बुधवार, 19 अप्रैल 2017

एस धम्मो सनंतनो-(ओशो)-प्रवचन-105


तृष्णा को समझो—(प्रवचन-एकसौपांचवां)

सूत्र:

तसिणाय पुरक्‍खता पजा परिसप्‍पन्‍ति ससोव बाधितो।
सज्‍जोजनसंगसत्‍ता दुक्‍खमुपेन्‍ति पुनप्‍पुनं चिराय ।।281।।

यो निब्‍बनथो वनाधिमुत्‍तो वनमुत्‍तो बनमेव धावति।
तं पुग्गलमेव पस्‍सथ मुत्‍तो बंधनमेव धावति ।।282।।

न तं दल्‍हं बंधनमाहु धीरा यदायसं दारूजं बब्‍बजज्‍च।
सारत्‍तरत्‍त मणिकुण्‍डलेसु पुत्‍तेसु दारेसु च या अपेक्‍खा ।।283।।

एतं दल्‍हं बंधनमाहु धीरा ओहारिनं सिथिलं दुप्‍पमुज्‍च।
एतप्‍मि छेत्‍वान परिब्‍बजन्‍ति अनपेक्‍खिनो कामसुखं पहाय ।।284।।

ऐ रागरत्‍तानुपतन्‍ति सोतं कतं मक्‍टटक्‍कोव जालं।
एतम्‍पि छेत्‍वान बजन्‍ति धीरा अनपेक्‍खिनो सब्‍बदुक्‍खं पहाय ।।285।।

मुज्‍च पुरे मुज्‍चपच्‍छतो मज्‍झे मुज्‍च भवस्‍स पारगू।
सब्‍बत्‍थ विमुत्‍तमानसो न पुन जतिजरं उपेहिसि ।।286।।


तृष्‍णा को समझा, तो बुद्ध को समझा। क्योंकि तृष्णा को समझ लेने से ही तृष्णा गिर जाती है, और फिर जो शेष रह जाता है, वही बुद्धत्व है।
बुद्ध को समझने के लिए गौतम बुद्ध को समझना जरूरी नहीं है। बुद्ध को समझने के लिए स्वयं के बुद्धत्व में उतरना जरूरी है। उसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। उससे अन्यथा जिसने समझने की कोशिश की, वह पंडित होकर रह जाएगा। और पांडित्य अज्ञान से भी बदतर है।
अज्ञानी तो निर्दोष होता है; पांडित्य बडे अहंकार से भर जाता है। अज्ञान के कारण कोई सत्य से नहीं वंचित है, अहंकार के कारण वंचित है। मिटाना है अहंकार को। और अहंकार मिट जाए, तो सब अज्ञान अपने से मिट जाता है।
लेकिन, तृष्णा को समझो, इसका क्या अर्थ? भाषाकोश में अर्थ दिया है। या तृष्णा के संबंध में विचारकों ने, दार्शनिकों ने बहुत बातें कही हैं, सिद्धात प्रतिपादित किए हैं, उन्हें समझें!
नहीं; उन सिद्धांतों को समझने सै तृष्णा के संबंध में समझ लोगे, लेकिन तृष्णा को नहीं समझ पाओगे। तृष्णा को समझने का कोई बौद्धिक उपाय नहीं है। तृष्णा को समझा जा सकता है केवल अस्तित्वगत अर्थ में।
तृष्णा में जी रहे हो, जागकर जीने लगो। चल तो रहे हो तृष्णा में, होश सम्हाल लो। अभी भी तृष्णा पकड़ती है, लेकिन तुम बेहोश हो। तुम जरा होश से भर जाओ। और जब तृष्णा पकड़े, तो समझो कहां से उठती है? कैसे उठती है? क्यों उठती है? कहां ले जाती है? और बार—बार के परिभ्रमण में भी हाथ क्या लगता है?
कोल्ह का बैल जैसे चलता रहता है, ऐसे तृष्णा में हम जुते हैं। और एक ही स्थान पर कोल्ह का बैल चक्कर काटता है! यात्रा होती भी नहीं; कहीं जा भी नहीं रहा है। बस, वहीं चक्कर काट रहा है!
ऐसे ही तुम भी जन्मों—जन्मों में कहीं नहीं गए हो। उसी जगह चक्कर काट रहे हो! पुनरुक्ति है। जैसे—जैसे जागोगे, वैसे —वैसे यह दिखायी पड़ेगा कि यह यात्रा नहीं है, यात्रा का भ्रम है। पहुंचना तो हो नहीं रहा है, सिद्धि तो फलित नहीं हो रही है, हाथ तो कुछ आ नहीं रहा है; उलटे जा रहा है। पा तो कुछ भी नहीं रहे, अपने को गंवा रहे हो।
यह जैसे—जैसे साफ होने लगेगा और तृष्णा की प्रक्रिया रूपष्ट होने लगेगी, उस रूपष्ट होने में ही तृष्णा से छुटकारा हो जाता है।
तृष्णा से छूटने के लिए कोई उपाय नहीं करने पड़ते। जो उपाय करता है, वह तृणा को समझो तृष्णा को समझा ही नहीं। जिसने तृष्णा समझी, उपाय की नहीं पूछता। समझना ही उपाय है। समझ लिया कि तृष्णा गिरी!
तुम्हें दिखायी पड़ गया कि सांप रास्ते पर है। तुम छलांग लगाकर अलग हो जाते हो। तुम पूछते नहीं कैसे छलांग लगाऊं? कैसे रास्ता छोडूं? अब क्या करूं? सांप सामने है—क्या करूं? ऐसा अगर तुम पूछ रहे हो, तो एक ही बात सिद्ध होती है कि तुम्हें सांप अभी दिखायी नहीं पड़ा। किसी ने कहा है कि सांप है, और तुमने माना है। लेकिन तुम्हें नहीं दिखायी पड़ा।
घर में आग लगी हो तो—बुद्ध निरंतर कहते थे —घर में आग लगी हो तो आदमी छलांग लगाकर बाहर निकल जाता है। लेकिन अगर कोई पूछे कि मेरे घर में आग लगी है, मैं बाहर कैसे निकलूं? तो एक बात समझ लेना. उसने सुना है कि उसके घर में आग लगी है, अभी देखा नहीं है। किसी ने कहा है कि घर में आग लगी तेरे। लेकिन उसके अनुभव में बात नहीं उतरी। इसलिए पूछता है कैसे? कैसे उपाय है समय को टालने का। कैसे उपाय है और थोड़ा समय इसी मकान में रह लेने का, स्थगित करने का।
जब मकान में आग लगती है, तो आग का दर्शन ही छलांग बन जाता है। दर्शन में और छलांग
में इंचभर का फांसला नहीं होता, तत्‍क्षण छलांग घट जाती है।
इसलिए बुद्ध ने कहा है कि तृष्णा दिखायी पड़ जाए—दिखायी पड़ जाए कि मेरे घर में आग लगी है, तो उसी दृष्टि में, उसी दर्शन में रूपांतरण है।
आज के सूत्र इसी तृष्णा में जागने के सूत्र हैं।

पहला दृश्य :

 गवान वेणुवन में विहार करते थे। उनके अग्रणी शिष्य महाकाश्यप स्थविर का एक शिष्य ध्यान में अच्छी कुशलता पाकर भी एक स्त्री के सौदर्य को देखकर चीवर छोड़कर गृहस्थ हो गया।
उसके परिवार ने इस स्थिति को महापतन मानकर उस युवक को घर से निकाल दिया। वह और तो कुछ जानता नहीं था सो चोरी करके जीवन— यापन करने लगा। अंतत: चोरी करते रंगे हाथों पकड़ा गया। राजा ने उसे प्राणदंड की आज्ञा दी।
जिस समय जल्लाद उसे मारने के लिए ले जा रहे थे उस समय भिक्षाटन के लिए जाते हुए महाकाश्यप स्थविर ने उसे देखा। वह तो उन्हें भूल ही चुका था। लेकिन उन्होंने उसे पहचान लिया। महाकाश्यप उसके पास गए और अत्यंत करुणापूर्वक उससे बोले : पूर्व के उत्पादित ध्यानों का स्मरण करो। ध्यान नौका है। ध्यान एकमात्र नौका है— मृत्यु से अमृत की ओर अंधकार से प्रकाश की ओर असत से सत की ओर। स्मरण करो— स्मरण करो— पूर्व के उत्पादित ध्यानों का स्मरण करो।
 स्थविर की यह करुणासिक्त वाणी यह शून्यसिक्त संदेश उसके श्वास— श्वास में समा गया वह संवेग को उत्पन्न हुआ। वह रोमांचित हुआ उसके प्राणों में ध्यान की स्मृति फिर ताजी और हरी हो गयी। वह तत्त्व? ऐसे ध्यान को उपलब्ध हो गया जैसे कि कोई स्वप्न से जागे।
जल्लाद उसे वधस्थल पर ले जाकर मारना चाहे तो मार न सके वह ऐसा ज्योतिर्मय हो उठा था! उसकी प्रभा अदभुत थी। उसकी शांति ऐसी थी कि कोई चाहे तो छू ले! उसका अहोभाव ऐसा था कि जल्लाद भी अनदेखा न कर सके। और उसे अब कोई भय भी नहीं था।
ध्यान में भय कहां? ध्यान में मृत्यु ही कहां?
उसकी वह अपूर्व दशा वह आनंद दशा ऐसी थी कि जल्लाद बजाय उसकी गरदन काटने के उसके चरणों में झुक गए। यह खबर राजा तक पहुंची। राजा स्वयं अपनी आंखों से देखने आया। ऐसा अलौकिक सौदर्य देख आश्चर्यचकित हो उसने बंदी को छोड़ देने की आज्ञा दी।
फिर राजा उसे लेकर बुद्ध के चरणों में उपस्थित हुआ। यह रूपांतरण कैसे हुआ? क्षणभर में। महाकाश्यप का एक वचन सुनकर! इतनी सी बात से— कि स्मरण कर पूर्व के ध्यानों का स्मरण कर; यह जागरण फलित हो गया?
ऐसे वचन तो राजा ने कहा मैने भी बहुत बार सुने ह्रै फिर मुझे जागरण क्यों फलित नहीं हुआ? महाकाश्यप के प्रवचन मैं भी सुनता हूं फिर मैं क्यों अंधा का अंधा हूं ——2 और यह महापापी है फिर ऐसी क्रांति! भिक्षु था पहले यह— सुना मैने। फिर पतित हुआ; भ्रष्ट हुआ; एक स्त्री के मोह में पड़ा। फिर और पतित हुआ। फिर चोर बना। अब रंगे हाथों पकड़ा गया है। मृत्युदंड दिया था इसे। और महाकाश्यप का एक वचन सुनकर कि ध्यान को स्मरण कर स्मरण कर पूर्व के ध्यानों को एकदम ज्योतिर्मय हो उठा! जहां अमावस थी वहां पूर्णिमा हो गयी।
राजा पूछने लगा बुद्ध को कि मैं जानना चाहता हूं प्रभु! यह कैसे हुआ? बुद्ध ने कहा. ध्यान के जादू से। और फिर बंदी की ओर उन्‍मुख होकर ये गाथाएं कहीं।
इन गाथाओं को सुन और भगवान की सन्निधि पुन: पा वह बंदी तत्क्षण अर्हत्व को उपलब्ध हुआ अर्थात उसका ध्यान समाधि बन गया।

पहले इस दृश्य को ठीक से हृदय में बैठ जाने दें, फिर हम सूत्रों में जाएंगे। भगवान वेजुवन में विहार करते थे।
विहार शब्द विशिष्ट अर्थ वाला है। विहार का अर्थ होता है जो मिट गया और फिर भी जी रहा है, जिसकी जीने में कोई वासना नहीं रही। जो जीने के लिए एक क्षण भी आतुर नहीं है, फिर भी जी रहा है।
विहार का अर्थ है. जिसका जीवन—कार्य पूरा हो गया है, लेकिन अतीत की शारीरिक संपदा के कारण जी रहा है। जैसे तुम साइकिल चलाते हो, पैडल मारते हो। दो मील तक पैडल मारकर साइकिल चलायी, फिर तुम पैडल चलाना बंद कर दिए। तो भी फर्लांग दो फर्लांग साइकिल पुरानी गति के आधार पर चल जाएगी, पैडल बिना मारे चल जाएगी। ऐसी ही घटना घटती है विहार में।
जब कोई व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता है, तो उसने पैडल मारने बंद कर दिए। लेकिन जन्मों—जन्मों पैडल मारे हैं, तो जन्मों —जन्मों की जो संचित शक्ति है, वह अपने आप काम करती रहती है कुछ वर्षों तक, कुछ फर्लांगों तक वह व्यक्ति और भी जीता चला जाता है। लेकिन जीने में अब उसकी कोई इच्छा नहीं।
और ऐसा भी मत समझना कि उसकी मरने में कोई इच्छा है! न तो जीने में कोई इच्छा है, न मरने में कोई इच्छा है। तुम कहोगे. जब जीने में कोई इच्छा नहीं, तो मर क्यों नहीं जाता? उसकी इच्छा ही कोई नहीं, चुनाव ही कोई नहीं। जीए तो ठीक, मरे तो ठीक। जो हो, वही ठीक। उसका अपना कोई संकल्प नहीं। ऐसा हो, ऐसा ठीक। वैसा हो, वैसा ठीक। मौत आ जाए तो स्वागत। जीवन चलता रहे तो स्वागत। भीतर कोई अपेक्षा नहीं।
ऐसी चित्तदशा में जो आदमी जीता है, उसके जीवन का नाम विहार। यह अपूर्व घटना है। यह ऐसी घटना है, जो कभी—कभी घटती है। इसलिए तो एक प्रांत का नाम ही विहार पड़ गया। बुद्ध वहां जीए। इस ढंग से जीए। उस याद में प्रांत का नाम विहार पड़ गया। उन्हीं गांवों में, उन्हीं रास्तों पर बुद्ध ऐसे जीए कि जब जीने का कोई कारण न रह गया था, जैसे वासना का सब तेल चुक गया, फिर भी बाती थोडी देर जलती है। बाती ही जलती है, अब तेल नहीं बचा। वासना का तेल समाप्त हो गया, अब दीए की बाती ही जलती है। पहले तो आग ने जला दिया तेल को, अब आग जलाती बाती को।
और यह प्रतीक बुद्ध के संदर्भ में और भी सार्थक है। क्योंकि बुद्ध ने परम दशा को निर्वाण कहा। निर्वाण का अर्थ होता है दीप का बुझ जाना।
दीप में जब तक तेल है वासना का, तब तक जीवन दुख है, तब तक जीवन नरक है। तब तक जीवन जलन है—घाव और पीड़ाएं और हजार संताप और चिंताएं! जब तृष्णा का तेल चुक गया, तो जीवन एक परम शांति है। अब बाती जल रही है। जल्दी ही बाती भी बुझ जाएगी। बाती कितनी देर जलेगी? बाती तो तेल से जलती है, जब तेल समाप्त हुआ और बाती जलने लगी, तो अब ज्यादा देर न जलेगी। फिर जब बाती भी जलकर शांत हो जाएगी, तो उस स्थिति को कहते हैं. दीए का निर्वाण।
बुद्ध ने कहा ऐसे ही जीवन की वासना का तेल चुक जाता है, फिर आदमी थोड़े दिन जीता है—वह विहार।
विहार प्रीतिकर शब्द है। आनंदमग्न दशा में जीता—विहरता! चलता नहीं, फिर भी चलता। धारा के साथ बहता। जीवन से कोई विरोध, संघर्ष नहीं रह जाता।
सब तरह समर्पित होता! न कोई योजना होती; न कोई भविष्य होता, न कोई अतीत होता। यह क्षण काफी होता। यह क्षण अपने में पूरा होता।
इस विहार के बाद एक दिन दीया बुझ जाता, बाती भी जल गयी; तब निर्वाण। तब कहां जाता व्यक्ति? तब महाशून्य में लीन हो जाता। जिस मूलस्रोत. से आया था, उस मूलस्रोत में गिर जाता है। जैसे बादल समुद्र से उठते, फिर हिमालय पर बरसते। फिर गंगा बनते। फिर जाकर सागर में गिर जाते हैं। वहीं, जहां से हम आते हैं, वापस पहुंच जाते हैं, वही अस्तित्व का सागर—उसे परमात्मा कहो, कहना चाहो तो, मोक्ष कहो, निर्वाण कहो—जों मर्जी हो। लेकिन एक बात खयाल में रहे कि अंततः मूलस्रोत में गिर जाने में ही परम शांति है।
जब तक हम अपने मूलस्रोत से न मिल जाएं, तब तक बेचैनी रहेगी। हम अपने घर से दूर—दूर, भटके— भटके, अजनबी रास्तों पर, अजनबी लोगों के बीच। जब हम वापस घर लौट आए, तो विश्राम।
भगवान वेणुवन में विहार करते थे। उनके अग्रणी शिष्य महाकाश्यप स्थविर का एक शिष्य ध्यान में अच्छी कुशलता पाकर भी एक स्त्री के सौंदर्य को देखकर चीवर छोड़कर गृहस्थ हो गया!
महाकाश्यप—बुद्ध के श्रेष्ठतम शिष्यों में एक; श्रेष्ठतम भी कहो, तो भी चूक न होगी, तो भी अतिशयोक्ति न होगी। महाकाश्यप से ही झेन संप्रदाय का जन्म हुआ। और इस छोटे से दृश्य में भी तुम झेन संप्रदाय का रस पाओगे, स्वाद पाओगे, उसकी पहली झलक पाओगे।
मैंने तुम से बहुत बार झेन के जन्म की कथा कही है. कि एक सुबह बुद्ध फूल लेकर आए—कमल का फूल—और बैठकर उस फूल को देखते रहे!
प्रवचन सुनने भिक्षु इकट्ठे हुए थे। लेकिन वे कुछ बोले नहीं। एकटक फूल को ही देखते रहे। सन्नाटा छा गया। लोग बड़े जिज्ञासु होकर बैठे थे सुनने को। और बुद्ध बोले नहीं—बोले नहीं—बोले नहीं। फिर बेचैनी होने लगी। लोग एक—दूसरे की तरफ देखने लगे कि मामला क्या है? ऐसा कभी नहीं हुआ था कि बुद्ध चुप रहे हों। बोलने आए थे, तो बोले थे कुछ। आज क्या हुआ है?
लोगों की यह बेचैनी, और एक—दूसरे की तरफ देखना, और इशारे करना देखकर महाकाश्यप जोर से हंसने लगा। उसकी हंसी.। बुद्ध ने आंखें ऊपर उठायीं; महाकाश्यप को पास बुलाया, और फूल महाकाश्यप को भेंट दे दिया। और कहा महाकाश्यप! तुझे मैं वह देता हूं जो वाणी से नहीं दिया जा सकता। इन शेष सब को मैंने वह दिया, जो वाणी से दिया जा सकता है। तुझे वह देता हूं, जो अव्याख्य है, जो वाणी से परे है। यह फूल सम्हाल। यह प्रतीक है। यह तेरी संपदा। यह झेन संप्रदाय का जन्म था—वाणी के परे, शास्त्र के परे। कोई नहीं जानता बुद्ध ने क्या दिया! बुद्ध ने बुद्धत्व दिया। जैसे एक दीए की ज्योति दूसरे बुझे दीए पर पहुच जाए।
बुझा दीया कोई जले दीए के करीब ले आए। एक क्षण आता है, जब छलांग लग जाती है। दोनों दीए जल उठते हैं। जो जल रहा था दीया, उसका तो कुछ भी नहीं खोता; जो बुझा था, उसे सब कुछ मिल जाता है।
बुद्ध के पास से कुछ भी नहीं गया और महाकाश्यप को सब मिल गया! फिर इसी ढंग से झेन एक गुरु के द्वारा दूसरे गुरु को दिया गया है।
महाकाश्यप का एक शिष्य ध्यान में अच्छी कुशलता पाकर भी..।
ध्यान रखना ध्यान में अच्छी कुशलता पाकर भी पतन हो जाता है। जब तक ध्यान समाधि न बन जाए, तब तक पतन की संभावना है। सच तो यह है कि जैसे—जैसे ध्यान गहरा होगा, वैसे —वैसे पतन की संभावना बढ़ती है।
तुम कहोगे यह तो बात उलटी हुई! यह बात उलटी नहीं है। जैसे—जैसे तुम पहाड़ की चोटी के करीब पहुंचने लगते हो, वैसे—वैसे गिरने का खतरा बढ़ता है। रास्ते संकरे होने लगते हैं। ऊंचाई तुम्हारी बढ़ गयी होती है, खाई—खड्ड गहरे होने लगते हैं। क्योंकि जितने तुम ऊंचे होते हो, उतनी खाई गहरी होती है। जरा फिसले कि गिरे। और जरा फिसले, तो बुरी तरह गिरे। जितनी ऊंचाई से गिरोगे, उतनी भयंकर चोट होगी। कोई सीधे—सपाट रास्ते पर गिर जाता है, तो उठकर खड़ा हो जाता है। लेकिन कोई पहाड़ की ऊंचाई से गिरता है, तो शायद समाप्त ही हो जाए! उठकर खडे होने की क्षमता ही न बचे! हड्डी—पसलियां टूट जाएं। या प्रणीत ही हो जाए।
तब तक खतरा रहता है, जब तक कि तुम पहाड़ के शिखर पर पहुंचकर बैठ नहीं गए। उस पहाड़ के शिखर पर बैठ जाने का नाम समाधि। समतल भूमि से शिखर तक पहुंचने के बीच का मार्ग ध्यान। और जैसै—जैसे ध्यान बढ़ता है, वैसे —वैसे खतरा बढ़ता है।
तो मत सोचना मन में ऐसा कि ध्यान में अच्छी कुशलता पाकर और पतित हो गया! तभी कोई पतित होता है।
तुम तो पतित हो ही नहीं सकते। तुम्हारे पतित होने का अर्थ क्या होगा? तुमने कभी भोगभ्रष्ट ऐसा शब्द सुना? योगभ्रष्ट शब्द सुना होगा। भोगभ्रष्ट तो कोई होता ही नहीं! भोग में तो जो है, वह भ्रष्ट है ही। वह तो खाई—खड्ड में जी ही रहा है। और गिरने का उपाय नहीं है।
तुमने नर्क से किसी को गिरते सुना? और कहां गिरोगे? और गिरने को जगह कहां है? स्थान कहां है? आखिरी जगह तो पहले ही पहुंच गए!
स्वर्ग से लोग गिरते हैं, नर्क से नहीं गिरते। जिन्हें गिरने से डर लगता हो, उन्हें नर्क जाना चाहिए। नर्क में बड़ी सुविधा है, बडी सुरक्षा है। वहां कोई गिरता ही नहीं! वहां से कभी. कोई भ्रष्ट नहीं होता।
स्वर्ग में खतरा है। जैसे —जैसे ऊंचे बढ़े, खतरा बढ़ा। जितनी ऊंचाई आयी, उतना खतरा भी बढ़ा। खतरा भी बढ़ता है, साथ ही साथ शिखर भी करीब आ रहा है। दो बातें एक साथ होने लगती हैं। शिखर करीब आ रहा है, अगर मिल गया, तो सदा के लिए मुक्त हो जाओगे। समाधान हो जाएगा। फिर कहीं जाने को न बचा। जब जाने को न बचा, फिर भी नहीं गिर सकते। क्योंकि अब जाते ही नहीं, चलते ही नहीं, उठते ही नहीं। ठहर गए, घिर हो गए। समाधि यानी थिरता।
इसलिए कृष्ण ने समाधिस्थ को कहा. स्थितप्रज्ञ, जिसकी प्रज्ञा स्थिर हो गयी, घिर हो गयी। अकंप हो गयी। जब अकंप हो गए, चलते ही नहीं, तो फिर गिरोगे नहीं। ध्यान में गति है, समाधि में गति का अंत है। पहुंच गए मंजिल पर। ध्यान यात्रा है, भटकने का उपाय है। और जैसे—जैसे ध्यान की ऊंचाई बढ़ती है, वैसे —वैसे भटकने की, गिरने की संभावना बढ़ती है। ज्यादा से ज्यादा सावधानी की जरूरत पड़ती है।
फिर एक कारण से और भी गिरने का खतरा बढ़ता है। अगर बाहर की ही बात होती कि खाई—खड्ड बड़े हो गए, तो थोडे सम्हलकर चलने से चल जाता। लेकिन भीतर भी एक खतरा है। क्योंकि तुम्हारी वासनाएं इसके पहले कि समाधि मिल जाए, तुम पर आखिरी हमला —करेंगी। कोई भी जल्दी हार नहीं जाना चाहता!
जब तुम ध्यान के शुरू—शुरू कदम उठाते हो, तो वासना बहुत चिंता नहीं लेती। कोई खतरा नहीं है। लेकिन जब तुम शिखर के करीब पहुंचने लगते हो, तो वासना को साफ होने लगता है कि अब मेरी मौत करीब आयी। दो —चार कदम और कि मैं मरी! इस आदमी का पहुंचना और मेरा मरना एक ही है।
तृष्णा का मरना और तुम्हारा पहुंचना एक ही है। तृष्णा मरे, तो तुम पहुंचो। तुम पहुंचे, तो तृष्णा मरी। तो तृष्णा आखिरी जोर मारेगी।
इसलिए तुम कहानियां पढ़ते हो ऋषि—मुनियों की—कि नग्न अप्सराएं उनके आसपास नाचने लगीं। ये अप्सराएं कहां से आती हैं? स्वर्ग से नहीं आतीं। उर्वशिया स्वर्ग में नहीं बसती। उर्वशिया तुम्हारे उर में बसती हैं, इसलिए उनका नाम उर्वशी है। वे तुम्हारे हृदय में बसी हैं। वे तुम्हारी ही कामवासना से उठती हैं। वे तुम्हारी ही तृष्णा का आखिरी हमला हैँ। तृष्णा आखिरी चेष्टा कर रही है। आखिरी जाल फेंक रही है। इसके पहले कि पराजय हो जाए, पूरा जोर मारती है।
तो यह जो महाकाश्यप का शिष्य है, ध्यान में अच्छी कुशलता पा लिया था, फिर एक स्त्री के सौंदर्य को देखकर चीवर छोड़कर गृहस्थ हो गया। त्याग कर दिया उसने भिक्षुवेष का। संन्यास त्याग दिया और गृहस्थ हो गया।
भूला ध्यान। भूला मार्ग। तृष्णा जीती, वह हारा। तृष्णा जीती, चेतना हारी। बड़े घर का बेटा था। कुलीन घर का बेटा था। समृद्ध घर का बेटा था। तो कभी कुछ कमाया तो था नहीं। कमाना जानता नहीं था। फिर हो गया था भिक्षु, सो कमाने का प्रश्न ही न बचा था।
ध्यान रखना : अगर राजा का बेटा साम्राज्य खो दे, तो सिवाय भिखारी होने के और कोई उपाय नहीं रह जाता। या चोर हो जाए। दो ही उपाय बचते हैं। सम्राट के बेटे ने कभी कुछ किया तो था नहीं, जो कर सके। सम्राट ही हो सकता था। एक ही कला जानता था—सिंहासन पर बैठने की। अब सिंहासन गया। तो अब दो ही विकल्प बचते हैं या तो भिखारी हो जाए, या चोर हो जाए। और जिसमें थोड़ा भी सम्मान है, वह भिखारी होने की बजाय चोर होना पसंद करेगा।
यह युवक जब घर आया, तो उसके परिवार ने इसे महापतन मानकर उसे घर से निकाल दिया।
वे दिन बड़े अदभुत थे। अब दुनिया बदली है। अब तो तुम संन्यस्त हो जाओ, तो घर के लोग समझेंगे महापतन हो गया! वे दिन और थे। संन्यस्त कोई होता था, तो घर के लोग सौभाग्य मानते थे। चलो! एक व्यक्ति तो संन्यस्त हुआ घर में! एक दीया तो जला! एक फूल तो खिला! लोग सम्मानित होते थे। और जब कभी कोई संन्यास से भ्रष्ट होता था, तो घर के लोगों की पीड़ा का अंत नहीं रह जाता था। घर के लोगों ने इसे महापतन मानकर उसे घर से निकाल दिया।
यह अपमानजनक था परिवार के गौरव के लिए। यह परिवार के स्वाभिमान के लिए भयंकर चोट थी—कि उनका बेटा बुद्ध के पास जाकर, महाकाश्यप जैसे अदभुत व्यक्ति के शिष्यत्व को स्वीकार करके, और पतित हो जाए! यह उनकी चेतना— धारा पर बड़ा लांछन था। उन्होंने बेटे को निकाल बाहर कर दिया।
वह और कुछ तो जानता नहीं था, सो चोरी करके जीवन—यापन करने लगा। ध्यान रहे एक भूल हो, तो उसके पीछे हजार भूलें आती हैं। इस दुनिया में न तो गुण अकेले आते, न दुर्गुण अकेले आते। एक —गुण जीवन में आए, तो उसके पीछे कतार बंधे हुए और गुण आ जाते हैं। और एक दुर्गुण जीवन में आए, तो उसके पीछे कतार बंधे हुए और दुर्गुण आ जाते हैं!
इसलिए बहुत सोच—सोचकर चुनाव करना। क्योंकि जब तुम एक का चुनाव करते हो, तब तुमने एक का चुनाव नहीं किया, उसके साथ अनजाने अनेक का चुनाव कर लिया, जिनका तुम्हें पता भी नहीं, जो कतार बांधे पंक्तिबद्ध पीछे खड़े हैं!
जिस आदमी ने एक झूठ बोला, उसे हजार झूठ बोलने पड़ेंगे! एक झूठ बोलते वक्त ठीक से समझ लेना कि तुम हजारों झूठ बोलने का निर्णय ले रहे हो—सिर्फ एक झूठ बोलने का निर्णय नहीं।
अक्सर मन कहता है कि जरा सा झूठ है, बोल देने से क्या बनता है? एक दफा बोले, खतम हुई बात, फिर गंगा स्नान कर आएंगे, या मंदिर दान दे देंगे, या ब्राह्मणों को बुलाकर भोजन करवा देंगे, या यज्ञ—हवन करवा लेंगे! कुछ कर लेंगे इसका प्रतिकार, पश्चात्ताप। जरा सा झूठ है, इसके पीछे क्यों झंझट में पडना!
जब भी कोई बोलता है, जरा सा झूठ बोलता है। लेकिन जरा सा झूठ और बड़े झूठ को लाता है। और बड़ा झूठ और बड़े झूठ को लाता है। सिलसिला शुरू हो जाता है! तुम एक झूठ बोलो तुम पाओगे कि तुम्हें अनंत झूठ बोलने पड़ रहे हैं। क्योंकि एक झूठ की रक्षा के लिए उससे बड़ा झूठ बोलना पड़ता है, नहीं तो उसकी रक्षा कैसे होगी?
एक छोटा सा सत्य बोलो, और तुम पाओगे. उसके साथ गुणों की श्रृंखला आती है। एक सत्य दूसरे सत्य को बोलने में' समर्थ बनाता है। सत्य बोलो; प्रामाणिकता, निष्ठा, ईमानदारी, आस्था चुपचाप तुममें पैदा होने लगती हैं। एक सत्य का आघात तुम्हारे भीतर न मालूम कितनी सुगंधियों को बिखेर जाता है! और ऐसा ही असत्य का आघात दुर्गंधों को बिखेर जाता है।
इस युवक ने सुंदर स्त्री को चुनते समय सोचा भी न होगा कि चोरी करनी पड़ेगी। कोन सोचता है? चोरी करते वक्त सोचा भी न होगा कि प्राणदंड मिलेगा। कोन सोचता है? ऐसे ही तो आदमी बेहोश चल रहा है, इसी का नाम बेहोशी है! जब मैं तुम से कहता हूं होश, तो मतलब समझ लेना। जो भी तुम करो, बहुत होश से सोचकर, विचारकर, ध्यानपूर्वक करना। क्योंकि प्रत्येक कदम किसी दिशा में तुम्हें अ?सर कर रहा है। कहीं ऐसा न हो कि तुम जाल में उलझते चले जाओ। ऐसे ही बहुत उलझ गए हो। ऐसे ही जन्म—जन्म उलझ गए हैं। ऐसे ही सारा यात्रा —पथ कीटों से भर गया है! अब थोड़ा फूंक—फूंककर चलो।
अंततः चोरी करते वह रंगे हाथों पकड़ा गया।
और ध्यान रखना निन्यानबे दफा धोखा दे दो, सौवीं बार पकड़े ही जाओगे। मन यह भी कहता है—कि अगर कुशलता से धोखा दिया, तो कोन पकड़ेगा? कैसे पकड़ेगा!
लेकिन चाहे कितनी ही देर लगे, चोरी पकड़ ही जाएगी; देर— अबेर हो सकती है, अंधेर नहीं हो सकता है। जीवन का शाश्वत नियम है। और ऐसा ही पुण्य के संबंध में समझना। आज पुण्य का फल न मिले, कल पुण्य का फल न मिले, कितनी ही देर हो जाए, लेकिन फल मिलता है। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, परसों नहीं और आगे। मगर एक न एक दिन तुमने जो बीज बोए हैं, उनकी फसल पकती है। और जो तुमने बोया है, वही तुम्हें काटना पड़ता है। जैसा बोया है, वैसा ही काटना पड़ता है। जहर बोया, तो जहर काटना पड़ता है। अमृत बोया, तो अमृत। नीम को पानी देते रहोगे, तो कड़वे फल हाथ लगेंगे। आम को पानी दोगे, तो मीठे फल हाथ लगेंगे।
यह सीधा सा गणित है। लेकिन इस गणित को भी हम समझ नहीं पाते, क्योंकि देर— अबेर लगती है। आज चोरी की और दस साल बाद पकड़े जाओगे। भूल ही चुकोगे तब तक, कि चोरी की थी। दोनों में संबंध जोड़ना मुश्किल हो जाएगा!
तुम्हें पता है, अफ्रीका में ऐसी आदिम जातियां हैं अभी भी, जिनको इस सदी के आने तक इस बात का पता नहीं था कि बच्चे संभोग से पैदा होते हैं! क्योंकि नौ महीने का वक्त निकल जाता है। उनके पास समय को नापने का कोई माध्यम नहीं। उनको पता ही नहीं था कि बच्चे संभोग से पैदा होते हैं। फिर हर संभोग से बच्चा पैदा होता भी नहीं। फिर बच्चा तो आज प्रवेश करेगा गर्भ में, पैदा तो नौ महीने बाद होगा। नौ महीने का हिसाब! नौ महीने बाद! तो बात ही भूल गयी।
वे आदिम जातियां ऐसा ही मानती रही हैं सदियों से कि परमात्मा की देन है बच्चा, इसका संभोग से कुछ लेना —देना नहीं! जब पहली दफे उन्हें यह कहा गया, तो उन्हें भरोसा ही न आया। उन्हें बड़ी कठिनाई हुई।
ऐसी ही हमारी जीवन—दशा है। तुमने कभी कोई काम किया था, दस साल बीत गए। तुम भूल— भाल चुके। और बुरे काम हम जल्दी भूल जाते हैं। बुरे काम कोन याद रखना चाहता है! क्योंकि बुरे काम को याद रखने से भी कांटा चुभता है। मन को पीड़ा होती है। बुरे काम को तो हम पोंछ देना चाहते हैं, दूर अंधेरे में फेंक देते हैं। अचेतन की गर्त में डाल देते हैं।
तो हर आदमी ने अपने मन के नीचे गहरे में तलघरा बना रखा है, वहॉ हम फेंकते जाते हैं। जो भी हमें नहीं जंचता कि करना था, नहीं करना था; ठीक नहीं हुआ; हो गया किसी तरह, उसे हम उस तलघरे में डालते जाते हैं। उस तलघरे में सब तरह के सांप—बिच्छू? सब तरह के जहर इकट्ठे होते रहते हैं। एक न एक दिन वे निकलेंगे। एक न एक दिन उठेगा धुआ। एक न एक दिन तुम्हारे बैठकखाने में धुआ भरेगा, तब तुम बड़े हैरान होओगे कि यह कहा से आता है!
जब तुम्हें दुख झेलने पड़ते हैं, तब तुम सोचते भी नहीं कि तुमने कभी बीज बोए थे इनके। कर्म के सिद्धात का बस, इतना ही अर्थ है कि जो तुमने पाया है आज, वह कभी किया था। और जो तुम आज कर रहे हो, वह कभी पाओगे।
चोरी करते वह युवक रंगे हाथ पकड़ा गया। राजा ने उसे प्राणदंड की आशा दी। जिस समय जल्लाद उसे मारने को ले जा रहे थे, उस समय भिक्षाटन के लिए जाते हुए महाकाश्यप स्थविर ने देखा।
बुद्ध की ऐसी व्यवस्था थी, उनके हजारों संन्यासी थे। स्वभावत:, इसके अतिरिक्त और कोई उपाय न था कि प्रत्येक नया युवक, नया संन्यासी, नया दीक्षित, किसी पुराने दीक्षित संन्यासी का शिष्य बन जाता था। बुद्ध दीक्षा देते थे, लेकिन उसे सौंप देते थे किसी को।
यह युवक महाकाश्यप को सौंपा गया था। बुद्ध ने जब इसे महाकाश्यप को सौंपा था, इसका अर्थ ही साफ है कि इसमें बडी संभावना दिखी होगी ध्यान की। महाकाश्यप सबसे बड़े ध्यानी शिष्य थे बुद्ध के। इसीलिए तो झेन संप्रदाय का जन्म उनसे हुआ।
झेन ध्यान शब्द का ही रूपांतरण है। ध्यान है संस्कृत। पाली में ध्यान हो जाता है झान। जब झान चीन पहुंचा, तो हो गया चान। और जब चीन से जापान पहुंचा, तो हो गया झेन। मगर ध्यान का ही रूपांतरण है।
सबसे बड़े ध्यानी शिष्य थे महाकाश्यप। अलग—अलग शिष्य थे, अलग—अलग गुणवत्ताएं थीं। महाकाश्यप की गुणवत्ता एक थी कि उनका ध्यान अदभुत था, उनका ध्यान निर्मलतम था, उनका ध्यान शुद्धतम था। वे पारस पत्थर थे। जो उनके पास आ जाता, सोना हो जाता, ध्यानी हो जाता।
जब बुद्ध ने इस युवक को महाकाश्यप को सौंपा था कि सम्हालो इसे, इसी में सूचना है कि इस युवक की बडी संभावनाएं थीं। यह समाधिस्थ हो सकता था, तभी बुद्ध ने सौंपा था। और शायद तीव्रता से बढ़ा होगा ध्यान में, गति से गया होगा। जो गति से जाता है, उसके गिरने की संभावना भी ज्यादा होती है। जो धीरे — धीरे जाता है, वह सम्हल—सम्हलकर जाता है। एक—एक कदम, धीरे — धीरे, मजबूत करके जाता है। जो धीरे— धीरे जाता है, उसके गिरने की संभावना कम होती है। देर से पहुंचता है। जो जल्दी जाता है, वह जल्दी पहुंच सकता है, लेकिन बहुत खतरा यह है कि वह जल्दी ही गिर भी जाए।
जिस समय जल्लाद उसे मारने ले जा रहे थे, महाकाश्यप भिक्षा मांगने निकले थे। महाकाश्यप ने देखा जल्लाद उसे जंजीरों में बांधे वधस्थल की तरफ ले जा रहे हैं। वह तो उन्हें भूल ही चुका था।
वह भूलता नहीं, तो चूकता ही क्यों? जिसको एक साधारण सी स्त्री में ज्यादा सौंदर्य दिखायी पडा महाकाश्यप की बजाय, वह उसी क्षण भूल गया। वह उसी क्षण चूक गया। कहां महाकाश्यप का सौंदर्य! सदियों से लोग, जिन्होंने ध्यान साधा है, महाकाश्यप की याद करते हैं। आज तो बीते ढाई हजार साल हो गए। लेकिन अब भी चीन में, जापान में, थाईलैंड में, बर्मा में—जहां—जहां बौद्धों की अभी भी परंपरा जीवित है—लोग पूछते हैं महाकाश्यप के संबंध में। अब भी विचार करते हैं, अब भी पूछते हैं : महाकाश्यप को बुद्ध ने क्या दिया था?
ढाई हजार साल में भी यह प्रश्न अभी जीवंत है कि महाकाश्यप को जो फूल दिया था, उसमें क्या दिया था? महाकाश्यप को क्या दिया था बिना शब्दों के? जो किसी को नहीं दिया, वह महाकाश्यप को दिया था; तो उसका अर्थ हुआ : असली चीज महाकाश्यप को मिली। औरों के हाथ शब्द लगे, सिद्धात लगे, ज्ञान लगा। महाकाश्यप के हाथ ध्यान लगा। और ध्यान तो आखिरी संपदा है। क्या दिया था महाकाश्यप को?
महाकाश्यप उज्जलतम शिष्य हैं बुद्ध के। महाकाश्यप दूसरे बुद्ध हैं बुद्ध की परंपरा में। और इस युवक को महाकाश्यप में सौंदर्य न दिखायी पड़ा! और एक स्त्री में सौंदर्य दिखायी पड़ा!
मूल कथा में जो बात कही है, वह मैंने छोड़ दी है।
कल किसी ने पूछा था कि आप मूल कथा में से कभी—कभी कुछ छोड़ देते हैं, कभी कुछ जोड देते हैं।
कारण से ऐसा करता हूं। मूल कथा में तो कहा है किसी स्त्री के गुह्य स्थान को देखकर। मैंने उसे छोड़ दिया। वह अभद्र मालूम होता है।
जो किसी स्त्री के गुह्य स्थान को देखकर महाकाश्यप को छोड़ दिया, वह भूल ही गया महाकाश्यप को। जैसे कोई मल—मूत्र के कीड़े को सोने के सिंहासन पर बिठा दे, और फिर मल—मूत्र को देखकर वह सोने के सिंहासन से सरक जाए, वापस गिर जाए अपनी नाली में, अपने कीचड़ में—ऐसा कुछ हुआ।
वह भूल ही चुका था। शिष्य भूल सकता है, लेकिन गुरु नहीं भूल सकता। जन्मों —जन्मों के बाद भी गुरु पहचान लेगा।
जीसस ने कहा है जन्मों —जन्मों के बाद भी मैं तुम्हें पहचान लूंगा। उस आखिरी दिन भी मैं तुम्हें पहचान लूंगा, जिस दिन परमात्मा के सामने निर्णय होगा। जो मेरे हैं, उन्हें मैं पहचान लूंगा।
ठीक कहा है। शिष्य भूल सकता है। शिष्य की स्मृति कितनी! गुरु कैसे भूल सकता है? गुरु की स्मृति पूर्ण हो गयी है। शिष्य पर तो जो खिंचता है, वह पानी पर खींची लकीर जैसा है। अभी बना, अभी गया! बना भी नहीं और गया। एक कान से गया, दूसरे कान से निकल गया। गुरु तो जैसे हीरे पर खींची गयी लकीर है।
वह तो उन्हें भूल ही चुका था। महाकाश्यप को आते देखकर उसे कुछ दिखायी ही न पड़ा। वह तो अपनी जंजीरों में बंधा, अपनी भवतृष्णा से परेशान, सोचता जा रहा होगा कि अब फांसी लगने वाली है। कैसे बचूं? क्या करूं? कैसे भाग जाऊं? रिश्वत खिलाऊं? या कि मरना ही पड़ेगा? वह तो हजार चिंताओं में घिरा होगा। उसके आस—पास तो बहुत बादल रहे होंगे। उसका सूरज तो बिलकुल ढंका रहा होगा। उसे कहां फिक्र कि कोन रास्ते पर गुजर रहा है!
तुम भी समझो. तुम्हें फांसी लग रही हो, तो तुम रास्ते पर देख पाओगे कि कोन गुजरा, किसने जयरामजी की? कुछ नहीं दिखायी पड़ेगा। कोई तुम्हें कह दे कि तुम्हारे घर में आग लगी है, फिर तुम भागोगे दुकान से। फिर रास्ते में कोन मिला, कोन नहीं मिला—तुम फिर फिकर न करोगे। याद भी न आएगी। दूसरे दिन अगर कोई पूछे कि कल कहां भागे जाते थे? मैंने जयरामजी की, तो आपने उत्तर भी न दिया।तुम कहोगे : छोड़ो भी भाई! घर में आग लगी थी। जयरामजी का उतर देने के लिए वहां था कोन! मेरे प्राण तो घर में पहुंच चुके थे, देह ही थी। मुझे कुछ दिखायी नहीं पड़ा।
यह तो भिक्षु—पतित भिक्षु—फांसी के लिए ले जाया जा रहा है। लेकिन महाकाश्यप ने उसे पहचान लिया। महाकाश्यप उसके पास गए।
शिष्य कितना ही भटके और कितना ही दूर चला जाए, गुरु की करुणा में कोई अंतर नहीं पड़ता। पड़ जाए अंतर, तो वह गुरु गुरु नहीं। फिर वह साधारणजन है। वह नाता फिर साधारण था। उसमें कुछ बड़ी महत्ता की बात न थी। अगर गुरु की करुणा अपार न हो, उसकी क्षमा अपार न हो, तो वह गुरु नहीं। यही तो उसकी गुरुता है।
अगर कोई और होता, कोई अहंकारी जीव होता, कोई तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरुओं और तुम्हारे तथाकथित महात्माओं जैसा महात्मा होता, तो मुंह फेरकर निकल जाता—कि लगने दो फांसी। अच्छा हुआ! यही होना ही चाहिए। और शायद जल्लादों से कहता कि फांसी देने के पहले कुछ कोड़े भी लगा देना मेरी तरफ से। यह इस योग्य है। यह नरक में सको। और अपने दूसरे शिष्यों से कहा होता कि देखो, क्या गति होती है मुझे छोड़ने पर! यह गति होती है। सावधान! कभी मुझे छोड़कर कहीं जाना मत। औरों को डरवाता। शायद जाकर उस मरणासन्न युवक के घाव पर थोड़ा नमक छिड़कता—कि देख! अब भोग। चेताया था, नहीं चेता। जो कहा था, नहीं सुना। अब परिणाम भोग। और एक तरह की प्रसन्नता अनुभव करता। आह्लादित होता कि पहले ही कहा था, जो मेरी नहीं सुनेगा, उसको यह फल मिलने ही वाला है।
नहीं, लेकिन महाकाश्यप ने उसके पास जाकर अत्यंत करुणा से उसे कहा पूर्व के उत्पादित ध्यानों का स्मरण करो।
गुरु वही, जिसकी क्षमा अपार हो। अपार अर्थात जिस पर कोई सीमा और शर्तबंदी न हो। क्षमा जिसका स्वभाव हो। क्षमा उससे ऐसे ही बहती है, जैसे फूल से गंध बहती है; दीए से रोशनी बहती है। क्षमा उससे ऐसे ही बहती है, जैसे पहाडों से जल उतरता है। जैसे मेघों से वर्षा होती है। क्षमा उसे करना नहीं पड़ता, क्षमा उसका स्वभाव है। सहज है, बेशर्त होती है।
सोचा नहीं महाकाश्यप ने कि इसको क्षमा करना ठीक? इस जघन्य अपराधी को 1 इस भ्रष्ट संन्यासी को? नहीं, यह क्षमा का पात्र नहीं।
जो गुरु पात्र— अपात्र का भेद करे, वह गुरु नहीं। गुरु के लिए तो सभी पात्र हैं। और चूकना स्वाभाविक है, मनुष्य के लिए क्षम्य है। इसलिए चूकने पर कोई इतना नाराज होने की बात नहीं है।
ध्यान रखना फर्क। गुरु ने यह याद नहीं दिलाया कि तूने क्या—क्या पाप किए, जिसका फल भोग रहा है! गुरु ने याद दिलाया : पूर्व के उत्पादित ध्यानों का स्मरण करो। गुरु सदा विधायक की याद दिलाता है, निषेधात्मक की नहीं।
जो तुम्हें निषेधात्मक की याद दिलाएं, उनसे सावधान रहना। वे गुरु नहीं हैं। वे हत्यारे हैं। वे तुम्हारी हत्या कर रहे हैं। और वही किया जा रहा है। तुम्हारे तथाकथित गुरु तुम्हें याद दिलाते हैं तुम्हारे पापों की, तुम्हारे भ्रष्टाचरण की, तुम्हारे जघन्य अपराधों की। तुम नर्क में सडोगे—इसकी याद दिलाते हैं। तुम्हें भयभीत करते हैं। तुम्हें डराते हैं। तुम्हारे तथाकथित मंदिर और मस्जिद तुम्हारे डर से जीते हैं। तुम्हारा भगवान, तुम्हारे भय का ही सघन रूप है और कुछ भी नहीं। तुम्हें डरा दिया गया है। तुम कंपते हुए, घुटने टेके हुए भगवान की प्रार्थना करते हो!
जरा भीतर झांककर देखना. प्रार्थना में भय के अतिरिक्त कुछ और है? अगर भय के अतिरिक्त कुछ और नहीं, तो यह प्रार्थना कैसी! क्योंकि प्रार्थना में भय तो हो ही नहीं सकता। प्रार्थना में तो सिर्फ प्रेम होता है। और जहां प्रेम है, वहां भय नहीं। और जहां भय है, कहा प्रेम नहीं।
महाकाश्यप ने उसके पापों का स्मरण नहीं दिलाया। न तो कहा. देख, एक साधारण सी स्त्री को देखकर दीवाना हो गया! और शरीर में रखा क्या है पागल? मल—मूत्र की गठरी है। ऐसा कुछ भी नहीं कहा। यह भी नहीं कहा कि तूने चोरी की! थोड़ा तो सोच! किस कुलीन घर से आता है? संन्यासी रह चुका है! ठीकरों के लिए चोरी करने गया!
नहीं, यह बात ही याद नहीं दिलायी। यह बात याद दिलाने की है ही नहीं। क्योंकि जो बात याद दिलायी जाती है, वह मजबूत हो जाती है। क्योंकि उस पर ध्यान जाता है। ध्यान पोषण है। ध्यान जल सींचना है।
सदगुरु याद दिलाता है तुम्हारे भीतर पड़े हुए शुभ की, तुम्हारे भीतर पडे हुए परमात्मा को आह्वान करता है। तुम्हारे पाप को विचार में भी नहीं लाता। वह विचारने योग्य नहीं, उपेक्षा के योग्य है। उस पर ध्यान भी देने की जरूरत नहीं है। क्योंकि अगर उस पर ज्यादा ध्यान दोगे, तो ऐसा ही होगा, जैसे कोई अपने घाव को बार—बार उघाड़—उघाड़कर, पट्टी खोल—खोलकर देखे। घाव भरेगा नहीं। जैसे कोई घाव को कुरेद—कुरेदकर देखे कि अभी भरा कि नहीं भरा? तो कैसे भरेगा? घाव को भूल जाना जरूरी है, तो ही भरता है।
गुरु ने कहा पूर्व के उत्पादित ध्यानों का स्मरण करो। गुरु ने कहा देख, कैसी ऊंचाई पर उड़ा जाता था, कैसे पंख तुझे लग गए थे! मंजिल बड़े करीब थी। शिखर आया ही आया था। स्वर्ण शिखर परमात्मा के मंदिर के चमकते हुए दिखायी पड़ने लगे थे। याद कर! उस घड़ी की याद कर!
पूर्व के उत्पादित ध्यानों का स्मरण करो। ध्यान नौका है। ध्यान एकमात्र नौका 'है मृत्यु से अमृत की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, असत से सत की ओर। जैसे उपनिषद कहते हैं : असतो मा सदगमय—मुझे असत से सत की ओर ले पत्नों। मृत्योर्मा अमृतंगमय—मुझे मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो। तमसो या ज्योतिर्गमय—मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो।
हिंदू प्रार्थना करते हैं परमात्मा से। बुद्ध के जगत में कोई परमात्मा नहीं है। बुद्ध कहते हैं : ध्यान नौका है। प्रार्थना से क्या होगा? बैठो इस नाव में, और चलो असत से सत की ओर। आओ इस नाव में, करो यह निमंत्रण स्वीकार, और चलो अंधकार से प्रकाश की ओर। चलो ले चलते हैं तुम्हें। बुद्ध कहते हैं बनाओ मुझे मांझी अपना। ले चलते हैं तुम्हें उस पार, जहां कोई मृत्यु नहीं।
ऐसी याद दिलायी महाकाश्यप ने. स्मरण करो—स्मरण करो—पूर्व के उत्पादित ध्यानों का स्मरण करो। इतने जोर से कि एक क्षण को भूल ही गया होगा कि कैदी के हाथ में जंजीरें हैं। एक क्षण को भूल ही गया होगा कि मृत्यु प्रतीक्षा कर रही है। एक क्षण को भूल ही गया होगा कि मेरे चारों तरफ सिपाही खड़े हैं। यह महाकाश्यप की उज्ज्वल, भव्य उपस्थिति, यह महाकाश्यप का दिव्यरूप, यह महाकरुणा! बरस गयी होगी उस पर! नहा गया होगा इसमें।
एक क्षण को भूल ही गए बीच के जो वर्ष आए—स्त्री के साथ भाग जाना, संन्यास छोड देना, चोरी करना, पाप करना, पकड़े जाना—जैसे कोई दुख—स्वप्न समाप्त हो गया। आंख खुल गयी। एक क्षण को यह दस—पंद्रह वर्षों का जो समय रहा होगा, पुछ गया, अलग हो गया। फिर लौट गया उस घड़ी में जहां से गिरा था। फिर उस घड़ी में घिर हो गया।
और ध्यान रखना, आदमी के संबंध में यह समझ लेना बहुत—बहुत जरूरी है। आदमी ऐसा ही है, जैसा तुम्हारा रेडियो। सब स्टेशन उपलब्ध हैं। सिर्फ जो स्टेशन तुम्हें पकड़ना हो, उस पर कांटे को ले जाना जरूरी है। पाप का स्टेशन भी उपलब्ध है। तुम उसमें संलग्न हो जाओ, तो पापी हो जाते हो। पुण्य का स्टेशन भी उपलब्ध है, एक क्षण में काटा हट जाए और पुण्य पर लग जाए, तो तुम पुण्य को उपलब्ध हो जाते हो।
मनुष्य में सारी संभावनाएं हर समय मौजूद हैं। जिस संभावना की तरफ तुम्हारी चेतना बह उठे, वही वास्तविक हो जाती है। इसे खूब गहरे पकड़ लो। पापी से पापी व्यक्ति एक क्षण में पुण्यात्मा हो सकता है।
कुछ ऐसा नहीं कि तुमने दिल्ली लगा दिया रेडियो पर, तो अब गोवा नहीं लग सकता। कुछ ऐसा नहीं कि गोवा लग गया, तो अब काबुल नहीं लग सकता। सारी दुनिया की ध्वनि तरंगें तुम्हारे रेडियो के पास से गुजर रही हैं, तुम जिसे पकड़ लोगे, तुम्हारा रेडियो उसी को प्रतिध्वनित करने लगेगा। ऐसा ही मनुष्य है।
ध्यान क्या है? ध्यान है परम सत्य की तरफ तुम्हारी तरंगों को जोड़ देना। होश क्या है? वह जो है—वस्तुत जो है—उसके साथ अपना संबंध जोड़ लेना। बेहोशी क्या है? जो नहीं है, उसमें खो जाना। मूर्च्छा क्या है? नींद में पड़ जाना, यंत्रवत हो जाना।
न तो कोई पापी है, न कोई पुण्यात्मा है। अगर तुम पापी बने हो, यह तुम्हारा चुनाव है। अगर तुम पुण्यात्मा हो, यह तुम्हारा चुनाव है। न कोई संसारी है, न कोई संन्यासी। तुम्हारे भीतर दोनों मौजूद हैं। तुम जिससे जुड़ जाओ, वही हो जाते हो। तुम जैसा संकल्प कर लो, वही हो जाते हो। तुम संसारी हो जाते हो। तुम संन्यासी हो जाते हो।
और तुम कभी विचार करके देखना, कभी खोजबीन करना। दुकान पर बैठे —बैठे कभी तुम संन्यासी हो जाते हो। एक क्षण को सब असार दिखने लगता है। एक क्षण को कुछ सार नहीं दिखता—इस धंधे में, इस गोरखधंधे में, इन ग्राहकों में, इस रुपए इकट्ठे करने में; इस तिजोड़ी के भरने में—एक क्षण कुछ भी नहीं दिखायी पड़ता। और कभी —कभी ऐसा हो जाता है : मंदिर में बैठे थे प्रार्थना करने और दुकानदार हो जाते हो! प्रार्थना तो भूल जाती है, किसी ग्राहक से झंझट करने लगते हो। सोचने लगते हो, मोल—तोल करने लगते हो।
मैंने सुना है एक स्त्री मंदिर जाती थी रोज और मंदिर के पुजारी को कहती थी, कभी मेरे पति को भी समझाओ, वे बड़े अधार्मिक हैं!
अक्सर ऐसा हो जाता है। अगर तुम थोड़ी पूजा—पाठ कर लेते हो, तो तुम समझते हो सारी दुनिया अधार्मिक है, क्योंकि तुम धार्मिक हो गए! तुम अगर कभी प्रवचन सुन आते हो किसी का, तो तुम बड़ी अकड़ से लौटते हो सारी ट्युनिया की तरफ देखते हुए—कि बेचारे! अब गए नरक ये सब। इधर मुझे देखो!
तो वह स्त्री सोचती थी—क्योंकि नियम से मंदिर जाती, फूल चढाती, आरती उतारती—तो सोचती थी पति भ्रष्ट है। पति किसी काम का नहीं है। अज्ञानी है! समझा—बुझाकर एक दिन पुरोहित को ले आयी अपने घर।
पति बगीचे में टहल रहा था। सुबह पांच बजा होगा। पत्नी अपने पूजागृह में घंटी बजाकर पूजा कर रही थी। पुरोहित ने पूछा आपकी पत्नी ने मुझे निमंत्रण दिया है। वह कहां है? पति ने कहा. अब आप न पूछें तो अच्छा। इस समय वह सज्जी वाली से लेड—झगड़ रही है।
सब्जी वाली से! पांच बजे सुबह! कोन सब्जी वाली पांच बजे सुबह मिल गयी! यहां कोई दिखायी तो पड़ता नहीं, पुजारी ने कहा। तो उसने कहा यहां नहीं, बाजार में। बहुत झंझट हो रही .है। एक—दूसरे की गरदन पकड़ने को जूझी जा रही हैं!
यह पत्नी अपने पूजागृह में. बैठी सुन रही है। वह तो क्रोध से बाहर निकल आयी। उसने कहा कि हूह हो गयी झूठ की। मैं यहां पूजा कर रही हूं। तुम्हें पता है। और तुम पुजारी से इस तरह की झूठी बातें बोल रहे हो!
उसके पति ने कहा अब तू सच कह। घटी तो तू बजा रही थी, वह मुझे भी सनायो पड़ रही थी, पुजारी को भी सुनायी पड़ रही थी। लेकिन सच तू बता। मैंने जो कहा, वह झूठ है?
पत्नी एक क्षण चौंकी। झूठ तो नहीं था। हाथ में तो घंटी बज रही थी, लेकिन भीतर — भीतर वह चली गयी थी बाजार। आज मेहमान घर आने वाले थे और वह उसी विचार में लगी थी क्या सब्जी खरीद लाना! क्या नहीं खरीद लाना! कैसे स्वागत करना मेहमानों का! बेटी को देखने आते थे, इसलिए स्वागत की पूरी तैयारी करनी जरूरी थी। और वहां बाजार में, इसी मन के हिसाब में, पहुंच गयी थी दुकान पर सज्जी खरीदने और एक सब्जी वाली बड़े ज्यादा दाम बता रही थी। बात बिगड़ गयी थी। हालत ऐसी आ गयी थी कि एक—दूसरे की गरदन पर झपटने ही वाली थीं! तभी इस पति ने कहा था।
तुम्हारा मन मंदिर में बैठकर भी संसारी हो सकता है। संसार में होकर भी संन्यासी हो सकता है। तुम पर सब निर्भर है। तुम किस लोक के लिए अपने को खुला छोड़ते हो?
इसलिए मैं अपने संन्यासी को नहीं कहता कि छोड़कर भागो कहीं। भागकर कहा जाना है? सिर्फ चित्त का नया सरगम बिठाओ, सिर्फ चित्त का नया संगीत बनाओ। सिर्फ चित्त को परमात्मा की तरफ मोडने की कला सीखो। सिर्फ उस तरफ बहो। रहो कहीं भी, बहो उस तरफ। जीओ कहीं भी, याद उसकी रहे। उठो—बैठो कहीं भी, श्वास उसके साथ जुड़ी रहे, फिर सब हो जाएगा।
स्थविर की यह करुणासिक्त वाणी, यह शून्यसिक्त संदेश, उस युवक की श्वास—श्वास में समा गया।
समा ही जाएगा। ऐसी क्षमा कोन न पी जाएगा! शायद डरा होगा देखकर स्थविर को पहले तो—कि अब शायद कुछ और दुर्वचन सुनने पड़ेंगे! अब मरते वक्त ये और दुख देने आ गए! अब शायद निंदा होगी। लेकिन निंदा नहीं हुई। याद दिलायी गयी ध्यानों की। कोई निषेधात्मक बात नहीं कही गयी; विधेय की तरफ पुकारा गया।
फिर सामने खड़े इस बुद्धपुरुष को देखकर, इस शांति, इस करुणा को देखकर, इस शून्य से उठता हुआ जो प्रसाद है, उसको अनुभव करके वह संवेग को उत्पन्न हो गया।
संवेग का अर्थ होता है : वह वहां नहीं रहा सिपाहियों के बीच घिरा हुआ, संवेग को उपलब्ध हो गया, मतलब वह वहां पहुंच गया, जहां पंद्रह—बीस साल पहले भिक्षु था; महास्थविर का शिष्य था, महाकाश्यप के चरणों में बैठता था। बीच के दिन मिट गए; जैसे पुछ गए; जैसे हुए ही नहीं; जैसे किसी कहानी में पढ़े थे, किसी और की जिंदगी का हिस्सा थे, अपनी जिंदगी का हिस्सा ही न थे।
वह संवेग को उत्पन्न हुआ, रोमांचित हुआ। कहां अभी चिंताओं से भरा था, कहां अब उमंग से भर गया!
वही ऊर्जा जो चिंता बन रही थी, उमंग बन गयी। रोआं—रोआं रोमांचित हो गया। ध्यान का शब्द फिर जगा गया। उसके प्राणों में ध्यान की स्मृति फिर ताजी और हरी हो गयी। वह तत्‍क्षण ऐसे ध्यान को उपलब्ध हो गया, जैसे कोई स्वप्न से जागे। एक दुखस्‍वप्‍न देखा था—किसी स्त्री के मोह में पड़ने का, फिर चोरी करने का, फिर पकड़े जाने का—एक दुखस्‍वप्‍न देखा था। आंख खुल गयी। सुबह हो गयी।
जल्लाद उसे वधस्थल पर ले जाकर मारना चाहे, तो मार न सके।
फिर तुम्हें याद दिला दूं। मूल कथा कहती है कि उन्होंने मारा, तलवारें उठायीं। लेकिन तलवार व्यर्थ हो गयी। शस्त्र उसे काट न सके। उसे मैंने बदल दिया है। क्योंकि वह बात अवैज्ञानिक मालूम होती है। नहीं तो जीसस को सूली कैसे लगती? नहीं तो सुकरात को जहर कैसे काम करता? खुद बुद्ध विषाक्त भोजन से मरे। महावीर पेचिश की बीमारी से मरे। रामकृष्ण कैंसर से मरे। रमण भी कैंसर से मरे। मैसूर की गरदन कैसे काटी जा सकती थी?
नहीं, वह बात योग्य नहीं है। इसलिए मैंने उसे बदला है। मैं फिर भी कहता हूं जल्लाद उसे वधस्थल पर ले जाकर मारना चाहे, तो मार न सके। वह ऐसा ज्योतिर्मय हो उठा था—इसलिए। इसलिए नहीं कि उन्होंने तलवारें चलायी और तलवारें काम नहीं कीं। तलवारें किसको देखती हैं! तलवारें अंधी हैं। तलवारें जड़ हैं। तलवारें कैसी रुक सकती हैं! तलवार कब रुकीं! किसके लिए रुकीं। तलवारों पर इतना भरोसा मत करो। मैं चेतना पर भरोसा करता हूं, इसलिए इतना फर्क किया।
मैं कहता हूं जल्लाद नहीं मार सके। तलवारें! तलवारें तो काट डालतीं। जल्लाद नहीं मार सके। जल्लाद चैतन्य हैं। जल्लादों के भीतर भी तो परमात्मा उतना ही छिपा है, जितना किसी और के भीतर। और अगर चोर एक क्षण में रूपांतरित हो सकता है, तो जल्लाद क्यों नहीं रूपातरित हो सकते?
इस चोर की क्रांति उन्होंने अपनी आंखों से देखी। इन्होंने यह घटना अपनी आंख से देखी। एक क्षण पहले यही आदमी चिंताओं से भरा हुआ, आंसूओ से दबा हुआ, डरता, कंपता हुआ चल रहा था। और फिर महाकाश्यप का मिलन और इस आदमी का रूपांतरण देखा, मेटामारफोसिस देखी। देखा यह कुछ का कुछ हो गया। यह और का और हो गया। उसके बाद जैसे इसके हाथ पर जंजीरें नहीं थीं। उसके बाद जैसे कोई मौत नहीं थी। यह मस्ती से चलने लगा। इसमें एक सुगंध फूटने लगी। यह जल्लादों ने देखा अपनी आंख से—कि कुछ हो गया। उन्होंने भी गौर से देखा होगा. क्या हुआ? उनकी भी आंखें टिक गयी होंगी इसकी ज्योति पर।
तुमने देखा जब तुम चिंता से भरे होते हो, तो तुम्हारे पास एक कालिमा होती है, तुम्हारे चेहरे के पास एक काला मंडल होता है। और जब तुम आनंद से भरे होते हो, तो तुम्हारे पास एक रोशन प्रभामंडल होता है, एक रोशनी होती है।
और यह तो बडी क्रांति थी। यह अपने पुराने ध्यान को अचानक उपलब्ध हो गया। ये बीच के दिन आए कि नहीं, ऐसे समाप्त हो गए। यह फिर उसी ऊंचाई पर उड़ने लगा। जल्लादों ने अपनी आंख से देखा था इसके पंख लग गए, अचानक पंख लग गए! इसकी ज्योतिर्मय दशा को देखकर वे इसे न मार सके।
मैं तलवारों पर भरोसा नहीं करता। मेरा भरोसा आदमी पर है। इसलिए इतना फर्क करता हूं, कहानी में। वह बात मुझे नहीं जमती कि उन्होंने मारा और तलवारें काम नहीं आयीं।
हालांकि कृष्ण कहते हैं: नैनं छिदंति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः। मुझे शस्त्र नहीं छेद सकते, मुझे आग नहीं जला सकती। मगर वे किस मुझ की बात कर रहे हैं? वे शरीर की बात नहीं कर रहे हैं; वे आत्मा की बात कर रहे हैं। नहीं तो कृष्ण खुद भी तो शस्त्र के छिद जाने से मरे। लेटे थे विश्राम करने एक वृक्ष के नीचे और किसी ने धोखे से, भूल से तीर चला दिया। उनके पैर में लगा। उससे मरे।
नैनं छिदंति शस्त्राणि? कण खुद तो मरे तीर के छिद जाने से! तो ये कृष्ण किसी और की बात कर रहे हैं। ये अंतरतम की बात कर रहे हैं। वहा शस्त्र नहीं छिदते। और कृष्ण को भी जलाया गया होगा। जब मर गए होंगे तो चिता पर रखा गया होगा। देह तो जलती है। देह तो कटती है। देह तो मरणधर्मा है। देह के भीतर छिपा हुआ अमृत है।
तो मैं यह नहीं मान सकता कि इस कैदी की स्थिति बुद्ध और कृष्ण और क्राइस्ट से ऊपर हो गयी थी। यह मैं नहीं मान सकता। जल्लादों ने मारा ही नहीं—यह मैं मान सकता हूं। जल्लाद ठिठक गए; उनके हाथ से तलवारें गिर गयीं—यह मैं मान सकता हूं। वे मारने के योग्य हिम्मत न जुटा पाए—यह मैं मान सकता हूं। इसलिए इतना फर्क किया।
तुमने कल पूछा था कि आप फर्क क्यों कर देते हैं कभी?
फर्क इसलिए कर देता हूं कि ये कहानियां ढाई हजार साल पहले लिखी गयी थीं। ढाई हजार साल बीत गए; इन ढाई हजार सालों में आदमी के चित्त ने बडी क्रांतियां देखीं, बड़े रूपांतरण देखे। आदमी प्रौढ़ हुआ है।
बच्चों की कहानी में एक बात लिखी जा सकती है। जवानों की कहानी में वही बात नहीं लिखी जा सकती। बच्चों की कहानियां बच्चों की कहानियां हैं। ये जब लिखी गयी थीं, तब आदमी की चित्त—दशा इतनी प्रौढ़ नहीं थी।
जल्लाद उसे वधस्थल पर ले जाकर मारना चाहे, तो मार न सके, वह ऐसा ज्योतिर्मय हो उठा। और उसे तो अब कोई भय था ही नहीं। ध्यान में भय कहां! ध्यान में मृत्यु कहा! उसकी वह अपूर्व दशा, वह आनंद दशा—जल्लाद भी उसके चरणों में झुक गए! यह खबर राजा तक पहुंची। राजा स्वयं अपनी आंखों से देखने आया। ऐसा अलौकिक सौंदर्य देख, आश्चर्यचकित हो, उसने बंदी को छोड़ देने की आशा दे दी।
ध्यान में सौंदर्य है। समाधि में परम सौंदर्य है। ध्यान के अतिरिक्त और कोई सौंदर्य नहीं है। सौंदर्य चाहते हो, तो ध्यान को चाहो। प्रसाधन के साधनों से कोई सुंदर नहीं हो जाएगा। और यह देह तो अभी सुंदर, अभी कुरूप हो जाती है। यह देह अभी जवान है, अभी की हो जाएगी। इस देह पर भरोसा मत करो। भीतर के सौंदर्य पर भरोसा करो, क्योंकि वही सदा साथ रहने वाला है।
लेकिन राजा भी चकित था। कैसे यह हुआ! तो वह बुद्ध के चरणों में कैदी को लेकर उपस्थित हुआ। पूछा उसने: यह रूपांतरण कैसे हुआ? मैं जानना चाहता हूं। यह क्रांति कैसे घटी? बुद्ध ने कहा. ध्यान के जादू से।
और तो कोई जादू जगत में है ही नहीं। ध्यान का ही एकमात्र जादू है।
जादू! क्यों जादू कहें इसे? क्योंकि यही तुम्हें मृत्यु से अमृत में ले जाता है। और बड़ा जादू क्या होगा? मृण्मय को चिन्मय बना देता है! और बड़ा जादू क्या होगा? क्षणभंगुर को शाश्वत बना देता है! और बड़ा जादू क्या होगा? नर्क को महाआनंद में रूपांतरित कर देता है! और बड़ा जादू क्या होगा?
बुद्ध ने कहा. ध्यान के जादू से। और तब उन्होंने बंदी की ओर उन्मूख होकर ये गाथाएं कहीं।

तसिणाय पुरक्‍खता पजा परिसप्‍पन्‍ति ससोव बाधितो।
सज्‍जोजनसंगसत्‍ता दुक्‍खमुपेन्‍ति पुनप्‍पुनं चिराय ।

 'तृष्णा के पीछे पड़े प्राणी बंधे खरगोश की भांति चक्कर काटते हैं। संयोजनों में फंसे लोग पुनः—पुन: चिरकाल तक दुख पाते हैं।'
यो निब्‍बनथो वनाधिमुत्‍तो वनमुत्‍तो बनमेव धावति।
तं पुग्गलमेव पस्‍सथ मुत्‍तो बंधनमेव धावति ।।

 'जो सांसारिक बंधनों से छूटकर एकांत में वास करता है और फिर एकांत को छोड़कर संसार तृष्णा के वन की ओर दौड़ता है, उसके लिए क्या कहा जाए! यही कहा जाए कि वह मुक्त होकर भी बंधन की ओर जा रहा है!'
ये उस कैदी से कहे गए वचन हैं।

 न तं दल्‍हं बंधनमाहु धीरा यदायसं दारूजं बब्‍बजज्‍च।
सारत्‍तरत्‍त मणिकुण्‍डलेसु पुत्‍तेसु दारेसु च या अपेक्‍खा ।।

 'जो लोहा, लकड़ी या रस्सी का बंधन है, उसे बुद्धिमान पुरुष दृढ़ बंधन नहीं कहते हैं। वस्तुत: दृढ़ बंधन तो मणि, कुण्डल, पुत्र और स्त्री के प्रति इच्छा का होना
इच्छा ही बांधती है। इच्छा ही बंधन है। जो तृष्णा में है, वह कारागृह में है। जो कहता है यह मुझे मिल जाए, यह मुझे मिल जाए; यह मिलेगा, तो मैं सुखी होऊंगा यह नहीं मिलेगा, तो मैं दुखी होऊंगा—ऐसी जिसकी अपेक्षा है, वह बंधन में है, वह सदा दुख में ही रहेगा।
तृष्णा का अर्थ है जैसा मैं हूं जो मैं हूं इससे मेरी तृप्ति नहीं। कुछ और चाहिए। सदा कुछ और चाहिए! और ऐसा नहीं कि कुछ और .मिलने से तृप्ति हो जाएगी! जो भी तुम्हारे पास होगा, उसी से तृप्ति नहीं होती। जो पास हो गया, उसी से अतृप्ति हो जाती है। जो दूर है, उसमें तृप्ति दिखायी पड़ती है। दूर के ढोल सुहावने। वह सदा दूर मालूम पड़ता है सुख। जैसे —जैसे पास आते जाते हो, दुख होता जाता है। जो मुट्ठी में आ जाता है, वही व्यर्थ हो जाता है। यह तृष्णा की आदत है। जो मिल जाए, व्यर्थ, और जो नहीं मिला है, वही सार्थक।
ऐसा आदमी कैसे सुखी होगा? ऐसे आदमी ने तो दुख का बिलकुल पूरा इंतजाम कर रखा है। जब मिलेगा, तो अर्थहीन हो जाएगा, और जब तक नहीं मिला है, 'तब तक उसमें सुख मिलता है! जब तक नहीं मिला है, सुख कैसे मिल सकता है? सिर्फ आशा, कल्पना, सपना! और जब मिलता है, तब सब सुख समाप्त हो जाता है।

एतं दल्‍हं बंधनमाहु धीरा ओहारिनं सिथिलं दुप्‍पमुज्‍च।
एतप्‍मि छेत्‍वान परिब्‍बजन्‍ति अनपेक्‍खिनो कामसुखं पहाय ।।

 'धीर पुरुष इसी को दृढ़ बंधन कहते हैं, जो शिथिल होकर भी मनुष्य को गिराता है और जिसे तोड़ना कठिन है। धीर पुरुष अपेक्षारहित होकर तथा काम—सुखों को छोड़कर इस बंधन को तोड़ते हैं और प्रव्रजित होते हैं।'
जो समझदार है, धीर है, जो बुद्धिमान है, वह इस सत्य को देख लेता है कि तृष्णा की दौड़ में सिर्फ नए—नए नर्क निर्मित होते हैं। जो धीर है, जो बुद्धिमान है, वह इस सत्य को देख लेता है कि मैं जैसा हूं, जहां हूं, उसी में तृप्त हो जाऊं, तो यहीं स्वर्ग बरस जाता है।
तुम जरा प्रयोग करके देखो। ये बातें प्रयोग की हैं। तुम जो हो, जैसे हो, जहां हो, एक क्षण को सम? स्वीकार कर लो कि इससे अन्यथा की मेरी कोई चाह नहीं। अचानक तुम पाओगे आकाश खुल गया, बादल छंट गए। अचानक तुम पाओगे. दुख नहीं रहा। दुख हो कैसे सकता है फिर! उस संतुष्टि में दुख समाप्त हो जाता है।
स्वर्ग तुम बनाते, नर्क तुम बनाते। नर्क तुम बनाते तृष्णा से; तृष्णा से मुक्त होकर स्वर्ग बन जाता है। तुम्हारी मर्जी; तुम अगर नर्क ही चाहते हो, तो बनाते रहो, लेकिन फिर रोओ मत। फिर कहो मत कि मैं दुखी क्यों हूं! फिर तुम्हारा संकल्प है। फिर तुम्हारी स्वतंत्रता है। फिर कहो मत कि दुखी क्यों हूं!
लेकिन मजा यह है कि दुख तुम निर्मित करते हो और फिर रोते—चिल्लाते हो कि मैं दुखी क्यों हूं! जैसे कि कोई और का जिम्मा है तुम्हें सुखी करने का! मंदिर में जाकर भगवान को कहते हो कि मुझे सुखी बनाओ। मैं दुखी क्यों हूं? मुझे दुखी क्यों बनाया? जैसे उसका जिम्मा है!
कोई जिम्मेवार नहीं है। बुद्ध के इस वचन को स्मरण रखना तुम्हारे अतिरिक्त और कोई जिम्मेवार नहीं है। तुम जो हो, तुम्हीं जिम्मेवार हो। यह सत्य तुम्हारे हृदय में बैठ जाए, तो इसी क्षण क्रांति शुरू हो जाए। तब तुम दुख के जिम्मेवार हो। अगर तुम दुख ही चाहते हो, दुख बनाए चले जाओ। कोई तुम्हें रोकता नहीं। तुम्हारी स्वतंत्रता परम है।
अगर तुम सुख चाहते हो, तो इस सत्य को समझो कि दुख कैसे पैदा होता है! तृष्णा से पैदा होता है। तुम्हारे पास दस हजार रुपए हैं, तो तुम दुखी। क्योंकि तुम कहते हो, जब तक लाख न हो जाएं, कोई कैसे सुखी हो सकता है! लाख हो जाएंगे, तुम सोचते हो, सुखी हो जाओगे! जब लाख हो जाएंगे, तब दस लाख मन मांगेगा, क्योंकि मन का अनुपात वही रहेगा। दस हजार था, तो लाख मांगता था—दस गुना। जब लाख हो जाएंगे, मन दस लाख मांगेगा। फिर तुम दुखी रहोगे।
तुम्हारे और मन की अपेक्षा में कभी तालमेल होने वाला नहीं है। दस लाख हो जाएंगे, तो फिक्र मत करना तुम कि कुछ फर्क पड़ने वाला है। करोड़ मांगेगा मन। मन का अंतर उतना ही रहेगा। मन तुम से आगे छलांग लगाता हुआ चलता है। तुम जहां हो, वहां से दस कदम आगे होगा। वह कहेगा यहां आ जाओ, तो सुख हो जाएगा। मन तुम्हारे दुख को बनाए चला जाता है। तुमसे दस कदम आगे होता है, तुम हमेशा लक्ष्य से दस कदम पीछे होते हो, इसलिए दुख है। दस कदम पीछे का दुख! अब क्या करें?
एक ही उपाय है कि तुम जहां हो, वहीं उसी अवस्था को स्वीकार कर लो। बुद्ध उसे कहते हैं —तथाता। स्वीकार कर लो। जैसा है, ठीक है।
और यह ठीक है—ऐसा किसी जबर्दस्ती से मत कर लेना, नहीं तो कुछ फायदा नहीं। भीतर तो मन जाल बुनता ही रहेगा। इसलिए धीरता से, समझ से, बुद्धि से, प्रज्ञा से, समझकर रुकना।
नहीं तो अक्सर लोग सांत्वना कर लेते हैं कि ठीक है। अब जो नहीं मिलता, जाने दो। अपनी सामर्थ्य भी नहीं है। अब ज्यादा झंझट में कोन पड़े? जितना है, इतने से राजी हो जाओ। मगर यह सांत्वना है, संतोष नहीं। सांत्वना में तुम सुखी न हो जाओगे। तुम असंतोष के नए रास्ते खोज लोगे।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम सब तरह से संतोष में जीते हैं, फिर भी सुख नहीं है!
अब यह हो ही नहीं सकता। यह असंभव है। जैसे आग गरम है, उसका स्वभाव है। ऐसे संतोष का स्वभाव सुख है। यह हो ही नहीं सकता।
वें कहते हैं हम संतोष में जीते हैं, लेकिन फिर भी सुख नहीं है। और बेईमान सुरत। है। और चोर, और तस्कर, और राजनेता, सब तरह के बेईमान मजा कर रहे हें, और हम संतोषी! और हम भगवान की पूजा भी करते. हैं, भजन भी करते हैं। चोरी नहीं करते। झूठ नहीं बोलते। बेईमानी नहीं करते। किसी को धोखा नहीं देते।
किसी से झंझट नहीं लेते। अपने रास्ते आते, अपने रास्ते जाते। और हम सुखी नहीं हैं? तो 'क्या कारण होगा?
सांत्वना को ये संतोष समझ रहे हैं। इनका इरादा यह है कि बेईमान को जो बेईमानी करने से मिल रहा है, वह इनको संतुष्ट होने से मिलना चाहिए! तो फिर बेचारा बेईमान इतना कष्ट मुफा ही भोग रहा है! तुम कष्ट भी नहीं भोगना चाहते, उपलब्धि भी वही करना चाहते हो जो बेईमान कर रहा है।
तुम चाहते हो कि हम अपने घर में भजन—कीर्तन करते हैं, हम को लोग प्रधानमंत्री क्यों नहीं बनाते! मोरारजी भाई को क्यों बनाते हैं? तो बयासी साल हजार तरह की झंझटें भी झेलनी पड़ती हैं। कितनी धक्का—मुक्की! कहां —कहां से खींचे जाते! कहां —कहां से निकाले जाते! कहीं कामराज योजना, कहीं कुछ, कहीं कुछ!
मगर कुछ लोग जिद्द ही कर लेते हैं। वे कहते हैं चाहे सौ—सौ जूते खाएं, तमाशा घुसकर देखेंगे, पर देखेंगे। चाहे कितनी पिटाई हो, मगर जाकर बीच में ही तमाशा देखना है।
तुम चाहते हो कि तुम अपने घर में बैठे रहो और शंकरजी के सामने घंटी बजाते रहो और तुम को लोग प्रधानमंत्री बना दें। नहीं बनाते, तो तुम कहते हो, बड़ा धोखा हो रहा है। मुझ जैसा सीधा—सादा आदमी, विनम्र चित्त, निरअहंकारी और ये मगरूरजी भाई देसाई! ये प्रधानमंत्री? और मैं विनम्र, निरअहंकारी, अपने घर में बैठा हनुमान चालीसा पढ़ता हूं और कुछ करता भी नहीं हूं। मुझे लोग प्रधानमंत्री क्यों नहीं बना रहे हैं?
अब तुम परेशान हो। तुम्हारी परेशानी. तुम ने सांत्वना को संतोष समझा। इरादे तुम्हारे भी अच्छे नहीं हैं। हनुमान चालीसा भी तुम गलत इरादे से पढ़ रहे हो। तुम सोचते हो कि शायद हनुमानजी कंधे पर बिठाकर तुम को दिल्ली ले जाएं!
संतोष बड़ी और बात है। संतोषी दुख जानता ही नहीं। क्योंकि संतोषी की अपेक्षा नहीं है। अपेक्षा की छाया है दुख। अपेक्षा गयी, तो दुख गया।
संतोषी केवल सुख ही जानता है। और जैसे —जैसे संतोष बढ़ने लगता है, वैसे —वैसे सुख महासुख होने लगता है।
'धीरपुरुष इसी को दृढ़ बंधन कहते हैं—तृष्णा को—जो शिथिल होकर भी मनुष्य को गिराती है, जिसे तोडना कठिन है। धीरपुरुष अपेक्षारहित होकर तथा काम—सुखों को छोड़कर इस बंधन को तोड़ते और प्रव्रजित होते हैं।'
ऐ रागरत्‍तानुपतन्‍ति सोतं कतं मक्‍टटक्‍कोव जालं।  
एतम्‍पि छेत्‍वान बजन्‍ति धीरा अनपेक्‍खिनो सब्‍बदुक्‍खं पहाय ।।

'जो रण में अनुरक्त हैं, वे अपने बनाए स्रोत में वैसे ही फंस जाते हैं, जैसे

 तृष्णा मकड़ी अपने बनाए जाले में फंस जाती है। धीरपुरुष इस स्रोत को छेदकर और सब दुखों को छोड़कर आकांक्षारहित हो प्रव्रजित होते हैं।'
दूसरा दृश्य:

राजगृह में प्रतिवर्ष एक विशेष समारोह में नटों के खेलों का आयोजन होता था। एक बार जब नटों का खेल हो रहा था तब राजगृह नगर के श्रेष्ठी का उग्गसेन नामक पुत्र एक नट— कन्या के खेल को देखकर उस पर मोहित हो उसी से अपना विवाह कर नटों के साथ हो लिया। वह उनके साथ घूमते हुए थोडे ही वर्षों में नट— विद्या में निपुण हो गया। फिर एक उत्सव में भाग लेने वह भी राजगृह आया। उसका खेल देखने स्वभावत: हजारों लोग इकट्ठे हुए। वह नगर के सब से बड़े सेठ का बेटा था—— नगरसेठ का बेटा था।
उस दिन जब भगवान भिक्षाटन को निकले तो श्रेष्ठीपुत्र उग्गसेन साठ हाथ ऊंचे दो भवनों के बीच में बंधी रस्सी पर चलकर अपना खेल दिखाना शुरू करने ही वाला था। लेकिन भगवान को देखकर सभी दर्शक उग्गसेन की ओर से मुख मोड़कर भगवान को देखने लग गए! उग्गसेन उदास हो बैठ रहा।
भगवान ने उसे उदास देख महामौद्गल्यायन स्थविर से कहा मौद्गल्यायन। उग्गसेन को कहो कि अपना खेल दिखाए। बेचारा उदास और दुखी होकर बैठ गया!
फिर भगवान ने उसे प्रसन्न करने को कहा. मैं भी देखूंगा उग्गसेन! तू खेल दिखा।
फिर उग्‍गसेन खूब प्रसन्न होकर साठ हाथ ऊंची बंधी रस्सी पर स्वयं को सम्हालने के नाना प्रकार के खेल दिखाने लगा। तब शास्ता ने कहा. उग्गसेन ये खेल अच्छे हैं। लोगों का मनोरंजन भी करेंगे। लेकिन मनोरंजन से होता क्या! जब तक मनोभंजन न हो। सार तो इनमें जरा भी नहीं है। मनोरंजन में ही तो जीवन व्यर्थ गए। और यह जीवन भी व्यर्थ चला जाएगा। तू तमाशा दिखाते— दिखाते तमाशे में ही समाप्त हो जाएगा? सार इनमें जरा नही उग्गसेन।
जितने समय में तूने स्वयं को रस्सी पर सम्हालना सीखा इतने समय में तो तू घ्‍यान पर अपने को सम्हाल लेता। और रस्सी पर सम्हलकर कहां पहुंचेगा? चेतना में सम्‍हल। वह तुझे जीवन— मरण के पार ले जाता अगर ध्यान में सम्हल जाता।
उग्ग्सेन बुद्धिमान व्यक्ति को समय से मुक्त हो परम सत्य में लीन होना सीखना चाहिए। तू मेरे पास आ। मैं तुझे वह परम कला और परम कीमिया सिखाऊंगा। और तब भगवान ने यह गाथा कही :

मुज्‍च पुरे मुज्‍चपच्‍छतो मज्‍झे मुज्‍च भवस्‍स पारगू।
सब्‍बत्‍थ विमुत्‍तमानसो न पुन जतिजरं उपेहिसि ।।

'भूत को छोड़ो, भविष्य को छोड़ो और वर्तमान को भी छोड़ो—इस तरह इन्हें छोड़कर संसार के पार हो और मुक्त—मानस होकर तुम फिर जन्म और जरा को नहीं प्राप्त होओगे। '
उग्गसेन मेरे पास आओ, मैं तुम्हें परम कीमिया सिखाऊंगा।
पहले हम इस दृश्य को समझें।
राजगृह में प्रतिवर्ष एक विशेष समारोह में नटों के खेल का आयोजन होता था। एक बार जब नटों का खेल हो रहा था, तब राजगृह नगर के श्रेष्ठी का ऊगसेन नामक पुत्र एक नट—कन्या के खेल को देखकर उस पर मोहित हो उसी से अपना विवाह कर नटों के साथ हो लिया।
आदमी जिससे प्रेम करता है, वैसा ही हो जाता है। प्रेम सावधानी से करना। प्रेम अपने से श्रेष्ठ से करना। अपने से निकृष्ट से प्रेम करोगे, तो वैसे ही हो जाओगे। प्रेम रसायन है। जिससे प्रेम करोगे, वैसे ही हो जाओगे।
तुमने देखा जो लोग धन को प्रेम करते हैं, उनके चेहरे पर वैसा ही घिसा—घिसापन दिखायी पड़ने लगता है, जैसे घिसे सिक्कों पर दिखायी पड़ता है। जो लोग नोटों को प्रेम करते हैं, उनके चेहरे पर देखा! वैसे ही घिसे —पिटे नोट की हालत हो जाती है। गंदा! न मालूम कितने हाथों से गया! न मालूम कितने —कितने हाथों से उतरा।
जो आदमी जिसको प्रेम करता है, वैसा ही हो जाता है। कहानियां तुमने पढ़ी होंगी कि जब कोई धनी मरता है, तो सांप होकर अपने खजाने पर बैठ जाता है। वह पहले ही से सांप था। तुम मरने के बाद की बात कर रहे हो! वह पहले ही से सांप बना बैठा था फन मारे। उसका कोई और काम नहीं था।
धनी धन को भोगता थोडे ही है, धन की रक्षा करता है। भोगने की क्षमता ही खो जाती है! भोगने के लिए तो धन को छोड़ने की कला चाहिए।
दो फकीर एक नदी के पास आकर रुके। उनमें एक फकीर सदा कहता था कि धन में कुछ सार नहीं। धन बिलकुल बेकार है। और कभी धन पास नहीं रखता था। और दूसरा फकीर कहता था वक्त पर जरूरत पड़ सकती है। कभी बीमारी है, कभी झंझट है, कभी अड़चन है, कभी यात्रा है, कभी भोजन की जरूरत है। थोड़ा साथ रखना चाहिए। धन काम का है।
दोनों नदी के किनारे आकर रुके। सांझ होने के करीब है। और उस पार जाना जरूरी है। और जो मांझी है, वह कहता है कि एक रुपए से कम नहीं लूंगा। क्योंकि मैं थका —मादा हूं और यह मैं आखिरी बार जा रहा हूं। फिर अब मै दुबारा आऊंगा नहीं। दिनभर हो गया मेहनत करते —करते।
तो जिस फकीर के पास रुपए थे, उसने एक रुपया दिया। वे दोनों फकीर नदी पार कर लिए। जब नाव से उतरे तो जिसके पास रुपया था, उसने कहा. अब कहो! अब अपने विवाद का निर्णय कर लो। अगर आज यह रुपया मेरे पास न होता, तो हम उसी तरफ रह गए होते। वहां जंगली जानवरों का भय है। रात बचना मुश्किल था। नदी पार उतर गए, तो अब बच जाएंगे। अब धर्मशाला पहुंच जाएंगे। गांव आ गया। अब निश्चित होकर रात सो लेंगे। तुम क्या कहते हो?
वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा हम धन के कारण नहीं उतरे। तुम धन दे सके उसको, एक रुपया दे सके, इस कारण उतरे। रुपया होने से नहीं उतरे, क्योंकि होने से क्या होता था! अगर तुम देने को राजी न होते। उतर सके देने के कारण। विवाद फिर अपनी जगह खड़ा हो गया!
धनी तो अक्सर धन को भोग नहीं पाता। क्योंकि धन भोगना हो, तो धन को भी देना पड़ता है। उपनिषदों में परम वचन है तेन त्यक्तेन भुजीथा:, जिन्होंने छोड़ा, उन्होंने भोगा। संसार में भी धन छोड़ो, तो ही भोग सकते हो। यहां छोड़ना ही भोगने का सूत्र है।
मगर ध्यान रखना. जो धन इकट्ठा करने लगता है, वह खुद ही धन जैसा जड़ हो जाता है। जो पद की आकांक्षा में रहता है, उसका अहंकार घना होता चला जाता है। तुम जो चाहोगे, वही हो जाओगे।
अब यह उग्गसेन नगर श्रेष्ठी का पुत्र था, सब से बड़े धनी का पुत्र था। राजगृह बिहार की सब से धनी नगरी थी। उस सब से धनी नगरी के सब से बड़े धनी का बेटा था। लेकिन एक नट—कन्या, एक मदारी की लड़की के प्रेम में पड़ गया, तो मदारी हो गया।
ये छोटी—छोटी कहानियां बडी सूचक हैं, बड़ी मनोवैज्ञानिक हैं। इनको तुम ऐसे ही पढ़ लोगे, तो इनका मजा, इनका स्वाद तुम्हें नहीं आएगा। इनमें धीरे— धीरे उतरना। तुम जरा गौर करना। तुमने जिससे दोस्ती की है, आखिर में तुमने पाया नहीं कि तुम उसी जैसे हो गए?
दोस्ती की तो बात छोड़ो, किसी से दुश्मनी भी अगर कर ली, तो भी उस जैसे हो जाओगे। क्योंकि उसी का चिंतन करोगे। उसी का हिसाब रखोगे। वह कैसी चालें चल रहा है, वैसी चालें तुम चलोगे। उस से कैसे रक्षा करनी, इसका विचार करते रहोगे। सदा उसका विचार करते —करते तुम भी उस जैसे हो जाओगे। दुश्मन भी एक जैसे हो जाते हैं। क्योंकि दुश्मनी भी एक ढंग की दोस्ती है।
नट—कन्या के खेल को देखकर उस पर मोहित हो उससे विवाह कर नटों के साथ हो लिया।
सुसंस्कृत परिवार का बेटा, ऐसे गांव—गांव घूमने वाले सडक—छाप मदारियों के साथ हो गया!
मोह गिराता है। मोह उठा भी सकता है। अगर बुद्ध जैसे व्यक्ति से मोह हो जाए, तो तुम्हारी आंखें आकाश की तरफ उठने लगीं। तुमने जमीन पर सरकना बंद कर दिया। बुद्ध को देखने के लिए ऊपर देखना पड़ेगा, चांद—तारों की तरफ देखना पड़ेगा। जब मैसूर को सूली हुई, वह खिलखिलाकर हंसने लगा। और किसी ने भीड़ में से पूछा कि मंसूर! तुम्हारे हंसने का कारण? क्योंकि तुम मर रहे हो!
ऊंचे खंभे पर उसे सूली लगायी जा रही थी। मंसूर ने कहा कि मैं इसलिए खुश हूं कि एक लाख आदमी मुझे देखने इकट्ठे हुए हैं। और एक लाख आदमियों की आंखें पहली दफे थोड़ी ऊपर उठीं, क्योंकि मुझे देखने के लिए इस ऊंचे खंभे की तरफ देखना पड़ रहा है। यही क्या कम है कि तुम्हारी आंखें जमीन में गड़ी—गडी रही हैं सदा, आज चलो मेरे बहाने ऊपर उठीं! और हो सकता है कि मुझे देखकर तुम्हें परमात्मा की थोड़ी याद आए! और मेरे आनंद को देखकर तुम्हें याद आए कि परमात्मा जिसके साथ हो जाता है, वह मरने में भी खुश है। और परमात्मा जिसके साथ नहीं, वह जीवन में भी दुखी है। यह तुम भूल न सकोगे। तुम्हें मेरी मुस्कुराहट याद रहेगी, कभी—कभी तुम्हें चौंकाकी। कभी—कभी तुम्हारे सपनों में उतर आएगी। कभी—कभी शांत बैठे क्षणों में मेरी तस्वीर तुम्हें फिर—फिर याद आएगी। चलो, यही क्या कम है! मेरा इतना ही उपयोग हो गया। मरना तो सभी को पड़ता है। एक लाख आदमियों के दिल में मेरी तस्वीर टंगी रह जाएगी। शायद उन्हें परमात्मा की याद दिलाएगी।
जब तुम बुद्ध के प्रेम में पड़ते हो, तो धीरे — धीरे तुम में बुद्धत्व छाने लगता है। इसलिए साधु —संग की बड़ी महिमा है। उसका मतलब इतना है कि उनके प्रेम में पड जाना, जो तुम से आगे गए हैं। जो तुम से दो कदम भी आगे हैं, उनके प्रेम में पड़ जाना। कम से कम दो कदम तो तुम्हें आगे जाने में सहायता मिल जाएगी।
अपने से पीछे लोगों के प्रेम में मत पड़ना, नहीं तो तुम गिरोगे।
वह उनके साथ घूमते —घूमते थोड़े ही वर्षों में नट—विद्या में निपुण हो गया। और तो सीखता भी क्या! नट से प्रेम करोगे, नट हो जाओगे। नट हो गया।
फिर एक उत्सव में भाग लेने वह भी राजगृह आया।
लोक—लाज भी खो दी होगी। संकोच भी खो दिया होगा। यह भी फिकर न की कि उस गांव में मेरा पिता सब से बड़ा धनी है, प्रतिष्ठित है। राजा के बाद उसी का नंबर है। उस गांव में मैं मदारियों के खेल दिखाऊंगा—यह उचित है?
लेकिन एक समय आता है, जब तुम धीरे — धीरे बेशर्मी में भी ठहर जाते हो। वह भी जड़ हो जाता है। शर्म भी नहीं उठती; लज्जा भी नहीं उठती!
उसका खेल देखने स्वभावत: हजारों लोग इकट्ठे हुए।
खेल से ज्यादा तो उसको देखने इकट्ठे हुए—कि यह भी कैसा दुर्भाग्य! इतनी बड़ी संपत्ति, इतनी सुविधा, इतने संस्कार, इतनी सभ्यता में पैदा हुआ आदमी और इस तरह गिरेगा!
उस दिन जब भगवान भिक्षाटन को निकले, तो श्रेष्ठीपुत्र उग्गसेन साठ हाथ ऊंचे दो भवनों के बीच में बंधी रस्सी पर चलकर अपना खेल दिखाना शुरू करने वाला ही था—सब तैयारी हो गयी थी—लेकिन भगवान को देखकर सभी दर्शक उग्गसेन की ओर से मुख मोड़कर भगवान को ही देखने लगे।
बुद्ध की मौजूदगी! एक क्षण को लोग भूल गए तमाशा। एक क्षण को लोग भूल गए उग्गसेन को। एक क्षण को लोग भूल गए मनोरंजन को। यहां आ रहा है कोई, जिसका मन समाप्त हो गया। यहां आ रहा है कोई, जो दूसरे लोक की खबर लाता। यह प्रसादपूर्ण बुद्ध का आगमन, यह उनके पीछे भिक्षुओं का आगमन! यह बुद्ध का आकर अचानक वहां खड़े हो जाना! एक क्षण को लोग भूल ही गए। जहां इतना विराट घट रहा हो, वहां क्षुद्र की कोन चिंता करता!
उग्गसेन उदास हो बैठ रहा। भगवान ने उसे उदास देख अपने एक शिष्य महामौद्गल्यायन से कहा, मौद्गल्यायन! उग्गसेन को कहो, अपना खेल दिखाए। और मैं भी उसका खेल देखूंगा, प्रसन्न होकर दिखाए।
सदगुरु इस तरह के उपाय भी करता है। तुम्हें उठाना हो तुम्हारी भूमिका से, तो तुम्हारी भूमिका तक उसे आना पड़ता है। तुम्हें तुम्हारे खाई—खड्ड से निकालना हो, तो उसको भी अपने शिखर को छोड़कर तुम्हारे गड्ढे में आना पड़ता है।
उग्गसेन का पिता बुद्ध का शिष्य था। शायद बहुत बार रोया होगा बुद्ध के पास। शायद बहुत बार कहा होगा कि क्या होगा मेरे बेटे का! यह कैसा पतन हुआ!
और ध्यान रखना, उन दिनों के धनपति और आज के धनपतियों में बड़ा फर्क है। तुम जानते हो. सेठ शब्द उन दिनों के श्रेष्ठी शब्द से आया है। अब तो सेठ एक तरह की गाली है। उन दिनों श्रेष्ठी.......। जो व्यक्ति बडे श्रेष्ठ थे, वे ही कहे जाते थे श्रेष्ठी। जिनके भीतर एक आत्मिक संपन्नता थी। बाहर का धन तो ठीक था, जिनके पास भीतर का धन भी था।
इस उग्गसेन के पिता ने बुद्ध के लिए सारा धन बहाया था। कहते हैं. एक बार तो ऐसा हुआ था कि बुद्ध गांव आए। उनके ठहरने के लिए एक बगीचे को खरीदना था। लेकिन बगीचे को बेचने वाला दुष्ट और जिद्दी प्रकृति का था। उसने कहा, उतने रुपए में बेचूंगा, जितने रुपए मेरी जमीन पर बिछाओगे। पूरी जमीन ढंक जाए रुपयों से, उतने रुपयों में बेचूंगा।
यह हजार गुना मूल्य मांग रहा था; या लाख गुना मूल्य मांग रहा था। लेकिन उग्गसेन के पिता ने फिर भी वह बगीचा खरीद लिया। जमीन पर रुपए बिछाकर! जितने रुपए जमीन पर बिछे, उतने रुपए देकर।
एक महिमाशाली व्यक्ति रहा होगा। बुद्ध के पास रोया होगा बहुत बार इस बेटे के लिए। कहा होगा : कुछ करें। आप कुछ करें, तो ही अब कुछ हो सकता है। अब हमारे हाथ के बाहर की बात है।
शायद इसीलिए बुद्ध उस दिन गए। गए ताकि उग्गसेन को खींच लें। उग्गसेन का तमाशा देखा, सिर्फ इसीलिए कि उग्गसेन के भीतर बुद्ध के प्रति थोड़ा भाव पैदा हो जाए। जैसे कोई मछली को पकड़ने के लिए कांटे में आटा लगाता है न, ऐसे बुद्ध ने थोड़ा सा आटा लगाया काटे में। उग्गसेन फंस गया। बुद्ध जैसा व्यक्ति बंसी डाले, फंसो न तो क्या हो!
इसीलिए तो बुद्धपुरुषों के संबंध में यह बात लोक प्रचलित हो गयी कि उनसे लोग सम्मोहित हो जाते हैं; कि लोग उनके मेस्मेरिज्म में आ जाते हैं; कि लोग उनके हाथ में बंध जाते हैं। उनसे सावधान रहना, जरा दूर —दूर रहना। उनसे जरा बचकर रहना!
बुद्ध ने कहा. मैं भी तेरा खेल देखने आया उगसेन।
अब बुद्ध को क्या इस खेल में हो सकता है? सारे संसार का खेल जिसके लिए व्यर्थ हो गया, उसको किसी के रस्सी पर चलने में क्या सार हो सकता है?
लेकिन अगर उग्गसेन को अपनी तरफ लाना है, तो उग्गसेन की तरफ जाना होगा। तो गुरु कई बार शिष्य की भूमिका में उतरता है। कई बार उसका हाथ पकड़ने वहां आता है, जहां शिष्य है। अगर शिष्य वेश्यागृह में है, तो गुरु वहां आता है। और अगर शिष्य कारागृह में है, तो गुरु वहां आता है। इसके सिवाय कोई उपाय भी नहीं।
उग्गसेन अति आनंदित हो उठा। उसने तो यह सोचा भी नहीं था। ऐसा धन्यभाग कि बुद्ध और उसका तमाशा देखने आएंगे! इसका तो सपना भी नहीं देखा था! यह तो सोच भी नहीं सकता था। बुद्ध ने तो किसी का खेल कभी नहीं देखा। किसी का तमाशा कभी नहीं देखा।
उसने बहुत तरह के खेल दिखाए; बड़ी उमंग, बड़े उत्साह से।
तब शास्ता ने उससे कहा : उग्गसेन, ये खेल बड़े अच्छे हैं, लोगों का मनोरंजन भी करेंगे। लेकिन तमाशा आखिर तमाशा है। तमाशे में ही जिंदगी गंवा देगा? मनोरंजन तो ठीक है। असली बात तो तब घटती है, जब मनोभंजन होता है।
मनोरंजन तो मन की खुशामद है। वही तो अर्थ है मनोरंजन शब्द का—मन की खुशामद। मन पर मक्खन लगाना। वही मनोरंजन है—मन जो कहे, वैसा ही करते रहना। मन जहां ले जाए उसके साथ चले जाना। मन कहे शराबघर, मन कहे वेश्याघर, मन कहे सिनेमा, मन कहे यह, मन कहे वह; उसी के पीछे चलते रहना। इसी तरह तो संसार है। संसार का अर्थ होता है मन के पीछे चलना। चैतन्य को मन के पीछे चलाना अर्थात संसार।
मनोभंजन चाहिए, बुद्ध ने कहा। और यह भी कोई कला है! अगर कला ही दिखानी है, तो आ मैं तुझे सिखाऊं। रस्सी पर चलने में क्या रखा है? यह तो साठ हाथ ऊंची बंधी है न, मैं तुझे शिखरों पर चलना सिखाऊं, बादलों पर चलना सिखाऊं। मैं तुझे ध्यान में सधना सिखाऊं।
उससे ऊपर और कुछ भी नहीं है। कोई रस्सी उतने ऊपर नहीं बांधी जा सकती। और जो ध्यान में चलता है, उससे बडा कुशल कोई कलाकार नहीं है। क्योंकि ध्यान में अपने को साधना, ठीक रस्सी पर चलने जैसा ही है। बाएं गिरे, दाएं गिरे; पूरे वक्त सम्हालना पड़ता है। अब गिरे, तब गिरे। और खतरा हर वक्त! लेकिन ध्यान में जो सम्हल जाता है., एक दिन समाधिस्थ हो जाता है, फिर कोई गिरना नहीं है। तूने स्वयं को रस्सी पर सम्हालना सीखा, इतने समय में तो उग्गसेन, तू ध्यान भी सम्हाल सकता था!
जितनी देर में तुम धन कमाते हो, ध्यान भी कमाया जा सकता है। जितनी देर तुम संसार में लगाते हो, उतनी देर में परमात्मा भी पाया जा सकता है। इसी ऊर्जा से, इसी क्षमता से परम मिल सकता है। तुम क्षुद्र में गंवाते हो। कंकड़—पत्थर बीनते रहते हो, जब कि हीरे की खदानें बिलकुल पास थीं।
उग्गसेन! बुद्धिमान व्यक्ति को जीवन—मरण के पार जाने की कला सीखनी चाहिए। तू आ। मेरे पास आ। मैं तुझे वह परम कला और परम कीमिया सिखाऊंगा। क्या है वह परम कीमिया? वही इस सूत्र का अर्थ है।
'भूत को छोड़ो, भविष्य को छोड़ो, वर्तमान को भी छोड़ो।'
क्योंकि मन को छोड़ना हो—मनोभजन करना हो—तो समय को छोड़ना जरूरी है। मन है क्या? भूत की स्मृतिया, जो हो चुका उसकी स्मृतियों का जाल, स्मृति। और भविष्य की योजनाएं, भविष्य की कल्पनाएं, आकांक्षाए। वर्तमान की चिंता, फिकर।
अगर ठीक से समझो, तो मन और समय पर्यायवाची हैं। इसलिए जो भी ध्यान को उपलब्ध हुए, उन्होंने कहा कालातीत है ध्यान, समय के पार है ध्यान। मनातीत और कालातीत एक ही अर्थ रखते हैं।
तो बुद्ध ने कहा है ' भूत को छोड़, भविष्य को छोड़, वर्तमान को छोड—यह है असली कला—इस तरह इन्हें छोड़कर संसार के पार हो जा। मुक्त—मानस होकर, मन से मुक्त होकर, तू फिर जन्म और जरा को प्राप्त नहीं होगा। '
उग्गसेन को ऐसे वचन सुनकर बोध हुआ। और जैसे बिजली कौंधी, ऐसे भगवान के वचन उसके प्राणों में कौंधे। फिर उसने क्षणभर भी न खोया। वह रस्सी से उतर भगवान का भिक्षु हो गया। और जब मरा तो अर्हत्व को पाकर मरा। वह सच ही परम नट—विद्या को उपलब्ध होकर मरा। भगवान ने वचन पूरा किया।
इसमें एक बात, अंतिम बात समझ लेनी चाहिए।
यह आदमी था तो जुआरी। इसलिए मैं अक्सर कहता हूं. धर्म व्यवसायियों के लिए नहीं, जुआरियों के लिए है। यह आदमी था तो जुआरी। बाप की बड़ी संपत्ति, बाप का बडा उत्तराधिकार छोड़कर एक मदारी की बेटी के साथ हो लिया था। था तो आदमी हिम्मत का। गलत भी गया था, तो डरा नहीं था जाने में। दांव पर सब लगा दिया था। इस साधारण सी युवती के लिए, झोली टांगे हुए मदारी, गांव—गांव भटकते होंगे, इनके साथ हो लिया था राजमहल छोड़कर। था तो आदमी जुआरी, दाव पर लगा दिया था सब।
ऐसे आदमी बड़े काम के भी होते हैं! अगर कभी बुद्धपुरुषों से मिलना हो जाए, तो फिर वे देर नहीं करते। अगर नीचे जाने में सब दाव पर लगा सकते हैं, तो ऊपर जाने में क्यों दाव पर नहीं लगा सकेंगे!
दुकानदार हमेशा डरता रहता है। न नीचे जाता, न ऊपर जाता। जाता ही नहीं कहीं। यहीं कोल्‍हू के बैल की तरह घूमता रहता है। सोचता ही रहता है? करूं कि न करूं? इसमें फायदा कितना, हानि कितनी, लाभ कितना? इतना धन लगेगा! ब्याज भी मिलेगा कि नहीं मिलेगा? इससे सार क्या होगा? चिंता—फिकर में ही, हिसाब—किताब में ही, गणित बिठालने में ही समय बीत जाता है।
यह आदमी था तो जुआरी, बाप की सारी संपत्ति को लात मार दी। बाप ने कहा भी होगा शायद कि देख, तू क्या कर रहा है! दाने—दाने को मुहताज हो जाएगा! उसने कहा होगा कोई फिकर नहीं; जिससे लगाव हो गया, उसके साथ जाता हूं। आप अपनी संपत्ति सम्हालो। आपकी प्रतिष्ठा सम्हालो। मैं प्रतिष्ठा खोता हूं। धन खोता हूं। सब खोता हूं। लेकिन जिससे मोह हो गया, उसके साथ जाता हूं। मैं सब दाव पर लगाता हूं।
था तो आदमी हिम्मतवर, था तो साहसी। इसीलिए दूसरी घटना भी घट सकी। जब बुद्ध ने उसे पुकारा रस्सी पर खड़ा था। और जब बुद्ध ने कहा कि यह भी कोई कला है उग्गसेन! तू मेरे साथ आ, मैं तुझे असली कला सिखाता हूं। तू ध्यान में सम्हल जा। तू जीवन—मरण के पार हो जा।
बुद्ध ने फांस लिया। किया सम्मोहन! फेंका जाल। बुद्ध देखने क्या रुके, उग्गसेन को सदा के लिए अपने साथ ले गए।
उग्गसेन के मन में जैसे बिजली कौंध गयी। बात तो सच है। और उसे समझ में भी आ गयी यह बात—कि नटी के प्रेम में पडा, तो नट हो गया। काश! बुद्ध के प्रेम में पड़ जाऊं, तो बुद्धत्व मेरा है।
और दाव लगाने में तो कुछ था ही नहीं। अब दाव को कुछ था भी नहीं। यह तमाशागिरी थी, यह दाव पर लगती थी, लग जाए। और यह भी वह देख चुका था कि जो हजारों लोग देखने इकट्ठे हुए थे, जब बुद्ध आए, तो उसकी तरफ पीठ करके खड़े हो गए। तो मनोरंजन से मनोभंजन बड़ा है, इसका प्रत्यक्ष साक्षात्कार हो गया।
और उसने भी देखी होगी, बुद्ध की यह महिमा; बुद्ध का यह रूप; बुद्ध का यह प्रसाद; बुद्ध के साथ चलती यह शांति की हवा, यह आनंद की लहर, यह सुगंध! क्षण में बुद्ध का हो गया। उसी क्षण भिक्षु हो गया। सोचा भी नहीं। यह भी न कहा कि कल आऊंगा। कल कभी आता भी नहीं। यह भी न कहा कि सोचने का थोडा मौका दें।
नहीं; उतरा रस्सी से और चरणों में गिर गया। उस गिरने में ही क्रांति घट गयी। ऐसा जो समर्पण कर सकता है—एक क्षण में—बुद्धि को बिना बीच में लाए, उसका हृदय से हृदय का संबंध जुड जाता है।
वह बुद्ध का हो गया। बुद्ध उसके हो गए। जब मरा तो अर्हत्व को पाकर मरा। अर्हत्व का अर्थ होता है. जिसका ध्यान समाधि बन गया, अर्हत हो गया जो। जिसके सारे शत्रु नष्ट हो गए। काम, क्रोध, मोह, लोभ, तृष्णा—सब समाप्त हो गए। जिसके सब शत्रु समाप्त हो गए, जो सब के पार आ गया। ऐसे व्यक्तित्व को अर्हत्व कहा जाता है। अर्हत परम दशा है।
शास्त्र कहते हैं. वह सच ही परम नट—विद्या को उपलब्ध होकर मरा। बुद्ध ने जो वचन दिया था, वह पूरा किया गया था।
बुद्ध के वचन खाली नहीं जाते हैं। जिनमें हिम्मत है उनके साथ चलने की, वे निश्चित पहुंच जाते हैं।

 आज इतना ही।

1 टिप्पणी: