शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

सपना यह संसार--(प्रवचन--13)

राग का अंतिम चरण है वैराग्य—(प्रवचन—तेरहवां)

दिनांक; सोमवार, 23 जुलाई 1978;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
जीवन है दिन चार, भजन करि लीजिए।
तन मन धन सब वारि संत पर दीजिए।।
संतहिं से सब होइ, जो चाहै सो करैं
अरे हां, पलटू संग लगे भगवान, संत से वे डरैं।।

ऋद्धि सिद्धि से बैर, संत दुरियावते
इंद्रासन बैकुठ बिष्ठा सम जानते।।
करते अबिरल भक्ति, प्यास हरिनाम की।
अरे हां, पलटू संत न चाहैं मुक्ति तुच्छ केहि काम की।।

आगम कहैं न संत, भड़ेरिया कहत हैं।
संत न औषधि देत, बैद यह करत हैं।।
झार फूंक ताबीज ओझा को काम है।
अरे हां, पलटू संत रहित परपंच राम को नाम है।।

हरिजन हरि हैं एक सबद के सार में।
जो चाहैं सो करैं संत दरबार में।।
तुरत मिलावैं नाम एक ही बात में।
अरे हां, पलटू लाली मेंहदी बीच छिपी है पात में।।

करते बट्टा ब्याज कसब है जगत का।
माया में हैं लीन; बहाना भगति का।।
कहौं तनिक नहिं छुई गया बैराग है।
अरे हां, पलटू जनमें पूत कपूत लगाया दाग है।।

पगरी धरा उतारि टका छह सात का।
मिला दुसाला आय रुपैया साठ का।।
गोड़ धरे कछु देहि मुंड़ाए मूंड़के
अरे हां, पलटू ऐसा है रुजगार कीजिए ढूंढ़िके।।

मसक्कत ना हूवै सकी मुंड़ाया मूड़ तब।
सेंतिमेंति में खाय मिला औसान अब।।
तब नागा हूवै लिहिन, रहे ना काम के।
अरे हां, पलटू मारिपीटिके, खाहिं सो बेटा राम के।।

वि योग प्रीतम ने एक पत्र में मुझे लिखा है—
भगवान!
कौन हो तुम?
प्राण की अमराइयों में
कोकिले से कूकते
मधु घोल जाते हो
या हृदय की गहन घाटी में
मचलते भाव—निर्झर से
शून्य के कुछ अर्थ अनुपम खोल जाते हो
कौन तुम?
आकाश—से विस्तीर्ण
जिसमें पंख अपने खोल
मैं उन्मुक्त उड़ता जा रहा अश्रांत,
कर रहा हूं संतरण कलहंस—सा अनथक
तुम्हारे प्रेम—रंजित मानसरोवर में
बना उदभ्रांत
आग यह कैसी अभीप्सा की
निरंतर जल रही अंतःकरण में
फैलती ही जा रही जो,
राग यह कैसा उठा है आज
अंतर्बीन से मेरी
कि सारा विश्व जगमग हो उठा है
यह तुम्हारी ही जलाई आग है
यह जानता हूं,
यह तुम्हारी ही जगाया राग है अनुराग का
पहचानता हूं
पर तुम्हें जब खोजता हूं
जग—जलधि में
थाह मिल पाती नहीं है,
जो तुम्हारी दिव्य मंजिल से मिले
वह राह मिल पाती नहीं है
चेतना पर
जो अमृत वरदान—सा बनकर बरसते हो
हृदय में
भाव के माधुर्य से भीगा हुआ
संगीत बनकर जो सरसते हो,
जो स्व निर्मित सृष्टि में ही छिप गए हो
एक अनबुझ राज—से वह
कौन हो तुम?
परमात्मा प्रकट से भी प्रकट, अप्रकट से भी अप्रकट है। पास से भी पास, दूर से भी दूर है। आंख हो तो पास, आंख न हो तो दूर। और आंख हमारे पास नहीं। सूरज द्वार पर नाच रहा है, अपनी सतरंगी किरणों को लेकर, पर अंधे को पता कैसे चले? या जो आंख बंद किए बैठा है, द्वार—दरवाजे बंद किए बैठा है, उसे अनुभव कैसे हो? सूरज की तरफ से कोई कमी नहीं, कोई कृपणता नहीं है, कृपणता है तो हमारी तरफ से। हम आंख खोलने में भी संकोच करते हैं। द्वार पर दस्तक दे परमात्मा, तो भी हम अनसुनी कर जाते हैं। सुन भी लेते हैं तो अनसुनी करते हैं।
और ऐसा नहीं है कि उसने द्वार पर दस्तक न दी हो। ऐसा कोई द्वार ही नहीं है जिस पर वह दस्तक न देता हो। और एक बार नहीं, अनेक बार देता है। अनेक बार नहीं, अनंत बार देता है। सुबह देता है, दोपहर देता है, सांझ देता है, रात देता है। हर भावदशा में तुम्हें झकझोरता है। कभी सूरज की किरणों में, कभी चांद की किरणों में, कभी हवा के झोंकों में, कभी फूलों की गंध में, कभी पक्षियों की चहचहाहट में—कितने रूपों में आता है! मगर हमारी कठिनाई यह है कि हम उसके इस अनंत रूप को समाने के लिए राजी नहीं। हमने तो उसकी छोटी—छोटी प्रतिमाएं बना ली हैं। हम तो चाहते हैं वह हमारी प्रतिमा के रूप में आए। हमने शर्तें बांध रखी हैं कि ऐसे ही आओगे तो स्वीकार होओगे। और हमारी शर्तें मानने को वह मजबूर नहीं।
हमारी शर्तें वह मान भी नहीं सकता।
हमारी शुद्र शर्तें मान ले तो वह विराट न रह जाए। हमारी अपेक्षाएं पूरी नहीं की जा सकतीं। हमें अपेक्षाएं छोड़नी होंगी। और तब अचानक सारा रहस्य खुल जाता है। और जब मैं कहता हूं सारा रहस्य खुल जाता है, तो ऐसा मत समझ लेना कि तुम्हें सारे प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे। उत्तर तो एक भी प्रश्न का नहीं मिलता, लेकिन सारे प्रश्न गिर जाते हैं। जब मैं कहता हूं सब रहस्य खुल जाता है, तो मेरा अर्थ है: सारे प्रश्न गिर जाते हैं। पूछने वाला ही घुल जाता है, मिल जाता है, डूब जाता है। पूछने वाला ही नहीं बचता। मन ही पिघल जाता है। जिसमें प्रश्न लगते थे, प्रश्न ऊगते थे, वह मूल स्रोत ही जड़ से कट जाता है। प्रश्न गिर जाते हैं, एक निष्प्रश्न मौन छा जाता है। उस निष्प्रश्न मौन में ही जाना जाता है क्या है।
कौन हो तुम?
प्राण की अमराइयों में
कोकिल से कूकते
मधु घोल जाते हो
या हृदय की गहन घाटी में
मचलते भाव—निर्झर से
शून्य के कुछ अर्थ अनुपम खोल जाते हो
नहीं उत्तर मिलेगा कि कौन है वह। लेकिन प्रश्न गिर जाएगा। और प्रश्न का गिर जाना ही सार्थक है। उत्तर से कुछ काम बनता भी नहीं। क्योंकि हर उत्तर में नए प्रश्न लग जाते हैं। हर उत्तर नए प्रश्नों को ही लाता है। एक ही जगह दस प्रश्न ले आता है। मजा तो तभी है जब तुम्हारे भीतर प्रश्न ही न उठे। तुम्हारे भीतर प्रश्न का चिह्न ही खो जाए। उस अवस्था को भक्त भजन कहते हैं; जहां प्रश्न का कोई चिह्न नहीं। ध्यानी समाधि कहते हैं; जहां प्रश्न का कोई चिह्न नहीं। जहां निष्प्रश्न, निस्तरंग चैतन्य है, वहां जान लिया गया सब।
और फिर एक बात तुम्हें दोहरा दूं: जब मैं कहता हूं जान लिया गया सब, तो यह मत समझना कि तुम बड़े ज्ञानी हो जाओगे, कि तुम बड़े पंडित हो जाओगे। नहीं, जब तुम सब जानोगे तो तुम बिलकुल निर्दोष हो जाओगे। पांडित्य का तो दूर—दूर तक पता न चलेगा। एक सरलता होगी। एक सहजस्फूर्त चैतन्य का आविर्भाव होगा। खुलेगा एक आकाश जिसका न ओर है न छोर है। लेकिन, ज्ञाता तुम नहीं बन जाओगे। मुट्ठी में तुम्हारे ज्ञान नहीं आ जाएगा। तुम तो बचोगे ही नहीं। बचेगा एक माधुर्य, एक स्वाद अमृत का। तुम्हारे रोएंरोएं में प्रतिध्वनित होगी एक मधुर ध्वनि, एक मधुर रव—अनाहत का, ओंकार का। लेकिन तुम ज्ञानी नहीं हो जाओगे। उत्तर ही पास न हों तो तुम ज्ञानी कैसे होओगे? जहां रहस्य का अनुभव होता है, वहां व्यक्ति निर्दोष हो जाता है। या व्यक्ति निर्दोष हो जाए, तो रहस्य का अनुभव हो जाता है। निर्दोषिता तुम्हारी तरफ से और परमात्मा की तरफ से रहस्य की वर्षा हो जाती है।
और ध्यान रखना, दिन बहुत थोड़े हैं। समय बहुत कम है। राह खोजनी है कि निर्दोष हो सको। राह खोजनी है कि उसके रहस्य से जुड़ सको।
थाह मिल पाती नहीं है,
जो तुम्हारी दिव्य मंजिल से मिले
वह राह मिल पाती नहीं है
शायद हम गलत दिशा में खोजते हैं। हम बाहर खोजते हैं, इसलिए राह नहीं मिल पाती।
स्वयं में उतरना पड़े; राह वहां है। अपने ही अंतस्तल की सीढ़ियों में उतरना है। अपने ही चेतना के कुएं में उतरना है; राह वहां है। स्वयं को जानने में ही उसे जाना जाता है। आत्मपरिचय ही उसका परिचय बन जाता है। और हम खोजते हैं वेद में, कुरान में, बाइबिल में, धम्मपद में, जेंदा अवेस्ता में—और हम कहां—कहां नहीं खोजते! हम मुर्दा किताबों में खोजते हैं और वह तुम्हारे भीतर जीवंत बैठा है, तुम्हारे चैतन्य की तरह। वह खोजने वाले में खोजने वाले की तरह बैठा है। वह कोई लक्ष्य नहीं है दूर कि तुम्हें तीर बनना है और उस लक्ष्य से जा कर जुड़ जाना है। वह तुम्हारे भीतर, तुम्हारे साथ, तुम्हारा अंतरतम है। तुम्हारा स्वभाव है। जब तक बाहर खोजोगे, नहीं पा सकोगे। जब भीतर झांकोगे, खोना भी चाहो तो नहीं खो सकोगे।
जिन्होंने बाहर खोजा, व्यर्थ भटके हैं; जिन्होंने भीतर खोजा, वे हंसे मूढ़ता पर अपनी, औरों की, कि कैसा पागलपन है! जो संपदा अपने घर में पड़ी थी, हम कहां—कहां न खोजते फिरे? किन—किन द्वारों पर झोली न फैलाई? कहां—कहां दुतकारे नहीं गए—आगे बढ़ो! जहां गए, वहीं—आगे बढ़ो! अपने हाथ भिखारी हुए, जब कि सम्राट की भांति पैदा हुए थे।
मगर समय बहुत कम है। इस सम्राट से परिचित होना जरूरी है। पलटू कहते हैं, जीवन है दिन चार...।
उम्रे—दराज मांग कर लाए थे चार दिन
वह जो उर्म का मालिक है, उम्र का बांटने वाला वह जो विधाता है, उससे चार दिन मांग कर ले आए थे।
उम्र—दराज मांग कर लाए थे चार दिन,
दो आरजू में कट गए दो इंतजार में।
दो आशाओं में कट गए, वासना में कट गए, कामना में कट गए, वासना के बीज बोने में कट गए—और फिर दो इस इंतजार में कि अब चीजों में से निकलते होंगे अकुर, कि अब पौधे लगेंगे, कि अब फूल लगेंगे, कि अब फल लगेंगे। ऐसे ही लोग दिन काट लेते हैं जीवन के। आधी जिंदगी कामना में, आधी जिंदगी—अब कामना पकी, अब पकी! हम सब शेखचिल्ली हैं।
तुमने शेखचिल्ली की कहानी सुनी न!
वह एक खेत में चोरी करने घुस गया। बाजरे के भुट्टे पक गए थे, उनकी सुगंध हवा में थी। बाजरे के भुट्टे सिर उठाए खड़े थे। खेत के किसान का दूर—दूर कुछ पता न था। शेखचिल्ली ने सोचा, यह मौका छोड़ना ठीक नहीं। और बाजरे के पौधे इतने बड़े थे कि उनके भीतर छिप जाए तो पता भी न चले। तो छिप गया। इकट्ठे करने लगा बाजरे के भुट्टे। झोली भर ली पूरी। बड़ा प्रसन्न था। सोचने लगा, बाजार में बेचूंगा, इतने दाम मिलेंगे। मुर्गी खरीद लूंगा। अंडे होंगे—रोज—रोज अंडे देगी मुर्गी—फिर जल्दी गाय खरीद लूंगा, फिर भैस और फिर यात्रा बढ़ती चली गई।
अभी खेत में ही है। अभी भुट्टे इकट्ठे ही कर रहा है। लेकिन मन बहुत दूर की यात्राओं पर निकल गया। यहां तक कि खयाल आया उसे कि जब भैंस से काफी दूध बेच लूंगा और भैंस के बच्चे होंगे, उनको भी बेच लूंगा, इतना धन हो जाएगा कि खेत ही खरीद लूंगा। यह खेत प्यारा है; इसी खेत को खरीद लूंगा। और तभी मन में एक डर आया कि चोर घुस जाए खेत में, फिर? कोई भुट्टे तोड़ ले जाए, फिर? तो कहा, यह खेल नहीं मेरे खेत से भुट्टे तोड़ना। खड़े होकर ऐसी आवाज दूंगा कि मीलों तक दहाड़ हो जाएगी। और खड़े हो उसने आवाज दी—सावधान!! और किसान जिसका खेत था, वह आ गया। चोर पकड़ा गया सारे भुट्टों के साथ।
किसान भी चौंका, उसने कहा कि चोरी मेरी समझ में आती है, थोड़ी—बहुत चोरी होती ही है, मगर यह खड़े होकर सावधान क्यों चिल्लाए? यह मेरी समझ में नहीं आता। मगर तुम इसका राज मुझे बता दो तो मैं तुम्हें छोड़ दूं, भुट्टों सहित छोड़ दूं। वह चोर कहने लगा, यह न पूछो तो अच्छा! तुम्हें जो सजा देनी हो दे लो, मगर यह राज मैं न कह सकूंगा कि कैसे मैंने सावधान कहा। इसमें मेरी बड़ी दीनता है; इसमें मेरी बड़ी मूढ़ता है।
नहीं माना किसान तो कहानी बतानी पड़ी। ऐसे तो कहानी पता चली शेखचिल्ली की।
अभी कुछ भी न हुआ था और बात कहां से कहां तक पहुंच गई। बात में से बात निकलती गई। कामना में से कामना निकलती गई, नए—नए अंकुर खिलते गए।
दो दिन तो हम कामना में बिता देते हैं, जो कि व्यर्थ गए, क्योंकि कामना के किसी बीज से काम्य उपलब्ध नहीं होता। कामना का बीज दग्ध होता है तब काम्य उपलब्ध होता है। कामना के बीज से काम्य उपलब्ध नहीं होता। और फिर दो बीज बो कर हम बैठते हैं, प्रतीक्षा करते हैं कि अब...कि अब, कि अब आया वसंत, कि अब आयी ऋतु। कि आखिर इसी तरह कामना करने वालों ने तो कहावत गढ़ ली है कि उसकी दुनिया में देर है अंधेर नहीं है। तो देर तो काफी हो गई, अंधेर तो उसकी दुनिया में है नहीं, बस अब आता ही होगा फल! अब स्वर्णमुद्राएं बरसती ही होंगी! और ऐसे ही शेखचिल्लियों ने विचार कर लिए हैं कि जब वह देता है, छप्पर फाड़ कर देता है।
दो दिन कट जाते हैं कामना में, दो दिन कट जाते हैं इंतजार में। और चार ही दिन हमारे पास हैं। चार दिन भी कहां हैं!
अगर आदमी की जिंदगी को गौर—से देखो तो यह वक्तव्य सही मालूम होगा—जीवन है दिन चार...।
चार दिन प्रतीक हैं।
इस देश में हमने जीवन को चार हिस्सों में बांटा है। पच्चीस साल—अगर सौ साल आदमी की जिंदगी हम कल्पित कर लें, अनुमानित कर लें—तो पहला दिन पच्चीस साल, वे कट जाते हैं शिक्षा में, विश्वविद्यालय में, गुरुकुल में। फिर दूसरा दिन, पच्चीस साल गृहस्थ। वे कट जाते हैं दूकानदारी, शादी—विवाह, बाल—बच्चे। फिर तीसरा दिन हमने माना है वानप्रस्थ। इस आशा में कि अब जंगल की तरफ जाएंगे। अब घर—गृहस्थी से काम निबटा, अब बच्चे भी बड़े हो गए। पचहत्तर वर्ष की उम्र तक जंगल जाने की आकांक्षा। और फिर चौथा दिन संन्यास का; पचहत्तर से सौ वर्ष। फिर प्रभु को स्मरण करेंगे। लेकिन जिंदगी सौ साल की होती कहां! कल का भी भरोसा नहीं है। इसलिए जो लोग सोचते हैं कि अंतिम चरण में, पचहत्तर सौ साल के बीच में संन्यस्त हो जाएंगे, प्रभु का स्मरण करेंगे, भजन में डूबेंगे, वे चूक जाएंगे। फिर एक बात और खयाल रखना, कि वह जो तीन दिन तुमने गुजारे हैं गलत, वे इतनी आसानी से पीछा नहीं छोड़ देंगे। वे आदत बन जाएंगे। वे अंत तक तुम्हारा पीछा करेंगे।
इसलिए महावीर और बुद्ध ने एक महाक्रांति की इस देश में। इस देश के आध्यात्मिक इतिहास में महावीर और बुद्ध से ज्यादा और ज्योतिर्मय और नाम नहीं हैं। क्योंकि उन्होंने बहुत अर्थों में क्रांति की। यह जो चार का विभाजन था, ये जो जीवन के चार आश्रम थे, उन्होंने खंडित कर दिए, छिन्न—भिन्न कर दिए। क्योंकि उन्होंने कहा, कल का तो भरोसा नहीं है, तुम सौ साल का हिसाब लगा रहे हो! संन्यास कल नहीं, आज। संन्यास घड़ी—भर बाद नहीं, अभी। भारत के पंडित—पुरोहित महावीर और बुद्ध को आज भी क्षमा नहीं कर पाए हैं। और उसका कारण है। क्योंकि अगर संन्यास आज, तो पंडित—पुरोहित का उपयोग आज ही व्यर्थ हो गया। संन्यारी को क्या लेना पंडित—पुरोहित से? गृहस्थ होता तो बच्चे होते, यज्ञोपवीत होता, हवन होता, सत्यनारायण की कथा होती; पूजा भी करवानी होती, दीवाली, होली, उत्सव होते; पंडित—पजारी को भेंट भी देनी होती। स्वयं संन्यस्त्त हो गया, स्वयं ध्यान के जगत में लीन हो गया, अब पंडित—पुजारी के पास देने को उसे क्या है? संन्यस्त हुआ अर्थात संतों से जुड़ गया। जो संतों से जुड़ गया, उसके लिए पंडित—पुजारी दो कौड़ी के हो गए, खिलौने हो गए। अब वह बच्चा नहीं रहा कि खिलौनों में उलझा रहे। महावीर और बुद्ध ने यह कह कर कि संन्यास आज, पंडित—पुरोहित के पैर के नीचे से जमीन खींच ली। इसलिए अगर ब्राह्मण उन्हें क्षमा नहीं कर पाया तो कुछ आश्चर्य नहीं है। आज भी नहीं कर पाया। पच्चीस सौ साल बीत गए हैं लेकिन उसकी नाराजगी भयंकर है।
पच्चीस साल विद्यार्थी रहते तो भी पंडित के पास रहना पड़ता। कौन पढ़ाता? कौन व्याकरण, कौन संस्कृत समझाता? पंडित ही समझाता। फिर पच्चीस साल गृहस्थ रहते तो पंडित ही...जन्म से लेकर मरने तक सारा हिसाब पंडित के हाथ में है। जन्मपत्री बनाता, जन्मकुंडली बनाता; बच्चे के संस्कार देता; विवाह करवाता। फिर पचास वर्ष में वानप्रस्थ होते तो किससे पूछते? वही पंडित वानप्रस्थ होने की शिक्षा देता। और जो पचहत्तर वर्ष तक मूढ़ता में जिआ और पंडित के सहारे जिआ, वह अगर संन्यस्त भी होता पचहत्तर वर्ष में तो भी इसी पंडित से उसका संन्यास घटने वाला था। इस पंडित को भी संन्यास नहीं घटा है, वह उसे संन्यास की भी दीक्षा दे देता। यह जिंदगी चार दिन की ऐसे ही बीत जाती।
महावीर ने यह चार का गणित, बुद्ध ने यह चार का गणित तोड़ दिया। कहा कि न तो चार आश्रम हैं और न चार वर्ण। न तो कोई ब्राह्मण है, न कोई क्षत्रिय, न कोई शूद्र, न कोई वैश्य। सभी शूद्र हैं। जो ज्ञान को उपलब्ध हो जाए, वह ब्राह्मण। बुद्ध ने कहा: ब्रह्म को जो जाने सो ब्राह्मण। और कल का कोई भरोसा नहीं है, इसलिए आज, तत्क्षण जो जागने को तैयार है, वही संन्यस्त। भारत की तो सारी—की—सारी आधारशिला इन्हीं चारों पर टिकी थी—चार वर्ण और चार आश्रम। यह पूरा गणित तोड़ दिया बुद्ध और महावीर ने।
मगर पंडित हारे नहीं। बुद्ध—महावीर के जाते ही उन्होंने फिर अपना जाल फैला लिया—और भी मजबूती से फैला लिया और भी सरुक्षा से फैला लिया कि फिर कोई दोबारा न तोड़ पाए। पच्चीस सौ साल में फिर बहुत कोशिश हुई—कबीर ने कोशिश की, नानक ने कोशिश की, पलटू ने कोशिश की, नहीं टूटा, नहीं टूटा।
भारत की छाती पर पंडित का बड़ा जाल है। भारत का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि भारत पंडितों के हाथ में है। इनके कारण अतीत से मुक्त नहीं हो पाता। और जिंदगी छोटी है। और पंडित का जाल बड़ा है।
जीवन है दिन चार भजन करि लीजिए।
टालो मत कल पर। भगवान को याद करना हो तो अभी कर लो। कल की तो बात ही मत उठाना। जिसने कहा, कल, उसने कहा, नहीं। जिसने कहा, नहीं, उसने कहा, कभी नहीं। भगवान को स्थगित नहीं किया जा सकता। प्रेम को कोई स्थगित करता है, टालता है? प्रेम के लिए तो आतुरता होती है कि अभी हो। पलटू कहते हैं, भजन कर लो। कोई बहाने न खोजो। बहाने खोजे, बहुत महंगे पड़ेंगे। फिर बहुत पछताओगे। फिर पछताने से भी कुछ होगा नहीं।
भजन का क्या अर्थ होता है? बैठ कर मंजीरा बजा लिया, कि बैठ कर राम—राम की धुन कर ली, कि राम—नाम का अखंड पाठ कर लिया? नहीं, इन औपचारिकताओं से भजन नहीं होता। भजन का तो अर्थ है: प्राण प्रभु के प्रेम में पगें; एक धुन भीतर बजती रहे, अहर्निश; उठते, बैठते एक स्मरण सतत बना रहे; एक धारा, अंतर्धारा बहती रहे—प्रभु की। जो देखो, उसमें प्रभु दिखाई पड़े। जो करो, उसमें प्रभु दिखाई पड़े। जहां चलो, जहां बैठो, वहां तीर्थ अनुभव हो; क्योंकि वह सर्वव्यापी है। जिस भूमि पर हम चलते, उसकी भूमि; जिस भूमि पर बैठते, उसकी भूमि।
सारा जगत परम पुनीत है, पावन है, क्योंकि परमात्मा से आपूर है।
बोलो तो उसने बोलना; सुनो तो उसको सुनना; हवाएं वृक्षों से गुजरें तो उसकी आवाज स्मरण रखना; कोयल पुकारने लगे दूर से तो उसने ही पुकारा है कोयल के रूप में, ऐसा अनुभव करना। ऐसी प्रतीति की सघनता का नाम भजन है। बैठ गए और कोई बंधी—बंधाई पंक्तियां दोहरा लीं, तो भजन नहीं होता। तोतारटंत है; भजन का धोखा है।
और ध्यान रखना, धोखे सस्ते होते हैं, मुफ्त होते हैं। भजन करना तो एक अपूर्व कीमिया है। तुम्हारे सारे जीवन को एक नया रंग दे जाएगा भजन, एक नई शैली।
इति हुई इतिहास की यदि, नेति का धर धयान, मन!
सेति हा हा हेति सुनकर, धन न उस पर कान, मन!

कल्पना के कल्पतरु पर यदि न खिलता फूल मौलिक,
हो न हो हो गई कोई मूल के प्रति भूल मौलिक;
मूल से तू मौलिक तक फिर रच नया सोपान, मन!

वज्रकीलित कोकिला का कंठ यदि अमराइयों में,
वज्र को मत देख, बनकर बीज गल गहराइयों में;
विसर्जन से मांग सर्जन का पुनः वरदान, मन!

दूर हंसध्वनि गई, आई—गई यदि प्रतिध्वनि है,
छिन्न होकर गगन से यदि खिन्न पथराई अवनि है;
शून्य के अंतःकरण में सुन अतल का गान, मन!

अनसुनी रहती नहीं है अनसुनी आवाज कोई,
अलख सुनता है कहीं जब सिसकता है साज कोई;
हो न कुछ गुंजान में जब, साध फिर सुनसान, मन!
...नेति का धर ध्यान, मन! भजन की पहली प्रक्रिया: नेति—नेति। जो—जो तुमने मान रखा है मूल्यवान, उस सब से मूल्य को खींच लेना है। धन को मूल्यवान माना है, कहना: नहीं, यह नहीं। मकान को मूल्यवान माना है, कहना: नहीं, यह नहीं। नाते—रिश्तों को मूल्यवान माना है, कहना: नहीं, यह नहीं। नेति—नेति से अब तक तुमने मूल्यों का जो एक जगत निर्माण किया है, उसकी आधारशिला खींच लो। जिस दिन तुम्हारे सारे तथाकथित, झूठे, कृत्रिम मूल्य गिर जाएंगे, उस दिन तुम्हें पता चलेगा: इति—इति। फिर जो शेष रह जाएगा, मानवीय मूल्यों के हट जाने के बाद जो निसर्ग शेष रह जाएगा, वही है, वही है।
यह नहीं, यह नहीं—यह मनुष्य के मूल्यों के खंडन की प्रक्रिया। फिर जब सारे मनुष्य—मूल्य खंडित हो गए, तब जो शेष रह गया—जो तुमने नहीं बनाया है, जिसमें तुम्हारा कोई हाथ नहीं है; जो तुमसे पहले था, तुम हो तो है, तुम नहीं होओगे तो भी होगा; जो तुमसे बाहर भी है और तुम्हारे भीतर भी है—फिर जब वही शेष रह गया, शुद्ध निसर्ग, तब एक प्रतिध्वनि भीतर उठती है—यही है, यही है। सर्व खल्विदं ब्रह्म। उस दिन अनुभव होता है: सब वही है।
इति हुई इतिहास की यदि, नेति का धर ध्यान, मन!
सेति हा हा हेति सुनकर, धर न उस पर कान, मन!
अब तक तो हमने जो भी किया है, बड़ा भूल—चूक भरा है। मूल से ही भूल है।
कल्पना के कल्पतरु पर यदि न खिलता फूल मौलिक,
अगर तुम्हारे जीवन में कमल नहीं खिल रहा है, तो पुनर्विचार करो! अगर तुम्हारी झाड़ी पर गुलाब नहीं ऊग रहे हैं, तो पुनर्विचार करो!
कल्पना के कल्पतरु पर यदि न खिलता फूल मौलिक,
हो न हो हो गई कोई मूल के प्रति भूल मौलिक;
मूल से तू मौलि तक फिर रच नया सोपान, मन!
अब हमें फिर एक नई सीढ़ी बनानी पड़ेगी। उसी सीढ़ी बनाने की कला का नाम संन्यास है। एक तुमने बनाया है संसार। उसमें कहीं मूल में भूल हो गई है। क्योंकि चाहते तो सुख हो, पाते दुख हो। आशा तो करते हो फूलों की, सिर्फ कांटे लगते हैं। कांटों पर कांटे लगते जाते हैं। जैसे—जैसे दिन बीतते, कांटे और बड़े होते जाते, छाती में चुभते जाते। चाहे थे फूल, मिलते हैं शूल। सोचा था छाया मिलेगी शीतल, मिलती है दोपहर, दोपहर की तपती धूप, बरसती आग। आशा की थी आकाश—कुसुम झरेंगे, मगर झरते हैं केवल अंगारे।
तुम अपनी जिंदगी ही देखो!
क्या सोचते हो, क्या मिलता है? ठीक उलटा मिलता है। चाहा सम्मान, मिलता अपमान। चाहे गीत, मिलती गालियां। कहीं मूल में ही कुछ भूल हो रही है। बीज तो तुम बो रहे हो नीम के और आशा कर रहे हो आम की। नीम के बीज से तो नीम ही पैदा होगी। कड़वाहटकड़वाहट ही फैल जाएगी। माधुर्य का जन्म नहीं हो सकता।
मूल से तू मौलि तक फिर रच नया सोपान, मन!
संन्यास का इतना ही अर्थ है कि अब हम फिर से गिरा ही दें इस मकान को, जो हमने बनाया। इसमें ही टीम—टाम करना, इसीमें रंग बदल देना, इसीमें थोड़ी सजावट कर लेना, इससे कुछ भी न होगा। एक नया ही जीवन का मंदिर बनाना है। मूल से ही आधार बदलने होंगे। बुनियाद के पत्थर ही बदलने होंगे। अभी बुनियाद के पत्थर हैं वासना के, विचार के, कामना के, कल्पना के; तब मूल में आधार रखना होगा ध्यान का। ध्यान की आधारशिला पर जो मंदिर बनता है, वह संन्यास है। और विचार की आधारशिला पर जो मंदिर बनता है, वह संन्यास है। और विचार की आधारशिला पर जो मकान बनता है, वह संसार है। कामना के पत्थरों से तुम जो दीवालें बनाते हो, वे तुम्हें ले डूबेंगी, कब्रें बन जाएंगी। करुणा से, काश, तुम अपनी दीवालें बना सको, तो तुम एक ऐसा मंदिर बनाओगे जो शाश्वत का है; जिसका फिर कोई अंत नहीं है।
वज्रकीलित कोकिला का कंठ यदि अमराइयों में,
वज्र को मत देख, बन कर बीज गल गहराइयों में;
तुम्हें गलना सीखना होगा—अभी तुमने सिर्फ बचना सीखा है। कैसे बचते रहें? लोग बस बचने में लगे हैं। सब तरफ से सुरक्षित हो जाएं, सब तरफ सुरक्षा की एक दीवाल खड़ी कर लें—लोहे की हो तो और भी अच्छी—उसकी आड़ में छिप जाएं। तुमने सुरक्षा के मोह में जीवन गंवा दिया है। जीवन तो उनका है जो गलना जानते हैं—बीज की तरह गलना जानते हैं। क्योंकि बीज जब गलता है, तभी अंकुरित होता है।
वज्र को मत देख, बन कर बीज गल गहराइयों में;
विसर्जन से मांग सर्जन का पुनः वरदान, मन!
और धन्यभागी हैं वे जो विसर्जित होने को राजी हैं। क्योंकि जो अपने को विसर्जित कर देता है, जो अपने को मिटा देता है उस परम ऊर्जा में, जो उसके सागर में बूंद की तरह लीन हो जाता है, उसके जीवन में बड़ी सृजनात्मकता पैदा होती है। उसके जीवन में बड़े काव्य का आविर्भाव होता है। वह फिर जो छुए, वही सोना हो जाता है। अभी तो तुम जो छूते हो, वही मिट्टी हो जाता है।
दूर हंसध्वनि गई, आई—गई यदि प्रतिध्वनि है,
छिन्न होकर गगन से यदि खिन्न पथराई अवनि है;
शून्य के अंतःकरण में सुन अलत का गान, मन!
भजन का अर्थ:
शून्य के अंतःकरण में सुन अतल का गान, मन!
भजन तुम्हें नहीं करना होता, भजन तुम्हें सुनना होता है। तुम तो शून्य होकर सिर्फ सुनने वाले रह जाओ और उठने लगेगा भजन। तुम्हारी ही गहराइयों से उठेगा एक संगीत और आच्छादित कर लेगा तुम्हें। तुम्हारे ही भीतर से ऊंगेंगे फूल और तुम सुवास में डूब जाओगे।
शून्य के अतःकरण में सुन अतल का गान, मन!
अनसुनी रहती नहीं है अनसुनी आवाज कोई,
अलख सुनता है कहीं जब सिसकता है साज कोई;
और भजन तुम्हारा सूखा—सूखा हुआ तो व्यर्थ चला जाएगा। उसमें आर्द्रता चाहिए। उसमें प्रेम का गीलापन चाहिए। आंखों में प्रीति के, आनंद के अश्रु चाहिए। जब तुम्हारे गीले साज पर कोई भजन गाया जाएगा, तो जरूर सुना जाता है—अलख उसे सुनता है।
अलख सुनता है कहीं जब सिसकता है साज कोई;
तुम्हारा भजन सिसकी होना चाहिए। तुमने तो भजन को भी एक प्रदर्शन बना लिया है। मंदिर में जा कर, जोर—जोर से घंटा बजा कर—कैसे भगवान कोई बहरा होग! पहले घंटा बजाओ, सोए भगवान को जगाओ! जगाना खुद को है, जगा रहे हो भगवान को घंटा बजा—बजा कर! और फिर जोर—जोर से चिल्ला कर भजन करो; ताकि पास—पड़ोस के लोग सुन लें कि तुम महान धार्मिक व्यक्ति हो! ताकि तुमने जो चोरियां की हैं, बेईमानियां की हैं, धोखेधड़ियां की हैं, वे सब तुम्हारे भजन में छिप जाएं, भजन की आड़ में हो जाएं। मंदिर के घंटे की आवाज, भजन—पूजा में चढ़ाए गए फूल, अर्चन की धूप, इस सब धुएं में छिपा लेना चाहते हो तुम अपने को। यह सब धोखा है। मंदिरों में भजन नहीं होते। भजन तो होते हैं एकांत में, जहां हृदय सिसकता है; जहां जार—जार रोते हो तुम। किसी को बताने की थोड़े ही बात है! इसका कोई प्रदर्शन थोड़े ही करना है! यह कोई अभिनय तो नहीं है! यह कोई प्रदर्शनी तो नहीं! इसकी कोई नुमाइश तो नहीं सजानी है!
अलख सुनता है कहीं जब सिसकता है साज कोई;
हो न कुछ गुंजान में जब, साध फिर सुनसान, मन?
सुनसान को साधो। कहने को कुछ भी नहीं होता है भजन में। कहने को है क्या हमारे पास? रो लें तो बहुत। शब्द क्या कहेंगे, आंसू ही कह सकते हैं। नृत्य कह सकता है। आंखें कह सकती हैं। सन्नाटा कह सकता है। चित्त का ठहरा हुआ प्रवाह कह सकता है। निस्तरंग भाव की दशा कह सकती है। और कैसे कहोगे?
लेकिन लोगों ने तोतों की तरह भजन रट लिए हैं। हरे कृष्णा, हरे रामा। कहे जा रहे हैं यंत्रवत। कहीं कोई भाव का तालमेल नहीं है। हृदय साथ ही नहीं है, खोपड़ी में ही आवाज गूंज रही है; इसलिए गीली भी नहीं है, रूखी—सूखी है।
जीवन है दिन चार, भजन करि लीजिए।
तन मन धन सब वारि संत पर दीजिए।।
परमात्मा पर तो तन—मन—धन वारने को बहुत लोग तैयार हो जाते हैं। क्योंकि परमात्मा न तो दिखाई पड़ता, न डर है उससे कुछ। तो लोग तैयार हैं, परमात्मा पर तो सब वारने को तैयार हैं। लोग बड़े कुशल हैं, बड़े चालबाज हैं। परमात्मा तो कहीं मिलेगा नहीं कि तुमसे कहे कि कुछ दो; कि लाओ, तुमने कहा था कि सब वारने को तैयार हूं; दो तन, दो धन, दो मन, परमात्मा तो कहीं कहेगा नहीं; परमात्मा तो निराकार है, वह तो बोलेगा नहीं; सो ठीक सुविधा है, परमात्मा पर सब दान करने को लोग तैयार हैं। लोग कहते हैं हमने तो भगवान के चरणों में अपने को छोड़ दिया है। तुम जैसे हो वैसे—वैसे रहते हो।
लोग ऊंचे—ऊंचे शब्द, बड़े—बड़े शब्दों का उपयोग करके खूब चालबाजियां करते हैं। मनुष्य को प्रेम नहीं करेंगे, मनुष्यता को प्रेम करेंगे। मनुष्यता कहीं मिलती हैं? मनुष्यता से डर क्या है? जब भी कहीं कोई मिलता है, मनुष्य मिलता है। तुमने कभी मनुष्यता के दर्शन किए? लेकिन अगर लोगों से कहो कि मनुष्य को प्रेम करो, तो अड़चन होती है, क्योंकि मनुष्य को प्रेम करने का मतल है: आकार, सगुण। उससे तो झंझट पैदा होती है। मनुष्य को प्रेम करना बहुत कठिन। अपनी पत्नी को प्रेम करना कठिन, अपने पति को प्रेम करना कठिन, अपने बच्चों को प्रेम करना कठिन। कोशिश करते हैं लोग; लेकिन सब कोशिशें हार जाती हैं। मनुष्यता को प्रेम करना बहुत आसान है। कोई झंझट ही नहीं है। मनुष्यता कहीं मिलती ही नहीं है। इसलिए लोग ऊंचे—ऊंचे शब्दों की आड़ में बेईमानियां करते हैं। राष्ट्र को प्रेम करे हैं। अब राष्ट्र कहां है? भारतमाता को प्रेम करते हैं। अपनी माता को प्रेम नहीं कर पाते! क्योंकि अपनी माता झंझट खड़ी करती है। भारतमाता, बिलकुल ठीक।
तसवीरें बनी थीं, अभी भी कुछ घरों में लटकी हैं। भारतमाता बैठी हैं, सिंह के ऊपर, तिरंगा झंझा लिए! लगता है किसी सर्कस में हैं या क्या मामला है? लेकिन भारतमाता को प्रेम किया जा सकता है। एकाध माता को प्रेम करो, तब तुम्हें वह छठी का दूध याद दिला देगी! लेकिन भारतमाता से कुछ लेना—देना नहीं है, थोथे शब्द हैं—मनुष्यता, भारतमाता, भगवान!
पलटू ठीक कहते हैं; सीधे आदमी हैं, साफ आदमी हैं, गर्दन से पकड़ लेते हैं—
तन मन धन, सब वारि संत पर दीजिए।।
अगर भगवान से कुछ भी संबंध जोड़ना हो, तो कोई सगुण रूप में उसे पकड़ना होगा। वहीं कसौटी होगी।
संत परमात्मा का साकार रूप है। संत का अर्थ है: जहां सत्य ने देह धरी। जहां सत्य छुआ जा सकता है, देखा जा सकता है, सुना जा सकता है। जहां सत्य के साथ संवाद हो सकता है। जहां सत्य के साथ संबंध हो सकता है।
तन मन धन, सब वारि संत पर दीजिए।।
तो ही समझना कि तुम्हारे भजन में कुछ अर्थ है; अन्यथा थोथी बकवास है। और बचाना कुछ भी मत। और मजा यह है कि संत तुमसे कुछ भी नहीं चाहता—न तुम्हारा तन चाहता है, न मन चाहता है, न धन चाहता है। कुछ उसे चाहिए नहीं। तुम्हारे पास उसे देने को है भी क्या? संत तो सब कुछ तुम्हें देना चाहता है। अगर वह दे केवल उन्हीं को सकता है जो सब देने को तैयार हैं। यद्यपि संत को लेने को कुछ भी नहीं है तुम्हारे पास। क्या है तुम्हारे पास जो तुम उसे दोगे? लेकिन तुम्हारे देने की तैयारी!
गुर्जिएफ के जीवन में उल्लेख है...गुर्जिएह इस सदी के बड़े सदगुरुओं में एक। और इस सदी के ही क्यों, सारी सदियों के कुछ बड़े सदगुरुओं में एक था। उसके अपने अनूठे ढंग थे।
एक बहुत बड़े धनपति की पत्नी उसकी शिष्या हो गई। औपचारिक रूप से ही उसने कहा कि सब आपके चरणों में चढ़ाती हूं। गुर्जिएफ ने कहा, सोच ले! सब? थोड़ी डरी और झिझकी, लेकिन अब कह चुकी थी, तो उसने कहा: हां, सब। तो गुर्जिएफ ने कहा कि जितने हीरे—जवाहरात, जितने मोती—माणिक्य तेरे पास हों, सबकी पोटली बांध कर ले आ! अब बहुत घबड़ाई! मामला ऐसा हो जाएगा, यह नहीं सोचा था—यह तो औपचारिकता से कहा था। यह तो मामला ऐसा हो गया जैसे मेहमान तुम्हारे घर में आए और आप कहें: आइए, आइए, आपका ही घर है! और फिर वह जम कर ही रह जाए। वह कहे, तुम्हीं ने तो कहा था; आपका ही घर है! सब आपका है! औपचारिक शिष्टाचार की बात उसने कही थी कि सब आपके चरणों में समर्पित है, इसका कोई मतलब यह नहीं था कि समर्पित है। लेकिन गुर्जिएफ ने तो कहा कि ठीक!
बड़ी बेचैन, रात भर सो न सकी। पास में जो महिला आश्रम में थी, उसने पूछा कि सो नहीं रही हो, बात क्या है! तो उसने अपनी दुख—कथा कही कि यह मामला तो बहुत महंगा हो गया। यह तो करोड़ों के हीरे—जवाहरात मेरे पास हैं। यह मैं कैसे दे दूं? अभी इस आदमी को मैं ठीक से जानती भी नहीं, नई—नई आई हूं—तुम तो यहां वर्षों से हो, तुम्हारा क्या खयाल है? उसने कहा, तुम बिलकुल फिक्र मत करो। जब मुझसे कहा था कि सब दे दो, तो मेरे पास जो भी था—मेरे पास करोड़ों के तो नहीं थे, मगर कोई लाख—दो लाख के गहने मेरे पास भी थे—मैंने सब पोटली बांध कर दे दी थी। उस धनी महिला ने पूछा, फिर क्या हुआ? उसने कहा, फिर यह हुआ कि दूसरे दिन सुबह गुर्जिएफ ने वह मुझे वापिस कर दिया। तो उसने कहा, अरे! निश्चिंत हुई।
उसने सब बांधी पोटली, जाकर गुर्जिएफ को उसी रात सब दे आई—करोड़ों रुपए का जो भी साज—सामान उसके पास था। दूसरे दिन सुबह रास्ता देखा कि वह वापस लौटे, वह वापस नहीं लौटा। तीसरे दिन, चौथे दिन...अब वह घबड़ाने लगी। उसने फिर पड़ोस की महिला से कहा कि भई, कितनी देर लगेगी? उसने कहा, मैं नहीं जानती; मुझे तो दूसरे दिन वापस मिल गया था।
आखिर उसने जाकर गुर्जिएफ को पूछा। गुर्जिएफ खूब खिलखिला कर हंसने लगा और उसने कहा: तेरा वापस नहीं लौटेगा। उसका वापस लौटा था, क्योंकि उसने सच में दिया था। तूने तो दिया ही नहीं, वापस क्या खाक! वापस तो तब लौटे जब तू दे! अभी देना ही नहीं हुआ है, तो मैं वापस भी क्या करूं? उसने दिया था। वापस की कोई आकांक्षा से नहीं दिया था। दिया ही था, समग्र मन से दिया था। सो मुझे लौटा देना पड़ा। करता भी क्या? तूने तो अभी दिया ही नहीं है—अभी मुझे मिला कहां? अब तो वह महिला और घबड़ाई कि यह तो हद हो गई! मैं दे भी गई और यह आदमी यह कह रहा है कि मिला भी नहीं; अभी तो मिला भी कहां, वापस मैं क्या लौटाऊं?
लेकिन गुर्जिएफ ठीक कह रहा है।
गुरु को अगर तुम दे सके, तो सब वापस लौट जाता है—शायद हजार गुना होकर वापस लौट जाता है। शायद देने की, लेने की जरूरत ही नहीं पड़ती, भाव की ही बात पर्याप्त हो जाती है। मगर बेईमानी नहीं चल सकती।
गुर्जिएफ ने लौटा दिया उसका सारा धन और उससे कहा: दरवाजे के बाहर हो जा। यह स्थान तेरे लिए नहीं। यह कोई सौदा नहीं है। यह कोई व्यवसाय नहीं है। यहां हम किसी आत्मिक क्रांति में संलग्न हैं। फिर तो वह बहुत पछताई, बहुत कहा कि ले लें। गुर्जिएफ ने कहा: अभी नहीं, अभी तू जा। अभी भी तू कह रही है कि ले लें इसी आशा में कि वापस लौटाऊंगा। जिस दिन वापस लौटाने की कोई भी आकांक्षा भीतर न रह जाए, वापस पाने की कोई भी भावना न रह जाए, उस दिन आना, उस दिन देखूंगा। और पक्का नहीं कहता कि लौटाऊंगा। वह महिला फिर कभी दोबारा नहीं गई।
तन मन धन, सब वारि संत पर दीजिए।।

धूप है ज्यादा कम है छाया
आखिर यह मौसम भी आया!
टूट चुका है नींद का जादू
कोई सपना साथ नहीं है
कहने को तो है बहुतेरा
वैसे कोई बात नहीं है।
सारी रात रहा खुलता जो
सुबह वही घूंघट शरमाया
धुंधली हैं तारों की गलियां
पाप के रस्ते चमकीले हैं
कांटे हैं वैसे के वैसे
फूलों के चेहरे पीले हैं
खुशबू भटके मारी—मारी
मधुबन का हर अंग लजाए!
सांझ के दरवाजे तक हमको
छोड़ गई हैं दिन की राहें
बस्ती के ऊपर फैली हैं
सांपों जैसी काली बांहें
मौत के रंग से ज्यादा गहरा
उजले इंसानों का साया!
गीत के सौदे करने वाले
दर्द की कीमत को क्या जानें
कौन उन्हें जाकर समझो
बिकते नहीं कभी दीवाने!
अंधकार के रंगमहल में
कब कोई सूरज सो पाया!
तेज बहुत हैं वक्त के पहिए
अब रुकने की बात करें क्या!
राह में क्या कुछ टूटा—फूटा
सोच इसे हम आंख भरें क्या!
आओ अब सामान संभालें
देर हुई यह शहर पराया!
परदेश में हैं हम।
देर हुई यह शहर पाया!
आओ अब सामान संभालें
जीवन है दिन चार, भजन करि लीजिए।
तन मन धन, सब वारि संत पर दीजिए।।
संतहिं से सब होइ, जो चाहै सो करैं
अरे हां, पलटू संग लगे भगवान, संत से वे डरैं।।
कैसा अदभुत वचन कहा है! कहा कि—
अरे हां, पलटू संग लगे भगवान, संत से वे डरैं।।
तुमने तो सुना है: भगवान से डरो; ईश्वर भीरु हो जाओ; लेकिन पलटू कहते हैं कि हमने यह देखा कि संतों से हमने भगवान को डरते देखा। संतों के पीछे हमने भगवान को लगे देखा। जैसे छाया चलती है आदमी के पीछे, ऐसे भगवान संत के पीछे चलते हैं। भगवान संत की छााो हैं। या यूं कहो कि भगवान का ही साकार रूप संत है। दोनों बातें एक ही हैं। संत आकार है, उसी के आसपास निराकार आभा है।
अरे हां, पलटू संग लगे भगवान, संत से वे डरैं।।
इसलिए संत के चरणों में सब कुछ हो सकता है। मगर उसको ही जो गलने को तैयार हो, विसर्जित होने को तैयार हो। जो समग्र भांति अपने को समर्पित कर दे, अर्पित कर दे।
ऋद्धि सिद्धि से बैर, संत दुरियावते
और ध्यान रखना, संतों की पहचान कैसे करोगे? मदारियों के चक्कर में मत पड़ जाना! क्योंकि संत की पहली पहचान है: ऋद्धि सिद्धि से बैर। संत को न तो सिद्धियों में कोई रस है, ऋद्धियों में कोई रस है। संत कोई ताबीज नहीं निकालते आकाश से और विभूति नहीं निकालते और स्विस मेड़ घड़ियां नहीं निकालते।
ऋद्धि सिद्धि से बैर, संत दुरियावते
ऋद्धि—सिद्धि उनके द्वार भी आएं तो संत उन्हें ठुकरा देते हैं, भाग देते हैं कि भागो यहां से! यहां क्या जरूरत है?
सूफी कहानी है—
एक फकीर परम ध्यान को उपलब्ध हो गया। फरिश्ता आकाश से आया और उसने कहा: तू मांग ले जो भी वरदान मांगना हो। परमात्मा तुझ पर प्रसन्न है। उस फकीर ने कहा, रास्ता पकड़ो! जब मांग थी, तुम कहां थे? अब मांग नहीं, तब आए! अब तुम्हारा आना व्यर्थ है। भागो यहां से! फिजूल समय खराब अपना और मेरा न करो। फरिश्ता तो बहुत हैरान हुआ, उसने कहा, मैं बहुतों के पास गया हूं, मगर इस तरह कहीं न दुरियाया गया। मैंने कोई तुम्हारा अपमान कर दिया? संत ने कहा, अपमान नहीं तो और क्या! तुम मुझे भिखमंगा समझे हो! मालिक का मालिक मुझे मिल गया, अब क्या तुम आए हो यहां? क्या तुम दे सकते हो? तुम्हारे पास क्या है देने को? पर उस फरिश्ते ने कहा: भगवान ने ही मुझे भेजा है; और इस तरह लौटाने में भगवान का अपमान होगा। कुछ मांग लो! कुछ ऐसी बात मांग लो जिसकी तुम्हें तो जरूरत न हो लेकिन औरों को जरूरत हो। संत ने बहुत सोचा, लेकिन उसने कहा, मुझे कुछ ऐसा समझ में नहीं आता जो मांगा जा सके।
फरिश्ते ने खुद सुझाव दिया कि तुम ऐसा क्यों नहीं मांग लेते कि तुम बीमार को छुओ तो बीमार ठीक हो जाए। अंधे की आंख पर हाथ रखो तो अंधा ठीक हो जाए। मुर्दे को छू दो तो जी जाए। इससे लोगों की सेवा होगी। करुणा बहेगी तुमसे। लोगों में धर्म का सदभाव जगेगा, परमात्मा की प्रीति उमगेगी। संत ने कहा, यह बात तो ठीक लगती है; मगर इसमें एक खतरा है, इसमें मेरी अकड़ पैदा हो सकती है। कि मैं किसी अंधे की आंख छुऊं और वह ठीक हो जाए, तो मेरे भीतर अकड़ खड़ी होगी—अहाह, देखो मैंने इसकी आंख ठीक कर दी! और मुर्दे को जिला दिया तो मेरे भीतर कोई कहेगा कि देखा, है कोई और जो मुर्दे को जिला दे? फरिश्ता माना ही नहीं तो संत ने कहा, फिर एक काम करो, तुम मेरी छाया को वरदान दे दो—मैं तो वरदान नहीं चाहता! मेरी छाया अगर मुर्दे पर पड़ जाए, तो जी जाए। मुझे पता नहीं चलना चाहिए। मेरी छाया अगर सूखे वृक्ष पर पड़ जाए तो वह हरा हो जाए; मुझे पता नहीं चलना चाहिए।
और कहते हैं, तबसे वह संत भागता रहता था। लोग उससे पूछते कि रुकते क्यों नहीं? तो वह कहता: कहीं छाया का मुझे पता न चल जाए कि छाया क्या कर रही है। तो वह भागता ही रहता; ताकि छाया जो भी करे, करे। मुर्दे जी गए, सूखे वृक्षों में फूल—फल लग गए, अंधे ठीक हो गए, बीमार स्वस्थ हुए, लेकिन उस फकीर को कभी पता नहीं चला क्योंकि वह भागता ही रहता। वह रुकता ही नहीं देखने के लिए कि छाया क्या कर रही है
सूफी ठीक कहते हैं! यही फकीर का लक्षण है।
ऋद्धि सिद्धि से बैर, संत दुरियावते
इंद्रासन बैकुंठ बिष्ठा सम जानते।।
उन्हें तो इंद्र का आसन भी देते होओ, उन्हें बैकुंठ में भी जगह मिलती हो, तो भी उनके लिए मल—मूत्र से ज्यादा नहीं है।
करते अबिरल भक्ति, प्यास हरिनाम की।
उनका तो सारा ध्यान बस एक बात में लगा है...कहां का बैकुंठ! कहां का इंद्रासन!...अबिरल भक्ति। एक अबिरल धारा बह रही है उनके भीतर तो आनंद की, उत्सव की। वहां तो एक नृत्य—गान चल रहा है भीतर। बैकुंठ तरसता होगा उनके भीतर आने को, वे क्यों बैकुंठ के पास जाने को तरसें? इंद्रासन तड़पता होगा कि उनके चरण छू ले, वे क्यों इंद्रासन की फिक्र करें? वहां तो बस एक ही धुन है, एक ही स्वर है—हरिनाम का। एक ही प्यास है।
अरे हां, पलटू संत न चाहें मुक्ति तुच्‍छ केहि काम की।।
यहां भक्तों ने ध्यानियों को भी मात दे दी है। ध्याही की आकांक्षा मोक्ष की है—मुक्त हो जाऊं, सब बंधनों से मुक्त हो जाऊं। भक्त कहता है, अगर बंधन तेरे हैं तो मैं इसकी भी क्या फिक्र करूं? इन तुच्छ बंधनों से क्या मुक्त होना! अगर तूने दिए हैं, तो राजी! अगर तूने दिए हैं तो प्यारे हैं। अगर तूने ही दिए हैं तो तेरी मर्जी पूरी हो! मैं तेरे बंधनों से राजी हूं। तू जहां रखे राजी हूं। तुझसे अन्यथा मेरी कोई चाह नहीं। मेरे लिए मुक्ति भी तुच्छ है। मेरी मांगी मुक्ति तुच्छ है, तेरे दिए हुए बंधन भी महान हैं।
अरे हां, पलटू संत न चाहें मुक्ति तुच्छ केहि काम की।।
आगम कहैं न संत...
प्यारे वचन हैं! खूब—खूब ध्यान करना इन वचनों पर। गहरे इन्हें उतर जाने देना। इनका रस तुम्हारी पोर—पोर में समा जाए। आगम कहैं न संत...संतों को शास्त्रों से कुछ लेना—देना नहीं। आगम—निगम सब व्यर्थ हैं उनके लिए। वेद, कुरान, बाइबिल उन्हें कुछ सार नहीं रखते। इनमें क्या पड़ा है? ये तो नक्शे हैं। और नक्शा असलियत नहीं है। जैसे भारत का नक्शा भारत नहीं है और हिमालय की तसवीर हिमालय नहीं है। ये सारे शास्त्र तो नक्शे हैं। संत को तो सत्य मिल गया, अब नक्शों की कौन फिक्र करे!
आगम कहैं न संत, भड़ेरिया कहत हैं।
आगम तो जो भाट हैं, जो स्तुति कर—कर के परंपरा की लोगों का शोषण करते हैं, जो तुम्हारे अतीत का गुणगान करके तुम्हारे अहंकार को भरते हैं—भड़ेरिया, भड्डरी, पंडित, भट्टारक, भाट—उनका धंधा है यह कि वे आगम—निगम की बात करें। संत तो जो बोलते हैं, वह शास्त्र है। नहीं बोलते, तो शास्त्र, बोलते, तो शास्त्र, उठते, तो शास्त्र, बैठते, तो शास्त्र।
संत न औषधि देत, बैद यह करत हैं।।
और संत कोई औषधि नहीं देते फिरते! वह धंधा वैद्यों का है। मगर इस देश में यह भ्रांति खूब फैली है। यहां लोग संतों के पास जाते हैं क्योंकि बीमारी है। कोई संतों के पास जाता है क्योंकि कोई नौकरी नहीं लग रही है।
अभी परसों ही एक युवक ने मुझसे आकर कहा, बस इतनी ही प्रार्थना है, दो चीजें चाहिए—भौतिक समृद्धि भी मिले और आध्यात्मिक समृद्धि भी मिले। और भी लोग मौजूद थे, इसलिए मैंने उससे कुछ कहा नहीं; नहीं तो कहना मैं चाहता था कि तुम्हारी शकल देख कर ऐसा लगता है कि इन दोनों में से कुछ भी नहीं मिलने वाला।
और अगर लोग मौजूद न हो तो मैं उससे कहना चाहता, अच्छा तू दो में से एक चुन ले, एक का वरदान मैं देता हूं। तो पक्का था कि वह कहता: भौतिक समृद्धि। आध्यात्मिक समृद्धि तो उसने सिर्फ मुझे प्रसन्न करने के लिए जोड़ दी थी। उसकी शकल से ही मालूम पड़ रहा था...कि भौतिक समृद्धि और आध्यात्मिक समृद्धि दोनों मिले! अगर मैं जिद करता कि दो में से एक चुन, तो वह कहता, फिर पहले भौतिक मिल जाए, फिर आध्यात्मिक पीछे देख लेंगे। वह उसकी शकल से ही टपक रही थी बात। उसकी शकल पर ही वह घिनौनापन था जो रुपए—पैसे की पकड़ वालों के चेहरे पर होता है। जैसे घिसे—पिटे रुपए हो जाते हैं न—नोट भी चलते—चलते कैसे गंदे हो जाते हैं! वैसे ही शकलें हो जाती हैं नोट से प्रेम करने वाले लोगों की। घिसे—पिटे रुपयों की तरह हो जाते हैं वे। हजार हाथ से जाते हैं। इससे ज्यादा गंदगी और कोई चीज में होती ही नहीं जितनी रुपए—पैसे में होती है।
पता नहीं चिकित्सक इस संबंध में कुछ क्यों नहीं करते? क्योंकि मेरी मान्यता है कि नोटों में जितनी संक्रामक बीमारियां फैलाने की क्षमता होती होगी और किसी चीज में नहीं हो सकती। क्योंकि टी. बी. वाला लिए फिर रहा है, कैंसर वाला लिए फिर रहा है, फ्लू है और लोग लिए फिर रहे हैं, बुखार चढ़ा है और नोट खीसे में है, खांस रहे हैं, खंखार रहे हैं और नोट ही नोट भरे हैं। और ये नोट चल रहे हैं।
इनका नाम ही अंग्रेजी में: करेंसीकरेंसी मतलब जो चलती है, चलती रहे! इनका चलन हो रहा है। एक हाथ से दूसरे हाथ, दूसरे हाथ से तीसरे हाथ...ये कितने हाथों में जा रहे हैं! नोट से ज्यादा गंदी चीज इस जमीन पर खोजनी मुश्किल है।
और जो नोटों के प्रेम में पड़ जाता है, उसका चेहरा भी उतना ही गंदा हो जाता है। उसके चेहरे पर फूलों की ताजगी नहीं रह जाती, नोटों की गंदगी हो जाती है। अगर फूल दुनिया में सबसे ताजे हैं, तो नोट दुनिया में सबसे गंदे हैं। फूलों को पेम करने वाले के चेहरे पर फूलों का कुछ तो भाव होता है, उसकी आंखों में कुछ तो कमल खिलते हैं!
लेकिन इस देश में यह हो गया है पागलपन। लोग समझते हैं वे आध्यात्मिक हैं। मंदिर जाते, तीर्थ जाते, तथाकथित संतों के पास जाते, मगर उनके इरादे बड़े भौतिक हैं। भारतीयों को कहो कि तुम बहुत भौतिक हो तो उनको बहुत नाराजगी होती है। मगर मजबूरी है। तुम्हारा तथाकथित धर्म बस तथाकथित है। तुम्हारी मांग बताती है कि तुम्हारी असलियत क्या है। मेरे पास भी लोग आ जाते हैं...इतनी रुकावटें मैंने खड़ी कर रखी हैं—इन्हीं लोगों के लिए कि इस तरह के लोगों को मैं नहीं चाहता; लेकिन मेरे पास लोग आ जाते हैं। किसी को बीमारी है, किसी को नौकरी नहीं मिल रही है, किसी का धंधा ठीक नहीं चल रहा है!
पलटू कहते  हैं:
आगम कहैं न संत, भड़ेरिया कहत हैं।
संत न औषधि देत, बैद यह करत हैं।।
झार फूंक ताबीज ओझा को काम है।
अरे हां, पलटू संत रहित परपंच राम को नाम है।।
पलटू कहते हैं, अगर संत न मौजूद हो तो तुम राम की कितनी ही गुहार लगाओ, सब प्रपंच है, सब व्यर्थ है। राम का स्मरण सार्थक तभी है जब राम को जानने वाला मौजूद हो तुम्हारे साथ। राम जिसके भीतर घटा हो, उसकी उपस्थिति में तुम्हारे भीतर भी कुछ घट सकता है अन्यथा नहीं।
इतराकर यों राजहंस से कहता आज उलूक
सुन बेटा! मैं करता हरदम बात खरी दो टूक
राजहवेली में, महलों में मेरा नित्य निवास
तालत्तलैया में करता तू संबुक आज तलाश
कभी किसी युग में मुक्ताहल तूने चुगे जरूर
अब तो मोमी मोती के भी दाम बढ़े भरपूर
ते जिसका वाहन है मैं करता उसका व्यापार
सभी मुद्रणालय मेरे, मेरे सब ग्रंथागार
मेरे हाथ बिके वाणी के साधक सभी समान
नत मेरी बोली के आगे सभी गुणी मतिमान
मैं हूं जिसका वाहन उसका आज विश्व पर राज
नाच रहा उसकी इंगित पर सारा सुधी समाज
कौओं—बगुलों का दरबारी तू भी बना निदान
देख रहा क्यों मान—सरोवर का सपना नादान!
बन जा मेरी निपुण स्वामिनी का अब तू भी भाट
पोखर में सड़ने से अच्छा गा उसका ही ठाट
वही गा रहे आज गिरा की वाणी के सब तार
सुन बेटा! मेरी देवी का जयजयकार अपार।
उल्लू हंसों को समझा रहे हैं!
इतराकर यों राजहंस से कहता आज उलूक
सुन बेटा! मैं करता हरदम बात खरी दो टूक
पंडित—पुजारी अंधे लोग हैं; जिनको दिन में भी नहीं सूझता ऐसे उलूक हैं। लेकिन वे सारी दुनिया को समझा रहे हैं कि हम जो कर रहे हैं वही तुम भी करो। जो भजन हम करते हैं, जो हवन हम करते हैं, वही तुम भी करो। इसी से मिलेगी ऋद्धि, इसी से मिलेगी सिद्धि। हम जो शास्त्र पढ़ते हैं, तुम भी कंठस्थ करो। हम जिस ज्ञान की देवी के भक्त हैं, तुम भी हो जाओ। हमारे जयजयकार में तुम भी सम्मिलित हो जाओ; मत सपने देखो मानसरोवर के!
लेकिन तुम्हारे प्राण उल्लुओं की इन बातें से तृप्त नहीं हो सकते। प्राण तो मान—सरोवर का सपना ही देखेंगे। और सपना देखते रहना मानसरोवर का। और अगर कभी कोई मानसरोवर का जानने वाला मिल जाए तो पकड़ लेना उसका संग—साथ। उसके संग—साथ होते ही तुम्हारी यात्रा भी चल पड़ेगी परमात्मा की ओर।
अरे हां, पलटू संत रहित परपंच राम को नाम है।।
बिना संत के, बिना किसी पथप्रदर्शक के जो हो आया हो मानसरोवर तक तुम पहुंच न सकोगे। रास्ते में भटकाने वाले बहुत हैं; अटकाने वाले बहुत हैं। क्योंकि तुम भटको और अटको, इसमें लोगों का स्वार्थ सिद्ध होता है। तुम पहुंचो, इसमें किसी का स्वार्थ सिद्ध नहीं होता। तुम्हें तो वही पहुंचा सकता है जिसका अपना कोई स्वार्थ ही नहीं रहा—स्व ही नहीं रहा तो स्वार्थ क्या रहेगा!
थोड़ा—सा सम्मान मिला—पागल हो गए!
थोड़ा—सा धन मिला—बेकाबू हो चले!
थोड़ा—सा ज्ञान मिला—उपदेश की भाषा सीख ली!
थोड़ा—सा यश मिला—दुनिया पर हंसने लगे!
थोड़ा—सा रूप मिला—दर्पण ही तोड़ डाला!
थोड़ा—सा अधिकार मिला—दूसरों को
तबाह कर दिया!
इस प्रकार
तमाम उम्र चलनी से पानी भरते रहे!
अपनी समझ से
बहुत बड़ा काम करते रहे!!
बस पंडितों की जिंदगी चलनी से पानी भरने जैसी है। भरते तो बहुत, मेहनत तो बहुत करते, लेकिन चलनी में कभी पानी भर नहीं पाता। और बुद्धि कभी बुद्धिमान नहीं हो पाती। बुद्धिमत्ता तो हृदय में घटती है। और हृदय में जाने का द्वार तर्क नहीं, शास्त्र नहीं, प्रेम है, भजन है।
हरिजन हरि हैं एक सबद के सार में।
अगर तुम्हारे भीतर वह ध्वनि गूंजने लगे, शब्द का सार गूंजने लगे; अगर तुम्हारे भीतर ओंकार का नाद तुम्हें सुनाई पड़ जाए—जो कि गूंज तो रहा है लेकिन तुम्हारे विचारों के शोरगुल के कारण सुनाई नहीं पड़ रहा है; जो अहर्निश तुम्हारे भीतर हो रहा है, लेकिन बाजार भरा है तुम्हारे मस्तिष्क में। और उस बाजार को तुम बढ़ाते चले जाते हो। तुम्हारे मस्तिष्क में गीता गूंज रही है, वेद गूंज रहे हैं, कुरान—बाइबिल गूंज रही है—और मस्तिष्क के नीचे हृदय में ओंकार का नाद दबा पड़ा है। हटाओ शास्त्रों को, हटाओ शब्दों को, तो शब्दों का सार, सारों का सार तुम्हें उपलब्ध हो जाए।
हरिजन हरि हैं एक...
उस दिन तुम जानोगे कि संत में और परमात्मा में भेद नहीं है।
हरिजन हरि हैं एक सबद के सार में।
जब तुम अपने भीतर ओंकार का नाद सुनोगे तो तुम चकित हो जाओगे कि जो परमात्मा में है सागर की तरह, वही संत में है बूंद की तरह। बूंद और सागर एक हैं।
जो चाहैं सो करैं संत दरबार में।।
जिसको बौद्ध—परंपरा में बुद्ध—ऊर्जा का क्षेत्र कहा है, उसको ही फकीरों ने संत—दरबार कहा है। संत का भी एक दबरार है, उसकी भी एक अपनी दुनिया है। सम्राटों के दरबार में क्या रखा है? सम्राटों के दरबार में तो क्षुद्र का लेन—देन है, व्यवसाय है। दरबार तो फकीरों के होते हैं! क्या? क्योंकि वहां असली संपदा है। असली साम्राज्य है। जो एक बार मिल जाए तो कभी खोता नहीं। चोर जिसे लूट नहीं सकते, आग जिसे जला नहीं सकती, मृत्यु जिसे छीन नहीं सकती।
जो चाहैं सो करैं संत दरबार में।।
तुरत मिलावैं नाम एक ही बात में।
तुम्हारी तैयारी भर हो, तो तुरत मिलावै नाम एक ही बात में।
अरे हां, पलटू लाली में मेंहदी बीच छिपी है पात में।।
जैसे हर पत्त में मेंहदी की लाली छिपी है—दिखाई तो नहीं पड़ती; थोड़ा पीसो, प्रकट होने लगती है—ऐसे ही प्रत्येक व्यक्ति में हरि छिपा हुआ है। थोड़ा पीसो!
संत के दरबार में तुम मेंहदी के पत्ते हो। तुमको पीसता है। तुम्हारे अहंकार को गलाता है। तुम्हारे कूड़े—कचरे को जलाता है। तुम्हें निखारता है, कुंदन बनाता है। और तुम्हारे भीतर छिपी हुई लाली प्रकट होनी शुरू हो जाती है। मगर पिसोगे तो ही।
अरे हां, पलटू लाली मेंहदी बीच छिपी है पात में।।
परमात्मा कहीं दूर नहीं है, तुम्हारे भीतर छिपा है, तुम्हारे पत्ते में छिपा है। पत्ते—पत्ते में छिपा है। पत्ते—पत्ते पर उसका हस्ताक्षर है।
करते बट्टा ब्याज कसब है जगत का।
लेकिन पंडित—पुरोहित तो धंधे में हैं। एक व्यवसाय है जो धर्म के नाम पर चल रहा है। और धर्म के नाम पर जितनी आसानी से चल सकता है, किसी और चीज के नाम पर नहीं चल सकता। धर्म के नाम पर जितना धोखा संभव है, किसी और चीज के नाम पर संभव नहीं है। क्योंकि धर्म अदृश्य का व्यवसाय है। कुछ दिखाई भी नहीं पड़ता, कुछ पकड़ में भी नहीं आता; तराजू में कुछ है भी या नहीं, यह भी समझ में नहीं आता, कुछ पकड़ में भी नहीं आता; तराजू में कुछ है भी या नहीं, यह भी समझ में नहीं आता, तराजू खाली भी हो सकता है—और तौले जाए! और तुम सोचो कि तुम्हारे झोली भर रही है।
करते बट्टा ब्याज कसब है जगत का।
माया में हैं लीन, बहाना भगति का।।
कहौं तनिक नहिं छुई गया बैराग है।
अरे हां, पलटू जनमें पूत कपूत लगाया दाग है।।
धर्म के धंधे से थोड़ा जागो! धंधे का अर्थ है: जिन्होंने जाना नहीं, वे दूसरों को जना रहे हैं। जिन्हें मिला नहीं, वे दूसरों को मिलवा रहे हैं। जिनके पास है, वे केवल उधार शास्त्रों के आधार पर औरों को समझा रहे हैं।
स्वामी राम अमरीका से वापिस लौटे।...इस सदी में भारत ने जो बहुमूल्य रत्न पैदा किए, उनमें एक हैं स्वामी राम...अमरीका में बहुत सम्मान मिला उन्हें। लोग उनके पीछे पागल थे। पागल होने जैसे वे आदमी थे। जैसे भौंरे दीवाने हो जाएं फूलों के पास, कि परवाने दीवाने हो जाएं शमा के आसपास, ऐसे राम के आसपास लोग दीवाने हो जाते थे। बात थी कुछ, गहरी बात थी कुछ, रस था कुछ। कि जिनके पास थोड़ी भी हृदय की क्षमता थी, उनकी हृदयतंत्री बज उठती थी।
फिर राम भारत वापस लौटे तो उन्होंने सोचा कि पश्चिम में इतने लोगों ने रस लिया, तो सबसे पहले भारत में कहां यात्रा शुरू करूं? स्वभावतः सोचा, वाराणसी। और वाराणसी में जो हुआ, राम चौंक गए। वाराणसी में राम का जो स्वागत हुआ, उसकी उन्होंने कभी कल्पना भी न की थी। बोलने खड़े हुए, पांच—सात मिनट ही बोले होंगे कि एक पंडित खड़ा हो गया—महापंडित काशी का—और उसने कहा, रुकिए। संस्कृत आती है?...राम को संस्कृत नहीं आती थी। पंजाब में पैदा हुए, लाहौर में पढ़े। फारसी आती थी, उर्दू आती थी, संस्कृत नहीं आती थी।...वह पंडित खिलखिला कर हंसने लगा और सारी सभा भी हंसने लगी। और उस पंडित ने कहा, संस्कृत नहीं आती और ब्रह्मज्ञान छांट रहे हो! बिना संस्कृत के ब्रह्मज्ञान कैसा! पहले संस्कृत सीखो! पहले व्याकरण सीखो! फिर ब्रह्मज्ञान की बात करना।
राम को तो इतनी हैरानी हुई कि उन्होंने यात्रा का खयाल ही छोड़ दिया भारत में। वे तो हिमालय चले गए। न केवल हिमालय चले गए बल्कि तुम जानकर हैरान होओगे, उन्होंने गैरिक वस्त्र भी छोड़ दिए। उन्होंने साधारण वस्त्र पहन लिए। इस देश में अब क्या मूल्य है गैरिक वस्त्रों का—उन्होंने सोचा! जहां संस्कृत जानना ब्रह्म को जानने का पर्यायवाची हो गया हो, अब इस देश में क्या संन्यासी!
मगर यह सदा होता रहा है लोग व्यर्थ की बातों को मूल्य देने लगते हैं—भाषा, व्याकरण, तर्क, गणित। जानना कुछ बात और है। जानना अनुभव है।
मैं उस दिन
नदी के किनारे पर गया
तो क्या जाने
पानी को क्या सूझी
पानी ने मुझे
बूंद—बूंद पी लिया
और मैं
पिया जाकर पानी से
उसकी तरंगों में
नाचता रहा
रात—भर
लहरों के साथ—साथ
सितारों के इशारे
बांचता रहा!
डुबकी मारने की कला चाहिए। ऐसी कला चाहिए कि तुम परमात्मा को ही न पिओ, परमात्मा तुम्हें पी ले।
और मैं
पिया जाकर पानी से
उसकी तंरगों में
नाचता रहा

रात—भर
लहरों के साथ—साथ
सितारों के इशारे
बांचता रहा!
कहां वेद! कहां कुरान! सितारों में इशारे हैं। तुम्हारी श्वास—श्वास में इशारे हैं। लेकिन जिनके जीवन में न तो भक्ति का कोई लक्षण है, न प्रेम का कोई रंग है, जिनके जीवन में वैराग्य का कोई अनुभव नहीं है, वैराग्य की तो बात छोड़ो जो अभी राग से भी परिचित नहीं हैं। राग में ही नहीं पक पाए थे अभी और कच्चे—कच्चे भाग गए। जैसे कुम्हार घड़ों को पकाता है आग में, ऐसे संससार का राग आग है जिसमें पको तो ही मजबूत घड़े बन सकोगे। कोई होशियार घड़ा आग से बचने के लिए कच्चा ही भाग खड़ा हो, ऐसे ही घड़े तुम्हारे तथाकथित साधु—संन्यासी बने बैठे हैं। कच्चे घड़े। पानी के एक ही झोके में बह जाएंगे। राग ही नहीं पका है अभी तो वैराग्य कैसे होगा? राग के अंतिम चरण में वैराग्य होता है।
बुद्ध हुए विरागी। हो सके। क्योंकि राग ने पका दिया था। महावीर हो सके विरागी, क्योंकि राग ने पका दिया था। जैनों के चौबीस तीर्थंकर ही राजपुत्र हैं। राग ने पकाया। ऐसा पकाया कि फिर वैराग्य का फल लगा। यह तुम्हें उलटी बात लगेगी! लेकिनखयाल रखो, यह जीवन का नियम ऐसा है। यहां आग से गुजरे बिना सोना कुंदन नहीं बनता।
गधे ने
शेर की खाल ओढ़ी
महज एक कहावत है
मुहावरा है
एक झूठ है
पर तुम्हें
वस्त्रों से खींच कर देखने पर
भीतर छिपे
सर्प, सियार से लेकर
भेड़िया
और गिद्ध तक
नजर आते हैं साफ—साफ...
आदमी की खाल
जंगल ने पहन ली
एक सच है!
वह तो कहावत है कि गधे ने शेर की खयाल ओढ़ी। गधों में इतनी अकल कहां कि शेर की खाल ओढ़ लें? आदमी में इतनी अकल जरूर है कि गधे हैं और शेर की खाल ओढ़ लें। पांडित्य का आवरण ओढ़ लें। लेकिन बस आवरण आवरण ही है। और गधा शेर की खाल भी ओढ़ ले तो क्या होता है? मौके—बे—मौके रेंक देगा। बस, सब पोल—पट्टी खुल जाएगी। पंडित को जरा खरोंचो—जरा खरोंचो और भीतर से सारे जंगली जानवर निकलने शुरू हो जाएंगे। पूरा जंगल भीतर छिपा है।
कारण?
कारण है कि हम संसार को कच्चा छोड़ कर भाग रहे हैं। इसलिए मैं अपने संन्यासी को संसार छोड़ने को नहीं कहता। मैं कहता हूं, आएगा एक वैराग्य; जरा ठहरो! जरा हिम्मत रखो! जरा इस आग से गुजरो राग की! इसी आग से गुजरकर वैराग्य आएगा। राग की ही अंतिम परिणति वैराग्य है। बुद्ध ने अगर राग को न जाना होता तो कभी बुद्ध न हुए होते।
कल की रात
मैं निश्चित ही गौतम बुद्ध बन जाता,
अज्ञानी था
ज्ञानी और प्रबुद्ध बन जाता,
पर बन न सका।
बनवास को वस्त्र मान कर पहन न सका
क्योंकि मैं सिद्धार्थ नहीं था
सामान्य था।
तन—मन में या जड़—चेतन में
कहीं भी परमार्थ नहीं था।
घर छोड़ नहीं सका,
क्योंकि
इतना पुरुषार्थ नहीं था।
कल दोपहर
आराम से बैठ कर अपने रथ पर
अनजाने त्याग—सा
निकल पड़ा
पाटलिपुत्र के राजपथ पर।
घोड़ों की जगह जुती थीं मेरी इंद्रियां,
सारथि की जगह बैठा था
मेरा स्वार्थ।
चौराहे को पार करते न करते
एक चमकती लंबी कार
उससे उठी धूल
और धूल के परदे के पार
देवता की तरह मुस्कराते देवदार और कचनार।
मेरी अंतरात्मा प्रलोभन से भर गई—
हाय, मेरी यह दशा कब होगी?
सारथि, मेरे रथ को लौटा ले!
मुझे कहीं नहीं जाना है।
पहलू घर जाकर खाना खाना है,
जल्दी से पार्ट टाइम टयूशन पर जाना है,
पंचर जुड़वाना है, खाता खुलवाना है।
सारथि, मेरे रथ को लौटा ले!
मुझे कहीं नहीं जाना है
शाम को
अपने थके—मांदे अस्तित्व को
रथ में घसीटता—सा
घोड़ों को पुचकारता, मारता, पीटता—सा
क्षय के रोगी—सा निस्तेज कमजोर
मैं लौट रहा था
अपने राजमहल की ओर।
राह की बगल में बिछे
खेल के मौदान की पगडंडी पर
एक स्वस्थ सुंदर नवयुवक के
पुष्ट तन को देख,
उसके बलिष्ठ हाथ, पैर और गर्दन को देख,
उसके उभार, घेराव और संवर्धन को देख,
मैंर् ईष्या से जल उठा—
हाय, मेरी यह दशा कब होगी
सारथि, मेरे रथ को लौटा ले
मुझे कहीं नहीं जाना है।
पहले दवा के लिए डाक्टर पहाड़े के घर जाना है,
फिर कसरत करने के लिए अखाड़े पर जाना है
...सारथि, मेरे रथ को लौटा ले!
मुझे कहीं नहीं जाना है।
रात को
दूधधुले कपड़ों पर दो—चार गहने,
गहनों के इर्द—गिर्द मोगरे की माला पहने
आंखों में बोतल—दो बोतल का नशा लिए,
भिंडी बाजार के कोठों के पास से गुजरते हुए,
इधर—उधर आंखों से दृश्यों को चरते हुए,
काम—वह्वल पाषाण—युग के दो नग्न बुतों को देख,
अंधकार में उजागर होती उसकी करतूतों को देख,
मैं वासना में डूब गया—
हाय, मेरी यह दशा कब होगी?
सारथि, मेरे रथ को लौटा ले!
मुझे कहीं नहीं जाना है।
पहले ससुराल जाकर यशोधरा को लाना है,
उसके गहने बनवाना है,
सलवार सिलवाना है,
कुर्ती कटवाना है
और
राहुल को स्कूल में भर्ती कराना है।
सारथि, मेरे रथ को लौटा ले!
मुझे कहीं नहीं जाना है।
तो कल की रात,
मैं
निश्चित ही गौतम बुद्ध बन जाता,
अज्ञानी था,
ज्ञानी और प्रबुद्ध बन जाता,
पर बन न सका।
वनवास को वस्त्र मानकर पहन न सका
क्योंकि मैं सिद्धार्थ नहीं था
और आगे अगर खुली नजरें रहीं
तो कहीं बन न जाऊं,
इसलिए
आंखों पर चश्मा काला लगा लिया है
और
कहीं रात को घर से भाग न जाऊं
इसलिए
द्वार बंद करके
भीतर से ताला लगा दिया है।
नहीं, बिना राग को ठीक से जाने, पहचाने, राग के साक्षी बने वैराग्य का अवतरण नहीं होता है। तुम्हारे भगोड़े संन्यासियों में तुम्हें वैराग्य नहीं दिखाई पड़ सकता।
कहौं तनिक नहिं छुई गया बैराग है।
अरे हां, पलटू जनमें पूत कपूत लगाया दाग है।।
और इन झूठे, कच्चे, भगोड़ों ने सारे संन्यास के ऊपर दाग लगा दिए। संन्यास ही इनके कारण निंदित, अपमानित, लांछित हो गया है। संन्यास को फिर ताजगी देनी है, फिर स्वास्थ्य देना है। क्योंकि संन्यास इस जगत का परम फूल है। जिस दिन इस पृथ्वी से संन्यास विदा हो जाएगा, उस दिन इस पृथ्वी पर रहने योग्य कुछ भी न रह जाएगा। संन्यास काव्य है, गरिमा है, गौरव है।
मगर गुजरना होता है राग की अग्नि से तो वैराग्य पकता है। गुजरना होता है संसार की कठिनाइयों से तो संन्यास का फूल खिलता है। तूफानों में से गुजर कर ही यह नौका किनारे लगती है। तूफान कसौटी हैं।
पगरी धरा उतारि टका छह सात का।
मिला दुसाला आय रुपैया साठ का।।
गोड़ धरे कछु देहि मुंड़ाए मूंड़के
अरे हां, पलटू ऐसा है रुजगार कीजिए ढूंढ़िके।।
धर्म के नाम पर खूब धंधा चल रहा है। लोग छोड़ क्या रहे हैं—छोड़ने को कुछ है ही नहीं।
पगरी धरा उतारि टका छह सात का।
छह—सात टके की पगड़ी थी, उसको उतार कर रख दिया और कहा, महान त्याग हो गया।
मैं एक सज्जन को जानता हूं। होम्योपैथी के डाक्टर थे। डाक्टरी तो चलती नहीं थी! उनकी दुकान पर मरीज कभी मैंने देखा नहीं! ऐसे ही मुहल्ले—पड़ोस के लोग अखबार पढ़ने के लिए आ जाते थे। फिर एक दिन मैंने देखा कि वे संन्यस्त हो गए। उन्होंने सब त्याग कर दिया। न पत्नी थी, न बच्चा। उतने पैसे भी कभी नहीं जुटा पाए कि शादी करते। मां—बाप बचपन में मर गए थे। कुछ पीछे छोड़ भी नहीं गए थे। दुकान चलती नहीं थी। इससे बेहतर कुछ और था भी नहीं।
कोई पांच—सात साल बाद मेरा उनसे मिलना हुआ। तो बड़े सम्मानित हो गए थे! बात—बात में दोहराते थे कि मैंने लाखों पर लात मार दी। जब और लोग चले गए, मैंने उनसे कहा कि कम—से—कम मेरे सामने तो यह न कहो। मुझे तुम्हारी होम्योपैथी कितनी चलती थी, वह मालूम है। और जहां तक मुझे याद है, पोस्टआफिस में तुम्हारे बासठ रुपए से ज्यादा नहीं थे। और वे भी तुमने किस हिसाब से इकट्ठे कर लिए थे, चमत्कार है! तुम लाखों की बात कर रहे हो, कि लाखों पर लात मार दी! उन्होंने बड़ी नाराजगी से मुझे देखा। सत्य को कोई बर्दाश्त नहीं करता। तब से वे इतने नाराज हो गए हैं कि मेरे खिलाफ जो भी बनता है बोलते रहते हैं। और वह आदत उनकी गई नहीं। वे कहते ही चले जाते हैं कि मजने लाखों पर लात मार दी। क्योंकि लोग सम्मान उतना ही देते हैं जितना तुमने त्याग किया हो।
त्याग करने का भी लोगों के पास कुछ नहीं है—तुम जरा देखो तो जाकर! जब कुभ का मेला भरता है, तुम जरा अपने संन्यासियों को, साधुओं को, नागा बाबाओं को, उनकी कतारों को तो देखो! उनके पास कुछ था जिसको इन्होंने छोड़ा है? उनके पास कुछ था ही नहीं। इसलिए छोड़ने का मजा भी ले लिया और त्यागी भी बन गए, महा त्यागी बन गए!
पगरी धरा उतारि टका छह सात का।
छह—सात टके की पगड़ी थी, वह रख दी और—
मिला दुसाला आय रुपैया साठ का।।
और लोगों ने बड़ा सम्मान दिया। लोगों ने कहा—महा त्यागी!
गोड़ धरे कछु देहि मुंड़ाए मूंड़के
सिर से अगर बाल घुटवा दिए, तो कौन—सी बड़ी कला हो गई! और अगर जमीन पर घुटने टेक कर आकाश की तरफ हाथ जोड़ कर तुमने प्रार्थना भी कर ली, तो क्या हो गया?
अरे हां, पलटू ऐसा है रुजगार कीजिए ढूंढ़िके।।
अगर रोजगार ही करना हो तो यह रोजगार है, ढूंढ कर करने जैसा है। कुछ लगता भी नहीं और धंधा भी खूब चलता है। कुछ खर्च भी नहीं, कुछ पूंजी भी नहीं लगती, कुछ ब्याज भी नहीं भरना पड़ता, सिर्फ बकवास आनी चाहिए। बकवास को लोग ब्रह्म—ज्ञान समझते हैं। सीख लो कुछ तुलसीदास की चौपाइयां और सीख लो कुछ गीता और सीख लो कुछ पुराण की कथाएं—और तुम ज्ञानी हो गए।
मसक्कत ना ह्वै सकी मुंड़ाया मूड़ तब।
जब मेहनत नहीं हो सकी, तो सिर मुंड़ा लिया।
सेंतिमेंति में खाय मिला औसान अब।।
अब बिना कुछ मेहनत किए, मुफ्त खाने को मिलने लगा, संन्यास हो गया। सम्मान मिलने लगा, आदर मिलने लगा, मुफ्त खाने को मिलने लगा। जिस आदमी के तुम चरण छूते हो संन्यासी देख कर, वही आदमी अगर गैर—संन्यासी के वेष में तुम्हारे द्वार पर भीख मांगने आए तो तुम दो पैसे नहीं दोगे। एक प्रतिष्ठा हो गई। मुफ्त। इससे सस्ता और क्या धंधा होगा!
तब नागा ह्वै लिहिन, रहे ना काम के।
और जब देखा कि इस तरह प्रतिष्ठा मिलती है—सिर मुंड़ा लिया, आदर मिला—कुछ था भी नहीं छोड़ने को, दो—चार टके की पगड़ी थी, वह त्याग दी—इतना आदर मिला—जब यह समझ में आ गया गणित, तो लोग कपड़े तक छोड़ देते हैं। कपड़ों में भी कुछ नहीं था, फटे—पुराने थे; शायद अपने भी न हों, मांगेत्तूंगे हों, उधार हों। लोग नग्न तक हो जाते हैं; क्योंकि नग्न साधु को बहुत आदर मिलता है। उसने तो परम त्याग कर दिया। हमने ऐसी मूढ़तापूर्ण धारणाएं बना ली हैं। कोई भूखा मरे, महात्यागी! कोई नंगा खड़ा हो जाए, महात्यागी! कोई धूप में खड़ा रहे, महात्यागी!
हमने त्याग की बड़ी असृजनात्मक धारणाएं बना ली हैं। कोई गीत रचे, कोई वीणा बजाए, कोई बांसुरी पर सुर उठाए, अनाहत भी जगा दे, तो भी हमें फिक्र नहीं; हमें फिक्र है: उपवास कितने किए? बांसुरी कितनी बजाई, इसकी हमें फिक्र नहीं; वीणा पर कैसे तार छेड़े, इसकी हमें फिक्र नहीं; दीए जल जाएं चाहे वीणा पर तार छेड़ने से, लोगों के हृदय के दीए जल उठें, तो भी हमें फिक यह है कि कपड़े हैं कि नंगा है? खाना खाता है कि नहीं खाता? पानी छान कर पीता है कि नहीं पीता? हमने ऐसी क्षुद्र धारणाएं बनाई हैं।
शायद ये चालबाज लोगों ने ही हमें ये धारणाएं पकड़ा दी हैं। क्योंकि इन बातों को वे पूरा कर सकते हैं। इन बातों को पूरा करना बिलकुल आसान है। दीपक राग बजाना तो आसान नहीं—कोई तानसेन बजाए! किसी के सोए हुए प्राण को जगा देना तो आसान नहीं—कोई बुद्ध जगाए! किसी की निद्रा को तोड़ देना तो आसान नहीं—कोई कबीर, कोई नानक चाहिए! किसी के प्राणों को आकाश की तरफ मोड़ देना कुछ आसान तो नहीं—कोई जरथुस्त्र, कोई जीसस चाहिए! मगर भूखे मरना या नंगे खड़ा हो जाना या सिर मुंडा लेना या पालथी मार कर बैठ जाना, यह तो कोई भी मूढ़ कर सकता है, इसमें तो किसी भी प्रतिभा की कोई जरूरत नहीं।
हमें संन्यास की परिभाषा बदलनी होगी। हमें इस थोथे संन्यास की परिभाषा को छोड़ना होगा। इस थोथी परिभाषा के कारण थोथे लोग बड़े आदृत हो गए हैं। और जिनका सच में आदर होना चाहिए, वे हमारी आंखों से ही अलग हो गए हैं, हम उन्हें देख ही नहीं पाते। जहां कुछ सृजन होता हो, जहां कुछ फूल खिलते हों, जहां जीवन और जगत को कुछ और सुंदर बनाया जाता हो, जहां कुछ और इंद्रधनुष आकाश से जमीन तक उतारे जाते हों, वहां; जहां नृत्य हो, उत्सव हो, वहां; वहां सम्मान करो। जहां आंतरिक समृद्धि प्रकट होती हो, प्रसाद जहां हो, जहां किसी की उपस्थिति में परमात्मा छाया हो, जहां किसी की उपस्थिति में प्रेम की वर्षा होती हो, जहां मस्तों की मधुशाला खुली हो, वहां हमारा सम्मान होना चाहिए। तो हम संन्यास को एक नई गरिमा और गौरव देने में सफल हो सकते हैं।
अरे हां, पलटू मारिपीटिके, खाहिं सो बेटा राम के।।
इस तरह जबर्दस्ती का ठेंगा सिर पर...तुमने देखा कभी—कभी आ जाते हैं दरवाजे पर संन्यासी। बजाते हैं चमीटा जोर से! और घबड़ाहट भी होती है घर में, क्योंकि उन्होंने ये भी कहानियां फैला रखी हैं कि अगर संन्यासी को लौटा दिया, नाराज हो जाए—दुर्वासा की कहानियां तो तुमने सुनीं न—गुस्सा आ जाए; दे ही दो कुछ, झंझट छुड़ाओ। क्योंकि वह आगे—पीछे चमीटा बजाता घूम रहा है। आगे—पीछे कदम रखता है, चमीटा बजाता है, घबड़ाहट पैदा कर देता है घर में कि दो रोटी देकर इससे छुटकारा करो! कहीं कोई अभिशाप दे दे, कुछ हो जाए, तो जनम—जनम बिगाड़ दे! उसने बड़ा डर पैदा कर रखा है। उस डर के कारण ही तुम उसे खिलाए जा रहे हो, पिलाए जा रहे हो, सम्मान दिए जा रहे हो। भिखमंगे संन्यासी मालूम हो रहे हैं। और संन्यासी पहचानने की तुम्हारी आंखें ही खो गई हैं। नहीं, ये राम के बेटे नहीं हैं, ये कपूत हैं, ये दाग हैं।
राम के बेटे चाहिए। मगर राम का बेटा होना आसान तो नहीं। अग्नि से गुजरना हो!
ओ गंध—मधु पर झूमने वाले
और
रस—किंजल्क पर गूंजने वाले!
तुम्हें मालूम इतना ही
कि रवि की मुदित किरणों का परस पाकर
सुबह
मैं खिल उठा सहसा:
अचानक हो गई मैं
पुष्पिता,
स्निग्धा,
पुलक—सिहरनमयी
अलि—किशोरों को नहीं मालूम
कितना क्लेश
निशि भर झेलती हूं
सुबह खिलने के लिए:
किस तरह हर पंखुडी पर
रंग—राग—पराग रचकर
और
लेकर प्रस्फुटन की पीर,
देकर रस—विभा संपूर्ण अपनी
एक कोरक में
विकच होती...
कली से फूल बन जाती,
रूप—रस के उपकरण चुन—चुन जुटाती
रात—भर उन्निद्र।
जिस निशा में सभी निद्रालीन रहते,
उसी के हर याम में
मैं प्राणपण से जाग
रूप—यौवन का नया संसार रचती हूं।
मैं कमलिनी नहीं केवल,
कवि: (रचयिता) हूं।
कहां है ज्ञात रसिकों को
कि
रचना रक्त से बनती?
कहां अनुमान है इसका
किसी उन्मत्त भौंरे को
कली से फूल बनने में
कमलिनी
किस तरह का क्लेश
निशि भर भोगती रहती?
सस्ता नहीं है संन्यास! सुगंध मुफ्त नहीं मिलती। बहुत पीड़ाओं से गुजर कर फूल में गंध आती है। मिट्टी से फूल तक की लंबी यात्रा है। कीचड़ से कमल तक की लंबी यात्रा है। और उसी यात्रा का नाम संन्यास है।
आज इतना ही।



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