अंतर की खोज-(विविध)
ओशो
आठवां-प्रवचन
मेरे प्रिय आत्मन्!
सत्य की यात्रा पर मनुष्य का सीखा हुआ ज्ञान ही बाधा बन जाता है, यह पहले दिन की चर्चा में मैंने कहा। सीखा हुआ ज्ञान दो कौड़ी का भी नहीं।
और जो सीखे हुए, पढ़े हुए ज्ञान के आधार पर सोचता हो कि जीवन
के प्रश्न को हल कर लेगा, वह नासमझ ही नहीं, पागल है। जीवन के ज्ञान को तो स्वयं ही पाना होता है किसी और से उसे नहीं
सीखा जा सकता।
दूसरे दिन की चर्चा में मैंने आपसे कहा कि जिसका अहंकार जितना प्रबल
है वह स्वयं के और परमात्मा के बीच उतनी ही बड़ी दीवाल खड़ी कर लेता है। मैं हूं, यही भाव, जो सबमें छिपा है उससे नहीं मिलने देता।
अहंकार की बूंद जब परमात्मा के सागर में स्वयं को खोने को तैयार हो जाती है तभी
उसे जाना जा सकता है जो सत्य है और सबमें है। यह मैंने दूसरे दिन आपसे कहा।
और आज सुबह तीसरी बात मैंने कही कि हम सोए हुए हैं, मर्ूच्छित हैं। और जब तक हम सोए हुए हैं तब तक हमें सत्य का कोई अनुभव
नहीं हो सकेगा।
ये तीन बातें मैंने कहीं। ज्ञान को, सीखे हुए ज्ञान को
छोड़ना होगा। अहंकार को, कल्पित अहंकार को छोड़ना होगा। और
निद्रा को, वास्तविक निद्रा को छोड़ना होगा। इन तीन सीढ़ियों
को जो पार करता है, वह परमात्मा के मंदिर में प्रविष्ट हो
जाता है।
इस संबंध में बहुत से प्रश्न आए हुए हैं। उन
प्रश्नों में से कुछ पर मैं अभी चर्चा करूंगा। बहुत से प्रश्न समान हैं, इसलिए पांच-छह प्रश्न जो सभी ने पूछे हैं करीब-करीब थोड़े भाषा के भेद से,
उन पर ही बात करना उचित है।
सबसे पहले एक मित्र ने पूछा है: धार्मिक
व्यक्तित्व क्या है? रिलीजस माइंड क्या है? किस
व्यक्ति को आप धार्मिक कह रहे हैं?
शायद इसलिए यह प्रश्न उनके मन में पैदा हुआ क्योंकि मैंने कहा: मंदिर
जो जाता है उतने से ही कोई धार्मिक नहीं हो जाता। शास्त्र जो पढ़ता है उतने से ही
कोई धार्मिक नहीं हो जाता। संन्यास भी कोई ले ले, वस्त्र कोई बदल ले,
घर-द्वार छोड़ दे, उतने से भी कोई धार्मिक नहीं
हो जाता है।
धार्मिक होना फिर क्या है?
इसलिए ठीक ही पूछा है कि किस मन को, किस चित्त को मैं
धार्मिक कहता हूं? कौन है रिलीजस माइंड?
एक छोटी से कहानी से समझाऊं।
वर्षा निकट आ गई थी और आकाश में बादल घिरने लगे थे। आज ही कल में
गर्मी में तपी हुई धरती पर वर्षा आ जाएगी। दो भिखारी, दो भिक्षु अपने झोपड़े पर कई दिनों की यात्रा के बाद वापस लौटते थे। एक
गांव की झील के पास उनका छोटा सा झोपड़ा था। हर वर्षा में वे वापस लौट आते थे,
फिर आठ महीने के लिए घूमते-फिरते थे। वर्षा करीब थी, वे भागे हुए अपने झोपड़े के करीब पहुंचे। झोपड़े के पास जाते ही देखा: आधा
झोपड़ा हवाएं उड़ा कर ले गई हैं, आधा ही झोपड़ा बचा है। छप्पर
आधा है, आधा छप्पर कहीं उड़ गया। आगे जो भिखारी था, युवा था, पीछे उसका गुरु था, वृद्ध।
उस युवा भिक्षु ने अत्यंत दुख से अपने बूढ़े गुरु को कहा, ऐसी
ही बातों को देख कर तो ईश्वर पर अविश्वास पैदा हो जाता है। गांव में महल खड़े हैं
पापियों के, उनके महलों में कुछ भी विकृति न आई, कोई महल न गिरा, और हम गरीबों के झोपड़े पर, हमारे गरीबों के झोपड़े के आधे छप्पर को भी उड़ा दिया। ऐसी ही बातों से तो
मन क्रोध से भर जाता है, ऐसी ही बातों से तो परमात्मा के
प्रति विरोध पैदा हो जाता है। हम गरीबों का झोपड़ा ही था उड़ाने को? तोड़ने को? यह वह बड़े क्रोध से कहा, लेकिन देख कर हैरान हुआ, उसके गुरु की आंखों से आंसू
बहे जा रहे हैं। और वे आंसू दुख के नहीं किसी अपूर्व आनंद के हैं। और उस गुरु के
हाथ जुड़े हैं आकाश की तरफ और वह गुनगुना रहा है कोई गीत। वह चुपचाप खड़े होकर सुनने
लगा। उस बूढ़े ने कहा, हे परमात्मा! ऐसी ही बातों से तुझ पर
विश्वास आ जाता है, हवाओं का क्या भरोसा, पूरा झोपड़ा भी उड़ा कर ले जा सकती थीं। आधा रोका है, तो
तूने ही रोका होगा। हवाओं का क्या भरोसा, पूरा झोपड़ा भी जा
सकता था। आधा रोका है, तो तूने ही रोका होगा। धन्यवाद! हम
दरिद्रों का भी तुझे खयाल है।
फिर उस रात वे दोनों उस झोपड़े में सोए। जिस युवक भिक्षु ने क्रोध
प्रकट किया था वह रात भर नहीं सो सका। रात भर उसके मन में बड़ी बेचैनी, बड़ी अशांति, बार-बार यही खयाल कि गरीब के झोपड़े को
तोड़ने की बात क्या उचित है? हमने क्या बुरा किया? दिन-रात जिसकी प्रार्थना करते हैं वही हमारा साथी नहीं? तो हम और क्या आशा करें प्रार्थनाओं से? और क्या आशा
करें? रात भर बेचैन वह करवट बदलता रहा। क्योंकि सांझ दुख में
सोया था तो रात भर दुख सरकता रहा। सांझ जिस भाव को लेकर हम सोते हैं पूरी नींद उसी
भाव में परिवर्तित हो जाती है। लेकिन बूढ़ा रात भर सोया बड़े आनंद से। सुबह उठ कर
उसने एक गीत लिखा, और उस गीत में फिर परमात्मा को धन्यवाद
दिया और कहा, हे पिता! हे परमपिता! हे प्रभु! हमें क्या पता
था, आधा झोपड़े का भी आनंद होता है? कल
रात हम सोए भी रहे आधे छप्पर में, और जब भी आंख खुली,
तो तेरे चांद, तेरे तारों को भी देखा। बड़ी
खुशी है, अब वर्षा आएगी; हम आधे में
सोएंगे भी, आधे में वर्षा का गीत, टप-टप
बूंदें, वे भी सुनेंगे। हमें क्या पता था, अगर पहले से पता होता हम आधा झोपड़ा खुद भी तोड़ देते, तेरी हवाओं को तकलीफ भी न देते।
इस आदमी को मैं धार्मिक आदमी कहता हूं। यह रिलीजस माइंड है। यह चाहे
किसी मंदिर और मस्जिद में जाता हो या न जाता हो; यह किसी शास्त्र को
पूजता हो, न पूजता हो; इसके वस्त्र
गेरुए रंगे हों, न रंगे हों; यह घर में
हो, घर के बाहर हो, ऐसा जो चित्त है वह
धार्मिक है।
धर्म कोई बाहरी क्रियाकांड नहीं, दृष्टि का परिवर्तन
है। धर्म कोई बाहरी परिवर्तन नहीं, अंतस का बदल जाना है।
दृष्टि का, देखने के ढंग का। इतना आसान मत समझ लेना कि हम
मंदिर चले जाते हैं तो धार्मिक हो जाएंगे। इतना सस्ती बात होती तो पृथ्वी पर बहुत
मंदिर हैं, बहुत मस्जिदें, बहुत चर्च,
पृथ्वी धार्मिक कभी की हो गई होती। लेकिन मंदिर-मस्जिद बढ़ते गए हैं
और धर्म? धर्म का कोई कहीं पता नहीं। धर्म कहीं भी नहीं है।
धर्म को हमने एक बाह्य उपचार बनाया इसीलिए पृथ्वी पर धर्म पैदा नहीं हो सका। धर्म
है आंतरिक चित्त की दशा। धर्म है मनःस्थिति। धर्म है एटिटयूड, धर्म है भीतर के देखने का ढंग। इसलिए कोई मंदिर में पहुंच जाए तो धार्मिक
नहीं हो जाता। लेकिन जो आदमी धार्मिक है वह कहीं भी पहुंच जाए वहीं मंदिर जरूर हो
जाता है। इसे मैं फिर से दोहराऊं, धार्मिक आदमी वह नहीं जो
मंदिर में पहुंच जाता है, धार्मिक आदमी वह है कि जहां पहुंच
जाए वहीं मंदिर हो जाए।
धार्मिकता चित्त एक दशा है। यह चित्त की दशा निरंतर जागरूक, होश से भरे रह कर जीने से पैदा होती है। न तो यह प्रार्थनाओं से पैदा होती
है, न पूजाओं से, यह तो चित्त की सरलतम
भावनाओं से उपलब्ध होती है।
चित्त की चाहिए सरलता, ह्यूमिलिटी। चित्त का
चाहिए बिना जटिल होना, अजटिलता। चित्त की चाहिए इतनी सरलता
कि वह चित्त की सरलता ही जीवन बन जाए। तो, तो व्यक्ति के जगत
में उसका अवतरण होता है जिसे हम धर्म कहें। लेकिन यह कोई ऐसी बात नहीं है कि कोई
आधा घंटे को धार्मिक हो जाए और साढ़े तेईस घंटे को अधार्मिक हो जाए।
एक और मित्र ने, और भी कई मित्रों ने पूछा है कि हम क्या करें, थोड़ी-बहुत
देर के लिए समय निकाल सकते हैं, समय ज्यादा हमारे पास नहीं
है, तो हम क्या करें--मंत्र-जाप करें, नाप
जपें, पूजा करें, थोड़ा-बहुत समय दे
सकते हैं उसमें हम क्या करें?
मैं निवेदन करना चाहूंगा, धर्म कोई ऐसी बात
नहीं कि आप थोड़े से समय में कर लें और उससे निपट जाएं। धर्म चौबीस घंटे की साधना
है। और इस बात से बहुत भ्रांति दुनिया में पैदा हुई है कि कोई सोचे कि हम थोड़ी देर
को धार्मिक हो जाएं। धार्मिक होना चौबीस घंटे चलने वाली श्वासों की तरह है। ऐसा
नहीं कि आप आधा घंटा श्वास ले लें, फिर साढ़े तेईस घंटा श्वास
लेने की कोई जरूरत न रह जाए। धर्म एक अखंड चित्त की दशा है। खंडित नहीं। कोई
कंपार्टमेंट नहीं बनाए जा सकते कि आधा घंटे को मंदिर में जाकर मैं धार्मिक हो
जाऊंगा। यह असंभव है, यह बिलकुल इंपासिबल है। जो आदमी मंदिर
के बाहर अधार्मिक था और मंदिर के बाहर फिर अधार्मिक हो जाएगा। आधा घंटे को मंदिर
के भीतर धार्मिक हो सकता है?
चित्त एक अविच्छिन्न प्रवाह है, एक कंटीन्युटी है।
कहीं ऐसा हो सकता है क्या कि गंगा काशी के घाट पर आकर पवित्र हो जाए, पहले अपवित्र रही हो? फिर काशी का घाट निकल जाए,
फिर आगे अपवित्र हो जाए। सिर्फ बीच में पवित्र हो जाए? गंगा एक सातत्य, कंटीन्युटी है। अगर गंगा काशी के
घाट पर पवित्र होगी तो तभी होगी जब पहले भी पवित्र हो। अगर गंगा काशी के घाट पर
पवित्र हो गई, तो आगे भी पवित्र रहेगी।
मैंने सुना है, एक आदमी अपनी मृत्युशय्या पर था। अंतिम घड़ी थी उसकी।
परिवार के मित्र, परिवार के लोग, पुत्र,
पुत्रवधुएं, उसकी पत्नी, सब इकट्ठे थे। संध्या के करीब उसने आंख खोली, सूरज
ढल गया था और अभी घर के दीये न जले थे, अंधेरा था, उसने आंख खोली और अपनी पत्नी से पूछा, मेरा बड़ा लड़का
कहां है? उसकी पत्नी को बड़ा आनंद हुआ। जीवन में उसने कभी
किसी को नहीं पूछा था। जीवन में पैसा और पैसा और पैसा। प्रेम की कभी कोई बात उससे
न उठी थी। शायद मृत्यु के क्षण में प्रेम का स्मरण आया है। पत्नी बहुत प्रसन्न थी,
उसने कहा, निश्चिंत रहें, आपका बड़ा लड़का बगल में बैठा हुआ है, अंधेरे में आपको
दिखता नहीं, बड़ा लड़का मौजूद है, आप
निश्चिंत आराम से लेटे रहें। लेकिन उसने पूछा, और उससे छोटा
लड़का? पत्नी तो बहुत अनुगृहीत हो आई। कभी उसने पूछा नहीं था।
जो पैसे के पीछे है, जो महत्वाकांक्षी है उसके जीवन में
प्रेम की कभी भी कोई सुगंध नहीं होती, हो भी नहीं सकती। उसने
कभी न पूछा था, कौन कहां है! उसे फुर्सत कहां थी! पत्नी ने
कहा, छोटा लड़का भी मौजूद है। उसने पूछा, और उससे छोटा? पांच उसके लड़के थे। अंतिम पांचवां?
उसकी पत्नी ने कहा, वह भी आपके पैरों के पास
बैठा है। सब मौजूद हैं, आप निश्चिंत सो रहें। वह आदमी उठ कर
बैठ गया, उसने कहा, इसका क्या मतलब,
फिर दुकान पर कौन बैठा हुआ है?
वह पांच लड़कों की फिकर में नहीं था। पत्नी भूल में थी। जीवन भर जिसके
मन में पैसा रहा हो, अंतिम क्षण में प्रेम आ सकता है? पत्नी गलत थी, भूल हो गई थी। वह इस चिंता में था कि
दुकान पर कोई मौजूद है या कि सब यहीं बैठे हुए हैं? यह मरते
क्षण में भी उसके चित्त में वही धारा चल रही थी जो जीवन भर चली थी। यह स्वाभाविक
है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। जीवन भर जो चला है वही तो चलेगा। तो इस भूल में कोई न
रहे कि मैं थोड़ी देर मंदिर हो आता हूं तो धार्मिक हो जाऊंगा। जिसे धार्मिक होना है
उसे अपने चित्त की पूरी धारा को बदलने के लिए तैयार होना होगा। ये धोखा देने के
ढंग हैं, ये सब सेल्फ-डिसेप्शन हैं कि हम मंदिर हो आते हैं
इसलिए धार्मिक हो गए, अपने को धोखा देने की तरकीबों से यह
ज्यादा नहीं है। कि हम चंदन लगाते हैं तो धार्मिक हो गए। कि हम यज्ञोपवीत पहनते
हैं तो हम धार्मिक हो गए। हद्द बेवकूफियां हैं। इस तरह कोई धार्मिक हो सकता तो
हमने दुनिया को कभी का धार्मिक बना लिया होता। इस तरह कोई न कभी धार्मिक हुआ है और
न हो सकता है। लेकिन जो अपने को धार्मिक होने का धोखा देना चाहता हो, इन तरकीबों से बड़ी आसानी से धोखा पैदा हो जाता है।
धार्मिक होना एक अखंड क्रांति है। पूरे जीवन को, चित्त को, टोटल माइंड को, समग्र
मन को बदलना होगा। और उस बदलने के सूत्र समझने होंगे। एक-एक क्षण, एक-एक घड़ी सजग होकर मन को बदलने में संलग्न होना होगा। और इसके लिए अलग से
समय की कोई भी जरूरत नहीं है।
आप जो भी करते हैं--उठते हैं, बैठते हैं, भोजन करते हैं, नौकरी करते हैं, रास्ते पर चलते हैं, रात सोते हैं, आप जो भी करते हैं, आपका जो भी व्यवहार है, आपका जो भी संबंध है, सारा जीवन एक इंटररिलेशनशिप,
एक अंतर्संबंध है। चौबीस घंटे हम कुछ न कुछ कर रहे हैं--धर्म के लिए
अलग से समय खोजने की जरूरत नहीं है। यह जो भी आप कर रहे हैं, अगर शांत, जागरूक चित्त से करने लगें तो आपके जीवन
में धर्म का आगमन हो जाएगा। आप जो भी कर रहे हैं, अगर शांत,
जागरूक करने लगें तो।
कैसे शांति से यह हो सकेगा? कैसे यह हो सकेगा?
यह भी बहुत मित्रों ने पूछा है: कैसे हम शांत हो जाएं?
तो कैसे मनुष्य का चित्त शांत हो सकता है?
मनुष्य के चित्त की अशांति क्या है इस समझ लें, तो शांत होना कठिन नहीं है। मनुष्य के चित्त की क्या है अशांति? कौन कर रहा है अशांत? कोई और कर रहा आपको या कि आप
स्वयं? आप स्वयं ही चौबीस घंटे चित्त को अशांत करने की
व्यवस्था कर रहे हैं और फिर पूछते-फिरते हैं कि शांत कैसे हो जाऊं? चौबीस घंटे आप ही कर रहे हैं योजना। जीवन को देखने का सारा ढंग गलत है
इसलिए अशांति पैदा होती है। जीवन को देखने का हमारा ढंग क्या है? अगर आपका आधा छप्पर उड़ गया हो, तो क्या है आपके जीवन
को देखने का ढंग? उड़े हुए छप्पर के लिए रोएगा या बचे हुए
छप्पर के लिए धन्यवाद देंगे? उड़े हुए छप्पर के लिए रोएंगे,
तो अशांत हो जाएंगे। बचे हुए छप्पर के लिए धन्यवाद देंगे, तो अपूर्व शांत उतर आएगी। कैसे हम जीवन को देखते हैं?
बुद्ध का एक भिक्षु था, पूर्ण। उसकी शिक्षा
पूरी हो गई थी। उसने बुद्ध के पास जाकर आज्ञा मांगी कि अब मैं जाऊं और आपके अमृत
संदेश को गांव-गांव पहुंचा दूं।
बुद्ध ने कहा, तू कहां जाना चाहेगा? किस तरफ?
उस पूर्ण ने कहा, बिहार में एक छोटा सा इलाका था,
सूखा उसका नाम था। उस पूर्ण ने कहा कि अब तक सूखा की तरफ कोई भी
भिक्षु नहीं गया, मैं सूखा जाना चाहता हूं।
बुद्ध ने कहा, छोड़ दे यह इरादा। अब तक कोई नहीं गया, इसी से तुझे सोचना था कि कोई बात जरूर होगी। उस इलाके के लोग बहुत अशिष्ट,
बहुत असभ्य, अत्यंत कटु व्यवहार वाले लोग हैं,
बहुत हिंसक, बहुत क्रोधी, इसीलिए कोई वहां नहीं गया।
पूर्ण ने कहा, तब तो मुझे वहां जाना ही पड़ेगा, उनके लिए ही फिर मेरी जरूरत है।
अगर दीये से कोई कहे कि उस तरफ मत जा जहां अंधेरा है, तो दीया क्या कहेगा? मैं न जाऊं उस तरफ जहां अंधेरा
है? तो दीया कहेगा, फिर मेरी वहां क्या
जरूरत जहां सूरज है? मैं वहीं जाऊंगा जहां अंधेरा है।
मुझे आज्ञा दें कि मैं सूखा जाऊं?
बुद्ध ने कहा, मैं आज्ञा तुझे एक ही शर्त पर दे सकता हूं कि तू मेरे
तीन प्रश्नों के उत्तर दे दे।
पूर्ण ने कहा, आप पूछें?
बुद्ध ने कहा, वहां तू जाएगा, लोग गालियां
देंगे, अपमान करेंगे, कटु वचन कहेंगे,
तेरे मन को क्या होगा?
हंसने लगा वह पूर्ण, उसने सिर रख दिया बुद्ध के चरणों
पर और कहा, आप पूछते हैं इतने दिन मुझे जानने के बाद क्या
होगा मेरे मन को? यही होगा, कितने भले
लोग हैं, सिर्फ गालियां देते हैं, अपमान
करते हैं, मारते नहीं, मार भी सकते थे।
बुद्ध ने कहा, पूर्ण यह भी हो सकता है कि कोई तुझे वहां मारे भी,
फिर क्या होगा?
पूर्ण ने कहा, जानते हैं फिर भी पूछते हैं आप? होगा यही, कितने भले लोग हैं, सिर्फ
मारते हैं, मार ही नहीं डालते, मार भी
डाल सकते थे।
बुद्ध ने कहा, अंतिम बात और पूछ लूं, अगर
उन्होंने मार ही डाला, तो मरते क्षणों में तुझे क्या होगा?
सोच सकते हैं, क्या कहा होगा पूर्ण ने? आता है
खयाल कोई? ठीक था कि गाली देते थे।
तो पूर्ण ने कहा, मार डालेंगे, मारते नहीं, मार डालते नहीं, यह
बहुत, यही शुभ है।
लेकिन बुद्ध ने कहा, मार ही रहे हैं, तेरी हत्या कर रहे हैं, क्या होगा तेरे मन को?
पूर्ण ने कहा, जानते हैं भलीभांति आप, फिर भी
पूछते हैं? यही होगा, कितने भले लोग
हैं, उस जीवन से छुटकारा दिलाए देते, जिसमें
कोई भूल-चूक हो सकती थी।
ऐसी दृष्टि का फल है शांति। इससे उलटी दृष्टि का फल है अशांति।
एक आदमी फूलों कि बगिया में जाए, गुलाब के फूल के पौधे
के पास खड़ा हो--दो रास्ते हैं, या तो गुलाब के उस पौधे में
खिले हुए एक फूल को देख ले। एक फूल बहुत कम है, पत्ते बहुत
हैं, कांटे बहुत हैं। यह भी हो सकता है एक फूल न देखे,
कांटों की गिनती करे और कहे कि इतने कांटे हैं इस पौधे में? कैसी बुरी है यह दुनिया? इतने कांटे हैं? मुश्किल से खिलता है एक फूल और कांटे ही कांटे, हजार-हजार
कांटे हैं, कैसी है यह दुनिया? कैसी
दुखपूर्ण? वह आदमी अशांत हो जाए, नहीं
तो क्या होगा? कोई दूसरा आदमी यह भी देख सकता है: कैसी अदभुत
है यह दुनिया, इतने कांटे हैं जहां वहां भी एक फूल खिल पाता
है! इतने कांटे हैं जहां, इतने कांटों के बीच भी एक फूल
खिलता है, कितनी अदभुत है यह दुनिया! कितनी रहस्यपूर्ण!
कितने अनुग्रह के योग्य! कितना ग्रेटिटयूड! कितना धन्यवाद करें किसी का!
एक आदमी देखने जाए जीवन को, तो जीवन में जो-जो
अंधेरा है उसे गिन सकता है। जीवन में जो-जो बुरा है उसकी गणना कर सकता है। जीवन
में जो-जो दुख है उसकी संख्या का आंकड़ा बांध सकता है। और तब अगर अशांत हो जाए,
तो जुम्मा किसका होगा? और फिर रोए और चिल्लाए
और फिर ढूंढ़े गुरुओं को और पूछे कि मुझे शांति का रास्ता बताओ। और गुरु भी ऐसे
नासमझ कि वे कहें कि राम-राम जप, तो सब ठीक हो जाएगा। जैसे
राम-राम न जपने से यह अशांति पैदा हुई हो। यह अशांति पैदा की है इसके जीवन की
दृष्टि ने। इसके जीवन की दृष्टि ही भ्रांत और गलत है। इसने गलत को ही चुनने का
उपक्रम साध लिया है। इसने व्यर्थ को ही देखने की चेष्टा की है। इसने अंधकार के साथ
ही मोह बांध लिया है। इसे प्रकाश दिखाई नहीं पड़ता। इसे फूल दिखाई नहीं पड़ते। इसे
प्रेम दिखाई नहीं पड़ता। इसे तो जो भी दिखाई पड़ता है वही रुग्ण कर देता है इसे और,
और अशांत कर देता है। कैसे धार्मिक चित्त को साधेंगे?
शांति में खिलता है धार्मिक चित्त। और शांति? शांति है जीवन का सम्यक दृष्टिकोण, राइट एटिटयूड।
रोज-रोज चौबीस घंटे में, रोज-रोज प्रतिक्षण ठीक दृष्टि को,
सम्यक दृष्टि को, उस सम्यक दर्शन को, वह ठीक-ठीक देखने को, निरंतर-निरंतर प्रतिक्षण साधना
है। प्रतिक्षण, एक क्षण भी छुट्टी देने की सुविधा नहीं है।
धार्मिक व्यक्ति को कोई छुट्टी नहीं, कोई हॉलिडे नहीं,
कि आज छुट्टी दे दें, फिर कल साध लेंगे। एक
क्षण भी छुट्टी का अवकाश नहीं है। एक-एक क्षण देखते, जागते,
समझते, धीरे-धीरे वह दृष्टि जो भीतर छिपी है
प्रकट होने लगती है। और तब, तब सब बदल जाता है, तब सब बदल जाता है। तब नहीं दिखाई पड़ते कांटे, बल्कि
जब दृष्टि पूरी उपलब्ध होती है तो हर कांटा फूल में परिवर्तित हो जाता है। और हर
अंधकार एक दीया बन जाता है। और हर बुरी घटना में किसी शुभ संकेत की सूचना मिल जाती
है। फिर धीरे-धीरे तो सब कुरूपता विलीन हो जाती है, रह जाता
है सिर्फ सौंदर्य। सिर्फ सौंदर्य रह जाता है, नहीं रह जाता
जीवन में कुछ कुरूप। नहीं रह जाता जीवन में कुछ विकृत, सभी
हो जाता है सभी स्वस्थ और संस्कृत। लेकिन वह दृष्टि पर निर्भर है। वह दृष्टि पर ही
निर्भर है कि हम कैसे देखते हैं। तो बहुत जल्दी इस बात की न करें कि आप जल्दी से
वस्त्र बदल लें, क्रिया बदल लें, उपवास
कर लें। इस सबसे नहीं, खोजें अपनी दृष्टि को कि कहां-कहां
घाव हैं मेरे? किन-किन घावों से में पीड़ित और परेशान हूं?
और तब आपको दिखाई पड़ेगा, आपने ही अपनी छाती
में छुरी मारी है रोज-रोज। ये घाव किसी और नहीं किए। जब दिख जाए कि मेरे ही हाथ
छुरी मारते हैं, तो छुरी फेंक देना कठिन थोड़े ही है। या फिर
छुरी से बहुत मोह हो और घाव में बहुत आनंद हो, तो आपकी
मर्जी। फिर तो कोई सवाल नहीं है।
लेकिन मनुष्य स्वयं ही है आत्महंता, कोई और नहीं। और जब
तक इस सत्य की स्पष्ट प्रतीति न हो तब तक आप स्वयं को बदल भी नहीं सकते।
एक और मित्र पूछते हैं कि क्या सेवा करना ही
पर्याप्त नहीं है? सेवा करें तो क्या परमात्मा की उपलब्धि नहीं हो जाएगी?
क्यों पड़ें इन सारी बातों में? उन्होंने पूछा
है: सेवा करें गरीबों की, दीनों की, दुखियों
की, तो उसी सर्विस से, उसी सेवा से
क्या नहीं मिल जाएगा प्रभु?
नहीं; भूल कर भी कभी नहीं मिलेगा। धर्म से तो सेवा उत्पन्न
हो जा सकती है, लेकिन सेवा से धर्म उत्पन्न नहीं होता है।
धार्मिक व्यक्ति का जीवन तो सेवक का जीवन होता ही है, लेकिन
सेवक का जीवन धार्मिक आदमी का जीवन नहीं होता है। इस तरह उलटा नहीं होता है। दीया
जल जाए तो अंधेरा निकल ही जाता है, लेकिन कोई कहे कि हम
अंधेरे को निकालने की कोशिश करें तो दीया जल जाएगा? तो फिर
दीया नहीं जलता है। अंधेरे को मर जाएं कोशिश कर-कर के निकाल कर, अंधेरा नहीं निकलने वाला और दीया तो जलने वाला नहीं। हालांकि दीया जलता है
तो अंधेरा जरूर निकल जाता है, लेकिन अंधेरे के निकलने से
दीया नहीं जलता।
चित्त में धर्म का जन्म होता है तो सेवा जरूर आ जाती है। लेकिन सेवा
से कोई धर्म नहीं आता। बल्कि बिना धर्म के जो सेवा है वह भी अंधकार को ही तृप्त
करती है, उसका ही साधन बनती है, वह भी
कहती है, मैं हूं सेवक! मैंने की है सेवा! मैं हूं बड़ा सेवक!
मुझसे बड़ा सेवक कोई भी नहीं! और ऐसा सेवा करने वाला वर्ग, जितनी
मिस्चिफ, जितने उपद्रव पैदा करवाता है उसका कोई हिसाब नहीं।
मैंने सुना है, एक चर्च का एक पादरी एक स्कूल के बच्चों को सेवा का
धर्म सिखाने गया था। छोटे-छोटे बच्चे थे, उन्हें उस पादरी ने
समझाया कि सेवा जरूरी करनी चाहिए, दिन में एक सेवा कम से कम
जरूरी है। कोई भी सेवा का कृत्य, कोई भी। कोई भी सेवा का
कृत्य अगर तुमने दिन में कर लिया एक, तो हो गई प्रार्थना। जब
मैं अगली बार आऊं सात दिन बाद, तो मैं पूछूंगा कि तुमने सात
दिन में कुछ सेवा के कृत्य किए।
सात दिन बाद वह वापस लौटा, उसने उन बच्चों से
पूछा कि मेरे बेटो, तुमने कुछ सेवा के काम किए? तीन बच्चों ने हाथ हिलाए, वह बहुत प्रसन्न हुआ कि
कोई फिकर नहीं, तीस में से केवल तीन ने किया, लेकिन किया तो। बताओ तुम खड़े होकर, ताकि बाकी बच्चे
भी जान लें कि तुमने क्या किया? तुम्हें आनंद मिला सेवा करने
से?
उन तीनों ने कहा, बहुत आनंद मिला, बहुत आनंद मिला।
पूछा, क्या किया तुमने? कौनसी सेवा की?
पहले लड़के को पूछा।
उसने कहा, मैंने, जैसा आपने समझाया था:
कोई डुबता आदमी हो तो बचाना चाहिए, कोई बूढ़ा आदमी रास्ता पार
करता हो तो सहारा देना चाहिए। मैंने एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार करवाया है।
उसने धन्यवाद दिया, छोटा सा बच्चा था कि ठीक,
बहुत ठीक। दूसरे बच्चे से पूछा, तुमने क्या
किया?
उसने कहा, मैंने भी एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार करवाया। थोड़ी
हैरानी हुई उसे, लेकिन सोचा, बहुत बूढ़े
होते हैं, कोई कम तो नहीं, इसने भी
किया होगा। तीसरे से पूछा, तूने क्या किया?
उसने कहा, मैंने भी एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार करवाया।
उसने कहा, तुम तीनों को तीन बूढ़ी स्त्रियां मिल गईं रास्ता पार
करवाने को?
वे तीनों बोले, तीन कहां, एक ही थी, हम तीनों ने उसी को पार करवाया है।
वह बहुत हैरान हुआ। उसने कहा, क्या एक बूढ़ी औरत को
पार करवाने में तीन की जरूरत पड़ी?
उन्होंने कहा, वह पार होना ही नहीं चाहती थी, बामुश्किल
हम पार करवा पाए। लेकिन सेवा करनी जरूरी थी, इसलिए हमने सेवा
की। वह तो बहुत चिल्लाती थी कि मुझको उस तरफ नहीं जाना।
आज तक पृथ्वी पर ये सेवा करने वाले ऐसे ही उपद्रव करते रहे। क्योंकि
ये सोचते हैं कि हमें तो सेवा करनी है, क्योंकि सेवा करना
धर्म है। इसकी फिकर ही भूल जाते हैं कि क्या कर रहे हैं ये सेवा? कौनसी सेवा हो रही है?
जो सेवा जान कर की जाती है वह खतरनाक हो जाती है। सेवा निकलनी चाहिए
सहज। सेवक सहज नहीं होता, बहुत सेल्फ-कांशस होता है। उसे बहुत अहसास होता है
मैं सेवा कर रहा हूं!
नहीं, सेवा होनी चाहिए सहज, करने वाले
को उसका पता नहीं चलना चाहिए। अगर करने वाले को पता चल गया, तो
सब सेवा गलत हो गई। अगर यह पता चल गया कि मैं सेवा कर रहा हूं, बात व्यर्थ हो गई, कोई मूल्य न रहा उस सेवा का।
लेकिन ऐसी सेवा तो तभी पैदा हो सकती है जब पता न चले उसका। जब चित्त अहंकार से
मुक्त होता और धर्म का जन्म हो जाता है, तब सारा जीवन,
श्वास-श्वास सेवा बन जाती है। लेकिन उस सेवा से कभी भी यह बोध नहीं
होता कि मैं सेवक हूं, मैं सेवा कर रहा हूं। फिर वह सेवा
जीवन हो जाती है। वैसी सेवा तो धर्म है, लेकिन यह सेवकों की
सेवा धर्म नहीं है। इससे धर्म का कोई संबंध नहीं।
कुछ और मित्रों ने पूछा है कि धार्मिक होने के
लिए नैतिक होना तो कम से कम जरूरी है। आदमी को नैतिक होने की कोशिश तो करनी ही
चाहिए। चेष्टा तो करनी चाहिए कि आदमी नैतिक हो जाए। अच्छे काम करे, अच्छी वृत्ति रखे, अच्छा आचरण हो, सत्य बोले, अहिंसक हो, दयालु
हो, अपरिग्रही हो, यह तो होना चाहिए,
नैतिक तो होना चाहिए।
हजारों साल से यही कहा जाता रहा है कि नीति जो है वह धर्म की सीढ़ी है।
यह बात सौ प्रतिशत झूठ है। नीति धर्म की सीढ़ी नहीं है, नीति धर्म का फूल है, सुगंध है। नीति धर्म की सीढ़ी
नहीं है। नीति धर्म का परिणाम है।
धार्मिक व्यक्ति के जीवन में नैतिकता होती है। लेकिन कोई नैतिक हो जाए, तो उसके जीवन में तो नैतिकता भी नहीं होती और धर्म भी नहीं होता। क्योंकि
नैतिकता होने की जो चेष्टा है, नैतिक होने का जो प्रयास है,
वह इसी बात की खबर है कि आदमी अनैतिक है, और
अनीति के ऊपर नीति को थोपने में संलग्न है। भीतर हिंसा है, ऊपर
से अहिंसा को थोप रहा है। जिसके भीतर हिंसा नहीं है, क्या वह
अहिंसक होने की चेष्टा करेगा? जिसके भीतर चोरी नहीं है,
क्या वह चोरी से बचने की कोशिश करेगा? जिसके
भीतर असत्य नहीं है, क्या वह सत्य को बोलने का प्रयत्न करेगा?
असत्य है भीतर और सत्य को बोलने का जो प्रयत्न है वह उस असत्य को
नहीं मिटा सकता, केवल ऊपर से सत्य का एक आवरण खड़ा कर देगा,
भीतर असत्य रहेगा मौजूद, सप्रेस, दबा हुआ, भीतर छिपा हुआ। ऊपर हो जाएगा सत्य का आचरण
और अंतस हो जाएगा एकदम असत्य। ऐसे व्यक्ति का चित्त द्वंद्व से, कांफ्लिक्ट से भर जाएगा, वह चौबीस घंटे अपने से ही
लड़ेगा। दुर्जन, अनैतिक व्यक्ति लड़ता है समाज से और नैतिक
व्यक्ति लड़ता है अपने से, लेकिन लड़ाई दोनों की जारी रहती है।
अनैतिक आदमी पकड़ जाता है, तो हम डाल देते हैं
कारागृह में और नैतिक आदमी खुद ही अपना कारागृह बना लेता है, उसे किसी कारागृह में डालने की जरूरत नहीं होती। वह खुद अपना इनप्रिजनमेंट
है। वह खुद ही चौबीस घंटे मरा जा रहा है, लड़ा जा रहा है अपने
आपसे। उसकी नीति सहज नहीं है। वह स्पांटेनियस नहीं है, वह
स्वस्फूर्त नहीं है; वह थोपी गई, दबाई
गई, जबरदस्ती लादी गई। तब, तब ऊपर से
एक रूप, भीतर से दूसरा मनुष्य खड़ा हो जाता। और यह जो भीतर
छिपा है यह ज्यादा असली है। क्योंकि जो आपने बनाया है, वह
आपका बनाया हुआ है और यह असली आपको उपलब्ध हुआ है, इसको आपने
बनाया नहीं। यह जो हिंसक है, यह भीतर बैठा हुआ है, यह आपने बनाया नहीं, यह आपको मौजूद मिला है, और अहिंसक आप बन गए हैं। तो ऊपर से अहिंसा, भीतर
हिंसा। और तब यहां तक नौबत आ सकती है कि अहिंसा की रक्षा के लिए जरूरत पड़ जाए,
तो ऐसा अहिंसक आदमी तलवार उठा ले और कहे कि अहिंसा की रक्षा के लिए
हत्या कर दूंगा तुम्हारी।
अहिंसा की रक्षा के लिए भी वह हिंसा कर सकता है। और फिर उसकी हिंसा
नये-नये रास्ते खोजेगी निकलने के। क्योंकि भीतर जो दबा है वह मार्ग खोजेगा, वह जाएगा कहां? तो फिर पाखंड पैदा होता है। नैतिक
आदमी की जो जबरदस्ती नैतिक होने की कोशिश है वही पाखंड का जन्म है। फिर पाखंड पैदा
होता है। फिर वह पीछे के रास्ते खोजता है उन्हीं बातों को करने के लिए जिनको सामने
के रास्ते उसने अपने हाथ से बंद कर लिए।
लंदन में शेक्सपियर का एक नाटक चलता था। लंदन का जो आर्च-प्रीस्ट था, सबसे बड़ा पादरी था, सबसे बड़ा धर्मगुरु था, अनेक लोगों ने आकर उससे प्रशंसा की, बहुत अदभुत नाटक
है, हद्द कुशलता प्रकट की है अभिनेताओं ने। उसके मन में भी
लालच हुआ। आखिर पादरी या धर्मगुरु भी तो आदमी ही है, उसके मन
में भी रस पैदा होता है। उसके मन में रस हुआ कि मैं भी देखूं। लेकिन वह तो निरंतर
लोगों को समझाता था कि नाटक, सिनेमा, यह
सब क्या है, यह सब व्यर्थ है, इसमें मत
जाओ, यह सब पाप है। अब वह खुद जाना चाहे तो कैसे जाए?
उसने नाटक के मैनेजर को एक पत्र लिखा, पूछा
पत्र में, देखने आना चाहता हूं मैं भी, लेकिन नहीं चाहता कि कोई मुझे देखे। पीछे का कोई दरवाजा नहीं है? नाटक में पीछे का कोई दरवाजा नहीं है कि मैं चुपचाप आ जाऊं और निकल जाऊं,
लोग मुझे न देख पाएं? बड़ी कृपा होगी, अगर पीछे के द्वार कोई हों और मुझे आने की अनुमति मिल जाए।
उस थिएटर के मैनेजर ने उसे वापस पत्र लिखा और कहा, ऐसा पीछे का दरवाजा है। पहले तो नहीं था, लेकिन
बनाना पड़ा। सज्जनों के आने के लिए व्यवस्था करनी पड़ी। और अक्सर धर्मगुरुओं को तो
आना ही पड़ता है इसलिए रास्ता बना लिया है। आप खुशी से आएं, बड़ा
स्वागत है। लेकिन एक बात बता दूं, ऐसा दरवाजा तो है कि
आदमियों को पता नहीं चलेगा कि आप आए हैं। लेकिन ऐसा कोई भी दरवाजा नहीं कि
परमात्मा को पता न चले। फिर आपकी मर्जी। और अगर आप सोचते हों कि परमात्मा पता नहीं,
है भी या नहीं, तो भी ऐसा कोई दरवाजा नहीं कि
आपको खुद पता न चले, आपको तो पता चलेगा ही। वैसे आप आएं,
हम स्वागत करते हैं।
नैतिक आदमी पीछे का दरवाजा खोजता है। इसलिए नैतिकता के केंद्र पर बने
हुए समाज पाखंडी हो जाते हैं, हिपोक्रेट हो जाते हैं। हमारा ही
समाज एक उदाहरण है। तीन हजार साल से हम नैतिकता की शिक्षा थोप रहे हैं। नैतिकता की
शिक्षा चिल्ला-चिल्ला कर हम परेशान हो गए। पत्थर-पत्थर पर हमने खोद दी है सब
धर्म-वाक्य। आदमी-आदमी के दिल पर हमने रामकथा थोप दी है। एक-एक बच्चे को हमने पीला
दिए हैं सब पाठ नैतिकता के बिलकुल दूध के साथ। लेकिन आदमी हमारा? ऐसा आदमी जमीन पर मिलना मुश्किल है इतना अनैतिक आदमी जैसा हमने पैदा किया
है। और हम सब एक नाव पर सवार हैं। कोई ऐसा नहीं है कि एक आदमी अनैतिक है। हम सब एक
ही नाव पर सवार हैं। इतनी नैतिकता की शिक्षा के बाद यह फल निकला? यह हमारा समाज?
मैंने सुना है, एक स्कूल में एक दिन सुबह-सुबह ही एक इंस्पेक्टर
निरीक्षण के लिए आया। भीतर घुसते ही कक्षा में उसने कहा बच्चों से, निरीक्षण करने को आया हूं, तीन प्रश्न मुझे पूछने
हैं। तुम्हारी कक्षा में जो सबसे ज्यादा अग्रहणी तीन विद्यार्थी हों, वे क्रमशः खड़े हो जाएं। एक-एक आता जाए, प्रथम नंबर
का विद्यार्थी, फिर द्वितीय, फिर तृतीय
और प्रश्न को हल कर दे। प्रथम जो उस कक्षा का विद्यार्थी था वह उठा, बोर्ड के पास आया, सवाल लिख दिया गया, उसने उत्तर लिख दिया, अपनी जगह जाकर बैठ गया। फिर
नंबर दो का विद्यार्थी आया, उसको भी सवाल दिया गया, उसने भी सवाल हल किया, वह भी अपनी जगह बैठ गया। फिर
नंबर तीन का विद्यार्थी उठा, लेकिन तीन नंबर का विद्यार्थी
उठते ही थोड़ा झिझका, थोड़ा सकुचाया, पैर
भी बढ़ाए तो थोड़े संकोच से। फिर बोर्ड पर आकर डरा-डरा सा चॉक लेकर लिखने को था कि
तभी इंस्पेक्टर को खयाल आया कि यह लड़का तो वही है जो नंबर एक आकर सवाल हल कर गया
था। उसने उसका कान पकड़ा और कहा कि बेईमान, तू धोखा देने की
कोशिश कर रहा है, क्या तू वही नहीं जो पहले भी सवाल हल कर
गया? तू फिर से कैसे आ गया?
उस विद्यार्थी ने कहा, माफ करिए, निश्चित ही मैं वही हूं, लेकिन आज हमारी कक्षा का जो
तीसरे नंबर का विद्यार्थी है वह क्रिकेट का खेल देखने चला गया और वह मुझसे कह गया,
मेरी कोई जरूरत पड़ जाए, मेरी जगह कुछ काम पड़
जाए तो कर देना। मैं उसकी जगह आया हुआ हूं।
उस इंस्पेक्टर ने कहा, हद्द हो गई, परीक्षा भी किसी की जगह कोई दे सकता है? यह तो बुरी अनैतिक
बात है। और विद्यार्थी को उसने डांटा और समझाया कि ऐसी भूल अब कभी मत करना। और तब,
शिक्षक खड़ा था बोर्ड के पास चुपचाप, इंस्पेक्टर
उसकी तरफ मुड़ा और कहा, महाशय, हो सकता
था मैं तो न भी पहचान पाता और धोखा हो जाता, लेकिन आप कैसे
चुपचाप खड़े देख रहे हैं? आप भी सम्मिलित हैं इस बेईमानी में?
उस शिक्षक ने कहा, माफ करिए, मैं
इस कक्षा का शिक्षक नहीं हूं, मैं बगल की कक्षा का शिक्षक
हूं, इस कक्षा का शिक्षक क्रिकेट का खेल देखने चला गया। वह
मुझसे कह गया, जरूरत पड़ जाए तो जरा मेरी क्लास देख लेना। तो
मैं उसकी जगह खड़ा हुआ हूं। अब तो इंस्पेक्टर के क्रोध का कोई ठिकाना न रहा। उसने
कहा, यह तो हद्द हो गई। बच्चे तो बच्चे शिक्षक भी, शिक्षक भी यही कर रहे हैं। एक-दूसरे की जगह खड़े हुए हैं। यह क्या बेईमानी
है? यह क्या शिक्षा दी जा रही है? यह
क्या अनैतिकता सिखाई जा रही है अभी से? शिक्षक भी थरथर
कांपने लगा। बच्चे भी डर आए। नौकरी का भी खतरा था। उसने हाथ जोड़े, पैर पड़े। इंस्पेक्टर उसे लेकर बाहर आ गया। फिर इंस्पेक्टर को दया आ गई,
उसने कहा, घबड़ाओ मत, चिंतित
मत होओ, तुम्हारे भाग्य, मैं असली
इंस्पेक्टर नहीं हूं। असली इंस्पेक्टर क्रिकेट का खेल देखने चला गया, मैं उसका मित्र हूं।
हम सब एक नाव पर सवार हैं। इसमें नीचे के आदमी से लेकर राष्ट्रपति तक
सब सम्मिलित हैं। एक ही नाव पर सम्मिलित हैं। इसमें गरीब से लेकर अमीर तक; अनुयायियों से लेकर नेताओं तक; गृहस्थियों से लेकर
संन्यासियों तक, सब सम्मिलित हैं। हम सब एक नाव पर सवार हैं।
और यह सवारी इसलिए पैदा हो गई है कि हम हजारों साल से जबरदस्ती नैतिक होने की
कोशिश कर रहे हैं। जबरदस्ती नैतिक होने का यह दुष्परिणाम हुआ है। नैतिक तो हम नहीं
हो पाए पाखंडी हम जरूर हो गए हैं।
नीति ऐसे नहीं आती, नीति के आने का रास्ता दूसरा ही
है। अनैतिकता लक्षण है, नैतिकता भी एक लक्षण है। आदमी का
शरीर गरम हो जाता है, तो हम समझते हैं आदमी बीमार हो गया।
बुखार बीमारी नहीं है, केवल बीमारी का लक्षण है। फीवर चढ़ गया,
तापमान लक्षण है, केवल सूचना है। आदमी भीतर
बीमार है। शरीर का गरम हो जाना खुद कोई बीमारी नहीं है, बीमारी
कुछ और है। उस बीमारी के कारण शरीर गरम हुआ है। गर्मी तो केवल सूचक है। खबर देती
है कि शरीर कहीं रुग्ण है। इसलिए तापमान बढ़ गया। बढ़े तापमान के कारण हमें पता चलता
है कि शरीर कहीं रुग्ण है। लेकिन अगर हम इस बढ़े हुए तापमान को ही बीमारी समझ लें
और आदमी को ठंडे पानी से नहलाने लगें कि इसकी गर्मी उतार दें, मामला खतम हो जाएगा, गर्मी बीमारी है। बीमारी तो
नहीं खतम होगी, बीमार जरूर खतम हो जाएगा। लक्षण बीमारियां
नहीं होते, लक्षण तो सूचनाएं होते हैं।
एक आदमी चोर है, बेईमान है, असत्य बोलता है, हिंसक है, ये
सिर्फ लक्षण हैं। तापमान है, भीतर आदमी की आत्मा अस्वस्थ है,
ये उसकी खबरें हैं। इनको बदलने से कुछ भी नहीं हो सकता। ये तो केवल
सूचनाएं हैं कि आत्मा अस्वस्थ है, अज्ञान में है। एक ही
अस्वास्थ्य है, आत्मा का अज्ञान। अज्ञान के ये लक्षण हैं।
अज्ञान होता है भीतर, तो बाहर होती है अनैतिकता। अनैतिकता को
नहीं मिटाना है। वह तो केवल लक्षण है। मिटाना है अज्ञान को। अज्ञान के मिटते ही
अनैतिकता मिट जाती है। और जब भीतर ज्ञान होता है तो बाहर नैतिकता होती है। अज्ञान
का लक्षण है अनैतिकता, ज्ञान का लक्षण होती है नैतिकता। भीतर
होता है ज्ञान तो जीवन हो जाता है नैतिक। लेकिन हम जड़ों को नहीं देखते, हम पत्तों पर मेहनत करते हैं, इसलिए सारी मेहनत
व्यर्थ हो जाती है।
एक व्यक्ति ने अपने बचपन का संस्मरण लिखा है, उसने लिखा है: जब मैं छोटा था, तो मेरी मां की एक
बहुत बड़ी बगिया थी। उस बगिया में ऐसे सुंदर फूल खिलते थे कि दूर-दूर से लोग उन्हें
देखने आते और प्रशंसा करते। फिर मेरी मां बूढ़ी हो गई और बीमार पड़ी। एक बार लंबी
बीमारी, कोई महीने भर उसे बिस्तर पर रहना पड़ा। वह बहुत
चिंतित थी, बीमारी के लिए नहीं, अपने
फूलों के लिए। और मैं अकेला ही उसका लड़का था और छोटी मेरी उम्र थी। फिर मैंने अपनी
मां को कहा, चिंतित मत होओ, मैं फूलों
की सम्हाल कर लूंगा। मैं फिकर कर लूंगा। तुम निश्चिंत रहो। तुम्हारे फूल नहीं
मुरझा पाएंगे। और फिर वह युवक दिन-रात मेहनत करता रहा जाकर बगिया में। एक-एक फूल
की धूल झाड़ता, एक-एक फूल को चूमता, एक-एक
फूल को प्यार करता। महीने भर बाद जब उसकी मां उठी, तब तक
बगिया बर्बाद हो चुकी थी। सब फूल कुम्हला चुके थे, पौधे मरने
के करीब आ गए थे। सब पत्ते दीन-हीन हो गए थे।
उसकी मां ने देखा, तो वह हैरान हो गई, उसने कहा, तू क्या करता था सुबह से सांझ तक? दिन-रात तो तू बगिया में रहता था, तूने किया क्या?
वह लड़का रोने लगा, उसकी आंख से आंसू टपकने लगे,
उसने कहा, मैंने सब कुछ किया--एक-एक फूल को
चूमा, एक-एक फूल को सम्हाला, एक-एक फूल
को पानी से नहलाता था, पता नहीं क्या हुआ, यह बगिया तो सूखती चली गई!
उसकी मां हंसने लगी, उसने कहा, पागल,
फूलों के प्राण फूलों में नहीं होते, उन जड़ों
में होते हैं जो दिखाई नहीं पड़तीं। पानी जड़ों को देना पड़ता है, फूलों को नहीं। जड़ों को पानी मिल जाता है, फूल अपने
आप युवा बने रहते हैं। और फूलों को जो पानी देगा, उसके फूल
तो मरेंगे ही, जड़ें भी मर जाएंगी। फूलों को पानी देने से
जड़ों को पानी नहीं मिलता। जड़ों को पानी देने से जरूर फूलों को पानी मिल जाता है।
लेकिन जड़ें दिखाई नहीं पड़तीं, फूल दिखाई पड़ते हैं। आत्मा
दिखाई नहीं पड़तीं, आचरण दिखाई पड़ता है। आचरण सिर्फ फूल है।
आत्मा में जड़ें हैं। जो फूलों को सम्हालता है, फूल तो उसके
मिट ही जाते हैं। और जब फूल नहीं सम्हल पाते, तो फिर बाजार
में कागज के, प्लास्टिक के फूल मिलते हैं, उन्हीं को ले आता है, फिर उन्हीं से खुद को सजा लेता
है। फिर पाखंड पैदा हो जाता है।
आत्मा को सम्हालना है, शेष सब अपने से सम्हल
जाता है। और शेष सबको जो सम्हालता है, वह शेष सब तो खो ही
जाता, आत्मा भी खो जाती है। इसलिए नीति नहीं, धर्म, ताकि नीति का जन्म हो सके। नीति सुगंध है
धार्मिक जीवन की। स्वयं को जानना है।
अंतिम एक प्रश्न और फिर मैं अपनी चर्चा पूरी करूंगा।
कुछ और मित्रों ने पूछा है कि संसार में बहुत दुख, बहुत पीड़ा है, दुख ही दुख है, पीड़ा
ही पीड़ा, चिंता ही चिंता, अशांति ही
अशांति, कैसे हम शांत हो सकेंगे इसमें? इस इतने उपद्रव में, इस झंझावात में, इस आंधी में कैसे सम्हाल सकेंगे अपने शांति के दीये को?
नहीं, यह उन्हें संभव नहीं मालूम पड़ता है। निश्चित ही जीवन
में बहुत उपद्रव हैं। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। और जीवन में उपद्रव हैं
इसलिए आप अशांत हैं, यह निदान, यह
डायग्नोसिस गलत है। आप अशांत हैं इसलिए जीवन में उपद्रव है। जीवन के उपद्रव के
कारण आप अशांत नहीं हैं, आप अशांत हैं इसलिए जीवन में उपद्रव
है।
एक छोटी सी घटना, शायद खयाल में आ जाए बात।
टोकियो के एक बड़े होटल में, आज से कोई तीस वर्ष
पहले एक घटना घटी। एक सात मंजिल लकड़ी की बड़ी होटल में। एक विदेशी यात्री वहां ठहरा
हुआ था। और उसने उस संध्या एक साधु को, साधु की खबरें सुन कर
भोजन के लिए आमंत्रित किया था। साधु का नाम था, बोकोजू। वह
साधु आया हुआ था। उस विदेशी यात्री ने अपने कुछ दस-पच्चीस मित्र भी साथ में बुलाए
थे कि भोजन भी करेंगे, उस साधु से कुछ बात भी करेंगे। फिर
बात चली, वे भोजन करते जाते, साधु से
कुछ प्रश्न पूछे थे, वह उत्तर दे रहा था। और तभी बीच में आ
गया भूकंप। सारा नगर डांवाडोल हो गया। भवन गिरने लगे, त्राहि-त्राहि
मच गई, शोरगुल, उत्पात, अराजकता, कुछ समझ में न रहा। सात मंजिल ऊपर बैठे उस
मकान पर सब कंपने लगा। फिर वहां कौन रुकता। अभी यहां भूकंप आ जाए तो कौन यहां
रुकेगा? किसको खयाल रहेगा, क्या सुन
रहे थे? किसको ध्यान रहेगा, आगे और
क्या सुनने को था? कोई नहीं रुका। वहां भी कोई नहीं रुका। वे
सब भागे। वह जो मेजबान था, जिसने निमंत्रित किया था मित्रों
को, वह भी भागा। द्वार पर भीड़ हो गई। सीढ़ियां संकरी थीं। उसे
खयाल आया कि मैं भाग रहा हूं, लेकिन जिस साधु को मैंने अतिथि
की तरह बुलाया था, वह कहां है? वह भी
भाग गया या नहीं? लौट कर देखा, वह साधु
आंख बंद किए अपनी ही जगह बैठा है। उसे लगा, मेजबान भाग जाए,
होस्ट भाग जाए; गेस्ट, अतिथि
घर में बैठा हो, क्या यह शोभा योग्य है? क्या यह उचित है कि मैं भाग जाऊं मेहमान को छोड़ कर? और
फिर यह आदमी कैसा है जो चुपचाप बैठा है भूकंप में? सब गिरा
जाता है, किसी भी क्षण भवन गिर सकता है, मौत निकट है, यह चुप क्यों बैठा है? कैसा है यह आदमी? उस आदमी के आकर्षण ने, उस अदभुत आदमी के चुंबक ने जैसे उसे खींच लिया। वह खींच गया उसके पास और
चुपचाप बैठ गया यह सोच कर कि जो होना है, इसका जो होना है
वही मेरा होगा, लेकिन मैं भागूंगा नहीं। हाथ-पैर कंपे जाते
हैं, प्राण कंपित हैं। फिर भूकंप आया और चला गया। कौनसा
भूकंप हमेशा रुकता है, सब आता है और चला जाता है।
भूकंप चला गया। साधु ने आंख खोली। बात जहां टूट गई थी भूकंप के आने से, फिर से शुरू करनी चाही। फिर से शुरू की। उसके मेजबान ने कहा, क्षमा करें, अब मुझे कुछ भी पता नहीं कि भूकंप के
पहले हम कौनसी बातें करते थे। सब कंप गया, मन भी सब कंप गया,
सब अस्त-व्यस्त हो गया। अब फिर कभी फुर्सत से बाद करेंगे। एक दूसरी
बात लेकिन जरूर मुझे पूछनी है, हम भागे, प्राणों को संकट था, आप नहीं भागे?
उस साधु ने कहा, भागा तो मैं भी, लेकिन तुम बाहर की तरफ भागे, मैं भीतर की तरफ भागा।
और तुम व्यर्थ ही भाग रहे थे, क्योंकि जहां से तुम भागते थे
वहां भी भूकंप था, जहां तुम भागते थे वहां भी भूकंप था। तो
भूकंप से भूकंप में भागने का प्रयोजन क्या था? और तुम जहां
भाग कर जा रहे थे, वहां जो लोग थे, वे
भी कहीं भाग रहे थे। तो मतलब क्या था? भूकंप से भूकंप में ही
दौड़ जाने का प्रयोजन क्या था?
मैं उस तरफ भागा जहां भूकंप नहीं था। मैं भीतर की तरफ भागा। भीतर एक
ऐसी जगह मिल गई है जहां कोई भूकंप कभी नहीं पहुंचता है। मैं उसी तरफ भाग गया था।
मनुष्य के भीतर एक जगह है जहां कोई बाहर का भूकंप कभी नहीं पहुंचता
है। जो उस शरण को खोज लेता है, जो उस मंदिर में प्रविष्ट हो
जाता है, फिर बाहर का भूकंप तो उस तक नहीं पहुंचता, लेकिन उसकी शांति जरूर बाहर जो भूकंप में हैं उन तक पहुंचने लगती है। तब
उसके उस मंदिर से एक रोशनी चारों तरफ फैलने लगती है। तब उसके उस शांत शून्य स्थल
से, उस केंद्र से एक शांति की वर्षा चारों तरफ होने लगती है।
जरूर जीवन में बाहर संकट हैं, भूकंप हैं, लेकिन इससे ऐसा मत सोच लेना कि ऐसी कोई भी जगह नहीं है जहां भूकंप न हो,
और जहां आप न पहुंच सकते हों। उस स्थल को ही हम आत्मा या परमात्मा
कहते हैं। आत्मा या परमात्मा कोई फिलासफिकल, दार्शनिक
धारणाएं नहीं हैं। दार्शनिकों ने बड़ा अन्याय किया है। उन्होंने इन सारी धारणाओं को,
जो जीवन की अनुभूतियां हैं; धारणाएं नहीं,
कंसेप्ट नहीं, सिद्धांत नहीं, जो जीवन की सघन, यथार्थ अनुभूतियां हैं, उन सब पर वाद-विवाद खड़ा करके उन्हें थोथे शब्द बना दिया है।
इन तीन दिनों में बाहर भूकंप है, इसी संबंध में तो
मैंने आपसे कहा। और भीतर एक शरण है, उस संबंध में भी मैंने
आपसे कहा। अब आपके हाथ में है कि आप भूकंप से भूकंप में भागेंगे या भूकंप से उस
तरफ जहां कोई भूकंप नहीं है।
मेरी बातों को तीन दिन तक इतने प्रेम और शांति से सुना, इसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में...हो सकता है मेरी बहुत सी बातों
ने किसी के मन को चोट पहुंचा दी हो, चाहा तो कभी नहीं है कि
किसी के मन को कोई चोट पहुंच जाए, लेकिन सोए हुए आदमी को कोई
जगाने की कोशिश करे, तो नींद में जो है उसे नींद टूटना अच्छी
तो लगती नहीं, चोट पहुंच जाती है। सपने देख रहा होता है,
कोई हिलाने लगता है कि उठो-उठो, बड़ा बुरा लगता
है कि कहां बेवक्त कोई उठाने आ गया। अभी तो नींद ही लगी थी, अच्छा
सपना चलता था, कहां-कहां पहुंचे जाते थे, सब गड़बड़ कर दिया। हो सकता है नींद में आपको खूब तीन दिन तक बार-बार मैं
धक्के देता रहा हो, कहा कि उठो-उठो, आपके
कोई सपने टूट गए हों, दुख हुआ हो, तो
अंत में, तो विदा लेने के पहले मुझे क्षमा तो मांग ही लेनी
चाहिए। तो मैं क्षमा मांगता हूं, अगर किसी कोई चोट पहुंच गई
हो। लेकिन अंत में इतनी प्रार्थना जरूर करता हूं कि जिस दिन नींद को छोड़ने की
सामर्थ्य आप जुटा लेंगे, उस दिन, उस
दिन ही आपके जीवन में पहली बार आनंद का, आलोक का, अमृत का अवतरण होगा।
परमात्मा से प्रार्थना करता हूं, सबके हृदय में आनंद
और अमृत का अवतरण हो सके, सबके हृदय में वह उतर सके। और आपसे
प्रार्थना करता हूं कि पुकारना उसे, बुलाना उसे, और अपने मन में जगह देना। जब वह आने को तैयार हो, तो
मन के द्वार खुल रखना, ताकि वह अतिथि सीढ़ियों से वापस न लौट
जाए। वह तो रोज आता है द्वार पर हरेक के, लेकिन द्वार बंद
देख कर वापस लौट जाता है।
अंत में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम
करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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