दिनांंक 10 सितम्बर 1975 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्न—सार:
प्रश्न—सार:
1—आपने
कहा, मनुष्य एक
सेतु है—पशु
और परमात्मा
के बीच। तो हम इस
सेतु पर कहां
हैं?
2—कभी आप कहते
हैं कि गुरु
और शिष्य का, प्रेम और
प्रेयसी का अंतर्मिलन
संभव है। कभी
आप कहते हैं
कि हम नितांत
अकेले है और
कोई मिलन संभव
नहीं है।
कृपया इस
विरोधाभाष को
समझाये।
3—यदि
जीवन अस्तित्व
की एक आनंदपूर्ण
लीला है,
तो
फिर सभी जीव
दुख क्यों भोग
रहे हैं?
4—कभी—कभी
ऐसा लगता है
जैसे कि आप एक
स्वप्न
हैं...!
5—ऐसा
कैसे है कि
मैं अभी भी
भटका हुआ हूं….?
6—मैं खोई हुई
अवस्था में
हूं—न इस
संसार में हूं, न
उस संसार में;
न तो पशु
हूं और न परमात्मा।
इस अवस्था से
बाहर कैसे
निकलुं?
7—यदि विधायक
है नकारात्मक
के कारण, प्रकाश
है अंधकार के
कारण; तो
कोई मालिक
कैसे हो सकता
है? बिना
किसी को गुलाम
बनाए?
8—क्या
आपके पास बने
रहने कि, आपसे दूर
न होने की
आकांशा भी एक
बंधन है?
9—कैसे
कोई झूठी समस्याओं
को झूठ की तरह
पहचानना सीख
सकता है?
10—आप
पागल है। और
आप मुझे भी
पागल बनाए दे रहे
है?
11—महावीर, बुद्ध और
रजनीश
शारीरिक रूप
से क्यों नहीं
नाचते और गाते?
12—मैं यहां सिखाने
के लिए नहीं
आया हू, बल्कि
तुम्हें
हंसाने के लिए
आया हूं। हंसो,
और समर्पण
घटित होगा—और
किसी आश्वासन
की अब कोई
जरूरत नहीं है।’
अपने
पुराने
आश्वासन को
क्या आप उपरोक्त
ढंग से बदलना
चाहेंगे?
पहला
प्रश्न:
आपने
कहा मनुष्य एक
सेतु है— पशु
और परमात्मा
के बीच। तो हम
इस सेतु पर
कहां है?
तुम सेतु पर
नहीं हो, तुम्हीं
सेतु हो। इस
बात को ठीक से
समझ लेना है।
यदि तुम सोचते
हो कि तुम
सेतु पर हो, तो तुम पूरी
बात चूक गए—यह अहंकार
ही है जो पूरी
बात की गलत
व्याख्या कर रहा
है। तुम सेतु
हो। तुम्हें
अपने पार जाना
है, अपना
अतिक्रमण
करना है। तुम,
जैसे तुम
अभी हो, सेतु
हो। तुम्हें
अपने को पीछे
छोड़ देना है; तुम्हें
अपने पार जाना
है।
यदि
तुम इसे ठीक
से समझ लो, तो बात
बड़ी स्पष्ट हो
जाती है. यदि
तुम बहुत
सघनता से हो, तो तुम पशु
हो जाओगे, तो
भी सेतु
तिरोहित हो
जाता है। यदि
अहंकार बहुत
ठोस हो जाए, तो भी तुम
सेतु नहीं
रहते, सेतु
खो जाता है और
तुम पशु हो
जाते हो। यदि
तुम बिलकुल
शून्य हो जाओ
तो भी सेतु खो
जाता है, तुम
परमात्मा हो
जाते हो। यदि
केवल अहंकार
बचा है, तो
तुम कुत्ते हो,
अहंकार
कुत्ता है।
यदि तुम
पूर्णतया
तिरोहित हो
गएहो, तो
पीछे छूट गया
परम मौन ही
परमात्मा है।
वह शून्यता, वह खालीपन, वह खाली
आकाश—अनंत, असीम—उसे ही
बुद्ध ने 'निर्वाण'
कहा है।
निर्वाण का
अर्थ है. जब
तुम्हारा 'होना'
समाप्त हो
गया।’निर्वाण'
शब्द का ही
अर्थ होता है :
दीए की ज्योति
का खो जाना—ज्योति
खो गई है; विराट
अंधकार है, कहीं कोई
प्रकाश नहीं।
जब अहंकार की
ज्योति खो
जाती है—तुम्हारी
सीमाएं खो
जाती हैं, अब
तुम कहीं नहीं
खोज सकते
स्वयं को—तब
तुम परमात्मा
हो जाते हो।
इन दो
ध्रुवों—अहंकार
और निरहंकार—इनके
बीच है सेतु।
वह सेतु तुम
हो। इस पर
निर्भर करता
है कि तुम में
कितना अहंकार
है यदि बहुत
अहंकार है तो
तुम पशु की ओर
प्रवृत्त हो
रहे हो; यदि अहंकार
बहुत सघन नहीं
है तो तुम
परमात्मा की
ओर झुक रहे हो।
एक रस्सी तनी
है पशु और परमात्मा
के बीच—लेकिन
तुम्हीं हो
रस्सी। इसलिए
मत पूछो कि
तुम सेतु पर
कहां हो, क्योंकि
अत अहंकार ही
पूछ रहा है।
बस यह समझने
की कोशिश करो
कि तुम्हीं
सेतु हो। उसका
अतिक्रमण
करना है, उससे
गुजर जाना है;
तुम्हें
अपने पार चले
जाना है।
मुक्त
होने की कोशिश
मत करो, क्योंकि वह
भी सूक्ष्म
अहंकार तो
सकता है।
अहंकार से मुक्त
होने की कोशिश
करो—क्योंकि
मुक्ति भी
अहंकार के लिए
बहाना हो सकती
है, इस तरह तुम
कभी मुक्त
नहीं हो सकते
क्योंकि
अहंकार ही
बंधन है।
तुम्हारी
मुक्ति नहीं
हो सकती, मुक्ति
केवल तभी होगी
जब तुम न रहो।
'मैं' की
इस अनुभूति को
तिरोहित होने
दो, और
तुम्हें कुछ
और करने की
जरूरत नहीं है।
बस 'मैं' को जाने दो।
क्योंकि वह
इतनी झूठी बात
है कि उसे
निरंतर सम्हालना
पड़ता है, केवल
तभी वह बनी रह
सकती है।
तुम्हें उसके
साथ सहयोग
करना पड़ता है
प्रतिपल। यह
ऐसा ही है
जैसे कोई
साइकिल सवार
साइकिल के
पैडल चलाता
रहता है : यदि
वह रुक जाए, तो साइकिल
रुक जाएगी।
साइकिल के
चलने के लिए
पैडल का
निरंतर चलते रहना
जरूरी है।
अहंकार को
निरंतर सहयोग
चाहिए।
तुम्हें उसके
विरुद्ध कुछ
करने की जरूरत
नहीं, तुम
तो बस सजग हो
जाओ और सहयोग
मत करो। सजग
रहो, देखते
रहो कि अहंकार
कैसे खेल
खेलता है, उसके
रंग—ढंग कितने
सूक्ष्म हैं।
बस देखो, सहयोग
मत करो—उतना
पर्याप्त है।
अहंकार बिना
भोजन के मर
जाता है; साइकिल
रुक जाती है।
तुम्हारे
पैडल चलाए
बिना वह चल
नहीं सकती।
जब तुम
मेरे पास आते
हो और पूछते
हो कि अहंकार को
कैसे रोकें, तो तुम उस
साइकिल सवार
की तरह हो जो
पैडल भी मारता
जाता है और
सड़क पर
चिल्लाता भी
जाता है और पूछता
भी जाता है, 'कैसे रोकु
कैसे रोकू!' और पैडल भी
मारता जाता है।
पैडल मत चलाओ।
साइकिल अपने
आप नहीं चल
सकती; तुम्हारी
मदद जरूरी है।
तुम्हारी
पीड़ा मिटती
नहीं, क्योंकि
तुम उसे बने
रहने में मदद
देते हो।
तुम्हारा दुख
मिटता नहीं, क्योंकि तुम
उसे सहारा
देते हो; तुम
उसे पोषित
करते हो।
तुम्हारा नरक
मिटता नहीं
तुम्हारे
सहयोग के कारण।
जब तुम इसे
समझ लेते हो, तो सहयोग
समाप्त हो
जाता है; फिर
तुम हिस्सा
नहीं रहते उस
सारे पीड़ा भरे
खेल का; तुम
एक तरफ खड़े हो
जाते हो और
देखते हो।
अचानक
विस्फोट होता
है—कोई अहंकार
नहीं बचता, कोई साइकिल
नहीं बचती, कोई पैडल
नहीं बचता।
यही वह घड़ी
होती है जब
सेतु का
अतिक्रमण हो
जाता है।
दूसरा
प्रश्न :
कभी आप
कहते हैं कि
गुरु और शिष्य
के लिए दो प्रेमियों
के लिए अंतस
से अंतस का
मिलन संभव है
और कभी आप
कहते हैं कि
हम एकदम अकेले
हैं और किसी
के भी साथ
होना असंभव है।
क्या दूसरे से
मिलन की
आकांक्षा—अंतस
से अंतस के
मिलन की
आकांक्षा भी—
मन की एक
इच्छा है एक
कल्पना है
जिसे गिरा देना
है? यदि
संभव हो तो
कृपया समझाएं।
हां, कठिन है
समझाना। सारे
समाधान कठिन
हैं, क्योंकि
पहली तो बात, समस्याएं ही
झूठी हैं।
कैसे किसी
झूठी समस्या
को हल किया
जाए? तुम
बेतुकी बात
पूछ रहे हो, तो समझाना
कठिन हो जाता
है। तो यह ठीक
है सभी
समस्याओं को
समझाना कठिन
है। असल में
जब तुम समझते
हो, तो
कहीं कोई
समस्या नहीं
रहती, जब
तुम नहीं
समझते, तो
समस्या होती
है। तो समस्या
सुलझाई नहीं
जा सकती है, और मैं यहां
तुम्हारी
समस्याओं को
सुलझाने के
लिए नहीं हूं;
मैं
तुम्हारी
मूढ़ताओं में
बिलकुल
भागीदार नहीं
हूं। मैं यहां
तुम्हें समझ
देने की कोशिश
कर रहा हूं—तुम्हारी
समस्याओं को
समझने की कोशिश
नहीं कर रहा
हूं। वे सुलझ
नहीं सकतीं, क्योंकि वे
बिलकुल
अनर्गल हैं।
तुम्हारी
सारी
समस्याएं ऐसी
हैं जैसे किसी
व्यक्ति को
तेज बुखार चढ़ा
हो —एक सौ सात
डिग्री बुखार—और
वह अंट—शंट
सवाल पूछ रहा
हो। वह कहता
है, 'यह
कुर्सी आकाश
में क्यों उड़
रही है?' अब
कैसे समझाओ
इसे? लेकिन
उसका बुखार
उतारा जा सकता
है, वही
एकमात्र उपाय
है। वही मैं
कर रहा हूं
मेरा सारा
प्रयास यही है
कि तुम्हारा
बुखार थोड़ा
नीचे उतर आए।
जब तुम समझ
जाते हो, जब
बुखार थोड़ा
नीचे उतर आता
है, फिर
कुर्सी नहीं
उड़ती। तब तुम
स्वयं पर
हंसने लगते हो
कि कितने मूढ़
थे तुम।
कठिन
है, करीब—करीब
असंभव ही है
समझाना, क्योंकि
पहली तो बात
जो भी तुम
पूछते हो, वह
बेतुका ही
होगा। तुम
सम्यक प्रश्न,
ठीक प्रश्न
नहीं पूछ सकते,
क्योंकि
यदि तुम ठीक
प्रश्न पूछ
सकते होते, तो फिर
पूछने की कोई
जरूरत नहीं रह
जाती। सम्यक
प्रश्न सदा
अपने में
सम्यक उत्तर
लिए रहता है—क्योंकि
असली बात है 'सम्यक' होने
की। यदि तुम
ठीक प्रश्न
पूछ सकते हो, तो तुमने
समझ ही ली है
बात। लेकिन
फिर भी मैं
कोशिश करूंगा;
मैं कोशिश
करूंगा
तुम्हारे
बुखार को थोड़ा
नीचे उतारने
की। वह कोई
समझाना नहीं
है।
'कभी
आप कहते हैं
कि गुरु और
शिष्य के लिए,
दो
प्रेमियों के
लिए अंतस से
अंतस का मिलन
संभव है। और
कभी आप कहते
हैं कि हम
एकदम अकेले
हैं और किसी
के भी साथ
होना असंभव है।’
दोनों
बातें सच हैं।
हम एकदम अकेले
हैं और साथ
होना असंभव है—यह
बात बिलकुल सच
है। और इसी
तरह दूसरी बात
भी बिलकुल सच
है कि दो प्रेमियों
का अंतस से
अंतस का मिलन
हो सकता है; गुरु और
शिष्य का अंतस
से अंतस का
मिलन हो सकता
है।
विरोधाभास
लगता है, क्योंकि
तुम्हारे पास
कोई अनुभव
नहीं है उसका।
जब दो
प्रेमी मिलते
हैं, तो
वे दो प्रेमी
नहीं रहते—केवल
प्रेम होता है।
वे दोनों मिट
चुके होते हैं,
वे दोनों खो
चुके होते हैं,
क्योंकि
यदि प्रेमी
मौजूद हैं तो
प्रेम मौजूद
नहीं हो सकता।
जब दो प्रेमी
मिलते हैं, तो वे दो
नहीं रहते और
वे प्रेमी
नहीं रहते :
केवल प्रेम ही
रहता है। वे
दोनों नदी के
दो किनारों
जैसे होते हैं—असल
में नदी बहती
है और दोनों
किनारों को
छूती है। नदी
के बिना
किनारे दूर—दूर
होते हैं, अलग—
थलग होते हैं,
मिल नहीं
सकते। जब नदी
बहती है तो
किनारे मिलते
हैं नदी के द्वारा,
नदी में।
जब
गुरु और शिष्य
का मिलन होता
है तो वहां
कोई गुरु नहीं
होता, कोई
शिष्य नहीं
होता। दो नहीं
होते; वहां
द्वैत नहीं
बचता। फिर 'एक' ही
होता है अपने
समग्र
अकेलेपन में,
अपने परम
एकांत में। दो
तो नहीं मिल
सकते, लेकिन
यदि दो मिट
जाते हैं, तो
वह सौभाग्य की
घड़ी मौजूद हो
जाती है।
कठिन
है कि उसे
क्या कहें।
यदि मैं उसे
मिलन की घड़ी
कहता हूं तो
तुम गलत समझोगे, क्योंकि
मिलन कहने में
ही दो का खयाल
आता है। यदि
मैं इसे मिलन
नहीं कहता, तो असंभव
होगा मेरे लिए
इसे कुछ और
कहना। यही
तकलीफ है भाषा
के साथ। लेकिन
फिर भी तुम
समझ सकते हो, यदि तुम
मुझे सहानुभूति
से सुनते हो—और
दूसरा कोई
उपाय नहीं
सुनने का—यदि
तुम मेरे रन।
न गहन संवाद
में हो, मेरे
साथ किसी
समस्या पर बहस
करने की कोशिश
नहीं कर रहे
हो, बल्कि
इसके विपरीत
मेरी कठिनाई
को समझने की
कोशिश कर रहे
हो कि जिसे
व्यक्त नहीं
किया जा सकता
उसे मैं
व्यक्त कर रहा
हूं एक गहन
सहानुभूति —उसे
ही श्रद्धा
कहते हैं — तब
तुम समझ सकते
हो कि ये शब्द
धोखा न देंगे,
तब वे बाधा
नहीं बनेंगे।
तब वे संकेत
बन जाते हैं, तब उनमें एक
सार्थकता
होती है—अर्थ
नहीं, सार्थकता—क्योंकि
तुम्हें उनके
द्वारा एक झलक
मिल सकती है।
तुम
जानते हो कि
शब्द स्थूल
हैं। सारे
शब्द स्थूल
हैं। भाषा
स्थूल है, मौन ही
सूक्ष्म है।
लेकिन यदि तुम
मुझे गहन
श्रद्धा से, गहन आस्था
से समझते हो, तो शब्द भी
मौन की कुछ
सुगंध ले आते
हैं। तो मुझे
समझने की
कोशिश करो : दो
नहीं मिल सकते,
असंभव है; और दो मिल
सकते हैं, लेकिन
तब वे दो नहीं
रह जाते। जब
मैं कहता हूं—अंतस
से अंतस का
मिलन, तो
मेरा मतलब है.
अब न प्रेमी
रहा और न
प्रेयसी।
दोनों खो जाते
हैं, दोनों
मिट जाते हैं,
कहीं अंतस
में वे एक हो
जाते हैं। उस
गहन मौन में
केवल प्रेम
होता है, प्रेमी
नहीं होते।
जब
गुरु और शिष्य
साथ होते हैं, तब यदि
शिष्य मिटने
के लिए तैयार
है... क्योंकि गुरु
तो वही है, जो
पहले ही मिट
चुका है, जो
एक शून्य है।
यदि शिष्य भी
तैयार है गुरु
की शून्यता के
साथ बहने के
लिए—बिना किसी
माग के, बिना
किसी इच्छा के,
क्योंकि वे
बातें
तुम्हें
मिटने नहीं देंगी—यदि
शिष्य तैयार
है शून्यता का
हिस्सा बनने के
लिए बिना किसी
संदेह, बिना
किसी झिझक के,
तो वह
शून्यता
दोनों को घेर
लेती है। वह
आच्छादित कर
लेती है दोनों
को। शून्यता
की उस बदली
में दोनों खो
जाते हैं। वही
है अंतस से
अंतस का मिलन।
यह एक अर्थ
में तो मिलन
है, बड़े से
बड़ा मिलन है; और मिलन
नहीं भी है, क्योंकि
मिलने के लिए
दो मौजूद नहीं
होते।
यह बात
विरोधाभासी
लगती है कि
कभी मैं कहता
हूं कि तुम
नितांत अकेले
हो, और
कभी मैं कहता
हूं कि मिलन
की संभावना है।
कब होती है वह
संभावना? जब
तुम कोशिश
नहीं कर रहे
होते हो मिलने
की, तो
मिलन की
संभावना होती
है। यदि तुम
मिलने का
प्रयास कर रहे
हो तो वह प्रयास
ही पूरी बात
को बिगाड़ देगा—क्योंकि
कौन करेगा
प्रयास? यदि
तुम किसी से
अंतस से अंतस
का मिलन करने
की कोशिश कर
रहे हो, मिटने
की कोशिश कर
रहे हो, तो
मिटने की वह
कोशिश ही एक
बाधा हो जाएगी;
मिलने की वह
कोशिश ही, मिलने
की वह इच्छा
ही एक दूरी
निर्मित कर
देगी।
इसीलिए
मैं कहता हूं.
तुम नितांत
अकेले हो। मत
कोशिश करो
किसी से मिलने
की। बस पूरी
तरह अकेले हो
रहो, और
यदि दूसरा भी
पूरी तरह
अकेला है तो
मिलन घटित
होगा। ऐसा
नहीं कि तुम
कोई तैयारी
करते हो उसके
लिए। ऐसा नहीं
कि तुमने कोई
प्रयास किया
होता है, कोई
योजना बनाई
होती है उसके
लिए। वह बात
इतनी विराट है
कि तुम उसे
प्रयास से उपलब्ध
नहीं कर सकते।
वह इतनी विराट
है कि तुम उसे
अपनी मुट्ठी
में नहीं पकड़
सकते। तुम
केवल अपने को
हटा सकते हो
कि वह घट सके।
प्रेम या
परमात्मा—विराट
घटनाएं हैं।
तुम बहुत छोटे
हो। यदि तुम
कोशिश करते हो,
तो तुम असफल
होओगे, तुम्हारी
उस कोशिश में
ही असफलता
छिपी है।
कोई
कोशिश मत करो।
बस अपने
निर्मल एकांत
में, अपने
शुद्ध स्वात
में थिर रहो; मौन, शांत,
स्वयं में
प्रतिष्ठित, केंद्रित
रहो। अचानक
कुछ तुममें
अवतरित होता
है और तुम खो जाते
हो। सेतु खो
जाता, अहंकार
नहीं बचता।
पहली बार, यह
घटना अचानक ही
घटती है। जब
गुरु उतरता है
शिष्य में, या प्रेमी
प्रेयसी में,
या प्रेयसी
मित्र में—जब
भी घटित होती
है यह बात तो
अचानक ही होती
है। यह सदा ही
एक
अप्रत्याशित
घटना होती है।
तुम्हें
भरोसा नहीं
आता कि क्या
हो गया है। यह
एक
अविश्वसनीय
घटना है, सब
से ज्यादा
असंभव घटना है,
लेकिन फिर
भी घटती है।
तीसरा
प्रश्न :
यदि
जीवन
अस्तित्व की
एक आनंदपूर्ण
लीला है तो
फिर सभी जीव
दुख क्यों भोग
रहे है?
तुम कृपा करके
भूल जाओ सभी
जीवों के बारे
में। तुम कुछ
नहीं जानते हो।
मैं नहीं भोग
रहा हूं दुख।
तुम शायद भोग
रहे होगे दुख; तो सब
जीवों की बात
मत करो। तुम
स्वयं को भी
नहीं जानते हो
तो कैसे तुम
दूसरों को जान
सकते हो? केवल
अपनी बात करो,
क्योंकि
चीजें वैसे ही
बहुत जटिल हैं।
जब तुम सभी की
बात करने लगते
हो, तो तुम
करीब—करीब
असंभव ही बना
लोगे इसे समझ
पाना। केवल
तुम से काम चल
जाएगा। केवल
इतना ही कहो. 'मैं
क्यों दुख भोग
रहा हूं? यदि
जीवन
अस्तित्व की
एक आंनदपूर्ण
लीला है, तो
मैं क्यों दुख
भोग रहा हूं?' केवल इतने
से काम चल
जाएगा। सारे
जीवों की बात
भूल जाओ, उससे
तुम्हारा कुछ
लेना—देना
नहीं है। यदि
वे दुख भोगना
चाहते हैं, तो भोगने दो
उन्हें दुख।
तुम कृपा करके
केवल अपने
बारे में
निर्णय करो।
वह भी बहुत है;
वह भी आसान
नहीं है।
क्यों
तुम दुख भोग
रहे हो? क्योंकि तुम
'हो'।
होना ही दुख
है; न होना
दुख के बाहर
हो जाना है।
अहंकार दुखी
होता है।
संपूर्ण जगत
एक विराट लीला
है; सुंदर
लीला है। एक
अदभुत उत्सव
चल रहा है—
क्षण— क्षण
ऊंचे से ऊंचे
शिखरों को छू
रहा है। तुम
दुख भोग रहे
हो क्योंकि
तुम उसमें
सम्मिलित
नहीं हो।
अहंकार कभी भी
हिस्सा नहीं
बनना चाहता
समग्र का; अहंकार
अलग होने का
प्रयत्न करता
है। अहंकार
प्रयत्न करता
है अपनी ही
योजनाओं के लिए,
अपनी ही
धारणाओं के
लिए, अपने
ही लक्ष्यों
के लिए।
इसीलिए तुम
दुख पा रहे हो।
यदि
तुम समग्र का
अंग हो जाओ, तो कहीं
कोई दुख नहीं
रह जाता।
अचानक तुम
धारा के साथ
बहने लगते हो।
तुम अब धारा
के विपरीत
जाने का
प्रयास नहीं करते।
तुम अब तैरते
भी नहीं, क्योंकि
तैरने में भी
प्रयास होता
है। तुम तो बस
धारा के साथ
बहते हो. जहां
भी वह ले जाए, वही
तुम्हारा
लक्ष्य है।
तुमने निजी
लक्ष्य गिरा
दिए हैं, तुमने
स्वीकार कर ली
है समग्र की
नियति। तब तुम
सरलता से जीते
हो, सरलता
से मरते हो।
कहीं कोई
संघर्ष नहीं
होता, कोई
प्रतिरोध
नहीं होता।
प्रतिरोध
ही दुख है—और
तुम समग्र के
विरुद्ध नहीं
जीत सकते। तो
जब भी तुम
प्रतिरोध
करते हो, तुम दुखी
होते हो।
असफलता से आता
है दुख। और तब
तुम असहाय और
निराश अनुभव
करते हो और हर कहीं
तुम्हें ऐसा
ही लगता है
जैसी कि एक
कहावत है. 'मैन
प्रपोजेज, गॉड
डिस्पोजेज'—मनुष्य
इरादा करता है,
परमात्मा
असफल कर देता
है।
तुम
इससे ज्यादा
नासमझी की बात
नहीं ढूंढ सकते।
परमात्मा कभी
नहीं डिस्पोज
करता कुछ, लेकिन
जैसे ही तुम
इरादा करते हो,
तुम अपने
लिए मुसीबत
खड़ी कर लेते
हो, क्योंकि
सब इरादे निजी
होते हैं।
इसका अर्थ है
कि गंगा बंगाल
की खाड़ी में
नहीं गिरना
चाहती, बल्कि
अरब सागर गे
गिरना चाहती
है! उसे बंगाल की
खाड़ी में ही
गिरना होगा, समग्र की
मर्जी पहले से
ही तय तै। —सब
गंगा इरादा
करती है, 'नहीं,
मैं अरब
सागर में
गिरना
चाहूंगी।’ और
जब वह सफल
नहीं होती पश्चिम
की ओर बहने
में और उसे
अनुभव होता है
कि सारे प्रयत्न
व्यर्थ हैं और
वह पूरब की
तरफ ही बह रही
है, तो मन
में विचार उठ
खड़ा होता है
कि मैन प्रपोजेज,
गॉड
डिसगेजेज।
परमात्मा
क्यों चिंता
करे डिस्पोज
करने की? परमात्मा
कभी डिस्पोज
नहीं करता।
लेकिन जिस
क्षण तुम
इरादा बनाते
हो, तुमने
असफलता की
संभावना
निर्मित कर दी
होती है।
लक्ष्यविहीन
जीने की कोशिश
करो और फिर
देखो : सारा
दुख मिट जाता
है। बिना
अहंकार के
जीने की कोशिश
करो, और
कहीं कोई दुख
नहीं रह जाता।
दुख एक
दृष्टिकोण है;
वह कोई
वास्तविकता
नहीं है। तुम
बीमार पड़ते हो,
तुम तुरंत
बीमारी से
लड़ना शुरू कर
देते हो; दुख
पैदा हो जाता
है। यदि तुम
स्वीकार कर लो
बीमारी को, तो दुख मिट
जाता है। तब
तुम जानते हो
कि परमात्मा
की यही मर्जी
है; जरूर
कुछ राज होगा
इस में। ईसकी
जरूरत होगी
तुम्हारे
विकास के लिए।
ऐसा ही
सूली पर जीसस
के साथ हुआ :
सूली लगने के
एक क्षण पहले
पूरा मनुष्य—चित्त
उनके अंतस में
उभर आया।
उन्होंने
आकाश की तरफ
देखा और कहा, 'यह क्या
हो रहा है? यह
तू क्या दिखला
रहा है? तूने
मुझे अकेला
क्यों छोड़
दिया है?'
यह
मनुष्य का मन
है। जीसस
सुंदर हैं। वे
मनुष्य हैं, वे
परमात्मा हैं,
दोनों हैं—मनुष्यता
की सारी
कमजोरियां
उनमें हैं और
परमात्मा की
संपूर्ण
पराकाष्ठा
उनमें है. वे
एक मिलन—बिंदु
हैं, जहां
सेतु खो जाता
है और मंजिल
प्रकट हो जाती
है, वह
अंतिम बिंदु जहां
सेतु खोता है।
वे क्रोध में
थे। शिकायत से
भरे थे। वे कह
रहे थे, 'तूने
मुझे निराश
किया।’
इस
अंतिम घड़ी में
हर कोई इंतजार
कर रहा था कि कोई
चमत्कार होगा—जीसस
भी गहरे में
जरूर किसी
चमत्कार का
इंतजार कर रहे
होंगे —कि
सूली गायब हो
जाएगी, फरिश्ते
नीचे उतरेंगे
और सारा संसार
जान जाएगा कि
वे ही हैं
प्रभु के
इकलौते बेटे।
अहंकार कहता
है, 'तूने
क्यों मुझे
धोखा दिया? तू मुझे यह
क्या दिखला
रहा है? तेरा
इकलौता बेटा
सूली पर चढ़ाया
जा रहा है—तू
कहां है?' उस
घड़ी में, जरूर
एक संदेह उनके
मन में आया
होगा।
और मैं
कहता हूं, सुंदर है
यह बात—यह
बताती है कि
जीसस मनुष्य
के पुत्र और
परमात्मा के
पुत्र दोनों
हैं। और यही
है जीसस का
सौंदर्य और
उनका आकर्षण।
मनुष्य—जाति
का इतना बड़ा
हिस्सा ईसाई
क्यों हो गया
है?
यदि
तुम बुद्ध को
देखो, तो
वे बस
परमात्मा
मालूम पड़ते
हैं; मनुष्यों
की कोई कमजोरी
नहीं है उनमें।
यदि तुम
महावीर को
देखो, तो
वे शिखर मालूम
पड़ते हैं, गौरीशंकर,
परम
महिमावान।
यदि तुम कृष्ण
को देखो, तो
तुम एक भी चीज
ऐसी नहीं पा
सकते जो तुम
में संदेह
पैदा करे।
लेकिन
क्राइस्ट—कमजोर,
कोमल, कंपित—तमाम
आशंकाएं, अनिश्चितताएं,
संदेह साथ
लिए हैं; वह
सारा अंधकार
साथ है जिसकी
ओर मनुष्य का
मन प्रवृत्त
होता है। और
फिर एक अचानक
विस्फोट होता
है और उसके
बाद वे मनुष्य
नहीं रह जाते।
अंतिम
घड़ी तक भी वे
मेरी और जोसेफ
के पुत्र जीसस
ही थे; सारी
आशंकाएं उठ
खड़ी हुईं—स्वभावत:।
मैं उनके
विरुद्ध कुछ
नहीं कह रहा
हूं —स्वाभाविक,
बिलकुल
स्वाभाविक थी
बात, वैसा
ही होना चाहिए।
लेकिन फिर वे
सम्हल गए : 'मैं
यह क्या कर
रहा हूं? परमात्मा
ने नहीं छोड़ा
है मुझे, मैं
ही उसे छोड़े
दे रहा हूं।
मेरी
अपेक्षाएं
पूरी नहीं हुई
हैं।' बिजली
की कौंध की
तरह अचानक
उन्हें पूरी
बात समझ में आ
गई, 'मैं
अपने अहंकार
को पकड़ रहा
हूं। मैं मांग
कर रहा हूं समझने
की। मैं हूं
कौन? और
क्यों
संपूर्ण
अस्तित्व मेरी
फिक्र करे?'
एक
मुस्कुराहट
जरूर चली आई
होगी उनके
चेहरे पर, बदलिया
छंट गईं, वे
विश्रांत हुए।
और उन्होंने
कहा, 'प्रभु,
तेरी मर्जी
पूरी हो। कृपा
करके मेरी
चिंता न लें।
मत सुनें मेरे
मूढ़ मन की।
मैं कौन होता
हूं कहने वाला
कि क्या होना
चाहिए? मैं
कौन होता हूं
अपेक्षा रखने
वाला? और
जब तू है तो
मैं क्यों कोई
चिंता करूं?'
उस
समर्पण में ही
जीसस 'क्राइस्ट'
हो गए। वे
फिर मरियम और
जोसेफ के बेटे
न रहे। वे
परमात्मा के
बेटे हो गए।
रूपांतरित, परिवर्तित,
एक नई अंतस
सत्ता का जन्म
हुआ जिसका
स्वीकार— भाव
समग्र है। अब
कहीं कोई
समस्या नहीं
है। यदि
परमात्मा की
मर्जी है कि
उन्हें सूली
लगे, तो
यही ठीक है—और
यह है
चमत्कार!
और
वस्तुत: सूली
चमत्कार
प्रमाणित हुई!
आज ईसाइयत
क्रॉस कारण ही
है, क्राइस्ट
के कारण नहीं।
यदि वे उस दिन
बच जाते तो
हमने उन्हें
एक जादूगर या
बाजीगर की
भांति याद रखा
होता। लेकिन
उस गहन समर्पण
में, जहां
सारी
शिकायतें खो
जाती हैं, अस्तित्व
से अस्तित्व
का मिलन घटित
हुआ :
उन्होंने
परमात्मा को
अवतरित होने दिया,
अपने को
पोंछ दिया।
इसी भांति—मृत्यु
द्वारा, समर्पण
द्वारा—वे
पुनरुज्जीवित
हुए। फिर वे
वही न रहे जो
सूली लगने के
पहले थे। एक
नवजीवन—पूरी
तरह नए, निर्दोष,
निर्मल—स्व
नए जीवन का
आविर्भाव हुआ।
पुराना विदा
हो गया, नए
ने जन्म लिया,
और इन दोनों
में कहीं कोई
सातत्य नहीं
है।
तुम
मुझ से पूछते
हो कि यदि
जीवन
अस्तित्व की एक
आनंदपूर्ण
लीला है, तो फिर
क्यों.. .तो फिर
इतना दुख
क्यों है?
दुख है
क्योंकि तुम
अभी अस्तित्व
की लीला का हिस्सा
नहीं हो।
तुम्हारा
अपना एक छोटा—मोटा
नाटक है, और तुम उसे
खेलना चाहते
हो। तुम समग्र
अस्तित्व के
हिस्से नहीं
हो; तुम
कोशिश कर रहे
हो अपना ही
छोटा सा संसार
बनाने की।
प्रत्येक
अहंकार अपना
अलग संसार बना
लेता है; यही
समस्या है।
समग्र
के साथ बहो, और दुख
मिट जाता है।
दुख सूचक है :
वह बताता है
कि तुम जरूर
समग्र के साथ
लड़ रहे हो, बस
इतना ही। तुम
अतीत में किए
अपने पापों के
कारण दुख नहीं
भोग रहे हो।
तुम दुख भोग
रहे हो उस पाप
के कारण जो
तुम अभी कर
रहे हो। एक ही
पाप है :
संघर्ष, द्वंद्व,
स्वीकार न
करना।
अंग्रेजी
का शब्द 'सिन' जिस
मूल धातु से
आता है उसका
अर्थ है. 'अलग होना'।’सिन' शब्द का ही
अर्थ होता है
अलग होना। तुम
अलग हो गए हों—वही
एकमात्र पाप
है। जब तुम
फिर जुड़ जाते
हो, तो पाप
तिरोहित हो
जाता है। सारी
ईसाइयत पाप की
इस धारणा पर
खड़ी है कि मनुष्य
अलग हो गया है
परमात्मा से,
इसीलिए वह
पापी है। ठीक
इसके विपरीत
है पतंजलि की
धारणा—विपरीत
है, फिर भी
पूरक है—वे
जोर देते हैं 'योग' पर, जुड़ने पर।
पाप और
योग. एक ही पाप
है—अलग हो
जाना, और
योग का अर्थ
है—फिर से मिल
जाना। यदि
तुम्हारा फिर
से मिलन हो
जाए समग्र के
साथ, तो
कहीं कोई दुख
नहीं रहता।
जितना ज्यादा
का समग्र से
दुर चले जाते
हो, उतना
ज्यादा तुम
दुख भोगते हो।
जितना ज्यादा
तुम्हारा अहंकार
सधन होता है, उतने ज्यादा
तुम दुखी होते
हो।
चौथा
प्रश्न :
कभी—
कभी ऐसा लगता
है जैसे कि आप
एक स्वप्न
हैं.......!
यह सच
है। अब
तुम्हें और
गहरा करना है
इस अनुभूति को, ताकि कभी
तुम अनुभव कर
सको कि तुम भी
एक स्वप्न हो।
और गहरे उतरो
इस अनुभूति
में। एक घड़ी
आती है जब तुम
जान लेते हो
कि जो भी है, सब सपना ही
है। जब तुम यह
जान लेते हो
कि जो भी है सब
सपना है, तो
तुम मुक्त हो
जाते हो।
यही तो
अर्थ है
हिंदुओं की
माया की धारणा
का। वह यह
नहीं कहती कि
सब कुछ झूठ है; वह इतना
ही कहती है कि
सब कुछ सपना
है। सवाल सच
या झूठ का
नहीं है। तुम
क्या कहोगे
सपने को—वह सच
है या झूठ? यदि
वह झूठ है, तो
कैसे दिखाई
पड़ता है वह? यदि वह सच है,
तो कैसे मिट
जाता है वह
इतनी आसानी से? तुम
अपनी आंखें
खोलते हो और
वह कहीं नहीं
होता। सपना
जरूर कहीं सच
और झूठ के बीच
होगा। उसमें
जरूर कुछ न
कुछ अंश होगा
सच्चाई का और
उसमें जरूर
कुछ न कुछ अंश
होगा झूठ का।
सपना भी होता
तो है, सपना
एक सेतु है—न
वह इस किनारे
पर है और न उस
किनारे पर है;
न इधर है, न उधर है।
यदि
तुम सपने को
सच मान लेते
हो, तो
तुम सांसारिक
हो जाओगे। यदि
तुम सपने को
झूठ मान लेते
.हो तो तुम बच
कर भागने
लगोगे हिमालय
की ओर; तुम
असांसारिक हो
जाओगे। और
दोनों ही
दृष्टिकोण
अतियां हैं।
सपना ठीक मध्य
में है. वह सच
और झूठ, दोंनों
है। उससे
भागने की कोई
जरूरत नहीं है—वह
एक झूठ है।
उसे पकड़ने की
भी कोई जरूरत
नहीं है—वह एक
झूठ है। सपनों
के पीछे
जिंदगी
गंवाने की कोई
जरूरत नहीं है—वे
झूठ हैं। और
उन्हें त्याग
देने की भी
कोई जरूरत
नहीं है—क्योंकि
कैसे तुम झूठ
का त्याग कर
सकते हो? उनका
उतना भी अर्थ
नहीं है।
और इसी
समझ से
संन्यास की
मेरी धारणा का
जन्म होता है.
तुम सपने को
यह जानते हुए
जीते हो कि वह
एक सपना है।
तुम संसार में
यह जानते हुए
जीते हो कि वह
एक सपना है।
तब तुम संसार
में होते हो, लेकिन
संसार नहीं
होता तुम में।
तुम संसार में
चलते हो, लेकिन
संसार नहीं
चलता है तुम
में। तुम बने
रहते हो संसार
में। असल में,
तुम अब उसका
और भी आनंद
लेते हो—क्योंकि
एक सपना ही है;
तुम्हारे
पास खोने के
लिए कुछ भी
नहीं है। तब
तुम गंभीर
नहीं होते।
असल में, तुम
खेलने लगते हो
बच्चों की
भांति—क्योंकि
सपना ही है।
तुम उसका आनंद
ले सकते हो, उसका मजा ले
सकते हो।
अपराधी अनुभव
करने जैसा कुछ
नहीं है उसमें।
एक उत्सव है
जीवन का।
संसार में रह
कर भी संसार
के न होना, संसार
में जीना और
फिर भी अलग—
थलग रहना; क्योंकि
जब तुम जानते
हो कि यह सपना
है, तो तुम
बिना किसी
अपराध— भाव के
उसका आनंद ले
सकते हो, और
तुम बिना किसी
समस्या के
उससे अलिप्त
रह सकते हो।
तुम
थिएटर जाते हो; तुम कोई
पिक्चर देखने
जाते हो : वह सब
सपना है। तीन
घंटे तुम रस
लेते हो उसमें।
फिर बत्तियां
जल जाती हैं—तुम्हें
याद आता है कि
यह तो मात्र
एक खेल था, पर्दे
पर चलता
प्रकाश और
छाया का खेल
था। अब पर्दा
खाली है। तुम घर
आ जाते हो; तुम
भूल जाते हो सब
कुछ। पूरा
संसार एक
विशाल पर्दे
पर चलता धूप—छांव
का खेल है। जब
तुम समझ जाते
हो, तुम्हारी
आंखें खुल
जाती हैं। तुम
जानते हो कि
यह एक सपना है—इससे
आनंदित होने
में कुछ गलत
नहीं है, एक
सुंदर सपना ही
है। लेकिन अब
तुम स्वयं में
थिर रहते हो!
कठिन
है बात।
सांसारिक
होना आसान है, क्योंकि
तुम इसे सच
मान लेते हो।
असांसारिक
होना, हिमालय
जाकर साधु—संन्यासी
हो जाना भी
आसान है, क्योंकि
तुम सब कुछ
झूठ मान कर
छोड़ देते हो।
लेकिन इस जगत
में जीना, भलीभांति
जानते हुए कि
यह आभास है, भलीभांति
जानते हुए कि
यह एक सपना है,
इस तरह जीना
संसार की सबसे
कठिन बात है—और
इस सबसे कठिन
बात से गुजरना
तुम्हारी मदद
करता है
विकसित होने
में।
सांसारिक
लोग चालाक
होते हैं, लेकिन
बुद्धिमान
नहीं; गैर—सांसारिक
सीधे—सरल होते
हैं, लेकिन
फिर भी
बुद्धिमान
नहीं होते। जो
लोग बाजार में
जीते हैं, बहुत
चालाक होते
हैं, लेकिन
बुद्धिमान
नहीं होते। और
जो संसार छोड़
देते हैं और
मंदिरों में
और हिमालय में
जाकर बैठ जाते
हैं—वे सीधे—सरल
होते हैं, चालाक
नहीं होते, लेकिन
बुद्धिमान भी
नहीं होते।
क्योंकि
बुद्धि केवल
तभी विकसित
होती है जब तुम
सब तरह की
स्थितियों से
गुजरते हो—लेकिन
जागे हुए
गुजरते हो।
तुम नरक से भी
गुजरते हो, लेकिन पूरी
तरह जागे हुए
गुजरते हो, तब बुद्धि
विकसित होती
है। बुद्धि को
विकसित होने
के लिए चुनौती
चाहिए। यदि
तुम
चुनौतियों से
भागते हो, तो
तुम केवल सड़ते
हो, तुम
विकसित नहीं
होते। इसीलिए
मैं इस पर जोर
देता हूं.
संसार में रहो,
और संसार के
मत रहो।
पांचवां
प्रश्न:
ऐसा
कैसे है कि
मैं अभी भी
भटका हुआ हूं?
इस प्रश्न का
उत्तर
तुम्हें कोई
दूसरा नहीं दे
सकता। तुम
भटके हुए हो, तुम्हें
ही पता होगा।
तुम जरूर लुका—छिपी
का खेल खेल
रहे होओगे।
मैं जानता हूं
कि तुम जानते
हो। तुम भटके
रहना चाहते हो,
इसीलिए तुम
भटके हुए हो।
जिस क्षण तुम
निर्णय करो कि
भटकना नहीं है,
तो कोई बाधा
नहीं दे रहा
है तुम्हें; कोई
तुम्हारा
रास्ता नहीं
रोक रहा है।
लेकिन तुम और
थोड़ी देर सपना
देखना चाहते
हो। तुम्हारी
कुल
प्रार्थना यह
है, 'हे
परमात्मा, मुझे
बुद्धत्व
मिले, लेकिन
एकदम अभी नहीं।’
यह है
तुम्हारी
प्रार्थना 'मैं जाग
जाऊं, लेकिन
थोड़ी देर बाद।’
ऐसा
हुआ लंका में:
एक बड़ा
रहस्यदर्शी
संत मरणशथ्या
पर था; उसके
लाखों शिष्य
थे। यह जान कर
कि वह
मरणशथ्या पर
है, वे सब
इकट्ठे हो गए।
अपना पूरा
जीवन—और वह
लंबा जीवन
जीया, करीब—करीब
सौ वर्ष जीया—वह
बुद्धत्व के
विषय में
समझाता रहा था।
जिस दिन उसे
विदा होना था,
वह अपनी
कुटिया से
बाहर आया
अंतिम दर्शन
देने के लिए
और उसने कहा, 'अब मैं जा
रहा हूं। क्या
कोई मेरे साथ
चलने के लिए
तैयार है? आज
मैं कुछ
समझाऊंगा
नहीं; आज
मैं तैयार तुम्हें
अपने साथ ले
चलने के लिए।
यदि कोई तैयार
है, तो वह
खड़ा हो जाए।’
लोग एक—दूसरे
की तरफ देखने
लगे. हजारों
लोग इकट्ठे थे, लेकिन
कोई खड़ा न हुआ।
गुरु ने थोड़ी
देर
प्रतीक्षा की
और फिर उसने
कहा, 'देर
हो रही है और
मुझे जाना है।
क्या मैं समझ
लूं कि
मेरा पूरा
जीवन व्यर्थ
गया तुम से बुद्धत्व
की बातें करते
हुए? और अब
मैं तुम्हें
बुद्धत्व
देनें के लिए
तैयार हूं।
तुम्हें कुछ
प्रयास करने
की जरूरत नहीं
है; मैं
तुम्हें अपने
साथ ले जा
सकता हूं। कोई
तैयार है?'
एक
आदमी आधे—आधे
मन से खड़ा हुआ
और उसने कहा, 'थोड़ा
ठहरें! कृपया
मुझे बता दें
कि बुद्धत्व कैसे
मिलता है, क्योंकि
आप तो जा रहे
हैं और मैं
अभी तैयार नहीं
हूं आपके साथ
आने के लिए।
संसार में
बहुत कुछ करना
बाकी है। मेरा
बेटा अभी—अभी
यूनिवर्सिटी
में दाखिल हुआ
है, मेरी
बेटी की शादी
होनी है, मेरी
पत्नी बीमार
है और उसकी
देखभाल करने
वाला कोई
चाहिए.। जब सब
ठीक हो जाएगा,
तो मैं भी
आऊंगा। तो
कृपया, मुझे
विधि भर दे
दीजिए।’
गुरु
हंसा और उसने
कहा, 'जिंदगी
भर मैं
विधियां ही तो
देता रहा हूं।’
क्यों
तुम अपने को
छिपाते हो
विधियों के
पीछे? लोग
सदा विधि
चाहते हैं, क्योंकि
विधि की आडू
में तुम आसानी
से स्थगित कर
सकते हो, क्योंकि
विधि को तो 'करना' होगा—समय
लगेगा करने
में। और वह
तुम पर निर्भर
करता है—करना
या न करना, या
आधे— आधे मन से
करना, या
स्थगित कर
देना। विधि एक
तरकीब है। जब
तुम विधि
मांगते हो तो
तुम कोई बहाना
ढूंढ रहे हो
ताकि तुम
स्थगित कर सको,
क्योंकि
विधि को तो
पहले पूरा
करना होगा।
संसार
में दो
विचारधाराएं
रही हैं। एक
विचारधारा
कहती है :
बुद्धत्व
अचानक होता है; दूसरी
विचारधारा
कहती है :
बुद्धत्व
क्रमिक होता
है। जो कहते
हैं कि
बुद्धत्व
अचानक होता है,
उनकी कभी
नहीं सुनी
ज्यादा लोगों
ने। उनके
ज्यादा शिष्य
नहीं होते।
क्योंकि कैसे
तुम इन लोगों
के साथ हो
सकते हो? वे
कहते हैं कि
यदि तुम तैयार
हो तो
बुद्धत्व बिलकुल
अभी घट सकता
है।
लोग
हमेशा दूसरे
मार्ग का, क्रमिक
मार्ग का
अनुसरण करते
रहे हैं।
क्योंकि
क्रमिक मार्ग
के साथ
तुम्हारे पास
पर्याप्त
स्थान होता है,
पर्याप्त
समय होता है
स्थगित करने
के लिए। कोई
इमरजेंसी
नहीं होती और
न ही कोई
जल्दबाजी
होती है। वह
कोई अभी और यहां
का सवाल नहीं
है। कल! कल सब
ठीक हो जाएगा;
और दूसरा
जीवन, अगला
जीवन.. तुम इसी
तरह और— और आगे
टालते रहते हो।
गुरु
तैयार था साथ
ले जाने के
लिए, लेकिन
कोई तैयार न
था जाने के
लिए। और तुम
मुझ से पूछते
हो, 'ऐसा
कैसे है कि
मैं अभी भी
भटका हुआ हूं?'
तुम जानते
हो। यदि मैं
तुम से कहूं
कि बिलकुल अभी
संभावना है—तुम
छलांग लगा
सकते हो अपने
भटकाव के बाहर—तो
तुम तुरंत मुझ
से पूछोगे कि
कैसे? तुम
विधि के विषय
में पूछोगे।
यह ऐसे
ही है जैसे
तुम्हारे घर
में आग लगी हो
और कोई तुम से
कहे, 'बाहर
निकलो, घर
में आग लगी है!
तुम जल जाओगे।’
यदि सच में
ही तुम देखते
हो कि घर में
आग लगी है, यदि
लपटें दिखाई
पड़ती हैं
तुमको, तो
तुम नहीं
पूछोगे, 'कैसे?'
क्या तुम
पूछोगे कि
कैसे बाहर आऊं?
तुम छलांग
लगा कर बाहर आ
जाओगे। तुम
बालकनी से
छलांग लगा
दोगे, तुम
खिड़की से छलांग
लगा दोगे, तुम
कहीं न कहीं
से भाग
निकलोगे—तुम
ढूंढ ही लोगे
कोई रास्ता।
क्योंकि फिर
सवाल ठीक
रास्ता
ढूंढने का
नहीं रह जाता—कोई
भी रास्ता ठीक
हो जाता है।
किसी
शिष्टाचार का
सवाल नहीं रह
जाता, कि
तुम्हें
मुख्य द्वार
से ही जाना है।
जब घर में आग
लगी होती है, तो तुम
खिड़की से छलांग
लगा देते हो।
तुम जोखम उठा
लेते हो अपने
जीवन का, क्योंकि
थोड़ी देर और
रूके घर में और
तुम जल जाओगे।
जल मरने की
बजाय बेहतर है
तीसरी मंजिल
से छलांग लगा
देना और जीवन
जीने के लिए
अपंग हो जाना।
तुम बाहर कूद
जाओगे।
लेकिन
यदि तुम कहते
हो, 'ही, मैं जानता
हूं कि घर में
आग लगी है, लेकिन
मैं राय लूंगा
शास्त्रों की
और मैं पूछूंगा
गुरुओं से और
मैं खोजूंगा
बाहर आने का कोई
रास्ता', तो
इससे क्या पता
चलता है? इससे
यही पता चलता
है कि तुम्हें
इसका पता ही नहीं
है कि घर में
आग लगी है।
तुमने मान ली
है किसी की
बात कि घर में
आग लगी है, लेकिन
अपने भीतर तुम
जानते नहीं कि
आग लगी है।
तुम घर में
आराम से रह
रहे हो, आग
तुम्हारा
अपना अनुभव
नहीं है।
बुद्ध
ने अपना महल
छोड़ दिया।
उनका एक
पुराना सेवक
छन्ना, जो कि उनका
बहुत
विश्वासपात्र
था, उन्हें
शहर से बाहर
छोड़ने आया, राजधानी से
बाहर छोड़ने
आया। उसे
मालूम नहीं था
कि वे कहं। जा
रहे हैं। फिर
राज्य के बाहर
आकर बुद्ध ने
कहा, 'मेरे
आभूषण ले जाओ,
मेरे कीमती
कपड़े ले जाओ।’
उन्होंने
अपने बाल, सुंदर
घुंघराले बाल
काट डाले, और
उन्होंने कहा,
'यह सब कुछ
ले जाओ। यह सब
दे देना मेरी
पत्नी को। मैं
संसार छोड़ कर
जा रहा हूं।’
छन्ना
रोने लगा, और उसने
कहा, 'क्या
कर रहे हैं आप?
आप जवान हैं।
आप संसार को
उतना नहीं
जानते, जितना
मैं जानता हूं।
प्रत्येक
व्यक्ति महल
पाना चाहता है,
प्रत्येक
व्यक्ति
सम्राट होना
चाहता है। और
आपके पास
साम्राज्य है
और आप छोड़ कर
जा रहे हैं
इसे। मेरी बात
को गलत न
समझें, लेकिन
मुझे लगता है
कि आप नासमझी
कर रहे हैं।
मैं का हूं
आपके पिता से
अधिक मेरी
उम्र है। मेरी
सुनें, और
वापस लौट चलें।
आप पागल हुए
हैं क्या? आप
क्या कर रहे
हैं?'
बुद्ध
ने कहा, 'छन्ना, क्या
तुम्हें नहीं
दिखता कि वह
महल जलती लपटों
के सिवाय और
कुछ भी नहीं
है? और
क्या तुम्हें
नहीं दिखता कि
पूरा साम्राज्य
आग में जल रहा
है? मैं
इसे छोड़ कर
नहीं जा रहा
हूं; मैं
बच कर भाग रहा
हूं! मैं इसका
त्याग नहीं कर
रहा हूं मैं
तो केवल अपनी
जान बचा रहा
हूं बस इतना
ही।’
छन्ना
ने पीछे मुड़
कर देखा। कहीं
कोई आग नहीं
लगी थी—सारा
राज्य
सन्नाटे में
डूबा था। आधी
रात का समय था, पूर्णिमा
की रात थी, हर
कोई गहरी नींद
में सोया था.
कहां लगी है
आग? नींद
में तुम उसे
नहीं देख सकते,
थोड़ा— थोड़ा
जब तुम जागने
लगते हो तभी
तुम्हें यह आग
दिखाई पड़ती है।
तो मुझ
से मत पूछो कि
क्यों तुम अभी
भी भटके हुए
हो। यही तुमने
चाहा है। तुम
भटके हुए रहना
चाहते हो, इसीलिए
तुम भटके हुए
हो। यदि तुम
ऐसा नहीं
चाहते, तो
कोई समस्या
नहीं है, अभी
इसी क्षण तुम
इसके बाहर आ
सकते हो।
लेकिन कोई और
तुम्हें इसके
बाहर नहीं ला
सकता है। मैं
तुम्हें इसके
बाहर नहीं ला
सकता हूं। और
यह अच्छा है
कि कोई
तुम्हें इसके
बाहर नहीं ला
सकता, इसीलिए
तुम्हारी
स्वतंत्रता
अक्षुण्ण है।
तुम चलाए रखना
चाहते हो इस
खेल को तो
चलाए रखो। यदि
तुम नहीं चलाए
रखना चाहते यह
खेल, तो
इसके बाहर
छलांग लगा दो।
कोई तुम्हें
रोक नहीं रहा
है, कोई
तुम्हारा
रास्ता नहीं
बंद कर रहा है।
जिस
क्षण तुम निर्णय
ले लेते हो, जिस क्षण
तुम्हारा
निर्णय पक
जाता है, जिस
क्षण तुम्हारी
सजगता पूरी
होती है और
तुम इसकी
व्यर्थता को
देख लेते हो, उसी क्षण
तुम उसके बाहर
आ जाओगे—बिलकुल
उसी क्षण। एक
भी क्षण और
रुकने की
जरूरत नहीं
होगी। सवाल
समझ का नहीं
है, सवाल
है समझ का, सवाल
है बोध का।
छठवां
प्रश्न:
मुझे
लगता है कि
मैं बीच में
लटका हुआ हूं :
न तो इस संसार
में हूं और न
उस संसार में
हूं न तो कुत्ता
हूं और न
परमात्मा हूं
इस अवस्था से
बाहर कैसे
निकलूं?
यदि तुम इससे
बाहर आते हो, तो तुम
कुत्ता बन
जाओगे। यदि
तुम खो जाते
हो, पूरी
तरह खो जाते
हो—फिर कोई
बचता ही नहीं
जो इसके बाहर
आ सकता हो—तो
तुम परमात्मा
हो जाओगे।
इसलिए मुझसे
मत पूछो कि
इससे बाहर
कैसे निकलूं।
यह अहंकार पूछ
रहा है कि
इससे बाहर
कैसे निकलूं।
तुम्हें पता
नहीं चल रहा
है कि तुम कहां
हो। सुंदर है,
शुभ है।
थोड़े और खो जाओ—और
'ना—कुछ' हो जाओ। और
मिट जाओ। तुम
थोड़े कम खोए
हो : आधा
कुत्ता ही
खोया है।
भारत
में हमारे पास
मनुष्य के
विकास के
संबंध में
सुंदर कथाएं
हैं।
सर्वाधिक
अर्थपूर्ण और
सुंदर कथाओं
में से एक है
परमात्मा के
अवतार की कथा, नरसिंह
अवतार की कथा—आधा
मनुष्य, आधा
सिंह। हिंदू
अवतारों में
परमात्मा का
एक अवतार है नरसिह—आध
मनुष्य, आधा
सिंह। यही है
खोई हुई
अवस्था। जब
तुम्हें लगता
है कि तुम आधे
कुत्ते हो और
आधे परमात्मा;
जब तुम्हें
लगता है कि न
तुम कुत्ते हो
और न परमात्मा,
हर चीज
धुंधली—धुंधली
है, सीमाएं
अस्पष्ट हैं;
जब तुम
स्वयं को सेतु
के मध्य में
अनुभव करते हो;
तो यह
नरसिंह की
अवस्था है.
आधा मनुष्य, आधा सिंह।
यदि
तुम इससे बाहर
आने की कोशिश
करते हो, तो तुम पूरे
सिंह हो जाओगे,
क्योंकि तब
तुम और ज्यादा
सघन हो जाओगे।
तुम पीछे लौट
जाओगे। इससे
बाहर आने का
अर्थ है पीछे
हट जाना। वह
कोई प्रगति न
होगी, विकास
न होगा। उसकी
जरूरत नहीं है।
और खो जाओ, और
मिट जाओ। तुम
इतने भयभीत
क्यों हो इस
स्थिति से? क्योंकि तुम
खोया—खोया
अनुभव कर रहे
हो; तुम्हारी
पहचान अब
स्पष्ट नहीं
है, तुम
कौन हो एकदम
पक्का नहीं है,
सीमाएं खो
रही हैं; तुम्हारा
चेहरा एकदम
पहचान में
नहीं आ रहा है।
तुम्हारा
जीवन प्रवाह
जैसा हो गया
है। अब वह
पत्थर जैसा
नहीं है। वह
पानी की भांति
ज्यादा है; कोई रूप
नहीं, आकार
नहीं। तुम
भयभीत हो जाते
हो।
तुम्हारे
भीतर जो भयभीत
है, वह
कुत्ता है।
क्योंकि यदि
तुम थोड़ा और
आगे बढ़ते हो
तो कुत्ता
पूरी तरह खो
जाएगा, मिट
जाएगा।
पहली
बात, जब
कोई यात्रा
आरंभ करता है,
तो वह बर्फ
की भांति होता
है, एकदम
ठंडा, पत्थर
जैसा होता है।
जब थोड़ा आगे
बढ़ता है, तो
वह पिघलता है,
बर्फ पानी
बन जाती है।
यह होती है
धुंधली—
धुंधली
अवस्था, नरसिंह
की अवस्था, आधी— आधी। यदि
तुम और आगे
जाते हो, तो
तुम
वाष्पीभूत हो
जाओगे, मिट
जाओगे। न केवल
तुम पानी हो
जाओगे, तुम
भाप बन जाओगे,
अब तुम
दिखाई नहीं
पड़ोगे; तुम
तिरोहित हो
जाओगे। यदि
तुम भयभीत हो
इस मिटने से, तो तुम
सहारा खोजोगे।
तुम कोशिश
करोगे फिर से
जम जाने की, ठोस हो जाने
की, ताकि
तुम कोई रूप, कोई आकार, कोई नाम पा
सको—कोई 'नाम—रूप'। हिंदुओं
ने इस संसार
को कहा है, नाम—रूप
का संसार। तब
तुम्हारी एक
पहचान होगी, तुम जानोगे
कि तुम कौन हो।
केवल
कुत्ता जानता
है कि वह कौन
है—हर चीज
निश्चित है, तय है।
यदि तुम
यात्रा पर आगे
बढ़ते हो, पथ पर
गतिमान होते
हो, तो सब
धुंधला—
धुंधला हो
जाता है—पहाड़
पहाड़ नहीं
रहते, नदियां
नदियां नहीं
रहती। बड़ी
अस्तव्यस्तता
हो जाती है, एक अराजकता
हो जाती है।
लेकिन
स्मरण रहे :
केवल अराजकता
से ही नाचते सितारे
पैदा होते हैं।
ध्यान रहे, केवल
अराजकता में
ही परमात्मा
पाया जाता है।
फिर तीसरी
अवस्था है—वाष्पीभूत
होने की, इस
तरह तिरोहित
हो जाने की कि
कोई नामो—निशान
भी नहीं बचता।
एक पदचिह्न भी
पीछे नहीं
छूटता। तुम खो
जाते हो।
तुम्हारा
होना 'न—होने'
जैसा हो
जाता है। और
यही वह अवस्था
है, जिसे
मैं परम
अवस्था कहता
हूं परमात्म अवस्था
कहता हूं।
इसीलिए
तुम परमात्मा
को नहीं देख
सकते। तुम
खोजते रहो, खोजते
रहो : एक दिन
तुम खो जाओगे,
और वही ढंग
है परमात्मा
को पाने का।
परमात्मा
कहीं मिलेगा
नहीं। तुम
परमात्मा को
कहीं खड़े हुए
नहीं पाओगे
साक्षात्कार
करने के लिए, क्योंकि कौन
करेगा
साक्षात्कार?
यदि तुम अभी
भी मौजूद हो, बचे हो
साक्षात्कार
करने के लिए, तो परमात्मा
की कोई
संभावना नहीं
है। और जब
तुम्हीं न बचे
तो कौन करेगा
साक्षात्कार?
किसी विषय—वस्तु
की भांति
परमात्मा का
साक्षात्कार
नहीं होगा
तुमसे।
तुम्हारा
उससे
साक्षात्कार
होगा अपने
आत्यंतिक केंद्र
की भाति।
लेकिन वह केवल
तभी संभव है
जब तुम पिघल
जाओ, तुम
तरल हो जाओ
पानी की भांति,
फिर तुम
वाष्पीभूत हो
जाते हो—तुम
आकाश में उड़ते
बादल हो जाते
हो, जिसका
कोई पता नहीं
होता, कोई
नाम नहीं होता,
कोई रूप
नहीं होता; एक
निर्मुक्त
बादल, जिसका
कोई ठौर—ठिकाना
नहीं होता।
यही भय
है : क्योंकि
यह एक
महामृत्यु है।
यह है संपूर्ण
अतीत के प्रति
मरना। जो भी
तुम हो, जो भी
तुम्हारे पास
है ,सब
छोड़ना होता है;
सूली पर
चढ़ना होता है।
मृत्यु से
पहले मर जाओ, वही एकमात्र
ढंग है
परमात्मा
होने का।
तो इस
बीच की अवस्था
से भयभीत मत होना; अन्यथा
तुम पीछे जा
सकते हो। तुम
फिर ठोस हो
जाओगे बर्फ की
भांति। तुम
कोई नाम—रूप, पहचान पा
लोगे, लेकिन
तुम चूक गए।
सातवां
प्रश्न :
यदि
विधायक है
नकारात्मक के
कारण और
प्रकाश है
अंधकार के
कारण तो कैसे
कोई मालिक हो
सकता है और वह
भी बिना किसी
को गुलाम बनाए?
एक ही उपाय है
: तुम अपने
मालिक हो जाओ।
तब तुम्हीं
मालिक हो और
तुम्हीं
गुलाम हो। तब
एक अर्थ में
तुम गुलाम हो—तुम्हारा
शरीर, तुम्हारी
इंद्रियां, तुम्हारा मन;
और एक अर्थ
में तुम मालिक
हो—तुम्हारी
चेतना, तुम्हारी
सजगता। जहां
भी मालिक है, वहां गुलाम
भी होगा।
अब तक
तुमने खुद
मालिक होने की
कोशिश की है
और अपने आस—पास
गुलाम इकट्ठे
कर लेने की
कोशिश की है।
हर कोई यही
कोशिश कर रहा
है—खुद मालिक
होने की और
दूसरे को
गुलाम बना
लेने की। पति
कोशिश करता है
मालिक होने की
और पत्नी को मजबूर
करता है गुलाम
होने के लिए।
और पत्नी भी
कोशिश करती है
उसके अपने
सूक्ष्म, स्त्रैण
तरीकों से
मालिक होने की
और पति को मजबूर
करती है गुलाम
होने के लिए।
भीतर— भीतर एक
सूक्ष्म
राजनीति चलती
रहती है।
तुम्हारे
सारे संबंध
सूक्ष्म
राजनीतियां
हैं : कि कैसे
दूसरे को
गुलाम होने के
लिए बाध्य कर
देना, ताकि
तुम मालिक बन
सको।’
ऐसे
सारे प्रयास
राजनीति का
हिस्सा हैं।
मैं उस मन को
राजनीतिक
कहता हूं जो
स्वयं ही
गुलाम हो जाने
की कोशिश कर
रहा है और
दूसरों को
गुलाम होने के
लिए मजबूर
करने की कोशिश
रहा है। धर्म
एक बिलकुल अलग
ही आयाम है :
तुम किसी दूसरे
को गुलाम होने
के लिए मजबूर
नहीं करते; फिर भी
तुम मालिक
होते हो। तुम
दोनों होते हो।
तुम्हारा
शरीर, तुम्हारा
स्थूल हिस्सा,
तुम्हारा
पृथ्वी—तत्व
गुलाम होता है;
तुम्हारा
आकाश—तत्व
मालिक होता है।
एक बुद्ध
पुरुष दोनों
होता है :
मालिक—परम रूप
से; और
गुलाम—वह भी
परम रूप से।
यह तुम्हारे
अपने गुलाम और
तुम्हारे
अपने मालिक का
मिलन है, और
तब कहीं कोई
संघर्ष नहीं
रह जाता, क्योंकि
शरीर
तुम्हारी
छाया है। जब
तुम कहते हो, 'मैं मालिक
हूं, तो
शरीर
तुम्हारा
अनुसरण करता
है। उसे अनुसरण
करना ही पड़ता
है, उसके
लिए
स्वाभाविक है
तुम्हारा
अनुसरण करना।
असल
में, जब
शरीर मालिक हो
जाता है और
तुम गुलाम हो
जाते हो, तो
यह बहुत ही
अस्वाभाविक
स्थिति है। यह
ऐसे ही है
जैसे
तुम्हारी
छाया तुम्हें
कहीं ले जा
रही हो। तुम
किसी खड्डे
में गिरेगे, क्योंकि छाया
में कोई चेतना
नहीं है; छाया
सजग नहीं हो
सकती। असल में
छाया का कोई
अस्तित्व ही
नहीं है।
तुम्हारा
शरीर तुम्हें
चला रहा है, यही पीड़ा है।
जब तुम अपने
शरीर को चलाने
लगते हो, तो
पीड़ा तिरोहित
हो जाती है; तुम आनंद, सुख, शाति
अनुभव करने
लगते हो।
हां, विपरीत
सब जगह मौजूद
होता है। यदि
प्रकाश है तो
अंधकार है।
यदि प्रेम है
तो घृणा है।
यदि मालिक है
तो गुलाम का
होना जरूरी है;
अन्यथा
मालिक कैसे
संभव है? तो
सब से बड़ी
घटना जो
मनुष्य को घट
सकती है, वह
यह है कि वह
दोनों हो जाता
है—एक साथ
मालिक और
गुलाम दोनों
हो जाता है। यह
सब से बड़ी
लयबद्धता है
जो संभव है।
आठवां
प्रश्न:
क्या
आपके पास बने
रहने की आपसे
दूर न होने की आकांक्षा
भी एक बंधन है?
यह निर्भर
करता है, क्योंकि
बंधन किसी
स्थिति में
नहीं होता, दृष्टिकोण
में होता है।
यदि तुम दूर
जाना चाहते हो
और नहीं जा
सकते, तो बंधन
है। यदि तुम
दूर नहीं जाना
चाहते, तो
कोई प्रश्न ही
नहीं उठता।
इससे विपरीत
बात भी सच है
तुम यहां मेरे
पास रहना
चाहते हो और
नहीं रह सकते,
तो दूर जाना
भी एक बंधन है।
यदि तुम मेरे
पास होना
चाहते हो और
आसानी से हो
सकते हो, तो
कोई समस्या
नहीं है, कोई
प्रश्न ही
नहीं है। तो
बंधन हो या
मुक्ति, ये
दृष्टिकोण
हैं। ये
स्थितियों पर
निर्भर नहीं
हैं।
तुम
मेरी बात समझे? यदि तुम
मेरे पास होना
चाहते हो और
तुम्हारा मन
कहे जाता है, 'चले जाओ, यहां
मत रहो', तुम
तो रहना चाहते
हो यहां लेकिन
भीतर कोई
शैतान मजबूर
किए जाता है,
'भाग
जाओ', तो यह
बंधन है, दूर
चले जाना एक गुलामी
है। इसी तरह
यदि तुम दूर चले
जाना चाहते हो,
और
तुम्हारे
भीतर का कोई
भय कहता रहता
है, 'मत जाओ! यदि तुम
यहां से चले
जाओगे तो
संपर्क खो
जाएगा, तुम गुरु खो
दोगे, गुरु
के साथ
तुम्हारा
संपर्क खो
जाएगा…..मत
जाओ यहां से!
एक तरह का भय
तुम्हें विवश
किए जाता है
यहीं रहने के
लिए, और
तुम यहां से
चले जाना
चाहते हो तो यह
भी एक बंधन है।
तो
बंधन क्या है? बंधन वह
बात है, जिसे
तुम्हें
जबरदस्ती
करना पड़ता है
सम्मोहन की
भांति, विवशता
की भांति, तुम
बिलकुल नहीं
चाहते कुछ
करना और
तुम्हें वह
करना पड़ता है।
तुम्हें अपने
ही विरुद्ध
कुछ करना पड़ता
है, तो यह
बंधन है—फिर
वह चाहे कुछ
भी हो। और यदि
तुम सहजता से
बहते हो, यही
तुम हमेशा से
करना चाहते थे
और तुम उसे अपने
पूरे हृदय से
कर रहे हो, अपने
पूरे प्राणों
से कर रहे हो, तो वह
स्वतंत्रता
है।
अब मुझे
इसे एक
विरोधाभास के
रूप में कहने
दो. यदि तुम
जबरदस्ती
स्वतंत्र हो, तो
तुम्हारी
स्वतंत्रता
में भी बंधन
है; और यदि
तुम समग्र
स्वीकार के
साथ गुलाम हो,
तो
तुम्हारे
बंधन में भी
स्वतंत्रता
है। यह निर्भर
करता है। यह
भीतर के भाव
पर निर्भर
करता है, परिस्थिति
पर नहीं।
इसलिए
केवल तुम्हीं
इस संबंध में
जान सकते हो कि
वह क्या है।
यदि तुम यहां
से चले जाना
चाहते हो, तो चले
जाओ, सहजता
से दूर चले
जाओ। कोई
समस्या मत खड़ी
करो! यदि तुम यहां
रहना चाहते हो,
तो रहो यहां।
फिर कोई झंझट
मत खड़ी करो।
लेकिन
तुम उलझे हुए
हो; तुम
सदा ही द्वंद्व
में हो। तुम
एक नहीं हो, तुम भीड़ हो—यही
मुसीबत है।
तुम्हारा एक
हिस्सा यहां
रहना चाहता है;
तुम्हारा
दूसरा हिस्सा
यहां से दूर
चले जाना चाहता
है। और जब तुम
दूर चले जाओगे,
तो एक
हिस्सा फिर
वापस आ जाना
चाहेगा। और
ऐसा ही चलता
रहता है!
तुम्हें
अपने भीतर ही
निर्णय लेना
है। तुम्हें
द्वंद्व को
छोड़ना है, भीड़ से
बाहर आना है।
तुम्हें अखंड
होना है।
तुम्हारी
अखंडता में
स्वतंत्रता
है, तुम्हारी
खंड—खंड
अवस्था में
बंधन है। जब
तुम एक होते
हो, तब कोई
तुम्हें
गुलाम नहीं
बना सकता—कोई
भी नहीं।
तुम्हें जेल
में डाला जा
सकता है, तुम्हें
जंजीरों में
जकड़ा जा सकता
है, लेकिन
तुम्हें
गुलाम नहीं
बनाया जा सकता।
तुम्हारे
शरीर को
जंजीरों में
बांधा जा सकता
है. तुम्हारी
आत्मा पंख
पसार आकाश में
उड़ती रहेगी, उसके लिए
कोई समस्या न
होगी।
तुम्हारी
प्रार्थना
कैसे जंजीरों
में बांधी जा
सकती है? तुम्हारा
ध्यान कैसे
बंधन में पड़
सकता है? तुम्हारा
प्रेम कैसे
गुलाम बनाया
जा सकता है? असल में
आत्मा की ठीक—ठीक
परिभाषा ही
यही है कि
जिसे
जबरदस्ती
गुलाम नहीं
बनाया जा सकता।
लेकिन
तुम्हारे पास
कोई आत्मा है
ही नहीं। तुम
तो एक भीड़ हो, इतने लोग
भीतर हैं बिना
किसी अखंडता
के, बिना
किसी तालमेल
के। यही
मुसीबत है।
यदि तुम यहां
रहते हो, तो
तुम बंधन
अनुभव करोगे;
यदि तुम
यहां से चले
जाते हो, तो
भी तुम बंधन
अनुभव करोगे।
जहां भी तुम
जाओगे, तुम
अपना
अंतर्द्वंद्व
साथ लिए जाओगे।
तो
सवाल मेरे पास
रहने का या
मुझ से दूर
होने का नहीं
है, उसका
कोई सवाल ही
नहीं है। सवाल
यह है कि यहां
रहने में
अखंडता आती है
या दूर रहने
में अखंडता
आती है।
और मैं
कुछ कहता नहीं
कि तुम्हें
यहां रहना चाहिए
या दूर चले
जाना चाहिए—मेरे
पास कोई 'चाहिए' नहीं
है। वह
तुम्हारी
अपनी बात है।
यदि तुम सहजता
से बह सकते हो
मेरे साथ, तो
बहो।
यदि
तुम्हें लगता
है कि मुझ से
दूर बह जाना
सुंदर होगा, तो दूर बह
जाओ। मेरी ओर
ध्यान मत देना, अपना
पूरा ध्यान
अपनी आंतरिक
आत्मा पर रखना।
जहां वह सहजता
से बहती हो, जहां वह
अपनी मौज से
बहती हो, बिना
किसी बाधा के,
वही
तुम्हारी
मंजिल है।
नौवां
प्रश्न :
कैसे
कोई झूठी
समस्याओं को
झूठ की भांति
पहचानना सीख
सकता है?
पहचानना
सीखने की कोई
जरूरत नहीं है, क्योंकि
सभी समस्याएं
झूठी हैं।
समस्याएं
झूठी ही होती
हैं। जब तुम
सत्य होते हो,
सभी
समस्याएं
तिरोहित हो
जाती हैं। जब
तुम झूठ होते
हो, हजारों
समस्याएं खड़ी
हो जाती हैं।
जब भी
कोई व्यक्ति
बुद्ध के पास
आता तो वे हमेशा
उससे कहते, 'कृपा
करके एक वर्ष
तक कोई प्रश्न
मत पूछो। एक
वर्ष मेरे साथ
मौन बैठो, मेरे
साथ बहो। मुझे
तुम्हारे
भीतर काम करने
दो। बस अपने
द्वार—दरवाजे
खुले रखो और
सूरज की
किरणों को
भीतर आने दो।
एक वर्ष तक
कोई समस्या
नहीं, कोई
प्रश्न नहीं;
मौन रहो, ध्यान करो।
एक वर्ष बाद
तुम पूछ सकते
हो।’
एक
व्यक्ति, कोई
जिज्ञासु, एक
दिन आया। उसका
नाम था
मौलुंकपुत्त,
एक बड़ा
ब्राह्मण
विद्वान; पांच
सौ शिष्यों के
साथ आया था
बुद्ध के पास।
निश्चित ही
उसके पास बहुत
सारे प्रश्न
थे। एक बड़े
विद्वान के
पास होते ही
हैं ढेर सारे
प्रश्न, समस्याएं
ही समस्याएं।
बुद्ध ने उसके
चेहरे की तरफ
देखा और कहा, 'मौलुंकपुत्त,
एक शर्त है—यदि
तुम शर्त पूरी
करो, केवल
तभी मैं उत्तर
दे सकता हूं।
मैं देख सकता
हूं तुम्हारे
सिर में
भनभानते
प्रश्नों को।
एक वर्ष तक
प्रतीक्षा
करो। ध्यान
करो, मौन
रहो। जब
तुम्हारे
भीतर का
शोरगुल
समाप्त हो जाए,
जब
तुम्हारी
भीतर की
बातचीत रुक
जाए, तब
तुम कुछ भी
पूछना और मैं
उत्तर दूंगा।
यह मैं वचन
देता हूं।’
मौलुंकपुत्त
कुछ चिंतित
हुआ—स्व वर्ष, केवल मौन
रहना, और तब
यह व्यक्ति
उत्तर देगा; और कौन जाने
कि वे उत्तर
सही भी हैं या
नहीं? तो
हो सकता है एक
वर्ष बिलकुल
ही बेकार जाए।
इसके उत्तर
बिलकुल
व्यर्थ भी हो
सकते हैं।
क्या करना
चाहिए? वह
दुविधा में
पड़ा था। वह
थोड़ा झिझक रहा
था ऐसी शर्त
मानने में; इसमें खतरा
था। और तभी बुद्ध
का एक दूसरा
शिष्य, सारिपुत्त,
जोर से
हंसने लगा। वह
वहीं पास में
ही बैठा था—एकदम
खिलखिला कर
हंसने लगा।
मौलुंकपुत्त
और भी परेशान
हो गया; उसने
कहा, 'बात
क्या है? क्यों
हंस रहे हो
तुम?'
सारिपुत्त
ने कहा, 'इनकी मत
सुनना। ये
बहुत धोखेबाज
हैं।
इन्होंने
मुझे भी धोखा
दिया। जब मैं
आया था—तुम्हारे
तो केवल पांच
सौ शिष्य हैं—मेरे
पांच हजार थे।’
वह बड़ा
ब्राह्मण
पंडित था, देश
भर में
विख्यात था, अपने ढंग का
अनूठा शिक्षक
था।’तुम्हारे
पास शायद
हजारों
प्रश्न होंगे—मेरे
पास लाखों थे।
इन्होंने
फुसला लिया
मुझे, इन्होंने
कहा, साल
भर प्रतीक्षा
करो। मौन रहो,
ध्यान करो,
और फिर
पूछना और मैं
उत्तर दूंगा।
और साल भर बाद
कोई प्रश्न ही
न बचा, तो
मैंने कभी कुछ
पूछा नहीं और
इन्होंने कोई
उत्तर नहीं
दिया। यदि तुम
पूछना चाहते
हो तो अभी पूछ
लो! मैं इसी चक्कर
में पड़ गया।
मुझे इसी तरह
इन्होंने
धोखा दिया।’
बुद्ध
ने कहा, 'मैं पक्का
रहूंगा अपने
वचन पर। यदि
तुम पूछते हो,
तो मैं
उत्तर दूंगा।
यदि तुम पूछो
ही नहीं, तो
मैं क्या कर
सकता हूं?'
एक
बीता, मौलुंकपुत्त
ध्यान में
उतरता गया, उतरता गया, और— और मौन
होता गया—भीतर
की बातचीत
समाप्त हो गई,
भीतर का
कोलाहल रुक
गया। वह बिलकुल
भूल ही गया एक
वर्ष की घटना
कि एक वर्ष
बीत गया। कौन
फिक्र करता है?
जब प्रश्न
ही न रहें, तो
कौन फिक्र
करता है
उत्तरों की? एक दिन
अचानक बुद्ध
ने पूछा, 'यह
अंतिम दिन है
वर्ष का। इसी
दिन तुम यहां
आए थे एक वर्ष
पहले। और मैंने
वचन दिया था
तुम्हें कि एक
वर्ष बाद तुम
जो पूछोगे, मैं उत्तर
देने के लिए
तैयार रहूंगा।
अब मैं तैयार
हूं। क्या तुम
तैयार हो?'
मौलुंकपुत्त
हंसने लगा, और उसने
कहा, 'आपने
मुझे भी धोखा
दिया। वह
सारिपुत्त
ठीक कहता था।
अब कोई प्रश्न
न रहा; मैं
कोई भी प्रश्न
नहीं खोज सकता।
जितना ज्यादा
मैं भीतर
उतरता हूं
उतना ज्यादा
मैं पाता हूं
कि प्रश्न ही
नहीं हैं। तो
मैं क्या
पूछूं? मेरे
पास पूछने के
लिए कुछ भी
नहीं है।’ असल
में, यदि
तुम सत्य नहीं
हो तो
समस्याएं
होती हैं और
प्रश्न होते
हैं। वे
तुम्हारे झूठ
से पैदा होते
हैं—तुम्हारे
स्वप्न, तुम्हारी
नींद से वे
पैदा होते हैं।
जब तुम सत्य, प्रामाणिक,
मौन, समग्र
होते हो—वे
तिरोहित हो
जाते हैं।
मेरी
समझ ऐसी है कि
मन की एक
अवस्था है, जहां
केवल प्रश्न
होते हैं, और
मन की एक
अवस्था है, जहां केवल
उत्तर होते
हैं। और वे
कभी साथ—साथ
नहीं होते।
यदि तुम अभी
भी पूछ रहे हो,
तो तुम
उत्तर नहीं
ग्रहण कर सकते।
मैं उत्तर दे
सकता हूं,
लेकिन तुम उसे
ले नहीं सकते।
यदि तुम्हारे
भीतर प्रश्न
उठने बंद हो
गए हैं, तो
कोई जरूरत
नहीं है मुझे
उत्तर देने
की. तुम्हें
उत्तर मिल
जाता है। किसी
प्रश्न का
उत्तर नहीं
दिया जा सकता
है। मन की एक
ऐसी अवस्था
उपलब्ध करनी
होती है जहां
कोई प्रश्न
नहीं उठते। मन
की
प्रश्नरहित
अवस्था ही
एकमात्र
उत्तर है।
यही तो
ध्यान की पूरी
प्रक्रिया है.
प्रश्नों को
गिरा देना, भीतर
चलती बातचीत
को गिरा देना।
जब भीतर की बातचीत
रुक जाती है, तो एक असीम
मौन छा जाता
है। उस मौन
में हर चीज का
उत्तर मिल
जाता है, हर
चीज सुलझ जाती
है—शाब्दिक
रूप से नहीं, अस्तित्वगत
रूप से सुलझ
जाती है। कहीं
कोई समस्या
नहीं रह जाती
है।
समस्या
विक्षिप्त मन
के कारण थी।
अब मन चला गया, मन का
सारा रोग चला
गया—अब प्रश्न
नहीं बचे। हर
चीज सीधी—साफ
है। रहस्य तो
है, लेकिन
समस्या नहीं
है। कोई चीज
सुलझी नहीं है,
लेकिन कुछ
बचा भी नहीं
है सुलझाने के
लिए। हर चीज
एक रहस्य है; एक विस्मय
का भाव घेरे
रहता है
तुम्हें; जहां
भी तुम देखते
हो, गहराई
और गहराई
खुलती जाती है
रहस्य की। ऐसा
नहीं है कि
तुम्हारे पास
कोई उत्तर
होता है! नहीं,
तुम्हारे
पास प्रश्न ही
नहीं होता—बस
इतना ही। जब
तुम्हारे
भीतर कोई
प्रश्न नहीं
होता, तब
सारा जीवन
उपलब्ध होता
है अपने पूरे
रहस्य सहित—और
वही उत्तर है।
तो मत
पूछो कि कैसे
कोई झूठी
समस्याओं को
झूठ की तरह
पहचानना सीख
सकता है। कैसे
तुम पहचान
सकते हो झूठी
समस्याओं को? तुम ही
झूठ हो, तुम
अभी हो ही
नहीं।
तुम्हारी गैर—मौजूदगी
में सब
समस्याएं खड़ी
होती हैं। जब
तुम मौजूद हो
जाते हो, वे
तिरोहित हो
जाती हैं।
सजगता में कोई
समस्या नहीं
होती, कोई
प्रश्न नहीं
होते। असजगता
में प्रश्न
होते हैं और
समस्गा! होती हैं—और
अनंत प्रश्न,
अनंत
समस्याएं
होती हैं। कोई
नहीं सुलझा
सकता उन्हें।
यदि मैं गले
उत्तर भी दूर
तो तुम उस
उत्तर में से
और— और प्रश्न
बना लोगे। वह
कोई उत्तर न
होगा, केवल
और प्रश्नों
के लिए बहाना
बन जाएगा।
भीतर
चलती बातचीत
को बंद करो, और फिर
देखो। झेन में
वे कहते है कि
कोई भी चीज
छिपी हुई नहीं
है, हर चीज
पहले से ही
स्पष्ट है, लेकिन
तुम्हारी आंखें
ही बंद है।
दसवां
प्रश्न :
आप
पागल हैं और
आप मुझे भी
पागल बनाए दे
रहे हैं।
तुम्हारी बात
का पहला
हिस्सा
बिलकुल सच है, मैं पागल
हूं लेकिन
दूसरा हिस्सा
अभी सच नहीं है।
मैं तुम्हें
पागल बना तो
रहा हूं लेकिन
तुम बन नहीं
रहे हो, क्योंकि
तुम बहुत
बुद्धिमान हो—यही
तुम्हारी
तकलीफ है।
थोड़ा और
पागलपन—और बात
बिलकुल बदल
जाएगी। तुम
बहुत ज्यादा
जड़ हो गए हो
अपनी तथाकथित
बुद्धिमानी में।
तुम्हें बाहर
आना है इससे।
समझो
इसे, जीसस
लोगों को पागल
मालूम पड़ते थे
जब वे जीवित
थे। बुद्ध
पागल मालूम
पड़ते थे। वे
इस अर्थों में
पागल मालूम
पड़ते थे कि
उन्होंने
समाज की
समझदारी को
इनकार कर दिया।
यह पागलपन ही
तो है कि
राज्य छोड़ कर
भाग जाना—हर
कोई दौड़ रहा है
महल की तरफ और
बुद्ध सब छोड़
कर भाग रहे
हैं! पागल हैं।
और उन्होंने
बहुत लोगों को
पागल बनाया।
यही
सदा से बुद्ध
पुरुषों का
काम रहा है—लोगो
को पागल बनाना।
क्योंकि समाज
ने तुम्हें
इतना ज्यादा
समझदार बना
दिया है कि
तुम्हारी
समझदारी में
तुम करीब—करीब
विक्षिप्त ही
हो गए हो। तुम
इतने सीमित हो
गए हो, इतने
जीर्ण, एक
ही ढर्रे में
जड़, बासे, और तुम ऐसी
नासमझी की
बातें सोचते
रहते हो, लेकिन
क्योंकि सारा
समाज सोचता है
कि यह बहुत समझदारी
है.।
उदाहरण
के लिए कोई
आदमी निरंतर
धन के बारे
में सोचता
रहता है और
तुम उसे
समझदार कहते
हो। वह नासमझ
है, क्योंकि
कैसे कोई सच
में समझदार
व्यक्ति निरंतर
धन के बारे
में सोच सकता
है? और
ज्यादा बड़ी
चीजें हैं
सोचने के लिए।
और कोई
व्यक्ति
निरंतर सोचता
रहता है पद—प्रतिष्ठा
के संबंध में;
सदा उत्सुक
रहता है, प्रतीक्षा
करता रहता है—लोगो
का समर्थन
पाने के लिए।
वह विक्षिप्त
है, क्योंकि
समझदार, स्वस्थ—चित्त
व्यक्ति तो
स्वयं में ही
इतना आनंदित होता
है कि वह
क्यों चिंता
करेगा कि लोग
उसके बारे में
क्या कहते हैं?
वह अपना
जीवन जीता है,
और दूसरों
को उनका जीवन
जीने देता है।
न वह किसी के
जीवन में कोई
हस्तक्षेप
करता है, न
वह किसी को
अपने जीवन में
हस्तक्षेप
करने देता है।
इस
जीवन में बहुत
संभावनाएं
छिपी हैं, और तुम
कंकड़—पत्थर ही
बीनते रहते हो।
बहुत कुछ संभव
है—परमात्मा
संभव है—और
तुम धन—दौलत, पद—प्रतिष्ठा
की भाषा में
ही सोचते रहते
हो। तुम अपना
पूरा जीवन
एकदम व्यर्थ
की बातों में
गंवा देते हो,
और तुम
सोचते हो कि
तुम स्वस्थ—चित्त
हो! तुम
स्वस्थ नहीं
हो। असल में
पूरा समाज ही
इतना
विक्षिप्त है
कि स्वस्थ
होने के लिए
तुम्हें 'विक्षिप्त'
होना पड़ेगा;
वरना तुम कट
जाओगे समाज से।
सभी
बुद्ध, क्राइस्ट
कोशिश करते
रहे हैं
तुम्हें 'पागल'
बना देने की।
असल में वे
कोशिश कर रहे
हैं तुम्हें
स्वस्थ, संतुलित
बनाने की, लेकिन
वह बात पागलपन
जैसी मालूम
पड़ती है। जब
जीसस ने अपने
शिष्यों से
कहा कि 'जब
कोई तुम्हारे
एक गाल पर
थप्पड़ मारे, तो दूसरा
गाल भी उसके
सामने कर देना।’
तो यह
पागलपन की ही
बात है। कौन
सुनेगा इस
व्यक्ति की? क्या कह रहे
हैं वे?
जीसस
कहते है, 'यदि कोई
तुम्हारा कोट
छीन ले, तो
तुम उसे अपनी
कमीज भी दे
देना।’ पागलपन
कोई बात है।
लेकिन वे यह
कह रहे हैं कि
इन बातों का
कोई मूल्य
नहीं है, इनकी
फिक्र करने की
जरूरत नहीं है।
कोई तुम्हारा
कोट छीन लेता
है; हो
सकता है वह
बहुत कठोर न
हो—वह चाहता
तो था
तुम्हारी
कमीज भी ले
लेना, लेकिन
ले नहीं सका—विनम्र
आदमी! तो उसे
अपनी कमीज भी
दे देना, ताकि
बात खतम हो
जाए। कोई
तुम्हारे एक
गाल पर थप्पड़
मार देता है.
हो सकता है
उसमें थोड़ी—बहुत
हिंसा अभी भी
बाकी हो; उसे
उससे भी मुक्त
हो जाने दो।
उसके सामने
दूसरा गाल भी
कर दो, ताकि
उसके लिए बात
खतम हो जाए और
वह मुक्त हो जाए—और
तुम भी मुक्त
हो जाओ। वरना
वह फिर लौट कर
आएगा। तो बात
खतम होने दो
और पूरी होने
दो। वे परम
बोध की बात कह
रहे हैं, लेकिन
वे नासमझ लगते
हैं, पागल
लगते हैं।
हां, मैं
तुम्हें पागल
बना रहा हूं।
मैं पागल हूं—इतना
पक्का है।
लेकिन प्रश्न
का दूसरा
हिस्सा पक्का
नहीं है। तुम
अभी भी अपनी
तथाकथित
समझदारी को
पकड़ रहे हो, लेकिन मैं
जो भी प्रयास
संभव है, करता
ही रहूंगा। और
यदि तुम मेरे
पास बने रहते
हो, तो
किसी न किसी दिन
तुम पागल हो
जाओगे।
तुम्हें
पागलपन के लिए
राजी होना ही
होगा, यही
धर्म का कुल
सार है। इस
तथाकथित
बुद्धिमान
संसार में
पागल होना एकमात्र
उपाय है
समझदार होने
का, क्योंकि
संसार
विक्षिप्त है।
ग्यारहवां
प्रश्न :
महावीर
बुद्ध और
रजनीश
शारीरिक रूप
से क्यों नहीं
गाते और नाचते?
वे हर पल इसी
में संलग्न
हैं, लेकिन
उसे देखने के
लिए गहरी आंखें
चाहिए।
तुम
कभी असली
प्रश्न नहीं
पूछते। लोग
पूछते रहते
हैं, 'परमात्मा
कहां छिपा है?'
वे कभी नहीं
पूछते कि उनकी
आंखें खुली
हैं या नहीं।
वे पूछते हैं,
'कहां खोजूं
मैं उसको?' वे
कभी नहीं
पूछते, 'मैं
कैसे
परमात्मा के
लिए खुला होऊं,
ताकि वह
मुझे खोज ले?'
तुम
पूछते हो, 'महावीर,
बुद्ध और
रजनीश क्यों
नृत्य नहीं
करते?'
वे तो
हर समय नृत्य
कर रहे हैं।
उनका पूरा
जीवन ही एक
नृत्य है, लेकिन
उसे देखने के
लिए कोई और आंखें
चाहिए।
तुम्हारे पास
ठीक आंखें
नहीं हैं। ठीक
आंखें पैदा
करो।
अंतिम
प्रश्न :
क्या
आप अपने
पुराने
आश्वासन को
कुछ इस भांति परिवर्तित
करना चाहेंगे
: 'मैं यहां
सिखाने के लिए
नहीं आया हूं
बल्कि तुम्हें
हंसाने के लिए
आया हूं। हंसो
और समर्पण
घटित होगा— और
किसी आश्वासन
की अब कोई
जरूरत नहीं
है।'
मैं सरलता
से इस पर
हस्ताक्षर कर
सकता हूं। यह
बिलकुल सच है—और
पहले वक्तव्य
की अपेक्षा
ज्यादा ठीक है।
आज
इतना ही।
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