ओशो
दिनांक 15, नवम्बर, सन् 1980
पांचवां प्रवचन-(अंतःकरण का अतिक्रमण)
पहला प्रश्न: भगवान,
यं यं लोकं
मनसा संविभाति
विशुद्धसत्वः कामयते यांश्च कामान्।
तं तं लोकं
जयते तांश्च कामां--
स्तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चवेद भूतिकामः।।
जिसका अंतःकरण शुद्ध है, ऐसा आत्मवेत्ता, मन से जिस-जिस लोक की भावना करता है
और जिन-जिन कामनाओं की कामना करता है, वह उस-उस लोक को और
उन-उन कामनाओं को प्राप्त कर लेता है। इसलिए जो अपना कल्याण चाहता है, उसे आत्मवेत्ता की अर्चना करनी चाहिए।
भगवान, मुंडकोपनिषद के इस
सूत्र का अभिप्राय समझाने की अनुकंपा करें।
सहजानंद!
इसके पहले कि हम सूत्र के विश्लेषण में उतरें, कुछ आधारभूत बातें समझ लेनी उपयोगी हैं।
पहली: जब तक कामना है, तब तक आत्मा शुद्ध
नहीं। आत्मा की अशुद्धि का और अर्थ ही क्या होता है? कामना
की कीचड़! फिर कामना धन की हो, पद की हो, प्रतिष्ठा की हो; मोक्ष की हो, निर्वाण की हो, ब्रह्मज्ञान की हो; इससे भेद नहीं पड़ता। कीचड़ कीचड़ है।
जब तक कामना है, तब
तक कैसी शुद्धि? जहां कामना है, वहीं
संसार है। संसार कामना का विस्तार है। कामना शून्य हुई, संसार
समाप्त हुआ। कामना संसार है, तो कामना का शून्य हो जाना
संन्यास है। और जहां कामना के बीज तक दग्ध हो गए हों, वहीं
सत्वशुद्धि है।
इसलिए यह सूत्र बुनियादी रूप से गलत है।
दूसरी बात: जब आत्मा शुद्ध हो गई, तो फिर मन कहां! यह
तो बात बड़ी विक्षिप्तता की हो गई। यह तो यूं हुआ कि एक तरफ तो कहा कि झील शांत है
और दूसरी तरफ झील में उठते तूफानों, झंझावातों और लहरों की
चर्चा छेड़ दी! झील शांत है, मौन है, दर्पण
की तरह है; न कोई लहरें हैं, न कोई
तरंग। तो फिर कैसा तूफान? कैसी आंधी? कैसे
झंझावात?
जहां आत्मा शुद्ध है, वहां मन असंभव है।
मन का अर्थ क्या होता है? आत्मा का अथिर होना;
आत्मा का डांवाडोल होना; आत्मा का कंपित होना;
आत्मा का लहरों से भरा होना। विचार की लहरें; स्मृतियों
की लहरें; कल्पना की लहरें--जहां लहरों पर लहरें आ रही हैं,
उसका नाम मन है। आत्मा का नाम ही मन है। आत्मा जब रुग्ण है, तो उसका नाम मन है। और जहां रोग गया, वहां मन गया।
आत्मा जब स्वस्थ है, तब सत्वशुद्धि होती है।
इसलिए एक तरफ तो कहना कि जिसकी आत्मा परम शुद्धि को उपलब्ध हो गई है, वह मन से जो भी चाहेगा उसे पा लेगा, निपट मूढ़तापूर्ण
है।
यह सूत्र किसी विक्षिप्त व्यक्ति ने लिखा होगा। उपनिषद में हो, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। मैं शास्त्रों को देख कर नहीं चलता हूं। मेरी
कसौटी पर उतरनी चाहिए बात। मेरी कसौटी मेरे अनुभव पर निर्भर है, किसी शास्त्र पर नहीं। तो मुंडकोपनिषद हो या कोई और उपनिषद हो, वेद हो, कि कुरान हो, कि
बाइबिल हो, इन बड़े-बड़े नामों से मुझे रत्ती भर भी अंतर नहीं
पड़ता। मैं वही कहूंगा, जो मेरी अंतः-अनुभूति की कसौटी पर सही
उतरता है।
लेकिन सदियों से हमारी आदत गलत हो गई है। मुंडकोपनिषद में है, इसलिए ठीक होना ही चाहिए! उपनिषद में कहीं गलत बात हो सकती है?
गलत बात कहीं भी हो सकती है, क्योंकि सब बातें
आदमी लिखते हैं। और उपनिषद या वेद तो बहुत लोगों ने लिखे हैं। एक-एक उपनिषद में
बहुत से व्यक्तियों के वक्तव्य हैं।
फिर अगर एक उपनिषद में एक ही व्यक्ति के वक्तव्य हों, तो भी ध्यान रखना, यह भी हो सकता है, उसके कुछ सूत्र उस समय के हों जब उसने जाना न था और कुछ सूत्र उस समय के
हों जब उसने जाना। और स्वयं उसने लिखा न हो; किसी शिष्य ने,
जो-जो सुना है, वह संगृहीत कर लिया हो।
लेकिन मुझे इससे अंतर नहीं पड़ता। लोगों को तकलीफ होती है! कल ही किसी
व्यक्ति ने पूछा है कि कभी आप किसी शास्त्र के पक्ष में बोल देते हैं और कभी उसी
शास्त्र के विपक्ष में बोल देते हैं!
मैं भी क्या करूं; तुम्हारे शास्त्रों का कसूर है।
तुम्हारे शास्त्र विरोधाभासों से भरे हैं। उनके विरोधाभासों पर लीपापोती करने के
लिए मैंने कुछ ठेका नहीं लिया। मेरी कोई जिम्मेवारी नहीं है। मैं तो जैसा मुझे
दिखाई पड़ता है, वही कहूंगा। तुम्हारे शास्त्र का मेल पड़ जाए,
यह तुम्हारे शास्त्र का सौभाग्य। मेल न पड़े, यह
तुम्हारे शास्त्र का दुर्भाग्य। इसमें मेरा कुछ लेना-देना नहीं।
यह सूत्र तो बिलकुल ही विक्षिप्त है। गलत ही नहीं, गलत से भी गया-बीता है!
"यं यं लोकं मनसा संविभाति
विशुद्धसत्वः
कामयते यांश्च कामान्।'
"जिसका अंतःकरण शुद्ध है, ऐसा
आत्मवेत्ता मन से जिस-जिस लोक की कामना करता है और जिन-जिन कामनाओं की कामना करता
है, वह उस-उस लोक को और उन-उन कामनाओं को प्राप्त कर लेता
है।'
जिसने स्वयं को जाना, उसे क्या कुछ पाने को शेष रह
जाता है? जिसने स्वयं को पा लिया, अब
क्या इसके ऊपर भी कोई संपदा है? कोई साम्राज्य है? क्या इसके ऊपर भी कोई और गति है? अब क्या चाहेगा वह?
अब तो जो चाहेगा, वही पतन होगा। जैसे कोई
गौरीशंकर पर विराजमान हो गया, अब और कहां जाएगा? अब तो हर गति पतन होगी; अब तो हर कदम नीचे की तरफ
होगा। अब तो हर यात्रा ढलान की होगी।
आत्मवेत्ता तो वह है, जिसने चेतना के परम शिखर को
उपलब्ध कर लिया है। और खयाल रखना, जो मूल शब्द है, विशुद्धसत्वः, वह बड़ा बहुमूल्य है। उसका इतना ही
अर्थ नहीं होता कि जिसका अंतःकरण शुद्ध है। अंतःकरण तो दो कौड़ी की चीज है। अंतःकरण
को बहुत कीमत मत देना।
अंतःकरण आत्मा नहीं है, इस भेद को खूब खयाल
रखना। हालांकि समाज की सारी शिक्षा इस भेद को मिटाने की चेष्टा करती है। अंतःकरण
यानी आत्मा, ऐसा शब्दकोश कहेंगे, भाषाकार
कहेंगे, व्याख्याता कहेंगे, पंडित-पुरोहित
कहेंगे। लेकिन यह बात बुनियादी रूप से झूठ है। अंतःकरण सच पूछो तो अंतःकरण भी नहीं
होता, आत्मा होनी तो बहुत दूर। क्योंकि अंतःकरण बाहर से पैदा
किया जाता है, भीतर तो होता ही नहीं। अंतःकरण तो समाज पैदा
करता है। यह तो समाज की व्यवस्था है, व्यक्ति को गुलाम बनाए
रखने के लिए।
जैसे समाज बाहर इंतजाम करता है पुलिस वाले का, और मजिस्ट्रेट का, अदालत का, कानून
का, विधान का, ताकि तुम्हें बाहर से
बांध ले, तुम बाहर के डर से कुछ भूल-चूक न कर सको। लेकिन
आदमी होशियार है। तुम लाख कानून बनाओ, तुम लाख व्यवस्था बनाओ,
हर व्यवस्था में से छिद्र निकाल लेगा। आखिर आदमी ही तो बनाएगा न
कानून! तो आदमी कानून से तरकीबें भी निकाल लेगा।
आखिर सारे वकील करते ही क्या हैं! उनका काम ही क्या है! उनका काम ही
यही है कि कानून से कानून के विपरीत जाने की व्यवस्था खोजना। इसलिए तुम कोई भी
मुकदमा लेकर वकील के पास जाओ, वह कहेगा, बेफिक्र
रहो; जीत निश्चित है। खर्च तो बहुत होगा, मगर जीत निश्चित है।
मुल्ला नसरुद्दीन वकील के पास गया था। सारा मामला अपना सुनाया। वकील
ने कहा, बिलकुल मत घबड़ाओ। मामला तो कठिन है, पैसा तो खर्च होगा, मगर जीत निश्चित है।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि आपको पक्का भरोसा है जीत निश्चित है?
उस वकील ने कहा, छाती पर हाथ रख कर कहता हूं,
परमात्मा को गवाह रख कर कहता हूं कि जीत निश्चित है। जीवन भर हो गया
वकालत करते, इतना अनुभव नहीं मुझे? ऐसे
कई मुकदमे जिता चुका हूं!
मुल्ला तो उठ खड़ा हुआ, चलने लगा। तो वकील ने
कहा, कहां जा रहे हो?
मुल्ला ने कहा, तो फिर बात खतम हो गई।
उसने कहा, तो मुकदमा नहीं लड़ना है?
मुल्ला ने कहा, मैंने तुम्हें अपने विरोधी के तरफ का मामला बताया था।
तुम कह रहे हो कि जीत बिलकुल निश्चित है, तो अब मामला क्या
करना है? फिर झगड़े में सार ही क्या है? तो हम आपस में ही समझौता किए लेते हैं। जब जीत निश्चित ही है उसकी...!
तब वकील को पता चला कि यह पहला मौका है, जिसमें वह धोखा खा
गया। यह आदमी अपने विरोधी का मामला बता रहा था उसको!
वकील की सारी व्यवस्था यही है कि कानून से तरकीबें खोजे। जिन लोगों ने
कानून बनाया है, वे वे ही लोग हैं जिनके हाथ में लाठी है। जिसके हाथ
में लाठी उसकी भैंस! जिनके न्यस्त स्वार्थ हैं, वे कानून
बनाते हैं।
लेकिन उन्हें यह बात जाहिर है कि बाहर के कानून आदमी की पूरी आत्मा पर
जंजीरें नहीं डाल सकते। हो सकता है उसके हाथों में जंजीरें पड़ जाएं और पैरों में
बेड़ियां पड़ जाएं, मगर आदमी भीतर तो स्वतंत्र रहेगा। भीतर भी जंजीरें
पहनानी जरूरी हैं, तभी आदमी पूरा गुलाम होगा। और समाज के
न्यस्त स्वार्थ चाहते हैं कि आदमी पूरा गुलाम हो, शत प्रतिशत
गुलाम हो, ताकि बगावत की कोई संभावना ही न रह जाए, ताकि वह इनकार न करे, ताकि वह कभी आज्ञा का उल्लंघन
न करे। इस व्यवस्था को जुटाने के लिए उन्होंने अंतःकरण पैदा किया है।
अंतःकरण सामाजिक आविष्कार है। बच्चे के पास कोई अंतःकरण नहीं होता।
अंतःकरण हम धीरे-धीरे उसमें पैदा करते हैं। और हरेक धर्म का, हरेक जाति का, हरेक देश का अलग-अलग अंतःकरण होता है।
जैसे एक जैन को अगर तुम मांस परोस दो, तो उसका अंतःकरण क्या
कहेगा?
असंभव है कि वह मांस का आहार कर सके, क्योंकि बचपन से ही
मांसाहार गलत है, महापाप है, इस भांति
की धारणा उसके भीतर डाली गई है, संस्कारित की गई है। यह
संस्कार है। यह गहरे पहुंचा दिया गया है। इसकी इतनी पुनरुक्ति की गई है! पुनरुक्ति
ही व्यवस्था है अंतःकरण को पैदा करने की। बचपन से ही दोहराया गया है, हजार तरह से दोहराया गया है, और डर भी दिखाए गए हैं।
अगर मांसाहार किया, तो नर्क में सड़ोगे। अगर मांसाहार न किया,
तो स्वर्ग के आनंद भोगोगे। कैसे-कैसे भोग स्वर्ग के! कैसे-कैसे
प्रलोभन! और कैसे-कैसे भय नर्क के! भय और लोभ, दोनों के बीच
बच्चे को कसा गया है। और रोज दोहराया गया है। कहानियां दोहराई गई हैं; पुराण दोहराए गए हैं; मंदिरों में ले जाया गया है।
पंडित-पुजारियों, साधु-संतों के पास बिठाया गया है।
बहुत बार दोहराने से संस्कारित हो गया है। आज सामने उसके मांस रख दो, बस मुश्किल में पड़ जाएगा। वमन हो जाएगा। मांसाहार करना तो असंभव है। उसका
सारा अंतःकरण कहेगा, पाप है! महापाप है! वह देख भी न सकेगा।
छू भी न सकेगा।
लेकिन सारी दुनिया तो मांसाहारी है। निन्यानबे प्रतिशत लोग तो दुनिया
के मांसाहारी हैं। और ऐसा ही नहीं है कि भारत के बाहर ही मांसाहारी हैं, भारत में भी अधिकतम लोग तो मांसाहारी हैं। थोड़े से जैनों को छोड़ दो;
थोड़े से ब्राह्मणों को छोड़ दो। सारे ब्राह्मणों को भी मत छोड़ देना।
क्योंकि कश्मीरी ब्राह्मण तो मांसाहार करता है। इसलिए पंडित जवाहरलाल नेहरू को
मांसाहार करने में कोई अंतःकरण की बाधा नहीं पड़ती थी। कश्मीरी ब्राह्मण! बंगाली
ब्राह्मण तो मछली खाता है। तो रामकृष्ण को मछली खाने में कोई बाधा नहीं थी,
कोई अंतःकरण बाधा नहीं डालता था। तो सारे ब्राह्मण भी मत गिन लेना
गैर-मांसाहारियों में। और जैनियों की संख्या कितनी है? यही कोई
पैंतीस लाख। और थोड़े से ब्राह्मण उत्तर भारत के। इनको छोड़ कर सारी दुनिया
मांसाहारी है। न तो किसी के अंतःकरण में कोई अड़चन आती; न
किसी के भीतर कोई सवाल उठता।
अगर यह बात सच में ही अंतःकरण की होती, तो हरेक के भीतर आवाज
आनी चाहिए थी! अगर यह परमात्मा की आवाज होती, आत्मा की वाणी
होती, तो प्रत्येक के भीतर उठनी चाहिए थी! और मजा तो यूं है
कि ऐसी-ऐसी बातों में भी अंतःकरण उठ आएगा, जिनके संबंध में
तुमने कभी कल्पना भी न की हो! सोचा भी न हो!
मेरे परिवार में एक बार एक क्वेकर ईसाई फकीर मेहमान हुआ। तो मैंने
उससे पूछा सुबह कि चाय लोगे, काफी लोगे, दूध लोगे, क्या लोगे? उसने कहा,
दूध! आप और दूध पीते हैं?
उसने मुझसे ऐसे पूछा, जैसे कि कोई महापाप करने के लिए
मैंने उसे निमंत्रण दिया है! तब तक मुझे पता ही न था कि क्वेकर दूध को पीना पाप
समझते हैं। उनके अंतःकरण के खिलाफ है। यहां तो दूध सबसे सात्विक आहार है इस देश
में, ऋषि-मुनियों का आहार! यहां तो जो आदमी दूध ही दूध पीता
है, उसको तो लोग महात्मा कहते हैं। मैं रायपुर में कोई छह-आठ
महीने रहा, तो वहां तो एक पूरा का पूरा आश्रम, दूधाधारी आश्रम! वहां सिर्फ दूध ही पीने वाले साधु-संत हैं। और उनकी
महत्ता यही है कि वे सिर्फ दूध पीते हैं!
तो मैंने कहा कि दूध पीने में कोई अड़चन? आपको तकलीफ है?
उन्होंने कहा, तकलीफ की बात कर रहे हो! अरे, दूध
और खून में भेद ही क्या? जैसे खून शरीर से आता है, वैसे ही दूध भी शरीर से ही आता है।
इसीलिए तो दूध पीने से खून बढ़ता है, चेहरे पर सुर्खी आ
जाती है। दूध रक्त जैसा ही है। बात में तो बल है। शरीर से ही निकलता है; शरीर का ही अंग है। तो शरीर के अंग को--चाहे वह मांस हो, चाहे दूध हो, चाहे रक्त हो--एक ही कोटि में गिना
जाएगा।
उन्होंने कहा, दूध तो बहुत असात्विक आहार है!
इस देश में लोग दूध को सात्विक आहार मानते रहे। उनका अंतःकरण कहता है, बिलकुल सात्विक आहार है। क्वेकर ईसाई मानते हैं, बिलकुल
असात्विक आहार है। उनका अंतःकरण उन्हें दूध नहीं पीने देता। दूध देख कर ही उनको
बेचैनी हो जाएगी।
कौन सी चीज अंतःकरण है? अगर अंतःकरण जैसी कोई
बात होती, तो सभी के भीतर समान होनी चाहिए थी। लेकिन सभी के
भीतर समान नहीं है। औरों की तो बात छोड़ दो, दिगंबर और
श्वेतांबर जैन, एक ही संप्रदाय, कोई
खास भेद नहीं। एक ही मत, एक ही जीवन-दर्शन। कुछ छोटी सी
टुच्ची बातों के फासले हैं। मगर उनमें भी फर्क है।
जब पर्युषण के दिन आते हैं, जैनों के धार्मिक
उत्सव के दिन, तो दिगंबर जैन हरी सब्जियां नहीं खाते। मैं तो
दिगंबर परिवार में पैदा हुआ, तो बचपन से मैंने यही जाना कि
हरी सब्जी पर्युषण के समय में खाना पाप है। कोई बीस वर्ष की उम्र में पहली दफा एक
श्वेतांबर जैन परिवार में मैं ठहरा। तो मैं चकित हुआ यह देख कर कि पर्युषण के दिन
हैं, लेकिन केले मजे से खाए जा रहे हैं! तो मैंने पूछा,
यह मामला क्या है? हरी चीज खाने का तो विरोध
है! उन्होंने कहा, यह हरा है ही कहां? यह
केला तो पीला होता है।
हरे का मतलब देखा! जैन शास्त्र कहते हैं, हरी चीज। हरी चीज से उनका मतलब है ताजी, अभी तोड़ी
गई। मगर यहां हरे का मतलब ही और है। केला तो पीला! कच्चा केला मत खाओ, जो हरा दिखाई पड़ता है। पका हुआ केला खाने में तो कोई अड़चन नहीं है। वह तो
पीला है। इससे कोई अड़चन नहीं पैदा हो रही है।
अंतःकरण बाहर से पैदा किया जाता है।
ईसाई शराब पीने में कोई अड़चन नहीं पाते। खुद जीसस शराब पीते थे। शराब
पीने में कोई अड़चन न थी, कोई बुराई न थी। किसी ईसाई को कोई बुराई नहीं है।
लेकिन भारतीय मानस को बड़ी पीड़ा होती है शराब की बात ही सुन कर। यहां
मोरारजी देसाई स्वमूत्र पी लें, मगर शराब नहीं पी सकते! उनके
अंतःकरण को कोई अड़चन नहीं आती स्वमूत्र पीने में। आनी भी नहीं चाहिए। क्योंकि
भारतीय मानस गौ-मूत्र तो जमानों से पीता रहा है। अरे, जब
गौ-मूत्र पीते रहे, तो यह तो स्वावलंबन है!
गौ-मूत्र ही नहीं पीते रहे भारतीय, हिंदू तो पंचामृत का
सेवन करते हैं। पंचामृत का अर्थ होता है गोबर, गौ-मूत्र,
दूध, दही, घी, ये पांचों चीजों को मिला कर, घोंट कर पी गए, तो पंचामृत! पंचामृत पीने वाले देश में, अभी मोरारजी
देसाई ने तो एक ही अमृत खोजा है। अभी तुम देखना, कोई आएगा और
बड़ा महात्मा, जो आदमी में से पंचामृत निकालेगा। और वह भी
हमें स्वीकार हो जाएगा। उसमें भी हमें कोई अड़चन न होगी।
अंतःकरण तो आत्मा नहीं है। अंतःकरण तो बाहर का आरोपण है। जिसे आत्मा
को पाना हो, उसे अंतःकरण से मुक्त होना पड़ता है। उसे न तो चाहिए
ईसाई का अंतःकरण, न हिंदू का, न
मुसलमान का, न जैन का, न बौद्ध का। उसे
अंतःकरण चाहिए ही नहीं। बाहर से जो भी उसके ऊपर थोप दिया गया है, आच्छादित कर दिया गया है, उस सब को उसे त्याग देना
होता है।
इसको ही मैं तपश्चर्या कहता हूं, अंतःकरण के त्याग को।
तब तुम्हारे भीतर तुम्हारे स्वभाव की जो वाणी है, स्वस्फूर्त,
किसी की सिखाई हुई नहीं, तुम्हारे जीवन का ही
जो स्वर है, जो संगीत है, वह सुनाई
पड़ता है।
तो इस सूत्र का अनुवाद, सहजानंद, ऐसा न करो कि जिसका अंतःकरण शुद्ध है। क्योंकि तब तो बड़ी गड़बड़ होगी। एक
हिसाब से किसी का अंतःकरण शुद्ध होगा और दूसरे हिसाब से उसी का अंतःकरण शुद्ध नहीं
होगा। जीसस का अंतःकरण शुद्ध है या नहीं? हालांकि वे शराब भी
पीते हैं और मांसाहार भी करते हैं! छोड़ो जीसस को; रामकृष्ण
का अंतःकरण तो शुद्ध मानोगे कि नहीं? रामकृष्ण तो परमहंस
हैं! मगर मछली तो खाते हैं।
अंतःकरण किसका शुद्ध है? अंतःकरण है, तब तक शुद्धि हो ही नहीं सकती। अंतःकरण अर्थात अशुद्धि; विजातीय; बाहर से कुछ डाल दिया गया। उसी से तो
तुम्हारे भीतर कीचड़ मची है। जब तुम्हारे भीतर सिर्फ वही रह जाए, जो भीतर का है, तो आत्मशुद्धि।
इसलिए जो सूत्र का शब्द है वह ज्यादा उचित है, विशुद्धसत्वः। जिसके भीतर सत्वशुद्धि है, जिसका स्वभाव,
जिसका स्वरूप शुद्ध हो गया है। और उसका एक ही अर्थ होता है, जिसके भीतर से, जो भी विजातीय है, वह बाहर फेंक दिया गया।
जिसका विशुद्ध सत्व हुआ है, वह न तो हिंदू होगा,
न मुसलमान, न ईसाई, न
जैन, न बौद्ध, न पारसी, न सिक्ख। वह तो सिर्फ चैतन्य मात्र होगा। और ऐसी अवस्था में ही व्यक्ति
स्वयं को जानता है, आत्मवेत्ता बनता है।
अभी तो तुम अगर किन्हीं धारणाओं को मान कर ध्यान भी करोगे, तो वही जान लोगे, जो तुम्हारी धारणा है। जैसे ईसाई
ध्यान करने बैठेगा, तो उसको ईसा दिखाई पड़ने लगेंगे। और जैन
बैठेगा, तो महावीर दिखाई पड़ने लगेंगे। और बौद्ध बैठेगा,
तो बौद्ध की धारणाएं हैं, तो उसे बुद्ध का
दर्शन होगा। और कृष्ण का भक्त कृष्ण को देखेगा। और राम का भक्त राम को देखेगा। यह
तो तुम्हारी धारणा का ही प्रक्षेपण है। यह कोई आत्मबोध नहीं है।
जहां सारी धारणाएं गिर जाती हैं; जहां प्रक्षेपण करने
को ही कुछ नहीं रह जाता; जहां भीतर शून्य रह जाता
है--निर्विकार, निर्विचार, निर्विकल्प--उस
चैतन्य की अवस्था में स्वयं की जीत है; व्यक्ति जिन बनता है,
बुद्ध बनता है। जीतता है, जागता है। पहली बार
जीतता है, पहली बार जागता है।
"और ऐसे आत्मवेत्ता के मन से'--यह सूत्र कहता है--"जिस-जिस लोक की भावना हो...।'
अब किस लोक की भावना होगी? क्या इसके ऊपर भी कोई
लोक है? आत्मबोध के ऊपर भी कोई बोध है? बुद्धत्व के ऊपर भी कोई और संभावना है? कोई और शिखर
है? इस परम समाधि के पार अब क्या बचा? क्या
ऐसा व्यक्ति स्वर्ग चाहेगा? स्वर्ग तो बहुत पीछे छूट गए;
वे तो सपने हो गए। क्या ऐसा व्यक्ति चाहेगा कि इंद्र का आसन मिल जाए?
आसन की बात ही अब मूर्खतापूर्ण हो गई। अब तो परम आसन मिल गया,
पद्मासन मिल गया। वह कमल मिल गया, जो शाश्वत
है, जो कालातीत है। वह सुगंध मिल गई, जो
अब छूटेगी नहीं। अब तो जीवन उत्सव हुआ। अब तो रंगों की बहार आ गई। अब तो वसंत आया।
अब तो फूल खिले। अब तो गीत है, संगीत है, महोत्सव है; अब तो दीए पर दीए जले।
कबीर ने कहा है, जैसे हजारों सूर्य एक साथ भीतर
उग आए हों, ऐसा आत्मवेत्ता की स्थिति होती है।
अब क्या चाहेगा? किस लोक की कल्पना करेगा?
उर्वशी को चाहेगा? मेनका को चाहेगा? इंद्रासन की फिक्र करेगा? देवता बनना चाहेगा?
कल्पवृक्ष मांगेगा? यह बात ही मूढ़तापूर्ण हो
जाएगी। फिर तो यूं हुआ कि आत्मज्ञान के पार भी कुछ बच रहा; आत्मज्ञान
भी फिर अंत न हुआ, लक्ष्य न हुआ, साधन
ही रह गया। और आत्मज्ञान साध्य है, साधन नहीं।
"तो आत्मवेत्ता के मन से जिस-जिस लोक की भावना
होगी'--इस सूत्र का कहना है--"और जिन-जिन कामनाओं की
कामना होगी, वह उन-उन कामनाओं को, उन-उन
लोकों को प्राप्त कर लेता है।'
पहले तो कामना ही नहीं होगी, कामना के बीज ही दग्ध
हो गए। इसीलिए तो पतंजलि ने ऐसे व्यक्ति को दग्ध-बीज कहा है। निर्बीज समाधि कहा है
ऐसी अवस्था को। यहां तो बीज ही न बचे कामना के, अब अंकुरण
क्या होंगे? जल गए बीज, राख हो गए।
और यह सूत्र कहता है: "इसलिए जो अपना कल्याण चाहता है उसे
आत्मवेत्ता की अर्चना करनी चाहिए।'
पहली बात भी लोभ से भरी है और दूसरी बात भी लोभ से भरी है। आत्मवेत्ता
की इतनी क्षमता बता दी कि वह जो चाहे हो जाएगा; जो मांगे, मिलेगा; तत्क्षण मिलेगा, देर
नहीं अबेर नहीं। कहावत तुमने सुनी है कि परमात्मा के घर देर हो, मगर अंधेर नहीं है। यह अज्ञानियों के लिए है। ज्ञानियों के लिए न तो देर
है, न अंधेर है। उन्होंने तो इधर मांगा, उधर मिला। मांग भी नहीं पाए कि मिला। वे तो कल्पवृक्ष के नीचे ही बैठे हुए
हैं। यह भी लोभ की बात रही, लोभ का ही विस्तार रहा। और आगे
भी लोभ की ही बात है:
"इसलिए जो अपना कल्याण चाहता है उसे आत्मवेत्ता की
अर्चना करनी चाहिए।'
इसलिए जाओ आत्मवेत्ताओं के पास, उनकी अर्चना करो,
पूजा करो। वह भी किसलिए? अपना कल्याण चाहने के
लिए। उसके पीछे भी चाह है, वहां भी वासना है।
यहां लोग मंदिरों में जा रहे हैं, मस्जिदों में जा रहे
हैं, गुरुद्वारों-गिरजों में जा रहे हैं। पूछो, किसलिए जा रहे हैं? वहां भी चाह है, वहां भी वासना है। और जहां वासना है, वहां प्रार्थना
नहीं। और जहां वासना है, वहां अर्चना कैसी! वासना की दुर्गंध
में अर्चना की सुगंध कैसे पैदा होगी? लाख जलाओ धूप और लाख
जलाओ दीए, न होगी रोशनी, न होगी सुगंध।
दुर्गंध को बहुत से बहुत छिपा लोगे, अंधेरे को बहुत से बहुत
ढांक लोगे। मगर मिटेगा नहीं, फिर-फिर उभर आएगा। ये जलाए दीए,
देर नहीं है, बुझ जाएंगे। और ये जलाई धूप,
जल्दी हवा उड़ा ले जाएगी। फिर दुर्गंध अपनी जगह होगी। यह धोखा है,
यह प्रवंचना है।
आत्मवेत्ता व्यक्ति की भी अर्चना करना इस कामना से कि मेरा भी कल्याण
हो जाए। और मेरा भी कल्याण, इसका अर्थ क्या होगा? इसका अर्थ
यह होगा कि मैं भी उस जगह पहुंच जाऊं जहां हर चीज मांगने से मिल जाती है। जहां हर
चीज चाहने से मिल जाती है। जहां कोई भी लोक चाहो, देर नहीं
लगती, तत्क्षण वहां पहुंच जाते हैं। इसलिए आत्मवेत्ता
व्यक्ति की भी अर्चना करनी चाहिए। यह भी लोभ का ही संबंध हुआ।
शिष्य और गुरु का संबंध लोभ का नहीं हो सकता। और अगर वह भी लोभ का
संबंध है, तो फिर वह भी सांसारिक संबंध है। फिर पत्नी का और पति
का संबंध, बाप का और बेटे का संबंध, भाई
और बहन का संबंध, इन सारे संबंधों में ही गुरु और शिष्य का
संबंध भी एक संबंध हुआ। फिर उसमें कुछ गुणात्मक भेद न रहा।
गुणात्मक भेद तब होता है, जब बाकी सब संबंध तो
लोभ के होते हैं, लाभ के होते हैं; लेकिन
गुरु और शिष्य का संबंध सिर्फ प्रेम का होता है--न लोभ का, न
लाभ का। प्रेम के संबंध का अर्थ यह होता है कि संबंध ही अपने आप में इतना बहुमूल्य
है, अब और क्या चाहना है! शिष्य की अंतरतम भावना यह होती है
कि गुरु मिल गया तो सब मिल गया; अब कुछ पाने को नहीं,
अब कहीं जाने को नहीं।
और मजा यह है कि जिसके भीतर ऐसा सदभाव पैदा होता है, उसके ऊपर वर्षा हो जाती है फूलों की। सारा आकाश फूलों की वर्षा करने लगता
है। न तो उसने कुछ मांगा, न उसने कुछ चाहा, लेकिन सब बरस उठता है!
मंजुश्री की प्यारी कथा है। वह बुद्ध का पहला शिष्य है जो निर्वाण को
उपलब्ध हुआ। जिस दिन उसको बुद्धत्व प्राप्त हुआ, जिस दिन उसने स्वयं
को जाना, बैठा था वृक्ष के नीचे शांत, निर्विचार,
जाग कर अपने को देखता था। देखते-देखते बात बन गई। बनते-बनते बन जाती
है। सध गई। सब ठहर गया। मन ठहर गया, समय ठहर गया, विचार पता नहीं कहां विलुप्त हो गए! जैसे अचानक आकाश से बदलियां विदा हो
गईं और सूरज निकल आया! गहन मौन! सन्नाटा! और तत्क्षण उसने देखा, आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। ऐसे फूल, जो उसने
न कभी देखे, न कभी सुने! ऐसी गंध, जो
उसने कभी जानी नहीं। चौंका! यह तो वसंत का मौसम भी नहीं! जिस वृक्ष के नीचे बैठा
था, उसमें तो एक फूल भी न था। इतने फूल! इतने फूल कि जिनकी
गणना असंभव! बरसे ही चले जाते हैं, बरसे ही चले जाते हैं।
उसने आंख उठा कर आकाश की तरफ देखा। तो देखा कि देवता फूल बरसा रहे हैं।
यह तो कथा है, प्रतीक-कथा है। इतिहास मत समझ लेना। इसके भीतर अर्थ
तो गहरा है, लेकिन तथ्य मत मान लेना। सत्य तो बहुत है,
मगर तथ्य जरा भी नहीं। सत्य को कहना हो तो यूं ही कहा जा सकता है,
घूम-फिर कर ही कहना होता है; सीधा कहने का
उपाय नहीं।
तो मंजुश्री ने पूछा उन देवताओं से जो फूल बरसा रहे थे कि तुम्हें
क्या हो गया है? यह किसलिए फूल गिराए जाते हो? तुम
शायद कुछ भूल-चूक में हो। बुद्ध तो वहां दूर दूसरे वृक्ष के नीचे बैठे हैं;
वहां गिराओ फूल! मैं तो मंजुश्री हूं। उनका एक छोटा सा शिष्य हूं।
उनके प्रेम में लग गया हूं। मुझे कुछ चाहिए भी नहीं और। जो फूल चाहिए थे, मुझे मिल चुके हैं। और तुम्हें अर्चना करनी हो तो उनकी करो। वे रहे मेरे
गुरु! मुझ पर क्यों फूल गिराते हो? मैंने तो कुछ किया ही
नहीं। मेरी तो कोई पात्रता भी नहीं, कोई योग्यता भी नहीं।
उन देवताओं ने कहा, मंजुश्री! हम फूल गिरा रहे हैं
उस महत अवसर के स्वागत के समय में, जब तुमने शून्य पर अदभुत
प्रवचन दिया है!
मंजुश्री ने कहा, शून्य पर प्रवचन? मैं एक शब्द बोला नहीं!
देवता हंसे और उन्होंने कहा, न तुम एक शब्द बोले
और न एक शब्द हमने सुना। न तुमने कुछ कहा, न हमने कुछ सुना।
इसी को तो कहते हैं शून्य पर महा-प्रवचन! उसी खुशी में हम फूल गिरा रहे हैं। तुमने
कहा नहीं, हमने सुना नहीं, और बात हो
गई! बिन कहे बात हो गई! इसलिए फूल गिर रहे हैं। अब ये फूल तुम पर गिरते ही रहेंगे।
ये फूल गिरना शुरू होते हैं, फिर बंद नहीं होते।
समझना। यह तो बोध-कथा है, प्रतीक-कथा है। ऐसे
झाड़ के नीचे बैठ कर और बार-बार आंखें उठा कर ऊपर मत देखना, कि
देवता वगैरह आए कि नहीं पुष्पक विमान पर बैठे हुए? फूल वगैरह
लाए कि नहीं? नहीं तो उसी में सब गड़बड़ हो जाएगा!
तुम तो इतना ही जानना कि शून्य प्रवचन क्या है। वह हो जाए, तो कुछ आकाश से फूल बरसाने की जरूरत नहीं होती, तुम्हारे
भीतर ही फूल उमग आते हैं; अंतस-लोक में ही वसंत आ जाता है।
फिर कैसी कामनाएं? फिर कैसी वासनाएं?
और शिष्य को तो सवाल ही नहीं उठता कि आत्मवेत्ता पुरुष की अर्चना
इसलिए करे, क्योंकि उसकी बड़ी शक्ति है आत्मवेत्ता पुरुष की! महान
उपलब्धि है! नहीं; शिष्य तो अकारण प्रीति में पड़ता है।
प्रीति तो सदा अकारण होती है। जहां कारण है, वहां व्यवसाय
है। जहां कोई कारण नहीं...।
अब कोई मेरे संन्यासियों से पूछे कि मुझसे क्या उन्हें मिल रहा है? कुछ भी तो नहीं। कोई मेरे संन्यासियों से पूछे कि मुझसे क्यों बंधे हो?
मेरे पास क्यों बैठे हो? वर्ष आते हैं,
वर्ष जाते हैं और तुम मेरे पास रुके हो, क्यों?
तो मेरे संन्यासी उत्तर न दे सकेंगे। जो उत्तर दे सकें, वे मेरे संन्यासी नहीं। कोई उत्तर न दे सकेंगे। उत्तर का कोई सवाल नहीं
है। बेबूझ है बात।
सहजानंद! मुंडकोपनिषद के इस सूत्र का मैं तुम्हें क्या अभिप्राय कहूं!
यह सूत्र एकदम गलत है, आधारभूत रूप से गलत है। सूत्र बिलकुल
विक्षिप्ततापूर्ण है। किसी पागल ने कहा होगा। किस तरह मुंडकोपनिषद में प्रवेश कर
गया, पता नहीं!
लेकिन पंडित जो न कर जाएं थोड़ा है। पंडित तो एक उपद्रव हैं। न उन्हें
पता है। लेकिन दुर्भाग्य तो यही है कि वे ही संकलन करते हैं।
महावीर बोले, लेकिन संकलन किया पंडितों ने। यह सांयोगिक बात नहीं
है कि महावीर के ग्यारह गणधर, उनके जो ग्यारह प्रमुख शिष्य
थे, ग्यारह के ग्यारह ब्राह्मण थे। महावीर तो क्षत्रिय थे।
जैनों के चौबीस तीर्थंकर ही क्षत्रिय हैं। असल में वह क्षत्रियों की बगावत थी
ब्राह्मणवाद के खिलाफ, पांडित्यवाद के खिलाफ। लेकिन
दुर्भाग्य तो यह है कि महावीर के वचन भी संकलन तो किए ब्राह्मणों ने ही। वे ग्यारह
गणधर ही ब्राह्मण थे! और वहीं बात विकृत हो गई, वहीं
उन्होंने सब गड़बड़ कर दिया। वहीं स्रोत पर ही जहर मिल गया।
बुद्ध तो क्षत्रिय थे। सच तो यह है, जिन्हें स्वयं को
जानना हो, उन्हें किसी अर्थ में क्षत्रिय ही होना पड़ता है।
क्षत्रिय का अर्थ है, वह भी एक विजय-यात्रा है, एक घनघोर घमासान युद्ध है स्वयं के अंधकार से। उन्हें भी तलवार उठानी पड़ती
है। किसी और के खिलाफ नहीं, अपने ही तमस के खिलाफ; अपनी ही तंद्रा के खिलाफ; अपनी ही निद्रा के खिलाफ।
लेकिन बुद्ध को भी जो संकलन करने वाले लोग मिले, वे तो पंडित
ही थे, वे तो ब्राह्मण ही थे।
बस, वहीं विकृति हो जाती है। पंडित भाषा का ज्ञाता होता
है, व्याकरण का ज्ञाता होता है, शब्दों
का धनी होता है; लेकिन अनुभव उसके पास कुछ भी नहीं होता। और
यह सारा मामला अनुभव का है। पंडित तो तोते की भांति होता है; रट लेता है, दोहरा देता है। लिख देता है, यंत्रवत। उसकी अपनी अनुभूति तो नहीं होती।
मगर मैं मजबूरी भी समझता हूं। मुंडकोपनिषद जिसने कहा होगा, वह तो परम ज्ञानी रहा होगा, क्योंकि इसमें ऐसे सूत्र
हैं, जो अपूर्व हैं, जो कि बिना अनुभव
के नहीं कहे जा सकते। लेकिन कठिनाई यह है कि जिसने कहे हैं वह तो बुद्ध रहा होगा,
मगर दूसरे बुद्ध को तुम कहां से पाओगे जो तुम्हारे सूत्रों को लिखे?
कोई बुद्धू ही लिखेगा। कोई बुद्ध क्यों लिखेगा? किसलिए लिखेगा?
बुद्ध के जीवन में ऐसी कथा है, जो प्रीतिकर है।
बुद्ध की मृत्यु हुई। जब तक जीवित थे, किसी ने फिक्र ही न की
थी कि उन्होंने जो कहा है, वह संकलित कर लिया जाए। ऐसे आनंद
में थे, ऐसे अहोभाव में थे, कि किसको
चिंता पड़ी थी! रोज दीए जल रहे थे। रोज दीवाली थी। रोज रंग बिखर रहे थे। रोज फाग
थी। किसको फुर्सत थी कि अभी लिखे। लेकिन बुद्ध की मृत्यु के बाद जो पहला सवाल उठा
शिष्यों के सामने, वह यही था कि अब उनके वचनों को संकलित कर
लिया जाए।
और तुम चकित होओगे जान कर कि जो लोग संकलित कर सकते थे, वे तो भूल ही भाल चुके थे। मंजुश्री, जो पहला बुद्ध
था बुद्ध के शिष्यों में, उससे कहा। उसने कहा, मुझे तो कुछ याद नहीं। मुझे तो अपनी याद नहीं! कैसे रस में भीगे वे दिन
बीते! कौन शब्दों की फिक्र करता! मुझे पक्का-पक्का नहीं कि उन्होंने क्या कहा और
मैंने क्या सुना; उन्होंने क्या कहा और मैंने क्या समझा। और
जब से मैं जागा, तब से तो बात शब्दों की रही न थी, एक मौन संवाद था। उस मौन संवाद को लिखूं भी तो कैसे लिखूं! उसके लिए तो
कोरा कागज ही काफी है।
सारिपुत्र से पूछा। सारिपुत्र ने कहा, मुश्किल है बात। जब
तक मैं जागा नहीं था, तुमने अगर कहा होता तो लिख देता,
क्योंकि तब तक शब्दों पर ही पकड़ थी। जब मैं जागा, तो निःशब्द में उतर गया। अब तो पक्का नहीं है; मैं
लिखूं भी तो यह तय करना मुश्किल होगा कि यह मेरी बात लिख रहा हूं कि बुद्ध की बात
लिख रहा हूं। अब तो सब गोल-मोल हो गया। अब तो सब तालमेल टूट गया, भेद टूट गए। अब तो मेरी सरिता भी उनके सागर में मिल गई। तो मेरी बात का
तुम भरोसा न करना। बात तो मेरी सच्ची होगी, खरी होगी। मगर
मेरी है कि उनकी, यह तय करना नहीं हो सकता। अपनी बात लिख
सकता हूं, मगर यह दावा मैं नहीं कर सकता कि ऐसा उन्होंने कहा
था। जरूर कहा होगा, मगर निश्चयात्मक रूप से मैं कोई दावा
नहीं कर सकता।
मौग्गलान से पूछा। उसने कंधे बिचका दिए। उसने कहा, कौन इस झंझट में पड़े!
जितने शिष्य बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए थे, वे कोई राजी न थे। सिर्फ आनंद, जो बुद्धत्व को
उपलब्ध नहीं हुआ था, वह राजी था। उसे सब याद था। उस बेचारे
के पास और तो कोई संपदा न थी, शब्दों को ही संजोता रहा था,
इकट्ठा करता रहा था। जो-जो बुद्ध बोलते थे, उसको
इकट्ठा करता रहता था। उसके पास कोई प्रज्ञा तो नहीं थी, मगर
स्मृति थी। प्रज्ञा हो, तो स्मृति की क्या चिंता! और प्रज्ञा
न हो, तो स्मृति ही एकमात्र धन है।
बड़ी बिगूचन, बड़ी विडंबना खड़ी हो गई। सारे शिष्य इकट्ठे हुए थे,
उन्होंने कहा, यह बड़ी मुश्किल की बात है।
जिनकी बात का भरोसा हो सकता है, वे लिखने को राजी नहीं। और
जिसकी बात का कुछ भरोसा नहीं, वह लिखने को राजी है! आनंद से
लिखवाना है क्या? हालांकि जो भी वह कहेगा, वही कहेगा जो बुद्ध ने कहा था। लेकिन अज्ञानी ने सुना है, जैसे किसी ने नींद में सुना हो।
मैं यहां बोल रहा हूं। तुम में से कई यहां सोए होंगे। वे भी सुन रहे
होंगे, मगर नींद में सुन रहे होंगे। कुछ सुना जाएगा, कुछ नहीं सुना जाएगा, कुछ का कुछ सुना जाएगा;
स्वाभाविक है। और फिर अगर तुमसे कहा जाए लिखो, तो तुम जो लिखोगे उसकी क्या प्रामाणिकता होगी?
आनंद ने कहा, मैं लिख तो सकता हूं, लेकिन
प्रामाणिकता का दावा मैं नहीं कर सकता।
अब तुम देखते हो विडंबना! जो प्रामाणिक हो सकते हैं, वे लिखने को राजी नहीं थे। जो लिखने को राजी था, उसने
कहा, मैं प्रामाणिक नहीं हो सकता!
तो फिर बुद्ध के शिष्यों ने एक उपाय ही खोजा, उन्होंने आनंद से कहा, तू एक काम कर। तू किसी तरह
सारा श्रम लगा कर बुद्धत्व को उपलब्ध हो जा। क्योंकि हम तेरी बातों का तब तक भरोसा
न करेंगे, जब तक तू बुद्धत्व को उपलब्ध न हो जाए। और तुझे सब
बातें याद हैं। और तू सबसे ज्यादा बुद्ध के साथ रहा है। बयालीस साल सतत, एक क्षण को भी बुद्ध को तूने नहीं छोड़ा। इतना साथ कोई उनके रहा नहीं। दिन
भी तू साथ रहा, रात भी तू साथ रहा। रात भी उसी कमरे में सोता
था जिसमें बुद्ध सोते थे। उनकी सेवा में ही सब कुछ समर्पित कर दिया था उसने। तो
हमें भरोसा है। मगर तेरे भीतर जागरण तो हो!
और जब आनंद जाग्रत हुआ, तब उन्होंने उसके
वचनों को स्वीकार किया। लेकिन झगड़ा तत्क्षण शुरू हो गया। आनंद ने तो वचन लिख दिए,
लेकिन छत्तीस संप्रदाय पैदा हो गए। क्योंकि बौद्धों के अलग-अलग
लोगों ने कहा कि ये आनंद के शब्द हम स्वीकार नहीं कर सकते। किसी ने कहा, हम ये स्वीकार नहीं कर सकते। किसी ने कहा कि ये हमें स्वीकार हैं, मगर और बातें स्वीकार नहीं।
अज्ञानियों के छत्तीस खंड हो गए! ज्ञानी तो चुप रहे, अज्ञानियों ने संप्रदाय बना लिए। बुद्ध को मरे दिन भी न हुए थे कि वह
महाज्योति टुकड़ों-टुकड़ों में टूट गई। और सत्य जब टुकड़ों में टूटता है, तो असत्य से भी बदतर हो जाता है।
सहजानंद! जिसने भी मुंडकोपनिषद के मूल सूत्र कहे होंगे, वह जरूर बुद्धत्व को उपलब्ध रहा होगा। लेकिन जिन्होंने लिखे होंगे,
उन्होंने बहुत कुछ अपनी तरफ से जोड़ दिया होगा।
और ऐसा भी नहीं कि जान कर लोग जोड़ते हैं। मैं उनकी सदभावना पर संदेह
नहीं करता हूं। मैं यह नहीं कह रहा हूं, उनकी भावना गलत रही
होगी। मगर मजबूरी है बेहोश आदमी की; बेहोशी में वह जो भी
करेगा, कितनी ही सदभावना से करे, सद-इच्छा
से करे, गलत तो हो ही जाएगा।
अब तुम देखते हो, यह सूत्र है--
"यं यं लोकं मनसा संविभाति
विशुद्धसत्वः
कामयते यांश्च कामान्।
तं तं लोकं जयते तांश्च कामां--
स्तस्मादात्मज्ञं
ह्यर्चवेद भूतिकामः।।'
लेकिन जिसने अनुवाद किया, उसने भी भूल-चूक कर
दी: "जिसका अंतःकरण शुद्ध है।' विशुद्धसत्वः! उसका
अनुवाद हो गया, जिसका अंतःकरण शुद्ध है।
भारी चूक हो गई। अंतःकरण से मुक्त होता है कोई, तभी विशुद्धसत्व होता है। और यहां तो बात ही उलटी हो गई।
"जिसका अंतःकरण शुद्ध है, ऐसा
आत्मवेत्ता मन से जिस-जिस लोक की भावना करता है...।'
आत्मवेत्ता का मन रह जाता है? मन की जरूरत क्या है?
यह तो यूं हुआ, कहानी है कि जीसस ने एक अंधे आदमी की आंखों को छुआ;
आंखें ठीक हो गईं। स्वभावतः, अंधा आदमी था,
तो लकड़ी टेक-टेक कर चलता था। आंखें तो ठीक हो गईं, जीसस को धन्यवाद देकर वह जाने लगा, मगर अपनी लकड़ी भी
साथ ले चला! जीसस ने कहा, मेरे भाई, कम
से कम धन्यवाद में लकड़ी तो मुझे दे जा! लकड़ी तो छोड़ दे!
वह अंधा आदमी क्या बोला! उसने कहा, बिना लकड़ी के मेरा
कैसे चलेगा?
आंखें आ गईं! मगर पुरानी आदत, जिंदगी भर की आदत!
लकड़ी से टटोल-टटोल कर चलता था। लकड़ी ही उसकी अब तक की आंख थी। आज आंख भी आ गई,
तो वह घटना इतनी नई थी कि अभी तक उस घटना का संप्रेषण भीतर तक नहीं
हुआ।
उसने कहा, लकड़ी मैं कैसे छोड़ सकता हूं? बिना
लकड़ी के मेरा कैसे चलेगा मालिक? बिना लकड़ी के तो मैं एक कदम
न चल सकूंगा। इसी से टटोल-टटोल कर, टेक-टेक कर तो चलता हूं।
जीसस ने कहा, पागल! अब तेरी आंखें ठीक हो गईं, अब लकड़ी से क्यों टटोलेगा?
अंतःकरण तो अंधे आदमी की लकड़ी है। विशुद्धसत्वः! वह तो अंधे आदमी की
आंख का ठीक हो जाना है। अब वहां अंतःकरण की क्या जरूरत है?
अंतःकरण तो समाज थोपता है इसलिए ताकि किसी तरह तुम आचरण की सीमा में
चलते रहो। लेकिन जिसकी आत्मा जग गई, अब उसके ऊपर कोई आचरण
की सीमा नहीं रह जाती। वह आचरण-मुक्त होता है। अब तो वह जो करेगा, वही ठीक है। अज्ञानी को बताना पड़ता है कि तुम ठीक करो और गैर-ठीक न करो।
ज्ञानी जो करता है वही ठीक है, जो नहीं करता वही ठीक नहीं
है।
क्रांतिकारी अंतर हो गया। लेकिन जरा से अनुवाद में, एक शब्द के अनुवाद में सारा अर्थ बदल गया।
और आत्मवेत्ता अभी भी मन...! मन का अर्थ होता है, मनन करने की क्षमता। मनन से ही तो मन बना। मन से ही तो मनुष्य शब्द बना।
वह जो मनन करता है, मनुष्य है। वह जो मनन की भीतर हमारे
प्रक्रिया है, उसका नाम मन है। लेकिन जिसको आंख मिल गई,
वह मनन थोड़े ही करता है।
अंधा आदमी सोचता है कि दीवाल कहां? दरवाजा कहां? पूछता है कि बाएं जाऊं कि दाएं जाऊं? आंख वाला आदमी
तो उठता है और दरवाजे से निकल जाता है। उसे दिखाई पड़ता है। मनन करना ही नहीं पड़ता।
ठीक ऐसा ही, जिसका विशुद्ध सत्व हुआ, जिसके
भीतर समाधि का फूल खिला, जिसके भीतर समाधि की आंख खुली,
अब मनन करेगा? अब मनन किसलिए करेगा?
अंधा आदमी सोचता है कि प्रकाश कैसा होता है? आंख वाला आदमी तो कभी नहीं सोचता कि प्रकाश कैसा होता है। वह तो जानता ही
है। बहरा आदमी शायद सोचता हो कि ध्वनि कैसी होती है? कान
वाला आदमी तो जानता है कि ध्वनि कैसी होती है।
जिसकी आत्मा शुद्ध हो गई, उसको मनन की जरूरत
नहीं रह जाती। वह सोचता ही नहीं; वह देखता है, वह द्रष्टा है। वह मनुष्य के पार हो गया। उसने मनुष्य का अतिक्रमण कर
लिया। मन का अतिक्रमण हुआ कि मनुष्य का भी अतिक्रमण हो जाता है। अब कहां मन! कहां
के लोक! सब स्वप्न हैं तुम्हारे लोक। नर्क भी तुम्हारा स्वप्न है, स्वर्ग भी तुम्हारा स्वप्न है। ये कोई स्थान नहीं। ये कोई भौगोलिक जगह
नहीं। नर्क भी तुमने निर्मित किया है अपने भय से और स्वर्ग भी तुमने निर्मित किया
है अपने लोभ से।
इसलिए तुमने स्वर्ग में वह सब व्यवस्था कर ली, जो तुम्हारा लोभ चाहता है। और नर्क में तुमने वह सब व्यवस्था कर दी,
जो तुम उनके लिए दंड देना चाहोगे जो तुम्हारे साथ चलने को राजी नहीं
हैं। दुश्मनों के लिए नर्क, दोस्तों के लिए स्वर्ग। अपने वालों
के लिए स्वर्ग, परायों के लिए नर्क। लेकिन नर्क कहीं है थोड़े
ही; न स्वर्ग कहीं है।
जिस दिन तुम भय और लोभ से मुक्त हो गए, उसी दिन तुम देख लोगे,
न तो कोई स्वर्ग है, न कोई नर्क है। हां,
जब तक तुम भय से भरे कंप रहे हो, नर्क में ही
हो। और जब तक तुम स्वर्ग से लालायित, डांवाडोल हो रहे हो,
तब तक दोनों चीजें सत्य मालूम पड़ती हैं। मगर वे प्रतीतियां हैं,
भ्रांतियां हैं। जहां मन थिर हुआ, शांत हुआ,
मौन हुआ, दोनों ही खो जाते हैं। और उन दोनों
के खो जाने पर क्या मांगोगे लोक? कौन सी कामनाएं करोगे?
सुना है मैंने, एक आदमी भूला-भटका स्वर्ग पहुंच गया। थका-मांदा था,
एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने को लेट गया। उसे पता न था कि यह
कल्पवृक्ष है; इसके नीचे लेटो और बैठो और जो भी कामना करो,
पूरी हो जाती है! कहानी मधुर है। भूखा था। मन में खयाल उठा कि काश,
इस वक्त कहीं से भोजन मिल जाता, बड़ी भूख लगी
है!
ऐसा उठना था विचार का कि तत्क्षण सुस्वादु भोजनों से भरे हुए
स्वर्ण-थाल प्रकट हो गए। वह इतना भूखा था, इतना थका था, कि उसने सोचा भी नहीं कि ये कहां से आए! कौन लाया! भूखा आदमी क्या सोचे?
ये सब भरे पेट की बातें हैं। उसने तो जल्दी से भोजन किया।
पेट भर गया, तो सोचा कि कहीं से कुछ पीने को मिल जाए, कोकाकोला! फेंटा! नहीं तो लिमका ही सही! और देख कर हैरान हुआ कि कोकाकोला,
फेंटा, लिमका, सब चले आ
रहे हैं! थोड़ा चौंका भी कि कोकाकोला तो बंद हो गया था! मगर तस्करों की कृपा से सभी
कुछ उपलब्ध होता है। तस्करी जो न कर दे थोड़ा! असंभव को संभव बना देती है। फिर
किसको फिक्र पड़ी थी! अभी तो बहुत थका था; कोकाकोला पीकर
लेटने लगा। लेटने लगा तो सोचा कि पेट तो भर गया, मगर
कंकड़-पत्थर हैं, जमीन साफ-सुथरी नहीं। ऐसे समय में तो कोई
गद्दी होनी थी। सुंदर सेज होती, तो आज जैसी गहरी नींद आती,
जैसा घोड़े बेच कर आज सोता, ऐसा कभी नहीं सोया
था।
अचानक देख कर हैरान हुआ कि एक पलंग चला आ रहा है! थोड़ा सकुचाया भी कि
क्या-क्या हो रहा है! मगर नींद इतनी गहरी आ रही थी कि उसने अभी कहा कि बाद में देखेंगे।
यह विचार वगैरह सब बाद में कर लेंगे। सो गया पलंग पर। बड़ा चकित हुआ कि डनलप की
गद्दियां! मगर उसने कहा कि पीछे जग कर देखेंगे।
जब जगा, तब थोड़ा सा चिंतित हुआ, कि इस
निर्जन स्थान में, इस वृक्ष के नीचे, वृक्ष
के आस-पास न तो कहीं कोई रेफ्रिजरेटर दिखाई पड़ता है; न कोई
आदम जात दिखाई पड़ता है। कोकाकोला प्रकट हुए! भोजन आया! यही नहीं, बिस्तर भी प्रकट हुआ! टटोल कर बिस्तर ठीक से देखा कि है भी कि मैं कोई
कल्पना कर रहा हूं? लेकिन है। थोड़ा डरा कि कहीं कोई
भूत-प्रेत तो नहीं हैं इस वृक्ष में!
बस, जैसे ही उसने सोचा कि कहीं कोई भूत-प्रेत तो नहीं!
कहीं कोई भूत-प्रेत तो नहीं छिपे हैं! मैं किन्हीं भूत-प्रेतों के चक्कर में तो
नहीं पड़ गया हूं! कि तत्क्षण चारों तरफ भूत-प्रेत एकदम, जैसे
आनंदमार्गी तांडव नृत्य करते हैं, ऐसा आदमियों की खोपड़ियां
लेकर एकदम नृत्य करने लगे। उसने कहा, मारे गए! और मारा गया।
क्योंकि कल्पवृक्ष के नीचे तो जो कहोगे, वही हो जाएगा। वह
कोकाकोला बहुत मंहगा पड़ा! मगर अब तो बहुत देर हो चुकी थी। जब कह ही चुका कि मारे
गए, तो वे सब आनंदमार्गी पटक कर खोपड़ियां वगैरह, उसकी गर्दन तोड़ दी उन्होंने। इसी तरह तो खोपड़ियां इकट्ठी करते हैं,
नहीं तो फिर खोपड़ियां इकट्ठी कहां से करो? यही
जो कल्पवृक्षों के नीचे फंस जाते हैं, इन्हीं की खोपड़ियां
फिर तांडव नृत्य के काम में आती हैं!
न तो कहीं कोई स्वर्ग है, न कहीं कोई नर्क है।
न तो डरो नर्क की अग्नि से, न कामना करो स्वर्ग के सुखों की।
सब तुम्हारे मन के जाल हैं।
यहां चूंकि जीवन में दुख है, इसलिए तुम उसके
विपरीत स्वर्ग की कल्पना कर रहे हो। और चूंकि दूसरे यहां मजा लूटते दिखाई पड़ रहे
हैं, उनके लिए तुम नर्क का इंतजाम कर रहे हो। तुम अपने को
सांत्वना दे रहे हो कि कोई फिक्र नहीं; अरे, चार दिन की जिंदगी है! और यूं ही कटी जा रही है। अभी झेल लो दुख, कोई फिक्र नहीं। थोड़ा सा दुख है, फिर स्वर्ग के सुख
ही सुख हैं। और ये जो दुष्ट मजा कर रहे हैं, गुलछर्रे उड़ा
रहे हैं, उड़ा लो। अरे, दो दिन की बात
है, फिर सड़ोगे; फिर नर्कों में पड़ोगे;
तब याद करोगे। तब चुल्लू-चुल्लू पानी को तरसोगे। ये सांत्वनाएं हैं।
यह अपने को समझाना है।
कार्ल माक्र्स एकदम गलत नहीं है, जब वह कहता है कि
धर्म अफीम का नशा है। इसमें थोड़ी दूर तक सचाई है। निन्यानबे प्रतिशत लोग जिसको
धर्म समझते हैं, वह निश्चित ही अफीम का नशा है।
हां, बुद्ध का, और कृष्ण का, और महावीर का, और जीसस का धर्म जरूर अफीम का नशा
नहीं है। मगर उस धर्म से कितने लोगों का संबंध है?
पंडितों-पुरोहितों का यह जो विराट जाल फैला हुआ है, ये तो सिर्फ अफीम ही बेच रहे हैं। ये तो तुम्हें सिर्फ किसी तरह बेहोश
रखने की कोशिश कर रहे हैं। जिंदगी में दुख है, थोड़ी बेहोशी
चाहिए, ताकि दुख झेल लो। और जिंदगी में दुख है, इसलिए थोड़ी कल्पना का जाल चाहिए, ताकि उसकी आशा में
बंधे हुए कुछ तो सांत्वना रहे।
मगर ये सारी बातें अज्ञानी के लिए हैं, आत्मवेत्ता के लिए
नहीं। इसलिए सहजानंद! अगर मेरे हाथ में बात हो, तो इस तरह के
सूत्रों को उपनिषदों से निकाल कर बाहर कर दूं। इस तरह के सूत्र ही उपनिषदों की
महिमा को खंडित कर रहे हैं, नष्ट कर रहे हैं।
मगर जो जाल खड़ा है उपनिषदों के पीछे, गीता के पीछे,
धर्मशास्त्रों के पीछे, जो न्यस्त स्वार्थ लाभ
उठा रहे हैं, वे तो इन्हीं सूत्रों पर जी रहे हैं। मैं जिन
सूत्रों को अलग कर देना चाहूंगा, वही सूत्र उनके लिए प्राण
हैं। और जिन सूत्रों को मैं बचा लेना चाहूंगा, वही उनके लिए
जहर हो जाएंगे।
इस संबंध में यह दूसरा प्रश्न तुम सुनो। सत्य
वेदांत ने पूछा है:
भगवान, हाल ही में अपने एक वक्तव्य में श्री डोंगरे महाराज ने कहा कि जो मनुष्य
देवता की पूजा किए बिना अन्न खाता है, वह अन्न नहीं पाप खाता
है। उन्होंने कहा कि ब्रह्म-दर्शन पहले मूर्ति में होता है। श्री डोंगरे महाराज ने
बताया कि गणपति की पूजा करने के बाद ही पानी पीना चाहिए। और गणपति ही एक ऐसे देवता
हैं जो हाथ में लड्डू लिए बैठे हैं! इस लड्डू में मीठापन है, क्योंकि ज्ञान ही लड्डू है। उन्होंने बताया कि माता जी, शक्ति की पूजा भी आवश्यक है। बिना शक्ति के जीवन बेकार है। शक्ति से ही
भक्ति होती है, और भक्ति से ध्यान में थिरता आती है! गणपति
का ध्यान करने से विघ्न नहीं आता। और माता जी के ध्यान से शक्ति आती है। श्री
डोंगरे महाराज ने शिव को संयम की मूर्ति बताया और कहा कि संयम से ही शक्ति बढ़ती है,
इसलिए शिव की पूजा करनी चाहिए!
भगवान, आप इन वक्तव्यों पर
कुछ कहने की अनुकंपा करें।
सत्य
वेदांत!
डोंगरे का बालामृत पीओ, उससे सब समझ में आ
जाएगा। बालकों के लिए डोंगरे का बालामृत! उससे शक्ति भी आएगी, भक्ति भी आएगी। और गजब की चीजें होंगी! और डोंगरे का बालामृत
मीठा भी होता
है। क्या लड्डू!
इस तरह के लोग हैं! क्या-क्या लोगों को समझा रहे हैं! सीधे-सीधे
डोंगरे का बालामृत ही बेचें, तो ठीक। मगर क्या-क्या व्यर्थ की
बकवास और कचरा! एक-एक बात को थोड़ा सोचो।
पहली बात: "कि जो मनुष्य देवता की पूजा किए बिना अन्न खाता है, वह अन्न नहीं पाप खाता है।'
तो बाकी कामों के संबंध में क्या कहोगे? जो आदमी देवता की
पूजा किए बिना सोता है, वह पाप सोता है? जो आदमी देवता की पूजा किए बिना चलता है, वह पाप
चलता है?
तो चौबीस घंटे देवता की पूजा करो! और देवता भी कोई एक-दो हैं!
हिंदुस्तान में तो तैंतीस करोड़ देवता हैं। यह साठ-सत्तर साल की जिंदगी तो यूं चली
जाएगी, पूरे तैंतीस करोड़ देवताओं की पूजा भी न हो पाएगी।
और उन्होंने भी कितनी पूजाएं बता दीं! इस छोटे से प्रश्न में ही कितनी
ही पूजाएं आ गईं। शक्ति की पूजा करो! गणपति की पूजा करो! शिव की पूजा करो! और सबका
सार बताते गए वे कि किस-किस से क्या-क्या मिलेगा।
देवता की पूजा किए बिना अन्न खाने से या सोने से या उठने से पाप का
कोई संबंध नहीं। देवता किसे कहते हो? सूर्य भी देवता है,
और चांद भी देवता है, और हनुमान जी भी देवता
हैं, और गणेश जी भी देवता हैं। और देवता ही देवता भरे हुए
हैं!
हां, पूजा का भाव जीवन में होना चाहिए। और पूजा के भाव का
देवताओं से कोई संबंध नहीं, तुमसे संबंध है। नहीं तो कोई
मुसलमान गणपति की तो पूजा करता नहीं, न कोई ईसाई करता है,
न कोई पारसी करता है। तो ये बेचारे लड्डू से वंचित रह जाएंगे! इस
लोक में भी लड्डू मिल नहीं रहे, परलोक में भी वंचित किए दे
रहे हो!
और तुम्हें पक्का पता है--पूछना डोंगरे महाराज से--कि वह जो गणपति हाथ
में लिए बैठे हैं, वह लड्डू है? क्योंकि एक बहुत
बड़े पंडित, महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन जीवन भर यह सिद्ध
करते रहे कि वह लड्डू नहीं है, अंडा है! वे भी महापंडित थे।
उन्होंने बड़ा समय लगाया इसको सिद्ध करने में कि अंडा है। वे अंडे के भक्त थे। वे
असल में खुद अंडा खाते थे, तो अपने अंडे के लिए समर्थन तो
खोजना पड़ेगा! और अब कैसे सिद्ध करोगे कि अंडा है कि लड्डू है? गणेश जी हैं, इनका भरोसा भी क्या! इनकी शक्ल-सूरत तो
देखो! ये अंडा भी खाते रहे हों
तो कुछ आश्चर्य
नहीं!
ये जो इस तरह की व्यर्थ की बातें हैं, ये लोगों को प्रीतिकर
लग जाती हैं, क्योंकि लोग टटोल रहे हैं कि कोई भी सहारा मिल
जाए, कोई भी बैसाखी मिल जाए।
मैं पूजा का तो पक्षपाती हूं, लेकिन पूजा का कोई
संबंध देवताओं से नहीं है। पूजा तो भीतर की भाव-दशा है। पूजा तो कृतज्ञता का बोध
है; धन्यवाद है।
यह जो अस्तित्व है, इसने इतना दिया है! जीवन दिया
है। आनंद की क्षमता दी है। ज्ञान की संभावना दी है। बुद्धत्व के बीज दिए हैं। क्या
चाहिए और! इसने इतना दिया है, और तुम धन्यवाद भी न दोगे! और
किन्हीं क्षणों में क्या तुम्हारा मन नहीं होता कि घुटने के बल टिक जाओ! झुक जाओ!
किसके प्रति, यह सवाल नहीं है। झुकना!
तुम मेरे भेद को समझ लेना। डोंगरे महाराज का जोर है, किसके प्रति। मेरा जोर है तुम्हारे झुकने के ऊपर, तुम्हारे
समर्पण पर। जैसे ही हमने बाहर की चीज पर जोर दिया, धर्म
समाप्त हो जाता है, दुकानदारी शुरू हो जाती है। धर्म का
संबंध है भीतर से। भीतर एक समर्पण का भाव होना चाहिए। भीतर एक गहन धन्यता प्रतीत
होनी चाहिए। इतना दिया है, मुझ अपात्र को! कोई गणपति ने नहीं
दिया है, और न कोई शिवजी ने दे दिया है, और न कोई शक्ति माता ने दे दिया है। यह जो पूरा विराट अस्तित्व है,
यह जो समग्रीभूत अस्तित्व है, इसकी ही भेंट
है।
इसको नाम मत दो। इसको अनाम ही छोड़ दो। यह अनाम ही है। इस अनाम के
प्रति जीवन में सदा धन्यवाद का भाव होना चाहिए। फिर तुम भोजन करो, और चाहे विश्राम करो, चाहे चलो, चाहे बैठो, चाहे उठो, तुम्हारे
भीतर यह अनुगूंज बनी रहनी चाहिए। शब्द में भी बांधने की जरूरत नहीं है। ऐसा कुछ
कहने की और चिल्लाने की जरूरत नहीं है कि तुम पतितपावन हो और मैं पापी हूं! और
मुझे बचाओ! और तुम बचावनहार हो! और इस सब बकवास की कोई जरूरत नहीं है। सिर्फ एक
मौन धन्यवाद तुम्हारे भीतर झरने की तरह कलकल नाद करता रहे। उसे मैं कहता हूं
पूजा--पूजन, अर्चन, वंदन। फिर फिक्र
नहीं करनी पड़ती; नहीं तो बड़ी झंझटें खड़ी हो जाती हैं।
मीरा ने कहा है, मुझे पूजा की विधि नहीं आती,
अर्चन का ढंग नहीं आता। मुझे पता नहीं, क्या
गाऊं क्या न गाऊं! मगर फिर भी मीरा ने जो पूजा की, वह बेचारे
डोंगरे महाराज क्या करेंगे! न पूजा की विधि है, न अर्चन का
ढंग है।
मूसा के जीवन में उल्लेख है। वे एक जंगल से गुजर रहे हैं और ठिठक कर
खड़े हो गए। बात ही ऐसी थी कि ठिठक कर खड़े हो जाना पड़ा। एक चरवाहा, गड़रिया, सांझ की प्रार्थना कर रहा था। सूरज डूब रहा
है, और वह सांझ की प्रार्थना कर रहा है। दोनों हाथ ऊपर उठाए
आकाश की तरफ देख रहा है और कह रहा है, हे प्रभु! अरे,
तू मुझे अपने पास बुला ले। अकेले रहते-रहते थक गया होगा, परेशान होता होगा। और मैं तेरे सब काम निपटा दूंगा! अरे, मैं कई काम जानता हूं!
मूसा तो बड़े हैरान हुए। ऐसी प्रार्थना उन्होंने सुनी न थी कभी, कि यह आदमी यह बता रहा है कि मैं कई काम जानता हूं। और तू थक गया होगा
अकेले-अकेले! और मेरे बिना तेरा कैसे काम चलेगा? कब तक चलेगा?
तू मुझे बुला ही ले। और देख, मैं मालिश भी कर
देता हूं! चंपी भी कर देता हूं! तू थक जाएगा, तेरे पैर दबा
दूंगा! पता नहीं कोई तुझे नहलाता-करता है या नहीं? मैं तुझे
खूब घिस-घिस कर नहलाऊंगा! तुझे भरोसा न हो, तो मेरी भेड़ों को
देख ले। अरे, ऐसी झकभक भेड़ें कहीं हैं? किसी और गड़रिए के पास हैं?
जरा बरदाश्त के बाहर होने लगा मूसा के कि यह क्या प्रार्थना हो रही
है! और तब तो उसने हद्द कर दी। आखिर में बोला, और अगर तेरे जुएं
वगैरह पड़ जाएंगे, तो वह भी निकाल दूंगा। अरे, भेड़ों तक के निकाल देता हूं।
मूसा ने कहा, चुप, नालायक, बदतमीज! ईश्वर को जुएं पड़ जाएंगे? और तू निकालेगा?
और तू समझ रहा है, तू प्रार्थना कर रहा है!
अगर एक शब्द भी मुंह के बाहर निकाला, तो वह चांटा मारूंगा कि
छठी का दूध याद आ जाएगा। बंद कर यह प्रार्थना! किसने तुझे यह प्रार्थना सिखाई?
वह गड़रिया तो बेचारा एकदम पैरों पर गिर पड़ा मूसा के। उसने कहा कि हजरत, मुझे किसी ने सिखाई नहीं। मैं तो गरीब आदमी, बेपढ़ा-लिखा।
खुद ही बना लेता हूं। और जब जैसी बन जाती है। अब आज यही बन गई। अब यह कोई रोज की
थोड़े ही है। आप नाराज न हों। यह तो रोज बदल जाती है। जब जैसा मौका आ जाता है। जैसे
सर्दी बहुत है, तो मैं कहता हूं कि देख, अगर मैं होता तेरे पास, कंबल ओढ़ा देता। या बहुत धूप
पड़ रही होती है, तो मैं कहता हूं, देख
छत्ता लगा देता। अब कोई, पता नहीं, है
भी वहां या नहीं! तू अकेला किस-किस मुसीबत में नहीं पड़ा होगा! कोई तेरा देखने वाला,
रखवाला भी है या नहीं है! और मैं हूं। तू बुला क्यों नहीं लेता?
अरे, तेरी आज्ञा की जरूरत है। इशारा कर दे। तो
यह तो बदल जाती है। आप इतने नाराज न हों। यह तो समय-समय पर बदल जाती है। जैसे
बीमारी फैल जाती है, कोई को हैजा हो गया, किसी को कुछ। तो मुझे डर लगता है, उसको हैजा न हो
गया हो! तो मैं कहता हूं, तू बिलकुल मत घबड़ा। अरे, मुझे जड़ी-बूटी मालूम! घोंट कर पिला दूंगा। एक मात्रा में तो इलाज कर दूंगा
तेरा!
मूसा ने कहा, तू तो हद्द कर रहा है! तू तो और आगे बढ़ा जा रहा है!
जिंदगी हो गई मुझे प्रार्थना करते, जिंदगी हो गई प्रार्थना
लोगों को समझाते, मगर तू गजब का धार्मिक आदमी मिला! ये
नालायकी की बातें हैं, ये बंद कर। मैं तुझे प्रार्थना बताता
हूं। यह प्रार्थना तू कर।
तो उसने कहा, जैसा आप कहें। आप प्रार्थना समझा दें।
प्रार्थना समझा दी। उसको समझा कर मूसा बड़ी प्रसन्नता से आगे बढ़े कि एक
भ्रष्ट आदमी को रास्ते पर लगाया। थोड़ी ही दूर गए थे कि आकाश से आवाज आई कि मूसा, मैंने तुझे पृथ्वी पर भेजा है इसलिए कि जो भटक गए हों उन्हें रास्ते पर ला,
इसलिए नहीं कि जो रास्ते पर हों उनको भटका!
मूसा ने कहा, क्या कहते हैं! मैंने किसको भटकाया?
ईश्वर ने कहा, अभी तू उस बेचारे गड़रिए को भटका कर आया। उसकी
स्वस्फूर्त प्रार्थना का मजा ही और था। मैं प्रतीक्षा करता था कि कब उसकी
प्रार्थना हो, क्योंकि उसकी प्रार्थना बड़ी आनंददायी होती है।
बड़ी चीजें गजब की कहता है! अब आज ही क्या गजब की बातें कह रहा था! और कितने प्रेम
से कह रहा था! उसका प्रेम तो देख! कि तेरे जुएं बीन दूंगा! एक-एक जुआं निकाल
दूंगा! एक नहीं बचने दूंगा! तू एक मौका तो दे मुझे! अरे, मेरी
मान! तूने सब खराब कर दिया। अब वह एक झूठी प्रार्थना, थोथी
प्रार्थना, जिसमें उसके प्राण नहीं होंगे, भाव नहीं होगा, रोज-रोज दोहराता रहेगा, तोते की तरह रटता रहेगा। तू वापस जा और उससे क्षमा मांग।
मूसा वापस गए। उसके पैरों पर गिरे। उससे क्षमा मांगी और कहा कि भैया, मैंने तुझे जो प्रार्थना बताई वह गलत थी। तेरी ही प्रार्थना ठीक है। तू
अपनी प्रार्थना जारी रख। मेरी प्रार्थना कभी नहीं पहुंची परमात्मा तक, तेरी पहुंचती है। और मैंने जितनों को सिखाई, किसी की
नहीं पहुंचती है। और तेरी पहुंचती है।
स्वस्फूर्त होनी चाहिए। आत्म-विभोर हो जाना ही पूजा है। मस्ती में
नाचो, गाओ, गुनगुनाओ। यह क्या पागलपन
की बातें हैं कि पूजा किए बिना अन्न खाता है, वह अन्न नहीं
पाप खाता है! पूजा बिना जीओ मत; यह कोई अन्न खाने की बात
नहीं है। अन्न कितनी दफे खाओगे! दिन में दो दफे खाओगे, दो
दफे पूजा कर लेना। फिर बाकी समय क्या करोगे? बाकी समय में
बदला निकाल लेना! जो-जो पूजा की है, उसको ठिकाने लगा देना
बाकी समय में!
पूजा चौबीस घंटे की भाव-दशा है; अन्न खाने, न खाने का सवाल नहीं है। और किसी दिन अगर अन्न नहीं खाओगे, समझो उपवास किया, फिर पूजा करोगे कि नहीं? फिर जरूरत ही क्या पूजा की!
एक छोटे बच्चे से उसके स्कूल में पूछा--ईसाइयों का स्कूल--पादरी ने
पूछा कि तेरे घर पर तू रात प्रार्थना करके सोता है न?
उसने कहा, कभी-कभी।
पादरी ने पूछा, कभी-कभी! और कभी-कभी क्यों नहीं करता?
उसने कहा कि जब मैं अकेला होता हूं, जब मुझे डर लगता है,
तब करता हूं। और जब कमरे में पिताजी सोए होते हैं, माताजी सोई होती हैं, क्यों करूं? जब डर ही नहीं लगता, तो करना किसलिए? प्रयोजन है।
तो पादरी बहुत हैरान हुआ। उसने कहा, खाने के वक्त तू पूजा
करता है कि नहीं?
उसने कहा, कभी नहीं। क्योंकि मेरी मां खाना तो बहुत अच्छा बनाती
है। पूजा वगैरह किसलिए करनी! वह तो पूजा वे लोग करते हैं, जिनकी
माताएं ऐसा खाना बनाती हैं कि भगवान का नाम याद आता है। एकदम मालूम होता है,
राम नाम सत्य है!
उसने कहा कि मेरे पड़ोस में एक लड़का रहता है, वह रोज पूजा करता है। उसकी मां गजब का भोजन बनाती है! शुरू-शुरू में जब आई
थी, अभी-अभी उसकी शादी हुई थी, पति घर
लौटा, तो वह बड़ी उदास बैठी थी। तो पति ने पूछा, क्या हुआ? तो उसने कहा कि वह जो मैंने पराठे बनाए थे,
वह बिल्ली खा गई।
तो पति ने कहा, मत घबड़ा। कल दूसरी बिल्ली खरीद लाएंगे। ऐसा क्या
घबड़ाने की बात है! अरे, बहुत से बहुत बिल्ली मरेगी, और क्या होगा! तेरे पराठे खाए कोई, और इससे ज्यादा
तो कुछ होने वाला नहीं। तो दूसरी बिल्ली ले आएंगे। इतनी क्यों चिंता कर रही है!
उस स्त्री का बेटा रोज प्रार्थना करता है। मगर मैं नहीं करता, क्योंकि मेरी मां तो अच्छा भोजन बनाती है!
लोगों की प्रार्थना भी सहेतुक है; उसके भीतर हेतु है।
तो प्रार्थना नहीं है। प्रार्थना तो अहेतुक होनी चाहिए। इसका भोजन, न भोजन से क्या संबंध?
मगर इस देश में हजार तरह की गधा-पचीसी बातें चलती हैं। और इनका नाम
धार्मिक बातें है! ये धार्मिक प्रवचन! और लोग बड़े भक्तिभाव से सुनते हैं! बुद्धि
तो जैसे हम बेच ही चुके हैं। एक जमाना हो चुका जब बेच चुके। बुद्धि से हमने कोई
नाता ही नहीं रखा है।
अब डोंगरे महाराज कहते हैं कि "ब्रह्म-दर्शन पहले मूर्ति में
होता है।'
इन्हें ब्रह्म शब्द का भी अर्थ मालूम है? इन्हें ब्रह्म-दर्शन शब्द का भी अर्थ मालूम है? और
ब्रह्म की कोई मूर्ति देखी तुमने? राम की देखी होगी। कृष्ण
की देखी होगी। बुद्ध की देखी होगी। महावीर की देखी होगी। मगर ब्रह्म की तुमने कोई
मूर्ति देखी अब तक? मैंने तो नहीं देखी! सुनी भी नहीं कि
ब्रह्म की कोई मूर्ति होती है!
इस देश में बहुत मूढ़ताएं हुईं, मगर यह मूढ़ता किसी ने
भी नहीं की कि ब्रह्म की मूर्ति बनाई होती। क्योंकि ब्रह्म की मूर्ति बन ही नहीं
सकती। ब्रह्म का अर्थ ही है: अनिर्वचनीय, अव्याख्य, निराकार। ब्रह्म शब्द का अर्थ होता है: वह, जो
विस्तीर्ण ही होता चला गया है, फैलता ही चला गया है; जिसके फैलाव का कोई अंत ही नहीं है। कैसे उसकी मूर्ति बनाओगे?
हां, राम की मूर्ति होती है; कृष्ण
की होती है; बुद्ध की होती है। ये व्यक्ति हैं। और इनकी
मूर्ति हमने क्यों बनाई? इनकी मूर्ति हमने इसलिए बनाई,
कि इन्होंने उस ब्रह्म को जाना, पहचाना। मगर
यह ब्रह्म की मूर्ति नहीं है।
बुद्ध तो ऐसे ही हैं, जैसे मील के पत्थर पर लगा हुआ
तीर का निशान। इशारा कर रहा है कि और आगे। हां, इशारा ठीक
तरफ कर रहा है। यह बुद्ध की मूर्ति तो इशारा है ब्रह्म की तरफ; यह ब्रह्म की मूर्ति नहीं है।
और मूर्ति में पहले दर्शन नहीं होता। हां, जिसको दर्शन हो जाता है ब्रह्म का, उसे मूर्ति में
भी वही दिखाई पड़ता है। मूर्ति में ही क्यों, उसे तो
पत्थर-पत्थर में वही दिखाई पड़ता है। उसे तो वही दिखाई पड़ता है, और कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता।
ब्रह्म तो जीवन का नाम है। जिसे जीवन की पहली प्रतीति हो गई...। और यह
प्रतीति अपने भीतर होती है, मूर्ति में नहीं होती। ब्रह्म का पहला अनुभव स्वयं के
भीतर होता है। दर्शन नहीं होता ब्रह्म का; द्रष्टा की
प्रतीति का नाम ब्रह्म की अनुभूति है। उसका दर्शन नहीं होता। दर्शन का तो मतलब है,
बाहर। दर्शन का तो मतलब है, और। दर्शन का तो
मतलब है, तुम्हारी दृष्टि का विषय। ब्रह्म तो वह है जो
तुम्हारी दृष्टि के भीतर बैठा है, जो तुम्हारी दृष्टि है,
जो तुम्हारे दर्शन की क्षमता है, जो तुम्हारे
ज्ञान की ही क्षमता है। ब्रह्म कभी ज्ञेय नहीं बनता; वह तो
सदा ज्ञाता है। दृश्य नहीं बनता, सदा द्रष्टा है। इसलिए तो
हमने ऋषियों को द्रष्टा कहा है।
उसका कोई दर्शन नहीं होता। हां, जिस दिन तुम अपने
द्रष्टा को पहचान लेते हो, उस दिन प्रतीकात्मक अर्थों में कह
सकते हो, दर्शन हो गया। और जिसने अपने द्रष्टा को जान लिया,
जिसने अपने भीतर होती हुई जीवन की अनाहत ध्वनि सुन ली, जिसने अपने भीतर नाद को पहचान लिया, जिसने अपने भीतर
बहती हुई जीवन की धारा से परिचय बना लिया, उसे फिर सब के
भीतर वही दिखाई पड़ने लगता है।
बुद्ध ने कहा है, जिस दिन मैं बुद्धत्व को उपलब्ध
हुआ, मेरे लिए सारा जगत उसी दिन बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया।
क्योंकि जो मैंने अपने भीतर पाया, देखा सब के भीतर मौजूद है।
इसलिए पहला ब्रह्म-दर्शन स्वयं के द्रष्टा-भाव में होता है। और फिर
मूर्ति में ही नहीं, फिर तो प्रत्येक चीज उसी की मूर्ति है। फिर मस्जिद
में भी वही, मंदिर में भी वही, गिरजे
में भी वही, गुरुद्वारे में भी वही। राह के किनारे पड़े पत्थर
में भी वही। पहाड़ में भी वही। नदी, झरनों में, पोखरों में भी वही। चांदत्तारों में भी वही। फिर तो ब्रह्म अर्थात
अस्तित्व।
"श्री डोंगरे महाराज ने बताया कि गणपति की पूजा
करने के बाद ही पानी पीना चाहिए।'
क्या-क्या गजब की बातें! क्यों? गणपति को कोई एतराज
है पानी पीने से? बाद में पीओ, तो समझ
में भी आता है, क्योंकि गणपति ही एक ऐसे देवता हैं, जिनके हाथ में लड्डू है। लड्डू खाने के पहले ही पानी पी लोगे? अरे, बाद में पीओ, तो समझ में
भी आता है। कि लड्डू उतर जाए; कहीं अटक न जाए; गटकने में सहायता मिलेगी।
मगर गणपति की पूजा करने के बाद ही पानी पीना चाहिए!
गणपति का महाराष्ट्र में काफी पागलपन है। महाराष्ट्रियंस को बात पकड़
में आती होगी। मराठी मानस! एकदम बात जंचती होगी, कि बिलकुल ठीक! गणपति
को बिना याद किए कैसे पानी पीओगे!
क्या संबंध गणपति का और पानी पीने से? हां, यह मेरी समझ में आता है कि पानी भी परमात्मा है। यह मेरी समझ में आता है
कि भोजन भी परमात्मा है। यही उपनिषद कहते हैं, अन्नं ब्रह्म!
यह नहीं कहते कि अन्न खाने के पहले ईश्वर की पूजा करनी चाहिए। अन्न ही ब्रह्म है।
तो जल भी ब्रह्म है। पूजा क्या करनी है!
"और गणपति ही एक ऐसे देवता हैं, जिनके हाथ में लड्डू है।'
यह विशिष्टता की बात है। इसलिए गणपति की ही पूजा करनी चाहिए, क्योंकि उनके हाथ में लड्डू है। जिसको लड्डू चाहिए हो, वह उनकी पूजा करे। अगर उनकी पूजा नहीं की, लड्डू से
चूकोगे।
चंदूलाल के घर एक आदमी ने आकर कहा...। उतरा कार से और चंदूलाल से बोला
कि आपकी पत्नी घर पर हैं या नहीं? क्योंकि सेठ बुलाकीराम के घर के
यहां से लड्डू आए हैं।
पत्नी तो बाहर गई थीं, लेकिन चंदूलाल के
मुंह में पानी आ अया। कलियुग में कहां लड्डू! तो उन्होंने कहा, पत्नी तो बाहर गई हैं, मगर कोई फिक्र न करो; सेठ बुलाकीराम को धन्यवाद देना और लड्डू तुम रख जाओ।
वह आदमी थोड़ा हिचकिचाया।
चंदूलाल ने कहा, नहीं, तुम
चिंता मत करो। मैं चंदूलाल ही हूं। तुम्हारे लड्डू को कोई नुकसान नहीं होगा!
उसने कहा, नहीं, आप समझे नहीं। मेरा नाम
लड्डू है! कोई लड्डू वगैरह नहीं लाया हूं। सिर्फ नाम मात्र लड्डू है!
वह जो गणेशजी के हाथ में रखा हुआ है, वह कोई लड्डू थोड़े ही
है। नाम मात्र! उसमें कहां की मिठास?
वे बता रहे हैं, "उस लड्डू में मीठापन है!'
ये बड़ी ज्ञान की बातें बताई जा रही हैं! इस देश में तो ज्ञान के ऐसे
झरने बह रहे हैं! क्या गजब की बात बताई कि लड्डू में मीठापन है! जैसे यह भी मूढ़ों
को पता नहीं! माना कि शक्कर की कमी है, मगर लड्डू में मीठापन
है, यह तो किसी को भी पता है।
और फिर उन्होंने और भी गजब का तात्विक ज्ञान निकाला कि "ज्ञान ही
लड्डू है!'
छोटे-छोटे बच्चों को समझाओ ऐसी बातें, तो समझ में आता है।
इसलिए तो मैंने कहा, डोंगरे का बालामृत पीओ। सत्य वेदांत,
तुम्हें भी बहुत जंचेगा। स्वादिष्ट है। और शक्ति भी बढ़ती है,
भक्ति भी बढ़ती है!
"उन्होंने बताया कि माताजी, शक्ति
की पूजा भी आवश्यक है।'
कितनी पूजा करवाओगे भैया! पूजा ही करवाना है, कुछ और भी करवाना है? यह मूरखपन इस देश में इतना
लंबा चला कि लोग पूजा ही करते रहे, और सब भूल ही गए। पूजा ही
कर रहे हैं। पूजा ही करने में सब गंवाया। न लड्डू बचे, न
मिठास बची, न ज्ञान बचा, कुछ भी न बचा।
बस, पूजा ही करते रह गए।
"बिना शक्ति के जीवन बेकार है।'
इसको कहते हैं बात में से बात निकालना।
मैं एक विश्वविद्यालय में प्रोफेसर था। उसके जो कुलपति थे, वे प्रदेश के विधानसभा के अध्यक्ष भी थे। नाम तो उनका कुंजीलाल था,
मगर लोग कहते उनको चाबीलाल कहते थे! पता नहीं...! अकल तो उनमें बिलकुल
नहीं थी, मगर चाबी जरूर उनके पास थी; खोल
लेते थे चीजें! जब वे कुलपति हुए, तो उन्होंने जो पहला ही
व्याख्यान दिया, वह था एक टूर्नामेंट का उदघाटन। सो उन्होंने
कहा, खेल तीन तरह के होते हैं। आप तो जानते ही होंगे कि खेल
तीन तरह के होते हैं। हाकी, फुटबाल और टूर्नामेंट! बात में
से बात निकाल रहे हैं! क्या ज्ञान की बात कही, कि खेल तीन
तरह के होते हैं!
अब यह देख रहे हो, डोंगरेजी महाराज क्या बातें
निकाल रहे हैं!
"माताजी, शक्ति की पूजा भी
आवश्यक है। बिना शक्ति के जीवन बेकार है।'
अब हमारी संन्यासिनी है प्रेम शक्ति, उसको समझ लेना चाहिए
कि बिना शक्ति के जीवन बेकार है। और बिना प्रेम शक्ति के तो जीवन बिलकुल ही बेकार
है!
"शक्ति से ही भक्ति होती है।'
इसको कहते हैं बात में से बात निकालना। बाल की खाल निकालना। कुछ भी
बके जा रहे हो! शक्ति से ही भक्ति होती है! सो डंड-बैठक लगाओ भैया! शक्ति बढ़ाओ। जब
पहले शक्ति होगी, तब भक्ति होगी! डंड-बैठक लगाओ, मालिश
करवाओ, लड्डू खाओ!
"और भक्ति से ध्यान में थिरता आती है।'
अब ध्यान में भी थिरता की जरूरत है? ध्यान का अर्थ ही
होता है थिरता। ध्यान का मतलब ही है कि सब थिर हो गया। इस तरह के लोग, जैसे सन्निपात में कुछ बक रहे हों! डोंगरेजी महाराज हैं कि सन्निपात
महाराज हैं?
"गणपति का ध्यान करने से विघ्न नहीं आता। और
माताजी के ध्यान से शक्ति आती है।'
ठीक ही है। पिताजी, माताजी दोनों ही को सम्हाल लेना
ठीक है! अरे, कोई गड़बड़ न हो जाए।
मुल्ला नसरुद्दीन मर रहा था। तो उसने एकदम हाथ जोड़ा और कहा कि हे
प्रभु, कृपा करना। पाप मैंने बहुत किए, क्षमा करना। और फिर बोला कि हे शैतान, कृपा करना।
पाप जितने करने चाहिए थे, नहीं किए। मगर फिर भी दया करना।
पास ही धर्मगुरु खड़ा था, जो आखिरी प्रार्थना
करवाने आया था, उसने यह प्रार्थना सुनी। उसके कहा, चुप! यह क्या बात कर रहा है?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, तू चुप! क्योंकि यह
आखिरी वक्त है; कौन जाने किसके हाथ में पड़ना पड़े! अपना क्या
बिगड़ता है? अरे, दोनों की प्रार्थना कर
ली। जिसके हाथ में पड़ जाएंगे, उससे ही माफी मांग लेंगे,
कि भई, वह दूसरे की छोड़ना, खयाल न करना। बीमारी में, घबड़ाहट में, मरते वक्त कह गए होंगे। मगर हम करें ईश्वर की प्रार्थना और पड़ जाएं शैतान
के हाथ में, फिर? फिर तू बचाएगा?
हम करें शैतान की प्रार्थना, और पड़ जाएं ईश्वर
के हाथ में, तो हम तो मारे गए! अभी यह कोई समय सोच-विचार का
नहीं है। अभी तो दोनों की प्रार्थना कर लेना ठीक है। पता नहीं किसके हाथ में पड़ें!
जिसके हाथ में पड़ेंगे, वहीं निपट-सुलझ लेंगे, कि दूसरे के बाबत माफी मांग लेंगे कि वह गलती थी, अज्ञान
था! पैर पकड़ लेंगे; क्षमा मांग लेंगे!
ऐसे ही बताए जा रहे हैं वे। इधर गणपति को भी सम्हाल लो; उधर माताजी को भी सम्हाल लो; फिर पिताजी को भी
सम्हाल लो। सम्हालते चलो! तुम्हारी जिंदगी सम्हालने में ही व्यतीत हो जाएगी। इस सब
बकवास में पड़ने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। शांत बनो। मौन बनो। आनंदित होओ। जीवन
में धन्य-भाव हो। बस, पर्याप्त है।
"श्री डोंगरे महाराज ने शिव को संयम की मूर्ति
बताया।'
और यह तो गजब हो गया! यह तो आखिरी बात हो गई! शिव और संयम की मूर्ति?
"और कहा कि संयम से ही शक्ति बढ़ती है।'
देखते हो, बातों से वे बातें निकाले जा रहे हैं!
"इसलिए शिव की पूजा करनी चाहिए।'
शिव और संयम का क्या लेना-देना? ऐसे कोई संयमी तो
दिखाई नहीं पड़ते। नहीं तो पार्वती के प्रेम में ही क्यों पड़े? और फिर बारात लेकर चले। और बारात देखी? उसमें डोंगरे
महाराज जरूर रहे होंगे! वह बारात ही ऐसी थी! उसमें जितने इरछे-तिरछे आदमी, सब थे! आड़े-टेढ़े! वैसी बारात तो कभी निकली ही नहीं। वह तो गजब की बारात थी,
अद्वितीय थी।
और फिर जब पार्वती की मृत्यु हो गई, तो कथा यह है कि शिव
पार्वती की लाश को लिए बारह साल तक भारत भर में घूमते रहे। यह संयमी का लक्षण! जरा
अपने शास्त्रों को तो उठा कर देखो। इतनी मूढ़ता तो मूढ़ से मूढ़ आदमी भी नहीं करता! अरे,
बारह साल की बात कर रहे हो, बारह मिनट नहीं
रुकता। इधर पार्वतीजी गईं कि उसने जल्दी से अरथी बांधी। और मोहल्ले भर के लोग भी
सहायता करते हैं, कि चलो, बेचारा बचा!
देर नहीं; जरा देर नहीं करते। एकदम चलते हैं लेकर।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मरी। उतार रहे थे ताबूत को। जीने पर जरा
संकरी जगह थी। और उतारते वक्त जीने पर दीवाल से जरा धक्का लग गया। और ढक्कन एकदम
खुल गया और पत्नी उठ कर बैठ गई! मरी नहीं थी। इतनी जल्दबाजी कर दी कि अभी बेहोश ही
थी कि वे ले चले! इसको कहते हैं संयम! अरे, क्या माया-मोह! और
स्त्री है ही क्या, नरक का द्वार!
फिर तीन साल स्त्री जिंदा रही। स्त्रियां भी गजब की हैं! मर-मर कर भी
मरती नहीं! मार कर ही मरती हैं! वैज्ञानिक भी चकित हैं कि स्त्रियां पुरुषों से
पांच साल ज्यादा क्यों जीती हैं? अभी तक हिसाब नहीं लगा पाए वे।
लेकिन पांच साल ज्यादा जीती हैं। अगर पुरुष सत्तर साल जीएगा, तो स्त्री पचहत्तर साल जीएगी। वह हमेशा पुरुष से आगे ही खड़ी रहती है!
वह तीन साल और जीयी। तीन साल बाद फिर मरी। फिर संयोग आया संयम का!
जल्दी से ताबूत बांधा गया। और जब लोग ताबूत उतारने लगे, जैसे ही मोड़ पर पहुंचे जीने के, मुल्ला नसरुद्दीन चिल्लाया,
भाइयो, जरा सम्हाल कर! क्योंकि तुम तो धक्का
मार देते हो, मुसीबत में मैं पड़ता हूं! तुम्हारे बाप का क्या
जाता है! पिछली बार तुम तो धक्का मारे, तीन साल मुसीबत किसने
भोगी?
और रोता भी जा रहा है, आंसू भी गिरा रहा है,
कि अब मेरा क्या होगा! इसको कहते हैं संयम!
और ये शिवजी बारह साल तक पार्वती की लाश लिए घूमते रहे, इस आशा में कि जी उठेगी! उसके अंग-अंग सड़ गए और गिरने लगे जगह-जगह। कथा
यही है कि जहां-जहां उसके अंग गिरे, वहां-वहां एक तीर्थ
निर्मित हुआ। सो भारत भर में घूमते रहे! शायद चिकित्सक की तलाश में घूम रहे थे,
कि उरलीकांचन आ रहे थे, या क्या कर रहे थे!
कहां जा रहे थे! सारे भारत में घूमते फिरे। बारह साल! जब हाथ में कुछ भी न बचा,
जब आखिरी लाश का टुकड़ा भी गिर गया, तब कहीं
उनका छुटकारा हो पाया।
संयमी? तो फिर उन्होंने, डोंगरे महाराज
ने शिव के संबंध में कुछ पढ़ा नहीं। अगर शिव संयमी हैं, तो ये
शिवलिंग सारे देश में क्यों खड़े किए गए हैं? यह संयम का
प्रतीक है? अब मुझसे लोग कहते हैं कि मैं गड़बड़ बातें कहता
हूं। अब मैं करूं भी तो क्या करूं? आंखें रहते आंखें बंद भी
कैसे करूं? जहां देखो वहीं शिवजी विराजमान हैं! और तुम
पुराणों में खोजो, तो तुम्हें कहानी मिल जाएगी कि यह शिवलिंग
क्यों बना। यह इसलिए बना, संयम के कारण!
ब्रह्मा और विष्णु, दोनों में किसी बात पर विवाद हो
गया। और कुछ तय नहीं हो रहा था, तो उन्होंने सोचा कि शिवजी
से चल कर निर्णय करवा लें। सो दोनों पहुंच गए। और जैसे द्वारपाल होते हैं, जैसे हमारे संत महाराज! अक्सर सोए रहते हैं! मतलब द्वारपालों का काम ही यह
है। वे अभी-अभी जागे होंगे; सोच रहे होंगे, मामला क्या है! क्या मेरी चर्चा हो रही है?
द्वारपाल सो रहा होगा, और दोनों भीतर चले
गए। और शिवजी प्रेम में संलग्न थे। संभोगातून समाधि कडे! वे संभोग से समाधि साध
रहे थे! अब मैं भी क्या करूं? संयमी आदमी, समाधि न साधें तो करें क्या! और ये दोनों ब्रह्मा और विष्णु हद्द निर्लज्ज,
कि वहां खड़े ही रहे! अरे सज्जन आदमी हो, तो कम
से कम आंखें बंद कर ले, रूमाल बांध ले। मगर वे यूं खड़े रहे
टकटकी लगा कर! छह घंटे तक वे दर्शन करते रहे! और शिवजी तो शिवजी! भांग पीए होंगे,
उन्हें कहां पता! पार्वती बेचारी थोड़ी सकुचाती भी होगी, मगर करे भी तो क्या करे! पति के खिलाफ तो जा भी नहीं सकती। पति यानी
परमात्मा! और फिर ये शिवजी! और नाराज हो जाएं, कुछ हो जाएं!
सो उसने भी मद्देनजर किया। खड़े रहो दोनों!
ये दोनों खड़े रहे, हटे नहीं। ये भी बड़े गजब के लोग!
शिवजी भी संयमी, ये भी संयमी। मुफ्त में ही फिल्म देखने मिले,
तो क्यों न देखें! जब छह घंटे हो गए, द्वारपाल
की नींद खुली; जूते उतरे देखे बाहर; भीतर
पहुंचा; धक्के देकर इनको बाहर निकाला कि बाहर निकलो! कम से
कम पूछ तो लेते!
वे दोनों गुस्से में आ गए बहुत। देवी-देवताओं का काम ही यह, गुस्से में आ जाना। इसलिए तो उनकी पूजा करने को डोंगरे महाराज कहते हैं।
भैया, पानी भी पीओ, तो पूजा कर लेना
पहले। क्योंकि गुस्से में आ जाएं! कि तुमने बिना पूछे पानी पीया? भोजन करो, पहले पूजा कर लेना। कोई गड़बड़ कर दें खड़ी!
खास कर गणपति!
क्योंकि गणपति का जो पुराना वैदिक रूप है, वे बड़े विघ्नकारी देवता का रूप है, उपद्रवी का! उनका
काम यही था कि जहां कुछ भी हो रहा हो मंगलकार्य, वहां जाकर
उपद्रव खड़ा कर देना। घिराव कर देना। हड़ताल करवा देना। नारे लगवा देना।
जिंदाबाद-मुर्दाबाद करवा देना। उनका जो वैदिक रूप है, वह
विघ्नकारी का है। और इसीलिए चूंकि इतना विघ्नकारी कोई व्यक्ति हो, तो उसको पहले ही से सम्हाल लेना अच्छा; उसकी पूजा
पहले ही कर लेनी चाहिए। इसलिए धीरे-धीरे विघ्नकारी गणपति मंगल के देवता हो गए!
उलटी बात हो गई! इसलिए हर काम के शुरुआत में, ॐ गणेशाय नमः।
पहले! शास्त्र लिखो, कि बही लिखो, कि
खाता लिखो, कुछ भी, लेकिन पहले उनको
स्मरण कर लेना, ताकि वे विघ्न-बाधा न डालें। इसलिए वे जो
विघ्न करने वाले देवता थे, विघ्न-नाशक हो गए!
और मैं समझता हूं उनका मतलब कि कारण क्या था। कारण साफ है।
मैं खुद विद्यार्थी था स्कूल में, तो हमेशा हर क्लास
में मुझे मानीटर बना देते थे! तभी मैं समझ गया कि यह गणेशजी का राज क्या है! मुझको
उन्हें मानीटर बनाना ही पड़ता, नहीं तो इतनी विघ्न-बाधाएं खड़ी
करता! उसका एक ही रास्ता था बचाव का कि मुझको ही मानीटर बना दिया। तो मैं तो कर ही
नहीं सकता अब गड़बड़। और भी दूसरा कोई गड़बड़ नहीं कर सकता, क्योंकि
वह मेरा जिम्मा कि गड़बड़ रोकना।
सिर्फ एक बार एक शिक्षक ने मुझे मानीटर नहीं बनाया। आखिर उनको
प्रिंसिपल ने बुलाया और कहा कि तुम गलती कर रहे हो। बस, इसीलिए सब गड़बड़ हो रहा है।
उन्होंने कहा, क्या गलती कर रहा हूं?
इस लड़के को मानीटर बनाओ। नहीं तो तुम्हारी क्लास में कभी पढ़ाई-लिखाई
नहीं होगी; उपद्रव ही होगा!
उन्होंने एक सीधे-सादे लड़के को मानीटर बना दिया। सीधा-सादा सोच कर बना
दिया। यह भी कोई गणित है! उपद्रवी को बनाना पड़ता है, क्योंकि उपद्रव को
रोकने की यह सुगमतम तरकीब है।
वही कथा है पूरी गणपति की। क्यों गणपति इतने आदृत हो गए? उसका कारण यह है कि वे विघ्न उपस्थित न करें। उनसे यह कहना कि आप भर कृपा
करना; और सब तो ठीक है। और सब को हम सम्हाल लेंगे; आप भर अपने को सम्हालना!
तो देवी-देवता तो बहुत जल्दी से कुपित हो जाते हैं, क्रुद्ध हो जाते हैं। विष्णु और ब्रह्मा दोनों एकदम नाराज हो गए। उनका
अपमान हो गया। एक तो अपमान किया शिव ने कि वे छह घंटे तक खड़े रहे और उन्होंने देखा
ही नहीं! और अपमान किया कि उनकी मौजूदगी में और ऐसा गर्हित कृत्य किया कि संभोग
में लगे रहे। न लाज, न संकोच, न
शिष्टाचार! यह कोई भारतीय संस्कृति है?
इसीलिए तो वे मुझे कच्छ में नहीं आने देते! क्योंकि भारतीय संस्कृति
कहीं नष्ट न हो जाए! और मैं तुमसे कहे देता हूं, कच्छ जाना ही पड़ेगा।
धर्मक्षेत्रे कच्छक्षेत्रे! अब कुरुक्षेत्र में ही कब तक धर्मक्षेत्र रहेगा?
जगह बदलनी भी तो पड़ेगी!
नाराज हो गए बहुत कि यह तो बिलकुल भारतीय संस्कृति के खिलाफ है। तो
कुपित होकर अभिशाप दे दिया कि चूंकि तुमने ऐसा दर्ुव्यवहार किया है, कि हम छह घंटे खड़े रहे और तुमने हमारी तरफ देखा भी नहीं और हमारे सामने इस
तरह का अश्लील व्यवहार जारी रखा, तो हम तुम्हें यह अभिशाप
देते हैं कि तुम हमेशा-हमेशा तक जननेंद्रियों के प्रतीक से ही जाने जाओगे।
यह पुराण-कथा है। इसलिए शिवलिंग। जननेंद्रिय उनका प्रतीक हो गया। और
तुम कह रहे हो कि शिवजी को संयम की मूर्ति बताया। और कहा कि संयम से ही शक्ति बढ़ती
है।
तुम्हारे देवी-देवता, अगर तुम उनकी कथाएं पढ़ो, तो देवी-देवता कहने योग्य भी नहीं। मगर कौन पढ़े? किसको
चिंता पड़ी है? किसको फुर्सत है? किसको
प्रयोजन है? इसलिए पंडित-पुरोहित तुमसे जो कहते रहते हैं,
तुम सिर हिलाते रहते हो कि ठीक ही कहते होंगे। काश, प्रत्येक हिंदू वेद को पढ़ ले, तो वेद की प्रतिष्ठा
समाप्त हो जाए। काश, प्रत्येक हिंदू सारे पुराणों को पढ़ ले,
तो निन्यानबे प्रतिशत पुराण जला देने योग्य मालूम हों; क्योंकि उनमें जो है, सब गर्हित है।
लेकिन किसको पड़ी है! किसी को चिंता नहीं है। और ये जो धंधेबाज लोग हैं, जो धर्म के नाम पर धंधा कर रहे हैं, वे कुछ भी कहे
चले जाते हैं और कुछ भी अर्थ लगाए चले जाते हैं। और चूंकि तुम्हें कुछ बोध नहीं है,
इसलिए तुम्हें जो भी अर्थ बता दिया जाता है, वही
ठीक लगता है। और तुम्हारी भी आकांक्षा सिर्फ इतनी है कि तुम्हारा लोभ सिद्ध होना
चाहिए। तो तुम्हारा लोभ सिद्ध होने के लिए माताजी की पूजा करो, शक्ति बढ़ेगी। शक्ति की पूजा करो, तो ध्यान बढ़ेगा।
गणपति का ध्यान करो, तो वे विघ्न खड़ा नहीं होने देंगे। बस,
इस तरह की बातें तुमसे कही चली जाती हैं। और तुम इसी घनचक्कर में
पड़े रहते हो।
भारत की प्रतिभा को नष्ट कर दिया इस तरह के लोगों ने। इस तरह के लोगों
से इस देश की मुक्ति चाहिए। मगर ये हैं तुम्हारे ऋषि-मुनि, ये हैं तुम्हारे धर्मगुरु, यही तुम्हें मार्ग दिखाते
हैं। इसलिए मैं लगता हूं कि अधार्मिक हूं। लगता हूं कि मैं तुम्हें धर्म से च्युत
कर रहा हूं।
मैं सिर्फ तुमसे स्पष्ट वही कह देना चाहता हूं, जो है, जैसा है।
अगर चाहते हो कि इस देश में धर्म का पुनरोदय हो, तो तुम्हें धर्म के नाम से चलने वाला सारा कूड़ा-करकट होली की तरह जला देना
होगा। रावण को बहुत जला चुके तुम। अब अपने धर्म के कूड़ा-करकट को जलाना शुरू करो।
रावण तो जल चुका, खतम हुआ। अब रावण को क्या बार-बार जला रहे
हो! अब तो छांटो अपने शास्त्रों में से उस सब कचरे को जिसकी वजह से इस देश का पतन
हुआ है; और जिसके कारण तुम अंधों की तरह दीन-दरिद्र, दुखी-भूखे, गुलाम, मानसिक रूप
से गुलाम, आध्यात्मिक रूप से गुलाम...! आज पृथ्वी पर तुमसे
ज्यादा बुरी अवस्था किसी की भी नहीं है।
मगर तुम्हें अकड़ है। तुम सोचते हो कि तुम बड़े धार्मिक, क्योंकि तुम गणेशोत्सव मनाते हो, काली की पूजा करते
हो, शंकरजी की पूजा करते हो, हनुमानजी
की पूजा करते हो!
इन सब पूजाओं से धर्म का कोई भी संबंध नहीं है। धर्म का संबंध है शांत
होने से, मौन होने से, शून्य होने से।
तुम्हारे भीतर शून्य का आकाश पैदा हो, तो ब्रह्म का अनुभव
होगा। और वह अनुभव सारे अस्तित्व को आह्लाद से भर देगा।
जीवन तुम्हारा रसमय हो जाए, तो ही जानना कि तुम
धार्मिक हो। बस परमात्मा की एक ही व्याख्या मुझे पसंद है: रसो वै सः! वह रसरूप है!
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें