दिनांक
5 फरवरी, 1968;
दोपहर
ध्यान
शिविर,
आजोल।
मेरे
प्रिय आत्मन्!
आज
शिविर की अंतिम
बैठक है और
विदा की इस
बैठक में कुछ
अंतिम
सूत्रों पर
मुझे आपसे बात
करनी है।
मनुष्य
के मस्तिष्क
में,
मनुष्य की
बुद्धि में
तीव्र तनाव है
और यह तनाव
विक्षिप्तता
के करीब पहुंच
गया है। इस
तनाव को शिथिल
कर लेना है।
और ठीक इसके
साथ ही मनुष्य
के हृदय में
बड़ी शिथिलता
है, मनुष्य
के हृदय के
तार बहुत ढीले
छूट गए हैं, उन्हें वापस
कस लेना है।
यह हृदय के
तार कैसे कसे
जाएंगे, इस
संबंध में
थोड़े से सूत्र
मैंने सुबह
कहे। और अंतिम
सूत्र की बात
अभी करनी है।
मनुष्य
के हृदय के
तार ही मनुष्य
की जीवन—वीणा
के सबसे बड़े
संगीत के स्रोत
हैं। और जिस
समाज के पास
हृदय खो जाता
है और जिस मनुष्य
के पास और जिस
सदी के पास
हृदय क्षीण हो
जाता है, उस
सदी और उस युग
के पास जो भी
श्रेष्ठ है, जो भी सुंदर
है, जो भी
सत्य है, वह
सब भी विलीन
हो जाता है।
और हम चाहते
हों कि सत्य, सुंदर और
शिव जीवन में
प्रविष्ट हो,
तो बिना
हृदय के तारों
को वापस
संयोजित किए
कोई और रास्ता
नहीं है।
हृदय
के तार—संयोजन
की,
हृदय के
तारों के ठीक—ठीक
अवस्था में आ
जाने की, जहां
संगीत पैदा हो
सके, जो
दशा है, उस
दशा का नाम ही
प्रेम है।
इसलिए मैं
प्रेम को
प्रार्थना भी
कहता हूं प्रेम
को प्रभु—प्राप्ति
का मार्ग भी
कहता हूं
प्रेम को परमात्मा
भी कहता हूं।
प्रेम के
अतिरिक्त जो
प्रार्थना है
वह झूठी और
थोथी और
व्यर्थ है।
प्रेम के
अतिरिक्त
प्रार्थना के
जो शब्द हैं उनका
कोई भी मूल्य
नहीं है। और
प्रेम के
अतिरिक्त जो
परमात्मा की
तरफ
यात्रा करने
को उत्सुक हुआ
हो,
वह कभी भी
परमात्मा तक
नहीं पहुंच
सकेगा। प्रेम
सूत्र है हृदय
की वीणा को
संगीतपूर्ण बनाने
का। प्रेम के
संबंध में ही
कुछ समझ लेना
जरूरी है।
पहला
तो भ्रम यह है
कि हम सोचते
हैं,
हम सभी
प्रेम को
जानते हैं। यह
भ्रम इतना
घातक है जिसका
कोई हिसाब नहीं।
क्योंकि जो
चीज हमें जानी
हुई प्रतीति
होती है; उसकी
साधना की तरफ,
उसे जगाने
की तरफ हम कोई
प्रयास ही
नहीं करते हैं।
मनुष्य—जाति
को बड़े से बड़े
इलूजन, बड़े
से बड़े जो
भ्रम हैं, उनमें
एक भ्रम यह है
कि हम प्रेम
को जानते हैं।
हर आदमी को यह
भ्रम है कि हम
प्रेम को
जानते हैं।
लेकिन हमें यह
पता ही नहीं
कि जो प्रेम
को जान लेगा
वह साथ ही
परमात्मा को
जानने की
क्षमता को भी
उपलब्ध हो
जाता है। अगर
हम प्रेम को
जानते हैं तो
जीवन में कुछ
भी जानने को
शेष नहीं रह
जाता है, लेकिन
हमारे जीवन
में तो सभी
कुछ जानने को
शेष है। तो जिस
प्रेम को हम
प्रेम समझते
हैं वह प्रेम
नहीं होगा, हमने किसी
और ही बात को
प्रेम समझ
लिया होगा।
हमने चित्त की
किसी और ही
दशा को प्रेम
का नाम दे
दिया होगा। और
जब तक यह भ्रम
न टूट जाए तब
तक, जब
हमें खयाल ही
है कि प्रेम
हमें उपलब्ध
है, तो हम
प्रेम की तलाश
और खोज कैसे
करेंगे? इसलिए
पहली बात तो
यह ध्यान में
लेने की है कि हमें
प्रेम का कोई
भी पता नहीं
है।
जीसस
क्राइस्ट एक
दोपहर, भरी
दोपहरी में, तेज धूप में
रास्ते के
किनारे एक
बगिया के वृक्ष
के नीचे रुके।
धूप थी तेज और
वे थके—मांदे
थे। वे वृक्ष
की छाया के
तले सोए रहे।
उन्हें पता भी
न था कि वह
मकान किसका है,
वह वृक्ष
किसका है, वह
बगीचा किसका
है। उस जमाने
की एक अत्यंत
सुंदरी, वेश्या
का वह बगीचा
था, मेग्दलीन
का।
मेग्दलीन
ने अपनी खिड़की
से झांक कर
देखा, कोई एक
अदभुत
व्यक्ति उस
वृक्ष के नीचे
सोया है। ऐसा
सुंदर
व्यक्ति उसने
कभी भी नहीं
देखा था।
क्योंकि एक
सौंदर्य तो
शरीर का है और
एक सौंदर्य
आत्मा का भी
है। शरीर का
सौंदर्य तो
बहुत दिखाई
पड़ता है, आत्मा
का सौंदर्य
कभी—कभी दिखाई
पड़ता है। और
जब आत्मा का सौंदर्य
प्रकट होता है
तो कुरूप से
कुरूप शरीर भी
सुंदर फूल बन
जाता है। उसने
बहुत सुंदर
लोग देखे थे।
उसके द्वार पर
सुंदर लोगों
की भीड़ लगी
रहती थी। उसके
द्वार पर सभी
को प्रवेश
मिलना
मुश्किल था।
लेकिन ऐसा
सुंदर आदमी
उसने कभी देखा
ही नहीं था।
वह मेग्दलीन
जैसे किसी
जादू से खिंची
हुई वृक्ष के
नीचे पहुंच गई।
जीसस
क्राइस्ट उठ
कर जाने को थे, उनका
विश्राम पूरा
हो गया था।
मेग्दलीन ने
कहा कि आप
इतनी कृपा
नहीं करेंगे
कि मेरे घर
में चल कर
विश्राम करें।
क्राइस्ट ने
कहा मैंने
विश्राम किया
और यह तुम्हारा
ही घर था, तुम्हारा
ही वृक्ष था, अब तो मेरे
चलने का समय आ
गया है, मैं
चलूं। लेकिन
फिर कभी थका—मादा
इस राह से
गुजरा तो जरूर
तुम्हारे
मकान में
विश्राम
करूंगा।
मेग्दलीन
के लिए यह
बहुत
अपमानजनक
मालूम पड़ा।
बड़े—बड़े
राजकुमार
उसके द्वार से
खाली हाथ लौट
जाते थे, द्वार
नहीं खुलते थे।
एक राह चलते
भिखारी को
उसने कहा था
कि मेरे घर में
विश्राम करें,
और वह आदमी
इनकार करता था।
मेग्दलीन के
लिए यह बहुत
अपमानजनक था।
उसने कहा कि
नहीं, ऐसा
मैं नहीं सुन
सकूंगी, आपको
भीतर चलना ही
पड़ेगा। क्या
आप मेरे प्रेम
के लिए इतना
भी नहीं कर सकेंगे
कि मेरे घर
में दो क्षण
विश्राम करें?
क्राइस्ट
ने कहा तुमने
कहा तो मैं
तुम्हारे घर
में प्रवेश पा
ही गया।
क्योंकि कहने
के अतिरिक्त
और घर कहां है।
तुमने चाहा तो
मैं तुम्हारे
घर में पहुंच
गया। और तुम
अगर यह कहती
हो कि क्या
मैं इतना
प्रेम न दिखा सकूंगा!
तो मैं तुमसे
कहूंगा कि
तुमने बहुत लोग
देखे होंगे
जिन्होंने
तुमसे कहा
होगा कि हम तुम्हें
प्रेम करते
हैं,
उनमें से
कोई भी
तुम्हें
प्रेम नहीं
करता था। वे
तुम्हें छोड़
कर किसी और ही
चीज को प्रेम
करते थे। और
मैं तुम्हें
विश्वास
दिलाता हूं कि
मैं ही उन
अकेले थोड़े से
लोगों में से
एक हूं जो
तुम्हें
प्रेम करता
हूं और प्रेम
कर सकता हूं।
क्योंकि
प्रेम वही कर
सकता है जिसके
हृदय में
प्रेम
उत्पन्न हो
गया हो।
हम
सब प्रेम नहीं
कर सकते हैं, क्योंकि
हमारे भीतर
प्रेम की कोई
धारा ही नहीं
है। और जब हम
कहते हैं किसी
को कि हम
प्रेम करते हैं
तो असल में हम
प्रेम नहीं
करते हैं, हम
उससे प्रेम
मांगते हैं।
हम सभी प्रेम
मांगते हैं। और
जो खुद ही
प्रेम मांग
रहा है वह
प्रेम कैसे दे
सकेगा!
भिखमंगे
सम्राट कैसे
हो सकते हैं? मांगने
वाले देने
वाले कैसे हो
सकते हैं?
हम
सभी एक—दूसरे
से प्रेम
मांगते हैं।
हमारे प्राण
भिखारी हैं।
हम मांगते हैं
कि कोई हमें
प्रेम दे दे।
पत्नी पति से
प्रेम मांगती
है,
पति पत्नी
से प्रेम
मांगता है।
मां बेटों से
प्रेम मांगती
है, बेटे
मां से प्रेम
मांगते हैं।
मित्र मित्र
से प्रेम
मांगते हैं।
हम सब एक—दूसरे
से प्रेम
मांगते हैं, बिना यह
जाने हुए कि
हम जिससे
प्रेम मांग
रहे हैं वह भी
हमसे प्रेम
मांग रहा है।
दो भिखारी एक—दूसरे
के सामने झोली
फैलाए हुए खड़े
हैं।
जब
तक कोई आदमी
प्रेम मांगता
है,
तब तक वह
प्रेम देने
में समर्थ
नहीं हो सकता
है। प्रेम की
मांग इस बात
की खबर है कि
उसके भीतर प्रेम
का झरना नहीं
है, अन्यथा
वह बाहर से
प्रेम क्यों
मांगता।
प्रेम वही दे
सकता है जिसका
प्रेम की मांग
के ऊपर उठना
हो गया है, जो
देने में
समर्थ हो गया
है। प्रेम एक
दान है, भिक्षा
नहीं। प्रेम
एक मांग नहीं
है, प्रेम
एक भेंट है।
प्रेम भिखारी
नहीं है, प्रेम
सम्राट है।
प्रेम सिर्फ
देना ही जानता
है, मांगना
जानता ही नहीं।
हम
प्रेम को
जानते हैं? मांगने
वाला प्रेम
प्रेम नहीं हो
सकता है। और
स्मरण रहे कि
जो प्रेम को
मांगता है उसे
इस जगत में
कभी भी प्रेम
नहीं मिल
सकेगा। जीवन
के कुछ
अनिवार्य
नियमों में से,
शाश्वत
नियमों में से
एक नियम यह है
कि जो प्रेम
को मांगता है
उसे प्रेम कभी
नहीं मिलता है।
जो प्रेम
बांटता है उसे
प्रेम मिलता
है। लेकिन उसे
प्रेम की कोई
मांग नहीं
होती। जो
प्रेम मांगता
है, उसे
प्रेम मिलता
ही नहीं।
प्रेम
तो उसी द्वार
पर आता है जिस
द्वार पर प्रेम
की मांग मिट
जाती है। जो
मांगना बंद कर
देता है उसके
घर पर वर्षा
शुरू हो जाती
है। और जो
मांगता रहता
है उसका घर
बिना वर्षा के
रह जाता है, क्योंकि
मांगने वाले
चित्त की यह
पात्रता नहीं
कि प्रेम उसकी
तरफ बहे।
मांगने वाले
चित्त की यह
ग्राहकता
नहीं है, यह
रिसेप्टिविटी
नहीं है कि
प्रेम उस
द्वार पर आए।
वह तो देने
वाला और बांट
देने वाला
चित्त ही उस
ग्राहकता को,
उस पात्रता को
उपलब्ध होता
है, जिस
द्वार पर आकर
प्रेम दस्तक
देता है और
कहता है मैं आ
गया हूं द्वार
खोलो।
हमारे
द्वारों पर
प्रेम ने आकर
कभी दस्तक दी
है?
नहीं दी है।
क्योंकि हम
अभी प्रेम को
देने में ही
समर्थ नहीं हो
सके हैं। और
यह भी स्मरण
रहे कि हम जो
देते हैं वही
हम पर वापस
लौट आता है।
जीवन के दूसरे
शाश्वत
नियमों में से
यह है कि हम जो
देते हैं वही
हम पर वापस
लौट आता है।
सारा
जगत एक
प्रतिध्वनि
से ज्यादा
नहीं है। हम
घृणा देते हैं, घृणा
वापस लौट आती
है; हम
क्रोध देते
हैं, क्रोध
वापस लौट आता
है, हम
गालियां देते
हैं, गालियां
वापस लौट आती
हैं; हम
कांटे फेंकते
हैं, कांटे
वापस लौट आते
हैं। हमें वही
उपलब्ध हो
जाता है जो
हमने फेंका था,
वह अनतगुना
होकर हम पर ही
वापस लौट आता
है। और अगर हम
प्रेम बांटते
हैं तो प्रेम
भी अनंतगुना
होकर हम पर
वापस लौट आता
है।
हम
पर प्रेम
अनंतगुना
होकर वापस
लौटा है? अगर
नहीं लौटा तो
जान लेना कि
प्रेम हमने
बांटा नहीं। और
प्रेम हम
बांटते कैसे?
प्रेम
हमारे पास है
ही नहीं। और
प्रेम हमारे
पास होता तो
हम प्रेम को
द्वार—द्वार
मांगते हुए
क्यों फिरते?
हम जगह—जगह
भिखारी क्यों
बनते? हम
क्यों मांगते
कि हमें प्रेम
चाहिए?
एक
फकीर था, फरीद।
उसके गांव के
लोगों ने उससे
कहा फरीद, अकबर
तुझे बहुत आदर
देता है। अकबर
से प्रार्थना
कर कि हमारे
गांव में एक स्कूल,
एक मदरसा
खोल दे। फरीद
ने कहा मैंने
आज तक किसी से
कुछ मांगा नहीं।
मैं तो फकीर
हूं मैं तो
सिर्फ देना ही
जानता हूं। तो
गांव के लोग
बड़े हैरान
हुए! कि हम तो
समझते हैं कि
फकीर मांगता
है, तुम
कहते हो फकीर
देना ही जानता
है। फिर भी हम
पर कृपा करो।
हम यह सूक्ष्म
और गंभीर
बातें नहीं
समझ सकते। तुम
तो कृपा करो
और एक मदरसा
खुलवा दो।
गांव
के लोग नहीं
माने तो फरीद
अकबर से मिलने
गया। सुबह ही
सुबह जल्दी
पहुंच गया, ताकि
घर ही मिलना
हो जाए। अकबर
उस समय अपनी
मस्जिद में
नमाज पढ़ता था।
फरीद उसके
पीछे जाकर खड़ा
हो गया। अकबर
की नमाज पूरी
हो गई, प्रार्थना
पूरी हो गई।
तो उसने दोनों
हाथ ऊपर उठाए
और कहा हे
परमात्मा!
मेरे धन को
बढ़ा, मेरी
संपत्ति को
बढ़ा, मेरे
राज्य को बढ़ा
कर। फरीद वापस
लौट पड़ा।
अकबर
उठा,
लौट कर देखा,
फरीद वापस
लौटता है।
भागा, रास्ते
पर रोका और
कहा कैसे आए
और वापस लौट
चले? फरीद
ने कहा मैंने
सोचा था कि तू
एक सम्राट है।
मैंने पाया कि
तू भी एक
भिखारी है।
हमने सोचा था
कि हम गांव के
लिए मांग
लेंगे एक
मदरसा। हमें
पता भी न था कि
तू भी मांगता
है अभी कि धन और
बढ़ जाए, संपत्ति
और बढ़ जाए। और
एक भिखारी से
मांगना तो
शोभा योग्य
नहीं है। हम
सोचे थे तू एक
सम्राट है और
पाया कि तू भी
एक भिखारी है,
तो हम वापस
लौट जाते हैं।
हम
सभी भिखारी
हैं और हम सभी
भिखारियों से मांगे
चले जा रहे
हैं,
वह जो उनके
पास नहीं है।
और जब हमें
नहीं मिलता है
तो हम रोते
हैं, और
चिल्लाते हैं,
और दुखी
होते हैं, और
पाते हैं कि
हमें प्रेम
नहीं मिल रहा
है।
प्रेम
कहीं बाहर से
मिलने वाली
बात नहीं है।
प्रेम तो भीतर
के अंतस—जीवन
का संगीत है।
कोई प्रेम
आपको दे नहीं
सकता। प्रेम
आपमें जन्म ले
सकता है, लेकिन
कोई बाहर से
आपको मिल नहीं
सकता है। न
कहीं कोई
दुकान है, न
कहीं कोई
बाजार है, न
कहीं कोई
बेचने वाला है
कि जहां से आप
प्रेम खरीद
लें। किसी
मूल्य पर
प्रेम नहीं
खरीदा जा सकता।
प्रेम
तो
अंतर्स्फुरण
है। वह तो
भीतर कोई सोई
हुई शक्ति का
जाग जाना है।
और हम सब
प्रेम को बाहर
खोजते हैं। हम
सब प्रेम को
प्रेमी में
खोजते हैं जो
कि बिलकुल ही
झूठी और फिजूल
बात है।
प्रेम
को खोजना है
अपने में। और
हमारी तो
कल्पना में भी
नहीं आ सकता
है कि स्वयं
के भीतर प्रेम
कैसे होगा।
क्योंकि
प्रेम हमें
हमेशा प्रेमी
का खयाल दिलाता
है,
किसी और का
खयाल दिलाता
है। लेकिन
हमारे भीतर
कैसे प्रेम
पैदा होगा यह
हमें स्मरण
में नहीं है, इसलिए हमारे
भीतर कोई
शक्ति प्रेम
की पड़ी ही रह
जाती है।
क्योंकि हमें
खयाल ही नहीं
है हम बाहर
मांगते रहते
हैं उसे, जो
कि हमारे भीतर
था। और चूंकि
हम बाहर
मांगते रहते
हैं इसलिए
भीतर दृष्टि
नहीं जाती, और भीतर
जिसका जन्म हो
सकता था उसका
जन्म नहीं हो
पाता है।
प्रेम
प्रत्येक
मनुष्य की
अनिवार्य
संपदा है जो
जन्म के साथ
ही लेकर हर
आदमी पैदा
होता है। धन
आदमी साथ लेकर
पैदा नहीं
होता। धन
सामाजिक
संपदा है, लेकिन
प्रेम आदमी
साथ लेकर पैदा
होता है। वह
मनुष्य का
जन्मसिद्ध
अधिकार है, वह उसकी
निजी संपदा है,
वह उसके साथ
है, वह
उसका पाथेय है;
जो जन्म के
साथ उसे मिला
और जीवन भर
उसका साथ दे
सकता है।
लेकिन बहुत कम
सौभाग्यशाली
हैं जो भीतर
देखते हैं कि
प्रेम कहां है
और कैसे खोजा
जाए और कैसे जन्मे?
तो
हम तो जन्म
जाते हैं और
हमारी संपदा
की गठरी बंधी
ही रह जाती है, वह
खुल ही नहीं
पाती है। और
हम दूसरों के
द्वारों पर
भीख मांगते
फिरते हैं, हाथ फैलाए
फिरते हैं कि
हमें प्रेम
चाहिए। सारी
दुनिया में एक
ही मांग है कि
हमें प्रेम
चाहिए और सारी
दुनिया में एक
ही शिकायत है
कि हमें प्रेम
नहीं मिलता।
और जब प्रेम
नहीं मिलता है
तो हम दोष
देते हैं दूसरों
को कि ये लोग
बुरे हैं, इसलिए
प्रेम नहीं
मिलता। पत्नी
पति को कहती
है कि तुम
गड़बड़ हो, इसलिए
प्रेम मुझे
नहीं मिलता है।
पति पत्नी को
कहता है कि
तुममें कुछ
भूल है, इसलिए
मुझे प्रेम
नहीं मिल पाता।
हरेक हरेक
दूसरे को दोषी
ठहराता है कि
मुझे प्रेम
नहीं मिल पाता।
और इसका किसी
को खयाल ही
नहीं है कि
प्रेम कभी किसी
को बाहर से
मिलता है?
प्रेम
आंतरिक संपदा
है और प्रेम
ही हृदय—वीणा
का संगीत है।
आदमी की हृदय—वीणा
बड़ी गड़बड़ हो
गई है। उससे
वह संगीत पैदा
ही नहीं होता
जिसके लिए वह
बनी है। यह
संगीत कैसे
पैदा हो सकता
है?
और कौन सी
बाधा इस संगीत
के पैदा होने
में खड़ी हो गई
है? और कौन
सी गांठ है जो
इस गठरी को
बांधे है और
खुलने नहीं
देती? कभी
उस गांठ पर
आपने खयाल
किया? कभी
आपने सोचा कि
वह गांठ क्या
हो सकती है?
एक
अभिनेता मर
गया था। वह एक
बहुत कुशल
अभिनेता था, कुशल
कवि था, नाटककार
था। उसकी
मृत्यु हो गई
थी। मरघट पर
उसे विदा करने
बहुत लोग
इकट्ठे हुए थे।
जिस फिल्म
कंपनी में वह
अभिनेता था, उसका
डायरेक्टर, उसका मालिक
भी आया था। उस
मालिक ने उस
अभिनेता के
शोक में बोलते
हुए, दुख
में बोलते हुए
कुछ बातें
कहीं।
उस
मालिक ने कहा
इस अभिनेता को
अभिनेता
बनाने वाला
मैं ही हूं।
यह मैं ही था
जिसने इसे
अंधकारपूर्ण
गलियों से
निकाल कर
प्रकाशित
राजपथों पर
पहुंचाया। यह
मैं ही था
जिसने सबसे
पहले इसे पहले
नाटक में जगह
दी। मैं ही था
जिसने इसकी
पहली किताब
प्रकाशित करवाई।
मैं ही था
जिसके कारण यह
सारी दुनिया
में ख्याति
उपलब्ध कर
पाया। वह उतना
ही कह पाया था, मैं
भी उस मरघट पर
मौजूद था, हो
सकता है आप
में से भी कोई
मौजूद रहा हो।
इतना ही वह कह
पाया था कि वह
मुर्दा जो
बंधा हुआ पड़ा
था, एकदम
उठ कर बैठ गया।
और उसने कहा
एक्सक्यूज मी
सर! माफ करिए
मुझे! हू इज टू
बी बरीड हियर—
यू आर आई? इधर
कब में किसको
गड़ाया जाने
वाला है— आपको
या मुझको? आप
किसके संबंध
में भाषण कर
रहे हैं?
वह
डायरेक्टर
कहे चला जा
रहा था कि मैं
ही हूं जिसने
इसे प्रकाश
में लाया, मैं
ही हूं जिसने
इसकी किताब
छपवाई, मैं
ही हूं जिसने
इसको नाटक में
पहली जगह दी, मैं ही हूं.....!
मुर्दा
भी बर्दाश्त
नहीं कर सका
इस 'मैं' के
शोरगुल को। वह
उठ आया और
उसने कहा कि
माफ करिए, एक
बात बता दीजिए
कि कब में
किसको गड़ाया
जाना है, मुझको
या आपको? आप
किसके संबंध
में बोल रहे
हैं? मुर्दे
भी बर्दाश्त
नहीं कर पाते
इस 'मैं' के स्वर को
और हम जिंदा
आदमियों पर इस
‘मैं’ के
स्वर को
गुंजाए चले
जाते हैं!
जिंदा आदमी कैसे
बर्दाश्त कर
सकते हैं?
और
आदमी के भीतर
दो ही स्वर
होते हैं। जिस
आदमी के भीतर ‘मैं’
का स्वर
होता है, उसके
अंदर प्रेम का
स्वर नहीं
होता है। और
जिसके भीतर
प्रेम का स्वर
होता है, उसके
भीतर ‘मैं’
का स्वर
नहीं होता है।
ये दोनों एक
साथ नहीं होते
हैं। यह
असंभावना है।
यह
वैसी ही
असंभावना है
जैसा एक बार
अंधकार ने
जाकर भगवान को
यह प्रार्थना
की थी कि सूरज मेरे
पीछे पड़ा हुआ
है,
मुझे बहुत
परेशान कर रहा
है। सुबह से
मेरा पीछा
करता है, सांझ
तक मुझे थका
डालता है। और
रात मैं सोकर
विश्राम भी
नहीं कर पाता
कि दूसरे दिन
फिर सुबह से
मेरे पीछे पड़
जाता है। मेरी
समझ में नहीं
आता कि मैंने
कभी कोई कसूर किया
हो, कोई
भूल—चूक की हो,
कोई इसे
नाराज किया हो।
पर क्यों मेरे
पीछे यह चल
रहा है, यह
अनंत उपद्रव
मेरे पीछे
क्यों पड़ा हुआ
है? मैंने
क्या बिगाड़ा
है?
तो
भगवान ने सूरज
को बुलाया और
कहा कि तुम
बेचारे
अंधकार के
पीछे क्यों
पड़े हो? वह
वैसे ही छिपता
फिरता है, जगह—जगह
शरण लेता
फिरता है और
तुम उसका पीछा
क्यों करते हो
चौबीस घंटे, तुम्हें
जरूरत!
सूरज
ने कहा कौन
अंधकार? मेरा
अब तक उससे
मिलना भी नहीं
हुआ। मैं उसे
पहचानता भी
नहीं हूं। कौन
अंधकार? कैसा
अंधकार? मैंने
उसे अब तक देखा
नहीं, मेरी
कोई मुलाकात
नहीं, लेकिन
अगर भूल— चूक
हो गई हो
अनजाने तो आप
उसे मेरे
सामने बुला
दें, मैं
क्षमा मांग
लूं। मैं
क्षमा मांगने
को बिलकुल
तैयार हूं और
पहचान लूं तो
फिर दुबारा
उसका पीछा भी
न करूं।
सुनते
हैं,
इस बात को
हुए भी हजारों—अरबों
साल हो गए। वह
भगवान की फाइल
में बात वहीं
पड़ी है। अभी
तक भगवान
अंधकार को
सूरज के सामने
ला नहीं सके।
और आगे भी
नहीं ला
सकेंगे, यह
मैं कहे देता
हूं। वे कितने
ही
सर्वशक्तिशाली
हों मगर
अंधकार को
सूरज के सामने
लाने की शक्ति
भी
सर्वशक्तिशाली
में नहीं है।
क्योंकि
अंधकार और सूरज
एक साथ खड़े
नहीं हो सकते।
नहीं
खड़े हो सकते
तो कुछ कारण
हैं। कारण यह
है कि अंधकार
की अपनी कोई
सत्ता नहीं है
कि सूरज के
सामने खड़ा हो
जाए। अंधकार
तो केवल सूरज
की
अनुपस्थिति
है,
एब्सेंस है।
तो एक ही चीज
की एब्सेंस
और प्रेजेंस
एक ही साथ
कैसे हो सकती
है? एक ही चीज
मौजूद और गैर—मौजूद
एक ही साथ
कैसे हो सकती
है? अंधकार
तो केवल
अनुपस्थिति
है सूरज की, गैर—मौजूदगी
है। अंधकार
अपने आप में
कुछ भी नहीं
है। वह केवल
सूरज का न
होना है, वह
केवल प्रकाश
का न होना है।
तो प्रकाश के
सामने प्रकाश
का न होना
कैसे खड़ा हो
सकता है? ये
दोनों बातें
एक साथ कैसे
हो सकती हैं? इसलिए भगवान
समर्थ नहीं हो
सकेंगे।
और
भी एक चीज, इसी
भांति अहंकार
और प्रेम भी
एक साथ नहीं
हो सकते।
अहंकार भी
अंधकार की
भांति है। वह
प्रेम की
अनुपस्थिति
है, वह
प्रेम की एब्सेंस
है। वह प्रेम
की मौजूदगी
नहीं है।
हमारे भीतर
प्रेम
अनुपस्थित है
इसलिए हमारे
भीतर ‘मैं’
का स्वर, ‘मैं’ का
स्वर बजता चला
जाता है, बजता
चला जाता है।
और हम इस ‘मैं’
के स्वर को
उठा कर कहते
हैं कि ‘मैं’
प्रेम करना
चाहता हूं मैं
प्रेम देना
चाहता हूं मैं
प्रेम पाना
चाहता हूं।’ आप पागल हो
गए हैं! ‘मैं’
का और प्रेम
का कोई संबंध
न कभी हुआ है
और न हो सकता
है। और यही ‘मैं’ प्रेम
की आवाज किए
चला जाता है— ‘मैं’ प्रार्थना
करना चाहता
हूं ‘मैं’ परमात्मा को
पाना चाहता
हूं ‘मैं’ मोक्ष जाना
चाहता हूं।
ये
वैसी ही बातें
हैं जैसे
अंधकार कहे कि
मैं सूरज से
गले मिलना
चाहता हूं
मुझे सूरज का
आलिंगन करना
है। मुझे सूरज
से प्रेम करना
है। मुझे तो
सूरज के घर
में मेहमान
बनना है।
अंधकार जैसी
ही ये बातें
कहे वैसी ही ‘मैं’
की ये बातें
हैं कि मुझे
प्रेम करना है,
मुझे
प्रार्थना
करनी है, मुझे
परमात्मा से
मिलना है।
‘मैं’ के
लिए यह द्वार
नहीं है, क्योंकि
‘मैं’ प्रेम
की ही
अनुपस्थिति
है।’मैं’ प्रेम का ही
अभाव है और
जितना हमारा
यह ‘मैं’ का स्वर हम
मजबूत करते
चले जाएंगे, उतना ही
हमारे भीतर
प्रेम की
संभावना
क्षीण होती
चली जाएगी।
अहंकार जितना
होगा, उतना
ही प्रेम नहीं
होगा, अहंकार
पूरा हो जाएगा,
प्रेम की
पूरी मृत्यु
हो जाएगी।
हमारे
भीतर कोई
प्रेम नहीं हो
सकता है, क्योंकि
हम खोजेंगे तो
हम पाएंगे कि
हमारे भीतर ‘मैं’ का
स्वर चौबीस
घंटे बज रहा
है। हम श्वास
लेते हैं तो ‘मैं’ के
साथ, हम
पानी पीते हैं
तो ‘मैं’ के साथ। हम
रास्ते पर
चलते हैं तो ‘मैं’ के
साथ। हम मंदिर
में प्रवेश
करते हैं तो ‘मैं’ के
साथ। मैं के
अतिरिक्त
हमारे जीवन
में और क्या
है?
हमारे
वस्त्र, हमारे
‘मैं’ के
वस्त्र हैं।
हमारे पद, हमारे
‘मैं’ के
पद हैं। हमारा
ज्ञान, हमारे
‘मैं’ का
ज्ञान है। हमारी
तपश्चर्या, हमारी सेवा,
हमारे ‘मैं’
की सेवा है।
हमारा सब—कुछ;
हमारा
संन्यास भी
हमारे ‘मैं’
का संन्यास
है।’मैं’ संन्यासी
हूं ऐसा स्वर
भीतर तीव्रता
से उठता रहता
है।’मैं’ कोई गृहस्थ
नहीं हूं ‘मैं’
कोई
साधारणजन
नहीं हूं; ‘मैं’
संन्यासी
हूं ‘मैं’ सेवक हूं ‘मैं’ ज्ञानी
हूं ‘मैं’ धनी हूं ‘मैं’
यह हूं ‘मैं’
वह हूं।
लेकिन
यह जो ‘मैं’ के
आस—पास खड़ा
किया हुआ भवन
है, यह
प्रेम से
अपरिचित रह
जाएगा। और तब
हृदय की वीणा
पर वह संगीत
पैदा नहीं हो
सकेगा जो
प्राणों को
प्राणों के
पास ले जाए, जो प्राण के
केंद्र में ले
जाए, जो
जीवन के मध्य
में ले जाए, जो जीवन के
सत्य से
परिचित करा दे,
वह द्वार ही
नहीं खुलेगा,
वह द्वार ही
बंद रह जाएगा।
यह
बात केंद्रीय
रूप से समझ
लेने की है कि
आपका ‘मैं’ कितना
वजनी है, कितना
गहरा है! और
कहीं ऐसा तो
नहीं है कि आप
उसको और वजन
दिए जाते हैं?
और गहरा किए
जाते हैं, रोज—रोज
उसको मजबूत
किए जाते हैं?
अगर आप उसको
मजबूत किए चले
जा रहे हैं
अपने ही हाथों
से, तो फिर
आप यह आशा छोड़
दें कि आपके
भीतर प्रेम—प्रेम
का आविर्भाव
हो सकता है! वह
प्रेम की बंद
गांठ खुल सकती
है, वह
प्रेम की
संपदा उपलब्ध
हो सकती है!
फिर यह खयाल
ही छोड़ दें।
फिर इसमें कोई
उपाय नहीं है।
इसलिए
मैं आपसे यह
नहीं कहता कि
आप प्रेम करने
को लग जाएं, क्योंकि
अहंकार यह भी
कह सकता है कि ‘मैं’ प्रेमी
हूं और ‘मैं’
प्रेम करता
हूं। और
अहंकार के
नीचे जो प्रेम
है वह एकदम
झूठा है, इसलिए
मैंने कहा है
कि हमारा सारा
प्रेम झूठा है,
क्योंकि वह
अहंकार के
नीचे है और
अहंकार की छाया
है। और स्मरण
रहे, कि
अहंकार के
अंतर्गत जो
प्रेम है वह
घृणा से भी
खतरनाक है, क्योंकि
घृणा स्पष्ट
और सीधी और
साफ है। और
प्रेम शक्ल
बदल कर आया
हुआ है, उसे
पहचानना
मुश्किल हो जाएगा।
अहंकार
के नीचे जो
प्रेम से आपको
अपनी छाती से
लगाता है, आप
थोड़ी देर में
ही पाएंगे कि
वे हाथ नहीं
थे, वे
लोहे की
जंजीरें थीं
जिन्होंने
आपके प्राणों
को जकड़ लिया।
अहंकार के
नीचे जो प्रेम,
आपको अच्छी—
अच्छी बातें
कहता है और
मधुर वचन कहता
है और गीत
गाता है, थोड़ी
देर में ही
आपको पता
चलेगा कि वे
गीत केवल
प्रारंभिक
प्रलोभन थे, उन गीतों के
भीतर बहुत जहर
था। और जो
प्रेम फूलों
की शक्ल लेकर
आता है अहंकार
की छाया में, फूल को
पकड़ते ही आपको
पता चलेगा कि
भीतर बड़े कांटे
थे, जिन्होंने
आपको छेद दिया
है।
मछलियां
पकड़ने लोग
जाते हैं और
कांटों के ऊपर
आटा लगा कर
मछलियां पकड़
लेते हैं। और
अहंकार मालिक
बनना चाहता है
दूसरे लोगों का, पजेस
करना चाहता है
उनको और तब वह
प्रेम का आटा
लगा कर गहरे
कांटों से
लोगों को छेद
लेता है।
प्रेम के धोखे
में जितने लोग
दुख और पीड़ा
पाते हैं उतने
लोग किसी नरक
में भी पीड़ा
और दुख नहीं
पाते। प्रेम
के इस
डिसइलूजन में
सारी पृथ्वी
और सारी
मनुष्य की
जाति नरक
भोगती है।
लेकिन फिर भी
यह खयाल नहीं
आता कि अहंकार
के नीचे प्रेम
झूठा है, इसलिए
यह सारा नरक
पैदा होता है।
अहंकार
जिस प्रेम में
जुड़ा है, वह
प्रेम जेलेसी
का, ईर्ष्या
का एक रूप है।
और इसलिए
प्रेमी जितने
जेलेस होते
हैं, जितने
ईर्ष्यालु
होते हैं उतना
कोई भी ईर्ष्यालु
नहीं होता।
अहंकार से जो
प्रेम जुड़ा है
वह घृणा का, दूसरे को
पजेस करने का,
दूसरे के
मालिक बन जाने
की एक तरकीब
और साजिश है।
वह एक कासपिरैसि
है; इसलिए
प्रेम करने की
बातें करने
वाले लोग जितने
लोगों की
गर्दन कस लेते
हैं, उतना
और कोई भी
नहीं कसता। यह
सारी स्थिति
अहंकार के
नीचे प्रेम के
कारण पैदा
होती है और
अहंकार के साथ
प्रेम का कभी
भी कोई संबंध
नहीं हो सकता।
जलालुद्दीन
एक गीत गाता
था। और बड़ा
प्यारा गीत
गाता था। और
वह गांव—गांव
जाता और उस
गीत को जरूर
दोहराता। और
जब भी लोग
कहते कि
परमात्मा के
संबंध में हमें
कुछ बताओ, तो
वह उसी गीत को
गाने लगता। वह
गीत बड़ा अदभुत
था। उस गीत
में एक प्रेमी
अपनी प्रेयसी
के द्वार पर
गया है और
उसने जाकर
द्वार की
सांकल खटखटाई
है। और भीतर
प्रेयसी ने
पूछा कि कौन
हो तुम?
उस
प्रेमी ने कहा—जैसे
सभी प्रेमी
कहते है—कि
मैं हूं तेरा
प्रेमी! भीतर
फिर सन्नाटा
हो गया। भीतर
से फिर कोई
उत्तर न आया।
भीतर से फिर
कोई आवाज न आई।
वह प्रेमी जोर
से दरवाजे
फड़फड़ाने लगा, लेकिन
भीतर जैसे कोई
था ही नहीं।
वह जोर से
चिल्लाने लगा
कि भीतर
सन्नाटा क्यों
हो गया? उत्तर
दो, मैं
तुम्हारा
प्रेमी आया
हुआ हूं।
लेकिन जितनी
जोर से वह
कहने लगा, मैं
तुम्हारा
प्रेमी आया
हूं वह घर
उतना ही मरघट
जैसे सन्नाटे
से भर गया।
वहां से कोई
उत्तर आना बंद
हो गया।
तब
उसने सिर पीटा
द्वार पर और
उसने कहा. एक
बार तो उत्तर
दो। भीतर से
एक ही उत्तर
आया कि इस घर
में दो के लिए जगह
नहीं हो सकती।
और तुम कहते
हो,
मैं आया हूं
तुम्हारा
प्रेमी। और एक
मैं यहां पहले
से ही मौजूद
हूं। यहां दो
के लिए जगह
नहीं हो सकती।
प्रेम का
द्वार केवल
उनके लिए ही
खुलता है जो ‘मैं’ को
छोड़ आए होते
हैं। अभी तुम
जाओ, आना
फिर कभी।
वह
प्रेमी वापस
लौट गया। और
वर्षों उसने
तपश्चर्या की, और
वर्षों उसने
साधना की, और
वर्षों उसने
प्रार्थना की।
और कितने ही
चांद बड़े हुए
और छोटे हुए, और कितने ही
सूरज निकले और
ढले, और
कितने वर्ष
बीते और फिर
वह वापस लौट
आया उस द्वार
पर, और
उसने आकर
द्वार पर फिर
दस्तक दी। फिर
वही प्रश्न!
फिर कोई किसी
से पूछने लगा
कौन हो तुम? इस बार उस
प्रेमी ने कहा
तू ही है, मैं
नहीं हूं।
जलालुद्दीन
कहते थे कि
द्वार खुल गए, लेकिन
मेरा मन अभी
द्वार
खुलवाने को
राजी नहीं
होता।
जलालुद्दीन
को मरे बहुत
वर्ष हो गए, इसलिए अब
उनको कहने का
कोई रास्ता
नहीं है कि द्वार
अभी नहीं खुल
सकते थे, द्वार
जरा जल्दी
खुलवा दिए!
क्योंकि जो
कहता है कि 'तू ही है' उसे
अपने ‘मैं’
के होने का
पूरा पता है।
जो यह कहता है
कि 'तू ही
है' उसे
अपने ‘मैं’
के होने का
पूरा पता है, क्योंकि
जिसे ‘मैं’
का पता नहीं
रह जाता उसे 'तू, का भी
पता नहीं रह
जाता।
तो
गलत है यह बात
कि प्रेम में
एक ही समाता
है। गलत है यह
बात कि प्रेम
में दो तो
समाते ही नहीं; लेकिन
गलत है यह बात
कि प्रेम में
एक ही समाता है।
प्रेम में न
तो दो रह जाते
हैं और न एक रह
जाता है।
क्योंकि जहां
एक है, जान
लेना दूसरा भी
मौजूद है।
क्योंकि एक का
बोध दूसरे को
ही हो सकता है।
जहां 'तू' मौजूद है
वहां ‘मैं’
भी मौजूद है।
तो मैं तो अभी
वापस लौटा
देता हूं।
उस
प्रेमी ने कहा
'तू ही है, मैं
नहीं हूं।’ लेकिन जो यह
कहता है कि
मैं नहीं हूं
तू ही है; वह
है, वह
पूरी तरह से
है। वह केवल
तरकीब सीख कर
आ गया है।
पहली दफा उसने
सुन लिया था
कि यह मैंने
कहा कि 'मैं
हूं' तो
द्वार बंद रह
गए। इतने
वर्षों में वह
सोच—विचार कर
आ गया कि मुझे
क्या कहना
चाहिए। मुझे
कहना
चाहिए
कि भी ' मैं
नहीं हूं तू
ही है।’ लेकिन
कौन कहेगा, किसलिए
कहेगा? और
जिसको ' तू,
का पता है, उसे ‘मैं’
का भी पता
है।
यह
खयाल में रहे
कि '
तू ' जो
है वह ‘मैं’
की ही छाया
है। जिसका ‘मैं’ मिट
जाता है, उसके
लिए 'तू' भी शेष नहीं
रह जाता है।
तो
मैं तो उसे
वापस लौटा
देता हूं। फिर
उस प्रेयसी ने
कह दिया कि
यहां कोई जगह
नहीं दो के
लिए। पर वह
चिल्लाने लगा
और कहने लगा
कि अब दो कहां? अब
तो मैं हूं ही
नहीं, तू
ही है!
लेकिन
वह प्रेयसी
कहने लगी तुम
वापस लौट जाओ, तुम
तरकीब सीख कर
आ गए हो, लेकिन
अभी दो मौजूद
हैं। अगर दो
मौजूद न होते
तो द्वार
खुलवाने की
तुम कोशिश भी
न करते, क्योंकि
कौन द्वार
खुलवाता और
किसके द्वार खुलवाता?
तुम वापस
लौट जाओ।
प्रेम के घर
में दो नहीं
समा सकते।
और
वह प्रेमी
वापस लौट गया।
और फिर वर्ष
आए और गए, लेकिन
फिर वह लौट कर
नहीं आया, फिर
वह कभी लौटा
ही नहीं। फिर
तो उसकी
प्रेयसी ही
उसे खोजती हुई
उसके पास
पहुंच गई।
तो
मैं तो यही
कहता हूं कि
जिस दिन हमारे
‘मैं’ की
छाया विलीन हो
जाती है, और
जिस दिन न तो ‘मैं’ बचता
है और न तो ' तू
बचता है, उस
दिन आपको
परमात्मा को
खोजने नहीं जाना
पड़ता, परमात्मा
आपको खोजता
चला आता है।
आज
तक कोई मनुष्य
परमात्मा को
नहीं खोज सका
है,
क्योंकि
मनुष्य की यह
सामर्थ्य
कहां कि परमात्मा
को खोज ले? लेकिन
जब कोई मनुष्य
मिटने को राजी
हो गया है, न
हो जाने को
राजी हो गया
है, शून्य
हो जाने को
राजी हो गया
है, तो
परमात्मा उसे
जरूर खोज लेता
है।
परमात्मा
ही खोजता है
मनुष्य को, मनुष्य
कभी परमात्मा
को नहीं खोजता
है। क्योंकि
खोजने में भी,
सीकिंग में
भी अहंकार
मौजूद रहता है
कि ‘मैं’ खोज रहा हूं
मुझे ईश्वर को
पाना है।
मैंने
धन पा लिया, मैंने
पार्लियामेंट
में जगह पा ली,
मैंने बड़ा
मकान बना लिया,
अब आखिरी एक
मंजिल और रह
गई कि मुझे
ईश्वर को भी
पाना है। मैं
कैसा ऐसा हो
सकता हूं कि
बिना ईश्वर को
पाए और छोड़
दूं! यह मेरी
आखिरी विजय का
मामला है। यह
विजय करनी ही
है। मुझे
ईश्वर को भी
पाना है। यह
अहंकार की ही
घोषणा और
आग्रह और खोज है।
इसलिए
धार्मिक आदमी
वह नहीं है जो
ईश्वर को खोजने
निकल पड़ता है।
धार्मिक आदमी
वह है जो अपने ‘मैं’
को खोजने
निकलता है और
जितना ही
खोजने जाता है,
पाता है ‘मैं’ तो
है नहीं। और
जिस दिन ‘मैं’
नहीं रह
जाता है, उस
दिन वह गांठ
खुल जाती है
जो प्रेम को
सम्हाले हुए
है।
तो
अंतिम बात है, अपने
‘मैं’ को
खोजने चले
जाइए, आत्मा
को खोजने नहीं;
क्योंकि
आत्मा का आपको
कोई पता नहीं
है। परमात्मा
को खोजने नहीं,
क्योंकि
परमात्मा की
आपको दूर की
भी खबर नहीं है।
जिसकी खबर ही
नहीं है उसे
खोजिएगा कैसे?
जिसका कोई
पता ही नहीं
मालूम उसको
ढूढिएगा कहां?
जिसका कोई
ओर—छोर नहीं, कोई कोर—ठिकाना
नहीं, जिसका
कोई पता—ठिकाना
नहीं, जिसके
निवास की कोई
खबर नहीं, उसको
खोजिएगा कहां?
पागल हो
जाइएगा, कहीं
भी खोज नहीं
पाइका।
लेकिन
हां,
एक बात का
हमें पता है।
अपने इस ‘मैं’
का पता है।
तो सबसे पहले
इस ‘मैं’ को ही खोज
लेना चाहिए कि
क्या है, और
कहां है, और
कौन है?
और
जैसे ही इसे
खोजने जाइएगा
वैसे ही आप
हैरान हो
जाएंगे कि यह ‘मैं’
तो नहीं है।
यह तो बिलकुल
ही
झूठी खबर थी, यह
तो मेरी ही
कल्पना थी कि
मैं सोचता था
कि 'मैं भी हूं,'
यह तो मेरा
ही पाला—पोसा
भ्रम था।
छोटे
बच्चे पैदा
होते हैं, काम
चलाने के लिए
हम उनका नाम
रख लेते हैं।
किसी को कहते
हैं राम, किसी
को कहते हैं
कृष्ण, किसी
को कुछ और
कहते हैं।
किसी का कोई
नाम नहीं होता,
कामचलाऊ
नाम रख लेते
हैं, लेकिन
बाद में
निरंतर सुनते—सुनते
आदमी को यह
भ्रम हो जाता
है कि यह मेरा
नाम है—मैं
राम हूं मैं
कृष्ण हूं। और
अगर राम को
गाली दे दें
तो लड़ने को
खड़ा हो जाएगा
कि आपने मुझे
गाली दे दी।
और राम कहां
से ले आया वह
नाम!
कोई
जन्म के साथ
कोई नाम लेकर
पैदा नहीं
होता। हर आदमी
अनाम पैदा
होता है, लेकिन
सोशल यूटलिटी
है नाम की। एक
सामाजिक
उपादेयता है,
उपयोगिता
है। बिना नाम
के चिट लगानी
और लेबल लगानी
मुश्किल है, इसलिए नाम
रख लेते हैं।
तो दूसरों को
पुकारने के
लिए नाम रख
लेते हैं। वह
एक सामाजिक
उपयोगिता है
और खुद को अगर
बार—बार नाम
लेकर पुकारें
तो बड़ा भ्रम
पैदा होगा कि
हम खुद को
पुकार रहे हैं
कि किसी और को,
इसलिए खुद
को पुकारने के
लिए ‘मैं’, ‘मैं’ खुद
को पुकारने के
लिए एक नाम, एक संज्ञा
है। और नाम
दूसरों को
पुकारने के
लिए एक सता है।
दोनों ही सताए
कल्पित, सामाजिक
उपयोगिताएं
हैं, सोशल यूटलिटी
है। और इन्हीं
दो संज्ञाओं
के आस—पास हम
सारे जीवन के
भवन को खड़ा कर
लेते हैं। जो
केवल दो कोरे
शब्द हैं और
कुछ भी नहीं
है। जिनके
पीछे कोई सत्य
नहीं, जिनके
पीछे कोई
सल्लेंस नहीं;
जिनके पीछे
कोई वस्तु
नहीं, सिर्फ
नाम, सिर्फ
सताए हैं।
एक
दफा ऐसी भूल
हो गई। एक
छोटी सी लड़की
थी,
एलिस। और
एलिस भटकती—
भटकती परियों
के देश में
पहुंच गई। जब
वह परियों की
रानी के पास
पहुंची, तो
रानी ने उस
एलिस से पूछा,
एक छोटा सा
प्रश्न पूछा
डिड यू मीट
समबडी, ऑन
दि वे
टुवर्ड्स मी?
कोई
तुम्हें मिला
रास्ते में
मेरी तरफ आता
हुआ? एलिस
ने कहा नोबडी।
एलिस ने कहा कोई
भी नहीं।
लेकिन
रानी समझी कि 'नोबडी'
नाम का कोई
आदमी इसको
मिला। और भ्रम
मजबूत हो गया,
क्योंकि
फिर रानी का
डाकिया, चिट्ठी—पत्री
लाने वाला
मेसेंजर, वह
आया और रानी
ने उससे भी
पूछा कि डिड
यू मीट समबडी,
टुवर्ड्स
मी। उसने भी
कहा नोबडी।
उसने भी कहा.
कोई नहीं मिला।
कोई नहीं।
रानी
ने कहा कि बड़ी
अजीब बात है।
क्योंकि रानी
समझी कि ' नोबडी
' नाम का
कोई आदमी एलिस
को भी मिला, इसको भी
मिला। तो उसने
अपने मेसेंजर
को कहा कि इट
सीम्स नोबडी
वाक्स स्लोअर
देन यू। उसने
कहा कि इसका
मतलब है कि वह
जो 'नोबडी'
नाम का आदमी
है, वह जो 'कोई नहीं' नाम का आदमी
है, वह
बहुत धीमा
चलता है।
लेकिन
उस वाक्य के
दो अर्थ हो गए।
उसका एक अर्थ
हुआ कि इससे
पता चलता है
कि तुमसे धीमा
कोई भी नहीं
चलता। वह
मेसेंजर डरा, क्योंकि
मेसेंजर की
यही खूबी होनी
चाहिए कि वह
तेज चलता है।
तो उसने कहा
कि नहीं—नहीं,
नोबडी
वाक्स फास्टर
देन मी। मुझसे
तेज कोई भी
नहीं चलता है।
लेकिन
रानी ने कहा
बड़ी मुश्किल
हो गई, तुम
कहते हो कि 'नोबडी' तुमसे
तेज चलता है।
तो रानी ने
कहा कि इफ
नोबडी वाक्स
फास्टर दैन यू
दैन ही मस्ट
हैव रीच्छ
बिफोर यू। तो
उसको अब तक आ
जाना चाहिए था,
अगर वह तुमसे
तेज चलता है।
तो वह बेचारा
मेसेंजर... अब
उसको खयाल आया
कि कुछ गलती
हो रही है।
उसने कहा
नोबडी इज
नोबडी, कोई
नहीं, कोई
नहीं है।
लेकिन
रानी बोली यह
भी कोई समझाने
की बात है।
मैं जानती हूं
कि नोबडी इज
नोबडी। लेकिन
ही मस्ट हैव
रीच्छ। उसको
अब तक आ जाना
चाहिए था। वह
है कहां?
आदमी
के साथ ऐसी ही
भाषा की भूल
हो जाती है।
सब नाम 'नोबडी'
हैं। किसी
नाम का इससे
ज्यादा मतलब
नहीं है। सब ‘मैं’ का
खयाल नोबडी है,
इससे
ज्यादा कोई
मतलब नहीं है।
लेकिन भाषा की
भूल से ऐसा
खयाल पैदा
होता है कि 'मैं कुछ हूं।
मेरा नाम कुछ
है।’
आदमी
मर जाता है, पत्थरों
पर लिख जाता
है नाम कि
शायद पत्थर बच
जाएंगे पीछे,
लेकिन पता
नहीं हमें कि
जितनी रेत बन
गई है समुद्रों
के किनारे, वह सभी कभी
पत्थर थे। सब
पत्थर रेत
साबित होते
हैं। रेत पर
लिख दो नाम, या पत्थर पर
लिख दो नाम, एक ही बात है।
दुनिया की इस
लंबी कथा में
रेत और पत्थर
में कोई फर्क
नहीं। समुद्र
के किनारे
बच्चे लिख आते
हैं रेत पर अपना
नाम। सोचते
होंगे कि कल
लोग निकलेंगे
और देखेंगे।
लेकिन समुद्र
की लहरें आती
हैं, रेत
को पोंछ जाती
हैं। के हंसते
हैं, अरे
पागल हो! रेत
पर लिखे नाम
का कोई मतलब।
लेकिन के
पत्थरों पर
लिखते हैं। और
उनको पता नहीं
कि सब रेत
पत्थर से बनती
है। बूढ़े और
बच्चों में
कोई फर्क नहीं।
बेवकूफी में
हम सब बराबर
एक ही उम्र के
हैं।
एक
सम्राट
चक्रवर्ती हो
गया था।
चक्रवर्ती का
मतलब कि वह
सारी पृथ्वी
का मालिक हो
गया था। ऐसा
मुश्किल से ही
कभी होता है।
चक्रवर्तियों
को एक, एक
विशेषता
उपलब्ध होती
थी जो कि किसी
को उपलब्ध
नहीं होती थी।
कथा है पुरानी।
चक्रवर्तियों
को एक सौभाग्य
मिलता था जो
किसी को नहीं
मिलता था। और
वह यह था कि
सुमेरु पर्वत
पर, स्वर्ग
में जो पर्वत
है, उस
पर्वत पर उनको
हस्ताक्षर
करने का मौका
मिलता था। यह
मौका सबको
नहीं मिलता था।
कभी कोई
चक्रवर्ती
होता है
अनंतकाल में,
कि सारी
पृथ्वी को जीत
लेता है तब
उसे सुमेरु पर्वत
पर हस्ताक्षर
करने का मौका
मिलता है। वह
जो सुमेरु
पर्वत है, वह
सबसे अडिग
चट्टान है
सारे जगत में।
एक
व्यक्ति
चक्रवर्ती हो
गया,
वह बहुत खुश
हुआ। यह
सौभाग्य उसको
मिला कि अब वह
सुमेरु पर्वत पर
जाकर
हस्ताक्षर
करेगा। वह बड़े
ठाट—बाट से, बड़े फौज—फांटे
लेकर स्वर्ग
के द्वार पर
पहुंच गया।
द्वारपाल ने
उससे कहा कि
आप आ गए? लेकिन
यह भीड़— भाड़
भीतर नहीं जा
सकेगी। आपको
अकेला ही जाना
पड़ेगा। और साथ
में आप कुछ
हथौड़ी वगैरह
नाम खोदने के
लिए कोई सामान
ले आए हैं? उसने
कहा मैं सामान
ले आया हूं।
तो
उसने कहा कि
पहले तो आपको
यह करना पड़ेगा, सुमेरु
पर्वत अनंत
पर्वत है, लेकिन
इतने
चक्रवर्ती हो
गए कि अब उस पर
दस्तखत करने
को जगह ही नहीं
बची। तो आपको
पहले तो किसी
का नाम मिटाना
पड़ेगा, फिर
दस्तखत करने
पड़ेंगे, क्योंकि
जगह नहीं बची
है, सारा
पर्वत भर गया
है।
अंदर
गया। पर्वत था
अनंत। कई
हिमालय समा
जाएं उसकी उप—चोटियों
में,
और उस पर
इंच भर जगह न
बची थी। उसने
तो सोचा था
अनंतकाल में
एकाध चक्रवर्ती
होता है, लेकिन
उसे पता ही
नहीं था कि
कितना काल
अनंत हो चुका
है कि अनंतकाल
में भी एक
चक्रवर्ती हो तो
भी पर्वत भर
गया है; उधर
कोई जगह नहीं
है। वह बड़ा
उदास और हैरान
हो गया।
पहरेदार कहने
लगा आप उदास न
हों। मेरे
पिता भी यही
काम करते थे, उनके पिता
भी यही काम करते
थे, उनके
पिता भी यही
काम करते थे।
हम हमेशा पीढ़ी
दर पीढ़ी यही
सुनते आए हैं
कि जब भी
दस्तखत करने
पड़ते हैं, जगह
मिटा कर ही
करने पड़ते हैं।
कभी जगह खाली
नहीं मिलती।
चक्रवर्ती
वापस लौटने
लगा। उसने कहा
कि जब नाम
मिटा कर
हस्ताक्षर
करने पड़ते हैं
तो पागलपन है।
क्योंकि मैं
करके गया और
कल कोई दूसरा
आकर मिटा कर
कर देगा, और
जहां पहाड़
इतना बड़ा है
और इतने नाम
हैं, पढ़ता
कौन होगा? और
मतलब क्या रहा?
मुझे क्षमा
कर दो, मैं
भूल में पड़
गया हूं। बात
व्यर्थ हो गई
है।
लेकिन
इतने समझदार
लोग कम होते
हैं। पत्थर पर
नाम लिखवाते
हैं,
मंदिर पर
नाम लिखवाते
हैं, स्मारक
बनवाते हैं, नाम लिखवाते
हैं और भूल ही
जाते हैं कि
बिना नाम के
पैदा हुए थे।
नाम कोई अपना
था नहीं। तो
पत्थर खराब
किया अलग, मेहनत
करवाई सो अलग
और विदा होते
हैं तब अनाम विदा
होते हैं।
अपना कोई नाम
नहीं था।
‘नाम’ है
बाहर के जगत
से दिखने वाला
भ्रम और ‘मैं’
है भीतर की
तरफ से दिखने
वाला भ्रम।’मैं’ और ‘नाम’ एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं।’नाम’ दिखता
है बाहर की
तरफ से, ‘मैं’
दिखता है
भीतर की तरफ
से। और जब तक
यह नाम और मैं
का भ्रम शेष
रहता है तब तक
वह गांठ नहीं
खुलती है
जिससे प्रेम
उत्पन्न होता
है।
तो
अंतिम बात
मुझे यह कहनी
है कि थोड़ा
खोजें, थोड़ा
सुमेरु पर्वत
पर जाएं और
देखें कि
कितने हस्ताक्षर
हो गए हैं।
आपको भी करने
हैं जमीन मिटा
कर? थोड़ा
पहाड़ों के
किनारे जाएं
और उनको रेत
बनते देखें।
थोड़ा
समुद्रों के
किनारे
बच्चों को
दस्तखत करते
देखें। चारों
तरफ अपने को
देखें कि हम
क्या कर रहे
हैं। हम कहीं
रेत पर
हस्ताक्षर
करने में जीवन
व्यय तो नहीं
कर रहे हैं? और अगर ऐसा
लगे तो थोड़ी
खोज— बीन करें,
इस ‘मैं’
के भीतर
घुसे और खोजें
और खोजें। एक
दिन आप पाएंगे
कि ‘मैं’ नोबडी है।
वहां कोई भी
नहीं है। वहां
एक गहरा
सन्नाटा और
शांति है।
वहां कोई भी ‘मैं’ नहीं
है। और जिस
दिन यह पता चल
जाता है कि
भीतर कोई ‘मैं’
नहीं है, उसी दिन
सबका पता चल
जाता है, जो
है, जो
वस्तुत: है—जो
अस्तित्व है,
जो आत्मा है,
जो
परमात्मा है।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि प्रेम
द्वार है
परमात्मा का, और
अहंकार द्वार
है अज्ञान का।
अहंकार द्वार
है अंधकार का,
और प्रेम
द्वार है
प्रकाश का। यह
अंतिम बात
विदा होते
आपसे कह देनी
थी। तो प्रेम
पर इस दिशा से
थोड़ी खोज करना,
लेकिन वह
खोज अहंकार की
खोज से शुरू
होगी और प्रेम
की उपलब्धि पर
पूरी होगी। तो
इस तरफ से
थोड़ा खोजना कि
यह अहंकार की
छाया सच में
है, है यह
कहीं, है
कहीं अहंकार?
कहीं हूं ‘मैं’? जो
आदमी इस खोज
में निकलता है,
वह ‘मैं’
को तो नहीं
पाता है, लेकिन
परमात्मा को
पा लेता है।’मैं’ की
खूंटी से जो
बंधे हैं, उनके
जगत में, उनके
सागर में, प्रभु
के सागर में
उनकी कोई
यात्रा नहीं
है। यह अंतिम
बात आपसे कहनी
है, वैसे
यही प्रथम भी
है, यही
अंतिम भी है।
‘मैं’ —ही
प्रथम है
मनुष्य के
जीवन का और ‘मैं’ ही
अंतिम है।’मैं’
में ही बंधा
हुआ आदमी दुख
पाता है। और ‘मैं’ से
मुक्त होकर आनंद
को उपलब्ध हो
जाता है।’मैं’
के
अतिरिक्त और
कोई कहानी
नहीं और कोई
कथा नहीं।’मैं’
के
अतिरिक्त और
कोई सपना नहीं,
और ‘मैं’
के
अतिरिक्त और
कोई असत्य
नहीं।
तो
इस ‘मैं’ को
खोल लें और
प्रेम के
द्वार खुल
जाएंगे।’मैं’
की चट्टान
टूट जाए और
पीछे से प्रेम
के झरने बहने
शुरू हो जाते
हैं। हृदय तो
प्रेम के
संगीत से भरता
है और जहां हृदय
प्रेम के
संगीत से भरता
है, वहां
फिर एक और नई
यात्रा शुरू
होती है जिसे
शब्दों में
कहना कठिन है।
वह फिर जीवन
के केंद्र पर
ले जाती है और
पहुंचा देती
है।
ये थोड़ी
सी बातें
अंतिम जाते
समय आपसे मुझे
कहनी थीं, वे
मैंने कहीं।
अब हम
रात्रि के
ध्यान के लिए
बैठेंगे। दस
मिनट के लिए
हम रात्रि का
ध्यान करेंगे।
और फिर हम
विदा हो
जाएंगे। और
मैं इस आशा
में और
परमात्मा से
इस प्रार्थना
में आपको विदा
दूंगा कि
परमात्मा
सबको यह
सौभाग्य दे कि
वे प्रेम को
उपलब्ध हो
सकें।
परमात्मा
सबको यह
सौभाग्य दे कि
वह ‘मैं’ की
बीमारी से छूट
सकें।
परमात्मा
सबको यह
सौभाग्य दे कि
जो उसके पास ही
है वह उसे मिल
जाए।
एक
भिखारी मर गया
था एक बहुत
बड़े नगर में।
परमात्मा करे
आप भी उस
भिखारी जैसे न
मर जाएं। और
वह भिखारी
चालीस वर्षों
तक एक ही जगह
बैठ कर भीख
मांगते मर गया
था। भीख
मांगते—मांगते
सोचा था कि
भीख मांगते—मांगते
सम्राट हो
जाऊंगा।
लेकिन भीख
मांग कर कभी
कोई सम्राट
होता है? तो
भीख तो आदमी
जितनी मांगता
है उतना ही
बड़ा भिखारी हो
जाता है।
तो
जिस दिन उसने शुरू
किया था, छोटा
भिखारी था, जिस दिन मरा
तो बड़ा भिखारी
था। लेकिन
सम्राट नहीं
हुआ था, फिर
मर गया। तो
मरने वाले के
साथ जो पास—पड़ोस
के लोग
व्यवहार करते
हैं, वही
उसके साथ भी
किया। उसकी
लाश को फिंकवा
दिया, जलवा
दिया। जिस
जमीन पर वह
बैठा था, वहां
चिथड़े उसके
पड़े थे, गंदगी
पड़ी थी, उसमें
आग लगवा दी।
और फिर पड़ोस
के लोगों को
खयाल आया कि
यह भिखारी
चालीस वर्ष तक
इसी जमीन को
गंदा करता रहा,
तो थोड़ी सी
जमीन भी खुदवा
कर फेंक दें।
उन्होंने
थोड़ी सी जमीन
भी खुदवा कर
फेंकी।
और
देखते ही वे
हैरान रह गए!
काश,
भिखारी
जिंदा होता तो
वह भी पागल हो
उठता, जमीन
खोदते ही पाया
कि वहां तो
बहुत बड़ा
खजाना गड़ा हुआ
है, जिस पर
बैठा हुआ
भिखारी भीख
मांगता था।
लेकिन उस
भिखारी को पता
भी नहीं था कि
मैं जिस जमीन
पर बैठ कर भीख
मांगता हूं
अगर वहां खोद
लूं तो सम्राट
हो जाऊंगा।
भीख मांगने की
कोई जरूरत न रह
जाएगी।
लेकिन
उस बेचारे को
क्या पता, उसकी
आंखें बाहर
लगी थीं, हाथ
बाहर फैले थे,
भीख मांगते—मांगते
मर गया था। वे
सारे पड़ोस के
लोग चकित खडे
रह गए कि कैसा
यह भिखारी था!
इस पागल को यह
भी पता न चला
कि मैं किस
जमीन पर बैठा
हूं वहां
खजाने हैं!
मैं
भी उस मोहल्ले
में गया और
मैंने उन पड़ोस
के लोगों को
आश्चर्य से
भरे हुए देखा, तो
मैंने उनसे
कहा कि पागलो!
तुम भिखारी की
फिकर मत करो।
छोड़ दो भिखारी
की फिकर।
क्योंकि तुम
भी अपनी— अपनी
जमीन खोद कर
देख लेना, कहीं
ऐसा न हो कि
तुम भी मर जाओ
और दूसरे लोग
तुम पर हंसे।
जो मर जाते हैं,
उन पर दूसरे
लोग हंसते हैं
कि बड़ा पागल
था यह आदमी, कुछ भी न पा
सका। और
उन्हें पता
नहीं कि उनके
मरने की दूसरे
लोग रास्ता
देख रहे हैं
ताकि वे भी
हंसेंगे कि बड़ा
पागल था यह
आदमी, और
कुछ भी न पा
सका।
जो
मर जाता है उस
पर जिंदा लोग
हंसते हैं, लेकिन
जो जिंदा आदमी
अपने पर हंसने
का खयाल भी
जिसे पैदा हो
जाता है, उसकी
जिंदगी बदल
जाती है। वह
दूसरा आदमी हो
जाता है।
तो
अगर इन तीन
दिनों में
आपको अपनी ही
जिंदगी पर
हंसने का खयाल
आ जाए तो बात
पूरी हो गई।
और आपको खयाल
आ जाए उस जगह
खोदने का जहां
आप खड़े हैं, तो
बात पूरी हो गई।
तो मैंने जो
कहा उसका
परिणाम फिर
निश्चित आ सकता
है।
अंत
में यही
प्रार्थना
करता हूं कि
आप भिखारी ही
नहीं मर
जाएंगे, सम्राट
होकर ही
मरेंगे। पड़ोस
के लोगों को
हंसने का मौका
नहीं देंगे, इसकी
प्रार्थना
करता हूं।
तीन
दिन तक मेरी
बातों को इतनी
शांति और इतने
प्रेम से सुना, उसके
लिए बहुत—बहुत
अनुगृहीत हूं।
और अंत में
सबके भीतर
बैठे
परमात्मा को
प्रणाम करता
हूं। मेरे
प्रणाम
स्वीकार करें।
अब हम
रात्रि के
ध्यान के लिए
बैठेंगे। तो
आप सब थोड़ी—
थोड़ी जगह बना
लें,
ताकि आप लेट
सकें। अंतिम
ध्यान है, इसलिए
उसका पूरा
उपयोग कर लें।
सब लोग थोड़े
फासले पर हो
जाएं।
हां, बातचीत
न करें, कोई
बातचीत न करें।
और जो लोग बीच
में बैठे हैं,
वे हट आएं
बाहर। कोई
किसी को छूता
हुआ न हो।
वहां से हट
आएं यहां बाहर,
जहां जगह है
वहां हट जाएं।
बातचीत
बिलकुल भी
नहीं।
क्योंकि
बातचीत का कोई
संबंध नहीं है।
यहां आगे हट
आएं कुछ लोग।
और ध्यान रखें
कि आपके कारण
किसी के ध्यान
में जरा भी
बाधा न पड़े।
किसी के भी
कारण किसी
दूसरे को जरा
भी बाधा न पड़े।
आप लेट जाएं, तो फिर
प्रकाश बुझा
दिया जाए।
देखें, इसको
ध्यान में
लेंगे कि किसी
के कारण किसी
को जरा भी
बाधा न हो।
(हां, प्रकाश
बुझा दें।)
सबसे
पहले शरीर को
बिलकुल शिथिल
छोड़ कर लेट जाएं।
बिलकुल ढीला
छोड़ दें, जैसे
शरीर में कोई
प्राण नहीं
हैं। शरीर
बिलकुल ढीला
छोड़ दें, जैसे
शरीर में कोई
प्राण ही नहीं
हैं। शरीर
बिलकुल ढीला
छोड़ दें। आंख
धीरे से बंद
कर लें। आंख
बंद कर लें।
आंख
बंद कर ली है।
शरीर ढीला छोड़
दिया है। अब
मैं सुझाव
देता हूं मेरे
साथ अनुभव
करेंगे तो ठीक
वैसा ही
परिणाम शरीर
और मन में
होता जाएगा।
अनुभव
करें, शरीर
शिथिल हो रहा
है......शरीर
शिथिल हो रहा
है......शरीर
शिथिल हो रहा
है......शरीर
शिथिल हो रहा
है......शरीर
शिथिल हो रहा
है......शरीर
शिथिल होता जा
रहा है...।
अनुभव करें, शरीर शिथिल
होता जा रहा
है......शरीर
शिथिल होता जा
रहा है......शरीर
शिथिल होता जा
रहा है......शरीर
शिथिल होता जा
रहा है..। शरीर
बिलकुल शिथिल
छोड़ दें और
भाव करें, शरीर
शिथिल हो गया
है......शरीर
शिथिल हो गया
है......शरीर
शिथिल हो गया
है......शरीर
शिथिल हो गया
है...।
श्वास
शांत होती जा
रही है... भाव
करें, श्वास
शांत हो रही
है......श्वास
शांत हो रही
है......श्वास
शांत हो रही
है......श्वास
शांत हो रही
है...। भाव करें,
श्वास शांत
हो रही है......श्वास
शांत हो गई है......श्वास
शांत हो गई है......श्वास
शांत हो गई है......श्वास
शांत हो गई है......श्वास
शांत हो गई है...।
मन
भी शून्य हो
रहा है......मन भी
शांत हो रहा
है......मन भी शांत
हो रहा है... भाव
करें, मन शांत
हो रहा है......मन
शांत हो रहा
है......मन शांत हो
गया है......मन
शांत हो गया
है...।
अब
दस मिनट के
लिए भीतर जागे
हुए बाहर की
सब ध्वनियों
को चुपचाप
सुनते रहें।
भीतर जागे
रहें, सो नहीं
जाना है। भीतर
होश से भरे
रहें। भीतर
जागे रहें और
चुपचाप सुनते
रहें। सिर्फ
सुनते रहें।
रात के
सन्नाटे को
सुनते रहें।
सुनते ही
सुनते बहुत
गहरा शून्य
उत्पन्न होगा।
सुनें......दस
मिनट के लिए
चुपचाप सुनते
रहें। शांत
सुनते रहें, मन
बिलकुल शून्य
में उतर जाएगा।
मन शून्य हो
जाएगा। मौन
सुनते रहें, मन शून्य हो
रहा है.. मन
शून्य हो रहा
है......मन शून्य
हो रहा है......मन
शून्य हो रहा
है...।
और
गहरे शून्य
में डूबते
जाएं। मन
शून्य हो रहा
है......मन शून्य
हो रहा है......मन
शून्य हो रहा
है......मन शून्य
हो रहा है......मन
शून्य हो रहा
है......मन शून्य
होता जा रहा
है...। और गहरे
डूबते जाएं।
मन शून्य हो
रहा है......मन
शून्य हो रहा
है......मन बिलकुल
शून्य हो गया
है...।
मन
शून्य हो गया
है......मन शून्य
हो गया है... और
गहरे डूब जाएं, बिलकुल
गहरे डूब जाएं।
मन शून्य हो
गया है......मन
शून्य हो गया
है...।
धीरे—
धीरे दों—चार
गहरी श्वास
लें......प्रत्येक
श्वास के साथ
बहुत शांति
अनुभव होगी।
धीरे— धीरे दो—चार
गहरी श्वास
लें......प्रत्येक
श्वास के साथ
शांति अनुभव
होगी। फिर
धीरे— धीरे आंख
खोलें......बाहर
भी वैसी ही
शांति प्रतीत
होगी जैसी
भीतर है। धीरे—
धीरे आंख
खोलें......फिर
बहुत आहिस्ता
से उठ कर बैठ
जाएं। जरा भी
गड़बड़ न हो, आस—पास
किसी को
परेशानी न हो।
धीरे से उठ कर
बैठ जाएं।
बातचीत
नहीं करेंगे।
(प्रकाश जला
दें।)
हमारी
अंतिम बैठक
पूरी हुई।
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