''भावना के भोजपत्रों पर जन्म—जन्मान्तर के आनंद अक्षर’’
मां
आनंदमयी से एक
भेंट वार्ता:
शरीर
प्रवासी बना
बस में
हिचकोले भरता
अपने गंतव्य
पर पहुंचने को
आतुर था। चांदा
(चंद्रपुर)
प्रवास मेरे
लिए कोई नया
नहीं था।
किंतु जाने
क्यों आज सब
कुछ नया—नया
लग रहा था।
पिछले तीस
वर्षों से जिस
शहर के इतने
करीब रहा हू
वही आज मेरे
लिए परीलोक का
रहस्य बतलाता सा
प्रतीत हो रहा
था। जुलाई की आस
भरी यात्रा थी, परंतु
भीतर इतनी
आनंदामृत की
फुहारें झर
रहीं थी कि वह आस
भी रोमाचित सी
करती प्रतीत
हो रही थी।
चांदा
पहुंचते—पहुंचते
एकाएक सारा आसमान
कालिमा की
छतरीनुमा सा
बन गया था।
आसमान
के चारों
किनारों पर
प्रकाश की 'पाईपिंग' लगी सी
प्रतीत हो रही
थी। संध्या के
घनी होते—होते
अचानक जोरों
की बरसात ने
रौद्र रूप
धारण कर लिया
था। उस बरसात
ने चांदा बस
स्टेशन आते—आते,
धरती और
मेरे मन
प्राणों को भी
अन्तर तक नहला
दिया था। मन
थोड़े क्षणों
के लिए सन्नाटे
में दूब गया
था। उस निस्तब्धता
को बीच—बीच
में तोड़ रही
थी मा के
सम्पर्क में
अभिषिक्त
स्मृतियां।’भगवान श्री
रजनीश का चांदा
से सम्पर्क
वैसा ही रहा
जैसे रजनी के
ईश चन्द्रमा
का रजनी से।
इस तरह
चंद्रपुर में
रजनी के ईश का
आना जाना स्वाभाविक
ही था। लगभग 1960
से भगवान
रजनीश का चांदा
आना जाना
प्रारंभ हो
गया था। मा
आनंदमयी
(श्रीमती मदन
कुपर पारख) का
निवास भगवान
के लिए एक ऐसी
गोद बन चुकी
थी जिसमें समय—समय
पर उन्हें, अपने
जीवन के थकान
भरे क्षणों को
कुछ समय के लिए
श्रम परिहरण
के बहाने
विश्राम पाने चांदा
आना ही पड़ता
था। बस रूकी
और उसमें से
अनेकानेक
प्रश्नों की
पोटली बांधे
मन भी उतरा।
एकाएक चांदा
की धरती पर
कदम रखते ही आंखों
पर आनंद की ओस
सी छाने लगी।
भीतर बंद था
अनेकानेक
आनंदमय
प्रश्नों का
अंबार जो ओशो
का प्रत्येक
पाठक जानने को
उत्सुक था।
उनका
प्रतिनिधि
बनकर मैंने
दूसरे दिन
प्रात: जाकर मा
से मिलने का
निश्चय किया।
जोरों से
बारिश और फिर
गहराती हुई
रात में एकाएक
बिजली के गुल
हो जाने से
उसकी स्याही और
घनी हो गई थी।
मैंने भी सोचा
रात जितनी ही
संगीन होगी
सुबह उतनी ही
रंगीन होगी।
इस गहन रात्रि
के बाद ही तो
सच्चा प्रकाश
मिलेगा।
पूर्ण चंद्र
से ही
साक्षात्कार
होगा। दूसरे
दिन ही संभवत:
गुरूपूर्णिमा
थी। अपने
सद्गुरू से
मिलने
पहुंचना था
पुण्यभूमि
पूना में किंतु
भटक गया मन चांदा
के उस आनंद
लोक में जहा
प्रभु ने कभी
विश्राम किया
था। सतत् कई
वर्षों तक
अपनी
पूर्वजन्मों
की मा के
प्रति अपने
हृदय के सारे
पृष्ठ ही माना
पत्रों के माध्यम
से खोल कर रख
दिए थे।
उन
पत्रों को कई—कई
बार मैंने पढ़ा
है फिर भी एक
अटूट प्यास आज
भी मौजूद है।
उन
बीजमंत्रों
में सारे
उपनिषदों की
वाणी समा गई
है। वेदों की
समस्त ऋचाओं
से वे
अभिसिंचित है।
उनमें बुद्ध, महावीर, क्राइस्ट
कबीर दादू और
भी कई देशी
विदेशी चिंतको
का चिंतन
एकाकार हो गया
है। उस
आनंदमयी ने
अपने
वात्सल्य की गंगा
में मुझे भी
कई बार निमज्जित
कर पावन बना
दिया है।
कितने—कितने
वर्षों से हम
भगवान रजनीश
की स्मृतियों
में डूबते
उतराते रहे
हैं। इस बार मा
अमृत साधना एव
स्वामी
चैतन्य
कीर्ति की
प्रेरणा पाकर
मन ने उसे
साक्षात्कार
का एक रूप देकर
'रजनीश
टाइम्स' के
पाठकों की
इच्छा पूरी
करने में
सहयोग दिया।
'पारख
निवास' यानी
मा आनंदमयी का
आनंद लोक। जिस
मा के पत्रों
की प्रतीक्षा
में भगवान आंखें
बिछाते रहे हो
उनके
व्यक्तित्व
की विराटता में
धरती की
विशालता है, जिसमें ही
सागर भी समा
जाता है। मा
आनंदमयी का
सम्पूर्ण
व्यक्तित्व आनंद
के सहस्रों
झरनों का
विराट स्वरूप
ही है। उनके
पास पहुंचते
ही मन अपने आप
स्थिरता ग्रहण
करने लगता है।
जैसे ही मैं
उनकी —डयोढी
पर पहुंचा
उनके चेहरे पर
चिर परिचित
वात्सल्यमयी
मुस्कान ने
मुझे अपने बधन
में बाध लेना
चाहा।’’अरे।
विकल, आओ कब
आए चांदा?'' बस
अभी। आपके
दर्शनों के
लिए आ ही रहा
हूं।'' मैंने
उत्तर दिया।
शुभ्र परिधान
में उनके गले
में पड़ी
रूद्राक्ष की माला
और उस पर
लहराते हिम
धवल केशराशि
का सौंदर्य एक
अनूठी आभा की
सृष्टि कर रहे
थे। मैं उस
रूप में थोड़े
समय के लिए
खोया रहा कि
अचानक उनके
शब्द मेरे
कानों में पड़े।
‘‘मेरा
ख्याल तो यह
था कि तुम्हें
कल ही चांदा आ
जाना चाहिए था?''
उनकी
प्रश्नवाचक आंखों
में एक अलग
तेजस्विता थी
और मेरा अंतर
तक हिल उठा।
सोचा मैंने तो
यूं ही
औपचारिकतावश
उनसे कह दिया
था कि बस चला
ही आ रहा हू
आपके दर्शनों
को। किंतु
अंतरयामिनी
तो मेरे चांदा
तक पहुच जाने
की आहट भी जान
चुकी थी। तब
मैंने उनसे
कहा ‘‘हां। मा
आपके खयाल के
अनुसार मैं चांदा
कल ही पहुच
गया था किन्तु
रात भारी
वर्षा के कारण
मैं आज सुबह—सुबह
आपसे मिलने आ
पहुंचा हू।’’
मा की
अन्तरभेदनी आंखें
मुझे बहुत देर
तक देखती रही
और जाकर मैं, उनके
चरणों का
स्पर्श कर
उनके करीब ही बैठ
गया। जहां उनका
निवास है उस
कमरे का नाम
भी ‘आनंद' ही है। उस
कमरे की
सार्थकता को
सिद्ध करने के
लिए ही भगवानश्री
रजनीश ने
उन्हें
मा आनंदमयी
नाम संभवत
दिया होगा।
ऊपर दीवार पर
दृष्टि गई तो
ध्यान की गहरी
मुद्रा में
भगवान का एक
बड़ा पोस्टर टंगा
हुआ था और पास
ही आलमारी पर
दीर्घ नयनों
में सारे
विश्व के
सौंदर्य को
समेटे युवा
रजनीश का एक
बड़ा सा
फोटोग्राफ स्टील
की फ्रेम में
लगा हुआ था।
अपने उस एकांत
कमरे में उनकी
साधना निरंतर
प्रवाहमानसी
प्रतीत हुई।
भगवान ने 6 अक्टूबर 1973 में माउंट
आबू के शिविर
में लगभग 1000
साधकों की
उपस्थिति में
उन्हें अपनी
पूर्व जन्म की
मा घोषित किया
था।’रजनीश
टाइम्स' के
पाठकों से इस
ममतामयी का
परिचय हो सके,
इसी
उद्देश्य को
लेकर मैं चांदा
(आज का
चंद्रपुर) मा
आनंदमयी से
मिलने आया था।
औपचारिक
वार्तालाप
होने के बाद
मैंने उनसे सीधे
ही कह दिया— ''आज इन
क्षणों में, मैं मात्र
आपका पुत्र ही
नहीं हू बल्कि
एक पत्रकार बनकर
आपके पास आया
हू। आपके पास
हमारे प्रिय
भगवान रजनीश
के संदर्भ में
स्मृतियों के
हजारों हीरे—मोती
भरे पड़े हैं।’रजनीश—टाइम्स'
के पाठक उन
स्मृतियों को
पढ़कर आनंद लाभ
प्राप्त करना
चाहते हैं।’’ मा के चेहरे
पर सहस्रदल
कमल से खिल
उठे।
वे
मुझे देखे जा
रही थी और सोच
रही थीं कि
इससे तो मैं
कितने वर्षों
से वे
कहानियां
करती आ रही हू।
6—6 घंटों तक हम
भगवान के
ध्यान में
खोये रहे हैं।
आज फिर से वही
बातें क्यों
करना चाहता है।
मैंने उनसे
अपना प्रयोजन
स्पष्ट बता
दिया और
टेपरिकार्डर
और कलम लेकर
मैं और मा
आमने—सामने बैठ
गए। उनकी
सहजासन की
मुद्रा में मानों
एक दृढ़ चुनौती
थी, कि
पूछो फिर से
पूछो, जो
भी तुम्हें
पूछना है।
‘‘हमें
कहा से बात
शुरू करनी
होगी विकल?''
‘‘हमें
अतीत में बहुत
दूर तक पीछे
की और नहीं लौटना
है उन क्षणों
में ही जीना
है जब से आप
भगवान के सम्पर्क
मैं आई। हां, प्रसंगवश
यदि कोई बात आ
जाये यह अलग
बात है’‘ और
तब मैंने मन
में उठे सेकड़ों
प्रश्नों को एक—एक
कर उघाड़ना
शुरू कर दिया..।
मा
किसी दूर अतीत
की स्मृतियों
में खोई सी
प्रतीत हुई और
मैंने इस भाव
दशा को
उपयुक्त जान
उनसे प्रश्न
कर ही दिया।’’सुना है,
बुद्ध
पुरूषों की मातैंा?ओं को किसी
खास प्रकार की
विशेष
अनुभूतियां होती
हैं? भगवान
रजनीश से
मिलने के
संबंध में
क्या आपके साथ
भी कोई ऐसी
घटना घटित हुई
थी?''
मा नै
प्रत्युत्तर
में कहना शुरू
किया— ‘‘यदि
मैं इस बात को
याद करूं तो
दिखाई देता है
कि बचपन में
ही, मुझे
कई स्वप्न आते
रहते थे जो
बड़े दिलचस्प
और
प्रेरणास्पद
थे। जो पढ़ाई
मैं बाहर नहीं
कर पाती या
जाग कर नहीं कर
पाती थी वह
सारी उलझनें
मैं स्वप्नों
में एक—एक कर
सुलझी सी पाती
थी। विवाह के
पूर्व ही मुझे
अनेक स्वप्न
दर्शन होते
रहते थे।
उसमें इस बात
का कोई संकेत
.तो नहीं मिला
कि मेरा कोई
पुत्र है जो
मुझसे बिछुड़
गया है और
उससे मिलना
होगा। किंतु.
ऐसी अनुभूति
जरूर होती थी
जिसमें यह महसूस
होता था कि
मेरी कोई बहुत—बहुत
ही कीमती वस्तु
कहीं खो गई है
जो मुझे जरूर
मिलेगी।
फिर
मुझे धीरे—धीरे
यह अनुभूति
होने लगी कि
मैं भगवान की मा
हू मेरा भगवान
मुझसे दूर हो
गया और विकल!
जब चौदह—पंद्रह
साल की अवस्था
में मेरा
विवाह हो गया
तो शादी के
बाद स्वप्न
में मुझे
संकेत मिलने
लगे’‘ और
अब मैं देख
रहा था कि मा
की चेतना अतीत
की गहराईयों
में बहुत ही
सूक्ष्म भाव
भंगिमाओं में
उतरती जा रही
है। उनकी अतीत
की स्मृतियों
को वर्तमान
में ले आने
में मुझे सारा
वातावरण
निर्मित कर
देना पड़ा था
जिसमें मा
पूर्ण रूप से
उन बीते हुए
क्षणों में
गहराई से डूब
जाये और वहां
से उन अनमोल
मोतियों को
मेरी झोली में
डालती रहें।
‘‘कई
बार मुझे
गेरूए
वस्त्रधारी
कमंडलधारी
साधु दिखाई देते
रहते थे और वे
स्वप्नों में
आकर कहते रहते
थे— 'तेरा
बेटा भगवान
होगा।' छोटी
आर के कारण
मैं ये सारी
बातें किसी से
कह भी नहीं
पाती थी।
किन्तु मेरा
मन सदा विलोडित
होता रहता था।
जैसे कोई मेरे
हृदय को मथानी
से बिलो रहा
हो, ऐसा
मुझे आभास
होता रहता था।
मेरे माता—पिता
भी बहुत गहरे
आध्यात्मिक
व्यक्ति रहे थे।
उन्हें मन की
दुविधा कहती,
तो वे कई
प्रकार से
मुझे
सांत्वना
देते थे।
ज्ञान एव
दर्शन एव नाना
प्रकार के
तत्वज्ञानों
की बातों से
वे मेरे
प्रश्नों को
हल करने की कोशिश
करते रहते थे।
किन्तु उनके
तत्वज्ञान की
बातों ने मेरे
मन के
प्रश्नों को
हल नहीं किया।
कई साधु एव
संन्यासियों
से भी मिलती
रही लेकिन वे
भी मेरे
प्रश्नों का समाधान
नहीं कर पाये।’’
मा की
वाणी में बड़ी
साहित्यिकता
थी क्योंकि
कविताएं रचते—रचते
उनकी भाषा में
एक प्रांजलता
एवं अपूर्व माधुर्य
आ गया था।
इसलिए मैं जब
भी कोई बात
करता तो ऐसा
भान होता रहता
मानों किसी
महान
साहित्यकार
के सामने मैं
उससे वार्तालाप
कर रहा हू। मा
नै अपनी बात
आगे बढ़ाई, ‘‘मेरे
प्रश्न—प्रश्न
ही बने रहे और
उनके उत्तर
किसी के पास
ही नहीं थे।’’ मा का जन्म
श्वेताम्बर
जैन परिवार
में हुआ था इसलिए
अपने आसपास के
वातावरण में
उन्होंने अपने
प्रश्नों को
हल करने के
उद्देश्य से
अनेक जैन
साधुओं एवं
आचार्यों से
वे मिली। जैन
धर्म के
आचार्य श्री
आनंद ऋषि जी
महाराज उन्हें
स्वप्न में
अक्सर दिखते
रहते थे। इसे
उनकी बैचेनी
थोड़ी और बढ़ी
स्वप्न में ही
मानों उन्हें
कोई संकेत सा
प्राप्त हुआ।
उनसे
स्वप्न में
ही मैंने पूछा, ‘‘विरक्त
होना जीवन की
बड़ी ही पवित्र
और सच्ची घटना
है, किन्तु
मुझे विरक्ति
क्यों नहीं
होती? इसका
क्या कारण है?
उन्होंने
मेरा हाथ उनको
स्पष्ट बताने
का आदेश दिया।
एक रखा की और
संकेत कर कहा 'यही तो
भाग्य रेखा है।
मणिबंध से
सीधी यह गुरू
पर्वत पर जाती
है यही तो
तेरी वैराग्य
रेखा है।
तुम्हें
वैराग्य
अवश्य
प्राप्त होगा।’
इस पर
स्वप्न में ही
मैंने उनसे
प्रश्न किया लेकिन
यह विरक्ति प्राप्त
होगी कब? संसार
की सारी ही
वस्तुएं मुझे
तो इतनी सुंदर
लगती है। ये
झाडू, पेड़
लता, सुंदर—सुंदर
स्त्री—पुरूष,
सुंदर
वस्त्र सब कुछ
मुझे आसक्त
करते हैं, मुझे
लुभाते हैं।
फिर इस लंबी
चौड़ी आसक्ति
के मायाजाल से
मैं कब
छूटूंगी? संसार
की प्रत्येक
वस्तु मुझे
अच्छी लगती है।''
बीच में ही
टोक कर मैंने
उनसे प्रश्न
किया—''मा
क्या ये
प्रश्न आपको
चौदह वर्ष की
उम्र में अर्थात्
विवाह होने के
पश्चात के
दिनों से ही आने
शुरू हो गये
थे?''
मां
अतीत में
पूर्ण रूप से
निमज्जित हो
चुकी थी फिर
भी मेरी
उपस्थिति का
उन्हें भान भी
बराबर था।’’हां ये सब
उन्हीं दिनों
की बातें हैं।
विवाह हुआ तो
ये प्रश्न
मुझे और अधिएक
बैचैन करने
लगे और फिर एक
दिन आनंद
ऋषिजी महाराज
ने स्वप्न में
मुझे दर्शन
दिया और कहा 'जब तुम्हारा
बेटा तुम्हें
मिलेगा तब
तुम्हें वह सब
मिल जायेगा जिसकी
तुम्हें
प्यास है' और
मेरे जीवन की
बेचैनी दिनों—दिन
और भी बढ़ती गई।
कब मिलेगा
मुझे मेरा
बैटा? कैसा
होगा वह? ऐसे
अनगिनत
प्रश्नों के भंवर
में, सदा
मैं डूबती
उतराती रहती
थी।'' मैंने
भावना के
तूफान में
घिरी मा की
भंगिमाओं को
देख लिया था
और मौके को
हाथ से न जाने
देकर बहुत देर
से उमड़ते—घुमड़ते
प्रश्न को
मैंने उनके
सामने
प्रस्तुत कर
दिया.।’’भगवान
रजनीश से आपका
प्रथम
साक्षात्कार
कब और कहां
हुआ था?'' मा
के सामने
अट्ठाईस वर्ष
का सारा अतीत,
वर्तमान बन
गया। चित्रपट
पर उतरती सारी
चित्रलिपि को
वे शब्दबद्ध
कर बताने को
उत्सुक हो गई।
''वर्धा
में बजाजवाडी
में हमारा
प्रथम परिचय
रजनीश से हुआ।
आखेल भारतीय
जैन महामंडल
के अधिवेशन
मैं ही चिरंजी
लाल जी
बड़जात्या की
पैंसठवीं
वर्षगांठ
मनाने का
आयोजन हुआ था।
यह महामंडल थोड़ा
उदाग्वादी
विचारधारा को
लेकर चलता था।
जिसमें
श्वेताम्बर
तेरापंथी आदि सभी
जैनियों की शाखाएं—प्रशाखाएं
सभी सम्मिलित
थी।
जमनालालजी
वजाज के ही
चिरंजीलाल जी बड़जात्या
मुनीम थे और जैन
समाज की
सुधारवादी
विचारधारा को आगे
बढ़ाने का कार्य
करने में सदा
तत्पर रहते थे।
ऐसे समाज
सुधारक
व्यक्ति की वर्षगांठ
मनाने के संदर्भ
मैं कई उदार
विचार धारा वाले
व्यक्तियां
के साथ मुझे
भी निमंत्रित
गया था। जैन समाज
की विभिन्न
शाखाओं के सभी
सामाजिक
कार्यकर्ताओं
को निमंत्रण
दिया गया था।
मैं भी उन
दिनों चांदा
में एक बालसेवा
समति नाम से
बच्चों का अनाथआल्य
चलाती थी। दो
तीन माह के
बच्चों से
लेकर बडे—बड़े
बच्चों तक
करीबन सत्तर—अस्सी
बच्चे उन दिनों
वहां मेरी देख—रेख
में थे। सो सामाजिक
कार्यकर्ता
के रूप में
मुझे भी वहां बुलाया
गया था। इस
अवसर पर कोई
जैन हो या
अन्य
धर्मावलम्बी
किसी भी ऐसे व्यक्ति
को निमंत्रण दिया
था जो सामाजिक
सेवा कार्य
में तल्लीन हो।
ऐसे कई सामाजिक
कार्य कर्ता भी
वहां
सम्मिलित
किये गये थे।
यह उत्सव
कार्यक्रम
वैसे तो एक ही
दिन का था किंतु
नाना प्रकार के
कार्यक्रमों
के कारण तीन
दिनों तक चलता
रहा था।'' इस
सब बातों की
चर्चा करते—करते
मेरा उदेश्य
किसी न किसी
बहाने बातचीत
को भगवान की और
ही मोडने का
रहता था।
इसलिए बीच में
ही मैंने उनसे
प्रश्न कर
दिया।’’इस
आयोजन में
क्या भगवान
रजनीश को भी
आमंत्रित
किया था? उन्हें
आमंत्रण देने
के पीछे
संस्था का
उद्देश्य
क्या था?'' इन
प्रश्नों के
प्रत्युत्तर
में मा ने कहा— ‘‘चि. रजनीश को
वहां उनके
प्रवचन के
संदर्भ में ही
निमंत्रित
किया गया था।
मेरा तब तक
उनसे कोई
परिचय भी नहीं
था। इसलिए
मुझे तो यह
लात ही नहीं
था कि रजनीश कोन
है? वहां
एक दो दिन
रहने के
पश्चात ही
मुझे मालूम
पड़ा था कि
महाकोशल
महाविद्यालय
जबलपुर के
दर्शनशास्त्र
के प्रोफेसर
को भी भाषण
देने बुलाया
गया था। अपने
विचारों को एक
अनूठे रूप में
लोगों के सामने
प्रस्तुत करने
के संदर्भ में
ही वहां
उन्हें विशेष तोर
से निमंत्रण
दिया था।
मैंने स्वयं मा
को निमंत्रित
करने का
उद्देश्य भी
जानना चाहा.....।’’
हां, और
आपको
निमंत्रित
करने का उस
संस्था का
क्या उद्देश्य
रहा था?''
इस पर मा
की शात सौम्य आंखें
मेरी और उठीं
और उन्होंने
कहा— ‘‘उत्सव
में कुछ
भाषणों के बाद
काव्य पाठ' का भी आयोजन
था। मैं एक सामाजिक
कार्यकर्त्री
तो थी ही। लोग—बाग
भाषण के लिए
कभी—कभी
निमंत्रित कर
लिया करते थे।
किन्तु उस
आयोजन में
वहां
कवियत्री के
रूप में
काव्यपाठ
करने का मुझे
निमंत्रण
मिला था।
मुख्य भाषण का
कार्यक्रम चि.
रजनीश का ही
था। चांदा से
मेरे आने के
एक दिन पहले
ही वे वर्धा
पहुच गए थे।
जिस दिन मैं
वहां पहुंची
थी उसी दिन
उनका भी भाषण
था और शाम को
कविता पाठ का
कार्यक्रम भी।
उसी रात को
रजनीश का भाषण
हुआ और वे
तुरन्त ही जबलपुर
लौट गए। कॉलेज
में प्रोफेसर
होने से उन्हें
छुट्टियों की
बड़ी दिक्कत
होती थी।
छुट्टी अधिक न
होने के कारण
उसी दिन वे
जबलपुर लौट गए
थे।’’
मेरा
मन चातक बना
स्मृतियों के
उन सांवरे सलोने
मेघों की बाट
देख रहा था जब
कि भगवान के
सर्वप्रथम
साक्षात्कार
की अमृतमयी
फुहारों की और
चर्चा मुड़े।
एक आकंठ प्यास
से मानों गला
सूखता सा
अनुभव कर रहा
था। मा के
चेहरे का
निर्विकार
रूप मुझे कहीं
भी कुछ सन्धि
या ऐसा अवसर
देने को
उत्सुक नहीं
था। मानो वे
भी मेरे धैर्य
की परीक्षा ही
ले रही थी।
अपनी और से
कुछ भी बताने
में उनकी इस
समय उत्सुकता
नहीं दिख रही
थी। लेकिन
मुझे भगवान द्वारा
मा को लिखे
गये पत्रों की
एक पंक्ति
अचानक स्मरण
हो आई जहां
उन्होंने कभी
कहीं लिखा था
कि, ‘‘किसी
भी वस्तु की
प्राप्ति की
इच्छा होने पर
कभी—कभी उसे
स्नेह की डोर
में बांधकर
छीन भी लेना पड़ता
है’‘ और तब
मेरा भी बालक
मन मा के
सामने हठ सा
कर बैठा।
मैंने कहा— ‘‘मा, जब
आपका
सर्वप्रथम
साक्षात्कार
हुआ उनसे, तो
मिलकर क्या
महसूस हुआ
आपको?''
मां
शायद अभी भी
मेरी प्यास को
और भी बढ़ा
देने में
उत्सुक दिखीं।
उन्होंने उस
प्रथम दर्शन
की बात को अभी
भी सीधे—सीधे
कह देने में
ठीक अनुभव
नहीं किया। वे
उस क्षण को
थोड़ा
रहस्यपूर्ण
और रोमांचित
बनाकर मुझे
बताने में लीन
दिखीं।
उन्होंने
मेरे दौनों
हाथों का
स्पर्श कर मानो
ध्यान की कोई
विशेष भाव दशा
में मुझे
उतारना चाहा
और उन्होंने
अपनी बड़ी—बड़ी
पलकों को
उठाकर सीधे
मेरी आंखों
में झांक कर
कहना शुरू कर
दिया— ‘‘विकल।
उनसे मिलने के
पहले वाले कुछ
अन्य संदर्भ
मैं तुम्हें
पहले बता दूं।
जब तक मैं चि.
रजनीश से नहीं
मिली थी। उसके
पहले की मेरी
अवस्था के
बारे में
तुम्हें
बताना जरूरी
लग रहा है।
मैं बहुत
बेचैन रहती थी।
जैसा कि विकल,
मैंने
तुम्हें इसके पहले
भी कहा था कि
मेरी आत्मा
विरक्ति के
लिए छटपटाती
थी। भीतर ही
भीतर मैंने
अपने मनु में
जो विरक्ति की
परिभाषा पढ़, सुन कर बना
रखी थी, उसके
'कम्पेरीजन'
में उसकी
तुलना में, तो मैं बहुत
अधिक आसक्त थी
तब तक।’’ बीच—बीच
में एकाध
अंग्रेजी का
शब्द मा की
बातों के— दौरान
आ जाता था।
यही उनकी भाषा
की सहजता थी।
‘‘रूढ़िवादी
और
परम्परावादी
व्याख्याओं
की दृष्टि से
और भी कई
परिभाषाएँ जो
युगों—युगों
से चली आ रही
थी और
उन्होंने
मेरे मन को जकड़
लिया था उन
सभी की दृष्टि
से तो, मैं
यही समझती थी
कि मेरा जीवन
बेकार है, व्यर्थ
हैं।’’
‘‘विरक्ति
की पढ़ी हुई
व्याख्या से
तो मेरी मनःस्थिति
मुझे बड़ी ही
आसक्त लगती थी।
यदि विरक्ति
मुझे नहीं
मिलती है तो
मेरा जीवन
निरर्थक है, बेकार है, व्यर्थ है
तब। बार—बार
मेरा मन मुझे
कोसता रहता था।
लेकिन फिर भी
किसी ऐसी 'स्टेज'
पर मैं नहीं
पहुंच पाई जिस
स्थिति को मैं
विरक्ति के लिए
निर्धारित कर
पाऊं। पाखंड
भी नहीं कर
सकती थी मैं।
क्योंकि यह
अवस्था तो खुद
के मन की होती है।
ऊपरी तोर पर
किसी को बताने
की तो ये बात
ही नहीं है। जब
तक मेरी अंतरात्मा
उस विरक्ति की
अनुभूति
स्वयं न पा
सके तब तक मैं कैसे
स्वयं के मन को
झूठी तस्सली दे
सकता थी भला?''
और अब मां
के ह्रदय में उठने
वाली अतीत की आंधी
को में उनकी
वाणी एवं
चेहरे के हावभवों
मैं देख रहा था।’’ ‘’अंतर
से छूटना
चाहिए था ये
सब आकर्षण।
जिनको समाज बड़े--बड़े
साधु, संन्यासी,
मुनि कहते
रहते हैं। ऐसे
सेकड़ों सत्पुरूषों
से मिली थी
मैं। मेरे मन की
दशा को जानने
के लिए मैं
कितना भटकी थी।
जिन—जिन
महापुरूषों
ने भी
सांसारिक आकर्षण
छोड़ दिये थे
उनसे मिलने के
लिए मेरी आकुल
आत्मा झट बहा
दौड़ पड़ती थी।
किसी ने
माया छोड़ने की
सलाह देकर
विरक्ति को
पाने का मार्ग
बताया। तो
किसी ने जाप का
सहारा लेने का
आदेश दिया। तो
किसी ने कुछ
और ही राह
दिखाई। जो
विरक्त कहलाते
थे ऐसे तथाकथित
साधुओं से
अपने मन की
थाह लेने मैं
सचमुच खूब
भटकी थी।’’
इधर मां
अपनी आत्मा की
प्यास की दशा
का वर्णन कर
अतीत की
गहराईयों में
खोती जा रही थी।
और इधर मन
भगवान से
प्रथम
साक्षात्कार
की उस अनुभूति
को 'रजनीश—टाइम्स'
के पाठकों
से कहने की
प्यास समेटे
बार—बार घूमा—फिराकर
मां को उस
प्रथम दर्शन
के करीब लाने
की कोशिश करता।
एक खिली हुई
प्रतीक्षा
मेरे प्राणों
में थिरक उठी।
मैंने पूछा— ‘‘इसी विरक्ति
के प्रश्न को
लेकर, इसी
उद्देश्य को
महत्वपूर्ण
बनाकर शायद आप
भगवान से मिली
थी?''
(धारा
प्रवाह अगले अध्याय
में)
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