प्यारे
ओशो!
छांदोग्य
उपनिषद् में
एक सूत्र इस
प्रकार है :
न
पश्यो मृत्यु
पश्यति न रोग
नोत दुखताम्।
सर्वं
ह पश्य: पश्यति
सर्वमाभोति सर्वश
इति।।
अर्थात्
ज्ञानी न
मृत्यु को
देखता है, न
रोग को और न
दुख को;
वह सबको
आत्मरूप
देखता है। और
सब कुछ
प्राप्त कर
लेता है।
प्यारे
ओशो! आप तो
गवाह हैं,
क्या सच ही
बुद्धपुरुष
को मृत्यु, रोग
और दुख में भी
आत्मरूप
ही दिखाई पड़ता
है?
इस सूत्र
पर हमें
दिशाबोध देने
की कृपा करें।
सहजानंद!
संबोधि का
अर्थ है
अहंकार का मिट
जाना—मैं— भाव
की समाप्ति, अस्मिता
का अंत। और
जहां मैं नहीं
है, वहां
सवाल नही उठता
मृत्यु का।
मैं की ही
मृत्यु होती
है।
अहंकार ही
मरता है।
क्योंकि
अहंकार ऐसे है
जैसे ताशों से
बनाया घर। जरा—सा
हवा का झोंका
आया और गिरा।
झूठा है; अब
गिरा, तब
गिरा; गिरकर
ही रहेगा—काल्पनिक
है, स्वप्नवत्
है—टूटेगा ही।
कितनी देर
खींचोगे? कितनी
देर अपने को
समझाओगे, भुलाओगे?
जरा—सी चोट
में बिखर
जाएगा।
अहंकार चूंकि
असत्य है, इसलिए
मृत्यु भी
असत्य है। अगर
मैं नहीं हूं
तो कौन मरेगा?
कैसे मरेगा?
मरने के लिए
होना जरूरी है।
इसलिए बुद्ध
ने समाधि की
परमदशा को
निर्वाण कहा
है।
निर्वाण
शब्द का अर्थ
बड़ा प्यारा है—अनूठा
भी,
अकल्पनीय
भी। निर्वाण
का अर्थ है :
दीये का बुझ
जाना।
साधारणत: तो
सूझ—बूझ में
नहीं आएगा कि
दीये का बुझ
जाना या दीये
का जल जाना? क्योंकि
साधारणत: हम
सोचते हैं कि
उस परमदशा में
दीया जल जाएगा।
और बुद्ध कहते
हैं : उस
परमदशा में
दीया बुझ जाएगा!
निर्वाण का
शाब्दिक अर्थ
होता है : दीये
का बुझ जाना; दीये का अंत।
यहां दीये से
अर्थ है :
तुम्हारे
अहंकार की टिमटिमाती
ली और धुआं।
तेल चुक जाएगा,
दीया बुझ
जाएगा। जब तक
तेल है, तब
तक जलता रहेगा।
जब तक बाती है,
तब तक धोखा
बना रहेगा।
मगर
क्षणभंगुर है।
क्योंकि तेल
चुकेगा ही, उसकी सीमा
है। और बाती
जलेगी, उसकी
भी सीमा है।
और बाती और
तेल पर जो
निर्भर है, वह कितनी
देर
टिकनेवाला है?
जो
क्षणभंगुर पर
निर्भर है, वह स्वयं भी
क्षणभंगुर ही
होगा इसलिए
बुद्ध कहते
हैं : दीये का बुझ
जाना।
लेकिन
यह एक हिस्सा
है। यह पहला
पहलू है। यह
यात्रा का आधा
अंग है। जिस
दिन तुम्हारे
मैं का दीया
बुझ जाता है, तो
ऐसा नहीं कि
अंधकार हो
जाता है।
उल्टी ही घटना
घटती है। उस
घटना को समझने
के लिए
रवीन्द्रनाथ
ठाकुर के जीवन
में उल्लिखित
यह संस्मरण
उपयोगी होगा
वे
अकसर ही पजा
नदी पर अपने
बजरे में रहने
चले जाते थे।
छोटा—सा बजरा
था। और पचा की
शात,
किसी एकांत
स्थली पर वे
बजरे को टिका
रखते थे। उनका
श्रेष्ठतम
काव्य है, उस
बजरे पर ही
पैदा हुआ है।
एक रात ऐसा
हुआ—पूर्णिमा
की रात थी, आकाश
पूरे चांद की
रोशनी से भरा
था, पृथ्वी
भी जगमगाती थी,
पत्ते—पत्ते
पर रौनक थी, पचा की लहर—लहर
पर चांदी थी, और वे अपने
बजरे के छोटे—से
झोपड़े में
द्वार—दरवाजे
बंद किये एक
मिट्टी का
दीया जलाए हुए
पश्चिम के एक
बहुत बड़े
विचारक
सौन्दर्यशास्त्री
क्रोशे की
किताब पढ़ रहे
थे सौन्दर्य
के ऊपर, कि
सौन्दर्य
क्या है? सौन्दर्य
झर रहा था
बाहर, बरस
रहा था, कण—कण
पर नाच रहा था;
आकाश में था,
पृथ्वी में
था, झील
में था, वृक्षों
पर था, दूर
कोई कोयल
कूकती थी
अमराई में, लेकिन वे इस
सबसे बेखबर
अपनी किताब
में आंखें
गड़ाए—क्योंकि
दीये की रोशनी
बहुत ज्यादा न
थी; और रवीन्द्रनाथ
के भी हो गये
थे, आखों
को बहुत सूझता
भी न था— किसी
तरह पढ़ने की
कोशिश कर रहे
थे क्रोशे को।
और क्रोशे
विचार कर रहा
था कि
सौन्दर्य
क्या है।......
जैसे कि
सौन्दर्य पर विचार
किया जा सकता
है! सौन्दर्य
अनुभूति है, विचार क्या
खाक करोगे!
विचार करके तो
तुम सौन्दर्य
को पाओगे नहीं।
जितना
विश्लेषण
करोगे, उतना
ही खो जाएगा।
जितना मुट्ठी
बाधोगे, उतना
ही पाओगे हाथ
खाली हैं।
विश्लेषण
करके किसने कब
सौन्दर्य को
जाना है? प्रश्न
उठाया तुमने
कि सौन्दर्य
क्या है, कि
समझ लेना कि
तुम्हें
सौन्दर्य का
कभी भी पता न
चलेगा। सौन्दर्य
जीआ जाता है, अनुभव किया
जाता है। ही, गाओ, नाचो;
वीणा बजाओ;
फूल के साथ
एकात्म हो जाओ,
या चांद—तारों
के लोक में खो
जाओ; इस
विस्मृति में
शायद थीड़ी
बूंदा—बांदी
हो जाए थीड़े
भीग जाओ, आर्द्र
हो जाओ! शायद
तुम्हारे
भीतर
सौन्दर्य की थीड़ी—सी
झलक, थीड़ी—सी
पुलक उठे!
शायद
तुम्हारे
रोओं में थीड़ा—सा
कंपन हो, हलन—चलन
हो! शायद
तुम्हारा
हृदय बजे, निनादित
हो! कोई झरना
शायद भीतर
फूटे! मगर विचार
से नहीं, निर्विचार
से। मन से
नहीं, मौन
से।......
क्रोशे
की किताब पढ़ते—पढ़ते
आधी रात हो
गयी।
सौन्दर्य
क्या है, यह तो
कुछ समझ आया
नहीं—रवीन्द्रनाथ
जैसे व्यक्ति
को, जिसे
कि सौन्दर्य
की बहुत—सी अनुभूतियां
थीं, उसे
भी समझ में न
आया। वरन
उल्टी बात हुई।
जितना क्रोशे
को पढ़ा उतना
ही जो पहले भी
समझ में आता
था कि
सौन्दर्य
क्या है, वह
भी
अस्तत्व्यस्त
हो गया; उस
पर भी संदेह
उठ खड़े हुए।
विचार संदहों
को जन्म देता
है—निर्विचार
अनुभूति को।
समाधि में
समाधान है।
विचार में तो
समस्याएं ही
समस्याएं हैं।.......
थककर—आंखें भी
थक गयी हैं—उन्होंने
दीये को
फूंककर बुझा
दिया और किताब
बंद की। और तब,
उन्होंने
अपनी डायरी
में लिखा है—थीड़े—से
शब्द, लेकिन
अति
महत्त्वपूर्ण;
हीरे—जवाहरातों
से भी तोलो तो
वजनी—लिखा है
कि जैसे ही
मैंने दीया
बुझाया और
किताब बंद की,
मैं चकित हो
गया, क्षणभर
को भरोसा न
आया, अवाक
रह गया, ठिठक
गया, रंध्र—रंध्र
से, दरवाजे
की संध से, खिड़की
की संध से
चांद का
प्रकाश भीतर
चला आया। चांद
भीतर नाचने
लगा। यह मेरा
छोटा—सा दीया,
इसकी
टिमटिमाती यह
धुंधली—सी
रोशनी, यह
धुंए से भरी
रोशनी—जों
बहुत रोशनी न
थी—यह पीली—सी
रुग्ण, बीमार,
ज्वरग्रस्त
रोशनी चांद की,
उज्ज्वल
चांद की
अपूर्व छटा को
बाहर अटकाए हुए
थी, भीतर न
आने देती थी!
इधर दीया बुझा,
उधर चांद
भीतर आया।
दीये का बुझना
आधा हिस्सा और
चांद का भीतर
आ जाना दूसरा
हिस्सा।
फिर
उन्होंने
द्वार खोल
दिये। जब
रंध्र—रंध्र
से इतना आ रहा
है,
तो द्वार
खोल दिये, खिड़कियां
खोल दीं। क्षण
में जैसे क्रांति
हो गयी। एक
जादू! वे बाहर
निकल आए। जब
भीतर इतना है
तो बाहर कितना
न होगा! और बाहर
अपूर्व का थी।
ऐसी सुंदर रात,
ऐसी प्यारी
रात, ऐसे
सन्नाटे से
भरी रात; दूर
कोयल की कुहू—कुहू
और पद्या की
लहरों पर
तैरती हुई
चांद की चांदी,
मन ठहर गया।
मन को गति न
रही। जैसे
समाधि लग गयी।
कितना समय
बीता, कुछ
याद ही न रहा।
जैसे समय मिट
गया। जैसे घड़ी
ठहर गयी। और
तब उन्होंने
लिखा है कि जो
मैं शास्त्र
में खोज रहा
था, वह
बाहर बरस रहा
था। मैं
शास्त्र में
अटका था, सो
उसे नहीं देख
पा रहा था जो
मौजूद था। मैं
शब्दों में
उलझा था और
सत्य द्वार पर
दस्तक दे रहा
था। लेकिन
मुझे फुर्सत कहां
थी? मैं
होश में कहा
था? मैं तो
ऊहापोह में
पड़ा था। उस
धीमी—सी दस्तक
को सुने तो
कौन सुने? उस
चांद की
गुफ्तगू को
सुने तो कौन
सुने? वह
चांद तो पुकार
रहा था, निमंत्रण
दे रहा था, कि
खोलो द्वार, खोलो
खिडकियां, कि
मैं आया हूं
अतिथि की तरह,
लो मुझे
भीतर। मगर
भीतर तो हजार—हजार
विचार दौड़ रहे
थे। उस शोरगुल
में कहां कोयल;
उस शोरगुल
में कहां चांद,
कहां नदी!
और फिर वह
दीये की
टिमटिमाती, पीली—सी, ज्वरग्रस्त
रोशनी अटकाए
थी चांद को।
दीया बुझा—दीया
निर्वाण को
उपलब्ध हुआ—और
चांद भीतर चला
आया। और चांद
भीतर आया तो
रवीन्द्रनाथ
बाहर आ गये।
ठीक
बुद्ध ने इसी
अर्थों में
निर्वाण कहा
है। अहंकार का
टिमटिमाता
दिया बुझ जाए, तो
यह सारा आकाश
तुम्हारा है।
ये सारे चांद—तारे
तुम्हारे हैं।
तुम नहीं हो
तो सब
तुम्हारा है।
इस
विरोधाभास को
ठीक से समझ
लेना, क्योंकि
इसमें ही सारे
धर्म का राज, सारी
अनुभूतियों
का निचोड़ है।
जैसे कोई हजार—हजार
गुलाब के
फूलों को
निचोड़कर इत्र
बनाए, ऐसा
इसमें सारा
निचोड़ है
रहस्यवादियों
का, ऋषियों
का।
छांदोग्य
का यह सूत्र
गहरा है, बहुत
गहरा है।
अहंकार मिट
जाए, तुम न
रहो, तो सब
तुम्हारा है।
तुम न रहे, तो
कुछ पराया न
रहा। यह मैं
ही है जो तू को
खड़ा कर देता
है। यह मैं ही
है जो विभाजित
कर देता है।
यह मैं का
विभाजन गिर
गया, यह
रेखा हट गयी, तो आंगन
मिटकर आकाश हो
जाता है। आंगन
के चारों तरफ
तुमने जो
दीवाल खींच
रखी है, उसे
गिरा दो, तो
तुम्हारा आंगन
आकाश है।
न पश्यो
मृत्यु......
ज्ञानी
को मृत्यु
दिखाई ही नहीं
पड़ती। ज्ञानी
मृत्यु को
जानता ही नहीं।
ज्ञानी मरता
ही नहीं।
क्योंकि जो
चीज मर सकती
थी,
उसे ज्ञानी
ने पहले ही मर
जाने दिया।
अहंकार मर
सकता था। जो
नहीं था, वही
मर सकता था, जो है, वह
तो सदा है। जो
है, वह 'नहीं'
नहीं होता,
और जो नहीं
है, तुम
लाख उपाय करो,
वह 'है' नहीं होता।
ही, थीड़ी—बहुत
देर को अपने
को भरमा सकते
हो, धोखे
में डाल दे
सकते हो, आत्मवचना
कर सकते हो, मगर कितनी
देर करोगे? आज नहीं कल, कल नहीं
परसों, इस
जनम में नहीं
अगले जनम में,
कभी—न—कभी
इस सत्य को
जानना ही होगा
कि अहंकार ही
है जो मृत्यु
को लाता है।
झूठ ही मरता
है। सत्य तो
अमृत है। झूठ
ही हारता है।
सत्य तो सदा
जीतता है।
सत्यमेव जयते।
झूठ ही डरता
है। सत्य तो
हर चुनौती को
स्वीकार कर
लेता है। सत्य
को भय क्या?
सुकरात
मर रहा था।
उसे जहर देकर
मारा जा रहा
था। कसूर क्या
था?
कसूर यह था
उसका कि वह
सत्य की बातें
करने लगा था। और
सत्य की बातें
छो के सौदागर
पसंद नहीं
करते। और यहां
झूठों के
सौदागर बहुत
हैं। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे,
गिरजे खो के
सौदागरों से
भरे पड़े हैं।
मगर उनकी झूठे
पुरानी हैं।
इतनी पुरानी
हैं कि उनकी
बड़ी साख हो
गयी है। यहां
तो पुराने का
बड़ा मूल्य है!
जितना सड़ा—गला
हो, उतना
मूल्यवान
समझा जाता है!
जितना मुर्दा
हो, अस्थि—पंजर
रह गया हो, उतना
ही बहुमूल्य
है! और सुकरात
सत्य की बातें
करने लगा।
पंडित, पुरोहित,
राजनेता, सभी खिन्न
हो उठे।
सुकरात
को सजा दी गयी
जहर से मार
डालने की।
सुकरात के एक
शिष्य क्रेटो
ने उससे मरने
के पहले पूछा.......
वह वार्तालाप
अनूठा है!......
क्रेटो ने
पूछा, आप हमें
यह तो बता दें
कि मरने के
बाद हम आपका अंतिम—संस्कार
कैसे करें? इस संबंध
में आपने कभी
कोई संकेत
नहीं दिया। आप
चाहेंगे कि हम
आपको गड़ाएं, जलाए, नदी
में बहाए? पारसियों
की तरह आपकी
देह को पशु—पक्षियों
के खाने के
लिए छोड़ दें? कि पूर्वी
लोगों की तरह
अग्नि—संस्कार
करें? या
पश्चिम की
प्रचलित धारा
के अनुसार
आपको मिट्टी
में दबाएं? या कुछ
जातियों के
रिवाज के
अनुसार आपको
सागर मैं
विसर्जित कर
दें? हम
क्या करें?
सुकरात
हंसने लगा। और
उसने कहा, पागलो,
वे सोचते
हैं कि मुझे
मार रहे हैं
और तुम सोचते
हो कि तुम
मुझे गड़ाओगे,
कि तुम मुझे
जलाओगे!
दुश्मन सोचता
है मुझे मार
रहा है और
दोस्त विचार
कर रहे हैं कि
मर जाने के
बाद गड़ाना है
कि जलाना है, मगर तुम
दोनों का
भरोसा मौत में
है। तुम दोनों
मौत को मानते
हो, और मैं
मौत को नहीं
मानता। मुझे
मौत दिखाई
नहीं पड़ती। और,
क्रेटो, मैं
तुझसे कहता
हूं कि मुझे
मारनेवाले और
मुझे
गड़ानेवाले, तुम दोनों
के बाद भी मैं
जिंदा रहूंगा।
तुम्हारी याद
ही सिर्फ
इसलिए की
जाएगी कि किसी
तरह तुम एक
जिंदा आदमी से
संबंधित थे।
और
बात सच है।
केटो को किसने
याद रखा होता? यह
नाम सिर्फ
इसलिए याद है,
आज पच्चीस
सौ साल बाद इस
नाम को मैं
तुम्हारे सामने
उल्लिखित कर
रहा हूं सिर्फ
इस कारण कि क्रेटो
सुकरात से
संयुक्त हो
गया था; तो
क्रेटो का नाम
तक पच्चीस सौ
साल जी गया।
जब तक सुकरात
का जीएगा, केटो
का भी जीएगा।
और सुकरात ने
यह कहा था
उससे कि तुम
सब मरोगे, फिर
भी मैं रहूंगा।
क्योंकि जो
मेरे भीतर मर
सकता था, कभी
का मर चुका है।
इसीलिए तो
मृत्यु को मैं
इतने आनंद से
अंगीकार कर
रहा हूं।
अदालत
ने पूछा भी था—अदालत
को दया भी आयी
थी;
न्यायाधीश थीड़ा
अपराध भी
अनुभव किया
होगा, चूंकि
सुकरात जैसे
प्यारे आदमी
को जहर देकर
मार डालना
अन्याय तो था!
मगर
न्यायाधाशि
भी क्या करे, जूरियों का
बड़ा वर्ग
मारने के पक्ष
में था। एथेंस
मारने
के पक्ष में
था। धनपति, राजनेता,
धर्मगुरु, सब मारने के
पक्ष में थे।
और न्यायाधीश
उनके विपरीत
नहीं जा सकता
था। जाता तो
उसकी खुद की
मौत होती, वह
खुद मुश्किल
में पड़ता। फिर
भी उसने बचाने
का उपाय किया
था। उसने
सुकरात से कहा
था, तुम
अगर एथेंस का
नगर छोड्कर
चले जाओ और
फिर वचन दो कि
कभी एथेंस
नहीं आओगे, तो—बडी
दुनिया है, तुम्हें
जहां रहना हो
रहो—मैं
तुम्हें मरने
की सजा से बचा
सकता हूं।
सुकरात
ने कहा : क्या
तुम सोचते हो
तुम मुझे मरने
से बचा सकोगे? आज
नहीं मरूंगा,
कल नहीं
मरूंगा तो
परसों मरूंगा,
एथेंस में
नहीं मरूंगा
तो कहीं और
मरूंगा; जब
मरना ही है तो
क्या आपाधापी!
फिर क्यों छोड्कर
एथेंस जाऊं? एथेंस छोड़कर
जाने का मतलब
तो यह होगा कि
मैं अभी भी
भरोसा करता था
अपने अहंकार में
: जितनी देर
बचा लूं! क्या
फर्क पड़ता है!
मौत निश्चित
है; कब
आएगी, कुछ
भेद नहीं पडता।
तुम चिंता न
करो। और तुम
अपराध भाव
अनुभव न करो।
तुम सजा दो।
मैं कहीं
जानेवाला
नहीं हूं।
मरने के बाद
भी कहीं
जानेवाला
नहीं हूं।
.मरने के बाद
भी यहीं
रहूंगा।
यही
रमण महर्षि ने
कहा था। मरते
समय एक शिष्य
ने पूछा कि
क्या आपसे
पूछूं कि मरने
कै बाद आप
कहां होंगे? रमण
ने कहा, यहीं
होऊंगा। और
कहां होऊंगा?
मरने के
पहले यहां हूं
जन्म के पहले यहां
था, मरने
के बाद भी
यहीं होऊंगा।
जाना कहां है?
आना कहां है? ....... इसको
कहते हैं
आवागमन से
छुटकारा! इस
बोध का नाम है
आवागमन से
छुटकारा! कि न
कुछ मरता है, न कुछ
जन्मता है, तुम्हारा जो
वास्तविक
स्वरूप है वह
शाश्वत है—नित्य
है, समयातीत
है। सदा से
हैं और सदा
रहेगा। और
जैसा है वैसा.
ही है। हां, तुमने कुछ
झूठे घर—पूले
रेत के अपने
आसपास बना
लिये होंगे, तो वे जरूर
गिरेंगे। वे
ही मरते हैं'।
न्यायाधीश
ने फिर भी
चेष्टा की कि
ठीक,
तुम्हें
एथेंस में
रहना है तो
एथेंस में रही,
लेकिन इतना
वचन दें दो कि
अब तुम सत्य
की जो बातें
करते रहे? न
करोगे। तो भी
मैं तुम्हें
छोड़ दे सकता
हूं। क्योंकि
लोगों को
तुमसे एतराज
नहीं है, तुम्हारी
बातों से
एतराज है। अगर
तुम भरोसा
दिला दो, तो
हमें
तुम्हारे
भरोसे पर
भरोसा है। हम
मान सकते है
कि तुम कहोगे
तो अपने वचन
को पूरा करोगे।
तुम वचनबद्ध व्यक्ति
हो। तुम्हारे
दुश्मन भी यह
मानते हैं। तुम
इतना कह दो कि
अब तुम जिन
बातों को सत्य
कहते हो, उनको
नहीं कहोगे।
तुम चुप रहो।
तुम शिक्षण
देना बंद कर
दो।
—सुकरात ने
कहा. फिर जीने
का सार क्या? मैं तो जी ही इसलिए
रहा हूं —मेरा
काम तो पूरा
हो चुका; मेरा
काम तो कभी का
पूरा हो चुका;
जिस दिन
मैंने जान
लिया है अपने
को उसी दिन
मेरा काम पूरा
हो चुका; अब
तो मैं इसलिए
जो रहा हूं कि
कुछ और लोगों
को जगा सकूं।
मैं तो जाग
गया, जो
लोग अभी सोए
हैं और सपनों
मैं खोए हैं, उनको झकझोर
सकू, और
जगा सकूं। और
मैं जानता हूं
कि किसी की
नींद तुम
तोड़ोगे तो वह
नाराज होता
है! वह प्यारा
सपना देख रहा
है। हो सकता
है, सुंदर
सपना देख रहा
हो—और तुम उसे
झकझोरकर जगा
देते हो! पीड़ा
होती है। वह
नहीं चाहता
जागना। इसलिए
मैं कुछ एतराज
नहीं करता हूं
लोगों पर कि
क्यों मुझे
मार डालना
चाहते हैं। वे
भी ठीक हैं।
मगर मैं अपने
काम को बंद
नहीं करूंगा।
सत्य तो मेरा
जीयन है। मै
बोलूंगा तो
सत्य, चुप
रहूंगा तो
सत्य, उठूंगा
तो सत्य, बैठूंगा
तो सत्य। यह
वचन मैं नहीं
दे सकता हूं।
अगर सत्य ही
बोलना बंद
करना है तो
जहर पी लेने में
हर्ज क्या
न्यायाधीश
ने दो विकल्प
दिये थे, दोनों
सुकरात ने छोड़
दिये। छोड़ सका
सुकरात यह विकल्प
इसीलिए कि
भीतर अमृत को
जान लिया है।
जिसने अहंकार
छोड़ा, उसने
अमृत को जाना।
यह
सूत्र ठीक
कहता है : न
पश्यो
मृत्युं।
ज्ञानी को
मृत्यु है ही
नहीं, दिखाई
ही नहीं पड़ती,
अनुभव में
ही नहीं आती।
मरते क्षण मैं
भी ज्ञानी को
मृत्यु नहीं
दिखाईं पड़ती।
उसे तो स्वयं का
शाश्वत जीवन
ही दिखाई पड़ता
रहता है। उसे
तो भीतर का
चैतन्य ही
दिखाई पड़ सकता
है। देखता है
कि देह जा रही
है, मगर
देह मेरी थी
कब? देखता
है कि मन जा
रहा है, लेकिन
मन मेरा था कब?
देखता है कि
सांस बंद हुई
जा रही है, लेकिन
मैं सांस था
कब? देखता
है जल्दी ही
यह घर उजड़
जाएगा, मगर
मै घर तो था ही
नहीं। मैं तो मेहमान
था, अतिथि
था। और घर तो
घर भी न था, सराय
थी।
बहुत
अद्भुत सूफी
फकीर हुआ
इब्राहिम। वह
सम्राट था
बल्क और
बुखारा का। एक
रात अपने
बिस्तर पर
सोया था। और
जैसे कि
सम्राटों की
रात होती है, उसकी
भी रात थी, करवट
बदलनेवाली
रात। सो नहीं
पा रहा था।
परेशान हो रहा
था। करवट बदल
रहा था। नींद
का कोई पता न
था, दूर—दूर
तक कोई पता न
था। कोई
संभावना भी न
थी। पैरों की
कोई आहट भी न
थी। और तभी
उसने देखा, उसके छप्पर
पर कोई चल रहा
है। सोचा, निश्चित
कोई चोर है।
या कोई
हत्यारा है।
चिल्लाया. कौन
है? ऊपर से
आवाज आयी :
परेशान होने
की कोई जरूरत
नहीं। न मैं
कोई चोर हूं न
मैं कोई
हत्यारा हूं।
और आवाज कुछ
ऐसी बुलंद थी,
आवाज में
कुछ ऐसी बुलंद
थी, कुछ
ऐसा बल था, इब्राहिम
ठिठक रहा! तो
पूछा, फिर
तू कौन है? तो
आवाज आयी कि
मेरा ऊंट खो
गया है, मैं
उसे खोज रहा
हूं।
इब्राहिम ने
कहा, तू
पागल है! ऊंट
कहीं छप्परों
पर खोजें जाते
हैं? और वह
आदमी
खिलखिलाकर
हंसा, उसने
कहा, ही
मैं पागल हूं
और तू समझदार
है! तू आनंद
खोज रहा है
राजसिंहासनों
पर; तो
क्या कसूर है
मेरा अगर मैं
ऊंट खोजूं
छप्परों पर? नींद तक मिल
नहीं रही है
तुझे और आनंद
की तलाश कर
रहा है! पागल
मैं या पागल
तू? बात
ऐसी साफ थी, बात ऐसी
धारवाली थी, कि इब्राहिम
उठकर बैठ गया।
पहरेदारों को
बुलाया और कहा
कि इस आदमी को
खोजो! यह आदमी
कोई साधारण
आदमी नहीं है।
असल में जिस
आदमी की मैं
तलाश में था, उस तरह का
आदमी है। जो
मुझे जगा सकता
है, उस तरह
का आदमी है।
जो मुझे होश
दे सकता है।
क्या बात इसने
कही है!
मगर
वह आदमी दही
पकड़ा जा सका।
उसका कुछ पता
ही न चला।
दूसरे
दिन इब्राहिम
जब अपने दरबार
में बैठा था
और दरबार भरा
था तो फिर उसे
वही आवाज
सुनायी पड़ी—इस
बार दरवाजे पर।
द्वारपाल के
साथ वहीं आदमी
विवाद कर रहा
था। विवाद का
वही ढंग था, जो
रात इब्राहिम
के साथ था।
वही बुलंदगी,
वही बल, वही
कटार की धार—शब्द
नहीं, अंगारे;
और फिर भी
फूलों से
प्यारे। वह
आदमी कह रहा
था पहरेदार से
कि मुझे ठहरने
दो इस सराय
में, इस
धर्मशाला में।
और पहरेदार कह
रहा था कि
अपने शब्द
वापिस ले लो, यह कोई सराय
नहीं, यह
कोई धर्मशाला
नहीं, यह
सम्राट का
निजी महल है, निजी निवास
है। वह आदमी
खिलखिलाकर
हंसा। वह हंसी
वही थी, रात
की। इब्राहिम
उसे भूल नहीं
सकता था।
जिंदगीभर
नहीं भूल सकता
था और अभी तो
बात बड़ी ताजा
थी। अभी तो
रात ही यह
हंसी सुनी थी।
और वह आदमी
फिर
खिलखिलाया और
उसने कहा कि
मैं तुझसे
कहता हूं कि
यह सराय है, मुझे भीतर
जाने दे। मैं
सराय के उस
आदमी से मिलना
चाहता हूं
जिसको यह भ्रांति
है कि यह उसका
मकान है, निवास
है। यह कौन है,
इब्राहिम? इब्राहिम ने
फौरन आदमी
भेजा और पहरेदार
से कहा, रोको
मत, उसे
भीतर आने दो।
वह
आदमी भीतर आया।
इब्राहिम
ने कहा, मालूम
होता है
तुम्हारा
दिमाग खराब है,
यह मेरा
निजी घर है और
तुम उसे सराय
कह रहे हो, धर्मशाला
कह रहे हो!
तुम्हें डर भी
नहीं कि सम्राट
के महल को
धर्मशाला
कहोगे तो सजा
पाओगे! वह
आदमी कहने लगा,
धर्मशाला
है इसलिए
धर्मशाला कह
रहा हूं। कैसा
सम्राट? किसका
निवास? मैं
पहले भी आया
था, तब
मैंने इस
सिंहासन पर एक
दूसरे आदमी को
देखा था; तुम
इस पर कब बैठ
गये? इब्राहिम
ने कहा, वह
मेरे पिता थे।
और उसने कहा
कि मैं उसके
भी पहले आया
था और तब मैंने
एक तीसरे आदमी
को बैठे देखा
था। वह कौन था?
इब्राहिम
ने कहा, वे
मेरे पिता के
पिता थे। और
वह आदमी कहने
लगा, फिर
भी तुम इसे
अपना मकान कह
रहे हो! मैं
फिर आऊंगा और
तुम्हें नहीं
पाऊंगा। मैं
कहता हूं यह
धर्मशाला है,
यहां कई लोग
ठहरे और आये
और गये। यह
सराय है, मुझे
भी ठहर जाने
दो! तुम भी
ठहरे हो, मुझे
भी ठहर जाने
दो!
इब्राहिम
उसके चरणों
में गिर पड़ा, और
उसने कहा कि
तुम इस सराय
में ठहरो, मैं
चला! मगर
तुमने मेरा
जीवन धन्य कर
दिया! नहीं तो
मैं इसी सराय
में बर्बाद हो
जाता।
फिर
इब्राहिम बड़ा
प्रसिद्ध
सूफी फकीर हो
गया। वह बल्क
के बाहर ही, अपनी
राजधानी के
बाहर ही झोपड़ा
बनाकर रहता था।
और अकसर उसके
झोपड़े पर
उपद्रव हो
जाता था।
क्योंकि उसका
झोपडा एक
चौराहे पर था,
और वहां से
राहगीर आते तो
वे पूछते कि
बस्ती का
रास्ता कौन—सा?
तो वह बता
देता कि बायें
जाना; खयाल
रखना, बायें
जाना; दायें
मत जाना, अगर
दायें गये तो
मरघट पहुंच
जाओगे; बायें
गये तो बस्ती।
वे बेचारे
बायें जाते, और दों—चार
मील चलने के
बाद मरघट
पहुंच जाते।
वे लौटकर
गुस्से में
आते, कि
तुम आदमी पागल
हो या क्या हो?
इतना जोर
देकर तुमने
कहा बायें
जाना, बस्ती
बायें है, और
दायें मत जाना,
दायें मरघट
है—और हमने
पाया कि बायें
मरघट है!
इब्राहिम
कहता, तो
फिर हमारी—तुम्हारी
भाषा में भेद
है। क्योंकि
मरघट में जो
लोग बस गये
हैं वे उखड़ते नहीं
वहा से, इसलिए
उसको मैं
बस्ती कहता
हूं। और जिसको
तुम बस्ती
कहते हो, उसको
मरघट कहता हूं
क्योंकि वहां
जो भी बसे हैं,
वे आज मरे, कल मरे, परसों
मरे। वहां मौत
आने ही वाली
है। वहां सब
कतार बांधे
खड़े हैं मरने
को। क्यू, लगा
है। जिसका
नंबर आ जाए, वह मरता
जाता है। उसको
मैं मरघट कहता
हूं। और जिसको
तुम मरघट कहतो
हो, उसको
मैं बस्ती
कहता हूं
क्योंकि वहां
जो बस गया, उसको
तुमने कभी उजडूते
देखा! फिर उसे
तुमने कभी घर
बदलते देखा!
यह
शरीर एक सराय
है,
यह मन एक
सराय है, जिसने
'ऐसा जान
लिया, जिसने
ध्यान में ऐसा
अनुभव कर लिया,
जिसकी यह
प्रतीति गहरी
हो गयी कि मैं
शरीर नहीं हूं
मैं मन नहीं
हूं उसकी फिर
कोई मृत्यु नहीं
है। मैं गवाह
हूं। तुम ठीक कहते,
सहजानंद, कि भगवान आप
तो गवाह हैं, क्या सच ही
बुद्धपुरुष
को मृत्यु, रोग और दुख
में भी
आत्मरूप ही
दिखाई पड़ता है?
और कोई उपाय
ही नहीं है।
बुद्धपुरुष
का अर्थ होता
है : 'मैं ' मिट गया, 'मैं'
के साथ मिट
गया सारा
अंधकार, 'मैं'
के साथ मिट
गयी सारी
विक्षिप्तता,
'मैं' के
साथ मिट गयी
सारी
मूर्च्छा, निद्रा,
तंद्रा, होश
आया! और होश
में क्या पाया
कि मैं साक्षी
हूं—सिर्फ
साक्षी, सिर्फ
द्रष्टा।
शरीर को देख
रहा हूं जीवन
को देख रहा
हूं मृत्यु को
भी देखूंगा, लेकिन मेरा
न तो जीवन है, न मृत्यु है।
मैं दोनों के
पार हूं। इस
अतिक्रमण का
नाम ही
बुद्धत्व है।
जहां
और भी हैं
चांद—तारों के
पार
आस्मां
और भी हैं.......
अभी
इश्क के इप्तहां
और भी हैं
ये
आखिरी इप्तहां
है। इसके पार
फिर कोई
इप्तहा नहीं
है। शरीर के
साथ जुड़े हो, तो
अभी संसार में
हो। मन के साथ
जुड़े हो, तो
अभी विक्षिप्त
हो। शरीर और
मन से अपने को
पृथक जाना, पृथक जानते
ही अहंकार टूट
जाता है।
अहंकार है
तादात्म्य, शरीर और मन
के साथ। निरअहंकारिता
है तादात्म्य
का टूट जाना।
टूटने की
प्रक्रिया
बड़ी सीघी है—साक्षीभाव,
सिर्फ देखो!
बीमारी आए तो
बीमारी देखो।
और स्वास्थ्य
आए तो स्वास्थ्य
देखो। जब भूख
लगे तो भूख
देखो। और जब
पेट भर जाए तो
तृप्ति देखो।
जब प्यास लगे
तो प्यास देखो।
और जब कंठ
प्यास से
मुक्त हो जाए
तो उस मुक्ति को
देखो। मगर तुम
दोनों हालत
में
देखनेवाले हो।
न तुम प्यास
हो, न तुम
प्यास की
तृप्ति हो। न
तुम भूख हो, न तुम भोजन के
बाद हुई
तृप्ति हो।
तुम हर हाल
में सिर्फ
साक्षी हो।
क्रोध आए तो
क्रोध को देखो,
और करुणा आए
तो करुणा को
देखो। काम उठे
तो काम को
देखो, और
ब्रह्मचर्य
जगे तो
ब्रह्मचर्य
को देखो।
ब्रह्मचारी
मत हो जाना!
कामी
ब्रह्मचारी
हो जाते हैं।
मतलब एक
तादात्म्य
छूटा, दूसरा
पकड़ा। भोगी
योगी हो जाते
हैं। एक तादात्मय
छूटा, दूसरा
पकड़ा। एक जेल
से निकले नहीं
कि वे दूसरे
में तत्क्षण
प्रविष्ट हो
जाते हैं।
मैं
अपने
संन्यासी को
कहता हूं : न
तुम योगी, न
तुम भोगी, तुम
सिर्फ साक्षी।
'न पश्यो
मृत्युं' फिर
मृत्यु दिखाई
नहीं पडती।...... 'पश्यति न
रोग नोत
दु:खतान्।' फिर न रोग
दिखाई पड़ते
हैं, न दुःख
दिखाई पड़ते
हैं। नहीं, ऐसा नहीं है
कि रोग नही, आते। इस
भ्रांति में
मत पड़ जाना कि
रोग नहीं आते।
रामकृष्ण
कैंसर से मरे।
रमण महर्षि भी
कैंसर से मरें।
महावीर की
मृत्यु छह महीने
कीं लम्बी
पेचिश की बामारी
से हुई। बुद्ध,
विषाक्त
भोजन के कारण
मरे। विषाक्त
भोजन ने उनके
सारे शरीर को
रुग्ण कर दिया।
लेकिन इन को
को न समझ पाने
के कारण—और
कैसे समझोगे
जब .तक ध्यान
में .न उतरोगे?
—जैनों ने
कहानियां गढ़ी
कि महावीर को
बीमारी नहीं
हुई; कहीं तीर्थंकर
को बीमारी
होती है!
तीर्थंकर
को भी बीमारी
होती है।
दिखाई नहीं
पड़ती बीमारी; मैं
बीमार 'हूं
ऐसी प्रतीति
नहीं होती, बीमारी तो
होती है। अगर
बीमारी न होती
तो तीर्थंकर
मरते कैसे? तीर्थंकर भी
बूढ़े होते है,। तुम लाख
छिपाने की
कोशिश करो!
तुमने किसी
तीर्थंकर की
की प्रतिमा
नहीं देखी होगी।
सब प्रतिमाएं
जवान है।
महावीर अस्सी
साल के होकर
मरे। अस्सी
साल के हुए तो
के तो हो गये
थे। लेकिन
मंदिरों में
जाकर तुम
देखोगे तो यूं
लगता है कि वे
हमेशा जवान
हैं। चौबीस ही
तीर्थकर जवान
हैं। इनमें से
कुछ की उम्र तो
बहुत लम्बी है।
अगर
शास्त्रों की
मानकर चलो, तो —हजारों
वर्ष की है।
ये तो ऐसे
जराजीर्ण हो
गये होंगे
जिसका हिसाब
नहीं! सत्तर
वर्ष में तो
आदमी कीं गति
हो जाती है.
दुर्गति हो
जाती है, हजारों
साल में तो
सभी कुछ सूख
गया होगा, अस्थि—पंजर
रह गये होगे।
लेकिन हम खो
के आदी हैं।
हम. करते हैं :
तीर्थंकर को
बीमारी नहीं
होती। कहना
चाहिए कि
तीर्थंकर
जानता है कि
बीमारी मुझे
नहीं है। यह
और बात। यही
छांदोग्य का
सुत्र कह रहा
है
न पश्यो
मृत्यु
पर्श्याते न
रोग नोत दुखताम्।
ध्यान
रखना, सवाल है :
उसे ऐसा
प्रतीत नहीं
होता कि यह
बामारो में
हूं या मैं
बीमार हूं।
बीमारी तो आती
है; जैसे
तुम्हें आती
है, उसे भी
आती है। अरे, जब भूख आती
है प्यास आती
है.; जवानी
आती है, बुढ़ापा
आता है, तो
बीमारी न आएगी?
बीमारी भी
आएगी, बुढ़ापा
भी आएगा और
मृत्यु भी
आएगी। मगर
तीर्थंकर को
जरा भी
प्रभावित
नहीं करती। 'तीर्थंकर
अछूता रह जाता
है, अस्पर्शित
रह जाता है।
यह तो बात समझ
में आने की है।
लोकेन यह बात
मूढ़तापूर्ण
हो जाती है जब
तुम कहने लगते
हो : बीमारी ही
नहीं आती है।
फिर: तुम्हें
न—मालूम क्या—क्या
कहानियां
गढनी पड़ती हैं—झूठी
कहानियां! एक
झूठ कौ बचाने
के लिए हजार झूठ
गढ़ने पड़ते हैं।
तो
यह कहानी गढनी
पड़ी है जैनों
को। क्योंकि
यह बात को
झुठलाएं कैसे
कि छह महीने महावीर
पेचिश की
बीमारी सै
परेशान रहे? अब
इस बात को
छिपाये कैसे?
छह महीने
उनको दस्त ही
लगते रहे। इसी
में उनकी
मृत्यु हुई।
तो कहानी गढनी
पड़ी।
कहानी
यह गढी कि
गोशालक ने
उनके ऊपर
तेजोलेश्या
छोड़ी। गोशालक
ने जादू किया—काला
जादू। जैन —शास्त्रों
में उसका नाम.
तेजोलेश्या।
उसने अपना
सारा क्रोध, अपनी'
क्रोधाग्नि
उनके ऊपर फेंक
दी। और
करुणावश वह उस
क्रोधाग्नि को
पचा गये।
क्योंकि अगर
वापिस भेजे, तो गोशालक
मर जाएगा।
गोशालक न मरे,
!इसलिए वे पी
गये उस
तेजोलेश्या
को, उस काले
जादू को।
स्वभावत: जब
काला जादू पीआ,
तो पेट खराब
हो गया।,
अब
क्या कहानी
गढनी पड़ी!
सीधी —सादी
बात है 'कि
पेट को बीमारी
थी। इसमें
बिचारे
गोशालक को
फंसाते हो, इसमें
तेजोलेश्या
की कहानी गढ़ते
हो, इसमें
करुणा
दिखलाते हो—और
तुम कहते हो' तीर्थंकर
सर्वशक्तिशाली
होता है न् तो
तेजोलेश्या
को पचा —गता तो
पूरा ही पचा
जाना था, फिर
क्या पैट खराब
करना था! पचा
ही जाता पूरा!
फिर पेट कैसे
खराब हुआ? पचा
नहीं पाया।
नहीं तो पेट
खराब नहीं
होना था। पची
नहीं
तेजोलेश्या।
झूठो
से झूठ दबाए
नहीं जा सकते।
बुद्ध
के सबंध में यही
उपद्रव खड़ा
हुआ। उनको जो
भोजन दिया गया.......
एक गरीब नै
उनको
निमंत्रित
किया और भोजन
दिया, भोजन
विषाक्त था...... —
अब बुद्ध
विषाक्त भोजन
किसे, तो
कहानी गढनी
पड़ी। क्यौंकि
बौद्धों की
धारणा कि
बुद्ध तो
त्रिकालज्ञ
होते हैं, वे
तीनों काल
जानते हैं, उनको इतना
ही नहीं दिखाई
पड़ा कि यह
भोजन जो है
विषाक्त है, इसको मैं न
लूं! अब कैसे
इसको छिपाएं?
तो
छिपाना पड़ता
है। छिपाने के
लिए बड़ी
तरकीबें खोज
ली जाती हैं।
कि कहीं इसको
दुख न हो, अगर
मैं कहूं कि
यह भोजन
विषाक्त है तो
इस बेचारे ने
मुझे
निमंत्रित
किया, इसको
कहीं दुख न हो,
इस कारण
बिना कहे
विषाक्त भोजन
ले लिया।
लेकिन कहो या
न कहो, आखिर
विषाक्त भोजन
का परिणाम तो
हुआ ही! और परिणाम
हुआ तो उस
आदमी को भी
पता चला ही!
क्या
मतलब इसका?
मगर
वह
त्रिकालज्ञ
होते हैं, इस
धारणा को बचाए
रखने के लिए
यह झूठी कहानी
गढूनी पड़ी—कि दयावश!
कि कहीं इसे
दुख न हो, इसलिए
चुपचाप भोजन
कर लिया—जहर
पी गये। और
सर्वशक्तिमान
होते है—तो
फिर जब जहर पी
गये थे तो
विषाक्त नहीं
होना था शरीर।
लेकिन शरीर तो
शरीर के नियम
से चलता है।
फिर चाहे
बुद्धों का
शरीर हो और
चाहे बुद्धओं
का शरीर हो, इससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। शरीर के
अपने नियम हैं।
शरीर का अपना
गणित है। शरीर
प्रकृति का
हिस्सा है। और
प्रकृति कोई
अपवाद नहीं
करती। तो जो
परिणाम होना
था, वह हुआ।
मृत्यु उससे
फलित हुई।
मृत्यु
भी होती है, बीमारी
भी होती है, बुढ़ापा भी
होता है। फिर
जो भी
साक्षीभाव को
उपलब्ध हो गया
है, वह
सिर्फ देखता
रहता है, उसका
कहीं भी ऐसा
तालमेल नहीं
बैठ जाता कि
मैं बीमार हूं।
यह बात उठती
नहीं, यह
बात जुड़ती
नहीं उसके
भीतर। इसलिए
बीमारी के बीच
भी वह परम
स्वस्थ होता है।
बीमारी परिधि
पर होती है, केन्द्र पर
स्वास्थ्य
होता है। और
वही स्वस्थ
शब्द का अर्थ
भी है. स्वयं
में स्थित।
बीमारी चारों
तरफ रही आए, मगर वह अपने
स्वयं में
स्थित होता है;
वह अपने
स्वयं के
केंद्र पर थिर
होता है; वहां
कुछ हिलता
नहीं, डुलता
नहीं; ज्यू
था त्युं
ठहराया, वह
वहीं ठहरा
होता है। मौत
भी आती है, वह
भी परिधि पर
आती है। और
केंद्र पर तो
वही चिन्मय
ज्योति, वही
अमृत झरता
रहता है।
मैं
इसका गवाह हूं।
इसलिए
जो मैं सूत्र
की व्याख्या
कर रहा हूं वह
कोई शाब्दिक
व्याख्या
नहीं है। मुझे
किसी शास्त्र
में कोई रस
नहीं है। किसी
शास्त्र का
समर्थन करना
चाहिए, ऐसा
आग्रह नहीं है।
जब तक मेरी
बात से, मेरे
अनुभव से किसी
चीज का तालमेल
न हो, मैं
समर्थन नहीं
करता हूं। इस
सूत्र का मैं
पूर्ण समर्थन
करता हूं।
बुद्धत्व में
मृत्यु का कोई
अनुभव नहीं है—न
रोग का, न
दुख का। सब
घटता है, बाहर
से सब दिखाई
पड़ता है
रामकृष्ण
के गले का
कैंसर था।
आखिरी—आखिरी
दिनों में कुछ
सप्ताह तक तो
भोजन भी नहीं
ले सकते थे।
पानी भी पीना
अंतिम दिनों
में बंद हो
गया था। गला
बिलकुल
अवरुद्ध हो
गया था। गला
क्या था, घाव
हो गया था
सिर्फ। उसमें
से पानी पीना
भी
महापीड़ादायी
था। और बिना
पानी के जीना
भी
महापीड़ादायी
था।
विवेकानंद ने
रामकृष्ण से
कहा कि अगर आप
एक बार भी मां
काली को कह
दें, तो सब
अभी ठीक हो
जाए। आप कह
क्यों नहीं
देते? आप
क्यों व्यर्थ
का दुख झेल
रहे हैं? और
रामकृष्ण
मुस्कुराते।
क्योंकि बाहर
से तो यही
दिखाई पड़ रहा
है कि महादुख
है, मगर
विवेकानंद को
भीतर का कुछ
भी पता नहीं
है। रामकृष्ण
को भीतर कोई
दुख नहीं है। दुख
विवेकानंद और
रामकृष्ण के
बीच में है।
विवेकानंद तो
बाहर हैं दुख
के, रामकृष्ण
भी बाहर हैं—
रामकृष्ण
भीतर की तरफ
बाहर हैं—और
विवेकानंद
बाहर की तरफ
बाहर हैं—दोनों
को दुख दिखायी
पड़ रहा है, दोनों
साक्षी हैं।
मगर
विवेकानंद को
स्वभावत:
अनुभव होता है
कि इतनी पीड़ा
है, पानी
भी नहीं पी
सकते, गर्मी
के दिन हैं, प्यास से
लोग मरे जा
रहे हैं और
इनको एक घूंट
भी पानी
पिलाना
मुश्किल है—यह
कैसा महाकष्ट!
ऐसे परमहंस को
यह कैसा महाकष्ट!!
इससे
विवेकानंद
केवल इतनी खबर
देते हैं कि
अभी उनको
साक्षी का
अनुभव नहीं
हुआ। उनका
प्रश्न एक
साधारण
व्यक्ति का
प्रश्न है, जिसको
साक्षी का कोई
अनुभव नहीं
हुआ। यह किसी
बुद्धपुरुष
का प्रश्न
नहीं है—हो
नहीं सकता।
क्योंकि अगर
विवेकानंद को
साक्षी का
अनुभव हुआ
होता, तो
यह बात उठती
ही नहीं।
लेकिन
जब रोज—रोज
विवेकानंद
कहने लगे, तो
रामकृष्ण
सीधे—सादे
आदमी थे, चोट
भी करते थे तो
बहुत परोक्ष
करते थे, सीधी
नहीं करते थे,
उन्होंने
कहा, ठीक
है, तू
इतना परेशान
हो रहा है, तो
आज मैं आख बंद
करके काली से
कहे देता हूं।
आख बंद की, और
फिर आख खोलकर
कहा कि मैंने
कहा, मगर
काली ने क्या
कहा, मालूम?.......
अब यह सिर्फ
विवेकानंद को
समझाने के लिए
है। क्योंकि कहां
काली! और क्या
कहना काली से!
साक्षी को जो
उपलब्ध हो गया
है, उसके
लिए काली
इत्यादि सब
खेल हैं, बच्चों
के खेल हैं, खिलौने हैं।
यह सब खिलौने
हैं। चाहे तुम
हनुमान के
मंदिर में
पूजा करो और
चाहे गणेश जी
की मूर्ति
बनाकर पूजा
करो और चाहे
काली की
मूर्ति बनाओ,
ये सब
खिलौने हैं
नासमझों के
लिए। और
नासमझों के ही
द्वारा
निर्मित हो
रहे हैं। और
नासमझ ही इनके
पीछे बड़ा
शोरगुल मचाए
फिरते हैं। यह
कुछ
ज्ञानियों की
बातें नहीं
हैं!.......
पर
रामकृष्ण तो
उस भाषा में
बोले जो
विवेकानंद की
समझ में आए।
कहा कि मैंने
कहा,
तू नहीं
माना तो मैंने
कहा काली को; और तुझे पता
है, काली
ने मुझे बहुत
डाटा!
विवेकानंद ने
कहा, डांटा?
कहा कि ही, बहुत डाटा
और कहा कि
ज्ञानी होकर
ऐसी अज्ञानपूर्ण
बातें करता
है! और काली
एकदम नाराज हो
गयी और कहने
लगी कि चुप, कभी दुबारा
इस तरह की बात
मत करना! अगर
एक कंठ से जल
जाना बंद हो गया,
तो इतने
सारे कंठ
उपलब्ध हैं, ये भी तो
तेरे ही कंठ
हैं इनसे ही
जल पी! इस कंठ से
तो बहुत काम
ले लिया, अब
कब तक इसी पर
अटका रहेगा? सारे कंठ
तेरे हैं। यह
विवेकानंद का
ही कंठ है, यह
भी तेरा है, जब प्यास
लगे, इसी
कंठ से पी
लिये। तो
रामकृष्ण ने
विवेकानंद से
कहा, जब
मुझे प्यास
लगे, तू
पानी पी लिया
कर। अब तो सब
कंठ मेरे हैं।
काली. ने—देख, तेरी बात
मैंने क्या
कही, मुझे
बहुत डांटा!
इस तरह की
बातें अब
दुबारा मत
कहना! तेरी
बात मानकर
मैंने कहा और
झंझट में मैं
पड़ा।
मैं
जानता हूं कि
यह पूरी की
पूरी बात
रामकृष्ण सिर्फ
विवेकानंद को
समझा रहे हैं।
न तो काली से
उन्होंने कहा
है,
न कह सकते
हैं, न
कहने की कोई
बात है। न
कहने को कोई
काली है कहीं।
यह सिर्फ ऐसा
है जैसे हम
छोटे बच्चों
को किताब जब
पढ़ाना शुरू
करते हैं तो
कहते हैं. आ आम
का, ग गणेश
का। और अब थीड़ी
बात बदल गयी
है, अब
कहते हैं ग
गधे का।
क्योंकि
राज्य जो है
हमारा, वह
सेक्यूलर है,
वह धर्म—निरपेक्ष
है, इसमें
गणेश को लाओ
तो धर्म आ जाए,
तो ग गधे का!
गधा बिलकुल ही
निरपेक्ष
प्राणी है—न
हिन्दू न
मुसलमान, न
ईसाई, न
जैन। गधा तो
बिलकुल ही पार
जा चुका—परमहंस
है। उसको कुछ
लेना—देना
नहीं मंदिर से,
मस्जिद से।
कभी देखो तो
मस्जिद के
सामने बैठा है,
कभी देखो तो
मंदिर के
सामने बैठा है।
उसको सब बराबर—तुम
उस पर कुरान
लादो तो इनकार
नहीं, और
गीता लादी तो
इनकार नहीं।
उसको तो ढोना
है। वह ढो
देगा। वह जरा
चिंता नहीं
करता कि तुमने
किसको उसके
ऊपर लाद दिया
है!
तो
अब बच्चों को
पढ़ाया जाता
है. ग गधे का; आ
आम का। ताकि
बच्चे को आ और
ग समझ में आने
शुरू हो जाएं।
लेकिन
जिंदगीभर जब
भी ग पढ़ो, पहले
कहो ग गधे का
और फिर ग पढ़ो, तब तो पढ़ना
ही मुश्किल हो
जाए। एक शब्द
को पढ़ने में
कितनी देर लग
जाए! उसमें ग आ
जाए तो गधे का,
और आ आ जाए
तो आम का—और तब
आम और गधों
में इतने खो
जाओगे!...... और ब
बन्दर का और
हा हाथी का, पूरा जंगल
ही खड़ा हो
जाएगा! वह जो
शब्द था, उसका
तो पता ही
नहीं चलेगा यह
जंगली
जानवरों में
हो खो जाओगे।
वह
ग गधे का पहली
कक्षा में ठीक।
फिर गधे को
भूल जाना है, ग
को याद रखना
है। फिर ग
किसी का नहीं,
न गधे का, न गणेश का, ग सिर्फ ग है।
जिस दिन
तुम्हारा 'ग'
गधे से और
गणेश से मुक्त
हो जाता है, उस दिन तुम
समझना कि तुम
सीख गये—ग। जब
तक वह ग गधे और
गणेश से बंधा
रहे, तब तक
तुमने सीखा
नहीं। और अगर
हमेशा के लिए
बंध जाए,
तो तुम पागल
हो।
काली
है और हनुमान
हैं,
यह सब पाठ
पढ़ाने के लिए
ठीक है। मगर
लोग इन्हीं के
सामने बंधे
बैठे हैं। कुछ
लोग जो
जिंदगीभर
हनुमान
चालीसा ही पढ़
रहे हैं। इनकी
जिंदगी
व्यर्थ गयी!
निरर्थक गयी!
जीवन की
सार्थकता
साक्षीभाव
में है। रामकृष्ण
ने वही कहा कि
मुझे कोई पीड़ा
नहीं हो रही
है, तू पी
लेना पानी, काम चल
जाएगा। मैंने
पीआ कि तूने
पीआ, सब
बराबर है।
'सर्वं ह
पश्य: पश्यति
सर्वमाम्नोति
सर्वश इति।'
वह
सबको आत्मरूप
देखता है।
जैसे 'मैं' गया,
सब आत्मरूप
हो जाते हैं।
और सब कुछ
प्राप्त कर
लेता है। मैं
क्या गंवाया,
सब
सम्पत्ति मिल
गयी। 'मैं'
के साथ
विपत्ति ही
विपत्ति है; दुख ही दुख
है, नर्क
ही नर्क है।
तुमने मैं से
कभी कोई सुख
पाया? तुमने
अहंकार से कभी
कोई आनंद पाया?
मगर अहंकार
को भरने के
लिए ही दौड़े
चले जा रहे हो।
इससे बड़ी मूढ़ता
इस संसार में
दूसरी नहीं है।
अहंकार
की मूढ़ता को
देखो। अहंकार
से मुक्त हो
जाओ। और मुक्त
होना कठिन
नहीं। सिर्फ
छोटी—सी
प्रक्रिया है, छोटी—सी
कुंजी. कुंजी
तो हमेशा छोटी
होती है। ताले
कितने ही बड़े
हों, कुंजियां
तो छोटी होती
हैं। जरा—सा
राज होता है
कुंजी का और
ताला खुल जाता
है। कुंजी न
हो तो ताला
खुलना
मुश्किल हो
जाता है।
हथौड़ी से तोड़ो
तो शायद और भी
मुश्किल हो
जाए। फिर शायद
कुंजी भी मिल
जाए तो काम न
आए। और
तुम्हारे
ताले ऐसी ही
हालत में हो
गये हैं।
हथौडिया तो
तुमने बहुत
मारी हैं, कुंजियों
की तलाश नहीं
की। इसलिए अब
जब कुंजी भी
मिल जाती है, तो बड़ी देर
लगती है, मुश्किल
होती है। यह
मुश्किल
तुम्हारे
ताले के साथ
किये गये दुर्व्यवहार
के कारण है।
अन्यथा कुंजी
सीधी—साफ है।
कुंजी
इतनी ही है कि
चलते समय
जागकर चलो, देखकर
चलो, कि जो
चल रहा है वह
शरीर है, मैं
अचल हूं। मैं
सिर्फ देख रहा
हूं कि शरीर
चल रहा है। यह
बाया पैर उठा,
यह दायां
पैर उठा, यह
मैं बायें
मुड़ा, यह
दायें मुड़ा.
ऐसा कुछ शब्द
दोहराने की
जरूरत नहीं है,
सिर्फ
देखते रही!
जैसे कोई किसी
और को चलते हुए
देख रहा हो।
और जब विचार
भीतर चलें—जो
कि प्रतिपल चल
रहे हैं तो
देखते रही कि
विचार चल रहे
हैं। लड़ो मत, पकडो मत। यह
अच्छा विचार
है, इसको
छाती से मत
लगा लो; और
यह बुरा विचार
है, इसको
धक्के देकर
निकालने मत
लगो; नहीं
तो झगड़े में
पड़ गये।
साक्षी गया, कर्ता हो
गये। कर्ता
हुए कि अहंकार
आया। लड़ना मत,
झगड़ना मत, विचार को
देखना, सिर्फ
देखना। कुछ
करना ही नहीं
है, सिर्फ
देखना है।
बैठकर घडीभर,
जब सुविधा
मिल जाए, देखते
रहना, विचारों
का सिलसिला
लगा है। जैसे
कोई रास्ते के
किनारे बैठ
जाए और रास्ते
पर चलते हुए
लोगों को देखे,
नदी के
किनारे बैठ
जाए, नदी
की धार को
बहते हुए देखे,
ऐसे ही मन
की धार को भी
देखना।
और
मत सोचना कि
मेरा मन।
क्योंकि मेरा
मन है, तो
आग्रह आ जाते
हैं। कि अच्छे—
अच्छे विचार
आएं, सुंदर—सुंदर
विचार आएं; फूल लगें, काटे न लग
जाएं; कोई
बुरा विचार न
आ जाए; बस, फिर तुम
मुश्किल में
पड़े! तुमने
मेरा माना कि अहंकार
जगना शुरू हो
गया।
तुम्हारा कुछ
भी नहीं है।
क्या लेना—देना
है! देखते
रहना है। जैसे
फिल्म पर तुम
कुछ आग्रह
नहीं रखते, पर्दे पर
फिल्म चलती है,
तुम देख रहे
हो, यूं
देखते रहना है।
और
तुम चकित
होओगे, शरीर
को देखते—देखते
शरीर से
छुटकारा हो
जाता है, मन
को देखते—देखते
मन से छुटकारा
हो जाता है।
रफ्ता—रफ्ता,
आहिस्ता—आहिस्ता
तुम्हारे
भीतर एक नयी
चीज पैदा होने
लगती है, एक
नया सूत्र
जन्मता है :
साक्षी का, सिर्फ
द्रष्टा का।
और वही
द्रष्टा जिस
दिन अपनी
पराकाष्ठा को
पहुंचता है, संबोधि बन
जाती है, समाधि
बन जाती है।
उस दिन दूर रह
गये बहुत शरीर
और मन, दूर
रह गये शरीर
और मन के खेल, उस दिन तुम
अपनी
परमसत्ता में
विराजमान हो
जाते हो। वहीं
परम आनंद है, परम जीवन है।
'दीपक
बारह नाम का' प्रवचन माला
से
दिनांक, 8 अक्ट्रबर
1980; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
thank you guruji
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