तरह भीतर
जाने की कोशिश
कर रहे हैं और
तुम हमें बाहर
लाते हो।
लेकिन
आंख खोल कर
देखा होगा कि
सामने जोशु
खड़ा है। यहीं
समझने की बात
है। जोशु जाहिर
आदमी था। उसकी
बड़ी ख्याति
थी। हजारों उसके
शिष्य थे।
भीतर तो क्रोध
आया होगा।
मुट्ठी क्रोध
से बंधी होगी, लेकिन जोशु
को सामने देख
कर पुराना
उत्तर इस फकीर
ने दे दिया।
लेकिन
तुम्हारे
उत्तर बदलने
से उत्तर नहीं
बदलता। जोशु
को धोखा देना
असंभव है। वह
जो मुट्ठी बंधती
है, अखंड को
संकेत देने के
लिए, वह
तभी बंधती
है, जब तुम
भीतर अखंड हो
जाओ। वह तो
संकेत है। लेकिन
तुम भीतर
क्रोध से उबल
रहे हो, खंड-खंड;
तुम भीतर
अशांति से जल
रहे हो, खंड-खंड;
तुम टूटे
हुए हो, बिखरे
हुए हो।
अंगुलियों को
बांध लेने से
क्या होगा? तुम्हारी
मुट्ठी झूठी
है। मुट्ठी से
कहना तो फकीर
ने कुछ और
चाहा था। कि
वह एक है, वह
अखंड है, वह
अद्वैत है, वह इस
मुट्ठी जैसा
है। लेकिन तुम
क्या कहना चाहते
हो यह बड़ा
सवाल नहीं है।
तुम क्या हो
वह तुम्हारे
कहने से बह
जायेगा और
प्रगट हो
जायेगा।
यह
आदमी अगर
क्रोध से हमला
कर देता जोशू
पर, वही कहीं
ज्यादा
प्रामाणिक
हुआ होता। वह
कहीं ज्यादा
सच था। इसने
झूठ कर दिया।
तुम्हें भी इस
तरह के झूठ का
पता है। तुम
कई बार क्रोध
से मुट्ठी
बांध लेते हो।
फिर अचानक
तुम्हें खयाल आ
जाता है, तो
तुम छोटे
बच्चे को थपथपा
कर और चले
जाते हो। तुम्हें
लगता होगा कि
तुमने थपथपा
कर छोटे बच्चे
को धोखा दे
दिया। लेकिन
छोटा बच्चा
जानता है कि
थपथपाहट के
पीछे क्रोध
था।
तुम्हें
बहुत बार पता
है कि तुम
संकेत को बदल लेने
की कोशिश करते
हो। मुंह पर आ
जाती है गाली
और तुम
मुस्कुरा
देते हो।
ध्यान रखना, तुम्हारी मुस्कुराहट
से भी गाली
प्रगट होगी।
तुम भीतर को
छिपा न सकोगे।
तुम्हारी
मुस्कुराहट
भी जहरीली हो
जायेगी।
उसमें गाली का
ही स्वाद आ
जायेगा।
तुम कई
बार कुछ कहने
जाते हो, फिर
बदल लेते हो
ऐन वक्त पर।
लेकिन वह
बदलाहट छिपी न
रहेगी। सिर्फ
अंधों के बीच
छिपी रहेगी।
लेकिन जिसको
जरा भी देखना
आता है उससे
तुम बदलाहट न
छिपा पाओगे।
वह बदलाहट पकड़
ली जायेगी।
और सदगुरु
तो थर्मामीटर
जैसा है
अस्तित्व का। जोशू
सामने खड़ा है।
इस आदमी ने जोशू
को देख कर
धोखा देना
चाहा। कोई और
होता, इसने
हमला किया
होता। यह उसकी
छाती पर चढ़
बैठता, कि
तुमने मेरा
ध्यान बिगाड़ा।
और धार्मिक
व्यक्ति बड़े
दुष्ट होते
हैं अगर उनका
ध्यान बिगड़
जाये।
क्योंकि एक
महान कार्य वे
कर रहे थे; जैसे
सारी दुनिया
पर उपकार कर
रहे थे, और
तुमने बाधा
डाल दी!
घर में
एक व्यक्ति
धार्मिक हो
जाये और पूरा
घर नर्क हो
जाता है।
क्योंकि उनके
ध्यान में
बाधा न पड़
जाये, उनकी
पूजा न खराब
हो जाये, कोई
उनको छू न ले, वे कहीं
अपवित्र न हो
जायें! स्नान
करके उनका भोजन
बने। सब तरफ
उपद्रव खड़ा कर
देता है। उपद्रव
खड़ा करने में
इतना रस आता
है लोगों को!
दूसरों को सताने
में इतना रस
आता है।
धर्म
के नाम पर भी
लोग दूसरों को
सताते हैं। और
वह बड़ा कुशल
है काम। अगर
अधर्म से सताइये
तो लोग नाराज
होंगे। लोग
कहेंगे, कैसे
अधार्मिक हो
गए। धर्म से सताइए, लोग
भी राजी
होंगे।
क्योंकि वे
कहेंगे, धर्म
है। ये तो
शांत बैठे हैं,
हम ही गलती
पर हैं। लेकिन
ध्यान रहे, धार्मिक
आदमी से उपद्रव
पैदा नहीं
होता।
धार्मिक आदमी
तो बिलकुल निरुपद्रवी
हो जाता है।
धार्मिक आदमी
तो ऐसे हो
जाता है जैसे
है ही नहीं।
इस
आदमी ने
मुट्ठी तो
बांधी, लेकिन
इसे पता नहीं
कि जिन्होंने
मुट्ठी बांध
कर संकेत दिया
है, उनकी
मुट्ठी में
शून्य था, क्रोध
नहीं। उनकी
मुट्ठी में अहंकार
नहीं था, निरहंकार
भाव था। उनकी
मुट्ठी सीखा
हुआ उत्तर
नहीं थी। उनकी
मुट्ठी उनका
अपना अनुभव
थी। उन्होंने
अपने भीतर
उतर-उतर कर यह
जाना था कि यह
पांच का जो
भेद है, इंद्रियों
का; पांच
इंद्रियां
हैं, इनका
जो भेद है, पांच
तत्वों का जो
भेद है, यह
ऊपर-ऊपर है।
जैसे-जैसे
नीचे प्रवेश
करो भेद मिट
जाता है, अभेद
खुल जाता है।
ठीक केंद्र पर
एक रह जाता है।
मुट्ठी बंध
जाती है।
यह
अस्तित्व
जैसे खिला हुआ
फूल है--परिधि
पर। केंद्र पर
जैसे बंद!
केंद्र पर
जैसे सब बंद
है, कली है, ऐसी मुट्ठी
है। मुट्ठी
बंधी हुई कली
की सूचना है।
लेकिन यह आदमी
तो ऊपर-ऊपर
था। इसका हर
ढंग, इसका
रोआं-रोआं कह
रहा था क्रोध,
अशांति। और
मुट्ठी कुछ और
कहना चाह रही
थी। यह नहीं
हो पायेगा। यह
धोखा जोशु
को नहीं दिया
जा सकता।
देखा जोशु ने, तो जोशु
ने उत्तर दिया,
'जहाज वहां
नहीं रुक सकते
जहां पानी
बहुत उथला हो।'
और वे चले
गये।
इतनी
ही बात कही कि
तुम अभी बहुत
उथले हो। और जहां
पानी बहुत
उथला हो, बड़े
जहाज वहां
नहीं रुक
सकते। तुम
उथले हो क्रोध
के कारण, तुम
उथले हो
अशांति के
कारण; तुम
उथले हो तनाव
के कारण।
मुट्ठी
बांधने से कुछ
न होगा। जहां
मुट्ठी
वस्तुतः बंधती
है वहां तुम
अभी हो नहीं।
तुम सतह पर हो,
तुम परिधि
पर हो।
अच्छे-अच्छे
संकेत बताने
से कुछ भी न
होगा।
तुम्हारे सब
संकेत, तुम्हारे
अस्तित्व के
विपरीत खबर
देंगे। तुम
कहो कुछ, निकलेगा
तो वही, जो
तुम हो। तुम
कितना ही अपने
को सजाओ-संवारो,
तुम झुठला न
सकोगे। और जोशु
जैसे व्यक्ति
के सामने तो
बिलकुल नहीं।
हां, उन्हें
तुम झुठला
सकते हो जो
खुद भी झूठ
में जी रहे
हैं। उनको तक
झुठलाना
मुश्किल होता
है।
एक
बहुत मजे की
बात है कि तुम
कितनी ही
कोशिश करो, लोग
तुम्हारी
सच्चाई को
भली-भांति
जानते हैं।
साधारण लोग
भी! और ध्यान
रखना, कि
तुम अपने
संबंध में जो
भी बताना
चाहते हो वह कोई
मानता नहीं।
नब्बे
प्रतिशत
तुम्हारी सच्चाई
साधारण लोगों
को भी पता
होती है। तुम
कितने ही
मंदिर जाओ, लोग जानते
हैं कि अक्सर
सौ चूहे खा कर
बिल्ली हज की
यात्रा को
जाती है। सभी
बिल्लियां
अंत में हाजी
हो जाती हैं। लोग
जानते हैं कि
तुम्हारा
मंदिर जाना एक
तरह का
पश्चात्ताप
है उन पापों
का, जो तुम
किये जा रहे
हो, करते
रहे हो। और
जिनसे तुम
निरत भी नहीं
हो गए हो। लोग
जानते हैं कि
तुम्हारी
तीर्थयात्रा पापों
को धोने के
लिए है। लेकिन
अगर नदियों में
पाप धोये जा
सकते तो बड़ी
आसान बात हो
जाती। लोग
जानते हैं कि
तुम्हारे मंत्रोच्चार,
तुम्हारे
जप, पूजा, पाठ ऊपर-ऊपर
हैं। भीतर तो
हिसाब चल रहा
है धन का, कौड़ी-कौड़ी का। लोग
तुम्हारे झूठ
को भली-भांति
जानते हैं--साधारण
लोग! धोखा
देना बहुत
मुश्किल है।
क्योंकि
तुम्हारी
सच्चाई
जगह-जगह से
प्रगट होती ही
रहती है।
कितना ही तुम ढांको।
हर
आदमी की हालत
उस गरीब जैसी
है, जिसकी
चादर छोटी है।
वह पैर ढांकता
है तो सिर उघड़
जाता है, सिर
ढांकता
है तो पैर उघड़
जाता है। कहीं
न कहीं से
सच्चाई पता चल
ही जाती है।
सच्चाई इतनी
बड़ी घटना है
कि झूठ उसे ढांकेगा
कैसे? यह चमत्कार
है कि तुम झूठ
से सच्चाई को
ढांकने की कोशिश
करते हो। झूठ
का अर्थ ही है,
जो नहीं है।
जो नहीं है
उससे तुम उसे ढांक रहे
हो, जो है!
कैसे ढांकोगे?
वह तो दूसरे
लोग अगर
तुम्हारी
सच्चाई को
नहीं कहते, तो उसका
कारण उनके
स्वार्थ हैं।
यह नहीं कि उनके
ढांकने में तुम
सफल हो गए हो।
लोग तुम्हें
भली-भांति
जानते हैं, लेकिन उनका
स्वार्थ है
इसमें कि
तुम्हारे झूठ
को स्वीकार
करें। यह एक म्युचुअल अरेंजमेंट
है, एक
पारस्परिक
इंतजाम है।
तुम हमारे झूठ
को स्वीकार
करो, हम
तुम्हारे झूठ
को स्वीकार
करेंगे। न तुम
हमें उघाड़ो,
न हम तुम्हें
उघाड़ेंगे।
इसलिए
लोगों की एक
कहावत है, जो खुद कांच
के घर में
रहता हो उसे
दूसरों की तरफ
पत्थर नहीं
फेंकने
चाहिए। बड़े
अनुभव से ये कहावतें
बनती हैं। जब
तुम खुद झूठ
में रह रहे हो,
तो दूसरे का
झूठ मत
उघाड़ना। नहीं
तो तुम्हारे झूठ
का क्या होगा?
इसलिए हम सब
एक दूसरे को ढांकते
रहते हैं।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
अगर सभी आदमी
दूसरे के
संबंध में जो
सत्य जानते
हैं उसे कह
दें तो इस
जमीन पर दो
व्यक्ति भी
मित्र नहीं रह
सकते।
तुम जो
अपनी पत्नी के
संबंध में
जानते हो, अगर कह दो; तुम्हारी
पत्नी जो
तुम्हारे
संबंध में
जानती है, अगर
कह दे; तुम्हारा
मित्र जो
तुम्हारे
संबंध में
जानता है अगर
कह दे; तो
सारी
मित्रताएं, सारे प्रेम,
सारे संबंध
टूट जायेंगे।
झूठ का
जाल है बड़ा।
और चूंकि
उसमें सभी का
स्वार्थ
निहित है, इसीलिए हम
सब एक दूसरे
के झूठ को
सम्हाल कर चलते
हैं। मैं
तुम्हारा
सम्हालता हूं
तुम मेरा
सम्हाल लेते
हो। तुम भी
मेरा झूठ देख
लेते हो, मैं
भी तुम्हारा
झूठ देख लेता
हूं। साधारण
आदमियों को जब
दिखाई पड़ जाता
है, तो जोशु
को दिखाई न
पड़ेगा? जिसने
अपना सारा झूठ
छोड़ दिया है; उसे
तुम्हारा
पूरा झूठ
दिखाई पड़ेगा,
क्योंकि
उसकी आंखें अब
निर्मल हैं।
इस
आदमी ने
मुट्ठी उठाई
थी क्रोध से
भरे हुए। इसकी
मुट्ठी से
क्रोध दिखाई
पड़ता
था--उथलापन! क्योंकि
क्रोध सिर्फ उथलेपन का
सबूत है। यह
तुम ध्यान
रखना। तुम
जितने गहरे
होते जाओगे, उतना क्रोध
मुश्किल हो
जायेगा।
क्रोध से तुम किसी
और का नुकसान
नहीं कर रहे
हो, सिर्फ
अपने को उथला
बनाये हुए हो।
और
ध्यान रखना, उथले पानी
में बड़े जहाज
नहीं रुकते।
और तुम आशा
बांधे हो, कभी
परमात्मा का
जहाज भी
तुम्हारे
किनारे आ कर
रुके! जोशु
का भी रुकने
को राजी नहीं
है। रुकने का
उपाय नहीं है,
किनारे लग
नहीं सकता, क्योंकि
उसके लिए गहरा
पानी चाहिए।
तुम्हारे
किनारे तो तस्करों
की डोंगियां
ही लगेंगी, स्मगलर्स की
छोटी-छोटी
नावें लगेंगी,
परमात्मा
का जहाज नहीं
लग सकता। उतनी
ही जगह है
तुम्हारे
किनारे पर, उतना ही
पानी है।
छोटी-छोटी
नावें झूठ की,
तुम्हें
अपना बंदरगाह बनायेंगी।
लेकिन सत्य का
विराट जहाज
तुम्हारे
किनारे तभी लग
सकता है, जब
उतने विराट को
झेलने की
गहराई तुमने
बना ली हो।
क्रोध उथलेपन
का सबूत है।
मैंने
सुना है कि
पुराने
प्राचीन चीन
में एक नियम
था। अब भी उस
नियम की कोई
लकीर
कहीं-कहीं चलती
है। कन्फ्यूसियस
के जमाने में
वह नियम पैदा
हुआ।
उन्नीस
सौ दस में एक
अमरीकन
यात्री चीन
गया। वह जैसे
ही स्टेशन पर
उतरा और
स्टेशन के
बाहर गया, वहां देखा, कि दो
आदमियों में
बड़ी घमासान
लड़ाई चल रही
है। मगर लड़ाई
सिर्फ शब्दों
की है। और कोई
दो सौ आदमियों
की भीड़ खड़े हो
कर देख रही
है। और निरीक्षण
ऐसे हो रहा है,
जैसे कोई
बड़ा खेल हो
रहा हो। वह भी
खड़ा हो गया।
जल्दी ही
तूफान इतने
करीब आया जा
रहा है कि
जल्दी ही
उपद्रव होगा।
और बात वे
इतने गुस्से
में कर रहे
हैं, चीख
रहे हैं, चिल्ला
रहे हैं, और
एक दूसरे पर
बिलकुल झपट
रहे हैं, लेकिन
वह बड़ा हैरान
हुआ कि मारपीट
शुरू क्यों नहीं
होती? इतनी
भूमिका क्यों
चल रही है? तो
उसने एक चीनी
को पूछा कि
मैं समझ नहीं
पा रहा। बड़ी
देर हो गई, आखिर
कभी की मारपीट
हो गई होती
हमारे मुल्क
में, यह
इतनी देर
क्यों लग रही
है?
उस
चीनी ने कहा, 'यहां नियम
है। नियम यह
है, कि जो
पहले हमला करे
वह हार गया।
बस, फिर
मामला खतम!
जैसे ही इन दो
में से किसी
ने हमला किया,
भीड़ हट
जायेगी।
मामला खतम ही
हो गया है। जो
पहले क्रोधित
हुआ, वह
उथला साबित
हुआ। तो ये
दोनों एक
दूसरे को उकसा
रहे हैं, कि
किसी तरह
दूसरा टेम्पटेशन
में आ जाये, उत्तेजित हो
जाये और हमला
कर दे। बस, मामला
खतम हो गया।
जो बच गया
हमला करने से,
वह जीत गया।'
कन्फ्यूसियस
ने इसकी
आधारशिला रखी
थी, कि क्रोध
करने का अर्थ
है आदमी हार
ही चुका। अब
उसे और हराने
की जरूरत नहीं
है। असल में
हारा हुआ आदमी
ही क्रोध करता
है।
तुम
जितने गहरे हो
उतना ही क्रोध
मुश्किल है। और
तुम जितने
गहरे हो उतनी
ही हार असंभव
है। गहराई
विजय है, उथलाई हार है।
जोशु
ने कहा, 'जहाज
वहां नहीं रह
सकते, जहां
पानी बहुत
उथला हो।'
और
उसने सब कह
दिया।
क्योंकि यही
तो सारा प्रश्न
है, कि तुम
कहां हो?
दो ढंग
हैं होने के।
एक ढंग है
परिधि पर, सरकमफ्रेंस पर होना।
तुम्हारी
परिधि वहीं है,
जहां तुम
दूसरों से
मिलते
हो--तुम्हारे
संबंध...। पति
की परिधि
पत्नी; बाप
की परिधि बेटा;
मित्र की
परिधि मित्र,
शत्रु, पड़ोसी।
तुम्हारी
परिधि
तुम्हारे अंतर्संबंधों
की सीमा है।
जैसे तुम अपने
घर के चारों
तरफ एक बागुड़
लगाते हो। उस बागुड़ से
तुम्हारे
पड़ोसी का मकान
शुरू होता है।
तुम्हारे घर
की सीमा का
अर्थ है, तुम्हारे
पड़ोसी की सीमा
भी।
मनुष्य
के अस्तित्व
के दो ढंग
हैं। एक ढंग
तो है कि वह
परिधि पर जीये, जहां दूसरे
लोगों की सीमायें
हैं। ऐसा आदमी
उथला होगा।
उसे कोई भी
नाराज कर सकता
है। उसे कोई
भी प्रसन्न कर
सकता है। वह
परिस्थिति का
गुलाम होगा।
उसकी कोई भी
प्रशंसा कर दे,
वह प्रसन्न
होगा। उसकी
कोई भी निंदा
कर दे, वह
दुखी हो
जायेगा।
क्योंकि वह
जीता परिधि पर
है। और परिधि
पर दूसरे लोग
खड़े हैं। वहां
पूरा समाज है।
वहां सब निंदा,
प्रशंसा, स्तुति, गाली-गलौज
सब चलता है।
एक
दूसरा ढंग है, अपने केंद्र
पर जीना।
केंद्र पर
जीने का अर्थ है,
वहां तुम
अकेले हो। तुम
में और समाज
में उतना ही
फासला हो गया
है जितना
तुम्हारी
परिधि में और
तुम्हारे
केंद्र में
है। और यह
फासला अनंत है।
ऐसा समझो कि
परिधि संसार
है और केंद्र
परमात्मा है।
परिधि पर तुम
हो तो गृहस्थ,
केंद्र पर
तुम हो तो
संन्यासी। और
जैसे ही तुम
केंद्र पर हो
जाते हो, फासला
इतना हो जाता
है संसार से, कि कोई गाली
देता है तो
ऐसा लगता है
कि किसी और को
दी गई हो।
जैसे कहीं
स्वप्न में
घटी हो। डिस्टेंस,
दूरी इतनी
है कि अपने को
दी गई होगी यह
समझ में भी
नहीं आता। और
इतना फासला
गाली पूरा करे,
तुम्हारे
भीतर तक
आते-आते, आते-आते
ही खो जाती
है।
लेकिन
तुम खड़े हो
बिलकुल परिधि
पर, वहां
गाली दी नहीं
गई कि
तुम्हारे
भीतर छाती तक
पहुंची नहीं।
यह तुम पर
निर्भर है कि
पड़ोसी तुम्हें
प्रभावित कर
देता है। तुम
कहां खड़े हो? कोई जरा सा
कुछ कह देता
है, छाती
फूल जाती है।
कोई जरा सा कह
देता है, पंक्चर
हो जाता है सब,
छाती सिकुड़
जाती है। इतने
निर्भर
दूसरों पर? कैसे तुम
शांत हो सकोगे?
क्योंकि
दूसरे अनेक
हैं, अनंत
हैं। एक को
समझा लोगे कि
गाली मत दो, दूसरा है, हजार हैं, करोड़ हैं, अरब
हैं, चारों
तरफ हैं। उनसे
तुम बच कर भाग
भी नहीं सकते।
तुम जंगल भी
चले जाओ, कोई
फर्क न होगा।
मैंने
सुना है, एक
आदमी भाग गया
परेशान हो कर।
दिन-रात की
कटकट--पत्नी, बच्चे, दूकान,
ग्राहक, कहीं
कोई शांति
नहीं। जंगल
भाग गया। एक
झाड़ के नीचे
जा कर बैठा था
आराम से। देखा,
एक कौए ने
बीट कर दी।
नाराज हो गया।
उठा लिया पत्थर
कौए को मारने
को। तब उसे
खयाल आया कि
जंगल आये थे
शांति के लिए,
यह कौआ यहां
भी है। पत्नी
से भाग जाओगे,
कौओं से
कहां भागोगे?
वह
बहुत दुखी हो
गया। उसने कहा, संसार में कोई
सार नहीं, उसने
जाकर नदी के
किनारे लकड़ियां
इकट्ठी कीं।
खुद की चिता
बना रहा था। लकड़ियां
काट कर इंतजाम
जब तक वह कर
पाया तब तक
पास के गांव
में खबर पहुंच
गई। वहां से
लोग आ गये।
उन्होंने कहा
कि भैया जरा
दूर ले जाओ, यहां जलोगे
तो बास गांव
में पहुंचेगी।
तो उस आदमी ने
कहा, न
जिंदा रहने
देते, न
मरने देते। न
जीने की
स्वतंत्रता
है, न मरने
की कोई
स्वतंत्रता
है।
तुम
परिधि पर हो, तो न तुम
जीओगे, न
तुम मरोगे।
तुम दोनों के
बीच घिसटोगे,
वही
तुम्हारी
स्थिति है।
एक
यहूदी फकीर
हुआ। गांव का
पुरोहित था।
एक गरीब आदमी
ने आकर पूछा
कि मैं क्या
करूं? बड़ी
मुसीबत में
हूं।
रोटी-रोजी
नहीं कमा पाता।
दोनों छोर
मिलाने की
कोशिश
करते-करते
नष्ट हुआ जा
रहा हूं। कोई
धंधा हाथ
नहीं। उस फकीर
ने कहा, 'तुम
एक काम करो।' यहूदी मरते
हैं तो खास
तरह का कपड़ा
पहनते हैं।
उसने कहा कि
तुम एक दूकान
खोल लो छोटी
सी। उसमें
खाने की चीजें,
रोटी, सब्जी,
आटा, दाल,
चावल, ये
बेचो। और
उसी के एक
हिस्से में
मरते वक्त जिन
चीजों की
जरूरत होती
है: लकड़ी, कपड़े
जो यहूदी पहन
कर मरते हैं, मरने का
लिबास, वह बेचो। उस
आदमी ने कहा
कि ऐसा सुझाव
आप क्यों देते
हैं? तो उस
यहूदी ने कहा
कि 'दुनिया
सब कुछ काम
बंद कर दे, ये
दो काम जारी
रहेंगे
हमेशा।
तुम्हारी
दुकान कभी बंद
न होगी। लोग
खायेंगे तो, अगर जीना
है। और जब
जीयेंगे तो
मरेंगे भी।
तुम्हारे पास
आना ही पड़ेगा।
जीयेंगे तो
आना पड़ेगा, मरें तो आना
पड़ेगा।'
वह
आदमी चला गया।
उसने सब मकान, जायदाद जो
थी, बेच कर
एक दुकान खोल
ली। दो तीन
महीने बाद बिलकुल
उदास, पहले
से भी ज्यादा
उदास हालत में
लौटा। फकीर ने
पूछा, 'क्या
मामला है? धंधा
नहीं चल रहा?' उसने कहा कि
बड़ी गलती हो
गई। इस गांव
में न तो कोई
जीता है, न
कोई मरता है, लोग सिर्फ
घिसट रहे हैं।
दुकान चलती
नहीं।
तुम भी
घिसट रहे हो।
न जी रहे, न
मर रहे हो।
दोनों के बीच
में हो। बड़ी
दुर्गति है। जीओ तो भी
एक मजा है, मरो
तो भी एक मजा
है। कुछ तो
पूरा हो!
लेकिन परिधि
पर न जीवन है, न मृत्यु
है। परिधि पर
तो सिर्फ कलह
है। क्योंकि
परिधि वहां है
जहां तुम
दूसरों से मिलते
हो। और जब तक
तुम दूसरों से
मिल रहे हो तब
तक अपने से
मिलना न हो
सकेगा। और जिस
दिन तुम अपने
से मिलोगे,
उस दिन
परिधि से हटना
पड़ेगा।
सब
धर्म जोर देते
हैं अहिंसा पर, अक्रोध पर, अलोभ पर, अकाम
पर, अपरिग्रह
पर; उसका
कारण क्या है?
उसका कारण
यह है कि लोभ
तुम्हें
परिधि पर
रखेगा। लोभी
आदमी दरवाजे
पर ही बैठा
रहेगा। वह
भीतर जा नहीं
सकता।
क्योंकि जो भी
लोभ की चीजें
हैं, वे तो
बाहर हैं।
क्रोधी
आदमी दरवाजे
पर ही खड़ा
रहेगा। पता
नहीं, कब
जरूरत पड़ जाये
हमला करने की,
या कौन हमला
कर दे!
परिग्रही
परिधि पर ही
रहेगा।
क्योंकि वस्तुएं
वहां हैं।
परिग्रह तो
भीतर ले जाया
जा नहीं सकता।
उसे तो परिधि
पर ही रखना
पड़ेगा। सब
बैंक-बैलेंस
वहीं होगा।
भीतर ले जाने
की कोई जगह
नहीं है।
हिंसक आदमी
कभी भीतर नहीं
जा सकता। कामी
कभी भीतर जा
नहीं सकता।
क्योंकि काम-वासना
का अर्थ है, दूसरे की
वासना। वहां
तो परिधि पर
ही रहना
पड़ेगा। सारे
धर्म जोर देते
हैं अहिंसा पर,
अपरिग्रह
पर, अकाम
पर, अचौर्य पर, अलोभ
पर, क्योंकि
अगर तुम्हें
भीतर जाना है,
तो परिधि छोड़नी
पड़े। और परिधि
तुम छोड़ो,
तो लोभ
छोड़ना पड़े, क्रोध छोड़ना
पड़े, परिग्रह
छोड़ना पड़े। और
जैसे-जैसे यह छूटेगा वैसे-वैसे
तुम भीतर
जाओगे। जिस
दिन तुम अपने
केंद्र पर खड़े
हो जाओगे, तो
तुम्हारी यह
गहराई इतनी है
कि परमात्मा
का जहाज भी
वहां रुक सके।
तुम्हारी
गहराई फिर अनंत
है।
परिधि
पर तुम बिलकुल
छिछले
हो। लेकिन तुम
मांगते अनंत
को हो, परिधि
पर तुम खड़े हो;
यही
तुम्हारी दुर्दशा
है। तुम
मांगते असीम
को हो, सीमा
पर खड़े हो।
तैयारी असीम
की करो, असीम
अपने आप
तुम्हारे
द्वार आ कर लग
जायेगा। तुम्हीं
परमात्मा को
नहीं खोज रहे,
परमात्मा
भी तुम्हें
खोज रहा है।
एक हाथ से ताली
भी नहीं बजती,
एक हाथ से
खोज भी नहीं
चल सकती।
दूसरा हाथ भी
तुम्हें टटोल
रहा है। लेकिन
बड़ी मुश्किल
है! तुम जहां
हो, वहां
सत्य को आने
की जगह नहीं, गहराई नहीं
है।
जोशु
ने कहा, 'जहाज
वहां नहीं रह
सकते जहां
पानी बहुत
उथला हो।' और
वे चले गये।
कुछ
दिनों बाद जोशु
फिर उस भिक्षु
के पास गये और
फिर वही
प्रश्न पूछा।
भिक्षु ने
पुराने ढंग से
ही उत्तर
दिया।
जोशु
बोले, 'अच्छा
दिया, अच्छा
लिया, अच्छा
मारा, अच्छा
बचाया। रूमसस
हपअमदै ूमसस जांमदै
ूमसस ापससमकै
ूमसस अमक्'
और
उन्होंने झुक
कर भिक्षु को
नमस्कार
किया।
दुबारा
बहुत समय बीत
जाने के बाद जोशु फिर
उस भिक्षु के
पास गये। फिर
पूछा वही सवाल
और भिक्षु ने
दिया वही
जवाब। जवाब
में जरा भेद न
था। पर सब भेद
हो गया। वही
मुट्ठी फिर
बंधी, लेकिन
अब आदमी वही
नहीं था।
जिसने मुट्ठी
बांधी थी, वह
बदल गया। अब
इस मुट्ठी में
क्रोध न था, अद्वैत था।
अब इस मुट्ठी
में नाराजगी न
थी, प्रेम
था। अब इस
मुट्ठी में और
भीतर के
केंद्र में एक
तारतम्य था।
अब यह आदमी
परिधि पर नहीं
था। अब यह
आदमी केंद्र
में था।
जोशु
का यह कहना कि
जहाज वहां न
रुक सकेंगे
जहां पानी
उथला है, काम
कर गया। इस
आदमी ने समझ
लिया होगा, परिधि छोड़नी
है। मेरा
ध्यान भी
परिधि पर चल
रहा है। और
ध्यान तो
परिधि पर चल
नहीं सकता। यह
डूबा होगा।
इसने
धीरे-धीरे क्रोध
छोड़ा होगा।
इसने
धीरे-धीरे
परिधि की, उपद्रव
की दुनिया छोड़ी
होगी। यह
धीरे-धीरे
अपने भीतर लीन
हुआ होगा। इसने
लड़ना छोड़ा
होगा, यह
बहा होगा।
जोशु
ने आ कर वही
सवाल पूछा।
सवाल तो सदा
वही है। सवाल
तो एक ही है, कि क्या है
यह अस्तित्व?
क्या है यह
सब, जो
चारों तरफ
फैला है? क्या
हूं मैं? सवाल
को हम कोई भी
ढंग दें, लेकिन
सवाल एक ही है,
कि क्या है,
जो है? भिक्षु
ने फिर मुट्ठी
उठाई, लेकिन
अब इस मुट्ठी
में बड़ी शांति
थी। इस मुट्ठी
में बड़ा आनंद
था। इस मुट्ठी
में एक पुलक
और नृत्य और
एक सुगंध थी
पारलौकिक की।
इस मुट्ठी में
परमार्थ था।
जोशु
ने कहा--जो कहा, वह बड़ा
अदभुत है--कहा,
'अच्छा दिया,
अच्छा लिया,
अच्छा मारा,
अच्छा
बचाया।'
बड़ा
जटिल वचन है।
लेकिन बड़ा
सरल!
'रूमसस हपअमदै ूमसस जांमदै
ूमसस ापससमकै
ूमसस अमक'
सब कुछ
कह दिया। कबीर
की उलट-बांसी
जैसा है। सुनो, बेबूझ लगता
है। लेकिन जरा
भीतर उतरो, कुंजी हाथ आ
जाती है।
जोशु
ने कहा, 'अच्छा
दिया, अच्छा
लिया।'
मतलब
है कि अपने को
पूरा दे दिया, जरा भी
बचाया नहीं।
परमात्मा को
पूरा पा लिया।
और जो अपने को
देगा वही उसे
पा सकता है।
परिधि पर हम
अपने को बचाते
हैं। क्योंकि
हमें डर है कि
मिट न जायें।
केंद्र पर
जाते हैं, बचाने
का सवाल ही
नहीं उठता।
देने का आनंद
आ जाता है।
क्योंकि
परिधि पर
जितना दो, उतना
कम होते जाते
हो। जितना छीनो,
उतने बढ़ते
हो। केंद्र पर
जितना छीनो,
उतने कम
होते हो।
जितना दो, उतना
बढ़ते हो। नियम
बदल जाते हैं।
केंद्र पर दान
है नियम, परिधि
पर चोरी, शोषण
है। केंद्र पर
प्रेम, परिधि
पर क्रोध है, हिंसा है, लोभ है, मोह
है। केंद्र पर
परमात्मा है।
उसे तुम कितना
ही बांटो, वह
चुकेगा नहीं।
उसे तुम जितना
दोगे उतना ही
पाओगे वह बढ़ता
जाता है।
जीसस
ने कहा है, जो अपने को बचायेगा
वह खो देगा।
और जो खोने को
राजी है वह बच
जायेगा। वही जोशु ने
कहा, 'अच्छा
दिया, अच्छा
लिया।' दे
दिया सब, पा
लिया सब। 'अच्छा
मारा, अच्छा
बचाया।' मर
गये
बिलकुल--और बच
गये बिलकुल।
उस
परम-सत्य में
जाने के लिए
कोई और
नैवेद्य काम
नहीं आयेगा।
फूल-पत्ते चढ़ा
कर किसको धोखा
दे रहो हो? वे
फूल-पत्ते भी
लोग बाजार से
नहीं लाते।
दूसरों के बगीचे
से तोड़ लेते
हैं। अगर आपका
बगीचा है तो
आपको पता
होगा।
धार्मिक आदमी
सुबह ही से
निकल आते हैं।
वे फूल तोड़ने
लगते हैं। उनसे
आप कुछ कह भी
नहीं सकते, क्योंकि
पूजा के लिए
तोड़ रहे हैं!
फूल-पत्ते चढ़ाते
हो, वे भी
दूसरों के तोड़
कर?
और
फूल-पत्तों से
काम न चलेगा।
अपने को ही
नैवेद्य
बनाना पड़ेगा।
अपने को ही
चढ़ा देना
पड़ेगा। बलि
किसी और की
देने से काम
नहीं होगा।
बलि तो अपनी
ही दे देनी होगी।
और जो अपने को
देने को राजी
है, वही उसे
पा सकेगा।
इससे कम में
सौदा नहीं
होगा। तुम और
कुछ भी देने
को तैयार रहो,
तुम सारा धन
दे दो, सार
न आयेगा।
क्योंकि
परमात्मा को
धन से नहीं पाया
जा सकता। न तो
धन इकट्ठा
करके पाया जा
सकता, न
दान दे कर
पाया जा सकता।
परमात्मा को
पाने का तो एक
ही उपाय है कि
तुम अपने को
छोड़ दो। शायद
तुम अपने को पकड़े हो
यही तो बाधा
है। छोड़ा कि
मिला!
जोशु
ने बड़ी गजब की
बात कही। कहा, 'अच्छा मारा,
अच्छा
बचाया।' खतम
हो गये
बिलकुल!
बिलकुल मिट
गये! पहली दफा
आया था, तो
मुट्ठी में
तुम थे। अब
मुट्ठी में
तुम नहीं हो, शून्य है। 'अच्छा मारा,
अच्छा
बचाया।' और
बिलकुल बच
गये।
हम
बचाने की
कोशिश कर-करके
मिटे जा रहे
हैं। और कुछ
हैं, जिन्होंने
अपने को मिटा
दिया और बचा
लिया। खोना ही
मार्ग है उसे
पाने का। मिटे
बिना नया जन्म
न होगा।
पुराने को दबा
दो कब्र में, उसी कब्र के
ऊपर नये का
अंकुरण होता
है। तुम्हारी राख
से ही
परमात्मा की
ज्योति
उठेगी।
तुम्हारा
अहंकार--मैं
हूं कुछ, जब
तक तुम
सम्हाले
रखोगे तब तक
उथले रहोगे।
वह जहाज बड़ा
है। उसके लिए
गहराई चाहिए।
अहंकार से
उथली चीज
तुमने कोई
देखी इस संसार
में? छिछला
पानी जहां होता
है, वह भी
ज्यादा गहरा
है अहंकार से।
अहंकार में तो
कोई गहराई ही
नहीं होती। वह
तो तुम्हारी
चमड़ी के ऊपर
चिपका होता
है।
इसीलिए
तो अहंकार को
चोट पहुंचाना
इतना आसान है।
कोई जरा सा
मुस्कुरा दे
व्यंग में, अहंकार उबल
जाता है; इतना
छिछला है! कोई
जरा तुम्हारी
तरफ न देखे और
अहंकार को चोट
लग जाती है, कि क्या बात
है? यह
आदमी रोज
देखता था। आज
देखा नहीं!
रास्ते पर
निकला हूं, नमस्कार
नहीं किया? अहंकार से
ज्यादा छिछली
कोई भी वस्तु
नहीं है। और
परमात्मा से
गहरा कुछ भी
नहीं है।
अहंकार छिछला
और आत्मा
गहरी।
अगर
तुम अहंकार पर
खड़े हो, अपने
को बचा रहे हो,
तो
तुम्हारे
किनारे पर डोंगियां
लग सकती हैं।
व्यर्थ उन डोंगियों
में आयेगा।
सार्थक उन डोंगियों
में नहीं आ
सकता।
तो कहा
जोशु ने, 'अच्छा दिया,
अच्छा लिया,
अच्छा मारा,
अच्छा
बचाया।'
इस एक
वचन में सारी
साधना आ जाती
है। दे दो
अपने को और
तुम जो पाना
चाह रहे हो, वह तुम्हें
मिल जायेगा।
वह मिला ही
हुआ है। तुम
जब तक अपने को पकड़े हो तब
तक तुम्हारे
हाथ खाली नहीं
हैं। इसलिए तुम
उसे पाने से
वंचित हो।
मिटा दो स्वयं
को और तुम
सत्य को पा
लोगे।
तुम्हारे
अतिरिक्त न कोई
तुम्हारा
शत्रु है और
तुम्हारे
अतिरिक्त न
कोई तुम्हारा
मित्र है। जब
तक तुम अपने
को पकड़े
हो, शत्रु
हो। जिस दिन
अपने को छोड़
दोगे, उस
दिन तुम्हीं
मित्र हो
जाओगे।
ऐसा कह
कर जोशु
ने झुक कर उस
भिक्षु को
नमस्कार
किया। जहाज लग
गया। आज
भिक्षु का
किनारा बहुत
गहरा है। जोशु
को झुक कर
नमस्कार करना
पड़ा। और यह
आदमी वही है, जहां से जोशु
कह कर चले गये
थे, यहां
हमारी जगह
नहीं है।
आदमी
के होने के दो
ढंग हैं। आदमी
तो वही है। अगर
तुम भिखारी हो
तो इसलिए कि
तुम परिधि पर
खड़े हो। तुम
सम्राट हो
जाओगे, अगर
तुम केंद्र की
तरफ मुड़ जाओ।
सारी ध्यान की
प्रक्रियायें
तुम्हें
परिधि से
केंद्र की तरफ
ले जाने के उपाय
और विधियां
हैं। लेकिन
मार्ग में कई
चीजें खोनी
पड़ेंगी। सबसे
पहले तो
तुम्हें
स्वयं को खोना
पड़ेगा।
इसे
खूब गहराई में
पकड़ लो, क्योंकि
यही चाबी है, जो लगती है।
अहंकार अगर हो,
तो क्रोध पैदा
होता है।
अहंकार अगर हो,
तो मोह पैदा
होता है।
अहंकार अगर हो,
तो लोभ पैदा
होता है।
अहंकार न हो, तो कैसे
क्रोधित
होओगे? कोई
गाली देगा, तुम सुन
लोगे। तुम तक
वे पहुंचेंगी
ही नहीं।
तुम्हारे
भीतर अहंकार
का घाव न हो, तो गाली चोट
किसे करेगी?
अहंकार
मूल पाप है।
बाकी सारे पाप
उसकी छायायें
हैं। किसके
लिए तुम लोभ
करते हो? किसके
लिए तुम चीजों
को इकट्ठा
करके पागल हुए
जा रहे हो? किसके
लिए पद, सिंहासन
चाहते हो? लेकिन
बड़े मजे की
बात है कि लोग
लोभ को छोड़ने
की कोशिश करते
हैं। क्रोध भी
छोड़ने की
कोशिश करते
हैं। मोह को
भी छोड़ने की
कोशिश करते
हैं। बिना यह
समझे, कि
ये छोड़े नहीं
जा सकते। यह
ऐसे ही है, जैसे
कोई आदमी अपनी
छाया को छोड़ने
की कोशिश कर
रहा हो।
अहंकार के
रहते ये कोई
भी छूट नहीं
सकते। यह हो
सकता है कि
तुम धोखा दे
लो, कि
मैंने लोभ छोड़
दिया। लेकिन
लोभ नये रूप
लेकर रहेगा। छाया
का रंग बदल
जायेगा, लेकिन
छाया रहेगी।
दिखाई भी न
पड़े, तो भी
रहेगी।
क्योंकि छाया
तुम्हारे साथ
जुड़ी है।
अगर
तुमने लोभ
छोड़ा अहंकार
को बचा कर, तो तुम्हारे
अलोभ में भी
अहंकार खड़ा हो
जायेगा। देखो
त्यागी को, वह त्याग से
अकड़ा हुआ
है--कि मैंने
सब छोड़ दिया।
देखो निरहंकारी
को, जो
कहता है मैं
विनम्र हूं।
विनम्रता ही
उसका अहंकार
बन गई है। अगर
तुम उससे कह
दो कि हमारे गांव
में तुमसे भी
ज्यादा
विनम्र एक
आदमी है, तो
उसको वैसी ही
चोट लग जाती
है, जैसे
तुम किसी से
कह दो, हमारे
गांव में
तुमसे भी बड़ा
आदमी है।
विनम्रता की
भी होड़
है। होड़
तो सिर्फ
अहंकार की
होती है।
विनम्रता की
क्या होड़
होगी! तुम झुकोगे
भी, तो
तुम्हारे
झुकने में भी
तरकीब होगी।
वह भी खालिस
शुद्ध नहीं
होगा। अहंकार
पीछे खड़ा देखता
रहेगा, कि
लोगों ने देख
लिया न कि मैं
झुका? कि
मैं कैसा
विनम्र आदमी
हूं! कि मुझसे
ज्यादा
विनम्र कौन है?
नहीं; न तो क्रोध, न लोभ, न
मोह, इनसे
तुम सीधे मत
लड़ना। इसलिए
मैं निरंतर
कहता हूं कि
तुम्हारी
लड़ाई सिर्फ एक
है--अहंकार। और
अहंकार को
मारने का एक
ही उपाय
है--ध्यान। क्योंकि
जैसे-जैसे तुम
ध्यानस्थ
होते हो, अहंकार
तिरोहित होने
लगता है।
अहंकार बच
सकता है गैर
ध्यान की
अवस्था में।
जितने तुम
मूर्च्छित हो,
उतना
ज्यादा
अहंकार।
जितने तुम होश
से भरोगे,
उतना कम
अहंकार। जिस
दिन तुम पूरे
होश से भर जाओगे,
उस दिन
अहंकार खो
जाता है। अगर
अहंकार को
मिटाना हो, तो जागना।
ज्यादा
होशपूर्वक
जीना।
उठते-बैठते
ध्यान को
साधना।
चलते-फिरते
भीतर होश बना
रहे, खोये
न। नींद में
मत चलना।
मूर्च्छित
जीवन को मत
चलने देना। जो
भी करो, जानते
हुए करना।
और तुम
चकित हो
जाओगे। कभी
तुमने जानते
हुए क्रोध
किया? तुम
कर ही न
पाओगे। जैसे
ही तुम जागोगे,
क्रोध का
सिलसिला टूट
जायेगा। ठीक
बीच में जाग
जाओगे, तो
क्रोध वहीं
रुक जायेगा।
क्योंकि
क्रोध को चलने
के लिए
मूर्च्छा
चाहिए। तुमने
कभी देखा कि
कामवासना में
भरे हुए अगर
तुम जाग जाओगे,
काम-वासना
रुक जायेगी।
काम-वासना के
लिए मूर्च्छा
चाहिए।
होश
जितना गहरा
चला जायेगा
उतने ही पाप
तिरोहित हो
जायेंगे। मूर्च्छा
अहंकार की
जननी है। अमूर्च्छा
निरहंकार को
ले आती है। और
जिस दिन
निरहंकार आ
जायेगा, उस
दिन जोशु
तुम्हारे
द्वार पर आ कर
तुमसे भी कह
सकता है, 'अच्छा
दिया, अच्छा
लिया, अच्छा
मारा, अच्छा
बचाया।'
तुम
अभी जहां हो, वहां
तुम्हें यह
बात भी समझनी
मुश्किल
मालूम पड़ती
है। क्योंकि
तुमसे बिलकुल
विपरीत है। तुम
समझ भी लोगे
बुद्धि से, तो भी बहुत
काम न आयेगी।
क्योंकि
बुद्धि केवल शब्दों
को ढो सकती
है। बुद्धि
अनुभव को नहीं
ले जा सकती।
अनुभव का
केंद्र हृदय
है। और हृदय तुम्हारे
केंद्र पर है।
और बुद्धि
तुम्हारी परिधि
है।
यह बहुत
मजे की बात है
कि हृदय को ले
कर तुम पैदा
होते हो।
बुद्धि तो
समाज तुम्हें
देता है।
बुद्धि
शिक्षण से आती
है, संस्कार
से आती है।
हृदय जन्म के
साथ आता है। सभी
लोग हृदय ले
कर पैदा होते
हैं। बुद्धि
शिक्षण, प्रशिक्षण,
आयोजन से
आती है।
बुद्धि
तुम्हें समाज
देता है।
इसलिए बुद्धि
के
विश्वविद्यालय
हैं। हृदय का
कोई
विश्वविद्यालय
नहीं है। हो
भी नहीं सकता।
उसकी कोई
जरूरत भी नहीं
है। लेकिन इस
बुद्धि के
शिक्षण के
कारण
धीरे-धीरे, धीरे-धीरे
तुम अपने
मस्तिष्क में
ही रहने लगते
हो। तुम भूल
ही जाते हो कि
और गहरे में खजाने
हैं।
जैसे
कोई आदमी अपने
भवन के पोर्च
में ही निवास
करता हो। और
भूल ही गया हो
कि भवन के
असली कक्ष तो
भीतर हैं।
पोर्च तो केवल
प्रवेश-द्वार
था। उसने उसे
घर बना लिया
है। वैसे ही
तुम खोपड़ी को
घर बना लिए
हो। वह
प्रवेश-द्वार
है, पोर्च
है। बुद्धि तो
एक तरह का
पहरेदार है--संसार
और तुम्हारे
बीच। भीतर तुम
हो। थोड़ा
बुद्धि को
शिथिल करो, रिलैक्स करो,
ढीला करो, ताकि भीतर
सरक सको।
जिस
दिन भी तुम
केंद्र का
थोड़ा सा अनुभव
पा लोगे उसी
दिन जोशु
के वचन
तुम्हारी समझ
में आ
जायेंगे: 'रूमसस हपअमदै ूमसस जांमदै
ूमसस ापससमकै
ूमसस अमक्'
उस दिन
तुम जानोगे, तुम गये फिर
भी तुम बचे।
और जो गया वह
क्षुद्र था, जो बचा वह महिमावान
है। तुम मिट
गये, जो
तुम कल तक थे।
लेकिन वह कूड़ा-कर्कट
था। तुम बचे, लेकिन वही
बचा, जो
स्वर्ण है।
इस
स्वर्ण को
पाने के लिए
करीब-करीब
मृत्यु जैसी
अग्नि से
गुजरना जरूरी
है। मृत्यु
तुम्हें निखारेगी।
अहंकार मरेगा
तो तुम्हारी
आत्मा
शुद्ध-स्वर्ण
की भांति
प्रगट हो जाती
है।
आज
इतना ही।
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