पीवत राम रस लगी खुमारी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
दिनांक: 12 जनवरी, सन् 1981
ओशो आश्रम पूना।
प्रवचन-दूसरा-(मुहूर्तं ज्वलितं श्रेयः)
पहला प्रश्न: भगवान,
महाभारत का यह सूत्र बिलकुल आपके दर्शन से मिलता
हुआ मालूम पड़ता है--
मुहूर्तं ज्वलितं श्रेयः,
न तु धूमायितं चिरम्।
"मुहूर्त भर जलना श्रेयस्कर है, बहुत समय तक धुआंना नहीं।'
यह कैसे संभव है, यह समझाने की अनुकंपा करें।
सहजानंद,
यह सूत्र निश्चित ही मेरी जीवन-दृष्टि को एक अत्यंत संक्षिप्त संकेत
में रूपांतरित कर देता है। जीवन है त्वरा का नाम, तीव्रता का नाम,
सघनता का नाम। जैसे कोई धूप की किरणों को इकट्ठा कर ले, एकाग्र कर ले तो तत्क्षण आग प्रज्वलित हो जाती है। वे ही किरणें बिखरकर
पड़ती हैं तो सिर्फ कुनकुनापन देती हैं; वे ही इकट्ठी हो जाती
हैं तो प्रज्वलित अग्नि पैदा हो जाती है।
जीवन भी दो ढंग से जीया जा सकता है: बिखरा-बिखरा, खंड-खंड, थोड़ा-थोड़ा, हिसाब-किताब
से, गणित के ढंग और रवैए से; और जीवन
यूं भी जीया जा सकता है--सघनता से, प्रगाढ़ता से। या तो
न्यूनतम ढंग से कोई जीए और या परिपूर्णतम ढंग से। जैसे सौ डिग्री पर पानी
वाष्पीभूत हो जाता है, ऐसी ही जीवन की भी एक सघनता है,
जहां अहंकार वाष्पीभूत हो जाता है; जहां मैं
और तू का मिलन हो जाता है; जहां बूंद सागर में समा जाती है
या सागर बूंद में समा जाता है।
लेकिन जो कुनकुने-कुनकुने जीते हैं उन्हें कभी इस बात का पता नहीं
चलता। वे जान ही नहीं पाते जीवन के नृत्य को, जीवन के उत्सव को;
उनकी जीवन की बगिया में कभी वसंत नहीं आता, फूल
नहीं खिलते, पक्षी गीत नहीं गाते। वे ऐसे जीते हैं जैसे न भी
जीते तो भी चलता। मरे-मरे जीते हैं। और कारण है उनका हिसाबी-किताबी, व्यवसायी मन। सोच-सोचकर कदम रखते हैं, फूंक-फूंककर
चलते हैं; बचाव की ज्यादा फिक्र है, जीने
की कम; सुरक्षा की ज्यादा चिंता है, अनुभव
की कम।
सूफी कहानी है। एक सम्राट ने महल बनाया और उसमें एक ही द्वार रखा; न कोई और खिड़की, न कोई और द्वार। क्योंकि कहीं खिड़की
से कोई चोर, कोई हत्यारा, किसी द्वार
से कोई दुश्मन प्रवेश कर जाए। और उस महल में वह अकेला ही रहता। अपनी पत्नी को भी
उस महल में प्रविष्ट नहीं होने देता था। क्या भरोसा, किसका
भरोसा? इस जगत में कौन अपना है? ऐसी
बड़ी ज्ञान की बातें भी करता था, लेकिन सारी ज्ञान की बातों
के पीछे था भय--मृत्यु का भय। जैसे कि सब तरह से सुरक्षित हो जाओगे, न दुश्मन आ सकेगा...मित्र ही न आ सकेगा तो शत्रु को आने की तो क्या
संभावना रह जाएगी? पत्नी ही न आ सकेगी, बच्चे ही न आ सकेंगे। तो क्या तुम सोचते हो मौत न आ सकेगी? मौत तो फिर भी आएगी ही आएगी। वह तो उसी दिन आ गई जिस दिन जन्म हुआ। अब
उसकी क्या चिंता? वह तो उसी दिन घट गई जिस दिन पहली सांस ली।
पहली सांस और आखिरी सांस में कुछ भेद नहीं। पहली ले ली तो आखिरी भी ले ही ली।
लेकिन सोच-विचार से चलने वाला आदमी था। एक दरवाजा रखा, वह भी बड़ा संकरा। बस अकेला आ सके भीतर और जा सके। और उस दरवाजे पर उसने
पहरों पर पहरे बिठाए। सात पंक्तियां थीं पहरेदारों की, क्योंकि
हो सकता है एक पहरेदार धोखा दे जाए; सो जाए, न दे धोखा; इधर-उधर चला जाए। तो दूसरा पहरेदार था उस
पर नजर रखने को। मगर दूसरे का भी क्या भरोसा; दोनों मिल जाएं,
सांठ-गांठ हो जाए, साजिश हो जाए। तो तीसरा
पहरेदार था। यूं सात पंक्तियां थीं, पहरे पर पहरा था।
पड़ोसी सम्राट उसका महल देखने आया। जब उसे खबर मिली तो स्वभावतः उसको
भी उत्सुकता जगी। सुरक्षा तो ऐसी ही होनी चाहिए। आया, देखकर बहुत प्रभावित हुआ और कहा मैं भी ऐसा ही महल बनवाता हूं। और जब अपने
पड़ोसी सम्राट को विदा करने इस महल का मालिक द्वार पर आया, उसे
रथ में बिठा रहा था और वह पड़ोसी सम्राट प्रशंसा किए जा रहा था उसके महल की,
ऐसी सुरक्षा उसने कभी देखी न थी--तभी सड़क के किनारे बैठा एक भिखारी
जोर से हंसने लगा। दोनों ने चौंककर उसकी तरफ देखा और कहा--तुम क्यों हंसे?
उसने कहा, कभी मैं भी सम्राट था और कभी मैंने भी सुरक्षा के
सारे आयोजन किए थे, सब व्यर्थ हो गए। और मैं तुमसे एक बात
कहूं कि अगर तुम सच में ही सुरक्षा चाहते हो, पूरी सुरक्षा
कि रंच मात्र भी भय न रह जाए, तो तुम महल के भीतर बंद हो जाओ
और यह दरवाजा भी बाहर से चुनवा दो। फिर कोई भी भीतर न आ सकेगा। अभी तो हवा का
झोंका आ जाता है, मौत इसी पर सवार होकर आ जाएगी। अभी तो सूरज
की किरणें आ जाती हैं, मौत उन पर ही सवार होकर आ जाएगी। इतना
और कर लो। मैं इसलिए हंसा कि तुमने सब इंतजाम तो किया, लेकिन
मौत इसी दरवाजे से आ जाएगी।
वह सम्राट बोला, अगर इस दरवाजे को भी चुनवा दूं,
पागल है तू, तो फिर मैं तो जिंदा रहते ही मर
गया। यह तो कब्र हो जाएगी।
वह फकीर और भी खिलखिलाकर हंसा। उसने कहा--कब्र तो यह हो ही गई, इसमें बचा क्या है? बस, एक
दरवाजा। एक दरवाजा होने से कहीं कब्र निवास बनती है? निन्यानबे
प्रतिशत तो कब्र हो ही गई; एक प्रतिशत बची है, उसको भी क्यों बचाते हो? और अगर इतनी तुम्हें समझ है
तो और दरवाजे भी खोलो, और खिड़कियां भी खोलो; क्योंकि जितने दरवाजे होंगे, जितनी खिड़कियां होंगी,
उतना जीवन होगा।
असुरक्षा में जीओ तो ही जी सकते हो। भय तो जीने नहीं देता। और भय ही
हिसाब लगवाता रहता है। तो लोग इस चिंता में ज्यादा होते हैं कि ज्यादा कैसे जीएं।
ज्यादा से उनका अर्थ होता है लंबाई, गहराई नहीं। और असली
में ज्यादा से अर्थ होना चाहिए--गहराई।
समय के दो आयाम हैं--एक लंबाई और एक गहराई। लंबाई यूं समझो कि अ से ब, ब से स, ऐसी पंक्तिबद्ध यात्रा। और गहराई यूं समझो
कि अ से और गहरा अ। अ--एक, अ--दो, अ--तीन,
अ--चार। अ में ही डुबकी। ब आता ही नहीं। गहराई अ पर ही समाप्त हो
जाती है। इसीलिए तो हमने उसको अक्षर कहा है। अक्षर, मतलब
जिसका कभी क्षय न हो। दुनिया की किसी भाषा में वर्णमाला को अक्षर नहीं कहा जाता,
सिर्फ हमने अक्षर कहा है। अ पर ही यात्रा पूरी हो गई। बस अ की ही
गहराई में जाना, ब तक जाना ही नहीं। ब तो क्षर है, स तो क्षर है।
जीसस का तुमने सूली का चित्र देखा, वह चित्र इसी बात का
प्रतीक है। ईसाई तो उस प्रतीक को समझ न पाए। सूली पर जीसस लटके हुए हैं, तो उनका धड़ तो खंभे पर है और उनके हाथ दूसरे खंभे पर। दो खंभों से ही तो
सूली बन जाती है। वस्तुतः सूली का प्रतीक भारत से ही जेरूसलम तक पहुंचा, जीसस ही ले गए। सूली का प्रतीक भारत के प्राचीनतम प्रतीक स्वस्तिक का अंग
है। स्वस्तिक का बीच का अंग, उसका आधारभूत हिस्सा। बस एक
लकीर खड़ी हुई और एक लकीर आड़ी। आड़ी लकीर समय की लंबाई की सूचक है और खड़ी लकीर समय
की गहराई की। या यूं कहो कि आड़ी लकीर है समय और खड़ी लकीर है शाश्वतता--अक्षर।
त्वरा में जीने का अर्थ है--ऐसे जीओ कि गहराई हो कि ऊंचाई हो। गहराई
हो प्रशांत महासागर जैसी, ऊंचाई हो गौरीशंकर जैसी। मगर हम यूं जीते हैं कि
हमारा जीवन एक सपाट रास्ते की तरह होता है; कोलतार की बनी
सीधी सड़क, न कोई ऊंचाई, न कोई निचाई।
इस सपाट जीवन में कैसे तो आनंद हो? इस सपाट जीवन में कैसे तो
उत्सव हो? इस कोलतार की सड़क पर कैसे तो गुलाब खिलें, कैसे तो बीज फूटें? यह कोलतार की सड़क तो एक अंत से
दूसरे अंत तक फैलती चली जाती है एक जैसी। इसमें कुछ भिन्नता भी नहीं, कोई वैविध्य भी नहीं। इसमें कोई आश्चर्य से भर देने वाला अनुभव भी नहीं।
तो मेरा संदेश क्षण में जीने का है--और क्षण में इतनी परिपूर्णता से
जीने का है, जैसे कि दूसरा क्षण कभी होगा ही नहीं; जैसे बस यही क्षण है। और सच में यही क्षण है, दूसरे
का क्या भरोसा है? आए न आए। बस यही क्षण है। इसको ही त्वरा
से जी लो, समग्र्रता से जी लो। मत कल के लिए स्थगित करो। मत
कहो कि कल जीएंगे। मत कहो कि सांझ जीएंगे। सुबह है तो सुबह जीओ। सांझ है तो सांझ
जीओ। जो हाथ में मिला है उसको पूरा का पूरा पी लो, उसमें डूब
जाओ। आएगा दूसरा क्षण तो उसमें भी डूब लेंगे; नहीं आएगा तो
हमारा खोता क्या है? हम इस क्षण को पूरा जी लिए। और एक क्षण
को भी जिसने पूरा जी लिया, उसने शाश्वत का स्वाद पा लिया। उस
स्वाद को चाहे धर्म कहो, चाहे प्रभु कहो, चाहे सत्य कहो--जो मर्जी हो, जो नाम प्यारा हो वही
दे दो।
महाभारत का यह सूत्र सारगर्भित है: मुहूर्तं ज्वलितं श्रेयः।
यूं जलो जैसे कि कोई मशाल को दोनों तरफ से एक साथ जला दे।
मुहूर्तं ज्वलितं श्रेयः।
एक मुहूर्त, मुहूर्त समय का छोटे से छोटा हिस्सा है। सेकंड भी
उतना छोटा नहीं। सेकंड को भी बांटा जा सकता है। इसलिए सेकंड सबसे छोटा हिस्सा नहीं
है। मुहूर्त कहते हैं हम क्षण के उस हिस्से को जो फिर अविभाज्य है; फिर जिसको बांटा न जा सके। वह परम अणु, परमाणु,
जिसके आगे फिर विभाजन असंभव हो जाता है। उस अविभाज्य मुहूर्त को
समग्रता से जी लो।
अब इसमें दो बातें खयाल रख लेने की हैं। एक तो जीवन की समग्रता बड़ी
चीज है, जैसे सागर। और मुहूर्त ऐसा छोटा है जैसे बूंद। बूंद
में सागर को उतर आने दो। मुहूर्त को ऐसे जीओ, जैसे बस यही सब
है। न पीछे कुछ, न आगे कुछ। न पीछे लौटकर देखो, क्योंकि उतने देखने में मुहूर्त विदा हो जाएगा। न आगे झांककर देखो,
क्योंकि उतने देखने में मुहूर्त विदा हो जाएगा। खींच लो अपने को
अतीत से। खींच लो अपने को भविष्य से। बस यहीं, इसी पल,
अभी। और तब तुम्हारे जीवन में पहली दफा सौ डिग्री तापमान पैदा होता
है। इतनी सघनता हो जाती है कि आ गया मधुमास, कि खिल उठेगा
कमल। सारी ऊर्जा आ गई। नहीं तो सब बिखरा-बिखरा है, खंड-खंड
है। कुछ हिस्सा बचपन में रह गया है, कुछ हिस्सा यौवन में रह
गया है, कुछ हिस्सा अधेड़ अवस्था में अटका रह गया है, कुछ बुढ़ापे तक चला आया है। कुछ अभी तुम यहां हो, आगे
जा चुका है। कुछ शायद मर भी चुका हो और कुछ शायद मृत्यु के पार स्वर्गों की या
मोक्षों की तलाश कर रहा हो। ऐसे फैले हुए जी रहे हो। इतने फैल जाओगे तो जीवन विरल
हो जाता है। तो स्वभावतः न्यूनतम पर ही जीते हो फिर। फिर चुल्लूभर पानी हो उसमें
डूबो भी तो कैसे डूबो!
मुहूर्तं ज्वलितं श्रेयः।
श्रेयस्कर है एक मुहूर्त में भभककर जल उठना।
न तु धूमायितं चिरम्।
ऐसे धुआं-धुआं होते रहो न मालूम अनंतकाल तक, चिरकाल तक क्या सार है? धुआं-धुआं ही होते रहो,
खुद की भी आंखें आंसुओं से भरेंगी और दूसरों की आंखें भी आंसुओं से
भर जाएंगी। और रोशनी तो होगी नहीं। सच तो यह है कि अगर धुआं न हो तो अंधेरा भी
बेहतर। और धुआं ही धुआं हो तो अंधेरा और बदतर हो जाता है। चले थे रोशनी की तलाश
में, अंधेरे को और विक्षिप्त कर लिया। धुआं-धुआं हो गया।
लेकिन लोग धुआं-धुआं ही जी रहे हैं।
इस धुंधुआती जिंदगी में कैसे तुम समझोगे कि अमृत भी छिपा है, आनंद भी छिपा है, मोक्ष भी छिपा है। नहीं भरोसा आता।
नहीं भरोसा आ सकता है। जीवन कोई प्रमाण तो देता ही नहीं। कहते होंगे बुद्ध और कहते
होंगे महावीर और कहते होंगे कृष्ण और क्राइस्ट और मोहम्मद, तो
कहने दो। ये दो-चार सिरफिरों के कहने से कुछ होने वाला है? अपनी
जिंदगी का अनुभव ही असली प्रमाण है। और अपने चारों तरफ जो हजारों-लाखों लोगों की
भीड़ है, करोड़ों की भीड़ है, इसका
प्रमाण। ये दो-चार सिरफिरे कहते हैं कि परम आनंद है, दुख
निरोध है, हजार-हजार सूरज उगते हैं, हजार-हजार
कमल खिल जाते हैं, शाश्वतता मिलती है, अमृत
की झड़ी लगती है। पागल हैं, कल्पनाप्रवण हैं। कवि होंगे। सपने
देखते होंगे।
और यूं नहीं कि साधारण आदमी ऐसा कहता है, बड़े विचारशील लोग, जैसे सिग्मंड फ्रायड जैसे
मनोवैज्ञानिक भी यही कहते हैं कि इन झक्कियों की बातों में न पड़ना, इनकी बातें बस मन के भुलावे हैं। बुद्ध और महावीर कहते हैं कि जगत
मृग-मरीचिका और सिग्मंड फ्रायड कहते हैं कि ये दो-चार सिरफिरे होंगे मृग-मरीचिका
में। यह करोड़ों-करोड़ों लोगों का अनुभव यही वास्तविक अनुभव है, यही हकीकत है। और यह मंसूर जिस हकीकत की बात करता है, कहता है अनलहक, कि मैं हूं वह हकीकत--सिर्फ सपनों
में भटक गया है, आत्म-सम्मोहित हो गया है। यह करोड़ों लोगों
का अनुभव, यह सही होना चाहिए।
इसलिए भला तुम बुद्ध की मूर्ति पूजते हो और सुबह उठकर कुरान पढ़ते हो
या कि चर्च जाते हो, कुछ फर्क नहीं पड़ता, तुम्हें
भरोसा नहीं आता। तुम्हारी जिंदगी में प्रमाण नहीं। तुम्हारी जिंदगी में धुआं ही
धुआं। और कृष्णमूर्ति कहते हैं: धूम्ररहित शिखा, स्मोकलेस
फ्लेम। धूम्ररहित शिखा! वह तो तुमने कभी जानी नहीं। धुएं सहित भी शिखा नहीं जानी,
बस धुआं ही धुआं उठता रहता है। गीली लकड़ी जलाओ तो धुआं उठता है।
जितनी गीली उतना धुआं उठता है। खयाल रखना, धुआं अग्नि का
हिस्सा नहीं है। आमतौर से लोग यही सोचते हैं कि धुआं उठता है अग्नि से। अग्नि से
नहीं उठता। अगर लकड़ी बिलकुल सूखी हो, उसमें जरा भी पानी न हो,
जरा भी आर्द्रता न हो तो धुआं नहीं उठता। धुआं उठता है लकड़ी में
पानी के कारण--गीली लकड़ी।
बुद्ध ने ठीक कहा है कि जब तक तुम्हारा मन वासना से गीला है तब तक
धुआं उठेगा। जिस दिन तुम वासना से मुक्त हुए, इच्छा से मुक्त हुए,
कल्पना से मुक्त हुए, यह आपाधापी गई मन की;
सूख गए, सूखे काष्ठवत हो गए--उस दिन शिखा ही
उठेगी--प्रज्वलित शिखा, धूम्ररहित। और वही प्रज्वलित शिखा
जीवन का परम धन है, परम अनुभव है।
तुमने एक बात खयाल की, पानी सदा नीचे की तरफ
बहता है और अग्नि सदा ऊपर की तरफ उठती है। वह उनका स्वभाव। एस धम्मो सनंतनो। यह
उनका धर्म है। पानी नीचे की तरफ बहता है। अपने आप तुमने कभी पानी को ऊपर चढ़ते देखा?
चढ़ाना हो तो बड़ी मेहनत करनी पड़ती है, श्रम
करना पड़ता है। बिना श्रम के नहीं चढ़ता। चाहे नल चलाओ, चाहे
कुएं से पानी भरो और पहाड़ी पर पानी चढ़ाना हो तो और मुश्किल हो जाती है। पानी नीचे
की तरफ बिना श्रम के बहता है। पहाड़ों से उतर आती है गंगा, किसी
को कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती। चढ़ाओ तो गंगा को पहाड़ पर, बड़ी
मुश्किल हो जाएगी।
एडीसन बहुत बड़ा वैज्ञानिक हुआ। उसने एक हजार आविष्कार किए, संभवतः किसी दूसरे आदमी ने इतने आविष्कार नहीं किए। लेकिन लोग बड़े हैरान
थे कि जब भी उसके घर में जाते थे, उसका दरवाजा खोलते थे
बगीचे का, तो बड़ा भारी। आखिर उसके एक मित्र ने कहा कि एडीसन,
तुमने इतने आविष्कार किए, कम से कम इतना तो
करो कि कुछ ढंग के स्प्रिंग बनाओ। यह कहां का तुमने बाबा आदम के जमाने का दरवाजा
लगा रखा है! इसको खोलने में इतनी मेहनत होती है।
एडीसन हंसने लगा। उसने कहा कि उस मेहनत का कारण है। एक बार कोई दरवाजा
खोलता है तो मेरी टंकी में पानी भर जाता है। कौन पंचायत करे भरने की। दिनभर लोग
आते-जाते रहते हैं, वे पानी भरते रहते हैं टंकी में। वह दरवाजा जो है,
ऐसा नहीं कि उसके स्प्रिंग खराब हैं या कोई और बात है, तुम्हें पता नहीं कि एक बार तुमने दरवाजा खोला कि मेरी पूरी टंकी पानी से
भर गई। वह उसका आविष्कार था।
पानी ऊपर चढ़ाना हो तो श्रम तो हो जाएगा। और आग को नीचे ले जाना बहुत
मुश्किल है। जलती हुई मशाल को तुम उलटा भी कर दो, तो भी आग ऊपर की तरफ
ही भागेगी। आग की लपट को नीचे की तरफ ले जाना बहुत मुश्किल है। उसके लिए फिर श्रम
करना पड़ेगा, आयोजन करना पड़ेगा। इन दोनों की प्रक्रिया अलग,
स्वभाव अलग, प्रकृति अलग। और लकड़ी में दोनों
छिपे हैं। लकड़ी में जल भी है और आग भी है। शायद आग के कारण ही वृक्ष ऊपर उठ पाता
है और जल के कारण ही उसकी जड़ें जमीन में गहरे पहुंच पाती हैं। तो वृक्ष में दोनों
का तालमेल है। आग उसे ऊपर की तरफ उठाती है। वे जो फूल खिलते हैं, आग के कारण खिलते हैं। इसलिए तो जब कभी जंगल में पलाश के फूल खिल जाते हैं
तो यूं लगता है जैसे पूरे जंगल में आग लग गई। पलाश के फूलों की जब पंक्तिबद्ध
खिलावट होती है, जब पूरा जंगल पलाश के फूलों से भर जाता है,
फूल ही फूल! और पलाश क्या फूलता है, कोई दूसरा
वैसा फूलना जानता नहीं। सब पत्ते झर जाते हैं, फूल ही रह
जाते हैं--तो सारा जंगल यूं लगता है कि आग पकड़ गया; लपटें उठ
रही हैं।
फूल आग का हिस्सा है। इसलिए बिना सूरज के फूल नहीं खिल सकेगा। तुम फूल
वाले पौधे को भी अगर ऐसी जगह लगा दो जहां सूरज न आता हो, तो पत्ते तो लग जाएंगे, लेकिन फूल न खिल पाएंगे। या
भूल-चूक से कुछ थोड़ी किरणें पहुंच भी जाती हों तो यूं मुर्झाए-मुर्झाए फूल
खिलेंगे। इसलिए तो कमरे के भीतर तुम गुलाब नहीं उगा सकते हो। सूरज चाहिए। फूल में
सूरज ही छिपा है। और जड़ें पानी की तलाश कर रही हैं, गहरी जा
रही हैं।
वैज्ञानिक बहुत चकित हुए हैं यह बात जानकर कि जड़ों को कुछ संवेदनशीलता
है कि पानी कहां है। जिस तरफ पानी है, जड़ें उसी तरफ जाती
हैं। इसलिए जो बहुत संवेदनशील लोग हैं, वे तो एक गीली टहनी
को वृक्ष की, हाथ में लेकर और चलते हैं और पता लगा लेते हैं
कि पानी जमीन में कहां है। वह जो गीली टहनी है, वह तत्क्षण
खबर दे देती है। मगर उसके लिए बहुत संवेदनशील लोग चाहिए। जो जल के खोजी होते हैं,
जो जमीन में जल खोजने का काम ही करते हैं, वे
एक गीली टहनी को, तत्क्षण तोड़ी गई वृक्ष की टहनी को हाथ में
ले लेते हैं और उसको बिलकुल आहिस्ता से पकड़ते हैं कि उस पर कोई जोर न पड़े और उसको
पकड़कर चलते जाते हैं। जहां वह टहनी झटका दे देती है, खबर दे
देती है उनके हाथ को, उनका संवेदनशील हाथ फौरन उस झटके को
पहचान लेता है। टहनी कह रही है कि यहां जल है। टहनी के भीतर छिपा हुआ जल जल की
भाषा को पहचानता है। वह नीचे, जमीन के नीचे, हो सकता है पचास फीट नीचे जल हो, मगर पचास फीट जमीन
की पर्तों को पार करके जल जल की भाषा पहचान लेता है। तत्क्षण टहनी खबर दे देती है
कि यहां जल है। ठिठक जाता है जल का खोजी। और सौ प्रतिशत सही साबित होते हैं जल के
खोजी। रेगिस्तानों में भी खोज लेते हैं; जहां कि दो सौ फीट
तीन सौ फीट गहरा पानी होगा वहां भी वृक्ष को कुछ अपनी अंतर-अनुभूति है।
एक वैज्ञानिक इसकी तलाश में लगा हुआ था, हैरान हुआ जानकर कि
बड़ के एक वृक्ष ने और कहीं पानी न था, तो अपनी जड़ों को सड़क
के उस पार पहुंचाया जहां से म्युनिस्पिल कमेटी का पाइप निकलता था। पाइप! वह तो बंद
है। वह तो सीमेंट का पाइप है, उसके भीतर जल जा रहा है। लेकिन
बड़ के वृक्ष को कहीं भीतरी कोई सूझ-बूझ है। कोई भीतरी प्रज्ञा है। जब वृक्ष खोदा
गया तो किसी तरफ उसकी जड़ें नहीं गई थीं, सारी जड़ें पाइप की
तरफ गई थीं और उन्होंने जाकर पाइप को फोड़ लिया था। तो वे पाइप के भीतर प्रविष्ट हो
गई थीं और पाइप से पानी ले रही थीं। चूंकि पानी वहां था नहीं और वृक्ष हरा हो रहा
था और वृक्ष बड़ा हो रहा था, इसलिए वैज्ञानिक उत्सुक हुए थे
कि इसको पानी मिल कहां गया, पानी यहां है नहीं। किसी को सूझा
भी न था कि वृक्ष भी होशियार होते हैं कि इसने पाइप खोज लिया म्युनिस्पिल कमेटी
का। न केवल खोज लिया, उसको तोड़ भी लिया। कोमल जड़ों ने सीमेंट
की पर्तों को तोड़कर उसके भीतर प्रवेश कर लिया है।
जल वृक्ष की जड़ों का हिस्सा है और आग वृक्ष के फूलों का हिस्सा है। आग
उसे ऊपर की तरफ ले जाती है, जल उसे नीचे की तरफ ले जाता है। और जब तुम लकड़ी जलाते
हो तो उसमें दोनों होते हैं। इसलिए तो अगर दो लकड़ियां सूखी हों तो दोनों के रगड़ने
से आग पैदा हो जाती है। सिर्फ रगड़ने से आग पैदा हो जाती है। वह आग पैदा करने का
पुराने से पुराना ढंग है। दो लकड़ियों को रगड़ा और आग पैदा हुई। मगर लकड़ियां होनी
चाहिए बिलकुल सूखी।
बुद्ध ने कहा है: मनुष्य में भी जब वासना...वासना नीचे की तरफ ले जाती
है और प्रार्थना ऊपर की तरफ ले जाती है। या कहो प्रेम। मोह और प्रेम। मोह नीचे की
तरफ ले जाता है; वह जलवत है। और प्रेम अग्निवत है; वह ऊपर की तरफ ले जाता है। प्रेम का ही अंतिम परिष्कार प्रार्थना है। और
मोह की अंतिम गहराई वासना है। मनुष्य में दोनों हैं--वासना भी है, प्रार्थना भी है। अगर वासनारहित हो जाए मनुष्य तो उसके जीवन में मुहूर्त
भर में ऐसी रोशनी प्रगट होती है ऐसी ज्वलंत कि एक मुहूर्त में वह सारे जीवन के सार
को पहचान लेता है, सारे जीवन का अर्थ अनुभव में आ जाता है।
और कुछ लोग हैं जो रहते हैं, जीते हैं, सौ-सौ वर्ष जीते हैं, मगर उनके हाथ राख भी नहीं लगती,
खाक भी नहीं लगती।
मैं क्षण में जीने का पक्षपाती हूं। मत जीवन को लंबाने की चिंता करो, जीवन को गहराओ।
मुहूर्तं ज्वलितं श्रेयः, न तु धूमायितं चिरम्।
क्या करोगे चिरकाल तक धुआं-धुआं होकर? चिरकाल से धुआं-धुआं
ही तो होते रहे हो। अब तो चौंको, अब तो जागो! और तुम्हारे
भीतर अग्नि छिपी है; वह सूत्र छिपा है जो तुम्हें उठा दे आकाश
की आखिरी ऊंचाइयों तक। तुम्हारे भीतर परमात्मा का गीत छिपा है।
योग प्रीतम की यह कविता--
ऐसा कोई गीत नहीं है, जिसमें तेरा राग नहीं हो
ऐसी कोई प्रीत
न, जिसमें तेरा
मदिर सुहाग नहीं
हो
इस जीवन की अंधियारी में
पूर्ण चंद्र-से तुम खिल आए
इस जीवन के सूनेपन में
तुमने ये मधुमास
जगाए
ऐसा रस बरसाया तुमने, जीवन नई बहार हो गया
ऐसा कोई फूल न, जिसमें तेरा मधुर पराग नहीं हो
ऐसा कोई गीत
नहीं है, जिसमें तेरा
राग नहीं हो
इस जीवन के हर नर्तन में
तेरी ही प्यारी रुनझुन है
इस जीवन में जो कीर्तन है
बस उसमें तेरी
ही धुन है
तुम हो इस जीवन के मधुवन, तुम ही हो प्राणों के
गुंजन
बिना तुम्हारे खेला जाए, ऐसा कोई फाग नहीं है
ऐसा कोई गीत नहीं है, जिसमें तेरा राग नहीं हो
ऐसी कोई प्रीत
न, जिसमें तेरा
मदिर सुहाग नहीं
हो
मेरे भावाकुल अंतस में
शोभित है शृंगार तुम्हारा
मेरा यह संन्यास तुम्हारा
मेरा यह संसार
तुम्हारा
मेरे मन के वृन्दावन में, निशि-दिन रास रचाते
हो तुम
ऐसी कोई लगन नहीं है, जिसमें तेरी आग नहीं हो
तुम हो इस जीवन के मधुवन, तुम ही हो प्राणों के
गुंजन
बिना तुम्हारे खेला जाए, ऐसा कोई फाग नहीं है
ऐसा कोई गीत
नहीं है, जिसमें तेरा
राग नहीं हो
वह तो छिपा पड़ा है तुम्हारे भीतर। चित्त चकमक लागे नहीं! बस जरा चित्त
को चकमक लगानी है, जरा सूखा करना है। जरा वासना की आर्द्रता कम करनी है।
और फिर तुम एक क्षण में प्रज्वलित हो उठोगे।
ठीक कहता है महाभारत का यह सूत्र। ज्वलित हो उठोगे, प्रज्वलित हो उठोगे। और वही श्रेयस्कर है। नहीं कि बहुत दिन जीए। लोग
कैसे-कैसे जी रहे हैं--सड़ रहे हैं और जी रहे हैं! जैसे जीना अपने आप में ही कोई
मूल्य है! गल रहे हैं, मर रहे हैं और जी रहे हैं! जैसे जीवन
का कोई अपने आप में अर्थ है! तुम इतने दिन तो जी लिए, क्या
यह बात भी समझ में नहीं आई कि बस सांस लिए जाने में ही कुछ अर्थ नहीं है? कि रोज भोजन खा लिया, कि रोज भोजन पचा लिया, इसमें ही कुछ अर्थ नहीं है? पचास वर्ष किया यह काम
कि सौ वर्ष किया यह काम कि डेढ़ सौ वर्ष किया यह काम, क्या
प्रयोजन है?
वैज्ञानिक चिंतित हैं कि आदमी को और कैसे लंबाएं। वैज्ञानिकों के
हिसाब से आदमी कम से कम तीन सौ वर्ष तो जी ही सकता है। भगवान न करे कि वे कहीं सफल
हो जाएं इस कार्य में। ऐसे ही आदमी परेशान है। सत्तर-अस्सी साल में ही इतना ऊधम
मचाता है, इतने उपद्रव करता है, तीन सौ
साल जीएगा तो बहुत कठिन हो जाएगा। और वैज्ञानिकों के तो और भी लंबे इरादे हैं। वे
तो कहते हैं, तीन सौ साल तो कम से कम जी ही सकता है। कम से
कम। सात सौ साल ज्यादा से ज्यादा जी सकता है। कोई उन्हें अड़चन नहीं मालूम पड़ती।
लेकिन करोगे क्या? सड़ते रहोगे। सात सौ साल जीकर
करोगे क्या? न मालूम कितनी पीढ़ियां इस बीच पैदा हो जाएंगी।
तुम्हारे बच्चों के बच्चों के बच्चों के बच्चे तुम्हें पहचानेंगे भी नहीं। कोई
परिचय भी न रह जाएगा। और इतने दिन जीने के बाद क्या यही खेल फिर भी सार्थक मालूम
होंगे? यही राजनीति, यही खिलौने,
यही धन, यही पद-प्रतिष्ठा, इसमें कुछ रस मालूम होगा? सत्तर साल में तो आदमी
किसी तरह भरमाए रखता है अपने को। भरमाए-भरमाए ही दिन बीत जाते हैं, रात आ जाती है। झूले से लेकर कब्र तक ज्यादा देर नहीं लगती। मगर सात सौ
साल तो बहुत कठिन हो जाएगा।
वैज्ञानिक सात सौ साल की बात कर रहे हैं। और जिन देशों में उम्र अस्सी
साल के औसत को पार कर गई है, वहां बूढ़े आत्ममरण की मांग कर
रहे हैं; आत्मघात का जन्मसिद्ध अधिकार होना चाहिए। और मैं भी
समझता हूं, उनकी बात में अर्थ है। और आज नहीं कल, दुनिया के विधानों में इसको जोड़ना ही पड़ेगा, क्योंकि
आज रूस में ऐसे सैकड़ों बूढ़े हैं जिनकी उम्र डेढ़ सौ वर्ष के करीब पहुंच गई है--जो
अब मरना चाहते हैं। मगर कैसे मरें? मरना गैर-कानूनी है। और
उससे भी बुरी हालत अमरीका में है।
अमरीका में ऐसे हजारों लोग हैं जो अस्पतालों में पड़े हैं, बिस्तरों पर पड़े हैं। न उठ सकते हैं, न बैठ सकते हैं;
मगर मर भी नहीं सकते। न जी सकते हैं, न मर
सकते हैं। कैसी दुविधा! अदालतों में मुकदमे चल रहे हैं, मरना
चाहते हैं, लेकिन अदालत आज्ञा नहीं देती, क्योंकि कानून नहीं है कोई। आत्महत्या की आज्ञा कैसे दी जाए? दवाइयों से उनको इंजेक्शन दिए जा रहे हैं, नलियों से
भोजन दिया जा रहा है। नलियों से मल-मूत्र निकाला जा रहा है। किसी का हृदय ठीक से
नहीं चल रहा है, तो मशीन चला रही है, बैटरी
से चल रहा है। किसी की सांस नहीं चल रही है, तो मशीन चला रही
है। अब सवाल यह है कि इस मशीन को बंद करना कि नहीं करना? और
बंद किया जाए तो वह कानूनी है या गैर-कानूनी? अगर इस मशीन को
बंद करते हैं तो हत्या का पाप लगेगा कि नहीं? यह अपराध होगा
कि नहीं? कौन बंद करे? डाक्टर बंद करे,
बेटे बंद करें, पत्नी बंद करे, कौन बंद करे? कौन झंझट ले? कुछ
लोग तो बेहोश हालत में पड़े हैं, उनको होश ही नहीं, इसलिए उनसे पूछने का भी सवाल नहीं है अब। अब उनकी हालत बिलकुल गाजर-मूली
जैसी है। आदमी अब उन्हें कहना ठीक भी नहीं है, गोभी के फूल
हो गए। गोभी के फूल से भी गए बीते, क्योंकि गोभी के फूल का
भी कुछ उपयोग है, कम से कम सब्जी बन सकती है, वे उस काम के भी न रहे। मगर कानून अधिकार नहीं देता मरने का। जरूर यह
अधिकार देना पड़ेगा। जैसे और जन्मसिद्ध अधिकार हैं, उन्हीं
में यह भी जोड़ना पड़ेगा, अथनाशिया का, आत्मघात
का जन्मसिद्ध अधिकार। बड़ा उलटा सा लगेगा देखने में। जन्मसिद्ध जीवन का अधिकार और
बात मरने की!
लंबे जीवन का यही परिणाम होने वाला है। गहन जीवन होना चाहिए। विज्ञान
लंबाने की कोशिश करता है और धर्म गहराने की। इसलिए विज्ञान से मैं कहूंगा कि जितने
दिन आदमी जीता है, स्वस्थ जीए इसकी फिक्र करो। लंबाने की चिंता में मत
पड़ो। परिपूर्ण स्वास्थ्य से जी सके, इसकी चिंता करो। और धर्म
इसकी चिंता करे कि यह स्वास्थ्य का उपयोग आदमी जीवन को गहराने में कैसे कर सके।
ध्यान से जीवन गहराया जा सकता है, विज्ञान से स्वस्थ
बनाया जा सकता है। विज्ञान के बिना जीवन स्वस्थ नहीं होगा और ध्यान के बिना जीवन
गहराई को नहीं पाएगा। विज्ञान बाहर से सहारा दे और ध्यान भीतर से, तो आदमी के जीवन में बड़ी क्रांति घट सकती है। एक-एक मुहूर्त एक-एक
शाश्वतता बन सकता है।
मैं तो जीवन को प्रेम करता हूं। मेरे लिए तो जीवन परमात्मा का ही
दूसरा नाम है--जीवन, उसके सारे रंगरूपों में। मैं पलायनवादी नहीं हूं। मैं
सारे पलायनवादियों का विरोधी हूं। और इसलिए तो पुरानी धर्म की जो जड़ आधारशिलाएं
हैं, उनको उखाड़ने में लगा हूं। क्योंकि उन सब में पलायन छिपा
हुआ है--भागो, छोड़ो! मैं कहता हूं: जीओ, जागो। भागो मत, छोड़ो मत। जो मिला है अवसर, उसका उपयोग करो।
ऐ काश कि सोजे-गम अश्कों में न ढल जाए
दामन से अगर पोछूं दामन मेरा जल जाए
हमको तो गुलिस्तां के हर गुल से मुहब्बत है
गुलचीं को जो नफरत हो, गुलशन से निकल जाए
हर खार हमारा है, हर फूल हमारा है
हमने ही लहू देकर गुलशन को संवारा है
हम डूबने वालों को, काफी ये सहारा है
साहिल पे तू आ जाना, हर मौज कनारा है
सौ जुल्म किए तुमने, इक आह न की हमने
वो दर्द तुम्हारा था, ये दर्द हमारा है
हम तश्नालबी अपनी दुनिया से छुपा लेंगे
साकी से रुसवाई अब हमको गवारा है
अब उनका हंसीं आंचल किस्मत में नहीं शायद
आंसू भी हमारे हैं, दामन भी हमारा है
खामोश फजाओं में बजने लगी शहनाई
ये तूने सजा दी है या दिल में उतारा है
आंखों में जब अश्कों के तूफान मचलते थे
हमने वो जमाना भी हंसऱ्हंस के गुजारा है
उनके लबे-नाजुक को क्या राज बताएंगे
कुछ तू ही बता ऐ दिल, क्या हाल हमारा है
आंसू भी हमारे
हैं दामन भी
हमारा है
यहां कांटे भी हमारे हैं, फूल भी हमारे हैं।
यहां जिंदगी के दुख भी हमारे हैं सुख भी हमारे हैं। क्योंकि सुखों से ही आदमी नहीं
सीखता, दुखों से और भी ज्यादा सीखता है। फूल तो भरमा भी लें,
कांटे जगा देते हैं।
हर खार हमारा है, हर फूल हमारा है
हमने ही लहू
देकर गुलशन को
संवारा है
और यह हमारी ही बगिया है। हम ही इसके मालिक हैं। बस इतनी ही बात घट
जाए--
हम डूबने वालों
को, काफी ये
सहारा है
बस इतना हो जाए--
साहिल पे तू
आ जाना, हर मौज
कनारा है
फिर कोई चिंता नहीं किनारे की। हम डूब जाएंगे मझधार में, फिर मझधार ही किनारा है। बस तू साहिल पर आ जाना। परमात्मा की झलक भर मिल
जाए, साहिल पर सही, फिर मझधार भी
किनारा है। उस प्रेमी की थोड़ी सी झलक मिल जाए। और वह झलक कभी भी मिल सकती है,
अभी भी मिल सकती है। मगर उसके लिए हमें अपने जीवन को फैलाव से
खींचना होगा; एक बिंदु पर थिर कर लेना होगा, हमें अखंड हो जाना होगा, खंड-खंड नहीं। और हमें एक
जीवन की पूरी शैली का आविष्कार करना होगा।
यूं समझो कि एक सीधी पंक्ति में जीना, लकीर में जीना,
लकीर के फकीर होकर जीना, लीक पर जीना, भीड़ के साथ जीना--संसार है। और गहराई में जीना, अ से
ब और ब से स की तरफ नहीं, अ से और गहरे अ की तरफ, और और गहरे अ की तरफ, अक्षर तक पहुंच जाने की डुबकी
संन्यास है। मुहूर्त को ही जीवन बना लेना संन्यास है। और कल जीएंगे, परसों जीएंगे--यह आकांक्षा संसार है।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
आजकल देश में धर्म के नाम पर जो सांप्रदायिक झगड़े
हो रहे हैं,
इनके विषय में आपका क्या कहना है?
एन. आर. बंसल,
इस छोटे से प्रश्न में बहुत सी बातें छिपी हैं। एक-एक बात को अलग-अलग
लेना होगा।
पूछा तुमने--"आजकल...।'
अक्सर लोगों को यह भ्रांति है कि ये धर्म के नाम पर जो उपद्रव हो रहे
हैं ये आजकल हो रहे हैं। ये सदा से हो रहे हैं। यह भ्रांति कब छूटेगी? ये अनंतकाल से हो रहे हैं। यह कोई आज का कसूर नहीं।
लोग इस तरह समझाने की कोशिश में लगे रहते हैं कि यह कलियुग है। हिंदू
कहते हैं यह कलियुग है, यह तो होगा ही। जैसे सतयुग में यह न होता था! सतयुग
में हालत और बदतर थी। आज तो कम से कम कोई प्रश्न भी पूछ सकता है, सतयुग में कोई प्रश्न भी नहीं पूछ सकता था। आज तो कम से कम इस पर
विचार-विमर्श हो सकता है। आज तो कम से कम मेरे जैसे सिरफिरे लोग बातों को
सीधा-सीधा कह भी सकते हैं। सतयुग में यह भी संभव नहीं था। जबानें काट ली जाती थीं,
कानों में सीसा पिघलाकर भर दिया जाता था। राम जैसे व्यक्ति ने एक
शूद्र के कान में सीसा पिघलवाकर भरवा दिया। क्या उसकी गति हुई, इसका तो पता नहीं, क्योंकि जब सीसा पिघलाकर कान में
भरा जाएगा तो कान तो फूट ही जाएंगे, शायद आंखें भी फूट जाएं;
क्योंकि कान, आंख, नाक,
सब जुड़े हैं। इसीलिए तो एक ही डाक्टर तीनों का काम करता है--नाक,
कान, आंख। और कान द्वार हैं मस्तिष्क के। अगर
कान फट गए और जलता हुआ सीसा, उबलता हुआ सीसा जब कानों में
जाएगा तो खोपड़ी के भीतर तक पहुंच जाएगा। मर ही गया होगा वह गरीब शूद्र। और यह
सतयुग की बात! और मर्यादा पुरुषोत्तम राम की कृपा!
धर्म के नाम पर मूर्खताएं सदा से होती रही हैं। फर्क इतना ही पड़ा है
कि आज हम सोचने लगे हैं कि वे मूर्खताएं क्यों होती हैं और तब लोग सोचते भी नहीं
थे, सहज स्वीकार करते थे। इतना ही फर्क पड़ा है। आदमी थोड़ा सोच-विचारशील हुआ
है।
जैन कहते हैं, यह पंचमकाल है, पंचमकाल में तो
यह सब होगा ही। तो महावीर के कान में किसने खीले ठोंक दिए थे? वह तो पंचमकाल नहीं था, तीर्थंकर मौजूद थे। और जैन
कहते हैं, जहां तीर्थंकर मौजूद होते हैं वहां बारह कोस की
परिधि में असमय फूल खिल जाते हैं। जरूर खिल जाते होंगे, लेकिन
इस आदमी को जरा भी सूझ न आई, यह कोई बारह कोस की दूरी से
थोड़े ही कान में खीले ठोंके होंगे उसने, यह तो बिलकुल पास
में खड़े होकर कान में खीले ठोंके होंगे। इसमें कुछ बोध न आया! वृक्षों को बोध आ
जाता है, फूल खिल जाते हैं और इस आदमी को कुछ बोध न आया!
महावीर को लोगों ने गांव-गांव भगाया, जंगली कुत्ते उनके पीछे
लगाए। उनका कसूर क्या था? यह कि वे नग्न थे। और नग्न होना
शोभादायक नहीं।
कुछ भेद नहीं पड़ा है। वही सब पागलपन। युधिष्ठिर ने--वे धर्मराज
थे--अपनी पत्नी को दांव पर लगा दिया। पहले तो पत्नी को पांच भाइयों ने बांट लिया।
यह भी खूब! कलियुग में भी कोई करे तो सजा काटे। इतना तो निश्चित है कि कलियुग में
कोई करे तो उसे हम धर्मराज तो नहीं ही कहेंगे। पहले तो पत्नी को बांट लिया, दिन बांट लिए। स्त्री-संपदा बांटी जा सकती है! जैसे जमीन बांटते हैं। कहते
हैं न--जर जोरू जमीन, झगड़े के घर तीन। उनको साथ ही जोड़ दिया
है; जर और जमीन के साथ जोरू को भी! और जब जर और जमीन के साथ
जोड़ा तो फिर बांटने में हर्ज क्या? इस देश में तो हम कहते
रहे स्त्री-संपत्ति। तो संपत्ति तो बांटी जा सकती है। पांचों भाइयों ने बराबर-बराबर
बांट लिया। घंटे बांट लिए होंगे सात दिन के। एकाध दिन की शायद छुट्टी रखी हो। कोई
एतराज न उठा! न एतराज की तो बात छोड़ो, भारत में जिन पांच
पुण्य कन्याओं का नाम लिया जाता है उसमें द्रोपदी एक है। गजब हो गया! अगर द्रोपदी
कन्या है पांच पतियों के होते हुए, तो जिनके एक ही पति हैं
वे तो महाकन्याएं हैं। उनका तो कहना ही क्या! और फिर इस स्त्री को दांव पर लगा
दिया।
एक सीमा होता है अमानवीयता की। लेकिन धर्म के नाम पर सब तरह की
अमानवीयताएं सदा से चलती रहीं। आखिर किन लोगों ने जीसस को सूली दी थी? आजकल तो नहीं हुआ यह। किन लोगों ने सुकरात को जहर पिलाया था? आजकल तो नहीं हुआ यह। किन लोगों ने अलहिल्लाज मंसूर को मारा? किनने सरमद की गर्दन काटी थी? आजकल तो नहीं हुआ यह।
ये तो सब पुरानी कहानियां हैं। ये तो सब अतीत की ही गौरव-गाथाएं हैं।
तो बंसल, ऐसा मत पूछो कि आजकल, क्योंकि
उसमें भ्रांति है। शायद तुमने सोचा भी नहीं होगा प्रश्न पूछते समय कि आजकल का इतना
अर्थ होगा। लेकिन रोज कोई न कोई मुझसे अब यही पूछता रहता है--आजकल ऐसा क्यों हो
रहा है? उसमें यह भ्रांति पड़ी ही हुई है कि पहले ऐसा नहीं
होता था। पहले तो स्वर्णयुग था, सब ठीक-ठीक होता था, अब सब गड़बड़ हो गया है। कुछ भी ठीक-ठाक नहीं था। हालतें आज से बदतर थीं।
हालांकि प्रश्न पूछने की भी क्षमता नहीं थी।
जिस दिन शूद्र के कानों में
राम ने सीसा पिघलवाकर भरवाया, भारत में करोड़ों शूद्र थे--न कोई
मोर्चा गया, न कोई हड़ताल हुई, न कोई
घिराव हुआ। नहीं तो मर्यादा पुरुषोत्तम का घिराव हो जाना था। कम से कम शूद्र इतना
तो कर ही कर सकते थे कि मल-मूत्र की सफाई करना बंद कर देते अयोध्या में। वह भी न
हुआ। शूद्रों ने भी स्वीकार किया कि ठीक ही तो बात है, राम
कुछ गलत थोड़े ही करेंगे। इसने सुना क्यों? सिर्फ सुना था और
वह भी गुजर रहा था यह शूद्र और कोई ब्राह्मण पाठ कर रहा था, और
इसने सुन लिया था। कान में इसके चूंकि पड़ गए वेद के शब्द और यह निषेध था; मनु पांच हजार साल पहले निषिद्ध कर गए हैं कि कोई शूद्र वेद को नहीं पढ़
सकता, कोई स्त्री वेद को नहीं पढ़ सकती। क्या गजब का सतयुग
था! कैसे स्वर्णयुग थे!
अगर वेद धर्म है तो स्त्री और शूद्रों को धर्म का अधिकार नहीं? अगर वेद में सत्य है तो स्त्री और शूद्रों को सत्य का अधिकार नहीं?
और राम जैसा व्यक्ति भी सजा दे! और फिर भी राम की पूजा चल रही है!
और फिर भी रामलीला हो रही है! और अभी भी तुम रावण का पुतला जलाते हो! अरे, अब तो कम से कम थोड़ी बदलाहट करो। कुछ नया भी रहेगा, कुछ
मजा भी आएगा। रावण का ऐसा कुछ बहुत कसूर नहीं। यूं सीता को चुराकर भी ले गया था तो
जितना सदव्यवहार रावण ने सीता के साथ किया उतना सदव्यवहार राम ने और लक्ष्मण ने
रावण की बहन शूर्पणखा के साथ नहीं किया।
आखिर शूर्पणखा का कसूर क्या था? यह तो कोई कसूर नहीं
कि लक्ष्मण पर उसको प्रेम हो आया, यह कोई कसूर है? अगर यह कसूर है तो यह कसूर तो रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी पहले ही कर चुके
थे। आखिर इनको भी सीता पर प्रेम ही हो आया था। सीता फूल चुन रह थी बगिया में और ये
दोनों भैया चले जा रहे थे। और वाल्मीकि ने जैसा रस भरा वर्णन किया है, एकदम झूमने लगे, एकदम दीवाने हो गए। और दोनों भाइयों
को आ गया था मन। इसलिए तो जब स्वयंवर में देर-दार होने लगी तो लक्ष्मण बीच-बीच में
जोश से भर जाएं। वे बड़े भाई की वजह से उनको बैठ जाना पड़े। रामचंद्र जी कहें,
बैठ। आज्ञाकारी होने की वजह से और बड़े भाई के रहते कैसे, नहीं तो वे कई दफा खड़े होऱ्हो जाएं कि मैं अभी धनुष तोड़े देता हूं।
तो अगर राम और लक्ष्मण को प्रेम आ सकता है सीता पर तो कोई कसूर तो
नहीं था कि शूर्पणखा को लक्ष्मण पर प्रेम हो आया। यह तो सम्मान ही था। यह तो
लक्ष्मण का सम्मान ही था। प्यारा युवक था, सुंदर युवक था। और यह
भ्रांति छोड़ देना, जो कि रामलीलाओं ने सारे मुल्क में फैला
रखी है कि शूर्पणखा कोई बदशकल स्त्री थी। अतिसुंदर स्त्री थी, राजकुमारी थी। और उसने अगर प्रेम का निवेदन किया तो यह तो बिलकुल
शास्त्रीय था, इसकी तो कहीं मनाही नहीं है। और अगर निवेदन
किया था और लक्ष्मण को पसंद न था तो लक्ष्मण कह सकते थे--क्षमा करें! सारी! इतना
कह देने से काम पूरा हो जाता। नाक वगैरह काटने की क्या जरूरत आ गई? लेकिन उन्होंने आव देखा न ताव और रामचंद्र जी की अध्यक्षता में यह नाक
काटने का समारोह संपन्न हुआ।
रावण ने ऐसा कोई अभद्र व्यवहार सीता से नहीं किया। सीता को रावण ने
बड़े सम्मान से रखा, उसे छुआ भी नहीं। बलात्कार भी कर सकता था, छुआ भी नहीं। उसे सम्मान से रखा, समादर से रखा,
अलग रखा। एक विशेष बगीचे में, सुंदरतम बगीचे
में उसे ठहराया। एक मेहमान की तरह। लेकिन बेचारे रावण की तुम हर साल बनाकर प्रतिमा
और जलाते हो और राम अभी भी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं।
धर्म के नाम पर बहुत जाल चलते रहे हैं। उसमें छोटे-छोटे लोगों के ही
हाथ नहीं, उसमें बड़े-बड़े लोगों के भी हाथ हैं। उसमें बड़े न्यस्त
स्वार्थ हैं।
इसलिए बंसल, आजकल शब्द की बात न उठाओ। ऐसा सदा होता रहा। धर्म के
नाम पर झगड़े निरंतर होते रहे हैं। धर्म के नाम पर ही झगड़े होते रहे हैं। कारण साफ
है कि हमारी धर्म के संबंध में एक भ्रांति है। जैसे दीया जलता है तो रोशनी होती है
और दीया बुझ जाता है तो रोशनी समाप्त हो जाती है--ऐसे जब कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई लाओत्सु, कोई
जीसस जैसा व्यक्ति प्रज्वलित हो उठता है तो रोशनी होती है और जब वह व्यक्ति विदा
हो जाता है तो रोशनी विदा हो जाती है। लेकिन दीया बुझ जाता है और हम अंधेरे की पूजा
में लगे रहते हैं। दीए के बुझते ही तो अंधेरा रह जाता है। माना कि वहां दीया था
कभी और कभी रोशनी होती थी, मगर अब तो सिर्फ अंधेरा है। जब
दीया जलता है तब धर्म होता है और जब अंधेरे की पूजा शुरू होती है तो संप्रदाय होता
है। और संप्रदाय लड़ेंगे नहीं तो क्या करेंगे? अंधे लड़ेंगे
नहीं तो क्या करेंगे? अंधे एक-दूसरे से टकराएंगे। बिलकुल
स्वाभाविक है।
धर्म कभी-कभी प्रगट होता है। जब कोई बुद्ध, जब कोई समाधिस्थ, जब कोई परमज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति
मौजूद होता है तो धर्म प्रगट होता है। और जैसे ही वह व्यक्ति विदा हुआ कि धर्म पुनः
विलुप्त हो जाता है, पुनः खो जाता है। फिर-फिर प्रगट होगा।
फिर-फिर दीए जलेंगे और रोशनी आएगी। मगर जब दीए जलेंगे तब रोशनी आएगी। और बीच के
काल में तो अंधेरा होता है।
और यह भी मजे की बात है कि जिन्होंने महावीर के जले हुए दीए को पूजा, वह फिर बुद्ध के जले हुए दीए को स्वीकार न करेंगे। लोगों की नजर दीए पर
ज्यादा होती है कि दीए की बनावट कैसी है, छोटा है कि बड़ा है,
मिट्टी का बना है कि सोने का बना है कि चांदी का बना है। नक्काशी
क्या है, सील-मोहर क्या है? रोशनी से
किसी को लेना-देना नहीं, कि ज्योति है या नहीं? और ज्योति अगर मिट्टी के दीए में जले तो भी वही है और सोने के दीए में जले
तो भी वही है। लेकिन लोगों की नजरें दीयों पर बहुत पड़ जाती हैं; रोशनी तो दिखाई उन्हें पड़ती ही नहीं। वे दीयों को टटोलते रहते हैं।
तो महावीर को मानने वाला, बुद्ध का दीया जलेगा
तो भी स्वीकार न करेगा। और बुद्ध को मानने वाला, कबीर का
दीया जलेगा तो भी स्वीकार न करेगा। और कबीर का मानने वाला, नानक
का दीया जलेगा तो भी स्वीकार नहीं करेगा। उन सबकी नजरें तो अपने दीए पर पड़ गई हैं।
रोशनी का तो किसी को हिसाब ही नहीं है। बुझे दीयों से संप्रदाय बनते हैं और जला दीया
धर्म होता है।
तो धर्म तो तभी होता है जब सदगुरु जीवित होता है; उसके बाद तो धर्म के नाम पर अधर्म ही रह जाता है। फिर झगड़े-फसाद होंगे,
मंदिर-मस्जिद लड़ेंगे, गुरुद्वारे-गिरजे
लड़ेंगे। यह बिलकुल स्वाभाविक है। जब तक हम इस दुनिया से संप्रदायों को विदा नहीं
करते तब तक ये उपद्रव जारी रहेंगे। जब तक यह बात हमारे मन में बहुत स्पष्ट रूप से
प्रगाढ़ नहीं हो जाती कि धर्म तो कभी-कभी प्रगट होता है, अधिकतर
तो धर्म अप्रगट रहता है, अंधेरी रात रहती है और उस अंधेरी
रात को अगर हम अंधेरी समझें तो झगड़े अभी कम हो जाएं। अगर हिंदू को समझ में आ जाए
कि अब मेरे पास कोई जला हुआ दीया नहीं है, तो झगड़ा क्या है?
मुसलमान को समझ में आ जाए मेरे पास कोई जला हुआ दीया नहीं, तो अब झगड़ा क्या है? जहां जला हुआ दीया हो वहां
दोनों को जाना चाहिए, क्योंकि रोशनी का सवाल है। और रोशनी तो
उसकी है--परमात्मा की है। वह न बुद्ध की है, न महावीर की है,
न मोहम्मद की है, न क्राइस्ट की है। वह रोशनी
तो परमात्मा की है। वह तो एक ही स्रोत से आती है और एक ही स्रोत में लीन हो जाती
है।
मगर हम, बुद्ध तो गुजर जाते हैं, समय की
रेत पर बने उनके चरण-चिह्नों को पूजते बैठे रहते हैं। फिर तुम्हारे चरण-चिह्न अलग,
उसके चरण-चिह्न अलग; झगड़ा खड़ा हो जाता है
किसके चरण-चिह्न सही हैं, कौन सही है?
चरणचिह्न किसी के भी सही नहीं हैं--सब रेत के चरण-चिह्न हैं। और जो
निकल चुका है, जिसके चरण-चिह्न बने थे, वह अब
मौजूद नहीं है। लेकिन पंडित-पुजारी इन चरण-चिह्नों के पास मंदिर और मस्जिद बनाते
हैं, मठाधीश निर्मित होते हैं। शंकराचार्य, अयातुल्ला, पोप, ये
चरण-चिह्नों के आसपास खड़े होते हैं और एक विराट धंधा चलता है। उस धंधे में झगड़ा
होगा, क्योंकि प्रतिस्पर्धा होगी।
तुम पूछते हो, "आजकल देश में धर्म के नाम पर जो सांप्रदायिक
झगड़े हो रहे हैं, इनके विषय में आपका क्या कहना है?'
ये सदा होते रहे और सदा होते रहेंगे, अगर हम धर्म और
संप्रदाय का भेद स्पष्ट नहीं समझ लेते। धर्म है जीवंतता। जब कोई व्यक्ति सांस ले
रहा है तो धर्म है और जब सांस जा चुकी, प्राण का पक्षी उड़
चुका, पिंजड़ा पड़ा रह गया तो फिर हम क्या करते हैं? माना कि बहुत प्यारे थे पिता और माना कि बहुत प्यारी थी मां, लेकिन करोगे क्या? जल्दी से अर्थी सजाते हैं,
जाकर मरघट पर विदा दे आते हैं। लाश को घर में रखने से क्या होगा?
लाश को ढोने से क्या होगा?
और धर्म के नाम पर लाशें रखे हुए लोग बैठे हैं। लाशें सड़ गई हैं, उनसे दुर्गंध उठ रही है। तो कोई उस पर कपूर मल रहा है, कोई लोभान का धुआं उड़ा रहा है कि किसी तरह लाश की बदबू छिपी रहे, लाश की बदबू प्रगट न हो जाए। इत्र छिड़का जा रहा है। फूलों में लाश दबाई जा
रही है, हजार उपाय किए जा रहे हैं। और मजा यह है कि साथ में
यह भी झगड़ा चल रहा है कि किसकी लाश ज्यादा जिंदा है; किसकी
लाश ज्यादा प्यारी है; किसकी लाश असली है, किसकी नकली है?
जब बुद्ध बोलते हैं तो उनके शब्दों में शून्य का आवास होता है, निर्वाण का रस होता है। जब बुद्ध जा चुके, किताब में
लिखे हुए अक्षर तो केवल स्याही हैं। मगर झगड़े इसी स्याही पर होते रहते हैं। जब
बुद्ध बोलते हैं तो वहां कहां स्याही! वहां कहां...स्याही का मतलब समझते
हो--कालापन। अब तो कई तरह की स्याही होने लगी, मगर पुरानी
आदत है तो हम नीली स्याही को भी स्याही कहते हैं, लाल स्याही
को भी स्याही कहते हैं। स्याही का मतलब--स्याह। पुराने जमाने में सिर्फ एक ही रंग
की स्याही होती थी--काले रंग की। इसलिए स्याह का रंग स्याही का रंग था।
बुद्ध के वचन तो शुभ्र होते हैं। कागज पर आते-आते स्याह हो जाते हैं।
अगर बुद्ध को कागज पर ही पढ़ना हो तो कोरे कागज पर पढ़ना, तो शायद पा जाओ तो पा जाओ। मगर स्याही में मत पढ़ना, स्याही
में नहीं मिल सकते। और स्याह कागजों पर झगड़े हो रहे हैं।
लेकिन राजनीतिज्ञ को भी लाभ है, धर्म-गुरुओं को भी
लाभ है, पंडित-पुरोहितों को, सबको लाभ
हैं इन झगड़ों से। झगड़े न हों तो राजनीति नहीं बचती। झगड़े न हों तो नेता नहीं बचता।
झगड़े न हों तो पंडित की क्या जरूरत, पुरोहित की क्या जरूरत?
झगड़ों में बड़ा न्यस्त स्वार्थ छिपा हुआ है। झगड़ों में कई लोग जी रहे
हैं; बिना झगड़ों के मर जाएंगे। इसलिए किसी न किसी तरह झगड़ों
को जिलाए रखना पड़ता है। और सबसे बड़े मजे की बात है कि यही लोग झगड़े शांत करवाते
हैं। जो लोग झगड़े करवाते हैं वही झगड़े शांत करवाते हैं। झगड़ा इतना भी नहीं हो जाना
चाहिए कि बात ही मिट जाए। झगड़ा समाप्त भी नहीं हो जाना चाहिए, नहीं तो खुद ही मिट जाएं। इसलिए बड़े सम्हलकर चलना पड़ता है इन राजनीतिज्ञों
को, धर्म-गुरुओं को--थोड़ा-थोड़ा झगड़ा भी चलता रहे, आग सुलगती भी रहे, भभक भी न जाए, धुआं-धुआं होता रहे। ऐसा भी न हो कि धुआं भी मिट जाए, कि लोगों को साफ दिखाई पड़ने लगे, आंखें स्वच्छ हो
जाएं, तो भी खतरा है।
धर्म के नाम पर उपद्रव
ऐसे ही होते रहेंगे
कुछ रोते रहेंगे
कुछ सिर तक चादर ताने
चैन की नींद सोते रहेंगे।
मस्जिद, गिरजाघर, शिवाला
वसीयतनामे हैं
मुल्ला, पंडित, पोप, पुजारियों के नाम
इतिहास गवाह है
मजहब के ठेकेदारों ने इन्हें
आदर्शों के नाम पर
बेच तक डाला है।
एक जानवर की खातिर
इनसान जानवर बन जाता है
ठंडा खून उफन जाता है
सौ दो सौ जानों की क्या चिंता
धर्म रहे, कर्म रहे
आदमी भले ही बेशर्म रहे
बस, आधुनिक ठेकेदार
राजनीतिबाजों की जेबें गर्म रहें,
ये लोग इसी तरह
घृणा के बीज बोते रहेंगे
जब तक नहीं चेतेंगे हम आप
धर्म के नाम पर उपद्रव
ऐसे ही होते रहेंगे
एक चेतना चाहिए। एक बोध चाहिए। हिंदू नहीं चाहिए दुनिया में, मुसलमान नहीं चाहिए, जैन नहीं चाहिए, ईसाई नहीं चाहिए, पारसी नहीं चाहिए। आदमी चाहिए! ये
सब पिटी हुई लकीरें हैं और ये पिटी हुई लकीरें तुम्हें उस ज्योति से वंचित रख लेती
हैं जो कभी-कभी जलती है। अगर तुम मुक्त हो, कहीं बंधे न हो,
तुम्हारे कहीं खूंटे न गड़े हों, तो तुम जल्दी
पहचान लो।
बुद्ध पैदा हुए, हिंदुओं ने नहीं पहचाना। नानक
पैदा हुए, बौद्धों ने नहीं पहचाना। मोहम्मद पैदा हुए,
यहूदियों ने नहीं पहचाना। जीसस पैदा हुए। ये लोग पैदा होते रहे।
लेकिन जो लोग पुराने खूंटों से बंधे थे...किनने सूली दी जीसस को? उन लोगों ने सूली दी जो मूसा को पूजते थे। मूसा कभी जले दीए थे, मगर अब तो ज्योति कब की जा चुकी थी। कोई हजार साल हो चुके थे। जो ज्योति
जीसस में जली थी वह वही थी जो मूसा में जली थी। लेकिन मूसा के मानने वालों ने ही
जीसस को सूली पर चढ़ा दिया। क्योंकि उनको खतरा लगा, उनके
संप्रदाय को खतरा पैदा हो गया।
धर्म को कोई खतरा कभी पैदा नहीं होता। या तो धर्म होता है या नहीं
होता; खतरा उसको कभी पैदा नहीं होता। जब तक होता है तब तक
खतरा हो नहीं सकता; जब है ही नहीं तो खतरा क्या खाक होगा?
धार बदल दूर हट गई नदिया
बस निर्जन घाट रह गए
पांवों के चक्रों को बांध सके
कब आंगन, देहरी, गवाक्ष
आकुल अंतर के उपचार नहीं
गेरूए वसन या रुद्राक्ष
फिर मंदिर छोड़ गया संन्यासी
फिर खुले कपाट रह गए
वक्ष से लगाया, फिर छोड़ दिया
झुककर फिर तन गई कमान
किस-किस से मन की अब व्यथा कहे
भटकता दिशाओं में बान
सौदा ले लौट गई घर गोरी
अब सूने हाट रह गए
धार बदल दूर हट गई नदिया
बस निर्जन घाट रह गए
गोरी तो कब की जा चुकी! खरीद-फरोख्त हो चुकी। निर्जन हाट रह गए। बस
सूने हाट रह गए। नदिया धार बदल कब की दूर हट गई। मगर पूजा जारी है। नदी तो नहीं है, सिर्फ रेत रह गई है, लेकिन पूजा जारी है। हाट तो उजड़
चुका, बस चिह्न रह गए हैं, मगर पूजा
जारी है। और इस पूजा के कारण जो नई हाट कहीं भर गई होगी, कहीं
नया बाजार उठा होगा, कहीं नई दुकान खुली होगी, कहीं नए--फिर नए शब्दों में सत्य ढले होंगे, फिर
कहीं ध्यान पका होगा, फिर कहीं समाधि के फूल खिले होंगे,
फिर कहीं गजरे बिकने आ गए होंगे। वहां तुम नहीं जाते। तुम अपनी
पुरानी हाट में ही बैठे हो, जहां अब कुछ भी नहीं। सूनी
दुकानें हैं।
फिर मंदिर छोड़ गया संन्यासी
फिर खुले कपाट रह गए
जब तक संन्यासी मंदिर में है, तब तक मंदिर जीवित है
और जब संन्यासी चला गया तो खुले कपाट रह गए। अब लाख पटको सिर, अब कुछ काम का नहीं है।
लेकिन क्या कारण है कि लोग जब भी कोई व्यक्ति प्रबुद्धता को उपलब्ध
होता है, उसके पास आने में डरते हैं? मुर्दों
को पूजते हैं, जीवित से भय खाते हैं। जीवित से भय खाने का
कारण और भी है। न्यस्त स्वार्थ तो रोकते ही हैं, लेकिन भीतर
का भय भी रोकता है। किसी भी प्रबुद्ध व्यक्ति के साथ खड़े होना खतरे से खाली नहीं;
जोखिम का काम है; जुआरी का काम है।
मैं नशे में आके बहक गया
मेरी बात का न मलाल कर
तू भी जिंदगी पे है तानाजन
तू भी जिंदगी से सवाल कर
मैं नशे में आके बहक गया...
मेरा साथ दे न सकोगे तुम
मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो
मेरी हर कदम में हैं लग्जिशें
कहां तक चलोगे सम्हाल कर
मैं नशे में आके बहक गया...
कोई जाम आबे-हयात का
मुझे साकिया नहीं चाहिए
मुझे जिंदगी में खिज्र न दे
मुझे इश्क में बेमिसाल कर
मैं नशे में आके बहक गया...
ये हुदूदे-दैरो-हरम नहीं
ये है मयकदा यहां गम नहीं
यहां रक्स करती है जिंदगी
कभी देख जाम उछालकर
मैं नशे में आके बहक गया...
मैं किरन-किरन की तलाश में
शबेत्तार चीर के जाऊंगा
ये गेरू से सुबह को मिलाऊंगा
किसी आफताब को ढालकर
मैं नशे में आके बहक गया...
मेरी बात का न मलाल कर
मैं भी जिंदगी पे हूं तानाजन
तू भी जिंदगी से सवाल कर
मैं नशे में आके बहक गया...
किसी प्रबुद्ध पुरुष के साथ खड़े होना खतरे से खाली नहीं, क्योंकि वह तो नशे में है। वह तो बहका हुआ है। वह तो रामरस पीए खुमारी में
डूबा है। उसके तो पैर डगमगा रहे हैं। उसकी तो बात भी नशीली है, मादक है। उसकी तो बात भी क्रांति है, आग है, आग्नेय है।
मेरा साथ दे न सकोगे तुम
मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो
मेरी हर कदम में हैं लग्जिशें
कहां तक चलोगे सम्हाल कर
मैं नशे में आके बहक गया...
उसके साथ चलना हो तो थोड़ी छाती चाहिए। हिसाबी-किताबी मन बुद्धों के
साथ नहीं चल पाता। हां, मूर्तियों के साथ ठीक है। मूर्तियों की पूजा कर लेता
है। अर्चना के फूल चढ़ा आता है। धूप-दीप जला लेता है, आरती
उतार लेता है। मूर्ति में क्या खतरा है? फिर महावीर की
मूर्ति हो कि बुद्ध की, कोई भेद नहीं पड़ता। किसी की भी
मूर्ति हो, सिर पटक आता है। क्या बिगाड़ लेगी मूर्ति? औपचारिकता है। लेकिन जिंदा महावीर के पास जाना खतरे से खाली नहीं है।
एक छोटी सी कहानी मैंने महावीर के संबंध में सुनी है। एक युवक महावीर
को सुन कर घर आया। स्नान करने बैठा है, उसकी पत्नी उसके शरीर
पर मालिश कर रही है, नहाता जाता है, बात
हो रही है दोनों में। उसकी पत्नी कहने लगी, सुना कि तुम भी
आज महावीर को सुनने गए थे। आश्चर्य हुआ, क्योंकि कभी तुम गए
नहीं, कभी तुमने रस लिया नहीं। पहली ही दफा गए। मैं तो जिस
परिवार से आती हूं, वे सब महावीर के भक्त हैं। और मेरे भाई
तो इतने डूब गए हैं महावीर की बातों में कि आज नहीं तो कल संन्यस्त हो जाएंगे,
दीक्षा ले लेंगे, कभी न कभी दीक्षा ले लेंगे।
उस युवक ने अपनी पत्नी से पूछा, ऐसा वे कब से सोच रहे
हैं? दोनों का विवाह हुए भी कोई पांच-छह-सात साल हो गए हैं।
तो कहा कि वे तो मेरे विवाह के पहले से ही सोच रहे हैं। क्यों?
तो उस युवक ने खिलखिलाकर हंस दिया और उसने कहा कि कुछ नहीं, पांच-सात साल से जो आदमी सोच रहा है संन्यास लेने की, वह क्या खाक संन्यास लेगा! तेरा भाई भी नामर्द।
बात बिगड़ गई, झगड़ा हो गया। पत्नी भी जोश में आ गई। उसने कहा कि
तुमने यह किस तरह कहा? अपने शब्द वापस ले लो! मेरे भाई
संन्यास लेकर रहेंगे। अरे, आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, देर-अबेर की बात और है। मगर उनका
निश्चय बिलकुल दृढ़ है।
लेकिन पति ने कहा, मैं फिर कहता हूं कि तेरा भाई
नामर्द। मैंने तो एक ही बार सुना है--आज पहली बार। लेकिन इतने से मैं इतनी बात समझ
गया कि जो आदमी सोच रहा है कि लेंगे संन्यास, वह नामर्द है।
पत्नी ने कहा कि तो तुम बड़े मर्द हो, तो तुम्हीं कुछ करके
दिखाओ! जोश में कह गई, उसे पता न था कि बात यूं बिगड़ जाएगी।
नग्न ही बैठा युवक स्नान कर रहा था, उठकर खड़ा हो गया। पत्नी
ने कहा, कहां जाते हो?
उसने कहा, बात खतम हो गई। पत्नी ने कहा, मैं
कुछ समझी नहीं।
वह तो दरवाजा खोलकर बाहर जाने लगा कि नंगे कहां जाते हो?
उसने कहा, बात खतम हो गई। अब नंगा तो होना ही है, तो महावीर के पास जाकर नंगा क्या होना, यहीं से नंगा
चला जाता हूं!
पत्नी दौड़ी। घर के लोगों को कहा कि पकड़ो, रोको, इनको क्या हो गया है? बहक
गए हैं!
लेकिन उस युवक ने कहा कि अब बात बहुत आगे निकल गई, अब लौट नहीं सकता हूं। उसी दिन महावीर से जाकर उसने दीक्षा ले ली। महावीर
भी थोड़े हैरान हुए, क्योंकि और लोग दीक्षा लेने आते थे तो घर
से तो कपड़े पहनकर आते ही थे। वहां महावीर के नंगों की जमात थी, वहां कपड़े उतारने में कुछ हर्जा भी न था। लेकिन यह घर से ही नंगा चला आ
रहा है! महावीर ने भी पूछा कि भई, मैंने बहुत लोगों को
दीक्षा दी, वे सब कपड़े पहनकर आते हैं; बल्कि
सच तो यह है, जो उनके सुंदरतम कपड़े होते हैं वे पहनकर आते
हैं, क्योंकि अब आखिरी बार, बस अब एक
बार और, फिर तो छूटे। और फिर जब छोड़ ही रहे हैं तो सुंदरतम
पहनकर, लोग भी देख लें। तो बिलकुल अपने तगमें इत्यादि लगा कर
आते हैं, सुंदरतम वस्त्र पहनकर आते हैं। अगर राजा के बेटे
होते हैं...और यह राजा का बेटा था...तो अपना मुकुट भी बांधकर आते हैं, हीरे-जवाहरात के आभूषण पहनकर आते हैं। दिखावा आखिरी कर लें। प्रदर्शन करने
की इच्छा तो जाती ही नहीं। तू कैसा आदमी, नंगा ही चला आया!
और उसके पीछे बड़ी भीड़ चली आ रही थी, घर के लोग चले आ रहे,
पत्नी रोती चली आ रही कि तुम लौट चलो, मैं
अपने शब्द वापस लेती हूं, यह तुम क्या करते हो? कुछ मेरी भी तो सोचो। अरे, यह तो बात ही थी, यूं ही मजाक कर रही थी।
मगर उसने कहा, अब बात बहुत आगे निकल गई। मजाक बहुत हो गई। मैं तो
सोच ही रहा था। तू दुखी न हो। मैं तो पक्का ही कर रहा था। मैं तो तेरा धन्यवाद
करता हूं कि तूने अवसर दे दिया, नहीं तो मुझे अपनी तरफ से
कहना पड़ता। मैं यह सोच ही रहा था कि नहा-धोकर जाऊं और दीक्षा ले लूं और तूने बात
उठा दी। तो निर्णय वहीं मैंने घोषणा कर दिया। तू चिंता न कर। तेरे कारण संन्यास
नहीं हुआ है; किसी के कारण कहीं संन्यास होता है! मेरे भीतर
ही बात उठी है।
ऐसी हिम्मत चाहिए, एन.आर. बंसल, धार्मिक व्यक्ति के साथ होने के लिए। लेकिन सांप्रदायिक होने के लिए तो
कोई हिम्मत चाहिए नहीं। संप्रदाय तो भीड़-भाड़ हैं, भेड़ों की
जमातें हैं। सिंहों के नहीं लेहड़े! वह जो जागने का साहस रखता है, वह तो भीड़-भाड़, वह जो समूह है करोड़ों का पृथ्वी पर
बसा हुआ, उससे उसे हटकर चलना पड़ता है। उसे तो अपनी लकीर खुद
खोजनी पड़ती है। उसे तो इस जीवन के गहन बीहड़ वन में अपना मार्ग खुद चलकर बनाना पड़ता
है।
किसी बुद्धपुरुष के साथ होना जीवन को जुए की तरह दांव पर लगाना है। यह
काम जुआरियों का है। यह काम शराबियों का है। और किसी बुद्धपुरुष के साथ होने के
लिए तैयारी चाहिए, कि वह तुम्हारे एक-एक विचार को खंडन करेगा, एक-एक तुम्हारी प्रतिमा को तोड़ेगा, तुम्हारी एक-एक
धारणा को ध्वस्त करेगा। यूं लगेगा कि तुम्हें जला रहा है, अग्नि
में तपा रहा है। आग में खड़े रहने की, चोटें सहने की; सहने ही नहीं, सहकर अनुग्रह भी अनुभव करने की जब
क्षमता होती है, तब कोई व्यक्ति धार्मिक होता है। नहीं तो
धर्म के नाम पर संप्रदाय चलता है और संप्रदाय तो अंधों की भीड़ है, टकराती रहेगी। सदा टकराती रही है, आगे भी यही होने
वाला है, इसमें कुछ भेद नहीं पड़ सकता है।
आज इतना ही।
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