बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग-5) प्रवचन--91

कृत्रिम मन का परित्‍याग(प्रवचनग्‍यारहवां)

दिनांक  1 मई  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

योग—सूत्र:
(कैवल्‍यापाद)

            जन्मौषधिमन्त्रतप समाषिजा: सिद्धंय:।। 1।।
सिद्धियां जन्म के समय प्रकट होतीं हैं, इन्हें औषधियों से, मंत्रों के जाप से, तपश्चर्याओं से या समाधि से भी अर्जित किया जा सकता है।

            जात्यन्तर परिणाम: प्रकृत्यापूरात्।। 2।।
एक वर्ग, प्रजाति, या वर्ण से अन्य में रूपातरण, प्राकृतिक प्रवृत्तियों या क्षमताओं के अतिरेक से होता है।

            निमित्तम प्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्‍तु तत: क्षेत्रिकवत्।। 3।।
आकस्मिक कारक प्राकृतिक प्रवृतियों को सक्रिय होने के लिए प्रेरित नहीं करता, यह तो बस अवरोधों को हटा देता है—जैसे खेत सींचता हुआ किसान; वह बाधाओं को हटा देता है और तब पानी स्वत: ही मुक्त होकर प्रवाहित होने लगता है।


            निर्माणचित्‍तान्यस्‍मितामात्रात्।। 4।।
कृत्रिमता से निर्मित मन केवल अस्‍मिता से ही अग्रसर होते है।

            प्रवृतिभेदे प्रयोजकं चित्‍तमेकमनेकेषाम्।। 5।।
कृत्रिम मानों की गतिविधियां भिन्‍न—भिन्‍न होती है। फिर भी एक मूल मन उन सभी का नियंत्रण करता है।

नुष्य लगभग विक्षिप्त है—विक्षिप्त इसलिए कि वह कुछ ऐसा खोज रहा है जो उसके पास पहले से ही है; विक्षिप्त है क्योंकि उसे नहीं पता कि वह कौन है, विक्षिप्त है क्योंकि वह आशा करता है, अभिलाषा रखता है और अंत में निराशा अनुभव करता है। निराश तो होना ही है, क्योंकि खोज कर तुम स्वयं को नहीं पा सकते; तुम पहले से ही वहां हो। खोज को बंद करना पड़ेगा, तलाश छोड़नी पड़ेगी; यही वह सबसे बड़ी समस्या है, जिसका सामना करना है, जिससे संघर्ष करना है।
समस्या यह है कि तुम्हारे पास कुछ है और तुम उसी को खोज रहे हो। अब वह तुम्हें कैसे मिल सकता है? तुम खोजने में अति व्यस्त हो और तुम उस चीज को नहीं देख पाते जो पहले से ही तुम्हारे पास है। जब तक कि सारी खोज बंद नहीं हो जाती, उसको तुम देख न पाओगे। खोज तुम्हारे मन को कहीं भविष्य में केंद्रित कर देती है, और वह वस्तु जिसको तुम खोज रहे हो पहले से ही यहीं, अभी, इसी क्षण है। वह जिसको तुम खोज रहे हो स्वयं खोजी के भीतर छिपा हुआ है, खोजने वाला ही खोजा जाने वाला है। इसीलिए इतनी अधिक विक्षिप्तता, इतना ज्यादा पागलपन है।
एक बार तुम्हारा मन कहीं केंद्रित हो जाए, तुम्हारा कुछ उद्देश्य बन जाता है। तत्‍क्षण तुम्हारा अवधान अब मुक्त नहीं रह पाता। उद्देश्य अवधान को पंगु बना देता है। यदि तुम उद्देश्य पूर्वक कुछ तलाश कर रहे हो, तुम्हारी चेतना सिकुड़ जाती है। यह अन्य सभी वस्तुओं से हट जाएगी, यह केवल तुम्हारी अभिलाषा, तुम्हारी आशा, तुम्हारे स्वप्न पर सिमट जाएगी। और जो तुम हो उसके साक्षात के लिए तुम्हें किसी उद्देश्य की आवश्यकता नहीं है, तुम्हें अवधान की आवश्यकता है, बस शुद्ध अवधान; कहीं जाने का कोई उद्देश्य नहीं, विकेंद्रित चेतना कहीं और की नहीं—अभी और यहीं की चेतना। मूलभूत समस्या यही है. कुत्ता अपनी पूंछ का पीछा कर रहा है, वह निराश हो जाता है, वह करीब—करीब पागल हो जाता है, क्योंकि हर बार वह आगे बढ़ता है और उसके हाथ कुछ भी नहीं लगता—केवल असफलता, विफलता और पराजय मिलती है।
अभी उस दिन एक संन्यासी ने मुझसे कहा कि अब वह निराशा अनुभव कर रहा है। यह सुन कर मैं बहुत खुश हुआ। क्योंकि जब तुम निराशा अनुभव करते हो तो तुम्हारे भीतर कुछ खुल जाता है। जब तुम निराशा अनुभव करते हो, यदि वास्तव में निराश हो तो भविष्य खो जाता है। भविष्य केवल अपेक्षा, अभिलाषा और उद्देश्य के सहयोग से बना रह सकता है। भविष्य उद्देश्य के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। मैं बेहद खुश हुआ कि चलो एक व्यक्ति तो निराश हुआ।
इस सदी के सर्वाधिक प्रतिभाशाली व्यक्तियों में से एक फ्रिटज पर्त्स ने कहा है कि थेरेपिस्ट का कुल काम कुशलतापूर्वक निराशा उत्पन्न करने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
क्या है उसका अभिप्राय? उसका अभिप्राय है कि जब तक तुम अपनी अभिलाषाओं, आशाओं, अपेक्षाओं से वास्तव में निराश नहीं हो जाते, तुमको तुम्हारे अस्तित्व में वापस नहीं फेंका जा सकता। वास्तविक निराशा एक महत् आशीष है। अचानक तुम होते हो और वहां अन्य कुछ भी नहीं होता। उस संन्यासी ने कहा, मुझको निराशा अनुभव हो रही है। ऐसा लगता है कि कुछ भी नहीं घट रहा है। मैं हर प्रकार के ध्यान, हर प्रकाश की सामूहिक मनोचिकित्सा में भागीदारी करता रहा हूं और हो कुछ भी नहीं रहा है। सभी ध्यान विधियों का और सभी सामूहिक मनोचिकित्साओ का कुल मतलब यही है कि तुम्हें बोध हो जाए कि कुछ भी घट नहीं सकता। सब कुछ पहले ही घट चुका है। गहन निराशा में तुम्हारी ऊर्जा उद्गम पर वापस लौट जाती है। तुम अपने आप में गिर जाते हो।
तुम नई आशा निर्मित करने का प्रयास करोगे। इस कारण से लोग अपने थेरेपिस्ट, अपनी थेरेपियां, अपने शिक्षकों, अपने गुरुओं, धर्मों को बदलते चले जाते हैं। वे बदलते चले जाते हैं, क्योंकि वे कहते हैं, अब यहां मुझे निराशा अनुभव हो रही है, अब किसी अन्य स्थान पर मैं पुन: आशा के नये बीज बोऊंगा। तब तुम लगातार चूकते जाओगे। यदि तुम समझ लो समस्या यह है कि तुम्हें तुम्हारे ऊपर कैसे फेंका जाए, तुम्हें तुम्हारी आशाओं में कैसे हताश किया जाए, निःसंदेह इसे बड़ी कुशलता से करना पड़ता है।
यही तो कर रहा हूं मैं यहां। यदि तुम्हारे भीतर कोई आशाएं न हों, तो पहले मैं उनको निर्मित करता हूं। मैं तुम्हें उम्मीद बंधा देता हूं। मैं कहता हूं 'ही, शीघ्र ही कुछ घटित होने को है' —क्योंकि मुझे पता है कि इच्छा तो है लेकिन वह पूर्णत: स्पष्ट नहीं है। यह वहां बीज—रूप में छिपी हुई है, इसे अंकुरित होना पड़ेगा, इसे पुष्पित होना पड़ेगा। और जब इच्छा पुष्पित होती है तो वे फूल हताशा के होते हैं।
फिर अचानक तुम सारी मूढ़ता, सारे चक्कर को छोड़ देते हो। और एक बार तुम प्रमाणिक रूप से हताश हो जाओ—और जब मैं कहता हूं प्रमाणिक रूप से हताश, वास्तविक रूप से निराश, तो मेरा अभिप्राय यह है कि अब तुम पुन: कोई आशा नहीं करते, तुम तो बस इस हताशा को स्वीकार कर लेते हो और घर वापस लौट आते हो—तुम हंसने लगोगे। और यह सदा से तुम्हारे भीतर था लेकिन तुम खोज में बहुत अधिक उलझे हुए थे।
'दि किंग ऑफ हार्टस' नाम की एक बहुत सुंदर फिल्म है। यह प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूइम पर बनी है, एक फ्रांसीसी नगर पर कब्जा जमाने के लिए जर्मन और अंग्रेज युद्धरत हैं। जर्मन सैनिक नगर में एक टाइम बम लगा देते हैं और नगर छोड़ कर चले जाते हैं, और जैसे ही फ्रांसीसियों को बम के बारे में जानकारी होती है, वे भी नगर छोड़ देते हैं।
पागलखाने से —सारे पागल बाहर निकल आते हैं और खाली पडे नगर पर कब्जा कर लेते हैं, उनका समय बहुत अच्छा बीतने लगता है—क्योंकि वहां कोई बचा ही नहीं है, केवल पागलखाने के पागल ही रह गए हैं। उनके पहरेदार तक भाग चुके हैं, इसलिए अब वे आजाद हैं। वे नगर में आ जाते हैं और वहा सब कुछ खाली पड़ा है—दुकानें खाली हैं, सारे कार्यालय खाली हैं। इसलिए वे नगर पर अधिकार कर लेते हैं, वे खाली हो गए नगर पर कब्जा जमा लेते हैं और वे अपना समय अदभुत ढंग से बिताते हैं। वे सभी लोग भिन्न—भिन्न तरह के वस्त्र धारण कर लेते हैं और पूर्णत: आनंदित हैं। उनका पागलपन बस खो जाता है, और अब वे पागल नहीं रहते। सदा से वे जो कुछ भी बनना चाहते थे और न बन सके, अब वे लोग बिना किसी प्रयास के वही सब बन जाते हैं। कोई व्यक्ति जनरल बन जाता है, कोई व्यक्ति ड्यूक बन जाता है और कोई महिला मैडम बन जाती है और दूसरे कुछ लोग डाक्टर, बिशप या जो कुछ भी वे बनना चाहते हैं बन जाते हैं। वहां पर हर बात की स्वतंत्रता है। वे भिन्न—भिन्न तरह के कपड़े पहन लेते हैं, और अपने आप में पूरी तरह आनंदित होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति नगर में कोई न कोई भूमिका ले लेता है : जनरल, ड्यूक, लेडी, मैडम, बिशप आदि। एक आदमी नाई बन जाता है और वह ग्राहकों से कुछ लेने के बजाय भुगतान करता है, क्योंकि उसे नाई होने में आनंद आ रहा है, और इस प्रकार उसके पास और अधिक ग्राहक आने लगते हैं।
वे सभी इन भूमिकाओं में जी रहे हैं, इसी क्षण में जीकर इसका पूर्णत: आत्यंतिक रूप से आनंद लेते हुए।
उस बम को निष्प्रभावी करने के लिए एक ब्रिटिश सैनिक को उस नगर में भेजा जाता है। वह निराश हो जाता है क्योंकि बम जहां रखा है वह स्थान उसे नहीं मिलता। वह दीवानों की तरह चीखना और चिल्लाना आरंभ कर देता है 'हम सभी लोग मरने जा रहे हैं।इसलिए प्रत्येक व्यक्ति—जनरल, ड्यूक, बिशप, सारे पागल लोग, हर कोई उसका क्रियाकलाप देखने के लिए आराम कुर्सियां लाकर उसके चारों ओर बैठ गए। उन्होंने उसकी बातें सुन कर खुशी जाहिर की और तालियां बजाई। निःसंदेह उनकी हरकतों से वह सैनिक और ज्यादा पगला गया।
अगले दिन जर्मन और ब्रिटिश दोनों सेनाएं शहर में वापस मार्च करती हैं और वे सारे पागत्न लोग इसे उनकी परेड की तरह देखते हैं। फिर वे सिपाही एक—दूसरे को देखते हैं, एक—दूसरे पर गोली चलाते हैं और मार डालते हैं। बॉलकनी में खड़ा हुआ ड्यूक घृणापूर्वक नीचे पड़े हुए मृतकों को देखता है और कहता है: अब वे अभिनय की अति कर रहे हैं।एक युवती उदासी से नीचे की ओर देखती है और आश्चर्यचकित होकर कहती है 'मजेदार लोग।बिशप कहता है : 'ये लोग निश्चित रूप से पागल हो गए हैं।
तुम सोचते हो कि केवल पागल ही पागल है.....जरा अपने आप को देखो कि तुम क्या कर रहे हो? तुम सोचते हो कि जब कोई पागल व्यक्ति दावा करता है कि वह प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति है तो वह पागल है। तो तुम्हारे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री लोग क्या कर रहे हैं? वास्तव में वे और ज्यादा पागल हैं। पागल व्यक्ति बस कल्पना का आनंद लेता है, वह इसको वास्तविक बनाने की चिंता नहीं करता, लेकिन वे राष्ट्राध्यक्ष, वे राष्ट्रपति, और वे सेनापति लोग अपनी कल्पनाओं से संतुष्ट नहीं रहे हैं, उन्होंने इसे वास्तविक बनाने के प्रयास किए हैं। निःसंदेह यदि कोई पागल आदमी सिकंदर है या चंगीज खान है, तो वह कभी किसी की हत्या नहीं करता, वह तो बस होता है। वह यह सिद्ध करने नहीं निकल पड़ता कि वह वास्तव में सिकंदर या चंगीज खान है। वह खतरनाक नहीं है, वह मासूम है। लेकिन जब ये तथाकथित समझदार व्यक्ति सिकंदर या चंगीज खान, तैमूरलंग होने की बात सोचने लगते हैं। तो वे मात्र इस भाव से ही संतुष्ट नहीं होते, वे इसको मूर्तमान करने का प्रयास करते हैं। तुम्हारे एडोल्फ हिटलर जैसे लोग अधिक पागल हैं, तुम्हारे माओत्से तुंग जैसे लोग किसी भी पागलखाने में बद किसी भी पागल की तुलना में कहीं ज्यादा पागल हैं।
समस्या यह है कि संपूर्ण मानव—जाति किसी विशेष सम्मोहन में जी रही है।
यह ऐसा है कि तुम सभी को सम्मोहित कर दिया गया है और तुम नहीं जानते कि इससे बाहर कैसे निकला जाए। हमारी सभी जीवन—शैलियां पागलपन की हैं, विक्षिप्तता की हैं। जितनी वे प्रसन्नता निर्मित करती हैं उससे कहीं अधिक वे पीड़ा को जन्म देती हैं। जितनी परितृप्ति उनसे निर्मित होती है उससे कहीं अधिक वे निराशा पैदा कर देती हैं। तुम्हारे जीने का पूरा ढंग तुम्हें —नरक के और— और अधिक निकट और निकट, पास और पास लिए जा रहा है। स्वर्ग तो मात्र एक इच्छा है, नरक लगभग एक वास्तविकता है। तुम नरक में रहते हो और तुम स्वर्ग के सपने देखा करते हो। वास्तव में स्वर्ग एक प्रकार की शामक औषधि है; यह तुम्हें आशा देता है—लेकिन सभी आशाएं निराशा बन जाने वाली हैं। स्वर्ग की आशा तो बस निराशा का नरक निर्मित कर देती है। इसे याद रखो, केवल तभी तुम पतंजलि के अंतिम अध्याय 'कैवल्यपाद' को समझ पाओगे।
मुक्ति की कला क्या है? मुक्ति की कला और कुछ नहीं बल्कि सम्मोहन से बाहर आने की कला है; मन की इस सम्मोहित अवस्था का परित्याग कैसे किया जाए; संस्कारों से मुक्त कैसे हुआ जाए; वास्तविकता की ओर बिना किसी ऐसी धारणा के जो वास्तविकता और तुम्हारे मध्य अवरोध बन सकती है, कैसे देखा जाए; आंखों में कोई इच्छा लिए बिना कैसे बस देखा जाए, किसी प्रेरणा के बिना कैसे बस हुआ जाए। यही तो है जिसके बारे में योग है। तभी अचानक जो तुम्हारे भीतर है और जो तुम्हारे भीतर सदैव आरंभ से ही विद्यमान है, प्रकट हो जाता है।

 पहला सूत्र:
जन्मौषधिमन्त्रतप समाधिजा सिद्धय।
'सिद्धियां जन्म के समय प्रकट होती हैं,...'

 यह बहुत ही अर्थगर्भित सूत्र है, और मुझे अभी तक इस सूत्र की सही व्याख्या नहीं दिखाई पड़ी है। यह इतना सारगर्भित है कि जब तक तुम इसके अंतर्तम में न प्रविष्ट हो जाओ, तुम इसे समझ पाने में समर्थ न हो पाओगे।

 'सिद्धियां जन्म के समय प्रकट होती हैं; इन्हें औषधियों से, मंत्रों के जाप से, तपश्चर्याओं से या समाधि से भी अर्जित किया जा सकता है।

 जो कुछ भी तुम हो उसे तुम्हारे जन्म के समय बिना किसी प्रयास के प्रकट कर दिया जाता है। प्रत्येक बच्चा जिस समय उसका जन्म हो रहा होता है, सत्य को जानता है, क्योंकि अभी तक वह सम्मोहित नहीं हुआ है। उसकी कोई इच्छाएं नहीं हैं, वह अभी भी निर्दोष है, परिशुद्ध है, उसे किसी इरादे ने भ्रष्ट नहीं किया है। उसका अवधान शुद्ध, विकेंद्रित है। बच्चा स्वाभाविक रूप से ध्यानमय है। एक तरह से वह समाधि में है, वह परमात्मा के गर्भ से बाहर आ रहा है। उसकी जीवन—सरिता अभी भी अपने स्रोत से ही आत्यंतिक रूप से ताजी है। वह सत्य को जानता है, लेकिन उसे नहीं पता कि वह जानता है। उसे बिना यह जाने कि उसे पता है इसका ज्ञान है। यह जानकारी बिलकुल सरल है। वह यह कैसे जाने कि वह जानता है? क्योंकि यहां कभी भी अज्ञान का कोई क्षण नहीं होता है। यह अनुभव करने के लिए कि तुमको कुछ पता है, तुम्हारे पास न जानने का भी कुछ अनुभव होना चाहिए। अज्ञान के बिना तुम ज्ञान का अनुभव नहीं कर सकते। अंधकार के बिना तुम सितारे नहीं देख सकते। दिन में तुम सितारे नहीं देख पाते हो क्योंकि चारों ओर प्रकाश होता है। रात्रि में तुम सितारे देख लेते हो क्योंकि सब ओर अंधकार है, विरोधाभास की आवश्यकता होती है। बच्चे का जन्म संपूर्ण प्रकाश में होता है, वह यह अनुभव नहीं कर सकता कि यह प्रकाश है। इसे अनुभव करने के लिए उसको अंधकार के अनुभव से होकर गुजरना पड़ेगा। तभी वह तुलना करने और देखने में समर्थ हो सकेगा और जान लेगा कि वह जानता है। अभी तक उसका ज्ञान सजग नहीं है। वह अबोध है। वह बस एक तथ्य की भांति वहां होता है। और वह अपने ज्ञान से पृथक नहीं है। वह स्वयं अपना ज्ञान है। उसके पास कोई मन नहीं है, उसके पास सरल अस्तित्व है।
जो पतंजलि कह रहे हैं वह यह है : जिसको तुम खोज रहे हो उसे तुम पहले से ही जानते हो। बिना यह जाने कि तुम इसे पहले ही जान चुके हो। वरना इसको खोजने का कोई उपाय नहीं होता। क्योंकि हम केवल उसी चीज को खोज सकते हैं जिसे हम किसी भी ढंग से पहले से जानते हों—भले ही बहुत धुंधले, अस्पष्ट रूप से जानते हों। शायद बोध इतना स्पष्ट नहीं था, यह कुहासे के मेघों से आच्छादित था, किंतु तुम किसी ऐसी चीज को कैसे खोज सकते हो जिसे तुमने पहले कभी जाना ही न हो? तुम परमात्मा को कैसे खोज सकते हो? तुम आनंद को कैसे खोज सकते हो? तुम सत्य को कैसे खोज सकते हो? तुम आत्म को, परम आत्म को कैसे खोज सकते हो? तुमने इसका कुछ न कुछ स्वाद अवश्य लिया होगा, और वह स्वाद, उस स्वाद की स्मृति अभी भी तुम्हारे अस्तित्व के स्मृति कोष में संचित है। किसी बात से तुम चूक रहे हो, इसी कारण तलाश, खोज उत्पन्न होती है।
समाधि का पहला अनुभव, असीम शक्ति, सिद्धि, अंतशक्ति, परमात्मा होने का पहला अनुभव जन्म के समय प्रकट होता है। परंतु उस समय तुम इसको ज्ञान में नहीं डाल सकते। उसके लिए तुमको आत्मा की अंधेरी रात से होकर गुजरना पडेगा, तुम्हें भटकना होगा। इसके लिए तुमको पाप करना पड़ेगा।पाप' शब्द बहुत अच्छा है। इसका मतलब है रास्ते से भटक जाना, ठीक रास्ते से चूक जाना, या लक्ष्य से चूकना, मंजिल से भटक जाना। आदम को अदन के बगीचे से बाहर निकलना पड़ा था। यह एक अनिवार्यता है। जब तक कि तुम परमात्मा को खो न दो, उसे जानने में तुम समर्थ न हो सकोगे। जब तक कि तुम उस बिंदु पर न पहुंच जाओ जहां तुम नहीं जानते कि परमात्मा है या नहीं, जब तक कि तुम उस बिंदु तक न पहुंच जाओ जहां तुम संताप, दुख और पीड़ा से ग्रस्त हो जाओ, तुम कभी न पाओगे कि आनंद क्या है। संताप समाधि का द्वार है।
पतंजलि का पहला सूत्र बस यह कह रहा है कि योगी को जो कुछ भी उपलब्ध होता है उसमें नया कुछ भी नहीं है। यह किसी खोई हुई चीज की पुन: प्राप्ति है। वह एक स्मरण है। यही कारण है भारत में जब कोई समाधि को उपलब्ध हो जाता है तो हम इसे दूसरा जन्म कहते .हैं, उसका पुनर्जन्म होता है। उसको हम द्विज, दुबारा जन्मा, कहते हैं। एक जन्म अचेतन में हुआ था, पहला जन्म, दूसरा जन्म सचेतन होता है। व्यक्ति ने पीड़ा भोगी है, वह भटका है और वापस घर लौट आया है। जब आदम वापस लौटता है तो वह जीसस हो चुका होता है। हर जीसस को घर से बहुत दूर जाना पड़ता है, तब वह आदम है। जब आदम वापसी की यात्रा आरंभ करता है, वह जीसस है। आदम पहला आदमी और जीसस अंतिम व्यक्ति हैं। आदम आरंभ है, आदि है (अल्फा) और जीसस समापन हैं, अंत हैं (ओमेगा) और वर्तुल पूर्ण हो जाता है।
'सिद्धियां जन्म पर प्रकट होती है,.......'
तब 'संसार' उत्पन्न होता है; जिसे हिंदुओं ने माया कहा है। इसे भ्रम, जादू के रूप में अनुवादित किया जाता रहा है, लेकिन इसे अनुवादित करने का सर्वोत्तम उपाय है—इसे सम्मोहन कहा जाए। तब सम्मोहन उत्पन्न होता है। चारों ओर हजारों तरह के सम्मोहन हैं, यहां पर उसे सिखाया जा रहा है कि वह हिंदू है—अब यह सम्मोहन है; उसको सिखाया जा रहा है कि वह ईसाई है—अब यह एक सम्मोहन है। अब उसका मन संस्कारित और संकुचित कर दिया जा रहा है। वह मुसलमान है—यह एक सम्मोहन है। फिर उसको सिखाया जाता है कि वह स्त्री या पुरुष है—यह एक सम्मोहन है।
तुम्हारा नब्बे प्रतिशत पुरुषत्व या स्त्रीत्व मात्र एक सम्मोहन है, इसका तुम्हारी जैविक संरचना से कुछ भी लेना—देना नहीं है। स्त्री और पुरुष के मध्य जैवशास्त्रीय भेद बहुत साधारण है, लेकिन मनोवैज्ञानिक अंतर बहुत जटिल और उलझा हुआ है। तुम्हें छोटे बालकों को बालक होने और छोटी बालिकाओं को बालिका होने के लिए शिक्षित करना पड़ता है, और तुम उन्हें विभाजित कर देते हो। तुम उनके मन में एक उद्देश्य पैदा कर देते हो। बालिकाओं को सुंदर स्त्रियां बन जानी है और बालकों को बहुत ताकतवर पुरुष बनना है। बालिकाओं को तो बस गृहस्थिनें, गृहिणियां, माताएं बन कर घर में ही सिमट जाना है और बालको को संसार में महान अभियान—धन, शक्ति, प्रतिष्ठा, महत्वाकांक्षा के पथ पर अग्रसर हो जाना है। उनके भीतर तुम भिन्न उद्देश्य उत्पन्न कर देते हो।
विभिन्न समाजों में अलग—अलग संस्कार दे दिए जाते हैं। ऐसे भी समाज हैं जो मातृसत्तात्मक हैं, स्त्री का वहां वर्चस्व है। तब तुम वहां एक अविश्वसनीय सच्चाई देखोगे : जब भी कहीं एक ऐसा समाज होता है जिसमें स्त्री का प्रभुत्व है, वहां पुरुष कमजोर हो जाता है और स्त्री शक्तिशाली हो जाती है। वह बाहर के सभी काम सम्हाल लेती है और पुरुष बस घर की देखभाल करता है।
लेकिन क्योंकि हम एक पुरुष प्रधान समाज में रहते हैं, पुरुष ताकतवर हो गया है और स्त्री कमजोर और नाजुक हो गई है। लेकिन यह एक सम्मोहन है, यह प्राकृतिक नहीं है। ऐसा होना प्राकृतिक नहीं है। तुम एक निश्चित दिशा दे देते हो और फिर हजारों तरह के सम्मोहन प्रचलित हो जाते हैं।
भारत में यदि कोई व्यक्ति गरीब अछूत के परिवार में जन्म लेता है तो वह शूद्र है, अपनी सारी जिंदगी उसे एक शूद्र की भांति जीने के लिए मजबूर कर दिया जाता है।वह अपना व्यवसाय तक नहीं बदल सकता। वह ब्राह्मण नहीं बन सकता। वह सिमटा हुआ है, एक बहुत संकरा छिद्र, एक सुरंग जैसा छिद्र उसको दिया जाता है। उसको इसमें से होकर गुजरना पड़ता है; उसके लिए कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है। और वह उसी शैली में सोचेगा, वह जीवन के एक निश्चित ढांचे में जीएगा और उसके मन का प्रत्येक संस्कार अपने आप संचालित होता रहता है। यह अपने आपको और कुशलतापूर्वक निर्मित करता रहता है। फिर तुम्हें परमात्मा के बारे में धारणाएं दे दी जाती हैं। सोवियत रूस में तुम्हें धारणा दी जाती है कि कोई परमात्मा नहीं है।
स्टैलिन की पुत्री स्वेतलाना ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि बहुत शुरू से ही, निःसंदेह क्योंकि वह स्टैलिन की पुत्री थी, तो उसको बहुत दृढ़तापूवेक नास्तिक होना सिखाया गया। लेकिन धीरे— धीरे उसे अनुभव होने लगा, 'क्यों? यदि कोई परमात्मा नहीं है तो उसके विरोध में इतना प्रचार क्यों है? क्या है इसका अर्थ? इसमें तो कोई अर्थ नहीं दिखाई पड़ता, यदि परमात्मा है ही नहीं तो बात खत्म। चिंतित क्यों होना? परमात्मा विरोधी प्रचार, साहित्य, यह और वह, इसे सिद्ध करने की कोशिश ही क्यों? यह सारा प्रयास यही प्रदर्शित करता है कि शायद वहां कुछ हो, कुछ हे। सकता है वहां।उसे संदेह हो गया। और जब स्टैलिन का देहांत हुआ तो उसने बगावत कर दी। वह एक धार्मिक व्यक्ति बन गई। लेकिन उसका मन संकीर्ण हो चुका था। वह एक दुर्लभ व्यक्ति रही होगी, क्योंकि सोवियत रूस में आस्तिक होना उतना ही कठिन है जितना कि भारत में नास्तिक होना।
इन बातों को सिखाया नहीं जाता, ये बातें मां के रक्त के साथ, मां के दूध के साथ, मां की श्वास के साथ ही सीख ली जाती हैं। तुम्हारे चारों ओर का वात तुम्हें एक सूक्ष्म संस्कारिता के साथ घेरे रहता है। ये बातें सिखाई नहीं जातीं। कोई भी तुम्हें ये बातें विशेषतौर से नहीं सिखा रहा है; तुम उन्हें सीख लेते हो। हिंदू बच्चा जब यहां जन्म लेने के उपरांत आंखें खोलता है और अपने कान खोलता है, तो जो पहली बात वह सुनता है, वह या तो मंत्र होता है या भगवतगीता से कोई बात। यद्यपि वह समझता कुछ भी नहीं है, किंतु पहला प्रभाव संस्कृत का होता है, उस पर पहली छाप किसी धार्मिक ग्रंथ की होती है। फिर वह बड़ा होने लगता है, वह अपनी मां को प्रार्थना करता हुआ देखता है, देवताओं की मूर्तियों, फूलों और धूपबत्ती को देखता है, वह घुटनों के बल घिसटता हुआ वहां पहुंच जाता है, वह उधर निगाह डालता है और देखता है कि क्या हो रहा है। वह देख सकता है कि मां भावविभोर होकर रो रही है, आंसू निकल रहे हैं, और वह बहुत आह्लादित और बहुत प्रसन्न दिखाई पड़ रही है। कुछ अत्यंत महत घट रहा है; वह यह नहीं जान सकता कि यह क्या है, लेकिन कुछ हो रहा है। वह इसे ग्रहण कर रहा है। फिर मंदिर, फिर पुजारी, फिर वे विचित्र से तड़क—भड़क वाले लबादे, और पूरा वातावरण, वह इस माहौल को पीने लगता है। यह उसके अस्तित्व का एक भाग बन जाता है। या तो मां के दूध से या राज्य की शिक्षाओं से, लेकिन जब वह अनजान था तभी उसने ये बातें ग्रहण कर ली थीं। तुम ईसाई बन जाते हो, जब तक तुम सजग हो पाते हो तुम पहले से ही एक ईसाई, एक हिंदू एक मुसलमान, एक जैन, एक बौद्ध, बन चुके होते हो, और तुमको इन धार्मिक संस्कारों से मुक्त करना बहुत कठिन है।
पतंजलि का पूरा प्रयास यही है कि तुम्हें कैसे संस्कारों से मुक्त किया जाए, किस भांति तुम्हारी मदद की जाए कि तुम स्वयं को संस्कारों से स्वतंत्र कर सको। जो कुछ भी तुमको दिया गया है उस सभी का परित्याग करना पड़ेगा, ताकि पुन: तुम बादलों से पार मुक्त आकाश में आ सको, ताकि तुम पुन: इस छोटे सुरंग नुमा हिंदू मुसलमान, साम्यवादी, यह और वह, होने से बाहर निकल सको—कैसे वह आयाम रहित, खुला आकाश तुम्हें उपलब्ध हो सके। कोई भी धर्म, विशेषत: कोई भी संगठित धर्म इसके पक्ष में नहीं है। वे अपनी सुरंगों को सजाते हैं। वे अपनी बातों को लोगों पर थोपते हैं जैसे कि परमात्मा तक पहुंचने के लिए उनका रास्ता ही एक मात्र रास्ता है।
मैंने सुना है, एक व्यक्ति जो प्रोटेस्टेंट था मर गया और स्वर्ग पहुंचा। उसने सेंट पीटर से कहा, इसके पूर्व कि मैं कहीं बस जाऊं मैं स्वर्ग का भ्रमण करना चाहता हूं मैं पूरा स्वर्ग देखना चाहता हूं। सेंट पीटर ने कहा, तुम्हारी जिज्ञासा समझ में आती है, परंतु एक बात तुमको याद रखनी पड़ेगी : मैं तुमको चारों तरफ ले जाऊंगा लेकिन बात मत करना, बिलकुल शांत रहना। और चलना ऐसे कि कोई आवाज न होने पाए। वह प्रोटेस्टेंट थोड़ा सा घबड़ाया, इतना सब कुछ किसलिए? लेकिन वे चल पड़े। जब कभी भी वह कुछ कहना चाहता, सेंट पीटर अपने होंठों पर अंगुली रख लेते और फुसफुसा कर कहते, श555 शांत रहो। जब भ्रमण पूरा हो गया तो उसने पूछा, आखिर मामला क्या है? इतनी शांति किसलिए? पीटर ने उत्तर दिया, यहां पर प्रत्येक विश्वास में जीया करता है। उदाहरण के लिए कैथेलिक विश्वास करते हैं कि केवल वे ही स्वर्ग में हैं; प्रोटेस्टेंट विश्वास करते हैं कि केवल वे ही स्वर्ग में हैं; हिंदुओं का विश्वास है कि केवल वे ही स्वर्ग में हैं; मुसलमान विश्वास करते हैं कि केवल वे ही स्वर्ग में हैं। इसलिए यदि वे जान जाएं कि कोई और भी यहां पर है तो वे बहुत नाराज हो जाते हैं। उनके लिए इस बात पर भरोसा कर पाना नामुमकिन है।
पृथ्वी पर लोग सुरंगों में रहते हैं और स्वर्ग में भी।
कोई भी संगठित धर्म पूर्णत: खुले हुए मन के पक्ष में नहीं है। यही कारण है कि कोई भी संगठित धर्म धर्म जरा भी नहीं है, वह राजनीति है।
अभी उस दिन मुझे अमिदा से एक पत्र प्राप्त हुआ। वह एरिका समूह में हुआ करती थी। अब वह यहां आ गई थी, इसलिए एरिकन लोग अत्याधिक क्षुब्ध हैं। उसने संन्यास ले लिया, इसलिए उन्होंने उसके निष्कासन का एक पत्र लिखा है। वह निष्कासित कर दी गई है। यह बात बेवकूफी जैसी लगती है, यह राजनीति मालूम होती है। अब उसको उनकी सभाओं में प्रवेश करने या उनमें भागीदारी करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। अपनी शब्दावली में उन लोगों ने कह दिया, हमारी ओर से अब तुम्हें पानी में डाल दिया गया है। उसकी निंदा की गई। हर ओर यही चलता रहता है। साइटोलाजी भी लोगों के साथ यही करती है। एक बार तुम साइटोलाजी में आ गए और तुम इसको छोड़ दो, तो बस जैसे अमिदा को पानी मे डाल दिया गया है, वे तुम्हें एक सूचना भेजते हैं कि अब तुम एक शत्रु हो। दुश्मन!
लेकिन ऐसा है, सदा से। ऐसा कैसे हुआ है। हमेशा स्मरण रखो, जहां कहीं भी तुम्हारा मन संकीर्ण किया जा रहा हो वहां से भाग जाओ, यह राजनीति है। यह अहंकार का खेल है।
धर्म तुम्हें विस्तीर्ण करता है।
धर्म तुम्हें इतना अधिक विस्तीर्ण कर देता है कि तुम्हारे चारों ओर का सारा मकान धीरे— धीरे खो जाता है। तुम बस आकाश के नीचे पूर्णत: आवरण विहीन अस्तित्व के साथ संवाद में होते हो। अस्तित्व के और तुम्हारे मध्य कुछ भी नहीं रहता। यह परिस्थिति जन्म के समय सहजता से, स्वाभाविक रूप से तत्‍क्षण अर्जित कर ली जाती है। सिद्धियां जन्म के समय प्रकट होती हैं—जन्म के समय सभी कुछ प्रकट होता है। प्रश्न केवल उस पर पुन: दावा करने का है। प्रश्न है उसे पुन: स्मरण करने का। यह कोई अन्वेषण नहीं है, यह एक पुन: अन्वेषण होने जा रहा है।
अनेक लोग मेरे पास आते हैं और वे पूछते हैं, यदि समाधि घट जाए, यदि संबोधि घट जाती है, तो हम उसे पहचान कैसे पाएंगे कि यह वही है? और मैं उनसे कहता हूं तुम चिंता मत लो; तुम इसको पहचान लोगे क्योंकि तुम जानते हो कि यह क्या है। तुमने इसको विस्मृत कर दिया है। एक बार यह पुन: घट जाए, अचानक तुम्हारी चेतना में, स्मृति उभरेगी, सतह पर आ जाएगी और तुम इसे पहचान लोगे। और इसे चार ढंगों से अर्जित किया जा सकता है। पहला है. औषधियों के द्वारा। हिंदू लोग हजारों वर्षों से औषधियों का निर्माण करते रहे हैं। पश्चिम में इसकी सनक नई है, भारत में यह बहुत प्राचीन काल से है।

 पतंजलि कहते हैं:

'इन्हें औषधियों से, मंत्रों के जाप से, तपश्चर्याओं से या समाधि से भी अर्जित किया जा सकता है।वे केवल समाधि के पक्ष में हैं, लेकिन वे एक बहुत ही वैज्ञानिक व्यक्ति हैं। उन्होंने कुछ भी बाहर नहीं छोडा है।

 हां, इसको औषधियों से प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन यह उसकी निम्नतम झलक है। रसायनों के माध्यम से तुम्हें एक खास तरह की झलक मिल सकती है, किंतु यह करीब—करीब एक हिंसा, परमात्मा के साथ लगभग बलात्कार हैं—क्योंकि तुम झलक में विकसित नहीं हो रहे हो बल्कि तुम उस झलक को अपने ऊपर थोप देते रहे हो। तुम एल एस डी या मारिजुआना या कुछ और ले सकते हो, तुम अपने दैहिक रसायन तंत्र के साथ जबदरस्ती कुछ कर रहे हो। यदि दैहिक रसायन तंत्र के साथ बहुत अधिक जबरदस्ती की जाए, तो बस कुछ पलों के लिए यह मन के प्रतिबंध से मुक्त हो जाता है। तुम्हारे जीवन की सुरंग जैसी जीवनशैली से यह छूट जाता है। तुम्हें एक विशेष प्रकार की झलक मिलती है, लेकिन यह झलक एक बहुत बड़ी कीमत चुका कर मिलती है। अब तुम उस औषधि से आसक्त हो जाओगे। जब कभी भी तुम्हें झलक की आवश्यकता होगी तुम उसी औषधि की ओर जाने के लिए बाध्य हो जाओगे, और जितनी बार तुम उस औषधि का सेवन करोगे, हर बार तुम्हें इसकी और अधिक मात्रा की जरूरत पड़ेगी। और तुम्हारा जरा सा भी विकास नहीं हो रहा होगा, कोई भी परिपक्वता तुममें नहीं आ रही होगी। केवल औषधि की मात्रा बढ़ेगी और तुम वही के वही रहोगे। यह दिव्यता की झलक पाने के लिए बहुत महंगा सौदा है। इसका मूल्य इतना नहीं है। यह अपने आप को विनष्ट करना हुआ। यह आत्मघाती है, लेकिन पतंजलि इसे एक संभावना के रूप में रखते हैं। बहुत लोगों ने इसकी कोशिश की है, और बहुत से लोग इसके द्वारा करीब—करीब पागल हो गए हैं। अस्तित्व के साथ किसी भी प्रकार की हिंसा खतरनाक है। व्यक्ति को स्वाभाविक रूप से विकसित होना चाहिए। अधिक से अधिक यह स्वप्न जैसा हो सकता है लेकिन यह वास्तविकता नहीं हो सकता। एक व्यक्ति जो लंबे समय से एल एस डी ले रहा है वैसा ही आदमी रहता है। वह उन नये अंतरालों के बारे में बात कर सकता है जो उसने प्राप्त किए हैं और वह स्वप्‍निल अनुभवों के बारे में बात करेगा, लेकिन तुम देख सकते हो कि वह आदमी वैसा का वैसा ही है। वह बदला नहीं है। उसे कोई गरिमा उपलब्ध नहीं हो गई है। इससे भिन्न भी हो सकता है, जो गरिमा पहले से ही उसके पास थी वह भी खो सकती है। वह और अधिक प्रसन्न और आनंदित नहीं हो गया है। ही, औषधि के प्रभाव में वह हंस सकता है किंतु वह हंसी भी रुग्ण है, यह स्वाभाविक रूप से नहीं उठ रही है, यह सहजता से नहीं खिल रही है। और औषधि का प्रभाव मिटते ही वह मंदमति हो जाएगा, उसके मन में सुखाभास की स्मृतियां होंगी। और वह बार—बार खोजेगा, बार—बार वह उसी झलक की खोज और अन्वेषण करेगा। अब वह औषधि के अनुभव से सम्मोहित हो जाएगा। यह निम्नतम संभावना है।
दूसरा उससे बेहतर है वह है मंत्र। यदि तुम एक खास मंत्र को लंबे समय तक दोहराते रहो, तो यह तुम्हारे अस्तित्व में सूक्ष्म रासायनिक परिवर्तन निर्मित कर देता है। यह औषधियों से बेहतर है, लेकिन फिर भी यह भी एक प्रकार की औषधि ही है। यदि तुम लगातार ओम, ओम, ओम दोहराते रहो, तो वह पुनरुक्ति तुम्हारे भीतर ध्वनि—तरंगें निर्मित करती है। यह 'ऐसा ही है कि तुम झील में पत्थर फेंकते चले जाओ और तरंगें उठती रहें, उठती चली जाएं और अनेक आकृतियां बनाते हुए फैलती चली जाएं। ठीक यही घटता है जब तुम किसी मंत्र का एक शब्द के सतत उच्चारण का प्रयोग करते हो। इसे ओम, राम, अवे मारिया या अल्लाह से कुछ लेना—देना नहीं है, इसका उनसे कोई सरोकार नहीं है। तुम कुछ भी, जैसे ब्लाह, ब्लाह, ब्लाह, कह सकते हो, वह भी चलेगा। लेकिन तुमको वही—वही ध्वनि उसी सुर में, उसी लय में दोहराना पड़ेगी। यह बार—बार उसी केंद्र पर संघात करती चली जाती है और इससे तरंगें, कंपन और स्पंदन निर्मित होते हैं। वे तुम्हारे अस्तित्व के भीतर प्रविष्ट हो जाते हैं और प्रसारित हो जाते हैं। वे ऊर्जा के वर्तुल निर्मित करते हैं। यह औषधियों से श्रेष्ठ है, लेकिन फिर भी इसका गुणवत्ता वही है।
इसीलिए कृष्‍णमूर्ति कहे चले जाते हैं कि मंत्र एक औषधि है। यह औषधि है, और वे कोई नई बात नहीं कह रहे हैं; पतंजलि भी यही कहते हैं। यह औषधि की तुलना में बेहतर है, तुम्हें किसी इंजेक्यान की आवश्यकता नहीं रहती, तुम किसी बाह्य साधन पर निर्भर नहीं रहते। तुम किसी औषधि—विक्रेता पर निर्भर नहीं रहते, क्योंकि हो सकता है कि वह तुम्हें ठीक चीज न दे रहा हो। वह तुम्हें कुछ नकली चीज पकड़ा सकता है। तुम्हें किसी पर निर्भर होने की जरूरत नहीं रहती। यह औषधियों की तुलना में अधिक स्वावलंबी है। तुम अपने भीतर अपना मंत्रदोहरा सकते हो, और समाज से यह और अधिक तालमेलपूर्ण है। यदि तुम ओम, ओम, ओम दोहराओं तो समाज कोई आपत्ति नहीं करगा, किंतु यदि तुम एल एस डी ले रहे हो तो समाज आपत्ति करेगा। मंत्र—जाप बेहतर है, अधिक सम्मानजनक है, लेकिन फिर भी यह औषधि है। यह ध्वनि ही है जिसके द्वारा तुम्हारे शरीर का रसायन तंत्र बदल जाता है।
अब ध्वनि, संगीत, जाप के ऊपर अनेक प्रयोग चल रहे हैं। यह निश्चित रूप से रसायनों को बदल देता है। यदि किसी पौधे को एक खास किस्म के संगीत के माहौल में—निश्चित रूप से शास्त्रीय या भारतीय, आधुनिक पाश्चात्य संगीत नहीं—रखा जाए तो यह तेजी से बढ़ता है। अन्यथा विकास अवरुद्ध हो जाएगा या पौधा पगला जाएगा। सूक्ष्म कंपनों के साथ, श्रेष्ठ ताल और लयबद्धता के साथ पौधा तेजी से बढ़ता है। उसकी वृद्धि करीब—करीब दो गुना हो जाती है, और उस पर लगने वाले पुष्प और बड़े और रंगीन हो जाते हैं, वे अधिक समय तक टिकते हैं और उनसे अधिक सुगंध आती है। अब ये वैज्ञानिक सत्य हैं। यदि ध्वनियों से एक पौधा इतना अधिक प्रभावित होता है तो मनुष्यों पर और अधिक प्रभाव होगा। और यदि तुम एक भीतरी ध्वनि, एक अनवरत कंपन उत्पन्न कर सको, तो यह तुम्हारे शरीर क्रिया विज्ञान, तुम्हारे दैहिक रसायन तंत्र—तुम्हारे मन, तुम्हारे शरीर को बदल डालेगा—लेकिन फिर भी यह बाहरी सहायता है। अभी भी यह एक प्रयास है; तुम कुछ कर रहे हो। और कुछ करते हुए तुम एक अवस्था निर्मित कर रहे हो जिसे बनाए रखना है। यह स्वाभाविक रूप से सहज नहीं है। यदि तुम कुछ दिन इसे बनाए न रख सको तो यह विलीन हो जाएगी। अत: यह भी विकास नहीं है।
एक बार एक सूफी मेरे पास आया। तीस सालों से वह एक सूफी मंत्र का अभ्यास कर रहा था, और उसने इसे बहुत निष्ठापूर्वक किया था। वह कंपनों से भरा हुआ था—बहुत जीवंत, बहुत प्रसन्न, सारे दिन करीब—करीब आनंदमग्न, जैसे कि समाधि में हो......मदहोश। उसके शिष्य उसको मेरे पास लेकर आए थे। वह मेरे पास तीन दिन रुका। मैंने उससे कहा. एक काम करो, तीस साल से तुम एक जप कर रहे हो, तीन दिन के लिए इसे बंद कर दो। उसने पूछा : क्यों? मैंने कहा : केवल यह जानने के लिए कि अभी तुम्हारे साथ यह घटा है या नहीं। यदि तुम जप करते रहे तो तुम कभी न जान पाओगे। इस सतत जप करने से हो सकता है कि यह मदहोशी तुमने ही निर्मित कर ली हो। तीन दिन के लिए तुम इसको रोक दो और बस देखो। वह थोड़ा सा घबड़ाया, लेकिन उसकी समझ में बात आ गई।
क्योंकि जब तक कोई चीज इतनी स्वाभाविक न हो जाए कि तुम्हें उसे करने की आवश्यकता ही न पड़े, तब तक वह तुम्हें उपलब्ध नहीं हुई है।
बस तीन दिन के भीतर ही सब कुछ तिरोहित हो गया; बस तीन दिन के भीतर। कोई तीस साल का प्रयास और तीसरे दिन वह आदमी रोने लगा और वह बोला, आपने यह क्या किया? आपने मेरी पूरी साधना नष्ट कर डाली। मैंने कहा. मैंने कुछ भी नष्ट नहीं किया; तुम दुबारा से शुरू कर सकते हो। लेकिन अब एक बात याद रखो, यदि तुम तीस जन्म भी जप करते रहे तो भी तुम्हें वह न मिलेगा। यह मार्ग नहीं है। तीस साल के सतत प्रयास के बाद भी तुम तीन दिन के अवकाश पर नहीं जा सकते, यह तो बंधन प्रतीत होता है, और यह अभी तक सहज नहीं हो सका है। अब भी यह तुम्हारा भाग नहीं बन सका है, तुम्हारा विकास नहीं हुआ है। इन तीन दिनों ने तुम्हारे समक्ष उदघाटित कर दिया है कि तीस सालों से सारा प्रयास गलत दिशा में जा रहा था। अब यह तुम पर निर्भर है। यदि तुम जप जारी रखना चाहते हो, जारी रखो, लेकिन याद रखो, अब यह मत भूलना कि किसी भी दिन यह खो सकता है; यह एक स्वप्न है जिसको तुमने सतत जप के द्वारा पकड़ रखा है। यह एक निश्चित तरंग है, जिसे तुम पकड़े हुए हो, किंतु यह वहा से उठ नहीं रही है। यह कृत्रिम रूप से निर्मित और पोषित है; अभी यह तुम्हारा स्वभाव नहीं बन पाई है।
तीसरा उपाय है : तपश्चर्याओं द्वारा अपने जीवन के ढंग को परिवर्तित करके—भोजन, निद्रा, कामवासना की सुविधा, सहूलियत की चाहत न करके, वह सभी कुछ जो मन स्वभावत: चाहता है और इसका ठीक विपरीत करना। यह मंत्रों से फिर भी कुछ ऊपर है। यदि मन कहे, सो जाओ तो तपश्चर्या वाला व्यक्ति कहेगा, नहीं, मैं सोने नहीं जा रहा हूं मैं तुम्हारा दास बनने नहीं जा रहा हूं-जब मैं सोना चाहूंगा तभी मैं सोऊंगा, अन्यथा नहीं। मन कहता है, तुम को भूख लगी है, अब जाओ और व्यवस्था बनाओ। तपश्चर्याओं वाला व्यक्ति कहता है, नहीं। तपश्चर्याओं वाला व्यक्ति अपने मन को लगातार नहीं कहता है। तपश्चर्या यही है, मन को न कहना। निःसंदेह यदि तुम अपने मन को लगातार नहीं कहते जाओ तो तुम पर मन के बंधन ढीले हो जाते हैं। तब मन तुम पर और अधिक समय हावी नहीं रह पाता, तब तुम थोड़ा सा मुक्त हो जाते हो। लेकिन इस नहीं को लगातार कहते रहना पडता है। यदि तुम एक दिन के लिए भी मन की सुन लो, पुन: मन की पूरी शक्ति तुम पर हावी होने और तुम पर अधिकार जमाने के लिए वापस आ जाएगी। इसलिए बस एक क्षण का भटकाव और सब कुछ खो जाता है।
तपश्चर्याओं वाला व्यक्ति बेहतर कर रहा है; वह मंत्र-जाप वाले की तुलना में कुछ अधिक स्‍थाई कर रहा है-क्योंकि जब तुम जप करते हो तुम्हारी जीवनशैली अपरिवर्तित रहती है। बस तुम भीतर' अच्छापन अनुभव करते हो; एक विशेष प्रकार की सुखानुभूति। इसीलिए तो महेश योगी के भावातीत ध्यान का पश्चिम में इतना अधिक आकर्षण है, क्योंकि वे तुमसे तुम्हारी जीवनशैली बदलने के लिए नहीं कहते हैं। उनका कहना है, तुम जहां भी हो, जैसे भी हो, यह ठीक है। वे तुमसे कोई अनुशासित जीवनशैली भी नहीं चाहते हैं, बस मंत्र को दोहराओं, बीस मिनट सुबह और बीस मिनट शाम और इससे काम बन जाएगा। निःसंदेह इससे तुम्हें बेहतर निद्रा, बेहतर भूख मिल जाएगी। तुम और अधिक शांत और मौन रहोगे। उन परिस्थितियों में जब क्रोध सरलता से आ जाता था, अब यह उतना आसान न रहेगा। लेकिन तुम्हें मंत्र—जाप प्रतिदिन जारी रखना पड़ेगा। यह ध्वनि तरंगों के माध्यम से तुम्हें एक खास तरह का अंतर—स्नान दे देगा। लेकिन यह विकास में तुम्हारी सहायता नहीं कर सकेगा। तपश्चर्याएं अधिक सहायक होती हैं, क्योंकि तुम्हारा जीवन परिवर्तित होने लगता है।
यदि तुम एक विशेष कार्य न करने का निश्चय करो, तो मन आग्रह करेगा कि तुम इसे कर लो। यदि तुम मन को इनकार करते चले जाओ तो तुम्हारे जीवन की सारी व्यवस्था बदल जाती है। लेकिन यह भी जबरदस्ती थोपी हुई है। वे लोग जो तपश्चर्याओं में बहुत अधिक संलग्न हैं वे अपनी गरिमा खो देते हैं, वे थोड़ा कुरूप हो जाते हैं। सतत संघर्ष और युद्ध और लगातार दमन और इनकार करते रहना उनके अस्तित्वों में बहुत गहरी दरार निर्मित कर देता है। जप करने वाले व्यक्ति या उस आदमी की तुलना में जो औषधियों से असक्त है उन्हें अधिक स्थायी झलकें मिल जाती हैं। उन्हें टिमोथी लिएरी या महेश योगी से अधिक स्थायी परिणाम मिलेंगे, लेकिन फिर भी यह एक सहज खिलावट नहीं है। अभी भी यह झेन, वास्तविक योग, तंत्र नहीं है।

'…...या समाधि।'

 अब आता है चौथा, जिसे पतंजलि तुम्हें समझाने का प्रयास कर रहे हैं। संयम के माध्यम से, समाधि के माध्यम से, सभी कुछ प्राप्त किया जाना है। अब तक वे जो कुछ भी समझा रहे थे वह था तुम्हारी सजगता को संयम, समाधि की ओर —लेकर आना। औषधियों वाला व्यक्ति रसायनशास्त्र के माध्यम से कार्य करता है, तपश्चर्याओं वाला व्यक्ति शरीर क्रिया वितान के माध्यम से कार्य करता है, जाप वाला व्यक्ति अपने अस्तित्व की ध्वनि—संरचना के माध्यम से कार्य करता है, किंतु वे सभी आशिक हैं। उसकी पूर्णता को उन्होंने अभी तक नहीं छुआ है। और वे सभी एक प्रकार का असंतुलन निर्मित कर लेते हैं। एक भाग बहुत विराट हो जाएगा और दूसरे भाग पीछे रह जाएंगे, और वह कुरूप हो जाएगा।
समाधि समग्र का विकास है।
और विकास को स्वाभाविक, सहज होना चाहिए, जबरदस्ती नहीं। विकास को सजगता के माध्यम से होना चाहिए न कि रसायन शास्त्र के माध्यम से, न कि भौतिक वितान के माध्यम से, न कि ध्वनि के माध्यम से। विकास को सजगता के, साक्षित्व के माध्यम से घटित होना चाहिए, यही है समाधि। समाधि तुम्हें उसी बिंदु पर ले आएगी जिस पर तुम्हारा जन्म हुआ था। तत्‍क्षण यह तुम पर तुम्हारी सत्ता को, जो तुम हो उसको, तुम पर प्रकट कर देगी।
अब समाधि के बारे में कुछ बातें समझ लेनी पडेगी।
पहली : वह उपलब्धि हेतु कोई लक्ष्य नहीं है, वह पूर्ति हेतु कोई आकांक्षा भी नहीं है। यह कोई अपेक्षा नहीं है, यह कोई आशा नहीं है, यह किसी भविष्य में नहीं है, यह अभी और यहीं है। इसीलिए समाधि के लिए एकमात्र शर्त है इच्छा विहीन होना—समाधि की भी इच्छा न होना।
यदि तुम समाधि की इच्छा कर रहे हो तो तुम स्वयं समाधि को लगातार नष्ट करते जा रहे हो। इच्छा की प्रकृति को समझना पड़ेगा, और इसी समझ में यह अपने आपसे ही स्वत: गिर जाती है। इसीलिए मैं कहता हूं कि जब तुम्हारी आशाएं विफल हो जाती हैं तो तुम एक सुंदर परिस्थिति में हो, इसका उपयोग करो। यही वह पल है जब तुम समाधि में अधिक सरलता से प्रविष्ट हो सकते हो। धन्य हैं वे जो निराश हैं; इस वाक्य को जीसस की अन्य सुंदर उक्तियों में शामिल हो जाने दो।
वे कहते हैं, धन्य हैं वे जो विनम्र हैं, क्योंकि पृथ्वी के उत्तराधिकारी वे ही होंगे। मैं तुमसे कहता हूं धन्य हैं जो निराश हैं, क्योंकि समग्र के उत्तराधिकारी वे ही होंगे।
इसे देखने का प्रयास करो कि आशा तुम्हें कैसे नष्ट कर रही है। आशा के साथ ही भय उत्पन्न होता है। भय उसी सिक्के का दूसरा पहलू है। जब कभी तुम आशा करते हो, साथ ही तुम भयभीत भी हो जाते हो। तुम भयभीत हो जाते हो कि तुम अपनी आशा को पूरा कर भी पाओगे या नहीं। आशा कभी अकेली नहीं आती, इसकी संगत भय के साथ है। फिर भय और आशा के बीच तुम्हारा विस्तार हो जाता है। आशा भविष्य में है और भय भी भविष्य में है; और तुम आशा और भय के मध्य झूलना आरंभ कर देते हो। कभी तुमको लगता है, ही, यह आशा पूरी होने वाली है, और कभी—कभी तुम्हें लगता है, नहीं, यह तो असंभव बात लगती है। और भय उठ खड़ा होता है। भय और आशा के मध्य तुम अपना अस्तित्व खो देते हो। मैं तुम्हें एक प्रसिद्ध भारतीय कथा सुनाता हूं :
एक मूर्ख को आटा और नमक खरीदने भेजा गया। वह अपनी खरीद का सामान रखने के लिए एक बर्तन लेकर गया। उसे बताया गया था कि दोनों चीजों को मिलाना मत बल्कि उनको अलग—अलग रखना। जब दुकानदार ने बर्तन को आटे से भर दिया, तो उस मूर्ख ने अलग—अलग रखने के आदेशों को ध्यान में रखते हुए बर्तन को पलट दिया और दुकानदार से नमक को बर्तन के पृष्ठभाग में रखने को कहा। इस प्रकार आटा गिर गया, लेकिन नमक उसके पास था। उसे लेकर वह अपने मालिक के पास पहुंचा, मालिक ने पूछा, किंतु आटा कहां है? तो मूर्ख ने आटा खोजने के लिए बर्तन पुन: पलट दिया, तो नमक भी गिर पडा।
आशा और भय के मध्य तुम्हारा सारा अस्तित्व खो गया है।
इसी प्रकार से तुम इतने विखंडित, विभाजित और असंगठित हो गए हो। जरा इसके मूल तथ्य को देखो; यदि तुम्हारे पास कोई आशा नहीं है, तो तुम किसी भी प्रकार का भय निर्मित नहीं कर रहे होओगे— क्योंकि बिना आशा के भय आ ही नहीं सकता। आशा तुम्हारे भीतर भय का सोपान है। आशा भय के प्रवेश के लिए द्वार निर्मित करती है। यदि तुम्हारे पास कोई आशा नहीं है, तो भय की कोई बात न रही। और जब न आशा हो और न भय, तो तुम अपने आप से दूर नहीं जा सकते। जो तुम हो तुम बस वही हो। तुम अभी—यहीं हो। यही क्षण अत्यधिक जीवंत बन जाता है।

 दूसरा सूत्र:

जात्यन्तर परिणाम: प्रकृत्यापूरात।
'एक वर्ग, प्रजाति या वर्ण से अन्य में रूपांतरण, प्राकृतिक प्रवृत्तियों या क्षमताओं के अतिरेक से होता है।

 बहुत महत्वपूर्ण.......
यदि तुम तपश्चर्याओं वाले व्यक्ति हो तो तुम कभी भी अतिरेक में नहीं होओगे। तुम अपनी ऊर्जाओं का दमन कर चुके होओगे। कामवासना से भयभीत, क्रोध से भयभीत, प्रेम से भयभीत, इससे और उससे भयभीत, तुम अपनी सारी ऊर्जाओं का दमन कर चुके होओगे, तुम अतिरेक में नहीं होओगे। और पतंजलि कहते हैं कि केवल अतिरेक के माध्यम से ही रूपांतरण होता है। यह जीवन के परम आधारभूत नियमों में से एक है।
क्या तुमने गौर किया है कि जब तुम ऊर्जा में कमी अनुभव करते हो, अचानक प्रेम खो जाता है? जब तुम ऊर्जा में कमी अनुभव करते हो, सृजनात्मकता खो जाती है? तुम चित्र नहीं बना सकते, तुम कोई गीत नहीं लिख सकते। यदि तुम लिखते हो तो तुम्हारी कविता चल नहीं पाएगी, नाचना तो बहुत दूर की बात है। यह तो चल भी न सकेगी, यह तो बस अधिक से अधिक लंगड़ा कर चल सकती है। यह कविता जैसी होगी भी नहीं। यदि तुम उस समय चित्र बनाओ, जब तुम अल्प ऊर्जावान हो तो तुम्हारा चित्र रुग्ण होगा। वह स्वस्थ नहीं होगा। यह स्वस्थ हो नहीं सकता, क्योंकि इस चित्र को तुमने बनाया है और तुम ऊर्जा में अल्पता अनुभव कर रहे हो। वास्तव में इस चित्र के रूप में तुम ही कैनवास पर चित्रित हो। यह उदास, दुखी, मरणासन्न होगा।
मैंने एक बड़े चित्रकार के बारे में सुना है। उसने अपने एक मित्र को, जो एक चिकित्सक था उसे आकर अपनी एक कलाकृति देखने का अनुरोध किया था। उस चिकित्सक ने चित्र का अवलोकन किया, इस ओर से देखा और उस ओर से देखा। वह मित्र, वह चित्रकार बहुत प्रसन्न हो गया कि वह कितने गौर से देख कर उसके चित्र का मूल्यांकन कर रहा है। और अंत में उस चित्रकार ने पूछ ही लिया, क्योंकि उसने देखा कि उसका चिकित्सक मित्र उलझन में पड़ा है—न सिर्फ उलझन में है बल्कि चिंतित है। उस चित्रकार मित्र ने पूछा, बात क्या है? इस चित्र के बारे में तुम क्या सोचते हो? उस चिकित्सक ने कहा परिशेषिका शोथ (अपेंडिसाइटिस)। उस चित्रकार ने किसी व्यक्ति का चित्र बनाया था और चिकित्सक बहुत ध्यान से इस चित्र को हर ओर से देख रहा था, क्योंकि चेहरा इतना पीला था और सारा शरीर इतनी पीड़ा में दिख रहा था कि उसे लगा इसे अवश्य ही अपेंडिसाइटिस का रोग होना चाहिए। बाद में यह पता लगा कि चित्रकार को अपेंडिसाइटिस थी, वह इससे पीड़ित था।
तुम अपने आप को ही अपने काव्य में, अपनी चित्रकारी में, अपनी मूर्तिकला में विस्तीर्ण करते हो। जो कुछ भी तुम करते हो यह तुम ही हो, इसे ऐसा ही होना चाहिए।
वृक्षों में पुष्प केवल तभी लगते हैं जब वे ऊर्जा के अतिरेक में होते हैं, जब अत्यधिक होती है ऊर्जा। वे फूल खिलाने में समर्थ हो पाते हैं। जब किसी वृक्ष के पास अधिक ऊर्जा नहीं होती है तो उसमें फूल नहीं लगते, क्योंकि उसके पास तो पत्तियों तक के लिए पर्याप्त ऊर्जा नहीं है। उसके पास तो जड़ों तक के लिए पर्याप्त ऊर्जा नहीं है—यह फूल खिलाने की व्यवस्था वौसे कर सकता है? फूल तो करीब—करीब एक विलासिता होंगे। जब तुम भूखे होते हो तो तुम घर के लिए चित्रों को खरीदने के बारे में नहीं सोचते। जब तुम्हारे पास वस्त्र नहीं होते हैं तो तुम वस्त्रों के बारे में सोचते हो, तुम एक सुंदर उपवन के बारे में नहीं सोचते। ये विलासिताएं हैं। जब ऊर्जा अतिरेक में होती है केवल तभी उत्सव होता है, रूपांतरण घटता है। जब तुम ऊर्जा से ओतप्रोत हो रहे हो तभी तुम गीत गाना चाहते हो, तुम नृत्य करना चाहते हो, तुम बांटना चाहते हो।
'एक वर्ग, प्रजाति, या वर्ण से अन्य में रूपांतरण, प्राकृतिक प्रवृत्तियों या क्षमताओं के अतिरेक से होता है।
सामान्यत: मनुष्य जैसा वह है, इतना अवरुद्ध है, और इतनी अधिक समस्याएं दमित हैं कि ऊर्जा कभी उस बिंदु तक नहीं आ पाती जिससे यह उद्वेलित हो सके और इसे बस दूसरों के साथ बांटा जा सके। और तुम्हारा सहस्रार, जो तुम्हारा खिल जाना है, तुम्हारे सिर के शीर्ष में स्थित कमल, तब तक नहीं खिलेगा जब तक कि ऊर्जा उद्वेलित न हो, जब तक कि यह इतनी अधिक अतिरेक में न हो कि यह ऊंची और ऊंची उठती जाए। उसका तल ऊपर और ऊपर उठता चला जाता है, यह दूसरे केंद्र पर पहुंचता है, फिर तीसरा केंद्र, चौथा केंद्र और जो केंद्र भी इस उद्वेलित ऊर्जा के द्वारा स्पर्शित होता है खुल जाता है, खिल जाता है। सातवां चक्र मानवता का पुष्प है : सहस्रार। सहस्र—दल—कमल, एक हजार पंखुड़ियों वाला कमल, जो केवल तब खिलेगा जब तुम ऊर्जा के अतिरेक में हो।
न तो कभी दमन करो और न ही अपने अस्तित्व में अवरोध उत्पन्न करो। कभी अधिक ठोस मत हो जाओ। जमो मत। प्रवाहित होओ। अपनी ऊर्जा को सदैव प्रवाहमान रहने दो। योग के उपायों, योगासनों का यही पूरा उद्देश्य है कि तुम्हारे अवरोध छिन्न—भिन्न हो जाएं। यौगिक आसन और कुछ नहीं बल्कि उन अवरोधों को जो तुमने अपने शरीर में बना रखे हैं तोड्ने की एक प्रणाली है।
अब पश्चिम में ठीक ऐसा ही घटित हुआ है। यह है रोल्फिंग, इदारोल्फद्वारास्थापित। क्योंकि पश्चिम में मन अधिक तकनीकी है, लोग अपनी चीजें स्वयं करना नहीं चाहते। वे इन्हें किसी और के द्वारा कराना चाहते है; इसीलिए रोल्फिंग। कार्य रोल्फिंग करने वाला करेगा। वह तुम्हारी गहरी मालिश करेगा, और वह तुम्हारे अवरोधों को पिघलाने का प्रयास करेगा। जो पेशीतंत्र कठोर हो चुका है वह शिथिल हो जाएगा।
योग के साथ भी यही किया जा सकता है, और अधिक आसानी से किया जा सकता है, क्योंकि तुम स्वयं अपने मालिक हो। अपने आंतरिक अस्तित्व को तुम अधिक उचित ढंग से, बिलकुल ठीक अनुभव कर सकते हो। तुम अनुभव कर सकते हो कि तुम्हारे अवरोध कहां—कहां हैं। यदि तुम प्रतिदिन अपनी आंख बंद करो और मौन होकर बैठो तो तुम यह जान सकते हो कि कहां पर तुम्हारा शरीर असहज अनुभव कर रहा है, कहां पर तुम्हारा शरीर तनाव अनुभव कर रहा है। फिर शरीर के उस विशेष भाग को शिथिल करने के लिए योगासन हैं। वे आसन पेशी तंत्र के उस भाग को जो कठोर हो चुका है, शिथिल करने में अवरोध को विसर्जित करने में सहायक होंगे और ऊर्जा को प्रवाहित होने देंगे। किंतु एक बात निश्चित है कि दमित व्यक्ति कभी पुष्पित नहीं होता है।
दमित व्यक्ति निदित और प्रतिबधित ऊर्जा के साथ रहता है। और यदि तुम अपनी ऊर्जा को ठीक दिशाओं में गति के लिए निर्देशित नहीं करोगे तो तुम्हारी ऊर्जा तुम्हारे लिए आत्मघाती और विध्वंसक हो सकती है। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारी ऊर्जा प्रेम की ओर नहीं जा रही है, तो वह क्रोध बन जाएगी। यह खट्टी, कड्वी हो जाएगी। जब कभी भी तुम किसी क्रोधित व्यक्ति को देखो, तो याद रहे, किसी भी प्रकार से उसकी ऊर्जा प्रेम से वंचित रह गई है। किसी तरह से वह भटक गया है, इसलिए वह क्रोधित है। वह तुम पर क्रोधित नहीं है, वह तो बस क्रोधित है। तुम भी एक बहाना हो सकते हो। वह क्रोध है। ऊर्जा अवरुद्ध हो गई है और जिंदगी करीब—करीब अर्थहीन अनुभव हो रही है, इसमें कोई सार्थकता न रही, वह रोष में है।
डीलन थॉमस की एक बहुत प्रसिद्ध कविता है। उसके पिता का देहांत हो गया और उसी रात उसने यह कविता लिखी। इस कविता में ये पंक्तियां आती हैं—
क्रोध
प्रकाश के अवसान
के विरुद्ध,
क्रोध;
उस शुभ रात्रि में
जाएं मत
कोमलता से,
बिना विरोध!
वह अपने पिता से कह रहा है : 'मृत्यु से संघर्ष करें, इसके विरुद्ध क्रोध करें समर्पण न करें, बस ऐसे ही मत छोड़े। उसे कड़ी चुनौती दें, भले ही आप उससे पराजित हो जाएं, लेकिन बिना संघर्ष किए न जाएं।
यदि प्रेम परितृप्त नहीं है तो व्यक्ति क्रोधित हो जाता है। यदि जीवन परितृप्त नहीं है तो व्यक्ति मृत्यु पर क्रोधित हो जाता है। ऐसा व्यक्ति जिसका जीवन परितृप्त है वह मृत्यु पर क्रोधित नहीं होगा, वह उसका स्वागत करेगा। और वह ऐसा नहीं कहेगा कि यह अंधेरी रात है; वह कहेगा, कितनी सुंदर, कितनी विश्रामदायी। अंधकार विश्रामदायक है। यह करीब—करीब मां के गर्भ की भांति उष्ण है। व्यक्ति पुन: परमात्मा के वृहत्तर गर्भ में जा रहा है। क्रोध किसलिए? वे जो खिल चुके हैं, समर्पण कर देते हैं। वे जो हताश हैं समर्पण नहीं कर सकते। अपनी हताशाओं में से वे और अधिक आशाएं निर्मित करते हैं और प्रत्येक आशा और अधिक हताशाएं उत्पन्न करती है—और यह दुष्‍चक्र चलता चला जाता है, अनंत तक।
यदि तुम हताश नहीं होना चाहते हो तो आशा छोड़ दो—तब कोई हताशा नहीं रहेगी। और यदि तुम वास्तव में विकसित होना चाहते हो तो दमन कभी न करो। ऊर्जा का आनंद लो। जीवन ऊर्जा की एक घटना है। ऊर्जा का आनंद लो—नाचो, गाओ, तैसे, दौड़ो, ऊर्जा को अपने ऊपर सभी ओर बहने दो, ऊर्जा को अपने ऊपर सभी तरफ फैल जाने दो। इसे प्रवाह बन जाने दो। एक बार तुम प्रवाह में आ जाओ तो खिलना बहुत सरल हो जाता है।
'आकस्मिक कारक प्राकृतिक प्रवृत्तियों को सक्रिय होने के लिए प्रेरित नहीं करता, यह तो बस अवरोधों को हटा देता है—जैसे खेत सींचता हुआ किसान; वह बाधाओं को हटा देता है और तब पानी स्वत: ही मुक्त होकर प्रवाहित होने लगता है।
पतंजलि कह रहे हैं कि वास्तव में यदि तुम्हारे भीतर अवरोध न हों तो हर चीज को स्वाभाविक रूप से प्राप्त किया जा सकता है। यह कुछ निर्मित करने का प्रश्न नहीं है, प्रश्न तो केवल बाधा को हटाने का है। यह तो बस ऐसा ही है कि झरना वहा हो और एक चट्टान उसका रास्ता रोक रही हो। उसके पीछे इसकी जलधार बह रही है लेकिन यह चट्टान को नहीं हटा सकती। यह झरना, यह जल निर्मित नहीं करना पड़ता है, यह पहले से ही वहां है, तुम्हें तो बस चट्टान हटा देनी है और यह आगे की ओर फूट पड़ता है, यह फव्वारे की भांति है, तुम तो बस चट्टान हटा दो और यह ऊपर की ओर फूट पड़ता है, यह खिल जाता है। बच्चे के पास यह स्वभावत: होता है, तुम्हें इसे समझ के द्वारा अर्जित करना पड़ता है। और तुम्हें उन सभी अवरोधों को छोड़ना पड़ेगा जो समाज ने तुम्हारे ऊपर थोप रखे हैं।
समाज कामवासना के विरोध में है, उसने काम—केंद्र के ठीक पास में एक अवरोध निर्मित कर दिया है। जब कभी कामवासना उठती है तुम बेचैनी अनुभव करते हो, तुम्हें अपराध बोध होता है, तुम भयभीत अनुभव करते हो। तुम सिकुड़ जाते हो, तुम प्रवाहित नहीं होते, तुम बहते नहीं हो। समाज क्रोध के विरोध में है; उसने वहां एक अवरोध निर्मित कर दिया है। इसलिए क्रोध आता है, लेकिन तुम इसमें पूरी तरह नहीं जा पाते हो। तुम्हें इन सभी अवरोधों को छोड़ना पड़ेगा।
इसी कारण से मैं ध्यान की सक्रिय विधियों पर जोर देता हूं। वे तुम्हारे अवरोधों को पिघला देंगी। यदि तुम क्रोधित हो, तो चीखो, चिल्लाओ। किसी व्यक्ति पर चीखने और चिल्लाने की आवश्यकता नहीं है, बस एक तकिया ही काम कर जाएगा। तकिए को पीटो, इस पर कूद पड़ो, तकिए को मार डालो। किसी व्यक्ति को मारने की कोई जरूरत नहीं है। बस यह खयाल कि तुम तकिए को मार रहे हो, पर्याप्त है। बस क्रोध में, गुस्से में हो जाना ही काफी है, अवरोध टूट गया है। यदि तुम किसी की हत्या करना चाहो या तुम किसी के ऊपर क्रोधित होना चाहो, तो तुम इसमें कभी पूरी तरह न हो सकोगे—क्योंकि दूसरे को चोट पहुंचेगी, वह घायल होगा, और तुम एक मनुष्य हो, तुम्हारे पास प्रेम और करुणा भी हैं। इसलिए व्यक्ति अभिव्यक्ति रोक लेता है।
तकिए को पीटो। एक बढ़िया चाकू लो और तकिए को मार डालो। जब तकिया मर जाए, तो उसके शरीर को दफना दो और यह मामला निबटा दो। अचानक तुम अनुभव करोगे कि तुम्हारे भीतर कुछ टूट गया है। एक चट्टान हटा दी गई है। चीखो, कूदो, दौड़ो। यदि कामवासना उठती है तो इसकी उठने में सहायता '?रो। समाज ने तुमको जो कुछ भी सिखाया है उस सभी को भूल जाओ। अपने भीतर उठ रही कामुकता की परम अनुभूति का, आनंद लो। सहयोग करो इसके साथ। न तो सिकुड़ो और न ही इसका प्रतिरोध करो, इसके साथ सहयोग करो। शीघ्र ही तुम पाओगे कि कामुकता रूपांतरित हो रही है। जब तालाब भर जाता है, तो इसका पानी किनारे पार करके बाहर की ओर फैल जाता है। उद्वेलित होती कामुकता संवेदना बन जाती है। वे लोग जो अपनी कामवासना का दमन करते हैं संवेदनाशन्य, जड़ हो जाते हैं। उनके पास जीवन नहीं होता। वे काष्ठवत निर्जीव हो जाते हैं।
'आकस्मिक कारक प्राकृतिक प्रवृत्तियों को सक्रिय होने के लिए प्रेरित नहीं करना, यह तो बस अवरोधों को हटा देता है।
योग का सारा प्रयास ही अवरोधों को हटा देने का है; निषेध है इसका ढंग। वास्तव में कुछ नहीं किया जाना है क्योंकि सब कुछ है तुम्हारे पास; बस यह प्रवाहित नहीं हो रहा है। राह में कुछ चट्टानें रख दी गई हैं। तुमको राह से भटका दिया गया है। ऐसे ही है यह, जैसे खेत सींचता हुआ किसान। क्या तुमने कभी किसान को खेत सींचते हुए देखा है? पानी एक नाली में बह रहा होता है, वह जरा सी मिट्टी हटा देता है और पानी दूसरे रास्ते पर जाने लगता है। जब उस भाग की सिंचाई हो जाती है तो वह निकास पर थोड़ी सी मिट्टी वापस रख देता है, पानी उस रास्ते पर बहना बंद कर देता है। फिर वह नाली को कहीं और से खोल देता है, पानी वहां से बहना आरंभ कर देता है। पानी वहां है, उसे प्रवाहित होने के लिए पथ की आवश्यकता है। ऊर्जा तुम्हारे पास है, तुम ऊर्जावान हो, इसे केवल प्रवाहित होने के मार्ग की आवश्यकता है ताकि यह सहस्रार, उच्चतम शिखर, तुम्हारे अस्तित्व की पराकाष्ठा, तक पहुंच जाए।
'कृत्रिमता से निर्मित मन केवल अस्मिता से ही अग्रसर होते हैं।
और हम सभी के पास कृत्रिम मन हैं। इसी को मैं सम्मोहन कहता हूं जो समाज ने तुम पर किया हुआ है।
यहां आश्रम में हमारे यहां एक मनोचिकित्सा समूह है, और मैं इसके विषय में सोचता रहा हूं। इसे सम्मोहन चिकित्सा, हिम्मोथेरेपी कहा जाता है। लेकिन मैं इसे वि—मोहन चिकित्सा, डी—हिम्मोथेरैपी कहना पसंद करूंगा—क्योंकि आधारभूत प्रयास तुम्हें वि—मोहित करने का या अ—सम्मोहित करने का, तुमको प्रतिबंधों से मुक्त करने का है।
सभी मन कृत्रिमता से निर्मित मन हैं. 'निर्माणचित्तान्यस्मितामात्रात्।’ 'कृत्रिमता से निर्मित मन केवल अस्मिता से ही अग्रसर होते हैं।मैं हिंदू हूं मैं मुसलमान हूं मैं अश्वेत हूं मैं गोरा हूं मैं यह हूं वह हूं—वे सभी कृत्रिम मन हैं। मौलिक चेहरा, मौलिक मन, जिसे मनुष्य ने निर्मित नहीं किया है, उसका ही साक्षात करना है, और उसे ही जानना है।
मैने सुना है, एक छोटे अश्वेत बच्चे ने दुर्घटनावश सफेद रंग का डिब्बा अपने ऊपर उड़ेल लिया। जब वह घर लौटा तो उसके पिता ने उसकी जम कर पिटाई की और उसे सीधे बिस्तर में जाने के लिए कहा। कमरे से सुबकते हुए बाहर जाते समय उसने कहा, 'मैं केवल बीस मिनट के लिए ही श्वेत हुआ हूं और मैं तुम अश्वेतों से अभी से नफरत करने लगा हूं!'
एक बीस मिनट पुराने बच्चे ने भी कृत्रिम मन का संचय आरंभ कर दिया है। एक बीस मिनट उम्र का बच्चा भी किसी और की तुलना में अपनी मां की ओर अधिक प्रेम से देखता है, क्योंकि उसने एक तरकीब सीख ली है। मन की संस्कारिता आरंभ हो गई; वह भोजन देने वाली है, और जीवित रह पाना भोजन पर निर्भर है। इसलिए मां चाहे कितनी भी कुरूप हो, मां हमेशा सुंदर दिखाई पड़ती है। यह जीवित बच पाने का मामला है और बच्चे ने कूटनीति सीखना आरंभ कर दी है। वह पिता को देख कर उतना अधिक नहीं मुस्कुराका। वह नहीं जानता कि यह व्यक्ति कौन है। बाद में वह जान जाएगा। धीरे— धीरे वह देखेगा कि यह व्यक्ति महत्वपूर्ण है। निःसंदेह वह घर में इतना अधिक दिखाई नहीं पड़ता लेकिन है महत्वपूर्ण। मुश्किल से रविवारों को ही वह वहां होता है, लेकिन मां तक उस पर निर्भर है, मां भी उसको देख कर मुस्कुराती है। तब बच्चा भी पिता को देख कर मुस्कुराता है। वह कृत्रिम मन सीख रहा है। वह संबंधों को निर्मित कर रहा है, अपने जीवित रहने की व्यवस्था बनाता है, एक परिस्थिति निर्मित कर रहा है— कूटनीति, राजनीति का प्रयोग करते हुए, लेकिन यह कृत्रिम मन है, जो आरंभ में जीवित रह पाने में सहायता करता है, लेकिन अंत में बड़ी से बड़ी समस्या बन जाता है।
जब तुम जीवित बच गए और तुमने कृत्रिम मन का उपयोग कर लिया होता है तो वह तुम्हारे आस— पास तुम्हारे गले में लटके पत्थर की भांति लटक जाता है। यह अहंकार बन जाता है। इसे सीखना पड़ता है, इसके बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता। प्रत्येक बच्चे को कृत्रिम मन में जाना ही पड़ेगा। लेकिन जब तुम सावधान और सजग हो जाते हो और जब तुम जीवन के बारे में सोचना और उस पर ध्यान लगाना आरंभ कर देते हो तो यह समय आ जाता है कि धीरे— धीरे इसे छोड़ दिया जाए। और अहंकार को छोड़ दो, क्योंकि अहंकार कृत्रिम मन ही है और कुछ नहीं। कृत्रिम मन का केंद्र अहंकार है। और प्रत्येक कृत्रिम मन केवल तभी जारी रह सकता है जब तुम अपने अहंकार में वृद्धि करते चले जाओ।
हिंदू कहेंगे कि उनके पास दुनिया का श्रेष्ठतम धर्म है, कि संसार में वे सर्वाधिक धार्मिक लोग हैं। वास्तव में यदि सच में ही धार्मिक होते तो वे ऐसी मूर्खता की बात नहीं कहते, क्योंकि एक धार्मिक मन सरल एवं विनम्र होता है। यह अहंकार है। फिर प्रत्येक देश का अपना अहंकार है। रूसी, चीनी, अमरीकन, जर्मन, अंग्रेज—प्रत्येक के पास उसका निजी अहंकार है और प्रत्येक देश यह अनुभव करता रहता है कि हम श्रेष्ठ हैं, विशिष्ट हैं। प्रत्येक देश अपने अहंकार को बढ़ाने के उपाय और साधन खोज लेता है, और यही कार्य प्रत्येक जाति, प्रत्येक समूह और प्रत्येक स्त्री तथा पुरुष द्वारा किया जाता है। मैंने सुना है, एक हाथी ने नीचे देखा और उसको अपने पैरों के पास एक छोटा सा एक बहुत छोटा चूहा दिखाई पड़ा। मेरे प्यारे, हाथी ने कहा, तुम बहुत छोटे से हो। हां, चूहे ने सहमति दर्शाते हुए कहा, अभी कुछ दिन पहले तक मेरी तबियत खराब चल रही थी। एक चूहे तक का अपना अहंकार होता है? — उसकी तबियत खराब चल रही थी, इसीलिए वह इतना छोटा है।
कृत्रिम मन अहंकार के माध्यम से जीवित रहता है, इसलिए यदि तुम अहंकार छोड़ना आरंभ कर दो तो कृत्रिम मन छिन्न—भिन्न होने लगेगा। या यदि तुम अपने कृत्रिम मन का परित्याग कर दो, तो अहंकार विखंडित होने लगेगा। और यदि तुम वास्तव में इस चट्टान से छुटकारा पाना चाहते हो, तो दोनों उपायों को एक साथ आरंभ कर दो।
स्मरण रखो कि भौतिक मन अहं—शून्य होता है। यह मैं को नहीं जानता क्योंकि मैं एक संकुचन है। मौलिक मन आकाश की भांति असीम है।
और जहां तक अहंकार का संबंध है, एक समस्या लगातार उठती रहती है। आरंभ में तुम स्वयं के बारे में दूसरों को मूर्ख बनाने का प्रयास करते हो लेकिन धीरे— धीरे तुम स्वयं ही मूर्ख बन जाते हो। जब तुम दूसरों को विश्वास दिलाना आरंभ करते हो कि तुम कोई विशिष्ट व्यक्ति हो, तो तुम स्वयं ही अपने बारे में विश्वास करने लगते हो।
पागलखाने में एक कठोर नियम था : पालतू जानवर नहीं। वार्डर ने बेचारे हैरी को तेवर नाम के कुत्ते से बातचीत करते हुए सुना, तो वह उसकी गद्देदार कोठरी में घुस पड़ा। वहां वह डोरी के एक टुकड़े से बंधी हुई टूथपेस्ट हाथ में लिए बैठा था। क्या है यह? वार्डर ने पूछा। हैरी ने आश्चर्यचकित होकर उसे देखा, निश्चित रूप से कोई मूर्ख भी देख सकता है कि यह डोरी के एक टुकड़े में बंधी बस एक टूथपेस्ट की ट्यूब है, उसने कहा। संतुष्ट होकर वार्डर लौट गया। जैसे ही उसने अपने पीछे दरवाजा बंद किया, हैरी ने राहत की एक श्वास ली और कहा, तेवर, मेरे अच्छे बच्चे। उस समय हमने उसे निश्चित रूप से मूर्ख बना दिया।
जितना अधिक तुम दूसरों को मूर्ख बनाने में, यह सिद्ध करने में कि तुम कोई विशेष व्यक्ति हो, असाधारण हो, विशिष्ट हो, यह हो, वह हों—पागलपन के सभी विचार, जितना तुम इन्हें दूसरों के लिए सिद्ध करने में सफल होते हो, उतना ही अधिक तुम अपने आपको मूर्ख बनाने में सफल हो जाते हो। इसकी सारी मूढ़ता को देख लो।
कोई भी असाधारण नहीं है या प्रत्येक असाधारण है। कोई भी विशेष नहीं है या प्रत्येक व्यक्ति विशेष है। किंतु इसे किसी भी प्रकार से सिद्ध करने का कोई मतलब नहीं है—इसकी जरा भी आवश्यकता नहीं है।
कृत्रिमता से निर्मित मन केवल अस्मिता से ही अग्रसर होते हैं; इसलिए यदि तुम मौलिक मन पर आना चाहते हो—जो कि योग, तंत्र, झेन, सभी का पूरा प्रयास है—तो तुम्हें कृत्रिम मन का परित्याग करना पड़ेगा; वह मन जिसको समाज के द्वारा निर्मित किया गया है और तुम्हें दे दिया गया है, वह मन जिसे बाहर से बनाया गया है और तुम्हारे ऊपर थोप दिया गया है। धीरे— धीरे इसका परित्याग कर दो। जितना अधिक तुम इसको देखते हो, उतना ही अधिक तुम इसको छोड़ पाने में समर्थ हो जाते हो। जब भी तुम कृत्रिम मन से आसक्‍ति अनुभव करने लगो, जब कभी भी तुम कहो, मैं एक हिंदू हूं,’ और मैं एक भारतीय हूं या मैं एक अंग्रेज हूं मैं ब्रिटिश हूं,, या यह और वह, बस स्वयं को रंगे हाथ पकड़ लो। अंदर गहरे में अपने चेहरे पर थप्पड़ लगाओ और कहो, 'क्या बेवकूफी है।धीरे— धीरे समाज के द्वारा परिभाषित मत होओ। तब तुम उस अव्याख्य, अपने असली, प्रमाणिक अस्तित्व को पा लोगे।
'यद्यपि अनेक कृत्रिम मनों की गतिविधियां भिन्न—भिन्न होती हैं, फिर भी एक मूल मन उन सभी का नियंत्रण करता है।
इसलिए तुम्हारा कृत्रिम मन चाहे जैसा भी हो, वस्तुत:, वास्तव में, इसके पीछे छिपा मौलिक मन इन सभी का नियंत्रण करता है। नियंता को पाओ, यह खोजने का प्रयास करो कि समाज के द्वारा विकृत किए जाने से, प्रदूषित किए जाने से पूर्व, समाज के तुम्हारे भीतर प्रविष्ट होने से, तुम्हारे बारे में योजना बनाने से पूर्व, और समाज के द्वारा तुम्हारा प्रचंड रूप नष्ट करने से पूर्व मूलतः तुम कौन हो। झेन में वे इसको कहते हैं : अपने उस मौलिक चेहरे की खोज जो तुम्हारे पास तब था जब तुम्हारा जन्म नहीं हुआ था और जो तुम्हारे पास तब होगा जब तुम पुन: मरोगे; वह मौलिक चेहरा समाज के द्वारा अस्पर्शित। यही तुम्हारा स्वभाव, तुम्हारी आत्मा, तुम्हारा अस्तित्व है।
मौलिक चेहरे को उपलब्ध करके तुम्हारा पुनर्जन्म हो जाएगा, तुम एक द्विज, दुबारा जन्मे हुए हो जाओगे। तुम वास्तव में एक ब्राह्मण; वह जो जनता है, हो जाओगे। फिर पुन: प्रत्येक वस्तु तुम पर उसी भांति उद्घाटित हो जाएगी जिस भांति यह जन्म के समय उद्घाटित हुई थी, क्योंकि तुम पुन: जन्मे हुए होओगे। किंतु इस बार एक विराट अंतर होने जा रहा है, तुम सजग होओगे। पहली बार तुम चूक गए थे; इस बार तुम नहीं चूकोगे। पहली बार यह प्राकृतिक रूप से घटित हुआ था, इस बार यह तुम्हारे बोध, तुम्हारी सजगता से घटित होगा। तुम इसके प्रति चेतन होओगे। तुम स्वयं को दुबारा पुनर्जन्म लेता हुआ, जन्म लेता हुआ, अतीत से उभरता हुआ संशय और उलझन के बादलों सें—विचारों, पूर्वाग्रहों, अहंकारों, मनों, संस्कारिताओ, सभी से उदित होते हुए, कुंआरे, शुद्ध रूप में देखोगे, तब तुम पुन: उस शक्ति को, उस अस्तित्व को, जो तुम हो, देखोगे।
तो पहले यह जन्म पर घटित होता है, दुबारा वह समाधि में घटता है। मध्य में—तीन उपायों, औषधियों, मंत्र—जाप, तपश्चर्याओं के माध्यम से इसकी व्यवस्था की जा सकती है—लेकिन ये तीनों विधियां धोखेबाजी के, छल के उपाय हैं। और तुम परमात्मा के साथ छल नहीं कर सकते, तुम स्वयं के साथ छल कर सकते हो, इसको याद रखो।
आज इतना ही।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें