नाम
बिनु नहिं कोउकै
निस्तारा—(प्रवचन—सातवां)
दिनांक 7 अगस्त,
1978;
श्री रजनीश
आश्रम पूना।
सारसूूूूत्र::
नाम
सुमिर मन
बावरे, कहा
फिरत भुलाना
हो।।
मट्टी
का बना पूतला, पानी संग साना
हो।
इक
दिन हंसा चलि
बसै, घर
बार बिराना
हो।।
निसि
अंधियारी
कोठरी, दूजे
दिया न बाती
हो।
बांह
पकरि जम लै चलै, कोउ संग न
साथी हो।।
गज
रथ घोड़ा पालकी, अरु सकल समाजा
हो।
इक
दिन तजि जल
जाएंगे रानी औ
राजा हो।।
सेमर
पर बैठा सुवना, लाल फर देख
भुलाना हो।
भारत
टोंट मुआ उधिराना, फिरि पाछे पछिताना
हो।।
गूलर
कै तू भुनगा, तू का आव
समाना हो।
जगजीवनदास बिचारि कहत, सबको वहं
जाना हो।।
नाम
बिनु नहिं कोउकै
निस्तारा।
जान
परतु है
ज्ञान तत्त
तें, मैं मन समुझि
बिचारा।
कहा
भए जल
प्रात अन्हाए, का भए
किए अचारा।।
कहा
भए माला पहिरे तें, का दिए तिलक लिलारा।
कहा
भए व्रत अन्नहिं त्यागे, का किए दूध-अहारा।।
कहा
भए पंचअगिन
के तापे, कहा लगाए छारा।
कह
भए बैठै
ठाढ़ें तें, का मौंनी
किहे अमारा।
का
पंडिताई का बकताई, का बहु
ज्ञान
पुकारा।।
गृहिनी त्यागि
कहा बनबासा, का भए तन
मन मारा।
प्रीतिविहूनि
हीन है सब कछु, भूला सब
संसारा।
मंदिल रहै कहूं
नहिं धावै, अजपा जपै
अधारा।
गगन-मंडल
मनि बरै
देखि छवि, सोहै सबतें
न्यारा।।
जेहि
विस्वास
तहां लौ लागिय, तेहि तस काम
संवारा।
जगजीवन
गुरु चरन सीस धरि, छूटि भरम कै जारा।।
सद
चाक हुआ गो
जाम-एत्तन, मजबूरी थी, सीना ही पड़ा
मरने
का वक्त
मुकर्रर था, मरने के लिए
जीना ही पड़ा
मैं
उसकी नशीली
आंखों की तल्ख़ाब
सही ज़हराब
सही
लेकिन
फितरत खुद
चाहती थी दिल
प्यासा था
पीना ही पड़ा
कहती
थी जुनूं
जिसको दुनिया बिगड़ी हुई
सूरत अक्ल की
थी
फाड़ा
था गरेबां
तेरे लिए जब
तू न मिला, सीना ही पड़ा
कुछ
तुर्शी थी कुछ
तल्ख़ी थी
लेकिन जब खुद
ही मांगी थी
तो मांगकर
वापिस करने का
मौका ही न था, पीना ही पड़ा
सद चाक
हुआ गो जाम-एत्तन, मजबूरी थी, सीना ही पड़ा
मरने
का वक्त
मुकर्रर था, मरने के लिए
जीना ही पड़ा।
मनुष्यों
में अधिक
मनुष्य ऐसे ही
जी रहे हैं; मरने के लिए
ही जी रहे
हैं। जैसे
जीवन में कुछ
और न हुआ है, न हो सकता
है। जैसे जीवन
में कुछ और न
हुआ है, न
हो सकता है।
जैसे जीवन एक
लंबी निराश
यात्रा है।
जैसे जीवन एक
मजबूरी है, एक असहाय
अवस्था है; किसी तरह
गुजारना है, बोझ की तरह
ढोना है। उदास,
भारी मन लोग
अपनी-अपनी
कब्र की तरफ
बढ़े जा रहे
हैं--जैसे
बंदी हों; जैसे
जंजीरों
में--बेड़ियों
में बंधे हों;
जैसे कोई
उपाय ही न हो
मृत्यु से
मुक्त होने का;
जैसे उस परम
जीवन को जानने
की कोई सुविधा
ही न हो, जिसका
अंत नहीं आता।
यह
भ्रांति है।
जीवन एक अवसर
है परम जीवन
को पाने के
लिए। मृत्यु
पर जीवन का
अंत नहीं है।
और अगर मृत्यु
पर जीवन का
अंत हो तो समझ
लेना कि तुम
ठीक से जिए ही
नहीं। वही
मरता है जो
ठीक से जीता
नहीं। जो ठीक
से जीता है
उसके लिए
मृत्यु तो और
बड़े जीवन का
द्वार बन जाती
है। और जो ठीक
से नहीं जीता, ठीक से मरता
भी नहीं उसे
फिर-फिर
जन्मना पड़ता है
और फिर-फिर
जन्मना पड़ता
है और फिर-फिर
मरना पड़ता है।
इस पाठ को
सीखना ही
पड़ेगा। इसे
बिना सीखे
काम न चलेगा।
जीवन
को लोगों ने
मान रखा है, जैसे मिल ही
गया है। मिला
नहीं, मिल
सकता है।
खोजना पड़े, तलाश करनी
पड़े। जो मिला
है बीज की तरह,
इसके लिए
भूमि खोजो, इसके लिए
खाद दो, इस
पर श्रम करो, इस पर अपनी
साधना बरसाओ
तो यह बीज
टूटे, अंकुरित
हो, वृक्ष
बने, इसमें
फल आएं। तब
तुम जानोगे कि
जीवन कितनी बड़ी
भेंट थी
परमात्मा की।
लेकिन
तुम ऐसे जी
रहे हो इस महाअवसर
को जैसे कोई
दंड दिया हो; जैसे मजबूरी
है। मरने की
बात तय ही है
तो अब क्या
करें! किसी
तरह जी लेंगे,
राह देख
लेंगे। आएगी,
मौत, मर
जाएंगे। जैसे
मौत के
अतिरिक्त और
इस जीवन में
कुछ भी न
घटेगा। जन्म
और मृत्यु के
बीच अगर परमात्मा
न घटे तो समझ
लेना कि
व्यर्थ ही जिए;
अकारथ जिए।
जिए ही नहीं।
नाम ही था
जीने का। कहने
भर की बात थी।
दिल-ए-बरबाद
को भी कहनेवाले
दिल ही कहते
हैं
खिज़ां-दीदा
चमन को भी चमन
कहना है पड़ता
ही
पतझड़
आ जाती है बगीचे
में, एक पत्ता
नहीं बचता, एक फूल नहीं
बचता। उसको भी
लोग चमन कहते
हैं।
दिल-ए-बरबाद
को भी कहनेवाले
दिल ही कहते
हैं
और जो
दिल बिल्कुल
बरबाद हो गया, जिसमें दिल
है ही नहीं, जहां दिल का
कोई राग नहीं
उठता, जहां
दिल का कोई
उत्सव नहीं है
उसको भी दिल
तो कहते ही
हैं। शब्दों
की ही बात है।
और जो
दिल बिल्कुल
बरबाद हो गया, जिसमें दिल
है ही नहीं, जहां दिल का
कोई राग नहीं
उठता, जहां
दिल का कोई
उत्सव नहीं है
उसको भी दिल
तो कहते ही
हैं। शब्दों
की ही बात है।
जिसको
हम जीवन कहते
हैं वह कहना
भर है। जीवन तो
किसी बुद्ध का
होता है, किसी
जगजीवन
का होता है, किसी नानक
का, किसी
जीसस का। जीवन
तो थोड़े-से
लोग जीते हैं।
अधिकतर लोग जो
जन्मते हैं और
मरते हैं। और
जन्मते और
मरने के बीच
में जो विराट
अवसर मिलता है
उसको ऐसे गंवा
देते हैं जैसे
मिला ही न हो।
खोज सकते थे
खजाना। ऐसी
संपदा पा सकते
थे जो फिर कभी छीनी न जाए,
लेकिन गंवा
देते हैं ऐसी
संपदा को
इकट्ठी करने
में जिसका छिन
जाना
सुनिश्चित है;
जिसको कोई
भी बचा नहीं
पाया; जिसे
कोई अभी अपने
साथ नहीं ले
जा पाया। मौत
आती है और तुम
भिखारी के
भिखारी जाते
हो। बड़े से
बड़ा सम्राट्
भी भिखारी की
तरह जाता है।
बुद्ध
ने जिस दिन घर
छोड़ा, अपने
सारथि से कहा
था--क्योंकि
सारथि दुःखी
था। बूढ़ा आदमी
था। बुद्ध को
बचपन से बढ़ते
देखा था। पिता
की उम्र का
था। वह रोने
लगा, उसने
कहा, मत छोड़ो।
कहां जाते हो?
जंगल में
अकेले हो
जाओगे। कौन
संगी, कौन
साथी?
तो
बुद्ध ने कहा, महल में भी
कौन संगी था, कौन साथी था?
धोखा था।
महल में भी
जंगल था। आज
नहीं कल जंगल जाना
ही होगा। और
किन्हीं और
कंधों पर चढ़कर
जाऊं, इससे
बेहतर है अपने
ही पैरों से
चला जाऊं।
मरकर जाऊं, इससे बेहतर
है जिंदा चला
जाऊं तो शायद
कुछ कर पाऊं।
सारथि
ने बहुत
समझाया : इतनी
संपदा, इतना
साम्राज्य
छोड़कर कहां
जाते हो? बुद्ध
ने कहा, मौत
आएगी। तू भी
जानता है मौत
आएगी। सभी
जानते हैं मौत
आएगी। और यह
सब छिन ही
जाएगा। जो छिन
ही जाना है, उसे नासमझ पकड़ते
हैं। जो छिन
ही जाता, छिन
ही गया। उसको पकड़ने का
कोई सवाल नहीं
है।
इस
जिंदगी से
समझदार लोग तो
ऐसे गुजरते
हैं जैसे कोई
सराय से
गुजरता है; इस जिंदगी
में ऐसे ठहरते
हैं जैसे कोई
धर्मशाला में
ठहरता है।
सांझ आयी, रुक
रहे, सुबह
हुई, चल
पड़े।
मुसाफिरखाना है।
और
जिसको यह
जिंदगी
मुसाफिरखाना
दिखाई पड़ती है
उसकी ही आंखें
मोक्ष की तरफ
उठती हैं।
क्योंकि अगर
यह
मुसाफिरखाना
है तो फिर घर
कहां है? तभी
सवाल उठता है।
अगर इस दुनिया
की संपदा झूठी
है तो फिर
सच्ची संपदा
कहां है? क्योंकि
हृदय में तलाश
तो है। संपदा
की तलाश है।
किसके मन में
नहीं है तलाश?
अगर इस
जिंदगी की
संपदा झूठी है
तो फिर यह तलाश
क्यों है? और फिर यह
एकाध दिल में
ही नहीं है, यह हर दिल
में है। यह हर
प्राण में
छिपी है। यह हर
प्राण के भीतर
दबी है। यह
अंगारा सबके
भीतर है। तो
कहीं न कहीं
होगी असली
संपदा भी। अगर
इस जगत् के पद
व्यर्थ हैं तो
फिर असली पद
कहां है?
कृष्णमूर्ति
ठीक कहते हैं
कि जो असार की
भांति देख
लेता है, उसकी
सार की खोज
शुरू हो जाती
है। जो असार
को ही सार
समझता रहता है
उसकी तो सार
की खोज कैसे शुरू
होगी? जिसने
नकली सिक्कों
को असली समझ
लिया वह असली की
तलाश करेगा
क्यों? वह
तो मानता है, असली उसे
मिल ही गए।
सारे सद्गुरुओं
का संदेश अगर
बहुत
संक्षिप्त
करना हो तो
इतना-सा है कि
जिसे तुमने
जिंदगी समझा
है वह असली जिंदगी
नहीं है
क्योंकि मौत
उसे पोंछ
जाएगी। असली
को तलाशो।
उसको खोजो, जो एक बार
मिल जाए तो
फिर कभी छीनी
नहीं जा सकती।
वही संपदा है;
शेष सब तो
विपदा है। वही
संपत्ति है; शेष सब तो
विपत्ति है।
मेहनत बहुत
उठानी पड़ती है
और अंत में सब
व्यर्थ जाता
है।
बहुत
बार संतों के
शब्द ऐसे लगते
हैं कि अगर इन
शब्दों को हम
सुनते रहेंगे
तो हमारी
जिंदगी में जो
थोड़ा और रस है, वह भी सूख
जाएगा। हमारी
जिंदगी में जो
थोड़ी-बहुत खुशी
है, वह भी
कुम्हला
जाएगी।
कभी-कभी हम जो
हंस लेते हैं,
ये संत उसे
भी छीन लेंगे।
अगर
ऐसा तुमने
समझा तो तुम
संतों को समझे
नहीं। वे
तुमसे वही
छीनना चाहते
हैं जो है ही
नहीं।
तुम्हारी
हंसी झूठी है; आंसुओं को
छिपाने का
उपाय है। तुम
मस्ती का ढोंग
कर रहे हो।
तुम मस्त हो
कैसे सकते हो?
बिना
परमात्मा को
पिए कोई कभी
मस्त हुआ ही
नहीं।
तुम्हारी
मस्ती झूठी
होगी।
एक बार
मेरे एक मित्र
मेरे घर
मेहमान हुए।
झूठी ही
उन्हें ठंडाई
पिलाई और
पिलाने के बाद
कह दिया कि
भंग थी उसमें।
वे तो मस्त
होने लगे।
सारा परिवार
हंसने लगा।
जैसे-जैसे लोग
हंसे ..... इस बात
पर हंसे कि
उन्हें तो कोई
भंग पिलाई गई नहीं
है, मगर वे
मस्त होने
लगे।
जैसे-जैसे लोग
हंसे, उनकी
मस्ती भी बढ़ी।
उन पर नशा छाने
लगा। उनकी
आंखें तक लाल
हो गईं। कोई
घड़ी-दो घड़ी के
बाद तो वे
बोले कि मुझे
चक्कर आते
हैं। सब घूमता
हुआ मालूम पड़ता
है। मैंने
उनको कहा, महाराज,
भंग
तुम्हें किसी
ने पिलाई नहीं,
सिर्फ बात
ही की है।
यहां भंग है
कहां? सिर्फ
ठंडाई थी।
सुनते ही नशा
उतर गया।
आंखें फिर ठीक
हो गईं। वह जो
घूमने लगा था
मकान, वह
फिर थिर हो
गया।
तुम
कभी अपने बाबत
सोचना। उस दिन
मैंने उनसे
कहा था, ऐसी
तुम्हारी
जिंदगी की
हंसी है, ऐसी
तुम्हारी
जिंदगी की
खुशी है। मान
बैठे हो। जरा
लोग हंसते हैं,
उनकी हंसी
का खोखलापन तो
देखो! हंसने
योग्य तुम्हारे
पास है क्या? रोने योग्य
बहुत कुछ है, हंसने योग्य
क्या है?
संत
जरूर तुमसे
खोखली हंसी
छीन लेंगे; लेकिन सिर्फ
इसलिए, ताकि
असली फूलों की
वर्षा हो जाए;
कि तुम हंसो
तो फूल झरें;
कि तुम हंसो
तो तुम्हारी
हंसी में
प्राण हों; कि तुम हंसो
तो हंसी
प्रवंचना न
हो। तुमसे
झूठी मस्ती
छीन लेंगे
ताकि तुम्हें
सच्ची मस्ती
दी जा सके। ऐसी
मस्ती, जिसको
फिर कोई छीन
नहीं सकता।
यहां
तो तुमने जो
भी अभी इंतजाम
कर रखा है, बड़ा धोखे का
है। और तुम
भली-भांति
जानते हो। मगर
मैं तुम्हारी
मजबूरी भी
समझता हूं, कि अब क्या
करें! किसी
तरह जीना तो
है ही।
सद
चाक हुआ गो
जाम-एत्तन
मजबूरी थी
सीना ही पड़ा
चीथड़े-चीथड़े हो
गई है जिंदगी, मगर मजबूरी
है, सीनी पड़ती है।
चार लोगों को
दिखाने योग्य
तो बाहर का
इंतजाम करना
ही पड़ता है।
चाहे घर कैसा
ही हो, बैठकखाना
तो सजाना ही
पड़ता है। चाहे
स्नान न किया
हो, चाहे
देह कितनी
अपवित्र हो और
चाहे मन कितने
ही पापों से
भरा हो तो भी
ऊपर से पाउडर
और सुगंध तो छिड़कनी ही
पड़ती है।
सद
चाक हुआ गो
जाम-एत्तन, मजबूरी थी, सीना ही पड़ा
मरने
का वक्त
मुकर्रर था, मरने के लिए
जीना ही पड़ा
--मगर यह भी
कोई जीवन होगा?
संत
तुमसे जो
व्यर्थ है, जो झूठा है
वह छीन लेना
चाहते हैं। और
अगर संतों के
सत्संग में
तुम उदास हो
जाओ तो समझना
कि तुम समझे
नहीं; तो
समझना कि तुम
चूक गए। और
अगर तुम्हारे
संत उदास हों
तो समझना कि
संत नहीं हैं।
संत का जीवन
तो उल्लास
होना चाहिए।
वहां तो आनंद
का राज होना
चाहिए।
कोई
किस तरह राज-ए-उल्फत
छिपाए।
निगाहें
मिलीं और कदम डगमगाए
जिसकी
आंख परमात्मा
से मिलने लगी
हो उसके पैर न डगमगाएं? और जिसका
प्रेम उससे लग
गया हो वह
अपने राज को छुपाना भी
चाहे तो छुपा
नहीं सकता।
उसके
रोएं-रोएं से
प्रकट होगा।
उसके
शब्द-शब्द से झलकेगा।
उसके ओंठ से
जो शब्द भी
बाहर आएगा, मधुसिक्त होकर आएगा।
तो उसके
शब्दों को पी
लेंगे उनको भी
नशा आने
लगेगा।
चाल
है मस्त, नज़र मस्त, अदा में
मस्ती
जैसे
आते हैं वे
लोटे हुए मैखाने
से
जो
मंदिर गया, सच में
मंदिर पहुंचा
वह ऐसे ही
लौटेगा जैसे
मधुशाला से
लौटता हो।
मंदिर असली
मधुशाला है। अगर
वहां से मस्त
होकर नहीं
लौटे तो फिर
कहां से मस्त
होकर लौटोगे?
अगर वहां से
तुम्हारी चाल
में नृत्य न
आया तो फिर
नृत्य कहां सीखोगे? अगर मंदिर
ने तुम्हारे
भीतर नाद न
जगाया, तुम्हारे
सोए तार न छेड़े,
तुम्हारी
वीणा न बजायी
तो फिर कहां, फिर कैसे
तुम जागोगे? कौन तुम्हें
जगाएगा? कौन तुम्हें
आनंद से भरेगा?
हमने
यूं ही तो
परमात्मा की
परिभाषा
सच्चिदानंद
नहीं की है! ये
तीन चीजें तो
मिलनी ही
चाहिए, वहीं
सत्संग है।
सत्य मिले, चैतन्य मिले,
आनंद मिले,
वहीं
सत्संग है।
जहां
सच्चिदानंद
मिले वहीं सत्संग
है।
लेकिन
तुम्हारे
मंदिरों में
बैठे हुए
तुम्हारे
साधु-संत भी
उदास हैं।
स्वभावतः ऐसे
उदास और
रुग्ण-चित्त
लोगों के पास
तुम बैठोगे, तुम भी उदास
हो जाओगे। और
तुम समझोगे कि
शायद धार्मिक
हो रहे हो।
हां, धर्म
निश्चित ही
झूठी हंसी छीन
लेता है लेकिन
इसीलिए, ताकि
सच्ची हंसी
पैदा की जा
सके। धर्म
निश्चित ही
घास-पात को उखाड़ता
है, ताकि
गुलाबों की
खेती हो सके।
सिर्फ घास-पात
को उखाड़कर
बैठ गए इससे
कुछ बगीचे
नहीं बन जाते।
और अगर तुम
घास-पात उखाड़कर
बैठ गए और कभी
तुमने गुलाब
बोए ही न, तो
गुलाब आकाश से
नहीं उतर
आएंगे। और
घास-पात फिर
उग आएगा। कोई
एक बार उखाड़
देने से
घास-पात सदा
के लिए समाप्त
नहीं हो जाता।
अगर घास-पात
को सच ही
समाप्त करना
है तो पृथ्वी
की जो ऊर्जा
घास-पात बनती
है उसे गुलाब
बनाने में
लगाना पड़ेगा।
हां, धर्म
निश्चित ही
झूठी हंसी छीन
लेता है लेकिन
इसीलिए, ताकि
सच्ची हंसी
पैदा की जा
सके। धर्म
निश्चित ही
घास-पात को उखाड़ता
है, ताकि
गुलाबों की
खेती हो सके।
सिर्फ घास-पात
को उखाड़कर
बैठ गए इससे
कुछ बगीचे
नहीं बन जाते।
और अगर तुम
घास-पात उखाड़कर
बैठ गए और कभी
तुमने गुलाब
बोए ही न, तो
गुलाब आकाश से
नहीं उतर
आएंगे। और
घास-पात फिर
उग आएगा। कोई
एक बार उखाड़
देने से
घास-पात सदा
के लिए समाप्त
नहीं हो जाता।
अगर घास-पात
को सच ही
समाप्त करना
है तो पृथ्वी
की जो ऊर्जा
घास-पात बनती
है उसे गुलाब
बनाने में
लगाना पड़ेगा।
मैं यह
कह रहा हूं कि
तुम्हारी
हंसी झूठ है
क्योंकि तुम
भीतर उदास हो, ऊपर से उधार
हंसी को लेकर
चिपका लेते
हो। और बाजार
में हर चीज
बिकती है। हर
चीज बिकती है,
जिमी कार्टरवाली
हंसी भी बिकती
है। अभ्यास कर
ले सकते हो, मुखौटे लगा
ले सकते हो।
तुम
जरा लोगों को
हंसते हुए तो
देखो! उनकी
आंखों में कोई
आनंद नहीं
होता और ओंठ
एकदम फैल जाते
हैं। इसको
हंसी नहीं कह
सकते, खींसे निपोरना! इस
तरह की हंसी
तुम्हें
अक्सर मिलेगी .....
तुमने कभी
आदमी की खोपड़ी
देखी, मरे
हुए आदमी की
खोपड़ी? सिर्फ
खोपड़ी! सब खोपड़ियां
हंसती हुई
मालूम पड़ती
हैं। इसीलिए
डर भी लगता
है। अपने कमरे
में एक खोपड़ी
रखकर देखो
दो-चार दिन।
और सबसे
ज्यादा
भयावनी चीज
लगती है खोपड़ी
की हंसी। कि
हंस किस बात
पर रही है
खोपड़ी? क्योंकि
वे दांतें
..... ओंठ तो चले गए,
चमड़ी तो सब
समाप्त हो गई,
हड्डी-हड्डी
बची है। दांत
ही दांत दिखाई
पड़ते हैं। सभी
मुर्दे जिमी
कार्टर हो
जाते हैं।
तुम
हंसोगे, लेकिन
प्राणों में
आनंद हो तो ही
उसमें कुछ अर्थ
होगा। तुम
गाओगे, लेकिन
यह ऊपर-ऊपर से
सीखा गया गीत
न हो। इसकी
जड़ें
तुम्हारी
आत्मा में
होनी चाहिए, तो इसमें रस
बहेगा।
निश्चित
ही संत तुमसे
जो भी झूठा है, छीन लेना
चाहते हैं।
मगर यह आधा
काम है। झूठा छीन
लिया और सच्चा
दिया नहीं, सच्चा मिला
नहीं तो तुम
और मुश्किल
में पड़ जाओगे।
तुम्हारी दशा
त्रिशंकु की
हो जाएगी--न
यहां के रहे न
वहां के; न
घर के न घाट
के। तुम बड़ी
दुविधा में पड़
जाओगे।
दुविधा में दोइ गए, माया
मिली न राम।
ऐसी दशा
तुम्हारे
तथाकथित धार्मिकों
की हो गई है।
और
धर्म के नाम
पर जो
संत-महात्मा
तुम्हारी छाती
पर बैठ गए हैं
वे केवल रुग्णचित्त
लोग हैं; मानसिक
रूप से विकृत
लोग हैं, स्वस्थ
नहीं। धर्म
विकृत हाथों
में पड़ गया है--हमेशा
पड़ जाता है
क्योंकि एक
बड़ी
शक्तिशाली, बड़ी
क्षमताशाली
दिशा है।
रुग्ण-चित्त
लोग उस पर
कब्जा करने को
उत्सुक होते
हैं।
रुग्ण-चित्त
हर चीज पर
कब्जा करना
चाहते हैं। जहां
भी उन्हें
लगता है कि शक्ति
का स्रोत है, दौड़ पड़ते
हैं।
रुग्ण-चित्त
महत्त्वाकांक्षी
होते हैं। धन
की तरफ दौड़ते
हैं, पद की
तरफ दौड़ते हैं,
अगर उन्हें
लगे कि धर्म
में भी शक्ति
है वहां भी
दौड़ते हैं और
कब्जा कर लेते
हैं।
पंडित
हैं, पुरोहित
हैं, इन्हें
धर्म का कोई
पता नहीं है।
लेकिन धर्म के
माध्यम से
लोगों के जीवन
पर इनका कब्जा
जम जाता है।
शोषण करने की क्षनता
हाथ में आ
जाती है। ये
खुद भी उदास
हैं। ये बुरी
तरह उदास हैं।
इन्होंने
अपनी उदासी को
भी अच्छी
व्याख्या दे
ली है। ये
कहते हैं, उदासी
का मतलब
वैराग्य।
मैं भी
जानता हूं कि
उदासी का अर्थ
वैराग्य।
लेकिन उदासी
का गहरा अर्थ
है, राग।
संसार से
विराग और
परमात्मा से
राग। उदासी का
अर्थ
अनासक्ति, ठीक;
संसार से
अनासक्ति, परमात्मा
से आसक्ति।
दूसरी बात
क्यों नहीं कहते
जो कि ज्यादा
मूल्यवान है?
व्यर्थ से
विराग, यह
तो ठीक ही है, लेकिन
सार्थक से राग
जगना चाहिए, नहीं तो सार
क्या हुआ? पहले
भी असार थे, घर में भी
असार थे। वहां
भी जिंदगी
बोझिल थी, मंजिल
में भी जिंदगी
बोझिल है। और
बोझिल हो गई।
घर में थे तो
कम से कम कुछ
भ्रम भी थे, अब भ्रम भी न
रहे। घर में
थे तो कभी-कभी
सपना भी देख
लेते थे
सौंदर्य का, सत्य का, अब
वे भी सपने
गए। अब सपनों
का भी त्याग
कर दिया। अब
तुम बिल्कुल
मरुस्थल होकर
रह गए। अब तुम्हारी
जिंदगी में
कोई हरियाली
नहीं होगी।
ठीक
सत्संग में
हरियाली घटनी
ही चाहिए। ठीक
सत्संग में
मरुस्थल मरुद्यान
बनना ही
चाहिए।
तो
ख्याल रखना, ये वचन एक
स्वस्थ
महात्मा के
वचन हैं। और
तुम समझोगे कि
ऐसा मैं क्यों
कह रहा हूं।
वचन ही
तुम्हारे
सामने सिद्ध
कर देंगे कि
अस्वस्थ
महात्माओं के
विपरीत हैं।
ये वचन
तुम्हें उदास
करने को नहीं
हैं। ये वचन
तुम्हें आनंद
से भरने को
हैं।
नाम
सुमिर मन
बावरे
--ऐ
पागल मन!
प्रभु का
स्मरण कर।
कहा
फिरत भुलाना
हो
--कहां इन
व्यर्थ की
चीजों में भूल
रहा है? यहां
किसी ने कभी
कुछ पाया
नहीं। यहां तू
भी जिंदगी
गंवा देगा।
संसार
में लोग गंवाकर
जाते हैं, कमाकर नहीं।
अक्सर लेकिन
हम समझते हैं
कि लोग कमा रहे
हैं। बाजारों
में लोग कमाने
में लगे हैं।
पूछो तो जरा
गौर से! क्या कमाकर ले
जाओगे? क्या
कमा रहे हो? गंवाकर जाओगे। एक
संपदा थी भीतर,
जिसको लुटाकर
जाआगे।
आत्मा बेच
दोगे, ठीकरे
खरीद लोगे।
जीवन का परम
अवसर जो
परमात्मा का
मिलन बन सकता
था, उसमें
कुछ कागज के
नोट इकट्ठे कर
लोगे।
और नोट
यहीं पड़े रह
जाएंगे।
उन्हें तुम
साथ न ले जा
सकोगे।
उन्हें कोई
कभी साथ नहीं
ले जा सका है।
संसार की कोई
भी वस्तु साथ
नहीं जा सकती।
धन की, असली
धन की परिभाषा
क्या है? जो
साथ जा सके।
ध्यान ही साथ
जा सकता है
इसलिए ध्यान
धन है।
बुद्ध
बारह वर्ष बाद
घर लौटे, उनकी
पत्नी नाराज
थी। उसने अपने
बेटे को उनके
सामने खड़ा कर
दिया। कहा, राहुल, ये
तेरे पिता
हैं। ये घर
छोड़कर भाग गए
थे। अब मिल गए
हैं। अब
दुबारा कभी
मिलना हो या न
मिलना हो, इनसे
अपनी वसीयत
मांग ले।
यह
मजाक था, व्यंग्य
था। बुद्ध के
पास अब क्या
था वसीयत देने
को? भिखारी
थे। हाथ में
सिर्फ एक भिक्षापात्र
था। मां मजाक
कर रही थी।
मां व्यंग्य
कर रही थी।
अपने बेटे से
कह रही थी, देख
ले, ये हैं
तेरे पिता। तू
बार-बार पूछता
था कि मेरे
पिता कौन, मेरे
पिता कौन हैं?
यह जो
भिखमंगा
तुम्हारे
सामने खड़ा है,
यह
तुम्हारा
पिता है। इसने
तुम्हें जन्म
दिया और
उत्तरदायित्व
नहीं समझा और
घर से भाग
गया। अब इससे
अपनी वसीयत
मांग लो, अब
दुबारा मिलना
हो कि न मिलना
हो। फिर यह आए,
न आए।
लेकिन
यशोधरा को पता
नहीं था कि
बुद्धों के साथ
मजाक में भी
जुड़ जाओ तो
मजाक महंगी पड़
जाती है।
राहुल ने हाथ
फैला दिए। मां
कहती थी कि
वसीयत मांग
लो। मां यह
दिखाना चाहती
थी कि बुद्ध
को समझ में आए
कि तुम सिर्फ भिखमंगे
हो गए हो, और
क्या हुआ? पाया
क्या? खोया
बहुत। सम्राट्
थे, भिखमंगे हो गए। आज
बेटा हाथ
फैलाए खड़ा है
तुम्हारे पास
देने को एक
पैसा भी नहीं
है। यह क्या
पाना हुआ? क्या
कमाकर
लौटे हो, मां
यह कह रही थी।
लेकिन
बुद्ध ने
राहुल के फैले
हुए हाथों में
अपना भिक्षापात्र
दे दिया और
कहा, तेरी
दीक्षा हो गई,
तू भी
भिक्षु हुआ।
मेरे पास यही
धन है देने को।
मैं ध्यान
लेकर लौटा हूं,
ध्यान तुझे
दूंगा।
और
यशोधरा को कहा
कि तुझे भी
मेरा
निमंत्रण है।
मैं परम संपदा
लेकर लौटा हूं, तू भी उसमें
भागीदार बन।
मैं गंवाकर
नहीं लौटा हूं,
कमाकर लौटा हूं।
मेरी आंखों
में फिर से
देख। यह वही आदमी
नहीं है जो
तुझे छोड़कर
गया था। मेरे
हाथ के भिक्षापात्र
को देखती है, मेरी आत्मा
को देख। मेरी
चारों तरफ
झरती हुई आभा
को देख। यह
संगीत जो मेरे
हृदय में बज
रहा है, इसको
सुन।
क्रोध
में थी
यशोधरा। और
क्रोध
बिल्कुल स्वाभाविक
था। लेकिन
बुद्ध की यह सिंहगर्जना!
उसने अपने
आंसू पोंछे, गौर से
बुद्ध को
देखा। यह
प्रमाद! यह
सौंदर्य! यह
निश्चित ही
दूसरा
व्यक्ति है।
देह वही है, आत्मा बदल
गई है। यह
गरिमा, यह
गौरव-मंडित रूप,
यह इस
पृथ्वी का
नहीं है। यह
परलोक से उतरा
है। यह दिव्य
है।
पश्चिम
के बहुत बड़े
विचारक, इतिहासज्ञ
एच० जी० वेल्स
ने लिखा है कि
इस पृथ्वी पर
बुद्ध से
ज्यादा
ईश्वर-विहीन
और ईश्वर-जैसा
व्यक्ति
दूसरा नहीं
है। बुद्ध
ईश्वर को मानते
नहीं थे इसलिए
ऐसा लिखा है। "सो
गॉडलेस
एंड सो गॉडलाइक'
: इतना ईश्वरशून्य
और इतना
ईश्वर-जैसा!
झुकी
यशोधरा, भिक्षुणी
हो गई।
ध्यान
धन है। ध्यान
को ही भक्त
कहते हैं, नाम-स्मरण।
वह भक्ति का
नाम है।
नाम
सुमिर मन
बावरे
नाम
इशारा है, प्रतीक है।
इसलिए किसी
खास नाम को भी
नहीं कहते
हैं। यह नहीं
कहते हैं कि
राम को सुमिरो।
क्योंकि राम
को सुमिरो
तो कृष्ण को
स्मरण
करनेवाला
सोचता है कि
पता नहीं, मैं
भूल कर रहा
हूं। अल्ला को
स्मरण
करनेवाला सोचेगा,
पता नहीं, मुझे अल्लाह
का स्मरण करना
चाहिए कि राम
का स्मरण करना
चाहिए!
इसलिए
संतों ने किसी
नाम का उपायोग
नहीं किया, सिर्फ कहा, नाम स्मरण
करो, सब
नाम उसी के
हैं। इसलिए
अल्लाह कहो तो,
राम कहो तो,
कृष्ण कहो
तो। जो हृदय
में बैठा हो
गहरा, जिस
शब्द से
तुम्हारा राग
लग जाए, जिस
शब्द से
तुम्हारी
ज्योति जुड़
जाए, जिस
शब्द से
तुम्हारे तार
संयुक्त हो
जाएं वही कहो;
उसी से राह
मिलेगी।
और
खयाल रखना, हरेक को
अपना शब्द खोज
लेना पड़ता है।
सभी शब्द एक
जैसे हैं।
अंग्रेज
कवि टेनिसन
ने तो लिखा है
कि मैं अपना
ही नाम
दोहराता हूं और
मुझे इतनी परम
शांति और
ध्यान की
अवस्था घनीभूत
हो जाती है, जो मुझे
किसी और से
नहीं होती।
मैं किसी को
बताता भी नहीं
हू क्योंकि
लोग क्या
कहेंगे कि
पागल हो! बस, जब भी मुझे
ध्यान करना
होता है, मैं
बैठ जाता हूं,
पुकारने
लगता हूं : "टेनिसन,
टेनिसन,
टेनिसन'। अपने को ही
अपना नाम
पुकारते
देखकर एक
सन्नाटा छा
जाता है। पुकारनेवाला
कोई और हो
जाता है, टेनिसन
कोई और हो
जाता है। मैं
साक्षी मात्र
रह जाता हूं।
सभी नाम
उसके हैं तो टेनिसन भी
उसी का नाम है; अल्लाह ही
क्यों और
रहमान ही
क्यों और राम
ही क्यों? मगर
जिससे राग लग
जाए! राग, राग
की बात है।
किसी को कृष्ण
का रूप प्यारा
लगता है, बिल्कुल
ठीक। क्योंकि
सभी रूप उसी
के हैं। कृष्ण
का मोर-मुकुट
बांधा हुआ रूप,
ओंठों पर
रखी बांसुरी,
नृत्य की
मुद्रा किसी
को प्यारी
लगती है। किसी
को महावीर का
रूप प्यारा
लगता है।
एक जैन
ने कुछ दिन
पहले संन्यास
लिया। संन्यास
लेते वक्त
उन्होंने कहा, बस एक आज्ञा
चाहता हूं कि
मुझे
जिन-प्रतिमा
से बड़ा आनंद
मिलता है, तो
मैं जिन मंदिर
जाता रहूं?
मैंने
कहा, सब मंदिर
उसके हैं।
मेरे
संन्यासी के
तो सारे मंदिर
हैं। मैं तुम्हे
किसी मंदिर से
नहीं तोड़ने को
हूं, जोड़ने को हूं।
जरूर जाते
रहो। अगर
तुम्हें
महावीर की
नग्न प्रतिमा
में रस
है--उसका अपना
सौंदर्य है।
खयाल
करना, कृष्ण
की सजी हुई
प्रतिमा का
अपना सौंदर्य
है। सजावट का
अपना सौंदर्य
होता है।
सादगी का भी
अपना सौंदर्य
होता है।
महावीर की
प्रतिमा
बिल्कुल सादी
है, उसमें
कुछ भी नहीं
सजा हुआ है।
नग्न खड़े हैं।
एक वस्त्र भी
नहीं है। किसी
को वह रूप मन
भाता है। जो
भा जाए।
मैंने
उनको कहा कि
जरूर तुम जाओ।
अब उनका पत्र
आया है, लेकिन
जैनी नहीं आने
देते। वे कहते
हैं, पहले
यह संन्यास छोड़ो। कहा,
अब यह तुम
समझो। मेरी
तरफ से बाधा
नहीं है। अब यह
जैनों की
नासमझी है कि
वे किसी
महावीर के प्यारे
को महावीर की
प्रतिमा तक न
आने दें। अब यह
उनकी मूढ़ता
है। उनकी मूढ़ता
के कारण
महावीर भी
अपने एक
प्यारे से
वंचित हो
जाएंगे।
लेकिन मेरी
तरफ से कोई
विरोध नहीं है।
जहां
झुक सको वहां
झुको। झुकना, समर्पण! संत
नाम नहीं
लेते। वे कहते
हैं, यह
नहीं बताते कि
कौन-सा नाम, वे सिर्फ
कहते हैं
नाम-स्मरण
करो। बड़ी
अर्थपूर्ण है
यह बात। जो भी
तुम्हें
प्यारा लगता
हो वही स्मरण करो।
स्मरण करो।
जोर स्मरण पर
है।
नाम
सुमिर मन
बावरे
ऐ पागल
मन! और मन
निश्चित पागल
है क्योंकि
इसने
क्या-क्या
स्मरण किया
है!
थोड़ा
सोचो तो, तुम्हारा
मन क्या-क्या
सोचता है, क्या-क्या
स्मरण करता
है! इसे
विक्षिप्त न कहोगे
तो और क्या
कहोगे? सार्थक
को छोड़कर
निरर्थक पर ही
भटकता फिरता है।
एक घूरे से
दूसरे घूरे पर
घूमता रहता
है।
रामकृष्ण
कहते थे, मन
चील की तरह
है। उड़ती आकाश
में है लेकिन
नजर नीचे लगी
रहती है कि
किस कचरे के
घूरे पर कौन-सा
चूहा मरा पड़ा
है।
उड़ता
आकाश में है।
मन कितनी ही ऊंचाइया
ले, नजर उसकी
नीचे लगी रहती
है। मन से
बहुत सावधान
होना जरूरी
है। मन
विक्षिप्तता
है। मन पागलपन
है।
और इस
पागलपन से
सिर्फ एक ही
छुटकारा है कि
किसी तरह तुम
इस सारे
पागलपन को
परमात्मा के
चरणों में
समर्पित कर
दो। उसके
संस्पर्श से
ही, उस
समर्पण से ही,
उसके
पारस-स्पर्श
से लोहा एकदम
सोना हो जाता
है और पागल मन
एकदम
बुद्धत्व।
इसी ऊर्जा से,
इसी
विक्षिप्तता
से विमुक्तता
पैदा हो जाती
है।
नाम
सुमिर मन
बावरे कहा
फिरत भुलाना
हो
नाम-स्मरण
का दीया जल
जाए तो फिर
भूल-भटकन बंद हो
जाती है। अभी
तो हम अंधेरे
में चले रहे
हैं।
किसी
की याद इस तरह
से आयी है आज
मेरे अंधेरे दिल
में
--कि
जैसे उजड़ी
सरा में आकर
दिया मुसाफिर
जला रहा हो
जैसे
बहुत दिन की उजड़ी पड़ी
हुई सराय हो, और कोई
मुसाफिर आ जाए,
रात ठहर जाए
और दीया जलाए,
ऐसी ही घटना
घटती है पहली
दफा जब
परमात्मा का स्मरण
तुम्हारे
भीतर उतरता
है।
जन्मों-जन्मों
से उजड़ी
पड़ी हुई सराय
है। खंडहर हो
गए तुम। रोशनी
से संबंध ही
भूल गया है।
रोशनी की
पहचान ही भूल
गई है।
जब पहली
दफा स्मरण का
दीया जलता है, सुरति का
दीया जलता है,
जब पहली दफा
कोई ध्यान या
भक्ति या
प्रार्थना में
लीन होने लगता
है तो एक
ज्योति उमगती
है--ज्योति जो
तुम्हारी ही
ज्योति है; ज्योति जो
तुम्हारे ही
प्राणों में
छिपी पड़ी है; ज्योति जिसे
जगाना है।
जैसे
चकमक के दो
पत्थरों को
टकरा दो, और
ज्योति पैदा
हो जाती है।
पड़ी थी, पत्थरों
में ही छिपी
पड़ी थी। ऐसे
ही व्यक्ति जब
परमात्मा के
नाम का स्मरण
करता है तो यह
छोटी-सी चकमक का
पत्थर उस बड़े
विराट चकमक के
पत्थर से टकरा
जाता है।
ज्योति उमग
आती है। उस
ज्योति में चलना
आनंद है, उल्लास
है। उस ज्योति
में चलना
नृत्य है। उस
ज्योति में
चलना संगीत
है। उस ज्योति
में चलना जीवन
है, महाजीवन,
जिसका फिर
कोई अंत नहीं
आता।
अंधेरे
में चलना
मृत्यु में
चलना है।
इसीलिए तो
मृत्यु को हम
काला चित्रित
करते हैं; वह सिर्फ
प्रतीक है
अंधेरे का।
ऐसा मत सोचना
कि यमदूत काले
ही होते हैं; सब तरह के
होते हैं, रंग-रंग
के होते हैं।
और ऐसा मत
सोचना कि भैंसे
पर ही बैठकर
आते हैं, जमाने
बदल गए। आज-कल
मोटर-साइकिल
पर आते हैं। फटफटी पर
बैठकर आते
हैं। अब क्या
भैंस वगैरह पर
बैठना! या रेल
के इंजिन पर
सवार होकर आते
हैं। मगर रंग
काला।
काला
रंग प्रतीक है
अंधकार का।
मौत अंधकार में
घटती है। मौत
अंधकार की
घटना है, बस
इतना अर्थ
लेना। दीया जल
जाए तो फिर
मौत नहीं।
प्रकाश अमृत
है।
इसलिए
ऋषियों ने उपनिषद्
में गाया हैः
"तमसो मा ज्योतिर्गमय
:"तमसो मा ज्योतिर्गमय
: 'मुझे तमस से
ज्योति की ओर
ले चलो। "मृत्योर्मा
मृतं गमय
:' मुझे
मृत्यु से
अमृत की ओर ले
चलो। "असतो
मा सद्गमय
: मुझे असत
से सत की ओर ले
चलो। ये तीनों
पर्यायवाची
हैं--असत, मृत्यु, अंधकार
पर्यायवाची
हैं। ऐसे ही
सत, प्रकाश,
अमृत
पर्यायवाची
हैं।
अंधेरे
को प्रकाश बना
लो, और
तुम्हारा
जीवन व्यर्थ
नहीं गया।
तुमने अपने
जीवन का उपयोग
कर लिया।
नाम
सुमिर मन
बावरे कहा
फिरत भुलाना
हो
--अगर
नहीं किया नाम
का स्मरण तो
तुम मिट्टी के
पुतले हो और
मिट्टी में ही
गिर जाओगे।
मट्टी
का बना पूतला
पानी संग साना
हो
--और
तुम कुछ भी
नहीं हो।
परमात्मा का
संस्पर्श हो
जाए तो तुम
अमृत ज्योति
हो। परमात्मा
का संस्पर्श न
हो तो, "मट्टी
का बना पूतला
पानी संग साना
हो।' फिर
इससे ज्यादा
तुम कुछ भी
नहीं हो।
जॉर्ज
गुरजिएफ एक
बहुत
महत्त्वपूर्ण
बात कहता था।
वह कहता था, सभी आदमियों
में आत्माएं
नहीं होतीं।
आत्मा तो तभी
पैदा होती है
आदमी में जब
परमात्मा का संग-साथ
होता है। नहीं
तो दबी पड़ी
रहती है संभावना
मात्र, वास्तविकता
नहीं। जैसे आग
पड़ी चकमक में,
जैसे वृक्ष
पड़ा बीज में, बस ऐसे
आत्मा सोयी
पड़ी रहती है।
जैसे ही परमात्मा
का तुम स्मरण
करते हो कि
आत्मा जगने
लगती है।
स्मरण जागने
की प्रक्रिया
है।
मट्टी
का बना पूतला
पानी संग साना
हो
इक
दिन हंसा चलि
बसै घर बार
बिराना हो
और यह
जो पक्षी
तुम्हारे
भीतर बसा है
जीवन का
अपरिचित, जिससे
तुमने पहचान
भी नहीं की, जिससे
तुम्हारा
परिचय भी नहीं
हुआ, जिसको
तुम जानते भी
नहीं कौन है।
यह हंस किस मानसरोवर
से आता है और
फिर किस
मानसरोवर को
लौट जाता है, तुम्हें कुछ
पता भी नहीं
है। मगर थोड़ी
देर को एक
वृक्ष पर आ
बैठे हो, विश्राम
किया हो, सराय
में ठहर गए हो,
इसी को घर
मान लिया है, इसी देह को
सब कुछ समझ
लिया है, इससे
तादात्म्य कर
लिया है तो
चूक जाओगे; तो मिट्टी
मिट्टी में
गिर जाएगी।
अवसर व्यर्थ
गया।
इक
दिन हंसा चलि
बसै घर बार
बिराना हो
और एक
दिन यह घर
उजड़ा पड़ा रह
जाएगा। और वह
दिन कभी भी आ
सकता है; आज
भी आ सकता है, कल भी आ सकता
है। किसी न
किसी दिन तो
आना है, जिस
दिन हंसा उड़
चलेगा। उसके
पहले कुछ
तैयारी कर लो।
उसके पहले इस
हंस से पहचान
कर लो।
जो इस
हंस से पहचान
कर लेते हैं
उनको हम परमहंस
कहते हैं। जो
ठीक से जान लेते
हैं, मैं कौन
हूं, वे
परमहंस हो गए।
फिर इसी देह
में रहते हैं
लेकिन फिर देह
धर्मशाला है,
घर नहीं।
लेकिन व्यर्थ
की चीजों में
बड़ा आकर्षण
है। छोटे-छोटे
खिलौनों में
बड़ा रस है।
ऐ हमनफ़स न
पूछ जवानी का
माजरा
मौज-ए-नसीम
थी इधर आयी, उधर गई
जवानी
आ जाती है, नए-नए
खिलौने! बचपन
के अलग खिलौने,
जवानी के
अलग खिलौने, बुढ़ापे के
अलग खिलौने।
तुम चकित
होओगे जानकर,
जैसे बच्चे
गुड्डा-गुड्डियों
का विवाह
रचाते हैं, उन खिलौनों
से खेलते हैं।
जवान
महत्त्वाकांक्षा
के खिलौनों
में खेलते हैं
: बड़े मकान
बनाने हैं, बड़ी तिजोड़ी
भरनी है। बूढ़े
भी खेल खेलते
हैं। कोई माला
फेर रहा है, कोई तिलक
लगाए बैठा है,
कोई पूजा कर
रहा है--ये
बुढ़ापे के खेल
हैं। इन खेलों
से धर्म का
कोई संबंध
नहीं है। जैसे
बचपन के खेल
व्यर्थ, वैसे
जवानी के खेल
व्यर्थ, वैसे
बुढ़ापे के खेल
व्यर्थ। धर्म
का खेल से कोई
संबंध नहीं
है। खेल से जागो!
सब खेल आते
हैं, चले
जाते हैं।
तुम
देखते हो, बच्चों को
बूढ़ों के खेल
व्यर्थ मालूम
होते हैं।
बच्चे सोच भी
नहीं पाते कि
यह क्या बुङ्ढा
करता रहता है!
आरती उतार रहे
हैं। हंसते
हैं बच्चे; स्वभावतः
हंसते हैं।
बूढ़े बच्चों
पर हंसते हैं।
बूढ़े सोचते
हैं बच्चों के
खेल व्यर्थ।
क्या तुम
गुड्डा-गुड्डी
का विवाह रचा
रहे हो! जवान
दोनों पर हंसते
हैं। बूढ़े
जवानों पर
हंसते हैं, जवान बूढ़ों
पर हंसते हैं।
सब
दूसरे के खेल
को पहचान लेते
हैं कि यह खेल
है, अपना खेल
भर दिखाई नहीं
पड़ता। जिसको
अपना खेल दिखाई
पड़ जाता है वही
जाग गया। फिर
वह दूसरे पर
नहीं हंसता, वह अपने पर
ही हंसता है।
चंद्रकांत
ने प्रश्न
पूछा है कल कि
दोनों बातें
साथ-साथ घट
रही हैं। रोना
भी होता है और
हंसी भी आती
है। यह कैसा
द्वंद्व हो
रहा है!
ये
दोनों साथ घट
सकते हैं।
चिंता न लेना
चंद्रकांत! घबड़ाना मत
कि कहीं
विक्षिप्त तो
नहीं हो रहा
हूं? एक ही साथ
दोनों बातें
हो सकती हैं।
रोना आ सकता
है क्योंकि
जिंदगी फिजूल
जा रही है और
हंसना भी आ
सकता है कि
कैसी फिजूल की
चीजों में फिजूल
जा रही है!
रोना-हंसना
साथ-साथ आ
सकते हैं, मगर अपने पर
जिसको हंसना
आने लगे और
अपने पर जिसको
रोना आने लगे
वह करीब आने
लगा घर के। दूसरों
पर सभी हंसते
हैं। जो अपने
पर हंस लेता है
उसके जीवन में
धर्म की
शुरुआत हुई।
हंसना हो तो
अपने पर
हंसना। देखना
हो तो अपनी मूढ़ता
देखना। दूसरे
की मूढ़ता
देखने में कोई
कठिनाई नहीं
है। जहां नहीं
होती वहां भी
लोग देख लेते
हैं। क्योंकि
दूसरे को मूढ़
सिद्ध करने
में बड़ा रस है,
अहंकार की
बड़ी तृप्ति
है।
और
अहंकार सबसे
बड़ी मूढ़ता
है क्योंकि
सबसे बड़ा झूठ
है। तुम नहीं
हो, परमात्मा
है। मैं नहीं
हूं, परमात्मा
है। मेरा होना
सिर्फ एक
भ्रांति है, एक सपना है, एक ख्वाब है
जो अंधेरे में
और नींद में
देखा गया। और
सुबह होते, सूरज के
निकलते ही ऐसे
खो जाएगा कि खोजे से
नहीं मिलेगा।
तुम तलाशते
फिरोगे और पता
भी नहीं
चलेगा। एक न
एक दिन हंसा
तो जाएगा। और
तब सारा जग
वीरान पड़ा नजर
आएगा।
कब्रों
के मनाज़िर
ने करबट न
कभी बदली
अंदर
वही आबादी, बाहर वही
वीराना
कब्र
में जो बस
जाते हैं वे
करवट भी नहीं
लेते फिर, खयाल रखना।
फिर करवट लेने
की भी सुविधा
नहीं रह जाती।
अभी तो बहुत
कुछ करने की
सुविधा है, कर लो तो कर
लो। कब्र में
गए तो करबट
भी न ले
सकोगे।
कब्रों
के मनाज़िर
ने करवट न कभी
बदली
अंदर
वही आबादी, बाहर वही
वीराना
अंदर
बसे रहते हैं, मरे पड़े
रहते हैं तो
अंदर वही
आबादी और बाहर
वही वीराना।
एक
गांव में गांव
की म्युनिसिपल
कमिटी विचार
करती थी कि
मरघट के चारों
तरफ दीवाल
उठाकर घेरा
बना दिया जाए।
मुल्ला नसरुद्दीन
भी सदस्य था म्युनिसिपल
कमिटी का। वह
बीच में खड़ा हो
गया, उसने कहा,
यह बिल्कुल
फिजूल है।
मरघट पर
दीवाल! क्यों
पैसे खराब
करना? इसमें
कोई भी सार
नहीं है।
क्योंकि जो
मरघट के भीतर
हो गए हैं वे
बाहर आना भी
चाहें तो आ
नहीं सकते। और
जो बाहर हैं, जब तक
जबरदस्ती न
लाए जाएं, वे
भीतर आएंगे
नहीं। तो
दीवाल बनाने
की क्या जरूरत
है? बाहरवाले तो बाहर
भागे रहते हैं,
वे तो मरघट
से बचते हैं।
और भीतर जो
बसे हैं वे बस
ही गए हैं। अब
उनका कोई उपाय
नहीं है बाहर
आने का। तो
दीवाल की
जरूरत क्या है?
दीवाल
के दो ही काम
हो सकते हैं :
या तो बाहर जो
हैं उनको भीतर
न आने दिया
जाए, भीतर जो हैं
उनको बाहर न
आने दिया जाए।
मरघट से कौन
बाहर आता है? भीतर वही
आबादी, बाहर
वही वीराना!
लेकिन मरघट
में जाकर पता
चलता है कि
बाहर वीराना
है। जहां कल
तक जिंदगी समझी
थी और जिंदगी
के खूब सपने संजाए थे
और जिंदगी के
खूब रूप उठाए
थे और बड़ी दौड़ें
की थीं, बड़ी
आपाधापी की
थी। मरघट में
गिरकर पता
चलता है, अरे!
वहां कुछ भी न
था, सब
वीराना था।
जैसे सुबह जागकर
रात का सपना
वीरान हो जाता
है। मगर तब तक
तो बहुत देर
हो चुकी। फिर पछताए होत
का जब चिड़िया
चुग गई खेत।
जिनको जीते-जी
मरघट दिखाई
पड़ने लगता है
उन्हें कुछ न
कुछ करना पड़ता
है।
बुद्ध
अपने
भिक्षुओं को
मरघट भेज देते
थे। जब पहले
दीक्षा देते
थे तो दीक्षा
के बाद पहला
काम यह था कि
जाकर तीन
महीने मरघट
में रह आओ। यह
भी अजीब बात
थी। क्यों? क्योंकि तीन
महीने ठीक से
देख लो कि यह
जिंदगी का सार
क्या है। सुबह
से सांझ तक
मुर्दे आते हैं,
रात भी
मुर्दे आते
हैं। दिन भी
मुर्दे जलते
हैं, रात
भी मुर्दे
जलते हैं।
भिक्षु बैठा
है, देख
रहा है। दिन
आते हैं, जाते
हैं, मुर्दे
आते रहते हैं,
जलते रहते
हैं।
कल इसी
आदमी को बाजार
में हंसते
देखा था, परसों
इसी आदमी के
घर भीख मांगी
थी, नरसों
यह आदमी गाली
दे रहा था
किसी को। चले
आ रहे हैं
लोग। जब इसने
परसों किसी को
गाली दी थी तो
इसे खयाल भी
नहीं हो सकता
था कि बस दो
दिन और। कल
इसके घर के
सामने भिक्षा मांगी
थी, इसने
कहा था, कल
आना; और आज
यह खत्म हो
गया। अब इसके
घर जाने पर यह
मिलेगा भी
नहीं।
ऐसे
भिक्षु बैठा
है, जलती हुई
लाशें देखता
है। इसी देह
की इतनी चिंता
की थी, इतनी
साज-संवार की
थी, इतने
सम्हाल-सम्हालकर
चले थे कि
कांटा न लग जाए।
जरा-सा अंगारा
छू जाता था, कितनी पीड़ा
होती थी! और आज
यही देह जलने
लगी। और जो
इसे ले आए हैं
कंधे पर ये
अपने प्रियजन
हैं, भाई
हैं, बंधु
हैं, मित्र
हैं। ये कहते
थे कि हम
जिंदगी-मरण
में साथ देंगे।
ये जल्दी से
बांधकर ले आए
हैं, आग पर चढ़ाकर
वापिस भी लौट
गए हैं। इनको
और भी काम हैं
दुनिया में, हजार काम
पड़े हैं अभी।
ये निपटारा कर
गए हैं जल्दी।
तुमने
देखा! किसी के
घर में कोई
मरता है तो घर
के लोग तो
रोने-धोने में
लग जाते हैं, मोहल्ले के
लोग जल्दी से
अर्थी बांधने
लगते हैं।
जल्दी करो!
जितने जल्दी
हो सके, छुटकारा,
इस आदमी से
छुटकारा करो।
कल तक इसे पकड़कर
बैठे थे, आज
इससे इतनी
जल्दी हो गई
है छुटकारे की;
इतनी तेजी
मची है कि
जल्दी से
पहुंचाओ।
जितनी जल्दी
खत्म हो उतना
अच्छा।
मुर्दे को कौन
घर में रखे? रहेगा तो
बदबू देगा। और
रहेगा तो भय
पैदा करेगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपनी पत्नी से
बात कर रहा
था। उसकी बड़ी
उत्सुकता थी
कि क्या होता
है मरने के
बाद! वह अपनी
पत्नी से कह
रहा था, हम
दो में से जो
कोई भी मरे
पहले, वह
इतना वादा कर
दे कि अकर कम
से कम दरवाजा
खटखटा देगा और
आवाज देकर कह
देगा कि हां
मैं हूं।
जिंदगी जारी
रहती है।
दोनों
राजी हो गए।
फिर थोड़ी देर
बाद सोचकर मुल्ला
बोला कि एक
बात लेकिन
खयाल रखना, दिन में खटपटाना,
रात में
नहीं। पत्नी
ने कहा, क्यों?
मुल्ला ने
कहा, रात
में वैसे ही
डर लगेगा। घर
अकेला, और
कोई भूत-प्रेत
आकर दरवाजा खटखटाए! पर
पत्नी ने कहा,
मैं
तुम्हारी
पत्नी हूं, भूत-प्रेत
नहीं। उसने
कहा, अरे
अभी है वह बात
ठीक, मगर
मरने के बाद
कौन किसका पति,
कौन किसकी
पत्नी!
तुम
जरा सोचो, तुम्हारी
पत्नी ही
तुम्हें मिल
जाए मरने के बाद
प्रेत होकर तो
तुम ऐसे
भागोगे कि
लौटकर भी नहीं
देखोगे
पीछे। और यही
पत्नी थी
जिससे तुमने
कहा था कि मरेंगे
तो साथ, जिएंगे तो साथ।
दुःख-सुख सब
साथ-साथ
उठाएंगे।
हम
यहां जो बातें
एक-दूसरे से
कर लेते हैं, जो संबंध
बना लेते हैं,
कैसे झूठे
हैं! मौत आ
जाती है और हमारे
सारे झूठों को
उघाड़कर
रख देती है।
एक
दिन हंसा चलि
बसै घर-बार
बिराना हो
मैं
क्या कहूं कि
क्या थी उज़रा
तेरी मुहब्बत
इक नख्ल मिल
गया था सहराए-जिंदगी
में
कूकी
न इक कोयल, बोला न इक
पपीहा
कोई
हुआ न साथी
राधा का बेकसी
में
कुछ
ढेर राख के
हैं, कुछ
अधजली-सी लकड़ी
आया
था इक मुसाफिर
सहराए-जिंदगी
में
बस
इतनी ही खबर
छूट जाती है
पीछे--कुछ ढेर
राख के हैं, कुछ
अधजली-सी
लकड़ी। जरा
मरघट पर जाकर
तो देखो! यही
छूट जाता है
पीछे।
कुछ
ढेर राख के
हैं, कुछ
अधजली-सी लकड़ी
आया
था इक मुसाफिर
सहराए-जिंदगी
में
कोई
मुसाफिर आया
था जिंदगी में, बस इतना सब
पीछे छूट गया
है। जैसे किसी
वृक्ष के नीचे
कोई मुसाफिर
ठहर जाता है, खाना बना
लेता है, फिर
चल पड़ता है।
एक टूटी-फूटी
हंडी पड़ी है, दो-चार ईंटें
पड़ी हैं जिनका
उसने चूल्हा
बना लिया था, कुछ
जली-अधजली लकड़ियां
पड़ी हैं। बस, इतना चिह्न छूट
जाता है पीछे।
इससे पता चलता
है कि कोई मुसाफिर
आया था, वृक्ष
के नीचे ठहरा
था, बस।
जिंदगीभर
में भी तो
इतना ही चिह्न
छूटता है, इससे ज्यादा
क्या! इसको
जिंदगी कहते
हो? इसको
जिंदगी कहना
चाहिए? क्या
यह उचित है, जिंदगी जैसा
प्यारा शब्द
इस व्यर्थ की
श्रृंखला को
देना? नहीं,
ज्ञानी
कहते हैं, नहीं।
निसि
अंधियारी
कोठरी दूजे
दीया न बाती
हो
इसको
क्या खाक
जिंदगी कहते
हो! रात-दिन
अंधेरा है।
निसि
अंधियारी
कोठरी दूजे
दीया न बाती
हो
न
तो दीया है न
बाती है, अंधेरा ही
अंधेरा है।
बांह
पकरि जम लै चलै, कोउ संग न
साथी हो
और आज
नहीं कल पकड़
लेंगे यमदूत
और ले चलेंगे।
न कोई संगी
होगा, न कोई
साथी होगा। सब
पीछे छूट
जाएंगे। सब
दूर कभी देखे
थे सपने, ऐसे
मालूम होने
लगेंगे।
भरोसा भी आएगा
कि कभी थे, कभी
अपने थे; कभी
संगी-साथी
होने की बातें
की थीं, एक-दूसरे
को आश्वासन
दिलाए थे। ऐसा
लगेगा जैसे
किसी सपने में
देखी बातें
हों, कि
उपन्यास में
पढ़ी कहानी हो
कि कहीं कोई
फिल्म देखी
हो।
और हम
कितना भरोसा
दिलाते हैं
एक-दूसरे को!
यह भरोसा भी
हम इसीलिए
दिलाते हैं, नहीं तो
जिंदगी एकदम
खाली है।
इन्हीं
भरोसों से भरे
रखते हैं।
इन्हीं झूठे
आश्वासनों से
अपने को किसी
तरह सम्हाले
रखते हैं।
क्या करे
आदमी! किसी
तरह जीना तो
है! थेगड़े
लगाते रहते
हैं। झूठे
आश्वासन, झूठे
भरोसे, झूठे
विश्वास
एक-दूसरे को
दिलाते रहते
हैं, कि घबड़ाओ
मत। तुम भी
घबड़ा रहे हो, दूसरा भी
घबड़ा रहा है
लेकिन तुम
कहते हो, घबड़ाओ
मत, मैं तो
हूं! मैं
तुम्हारे साथ
हूं।
ऐसा
कहकर हम
एक-दूसरे के
घावों की
मलहम-पट्टी करते
रहते हैं।
घावों को ढांकते
रहते हैं।
इससे घाव
मिटते नहीं, यही घाव
नासूर हो जाते
हैं, यही
घाव कैंसर बन
जाते हैं।
इन्हीं घावों
में एक दिन
आदमी डूब जाता
है। इन्हीं
मवादों में एक
दिन आदमी डूब
जाता है।
जितने जल्दी
तुम देख सको
कि ये आश्वासन
झूठे हैं उतना
ही शुभ है।
बांह
पकरि जम लै चलै
कोउ संग न
साथी हो
सदा से
कहानियां यही
कहती हैं कि
बांह पकड़कर
यमदूत ले जाते
हैं। बांह पकड़कर
क्यों? क्योंकि
तुम जाना नहीं
चाहते। मरते
वक्त भी कोई
जाना थोड़े ही
चाहता है!
जबरदस्ती
होती है, खींचातान करनी पड़ती
है। यमदूत भी
बिल्कुल
छांट-छांटकर रखे
जाते हैं, पहलवान
किस्म के लोग--दारासिंग
इत्यादि सब!
उनका काम यही
कि
खींच-खींचकर
ले जाएं। जाना
कोई चाहता
नहीं। मरते दम
तक आदमी जोर
से किनारा पकड़ता
है; आखिरी
क्षण तक
किनारा पकड़े
रहता है।
यह जो
यमदूत खींचने
की बात है, इसका
यमदूतों से
कोई संबंध
नहीं है। न
कहीं कोई
यमदूत हैं, न कोई
खींचनेवाला
है। ये सिर्फ
इस बात की खबर दे
रहे हैं कि
तुम इतने जोर
से पकड़ते
हो कि जब तक
तुम खींचे न
जाओ, तुम
इस देह को छोड़ोगे
ही नहीं। तुम
मर भी जाओगे
तो भी इसी देह
में बने
रहोगे।
इसलिए
सारी दुनिया
में देह को
जल्दी दफना
देने, आग
लगा देने का
उपाय है ताकि
तुम, तुम्हारा
मोह उससे लगा
न रह जाए।
नहीं तो तुम देह
के आसपास
चक्कर
काटोगे।
तुम्हारा मन
उसमें फिर भी
लिप्त रहेगा।
इतने दिन का
साथ एकदम से
कैसे भूल
जाओगे? आखिरी
दम तक चेष्टा
करोगे कि लौट
आऊं।
कभी-कभी
कुछ लोग लौट
भी आते हैं; मरकर भी लौट
आते हैं। मोह
भयंकर होता
होगा। यमदूतों
को भी हरा
देते हैं; बचकर
निकल आते हैं;
फिर से आ
जाते हैं।
कभी-कभी ऐसी
घटना घट जाती
है। इन लोगों
का शरीर से
लगाव भारी
होता होगा; इतना भारी कि
टूटते-टूटते
भी नहीं टूट
पाता। एकाध
धागा जुड़ा रह
जाता है तो
फिर लौट आते
हैं।
लोग
बूढ़े हो जाते
हैं, सब तरह से
जिंदगी
व्यर्थ हो
जाती है, फिर
भी जिए चले
जाते हैं।
अस्पतालों
में देखते हो,
लोग लटके
हैं, ग्लुकोज दिया जा रहा
है, होश
में भी नहीं
हैं, एक
टांग ऊपर लटकी
है, एक
नीचे लटकी है,
हाथ कहीं
बंधा है, पैर
कहीं बंधा है,
होश में भी
नहीं हैं, खाना
भी इंजेक्शन
से दिया जा
रहा है, लेकिन
फिर भी आशा
लगी है : और जी
जाएं।
एक बड़ी
महत्त्वपूर्ण
एतिहासिक
घटना है, तिब्बत
में घटी।
भरोसा न आए
ऐसी घटना है, मगर घटी।
आदमी के मोह
के संबंध में
खबर देती है।
लामाओं का एक
आश्रम तिब्बत
में है, उस
आश्रम का यही
नियम था कि जो
भी मरे, आश्रम
के नीचे ही
पहाड़ की
गहराइयों में
बड़ी खंदकें
थीं। उन खंदकों
में मरघट था, वहां लाश को
डाल देते थे
अंदर। गुफाएं
थीं, खोह
थी। चट्टान
हटाकर लाश को
नीचे डाल देते
थे, चट्टान
फिर लगा देते
थे।
एक
आदमी मरा, वह पूरा मरा
नहीं था, अधमरा
था। अभी होश
कुछ-कुछ चला
गया था, लेकिन
लोगों ने
जल्दी की
होगी। मरे
आदमी को जल्दी
विदा करने की
फिक्र थी।
उन्होंने उठा
दिया पत्थर और
लामा को डाल
दिया नीचे।
कोई घंटे-दो
घंटे वह होश
में आ गया। अब
उस चट्टान के
नीच से कितना
ही चिल्लाए, आवाज बाहर न
जाए। और आवाज
अगर जाए भी
बाहर तो क्या
तुम सोचते हो,
कोई चट्टान
हटाएगा? घबड़ाएंगे लोग कि पता
नहीं भूत हो
गया, प्रेत
हो गया, क्या
हो गया! और
चट्टानें रख
देंगे ऊपर कि
किसी तरह अंदर
ही दबा रहे, अब बाहर न निकल
आए।
अब यह
आदमी बिल्कुल
बूढ़ा था। और
बड़ी मुश्किल में
पड़ गया। भयंकर
अंधकार! और
वहां सैकड़ों
लाशें सड़
चुकी थीं, उनकी भयंकर
बदबू! भूख भी
लगने लगी।
चिल्लाता भी
रहा तो और भूख
लगने लगी।
प्यास भी लगने
लगी। तुम चकित
होओगे जानकर,
वह सड़ी
हुई लाशों का
मांस खाता
रहा। और गुफा
की दीवालों से
जो आश्रम का
नाली इत्यादि
का गंदा पानी
उतर आता था, उसको चाट-चाटकर
पीता रहा।
लाशों में जो
कीड़े-मकोड़े
पड़ गए थे वे भी
खाने लगा।
करेगा क्या? जिंदगी का
मोह ऐसा है।
और बड़े
आश्चर्य की
बात है ..... और
प्रार्थना
करने लगा।
बौद्ध भिक्षु!
परमात्मा को
कभी माना नहीं
था, लेकिन अब
प्रार्थना
करने लग गया।
ऐसी कठिनाइयों
में लोग
परमात्मा को
मान लेते हैं।
परमात्मा के
सिवा अब कोई
सहारा नहीं
दिखाई पड़ता था
उसे। और
प्रार्थना
क्या करता था?
प्रार्थना
ऐसी, जो कि
बुद्ध-धर्म के
बिल्कुल
खिलाफ।
जिंदगी भर
बौद्ध भिक्षु
रहा!
प्रार्थना यह
थी कि अब कोई
आश्रम में मर
जाए। क्योंकि
जब कोई मरे
तभी चट्टान
हटे। न कोई
मरे तो चट्टान
हटनेवाली
नहीं है। कोई
मर जाए आश्रम
में। सोचता था
कौन मरे। और
एक ही
प्रार्थना
चौबीस घंटे।
काम भी दूसरा
नहीं था कि
कोई मरे। हे
भगवान, किसी
को मार। किसी
को भी मार, मगर
जल्दी कर।
ज्यादा देर हो
गई तो मैं मर जाऊंगा।
आदमी
को खुद जिंदा
रहना हो तो वह
किसी को भी मारने
को तैयार हो
जाए। यही तो
सारे जिंदगी
की गलाघोंट
प्रतियोगिता
है। सब
एक-दूसरे का गलाघोंट
रहे हैं। उस
आदमी पर दया
करना। उसने
कुछ गलत प्रार्थना
नहीं की। कितनी
ही गलत मालूम
पड़े, कितनी ही
हिंसात्मक
मालूम पड़े।
पांच
साल बाद कोई
मरा। कहते हैं
न, देर है
अंधेर नहीं।
परमात्मा ने
भी खूब देर से
सुनी, पांच
साल लग गए!
सरकारी
कामकाज! फाइल
पहुंचते-पहुंचते
भी तो समय
लगता है।
पहुंची होगी
जब तक
प्रार्थना, पांच साल
बाद कोई मरा।
चट्टान हटी।
लोग तो दंग रह
गए। जब उन्होंने
चट्टान हटाई
तो वह बाहर
निकला आदमी।
उसे देखकर
एकदम घबड़ा गए।
पहचान भी नहीं
आया। सारे बाल
शुभ्र हो गए
थे। और बाल
इतने बड़े हो
गए थे कि जमीन
छू रहे थे। दाढ़ी
के बाल जमीन
छू रहे थे।
आंखें उसकी
खराब हो गई थीं
बिल्कुल क्योंकि
पांच साल
अंधकार में
रहा। भयंकर
बदबू उसकी देह
से आ रही थी
क्योंकि मांस सड़ा-सड़ाया,
कीड़े-मकोड़े,
गंदा पानी,
यही उसका
आहार था।
हो
सकता है जब
साधना करता था
ऊपर तो सिर्फ दुग्धाहार
करता रहा हो, उपवास करता
रहा हो, शुद्ध
फलाहार करता
रहा हो। ऐसी
ऊंची-ऊंची बातें
सूझती हैं जब
सुविधा होती
है। लेकिन
जहां सुविधा न
हो वहां कोई
उपवास करे!
भरे पेट लोग
उपवास करते
हैं, भूखे
पेट लोग उपवास
करते। गरीब
आदमी का धार्मिक
दिन आता है तो
उस दिन हलुआ-पूड़ी
बनाता है।
अमीर आदमी का
धार्मिक दिन
आता है तो
उपवास करता
है। जैनी
अकारण उपवास
नहीं करते, धन है तो
उपवास करना
पड़ता है।
धार्मिक
दिन--उपवास
करना पड़ता है।
अब यह
आदमी तो भूखा
मर रहा था और
उपवास का सोचा
ही नहीं पांच
साल इसने। और
इतना ही नहीं, जब वह बाहर
निकला तो वह
बहुत-से कपड़े
साथ लेकर निकला।
क्योंकि
तिब्बत में
रिवाज है कि
जब कोई मर जाता
है तो उसके
साथ दो जोड़ी
कपड़े भी रख
देते हैं। तो
उसने सब
मुर्दों के
कपड़े इकट्ठे
कर लिए थे कि
जब निकलूंगा.....आदमी
का मन! और
तिब्बत में यह
भी रिवाज है, जब कोई मरता
है तो उसके
साथ दस-पांच
रुपए भी रख देते
हैं। उसने सब
रुपए भी
इकट्ठे कर लिए
थे। एक पोटली
में रुपए
बांधे हुए था
और एक पोटली
में सारे कपड़े
बांधे हुए था।
जब वे
दोनों पोटलियां
उसने बाहर
खींची, लोगों
ने कहा, यह
क्या कर रहे
हो? तुम
अभी जिंदा हो?
उसने कहा, मैं जिंदा
हूं और
भला-चंगा हूं।
और यह पांच साल
की मेरी कमाई
है। एक पैसा
नहीं छोड़ा है
कहीं। सब ढूंढ
डाला। काम भी
नहीं था कोई
दूसरा।
मर भी
जाए आदमी, मुर्दाघर
में भी पड़ा हो
तो पैसा
इकट्ठा करेगा।
जिंदगीभर
की आदतें ऐसी
ही चली नहीं
जातीं। फिर
आदतों का सवाल
परिस्थितियों
से नहीं है, आदतों का
सवाल मनःस्थितियों
से है।
बांह
पकरि जम लै चलै
कोउ संग न
साथी हो
गज
रथ घोड़ा पालकी
अरु सकल समाजा
हो
इक
दिन तजि चल
जाएंगे रानी औ
राजा हा
--सब
छूट जाएगा।
राजा भी
जाएंगे, रानियां
भी जाएंगी, हाथी, घोड़े,
धन-दौलत, सब पड़ी रह
जाएगी।
सेमर
पर बैठा सुवना--जैसे
तोता सेमर
के झाड़ पर
बैठा हो ..... लाल
फर देख भुलाना
हो--सेमर
के लाल फूल को
देखकर समझता
हो कि यह फल
है। लाल है, सुर्ख है, रसभरा है।
सेमर
पर बैठा सुवना
लाल फर देख
भुलाना हो
मारत
टोंट मुआ उघिराना
फिरि
पाछे पछिताना
हो
--लेकिन
सेमर का
फूल, उस पर
चोंच मारी, फल के लिए
मारी थी लेकिन
सिर्फ कपास उड़
गई, कुछ
हाथ न लगा।
ऐसी यह
जिंदगी है।
जहां तुम फल
देख रहे हो, सेमर का फूल है।चोंच
मारोगे, फूल
उघड़
जाएगा, कपास
उड़ जाएगी, हाथ
कुछ भी न
लगेगा। पीछे
बहुत
पछताओगे। अभी
से देख लो इस सेमर के
फूल को। अभी
से पहचान लो।
गुलर
के तु
मुनगा तू का
आव समाना हो
और
अपने को कुछ
विशिष्ट मत
समझो। इस जगत्
में इतनी-इतनी
योनियां
हैं, इतने-इतने
प्राणी हैं।
इनमें कुछ अकड़ो
मत कि मैं
मनुष्य हूं, कुछ खास
हूं। खास तो
तुम तभी हो
सकते हो जब
तुम परम जीवन
के सूत्र को
पकड़ लो। उसके
पहले तो तुम
भी गूलर के भुनगे
हो। तुम्हारी
स्थिति भी
कीड़े-मकोड़े
से ज्यादा
नहीं है।
अपने
को विशिष्ट
समझने की आदत
छोड़ दो। वह
अहंकार बाधा
ही डालता है।
उस अहंकार से
कोई सहारा
नहीं मिलता, अड़चन पड़ती
है। अपने को
भी तब तक कीड़ा-मकोड़ा ही
समझो जब तक
परमात्मा से
मिलन न हो
जाए। उसका
मिलन ही
तुम्हें वैशिष्टय
देगा। और उसका
मिलन तभी हो
सकता है जब
तुम विसर्जित
हो गए हो, तुम
जा चुके। तभी
वह आता है।
जगजीवनदास बिचारि कहत सबको वहं जाना
हो
--और
सबको वहां
जाना है, तैयारी
कर लो। बिना
तैयारी मत
जाओ। धर्म
वहां जाने की
तैयारी है।
हम
शिक्षा देते
हैं लोगों को
जीवन की।
पच्चीस साल तक
युवकों को पढ़ाते
हैं
विश्वविद्यालय
में, किसलिए?
ताकि वे ठीक
से जी सकें।
रोटी-रोजी कमा
सकें, पद-प्रतिष्ठा
पा सकें, सम्मानपूर्वक
जी सकें। यह
आधी है।
मृत्यु के संबंध
में क्या? उसकी
शिक्षा कौन
देगा?
पूरब
ने दूसरी
शिक्षा भी
खोजी। अब तो
पश्चिम के
मनोवैज्ञानिक
भी इसका विचार
करने लगे हैं
कि मृत्यु का
भी शिक्षण होना
चाहिए। आदमी
को मरने की
कला भी आनी
चाहिए। जीने
की कला आधी
कला है। और
आधी कला से
आदमी आधा-आधा
रह जाता है, द्वंद्व में
रह जाता है।
आधी कला और भी
आनी चाहिए।
उसी आधी कला
को हम संन्यास
कहते हैं कि मरने
की कला भी सीख
लो। जीने की
कला भी सीखो
और मरने की
कला भी सीखो।
जब दोनों
कलाएं
तुम्हें आ
जाएंगी तब तुम
पाओगे कि
तुम्हारे
भीतर एक
पूर्णता का
जन्म हुआ, तुम
समग्र हुए, तुम सधे।
तुम्हारे
भीतर संतुलन
आया, सम्यक्त्व पैदा हुआ।
उसी सम्यक्त्व
का नाम बोध है,
समाधि है, संबोधि है।
जगजीवनदास बिचारि कहत सबको वहं जाना
हो
जब जाना
ही है तो
तैयारी कर लो।
जब उस यात्रा
पर निकलना ही
है तो ऐसे
बिना तैयारी
किए मत निकल
जाना, कुछ कलेवे का
इंतजाम कर लो,
कुछ पाथेय
जुटा लो।
क्या
होगा पाथेय, जो मृत्यु
के बाद साथ
आएगा? जब
देह जल जाएगी
चिता पर, तुम्हारे
साथ कौन जा
सकेगा? नाम
सुमिर मन
बावरे! प्रभु
का स्मरण तब
भी साथ रह
सकता है। उस
स्मरण को आग
नहीं जलाती।
उस स्मरण को
पानी नहीं
डुबाता। उस
स्मरण को नष्ट
करने का उपाय
ही नहीं है।
वह अविनाशी है,
अविनश्वर
है। वही
तुम्हारा
स्वरूप है।
नाम
बिनु नहिं कोउकै
निस्तारा
--इसलिए
खयाल रखो, परमात्मा
के बिना किसी
का भी निस्तार
नहीं है। इसके
पहले कि सब
सूख जाए, तुम
अपने जीवन-रस
से परमात्मा
की स्मृति को
गहन कर लो।
कोई
धड़कन है न
आंसू न उमंग
वक्त
के साथ ये
तूफान गए
ये सब
चले जाएंगे, इसके पहले
इनका उपायोग
कर लो। इसके
पहले कि तूफान
जाए, अपनी
पताका उड़ा लो।
इसके पहले कि
यह हवा समाप्त
हो जाए, अपनी
नाव छोड़ दो।
इसका उपयोग कर
लो।
तलब
के सहरा में
चप्पे-चप्पे
पै हैं मेरे
नक्शे-पाके-मुह
रें
अगर्चे
मैं इस हविसकदे
से गुज़र
गया था मुसाफिराना
इतना
ही खयाल रखो
कि यह जो
तृष्णा का
मरुस्थल है
इसमें
तुम्हारे पैर
के चिह्न तो छूटेंगे
ही। बुद्ध के
भी छूटते हैं, बुद्धुओं के भी छूट
हैं। लेकिन
बुद्ध के ऐसे
छूटते हैं जैसे
कोई मुसाफिराना
ढंग से गुजर
गया हो। पीछे
लौटकर बुद्ध
नहीं देखते; चिह्नों में
जकड़े
नहीं जाते।
तुम तो एकेक
पैर को ऐसे
उठाते हो
मजबूरी में!
हर पैर को यमदूतों
को आकर उठवाना
पड़ता है। तुम
तो कुछ छोड़ना
ही नहीं चाहते,
सब पकड़ रखना
चाहते हो।
जवान
आदमी जवान ही
रह जाना चाहता
है, बूढ़ा
नहीं होना
चाहता। बूढ़ा
मरना नहीं
चाहता। जो
जहां है वहीं
अकड़ जाना
चाहता है, वहीं
रह जाना चाहता
है थिर होकर।
और जगत् अथिर
है। बदलना तो
पड़ेगा। जो
जन्मा है उसे
मरना पड़ेगा।
जो जवान है, बूढ़ा होगा।
इसकी
तैयारी कर लो।
तैयारी क्या
है इसकी? इसकी
तैयारी है, धीरे-धीरे
अपने भीतर
उतरो।
धीरे-धीरे
अपने भीतर
शांत बैठो।
धीरे-धीरे
अंतरतम से
परिचय बनाओ, वहां तुम
साक्षी को
पाओगे। वही
साक्षी बचता है।
फिर तो
तुम्हारी लाश
भी जब चढ़ायी
जाएगी चिता पर,
तो भी तुम
साक्षी
रहोगे।
मंसूर
का जब सिर
काटा गया तो
वह हंस रहा
था। किसी ने
भीड़ में से
पूछा कि मंसूर, हंसते क्यों
हो? तो
उसने कहा, मैं
इसलिए हंसता
हूं कि तुम भी
देख रहे हो
मेरा सिर काटा
जा रहा है और
मैं भी देख
रहा हूं कि मेरा
सिर काटा जा रहा
है। मेरी हंसी
तुम्हारी
हंसी से
ज्यादा गहरी
है क्योंकि
तुम उसको मार
रहे हो जो मैं
हूं ही। तुम
उसको मार रहे
हो जो अपने आप
ही मर जाता है;
जिसको
मारने की कोई
जरूरत ही नहीं
थी। इतनी मेहनत
करने की
आवश्यकता
नहीं थी। तुम
उसको मार रहे
हो जिसको बहुत
समय हुआ, मैं
छोड़ ही चुका।
तुम उस घर को
गिरा रहे हो
जिसका अब मैं
वासी नहीं हूं,
इसलिए मैं
हंस रहा हूं।
तुम मुझे तो
छू भी न पाओगे।
कृष्ण
ने कहा न!
"नैनं छिंदतिं
शस्त्राणि!' उस भीतर
छिपे हुए
प्राण को
शस्त्र छेद
नहीं पाते।
"नैनं दहति
पावकः'। उस भीतर
छिपी हुई
आत्मा को, उस
मुझको आग भी
नहीं जला
पाती। मगर
कैसे उसकी पहचान
हो?
कौन
हमारा दर्द बंटाए कौन
हमारा थामे
हाथ
उनके
नगर में जगमग, अपने देश
में रात ही
रात
कैसे? वहां तो सब
जगमग है। वहां
सब प्रकाश ही
प्रकाश है।
परमात्मा
यानी प्रकाश
और हम यानी
अंधकार।
अहंकार
अंधकार है, प्रार्थना
प्रकाश है।
कौन हमारा हाथ
थामे?
हम
पुकारें। हम
प्रार्थना की
तरफ
धीरे-धीरे-धीरे-धीरे
झुकें।
गुनगुनाते-गुनगुनाते
आ जाएगी।
आते-आते आ जाएगी।
नाम सुमिर मन
बावरे!
नाम
बिनु नहिं कोउकै
निस्तारा
और
ध्यान रखना, किसी का
निस्तार नहीं
है।
जान
परतु है
ज्ञान तत्त
तें मैं
मन समुझि
बिचारा
उसका
स्मरण करने से
ही आत्मदर्शन
होता है, ज्ञान
होता है; तत्त्व
की प्रतीति
होती है कि
क्या है और
क्या नहीं है।
उसके नाम के
उठने के साथ
ही तुम्हारे
भीतर मशाल जल
जाती है।
मआल-ए-सोज़-ग़महा-ए-निहानी
देखते जाओ
भड़क उट्ठी है शम्म-ए-ज़िंदगानी
देखते जाओ
और जब
उसके प्रेम
में, उसकी
प्रार्थना
में, उसकी
अभीप्सा में,
उसकी वासना
में भीतर की
लौ भड़कती
है--भड़क उट्ठी है शम्म-ए-ज़िंदगानी
देखते जाओ। तो
तुम्हारे
भीतर से एक
पुकार भी उठेगी।
दूसरों को भी
तुम बुला लोगे
कि जाओ और देख
लो; जो
मेरे भीतर हुआ
है वही
तुम्हारे
भीतर भी हो
सकता है।
तुम
हो आए हो तो
शक्ल-ए-दर-ओ-दीवार
है और
कितनी
रंगीन मिरी
शाम हुई जाती
है
दिन की
तो बात ही
क्या कहो, रात भी बड़ी
रंगीन हो जाती
है। अंधेरा भी
बड़ा ज्योतिर्मय
हो जाता है।
तुम जो
आए हो तो
शक्ल-ए-दर-ओ-दीवार
है और--तो सब बदल
गया। दुनिया
बदल गई।
कारागृह
मंदिर हो गया।
कितनी रंगीन मिरी शाम
हुई जाती है।
तब सब
रंगीन हो जाता
है। इसलिए मैं
तुमसे कहता
हूं, धार्मिक
व्यक्ति का
सारा जीवन
उत्सव के रंग
से भरा होता
है। धार्मिक
जीवन का स्वाद
ही उत्सव है, महोत्सव है।
अगर ऐसा न हो
तो समझना कि
कहीं चूक हो
गई है। उदास
होने लगो तो
समझना कि कहीं
भटक गए।
परमात्मा के
साथ तो नृत्य
है।
कहा
भए जल प्रात्त
अन्हाए .....
कुछ न
होगा कि
रोज-रोज सुबह
उठे, ब्रह्ममुहूर्त
में नहाए, इससे
कुछ भी न
होगा। ऊपर-ऊपर
की बातों से
कुछ भी न होगा,
भीतर स्नान
होना चाहिए।
नाम सुमिर मन
बावरे! यही तो
भीतर के स्नान
की कला है।
ध्यान यानी
भीतर का
स्नान। उससे
आत्मा नहाती
है, स्वच्छ
होती है।
कहा
भए जल
प्रात अन्हाए
का भए किए अचारा
और
कितने तरह के क्रियाकांडों
में लोग लगे
हैं। आचरण साध
रहे हैं; ऐसा
करना, वैसा
करना, यह
खाना, वह
खाना, यह
छोड़ना। कोई
नमक छोड़े बैठा
है, कोई घी
छोड़े बैठा है।
किसी ने कुछ, किसी ने
कुछ। इतनी
छोटी-छोटी
बातें तुम जो
कर रहे हो, इनसे
क्या सार है? यह देह
जिसमें घी
जाता है, जल
जाएगी; फिर
चाहे घी डालो
और चाहे न डालो।
यह देह जिसमें
नमक जाता है, मिट्टी में
मिल जाएगी; फिर नमक डालो
कि न डालो।
तुम्हारे
आचरण देह से
भीतर जाते
नहीं। और जाना
है देह के
भीतर। पाना है
देह के भीतर।
खोजना है उसे
जो देहातीत
है। आचरण तो
देह का ही
होता है।
स्नान
कर लिया, रामनाम
चदरिया ओढ़ ली।
बैठ गए, उपवास
कर लिया एक
दिन। कभी घी
छोड़ दिया, कभी
नमक छोड़ दिया।
कहा
भए माला पहिरे तें
का दिए तिलक लिलारा
माला
भी डाल ली तो
कुछ होगा नहीं; जब तक कि तुम
उसकी माला के
मनके न बन
जाओ। और क्या
हुआ अगर तिलक
भी लगा लिया!
ये सब बाहर के
प्रतीक हैं, इन पर रुक मत
जाना।
और यह
मत सोचना कि जगजीवनदास
कह रहे हैं कि
नहाना बंद
करो। क्योंकि
ऐसे मूढ़
भी हैं। वे
यही सोच लेते
हैं कि अरे, बिल्कुल ठीक,
कहा भए
जल प्रात अन्हाए!
तो छोड़ो-छाड़ो
झंझट।
ब्रह्ममुहूर्त
में उठने की
भी झंझट मिटी,
नहाने की भी
झंझट मिटी।
जगजीवनदास
यह नहीं कह
रहे हैं कि
नहाना मत; इतना ही कह
रहे हैं कि
नहाना देह का
नहाना है। और
देह की
स्वच्छता
सुंदर है, अपने
आप में ठीक है,
मगर यह मत
सोच लेना कि
इतने से ही
भीतर का स्नान
हो गया। गले
में माला डाली,
ठीक है।
स्मरण रखना, ऐसे उसके
गले की माला
तुम्हें बन
जाना है। जैसे
धागे में पिरो
दिए हैं ये
मनके, ऐसे
ही उसके धागे
में तुम पिरो
जाना। वह
सूत्रधार है,
तुम मनका बन
जाना। यह
तुम्हें
स्मरण दिलाती
रहे माला।
इतना मत सोच
लेना कि माला
पहन ली तो सब
हो गया।
का दिए
तिलक लिलारा--और
तिलक लगा लिया
उससे क्या
होगा? लेकिन
यह नहीं कह
रहे हैं कि
तिलक मत
लगाना। तिलक
तो प्रतीक है,
प्यारा
प्रतीक है।
तिलक तो खबर
देता है छठवें
चक्र की, आज्ञाचक्र की।
तिलक
तुम्हें याद
दिलाता रहता
है आज्ञाचक्र
की, कि इस जगह
पहुंचना है।
काम-ऊर्जा को
इस जगह लाना
है। उसके नीचे
पांच और चक्र
हैं।
तुम्हारी वासना
की सारी शक्ति
उठते-उठते-उठते-उठते
दोनों भ्रूवों
के मध्य में आ
जाए, भ्रूमध्य
में आ जाए।
तिलक उसका
प्रतीक है कि
याद भ्रुदिलाता
रहे। रोज तिलक
लगाओगे, याद
रहेगी। तिलक दिनभर लगा
रहेगा, स्मरण
दिलाता
रहेगा। उसकी
सुगंध, उसकी
ठंडक तुम्हें
याद दिलाती
रहेगी कि ऊर्जा
यहां आनी है, ऊर्जा यहां
लानी है, सुमिरन
यहां लाना है।
इसलिए
उसको आज्ञाचक्र
कहते हैं।
क्योंकि जो भी
चीज वहां
पहुंच जाती है
वह पूरी हो
जाती है। वहां
से जो आज्ञा
निकलती है वह
पूरी हो जाती
है। जब तक
तुमने परमात्मा
को आज्ञाचक्र
से याद नहीं
किया तब तक
याद बेकार है।
वहां याद होनी
चाहिए। जब
वहां ध्यान
पहुंचता है, ध्यान पूरा
हो जाता है। वहां
पहुंचते ही
तुम साधारण
नहीं रह जाते,
तुम भाग्यविधाता
हो जाते हो।
तब तुम जो
कहते हो वही
हो जाता है। तुम
जो बोलोगे वही
हो जाएगा।
कहा
भए व्रत अन्नहिं त्यागे का
किए दूध-अहारा
कुछ
होगा नहीं
सिर्फ इतने से
कि अन्न त्याग
दिया, उपवास
कर लिया, कि
दूध का आहार कर
लिया। और खयाल
रखना, कि
वे यह नहीं कह
रहे हैं कि
दूध कुछ बुरा
है, मत
लेना; कि
उपवास बुरा है,
मत करना।
मगर उतने पर
रुकना मत। आगे
जाना है, और
आगे जाना है।
प्रतीक के आगे
जाना है।
जैसे
रास्ते के
किनारे लगे
मील के पत्थर
होते हैं, जिन पर लिखा
रहता है :
"दिल्ली--पचास
मील दूर।' इनका
उपयोग है। ये
व्यर्थ नहीं
हैं। मगर कोई
यहीं बैठ जाए
कि आ गई
दिल्ली, लगा
लिया छाती से
पत्थर को, तो
पागल है।
नक्शे
का उपयोग है
लेकिन नक्शा
असलियत नहीं है।
और इसका मतलब
यह नहीं है कि
नक्शे जला दो।
नक्शे काम के
हैं, मगर इसका
यह भी मतलब
नहीं है कि
नक्शे ही
बैठकर ..... बैठे
हैं और मजा ले
रहे हैं।
नक्शे में कुछ
मजा नहीं है, इस बात को
खयाल रखना।
बाहर
का सारा आचरण
जब तक तुम्हें
पार ले जाने में
सहयोगी न हो
रहा हो, तब
तक व्यर्थ है।
अगर पार ले
जाने में सीढ़ी
बन रहा हो तो
बड़ा सार्थक
है।
कहा
भये पंचअगिन
के तापे
कहा लगाए छारा
भस्म
लगाने से क्या
होगा? अग्नि
तापने से
क्या होगा? लेकिन भस्म
लगाने का अर्थ
समझते हो? उसका
अर्थ है :
मिट्टी हूं, यह याद बनी
रहे। मिट्टी
मिट्टी में
गिर जाएगी।
इसके पहले कि
मिट्टी
मिट्टी में
गिर जाए, मैं
मिट्टी में
कुछ खोज लूं
जो मिट्टी
नहीं है।
मृण्मय में
चिन्मय को खोज
लूं।
इसलिए
राख लगाता है
साधु। वह यह
कह रहा है कि बाकी
सब राख है।
मगर कुछ लोग
हैं कि वे राख
ही लगाकर मस्त
हो गए हैं। बस, वे बैठे हैं
राख लगाए। वे
कहते हैं, जो
करना था कर
लिया। राख लगा
दी। तुमने कभी
देखा है, राख
लगानेवाले
साधु भी दर्पण
रखते हैं। राख
लगा रहे हैं
और दर्पण? और
श्रृंगार भी
कर रहे होते
तो समझ में
आता था कि
दर्पण सार्थक
मालूम होता
है। लेकिन राख
लगा रहे हैं
दर्पण रखकर!
हद हो गई मूढ़ता
की।
मैं एक
दफा ट्रेन में
यात्रा कर रहा
था। एक साधु
मेरे साथ
डब्बे में थे।
फट्टी लपेट
रखी थी
उन्होंने।
काफी लोग
उन्हें छोड़ने
आए थे स्टेशन
पर। बस, उनके
पास एक टोकरी
थी, उसमें
दो फट्टियां
और थीं। फट्टीबाबा
ही वे कहलाते
थे। उनकी बड़ी
प्रसिद्धि!
मेरे साथ वे
ही थे और मैं
था। मैं आंख
बंद करके लेट
रहा।
उन्होंने
अपनी टोकरी, जिसमें दो फट्टियां
थीं, जल्दी
से उठाई फट्टियां
अपनी देखीं कि
सब ठीक-ठाक! अब
दो फट्टियां
ही हैं, मगर
सब ठीक-ठाक है?
मतलब कोई
चूक-चाक तो
नहीं गया, कोई
चोरी इत्यादि
तो नहीं ले
गया! फिर फट्टियों
के नीचे कुछ
नोट रखे
होंगे। वे भी
उन्होंने गिनती
करके वापिस रख
दिए।
और
बार-बार मेरी तरफ
देखते भी रहे
कि मैं आंख
बंद किए हूं, सो भी रहा
हूं, मैंने
उनसे कहा, आप
बिल्कुल
बेफिक्र रहो,
मैं आंख बंद
किए हूं। मैं
देख ही नहीं
रहा। आप चाहे
नोट गिनो, चाहे
फट्टियां
गिनो, मैं
देख ही नहीं
रहा। आपको जो
करना है आप
करो। आपकी
फट्टी, आपके
नोट। मुझे
क्या लेना-देना?
मैं तो
बिल्कुल आंख
बंद किए पड़ा
हूं। न मैंने देखा
न मैं देख रहा
हूं।
तो बड़े
हैरान हुए; थोड़े बेचैन
भी हो गए। हर
स्टेशन पर
पूछते वे, भोपाल
कब आएगा।
मैंने उनसे
कहा कि यह
बोगी भोपाल ही
कटनी है।
इसलिए आप लाख
उपाय करो, यह
बोगी भोपाल के
आगे नहीं जा
सकती। आप घबड़ाओ
मत, सुबह
छह बजे भोपाल
आएगा। आप
बार-बार पूछो
मत। मगर उनकी
बेचैनी! तीन
बजे रात मैंने
उनको फिर देखा
कि फिर उठकर
वे पूछ रहे
हैं। तब मैंने
कहा, हद हो
गई! भोपाल में
ऐसा रखा भी
क्या है? सोइएगा
नहीं? न
सोओगे, न
सोने दोगे।
और
पांच बजे ही
से वे तैयार
होने लगे। अब
तैयारी करने
को भी कुछ
नहीं था। और
जब मैंने उनको
देखा कि जाकर
वे आईने के
सामने खड़े होकर
फट्टी बांध
रहे हैं, तब
निश्चित मन
में बड़ी दया
उठी। यह तो
दया योग्य
स्थिति हो गई।
ऐसा बांधा, फिर नहीं
जंची तो फिर
वैसा बांधा।
तैयारी कर रहे
हैं। वे
लेनेवाले लोग
आएंगे भोपाल
पर तो वे अपनी
तैयारी में
लगे हुए हैं।
और पीछे
लौट-लौटकर
मेरी तरफ भी
देखते जाते हैं
कि कहीं मैं
देख तो नहीं
रहा।
मैंने
कहा, भाई, मैं
तुमसे कह चुका,
मैं देखता
ही नहीं। आंख
ही बंद रखता
हूं। तुम्हें
जो करना हो, करो। फट्टी
तुम्हारी, देह
तुम्हारी, दर्पण
सरकारी, मैं
बीच में कौन बोलनेवाला?
तुम बांधो
मजे से। जितनी
बार खोलना है खोलो और बांधो। और
जिस तरह
तुम्हें
बांधना है
वैसा बांधो।
आदमी
अद्भुत है। और
आदमी का मन
इतना मूढ़
है, इतना
पागल है कि
बाहर की
व्यर्थ की
बातों में बहुत
ज्यादा रस ले
सकता है। राख
भी लगा सकता
है और राख
श्रृंगार बन
सकती है। बस, चूक गए। राख
का प्रतीक था,
कि शरीर राख
से ज्यादा
नहीं है यह
याद रहे, यह
पहचान रहे!
वह जो
आग जलाकर बैठ
जाता है फकीर, वह इस बात का
प्रतीक है कि
आज नहीं कल आग
में गिरना है,
मौत करीब आ
रही है। यह
चिता है। अगर
यह चिता की याद
दिलाए
तुम्हारे
सामने लगी
धूनी, तो
सार्थक है। और
अगर यह
तुम्हारी
नक्शे की ही
पूजा बन जाए, कि हम तो
धूनी लगाकर
बैठेंगे; कि
बिना धूनी के
नहीं बैठ सकते.....।
धूनी
तुम्हारी
पूजा बन जाए, आचरण बन जाए
तो चूक हो गई; तो तुमने
प्रतीक को सब
कुछ समझ लिया।
कहा
ऊर्धमुख धूमहिं घोंटें
कहा लोन किए
न्यारा
कहा
ऊर्धमुख धूमहिं घोंटें
कहा लोन किए
न्यारा
--नहीं
होगा कुछ
लाभ--नमक छोड़ो,
यह करो, वह
करो।
कहा
भए बैठै
ठाढ़ें तें का
मौनी किहे
अमारा
कुछ
नहीं होगा, खड़े रहो कि
बैठे रहो। कि
एक टांग पर
खड़े रहो, कि
सदा के लिए
खड़े हो जाओ, कि सदा के
लिए बैठ जाओ, कि लेटो
ही मत कि सोओ
ही मत, इन
सबसे कुछ भी न
होगा। ये सब
प्रतीक हैं।
वह जो आदमी
खड़ा रहता है
वह सिर्फ यह
कह रहा है कि
मैं होश
सम्हालूं।
ऐसा होश
सम्हालूं, जैसे
शरीर खड़ा है, ऐसा मेरा
होश खड़ा हो
जाए। कि मैं
मूर्च्छित न रहूं।
वह जो रीढ़ सीधे
करने पद्यासन
में बैठा है, वह यह कह रहा
है, ऐसे
मेरा भीतर
चैतन्य बैठ
जाए, पद्यासन जैसा स्थिर
हो जाए। मगर
भीतर तो चल
रहा है सब
पागलपन है
बाहर पद्यासन
लगा है तो कुछ
सार नहीं है।
का
पंडिताई का बकताई का
बहु ज्ञान
पुकारा
--कितना
ही सीख लो शास्त्रों
से, सब
बकवास है।
गृहिनी त्यागि
कहा बनबासा
का भए
तन-मन मारा
घर
छोड़कर भाग जाओ
जंगल में, कुछ सार न
होगा। तन को
मारो, मन
को मारो, कुछ
सार न होगा।
यह वचन बड़ा
क्रांतिकारी
है। का भए
तन-मन मारा--तन
और मन को
मारने से कुछ
भी न होगा। ये
रोग के लक्षण
हैं। ये
आत्मघाती
आदमी के लक्षण
हैं। ये
विक्षिप्त आदमी
के लक्षण हैं।
तन और मन को
मारना नहीं है,
तन और मन के
पार जाना है।
इनको सीढ़ी
बनाना है। यह
तन मंदिर है
परमात्मा का।
इसमें
परमात्मा छिपा
है, उसे
खोज लेना है।
इस देह का कोई
कसूर नहीं है।
इस देह ने
तुम्हारा कुछ
बुरा नहीं
किया है, इसको
सताने की
कोई आवश्यकता
नहीं है। यह
देह तो
तुम्हारी
मित्र है।
प्रीतिविहूनि
हीन है सब कछु
भूला सब
संसारा
यह वचन
याद रखना, खूब रससिक्त
है। हृदय में
खुद जाए।
प्रीतिविहूनि
हीन है सब
कछु--यह सब तुम
करते रहो
लेकिन जब तक परमात्मा
से प्रीति नहीं
लग गई है, तब
तक सब व्यर्थ
है। और प्रीति
लग गई तो सब
सार्थक है।
असली चीज
प्रीति है।
नाम सुमिर मन
बावरे।
प्रीतिविहूनि
हीन है सब कछु
भूला सब
संसारा
तेरी
आंखों को ऐ
दीवानी राधा, कौन समझाए!
झड़ी
बांधे न सावन
की, कि फागुन
का महीना है
जो
कोयल कूक उठती
है तो दिल में
हूक उठती है
धुआं
होने नहीं
पाता, कोई
यूं भी सुलगता
है
प्रीति
जब सुलगे
ऐसी कि जैसे
कूक उठती है
ऐसी हूक उठे; कि जैसे
सावन की झड़ी
लगती है ऐसे
आंसुओं की झड़ी
लगे।
परमात्मा के
लिए कोई रोए,
पुकारे तो फिर सब
सार्थक है।
फिर मिट्टी भी
छू दे ऐसा आदमी
तो सोना हो
जाती है। और
जिसके जीवन
में परमात्मा
की प्रीति
नहीं है वह
सोना भी छू दे
तो मिट्टी हो
जाती है।
प्रीतिविहूनि
हीन है सब कछु
भूला सब
संसारा
और
इतनी ही बात
भूल गई है, प्रीति भूल
गई है, और
सब याद है।
बिना प्रीति
के सब किए जा
रहे हैं।
कर्तव्य की तरह
किए जा रहे
हैं। पूजा भी
कर आते हैं, आरती भी
उतार लेते हैं,
मूर्ति के
सामने सिर भी
पटक आते हैं
और प्रीति का
कुछ भी पता
नहीं है।
और
प्रीति ही
असली चीज है।
न जाओ कभी
मंदिर, अगर
हृदय में
प्रीति है, मंदिर
तुम्हारे पास
आएगा। तुम
जहां हो वहां
मंदिर है। मत
करो पूजा, तुम
जो करोगे वही
पूजा है। कबीर
ने कहा है, उठूं-बैठूं
सो परिक्रमा।
अब कहां जाऊं
मंदिर-वंदिर?
यहीं
उठता-बैठता
हूं, वहीं
परिक्रमा हो
जाती है
क्योंकि वही
तो है। उसके
सिवा कोई भी
नहीं है। खाऊं-पिऊं
सो सेवा। अब
क्या भगवान को
भोग लगाना!
भीतर भी वही
बैठा है। तो
जो खाता-पीता
हूं, उसी
को भोग लग
जाता है। कबीर
ठीक कह रहे
हैं। यही जाननेवालो
की अनुभूति
है।
मंदिल रहै कहूं
नहिं धावै
अजपा जपै अधारा
वह
तुम्हारे
भीतर बैठा है, तुम्हारे घर
में बैठा है, तुम्हारे
मंदिर में
बैठा है। मंदिल
रहै कहूं
नहिं धावै।
वह जाता ही
नहीं तुमसे
बाहर कहीं।
तुम कहां जा
रहे हो उसे खोजने?
काबा, काशी,
कैलास--तुम
कहां जा रहे
हो? वह
तुम्हारे
बाहर कभी गया
नहीं, जाता
नहीं।
तुम्हारे
भीतर ही
विराजमान है।
भीतर चलो।
अजपा जपै अधारा--और
इसके जाप के
लिए तुम्हें
कुछ मंत्रों
इत्यादि की
जरूरत नहीं है, प्रीति काफी
है। जस पनिहार
धरे सिर गागर!
कुछ याद करने
के लिए
दोहराने की
जरूरत नहीं है
कि बैठे हैं; राम-राम-राम-राम-राम
जप रहे हैं।
इतने लोग राम-राम
जपेंगे
तो कुछ राम की
भी तो खयाल
करो! उसका सिर
भी घूमने
लगेगा। उसका
सिर फटा जा
रहा होगा।
भक्त उसकी जान
ले रहे होंगे।
एक
आदमी मरा, जो राम-राम
खूब जपता था।
जब मरा तो
परमात्मा के
सामने ले जाया
गया। उसी दिन
गांव की
वेश्या भी मरी
जिसने कभी राम
का नाम जाप
किया ही नहीं था।
वेश्या को तो
परमात्मा ने
कहा, ले
जाओ स्वर्ग और
इन सज्जन को
पहुंचाओ नरक।
वह आदमी तो
बहुत नाराज
हुआ। उसने कहा,
कुछ गलती हो
रही है। यह
क्या अन्याय
है? मैं
चौबीस घंटे
राम-राम जपता
था, माला
फेरता था, और
मुझे नरक भेजा
जा रहा है? परमात्मा
ने कहा, इसीलिए।
तूने मुझे
जिंदगी में एक
मिनिट चैन न लेने
दी। राम-राम, राम-राम! तू
मेरी छाती खा
गया। इस
वेश्या ने मुझे
कभी नहीं सताया।
तुम
जरा खयाल करो, प्रीति .....! तुम
क्या कहते हो
ओंठों से, यह
सवाल नहीं है,
तुम्हारे
हृदय की भाव
दशा क्या है।
मंदिल रहै कहूं
नहिं धावै
अजपा जपै अधारा
गगन-मंडल
मनि बरै
देखि छवि, सोहै सबतें
न्यारा
और तुम
अगर शांत होकर, मौन होकर
भाव ही भाव
में स्मरण
करोगे तो
जल्दी ही तुम
पाओगे, गगन-मंडल
में, तुम्हारे
भीतर के आकाश
में उसकी
ज्योति प्रकट
होती है; उसकी
छवि प्रकट
होती है। सोहै
सबतें न्याराऔर
वह जो सबसे
अद्वितीय है
उसका दर्शन
होता है। अदृश्य
दृश्य होता
है।
जेहि
विस्वास
तहां लौ लागिय
तेहि तस
काम संवारा
और
उतने दूर तक
ही तुम्हारी
यात्रा होगी
जितने दूर तक
तुम्हारी
श्रद्धा है।
इसलिए
श्रद्धा को ही
खयाल में
लेना। और बाकी
सब बातें गौण
हैं। नमक खाओ
कि घी खाओ कि न
खाओ, ये सब
बातें गौण
हैं। उतने दूर
तक यात्रा
होगी जितने
दूर तक
श्रद्धा है।
जेहिं विस्वास
तहां लौ लागिय--बस, जहां तक
श्रद्धा है
वहां तक तुम
जा सकोगे। अगर
श्रद्धा
पूर्ण है तो
एक क्षण में
यात्रा पूरी
हो जाती है।
पहले कदम पर
ही मंजिल आ
जाती है।
......तेहि तस
काम संवारा
जगजीवन
गुरु चरन सीस धरि छूटि
भरम कै जारा
श्रद्धा
कहां सीखोगे?
--जगजीवन कहते हैं, मैंने तो
गुरु चरणों
में सिर रखकर
सीखी। मैंने
तो अपने को
वहां समर्पित
करके सीखी।
श्रद्धा
कैसे भीतर
तुम्हारे उमगेगी? कोई जला हुआ
दीया दिखाई
पड़े। कोई खिला
हुआ फूल दिखाई
पड़े तो
तुम्हें
भरोसा आए कि
मेरा फूल भी
खिल सकता है, मेरा दीया
भी जल सकता
है। श्रद्धा
तर्क की बात नहीं
है, सत्संग
का परिणाम है।
सत्संग
करो। खोजो
किसी ऐसे आदमी
का साथ, जिसकी
मौजूदगी में
तुम्हें लगता
हो कि कुछ ऐसा
है, जो
जानने योग्य
है; कुछ
ऐसा है जो
पाने योग्य
है। जिसकी
मौजूदगी निमंत्रण
बन जाती हो
अज्ञात का। जो
तुम्हारी आंखों
में देखे तो
तुम चल पड़ो
किसी यात्रा
पर। क्योंकि
तुम्हें
परमात्मा का
कोई पता नहीं
है, लेकिन
जिसको पता हो
उसकी आंखों
में भी उस
परमात्मा की
झलक होती है।
जिसने उसे
देखा हो उसके पास
बैठने में भी
उसकी तरंगें
तुम्हें
तरंगायित
करेंगी।
सत्संग
एक अनूठा
प्रयोग है
जहां श्रद्धा
जनमती है।
श्रद्धा सत्संग
का फल है।
जगजीवन
गुरु चरन सीस धरि छूटि
भरम कै जारा
सारे
भरम से मैं
छूट गया। सारे
भ्रम से छूट
गया। अपनी
बुद्धि, अपना
सिर, अपना
सोच-विचार, अपना तर्क, सब गुरु के
चरणों में रख
दिया। वहां से
श्रद्धा उमगी।
और श्रद्धा के
पंखों पर जो
सवार हो गया
वह चल पड़ता है;
वह पहुंच
जाता है।
नाम
सुमिर मन
बावरे कहा
फिरत भुलाना
हो
आज
इतना ही।
thank you guruji
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