अवधूत का अर्थ परंपरा का झूठ परख-बुद्धि प्रेम का त्याग आंसू की
भाषा
अशांति का स्वीकार पारलौकिक प्रेम
दसवां प्रवचन
श्री रजनीश आश्रम, पूना प्रातः दिनांक २० मई
१९७७
प्रश्न-सार
1--अवधूत का क्या अर्थ है?
2--मलूकदास भक्त हो कर भी मूर्तिपूजा का मजाक क्यों उड़ाते हैं?
3--कन थोरे कांकर घने की परख-बुद्धि कैसे पायें?
4--प्रेम और त्याग में किसका महत्व बढ़कर है?
5--आपसे कैसे कहूं दिल की बात? आपको कैसे धन्यवाद दूं? आंसू बहते हैं!
6--जीवन में कोई अभिलाषा पूरी नहीं हुई; विषाद में डूबा हूं; अब मन कैसे शांत हो?
7--दूर जा रही हूं--पता नहीं कब आपके दर्शन हों! आशीष दें।
पहला प्रश्न: आपने बाबा मलूकदास को अवधूत कहा। अवधूत का क्या अर्थ
है?
अवधूत
बड़ा महत्वपूर्ण शब्द है। अर्थ ऐसा है:
अ का
अर्थ है--अक्षरत्व को उपलब्ध कर लेना; जो कभी मिटे नहीं; जो सदा है।
क्षण-भंगुर
है संसार--अक्षर है परमात्मा। क्षण-भंगुर को छोड़कर शाश्वत की डोर पकड़ लेनी। शाश्वत
का आंचल जिसके हाथ में आ गया, वही
अवधूत। यह अवधूत के अ का अर्थ है।
हम तो
पकड़े हैं--पानी के बुदबुदों को; पकड़ भी
नहीं पाते कि फूट जाते हैं। हम तो दौड़ते हैं मृग-मरीचिका के पीछे। बार-बार हारते
हैं, फिर-फिर उठते हैं, फिर-फिर दौड़ते हैं। हम अपनी
हारों से कुछ सीखते नहीं। क्षण-भंगुर का भ्रम हम पर बहुत गहरा है।
माया
से जो जागे--क्षण की माया से जो जागे, वही अवधूत। यह पहला अर्थ। व का अर्थ है जो
वरण करे अक्षर को--बात ही न करे। जो अक्षर को सोचे ही नहीं--जिये। जो अमृत को
चिन्मय में नहीं--जीवन में जाने। जिसकी श्वास-श्वास में अक्षर का वरण हो जाए।
पंडित न बन जाए,
प्रज्ञावान
बने।
यह
दूसरों की उधार बात न हो--कि अक्षर है। यह अपना निज अनुभव हो; यह स्व-अनुभूति हो।
परमात्मा
की बात तो बहुत करते हैं लोग; परमात्मा
पर किताबें लिखी जाती हैं, लेकिन
जो बड़ी बड़ी किताबें भी लिखते हैं परमात्मा पर, उनके जीवन में भी खोज कर परमात्मा की किरण
शायद ही मिले।
परमात्मा
का सिद्धांत मनोरम है, और उस
सिद्धांत में बड़ी सुविधाएं हैं, और उस
सिद्धांत को फैलाने के लिए काफी उपाय हैं। लेकिन अनुभव? अनुभव महंगी बात है; सिद्धांत सस्ती बात है।
परमात्मा
को वरण तो वही करे, जो
अपने को मिटाने को राजी हो। कहा कबीर ने--घर फूंकै जो आपना, चलै हमारे साथ। जिसकी तैयारी
हो, आपने को राख कर लेने की, वही उसे वरण करे। उसके वरण
करने में अहंकार का त्याग समाविष्ट है। छोड़ोगे अपने को, तो उसे पा सकोगे।
इसलिए
अवधूत का दूसरा अर्थ है: अक्षर की बात ही न करे, अक्षर जिसके रोयें-रोयें में, श्वास-श्वास में समाया हो; अक्षर जिसकी सुगंध हो गया हो, जिसके जीवन का छंद हो गया हो।
और धू
का अर्थ है: संसार को धूल समझे, असार
समझे, ना-कुछ समझे। और यह समझ
ऊपर-ऊपर न हो। यह समझ ऐसी न हो कि समझे तो ऊपर-ऊपर कि धूल है और भीतर-भीतर धूल को
पकड़े। यह समझ वस्तुतः हो। यह परिधि से लेकर केंद्र तक फैल जाए। यह प्राणों के
प्राण में समाविष्ट हो जाए। यह समझ जागने में रहे; उठने-बैठने में रहे; मंदिर में रहे, बाजार में रहे; हर घड़ी रहे। यह तुम्हारी छाया
की तरह हो जाए--कि संसार धूल है। यह अवधूत का तीसरा अर्थ है। और स्वभावतः जो
जानेगा कि परमात्मा सत्य है, वह जान
ही लेगा कि संसार धूल है। ये दोनों बातें एक साथ घटती हैं। ये एक ही सिक्के के दो
पहलू हैं।
तो
संसार को धूल समझे--वह अवधूत।
और
चौथा अर्थ है: तत्वमसि; त का
अर्थ है--तत्वमकस। जो ऐसा ही न समझे कि मैंने परमात्मा को जाना, जो ऐसा ही न समझे कि मैं
परमात्मा को जीता हूं, जो ऐसा
ही न समझे कि मैं परमात्मा हूं, बल्कि
समझे कि सभी--प्रत्येक परमात्मा है। जो प्रत्येक को कह सके कि तुम भी वही हो।
नहीं
तो परमात्मा का अनुभव भी बड़ा अहंकार का आधार बन सकता है। मैं कहूं कि मैं परमात्मा
हूं, तुम परमात्मा नहीं हो, तो यह खबर होगी कि मैं अवधूत
नहीं। जो कहे: मैं परमात्मा हूं और दूसरा परमात्मा नहीं, उसे कुछ भी नहीं दिखा; उसकी आंखें अंधी हैं; उसके कान बहरे हैं। उसने न
सुना है,
न देखा
है। उसने परमात्मा के सहारे अपने अहंकार की यात्रा शुरू कर दी है।
तो
अवधूत का चौथा अर्थ है--तत्वमसि --तुम भी वही हो। और तुममें--ध्यान रहे--सब
समाविष्ट है;
पत्थर-पहाड़, वृक्ष-पौधे-पक्षी, स्त्री-पुरुष सब समाविष्ट है।
यह जो त्वम् है,
यह जो
तू है,
इस तू
में मुझसे अतिरिक्त सब समाविष्ट है। यह जो त्वम् है, यह जो तू है, इस तू में मुझसे अतिरिक्त सब
समाविष्ट है।
तो मैं
परमात्मा हूं--ऐसा जो जाने और साथ ही ऐसा भी जाने कि परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ
भी नहीं है--ऐसी चित्त-दशा का नाम है अवधूत। यह शब्द बड़ा प्यारा है।
दूसरा प्रश्न: बाबा मलूकदास भक्त है और मूर्तिपूजा का मजाक उड़ाते
हैं। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि भक्ति परंपरा ने ही मूर्तिपूजा को सर्वाधिक
प्रतिष्ठा दी है?
परंपरा
ने दी है--भक्तों ने नहीं। और परंपरा धर्म नहीं है। परंपरा तो, जहां से धर्म गुजर गया, वहां धूल पर पड़े चरण-चिन्हों
का नाम है। जहां से धर्म कभी गुजरा था, वहां लकीरें छूट गई हैं, उन लकीरों का नाम परंपरा है।
हम चल
कर आए,
रास्ते
पर तुम्हारे चरण-चिन्ह छूट गए। वे चरण-चिन्ह तुम बही हो। तुम तो दूर, तुम्हारे चरण-चिन्ह में
तुम्हारा जूता भी नहीं है--जिसके कि चिन्ह बने हैं; वह भी चला आया है। खाली धूल
पर पड़े निशान रह गए हैं, उन
निशानों से परंपरा बनती है। चरण-चिन्हों से परंपरा बनती है।
धर्म
तो जीवंत घटना है। धर्म तो सदा वर्तमान में है। धर्म का कोई अतीत नहीं है और धर्म
का कोई भविष्य नहीं है। धर्म तो अभी है--यहां है।
मलूकदास
जब जीवित है,
तब
धर्म है। जब मलूकदास जा चुके और उनके चरण-चिन्हों की लोग पूजा करने लगे--तब परंपरा
है।
परंपरा
धर्म-विरोधी होती है। धर्म की कोई परंपरा हो ही नहीं सकती। क्योंकि धर्म और परंपरा
विपरीत घटनाएं हैं। परंपरा होती मृत की और धर्म है सदा जीवंत। जीवंत की कैसे
परंपरा होगी?
धर्म
है--सदा उपस्थित और परंपरा उसकी होती है, जो कभी था उपस्थित और जा चुका।
कठिनाई
ऐसी है कि जैसे दीया जलता हो, और फिर
दीया बुझ जाए। और फिर तुम बुझे दीए की पूजा करते रहो। जलता दीया तो बाबा मलूकदास; बुझा दीया--परंपरा।
अब तुम
बुझे दीए की पूजा करते रहो।
ऐसा
समझो कि बाबा मलूकदास को तुमने जलते दीए के आसपास नाचते देखा। तुम्हें तो ज्योति
दिखाई नहीं पड़ती दीए की, क्योंकि
तुम अंधे हो। तुम तो टटोल कर देखते हो, तो तुम्हें दीया पकड़ में आता है; ज्योति तो पकड़ में आती नहीं।
ज्योति को तो आंख से ही देखने का उपाय है। और तुम्हारी आंख भीतर की बंद है और यह
भीतर की ज्योति की बात हो रही है।
तो तुम
टटोल कर देख लेते हो कि बाबा मलूकदास किसलिए नाच रहे हैं; क्या मामला है; किस चीज के आसपास नाच रहे हैं? दीया पकड़ में आता है। फिर
बाबा मलूकदास चले गए, अब तुम
दीए के आसपास नाच रहे हो।
एक
शराबी रात देर से घर लौटा। रास्ते में बड़ी झंझटें आईं। दीवालों से टकरा गया; चलते लोगों से टकरा गया; राह पर खड़े भैंस-बैलों से
टकरा गया। बार-बार उसने अपनी लालटेन उठा कर देखी; उसने कहा: बात क्या है! साथ
में लालटेन लिए है। फिर एक नाली में गिर पड़ा--अपनी लालटेन सहित; कोई उसे उठाकर उसके घर पहुंचा
गया।
दूसरे
दिन सुबह बैठा है: कुछ-कुछ धुंधली-धुंधली याद आ रही है रात की। सिर में भी चोट है; पैर में भी चोट है। वह सोच
रहा है कि मामला क्या हुआ! लालटेन मेरे हाथ में थी, मैं इतना टकराया क्या? और तभी शराबघर का मालिक आया
और उसने कहा कि भई, यह
तुम्हारा लालटेन लो। तुम कल शराबघर में छोड़ आए थे। तुम मेरा तोते का पिंजड़ा उठा
लाए। मेरा तोते का पिंजड़ा कहां है?
अब
शराबी आदमी;
बेहोशी
में हो गया। लालटेन जैसा ही जंचा होगा--तोते का पिंजड़ा। पकड़ने में भी लालटेन जैसा
मालूम पड़ा होगा। चल पड़ा!
बेहोशी
में तुम जो पकड़ लेते हो, उससे
बनती है परंपरा। होश में तुम जो जानते हो, वह है धर्म।
धर्म
की कोई परंपरा नहीं होती। परंपरा में कोई धर्म नहीं होता। इसलिए हिंदू को मैं
धार्मिक नहीं कहता? मुसलमान
को धार्मिक नहीं कहता। ईसाई को, जैन को
धार्मिक नहीं कहता। धर्म का इनसे क्या संबंध! ये तो तोते के पिंजड़े हैं।
महावीर
के हाथ में लालटेन थी; जैन के
हाथ में तोते का पिंजड़ा है। कृष्ण के हाथ में लालटेन थी; हिंदू के हाथ में तोते का
पिंजड़ा है। अब तुम तोते के पिंजड़े की कितनी ही पूजा करो; लाख नाचो गीत गाओ; तोते का पिंजड़ा, तोते का पिंजड़ा है; उससे प्रकाश नहीं मिल सकता।
उसमें प्रकाश नहीं है।
ऐसा
हुआ: सूफी फकीर बायजीद किसी गांव से गुजरता था। अनूठा फकीर था बायजीद। उसने देखा
कि उसके पीछे ही उसके चरण-चिन्हों पर--ठीक चरण-चिन्हों पर पैर रखता हुआ एक युवक
चला आ रहा है। इधर-उधर पैर नहीं रखता! जहां-जहां बायजीद के चरण पड़ते हैं, वहीं पैर रखता है। बायजीद
बाएं मुड़ता,
तो वह
बायें मुड़ता है,
बायजीद
दाएं मुड़ता है,
तो वह
दाएं मुड़ता है। थोड़ा उसका मजा लेने के लिए बायजीद काफी गोल-गोल चलने लगा। मगर वह
युवक भी धुन का पक्का है। वह ठीक पीछे लगा है--छाया की तरह। वह ठीक चरण-चिन्हों पर
ही पैर रखता है!
अंत
में उसने बायजीद से कहा कि देखते हैं, आपके चरण-चिन्हों पर चल रहा हूं; बड़ आनंद मिला। आपके सत्संग से
बड़ा रस आया। अब एक काम करें; आपके
कपड़े का एक टुकड़ा मुझे फाड़ कर दे दें, उसकी मैं ताबीज बना लूंगा।
बहुत
से देशों में ऐसा खयाल है कि संत के कपड़े का टुकड़ा मिल जाए, तो ताबीज बन जाएगा। संत मिलने
को तैयार है,
तुम
कपड़ा ही मांग कर आ जाते हो! जहां हीरे मिल सकते थे, वहां तुम कौड़ी मांग कर आ जाते
हो। तुम बड़े दया योग्य हो।
अब यह
बायजीद के पास पहुंच गया है। बायजीद से तो जो मिल सकता है इस जीवन में, वह सब मिल सकता था; मगर यह मांग रहा है कपड़े का
एक टुकड़ा--कि एक कपड़े का टुकड़ा दे दो। बायजीद ने कहा कि सुन, तू कपड़े का टुकड़ा क्या, अगर मेरे चमड़े का टुकड़ा भी ले
जाए, तो भी ताबीज न बनेगा। बदबू
आएगी उस ताबीज में। मेरे चमड़े के टुकड़े से मेरा क्या संबंध। मेरा संबंध नहीं मेरे
चमड़े से,
तो
मेरे कपड़े से तो मेरा क्या संबंध है! पागल हुआ है?
लेकिन
यह युवक जिद्द पर अड़ा रहा। उसने कहा: नहीं; आपका आशीर्वाद तो चाहिए ही। बायजीद ने कहा:
मेरा आशीर्वाद चाहिए हो तो मेरी सुन। मैं जो कहता हूं, उसको सुन। मेरा आशीर्वाद
चाहिए हो,
तो
मेरे पैरों के चिन्हों पर चलने से कुछ न होगा; मैं जिस दिशा में इशारे कर रहा हूं, उस दिशा में आंखें उठा। मेरा
आशीर्वाद चाहिए,
तो कुछ
मुझ जैसा बन। नकल करने से कुछ भी न होगा।
हम
कार्बन कापियां बन गए हैं। हमारा मूल स्वर खो ही गया है।
परंपरा
का अर्थ होता है--प्रतिलिपि। प्रतिलिपि का कोई मूल्य नहीं है। मूल्य तो मूल का है।
धर्म जब भी होता है जगत में, तब
किसी व्यक्ति के हृदय में झरने की तरह बहता है। हां, बुद्ध होते हैं, तो होता है। महावीर होते हैं, तो होता है जीसस होते हैं, तो होता है। नानक होते हैं, तो होता है। मूलक, फरीद...।
जब कोई
व्यक्ति जीवितरूप से परमात्मा को अपने भीतर जीता है, तो धर्म होता है। फिर वह आदमी
तो चला जाता है;
फिर
लकीर पीटने वाले आते हैं और अकसर ये लकीर पीटने वाले बड़े कुशल लोग होते हैं--पंडित, पुरोहित। ये बड़ा शब्दों का
जाल बिछाते हैं। ये बड़े सिद्धांत और तर्क फैलाते हैं। असली बात तो जा चुकी; अब बात में से बात निकालते
रहते हैं। हाथ में तो कुछ भी न रहा; राख रह गई। लेकिन राख के आधार पर सोचते रहते
हैं कि जहां-जहां राख है, वहां-वहां
अंगारा भी होगा। जहां-जहां धुआं है, वहां-वहां आग भी होगी। इस तरह के हिसाब
लगाते रहते हैं।
धर्म
परंपरा है;
धर्म
संस्कार नहीं है।
तो यह
बात ठीक है कि मलूकदास भक्त है और मूर्तिपूजा का मजाक उड़ाते हैं। सिर्फ भक्त ही उड?ा सकता है। सिर्फ भक्त में ही
इतनी हिम्मत हो सकती है। क्योंकि जिसने परमात्मा को जाना है, वह मूर्ति से थोड़े ही डरेगा।
वह मूर्ति को उठाकर फेंक देगा।
तुम
डरते हो मूर्ति से, क्योंकि
तुम्हें भय लगता है कि कहीं परमात्मा नाराज न हो जाए। परमात्मा को तो तुम जानते
नहीं; इसी मूर्ति को जाना है बचपन
से। तुम घबड़ाते हो कि कहीं मूर्ति नाराज न हो जाए। मूर्ति क्या खाक नाराज होगी!
झेन
फकीर इक्कू एक मंदिर में ठहरा। रात सर्द है और उसने उठा कर बुद्ध की एक लकड़ी की
प्रतिमा जला ली। और ताप ली। आधी रात मंदिर में आग जलती देख कर मंदिर का पुजारी
घबड़ाया हुआ आया,
भागा
हुआ आया और उसने कहा: तुम पागल हो! तुम यह क्या कर रहे हो? मैंने तो तुम्हें फकीर जान कर
मंदिर में रात ठहरा लिया। यह तुमने क्या किया--बहुमूल्य मूर्ति जला दी-- भगवान की
मूर्ति जला दी! इसका पाप बड़ा होगा। इसका प्रायश्चित्त भुगतना पड़ेगा। वह पुजारी तो थर-थर
कांप रहा है।
सोच
सकते हो तुम: तुमने जिसको भगवान माना हो, उसको कोई जला कर ताप रहा हो। तुम्हारे कृष्ण
जी को कोई जला कर ताप रहा हो; कि
तुम्हारे राम जी को कोई जला कर ताप रहा हो। तुमने तो बड़ी साज-संवार की राम जी की।
जब जरूरत थी भोजन की--भोजन दिया। जब नींद की जरूरत थी, तब लिटा दिया; कपड़े बदले। पट लगा दिए कि अभी
राम जी सो रहे हैं; अभी
कोई बाधा न डालो। और यह नासमझ राम जी को जलाए बैठा है!
पुजारी
तो थर-थर कांप रहा है। सर्द रात है, लेकिन उसके माथे से पसीना चू रहा है। वह कह
रहा है कि मेरी भी भूल हो गई कि तुम्हें मैंने ठहराया। तुम्हारे इस पाप में मैं भी
भागीदार हो गया। यह महापाप है।
इक्कू
हंसता है। और एक लकड़ी उठा कर जो बुद्ध की मूर्ति जल गई है, अब सिर्फ राख रह गई है, उस राख में कुरेदता है। वह
पुरोहित पूछता है: क्या कर रहे हो अब यह? वह कहता है: मैं जरा भगवान की अस्थियां खोज
रहा हूं। अस्थियां? वह
पुरोहित कहता है: तुम बिलकुल पागल हो। अरे, लकड़ी की मूर्ति में कहां अस्थियां? तो इक्कू कहता है: फिर तुम भी
जानते हो कि लकड़ी की मूर्ति है। अस्थियां नहीं तो भगवान कहां? अभी रात बहुत बाकी है और
तुम्हारे मंदिर में बहुत मूर्तियां हैं, दो एक और उठा लाओ। मैं तापता हूं, तुम भी तापो।
यह
इक्कू की ही हिम्मत हो सकती है। यह जो भगवान को जानता है, यह जो बुद्ध को जानता है, आमने-सामने पहचानता है। जिसका
साक्षात्कार हुआ है, यह
डरेगा--लकड़ी-पत्थर से? यह
भयभीत होगा?
यह
प्रश्न ही नहीं उठता।
हम
भयभीत होते हैं,
क्योंकि
हमें असली का तो परिचय नहीं; नकली
भी हमें डराता है। सच तो यह है कि असली से हम डरते ही नहीं; नकली से ही डरते हैं। असली से
तो हमारी मुलाकात ही नहीं। अगर भगवान तुम्हारे सामने आकर खड़ा हो जाए, तुम उससे न डरोगे; पक्का मानो, तुम न डरोगे। क्योंकि तुम उसे
पहचानोगे ही नहीं। न तो वह होगा--धनुर्धारी राम जैसा। न होगा वह --मोरमुकुट बांधे
कृष्ण जैसा। तुम उसे पहचानोगे ही नहीं। तुम तो धक्का देकर उसको अलग कर दोगे--कि
रास्ता छोड़ो,
कहां
बीच में खड़े हो!
तुम तो
उनको पहचानोगे,
जो
तुम्हारे झूठ हैं,
प्रचलित
झूठ है।
मैं यह
नहीं कह रहा हूं कि राम में भगवान नहीं हैं। राम में भगवान कभी झलके थे। उस दीए
में ज्योति कभी झलकी थी। जो राम के पास थे, उन्होंने झलक देखी होगी। जिनके पास आंख थी, उन्होंने पहचान लिया होगा।
अंधे तो इनकार करते रहे तब भी-- कि अरे, इसमें क्या राख है? दशरथ का बेटा है।
कृष्ण
में कभी भगवान झलके थे, कभी वह
परम ज्योति,
परात्पर
ज्योति उतरी थी उस दीए में; वह
मिट्टी धन्य हुई थी। कृष्ण तो मिट्टी हैं, लेकिन उस मिट्टी में कभी परमात्मा की सुगंध
आई थी। जिनके पास नासापुट थे, जिनके
पास थोड़ा होश था,
वे मगन
होकर नाचे थे। लेकिन दूसरों ने तो समझा था--यह कपटी, राजनीतिज्ञ, उपद्रवी। फिर वह ज्योति विदा
हो गई। दीया पड़ा रह गया।
मिट्टी
ही पड़ी रह जाती है यहां, फिर हम
मिट्टी की पूजा करते रहते हैं। हम मिट्टी के मजार बना लेते हैं। फिर मजारों पर हम
दीए जलाते रहते हैं। हजारों साल बीत जाते हैं, चरण-चिन्हों की पूजा करते रहते हैं।
मैंने
सुना है कि राम जब युद्ध विजय के बाद अयोध्या लौटे, राजगद्दी पर बैठे, तो उन्होंने एक बड़ा दरबार
किया और सभी को पदवियां दी, पुरस्कार
बांटे,
जिन-जिन
ने भी युद्ध में साथ दिया था। लेकिन हनुमान को कुछ भी न दिया और हनुमान की सेवाएं
सबसे ज्यादा थी।
सीता
बड़े पसोपेश में पड़ी। वह कुछ समझ न पाई कि यह चूक कैसी हुई! छोटे-मोटों को भी मिल
गया पुरस्कार। पद मिले, आभूषण
मिले, बहुमूल्य हीरे मिले, राज्य मिले। हनुमान --जिनकी
सेवाएं सबसे ज्यादा थीं, उनकी
बात ही न उठी। वे कहीं आए ही नहीं बीच में। राम भूल गए! यह तो हो नहीं सकता। राम
को याद दिलाई जाए,
यह भी
सीता को ठीक न लगा। याद दिलाने का तो मतलब होगा: शिकायत हो गई। तो उसने एक तरकीब
की--कि कहीं हनुमान को बुरा न लगे, इसलिए उसने हनुमान को चुपचाप बुला कर अपने
गले का मोतियों का बहुमूल्य हार उन्हें पहना दिया। और कहते हैं: हनुमान ने हार
देखा, तो उसमें से एक-एक दाना मोती
का तोड़त्तोड़ कर फेंकने लगे। सीता ने कहा: मूर्ख बंदर, अब मैं समझी कि राम ने तुझे
क्यों कोई उपहार न दिया। यह तू क्या कर रहा है? ये बहुमूल्य मोती है। ये मिलने वाले मोती
नहीं हैं,
साधारण
मोती नहीं हैं। हजारों साल में इस तरह के मोती इकट्ठे किए जाते हैं, तब यह हार बना है। ये सब मोती
बेजोड़ हैं। यह अमूल्य हार पहनने के लिए है। तू यह क्या करता है?
हनुमान
बोले: यह हार पत्थर का है। इसे मूर्ख मनुष्य भला गले में पहन सकते हों, मैं तो रामनाम को ही पहनता
हूं। और मैं एक-एक मोती को चख कर देख रहा हूं, इसमें रामनाम का कहीं स्वाद ही नहीं है।
इसलिए फेंकता जा रहा हूं।
शायद
राम ने इसीलिए कोई पुरस्कार हनुमान को नहीं दिया। क्योंकि हनुमान के हृदय में तो
राम थे। पुरस्कार तो प्रतीक होगा। जिसके पास राम हैं, उसे क्या पुरस्कार?
जिनने
प्रभु की थोड़ी-सी पहचान पाई है, उसे
प्रतिमा की जरूरत नहीं है; उसे
मंदिर की जरूरत नहीं है; उसे
पूजा-पाठ की जरूरत नहीं है। तब तो मलूकदास कहते हैं कि राम का नाम भी नहीं लेता
मैं। अपनी मस्ती में मस्त हूं। अब तो राम मेरा नाम लेता है।
यह बात
सच है कि बाबा मलूकदास भक्त है--परम भक्त है; बेजोड़ भक्त हैं, फिर भी मूर्तिपूजा का मजाक
उड़ाया है। भक्त ही उड़ा सकता है, क्योंकि
भक्त जानता है: मूर्ति में कहां भगवान! और कब तक तुम मूर्ति में उलझे रहोगे? तुम्हें चौंकाने का मजाक
उड़ाया है। तुम्हें झकझोरने का मजाक उड़ाया है। संत पुरुष तुम्हें जबान चाहते हैं, इसलिए मजाक उड़ाया है। इसमें
कुछ भगवान के प्रति निंदा नहीं है।
इक्कू
ने जो बुद्ध की मूर्ति जलाई थी, तुम
सोचते हो उसमें भगवान के प्रति नाद है? जरा भी नहीं है। क्योंकि यही इक्कू दूसरे
दिन सुबह राह के किनारे हाथ जोड़े हुए बैठा है--मील के पत्थर के सामने। फूल चढ़ा रहा
है-- मील के पत्थर पर। पुजारी ने कहा कि तू बिलकुल ही पागल है। रात तूने भगवान की
मूर्ति जला दी,
अब मील
के पत्थर पर...! यह मील का पत्थर है नासमझ, इस पर कहां फूल चढ़ा रहा है! उसने कहा: जब
भाव चढ़ाने का होता है, तो
कहीं भी चढ़ा दो,
उसी के
चरणों में पहुंच जाते हैं।
एक तरफ
मूर्ति जला देता है भक्त, दूसरी
तरफ मील के पत्थर पर फूल चढ़ा देता है भक्त। भक्त की अनूठी दुनिया है। वह प्रेम की
दुनिया है। वह अपूर्व जगत है।
हम
जहां से सोचते हैं, वहां
से हमें विरोधाभास दिखाई पड़ सकता है और हमें यह भी लग सकता है कि भक्त परंपरा ने
ही तो मूर्तिपूजा को सर्वाधिक प्रतिष्ठा दी है, फिर यह कैसा मजाक?
भक्त
ने मूर्ति में भी भगवान को देखा है, क्योंकि भगवान ही सब जगह है। फर्क समझ लेना।
भक्त
को तो मूर्ति में भी भगवान है, क्योंकि
भगवान के अतिरिक्त तो कुछ और कहीं भी नहीं है। सभी कुछ भगवान है। इसलिए तुम्हारे
मंदिर की मूर्ति में भी भगवान है।
मलूकदास
यह नहीं कह रहे हैं कि मूर्ति में भगवान नहीं है। मलूकदास इतना ही कह रहे हैं कि
मूर्ति में भगवान है--ऐसी भ्रांति में मत पड़ना, नहीं तो चूक जाओगे। भगवान ही है सब जगह है; तो मूर्ति में भी है। लेकिन
फिर मूर्ति के लिए विशेष आयोजन की कोई जरूरत नहीं है।
जिसको
भगवान दिखा,
से
मूर्ति में भी दिखाई पड़ जाएगा। और जिसे मूर्ति में ही दिखाई पड़ता है, उसे तो दिखाई ही नहीं पड़ा है
अभी, तो मूर्ति में कैसे दिखाई
पड़ेगा?
नानक
को काबा में सोया देख कर काबा के मौलवियों ने उठाया कौर कहा कि तुम नासमझ हो। हमने
तो सुना है कि बड़ा दार्शनिक आया है भारत से। और तुम पैर किए हो--पवित्र काबा की
तरफ! हटाओ यह पैर।
तो
नानक ने कहा: ऐसा करो, तुम
स्वयं हटा दो,
क्योंकि
मैं बहुत थक गया हूं। दिन भर का थका-मांदा हूं, मुझसे
यह पर हटाए न हटेंगे; तुम ही
हटा दो। और फिर मैंने सब तरफ पैर करके देख लिए, कोई सार नहीं। सभी तरफ वही है। और पैर कहीं
तो करूंगा;
भले
मानुषों,
कहीं
तो पैर करूंगा! और सभी तरफ वही है, तो अब मैं करूं क्या? तुम हटा दो।
कहानी
बड़ी मीठी है कि मौलवियों ने क्रोध में नानक के पैर हटाए और देखा कि जहां पैर हटाए, वहीं काबा हट गया।
काबा
हटा हो या न हटा हो, यह बात
महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन यह अंतरदृष्टि इस कथा में जो है, बड़ी गहरी है।
सब तरफ परमात्मा है, कहां पैर करोगे? कहीं तो करोगे; जहां करोगे, वहीं परमात्मा है।
ऐसी ही
कथा महाराष्ट्र में एकनाथ के बाबत है कि एकनाथ एक मंदिर में सोए हैं--शंकर जी की
पिंडी पर पैर टेके हुए! और एक आदमी आया, एक नास्तिक आया। नास्तिक घबड़ा गया। नास्तिक
है--और घबड़ा गया! ईश्वर को मानता नहीं; मानता है कि पिंडी इत्यादि सब पत्थर है।
लेकिन फिर भी घबड़ा गया।
नास्तिक
के भीतर भी डर तो बना रहता है कि पता नहीं, हो ही। कौन जाने! कहता है--नहीं है, मगर नहीं है, कभी पूरा नहीं हो सकता; भीतर संदेह तो बना रहता है।
जैसा तुम्हारे हैं कहने में संदेह बना रहता है, ऐसा ही उसके नहीं कहने में भी संदेह बना
रहता है।
संदेह
से छुटकारा इतना आसान नहीं है। और आस्तिक तो कभी संदेह से मुक्त हो भी जाए, नास्तिक कभी नहीं हो सकता, क्योंकि उसने तो संदेह के साथ
सगाई कर ली है;
उसने
तो भांवर पाड़ ली है; वह तो
संदेह में मजा लेने लगा है।
तो
नास्तिक डर गया! वह आया था कुछ प्रश्न पूछने, जिज्ञासा करने। लोगों ने भेजा था। उसने
सोचा: इस आदमी से क्या जिज्ञासा होगी! यह तो मुझसे महानास्तिक मालूम पड़ता है! मैं
भी पैर नहीं मार सकता शंकर जी को। जानता हूं कि कुछ भी नहीं है, मगर पैर मारने में मैं भी डर
जाऊंगा। झंझट कौन ले? कौन
जाने--कुछ हो ही। पीछे कुछ अड़चन आ जाए।
तो
उसने हिलाया एकनाथ को और कहा: महाराज मैंने सुना है कि आप महात्मा हैं; आप यह क्या कर रहे हैं? शंकर जी पर पैर टेके हैं?
तो
एकनाथ ने कहा: और कहां टेकूं? कहीं
तो टेकूंगा। तू कोई ऐसी जगह बता सकता है, जहां शंकर जी न हों?
यह बड़ी
गहरी दृष्टि है। यह भक्त की ही संभावना
है। यह एकनाथ जैसा भक्त ही शंकर जी के ऊपर पैर टेक सकता है। और मलूकदास जैसा भक्त
ही मूर्तिपूजा का मजाक उड़ा सकता है।
इसमें
भक्ति का विरोध नहीं है; इसमें
भक्ति की घोषणा है।
तीसरा प्रश्न: कन थोड़े कांकर घने की परख-बुद्धि कैसे पाई जाती है?
बुद्धि
तो है ही तुम्हारे पास, तुम
उसका उपयोग नहीं कर रहे हो। सुनार के पास देखा है--सोने को कसने का पत्थर। यह
तुम्हारी जेब में ही पड़ा है। लेकिन तुम अपने जीवन के सोने को उस पर कसते नहीं।
दोनों का मेल नहीं हो पाता।
परख की
बुद्धि तुम्हारे पास है; कहीं
से लानी होती,
तो फिर
बहुत मुश्किल थी। परख की बुद्धि तुम्हारे पास न होती तो तुम खोजने भी कैसे जाते? किससे खोजते? कैसे खोजते? कैसे पहचानते?
परख की
बुद्धि तुम्हारे पास है, लेकिन
तुमने उसका उपयोग नहीं किया है। तुम भी जीवन के उन्हीं अनुभवों से गुजरते हो, जिनसे मलूकदास गुजरे होंगे।
तुमने भी क्रोध किया, तुमने
भी घृणा की,
तुमने
भी वैमनस्य किया,
तुमने
भी शत्रुता साधी,
तुमने
भी काम-भोग में अपने को उतारा। तुम भी पछताए, तुम भी हारे।
तुम भी
उन्हीं अनुभवों से गुजरे, जिनसे
मलूकदास गुजरे हैं। कोई अलग अनुभव तुम्हारे नहीं हैं। और मलूकदास के पास जो बुद्धि
है, वह तुम्हारे पास भी है।
परमात्मा ने इस संबंध में कोई पक्षपात नहीं किया है।
प्रत्येक
के पास बुद्धि है;
पर्याप्त
बुद्धि है। फर्क क्या है फिर? मलूकदास
ने अपनी बुद्धि को अपने जीवन के अनुभव पर लगाया। एक-एक अनुभव को कसा। क्रोध किया, फिर अपनी बुद्धि के साथ कस कर
देखा--क्या पाया?
कुछ
पाया? कुछ मिला मुझे? आगे भी करने जैसा है--कि नहीं
करने जैसा है?
तुम
कभी कसते नहीं। तुम क्रोध कर लेते हो, फिर भूल जाते हो। तुम इस क्रोध से कुछ अनुभव, कोई सार-संचय नहीं निकालते।
यह क्रोध तुम्हारे संपदा नहीं बनता, नहीं तो क्रोध भी सीढ़ी बन जाए। एक दफा किया, दो बार किया, तीन बार किया--कितनी बार
किया! कुछ भी कभी नहीं पाया। लेकिन यह प्रतीति तुम्हारी गहरी नहीं हो पाई कि कुछ
भी कभी नहीं मिला। तो अब जब दुबारा करो, तो थोड़ा झिझक कर करना कम से कम। मैं यह भी
नहीं कहता कि मत करना। थोड़े झिझक कर करना। एक क्षण रुक कर करना। एक क्षण विचार कर
करना। पहले आंख बंद कर लेना; अपने
अतीत के सारे क्रोध के अनुभव को सोच लेना। इतनी बार किया; इतनी बार पछताए। इतनी बार कुछ
भी न पाया। अब फिर घड़ी आ गई; अब फिर
करने का मौका आ गया; करना
है--या नहीं?
गुरजिएफ
के दादा की मृत्यु हुई, तो
गुरजिएफ का दादा उससे कह गया कि मेरे पास तुझे देने को कुछ भी नहीं है; मैं गरीब आदमी हूं। लेकिन एक
चीज मेरे काम बहुत पड़ी जीवन में, तुझे
दे जाता हूं;
तुझे
भी काम पड़ेगी।
नौ साल
का था गुरजिएफ। उसके दादा ने कहा: अभी तू शायद समझ भी न पाए, लेकिन ठीक-ठीक याद कर ले, कभी समझ जाएगा। जब भी तुझे
क्रोध आए,
तो
चौबीस धंटे का समय मांग लेना। कहना: चौबीस घंटे बाद आ कर करूंगा। कोई गाली दे, तो तो उससे कहना कि भाई ठीक, तुमने गाली दे दी; मैं चौबीस घंटे बाद आ कर जवाब
दे दूंगा।
गुरजिएफ
ने लिखा है कि इस छोटे से सूत्र ने मेरा सारा जीवन बदल दिया। अब चौबीस घंटे बाद
कोई क्रोध कर सकता है? यह तो
तुरत-फुरत हो जाए तो हो जाए। क्रोध तो ऐसी आग है कि इसी वक्त जल जाए, तो जल जाए। थोड़ी देर बाद तो
तुम्हारी बुद्धि तुम्हें कह देगी कि क्या फिजूल की बातों में पड़े हो? क्या मरने-मारने की बातें सोच
रहे हो!
गुरजिएफ
ने लिखा है: क्रोध तो फिर हुआ ही नहीं। चौबीस घंटे बाद या तो मुझे यह दिखाई पड़
जाता कि उसने जो कहा, ठीक ही
कहा। जैसे किसी आदमी ने तुम्हें चार कह दिया। अब तुम लड़ने-मारने को तैयार हो गए।
तुम पहले यह भी तो सोचो: हो सकता है--वह ठीक ही कह रहा हो, तो धन्यवाद देना चाहिए। उसने
तुम्हें याद दिला दी; वह
तुम्हारा मित्र है--शत्रु नहीं है।
तो यह
तो ठीक कह रहा है,
तब तो
क्रोध का कोई कारण नहीं है। धन्यवाद देने गुरजिएफ को जाना पड़ता। गत कह रहा
है--बिलकुल गलत कह रहा है; अब जो
बिलकुल गलत कह रहा है, उस पर
क्या क्रोध करना! झूठ पर कोई क्रोध होता है?
तुमने
खयाल किया: तुम्हारे संबंध में जब कोई ऐसी कोई बात कह देता है, जो कहीं खटकती है, तो उसका मतलब ही यह हुआ कि
उसमें कुछ सचाई है। किसी ने तुम्हें चोर कह दिया तो खटकता है। किसी ने तुम्हें
झूठा कह दिया,
तो
खटकता है। क्योंकि तुम जानते हो: झूठ तुम बोले हो। तुम जानते हो: चोरी तुमने की है; न भी की हो, तो कम से कम सोची है; करने के इरादे किए हैं।
खटकती
है वही बात,
जो सच
होती है। तुम जब,
कोई
तुम्हारा अपमान करता है और क्रोधित हो जाते हो, तो तुम्हारे क्रोध से सही प्रमाण मिलता है
कि उसने जो कहा,
ठीक ही
कहा था।
तो या
तो ठीक ही कहा होगा, तो
धन्यवाद दे आना। या व्यर्थ ही कहा होगा, तो दया आएगी कि बेचारे ने नाहक मेहनत की।
कितना उतावला हो गया था! मरने-मारने को उतारू हो गया था--एक झूठ के लिए, जिससे मेरा कोई संबंध नहीं है; जो उसने किसी और के लिए कहा
होगा; मुझसे कुछ लेना-देना नहीं है।
तब तो बात समाप्त हो गई।
तुमने
क्रोध तो बहुत बार किया, लेकिन
परख की बुद्धि का उपयोग नहीं किया। और परख की बुद्धि कैसे पाएं, यह पूछो मत; यह तरकीब है। परख-बुद्धि
तुम्हारे पास है।
जब
कांटा चुभता है,
तो
तुम्हें पता नहीं चलता कि पीड़ा हो रही है? तुम दुबारा फिर कांटों से बचकर नहीं चलने
लगते? तुम्हारे हाथ में जब पहली दफा
आग का स्पर्श होता है, तो फिर
तुम दुबारा आग का स्पर्श करते झिझकते नहीं? वही तो परख-बुद्धि है। और परख-बुद्धि क्या
है? तुमको पता चल जाता है कि यह
कांटा है;
यह
दुखता है;
इससे
सावधान होकर चलो। तुम्हें समझ आ जाता है: यह आग है, इसे मत छुओ। लेकिन जीवन की
गहरी बातों में तुम प्रयोग नहीं करते।
कांटा
है क्रोध। काम अग्नि है, जलाती
है। वासना दुष्पूर है, कभी
भरती नहीं। ऐसा ही समझो कि बाल्टी में पेंदी नहीं है और कुएं से पानी भर रहे हैं।
पेंदी है ही नहीं बाल्टी में। खड़खड़ाहट बहुत मचती है। कुएं में जाकर बाल्टी गिरती
है। जब तुम झांक कर देखते हो, तो
बाल्टी में पानी भरा हुआ भी मालूम पड़ता है--जब बाल्टी पानी में डूबी होती है। फिर
खींचो;
खाली
बाल्टी वापस आ जाती है।
कितनी
बार तुमने काम-वासना के कुएं में अपने जीवन की बाल्टी डाली है! क्या पाया? सदा खाली लौट आई।
बुद्धि
तुम्हारे पास है,
शायद
तुम उपयोग करना नहीं चाहते। शायद तुम डरते हो कि कहीं उपयोग किया, तो कहीं सचाइयां समझ में न आ
जाएं।
मेरे
एक मित्र थे,
मौत से
बहुत डरे हुए आदमी थे वे। एक ही डर उनकी लगा रहता था कि कहीं मौत न आ जाए। अब मौत
आ ही रही है,
इसमें
डरने का कोई करण नहीं है। मैंने उनसे कहा, तुम ऐसी चीज से डर रहे हो, जिसमें डरने को कोई कारण नहीं
है; मौत आ ही रही है; बचने का भी कोई उपाय नहीं है।
कोई कभी बच नहीं पाया। आज तक नहीं बचा। तुम कैसे बच जाओगे! इसलिए जो होना ही है, उसे स्वीकार कर लो।
लेकिन
वे तो मौत शब्द से भयभीत होते थे। हम भी मौत शब्द का कम प्रयोग करते हैं। कोई मर
जाता है,
तो हम
कहते हैं: फलां व्यक्ति स्वर्गवासी हो गया। सीधा नहीं कहते कि मर गया। स्वर्गवासी!
कहते हो कि फलां व्यक्ति स्वर्ग पधार गया; कि राम के प्यारे हो गए; प्रभु-प्यारे हो गए।
हम मौत
शब्द का उपयोग करने में डरते हैं; कुछ
घबड़ाहट आती है। कहते हैं कि भगवान ने उठा लिया। अब सभी मर कर स्वर्गवासी नहीं
होते। तुम्हारे हिसाब से तो दिल्ली में जो मरते हैं, वे भी स्वर्गवासी हो जाते
हैं! नहीं हो सकते। मगर तुमने कभी देखा: किसी ने बाबत अखबार में खबर छपी हो कि
नरकवासी हो गए!
हम
भयभीत हैं;
हम मौत
से भयभीत हैं। हम मौत शब्द का उपयोग नहीं करते। हम इसे अच्छे-अच्छे शब्दों में
छिपा लेते हैं। हम मौत को कहते हैं--महायात्रा पर निकल गए। हमने तरकीबें निकाली
हैं--ढंग से कहने की।
आदमी
मर जाता है--जिंदगी भर कभी परमात्मा नहीं लिया--तब हम उसकी अर्थी के साथ: रामनाम
सत्य है दोहराते हुए चलते हैं। उसकी जिंदगी से इसका कोई संबंध नहीं है। राम नाम
असत्य था उसकी जिंदगी में; कभी सत्य
नहीं था। और अब मर गया आदमी, लाश को
ढो रहे हैं--और रामनाम सत्य है...!
हमने
सारा जीवन झूठ कर रखा है--एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक।
वे
मित्र बड़े परेशान थे। फिर उनको कुछ बीमारी लगी, तो वे डाक्टर के घर न जाएं! उसकी पत्नी मेरे
पास आई,
आप
उन्हें कम से कम इतना ही समझा दें डाक्टर के घर चलें!
मैंने
उन्हें बुलाया,
तो
उन्होंने कहा: जाऊं क्यों? बीमार
ही नहीं हूं। डाक्टर के घर क्यों जाऊं? जब बीमार होऊं, तो ही जाऊं। तो मैंने उनसे
कहा: देखो,
तुम्हारा
तर्क बिलकुल ठीक है। कालेज में प्रोफेसर थे वे। तुम्हारा तर्क बिलकुल ठीक है।
लेकिन जब तुम बीमार ही नहीं हो, तो तुम
डरते क्यों हो जाने से? चला
मेरे साथ। जब तुम बीमार ही नहीं हो, तो बात खतम हो गई। पत्नी का मन रह जाएगा।
काहे को झंझट करनी!
अब जरा
वे मुश्किल में पड़े। बचने का रास्ता न रहा। जब बीमार ही नहीं तो मैंने कहा, डरना क्या। फीस मैं दूंगा।
गाड़ी में मैं तुम्हें बिठा कर ले चलता हूं। घर तुम्हें मैं छोड़ दूंगा। तुम्हें डर
क्या! तुम्हारी पत्नी भी राजी हो गई है और तुम बीमार हो ही नहीं। तुम बीमार हो
क्या? उन्होंने कहा: नहीं।
लेकिन
माथे पर पसीने की बूंदें हैं, क्योंकि
वे जानते हैं कि बीमार वे हैं। सीढ़ियां चढ़ते नहीं बनता उनसे। जरा में हांफने लगते
हैं। हृदय दुर्बल हुआ है। उसी से तो डरते हैं वे कि कहीं कुछ मामला न हो जाए।
रास्ते
में मुझसे कहने लगे: ऐसा कुछ जरूरी है क्या? मैंने कहा: जरूरी कुछ भी नहीं है, क्योंकि तुम बीमार हो ही
नहीं। उन्होंने कहा: छोड़ो जी, यह बात
क्या लगा रखी है कि बीमार हो ही नहीं। तुम्हें पता है कि मैं डर रहा हूं। और
तुम्हें मालूम है कि मेरी हालत ठीक नहीं है। और मैं नहीं चाहता जानना। मुझे डर है
कि मेरे पिता टी. बी. से मरे; मेरी
मां टी. बी. से मरी; कहीं
मुझे टी.बी. न हो!
पर
मैंने कहा: डरने के कारण तो टी.बी. मिटेगा नहीं। सिर्फ झुठलाने से तो टी. बी.
मिटेगा नहीं। अब तो टी.बी. का इलाज है; अब टी. बी. कोई बीमारी है? सर्दी-जुकाम से कमजोर बीमारी
है टी.बी.। सर्दी-जुकाम नहीं मिटता; टी. बी. तो मिट जाती है; टी.बी. का तो इलाज है। सर्दी-जुकाम
का कोई इलाज नहीं है। तो तुम कोई बड़ी खतरनाक बीमारी में नहीं पड़े हो। टी. बी. तो
ठीक हो जाएगा। लेकिन अगर निदान से ही डर रहे हो, तो फिर कैसे होगा?
ऐसी
हमारी दशा है।
टी.
बी. कही निकला। और जब टी. बी निकला और वे घर पर लौटने लगे, तो मुझ पर बहुत नाराज थे कि
मैंने पहले ही कहा था कि जाने की कोई जरूरत नहीं। अब उनको घबड़ाहट पकड़ी। टी. बी.
है--इसको झुठला रहे थे।
जिनने
प्रश्न पूछा है--सुखदेव महाराज ने--कन थोड़े कांकर घने की परख बुद्धि कैसे पाई जाती
है? तुम्हारे पास बुद्धि है
सुखदेव महाराज! बुद्धि भलीभांति है! तुम जानते भी हो। तुम्हें पहचान भी है, तुम बच रहे हो।
खुद को
बदलाता था,
आखिर
खुद को बहलाता रहा।
मैं बई
सोजे दरूं हंसता रहा, गाता
रहा।
मुझको
एहसासे-फरबे-रंगो बू खाता रहा।
खुदको
बहलाता था,
आखिर
खुद को बहलाता रहा।
यह सब
बहलाना है। तुम्हें असलियत का पता है; सब को पता है। मैंने ऐसा आदमी नहीं देखा, जिसे असलियत का पता न हो।
झुठला रहा है। आंख नहीं लगाता असलियत पर। आंखें यहां-वहां चुरा रहा है। आंखें
बचाकर देख रहा है।
खुद को
बहलाता था,
आखिर
खुद को बदलाता रहा। बहलाना है, तो
बहलाते रहो। मैं बई सोजे दरूं हंसता रहा, गाता रहा। हृदय जल रहा था, लेकिन ऊपर से मुस्कुराते रहो।
मैं बई
सोजे दरूं हंसता रहा, गाता
रहा। जानता था--भीतर जलन हो रही है, और ऊपर से मुस्कुराते रहा। वे मुस्कुराहटें
तुम्हारी,
छिपाने
के उपाय हैं,
आत्मवंचनाएं
हैं।
मुझको
एहसासे-फरेबे रंगों बू होता रहा। मुझे दिखाई भी पड़ता रहा कि रंग और सुगंध की यह
दुनिया सब छल है। मुझको एहसासे-फरेबे रंगो बू होता रहा। मुझे पता भी चलता रहा कि
सब क्षण भंगुर है। मैं मगर फिर भी फरेबे-रंगों बू खाता रहा। लेकिन फिर भी इस भ्रम
में बड़ी मिठास थी और मैं बार-बार यह भ्रम खाता रहा।
नहीं; परख-बुद्धि नहीं करनी होती।
परख-बुद्धि परमात्मा ने दी है सिर्फ उपयोग करना है। सीखे में पड़ा है--कसन का
पत्थर--तुम्हारे भीतर पड़ा है, उसे
जरा जीवन के अनुभवों में उपयोग करने लगी। चलो, अब तक नहीं किया कोई फिक्र नहीं। अभी भी तो
जीवन बहुत बाकी है, इतने
में ही उपयोग करो।
अगर कोई
व्यक्ति चौबीस घंटे भी अपनी परख-बुद्धि का उपयोग करे, तो दूसरा आदमी हो जाएगा।
क्योंकि चौबीस घंटे में करीब-करीब सब बातें दोहर जाती हैं, जो पूरे जीवन में दोहराती
हैं। क्रोध हो जाता, काम हो
जाता; भूख लग आती, प्यास लग आती; मान-अपमान हो जाता; अहंकार पकड़ जाता, लोभ पकड़ जाता,र् ईष्या पकड़ जाती, जलन हो जाती। चौबीस घंट में
सारी कथा दोहरा जाती। फिर तुम इसी को तो रोज-रोज पुनरुक्ति करते हो।
अगर
तुम चौबीस घंटे भी जाग कर देख लो कि क्या हो रहा है...। और एक-एक चीज को गौर से
देख लो,
आंखें
न बचाओ। आंखें गड़ाओ अपने अनुभव में तो काई अड़चन नहीं है। मुक्ति बहुत निकट है।
सामान पूरा तैयार है। वीणा तुम्हारे पास पड़ी है, लेकिन तार छेड़ो।
तुम
पूछते हो: वीणा कहां खोजें? मैं
कहता हूं: वीणा तुम्हारे सामने रखी है। तुम जरा अंगुलियां चलाओ। वीणा भी है; अंगुलियां भी हैं; अंगुलियों के वीणा के तार पर
पड़ते ही स्वर भी उठेगा। सब है। लेकिन पूछते हो: वीणा कहां है! यह तुम्हारी तरकीब
है। तुम कहते हो: जब वीणा ही नहीं है, तो मैं संगीत कैसे उठाऊं! आंगन टेढ़ा नाचूं
कैसे! लेकिन नाचना हो, तो
आंगन के टेढ़े होने से कुछ फर्क पड़ता है! और न नाचना हो, तो आंगन कितना ही चौकोर हो, क्या फर्क पड़ेगा? फिर भी कोई फर्क न पड़ेगा।
चौथा प्रश्न: प्रेम और त्याग में किसका महत्व बढ़कर है?
ऐसा
समझो: जैसे एक सिक्के के दो पहलू हैं, इनमें किसका महत्व बढ़ कर है? ऐसा समझो कि दिन और
रात--इसमें किसका महत्व बढ़ कर है? ऐसा
समझो कि अंडा या मुर्गी--इसमें किसका महत्व बढ़कर है? संयुक्त है; जुड़े हैं। दो नहीं हैं असल
में, एक ही है।
दिन और रात दो थोड़े ही हैं; एक ही चीज के दो पहलू हैं।
अंडा और मुर्गी दो थोड़े ही हैं; एक ही
यात्रा के दो पड़ाव हैं।
सदियों
से वैज्ञानिक,
दार्शनिक
सोचते रहे हैं कि पहले कौन?--मुर्गी या अंडा? और ऐसे
पागल भी हुए हैं,
जिनने
इस पर खूब विचार किया है! और इसका उत्तर भी देने की कोशिश की है। विवाद भी खड़े किए
हैं। कोई कहता है: मुर्गी पहले, क्योंकि
मुर्गी के बिना अंडा कैसे होगा? और
उतने ही तर्क से कोई कहता है: अंडा पहले, क्यों अंडे के बिना मुर्गी कैसे होगी? और इनका विवाद चलता रह सकता
है सदियों तक,
इसका
कोई अंत नहीं होगा, क्योंकि
अंत हो ही नहीं सकता।
मैं
तुमसे कहना चाहता हूं: न तो मुर्गी पहले है, न अंडा पहले है। मुर्गी और अंडा दो नहीं
हैं। मुर्गी अंडे का एक रूप है, अंडा
मुर्गी का एक रूप है। अंडा मुर्गी का प्राथमिक रूप है; मुर्गी अंडे की ही बढ़ी हुई
अवस्था है। जैसे बचपन और बुढ़ापा। बचपन ही बढ़ बढ़ कर बुढ़ापा हो जाता है। जीवन ही बढ़
बढ़ कर मौत हो जाता है। और दिन ही बढ़ बढ़ कर रात हो जाता है। संयुक्त हैं।
ऐसा ही
प्रेम और त्याग। अलग-अलग नहीं हैं।
जिसने
त्याग जाना,
उसने
प्रेम जाना। जिसने प्रेम जाना, उसने
त्याग जाना। जिसने बिना प्रेम के त्याग जाना, उसका त्याग झूठा। और जिसने बिना त्याग के
प्रेम जाना,
उसका
प्रेम झूठा। अगर प्रेम सच्चा है, तो
उसके साथ त्याग आएगा ही। अगर त्याग सच्चा है। तो उसके भीतर प्रेम की ज्योति जलती
ही होगी।
अगर
तुम कहो कि यह अंडा ऐसा है कि जो मुर्गी ने नहीं दिया तो समझना कि अंडा झूठा है।
फिर किसी फैक्टरी में बना होगा। फिर प्लास्टिक का होगा। तुम कहो कि यह मुर्गी अंडे
से नहीं आई,
तो यह
मुर्गी असली नहीं हो सकती। असली मुर्गी तो अंडे से ही आती है।
और दुनिया
में ऐसा प्रेम पाया जाता है, जिसमें
त्याग नहीं है। और दुनिया में ऐसा त्याग पाया जाता है, जिसमें प्रेम नहीं है। ये
दोनों झूठे हैं,
थोथे
हैं, कृत्रिम हैं, ऊपरी हैं।
संत
जिस प्रेम की बात कहते हैं, उसमें
त्याग छाया की तरह आता है। और संत जिस त्याग की बात करते हैं, प्रेम उसकी आत्मा है।
अब
समझने की कोशिश करो--ये दोनों जुड़ें क्यों हैं?
जब भी
तुम प्रेम करोगे,
तुम्हारे
भीतर दान का भाव उठेगा। प्रेम देता है। प्रेम है ही क्या? देने की परम आकांक्षा है।
प्रेम बांटता है। प्रेम के पास जो भी है,
लुटाता
है। प्रेम बड़ा प्रसन्न होता है दे कर। प्रेम कंजूस नहीं है। इसलिए कंजूस प्रेमी
नहीं होते। इसलिए कंजूस प्रेमी हो ही नहीं सकता। कंजूस से दोस्ती मत बनाना। कंजूस
के पास देने की भावना ही नहीं है, इसलिए
दोस्ती बन नहीं सकती। और प्रेमी कंजूस नहीं होते।
मनोवैज्ञानिक
भी इस बात से राजी हैं कि जिनके जीवन में बहुत प्रेम है, वे कभी बहुत धन-संपत्ति पद
इकट्ठा नहीं कर पाते। करेंगे कैसे! इधर आया नहीं कि गया नहीं! उनके हाथ सदा खुले
हैं। मुक्त आकाश--बंटता रहता है। और जो धन-पद इकट्ठा कर पाते हैं, एक बात पकड़ लेना--उनसे जीवन
में प्रेम नहीं पाओगे, प्रेम
का स्वर ही नहीं पाओगे। वहां तो इकट्ठा करने की दौड़ इतनी है कि बांटने का सवाल ही
कहां उठेगा?
एक
पैसा देने में भी घबड़ाहट होगी, बेचैनी
होगी। एक पैसा कम हो गया! देने का मतलब वहां कम हो जाना है। और प्रेम की दुनिया
में देने का मतलब और बढ़ जाना है। प्रेम जितना देता है, उतना बढ़ता है।
तो
प्रेम का अर्थ ही होता है--अपने को बांटने की क्षमता। तो त्याग अपने आप आता है।
लेकिन यह त्याग बड़ा अनूठा है। यह त्याग, जैन मुनि जैसा त्याग नहीं है। वह त्याग थोथा
है। यह प्रेमी का त्याग है। यह मलूकदास का त्याग है। यह महावीर का त्याग है, लेकिन जैन मुनि का त्याग नहीं
है। यह वैराग्य नहीं है। फर्क समझना।
एक
आदमी धन छोड़ देता है, क्योंकि
अगर धन को पकड़े रहेगा, तो नरक
जाना पड़ेगा। यह भय के कारण धन छोड़ रहा है। और एक आदमी इसलिए धन छोड़ देता है कि
दूसरों की जरूरत है। जिनको जरूरत है, उन्हें दे देता है। यह आदमी प्रेम के कारण
धन छोड़ रहा है।
दोनों
धन छोड़ रहे हैं,
लेकिन
दोनों के छोड़ने की प्रक्रिया बड़ी अलग है और दोनों के परिणाम अलग हैं।
जिस
आदमी ने धन नरक के डर से छोड़ा, इस
आदमी ने त्याग तो किया, लेकिन
इसके त्याग में प्रेम की आत्मा नहीं है। बुझा हुआ त्याग है। इसलिए अपने त्याग का
गुणगान करेगा यह। यह कहेगा कि मैंने कितना छोड़ दिया! कितना छोड़ा! यह त्याग के ऊपर
सिंहासन बना कर बैठ जाएगा। यह त्याग से अकड़ जाएगा...कि देखो, मैंने लाखों छोड़ दिए! इसने
किसी को दिए नहीं हैं। इसने बांटे नहीं हैं, यह भागा है। यह भय से भागा है।
यह तो
ऐसा ही समझो कि कोई तुम्हारी छाती पर पिस्तौल लगा दे और कहे कि खाली करो जेब। और
तुम जल्दी से जेब खाली कर दो और कहो कि लो महाराज, सब त्याग कर दिया! यह त्याग
हुआ?
नरक की
पिस्तौल लगी है छाती पर और तुमने छोड़ दिया। यह त्याग हुआ? यह त्याग नहीं है।
त्याग
बड़ी और बात है। त्याग का मतलब है: तुमने देखा--कि तुम्हें जितनी जरूरत है उससे
ज्यादा जरूरत दूसरे की है। तुमने देखा कि इसे रोक रखने में तो कोई भी सार नहीं है; बहुत लोग वंचित रह जाएंगे।
तुमने देखा कि यह धारा तो बहती रहे; यह सब की है; मेरा इसमें क्या है? हवा सब की, आकाश सब का--सब सब का है, इसमें मेरा क्या है? तुमने ममत्व न रखा, क्योंकि तुमने देखा कि सब पर
सभी मालिक हैं। तुमने मालकियत न रखी--प्रेम के कारण, तो तुम्हारी त्याग में एक
अनूठी गरिमा है,
एक
गौरव है। और तब तुम इस त्याग की बात ही न करोगे। तब तुम्हें इस त्याग का स्मरण भी
न आएगा। यह त्याग तुम्हारे अहंकार का आभूषण न बनेगा। और अगर त्याग अहंकार का आभूषण
बन जाए,
तो चूक
गए। तीर चूक गया। निशाना नहीं लगा।
त्याग
का जब पता भी नहीं चलता, तभी...।
एक
सूफी कथा है: एक सूफी फकीर परमात्मा की प्रार्थना में ऐसा गहरा तल्लीन हो गया कि
एक फरिश्ता प्रगट हुआ और उसने कहा कि प्रभु ने मुझे भेजा है; तुम कुछ वरदान मांग लो। उसने
कहा लेकिन मुझे कुछ कमी नहीं है। मुझे जो चाहिए--जरूरत से ज्यादा मिला है। उसका
प्रेम मेरे प्रति अपार है। धन्यवाद। मुझे कुछ चाहिए नहीं। लेकिन फरिश्ते ने कहा:
यह नियम के विपरीत है। जब भगवान किसी की आशीर्वाद देने के लिए भेजता है, तो लेना ही पड़ता है। यह तो
अपमान हो जाएगा। तुम्हें लेना पड़ेगा। तो उसने कहा: बड़ी मुश्किल में डाल दिया। तो
तुम्हीं सुझा दो,
क्या
लू लूं! क्योंकि मुझे कुछ याद ही नहीं पड़ता। मेरे पास जरूरत से ज्यादा है; मैं तो बांटता हूं। उसके
प्रेम ने मुझे ऐसा भर दिया है कि मैं बांटता हूं और बढ़ता जाता है। जो मेरे पास है, बांटता रहता हूं। और कभी कुछ
कमी होती नहीं। अब तुमने एक अजीब मुश्किल खड़ी कर दी। तो तुम्हीं बता दो।
तो उस
फरिश्ते ने कहा कि कुछ भी ऐसी बात मांग लो, जिससे दूसरों का भला हो। समझो कि तुम्हारे
छूने से कोई बीमार ठीक हो जाए। कि तुम्हारे छूने से कोई सूखा वृक्ष हरा हो जाए।
ऐसी कुछ बात मांग लो कि तुम्हारे हाथ में संजीवनी का प्रभाव आ जाए।
उस
फकीर ने कहा: यह तो ठीक है। लेकिन इसमें खतरा है। अभी मैं बिलकुल नहीं मिट गया
हूं। इसमें अकड़ पैदा जाने का डर है कि मेरे छूने से सूखा झाड़ हरा हो गया; कि मेरे छूने से बेमौसम में
फूल आ गए;
कि
मेरे छूने से मुरदा जाग गया। अभी मैं मरा नहीं हूं। अभी मैं थोड़ा-थोड़ा हूं। यह तो
खतरनाक बात है। लेकिन तुम अगर जिद्द ही करते हो, तो ऐसा करो कि मेरी छाया को
यह आशीर्वाद दे दो--कि मेरी छाया अगर सूखे वृक्ष पर पड़ जाए, तो वृक्ष हरा हो जाए; कि मेरी छाया अगर किसी मुरदे
को छू ले,
तो वह
जीवित हो जाए।
फरिश्ते
ने कहा: इससे क्या फर्क पड़ेगा? उसने
कहा इससे फर्क पड़ेगा। मैं पीछे लौट कर कभी देखूंगा ही नहीं। तो छाया से जो होगा, छाया जाने। मेरा इससे कुछ
संबंध न जुड़ेगा।
और तब
कहते हैं: वह फकीर भागता रहता था--एक गांव से दूसरे गांव, एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले, एक आदमी से दूसरे आदमी। और उस
फकीर ने जिंदगी में कभी पीछे लौट कर नहीं देखा। बस, वह दौड़ता रहता कि जितने
ज्यादा लोगों को छाया उसकी लग जाए। तो कोई बीमार ठीक हो जाए; कोई मुर्दा उठ जाए; कोई वृक्ष सूखा था, हरा हो जाए; कोई पानी का स्रोत सूख गया था, तो झरना प्रगट हो जाए। मगर वह
भागता रहता था। वह पीछे लौटकर नहीं देखता था। वह कभी एक गांव में नहीं रुकता था, क्योंकि जितने दूर-दूर भाग
सके और जितने लोगों पर उसकी छाया पड़ जाए, उतना ही अच्छा। और उसे कभी याद भी नहीं पड़ा
कि कौन-कौन ठीक हुए। उसने कुछ हिसाब भी न रखा। अगर तुम उससे पूछते जीवन के अंत
में--खुद परमात्मा पूछता, तो वह
नहीं बता सकता था--कितने मुर्दा जीए, कितने वृक्ष हरे हुए, कितने झरने बहे, कितनी बीमारियां मिटीं। उसके
पास कोई हिसाब न होता।
प्रेम
हिसाब जानता ही नहीं। प्रेम पीछे लौट कर देखता ही नहीं। प्रेम में गणित का उपाय ही
नहीं है।
तो तुम
पूछते हो: प्रेम और त्याग में किसका महत्व बढ़ कर है? यह महत्व बढ़ कर है--ऐसा
प्रश्न ही उठाना गलत है।
प्रेम
के पीछे त्याग आता; त्याग
के साथ प्रेम आता।
लेकिन
अगर तुम्हारे प्रश्न का यह अर्थ हो कि कहां से शुरू करें, तो मैं तुमसे कहूंगा--प्रेम
से शुरू करो। क्योंकि त्याग से शुरू करने में भूल हो सकती है।
बहुतों
ने तुम्हें यही समझाया है कि त्याग से शुरू करो। मैं नहीं कहता। मैं कहता
हूं--प्रेम से शुरू करो, क्योंकि
प्रेम केंद्र है--त्याग परिधि है। कोई परिधि बिना केंद्र के नहीं होती, और कोई केंद्र बिना परिधि के
नहीं होता,
इसलिए
जहां तक होने का संबंध है, दोनों
का मूल्य बराबर है।
लेकिन
अगर तुम्हें एक परिधि बनानी हो, तो
पहले तो परलोक केंद्र पर जमानी पड़ती है। केंद्र से परिधि पैदा होती है। प्रेम
केंद्र है।
तो
पहले तुम प्रेम से भरो! त्याग आए अपने से, तो तुम्हारी छाया को बल मिल जाएगा, तुम्हारी छाया में संजीवनी का
गुण आ जाएगा। लेकिन त्याग को घसीट कर आगे मत लाना। माना कि बैल और गाड़ी में दोनों
महत्व के हैं: अकेला बैल हो, तो
क्या गाड़ी चलेगी;
अकेली
गाड़ी हो,
तो
क्या बैल चलेगा! लेकिन बैलों को गाड़ी के पीछे मत जोतना। बैल आगे जूते, गाड़ी पीछे चले।
प्रेम
आगे हो--त्याग पीछे चले।
इस
अर्थ में प्रेम ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर साधक की दृष्टि से पूछते हो, तो प्रेम ज्यादा अर्थपूर्ण है, ज्यादा महत्वपूर्ण है। सिद्ध
की दृष्टि में तो दोनों बराबर हैं।
पांचवां प्रश्न: आपसे बहुत कुछ कहना है, पर नहीं कह पाता। बहुत से
धन्यवाद देने हैं, पर नहीं दे पाता। बस, आपकी ओर देखता हूं और रोता
हूं।
इससे
बेहतर कहने की और कोई तरकीब हो सकती है! जो शब्द नहीं कह पाते वे आंसू कह देते
हैं। और जो आंसू कह पाते हैं,शब्द
कभी भी नहीं कह पाते; शब्द
बहुत असमर्थ और कमजोर हैं। और यह धन्यवाद कुछ ऐसा थोड़े ही है कि तुम दोगे, तब मुझ तक पहुंचेगा। यह
धन्यवाद कहोगे,
तो
छोटा हो जाएगा। यह तो कहना ही मत। यह तो आंखें गीली होकर ज्यादा बेहतर ढंग से कह
देती है।
शब्द
की सीमाएं हैं;
आंसुओं
की कोई सीमा नहीं है। शब्द में विकृति है; आंसू निष्कलुष हैं। शब्द में कुछ कहा कि
उतना नहीं रह जाता, जितना
कहना चाहा था।
रवींद्रनाथ
मृत्यु शय्या पर पड़े थे। उन्होंने अपने जीवन में छः हजार गीत लिखे; और एक मित्र मिलने आया था और
मित्र ने कहा कि तुम तो धन्यभागी हो। तुम तो प्रभु को धन्यवाद दो कि तुमने छः हजार
गीत लिखे! तुम महाकवि हो--सारी पृथ्वी के। अंग्रेजी में शैली को महाकवि कहा जाता
है, उसने भी दो हजार गीत लिखे
हैं। तुमने छः हजार गीत लिखे हैं।
रवींद्रनाथ
ने आंख खोली और कहा: यह तुम क्या कहते हो! मैं तो परमात्मा से यही प्रार्थना कर
रहा था कि यह क्या मामला हुआ! अभी कोई उठाने का वक्त है मुझे? अभी तो कहना चाहा था कह ही
नहीं पाया। ये छः हजार गीत तो मेरी असफलताओं की खबर है। मैंने छः हजार बार कहने की
कोशिश की और छः हजार बार असफल हो गया। जब भी शब्दों में बांधा, तब देखा कि जो असली था, पीछे छूट गया।
तो मैं
तो प्रभु से कह रहा था: यह भी कोई बात हुई! यह कोई तुक की बात हुई? कि अब जरा मेरे हाथ कुशल हुए
थे; शब्दों पर मेरी थोड़ी क्षमता
बढ़ी थी;
मेरी
छेनी थोड़ी गहरी हुई थी; अब
शायद कुछ निखार लेता; शायद
कुछ मूर्ति बना लेता; शब्दों
से शायद कुछ ढाल लेता; अब
शायद कविता का जन्म हो जाता। अभी-अभी तो मैं अपने तबले को, अपनी वीणा की ठीक-ठीक के साज
को बिठा पाया था। अभी गीत गाया कहां! और यह विदा का क्षण आ गया!
यह बात
सच है,
लेकिन
मैं यह कहना चाहता हूं कि अगर रवींद्रनाथ हजार वर्ष भी जीएं, तो हजार वर्ष के बाद भी यह
बात इतनी ही सच होगी। क्योंकि शब्द में भाव बंधता नहीं है।
तुम
पूछते हो:आपसे बहुत कुछ कहना है, पर
नहीं कह पाता।
यह
कहना कुछ ऐसा है कि चुपचाप ही कहोगे, तो ही कहा जा सकेगा। शब्द की झंझट छोड़ो; मौन का सहारा पकड़ो। मौन भी
कहता है। मौन भी बहुत प्रगाढ़ता से कहता है। मौन की बड़ी महिमा है। मौन कह भी देता
है और सीमा भी नहीं बंधती। मौन आकाश जैसा है--असीम। शब्द तो छोटे छोटे आंगन हैं।
तुम आंगन की जिद्द छोड़ो; तुम
पूरे आकाश से ही कह दो।
और
कहना क्या है! वह तुम्हें लगता है कि बहुत कहता है, क्योंकि तुम कह नहीं पाते, इसलिए लगता है कि बहुत कहना
है। शायद कहने को कुछ नहीं है। शायद कोई एक छोटी-सी बात कहना है।
बहुत
ही डरते डरते आज यह इजहार करता हूं।
मैं
तुमको चाहता हूं,
पूजता
हूं, प्यार करता हूं।।
शायद
कुछ इतनी सी बात कहने की हो। छोटा-सा इजहार करना हो--कि मैं तुमको चाहता हूं, पूजता हूं, प्यार करता हूं; बहुत ही डरते-डरते आज यह
इजहार करता हूं।
क्योंकि
प्रेम ही कुछ ऐसी बात है, जो नहीं
कही जा सकती। और सब तो कहा जा सकता है।
तुम्हारे
भीतर उठता होगा कोई अपूर्व प्रेम। प्रेम ही ऐसा कुछ है, जिसके उठते ही बुद्धि अवाक रह
जाती है। क्योंकि प्रेम बुद्धि का अंग नहीं है; प्रेम हृदय का अंग है।
और
तुम्हारे ये आंसू हृदय से आते हैं। तुम्हारी आंखें तुम्हारी बुद्धि के कारण नहीं
रोती--कभी नहीं रोतीं। बुद्धि के कारण कोई आंख कभी नहीं रोती। बुद्धि के कारण तो
आंखें सूख जाती हैं, आंसू
सूख जाते हैं। बुद्धि के कारण तो आंखें मरुस्थल हो जाती हैं। फिर हरियाली नहीं
होती आंख में;
झरने
नहीं बहते;
फूल
नहीं लगते;
पक्षी
नहीं गाते।
मनुष्य
बुरी तरह सूख गया है। पुरुष तो और भी बुरी तरह सूख गया है। क्योंकि सदियों से
पुरुषों को समझाया गया है। रोओ मत। रोना स्त्रैण है। परमात्मा ने ऐसा कुछ भेद नहीं
किया है। तुम्हारी आंखों में भी आंसुओं की उतनी ही ग्रंथियां हैं, जितनी स्त्रियों की आंखों
में। जरा भी फर्क नहीं है। तुम चाहो तो जाकर आंख के डाक्टर को पूछ लेना। दोनों की
आंखों में आंसू बनाने की क्षमता बराबर दी है परमात्मा ने। इसलिए यह बात मूढ़तापूर्ण
है कि तुम पुरुष हो--रोओ मत।
इसके
दुष्परिणाम हुए हैं। इसका बड़े से बड़ा दुष्परिणाम यह हुआ है कि पुरुष ज्यादा पागल
होते हैं;
दुगनी
संख्या में पागल होते हैं। पुरुष ज्यादा आत्महत्या करते हैं; दुगनी संख्या में आत्महत्या
करते हैं।
और अगर
हम पुरुषों के द्वारा किए गए युद्धों का भी हिसाब करें, तब तो फिर बिलकुल ही पागलपन
साफ हो जाएगा। हर दस साल के बाद महायुद्ध चाहिए। इतने प्राण भर जाते हैं--दुख से, उदासी से, क्रोध से--कि विस्फोट होता
है।
पांच
हजार सालों में,
कहते
हैं, केवल कुछ दिनों को छोड़ कर
युद्ध चलता ही रहा है पृथ्वी पर। वे कुछ दिन--सात सौ साल! सात सौ साल भी इकट्ठे
नहीं। कभी दो दिन युद्ध नहीं चला, कभी दस
दिन युद्ध नहीं चला। पांच हजार साल में सात सौ साल को छोड़ कर युद्ध चलता ही रहा
है। आदमी बिलकुल पागल है!
आंसू
आते हैं--हृदय से। और यहां हम जो अनूठा प्रयोग कर रहे हैं, यहां जो मिल-जुल कर एक यात्रा
चल रही है,
उस
यात्रा का मौलिक प्रयोजन यही है कि तुम्हारी ऊर्जा बुद्धि से हट जाए और हृदय में
प्रवाहित होने लगे।
तो
अच्छा हो रहा है कि तुम कह नहीं पाते। कहने को कुछ है नहीं। हां कुछ निवेदन है; कुछ प्रेम है।
गीत
प्राणों में जगे,
पर
भावना में बह गए
एक थी
मन की कसक,
जो
साधनाओं में ढली,
कल्पनाओं
में पली
पंथ था
मुझको अपरिचित,
मैं
नहीं अब तक चली
प्रेम
की संकरी गली
बढ़ गए
पग किंतु सहसा
और मन
भी बढ़ गया
लोक-लीकों
के सभी भ्रम,
एक पल
में ढह गए
गीत
प्राणों में जगे,
पर
भावना में बह गए
वह
मधुर बेला प्रतीक्षा की, मधुर
मनुहार थी
मैं
चकित साभार थी
कह
नहीं सकती हृदय की जीत थी, या हार
थी
वेदना
सुकुमार थी
मौन तो वाणी रही, पर
भेद मन
का खुल गया
जो न कहना चाहती थी, ये नयन सब कह गए
गीत
प्राणों में जगे,
पर
भावना में बह गए
कल्पना
जिसकी संजोई,
समाने
ही पा गई
वह घड़ी
भी आ गई
छबि
अनोखी थी हृदय पर छा गई, मन भा
गई
देखते
शरमा गई
कर सकी
मनुहार भी कब
मैं
स्वयं में खो गई
और अब
तो प्राण मेरे कुछ ठगे से रह गए
गीत
प्राणों में जगे,
पर
भावना में बह गए।
तुम्हारे
आंसुओं से जो घट रहा है, शुभ है, सत्य है, सुंदर है। यह तुम्हारा अब तक
अपरिचित जगत है,
जिससे
तुम अभी तक अछूते रह गए, इसलिए
बेचैनी होती होगी। इसलिए तुम कुछ कहना चाहते हो, क्योंकि तुमने अभी तक न कहने
का मार्ग ही नहीं पकड़ा।
पंथ था
मुझको अपरिचित,
मैं
नहीं अब तक चली
प्रेम
की संकरी गली
डरो
मत। और परेशान भी,
चिंतित
भी न होओ। प्रेम की गली निश्चित ही संकरी है, इतनी संकरी है कि वहां दो तो समाते ही नहीं।
इतनी संकरी है कि वहां शब्द भी नहीं समाते, वहां निशब्द का ही प्रवेश है।
चलने
दो यह कदम,
बढ़ने
दो हृदय की तरफ। सोच-विचार, भाषा
और शब्द--सब मनुष्य निर्मित है। निर्विचार, मौन परमात्मा का दिया है।
बढ़ गए
पग किंतु सहसा
और मन
भी बढ़ गया
लोक-लीकों
के सभी भ्रम,
एक पल
में ढह गए
गीत
प्राणों में जगे,
पर
भावना में बह गए।
बढ़ो; जरा साहस करो। एक पल में
क्रांति घट जाती है।
वह
मधुर बेला प्रतीक्षा की मधुर मनुहार थी
मैं
चकित साभार थी
कह
नहीं सकती,
हृदय
की जीत थी,
या हार
थी
वेदना
सुकुमार थी
मौन तो
वाणी रही,
पर
भेद मन
का खुल गया
जो न
कहना चाहती थी,
ये नयन
सब कह गए
गीत
प्राणों में जगे,
पर
भावना में बह गए।
वेदना
शब्द बड़ा अनूठा है।
वह
मधुर बेला प्रतीक्षा की मधुर अनाहार थी
मैं
चकित साभार थी
कह
नहीं सकती हृदय की जीत थी, या हार
थी
वेदना
सुकुमार थी।
वेदना
अनूठे शब्दों में एक है। उसके दो अर्थ होते हैं--दुख और बोध दुख और ज्ञान वेदना
उसी से बना,
जिससे
वेद; विद धातु से बना। वेद का अर्थ
होता है--ज्ञान,
बोध।
तो
वेदना का एक अर्थ तो बोध और दूसरा अर्थ है दुख। यह बड़ी हैरानी की बात है कि ये दो
विपरीत से अर्थ जिनमें कोई तालमेल नहीं है, एक ही शब्द के कैसे हैं! लेकिन महत्वपूर्ण
है यह बात।
दुख का
ही बोध होता है। और किसी चीज का बोध नहीं होता। पैर में कांटा गड़ता है, तो पैर का बोध होता है। पैर
में कांटा न गड़े,
तो पैर
का भी बोध नहीं होता। सिर में दर्द होता है, तो सिर का बोध होता है; नहीं तो सिर का भी बोध नहीं
होता।
हमें
बोध ही उसका होता है, जहां
वेदना होती है। परमात्मा का पहला बोध होता है--उसकी विरह की वेदना से। परमात्मा का
पहला बोध होता है--वेदना से। कसकती है बात; खटकती है बात। कुछ खाली-खाली; कुछ चूका-चूका; जीवन कुछ अर्थहीन-अर्थहीन।
करते सब हैं,
लेकिन
होता कुछ मालूम नहीं पड़ता। क्योंकि हम जो भी करते हैं, सब बुद्धि से हो रहा है। और
बुद्धि से कोई संबंध प्रभु से नहीं जुड़ता।
यही तो
बाबा मलूकदास का पूरा संदेश है कि अगर संबंध जोड़ना हो प्रभु से, तो बनो मस्त--भाव में; डूबो हृदय में। और पहला सूत्र
था मलूकदास का--कि पीड़ा दो तरह की है: एक विरह की पीड़ा है, और एक मिलन की पीड़ा है।
मिलन
की पीड़ा बड़ी मधुर है; विरह
की पीड़ा भी बड़ी मधुर है। भक्त दोनों भोगता है। विरह की पीड़ा भी प्रीतिकर है--कि
प्रभु अभी मिले नहीं। इंतजार है, प्रतीक्षा
है। द्वार खोल कर पलक-पांवड़े आंखें बिछाए बैठे हैं। यह भी सुखद है। आंसू बह रहे
हैं।
प्रभु
की प्रतीक्षा में आंसू बहें, तो बड़ा
सुखद है। और क्या धन्यभाग होगा! और फिर एक घड़ी है कि प्रभु आ गए--और आंसू बह रहे
हैं! क्योंकि आनंद इतना है कि अब सम्हाले नहीं सम्हलता। फिर भी विरह है, फिर भी पीड़ा है।
कल्पना
जिसकी संजोई,
सामने
ही पा गई
वह घड़ी
भी आ गई
छबि
अनोखी थी हृदय पर छा गई, मन भा
गई
देखते
शरमा गई।
शायद
तुम जो कहना चाहते हो, नहीं
कह पाते;
एक
संकोच मन को पकड़ लेता है। कैसे कह सकोगे? सदा ही महत्वपूर्ण बातें कहने में संकोच आ
जाता है।
किसी
ने कभी कहा है: मुझे तुमसे प्रेम है? कितनी मुश्किल पड़ती है! कितना कठिन हो जाता
है! हजार-हजार तरह से सोचते हैं कि इस तरह कह देंगे, कि इस तरह कह देंगे:
प्रेमियों से पूछो...। कि आज तो कह ही देंगे। हजार भूमिकाएं प्रेमी बांधता है।
चांदत्तारों की बात करता है; सोचता
है: अब ठीक पृष्ठभूमि आ गई, अब कह
दूं कि मुझे तुमसे प्रेम है। और बस, वहीं सकुचा जाता है, वहीं शरमा जाता है। वहीं कोई
चीज, बात अटक जाती है।
प्रेम
का शब्द इतना छोटा है कि प्रेम की अनुभूति को प्रगट नहीं कर पाता; ओछा है। चुप-चाप ही कहा जा
सकता है।
कल्पना
जिसकी संजोई,
समाने
ही पा गई
वह घड़ी
भी आ गई
छबि
अनोखी थी हृदय पर छा गई, मन भा
गई
देखते
शरमा गई
कर सकी
मनुहार भी कब
मैं
स्वयं में खो गई
और अब
तो प्राण मेरे कुछ ठगे-से रह गए।
निश्चित
ही प्रेम तुम्हारे भीतर जगा है; जगना
ही चाहिए। न जगें--प्रेम के झरने, तो तुम
अभागे हो। सौभाग्यशाली हो कि कुछ कहना चाहते हो और कह नहीं पाते।
और
बहुत धन्यवाद देने हैं, पर
नहीं दे पाता! नहीं; यह बात
धन्यवाद देने से पूरी न होगी। यह तो तुम, जो मैंने तुम्हें दिया है, जब दूसरों को बांटोगे, तभी इसका धन्यवाद पूरा होगा।
और कोई उपाय नहीं है।
इस ऋण
से चुकने का एक ही उपाय है कि जो मैं तुम्हें दे रहा हूं, उसमें कंजूसी मत करना, उसे रोकना मत अपने भीतर, उसे बहने देना; उसे दूसरों तक जाने देना।
जीसस
ने कहा है अपने शिष्यों को: जाओ अब और मकानों की मुंडेर पर खड़े होकर चिल्लाओ, ताकि जो बहरे हैं वे सुन
सकें। वही मैं तुमसे कहता हूं।
धन्यवाद
देने की मुझे,
कोई
जरूरत नहीं है। तुम्हारे बिना कहे धन्यवाद पहुंच गया। मैंने तुम्हारी आंख में देख
लिया। तुम्हारे हृदय ने जो कहा वह मेरे भीतर सुनाई पड़ गया। जो तुम्हारे भीतर कह
जाता है,
वही
मेरे भीतर भी कह गया।
तुमने
पुरानी कहानी सुनी है ना: एक घुड़सवार--अपने घोड़े पर बैठा चला आ रहा है--राजपूत
--अपनी तलवार लगाए: एक बूढ़ी राह पर चल रही है; होगी अस्सी साल की बूढ़ी; सिर पर एक गठरी रखे हुए; और उससे बोली कि बेटा मैं थक
गई हूं। अगले गांव तक मुझे जाना है और तू भी वहां से तो गुजरेगा ही, यह पोटली ले ले, घोड़े पर रख ले और जो पहला ही
झोपड़ा मिले गांव में, उसमें
दे जाना। मैं उठा लूंगी।
उस
घुड़सवार ने कहा: तूने समझा क्या है मुझे? मैं कोई तेरा गुलाम हूं? कि कोई नौकर-चाकर हूं? ऐसा कहकर उसने घोड़े को एड
लगाई, आगे बढ़ गया।
कोई
आधा मील गया होगा,
तो उसे
खयाल आया: पता नहीं बुढ़िया की गठरी में क्या हो! मैं नाहक छोड़ दिया। ले लेता। कौन
सी देने की जरूरत थी कहीं? लिए
चला जाता। पता नहीं कुछ मूल्यवान भी हो!
लौट
आया। आ कर कहा: मां, भूल हो
गई, क्षमा कर। ला, गठरी दे दे, मैं पहले ही झोपड़े पर दे
जाऊंगा। उस बुढ़िया ने कहा: बेटा जो तुझसे कह गया, वह मुझसे भी कह गया।
कुछ
बातें हैं,
जो तैर
जाती हैं। अब गठरी देने की, उस
बुढ़िया ने कहा,
कोई
जरूरत नहीं है। अब मैं ढो लूंगी।
कुछ
बातें हैं,
जो
तरंगित हो जाती हैं। और जीवन के भाव बड़ी आसानी से तरंगित हो जाते हैं, वह भी एक भाव था। बेईमानी का
भाव था,
लेकिन
था भाव। इसकी तरंगें पहुंच गई।
बेईमान
आदमी जब तुम्हारे पास होता है, या कोई
तुम्हारे साथ बेईमानी करना चाहता है, अगर तुम सरल हृदय हो, तत्क्षण तुम पहचान जाओगे। अगर
तुम भी बेईमान हो,
तो
शायद न पहचान पाओ।
अगर
तुम्हारे हृदय में प्रेम है, तो तुम
दूसरे के प्रेम की मनुहार समझ जाओगे-- उसने कही हो; न कही हो; बोला हो, न बोला हो। हां, अगर तुम्हारे जीवन में प्रेम
नहीं है,
तो फिर
तुम पास में ही कोई खड़ा रहे, प्रेम
से भरा हुआ,
तुम न
समझ पाओगे।
तुम
धन्यवाद की चिंता न करो। धन्यवाद पहुंच गया। इतना ही करो कि जो तुम्हें मिले, उसे बांटते रहना, उसे बढ़ाते रहना, उसे किसी को देते जाना।
आपकी
ओर देखता हूं और रोता हूं: शुभ है। यहां जब मेरे पास बैठ कर रोते हो, उतना ही काफी नहीं है। जब दूर
चले जाओ,
अपने
गांव लौट जाओ,
वहां
भी कभी-कभी आंख बंद करना, मुझे
देखना और रोना। उसे रोने में ही तुम्हारी प्रार्थना के बीज पड़ जाएंगे।
मैं
तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं
अजनबी
यह देश,
अजनबी
यहां की हर डगर है।
बात
मेरी क्या--यहां कर एक खुद से बेखबर है।
किस
तरह मुझको बना ले सेज का सिंदूर कोई
जब कि
मुझको ही नहीं पहचानती मेरी नजर है
आंख
में इसमें बसा कर मोहिनी सूरत तुम्हारी
मैं
सदा को ही स्वयं को भूल जाना चाहता हूं
मैं
तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं।
दीप को
अपना बनाने की पतंगा जल रहा है
बूंद
बनने की समुंदर की, हिमालय
गल रहा है
प्यार
पाने को धरा का,
मेघ है
व्याकुल गगन में
चूमने
को मृत्यु,
निसि-दिन
श्वास-पंथी चल रहा है
है न
कोई भी अकेला राह पर गतिमय इसी से
मैं
तुम्हारी आग में तन-मन जलाना चाहता हूं।
मैं
तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं।।
गुरु
के साथ अपने को जोड़ लेना, पहला
कदम है--परमात्मा की तरफ। गुरु के साथ अपने को एक मान लेना बड़ी महत्वपूर्ण घटना है, क्योंकि उसके बाद परमात्मा के
साथ एक मान लेने में अड़चन न आएगी।
गुरु
तो पाठ है--परमात्मा के प्रति समर्पण का। जाना तो परमात्मा में है, गुरु तो द्वार है। सिक्खों का
शब्द गुरुद्वारा सुंदर है। मंदिर का नाम गुरुद्वारा--ठीक।
गुरु
तो द्वार है,
उसमें
पार हो जाना है;
उस पर
अटक नहीं जाना। इसलिए मुझे धन्यवाद देने की जरूरत नहीं है। मेरे प्रति कुछ कहने की
भी बात नहीं है। तुम्हें जो कहना हो, वह परमात्मा से कह देना। मुझसे पार हो जाओ।
कहने
को वहां भी तुम कुछ न पाओगे। कहने को कुछ है ही नहीं। जो कहा जा सके, क्षुद्र है; जो न कहा जा सके, वही विराट है।
लाओत्सु
ने कहा है कि जो कहा जा सके, वह
सत्य नहीं है। जो न कहा जा सके, वही
सत्य है।
छठवां प्रश्न: जीवन में कोई आकांक्षा-अभिलाषा पूरी नहीं हुई। सब
भांति असफलता ही हाथ लगी। विषाद में डूबा हूं और अब तो बस, एक ही इच्छा है कि मन किसी
भ्रांति शांत हो जाए। आप राह बताएं।
अब यह
एक नई अभिलाषा तुम्हें पकड़ी। तुम सीखे नहीं। इतनी आकांक्षाएं कीं, इतनी अभिलाषाएं कीं, सब हार गईं; सबसे विषाद मिटा। अब तुम नई
आशा कर रहे हो,
नई
अभिलाषा संजो रहे हो-- कि मन शांत हो जाए। तो तुम ठीक से समझे नहीं। पाठ गहरा नहीं
उतरा।
मन के
शांत होने का इतना ही अर्थ होता है कि अब हम और आकांक्षा न करेंगे। और क्या अर्थ
होता है!
आकांक्षा
करके देख लिया। आकांक्षा से मिली चिंता। चिंता से पैदा हुआ तनाव। और हर आकांक्षा
असफलता में डुबा गई।
तुम्हारी
कोई आकांक्षा पूरी हो ही नहीं सकती। क्योंकि तुम्हारी सब आकांक्षाएं परमात्मा के विपरीत
हैं। अगर तुम्हारी आकांक्षा परमात्मा के विपरीत नहीं है, तो तुम्हें आकांक्षा करने की
कोई जरूरत ही नहीं है।
हम जब
भी आकांक्षा करते हैं, तब नदी
के विपरीत,
धार
में तैरने की कोशिश कर रहे हैं।
भक्त कहता है: तेरी इच्छा पूरी हो। मेरी क्या
इच्छा! मैं हूं कौन? तेरे
सागर की एक छोटी-सी तरंग हूं; तू
जहां जाए,
हम भी
चलेंगे। एक तिनका हूं; तू
जहां बहे,
हम भी
बहेंगे।
जीसस
ने सूली पर कहा है: हे प्रभु मरजी पूरी हो। एक क्षण में उनको आकांक्षा जगी थी, खयाल आया था; एक क्षण तो नाराज होकर
परमात्मा को कहा भी था कि यह मुझे क्या दिखा रहा है! क्या तूने मुझे छोड़ दिया? त्याग दिया? इस संकट की घड़ी में तू मेरे
साथ नहीं रहा?
फिर
समझ आई कि यह मैं क्या कह रहा हूं! इसका तो अर्थ हुआ कि मेरी कोई छिपी वासना है, कोई दबी वासना है-- कि भगवान
ऐसा करे,
तो
ठीक।
जब भी
तुमने आकांक्षा की, तो
तुमने क्या चाहा?
तुमने
चाहा कि अस्तित्व तुम्हारे अनुकूल चले। यह इतना विराट अस्तित्व तुम्हारे अनुकूल
चले तो कैसे चले!
तुम
जरा सोचो तो;
तुम्हारा
अनुपात क्या है?
ऐसा ही
समझो कि एक छोटा-सा पत्ता इस गुलमोहर के वृक्ष में सोचने लगे कि सारा वृक्ष मेरे
अनुकूल चले। जब मैं हिलूं, तो
हिले। और जब मैं ठहरूं, तो
ठहरे। और जब मैं सोऊं, तो सो
जाए। और जब मैं जागूं, तो
जागे। कैसे यह हो सकेगा? वृक्ष
पत्ते की बात मान कर नहीं चल सकेगा। वृक्ष की बात ही मान कर पत्ते को चलना होगा।
आंख की माननी पड़ेगी बात--अंशी की।
पूर्ण
हमारी बात मान कर नहीं चल सकता है। लहरों की बात मान कर सागर चलेगा! कैसे यह होगा? वृक्ष जब हिलेगा, तो पत्ता हिलेगा। वृक्ष जब सो
जाएगा,
तो
पत्ता सो जाएगा।
आदमी
की तकलीफ यही है कि आदमी आकांक्षा करता है। आकांक्षा करता है--आकांक्षा का अर्थ
हुआ कि वह सारे विराट को अपने अनुकूल चलाना चाहता है। यह नहीं हो पाता; नहीं हो पाता तो विषाद होता
है। असफलता हाथ लगती है, तो दुख
होता है,
पीड़ा
होती है। लगना है: सब मेरे दुश्मन हैं। सारा अस्तित्व मेरे विपरीत है। कोई
तुम्हारे विपरीत नहीं है।
मैंने
सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन अपने दरवाजे पर बैठा है। बरसा हो रही है, मूसलाधार और कोई भागा हुआ आया
और उसने कहा कि बड़े मियां, क्या
बैठे हो! तुम्हारी पत्नी नदी में गिर गई। अरे, भागो, बचाओ।
तो
मुल्ला भागा। कपड़े पहने हुए ही नदी में कूद पड़ा, और जोर-जोर से हाथ मार कर नदी
में उलटी धारा की तरफ तैरने की कोशिश करने लगा। किनारे पर खड़े लोग चिल्लाए कि बड़े
मियां,
कुछ
अकल से काम लो। पत्नी बह गई, तो
नीचे की तरफ जाएगी। तुम ऊपर की तरफ तैर रहे हो! मुल्ला ने कहा: तुम मेरी पत्नी को
जानते हो कि मैं उसे जानता हूं? किसी
और की पत्नी हो,
तो
नीचे जाए। मेरी पत्नी को मैं भलीभांति जानता हूं। वह तो विपरीत ही जाएगी। वह जरूर
ऊपर की तरह गई होगी। जिंदगी भर का मेरा अनुभव ही यह है।
आदमी
ऐसा ही है। तुम्हारी सारी आकांक्षाएं अभिलाषाएं जीवन की धार के विपरीत है। धार के
विपरीत बहने में ही अहंकार का मजा भी आता है। धार के साथ बहने में अहंकार टिकेगा
ही नहीं। फिर तुम बचे ही नहीं।
जब
तुमने कहा: प्रभु तेरी मरजी पूरी हो, तो तुम कहां रहे? मैं कहां रहा? मैं तो तभी रहता है, जब मेरी मरजी पूरी हो। जब मैं
सारे अस्तित्व को अपनी मरजी के अनुसार झुका लूं, तब मैं का मजा है। धार के साथ
बहने में तो मैं विसर्जित हो जाता है।
तुम कहते
हो: जीवन में कोई आकांक्षा-अभिलाषा पूरी नहीं हुई, होती ही नहीं; किसी की भी नहीं होती। और अगर
कभी तुम्हें ऐसा लगता हो कि कोई आकांक्षा पूरी हो गई, तो उसका इतना ही अर्थ है कि
संयोगवशात तुमने वही आकांक्षा की, जो
अस्तित्व की आकांक्षा थी। वह संयोग की बात है। हार निश्चित है, जीत संयोग है।फिर दोहरा दूं।
हार निश्चित है,
जीत
संयोग है। यह ऐसा ही हुआ कि सोच रहा था कि मैं हिलूं और तभी आ गया हवा का झोंका और
वृक्ष हिलने लगा और पत्ता भी हिल गया और पत्ते ने कहा: अरे, बड़ा गजब हो गया।
मैंने
सुना है: एक युवक अपनी प्रेयसी को लेकर समुद्र के तट पर बैठा है। प्रेयसी बड़ी
मंत्रमुग्ध है युवक के प्रति। और जब कोई प्रेम में मंत्रमुग्ध होता है, तो फिर होश-हवाश नहीं रहता।
तभी उस युवक ने एक कविता उदधृत की। कविता का अर्थ है कि हे समुद्र की लहरों, उठो और आओ मेरी तरफ। अब
समुद्र की लहरें उठ ही रही थीं, आ ही
रही थीं। उसने कहा: हे समुद्र की लहरों, उठो और आओ मेरी तरफ। और बड़ी-बड़ी लहरें आने
लगीं। उसकी प्रेयसी बोली, अरे
गजब, समुद्र भी तुम्हारी मानता है!
समुद्र
किसकी मानता है! संयोग की बात होगी।
जीत
सुनिश्चित नहीं है। हार सुनिश्चित है, जीत मात्र संयोग है। तो कभी-कभी तुम जब जीत
जाते हो,
तब
व्यर्थ मत अकड़ जाना। यह संयोग की बात थी कि तुमने जो आकांक्षा की थी, वही विराट की भी आकांक्षा थी।
पूरी हो गई। लेकिन सौ में निन्यानबे मौके पर ऐसा संयोग नहीं होगा। संयोग तो
कभी-कभार होते हैं। निन्यानबे मौके पर तो तुम हारोगे।
तुम
कहते हो: जीवन में कोई आकांक्षा-अभिलाषा पूरी नहीं हुई, यह तुम्हारे ही साथ नहीं, सभी के साथ ऐसा है। किसी की
भी पूरी नहीं हुई। अगर आकांक्षाएं-अभिलाषाएं ही पूरी होती होतीं, तो मलूकदास कहते: कन थोड़े
कांकर घने?
वह कन
थोड़े का मतलब: वह जो एक प्रतिशत कभी-कभी पूरी हो जाती है। और कांकर घने--वह
निन्यानबे प्रतिशत, जो कभी
पूरी नहीं होती।
सब
भांति असफलता हाथ लगी। अब तो कुछ सीखो। अब तो जागो। अब तो कोई आकांक्षा मत करो। अब
तुम फिर नई आकांक्षा कर रहे हो। तुम कह रहे हो: विषाद में डूबा हूं। बस, अब तो एक हो इच्छा है कि मन
किसी भांति शांत हो जाए। अब तुमने नई आकांक्षा को--कि मन किसी भांति शांत हो जाए।
अकसर
मेरे अनुभव में आया है कि जो लोग मन को शांत करने में लग जाते हैं--और अशांत हो
जाते हैं। एक बड़ी झंझट की बात ले ली उन्होंने: अब मन शांत होना चाहिए।
पहले
धन पाना चाहते थे। धन शायद कोशिश करने से कभी मिल भी जाए। धन ऐसी तुच्छ चीज है कि
मिल सकता है। कोई बड़ी भारी बात नहीं है। चोरी-चपाटी से भी मिल सकता है। बेईमानी से
भी मिल सकता है। धोखे-धड़ी से भी मिल सकता है। और कभी संयोगवशात राह के किनारे पड़ा
भी मिल सकता है।
कोई पद
चाहता था। पद भी मिल सकता है।
अब
तुमने एक बड़ी आकांक्षा की--मन शांत हो जाए। यह सारी आकांक्षाओं में बड़ी से बड़ी
आकांक्षा है। तुम मुश्किल में पड़ोगे।
अकसर
मैंने देखा है कि धार्मिक आदमी जितने अशांत हो जाते हैं, उतने अधार्मिक आदमी नहीं
होते। धार्मिक आदमी तो बड़ी झंझट है।
एकांत
आदमी घर में धार्मिक हो जाए, तो तुम
जानते हो--घर भर झंझट में पड़ जाता है। अभी वे पूजा कर रहे हैं! अभी वे ध्यान कर
रहे हैं! प्रार्थना कर रहे हैं! बच्चों शोरगुल मत करो। पत्नी वर्तन नहीं पक सकती; दरवाजे जोर से लगाए नहीं जा
सकते। सारा घर मुश्किल में पड़ जाता है। और वे कुछ शांत हो नहीं रहे हैं! वे वहां
बैठे हैं और उबल रहे हैं। प्रार्थना के नाम पर, पूजा के नाम पर वहां भीतर आग जल रही है।
वे यह
मौका ही देख रहे हैं कि कोई दरवाजा जोर से खटका दे; कि बच्चा रो दे; कि पत्नी वर्तन गिरा दे, तो वे निकल कर बाहर आ जाएं कि
मेरा ध्यान भंग कर दिया। कोई बहाना तो मिल जाए--कम से कम बाहर निकलने का। कम से कम
यह तो हो जाए कि किसी दूसरे ने ध्यान भंग कर दिया।
जिनका
ध्यान लगता है,
उनका
भंग होता ही नहीं। और जिनका भंग होता है, उनके पास ध्यान था ही नहीं, जो कि भंग हो जाए।
नहीं, तुम इस आकांक्षा से मत उलझो।
अगर तुम्हें ठीक-ठीक समझ में आ गया कि सभी आकांक्षाएं दुख में डाल गई, तो अब नई आकांक्षाएं मत
करो--और तुम पाओगे कि मन शांत हो गया।
मन की
शांति प्रयास से नहीं होती; इसी
जीवन के प्रगाढ़ अनुभवों का सार निचोड़ है--कि कोई आकांक्षा शांति में नहीं ले जाती, अशांत करती है।
तो अब
यह नई आकांक्षा तो न करो। इतना तो कम से कम करो। अब बस, चुप हो जाओ। अब कह दो कि ठीक, जो होगा--होगा; मन अशांत होगा; हम क्या करेंगे! हमारे किए
क्या हुआ?
बाहर
का नहीं सधा,
भीतर
का क्या सधेगा?
अब तो
कह दो कि प्रभु,
तेरी
मर्जी। अशांत रखना हो, तो
अशांत रख। पागल रखना हो, तो
पागल रख। अब तू जैसा रखेगा, वैसा
रहेंगे। तेरी राजी में रजा हैं। जिहि विधि राखैं राम, तिहि विधि रहिए। जैसा
रखेंगे--वैसा रहेंगे। अशांत रखना है, तो जरूर तुम्हारी कोई मर्जी होगी। तुम मेरी
अशांति से कुछ काम ले रहे होओगे। चलो, वही ठीक। इसमें भी मौज है।
तुम
मेरी बात समझ रहे हो? अशांति
में भी अगर तुम स्वीकार-भाव ले आओ, तो फिर कैसे अशांत रहोगे? अशांति में थी अगर राजी हो
जाओ, तो शांत हो गए। अब और क्या
शांति चाहिए। तुम्हारा तनाव विसर्जित हो जाएगा।
जीवन
तो अपना है लेकिन,
सपनों
पर अधिकार नहीं है।
सुनो:
जीवन
तो अपना है लेकिन
सपनों
पर अधिकार नहीं है
यूं तो
बहुतेरे जलते हैं,
कुंदन
कौन यहां बन पाता
डूबे
तो लाखों हैं लेकिन, मोती
किसके हाथों आता
मैं
अपनी डगमग नैया की, कैसे
तट से पार निहारूं
सागर
का आमंत्रण मुझको
लहरों
को स्वीकार नहीं है
जीवन
तो अपना है लेकिन
सपनों
पर अधिकार नहीं है
अपना-अपना
भाग्य,
कहीं
रसधार,
कहीं
पर बिजली गिरती
खिलता
कोई फूल ओस में,
कोई
कली प्रथम दिन झरती
सावन
के मेघों को प्यासे अधरों ने सौ बार निहारा
बादल
किसके घर बरसें
जब
अपना ही घर-बार नहीं है
जीवन
तो अपना है लेकिन
सपनों
पर अधिकार नहीं है
चित्र
बड़ा मोहक है लेकिन, हल्दी
की अल्पना नहीं है
यह
शृंगार हाथ मेरे का है, कोई
कल्पना नहीं है
रूप
तुम्हारा सोने जैसा, प्रतिबिंबित
मन के दर्पण पर
दरपन
अपनाए भी तो क्या
छाया
का आकार नहीं है
जीवन
तो अपना है लेकिन
सपनों
पर अधिकार नहीं है।
छोड़ो
सपने। जीवन तुम्हारा है; सपने
छोड़ो।
दरपन
अपनाए भी तो क्या
छाया
का आकार नहीं है
जीवन
तो अपना है लेकिन
सपनों
पर अधिकार नहीं है।
ये
आकांक्षाएं सपने हैं--बस, सपने--कोरे
सपने हैं। अब तुम नई आकांक्षा मत जगाओ--कि मन को शांत करना है; कि मोक्ष पाना है; कि निर्वाण उपलब्ध करना है; कि समाधि लगानी है। अब तुम नई
आकांक्षाएं न जगाओ।
अगर
तुम सारी आकांक्षाओं को गिर जाने दो, इस अनुभव के कारण--कि कोई आकांक्षा कभी पूरी
नहीं होती--हुई ही नहीं; तो
क्या शेष रह जाएगा--तुम्हारे भीतर? जो शेष रह जाए, वही समाधि।
मन को
शांत नहीं करना होता। मन को समझने से शांति आती है। शांति परिणाम है।
आखिरी प्रश्न: भगवान, मलूकवाणी सुनते-सुनते हृदय भर
आया है;
आंसू
बहने लगे हैं और नींद भी जाती रही है। बहुत अनुगृहीत हूं। कल मैं आपसे दूर
होनेवाली हूं। पता नहीं फिर कब आपके पावन-चरणों के दर्शन हों। मुझे आशीष दें।
पूछा
है--धर्म मंजु ने। मंजु नैरोबी से है। काफी दिन से यहां थी, अब जाने का क्षण उसका आया।
अच्छा
हुआ कि आंखों में खूब आंसू बहे। आंसुओं से ज्यादा पवित्र करने वाली और कोई कीमिया
नहीं है। और आंसू आंखों को जितना साफ-सुथरा कर जाते हैं, उतनी और किसी कला से आंखें
साफ-सुथरी नहीं होतीं। और आंख साफ-सुथरी हो जाए, तो परमात्मा दिखाई पड़ने लगे।
और कमी ही क्या है?
सिर्फ
आंखों पर धूल जमी है--विचारों की धूल। भाव के आंसू उस धूल को बहा दें, तो दर्पण साफ हो जाए।
परमात्मा झलकने लगे।
ठीक
हुआ। मलूकदास जैसे मस्ती की वाणी का इतना ही प्रयोजन है कि तुम रो सको; कि तुम हृदय भर रो सको; कि तुम सब लोक-लाज छोड़ कर रो
सको; कि तुम सब ऊपर-ऊपर की बातचीत
और ऊपर-ऊपर की औपचारिकताएं और नियम, व्यवस्थाएं--सबको भूल जाओ और रो सको।
आंसू
बहे और नींद भी जाती रही है। ठीक ही हुआ। नींद सदा को ही टूट जाए। जो नींद रात
लगती है,
उसकी
मैं बात नहीं कर रहा हूं। लेकिन उससे भी एक गहरी नींद लगी है। आध्यात्मिक रूप में
हम सोए हुए हैं। वह नींद टूट जाए। तो संतों की वाणी ठीक हृदय पर चोट कर गई, तो तुम्हें जगा गई।
पूछा
है: और मैं आपसे दूर होने वाली हूं कल। दूर होने का अब उपाय नहीं मंजु। समय और
स्थान दूर नहीं करते हैं। यहां हो कि नैरोबी में, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ेगा।
भाव
अगर जुड़ा हो,
तो दूर
चांदत्तारों पर भी कोई हो, तो भी
जुड़ा है। और भाव अगर न जुड़ा हो, तो कोई
बिलकुल पास बैठा हो; देह से
देह सटा कर बैठा हो, तो भी
हजारों कोसों दूर है।
दूरी
दूरी में हिसाब रखना। भाव जुड़ा हो, तो दूरी भी दूरी नहीं। भाव न जुड़ हो, तो निकटता भी दूरी है।
और
नींद तो टूटनेवाली है; आंखें
और भी आंसुओं से भरेंगी; और भी
गीली होंगी।
सच कहा
था जाहिद तूने,
जहर
कातिल है शराब।
हम भी
कहते यही,
जब तक
बहार आई न थी।
बहुत
हैं यहां,
जिनको
आंख नहीं भरती है। दूसरों की भरी आंख देख कर उन्हें हैरानी भी होती है कि पागल हैं
क्या!
सच कहा
था जाहिद तूने,
जहर
कातिल है शराब।
हम भी
कहते थे यही,
जब तक
बहार आई न थी।
वे तब
मुस्कुराएंगे तुम पर, जब तक
बहार का उन्हें पता नहीं चला। जिस दिन उनका झोंका आ जाएगा, जिस दिन उनका वसंत आएगा, उस दिन से समझेंगे कि आंसुओं
का मजा क्या है।
उनको
देख कर आंसू रोकना मत। दूसरों की चिंता मत करना। कौन क्या कहता है--इसकी फिक्र मत
करना। जिस व्यक्ति का परमात्मा की दिशा में जाना हो, उसे दूसरों के मंतव्य का ध्यान
रखना छोड़ देना चाहिए।
यहां
तू रोई,
नैरोबी
में भी रोना। जहां भी हो, वहां
प्रभु के लिए रोते रहना।
रोने
से कोई जितने करीब आया है प्रभु के और किसी तरकीब से नहीं आया।
रोना
सुगमतम मार्ग है। कोई ठीक-ठीक रो सके, तो कुछ और करने की जरूरत नहीं है। फिर
ठीक-ठीक हंसने का अविर्भाव होता है।
भक्ति
की एक ऐसी घड़ी आ जाती है, जब
रोना और हंसना साथ चलता है। पहले रोना। फिर नंबर दो पर घड़ी आती है, जब रोना-हंसना साथ चलता है।
तब
बिलकुल मतवालापन हो जाता है, क्योंकि
जब रोना-हंसना साथ चलता है, तो लोग
समझते हैं--बिलकुल पागल है।
फिर
तीसरी घड़ी जाती है, जब
हंसना ही हंसना रह जाता है।
और फिर
चौथी अंतिम अवस्था आती है--न हंसना रह जाता, न रोना रह जाता; वही परम शांति है।
पर दूर
जाने का कोई उपाय नहीं है। पास जो आ गया, उसे दूर जाने का कोई उपाय नहीं है।
मयखाने
की चौखट को जरा चूम लें साकीं।
मयखाने
से आखिरी तो जुदा हो ही रहे हैं।
नहीं, यह मयखाना ऐसा नहीं है। इसकी
चौखट को चूमने की जरूरत नहीं है। इसकी चौखट बड़ी है। जो इस मयखाने का साक्षीदार हो
गया, जिसने यहां बैठकर थोड़ी शराब
पी ली,
वह फिर
जहां भी रहे,
वहीं
इस शराब को पी सकेगा।
यह
शराब सूक्ष्म है। बाहर पर निर्भर नहीं है। तुम्हारे भीतर की ही सुराही है। भरी है; तुम्हीं को ढालनी है।
दूर
रहो या पास,
याद
जारी रहे
उठे
कभी घबरा के तो मयखाना हो आए।
पी आए
तो फिर बैठ रहै यादे खुदा में।।
बस, पीना। कभी होश रहे, तो याद कर लेना। कभी बेहोशी आ
जाए, तो उसमें डुबकी लगा लेना।
उठे
कभी घबरा के तो मयखाना हो आए।
पी आए
तो फिर बैठ रहे याद खुदा में।।
समय और
स्थान मूल्यवान नहीं है।
यह जो
संबंध है--समय और स्थान से परे है। इस संबंध का नाम ही संन्यास है। संन्यास यानी
एक ऐसा संबंध,
जो समय
और स्थान से परे है; एक ऐसा
प्रेम जो न देह का है, न मन
का है;
एक ऐसा
लगाव, जो पारलौकिक है; एक ऐसा स्वाद, जो इस पृथ्वी का नहीं है।
और
मंजु को वैसा स्वाद मिला है। उसकी आंखों में, उसके भाव में, उसके हृदय में उस स्वाद की
तरंगें मैंने देखीं हैं, मैं
आश्वस्त हूं।
आज इतना ही।
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