ओशो
दिनांक 12, नवम्बर, सन् 1980
दूसरा प्रवचन-(नास्तिकता:
अनिवार्य प्रक्रिया)
पहला
प्रश्न: भगवान, जीवन के चालीस वर्ष नास्तिक समाजवादी विचारधारा में
गंवाने के बाद पिछले पंद्रह वर्षों से आपका संपर्क पाया। और जीवन में जो आनंद और
उत्सव का अनुभव किया, उसका कैसे वर्णन करूं? और कैसे अपनी कृतज्ञता प्रकट करूं? शब्द बिलकुल ओछे
पड़ गए हैं। आप क्या मिले, बस सब कुछ मिल गया! प्रभु, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
अमृत
बोधिसत्व!
आस्तिक होने के लिए नास्तिक होना अत्यंत अनिवार्य है। अभागे हैं वे
जिन्होंने कभी नास्तिकता नहीं चखी, क्योंकि वे आस्तिकता
का स्वाद न समझ पाएंगे। आस्तिकता उभर कर प्रकट होती है, नास्तिकता
की पृष्ठभूमि चाहिए। जैसे ब्लैकबोर्ड पर लिखते हैं सफेद खड़िया से, अक्षर-अक्षर साफ दिखाई पड़ता है। यूं तो सफेद दीवाल पर भी लिख सकते हैं,
मगर तब अक्षर दिखाई न पड़ेंगे।
इस जगत के बड़े से बड़े दुर्भाग्यों में से एक है कि हम प्रत्येक बच्चे
को नास्तिक बनने के पहले आस्तिक बना देते हैं।
वह आस्तिकता झूठी होती है, उसमें कुछ प्राण नहीं होते। उस आस्तिकता में पंख नहीं होते। वह निर्वीर्य
होती है, निर्जीव होती है। खिलौनों की तरह कृष्ण को पकड़ा
देते हैं, राम को पकड़ा देते हैं, बुद्ध
को, महावीर को पकड़ा देते हैं। अभी बच्चे में जिज्ञासा भी
नहीं जगी, अभी प्रश्न भी नहीं उठा, और
हमने उत्तर दे दिए! जहां प्रश्न ही नहीं है, वहां उत्तर
मिथ्या होगा; वहां उत्तर की कोई गुंजाइश ही नहीं है। बीमारी
ही नहीं है, और तुमने इलाज शुरू कर दिया! तुम दवा पिलाने
लगे! तुम्हारी दवा जहर बन जाएगी।
और आस्तिकता जहर बन गई है। सारी पृथ्वी आस्तिकता से पीड़ित है, नास्तिकता से नहीं। और आदमी कुछ ऐसा मूढ़ है कि एक अति से दूसरी अति पर
जाने में उसे देर नहीं लगती। रूस, चीन और दूसरे कम्युनिस्ट
देश दूसरी अति पर चले गए। बच्चा पैदा हुआ, और वे उसे
नास्तिकता सिखाने लगते हैं।
सिखाई नास्तिकता उतनी ही थोथी होगी, जितनी सिखाई
आस्तिकता। किसी बच्चे को भूख तो नहीं सिखानी होती, प्यास तो
नहीं सिखानी होती, नींद तो नहीं सिखानी होती।
नास्तिकता वैसी ही स्वभावतः पैदा होती है। नास्तिकता का ठीक अर्थ है:
जिज्ञासा, आकांक्षा जानने की, अन्वेषण,
खोज। वह यात्रा है। प्रत्येक व्यक्ति अपने साथ लेकर आया है उसके
बीज। किसी को नास्तिक बनाने की जरूरत नहीं है और न किसी को आस्तिक बनाने की जरूरत
है। बनाया कि चूक हुई। बनाया कि ढोंग हुआ। बनाया कि मुखौटे उढ़ा दिए। फिर मुखौटे
हिंदू के हों, कि मुसलमान के, कि ईसाई
के, कि नास्तिक के, कम्युनिस्ट के,
इससे भेद नहीं पड़ता। दूसरों के द्वारा उढ़ाए गए मुखौटे तुम्हारा
चेहरा नहीं हैं। और तुम्हारा चेहरा ही काम आएगा।
जीवन उधार नहीं जीया जा सकता। जीवन प्रामाणिक होना चाहिए। हमें इतना धैर्य
रखना चाहिए कि बच्चे पर जब जिज्ञासा अपने आप अवतरित होगी, जब वह पूछेगा, तो हम साथ देंगे। और साथ भी बहुत सोच
कर देना।
साथ देने का अर्थ नहीं है कि वह पूछे और तुम उत्तर देना। प्रश्न उसका, उत्तर तुम्हारा, मेल कैसे होगा? प्रश्न उसका तो उत्तर भी उसका ही होना चाहिए, तभी
तृप्ति होगी, तभी संतोष होगा, तभी बोध
होगा, बुद्धत्व होगा।
तो जब बच्चे को जिज्ञासा जगे, प्रश्न उठें, संदेह के झंझावात आएं, तब माता को, पिता को, परिवार को, प्रियजनों
को, शिक्षकों को सहयोग देना चाहिए--प्रश्नों के निखारने का,
निखारने में, प्रश्नों पर धार रखने में।
प्रश्नों पर उत्तर नहीं थोपने हैं, प्रश्नों को त्वरा देनी
है, तीव्रता देनी है। प्रश्नों को ऐसी प्रगाढ़ता देनी है कि
जब तक व्यक्ति उनके उत्तर स्वयं न खोज ले, चैन न पाए,
विश्राम न पाए। उसके प्रश्नों को मूल्य दो।
मगर किसको पड़ी है! हमें जल्दी है हमारे उत्तर थोप देने की। हमारा
न्यस्त स्वार्थ यही है कि हम जल्दी से अपने उत्तर थोप दें। बेटा पैदा हुआ, कि चलो उसका यज्ञोपवीत संस्कार करो, कि चलो उसका
खतना करवाओ, कि चलो उसको मुसलमान बनाओ, हिंदू बनाओ, ईसाई बनाओ, बपतिस्मा
करवाओ। जैसे उसका तो इसमें कुछ भाग ही नहीं है। यह सब दूसरों का गोरखधंधा है,
जिसमें उसको फंसना है। ये जो उसे फंसा रहे हैं, ये भी फंसाए गए थे। इनके बाप-दादे भी फंसाए गए थे; और
उनके बाप-दादे भी। और ये पीढ़ियों दर पीढ़ियों बीमारियां सरकती चली जाती हैं,
और भी जघन्य होती जाती हैं। ये रोग इतने घने हो जाते हैं कि इनका
इलाज करना मुश्किल हो जाता है।
अमृत बोधिसत्व, तुम धन्यभागी हो कि तुम जब मुझे मिले, नास्तिक थे। मुझसे मिलने के लिए नास्तिक होना ठीक-ठीक क्षण है, जैसे वसंत। और वह नास्तिकता तुम्हारी ओढ़ी हुई नहीं थी, क्योंकि भारत में कौन नास्तिकता उढ़ाएगा तुम्हें! वह सहज थी, तुम्हारी थी, अपनी थी; निजता
थी उसमें, व्यक्तित्व था उसका। तुम्हें ही मुझसे प्रेम हो
गया, ऐसा नहीं; मुझे भी तुमसे प्रेम हो
गया। जहां भी प्रामाणिकता है वहां मैं ऐसे बरस पड़ता हूं जैसे जल से भरा हुआ कोई
बादल बरसे।
अमृत बोधिसत्व समाजवादी थे, और महत्वपूर्ण
समाजवादी थे। कहानी तो यह है कि स्वयं माओत्से तुंग ने अमृत बोधिसत्व के चित्र को
पेकिंग में रख कर सलामी दी थी, क्योंकि अमृत बोधिसत्व ने
गुजरात के एक कारखाने पर कब्जा कर लिया था और उस कारखाने की मालकियत मजदूरों में
बांट दी थी। वह पहला समाजवादी प्रयोग था। भारत में बहुत उसकी चर्चा नहीं हुई।
लेकिन चीन और रूस तक उसकी चर्चा हुई।
मुझे जब अमृत बोधिसत्व मिले थे, तो शायद उन्होंने कभी
सोचा भी न होगा कि यह जीवन में एक नया मोड़ आया, ऐसा जिसकी
कल्पना भी न थी, स्वप्न भी न देखा होगा। उनके संगी-साथियों
ने भी न सोचा होगा कि अमृत बोधिसत्व कभी संन्यासी हो जाएंगे।
मगर मेरी अपनी सूझ यही है कि जो नास्तिक होने की हिम्मत रखता है, वही कभी संन्यासी भी हो सकता है। संन्यास नास्तिक होने से भी बड़ी हिम्मत
है। जो नास्तिक होने की हिम्मत नहीं रखता इसलिए आस्तिक है, उसकी
आस्तिकता दो कौड़ी की है, उसका कोई भी मूल्य नहीं है। कचरा
है। जितने जल्दी उससे छुटकारा हो जाए, उतना अच्छा है। जो
नास्तिक होने तक की हिम्मत नहीं रखता, वह क्या खाक आस्तिक
होगा! आस्तिकता बड़ी बात है। नास्तिकता तो छोटी बात है। नहीं तो हमेशा छोटा होता
है।
तुमने खयाल किया, जब तुम नहीं कहते हो, तो सिकुड़ जाते हो; और जब तुम हां कहते हो, तो फैल जाते हो! और आस्तिकता का अर्थ है, समग्ररूपेण
अस्तित्व को हां कहना। सारी नहीं गिर जाए, सारा नकार गिर
जाए। नहीं कहने में तो कोई अड़चन नहीं है बड़ी, क्योंकि नहीं
अहंकार को भरती है। हम नहीं इसीलिए तो कहते हैं। नहीं भोजन है अहंकार का। जितना
नहीं कहो, उतना अहंकार को मजा आता है। इसलिए जहां नहीं कहने
की कोई जरूरत भी नहीं, वहां भी हम मौका नहीं चूकते; वहां भी हम नहीं कहेंगे।
अगर तुम रेलवे स्टेशन पर टिकट की खिड़की पर टिकट खरीदने खड़े हो, तो तुमने देखा होगा कि क्लर्क को कुछ काम भी नहीं है तो भी वह फाइलें
उलटाने लगता है, तुम्हारी तरफ देखता ही नहीं। वह यह कह रहा
है, तुम हो ही क्या! वह एक ढंग से नहीं कह रहा है। अगर तुम
बीच में दखलंदाजी करो कि भई, मुझे टिकट चाहिए। वह कहेगा,
चुप रहो! काम में बाधा न डालो। पंद्रह मिनट बाद आना।
छोटा सा बच्चा अपनी मां से पूछता है, बाहर खेल आऊं?
नहीं! जैसे कि कोई गुनाह की बात पूछ रहा है, कोई अपराध करने जा रहा है। सिर्फ बाहर धूप है, पक्षी
हैं, वृक्षों पर फूल खिले हैं, बच्चे
को बहुत से निमंत्रण बाहर से आ रहे हैं। पड़ोसियों के बच्चे खेल रहे हैं, खिलखिला रहे हैं। वह मां से पूछता है, बाहर खेल आऊं?
नहीं! जैसे नहीं तो जबान पर रखा है।
नहीं कहने में मजा है, क्योंकि बल पता चलता
है। हां कहने में बल पता नहीं चलता। जिसको थोड़ी सी भी सत्ता है, वह भी नहीं कहेगा। चपरासी भी नहीं कहेगा। है चपरासी, बैठा है स्टूल पर, लेकिन तुम पहुंचोगे तो यूं
व्यवहार करेगा जैसे राष्ट्रपति हो--ठहरो अभी! रुको अभी! अभी मालिक काम में उलझे
हैं।
नहीं कहने में एक मजा है। मजा यह है कि देखो मेरी ताकत, रोक दे सकता हूं। बड़ों-बड़ों को रोक देता हूं। तुम किस खेत की मूली हो!
तो नहीं कहना तो बहुत छोटी बात है। अगर उस छोटी सी बात को भी कहने की
हिम्मत नहीं है, तो फिर हां जैसी विराट अनुभूति को कैसे स्वीकार करोगे?
नास्तिक होना नहीं कहना है। हर बच्चे को नास्तिकता से गुजरना ही
चाहिए। वह अनिवार्य प्रक्रिया है। उसे नहीं कहना ही चाहिए। उसे नहीं सीखना ही
चाहिए। क्योंकि नहीं कह कर ही तो, ये नहीं के कांटों के बीच में ही
तो कभी हां का गुलाब खिलेगा।
हां, जिसने नहीं कही है और नहीं कहने के लिए कष्ट भोगा है,
वह ज्यादा दिन तक नहीं नहीं कहता रहेगा। उसे समझ में आनी बात शुरू
हो जाएगी, क्योंकि नहीं से कोई तृप्ति नहीं मिलती, संतोष नहीं मिलता, आनंद नहीं मिलता। दूसरे को दुख
भला दे दो; मगर दूसरे को दुख देने में तुम्हें थोड़े ही सुख
मिलता है! दूसरे को मिटा देने में तुम थोड़े ही बन जाते हो!
इंग्लैंड का एक सम्राट अपने राजदूत को फ्रांस भेज रहा था। और फ्रांस
में जो उस समय सम्राट था, एकदम झक्की था। इतना झक्की कि कोई फ्रांस राजदूत होकर
नहीं जाना चाहता था, क्योंकि वह जरा सी बात में बिगड़ जाए,
तो गर्दन कटवा ले। वहीं! देर-अबेर भी न करे, वहीं
राज-दरबार में गर्दन कटवा ले। पहले गर्दन कटवाए, फिर दूसरा
काम करे।
तो मूर नाम का जो व्यक्ति भेजा जा रहा था, उसने अंग्रेज सम्राट को कहा कि देखें, मेरे
बाल-बच्चे हैं, पत्नी है, बूढ़े मां-बाप
हैं, किसी और को भेज दें! वह आदमी पागल है। और आप मुझे भी
जानते हैं कि मैं भी गर्म-मिजाज हूं। और उसके साथ बात बिगड़ जाएगी; ज्यादा देर चल नहीं सकती मेरी बात। अगर उसने एक शब्द भी ऐसा कुछ कहा जो
मुझे नहीं जमा, तो फिर गर्दन रहे कि जाए। वह मेरी गर्दन कटवा
लेगा।
अंग्रेज सम्राट ने कहा, मूर, तू फिक्र न कर। अगर उसने तेरी गर्दन कटवाई, तो कम से
कम एक हजार फ्रांसीसियों की गर्दन इंग्लैंड में कटवा लूंगा उसी वक्त। तू बेफिक्र
रह!
मूर ने कहा, आप कहते हैं तो जरूर करेंगे। मगर सवाल यह है कि उन एक
हजार गर्दनों में से कोई भी गर्दन मेरी गर्दन पर जमेगी क्या? मैं तो गया, अब तुम हजार कटवाओ कि लाख कटवाओ,
कटवाओ कि न कटवाओ, क्या फर्क पड़ता है!
मूर ने ठीक बात कही। दूसरे को मिटाने से तुम तो नहीं बनते हो। दूसरे
की मौत तुम्हारा जीवन तो नहीं हो सकती है। दूसरे का दुख तुम्हारा सुख तो नहीं।
दूसरे के जीवन के फूलों को तुम नष्ट कर दो, इससे कुछ तुम्हारे
जीवन की बगिया में चंपा और चमेली और जुही तो न खिल जाएंगे। पड़ोसी के घर में आग लगा
दो, इससे कुछ तुम्हारा झोपड़ा महल तो न हो जाएगा।
नहीं दूसरे को तो दुख दे सकती है, इसलिए थोड़े अहंकार को
मजा आ सकता है कि देखो, चखा दिया मजा! दिखा दिया कि मैं कौन
हूं! आज अहसास करवा दिया कि मैं भी कुछ हूं! लेकिन यह अहसास दूसरे को करवा देकर
तुमने घाव भला पहुंचा दिया हो, लेकिन उसका घाव तुम्हारे भीतर
कोई कमल का खिलना तो नहीं हो जाएगा।
तो जिसने नहीं कहा है, प्रामाणिक रूप से
नहीं कहा है, जो नास्तिक है...। नास्तिक की मेरी परिभाषा यही
है कि जो नहीं कहने में तल्लीन हो गया है। जिसने इतना नहीं कहा है कि वह परमात्मा
को भी नहीं कह रहा है, आत्मा को भी नहीं कह रहा है, जीवन के सर्वोच्च मूल्यों को नहीं कह रहा है। जो कह रहा है, जीवन सिर्फ पदार्थ है और कुछ भी नहीं, मिट्टी है और
कुछ भी नहीं। यहां कुछ सार नहीं है, कुछ शाश्वत नहीं है।
नहीं कहने में थोड़ी-बहुत देर मजा आ जाए, लेकिन कब तक? जल्दी ही एक बात खयाल में आएगी: अगर कुछ भी नहीं है--न परमात्मा है,
न सत्य है, न सौंदर्य है, न शिवत्व है, न शाश्वतता है, न
अमृतत्व है, न बुद्धत्व है--तो फिर जीवन एकदम व्यर्थ है। एक
मूढ़ के द्वारा कही हुई कथा--शोरगुल बहुत, अर्थ कुछ भी नहीं।
व्यर्थ की बकवास है।
नास्तिक अगर प्रामाणिक हो--रूसी नहीं, चीनी नहीं, क्योंकि रूस और चीन में नास्तिक वैसा ही झूठा है, जैसे
भारत के आस्तिक झूठे हैं। भारत में आस्तिकता थोपी जाती है, चीन
और रूस में नास्तिकता थोपी जाती है। हर थोपी चीज झूठी हो जाती है। जिसके भीतर से
नास्तिकता जगी है! और हर बच्चे के भीतर जगती है, जगनी ही
चाहिए। मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। मनोवैज्ञानिक अनिवार्यता है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि हर बच्चे के जीवन में वह घड़ी आती है जब उसे
नहीं कहना ही चाहिए। क्योंकि नहीं कहेगा, तो ही धीरे-धीरे
मां-बाप से मुक्त होगा। नहीं कहेगा, तो ही मां की साड़ी को
छोड़ेगा; नहीं तो साड़ी को पकड़े ही फिरता रहेगा। नहीं कहेगा,
तो ही अपना व्यक्तित्व निखरेगा; नहीं तो
मां-बाप की ही दुनिया का एक हिस्सा रहेगा; कभी भी अपनी
क्षमता को अलग न कर पाएगा, अपनी प्रतिभा को निखार न पाएगा।
इसलिए बच्चे को अनिवार्य रूप से नहीं कहना पड़ेगा।
वह जो बाइबिल की कथा है कि ईश्वर ने कहा अदम को और हव्वा को कि तुम इस
वृक्ष के फल न खाना, यह वृक्ष ज्ञान का वृक्ष है। ध्यान रहे, चेताता हूं तुम्हें, बार-बार चेताता हूं, इस ज्ञान के वृक्ष के फल मत खाना! उन्होंने खाए ज्ञान के वृक्ष के फल। और
उसी की सजा मिली उन्हें कि वे बहिश्त से निकाल कर बाहर कर दिए गए। लेकिन मैं मानता
हूं कि यह कथा बड़ी मनोवैज्ञानिक है। यह हर बच्चे के जीवन में घटती है। यह सिर्फ
कथा नहीं है। यह कभी इतिहास में घटी, ऐसा नहीं है। यह हर
बच्चे के जीवन में घटती है, अपरिहार्यरूपेण घटती है।
मां-बाप कहेंगे, सिगरेट न पीना, और बच्चा पीएगा। मां-बाप कहेंगे, ऐसा न करना,
और बच्चा वैसा ही करेगा। असल में तुम्हें जो न करवाना हो, उसकी बात ही न छेड़ना। तुम्हें जो करवाना हो, उसी के
लिए इनकार करना। क्योंकि तुम जिसको इनकार करोगे, बच्चा उसे
तोड़ेगा; तोड़ेगा तो ही तुमसे मुक्त हो सकता है।
जैसे एक दिन मां के गर्भ से बच्चे को बाहर आना होता है, वैसे ही एक दिन बच्चे को मां-बाप के मनोवैज्ञानिक गर्भ से भी बाहर आना
होता है। और उससे बाहर आने की एक ही प्रक्रिया है कि वह कहे नहीं। मां-बाप के धर्म
को नहीं कहे। मां-बाप के सिद्धांतों को नहीं कहे। मां-बाप के आचरण-संहिता को नहीं
कहे। मां-बाप जो भी मानते हों, उस सबको नहीं कहे, तो ही वह उस मनोवैज्ञानिक गर्भ के बाहर आएगा और अपने व्यक्तित्व को उपलब्ध
होगा। वही उसका असली जन्म है। नहीं तो वह गोबर-गणेश रह जाएगा।
अधिक बच्चे गोबर-गणेश रह जाते हैं। मां-बाप गोबर-गणेशों से बहुत
प्रसन्न होते हैं। गोबर-गणेशों की खूब प्रशंसा करते हैं कि बेटा हो तो ऐसा हो!
कैसा आज्ञाकारी! इधर बैठो! तो इधर बैठता है। उधर बैठो! तो उधर बैठता है। गोबर-गणेश
ही हैं, बैठ गए सो बैठ गए! उठाओ तो उठें, बैठाओ तो बैठें। लेकिन इन गोबर-गणेशों से दुनिया में कोई भी सौंदर्य बढ़ा
नहीं। इन गोबर-गणेशों ने दुनिया को दिया क्या?
इस दुनिया को अगर किन्हीं ने भी कुछ दिया है, तो वे वे बच्चे हैं जिन्होंने आज्ञाएं तोड़ी हैं; जो
मां-बाप की आज्ञाओं के विपरीत गए हैं; जिन्होंने हिम्मत की
है और साहस किया है। हिम्मत बड़ी है, क्योंकि छोटा बच्चा
मां-बाप पर निर्भर होता है, सब तरह से निर्भर होता है। भोजन
के लिए, वस्त्र के लिए, शिक्षा के लिए,
उसका सारा जीवन ही मां-बाप पर निर्भर है। उतनी निर्भरता को भी दांव
पर लगा देता है; और जो उसे करना है करता है, करके दिखाता है।
एक छोटे बच्चे ने--मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा, फजलू--उसने सेब का वृक्ष काट डाला। नसरुद्दीन ने उसकी खूब पिटाई की। पिटाई
करने के पहले पूछा कि तूने सेब का वृक्ष काटा? तूने ही काटा?
उसने कहा, हां, मैंने ही
काटा।
उसके बाप ने, नसरुद्दीन ने कहा, मैंने तुझसे
कितनी बार नहीं कहा था कि इस वृक्ष को काटना मत। तू यह कुल्हाड़ी लिए बगीचे में
क्यों घूमता है? ये बगीचे को बर्बाद करना है? यह वृक्ष मैंने मुश्किल से लगाया था, बामुश्किल बड़ा
हुआ था। इस भूमि में, इस तापमान में, इस
आबोहवा में सेब लगते नहीं, इसमें सेब लगने शुरू हो गए थे।
मना किया, फिर भी तूने काटा! और ऊपर से तू यह भी जुर्रत कर
रहा है कि इनकार भी नहीं करता, कहता है कि हां काटा।
तो बेटे ने कहा, आपने ही मुझे कहानी सुनाई थी कि
अमरीका के प्रथम राष्ट्रपति वाशिंगटन ने सेब का वृक्ष काट दिया था। और जब उसके बाप
ने पूछा तो वाशिंगटन ने कहा, हां, वृक्ष
मैंने ही काटा है। बाप ने मारा तो नहीं, वरन पुरस्कार दिया,
क्योंकि बेटा सत्य बोला। मैं तो उसी आधार पर चल रहा हूं। उलटे मुझे
पिटाई पड़ रही है!
बाप ने कहा, वह कहानी मुझे मालूम है, मैंने
ही तुझे सुनाई। मगर तू यह भी खयाल रख कि जब वाशिंगटन ने सेब का वृक्ष काटा था,
तो उसका बाप वृक्ष पर नहीं बैठा था। हरामजादे, मैं वृक्ष के ऊपर बैठा हुआ था। यह भी कोई वक्त था काटने का!
लेकिन बच्चों को कितना ही तुम सताओ, जिनमें थोड़ी भी
प्रतिभा है, जिनमें थोड?ी भी तेजस्विता
है, वे इनकार करेंगे। उन्हें इनकार करना ही है, करना ही पड़ेगा। यह मनोवैज्ञानिक अनिवार्यता है, अपरिहार्यता
है।
नास्तिकता इस सारे इनकार का इकट्ठा नाम है। सारी धारणाएं, सिद्धांत, शास्त्र, परंपरा,
व्यवस्था, स्थापित स्वार्थ, स्थापित मूल्य, इन सबको इनकार करने का नाम नास्तिकता
है।
मेरे देखे, अमृत बोधिसत्व, जो इतना इनकार
करता है, उसे एक दिन वह घड़ी जरूर आ जाती है जब यह प्रश्न
उठता है: इस इनकार से मैंने पाया क्या?
हां, मां-बाप से छूटा, मुक्त हुआ,
अपने पैर पर खड़ा हुआ, अब क्या? अब आगे की यात्रा कैसे हो? और तभी पहली दफा जीवन में
आस्तिकता की किरण फूट सकती है, अगर संयोग मिल जाए किसी
आस्तिक से मिलने का।
तुम धन्यभागी थे कि मुझे मिल गए। मैंने तुम्हें नाम दिया, अमृत बोधिसत्व। वे दो शब्द मैंने तुम्हारे लिए उपयोग किए, उन्हीं दो को तुम इनकार करते रहे थे। अमृत यानी परमात्मा, शाश्वत, जो सदा है। और बोधिसत्व अर्थात उसे जान लेना,
पहचान लेना, अनुभव कर लेना, बुद्धत्व को पा लेना। मैंने तुम्हें जो दो शब्द दिए, वे तुम्हारी पूरी चालीस साल की नास्तिकता की पृष्ठभूमि में ही दिए। उसी
पृष्ठभूमि में वे उभर कर प्रकट हुए।
तुम कहते हो, "मैं चालीस साल तक नास्तिक था। समाजवादी
विचारधारा में जीवन गंवाने के बाद पिछले पंद्रह वर्षों से आपका संपर्क पाया। और
जीवन में जो आनंद और उत्सव का अनुभव किया, उसका कैसे वर्णन
करूं!'
इन पंद्रह वर्षों में और भी लाखों लोग मेरे संपर्क में आए, लेकिन उन सभी को वह आनंद और उत्सव अनुभव नहीं हुआ, जो
तुम्हें अनुभव हुआ है। और उसका कारण तुम्हारी नास्तिकता थी। तुम तैयार थे, तुम्हारी पृष्ठभूमि तैयार थी। आस्तिक भी मेरे संपर्क में आए हैं। मगर
चूंकि उनकी आस्तिकता झूठी थी, उनका मेरे संपर्क में आना भी
झूठा हुआ। मेरे और उनके बीच एक दीवाल बनी रही। तुम उघाड़े थे। तुम्हारे और मेरे बीच
कोई दीवाल न थी। तुमने सारे वस्त्र पहले ही फेंक दिए थे। तुम नग्न खड़े थे सूरज
में। तुमसे मेरा संपर्क सीधा हो सका।
आस्तिक यहां आ जाता है, तो उसे बड़ी मुश्किल
होती है, क्योंकि उसकी धारणाएं बीच में खड़ी रहती हैं। उसकी
आकांक्षा होती है कि मैं उसकी धारणाओं का समर्थन करूं! और मैं उसका दुश्मन नहीं
हूं, तो कैसे उसकी धारणाओं का समर्थन करूं! उसकी धारणाओं का
समर्थन करूं तो उसके जीवन में कभी क्रांति नहीं होगी। मुझे तो उसकी धारणाएं तोड़नी
ही पड़ेंगी। तुम्हारी कोई धारणा न थी, इसलिए काम आधा तो तुम
कर ही चुके थे। पुराने को तो तुम मिटा चुके थे, नए को बनाने
की बात थी। वह बहुत आसान है। असली सवाल तो पुराने को मिटाना है, क्योंकि पुराने से हमारा मोह होता है। नए को बनाने के लिए तो हरेक उत्सुक
हो जाता है। लेकिन जिनका पुराने से मोह है, उनके मोह बड़े
भयंकर होते हैं।
मैंने सुना, एक पुराना चर्च था। वह गिरने के करीब था। इतना
जीर्ण-जर्जर कि उसके भीतर जाकर कोई प्रार्थना करने में भी डरता था, कि जरा हवा जोर से चलती थी, तो चर्च कंपता था,
चरमराता था। अब गिरा, तब गिरा! औरों की तो बात
छोड़ दो, पादरी भी भीतर नहीं जाता था। वह भी चर्च के बाहर से
ही प्रार्थना करके लौट जाता था।
आखिर चर्च के जो प्रमुख थे, उनकी बैठक हुई। और
उन्होंने कहा, अब कुछ करना होगा। अब चर्च में लोगों ने जाना
ही बंद कर दिया; इतना ही नहीं, चर्च के
पास से भी निकलना बंद कर दिया; क्योंकि पता नहीं कब गिर जाए।
और चर्च पुराना है।
और जितना पुराना हो उतना ही बहुमूल्य होता है। यह कुछ अजीब धारणा है
लोगों की, कि पुराना जितना हो उतना ही मूल्यवान होता है। बिलकुल
मरा-मराया हो, सड़ा-सड़ाया हो, उतना
ज्यादा मूल्यवान। लाश ही बची हो, अस्थिपंजर ही रह गए हों,
तो और भी मूल्यवान। लोग अपने-अपने धर्म को पुराना सिद्ध करने में
ऐसी दीवानगी करते हैं, सच और झूठ की फिक्र ही नहीं करते। गुड़
भी हो तो गोबर कर देते हैं। सिद्ध करने की चेष्टा कि पुराना, पुराना होना चाहिए।
सारे वैज्ञानिक आधारों से तय होता है कि वेद पांच हजार साल से ज्यादा
पुराने नहीं हैं, लेकिन लोकमान्य तिलक की चेष्टा जीवन भर यह रही कि
नब्बे हजार साल पुराने हैं। क्यों? ऐसा क्या दीवानापन है?
पुराना है, तो मूल्यवान होना चाहिए! जितना
पुराना हो! जैसे कि धर्म न हुआ, शराब हुई; जितनी पुरानी हो, उतनी ही कीमती। सभी धर्म इस चेष्टा
में लगे रहते हैं; एक-दूसरे को हराने की चेष्टा में लगे रहते
हैं।
ईसाई तो मानते हैं कि पृथ्वी का जन्म ही जीसस से चार हजार चार वर्ष
पहले हुआ। इसलिए नब्बे हजार साल पहले वेद रचे गए, यह बात तो व्यर्थ ही
हो गई। समय ही कहां था? कुल चार हजार चार वर्ष ईसा से पूर्व,
इतना ही तो कुल समय था। मगर इसके तो प्रमाण हैं कि समय इससे बहुत
पुराना था, स्पष्ट प्रमाण हैं।
लेकिन प्रमाणों को कोई सुनता है! अंधे कहीं प्रमाणों को सुनते हैं!
ईसाई पादरियों ने यह तर्क खोज निकाला है कि वे प्रमाण ठीक हैं; वे प्रमाण ईश्वर ने आस्तिकता की परीक्षा के लिए रख दिए हैं। अरे, ईश्वर क्या नहीं कर सकता! जो दुनिया बना सकता है, वह
क्या नहीं कर सकता! उसने जमीन के भीतर ऐसी हड्डियां रख दीं, जो
मालूम पड़ती हैं कि नब्बे हजार साल पुरानी हैं। मगर हैं नहीं। उसके लिए क्या कठिन
है! यह तो परीक्षा के लिए बनाई हैं उसने कि देखें, कौन असली
श्रद्धावान है और कौन नकली! इससे तय हो जाएगा।
लोकमान्य तिलक कहते हैं कि नब्बे हजार साल पुराना है वेद। जैन बड़े
प्रसन्न होते हैं। वे कहते हैं, बिलकुल ठीक। ठीक कहते हैं आप।
नब्बे हजार साल पुराना होना ही चाहिए, क्योंकि ऋग्वेद में
हमारे प्रथम तीर्थंकर का उल्लेख है। सो निश्चित, हमारे प्रथम
तीर्थंकर तुम्हारे ऋग्वेद से भी पुराने हैं। और सम्मानपूर्वक उल्लेख है!
और यह तो आदमी की आदत है कि जिंदा संत को कोई सम्मान देता है? अपमान देते हैं। यह तो सीधा गणित है। जिंदा संत को अपमान, मुर्दा संत को सम्मान।
तो इतने सम्मान से उल्लेख है ऋग्वेद में जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभ
का, इससे सिद्ध होता है कि कम से कम तीन सौ से लेकर पांच सौ वर्ष तो गुजर ही
चुके होंगे। नहीं तो इतना सम्मान नहीं हो सकता। जीवित अगर होते वह, तब तो अपमान होता, गालियां पड़तीं।
आदमी का कुछ गणित है। जिंदा तीर्थंकर हो, गाली दो; क्योंकि जिंदा तीर्थंकर तुम्हारी धारणाओं
के विपरीत होगा। और जब मर जाए, तो सम्मान करो; क्योंकि मर जाए, तो फिर पश्चात्ताप पकड़ता है कि अरे,
हमने गालियां दीं, अपमान किया, पाप किया, अब कहीं फल न भोगना पड़े! तो जिंदा हो तो
पत्थर मारो, मर जाए तो फूल चढ़ाओ। वे फूल भी तुम्हारे पत्थरों
का पश्चात्ताप हैं, और कुछ भी नहीं। जीसस को सूली दो,
और फिर मर जाने के बाद दो हजार साल तक हजारों-हजारों चर्चों में
पूजा करो। सुकरात को जहर पिलाओ, और फिर ढाई हजार सालों तक
दर्शन-शास्त्रों की हर किताब में सुकरात को घोषित करो कि इससे महान कोई दार्शनिक
नहीं हुआ। यह पश्चात्ताप है, और कुछ भी नहीं।
जो व्यक्ति धारणाओं से भरा आता है, उसके साथ मुझे
मुश्किल खड़ी हो जाती है। उसकी धारणाओं के अनुकूल मुझे होना चाहिए, तो वह मेरे साथ राजी होता है। और मैं उसकी धारणाओं के अनुकूल कैसे हो सकता
हूं?
अजयकृष्ण यहां हैं। उनको कम्मू बाबा परेशान किए हुए हैं। कम्मू बाबा
मेरे और उनके बीच खड़े हैं। कम्मू बाबा नहीं खड़े हैं, अजयकृष्ण उनको खड़ा
किए हुए हैं! वे तो जा भी चुके! मगर कम्मू बाबा की आड़ अजयकृष्ण को बचा रही है। हर
चीज को वे कम्मू बाबा को बीच में लाकर देखते हैं। क्योंकि कम्मू बाबा ने कहा कि
हमेशा अपने माता-पिता का सम्मान करना, उनकी इच्छा के विपरीत
न जाना। अजयकृष्ण को संन्यास लेना है, लेकिन मां कहती है,
इससे मुझे दुख होगा। कैसे संन्यास लें? कम्मू
बाबा कहते थे कि कभी अपने मां-बाप को दुख न देना!
और जरा यह तो पूछो कि कम्मू बाबा ने अपने मां-बाप को कितना दुख दिया
होगा! नहीं तो कम्मू बाबा हो पाते? ये अजयकृष्ण कम्मू
बाबा हो पाएंगे कभी? सोचो! कम्मू बाबा के तो मां-बाप का भी
पता चलाना मुश्किल होगा। ऐसे भागे होंगे दुख देकर कि फिर पीछे लौट कर न देखा होगा।
कम्मू बाबा से...।
लेकिन नहीं, हमारी धारणा। हमारी धारणा की परिपूर्ति होनी चाहिए।
गुरजिएफ से किसी ने पूछा कि सारे धर्मशास्त्र कहते हैं कि अपने
मां-बाप को आदर दो, सम्मान दो। क्यों? तो गुरजिएफ
ने कहा, इसका कारण है। इसमें ईश्वर की चालबाजी है।
सुन कर वह आदमी बहुत हैरान हुआ। गुरजिएफ तो अपने किस्म का अनूठा आदमी
था। और इस तरह के अनूठे आदमी अनूठी बात ही कहते हैं। उसने कहा, क्या कहते हैं आप! इसमें ईश्वर की चालबाजी है?
गुरजिएफ ने कहा, निश्चित ईश्वर की चालबाजी है,
क्योंकि ईश्वर को भलीभांति पता है, जो व्यक्ति
अपने मां-बाप को आदर देता है, वह ईश्वर को भी आदर देगा। अरे,
जो मां-बाप तक की फिक्र नहीं करता, वह क्या
खाक फिक्र ईश्वर-वीश्वर की करेगा! ईश्वर यानी महापिता। जब छोटे ही पिता को धक्का
दे दिया, तो आकाश में बैठे पिता की कौन फिक्र करता है?
देखा जाएगा, जब मिलेंगे! और अभ्यास तो यहीं हो
रहा है। अगर यहीं छोटे-छोटे मां-बाप से डरे रहे, तो बड़े पिता
के सामने तो एकदम कंपोगे, एकदम घुटनों पर गिर पड़ोगे। कहोगे
कि हे परम प्रभु, दया करो, बचाओ,
रक्षा करो! मैं तो पतित हूं, तुम पतितपावन हो!
गुरजिएफ ने बात ठीक कही कि सारे धर्मशास्त्र इसलिए कहते हैं; इसमें परमात्मा की चालबाजी है। परमात्मा की हो या न हो, लेकिन पुरोहितों की चालबाजी जरूर। क्योंकि मां-बाप को आदर दो, तो पुरोहित को भी तुम आदर दोगे, क्योंकि मां-बाप और
पुरोहित एक ही षडयंत्र के हिस्से हैं। मां-बाप कहते हैं, पुरोहित
को आदर दो; पुरोहित कहता है, मां-बाप
को आदर दो। पुरोहित समर्थन करता है मां-बाप का; मां-बाप
समर्थन करते हैं पुरोहित का।
लेकिन जब भी तुम बुद्ध या महावीर या जीसस जैसे व्यक्ति के पास जाओगे, तो तुम्हारी इन धारणाओं का कोई समर्थन नहीं हो सकता।
अब तो अजयकृष्ण कुछ ऐसे घबड़ा गए हैं कि कल उन्होंने झूठे नाम से
प्रश्न पूछा। कल जो नवलकिशोर डी.डी.के नाम से जो प्रश्न था, वह अजयकृष्ण का था। नवलकिशोर को मैं जानता हूं, वर्षों
से जानता हूं। उन्होंने कभी प्रश्न पूछा ही नहीं। अचानक वे प्रश्न पूछेंगे,
इसकी संभावना नहीं। और पूछ भी नहीं सकते; वे
अपने बाप से डरे हुए हैं। उनके पिता जो हैं डी. डी., वे उनके
हाथ-पैर तोड़ देंगे अगर उनको पता चल गया कि इधर आकर उन्होंने प्रश्न पूछा है। वह
प्रश्न पूछा है अजयकृष्ण ने, नाम लिख दिया--उनके मित्र
हैं--नवलकिशोर। पूछ कर लिख दिया होगा नाम कि भैया, तुम्हारा
नाम लिख रहा हूं, या बाद में बता दिया होगा, या न भी बताया हो। क्योंकि कम्मू बाबा ने यह तो कहा नहीं कि अपने मित्र के
नाम से कभी प्रश्न न पूछना!
अजयकृष्ण सुनते भी हैं व्याख्यान, तो यहां बुद्ध-भवन
में बैठ कर नहीं सुनते! बाहर, बगीचे में बैठ कर। इतने पास
बैठ कर सुनना खतरनाक है। अरे, सम्मोहित हो जाएं, कुछ से कुछ हो जाए! थोड़ी देर को भूल-भाल जाएं कम्मू बाबा को; कोई बात गले उतर जाए! तो उधर दूर बैठे रहते हैं दरवाजे के पास कि अगर एकदम
कोई बात पकड़ ही ले, तो कम से कम भागने की सुविधा तो है;
दरवाजे से निकल भागें! शरीर भी थोड़ा वजनी है; दरवाजे
के पास ही रहना ठीक है। एकदम भागें इधर से और कोई गार्ड वगैरह पकड़ ही ले! और उतनी
देर में तो बात ही हो जाए। अरे, बात होने में कोई देर लगती
है! कभी-कभी तो एक शब्द काम कर जाता है। तो अपनी सुरक्षा से चलना चाहिए।
अमृत बोधिसत्व जब मेरे पास आए थे, तो नास्तिक थे,
समाजवादी थे; दोनों बातों ने सहयोग दिया। उससे
हानि नहीं हुई। नास्तिक थे, तो मुझे कुछ मिटाने को न था। वे
खुद ही पुराने चर्च को गिरा चुके थे। जमीन साफ थी।
यह मैंने पुराने चर्च की तुमसे कहानी कही। लोग डरने लगे, तो इकट्ठे हुए ट्रस्टी। और उन्होंने कहा, अब क्या
करें? चर्च तो पुराना है, गिराना उचित
भी नहीं, पुरानी चीज! और बचाया भी नहीं जा सकता। तो कुछ बीच
का रास्ता। तो उन्होंने बीच का रास्ता निकाला। उन्होंने चार प्रस्ताव स्वीकार
किए--सर्वसम्मति से। पहला प्रस्ताव कि हमें बहुत दुख है, लेकिन
मजबूरी है, प्रभु क्षमा करना, कि तेरे
पुराने चर्च को हमें गिराना पड़ेगा। दूसरा प्रस्ताव सर्वसम्मति से कि यद्यपि हम
पुराना चर्च गिरा रहे हैं, लेकिन हम कसम खाते हैं कि नए चर्च
में कोई भी नई चीज नहीं लगाएंगे। पुराने चर्च के ही दरवाजे, पुराने
ही चर्च की खिड़कियां और कांच, पुराने चर्च की ही मूर्ति और
पत्थर, पुराने चर्च की ही ईंटें, हर
चीज पुराने चर्च की ही लगाएंगे! और तीसरा प्रस्ताव स्वीकृत किया सर्वसम्मति से कि
जब तक नया चर्च बन न जाए, तब तक हम पुराने को गिराएंगे भी
नहीं। जब नया बन कर खड़ा हो जाएगा, तो हम पुराने को गिराएंगे।
और चौथा--और वह भी सर्वसम्मति से--कि नए चर्च को हम ठीक वहीं बनाएंगे जहां पुराना
चर्च है! वही बुनियाद, वही भूमि, वही
स्थापत्य, वही ढंग।
और इन मूढ़ों को यह भी खयाल न आया, ये क्या प्रस्ताव
स्वीकार कर रहे हैं! मगर यह हर आदमी की मूढ़ता है। अतीत को हम पकड़ते हैं, जोर से पकड़ते हैं। उसमें बड़ी सांत्वना मिलती है।
अमृत बोधिसत्व जब मेरे पास आए, उनके पास कोई अतीत न
था, मैं प्रसन्न हुआ था। नास्तिक को देख कर मैं सदा प्रसन्न
होता हूं। ये जो लोग आ जाते हैं--कोई कम्मू बाबा को लेकर आ गया, कोई मुईनुद्दीन बाबा को लेकर आ गया, कोई निजामुद्दीन
बाबा को लेकर आ गया--इनके बाबा देख कर ही मैं सोचता हूं कि पहले इन बाबा से सिर
फोड़ो! किसी तरह बाबा में से बोगदा बनाओ, तब कहीं ये दिखाई
पड़ें तो पड़ें। ये छिपे हैं बहुत पीछे। और अक्सर तो यह होता है कि एक बाबा नहीं
होता, बाबा अकेले नहीं पाए जाते। एक बाबा, तो उसके पीछे और-और बाबा होते हैं। बाबाओं की कतार लगी होती है, क्यू लगे होते हैं। बाबाओं की परंपरा होती है, सिलसिले
होते हैं।
जब भी मैं किसी नास्तिक व्यक्ति को देखता हूं, तो आह्लादित होता हूं। हां, नास्तिकता उसकी निज होनी
चाहिए। उसकी स्लेट कोरी है। उसकी स्लेट पर काम किया जा सकता है। उसका कैनवस कोरा
है। उस पर चित्र उभारा जा सकता है। उसका दर्पण निर्मल है, उसमें
परमात्मा की छवि बन सकती है।
और तुम समाजवादी थे, अमृत बोधिसत्व, इससे भी लाभ हुआ। क्योंकि समाजवादी ही केवल समझ सकता है व्यक्तिवाद का
मूल्य। जीवन बड़ा अनूठा गणित है! जिन लोगों के जीवन में समाजवाद की कोई स्पष्ट
रूप-रेखा नहीं है, उनके सामने व्यक्ति की भी कोई रूप-रेखा
नहीं होती। रहते हैं भीड़ में, भीड़ के हिस्से होते हैं;
मगर चूंकि समाजवाद की कोई स्पष्ट रूप-रेखा नहीं होती, इसलिए व्यक्ति को भी अलग करके देखने की क्षमता नहीं होती।
समाजवादी का अर्थ क्या होता है? समाजवादी का अर्थ
होता है: व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं; व्यक्ति केवल समाज के
लिए एक उपकरण मात्र है, साधन मात्र है। समाज साध्य है,
व्यक्ति साधन है। व्यक्ति की कुर्बानी दी जा सकती है समाज के लिए।
लेकिन असलियत यह है कि समाज केवल एक शब्द है। समाज कहीं मिला तुम्हें? जरा ढूंढने निकलो, तुम्हें कहीं कोई समाज मिलेगा?
जब मिलेगा, कोई व्यक्ति मिलेगा। व्यक्ति का
यथार्थ है। समाज तो केवल संज्ञा मात्र है। अच्छे-अच्छे प्यारे-प्यारे शब्द बहुत
भटकाने और भरमाने वाले हो जाते हैं--समाज, मनुष्यता!
मनुष्यता को कहां खोजोगे?
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम मनुष्यता को प्रेम करते हैं।
मैं उनसे कहता हूं, मनुष्य को प्रेम करो। मनुष्यता
को क्या खाक प्रेम करोगे! कैसे करोगे? गले लगाओगे मनुष्यता
को? यह तो तरकीब है बचने की। मनुष्य को तो तुम छोड़ना चाहते
हो, मनुष्य से तो बचना चाहते हो, क्योंकि
मनुष्य तो यथार्थ है। मनुष्यता का अच्छा शब्द खोज लिया तुमने, एक हवाई शब्द, जिसमें कुछ भी नहीं है। खाली शब्द।
लेकिन उस खाली शब्द को सिर पर उठाए लिए फिरोगे, झंडा ऊंचा रहे हमारा! और झंडे में है क्या? एक कपड़े
का टुकड़ा बांध रखा है, रंगीन कर लिया होगा।
और झंडा है क्या? सिर्फ डंडे को छिपाने का उपाय है,
और कुछ भी नहीं। जब तुम कहते हो, झंडा ऊंचा
रहे हमारा! तब ठीक से समझ लेना, तुम यह कह रहे हो, डंडा ऊंचा रहे हमारा! लेकिन डंडा ऊंचा रहे हमारा, यह
अगर कहो, तो और डंडे उठ जाएंगे कि कौन है तू डंडा ऊंचा करने
वाला? झंडा ऊंचा रहे हमारा, ठीक है भई,
मजे से करो, झंडे में क्या हर्जा है? मगर झंडे के भीतर होता डंडा ही ऊंचा है।
मनुष्यता को प्रेम करते हैं! दिव्यता को प्रेम करते हैं! सत्य को
प्रेम करते हैं! सौंदर्य को प्रेम करते हैं! मगर यथार्थ? यथार्थ कुछ और है। खोजने जाओगे, मनुष्यता नहीं
मिलेगी, मनुष्य मिलेगा। सौंदर्य नहीं मिलेगा, सुंदर फूल मिलेंगे, सुंदर सूरज मिलेगा, सुंदर चांदत्तारे मिलेंगे। कोई सुंदर तत्व मिलेगा, सौंदर्य
नहीं। ये तो कोरे शब्द हैं, थोथे शब्द हैं। मगर थोथे शब्द
बड़े महत्वपूर्ण बन जाते हैं, इतने महत्वपूर्ण बन जाते हैं कि
हम यथार्थ की कुर्बानी चढ़ा सकते हैं।
समाजवादियों ने व्यक्ति की कुर्बानी चढ़ा दी। रूस में स्टैलिन ने
अंदाजन एक करोड़ व्यक्ति मारे, और बेझिझक मारे। और मार सका बिना
किसी संकोच के, बिना किसी अपराध भाव के। कारण? एक ऊंचा शब्द! यह व्यक्ति कोई अपने लिए तो मार नहीं रहा है, कोई हिंसा तो कर नहीं रहा है। यह तो समाजवाद की वेदी पर आहुति चढ़ाई जा रही
है। यह तो जो लोग समाजवाद के आने में बाधा डाल रहे हैं, उनकी
कुर्बानी चढ़ाई जा रही है।
व्यक्ति मारे समाजवाद के लिए। और समाजवाद किसके लिए है? व्यक्तियों के लिए। कैसा चक्कर है! कैसा दुष्टचक्र है! समाजवाद है
व्यक्तियों के लिए और व्यक्ति काटे जा रहे हैं समाजवाद के लिए! स्टैलिन का तर्क
पुराना तर्क है, कोई नया नहीं। हमेशा ऊंची चीज के लिए नीचे
को कुर्बान किया जा सकता है।
लेकिन खयाल रखना कि ऊंची चीज है भी या नहीं? या केवल एक कोरा शब्द है?
शांति के लिए लोग युद्ध करते हैं। क्या मजा है! कहते हैं शांति, और करते हैं युद्ध! और कहते हैं, शांति की रक्षा के
लिए कर रहे हैं!
मोहम्मद की तलवार पर यह वचन खुदा हुआ था: शांति ही मेरा धर्म है।
तलवार पर यह वचन खुदा हुआ था! और मोहम्मद ने अपने धर्म को भी नाम दिया, इसलाम। इसलाम का अर्थ होता है, शांति का धर्म। और
इसलाम ने जितनी अशांति फैलाई है, शायद किसी ने भी नहीं फैलाई
है। तलवार के बलबूते पर जबरदस्ती इसलाम करोड़ों लोगों पर थोपा गया है। और यह शांति
का धर्म है!
हिंदू सहिष्णुता की बात करते हैं। और हजारों साल से जितना हिंदुओं ने
शूद्रों को सताया है, दुनिया में किसी ने किसी को नहीं सताया। और सहिष्णु!
और इनको सब जगह कण-कण में परमात्मा के दर्शन होते हैं। मगर शूद्र में नहीं होते!
स्त्री में नहीं होते! स्त्री नर्क का द्वार है! यह बड़ा मजा है! कण-कण में राम बसा
है! सियाराम मय सब जग जानी। मगर सिया का अलग से पूछो मामला, तो
नर्क का द्वार! सीता मैया नर्क का द्वार; रामचंद्र जी से जोड़
दो, तो बस सोने में सुगंध आ गई; नर्क
का द्वार एकदम स्वर्ग का द्वार हो गया! कण-कण में इनको परमात्मा दिखाई पड़ता है,
लेकिन शूद्रों में नहीं।
हिंदुओं ने जितना अनाचार किया स्त्रियों के साथ, शूद्रों के साथ, उतना दुनिया में किसी ने भी नहीं
किया। और यह धर्म सहिष्णुता का धर्म है, प्रेम का धर्म है,
विश्व-बंधुत्व का धर्म है! दावा है हमारा कि सारा विश्व हमारा
कुटुंब है। और शूद्र को भी हम अपने परिवार का हिस्सा न बना सके! शूद्र को तो छोड़
दो, स्त्री को भी हम अपना अंग न बना सके!
जैन मानते हैं, स्त्री-पर्याय से किसी का मोक्ष नहीं। क्या मजा है!
और यही जैन कहते हैं कि तुम शरीर नहीं हो, आत्मा हो। जरा
देखते हो असंगतियां, मूढ़तापूर्ण बातें! तुम शरीर नहीं हो,
आत्मा हो। तो क्या आत्मा भी स्त्री और पुरुष होती है? आत्मा तो बस आत्मा ही है। उसमें कैसे स्त्री-पुरुष होगा कोई? शरीर ही स्त्री-पुरुष होता है। और अगर व्यक्ति शरीर है ही नहीं, तो ध्यान को उपलब्ध व्यक्ति, समाधि को उपलब्ध
व्यक्ति स्त्री होगा या पुरुष? लेकिन जैन कहते हैं कि
स्त्री-पर्याय से मोक्ष नहीं।
एक जैन स्त्री--पता नहीं किस भूल-चूक से, बड़ी हिम्मतवर स्त्री रही होगी--तीर्थंकर हो गई। जरूर अदभुत हिम्मत की रही
होगी। मल्लीबाई उसका नाम था। जैनियों को बड़ा कष्ट हुआ होगा। रही होगी बलशाली महिला
कि जैनियों को भी पानी पिला दिया! और लगता है, बिना छाने
पिला दिया। क्योंकि स्त्री का तो पर्याय, उस पर्याय से मोक्ष
ही नहीं; मोक्ष की बात ही छोड़ो--मल्लीबाई भी अदभुत हिम्मत की
औरत रही होगी--उसने तो घोषणा ही कर दी कि वह तीर्थंकर है। अरे, मोक्ष तो उसे मिल ही गया, दूसरों को भी मिलाने की
हकदार है। बड़ी हिम्मतवर स्त्री रही होगी।
मगर जैनियों ने क्या चालबाजी की, उसका नाम ही बदल
दिया। मल्लीबाई नहीं, मल्लीनाथ कर दिया। इसलिए जब तुम
जैनियों के तीर्थंकरों की फेहरिस्त पढ़ोगे, तो तुम्हें पता भी
नहीं चलेगा इसमें एक स्त्री भी है। नेमीनाथ, पार्श्वनाथ,
उसी में मल्लीनाथ। क्या चालबाजियां हैं! थी बेचारी स्त्री, बाई को नाथ कर दिया। अब बाई को बाई कैसे कहें! अगर बाई कहें, तो सारा शास्त्र गड़बड़ होता है। अगर स्त्री तीर्थंकर हो गई, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। फिर स्त्री को नर्क का द्वार कैसे कहोगे?
जैन बातें तो करते हैं आत्मा की, मगर अटके हैं शरीर से
ही। अभी स्त्री-पुरुष की ही बात चल रही है। ऊंचे शब्द!
कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि तू फिक्र मत कर मारने में, क्योंकि आत्मा मरती ही नहीं। क्या अदभुत सिद्धांत! जब आत्मा मरती ही नहीं
तो तू बेफिक्री से मार। पागल हो गया है कि छोड़ कर भागता है युद्धक्षेत्र को?
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे! यह तो धर्म का युद्ध हो रहा है। कहां
भाग रहा है? जूझ! और परमात्मा ने जिनको मारना है, उनको वह मार ही चुका है; तू तो निमित्त मात्र है।
अगर यह बात सच है, तो फिर हिटलर का क्या कसूर है?
तो फिर स्टैलिन का क्या कसूर है? तो फिर
माओत्से तुंग का क्या कसूर है? फिर ये छोटे-मोटे हत्यारे,
यह नाथूराम गोडसे, इसका क्या कसूर है? अरे जब परमात्मा ने मार ही डाला, तो यह तो बेचारा
निमित्त मात्र है। और इसने कोई ज्यादा कसूर नहीं किया, एक
महात्मा गांधी को मारा; वे भी काफी बूढ़े हो चुके थे और मरना
चाहते थे।
मरने के दो ही दिन पहले उन्होंने कहा था कि अब मैं जीना नहीं चाहता।
परमात्मा ने सुन ली होगी। कभी-कभी सुन लेता है! और तभी तो उसने भेज दिया नाथूराम!
नाथूराम मतलब कलियुगी राम। हैं तो राम ही, नाथू ही हुए तो क्या!
और पुण्य-नगरी पूना के निवासी! क्या जगह चुनी उन्होंने भी! पुण्य-नगरी पूना से भेज
दिया नाथूराम को, कि अब राम तुम्हीं जाओ, मेरा भक्त मुश्किल में पड़ा है। मेरा भक्त कह रहा है, अब मुझे जीना नहीं।
महात्मा गांधी कहते थे, मैं एक सौ पच्चीस
वर्ष जीऊंगा। मगर जब से सत्ता कांग्रेसियों के हाथ में आई तब से उनको पता चला,
अब जीना बेकार है। क्योंकि जैसे ही उनके शिष्य सत्ता में गए,
उन्होंने उनकी फिक्र ही छोड़ दी। अरे, कौन
फिक्र करता है तुम्हारी! कीमत तुम्हारी तभी तक थी, जब तक
सत्ता हाथ में न आई थी। अब सत्ता उनके हाथ में थी, तुम हो
क्या? रहो तो ठीक, न रहो तो ठीक। असल
में न ही रहो तो ज्यादा ठीक, क्योंकि रहोगे तो कुछ न कुछ
गड़बड़ करोगे, कुछ दखलंदाजी करोगे, कुछ
दांव-पेंच बताओगे, कुछ इधर-उधर की बातें लाओगे; उनकी राजनीति को ठीक से न चलने दोगे। वे भी चाहते थे कि छुटकारा हो।
भीतरी! ऊपर चाहे न भी कहते हों। क्योंकि सात दिन पहले ही सरदार वल्लभभाई पटेल ने
लखनऊ की एक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रैली में यह घोषणा की थी कि राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ से ज्यादा सुंदर, सुव्यवस्थित, सुसांस्कृतिक और धार्मिक कोई संगठन भारत में नहीं है। और उसी राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के सदस्य ने महात्मा गांधी को गोली मारी।
मगर कसूर क्या? एक ही आदमी को मारा।
अगर हम शास्त्रों को मान कर चलें, तो वह जो कुरुक्षेत्र
का युद्ध हुआ, धर्मक्षेत्र जो था--खूब हुआ धर्मक्षेत्र में
भी काम--एक अरब से लेकर सवा अरब आदमी के बीच लोग मरे। एक अरब व्यक्ति! अभी भी भारत
में नहीं हैं। अभी दुनिया की कुल आबादी चार अरब अब हो पाई--सारी दुनिया की! अभी
भारत की आबादी तो केवल सत्तर करोड़ है। अभी भी भारत में एक अरब लोग नहीं हैं। उस
समय कुरुक्षेत्र के छोटे से मैदान में गजब कर दिया!
मगर चमत्कार ही करना हो परमात्मा को तो क्या नहीं कर सकता! अरे, उसके हाथ में सब कुछ है। एक अरब आदमी कैसे बिठा दिए! यूं समझो कि रहा होगा
कोई...जैसे रेलगाड़ी का कंडक्टर थर्ड क्लास के डब्बे में आदमी भरता ही चला जाता है,
भरता ही चला जाता है। इसीलिए तो उसको डब्बा कहते हैं! डब्बा जैसा
सुंदर शब्द दुनिया की किसी भाषा में नहीं है। दुनिया की किसी भाषा में रेल के
डब्बे को डब्बा नहीं कहते; यहीं कहते हैं, क्योंकि यहां उसका व्यवहार डब्बे की तरह होता है। भरते जाओ! न संख्या का
कोई सवाल है। भरने वाले चाहिए। या रहा होगा कोई दिल्ली का टैक्सी चलाने वाला।
एक टैक्सी में अठारह आदमी पकड़े गए! टैक्सी को पकड़ कर थाने ले जाया
गया। सरदार जी, जो टैक्सी चला रहे थे, उनको
बहुत डांटा-डपटा थानेदार ने और कहा कि तुमने हद्द कर दी; अठारह
आदमी! सरदार ने कहा कि आप भरोसा करते हो? तो अठारह आदमी बिठा
कर बता दो! हालांकि अठारह आदमी उनके ही सामने उतारे गए थे, मगर
थानेदार और सारे पुलिस वाले कोशिश करके अठारह आदमी न बिठा सके गाड़ी में।
तो उस टैक्सी वाले ने कहा, अब बोलो! अरे,
जब बैठ ही नहीं सकते अठारह, तो सरासर झूठ बात
है। थानेदार ने कहा, तूने भी गजब कर दिया! अपनी आंखों से
हमने उतरते देखे, मगर चढ़ा नहीं पा रहे, यह हम भी मानते हैं!
तो भगवान भी कोई टैक्सी वाला रहा या क्या! कुरुक्षेत्र का छोटा सा
मैदान! हां, हाकी-क्रिकेट का मैच करना हो तो ठीक। ओलंपिक भी करना
हो तो मुश्किल पड़ जाए, तो छोटा पड़ जाए। वहां सवा अरब आदमी
मरवा डाले! और जरा सोचो तो कि सवा अरब आदमी जहां लड़े हों, वहां
थोड़ी-बहुत जगह भी तो चाहिए। अगर घमासान एक-दूसरे के साथ खड़े हों, तो घूंसा तक चलाना मुश्किल! तलवारें वगैरह निकालेंगे कहां? और हाथी-घोड़ों का क्या होगा? और रथ वगैरह कैसे
चलेंगे? ये तो वैसे ही मर जाएंगे, बिना
मारे मर जाएंगे।
मगर कृष्ण ने कहा कि बेफिक्री से मार, क्योंकि आत्मा तो
मरती ही नहीं। जब आत्मा मरती ही नहीं, तो दुनिया में फिर
हत्या का कोई अपराध ही नहीं।
अच्छे-अच्छे शब्दों की आड़ में भी हम क्या-क्या छिपा लेते हैं! आत्मा
नहीं मरती, इसलिए मारो बेफिक्री से! और परमात्मा के बिना इशारे
के तो पत्ता नहीं हिलता। तो तुम मारोगे कैसे? उसने मार ही
दिया होगा पहले। तुम न मारोगे, कोई और मारेगा।
अच्छे शब्दों ने मनुष्य की छाती पर पहाड़ रख दिए हैं। समाजवाद अच्छा
शब्द है, प्यारा शब्द है; मगर झूठा,
निहायत झूठा! दुनिया में व्यक्ति हैं, समाज
कहीं भी नहीं; मनुष्य हैं, मनुष्यता
कहीं भी नहीं। मगर यह समाजवादी को ही समझ में आ सकता है।
तुम जब मेरे पास आए थे, समाजवादी विचारधारा
और नास्तिकता में डूबे हुए, तो मैंने देखा था कि संभावना है।
अब तुम ऊब गए थे। देख चुके थे तुम समाजवाद को भी, उसकी
व्यर्थता को भी। नास्तिकता को तुमने जी लिया था और देख चुके थे उसकी निरर्थकता को।
वहीं से संन्यास का फूल खिल सकता था। इसलिए तुम्हें मैंने नाम दिया: अमृत
बोधिसत्व। और आज वह घड़ी आ गई कि तुम कह सकते हो कि अब जीवन में आनंद है, उत्सव है, उसका कैसे वर्णन करूं! उसका वर्णन तो नहीं
किया जा सकता।
तुम कहते हो, "आप क्या मिले, सब कुछ मिल
गया!'
कहना तो कठिन हो जाता है। जो भी महत्वपूर्ण है, अनकहा रह जाता है।
किसको आती है मसीहाई, किसे आवाज दूं?
बोल ऐ खूंखार तनहाई, किसे आवाज दूं?
पढ़ते-पढ़ते, पढ़ते-पढ़ते दुख गई हैं पुतलियां,
बुझ रही है शम्मए-बीनाई, किसे आवाज दूं?
चुप रहूं तो हर नफस डसता है नागिन की तरह,
आह भरने में है रुसवाई, किसे आवाज दूं?
हाय! इस गुरबत के जंगल में पुकारूं तो किसे,
किससे है मेरी शनासाई, किसे आवाज दूं?
ये जम्हाई-पे-जम्हाई अलहफीजो-अलअमां,
उफ ये अंगड़ाई-पे-अंगड़ाई, किसे आवाज दूं?
उफ खामोशी की ये बांहें दिल को भरमाती हुई,
उफ ये सन्नाटे की शहनाई, किसे आवाज दूं?
चल रहे हैं जिंदगी पर चांदनी के नेशतर,
चुभ रही है दिल में पुरवाई, किसे आवाज दूं?
मुश्किल तो होगा अब कहना। अब आवाज देना मुश्किल होगा।
उफ खामोशी की ये बाहें दिल को भरमाती हुई,
उफ ये सन्नाटे
की शहनाई किसे
आवाज दूं?
लेकिन तुम्हारे भीतर जो शहनाई बज रही है, वह मुझे सुनाई पड़ रही है, कहो न कहो। कहना भी चाहो
तो न कह सकोगे।
कल अमृत बोधिसत्व दर्शन में उपस्थित थे। मैं भी चौंका क्षण भर को।
इतना रूपांतरण हुआ है! इतनी क्रांति हुई है! नए हो गए हैं! एक नए बच्चे की तरह हो
गए हैं। कहो या न कहो, मुझे तुम्हारे भीतर की शहनाई सुनाई पड़ रही है।
दूसरा
प्रश्न: भगवान, इस वर्ष से जनगणना की जा रही है, जिसमें अनिवार्य रूप से जाति-धर्म की जानकारी देकर घोषणा करनी पड़ती है।
चूंकि आपके संन्यासी तथाकथित किसी प्रचलित जाति-धर्म को मान्यता नहीं देते,
वे जनगणना अधिकारी को क्या जानकारी दें?
अरूपानंद!
इतने जल्दी भूल गए? कल ही तो मैंने कहा--
जात हमारी ब्रह्म है, माता-पिता हैं राम।
गिरह हमारा सुन्न में, अनहद में बिसराम।।
अब और क्या चाहिए? माता-पिता की जगह लिख देना राम;
जाति की जगह ब्रह्म; धर्म की जगह शून्य;
और भाषा की जगह अनहद।
जात हमारी ब्रह्म है, माता-पिता हैं राम।
गिरह हमारा सुन्न में, अनहद में बिसराम।।
तीसरा प्रश्न: भगवान, भारतवर्ष में आपके बाद जो सबसे ज्यादा प्रसिद्ध धर्मगुरु हैं, तो वे हैं आचार्य तुलसी। अभी-अभी उन्होंने कुछ नए आयाम शुरू किए हैं,
वे इस प्रकार हैं--
(१) तुलसी फाउंडेशन की स्थापना।
(२) गृहस्थों को नव-संन्यास दिया जा रहा है, जिसके अधीन वे गृहत्याग नहीं करते हैं, ब्रह्मचर्य
पालन करते हैं एवं संन्यासी की तरह जीते हैं।
(३) जब तुलसी सभागृह में पधारते हैं, तो श्रावक उदघोष करते हैं: जय भगवान!
(४) जो पुस्तकें प्रकाशित होती हैं, उन पर दोनों तरफ आचार्य तुलसी के चित्र होते हैं।
भगवान, आपकी इस तरह खुलेआम नकल करते जाते हैं एवं आपका विरोध
करते जाते हैं, हम कब तक देखते रहें, बताने
की कृपा करें।
अभी-अभी उन्होंने हर महीने दस दिवसीय शिविर-ध्यान लेने शुरू किए हैं।
भगवान, क्या ये नकल करने वाले थोड़े भी शघमदा नहीं होते? बताने की कृपा करें।
पहली तो बात, कृष्ण सत्यार्थी, मैं कोई प्रसिद्ध व्यक्ति हूं?
बदनाम कहो, चलेगा! बदनामी में मुझे रस भी है;
प्रसिद्धि में मुझे कोई रस नहीं।
और तुम मुझे धर्मगुरु कहते हो! तो अधर्मगुरु कौन होगा? ये अच्छी-अच्छी बातें आचार्य तुलसी, विनोबा भावे,
पुरी के शंकराचार्य, इन सबके लिए छोड़ दो। मेरा
काम तो बदनामी से चल जाएगा, अधर्मगुरु होने से भी चल जाएगा।
रही नकल की बात, तो दया करो उन पर। क्या करें,
मजबूरी है! खुद का कोई बोध नहीं, खुद का कोई
अनुभव नहीं। नकल भी करते हैं, नकल करना भी नहीं आता, और तो बात और!
ऐसा ही प्रश्न चैतन्य कीर्ति ने पूछा है। पूछा है:
भगवान, आचार्य तुलसी के शिष्यों ने प्रेक्षा-ध्यान साधना शिविर स्मारिका भेजी है,
जिसमें रामसमंद के श्री भिक्षु बोधिस्थल शिविर में हुए
प्रेक्षा-ध्यान तथा प्रवचनों का विवरण प्रकाशित हुआ है। आपके पुराने समय के
साहित्य में जो निष्क्रिय ध्यान है--शरीर शिथिल हो रहा है, श्वास
शांत हो रही है, विचार शांत हो रहे हैं--वही ज्यों का त्यों
इनका प्रेक्षा-ध्यान है। सक्रिय ध्यान में थोड़ा हेर-फेर करके इनके साधक
कुंडलिनी-जागरण भी करते हैं।
आचार्य श्री तुलसी तथा युवाचार्य महाप्राज्ञ से प्रेरित होकर जिन
साधुओं, साध्वियों तथा साधकों ने जो प्रवचन वहां दिए, वे प्रवचन तथा बोध-कथाएं शब्दशः आपके प्रवचनों से ली गई हैं। हां, कहीं-कहीं अपनी बातें जोड़ कर छीछा-लेदर भी की है।
नकल यहां तक की है कि शिविर-स्थल के प्रवेश-द्वार पर एक साइन बोर्ड
लगाया है: कृपया अपने मन और जूते यहीं उतार दें।
स्मारिका का अंतिम उदगार है: युगों युगों तक अमर रहेगा तुलसी नाम तुम्हारा।
भगवान, ऐसे लोगों की ध्यान में क्या गति होती है?
ध्यान का अर्थ है, अपने भीतर मौलिक स्वरूप की खोज। ध्यान उधार नहीं होता, बासा नहीं होता, नकल तो हो ही नहीं सकता है। इन
बेचारों को ध्यान से क्या लेना-देना है!
इनको तो सिर्फ एक बात अखर रही है कि मेरी बात दुनिया के कोने-कोने तक
पहुंच रही है, लाखों लोग आंदोलित हो रहे हैं। इनको यही अड़चन लग रही
है कि जरूर मेरी बात में कुछ होगा जिसके कारण इतने लोग प्रभावित हो रहे हैं। और उस
प्रभाव से कहीं हम वंचित न रह जाएं, कहीं ऐसा न हो कि हम
पिछड़ जाएं, कहीं इस दौड़ में पीछे न रह जाएं; इसलिए नकल करो। इस बात की ही नकल करो। इस बात में ही कुछ होगा।
इन सबको बता दो: इस बात में कुछ भी नहीं होता; व्यक्ति में होता है कुछ। बातों की नकल तुम कितनी ही करो, कुछ परिणाम नहीं होगा। इससे तुम तो ध्यान को उपलब्ध होओगे ही नहीं,
जिनको तुम ध्यान करवा रहे हो, उनको भी भटका
रहे हो, भरमा रहे हो। इसका भी तुम पाप कर रहे हो।
इन पर दया करो, नाराज न होना। और इनकी कोई चिंता लेने की जरूरत नहीं
है।
आज इतना ही।
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