(दो
शरीर के मिलने
से तो सिर्फ
हम एक शरीर को
जन्मने की
सुविधा देते
हैं। लेकिन जब
दो आत्माएं भी
मिलती है,
तब हम एक
विराट आत्मा
को उतरने की
सुविधा देते
है।)
भगवान
श्री आपने एक
प्रवचन में
कहा है कि
समाधि के
प्रयोग में
अगर तेजस शरीर
अर्थात
सूक्ष्म शरीर
स्थूल शरीर के
बाहर चला गया
तो पुरुष के
तेजस शरीर को
बिना स्त्री
की सहायता के
वापस नहीं
लौटाया जा
सकता या स्त्री
के तेजस शरीर
को बिना पुरुष
की सहायता के
वापस नहीं
लौटाया जा
सकता। क्योंकि
दोनों के
स्पर्श से एक
विद्युत—
वृत्त पूरा
होता है और
बाहर गई चेतना
तीव्रता से
भीतर लौट आती
है आपने अपना
एक अनुभव भी
कहा है कि
वृक्ष पर
बैठकर ध्यान
करते थे और
स्थूल शरीर
नीचे गिर गया
और सूक्ष्म
शरीर ऊपर से
देखता रहा।
फिर एक स्त्री
का छूना और
सूक्ष्म शरीर
का स्थूल शरीर
में वापस लौट
जाना। तो
प्रश्न है कि
पुरुष को
स्त्री की और
स्त्री को
पुरुष की
आवश्यकता इस
प्रयोग में
क्यों है? कब
तक है? क्या
दूसरे के बिना
लौटना संभव
नहीं है? क्या
कठिनाई है?
दो—तीन
बातें समझना
उपयोगी है। एक
तो यह कि इस
सारे जगत की
व्यवस्था ऋण
और धन के
विरोध पर निर्भर
है,
निगेटिव और
पाजिटिव के
विरोध पर
निर्भर है। इस
जीवन में जहां
भी आकर्षण है,
इस जीवन में
जहां भी खिचाव
है, वहां
सभी जगह ऋण और
धन के बंटे
हुए हिस्से
काम करते हैं।
स्त्री—पुरुष
का विभाजन भी
उस बड़े विभाजन
का एक हिस्सा
है, सेक्स
का विभाजन भी
उस बड़े विभाजन
का एक हिस्सा
है। विद्युत
की भाषा में
ऋण और धन के
ध्रुव एक—दूसरे
को तीव्रता से
खींचते हैं।
साधारणत:
स्त्री —पुरुष
अपने बीच जो
आकर्षण अनुभव
करते हैं, उसका
कारण भी यही
है। इस आकर्षण
में और एक
चुंबक की तरफ
खिंचते हुए
लोहे के टुकड़े
के आकर्षण में
बुनियादी रूप
से कोई फर्क
नहीं है। अगर
लोहे का टुकड़ा
भी बोल सकता
होता, तो
वह कहता कि
मैं इस चुंबक
के प्रेम में
पड़ गया हूं।
अगर लोहे का
टुकड़ा भी बोल
सकता होता, तो वह कहता
कि इस चुंबक
के बिना अब
मैं जी न सकूंगा।
या तो इसके
साथ जीऊंगा या
मर जाऊंगा।
अगर लोहे का
टुकड़ा भी बोल
सकता होता, तो जितनी
कविताएं
आदमियों ने
लिखी हैं
प्रेम की, उतनी
ही कविताएं वह
भी लिख लेता।
वह चूंकि
बोलता नहीं है,
इतना ही
फर्क है, अन्यथा
आकर्षण वही है।
इस आकर्षण की
बात अगर हमारे
खयाल में आ
जाए, तो और
दो —तीन बातें
खयाल में आ
जाएंगी।
सामान्य
रूप से इस
आकर्षण को
अनुभव किया
जाता है।
लेकिन
आध्यात्मिक
अर्थों में इस
आकर्षण का भी
उपयोग हो सकता
है और किन्हीं
स्थितियों
में अनिवार्य
हो जाता है।
जैसे अगर किसी
पुरुष का
सूक्ष्म शरीर
आकस्मिक रूप
से बाहर निकल
जाए—आकस्मिक
रूप से! जिसके
लिए उसने
पूर्व इंतजाम
न किया हो, पूर्व
व्यवस्था न की
हो, जिसे
बाहर ले जाने
के लिए कोई
साधना और
आयोजन न किया
हो—अगर
आकस्मिक रूप
से बाहर निकल
जाए तो लौटना
बहुत मुश्किल
हो जाता है।
या स्त्री का
सूक्ष्म शरीर
अगर अनायास
बाहर निकल जाए—किसी
बीमारी में, किसी
दुर्घटना में,
किसी चोट के
लगने से, या
किसी साधना की
प्रक्रिया
में, लेकिन
स्वयं के
द्वारा अन—
आयोजित—तो उस
हालत में
लौटना बहुत
कठिन हो जाता
है। क्योंकि न
तो हमें पता
होता है जाने
के रास्ते का,
न पता होता
है लौटने के रास्ते
का। ऐसी
अवस्थाओं में
विपरीत
आकर्षण के
बिंदु की
मौजूदगी
सहयोगी हो
सकती है।
अगर
पुरुष का
सूक्ष्म शरीर
बाहर है और
स्त्री उसके
शरीर को
स्पर्श करे, तो
उसके सूक्ष्म
शरीर को अपने
शरीर में वापस
लौटने में
सुविधा हो
जाती है। यह
सुविधा वैसी
ही है जैसे कि
हम एक चुंबक
को बाहर रख
दें और बीच
में एक ग्लास
की दीवाल हो
और उस तरफ
लोहे का एक
टुकड़ा, फिर
भी ग्लास की
दीवाल की बिना
फिक्र किए
चुंबक के पास
खिंच आए। शरीर
तो बीच में
होगा पुरुष का,
स्थूल शरीर,
लेकिन
स्त्री का
स्पर्श उसके
बाहर गए
सूक्ष्म शरीर
को वापस ले
आने में
सहयोगी हो
जाएगा।
वह चुंबकीय, मैग्नेटिक
फोर्स ही उसका
कारण बनेगी।
ऐसा ही स्त्री
के भी आकस्मिक
रूप से गए
सूक्ष्म शरीर
को भीतर लाने
में सहयोग मिल
सकता है।
लेकिन यह
आकस्मिक रूप
से जरूरी है।
अगर
व्यवस्थित
रूप से प्रयोग
किया गया हो, तो जरूरी
नहीं है।
क्यों जरूरी
नहीं है?
क्योंकि
मेरी पिछली
चर्चाएं अगर
आप सुन रहे थे, तो
आपको खयाल
होगा, मैंने
कहा कि
प्रत्येक
पुरुष का पहला
शरीर पुरुष का
है, दूसरा
शरीर स्त्री
का है। स्त्री
का पहला शरीर
स्त्री का है
दूसरा शरीर
पुरुष का है।
अगर किसी ने
आयोजित रूप से
अपने शरीर को
बाहर भेजा हो,
तो उसे
दूसरी स्त्री
के शरीर की
जरूरत नहीं है।
वह अपने ही
भीतर की
स्त्री शरीर
का उपयोग करके
उसे वापस लौटा
सकता है। तब
दूसरे की
आवश्यकता
नहीं रह जाती।
लेकिन
यह तब होगा, जब
कि सुनियोजित
प्रयोग किया
गया हो। घटना
आकस्मिक न हो।
आकस्मिक घटना
में तो
तुम्हें पता
ही नहीं होता
है कि
तुम्हारे भीतर
और शरीर भी
हैं। और न ही
उन शरीरों की
प्रक्रिया का
तुम्हें पता
होता है, न
उन शरीरों का
उपयोग करने का
तुम्हें पता
होता है।
इसलिए यह हो
भी सकता है कि
बिना स्त्री
के भी पुरुष
का बाहर गया
शरीर भीतर आ
जाए, लेकिन
वह भी आकस्मिक
ही घटना होगी
जैसे बाहर जाना
आकस्मिक था।
इसलिए उसके
लिए पक्का
नहीं कहा जा
सकता।
इसलिए
प्रत्येक
तंत्र
प्रयोगशाला
में जहां कि
मनुष्य के
अंतस शरीरों
पर सर्वाधिक
काम किया गया
है मनुष्य के
इतिहास में —मनुष्य
के आंतरिक
जीवन के संबंध
में जितना
तांत्रिकों
ने प्रयोग
किया उतना
किसी और ने
नहीं किया है—इसलिए
उन
प्रयोशालाओ
में स्त्री की
मौजूदगी अनिवार्य
हो गई थी। और
साधारण
स्त्री की
मौजूदगी भी
अनिवार्य नहीं
थी,
असाधारण
स्त्री की
मौजूदगी
अनिवार्य हो
गई थी।
क्योंकि अगर
एक स्त्री
बहुत पुरुषों
से संसर्ग कर
चुकी हो, तो
उसकी
मैग्नेटिक
फोर्स कम हो
जाती है। इसलिए
कुंवारी
लड़कियों का
तंत्र में बड़ा
मूल्य हो गया
था। उसके कारण
और कुछ भी
नहीं थे। अगर
एक स्त्री
बहुत पुरुषों
के संबंध में
आ चुकी है या
एक ही पुरुष
के बहुत संबंध
में आ चुकी है,
तो उसकी
मैग्नेटिक, चुंबकीय
शक्ति क्षीण
होती चली जाती
है।
वृद्ध
स्त्री के
आकर्षण के कम
हो जाने का
कारण सिर्फ
वृद्धावस्था
नहीं होती।
वृद्ध पुरुष
के आकर्षण के
कम हो जाने का
कारण सिर्फ
वृद्धावस्था
नहीं होती।
बहुत
बुनियादी
कारण तो यह
होता है कि
उनकी जो पोलेरिटी
है,
वह क्षीण हो
गई होती है।
पुरुष कम
पुरुष हो गया
होता है और
स्त्री कम स्त्री
हो गई होती है।
अगर कोई
वृद्धावस्था
तक भी अपने
पुरुष या अपनी
स्त्री को बचा
सके —इसे
बचाने की
प्रक्रिया का
नाम ही
ब्रह्मचर्य
है —तो उसका
आकर्षण अंत तक
नहीं खोता।
एक
स्त्री है
अमेरिका में।
अभी जीवित है।
जिसकी उम्र
सत्तर पार कर
गई है। लेकिन
अमेरिका में
उस सत्तर वर्ष
की बूढी
स्त्री के
मुकाबले कोई
जवान स्त्री
भी आकर्षण का
केंद्र नहीं
है। और आज
सत्तर वर्ष की
उम्र में भी
वह स्त्री जहां
से गुजरती है
वहां पुलिस का
विशेष इंतजाम
करना जरूरी हो
जाता है। यह
स्त्री सत्तर
वर्ष तक अपने
चुंबकीय
तत्वों को बचा
सकी है। पुरुष
भी बचा सकता
है। श्री
पृथ्वीचंद जी
यहां बैठे हुए
हैं पास में।
उनकी उम्र
काफी है और
उनमें युवा
होने का तत्व
एकदम नष्ट
नहीं हो गया।
उन्होंने
अपनी चुंबकीय
शक्ति को बहुत
दूर तक बचाया
है। वे आज भी
आकर्षण रखते
हैं,
वृद्ध होकर
भी किसी भी
भांति!
इसलिए
तंत्र में
कुंवारी
युवतियों का
मूल्य
सर्वाधिक हो
गया। और उन
कुंवारी
युवतियों का
उपयोग
साधक की बाहर
गई चेतना को
भीतर लौटाने के
लिए किया जाता
रहा। और
कुंवारी
लड़कियों को
इतनी
सेंकटिटी, इतनी
पवित्रता दी
कि किसी भी
द्वार से उनकी
जो चुंबकीय
शक्ति है वह
बाहर न हो जाए।
इस
चुंबकीय शक्ति
को बढ़ाने के
भी उपाय हैं; इसे
क्षीण करने के
भी उपाय हैं।
हमें साधारणत:
खयाल में नहीं
है। जिसको हम
सिद्धासन
कहते हैं, पद्यासन
कहते हैं, ये
सारे के सारे
आसन मनुष्य की
चुंबकीय
शक्ति बाहर न
झरे, उसको
ध्यान में
रखकर निर्मित
किए गए हैं।
हमारी
चुंबकीय
शक्ति के बहने
के कुछ
निश्चित
मार्ग हैं।
जैसे हाथ की
उंगलियों से
चुंबकीय
शक्ति बहती है।
असल में कहीं
से भी शक्ति
को बहना हो, तो
उसे कोई लंबी
नुकीली चीज
बहने के लिए
चाहिए। गोल
चीज से शक्ति
नहीं बह सकती।
वह उसी में
गोल घूम जाती
है। पैर की
उंगलियों से
बहती। हाथ और
पैर दो खास
जगह हैं जहां
से चुंबकीय
शक्ति बहती है।
तो
पद्यासन या
सिद्धासन में
दोनों हाथों
को और दोनों
पैरों को जोड़
लेने का उपाय
है। जिससे
शक्ति बहे तो
एक हाथ से बही
हुई शक्ति दूसरे
हाथ में
प्रवेश कर जाए।
शक्ति बाहर न
गिर सके।
दूसरा जो बहुत
बड़ा द्वार है
शक्ति के
प्रवाहित
होने का, वह आख
है। लेकिन अगर
आख को आधी
खुला रखा जा
सके, तो
उससे शक्ति का
बहना बंद हो
जाता है।
यह
जानकर आप
हैरान होंगे
कि पूरी खुली
आख से भी
शक्ति बहती है
और पूरी बंद
आख से भी बहती
है। सिर्फ आधी
खुली आख से
नहीं बहती।
पूरी आख बंद
हो तो भी बह
सकती है, पूरी
आख खुली हो तब
तो बहती ही है।
लेकिन अगर आधी
आख बंद हो और
आधी खुली हो, तो आख के
भीतर जो
वर्तुल बनता
है, उसे
तोड़ देने की
व्यवस्था हो
जाती है। आधी
आख खुली, आधी
बंद, तो
शक्ति बहना भी
चाहती है, रुकना
भी चाहती है।
शक्ति के भीतर
दो खंड हो
जाते हैं। और
दोनों खंड, आधा खंड
बाहर निकलना
चाहता है आधा
खंड भीतर जाना
चाहता है। ये
एक—दूसरे के
विरोधी हो
जाते हैं और
एक —दूसरे को
निगेट कर देते
हैं। इसलिए
आधी खुली आख
बड़े मूल्य की
हो गई। तंत्र
में, योग
में, सभी
तरफ आधी खुली
आख का भारी
मूल्य हो गया।
अगर
सब भांति
शक्ति सुरक्षित
की गई हो और
व्यक्ति को
अपने भीतर के विपरीत
शरीर का बोध
हो,
पता हो, तो
दूसरे की
आवश्यकता
नहीं होती।
लेकिन कभी—कभी
प्रयोग करते
हुए आकस्मिक
घटनाएं घटती
हैं। ध्यान
कोई कर रहा है,
उसे पता ही
नहीं है, और
ध्यान करते —करते
वह घड़ी आ जाती
है कि जहां
घटना घट जाती
है। और तब
बाहरी सहयोग
उपयोग में लाए
जा सकते हैं।
अनिवार्य
नहीं हैं, सिर्फ
आकस्मिक
अवस्थाओं में
अनिवार्य हैं।
इसलिए
मेरी अपनी समझ
में अगर पति—पत्नी
एक—दूसरे का
सहयोग कर सकें, तो
वे
आध्यात्मिक
रूप में भी
साथी हो सकते
हैं। अगर वे
एक—दूसरे की
पूरी की पूरी
आध्यात्मिक
स्थिति, चुंबकीय
शक्ति और
विद्युत के
प्रवाहों को
पूरी तरह समझ
सकें और एक—दूसरे
को सहयोग दे
सकें, तो
पति—पत्नी
जितनी आसानी
से अंतर—
अनुभूति को
उपलब्ध हो
सकते हैं, उतनी
अकेले
संन्यासियों
या
सन्यासिनों
के लिए उपलब्ध
करना बहुत
कठिन है। और
पति—पत्नी के
लिए और भी
सुविधा है कि
न केवल वे एक—दूसरे
से परिचित हो
पाते हैं, बल्कि
एक—दूसरे की
चुंबकीय
शक्ति एक गहरे
एडजेस्टमेंट
को उपलब्ध हो
जाती है।
इसलिए
एक बहुत अजीब
अनुभव होता है
कि अगर एक स्त्री
और पुरुष में
बहुत प्रेम हो, बहुत
निकटता हो, बहुत
आत्मीयता हो,
कलह न हो, तो धीरे —
धीरे एक—दूसरे
के गुण—दोष एक—दूसरे
में प्रवेश कर
जाते हैं।
यहां तक कि
अगर स्त्री—पुरुष
एक—दूसरे को
बहुत प्रेम
करते हैं, तो
उनकी आवाज एक—सी
होने लगती है,
उनके चेहरे
के ढंग एक—से
होने लगते हैं,
उनके
व्यक्तित्व
में एक
तारतम्यता
आनी शुरू हो
जाती है। असल
में एक—दूसरे
की विद्युत एक—दूसरे
में प्रवेश कर
जाती है और
धीरे— धीरे वे
सम होते चले
जाते हैं।
लेकिन उनके
बीच अगर कलह
का वातावरण हो,
तो यह संभव
नहीं हो पाता।
तो
इस बात को भी
ध्यान में
रखना उपयोगी
है कि स्त्री—पुरुष
सहयोगी हो
सकते हैं। पति—पत्नी
उनका दा्ंपत्य
सिर्फ संभोग
का दांपत्य
नहीं, समाधि
का दांपत्य भी
बन सकता है।
और
इसी संबंध में
यह भी खयाल
रखना जरूरी है
कि साधारणत:
संन्यासी
इतना जो
आकर्षक हो
जाता है—साधारणत:
संन्यासी
जितना
स्त्रियों को
आकर्षित करता
है,
उतना
साधारण आदमी
आकर्षित नहीं
करता—उसका और
कोई कारण नहीं
है। संन्यासी
के पास
मैग्नेटिक
फोर्सेस की
बड़ी शक्ति
इकट्ठी हो
जाती है। एक
साधारण
स्त्री के
मुकाबले एक
संन्यासिनी स्त्री
जितना पुरुष
को आकर्षित
करती है, उसका
हिसाब लगाना
मुश्किल है।
उसके पास
शक्ति इकट्ठी
हो जाती है।
और
अगर पति—पत्नी
भी शक्ति को
इकट्ठी करने
और खोने की
व्यवस्था को
ठीक से समझ
लें तो वे एक—दूसरे
की शक्ति के
खोने में कम
और एक—दूसरे
की शक्ति को
बचाने में
बहुत सहयोगी
हो सकते हैं।
जैसा कि मैंने
पिछली बातों
में कहा है, तुम्हें
खयाल होगा कि
अगर संभोग भी
बहुत योग की
प्रक्रियाओं
और तंत्र की
व्यवस्था को
जानकर किया
जाए, तो
शक्ति—संरक्षक
हो सकता है।
पर
यह ध्यान रहे
कि यह आकस्मिक
घटना में
अनिवार्यता
है। यह
अनिवार्यता
ऐसी नहीं है
कि हर स्थिति
में जरूरी हो।
और बहुत दफे
आकस्मिक रूप
से भी घटना
घटती है। तब
भी सूक्ष्म
शरीर वापस लौट
आता है। लेकिन
वह तब भीतर की
स्त्री काम कर
रही होती है।
स्त्री जरूर
काम कर रही
होती है।
पुरुष जरूर
काम कर रहा
होता है।
क्या वापस
लौट आने की
स्पष्ट विधि
है? कृपया
इस पर कुछ
प्रकाश डालें।
इस
संबंध में भी
कुछ समझने
जैसी बात है।
क्योंकि हमें
साधारणत: कोई
अनुमान नहीं
है कि हमारा प्रत्येक
स्पर्श
चुंबकीय
स्पर्श है। जब
हम प्रेम से
भर कर किसी को
छूते हैं, तो
स्पर्श का भेद
जिसको स्पर्श
किया है उसे
पता चलता है।
जब हम घृणा से
भरकर किसी को
छूते हैं, तब
भी पता चलता
है। जब हम
उपेक्षा से
छूते हैं, तब
भी पता चलता
है। तीनों
स्थितियों
में हमारा चुंबकीय
तत्व अलग—अलग
धाराओं में
प्रवाहित
होता है। फिर
अगर पूरे मन
से और पूरे
संकल्प से हाथ
पर ही स्वयं
को पूरा
केंद्रित
किया गया हो, तो चुंबकीय
धाराएं बड़ी
तीव्र हो जाती
हैं, जिनको
मैसमर ने
मैग्नेटिक
पासेज कहा है।
अगर
एक व्यक्ति को
हम नग्न सुला
दें,
उसके शरीर
को न छुए, चार
इंच दूर अपने
दोनों हाथों
को उसके सिर
पर लें। चार
इंच फासला रहे
और चार इंच
फासले पर उस
नग्न शरीर पर
अगर हम दोनों
हाथों को जोर
से कंपित करते
हुए उसके
पैरों तक ले
जाएं और यह
पंद्रह मिनट
तक करें, तो
वह व्यक्ति
इतनी अपरिसीम
शाति में और
इतनी अपरिसीम
निद्रा में
चला जाएगा
जितनी निद्रा
में वह कभी भी
नहीं गया है।
छुए मत। सिर्फ
चार इंच की
दूरी पर, चार
अंगुल की दूरी
पर, हाथों
से सिर्फ
विद्युत—
धाराएं हवा
में पैदा करें।
दोनों हाथों
से सिर्फ
समझें कि
विद्युत की धाराएं
बह रही हैं और
दोनों हाथों
को फैलाते हुए
पैर तक ले
जाएँ ऊपर से
नीचे तक।
एक
बहुत अदभुत
घटना एल्डुअस
हक्सले की
पत्नी ने लिखी
है अपने जीवन—स्मरण
में। एल्डुअस
हक्सले की
पहली पत्नी
जिंदा थी और
इस स्त्री से
मुलाकात हुई।
यह स्त्री एक
साइकियाट्रिस्ट
थी और हक्सले
अपने इलाज के
लिए इससे
बातचीत करने
आया था। तो वह
उसके
मनोविश्लेषण
के लिए उसके
घर गई। हक्सले
को कोच पर
लिटा दिया और
उससे कोई दो
घंटे तक बातें
करती रही।
लेकिन इसे समझ
में आया कि
हक्सले खुद
इतना बुद्धिमान
है कि उससे
कुछ निकलवाना
बहुत मुश्किल
है। बहुत
बुद्धिमानों
के साथ कठिनाई
हो ही जाती है।
जो भी वह कह
रही थी, हक्सले
उससे ज्यादा
जानता था। जिन
किताबों की वह
बात कर रही थी,
हक्सले ने
उनसे भी
ज्यादा पढ़ा था।
जिन शब्दों और
टर्मिनोलाजी
का वह उपयोग
कर रही थी, हक्सले
उसको भी उनका
मतलब समझा रहा
था। बहुत
मुश्किल
मामला हो गया।
वह जो बीमार
था, वह
ज्यादा
होशियार था, ज्यादा पढ़ा—लिखा
था, ज्यादा
बुद्धिमान था।
हक्सले इस
जमाने के कुछ
ज्यादा से
ज्यादा समझदार
लोगों में से
एक था। वह
स्त्री
साधारण
डाक्टर थी, मनोचिकित्सक
थी, लेकिन
हक्सले की तो
बात ही
असाधारण थी।
वह कोई घंटे —डेढ़
घंटे में घबड़ा
गई। उसने देखा
कि बात कहीं
जाती नहीं। जब
भी वैशानिक
शब्दावली बीच
में आ जाए, तो
बात कहीं नहीं
जाती। और जिन
लोगों को
शब्दों के
अर्थों का ठीक—ठीक
पता है, अक्सर
वे अर्थों तक
कभी नहीं
पहुंच पाते, शब्दों तक
ही रुक जाते हैं।
वह
बहुत हैरान हो
गई। तब उसे
अचानक खयाल
आया कि इस तरह
नहीं हो सकेगा।
उसने सुन रखा
था कि एल्डुअस
हक्सले को कुछ
मैग्नेटिक
पासेज का पता
है। तो उसने
कहा कि मैंने
सुना है कि आप
मैग्नेटिक
पासेज के
संबंध में कुछ
जानते हैं।
हक्सले फौरन
उठकर बैठ गया।
अभी तक वह जबर्दस्ती
जवाब दे रहा
था,
अब उसने बड़ी
उत्सुकता
दिखाई। उसने
कहा, फिर
लेटो तुम कोच
पर। हक्सले ने
उस स्त्री से
कहा कि लेट
जाओ तुम कोच
पर। वह स्त्री
कोच पर लेट गई।
वह सिर्फ
इसलिए कि
हक्सले को कुछ
करने का मौका
मिले, तो
वह थोड़ा
रसपूर्ण हो
सके। डेढ घंटे
से पड़ा हुआ
हक्सले बेचैन
हुआ जा रहा था।
वह स्त्री कोच
पर लेट गई।
हक्सले ने
उसके शरीर पर
चार इंच की
दूरी पर पासेज
दिए।
सरल—सी
प्रक्रिया है।
चेहरे पर
दोनों हाथ चार
इंच की दूरी
पर रख कर जोर
से उंगलियों
को हिलाना
शुरू करें और
मन में कामना
करें कि शरीर
से विद्युत की
किरणें
पांचों —दसों
उंगलियों से
बहती हुई नीचे
गिर रही हैं और
नीचे तक ले
जाएं।
दस
मिनट में वह
स्त्री बहुत
गहरी शाति में
चली गई। वह तो
सिर्फ एक
तरकीब थी कि
हक्सले को
थोड़ा सक्रिय
और उत्सुक
किया जा सके।
फिर वह उठकर
बैठ गई और
उसने कहा कि
अब आप लेट जाइए।
फिर
वह घर चली आई।
लेकिन दो दिन
बीत गए, उसकी
तंद्रा टूटनी
मुश्किल हो गई।
वह चले, उठे,
बैठे, लेकिन
जैसे सोया—सोयापन
बना रहे पूरे
वक्त। वह बड़ी
हैरान हुई।
उसने हक्सले
की पत्नी को
फोन किया कि
मैं कुछ अजीब—सी
हालत में हूं
जबसे आपके घर
से आई हूं। तो
उसकी पत्नी ने
कहा कि हक्सले
ने तुझे उठाया
भी था? उसने
कहा, मुझे
उठाया नहीं, मैं तो उठकर
बैठ गई थी। तो
वह फोन पर
चिल्लाई
हक्सले को कि
तुम भूल गए हो
लारा को उठाने
के लिए। वह
अभी तक सोई
हुई हालत में
है। तो हक्सले
ने कहा, मैं
उठाता, इसके
पहले ही वह उठ
गई और दूसरी
बातों में लग गई,
फिर मैं भूल
गया।
वह
जो शक्ति उसको
दी गई थी
मैग्नेटिक
पासेज से, वह
वापस नहीं
निकाली गई, तो डेढ़ दिन
तक उसका पीछा
करती रही। अगर
शक्ति देनी हो
तो ऊपर से
नीचे की तरफ, अगर लेनी हो
तो नीचे से
ऊपर की तरफ।
अगर शक्ति
देनी हो तो
ऊपर से नीचे
की तरफ। अगर
लेनी हो तो
नीचे से ऊपर
की तरफ, वापिस
लौटानी हो तो।
फिर
शरीर के कुछ
बिंदु हैं जो
बहुत
सेंसिटिव हैं, जहां
से शक्ति
शीघ्रता से
प्रवेश करती
है। जैसे सबसे
ज्यादा
संवेदनशील जो
बिंदु है, वह
हमारी दोनों आंखों
के बीच में है।
जिसको
आज्ञाचक्र
कहते हैं या
जिसको तीसरी
आख कहते हैं।
वह सर्वाधिक
संवेदनशील
बिंदु है। आप
आख बंद करके
बैठ जाएं और
दूसरा आदमी
आपकी दोनों आंखों
के बीच में
चार इंच की
दूरी पर अपनी
अंगुली रखकर
बैठ जाए, आपको
अंगुली दिखाई
नहीं पड़ेगी, लेकिन भीतर
दिखाई पड़ने
लगेगी।
अंगुली आपको
छू नहीं रही
है, लेकिन
भीतर स्पर्श
शुरू हो जाएगा
और आपके भीतर
चक्र चलना
शुरू हो जाएगा।
सोए हुए आदमी
को भी अगर चार
इंच की दूरी
पर अंगुली
उसके माथे के
ठीक बीच में
रखकर कोई बैठ
जाए, तो
नींद में उसका
चक्र शुरू हो
जाएगा। यह
बहुत सक्रिय
बिंदु है।
दूसरा
सक्रिय बिंदु
हमारे ठीक
गरदन के पीछे
है। इसका कभी
छोटा—मोटा
प्रयोग करके
देखना तो बहुत
आंनदपूर्ण
होगा। कोई
रास्ते पर जा
रहा है
अपरिचित आदमी।
आप उसके पीछे
जा रहे हैं।
कोई चार फुट
की दूरी पर आप
उसकी गरदन पर
दोनों आंखों
को गड़ा कर
उसको सुझाव
दें कि पीछे
लौट कर देखो!
तो आप दो —तीन
मिनट के भीतर
पाएंगे कि वह
आदमी घबड़ा कर
पीछे लौट कर
देखेगा। या
उसको आप यह भी
सुझाव दे सकते
हैं कि बाएं
से लौटकर देखो
या दाएं से
लौटकर देखो।
तो जो आप
सुझाव देंगे, वह
वैसे ही लौटकर
देखेगा। आप यह
भी कर सकते
हैं कि अब तुम
सीधे मत जाओ, बगल के
रास्ते से
मुड़ो। दस—पांच
प्रयोग करने
के बाद जब आप
बहुत आश्वस्त
हो जाएं और
समझ लें कि यह
हो सकता है, तब किसी
आदमी को आप
उसके रास्ते
से भटका सकते हैं।
जहां वह नहीं
जा रहा था, वहां
ले जा सकते
हैं।
जिन
बच्चों को
चुराया जाता
है,
उनको
चुराने के लिए
हाथ—पैर नहीं
बांधे जाते।
उनके गले के
केंद्र पर ही
काम किया जाता
है। हाथ—पैर
बांधेंगे, तो
सड़क पर कोई भी
पकड़ लेगा।
बच्चे चिल्ला
सकते हैं।
सारी दुनिया
चारों तरफ
मौजूद है।
लेकिन अगर कोई
आदमी गरदन के
केंद्र पर ठीक
सुझाव देना
सीख गया हो, तो वह किसी
को भी अपने
साथ ले जा
सकता है जहां
जाना है। और
मजा यह है कि
वह आपके पीछे
होगा और आप
उसके आगे
होंगे। इसलिए
कोई यह भी
नहीं कह सकता
कि वह आपको
अपने पीछे ले
जा रहा है। आप
आगे ही होंगे,
लेकिन सब
सुझाव उसके
काम करेंगे।
वह जहां मोड़ना
चाहता है मोड़
सकता है, जहां
चलाना चाहता
है वहां चला
सकता है, जहां
ले जाना चाहता
है वहां ले जा
सकता है।
ये
दो बिंदु सिर
के पास बहुत
ही
महत्वपूर्ण
हैं। ऐसे और
बिंदु भी हैं
शरीर में, लेकिन
अच्छा होगा कि
उनकी बात न की
जाए। ये दो
बिंदु सरलतम
हैं, सीधे —साफ
हैं। जैसा
मैंने पिछली
चर्चा में कहा
है कि गुरजिएफ
के पास कोई भी
स्त्री जाए, तो उसे फौरन
लगता था कि
उसके सेक्स—सेंटर
पर कुछ काम
शुरू हो गया
है। दुनिया की
बहुत
बुद्धिमान
स्त्रियां भी
जार्ज
गुरजिएफ से
मिलने गईं, उनका भी
अनुभव यही था
कि उसके पास
गए कि उनके सेक्स—सेंटर
पर फौरन काम
शुरू हो जाएगा,
कोई सेंसेशन
तीव्रता से
वहां वर्तुल
बनाने लगेगा।
वह बहुत
संवेदनशील
बिंदु है।
नाभि भी एक
बिंदु है। ऐसे
और बिंदु भी
हैं।
अगर
किसी व्यक्ति
की चेतना बाहर
चली गई हो, तो
उसे कहां
स्पर्श करना
है? साधारणत:
उस व्यक्ति के
व्यक्तित्व
के संबंध में
हमें पता होना
चाहिए कि वह
किस बिंदु पर
जीता है। अगर
वह कामुक है, सेक्यूअल है,
तो उसके
सेक्स—सेंटर
पर स्पर्श
करने से वह
शीघ्रता से
वापस लौटेगा।
अगर वह
इंटेलेरूअल
है, बुद्धि
में जीता है, तो उसके
आज्ञाचक्र को
छूने से वह
वापस लौटेगा।
अगर भावुक है,
सेंटीमेंटल
है, इम्मोशनल
है, तो
उसके हृदय को
छूने से वह
वापस लौटेगा।
अब यह उस
व्यक्ति के
ऊपर निर्भर
करेगा कि वह जीता
किस बिंदु पर
है।
ध्यान
रहे,
जब कोई
व्यक्ति मरता
है, तो
उसके उसी
बिंदु से
प्राण निकलते
हैं, जहां
वह जीता है।
और उस व्यक्ति
का जो बिंदु
प्राण निकलने
का है, वही
बिंदु उसके
सूक्ष्म शरीर
के भीतर
प्रवेश करने
का होता है।
जैसे कामुक
व्यक्ति मरता
है, तो
उसके प्राण उसकी
जननेंद्रिय
से ही निकलते
हैं। इसका
पूरा शास्त्र
था, और है।
कि मरे हुए
आदमी को देखकर
कहा जा सकता
है कि वह किस
बिंदु पर जीवन
भर जीया, क्योंकि
उसका वह सेंटर
टूट जाएगा।
हम
जानते हैं कि
अभी भी हम
मरघट पर एक
प्रक्रिया
किए चले जा
रहे हैं, जो
बिलकुल
नासमझी की है,
लेकिन किसी
बड़ी समझदारी
के क्षण में
तय की गई थी।
मरघट पर ले
जाकर हम मरे
हुए आदमी का
कपाल फोड़ते
हैं, लकडी
से उसका सिर
फोड़ते हैं। वह
उस जगह फोड़ते
हैं जहां
सहस्रार है।
असल में जो
व्यक्ति
सहस्रार को
उपलब्ध हो जाता
है, उसका
कपाल फूट जाता
है मरते वक्त।
उसके प्राण
वहीं से
निकलते हैं।
इस आशा में कि
जो हमारा
प्रियजन मर
गया है, उसके
प्राण भी
सहस्रार से
निकलें, हम
उसका कपाल
फोड़ते जा रहे
हैं। वह पहले
ही निकल चुका
है, अब
कपाल फोड़ने से
कुछ अर्थ नहीं।
लेकिन जो परम
स्थिति को
उपलब्ध हुए
हैं, उनके
कपाल पर छिद्र
हो जाता है, मरते वक्त
वहीं से प्राण
निकलते हैं।
यह अनुभव में
आ गया। तो इस
आशा और इस
प्रेम में हम
अपने प्रियजन
का भी कपाल
फोड़ते जा रहे
हैं मरघट पर
जा कर कि उसका
भी प्राण वहीं
से निकल जाए।
अब वह मर चुका
है, प्राण
निकल चुका है।
जहां
से हमारा
प्राण निकलता
है,
वही सेंटर
हमारे जीवन का
सेंटर है।
इसलिए उसी
सेंटर को
स्पर्श करने
से तत्काल सूक्ष्म
शरीर वापस लौट
सकता है। यह
हर व्यक्ति का
अलग— अलग होगा।
लेकिन सौ में
से नब्बे
लोगों का
सेक्स—सेंटर
होगा, क्योंकि
सारी दुनिया
कामुकता से
ग्रसित है।
इसलिए अगर कुछ
भी समझ में न
पड़ता हो, तो
सेक्स—सेंटर
को ही प्रयोग
का केंद्र समझ
लेना चाहिए।
दूसरा अगर
सेक्स—सेंटर न
हो, तो
बहुत संभावना
आज्ञाचक्र के
होने की है।
क्योंकि जो
लोग बहुत
बुद्धिमान
हैं या बहुत बुद्धि
का प्रयोग
करते हैं, उनकी
सेक्स—ऊर्जा
धीरे — धीरे
उनकी
इंटेलीजेंस
में बदल जाती
है। अगर ये
दोनों न हों, तो हृदय का
केंद्र छूना
जरूरी है। जो
लोग न बहुत
कामुक हैं, न बहुत
बौद्धिक हैं,
वे लोग
भावुक होते
हैं। ये तीन
सामान्य
केंद्र हैं।
फिर असामान्य
केंद्र भी हैं।
लेकिन उस तरह
के असामान्य
लोग बहुत कम
होते हैं। इन
सामान्य
केंद्रों को
स्पर्श देने
से सक्रिय......।
ये
स्पर्श भी दो —तीन
और बातें
ध्यान में
रखकर देने की
बात है। अगर
स्पर्श देने
वाला व्यक्ति
स्वयं भी किसी
विशेष केंद्र
से बंधा हुआ
है,
तो बहुत
सोचने जैसा
मामला हो जाता
है। समझ लें
कि एक ऐसा
व्यक्ति
जिसका कि
आज्ञाचक्र
सक्रिय है, अगर किसी के
हृदयचक्र को
छुए, तो
बहुत कम
प्रभावित
कर पाएगा।
इसलिए सारी
बातें ध्यान
में....... इसलिए
पूरे विज्ञान
की बात है। और
इन सारे
प्रयोगों के
लिए,
सात शरीरों
के अनुभव के
लिए, शरीरों
की
बहिर्यात्रा
के लिए
व्यक्तिगत प्रयोग
सदा खतरनाक
हैं। ये स्कूल
में, आश्रम
में करने
योग्य हैं।
जहां कि और
लोग हैं जो इन
सारी
व्यवस्थाओं
को समझ सकते
हैं, सहयोगी
हो सकते हैं।
इसलिए
जिन
संन्यासियों
ने परिव्राजक
होना तय किया, उन
संन्यासियों
की परंपराओं
में सात चक्र,
सात शरीर सब
खो गए, क्योंकि
परिव्राजक
संन्यासी
इनका प्रयोग नहीं
कर सकता। जो
संन्यासी
घूमते ही रहते
हैं, रुकते
नहीं, ठहरते
नहीं, वे
इन सब संबंधों
में बहुत
प्रयोग नहीं
कर सकते।
इसलिए जहां
मोनास्ट्रीज
थीं, आश्रम
थे, वहां
इन पर बड़े प्रयोग
किए गए।
अब
जैसे उदाहरण
के लिए यूरोप
में एक
मोनास्ट्री
है,
जिसमें
किसी पुरुष ने
कभी भी प्रवेश
नहीं किया, आज भी नहीं
किया। उस
मोनास्ट्री
को बने कोई
चौदह सौ वर्ष
हो गए। उसमें
सिर्फ
स्त्रियां
हैं, नन्स
हैं, साध्वियां
हैं। और जो
स्त्री एक बार
प्रवेश होती है,
वह फिर
दोबारा बाहर
नहीं निकल
सकती। उसका
नाम नागरिकता
के रजिस्टर से
काट दिया जाता
है, क्योंकि
वह मरने के
बराबर हो गई।
उसका कोई मतलब
नहीं अब जगत
से। जगत के
लिए अब वह
नहीं है। ऐसी
एक
मोनास्ट्री
पुरुषों की भी
है। और जिस
इजोटेरिक
क्रिश्चियनिटी
ने यह मोनास्ट्री
बनाई थी, उसने
बहुत गजब का
काम किया है।
उस पुरुषों की
मोनास्ट्री
में किसी
स्त्री ने कभी
प्रवेश नहीं
किया है। और
जो पुरुष उसके
भीतर गया, फिर
वह कभी बाहर
नहीं निकला।
ये
दोनों
मोनास्ट्री
पास—पास हैं।
और अगर कभी
किसी साधक की
आत्मा बाहर
चली जाए, तो
उसे स्त्री के
स्पर्श की
जरूरत नहीं।
सिर्फ
स्त्रियों की
मोनास्ट्री
की दीवाल के पास
लिटा देना
काफी है। वह
पूरी की पूरी
चार्ल्ड है
मोनास्ट्री।
वहां पुरुष
कभी गया नहीं।
उसके भीतर
हजारों
स्त्रियां
हैं। पुरुषों
की
मोनास्ट्री
के भतिर
हजारों पुरुष
हैं। और
साधारण
संकल्प नहीं
है यह। यह
असाधारण
संकल्प है। यह
जीते जी मर
जाने का
संकल्प है।
लौटने का अब
उपाय नहीं है।
अब
ऐसी
मोनास्ट्रीज
में जो
गुप्ततम
विज्ञान थे, वे
विकसित हो सके।
क्योंकि यहां
प्रयोग की बड़ी
सुविधा थी।
तांत्रिकों
ने भी ऐसी
व्यवस्थाएं
की थीं, लेकिन
तांत्रिक
धीरे — धीरे
नष्ट हो गए।
नष्ट हो जाने
में हम
जिम्मेवार
हैं। क्योंकि
इस मुल्क में
जो नैतिकता की
नासमझी भरी
बहुत—सी बातें
हैं, उन्होंने
तांत्रिकों
को अनैतिक
सिद्ध कर दिया।
स्वभावत:, अगर
एक नग्न
स्त्री की
किसी
मोनास्ट्री
में पूजा होती
है, तो
बाहर का वह जो
नैतिक आदमी है,
वह इससे
विचलित हो
जाएगा। अगर
किसी
मोनास्ट्री
में यह पता चल
जाता है कि
वहां एक
कुंवारी
कन्या नग्न
बैठती है और
बाकी साधक
उसकी पूजा
करते हैं, तो
यह जरूर बहुत
खतरनाक बात है।
और बाहर का
आदमी जो बैठा
है, वह जो
सोच सकता है
नग्न स्त्री
के बाबत, वही
सोच सकता है। वह
जो सोच सकता
है कि जहां
नग्न स्त्री
बैठी हो और
पुरुष मौजूद
हों, वहा
हो क्या रहा
होगा। वह जो
करता है, वही
सोच सकता है।
स्वभावत:, हमने
इस मुल्क में
बहुत—सी
मोनास्ट्रीज
नष्ट कर दीं, बहुत —से
शास्त्र नष्ट
कर दिए। अकेले
राजा भोज ने
एक लाख
तांत्रिकों
की हत्या की।
सामूहिक रूप
से पूरे मुल्क
में हत्या की
गई। उनकी एक—एक
जगह नष्ट कर
दी गई।
क्योंकि वे
कुछ प्रयोग कर
रहे थे, जिससे
इस मुल्क का
सारा
पौरोहित्य, इस मुल्क का
सारा का सारा
पांडित्य, इस
मुल्क की सारी
तथाकथित
नैतिकता, वह
जो प्यूरिटन
माइंड है, वह
पूरे का पूरा
मर जाता। उनके
प्रयोग अगर
सही थे, तो
हमारी सारी
नैतिकता गलत
है।
क्योंकि
तांत्रिकों
का अनुभव यह
था कि अगर नग्न
स्त्री के
सामने कोई
पूजा के भाव
से विशेष
प्रक्रियाएं
कर ले, तो वह
स्त्री से सदा
के लिए मुक्त
हो जाता है।
अगर नग्न
पुरुष के
सामने स्त्री
विशेष प्रक्रियाओं
से कोई पूजा
कर ले, तो
वह सदा के लिए
पुरुष से
मुक्त हो जाए।
असल
में स्त्री और
पुरुष के भीतर
जो मैग्नेटिक
फोर्सेस' हैं,
उनको
बांधने की
व्यवस्थाएं
हैं। अगर एक
नग्न स्त्री
को सामने रखकर
कोई पुरुष उसको
पूजा के भाव
से देखने में
समर्थ हो जाए,
तो यह
साधारण घटना
नहीं है। उसको
भोगने के भाव
से समर्थ होना
हमें प्रकृति
ने बनाया है।
लेकिन उसे
पूजा के भाव
से देखने में
अगर कोई पुरुष
समर्थ हो जाए,
तो उसकी जो
विद्युत —
धारा अब तक
बाहर की
स्त्री की तरफ
बहती थी, वह
विद्युत —
धारा भीतर की
स्त्री की तरफ
बहने लगती है,
और कोई उपाय
नहीं रह जाता।
क्योंकि जो
स्त्री का
आकर्षण था, वह विलीन हो
गया। अब वह
मां हो गई, देवी
हो गई, कुछ
हो गई, जो
पूज्य हो गई।
उसकी तरफ जो
बहाव था ऊर्जा
का, वह लौट
गया। वह जाएगा
कहां!
ऊर्जा
नष्ट नहीं
होती, सिर्फ
उसका बहाव
बदलता है। कोई
शक्ति नष्ट
नहीं होती, सिर्फ उसका
मार्गातरीकरण
होता है। तो
अगर बाहर
स्त्री पूज्य
हो गई, तो
ऊर्जा भीतर की
तरफ बहनी शुरू
हो जाती है और भीतर
की स्त्री से
मिलन हो जाता
है। उस मिलन
के बाद बाहर
की स्त्री से
मिलन का कोई अर्थ
नहीं, कोई
प्रयोजन नहीं।
अब
यह नग्न
स्त्री को
पूजा के भाव
से देखने की विशेष
प्रक्रियाएं
थीं,
विशेष
मनोदशाए थीं,
विशेष
ध्यान के
प्रयोग थे, विशेष मंत्र
थे, विशेष
शब्द थे, विशेष
तंत्र थे। और
उन सबके बीच
प्रयोग करने
पर यह घटित हो
जाता था। यह
ठीक वैसी ही
वैज्ञानिक
व्यवस्था थी,
जैसा आज
विज्ञान
लेबोरेटरी
में कर रहा है।
हम
सबने सुना है
कि हाइड्रोजन
और आक्सीजन
अगर मिल जाएं, तो
पानी बन जाता
है। लेकिन आप
अपने घर में
हाइड्रोजन और
आक्सीजन दोनों
को भर दें
अपने कमरे में,
तो भी पानी
नहीं बनेगा।
हाइड्रोजन और
आक्सीजन
दोनों मौजूद
हों कमरे में
तो भी पानी
नहीं बन
जायेगा।
हाइड्रोजन और
आक्सीजन के
पानी बनने के
लिए बहुत बड़े
वोल्टेज में
विद्युत की
वहां प्रवाहना
होनी चाहिए।
वर्षा में जो
आपको पानी
दिखाई पड़ता है
वह आकाश में
चमकी हुई बिजली
की वजह से
बनता है।
हाइड्रोजन और
आक्सीजन
दोनों मौजूद
होते हैं लेकिन
उतने जोर से
विद्युत जब
चमकती है, तो
उतनी गर्मी की
विद्युत की
व्यवस्था में
ही हाइड्रोजन
और आक्सीजन एक
दूसरे से मिल
पाते हैं और
पानी बन जाते
हैं।
अगर
आपकी किताब
में सिर्फ
इतना लिखा रह
जाए—कभी ऐसा
दुर्भाग्य का
दिन आ जाए और आ
सकता है, और
वैज्ञानिकों
की ही कृपा से
आ सकता है—कि
हमारे पास
सिर्फ इतना
लिखा रह जाए
कि हाइड्रोजन
और आक्सीजन के
मिलने से पानी
बनता है, तो
हम पानी न बना
सकेंगे। अब
हमारे पास
तंत्र की
किताब में
सिर्फ इतना ही
लिखा रह गया
है कि नग्न
स्त्रियों को
पूजा के भाव
से पूजने से
व्यक्ति की
ऊर्जा भीतर बह
जाती है।
लेकिन हमें और
कुछ पता नहीं
कि और भी कोई
विद्युत की
तड़क, और भी
कोई इंतजाम है
जो बीच में
घटना चाहिए।
इसे थोड़ा ऐसे
देखें।
तिब्बत
के मंत्र को
आपने सुना
होगा, ओंम मणि
पद्ये हुम्।
अगर इस पूरे
मंत्र को आप
दोहराएं. ओंम,
तो आप
पाएंगे कि
इसमें शरीर के
कोई और हिस्से
भाग ले रहे
हैं। मणि, तो
शरीर के और
नीचे के
हिस्से भाग ले
रहे हैं। ओंम
जैसे गले के
ऊपर ही घूम कर
रह जाता है।
मणि हृदय तक
चला जाता है।
पद्ये नाभि तक
चला जाता है।
हुम् सेक्स—सेंटर
तक चला जाता
है। अगर इस
शब्द का ही
उपयोग करें, तो फौरन पता
चलेगा कि शरीर
के अलग— अलग
हिस्से तक
इसका प्रवेश
है। अब ओं मणि
पचे हुम्, अगर
इस हुम् का
बहुत प्रयोग
किया जाए, तो
सेक्स का
सेंटर जो है, वह बाहर की
तरफ प्रवाहित
होना बंद हो
जाता है। इतनी
बड़ी चोट लगती
है हुम् की।
अगर इस हुम्
का बार—बार
उपयोग किया
जाए, तो
आदमी की
सेक्यूअलिटी
नष्ट हो जाती
है, उसकी
कामुकता विदा
हो जाती है।
ऐसी
बहुत—सी
प्रक्रियाएं
थीं जो उस
नग्न स्त्री
के सामने करनी
पड़ती थीं। और
पुरुष भी अगर
नग्न खड़ा हो
और बाकी साधक
भी यह सब देख
रहे हों, तो
बहुत आसानी से
पहचाना जा
सकता है कि
परिणाम हो रहा
है कि नहीं हो
रहा है।
स्त्री की
कामयंत्र की
व्यवस्था तो
शरीर के भीतर
छिपी है, इसलिए
नग्न स्त्री
को ऊपर से
देखकर पक्का
पता नहीं चलता
कि वह कामुक
है या नहीं।
लेकिन नग्न
पुरुष को
देखकर फौरन
पता चल जाता है।
महावीर ने जिन
साधुओं को
नग्न होने की
आज्ञा दी थी, वे सिर्फ वे
ही साधु थे जो
हुम् का गहरा
प्रयोग कर
चुके थे। अब
उनको नग्न
रहने के लिए
आशा दी जा
सकती थी। सोते
समय में भी
उनकी
जननेंद्रिय
प्रभावित नहीं
हो सकती थी।
यह
जानकर आपको
हैरानी होगी
कि ऐसा पुरुष
खोजना साधारणत:
मुश्किल है
जिसको रात
सोते में दो—चार
बार इरेक्शन न
होता हो। पता
उसे चलता हो
कि न चलता हो।
अभी तो अमरीका
में जहां नींद
में बहुत
प्रयोग हो रहे
हैं,
वहां एक
बहुत हैरानी
की बात अनुभव
में आई है। कि
हर पुरुष की
जननेंद्रिय
रात के सोने
में दो —चार
बार प्रभावित
होती ही है।
जब भी
स्वप्नों का
धरातल कहीं
काम के केंद्र
के आसपास आता
है, तो
प्रभावित हो
जाती है।
स्वप्न
जब प्रभावित
कर सकते हैं, तो
शब्द भी
प्रभावित कर
सकते हैं। और
जब स्वप्न
प्रभावित कर
सकते हैं, तो
चित्र भी
प्रभावित कर
सकते हैं।
स्वप्न है
क्या?
तो
सारा इंतजाम
है। उस पूरे
इंतजाम में
रूपांतरण की
व्यवस्था है।
ऊर्जा
अंतर्मुखी हो
सकती है। यह
ऊर्जा
अंतर्मुखी हो
अगर.।
पूछा
जा सकता है कि
लेकिन इस तरह
की कोई तांत्रिक
व्यवस्था
नहीं थी
जिसमें पुरुष
नग्न खड़ा हो
और स्त्रियां
पूजा कर रही
हों?
यह
भी थोड़ा समझ
लेने जैसा है।
ऐसो कोई
तांत्रिक
व्यवस्था
नहीं रही, जहां
पुरुष को नग्न
खड़ा किया गया
हो और स्त्री
पूजा कर रही
हो। इसके भी
कारण हैं। यह
अनावश्यक है।
इसके दो —तीन
कारण हैं।
पहला कारण तो
यह है कि
पुरुष के मन
में जब भी
किसी स्त्री
के प्रति आकर्षण
होता है, तो
वह उसे नग्न
करना —चाहता—
है। स्त्री
ऐसा नहीं करना
चाहती। पुरुष
वोयूर है, वह
स्त्री को
नग्न देखना
चाहता है।
स्त्री नहीं
देखना चाहती।
इसलिए
संभोग के क्षण
'में सौ में
से निन्यानबे
स्त्रियां आख
बंद कर लेंगी।
पुरुष आख खुली
रखेगा। अगर एक
स्त्री को आप
चुंबन भी ले
रहे हों, तो
वह आख बंद कर
लेगी। उसके आख
बंद करने का
कारण है। वह
इस क्षण को
बाहर नहीं
जीना चाहती।
इस क्षण का
बाहर से उसे
कोई प्रयोजन
नहीं है। इस
क्षण को वह
अपने भीतर रख
लेना चाहती है।
यही
वजह है कि
पुरुषों ने तो
नग्न
स्त्रियों की
इतनी
मूर्तियां, इतनी
फिल्में, इतनी
कहानियां, इतने
चित्र बनाए।
लेकिन
स्त्रियों ने
नग्न पुरुषों
में कोई उत्सुकता
नहीं ली अब तक।
न वह नग्न
पुरुषों के
चित्र रखती
हैं पास में, न उनकी
तस्वीरें
बनाती हैं, न घर में
उनके कैलेंडर
लटकाती हैं, बिलकुल
उत्सुकता
नहीं है। नग्न
पुरुष में आज
तक स्त्रियों
ने कभी कोई उत्सुकता
नहीं दिखाई।
नग्न स्त्री
में पुरुष की
उत्सुकता बड़ी
गहरी है।
इसलिए नग्न
स्त्री तो
पुरुष के भीतर
रूपांतरण का
कारण बन सकती
है। नग्न
पुरुष स्त्री
को सिर्फ आख
बंद करने का
कारण बनेगा और
कुछ इससे
ज्यादा नहीं।
इसलिए वह
बेमानी है।
लेकिन स्त्री
का रूपांतरण
दूसरी तरह से
होता है।
यह
खयाल में ले
लेना जरूरी है
कि स्त्री जो
है चूंकि वह
पैसिव सेक्स
है,
निष्किय
सेक्स है, आक्रामक
नहीं है, ग्राहक
है। कोई
स्त्री आक्रमण
नहीं कर सकती।
दूसरे आक्रमण
नहीं, एक
स्त्री इतना
भी कभी अपनी
तरफ से कहने
नहीं जाती
किसी को कि
मैं तुम्हें
प्रेम करती हूं, यह भी
आक्रमण है।
अगर कोई
स्त्री किसी
को प्रेम भी
करती है, तो
ऐसा इंतजाम
करती है कि वह
पुरुष ही उससे
कहे कि मैं
तुम्हें
प्रेम करता
हूं। स्त्री
नहीं जाती
अपनी तरफ से
कहने। इतना
ऐग्रेसन भी
नहीं कर सकती।
यह भी हमला है।
और जब कोई
पुरुष किसी
स्त्री को भी
कहेगा कि मैं
तुझे प्रेम
करता हूं और
अगर उसे हौ भी
भरनी है, तो
भी वह ना ही
भरेंगी। यानी
इतनी दूर भी
वह आक्रमण में
सहयोगी न होगी।
वह ना ही
कहेगी, वह
इनकार ही
करेगी। उसके
इनकार से पता
चलेगा कि वह
स्वीकार कर रही
है, वह
दूसरी बात है।
उसका इनकार
स्वीकारात्मक
होगा। उसकी
नहीं में उसके
पीछे खड़ी हुई
ही और उसकी खुशी
प्रकट होगी, लेकिन वह ही
भी कहने की
व्यवस्था
नहीं कर सकती।
एक
स्त्री को
कामुकता के
जगत में ले
जाने के लिए
पुरुष को
दीक्षा देनी
पड़ती है, स्त्री
को इनीसियेट
करना पड़ता है।
और अगर एक
पुरुष नग्न
स्त्री को
देखकर कामुक न
हो, और एक
पुरुष एक नग्न
स्त्री को देखकर
अपने भीतर की ऊर्जा
में विलीन हो
जाए, यह
घटना उस
स्त्री के लिए
बड़ी कीमती
सिद्ध होती है।
यह घटना उस स्त्री
के लिए बड़ी
कीमती सिद्ध
होती है। इस
पुरुष की भीतर
जाती ऊर्जा
उसकी ऊर्जा को
भीतर जाने में
सहयोगी हो
जाती है। यानी
इनीसिएशन बन
जाती है। जैसे
पुरुष स्त्री
को राजी करता
है कामुकता के
रास्ते पर, ऐसे ही
पुरुष अगर
स्त्री के
समक्ष अकाम की
'तरफ
गतिमान हो जाए
तो भी वह
दीक्षा देता
है अकाम की
तरफ। इसलिए
दूसरी
व्यवस्था कभी
नहीं खोजी गई।
उसकी कोई
जरूरत न थी।
कुछ
स्त्रियां
पुरुष— स्वभाव
वाली होती हैं
उनकी क्या
स्थिति होगी?
यह
बात संभव है
और उसके कारण
हैं। थोड़ी —सी
बात उस संबंध
में करनी
उपयोगी होगी।
असल में जब हम
कहते हैं कि
कोई पुरुष है
और कोई स्त्री
है,
तो यह हम
बहुत ठीक नहीं
कहते। असल में
कोई भी सिर्फ
पुरुष नहीं है
और कोई भी
सिर्फ स्त्री
नहीं। पुरुष
स्त्री होना
मात्रा की बात
डिग्रीज की बात
है।
एक
बच्चा जब मां
के पेट में
होता है, तो
थोड़े समय तक
तो वह दोनों
होता है, न
वह स्त्री
है, न
वह पुरुष होता
है। फिर धीरे —
धीरे वह
स्त्री या
पुरुष होने की
यात्रा पर गतिमान
होता है। यह
गतिमान होना
भी सिर्फ
मात्रा का ही
फर्क है। जब
हम कहते हैं
किसी को पुरुष
तो उसका मतलब
होता है कि वह
साठ प्रतिशत
पुरुष है और
चालीस प्रतिशत
स्त्री है, सत्तर
प्रतिशत
पुरुष है, तीस
प्रतिशत
स्त्री, नब्बे
प्रतिशत
पुरुष है, दस
प्रतिशत
स्त्री। जब हम
कहते हैं किसी
को स्त्री, तो उसका
मतलब यह है कि
उसका स्त्री
होना पुरुष के
होने से प्रबल
है।
कभी—कभी
ऐसा होता है
कि इक्यावन
प्रतिशत कोई
आदमी पुरुष है, और
उनचास
प्रतिशत
स्त्री। बड़ा
कम फासला है।
ऐसा पुरुष
स्त्रैण
मालूम पड़ेगा।
अगर किसी
स्त्री में
सिर्फ
इक्यावन
प्रतिशत स्त्री
है और उनचास
प्रतिशत
पुरुष है तो
ऐसी स्त्री
बहुत पौरुषिक
मालूम पड़ेगी।
अगर ऐसी
स्त्री को कोई
स्त्रैण
पुरुष मिल जाए,
तो वह
डोमिनेट रोल
अख्तियार कर
लेगी।
असल
में,
उस हालत में
सिर्फ हमें
भाषा की भूल
हो रही है। उस
हालत में
पुरुष को
पत्नी कहना
चाहिए और स्त्री
को पति कहना
चाहिए। अगर हम
ठीक से उपयोग
करें, क्योंकि
जो डोमिनेंट
है, वह
मालिक है। उस
हालत में हमें
पति—पत्नी का
स्त्री और
पुरुषवाची
पर्याय छोड़ देना
चाहिए। असल
में पति होना
एक फंक्शन है,
पति होना एक
पद है। इसमें
स्त्री भी हो
सकती है, इसमें
पुरुष भी हो
सकता है।
पत्नी होना भी
एक फंक्शन है।
इसमें पुरुष
भी हो सकता है,
स्त्री भी
हो सकती है।
बहुत से पुरुष
पत्नी की
हैसियत से
जीते हैं।
बहुत—सी
स्त्रियां पति
की हैसियत से
जीती हैं।
यह
जो जीने का
कारण है, यह
परसेंटेज है
उनके
व्यक्तित्व
की। और इसलिए
कभी ऐसा हो
जाता है कि
कोई पुरुष अचानक
किसी बीमारी
में, किसी
कारण से, स्त्री
हो जाता है; कोई स्त्री
पुरुष हो जाती
है।
पिछली
दफा लंदन में
एक बड़ा मुकदमा
चलता रहा। और मुकदमा
यह था कि एक
लड़की ने विवाह
किया और विवाह
करने के बाद
वह पुरुष हो
गई। मुकदमा यह
चला कि उसने
धोखा दिया है, वह
पुरुष थी और
जिस पुरुष के
साथ उसने
विवाह किया है,
उसके साथ
धोखा हुआ है।
और उस लड़की के
लिए बहुत
मुश्किल पड़
गया यह सिद्ध
करना कि वह
लड़की थी और अब
पुरुष हो गई
है। लेकिन
मेडिकल साइंस
ने उसको
सहायता दी और
प्रमाणित हो
गया कि वह
लड़की थी, लेकिन
आन दी वर्ज—मार्जिनल
लड़की थी वह—बिलकुल
बाउंड्री पर
खडी थी, जहां
से एक कदम
बढ़ाया, तो
वह लड़का हो
जाती। वह एक
कदम बढ़ गया।
अब
भविष्य में
बहुत दिक्कत
नहीं रह जाएगी
कि कोई पुरुष
अगर जिंदगी
में स्त्री
होना चाहे और कोई
स्त्री पुरुष
होना चाहे तो
इसका वैज्ञानिक
इंतजाम हो
सकेगा। यह
सुखद भी है, क्योंकि
एक ही रोल
करते —करते
आदमी ऊब भी
जाता है।
इसमें बदलाहट
हो जानी चाहिए।
इसलिए
जिन
स्त्रियों
में पुरुष—तत्व
ज्यादा है, वे
स्त्रियां
डोमिनेंट हो
जाएंगी। और
ऐसी
स्त्रियां
सदा दुखी
रहेंगी। उसका
कारण है कि
उनका डोमिनेट
होना उनके
स्त्रैण होने
के विपरीत है,
इसलिए उनके
दुख का अंत
नहीं रहेगा।
असल में
स्त्री उसी
पुरुष को पसंद
करती है जो उसको
दबा ले। कोई
स्त्री उस
पुरुष को पसंद
नहीं करती जो
उससे दब जाए।
अब जिस स्त्री
में पुरुष का
तत्व ज्यादा
है, वह
दबाकी भी और
दुखी भी होगी,
क्योंकि
उसको दबाने
वाला पुरुष
नहीं मिला।
उसके दुख का
अंत नहीं
रहेगा। और
पुरुष का सुख
इसमें होता है
कि स्त्री उसके
प्रति
समर्पित हो।
और अगर पुरुष
खुद स्त्री के
प्रति
समर्पित हो
जाए, तो वह
परेशानी में
पड़ जाएगा, उसकी
तृप्ति न हो
पाएगी।
असल
में स्त्री—पुरुष
होना
मार्जिनल
नहीं होना
चाहिए। लेकिन
हमने जो
व्यवस्था
विकसित की है, वह
धीरे — धीरे
मार्जिनल
होती जा रही
है। बहुत—से
लोग मार्जिन
पर खड़े हो गए
हैं। सभ्यता
ने ऐसा किया
है। असल में
सभ्यता ने
स्त्री और
पुरुष के रोल
को करीब —करीब
एक जैसा कर
दिया है। इससे
नुकसान हुआ है।
इससे स्त्री की
स्त्रैणता कम
हुई है, पुरुष
का पुरुष होना
कम हुआ है। जब
कि उन दोनों
का एक्सट्रीम
पोल्स पर होना
जरूरी है।
पुरुष को
चाहिए कि वह
निन्यानबे
प्रतिशत पुरुष
और एक प्रतिशत
स्त्री हो। एक
प्रतिशत तो
रहेगा वह, बच
नहीं सकता।
स्त्री को
चाहिए कि वह
निन्यानबे
प्रतिशत स्त्री
हो और एक
प्रतिशत
पुरुष हो।
इसके लिए
जरूरी है कि
उनके शरीर के
लिए अलग व्यायाम
हों, इसके
लिए यह जरूरी
है कि उनके
भोजन में थोडा
फर्क हो, इसके
लिए जरूरी है
कि उनकी
शिक्षा भिन्न
हो, इसके
लिए जरूरी है
कि उनके जीवन
का सारा अनुशासन
भिन्न हो। तब
हम उन दोनों
को पोलेरिटीज
की तरह खड़ा कर
पाएंगे।
और
जिस दिन आदमी
की समझ बढे—गी, उस
दिन हम नहीं
चाहेंगे कि
स्त्री पुरुष
जैसी हो और
पुरुष स्त्री
जैसा हो। उस
दिन हम
चाहेंगे, स्त्री
स्त्री जैसी
हो और पुरुष
पुरुष जैसा हो
और इन दोनों
के बीच बड़ा
फासला हो।
क्योंकि
जितना फासला,
उतना
आकर्षण है।
जितना फासला,
उतना रस है।
जितना फासला,
उतना मिलन
का सुख है।
जितना फासला
कम, उतना
रस कम। जितना
फासला कम, उतना
मिलने में कोई
सुख नहीं।
पर
यह हुआ है।
पुरुष सभ्य
होते —होते
कमनीय हो गया।
क्योंकि न वह
युद्ध में
लड़ने जाता है, न
वह खेत में
मेहनत करता है,
न वह जंगली
जानवर से
जूझता है, न
वह पत्थर
तोड़ता है। तो
उसका स्त्रैण
व्यक्तित्व
होना शुरू हो
गया है। वह
कमनीय हो गया।
उसने मसल्स खो
दिए, उसके
पुरुष होने का
एक बहुत
बुनियादी
हिस्सा खो गया।
स्त्री
पुरुष के करीब
आती जाती है।
पुरुष जैसी
शिक्षा मिलती
है उसे, पुरुष
जैसे समाज ने
जो ढाचा बनाया
है उसमें अगर
उसे सफल होना
है, तो उसे
पुरुष के साथ
होड़ करनी पड़ती
है। उसे पुरुष
जैसे काम करने
पड़ते हैं। अगर
उसे फैक्ट्री
में काम करना
है, तो उसे
पुरुष जैसा
जीना पड़ता है।
दफ्तर में काम
करना है तो
पुरुष जैसा
जीना पड़ता है।
वह नाम मात्र
को स्त्री
होती है। उसका
वह जो
बायोलाजिकल
स्त्री होना
है, बेमानी
हो जाता है।
और सब अर्थों
में वह पुरुष
होती है। सारा
पुरुष का काम
वह करती है।
और पुरुष के
साथ कापीट
करती है। इधर
पुरुष कमनीय
होता जाता है,
उधर स्त्री
पुरुष जैसी
होती चली जाती
है।
इसके
घातक परिणाम
हुए हैं। इसका
सबसे बड़ा घातक
परिणाम यह हुआ
कि कोई स्त्री
किसी पुरुष से
तृप्त नहीं हो
पाती और कोई पुरुष
किसी स्त्री
से तृप्त नहीं
हो पाता। और
इसलिए
अतृप्ति की आग
चौबीस घंटे
पकड़े रहती है।
वह पकड़े ही
रहेगी। जब तक
हम स्त्री और
पुरुष के
व्यक्तित्व
को ठीक—ठीक एक
दूसरे के
विपरीत और
विभिन्नता
में अंतिम
छोरों पर न
खड़ा कर सकें, तब
तक वह पकड़े ही
रहेगी। इस
कारण से ऐसा
हो जाता है, होना नहीं
चाहिए। रुग्ण
है वह बात।
यह
जो पुरुष का
स्त्री में या
स्त्री का
पुरुष में
चेजं है इसके
लिए किसी को
हम परवर्ट
नहीं कह सकते
इक हट इज
नैचरल अब सोशल
कंडीशंस बदल
कर जो स्त्री
पुरुष हो रही
है या पुरुष
स्त्रैण हो
रहा है उसके
लिए मैं कुछ
नहीं कह रही
लेकिन मेडिकली
उसके अंदर जो
संरचना काम
करती है उसमें
जो एक प्रतिशत
के अंतर से
बदलाहट आती है
उसके लिए हम
परवर्टेड
शब्द का
इस्तेमाल नहीं
कर सकते........।
नहीं, नहीं,
नहीं करना
चाहिए।
बिलकुल ही
नहीं करना
चाहिए।
लेकिन
बहुत से लोग
यही कहते हैं
कि यह परवर्ट है
नहीं, नहीं,
परवर्ट
कहने का सवाल
ही नहीं है।
नहीं, यह
परवर्ट नहीं,
ऐक्सीडेंट
है। परवर्ट
नहीं
ऐक्सीडेंट है।
यह
अभी आप कह रहे
हैं लेकिन
आमतौर से लोग..
नहीं, परवर्सन
की कोई बात
नहीं है। यह
सिर्फ
दुर्घटना है
और इस
दुर्घटना से
बचने के उपाय
किये जाने
चाहिए। और
जिसके साथ यह
दुर्घटना घट
रही है, वह
दया का पात्र
है। परवर्ट
जैसी गाली का
पात्र नहीं है।
न, वह गलती
है और उसको
सुधारने की सब
कोशिश हमारी
नासमझी की
कोशिश है, जब
तक कि हम उसके
पूरे
व्यक्तित्व
को गुणात्मक
रूप से
स्त्रैण
बनाने की
फिक्र नहीं
करते। जो कि
की जा सकती है,
जिसमें कोई
कठिनाई नहीं है।
थोड़े —से
हारमोन्स के इंजेक्शन
देने से वह
स्त्रैण हो
सकता है, पुरुष
हो सकता है।
लेकिन हम उस
तरफ सोच नहीं
रहे हैं।
अगर
एक पत्नी एक
पति को डांटती
—डपटती है, दबाती
है, सताती
है, मालकियत
करती है, तो
वह यह कभी
नहीं सोचता है
कि इसे डाक्टर
को दिखाने की
बात है। वह
सोचता है कि
जाकर किसी
साधु महाराज
से समझवाने की
बात है। इसका
कोई संबंध
नहीं है। साधु
महाराज का
इसमें कोई
कसूर नहीं है,
न कोई हाथ
है। इसको किसी
से समझवाने का
सवाल नहीं है।
इसको
हारमोन्स की
जरूरत है, जो
इसको और
स्त्रैण बनाए।
और वे
हारमोन्स
डाले जा सकते
हैं। इसमें
कोई कठिनाई
नहीं है। अगर
कोई पुरुष
स्त्रैण जैसा
व्यवहार कर
रहा है, और
पत्नी उससे रस
नहीं ले पाती
तो उसमें
नाराज और दुखी
होने की जरूरत
नहीं है। उसे
वैसे ही
चिकित्सा की
जरूरत है, जैसे
और सब चीजों
के लिए
चिकित्सा की
जरूरत है।
भगवान
श्री एक बार
तेजस शरीर
बाहर हुआ तो
वह कभी भी ठीक
से पूरी तरह
भीतर प्रविष्ट
नहीं हो पाता
और उनके बीच
तालमेल और सामंजस्य
बिगड़ जाता है
इसलिए योगी
लोग हमेशा रुग्ण
रहे हैं कम
उम्र में मरते
रहे हैं असामंजस्य
न हो इसके लिए
क्या— क्या
तैयारियां
आवश्यक हैं? क्या
रूग्णता की
संभावनाएं नहीं
घटायी जा सकती
हैं? यह
कैसे संभव है?
इस
संबंध में भी
पहली बात तो
यह है कि शरीर
की जो प्राकृतिक
व्यवस्था है, जैसे
ही हमारा
सूक्ष्म शरीर
शरीर के बाहर
जाता है, उसकी
प्राकृतिक
व्यवस्था में
व्यवधान पड़ेगा
ही। घटना वह
प्राकृतिक
नहीं है, घटना
वह प्रकृति के
पार की है।
कहना चाहिए
अप्राकृतिक
है, बियांड
नेचर है अतीत
है प्रकृति के।
तो जब भी कोई
प्रकृति से
विभिन्न, प्रकृति
के ऊपर कोई
घटना घटेगी, तो प्रकृति
का जो
व्यवस्थित
तालमेल था, वह
अस्तव्यस्त
हो जाएगा।
इस
अस्तव्यस्तता
से अगर बचना
हो,
तो बहुत
तैयारियों की
जरूरत है। योगासन
उस तैयारी में
बड़े सहयोगी
हैं।
मुद्राएं उस
दिशा में बड़ी
सहयोगी हैं।
असल में हठयोग
की सारी
प्रक्रियाएं
उस दिशा में
सहयोगी हैं।
तो शरीर को
फिर उतनी बड़ी
अप्राकृतिक
घटना को झेलने
के योग्य लोह—तत्व
देना जरूरी है।
साधारण शरीर
नहीं चाहिए, फिर असाधारण
शरीर चाहिए।
अब
जैसे
राममूर्ति के
पास एक शरीर
था। इस शरीर
में और हमारे
शरीर में कोई
बुनियादी भेद
नहीं है।
लेकिन
राममूर्ति को
एक शरीर की
ट्रिक का बोध हो
गया। वह साध
ली गई। वह हम
रोज होते
देखते हैं, लेकिन
हमारे खयाल
में नहीं आता।
आप रोज देखते
हैं कि एक
मोटर का टायर
हवा को भरे
हुए इतना वजन
ढो लेता है।
उस टायर में
से हवा कम कर
दें, तो वह
वजन नहीं ढो
पाएगा। एक
विशेष अनुपात
चाहिए उस वजन
को ढोने के
लिए हवा का।
तो
प्राणायाम की
एक विशेष
प्रक्रिया
में सीने में
इतनी हवा भरी
जा सकती है कि
ऊपर हाथी खड़ा हो
जाए। तब सीना
जो है टायर की
तरह काम कर
रहा है, टभूब
की तरह काम कर
रहा है। हवा
का एक विशेष
अनुपात...। एक
हाथी के वजन
को झेलने के
लिए हवा का
कितना आयतन
फेफड़े के भीतर
चाहिए अगर
इसका ठीक पता
हो, तो कोई
कठिनाई नहीं
है।
राममूर्ति के
पास भी फेफड़ा
वही है जो
हमारे पास है।
वह जो टायर के
भीतर रबर का
टभूब पड़ा हुआ
है, वह कोई
बहुत मजबूत
लोहे की चीज
नहीं है।
उसमें कोई
ताकत नहीं है।
उसका तो सिर्फ
इतना ही उपयोग
है कि इतनी
हवा को वह
आयतन में समा
लेता है, बस।
इतनी हवा वहां
रह जाए तो काम
पूरा हो जाए।
अब
अभी एक नई कार
का खयाल है जो
जमीन से चार
फुट ऊपर चल
सके। उसमें
किसी टायर—टचूब
की जरूरत नहीं
होगी। असल में
उस कार के लिए
जो इंतजाम है
वह सिर्फ इतना
ही है.. ट्रिक
वही है। उसमें
इंतजाम इतना
है कि वह इतनी
तेज गति से चलेगी
कि नीचे हवा
की जो परत
गुजरेगी, वह
परत इतना आयतन
ले लेगी कि उसके
ऊपर वह संभल
जाएगी। अगर
बहुत स्पीड से
वह गाड़ी गुजरी,
तो नीचे की
हवा और ऊपर की
हवा कट जाएगी
और नीचे हवा
की एक परत चार
फुट की बन
जाएगी, उसकी
तेजी की वजह
से।
जैसे
जब तुम नाव
चलाते हो तेजी
से पानी में, तो
नाव के पीछे
एक गड्डा बन
जाता है। वह
गड्डा ही असल
में चलने में
सहयोगी होता
है। अगर पानी
तरकीब सीख ले
और गड्डा न
बनाए, तो
नाव नहीं चल
सकती। उस
गड्डे की वजह
से आसपास का
पानी उस गड्डे
को भरने को
भागता है।
पानी के भागने
की वजह से नाव
को धक्का लगता
है, नाव
आगे चली जाती
है। बस, पूरे
वक्त यही
ट्रिक है। वह
पीछे नाव की
जगह खाली होती
है पानी की।
पानी भरने को
भागता है। जब
पानी भागता है,
तो नाव को
गति आगे मिल
जाती है।
अगर
एक विशेष गति
पर कार को
दौड़ाया जा सका, तो
चार फुट नीचे
हवा की परत को
सड़क बनाया जा
सकेगा। बनाने
की जरूरत नहीं,
बस बन जाएगी
तत्काल, इतनी
तीव्रता से, और वह कार
उसके ऊपर से
निकल जाएगी।
तब व्हील्स की
कोई जरूरत न
रह जाएगी। तब
कार सरकेगी।
उस पर कोई
धचके और चोट
और वर्षा का
कोई असर नहीं
पड़ने वाला है।
हवा भर होनी
चाहिए। बस, इतना काफी
होगा।
हठयोग
ने बहुत सी
प्रक्रियाएं
खोजी हैं जो
शरीर को एक
विशेष इंतजाम
दे देती हैं।
अगर वह इंतजाम
दे दिया गया
है तब तो फर्क
पड़ जाएगा।
इसलिए हठयोगी
कभी कम उम्र
में नहीं मरता।
साधारण
राजयोगी मरता
है।
विवेकानंद
मरते हैं, शंकराचार्य
मरते हैं, हठयोगी
नहीं मरता।
उसका कारण है।
उसने शरीर को
पूरा इंतजाम
दिया है। इसके
पहले कि घटना
घटे, उसने
शरीर के लिए
तैयारी कर ली
है। अब शरीर
तैयार है। अब
शरीर
अप्राकृतिक
स्थिति को
झेलने के लिए
तैयार है।
इसलिए
हठयोगी बहुत—सी
अप्राकृतिक
प्रक्रियाएं
करता है। जैसे
जब धूप पड़ रही
होगी, तब वह
कंबल ओढ़ कर
बैठ जाएगा।
सूफी फकीर
कंबल ओढ़े रहते
हैं। सूफ का
मतलब होता है
ऊन। और जो
आदमी ऊन ओढे
रहता है हमेशा,
उसको कहते
हैं सूफी। और
तो कुछ मतलब
नहीं है सूफी का।
तो सारे सूफी
फकीर अरब में,
जहां कि आग
बरस रही है, कंबल ही ओढ़
कर जीते हैं।
आग बरस रही है
और वह कंबल
ओढ़े हैं। अब
बड़ी
अप्राकृतिक
स्थिति वे खड़ी
कर रहे हैं।
ऐसे ही आग बरस
रही है, ऐसे
ही जला जा रहा
है सब कुछ।
चारों तरफ आग
दिखाई पड़ती है,
कहीं कोई
हरियाली नहीं
दिखाई पड़ती।
वहां एक आदमी
कंबल ओढ़े बैठा
है। वह अपने
शरीर को राजी
कर रहा है
अप्राकृतिक स्थितियों
के लिए। तिब्बत
में एक लामा
नंगा बैठा हुआ
है बर्फ पर।
और तुम हैरान
होंगे देखकर,
उसके शरीर
से पसीना चू
रहा है। अब यह
लामा एक
तैयारी कर रहा
है कि गिरती
हुई बर्फ में
शरीर से पसीना
चुआया जा सके।
यह बडी
अप्राकृतिक
तैयारी कर रहा
है।
ऐसी
बहुत सी
अप्राकृतिक
तैयारियां
हैं। इन तैयारियों
से अगर शरीर
गुजर गया हो, तो
उस
अप्राकृतिक
घटना को झेलने
में समर्थ हो जाता
है। फिर तो
शरीर को कोई
नुकसान नहीं
पहुंचता। कोई
नुकसान नहीं
पहुंचता।
लेकिन
साधारणत: ये
तैयारियां
वर्षों का काम
है। और बाद
में राजयोग ने
तय किया कि
आखिर इतनी उम्र
को बचाने की
जरूरत भी क्या
है। यह वर्षों
का काम है।
कोई एक आदमी
हठयोग की
तैयारी करे तो
बीस और तीस
साल से कम में
तो कुछ भी
नहीं हो सकता।
तीस साल कम से
कम समझना
चाहिए। अब एक
आदमी अगर
पंद्रह साल की
उम्र में काम
शुरू करे, तो
पचास साल की
उम्र तक तो वह
तैयारी कर
पाएगा। तो राजयोग
ने यह तय किया
कि शरीर की
इतनी फिक्र की
जरूरत भी क्या
है। अगर
स्थिति
उपलब्ध हो गई
और शरीर छूट
गया, तो
करना क्या है
बचा कर। इसलिए
वे तैयारियां
छोड़ दी गईं।
इसलिए
शंकराचार्य
तैंतीस साल
में मर गए।
उसका कारण यह
है कि इतनी
बड़ी घटना घटी, उसके
लिए शरीर तो
तैयार नहीं था।
मगर तैयारी की
कोई जरूरत भी
न थी। अगर
जरूरत मालूम
पड़े, तब तो
ठीक है। नहीं
जरूरत मालूम
पड़े, तो
कोई कारण नहीं
है। और फिर
पैंतीस साल
जिसको बचाने
के लिए मेहनत करनी
पड़े, अगर
उससे पैंतीस
साल और बच
सकते हों तो
हिसाब बहुत
ज्यादा फायदे
का न रहा।
समझ
लें कि मैं
पंद्रह साल से
मेहनत करूं
पचास साल तक, तो
मेरे पैंतीस
साल तो खराब
हो ही गये। और
अब मैं पैंतीस
साल और बच
जाऊं, पचासी
साल तक। तो
ऐसे हिसाब—किताब
बराबर हो गया।
कुछ उसका अर्थ
नहीं है।
तो
अगर
शंकराचार्य
से कोई कहे कि
आप हठयोग करके
बच सकते थे
सत्तर साल तक, तो
वे कहेंगे कि
बच सकता था, लेकिन चालीस
साल मुझे
उसमें मेहनत
लगानी पड़ती।
वह मेहनत
अकारण है। मैं
तैंतीस साल
में मरना पसंद
करता हूं।
इसमें कोई
हर्जा नहीं है।
इसलिए
धीरे — धीरे
हठयोग पिछड़
गया। उसके
पिछड़ जाने का
कारण हुआ कि
उसकी इतनी लंबी
प्रक्रियाएं
थीं। लेकिन
मुझे लगता है
कि भविष्य में
अगर विज्ञान का
सहारा लेकर
प्रक्रियाएं
की गईं, तो
हठयोग वापस
लौट आएगा।
क्योंकि अब
पैंतीस साल
लगाने की
जरूरत नहीं है।
मैं समझता हूं
कि पांच साल
में भी हो
सकती है बात।
और अगर
विज्ञान का
पूरा उपयोग
किया जाए, तो
इतना समय खोने
की जरूरत नहीं
है। और समय
बचाया जा सकता
है। लेकिन
वैज्ञानिक
हठयोग के पैदा
होने में अभी समय
है। अभी वक्त
लग सकता है।
और मैं मानता
हूं कि
वैज्ञानिक
हठयोग हिंदुस्तान
में पैदा नहीं
होगा, पश्चिम
में ही पैदा
होगा।
क्योंकि
हमारी कोई
वैज्ञानिक
स्थिति ही नहीं
है।
समय
बचाया जा सकता
है,
लेकिन बचाए
जाने का कोई
विशेष
प्रयोजन नहीं
है। किन्हीं
खास
स्थितियों
में समय बचाये
जाने का
प्रयोजन हो
सकता है, तो
वह घटना भी
स्कूल के भीतर
ही घटेगी।
जैसे यह हो
सकता है कि शंकाराचार्य
का अब
शंकराचार्य
के लिए तो कोई
उपयोग नहीं है
बचने का, लेकिन
दूसरों के लिए
उपयोग हो सकता
है। इसलिए
हठयोग की बात
में कहीं कोने
पर एक जान है।
और वह यह है कि
शंकराचार्य
को यह कहा जा
सकता है कि
माना कि आपके
लिए कोई उपयोग
नहीं है, लेकिन
अगर आप पैंतीस
साल और बच
जाते हैं, तो
और बहुत लोगों
के लिए उपयोग
है। इसी
रास्ते से
हठयोग वापस आ
सकता है, अन्यथा
नहीं आ सकता।
और
शरीर का जो
ऐडजेस्टमेंट
टूट जाता है।
वह करीब—करीब
मामला ऐसे ही
है जैसे कि
कार का इंजन
एक बार खोल लो, फिर
दोबारा भी कस
जाता है, लेकिन
कार की लाइफ
तो कम हो ही
जाती है। इसलिए
कार खरीदने
वाला पहले
पूछता है कि
इंजन खोला तो
नहीं गया।
क्योंकि इंजन
बिलकुल ठीक
जुड़ गया हो, फिर भी लाइफ
तो कम हो ही
जाती है, जिंदगी
कम हो ही जाती
है। क्योंकि
वह ठीक वही
नहीं हो सकता,
जो था।
उसमें किंचित
अंतर भी फर्क
ले आता है।
फिर
हमारे शरीर
में कुछ तत्व
ऐसे हैं, जो
बहुत शीघ्रता
से मर जाते
हैं, कुछ
तत्व ऐसे हैं,
जो मरने में
देर लेते हैं।
कुछ तत्व ऐसे
हैं, जो
आदमी मर जाता
है उसके बाद
भी नहीं मरते।
मरघट में भी
नाखून बढ़ते
रहते हैं आदमी
के, कब्र
में भी बाल
बढ़ते रहते हैं।
कब्र में गड़ाए
हुए आदमी के
बालों का बढ़ना
जारी रहता है,
नाखून का
बढ़ना जारी
रहता है। वह
आदमी मर गया, लेकिन नाखून
और बाल मरने
से इतनी जल्दी
राजी नहीं
होते। वे अपना
काम जारी रखते
हैं। उनको
मरने में बहुत
वक्त लगता है।
तो
शरीर जब मरता
है,
तो उसमें
मरने में कई
तलों पर
मृत्यु घटित
होती है। असल
में शरीर में
बहुत तरह के
संस्थान
आटोमेटिक हैं
जिनके लिए
आपकी आत्मा की
मौजूदगी भी
जरूरी नहीं है।
जैसे मैं यहां
बैठा हूं। मैं
बोल रहा हूं।
अगर मैं इस
कमरे के बाहर
चला जाऊं, तो
बोलना तो बंद
हो जाएगा
लेकिन पंखा
चलता रहेगा।
क्योंकि पंखे
का अपना
आटोमेटिक
इंतजाम है।
उसका मेरी
मौजूदगी से
कुछ लेना—देना
न था।
तो
हमारे शरीर
में दो तरह के
इंतजाम हैं।
एक तो इंतजाम
है जो हमारी
चेतना के हटते
से ही खतम हो
जाएगा। एक
इंतजाम ऐसा है
जो कि हमारी
चेतना के हटने
पर भी थोड़ी
देर काम करता
रहेगा। कुछ
इंतजाम इतने
आटोमेटिक और
बिल्ट—इन हैं
कि वह देर तक
काम करता
रहेगा। चेतना
हट जाएगी, वह
अपना काम.......
उसको पता ही
नहीं चलेगा, बाल को कि
क्रियानंद चल
बसे, वह
अपना काम करता
रहेगा। पता
लगते —लगते
उसको बहुत देर
हो जाएगी, बहुत
वक्त लग जाएगा।
जब उसको पता
चलेगा, तब
वह मरेगा कि
यह आदमी तो
गया। अब हम
बंद हो जाएं, अब बढ़ना
नहीं चाहिए।
और हमारे भीतर
कुछ तत्व हैं
जो बड़ी जल्दी
मरते हैं, कुछ
तत्व हैं जो
छह सेकेंड में
मर जाते हैं।
जैसे
हार्ट— अटैक
होता है एक
आदमी को। हृदय
के दौरे से जो
आदमी मरता है, अगर
छह सेकेंड के
भीतर उसको
सहायता
पहुंचाई जा
सके, तो वह
बच भी सकता है।
क्योंकि असल
में हार्ट—
अटैक कोई
मृत्यु नहीं
है, सिर्फ
स्ट्रक्चरल
भूल है। तो
पिछले
महायुद्ध में
रूस में कोई
पचास आदमी
बचाए गए।
युद्ध के
मैदान में जो
हृदय के दौरे
से गिर कर मर
गए, 'उनको
छह सेकेंड के
भीतर
अगर
सहायता
पहुंचाई जा
सकी,
तो वे बच गए।
लेकिन छह
सेकेंड से अगर
ज्यादा देर लग
जाए, तो
कुछ तत्व तब
तक खतम हो
जाएंगे, उनको
फिर दोबारा
जिंदा करना
मुश्किल हो
जाएगा। जैसे
हमारे
मस्तिष्क के
जितने भी
डेलीकेट हिस्से
हैं, वे
बहुत जल्दी
मरते हैं, एकदम
मर जाते हैं।
तो
अगर तेजस शरीर
बहुत देर बाहर
रह जाए, तो इस
शरीर की
सुरक्षा करनी
बहुत जरूरी है,
नहीं तो
इसमें से कुछ
हिस्से मर
जाएंगे।
हालांकि तुम
अंदाज नहीं
लगा सकते कि
कितनी देर
तेजस शरीर
बाहर रहा, क्योंकि
दोनों का टाइम—स्केल
अलग है। यानी
जैसे कि मेरा
तेजस शरीर
बाहर निकल जाए,
सूक्ष्म
शरीर, तो
मुझे लगेगा कि
मैं सालों
बाहर रहा और
लौट कर जब आऊं,
तब देखूं कि
घड़ी में सिर्फ
एक सेकेंड ही
बीता है। टाइम—स्केल
भिन्न है।
जैसे
एक आदमी को
झपकी लग जाए।
और झपकी में
वह एक सपना
देखे। और सपने
में उसकी शादी
हो रही है, बारात
निकल रही है
और बच्चे हो
गए और बच्चों
की शादी हो
रही है। और
नींद खुले और
वह हमसे कहे, मैंने इतना
लंबा सपना
देखा कि मेरी
शादी हो गई, फिर मेरे
बच्चे हो गए, फिर बच्चों
की शादी हो
रही थी। और हम
उससे कहें कि
अभी तो केवल
एक मिनट हुआ
तुम्हें झपकी
लिये। एक मिनट
में इतना लंबा
सपना कैसे हो
सकता है?
टाइम—स्केल
अलग है। एक
मिनट में इतना
लंबा सपना हो
सकता है।
क्योंकि सपने
का जो समय—माप
है,
वह हमारे
जागरण के समय—माप
से बहुत भिन्न
है, बहुत
त्वरित है, बहुत स्पीडी
है। तो तेजस
शरीर एक
सेकेंड को
बाहर रहे तो
तुम्हें लग
सकता है कि
तुम सालों
बाहर घूमे।
इससे अंदाज
नहीं लगता कि
तुम कितनी देर
बाहर रहे।
इस
शरीर को
सुरक्षित
रखना बहुत
जरूरी है।
इसकी सुरक्षा
की बड़ी
कठिनाइयां
हैं। और इसको
अगर सुरक्षित
रखने का
इंतजाम पूरा
हो,
तो बहुत देर
तक बाहर रहा
जा सकता है।
शंकराचार्य
के जीवन की एक
घटना है जो
समझने जैसी है।
वे छह महीने
बाहर रहे, हमारे
टाइम—स्केल से।
तेजस शरीर के
टाइम—स्केल से
कितनी देर
बाहर रहे, उसकी
कोई बात करनी
बेकार है।
हमारे समय के
माप से वे छह
महीने शरीर के
बाहर रहे।
एक
स्त्री ने
उनको झंझट में
डाल दिया।
मंडन से उनका
विवाद हुआ।
मंडन हार गए।
लेकिन उनकी
पत्नी ने एक
बड़ा स्त्रैण
तर्क दिया जो
सिर्फ
स्त्रियां ही
दे सकती हैं।
उसने कहा, अभी
सिर्फ आधे
मंडन मिश्र
हारे, आधी
तो मैं अभी
जिंदा हूं,
अर्धांगिनी।
तो जब तक मैं
भी न हार जाऊं,
तब तक पूरे
मंडन मिश्र
हार गए, ऐसा
आप नहीं कह
सकेंगे।
शंकर
भी मुसीबत में
पड़ गए। बात तो
ठीक ही थी, हालांकि
बेमानी थी।
मंडन मिश्र
पूरे हार गए
थे। स्त्री के
अर्धांगिनी
होने का यह
मतलब नहीं होता
कि गामा पहले
उसके पति को
हराए और फिर
उसको पत्नी को
भी हराए तब वह
विजेता घोषित
हो। यह मतलब
नहीं होता।
लेकिन वह जो
भारती थी मंडन
मिश्र की
पत्नी, वह
भी विवाद के
योग्य थी।
बहुत कम
विदुषी
स्त्रियां उस
हैसियत की
हुईं। और शंकर
ने सोचा कि
चलो यह भी ठीक
है, एक
आनंद रहेगा।
और जब मंडन ही
हार गए, तो
भारती कितनी
देर टिकेगी।
लेकिन भूल हो
गई।
पुरुष
को हराना बहुत
आसान है, स्त्री
को हराना बहुत
मुश्किल है।
क्योंकि
पुरुष के
हारने और
जीतने के तर्क
भिन्न होते
हैं और स्त्री
के तर्क भिन्न
होते हैं। असल
में उनका
लाजिक ही
भिन्न होता है।
इसलिए अक्सर
पति—पत्नी एक
दूसरे की बात
ही नहीं समझ
पाते कि कौन
क्या कह रहा
है। क्योंकि
उनके
तर्क करने के
ढंग ही अलग—
अलग होते हैं।
उनमें कोई
तालमेल नहीं
होता। अक्सर
वे पैरेलल
होते हैं, लेकिन
मिलते कहीं
नहीं।
शंकर
ने सोचा कि
ब्रह्म वगैरह
की बात होगी, लेकिन
उस भारती ने
ब्रह्म —बह्म
की कोई बात
नहीं की, क्योंकि
वह तो देख ही
चुकी थी कि
मंडन मिश्र दिक्कत
में पड़ गए।
ब्रह्म और
माया नहीं
चलेगी! उसने
शंकर से कहा कि
मुझे
कामशास्त्र
के संबंध में
कुछ बताइए।
शंकर मुश्किल
में पड़ गए।
शंकर ने कहा
कि मैं
निष्णात
ब्रह्मचारी
हूं। कृपा
करके
कामशास्त्र
के संबंध में
मुझसे कुछ मत
पूछिये। पर
उसने कहा कि
अगर
कामशास्त्र
के संबंध में आप
कुछ भी नहीं
जानते, तो
और क्या जान
सकते हैं। जब
इतना—सा पता
नहीं, तो
ब्रह्म, माया
वगैरह क्या
जानते होंगे!
और जिसको आप
माया कह रहे
हैं, जिस
जगत को, उसकी
उत्पत्ति
जहां से है, उसके संबंध
में कुछ बात
करनी पड़ेगी।
मैं तो उसी पर
विवाद करूंगी।
तो शंकर ने
कहा, छह
महीने की
मुहलत मुझे दे
दो। मैं सीखकर
आऊं। क्योंकि
इसे मैंने कभी
सीखा नहीं, यह मैंने
कभी जाना नहीं,
यह राज मुझे
पता नहीं।
तो
शंकर को अपना
शरीर छोड्कर
दूसरे शरीर
में प्रवेश
करना पड़ा। इस
शरीर से भी वे
जान सकते थे, कोई
पूछ सकता है।
इस शरीर से भी
वे जान सकते
थे, लेकिन
इस शरीर की
पूरी धारा
अंतर्प्रवाहित
हो चुकी थी।
उसका बाहर
लौटाना
मुश्किल था।
वे किसी
स्त्री से इस
शरीर से भी
संबंधित हो सकते
थे। आखिर अगर
जानने ही गए
थे, तो इसी
शरीर से ही
किसी स्त्री
को जान सकते
थे। लेकिन इस
शरीर की सारी
धारा
अंतर्प्रवाहित
हो गई थी। इस
शरीर की धारा
को बाहर
प्रवाहित
करना छह महीने
से भी लंबा
काम था। वह
आसान घटना न
थी, वह
बहुत मुश्किल
मामला था। एक
दफा बाहर से
भीतर ले जाना
बहुत आसान है,
भीतर से
बाहर लाना बहुत
ही मुश्किल है।
कंकड़ छोड्कर
हीरे उठा लेना
बहुत आसान है,
लेकिन हीरे
छोड्कर कंकड़
उठाना बहुत
मुश्किल है।
वे
मुश्किल में
पड गए। इस
शरीर से कुछ
भी न हो सकता
था। तो
उन्होंने
मित्रों को
भेजा कि पता
लगाओ कि कोई
शरीर तत्काल
मरा हो, तो
मैं उसमें
प्रवेश कर
जाऊं। लेकिन
जब तक मैं
लौटू तब तक
मेरे शरीर को
सुरक्षित
रखना। छह
महीने तक वे
एक राजा के
शरीर में
प्रवेश करके
जीए और वापस
लौटे।
यह
छह महीने शंकर
का शरीर
सुरक्षित रखा
गया। यह
सुरक्षा बड़ी
कठिन है।
इसमें जरा—सी
भूल—चूक हुई
कि वापस लौटना
मुश्किल हो
जाए। इसको
सुरक्षित रखने
में बड़े
डिवोटेड
आदमियों ने
काम किया, जिनके
समर्पण का कोई
हिसाब लगाना
मुश्किल है, जिनके
समर्पण का हम
अंदाज भी नहीं
कर सकते कि उन्होंने
क्या किया
होगा।
जैसे
मैंने तुमसे
कहा कि तिब्बत
का साधक प्रयोग
करता है, कि
बैठा है सर्दी
में और पसीना
चू रहा है। यह
सिर्फ संकल्प
से होता है।
संकल्प से वह
इस तथ्य को
झुठलाता है कि
सर्दी पड़ रही
है। संकल्प से
वह इस तथ्य को
खड़ा करता है
कि धूप पड़ रही
है और गर्मी
है।
परिस्थिति को
वह मनस्थिति
के नीचे लाता
है।
परिस्थिति तो
बर्फ पड़ने की
है। वह आख बंद
करके इस
परिस्थिति को
इनकार कर देता
है। वह कहता
है, झूठ है
यह बात कि
बर्फ पड़ रही
है। मैं तो
मानता हूं कि
सूरज निकला है
और धूप पड़ रही
है। और इस
मान्यता को वह
गहरे से गहरे
संकल्प में प्रवेश
कराता है। एक
घड़ी आती है कि
उसकी श्वास —श्वास,
उसका रोआं—रोआं,
उसके प्राण
का कण—कण
जानता है कि
धूप पड़ रही है।
फिर पसीना
कैसे नहीं
निकलेगा? पसीना
निकलना शुरू
हो जाता है।
परिस्थिति
दबा
दी गई, मनस्थिति
प्रभावी हो गई।
सब
योग एक अर्थ
में
परिस्थिति को
दबा कर
मनस्थिति को
ऊपर लाने का
है। और सब
सांसारिकता
एक अर्थ में
परिस्थिति के
नीचे
मनस्थिति को
दबाकर जीने का
नाम है।
तो
शंकर के जिन
मित्रों को उस
शरीर को रखना
पड़ा सुरक्षित, यह
बात कभी कही
नहीं गई यह
बात कभी ठीक
से लिखी भी
नहीं गई कि
उन्होंने
किया क्या। इस
आदमी के प्राण
चले गए, इसको
छह महीने तक
क्या किया। छह
महीने तक एक
वर्ग मित्रों
का इस शरीर को
घेरे ही बैठा
रहा। वह अखंड
था घेरा।
उसमें एक
निश्चित
संख्या पूरे
वक्त मौजूद रहनी
चाहिए। उसमें
से कोई बीच
में बदलता था,
लेकिन
चौबीस घंटे
सजग। एक विशेष
स्थिति में वह
वातावरण उस
गुफा का रहना
चाहिए। और
निश्चित
तरंगें वहां
पहुंचती रहनी
चाहिए। ये
सारे लोग—करीब
सात लोग—वहां
बैठकर इस भाव
में होने
चाहिए कि हम
श्वास नहीं ले
रहे हैं, श्वास
शंकर का शरीर
ले रहा है। हम
नहीं जी रहे
हैं, जी
शंकर का शरीर
रहा है। और इन
सबों के शरीर
की विद्युत
धाराएं शंकर
के शरीर में
दौड़ती रहनी
चाहिए। इन
सारे सातों
व्यक्तियों
के हाथ शंकर
के सातों
चक्रों पर
होने चाहिए।
उनके सारे
शरीर की
विद्युत
धाराएं सातों
चक्रों में
उडेली जानी
चाहिए, तो
यह शरीर छह
महीने तक......।
और
यह सतत होगा।
इसमें एक क्षण
की भी चूक और
धारा टूट
जाएगी। और
धारा टूटने पर
शरीर की
उष्णता खो
जाएगी। वह
शरीर उष्ण
रहना चाहिए
जैसा जीवित
आदमी का है।
यह विशेष
तापमान उसका
वही बना रहना
चाहिए जो जीवित
आदमी का है।
उसमें तापमान
का जरा—सा भी
फर्क न पड़ जाए।
और यह तापमान
किसी आग से
नहीं पैदा
किया जा सकता
है। और यह
तापमान किसी
और तरकीब से
पैदा नहीं
किया जा सकता
सिवाय इसके कि
सात लोग अपनी
पूरी जीवन—ऊर्जा
को अपनी पूरी
मैग्नेटिक
फोर्स को उसके
सातों चक्रों
से भीतर डालते
रहें। और उसके
शरीर को कभी
पता न चल पाए
कि वह आदमी जो मौजूद
था अब नहीं है।
क्योंकि उस
आदमी से जो
मिलता था वह
ये सात आदमी
उसको दे रहे
हैं।
मेरा
मतलब समझ रहे
हैं न! जो उस
आदमी की चेतना
उसके सातों
चक्रों को
देती थी, इस
शरीर को कभी
भी पता नहीं
चलता है। इसको
पता चलने का
एक ही उपाय है
कि इसके सातों
चक्र से सातों
शरीरों की
ऊर्जा इसको
मिलती रहती है।
वह ट्रांसमीशन
सेंटर्स इसको
देते रहते हैं।
यह जिंदा रहता
है। वहां से
चूक जाती है, तो यह मरने
की तैयारी कर
लेता है। इसको
कुछ और पता
नहीं है। इसको
अगर दूसरे भी
व्यक्ति
ऊर्जा दे सकें,
तो भी यह
जिंदा रखा जा
सकता है।
तो
शंकर को छह
महीने बचाकर
रखना एक बहुत
अदभुत प्रयोग
था। और छह
महीने निरंतर
किन्हीं
व्यक्तियों
का सतत—एक
आदमी बदले, तो
दूसरा तत्काल
रिप्लेस हो—सात
वहां मौजूद
रहने ही चाहिए।
शंकर की वापसी
छह महीने के
बाद हुई और
शंकर उत्तर दे
सके। वे जो
नहीं जानते थे,
वह जान सके।
इसे
एक तरकीब से
और जाना जा
सकता था, लेकिन
शंकर को उस
तरकीब का पता
नहीं था। अगर
यह घटना
महावीर की
जिंदगी में
घटती तो महावीर
दूसरे के शरीर
में प्रवेश
नहीं करते, महावीर अपने
पिछले जन्मों
की स्मृति में
प्रवेश कर
जाते। एक
दूसरा स्रोत
था, लेकिन
जाति—स्मरण का
प्रयोग जैनों
और बौद्धों
में ही सीमित
रहा, वह
हिंदुओं तक
कभी नहीं
पहुंच सका। तो
अगर महावीर से
कोई ऐसा सवाल
करता, तो
महावीर किसी
के शरीर में
घुसने की
कोशिश न करते।
इससे कोई मतलब
न था। वे अपने
ही पिछले
शरीरों की याद
में चले जाते।
और अपने ही
पिछले
स्त्रियों से
संबंधों को स्मरण
कर लेते और
जान लेते। और
तब छह महीने न
लगते। लेकिन
शंकर के पास
इसकी कोई
साइंस न थी।
लेकिन शंकर के
पास एक और
साइंस थी, जो
एक दूसरा वर्ग
साधकों का
विकसित करता
रहा था। वह
साइंस थी
दूसरे के शरीर
में प्रवेश
करने की।
अध्यात्म
की भी बहुत—सी
साइंसेज हैं।
और अभी तक
किसी धर्म के
पास सारे
साइंसेज के पूरे
सूत्र नहीं
हैं। किसी एक
धर्म ने एक
विशेष
प्रक्रिया को
विकसित कर
लिया है, वह
उससे तृप्त है।
किसी दूसरे
धर्म ने किसी
दूसरी
प्रक्रिया को विकसित
कर लिया है और
उससे वह तृप्त
है। लेकिन अब
तक दुनिया में
कोई भी ऐसा
धर्म नहीं निर्मित
हो पाया है, जिसके पास
सारे धर्मों
की समस्त
संपदा हो। और
वह तब तक नहीं
हो पाएगा, जब
तक हम सारे
धर्मों को
दुश्मन की तरह
देखते हैं। तब
तक वह हो भी
नहीं पाएगा।
ये सारे धर्म
मित्र की तरह
एक—दूसरे के
निकट आ जाएं
और ये सारे
धर्म अपनी संपदा
को दूसरी
संपदा के लिए
खोल दें और
अपनी संपदा और
दूसरी संपदा
की मालकियत को
साझीदार बना
लें, तो एक
विज्ञान
विकसित हो पाए
जिसमें सारे
अनंत— अनंत
स्रोतों से।
अब
किसी ने
इजिप्त में
कुछ विकसित
किया था, जो
हिंदुस्तान
के पास नहीं
है।
जिन्होंने
पिरामिड्स
बनाए थे, उनके
पास कुछ था, जो
हिंदुस्तान
में किसी के
पास नहीं है।
जिन्होंने
तिब्बत की
मोनास्ट्रीज
में काम किया
है, उनके
पास कुछ था, वह
हिंदुस्तान
में नहीं है।
जो
हिंदुस्तान
के पास है, वह
तिब्बत के पास
नहीं है। और
जो इनके पास
है वह उनके
पास नहीं है।
और सब को यह
खयाल है कि
अपने — अपने
फ्रैगमेंट को,
अपने — अपने
टुकड़े को
पूर्ण समझकर
बैठ गए हैं।
इससे बड़ी
कठिनाई हो गई।
अब
जाति—स्मरण
बहुत आसान
प्रयोग है, दूसरे
के शरीर में
प्रवेश बहुत
कठिन प्रयोग
है। खतरों से
खाली नहीं है।
जाति—स्मरण का
प्रयोग बहुत
सरल प्रयोग है
बिना किसी
खतरे के।
लेकिन उसका
शंकर को कोई
स्मरण नहीं था।
और चूंकि अपनी
पूरी जिंदगी
शंकर ने जैनों
और बौद्धों से
विवाद करने
में बिताई, इसलिए उनका
द्वार भी बद
था कि वह
जैनों और
बौद्धों के
पास जो था, उनको
मिल जाए। वह
उनको नहीं मिल
सकता था, क्योंकि
उनसे उनका कोई
संबंध नहीं हो
सकता था। वह
दुश्मन की तरह
सारी
प्रक्रियाएं
चलती रहीं, इसलिए
दरवाजे कुछ
बंद थे। उस
तरफ से सूरज
की किरणें आएं,
तो शंकर
राजी न होते।
वे अपने
दरवाजे से ही
सूरज की किरण
को लेने को
राजी होते हैं।
हमें
यह पता नहीं
चलता, लेकिन
किसी भी
दरवाजे से जो
किरण आती है, वह एक ही
सूरज की है।
लेकिन हम अपने
— अपने दरवाजे
के दावेदार
हैं, अपने —
अपने दरवाजे
पर बैठे हैं।
अब यह हमें
दिखाई नहीं
पड़ता कि अरब
में जो आदमी
ऊन का कंबल
ओढ़कर जो काम
कर रहा है, वही
तिब्बत में
नंगा होकर काम
कर रहा है। उन
दोनों के काम
बिलकुल एक—से
हैं, इनमें
फर्क नहीं है
जरा भी। इनमें
कोई फर्क नहीं
है, ये
दोनों प्रयोग
बिलकुल उलटे
हैं, लेकिन
बिलकुल एक —से
हैं। काम वही
हो रहा है, सूत्र
वही हैं।
जो
मीडियम होते
हैं उनमें
कैसे प्रवेश
होता है?
आप
पूछते हैं कि
जो माध्यम
होते हैं, जो
मीडियम होते
हैं, उनमें
किस तरह
प्रवेश होता
है। असल में
इस प्रवेश में
और उस प्रवेश
में विपरीतता
है। इस प्रवेश
में प्रवेश
करनेवाला
किसी के शरीर में
प्रवेश कर रहा
है। मीडियम के
मामले में, मीडियम किसी
को प्रवेश
करवा रहा है।
इन
दोनों में
फर्क है। अगर
मैं अपने शरीर
को छोड्कर
किसी के शरीर
में प्रवेश
करूं, इसकी प्रक्रिया
अलग है। कहना
चाहिए, यह
पुरुष
प्रक्रिया है।
इसमें किसी
शरीर में
प्रवेश करना
पड़ेगा।
मीडियम की जो
प्रक्रिया है,
कहना चाहिए,
वह स्त्रैण
प्रक्रिया है।
इसमें मीडियम
सिर्फ
रिसेप्टिव
होगा और किसी को
अपने भीतर
बुला लेगा, आमंत्रित कर
लेगा। मीडियम
का मामला बहुत
सरल है।
मीडियम का
मामला बहुत
कठिन नहीं है।
और मीडियम
जिनको
बुलायेगा, आमतौर
से अशरीरी
आत्माएं
होंगी, सशरीरी
आत्माएं
मुश्किल से
होंगी।
और
आत्माएं बिना
शरीर के हमारे
चारों तरफ घूम
रही हैं। अभी
यहां हम इतने
ही लोग नहीं
बैठे हुए हैं, और
लोग भी बैठे
हुए हैं। मगर
उनके पास शरीर
नहीं है, इसलिए
हम उनसे
बिलकुल
निश्चित हैं।
हमें उनकी
मौजूदगी से
कोई मतलब नहीं
होता। वह वैसे
ही मौजूद हैं
जैसे अभी यहां
एक रेडियो रखा
हुआ है, इसको
हम आन कर दें
और दिल्ली पकड़
जाए। जब हमने
आन नहीं किया
था, तो आप
समझते हैं, दिल्ली नहीं
बोल रहा था? जब आपने
रेडियो नहीं
चलाया था, तब
दिल्ली से
निकलने वाली
धाराएं यहां
से नहीं गुजर
रही थीं? तब
भी गुजर रही
थीं, लेकिन
हमें कोई पता
नहीं था।
क्योंकि
हमारे और उनके
बीच कोई
माध्यम नहीं था
जो जोड़ बना दे।
रेडियो एक
माध्यम का काम
कर रहा है। जो
गुजर रहा है यहां
से, उसे वह
हमसे संबंधित
कर देगा।
जो
मृत आत्माओं
के लिए माध्यम
का काम कर
सकते हैं
व्यक्ति, वे
भी रेडियो का
ही काम कर रहे
हैं। एक तरह
की टधूनिंग का
काम कर रहे
हैं। उनकी
मौजूदगी के
कारण जो
आत्माएं
हमारे चारों
तरफ सदा मौजूद
हैं, उनमें
से कोई आत्मा
प्रवेश कर
सकती है।
लेकिन
ये अशरीरी
आत्माएं हैं।
और अशरीरी
आत्मा सदा ही
शरीर में
प्रवेश करने
को आतुर होती
है। उसके कारण
होते हैं। बड़ा
कारण तो यह
होता है कि
अशरीरी आत्मा—जिसको
हम प्रेत कहें—अशरीरी
आत्मा की
इच्छाएं तो
वही होती हैं
जो शरीरधारी
की होती हैं, लेकिन
शरीर उसके पास
नहीं होता।
इच्छाएं वही
होती हैं, वासनाएं
वही होती हैं,
जो
शरीरधारी की
हैं, लेकिन
शरीर नहीं
होता। और
अशरीरधारी की
कोई भी वासना
बिना शरीर के
पूरी नहीं
होती।
अगर
समझ लें कि एक
प्रेतात्मा
को किसी से
प्रेम करना है, तो
उसके लिए शरीर
चाहिए। प्रेम
की वासना तो
भीतर रह जाती
है, लेकिन
शरीर उसके पास
नहीं है। अगर
वह किसी शरीर
के पास आए, तो
आर—पार निकल
जाता है। वह
कहीं रुकता
नहीं। हमारा
शरीर उसके
शरीर को
व्यवधान नहीं
बनता, वह
हमारे शरीर से
निकल जाता है
इस तरफ से उस
तरफ। शरीर
चाहिए उसको।
तो वह तो आकांक्षा
से भरा हुआ है
शरीर मिलने की।
कभी कोई भयभीत
व्यक्ति अगर
अपने भीतर
सिकुड़ जाए, तो वह
प्रवेश कर
जाता है।
भय
में आदमी
सिकुड़ जाता है।
आपका अपना
शरीर जितना
आपको घेरना
चाहिए उतना आप
भय में नहीं
घेरते, सिकुड़
कर छोटे हो
जाते हैं।
शरीर में बहुत—सी
जगह खाली रह
जाती है।
वैक्यूम बन
जाता है। उस
वैक्यूम में,
भय 'में
वह घुस जाता
है। लोग समझते
हैं कि भय की
वजह से भूत
पैदा हो जाते
हैं, वह
पैदा नहीं हो
जाते। लोग
समझते हैं कि
भय ही भूत है, वह भी ठीक
बात नहीं है।
भूत का अपना
अस्तित्व है।
भय में सिर्फ
उसे प्रकट
होने की
सुविधा मिल जाती
है। तो भय में
तो कोई भी
आदमी मीडियम
बन सकता है, लेकिन उस
मीडियम में
प्रेतात्मा
ही प्रवेश कर
रही है, इसलिए
परेशानी ही
खड़ी होगी।
जिस
मीडियम की आप
बात कर रहे
हैं,
यह
स्वेच्छा से
निमंत्रण दी
गई आत्मा है।
स्वेच्छा से
किसी ने अपने
भीतर की जगह
खाली की है और
निमंत्रण
दिया है। तो
मीडियम की कला
कुल इतनी ही
है कि आप अपने
भीतर की जगह
खाली कर सकें
और आसपास कोई
आत्मा हो, तो
उसको
निमंत्रण दे
सकें कि तुम आ
जाओ। लेकिन
चूंकि यह जान—बूझ
कर किया जाता
है, इसलिए
कोई भय नहीं
है। और चूंकि
यह स्वेच्छा
से किया जाता
है, इसलिए
इसमें उतना
खतरा नहीं है।
और चूंकि यह
जान—बूझ कर
किया जाता है,
इसके आने का
रास्ता पता है
और इसके वापस
भेजने के
रास्ते का भी
पता है। लेकिन
यह
रिसेप्टीविटी
से होगा। और
सिर्फ साधारण
अशरीरी
आत्माओं पर ही
हो पाएगा।
अगर
शरीरधारी
आत्मा को
बुलाना हो, तो
खतरे बढ़ जाते
हैं। क्योंकि
अगर मैं किसी
शरीरधारी
आत्मा को किसी
माध्यम पर
बुलाऊं, तो
उस आदमी का
शरीर वहां
मूर्च्छित
होकर गिर जाएगा।
बहुत बार जब
लोग
मूर्च्छित
होकर गिरते
हैं, तो हम
समझते हैं वह
साधारण
मूर्च्छा है।
कई बार वह
साधारण
मूर्च्छा
नहीं होती और
उस व्यक्ति की
आत्मा कहीं
बुला ली गई
होती है। और
इसलिए उस वक्त
उसका इलाज
करना खतरे से
खाली नहीं है।
उस वक्त उसके
साथ कुछ न
किया जाये, यही हितकर
है। मगर उसका
हमें कोई पता
नहीं होता।
अभी तक साइंस
उसके लिए साफ
पता नहीं कर
पाई कि कब
मूर्च्छा
साधारण
मूर्च्छा है
और कब उसकी
मूर्च्छा
आत्मा का बाहर
चला जाना है।
घटना वही है, लेकिन बहुत
दूसरे प्रकार
की है। यहां
हम बुलाते हैं,
वहां हम
जाते हैं।
अब
कल! अच्छा, एक
और पूछ लें।
भगवान
श्री
रामकृष्ण
परमहंस को
अपने शरीर को जिलाए
रखने के लिए
अन— रस की
तृष्णा का
आधार लेना पड़ा
था। क्या ऐसे
किसी रस के
आधार के बिना
भी उच्च शरीर
का टिकना संभव
नहीं है? किस
शरीर में ऐसे
आधार की
आवश्यकता
पड़ती है? क्या
पांचवें या
छठवें या
सातवें शरीर
की उच्च
भूमिकाओं में
भी शरीर को
टिकाए रखने के
लिए किसी रस
के आधार की आवश्यकता
पड़ती है?
रामकृष्ण
को भोजन का
बहुत शौक था।
जरूरत से
ज्यादा, कहना
चाहिए, दीवाने
थे। ब्रह्म —चर्चा
भी चलती रहती
और बीच —बीच
में उठकर वे
चौके में जाकर
शारदा को पूछ
भी आते कि
क्या बना है? फिर लौटकर
ब्रह्म —चर्चा
शुरू कर देते।
इससे शारदा तो
परेशान थी ही,
जो भक्त
उनके निकट थे,
वे भी
परेशान थे कि
किसी को पता
चले तो बड़ी
बदनामी हो।
असल में
गुरुओं की
चिंता
शिष्यों को
बहुत ज्यादा
होती है। भारी
चिंता उनको
होती है कि
गुरु की कहीं
बदनामी न हो
जाए, कि
कहीं गुरु को
कोई ऐसा न कह
दे, कि
कहीं वैसा न
कह दे। आखिर
रामकृष्ण से
पूछा ही गया
कि यह जरा
शोभादायक
नहीं है कि आप
बीच में
ब्रह्म—चर्चा
छोड्कर और
भोजन—चर्चा
में पड़े। यह
उचित नहीं
मालूम होता और
आप जैसी
भूमिका के
आदमी को क्या
भोजन? तो
रामकृष्ण ने
जो कहा, वह
बहुत हैरानी
का था।
रामकृष्ण
ने कहा कि
शायद तुम्हें
पता नहीं और तुम्हें
पता भी कैसे
होगा! मेरी
नाव के सभी
लंगर खुल चुके
हैं। और मेरी
नाव ने सारी
खूंटियां
उखाड़ ली हैं।
और मेरी नाव
के पाल हवाओं
से भर गए हैं।
और मैं जाने
को खडा हूं।
एक खूंटी
मैंने संभाल
कर गाड़ रखी है
ताकि नाव अभी
छूट न जाए। और
जिस दिन मैं
भोजन में रस न
लूं?
तुम समझ
लेना कि मेरी
मौत को अब तीन
दिन बाकी रह
गए। उस दिन
मैं मर जाऊंगा,
क्योंकि
मेरा और कोई
कारण नहीं रह
गया है। लेकिन
तुमसे मुझे
कुछ कहना है और
तुम तक मुझे
कुछ पहुंचाना
है और कुछ है
मेरे पास जो
तुम्हें मैं
देने के लिए
आतुर हूं? इसलिए
मेरा रुकना
जरूरी है। नाव
तो मेरी जाने
के लिए तैयार
है लेकिन मेरी
नाव में कुछ
संपदा है, जो
मैं किनारे के
लोगों को दे
जाना चाहता
हूं। लेकिन
किनारे के लोग
सोए हुए हैं।
उनको जगाऊं और
उनको संपदा
लेने को राजी
करूं। और उनको
यह भी समझाने
के लिए राजी
करूं कि यह संपदा
है। क्योंकि
वे किनारे के
लोग नहीं
जानते हैं कि संपदा
है, वे
समझते हैं कि
यह कचरा है।
वे कहते हैं
कि कहां की
बातों में
हमें उलझा रहे
हैं, हमें
सोने दें, हमें
अपने बिस्तर
पर बहुत आनंद
आ रहा है। तो
मैं किनारे के
लोगों को राजी
कर लूं और यह संपदा
जो मेरी नाव
में भरी है उनको
बांट दूं,
क्योंकि मेरा
तो जाने का
वक्त आ गया है।
इसलिए एक
खूंटी ठोंक कर
रखी है। इसलिए
मैं भोजन में
रस लिये ही
चला जा रहा
हूं। यह भोजन
मेरी खूंटी है।
और जिस दिन
मैं भोजन में
रस न लूं, तुम
समझ लेना कि
तीन दिन बाद
मैं मर जाऊंगा।
उस
दिन किसी ने
बहुत गंभीरता
से यह बात
नहीं ली।
अक्सर ऐसा
होता है।
अक्सर ऐसा
होता है कि
बहुत —सी
बातें
गंभीरता से
नहीं ली जातीं।
रामकृष्ण, बुद्ध
या महावीर, इनकी जिंदगी
में, सभी
की जिंदगी में
ऐसे मामले हैं
जो कि गंभीरता
से लिये गए
होते, तो
दुनिया का
बहुत लाभ हो
सकता था।
लेकिन वे कभी
गंभीरता से
नहीं लिये गए।
शायद समझा गया
कि रामकृष्ण
एक
एक्सप्लेनेशन
दे रहे हैं, एक व्याख्या
दे रहे हैं, कोई बात
समझाने के लिए
कर दी। भक्तों
के मन में शक
तो रहा ही
होगा कि ये
सिर्फ भोजन
करना चाहते
हैं और एक
तरकीब निकाल
ली है कि हमको
समझा भी दें
और कोई दिक्कत
भी नहीं रही
और कठिनाई भी
नहीं रही।
लेकिन यही हुआ।
एक
दिन शारदा
भोजन की थाली
लेकर गई, रामकृष्ण
लेटे थे कमरे
में, उन्होंने
करवट ले ली।
रोज थाली आती
थी, तो वे
उठकर खड़े हो
जाते थे। थाली
देखने लगते थे
कि क्या—क्या
है। उनका करवट
लेना और शारदा
को खयाल आई वह
बात कि उन्होंने
कभी कहा था कि
तीन दिन बाद
फिर मैं नहीं
बचूंगा। उसके
हाथ से थाली
छूटकर गिर पड़ी।
वह चिल्लाने,
रोने लगी।
लेकिन
रामकृष्ण ने
कहा, अब
क्या होगा? अब खूंटी
उखाड़ ली। आखिर
कब तक मैं
खूंटी को
गड़ाये पड़ा
रहूंगा। ठीक
तीन दिन बाद
उनकी मृत्यु
हो गई।
तुम
पूछ रहे हो कि
क्या बिना रस
के ऐसी कोई
आत्मा इस
पृथ्वी पर रुक
सकती है?
पांचवें
शरीर तक इस
पृथ्वी का ही
कोई रस चाहिए, नहीं
तो नहीं रुक
सकती।
पांचवें शरीर
तक इस पृथ्वी
पर कोई खूंटी
चाहिए, नहीं
तो नहीं रुक
सकती।
पांचवें शरीर
तक पांच
इंद्रियों
में से किसी एक
रस को पकड़ कर, उसे ठोंक कर
रखना पड़ेगा।
लेकिन
पांचवें शरीर
के बाद रुक
सकती है। उस
रुकने की हालत
में कुछ दूसरी
बातें काम करेंगी।
तब शरीर के
किसी रस को
बचाए रखने की
कोई जरूरत
नहीं है। उस
हालत में अब
यह जरा दूसरी
बात है, जो
थोड़ी लंबी
करनी पड़ेगी।
लेकिन थोड़े
में इसे समझ
लें।
पांचवें
शरीर के बाद
अगर किसी आदमी
को रुकना हो।
जैसे महावीर
रुकते हैं या
बुद्ध रुकते
हैं या कृष्ण
रुकते हैं, तो
उनके लिए इस
जगत से मुक्त
हुई आत्माओं
का दबाव काम
करता है, इस
जगत से मुक्त
हुई चेतनाओं
का दवाब काम
करता है। इन
पर ऊपर से
आग्रह और दबाव
है। थियॉसोफी
ने इस संबंध
में बड़ी खोज
की थी और बड़ी
महत्वपूर्ण
खोज की थी। वह
खोज यह है कि
बहुत आत्माएं
जो मुक्त हो
गई हैं, जो
लीन हो गई हैं,
जो पहुंच गई
हैं जहां
पहुंचना होता
है, उनका दबाव
किसी ऐसे आदमी
को थोड़ी देर
रोकने के लिए काम
करता है।
उदाहरण
के लिए ऐसा
समझें—एक नाव
छूटने के करीब
है। अब इसमें
कोई खूंटी
नहीं रह गई है, लेकिन
उस किनारे के
लोग चिल्ला
रहे हैं कि
थोड़ी देर और
रुक जाओ। उस
किनारे के लोग
कह रहे हैं कि
थोड़ी देर और
रुक जाओ, इतनी
जल्दी मत करो।
उस किनारे की
आवाजें रोकने
का कारण बन
सकती हैं।
लेकिन महावीर
और बुद्ध और
कृष्ण को इस
तरह की आवाजें
काम कर सकीं।
रामकृष्ण के
समय तक आते—
आते हालतें बहुत
बदल गईं और
बहुत मुश्किल
भी हो गई। असल
में उस किनारे
के लोग इतने
दूर पड़ गए हैं
हमारी सदी से,
जिसका कोई
हिसाब नहीं।
उनकी आवाजें
पहुंचना
मुश्किल हो
गया है।
किनारे फैलते
चले गए हैं, और फासला
बड़ा होता चला
गया है, एक
सातत्य नहीं
रहा।
जैसे
समझें कि
महावीर की जिंदगी
में एक सातत्य
है। उनके पहले
तेईस
तीर्थंकर हो
गए उस परंपरा
के,
उस
व्यवस्था के,
जिसके
महावीर
चौबीसवें हैं।
उनके पास तेईस
कड़ियां हैं
आगे। और जो
तेईसवा आदमी
है, वह
बहुत करीब है।
महावीर से ढाई
सौ वर्ष पहले
गुजरा है। जो
पहला आदमी है
वह तो बहुत
दूर है, लेकिन
तेईस आदमी हैं
बीच में, और
वे सब एक—दूसरे
के पास हैं।
और महावीर के
पहले जो आदमी
गया है उस
किनारे..।
अब
तुम्हें यह
जानकर हैरानी
होगी कि
तीर्थंकर का
क्या मतलब
होता है।
तीर्थ का मतलब
होता है घाट।
और तीर्थंकर
का मतलब होता
है जो इसी घाट
से पहले उतरा, और
कोई मतलब नहीं
होता। तीर्थ
का मतलब होता
है घाट। इसी
घाट से जो
इसके पहले
उतरा है.. इस
घाट से तेईस
तीर्थंकर
पहले उतर चुके।
उनकी एक
सुसंबद्ध
व्यवस्था है।
उस लोक में
बोली जाने
वाली भाषा और
प्रतीक और सूचनाएं
और संकेत सब
सुरक्षित हैं।
यह चौबीसवा
आदमी किनारे
पर खडे होकर
उन तेईस के
द्वारा आए हुए
संदेश को सुन
पाता है, समझ
पाता है, पकड़
पाता है।
आज
जैनों में एक
आदमी भी नहीं
है जो उस
परंपरा के एक
शब्द को भी
पकड़ ले। आज
महावीर को मरे
हुए पच्चीस सौ
साल हो गए। इन
पच्चीस सौ साल
में एक गैप है
भारी कि अगर
महावीर
चिल्लाएं
वहां से, तो भी
इस किनारे पर
कोई आदमी उस
भाषा को समझने
को नहीं है।
पच्चीस सौ साल
में सारी भाषा
बदल गई, संकेत
बदल गए। और उस
जगत के
संकेतों का
कोई सिलसिला
नहीं रहा।
किताबें हैं,
जिनको जैन
साधु बैठकर
पढ़ते रहते हैं
और उन्हें कुछ
पता नहीं कि
और क्या हो
सकता है। और
उनकी पच्चीस
सौवीं जन्म—तिथि
मनाने की
तैयारी
करेंगे, शोरगुल
मचाएंगे, झंडे
निकालेंगे, जय महावीर
करेंगे। तो
महावीर की
आवाज को पकडने
की उनके पास
अब कोई
व्यवस्था
नहीं रह गई है।
और एक भी आदमी
तैयार नहीं है
जो पकड़ ले।
जैनों के पास
नहीं है, इतर
जैनियों के
पास हो भी
सकता है।
ठीक
ऐसे ही
हिंदुओं के
पास एक
व्यवस्था थी, ठीक
ऐसे ही
बौद्धों के
पास भी एक
व्यवस्था थी।
लेकिन
रामकृष्ण के
वक्त तक कोई
व्यवस्था नहीं
रही। और
रामकृष्ण के
पास कोई सूत्र
नहीं था कि उस
पार की आवाज
के कारण
किनारे पर वे
रुके। इसलिए
एक ही उपाय था
कि इसी किनारे
पर खीली
ठोंककर रुक
जाएं, और
तो कोई उपाय
नहीं था। उस
तरफ से किसी
दबाव का पता
नहीं चलता था।
इस
दुनिया में दो
तरह के लोगों
ने काम किया
है अध्यात्म
का। एक तो वे
लोग हैं
जिन्होंने
श्रृंखलाबद्ध
काम किया। वह
हजारों साल तक
उनकी
श्रृंखला काम
करती रही।
जैसे बुद्ध का
चौबीसवा
व्यक्ति अभी
भी पैदा होने
को है। अभी
बुद्ध का एक
व्यक्तित्व
और पैदा होने
को है। अभी भी
बौद्ध भिक्षु
सारी दुनिया
में उसकी प्रतीक्षा
कर रहे हैं, अनंत—
अनंत रूपों
में उसकी
आकांक्षा और
प्रतीक्षा की
जा रही है कि
एक बार और पकड़ा
जा सके। लेकिन
जैनों के पास
नहीं है।
हिंदुओं
के पास भी एक
खयाल है कल्कि
का। वह अभी
उतरने को है
एक व्यक्ति।
मगर फिर भी
साफ—सूत्र
नहीं हैं कि
उसे कैसे
बुलाया जाए, कैसे
पकड़ा जाए, कैसे
पहचाना जाए।
उसके पहचानने
का भी उपाय
नहीं है।
अब
यह जानकर तुम
हैरान होगे कि
जैनों के तेईस
तीर्थंकर
सारे सूत्र
छोड़ गए थे कि
जब चौबीसवा आए, तो
तुम कैसे
पहचानोगे। सब
सूत्र थे
उपलब्ध। उस
चौबीसवें में
क्या—क्या
लक्षण होंगे,
उसके हाथ की
रेखाएं कैसी
होंगी, उसके
पैर का चक्र
क्या होगा, उसकी आंखें
कैसी होंगी, उसके हृदय
पर क्या चिह्न
होगा, उसकी
ऊंचाई कितनी
होगी, उसकी
उम्र कितनी
होगी। चुकता
बातें तय थीं।
उस आदमी को
पहचानने में
दिक्कत नहीं
लगी।
महावीर
के वक्त में
आठ आदमियों ने
दावा किया था
कि हम
तीर्थंकर हैं, क्योंकि
वक्त आ गया था,
घड़ी आ गई थी
और दावेदार आठ
हैं। अंततः
महावीर
स्वीकृत हो गए,
वे सात लोग
छोड़ दिए गए।
क्योंकि
प्रतीक सिर्फ
इस आदमी पर
पूरे हुए।
लेकिन
रामकृष्ण तक
ऐसी कोई
व्यवस्था
नहीं थी, न
कोई पहचानने
का उपाय था।
अब
बडी कनफ्यूज्ड
हालत है।
आध्यात्मिक
अर्थों में आज
दुनिया की
हालत बहुत
अजीब है। और
इस अजीब हालत
में अब इसके
सिवा कोई उपाय
नहीं है आज कि
इसी किनारे पर
कोई खूंटी
ठोंक कर रुका
रहे। उस तरफ
से कोई आवाज
नहीं आती, आती
भी है तो समझ
में नहीं पड़ती,
समझ में भी
पड़ जाती है तो
भी उसका राज
खोजना मुश्किल
हो जाता है कि
उसका राज क्या
है। अब सारी
कठिनाई क्या
है कि उस लोक
से इस लोक तक
खबर पहुंचाना सिबालिक
ही हो सकता है,
सांकेतिक
ही हो सकता है।
अब
शायद तुम्हें
पता न हो कि
पिछले सौ
वर्षों से इस
बात का
वैज्ञानिकों
को पता है कि
कम से कम पचास
हजार
पृथ्वियां
होनी चाहिए
सारे विश्व
में जहां जीवन
होगा, और जहां
मनुष्य या
मनुष्य से भी
ज्यादा
विकसित चेतना
के प्राणी
होंगे। लेकिन
उनसे चर्चा
कैसे की जाए? उनको संकेत
कैसे भेजे
जाएं? और
कौन—सा संकेत
वे समझ सकेंगे।
बड़ी कठिन बात
है न! कैसे
समझेंगे।
तिरंगा झंडा
देखकर
हिंदुस्तानी
समझ लेता है कि
अपना झंडा
फहराया जा रहा
है। लेकिन
तिरंगा झंडा
देखकर वे तो
कुछ न समझेंगे।
और तिरंगा
झंडा भी उन तक
कैसे फहराया
जाए कि उन्हें
दिखाई पड़ जाए।
तो इस संबंध
में इतने अजीब—
अजीब प्रयोग
किए गए, जो
कि कल्पना के
भी बाहर हैं।
एक
आदमी ने कई
मील लंबा
त्रिकोण
बनाया साइबेरिया
में,
ट्रायंगल
बनाया। और
उसमें पीले
फूल बोए मीलों
लंबे। और उसको
विशेष
प्रकाशों से
प्रकाशित
किया।
क्योंकि
ट्रायंगल
किसी भी
पृथ्वी पर
होगा, तो
ट्रायंगल ही
होगा।
ट्रायंगल के
तीन ही कोण
होंगे। कहीं
भी आदमी हो या
आदमी से ऊंचा
प्राणी हो, कुछ भी हो, ज्यामेट्री
के जो फिगर
हैं, उनमें
भेद नहीं पड़ेगा।
इसलिए
ज्यामेट्री
के द्वारा
शायद हमारा
कोई संबंध बन
जाए। शायद
इतने बड़े
ट्रायंगल को
देख सके किसी
ग्रह से कोई
और सोच सके कि
जरूर इतना बड़ा
ट्रायंगल अपने
आप नहीं बन
सकता—स्व। और
ट्रायंगल है,
तो
ज्यामेट्री
का पता करने
वाले लोग
होंगे—दो। ऐसा
अंदाज करके
बड़ी मेहनत की
गई बहुत दिनों
तक। पर कोई
सूचना न मिल
सकी, कोई
खबर न आई कि
कोई समझा कि
नहीं समझा।
फिर अब बहुत—से
राडार लगाकर
रखे गए हैं कि
शायद वे कोई
संकेत भेजते
हों, तो हम
संकेत पकड़ लें।
कुछ संकेत कभी—कभी
पकड़ में भी
आते हैं, लेकिन
उनका राज नहीं
खुलता।
जैसे, फ्लाइंग
साँसर की बात
सुनी होगी।
पृथ्वी पर
बहुत जगह, बहुत
लोगों ने उसे
देखा है कि
कोई चीज
विद्युत की
चमक की तरह
घूमती हुई, छोटी तश्तरी
की भांति
चक्कर लेती
हुई दिखाई
पड़ती है और
विदा हो जाती
है। वह बहुत
जगह, बहुत
क्षणों में
देखी गई है।
और कभी—कभी तो
एक ही रात में
पृथ्वी पर
बहुत जगह देखी
गई है। लेकिन
अभी तक उसका
राज नहीं खुल
पाया कि वह क्या
है? कौन
उसे भेजता है?
क्यों वह
आती है? क्यों
विदा हो जाती
है?
इस
बात की बहुत
संभावना है कि
किसी दूसरे
ग्रह के लोग
भी पृथ्वी तक
संकेत भेजने
की कोशिश कर रहे
हैं जिनको हम
नहीं समझ पा
रहे हैं। जब
नहीं समझ पाते, तो
हममें से कुछ
हैं जो कहते
हैं कि झूठी
है यह बात। यह
फ्लाइंग सॉसर
वगैरह सब गप—शप
है। कुछ हैं, जो कहते हैं
कि आंखों का
भ्रम हो गया
होगा। कुछ हैं,
जो कहते हैं
कि कुछ और
नहीं हुआ होगा,
कुछ
प्राकृतिक
घटना होगी।
लेकिन अभी
क्या होगा, यह कुछ साफ
नहीं हो पाता।
बहुत थोड़े लोग
हैं, जिनको
इतना भी खयाल
है, जो
कहते हैं कि
किसी दूसरे
ग्रह के
वासियों का
निमंत्रण है,
कोई सूचना,
कोई खबर
होगी।
मगर
यह तो फिर भी
आसान है।
क्योंकि
दूसरे ग्रह पर
जो जीवन है और
इस ग्रह का जो
जीवन है, इन
जीवन के बीच
उतना फासला
नहीं है, जितना
फासला उस लोक
में गई आत्मा
और इस लोक की आत्माओं
के बीच हो
जाता है। वह
फासला और भी
बड़ा है। वहां
से भेजे गए
संकेत पकड़ में
नहीं आते। आ
जाएं तो समझ
में नहीं आते,
राज नहीं
खुलता।
तो
रामकृष्ण
जैसे
व्यक्तियों
को इस सदी में.. इस
सदी में पूरी
पृथ्वी पर इन
पिछले दो सौ
वर्षों में, दो
सौ वर्ष भी
कहना ठीक नहीं,
असल में
मुहम्मद के
बाद बड़ी
कठिनाई हो गई
है। बड़ी
कठिनाई हो गई
है चौदह सौ वर्षों
से। नानक ने
इस कठिनाई को
देखकर एक नया
ही इंतजाम किया
फिर से। बात
ही छोड़ दी
पिछली
परंपराओं की
और एक नई दस आदमियों
की परंपरा खडी
की। लेकिन वह
भी खो गई। और
बहुत जल्दी खो
गई, वह
ज्यादा देर चल
नहीं पाई।
अब
तो व्यक्तिगत
साधक रह गए
हैं जगत में, जिनके
पास श्रृंखलाबद्ध
व्यवस्था
नहीं है। तो
व्यक्तिगत
साधक को तो
शरीर की ही
खूंटी से उपाय
करना पडे। और
पांचवें शरीर
के पहले तो
शरीर की खूंटी
के सिवाय कोई
उपाय नहीं
होता।
पांचवें शरीर
के बाद बाहर
के संकेत काम
कर सकते हैं, बाहर का
दबाव काम कर
सकता है।
लेकिन अगर
बाहर से संकेत
न मिलता हो, तो सातवें
शरीर के
व्यक्ति को भी
पांच शरीर के
नीचे की खूंटी
का ही काम
करना पड़ेगा, उसका ही
उपयोग करना
पड़ेगा, उसके
सिवाय कोई
उपाय नहीं रह
जाता।
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