पीवत राम रस लगी खुमारी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
दिनांक: 16 जनवरी, सन् 1981
ओशो आश्रम पूना।
प्रवचन-छट्ठवां-(पीए बिना कोई मार्ग नहीं)
पहला प्रश्न: भगवान,
सजनां ने फूल मारया
सानूं पीड़ अंदरां तक होई
लोकां दे पत्थरां दी
सानूं पीड़ रता न होई
"साजन ने फूल मारा और हमें भीतर तक चोट लगी और
लोगों ने पत्थर मारे और हमें रत्तीभर पीड़ा नहीं हुई।'
प्रेम संगीता,
अपेक्षा जहां है वहीं दुख की संभावना है। जहां अपेक्षा नहीं वहां
विषाद का कोई उपाय नहीं। जिनसे तुम्हारी अपेक्षा है कि प्रीति मिलेगी, पत्थर नहीं; उनसे अगर फूल भी फेंका जाए तो घाव
लगेगा। घाव फूल के कारण नहीं लगता, फूल तो बेचारा कैसे घाव
करेगा? घाव लगता है तुम्हारी अपेक्षा के अनुपात से। जितनी
बड़ी अपेक्षा उतनी गहरी चोट। हां, जिनसे तुम्हें कोई अपेक्षा
नहीं है, वे पत्थर भी मारें तो भी दुख नहीं होता, तो भी पीड़ा नहीं होती।
इस छोटी सी कहावत में महत्वपूर्ण बात छिपी है, कि यदि चाहते हो कि जीवन में आनंद ही आनंद हो जाए, कि
कोई भी चोट चोट न रहे, कि कोई पत्थर भी मारे तो फूल की वर्षा
हो, कि कोई जहर भी पिलाए तो अमृत हो जाए--तो उसका एक ही
रास्ता है: अपेक्षाओं को छोड़ दो, निरपेक्ष होकर जीओ। और
निरपेक्षता तुम्हारे हाथ में है, कोई दूसरा तुम्हें दे न
सकेगा। और छोटे-छोटे लोगों की बात तो छोड़ दो, जिनको तुम बहुत
बड़ा कहते हो, उनमें भी अपेक्षा का कहीं न कहीं, कोई न कोई सूक्ष्म धागा बना ही रहता है।
जीसस ने सूली पर अंतिम क्षण में आकाश की तरफ सिर उठाया और कहा कि हे
प्रभु, क्या तूने मुझे छोड़ दिया? क्या
तू भी मुझे धोखा दे दिया? यह तू मुझे क्या दिखला रहा है?
यह वक्तव्य किस बात की घोषणा है? यह वक्तव्य इस बात की
घोषणा है कि जीसस अभी भी प्रबुद्धता को उपलब्ध नहीं हुए थे, अभी
अपेक्षा बाकी थी। नहीं थी संसार से, तो परमात्मा से थी। इससे
क्या फर्क पड़ता है कि किससे अपेक्षा। आखिरी घड़ी में बात छिपाते-छिपाते भी छिपी
नहीं, प्रगट हो गई। आखिरी घड?ी में
सचाइयां प्रगट हो जाती हैं। जिंदगीभर छिपाए हों जो राज, वे
भी उघड़ जाते हैं। जीसस के मुंह से अनायास इस बात का निकल जाना कि हे प्रभु,
क्या तूने भी मुझे छोड़ दिया, किस बात की खबर
दे रहा है? इस बात की कि कहीं भीतर आशा थी कि चमत्कार होगा,
आकाश से फूल बरसेंगे, कि उतरेगा कोई हाथ
परमात्मा का और उठा लेगा मुझे। सूली सिंहासन बन जाएगी, इसका
कहीं कोई सपना जरूर किसी गहन तल में मौजूद था। साधारण लोगों की जो भीड़ इकट्ठी हुई
थी, एक लाख आदमी इकट्ठे थे, देखने
इकट्ठे थे कि देखें अब क्या चमत्कार होता है! क्योंकि सुनते थे कि यह आदमी
चमत्कारी है, कि पानी पर चलता है, कि
पत्थरों से इसने रोटियां बना दी हैं, कि अंधों को आंखें दे
दी हैं, कि मुर्दों को जिंदा कर दिया है। तो आज आ गई परम
घड़ी। तमाशा देखने लोग इकट्ठे हुए थे। वे भी सब निराश लौटे। जब कुछ भी न हुआ,
सूली लग गई, कोई न आकाश से हाथ उतरा, न पृथ्वी फटी, न भूकंप आया, न
बाढ़ आई, न तूफान उठे, कहीं पत्ता भी न
हिला, प्रकृति वैसे ही चलती रही जैसी चलती थी, प्रकृति ने कोई अपवाद न किया--ये सारे लोग भी निराश होकर लौटे। घर जाकर
इन्होंने कहा होगा कि दिन व्यर्थ खराब किया। धूप-धाप में पहाड़ी पर चढ़कर गए,
दिनभर भूखे रहे और हाथ कुछ भी न लगा।
इनमें और जीसस में अभी बुनियादी फर्क नहीं है। जीसस की यह अपेक्षा है
ईश्वर से कि हो कुछ। कुछ अनूठा। नहीं हुआ तो शिकायत निकल आई। और जहां शिकायत है, वहां कैसी प्रार्थना? शिकायत कभी प्रार्थना नहीं बनती।
शिकायत कैसे प्रार्थना बन सकती है? प्रार्थना तो धन्यवाद है।
लेकिन जीसस बहुत बुद्धिमान व्यक्ति थे। क्षण में ही उन्हें होश आ गया
कि यह मैंने क्या कहा। निकला था उनके ही अचेतन से, दबा था उनके ही अचेतन
में शायद सूली के बिना निकलता भी नहीं; शायद सूली ही उसे
निकालने का कारण बनी; शायद सूली ने जो पीड़ा दी और जो अपमान
लाखों लोगों के सामने देखना पड़ा, लोग पत्थर मार रहे थे,
सड़े हुए टमाटर फेंक रहे थे, लोग गालियां दे
रहे थे कि अब दिखाओ चमत्कार, लोग हर तरह की मजाक कर रहे
थे--इस अपमान में, अचेतन में दबी हुई, गहन
अचेतन में दबी हुई कोई आकांक्षा तैरकर ऊपर आ गई होगी। इतने दबाव में ही यह संभव
था। साधारण जिंदगी चलती जाती तो शायद जीसस प्रबुद्ध हुए बिना ही इस जगत से विदा
होते। लेकिन इस सूली ने चमत्कार किया। वह चमत्कार बड़ा भीतरी है। वह चमत्कार बाहर
नहीं हुआ, वह भीतर हुआ।
वह चमत्कार यह था कि एक आखिरी वासना दबी रह गई थी, उसका भी दर्शन हो गया। आकाश से उतरा हुआ हाथ इतना बड़ा चमत्कार न होता।
पृथ्वी फट जाती कि आकाश फट जाता, तो भी इतना बड़ा चमत्कार न
होता। कि सूरज भर दुपहरी में डूब जाता, तो भी इतना बड़ा
चमत्कार न होता। कि जीसस सदेह स्वर्ग चले जाते, तो भी इतना
बड़ा चमत्कार न होता। चमत्कार मेरी दृष्टि में जो हुआ, वह यह
है कि खुद के अचेतन में, आखिरी, बस
आखिरी जंजीर थी, वह भी प्रगट हो गई। उसके प्रगट होते ही बोध
की घड़ी आ गई। तत्क्षण जीसस ने कहा, नहीं नहीं, मुझे क्षमा कर। यह मैंने क्या कहा! मैं कौन हूं? मेरी
अपेक्षा नहीं, तेरी आकांक्षा पूरी हो। तू जो चाहे वह पूरा
हो। तेरी मर्जी पूरी हो। मेरी क्या मर्जी! मैं तेरी मर्जी से राजी हूं। तेरा राज्य
उतरे पृथ्वी पर और तेरी मर्जी के फूल खिल जाएं।
बस, इसी घड़ी में जीसस बुद्ध हुए। सूली पर लटके-लटके बुद्ध
हुए।
और ऐसा, ठीक ऐसी ही घटना अलहिल्लाज मंसूर के जीवन में घटी।
उसे भी लोग मार रहे थे, हाथ-पैर काट रहे थे, पत्थर मार रहे थे। उसके सारे शरीर से खून बह रहा था। उसके साथ जो
दर्ुव्यवहार हुआ वैसा दर्ुव्यवहार न तो सुकरात के साथ हुआ, न
जीसस के साथ हुआ, न सरमद के साथ हुआ। अलहिल्लाज मंसूर के साथ
जैसा दर्ुव्यवहार हुआ वैसा पृथ्वी पर कभी किसी मनुष्य के साथ नहीं हुआ था।
और प्रेम संगीता, तेरी कहावत ठीक-ठीक अलहिल्लाज
मंसूर के जीवन में घटी--
सजनां ने फूल मारया सानूं पीड़ अंदरां तक होई
लोकां दे पत्थरां दी सानूं पीड़ रता न होई
लोग जब पत्थर मार रहे थे और मंसूर के खून की धाराएं फूट रही थीं, जल्लादों ने पैर काट दिए, हाथ काट दिए, आंखें फोड़ दीं, अंग-अंग तोड़े, सीधा
भी नहीं मारा, जितना कष्ट दे सकते थे उतना कष्ट दिया। लेकिन
मंसूर हंसता रहा। उसकी आंखों में वही चमक, वही ज्योति बनी
रही, कुछ भेद न पड़ा। अनलहक का वही गुंजार कि मैं परमात्मा
हूं कि मैं ब्रह्म हूं! अहं ब्रह्मास्मि की वही उदघोषणा जारी रही। भीड़ में
अलहिल्लाज मंसूर का गुरु, जुन्नैद भी मौजूद था। लोग जब पत्थर
मार रहे थे तो जुन्नैद ने एक फूल फेंककर मारा। जुन्नैद ने इसलिए फूल फेंककर मारा,
ताकि लोग यह न समझें कि मैं लोगों के साथ नहीं, कि मैं भी कुछ फेंककर मार रहा हूं। अब इस भीड़-भाड़ में जहां पत्थर फेंके जा
रहे हैं, कौन देखेगा कि मैंने फूल मारा कि पत्थर मारा!
जुन्नैद दो काम कर रहा था--एक, कि ताकि भीड़ यह समझ ले कि मैं
भी विरोध में हूं मंसूर के। था मेरा शिष्य, लेकिन मेरी उसने
सुनी नहीं, मैंने मना किया था कि यह उदघोषणा मत कर, उसने मानी नहीं। तो मैं भी विरोध में हूं। ताकि भीड़ समझ ले कि जुन्नैद का
सहारा नहीं है मंसूर को।
और इसमें और राजनीति भी थी कि मंसूर भी समझ ले कि आखिरी क्षण में मैं
तुझे विदा देने आया हूं, देख, फूल से तुझे विदा दे रहा
हूं! राजनीति बड़ी दुधारी तलवार होती है। इधर भीड़ भी राजी हो जाएगी कि चलो जुन्नैद
भी हमारे साथ खड़ा है और मंसूर भी प्रसन्न होगा कि गुरु विदा देने आया और एक फूल की
वर्षा की मेरे ऊपर।
लेकिन जुन्नैद को आश्चर्य हुआ यह जानकर कि मंसूर को धोखा देना आसान न
था। मंसूर की आंखें खुल चुकी थीं, उसे धोखा देना असंभव था। उसका
दर्पण साफ हो चुका था। उस दर्पण में अब सत्यों का ही सीधा प्रतिबिंब बनता था।
मंसूर खिलखिलाकर हंसा और उसने कहा कि जिसने यह फूल मारा है वह समझ ले कि लोगों के
पत्थरों से मुझे इतनी चोट नहीं पहुंच रही जितनी इस फूल से पहुंच रही है। क्योंकि
लोग तो नासमझ हैं; पत्थर मार रहे हैं तो ठीक, समझा जा सकता है। लेकिन जिसने यह फूल मारा है, वह
समझ ले ठीक से कि इससे मुझे बहुत घाव पहुंचा है, इससे मुझे
बहुत चोट पहुंची है। क्योंकि यह फूल उसने मारा है जिसे मैं सोचता हूं कि समझदार है;
जिसे मैं सोचता हूं कि मुझे प्रेम करता था; जिससे
मैंने यह कभी आशा न की थी, अपेक्षा न की थी।
मगर मंसूर को इतनी सी अपेक्षा भी अगर शेष है तो भी वासना का अभी एक
पतला सा धागा उसे बांधे हुए है--जरा सा, बहुत सूक्ष्म,
बहुत अदृश्य, दिखाई भी न पड़े, पकड़ में भी न आए। लेकिन धागा मौजूद है। अपेक्षा अभी है तो दुख हो गया।
हंसा तो, लेकिन हंसी ऊपर-ऊपर थी, उसकी
आंख से आंसू भी झलक आए। मंसूर की आंख से आंसू झलक आया, क्योंकि
जुन्नैद ने फूल मारा। जुन्नैद से ऐसी आशा न थी, कम से कम
जुन्नैद तो समझेगा! शास्त्रों का ज्ञाता, जिसके पास बैठकर
ज्ञान की इतनी बातें सुनीं, वह तो समझेगा! लोग नासमझ हैं,
ठीक, माफ किए जा सकते हैं, मगर जुन्नैद को कैसे माफ करो?
लेकिन मंसूर को भी वही घटना घटी जो जीसस को। उसे भी होश आ गया कि यह
मेरी अपेक्षा ही है, जिसके कारण फूल भी चोट कर रहा है। उसने जो प्रार्थना
की आखिरी, उस प्रार्थना में उसने कहा कि हे प्रभु, उनको भी माफ कर देना जिन्होंने पत्थर मारे और उसको भी माफ कर देना जिसने
फूल मारा और मुझे भी माफ कर देना कि मैंने शिकायत की। बस, इसी
घड़ी में मंसूर भी बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ।
मृत्यु की घड़ी बड?ी कीमती घड़ी है। कोई ठीक उपयोग कर
ले तो जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण मृत्यु है। क्योंकि जीवन तो छितरा होता है,
बिखरा होता है--सत्तर साल, अस्सी साल। लेकिन
मौत सघन होती है। मौत प्रगाढ़ होती है। एक क्षण में सब कुछ हो जाता है। मौत कुछ
लंबाई नहीं रखती, गहराई रखती है। लंबाई में चूक सकते हो। फिर
जिंदगी में हजार काम हैं, आदमी उलझ सकता है, व्यस्त हो सकता है, स्वाभाविक है। लेकिन मृत्यु के
क्षण में तो कोई काम बचता नहीं; कल ही नहीं बचता तो काम क्या
बचेगा! अगला क्षण नहीं बचता तो काम क्या बचेगा! पूर्णविराम आ गया। उस घड़ी में तो
सारा जीवन संगृहीत हो जाता है, सारी चेतना एक झील बन जाती
है। उसका जो सदुपयोग कर ले तो मृत्यु से बड़ा वरदान नहीं है।
प्रेम संगीता, अपेक्षा छोड़। अपेक्षा दुख लाती है। आशा रखोगी,
निराशा हाथ लगेगी। अपेक्षा रहेगी, उपेक्षा हाथ
लगेगी। सुख मांगोगी, दुख पाओगी। न सुख मांगो, न अपेक्षा रखो, न आशा बांधो। फिर देखो! जैसे ही आशा
छूटी कि सब आशाएं पूरी हो जाती हैं। और जैसे ही अपेक्षा गई कि सब दुख गए और सुखों
की वर्षा हो जाती है।
मत मांगो जीत, फिर हारने का कोई उपाय नहीं। और लाओत्सु कहता है:
मुझे कोई हरा नहीं सकता, क्योंकि मैं जीत मांगता नहीं। मैं
जीतना चाहता नहीं, मुझे कोई हराएगा कैसे?
उसको हराया जा सकता है जो जीत मांगता हो। उसे दुखी किया जा सकता है जो
सुख मांगता हो। उसका अपमान किया जा सकता है जो सम्मान मांगता हो लेकिन जिसे कुछ
फर्क ही न रहा अपमान और सम्मान में, जिसे कांटे और फूल
बराबर हुए, जिसे जिंदगी और मौत समान हो गई--अब उसे कैसी पीड़ा?
कोई उपाय न रहा। और यही क्षण है, यही घड़ी है
जब व्यक्ति अतिक्रमण करता है संसार का। इसको कहो निर्वाण, समाधि,
बुद्धत्व।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
आपने सच ही मुझे निराश किया, क्योंकि आपने मेरी शंकाओं का पर्याप्त समाधान नहीं किया।
मैं मान लेता हूं कि आपके जैसा संन्यास पृथ्वी पर
पहले कभी न था,
परंतु ये गैरिक वस्त्र तथा आपके शिष्यों का गले
में आपके लाकेट वाली माला पहनना,
यह सब धारणा नहीं तो क्या है? यह तो भारतीय संस्कृति ही लगती है।
और आप जिस ध्यान और समाधि का वर्णन करते हैं
वैसा ही वर्णन शब्दों के थोड़े अलग प्रयोग से
अष्टावक्र से लेकर कृष्णमूर्ति तक
सभी बुद्धपुरुषों ने किया है और उन पर बोलते हुए
आप भी सहमत हुए हैं।
बुद्धपुरुषों की इस लंबी शृंखला को ही मैं भारतीय
संस्कृति की दीपमालिका कहता हूं,
जिसके जगमगाते वर्तमान दीपक आप हैं।
निवेदन है कि आप मुझे अपना आलोचक न समझें,
क्योंकि मैं भलीभांति समझता हूं कि आप जो कर रहे
हैं उससे ही मनुष्यमात्र का कल्याण संभव है।
भारत भूषण,
मैंने तुम्हें निराश नहीं किया। तुमने आशा बांधी होगी। वही आशा
तुम्हें निराश करेगी, मैंने तो पर्याप्त समाधान किया था; तुम्हारा नहीं हुआ, यह और बात है। क्योंकि तुमने
जो-जो पूछा था उसका मैंने उत्तर दे दिया था। अब तुम जो पूछ रहे हो, यह तो तुमने पूछा ही नहीं था। न तो तुमने गैरिक वस्त्रों की बात उठाई थी,
न माला की; न तुमने अष्टावक्र की बात उठाई थी,
न कृष्णमूर्ति की। और यूं अगर तुम बातें उठाते जाओगे तो समाधान कभी
भी न होगा। चलो, आज फिर कोशिश करें।
तुम कहते हो, "मैं मान लेता हूं...।'
मान लेने से काम नहीं चलेगा। मान लेने से तो और नए-नए तर्क उठेंगे, और नई-नई शंकाएं उठेंगी। समझो, मानो मत। समझने में
समाधान है, मानने में नहीं। मानना तो यूं होता है कि चलो
तर्क करने के लिए माने लेते हैं। तर्क करने के लिए ही माना जाता है कि चलो विवाद
करने के लिए माने लेते हैं। मगर उस मानने में ही सूचना है कि नए प्रश्न खड़े होंगे।
मैंने जो कहा था, अगर तुमने समझा होता, तो ये कोई भी प्रश्न उठ नहीं सकते थे। जरा भी नहीं तुमने समझने की कोशिश
की।
तुम कहते हो, "मैं मान लेता हूं कि आपके जैसा संन्यास पृथ्वी
पर पहले कभी न था...।'
यह भी तुम मान ही रहे हो, मानना नहीं चाहते हो।
यह भी तुम न कह सके कि ठीक, यह बात ठीक, इतना मेरा समाधान हुआ। चलो कुछ मात्रा में ही समाधान होता। मगर वह भी हुआ
नहीं। वह भी अभी तुमने कामचलाऊ, जिसको हाइपोथेटिकल कहते हैं,
मान लिया कि अब इसे मानकर आगे सवाल उठाएंगे तो फिर सवाल उठने शुरू
हो गए।
अब तुम पूछते हो, "ये गैरिक वस्त्र...।'
जिस तरह के गैरिक वस्त्र मेरे संन्यासी पहने हुए हैं, इस तरह के गैरिक वस्त्र कभी नहीं पहने गए। जब मेरा संन्यास ही भिन्न है,
जब मेरा संन्यास ही एक नया आयाम है, तो फिर
तुम्हें समझ अगर आ गई होती तो तुम्हें गैरिक वस्त्रों का भेद भी समझ में आ जाता।
गैरिक वस्त्र सदियों से इस देश में पलायनवादियों के वस्त्र रहे हैं।
मैं गैरिक रंग को पलायनवादियों से छुटकारा दिलाने की कोशिश कर रहा हूं। यूं मुझे
कुछ अड़चन न थी, कोई और रंग भी चुन ले सकता था। नीला भी काम देता,
पीला भी काम देता, हरा भी काम देता, काला भी काम दे सकता था, सफेद भी काम दे सकता था।
जानकर ही मैंने गैरिक वस्त्र चुने हैं। इसलिए गैरिक वस्त्र चुने हैं कि गैरिक
वस्त्रों के नाम से जो पलायनवादी परंपरा है, उसको खंडित किया
जा सके।
इसलिए तो हिंदू संन्यासी बहुत बेचैन हैं। उसको बड़ी मुश्किल हो रही है।
उसको मुश्किल यह हो रही है कि उसके संबंध में जो लोक-प्रचलित मान्यता थी वे मेरे
संन्यासी तोड़े डाल रहे हैं। जल्दी ही लाखों की संख्या में मेरे गैरिक संन्यासी
होंगे भारत में। अभी दो लाख हैं, लेकिन भारत के बाहर उनकी बड़ी
संख्या है। फिर भी भारत में कोई पचास हजार संन्यासी तो हैं ही। जल्दी ही ये पचास
लाख भी हो सकते हैं। तब इसमें अखंडानंद और स्वरूपानंद खो जाएंगे। और लोगों की जो
सदियों-सदियों से एक जड़ धारणा बनी थी कि गैरिक वस्त्र पलायन का, त्याग का, भगोड़ेपन का, जीवन-निषेध
का प्रतीक है, वह टूट जाएगी।
गैरिक रंग पर मैं दया करके उसका छुटकारा करवा रहा हूं। ये गैरिक
वस्त्र धारणा नहीं है, वरन गैरिक वस्त्रों के प्रति जो धारणा थी उसको तोड़ने
का प्रयास है। और जब किसी चीज को तोड़ना हो तो बाहर की बजाए भीतर से तोड़ना आसान
होता है। गैरिक वस्त्र पहनाकर संन्यासियों के नाम देकर...अब यहां तुम सब तरह के
संन्यासी पाओगे--स्वामी अखंडानंद, स्वामी स्वरूपानंद,
सरस्वती, भारती, गिरि...सब
तरह के संन्यासी मैंने खड़े कर दिए हैं। और जब स्वामी अखंडानंद अपनी प्रेयसी के गले
में हाथ डालकर रास्ते पर चलते हैं तो हिंदू संस्कृति की छाती पर सांप लोटते हैं।
और तुम कह रहे हो ये हिंदू संस्कृति के प्रतीक हैं! जब स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती
होटल में बैठकर चाय पीते हैं, गपशप करते हैं, सिनेमा के बाहर क्यू में खड़े होकर टिकट खरीदते हैं, तो
तुम सोच रहे हो यह मैं तुम्हारी धारणा को मजबूत कर रहा हूं! यह तुम्हारी धारणा को
तोड़ रहा हूं। तुम्हारी धारणा को खंडित कर रहा हूं।
जरूर मेरे संन्यासियों के गले में लाकेट वाली माला है, लेकिन न तो मेरे संन्यासी माला के मनके फेरते हैं...। माला का काम सदियों
से यह था कि बैठकर उस पर राम-राम जपो। मेरे संन्यासी तो कुछ माला के मनके फेरते
नहीं। लेकिन माला उनको पहना दी है, लाकेट भी उनके गले में
डाल दिया है--यह सिर्फ एक गहरा मजाक है, और कुछ भी नहीं। एक
व्यंग्य। यह तुम्हारे संन्यास की जो अब तक की धारणा है उसको खंडित करने के लिए एक
गहरा मजाक। न माला में कुछ रस है मुझे, न लाकेट में कोई रस
है। लेकिन जिन्होंने महावीर को पूजा है, कृष्ण को पूजा है,
राम को पूजा है, बुद्ध को पूजा है, इनकी पूजा को कैसे तोडूं? जो सदियों से माला फेरते
रहे हैं, इनकी माला को कैसे भ्रष्ट करूं? ये किसी धारणा की मजबूती के लिए नहीं हैं। और जिस दिन पाऊंगा कि ये
धारणाएं खंडित हो चुकी हैं, उस दिन अपने संन्यासियों को
कहूंगा कि अब मजे से सब रंगों के कपड़े पहनो, अब अपना काम खतम
हुआ। अब माला वगैरह पहनने की क्या जरूरत, क्यों गले में वजन
लटकाते हो? यह अब लाकेट वगैरह की होली जला दो, इसकी कोई आवश्यकता न रही।
लेकिन अभी थोड़ी देर है। वह दिन भी आएगा कि जब गैरिक वस्त्रों की और
माला की और लाकेट की, सबकी होली जलवा दूंगा। तुम जरा ठहरो। तुम जब तक
व्यर्थ की शंकाओं में न उलझो...। एक-एक कदम ही उठाना पड़ता है। आहिस्ता-आहिस्ता ही
यह सदियों पुरानी धारणाओं पर चोट करनी पड़ती है। चोट करने के मेरे अपने रास्ते हैं।
यह भी एक रास्ता है। यह भी एक विधि मात्र है। इसमें कहीं कोई धारणा नहीं है और
कहीं कोई भारतीय संस्कृति नहीं है।
और तुम कहते हो, "आप जिस ध्यान और समाधि का
वर्णन करते हैं वैसा ही वर्णन शब्दों के थोड़े अलग प्रयोग से अष्टावक्र से लेकर
कृष्णमूर्ति तक सभी बुद्धपुरुषों ने किया है और उन पर बोलते हुए आप भी सहमत हुए हैं।
बुद्धपुरुषों की इस लंबी शृंखला को ही मैं भारतीय संस्कृति की दीपमालिका कहता हूं,
जिसके जगमगाते दीपक आप हैं।'
फिर तुम जापान में हुए रिंझाई, बोकोजू, बासो, इनको भी भारतीय संस्कृति में गिनोगे या नहीं?
क्योंकि इन्होंने भी थोड़े शब्दों के हेर-फेर से यही कहा है, जो अष्टावक्र ने कहा, जो कृष्णमूर्ति कह रहे हैं,
जो मैं कह रहा हूं। फिर तुम जेरूसलम में हुए मोजेज, बप्तिस्मा वाले जान, जीसस, इनको
भी भारतीय संस्कृति में गिनोगे या नहीं? क्योंकि इन्होंने भी
थोड़े शब्दों के हेर-फेर से वही कहा है। फिर अरब में हुए अलहिल्लाज मंसूर, बहाउद्दीन, मोहम्मद, इनको तुम
भारतीय संस्कृति में गिनोगे या नहीं गिनोगे? क्यों अष्टावक्र
और कृष्णमूर्ति को ही गिना? यह कैसा मोह? और फिर यूनान में हुए सुकरात, पाइथागोरस, हेराक्लाइटस, प्लोटिनस, डायोजनीज,
डायोनीसियस, इनको तुम भारतीय संस्कृति में
क्यों न गिनोगे? अष्टावक्र में ऐसी क्या खूबी है, वही मिट्टी, वही हवा, वही पानी,
वही आग, वही पांच तत्व और वही आत्मा। इन सबको
क्यों छोड़ दिया? और फिर ईरान में हुए जरथुस्त्र और हाकिम
सिनाई और उमर खय्याम और जलालुद्दीन रूमी और नसरुद्दीन, इनको
तुम कहां गिनोगे? भारतीय संस्कृति में ही गिनना होगा,
क्योंकि ये भी जगमगाते दीपक हैं। अगर जगमगाते दीपकों की इस मालिका
का नाम ही भारतीय संस्कृति है तो फिर इसका भारत से कोई संबंध न रहा। फिर चीन में
हुए लाओत्सु, च्वांगत्सु, लीहत्सु,
हवांगप्पो हुईऱ्हाई; इनको कहां गिनोगे?
फिर तिब्बत में हुआ मिलरेपा, मारपा; इनको कहां गिनोगे? तिलोपा, बोधिधर्म,
कणहप्पा, सिद्धप्पा; इनको
कहां गिनोगे? अगर भारतीय संस्कृति का नाम केवल जगमगाते
दीपकों की मालिका हो, तो फिर इन सबको भी गिन लो, तो मुझे कोई एतराज नहीं, फिर मैं राजी। फिर मैं भी
भारतीय संस्कृति का पोषक।
लेकिन तुमने भी सिर्फ अष्टावक्र और कृष्णमूर्ति को ही क्यों गिना? यह बेईमानी क्यों? और क्या खाक कृष्णमूर्ति में
भारतीय संस्कृति है! सिर्फ इसलिए कि भारत में पैदा हुए? बस,
इसके सिवाय और तो कुछ नहीं। क्योंकि कृष्णमूर्ति तो कहते हैं मैं
सौभाग्यशाली हूं कि मैंने भारतीय कोई शास्त्र नहीं पढ़े, न
गीता, न वेद, न उपनिषद। सौभाग्यशाली
हूं कि इस मूढ़ता से मैं बच गया! धन्यभाग हैं मेरे कि मैं इस जाल में नहीं पड़ा!
और अष्टावक्र को तुम क्यों भारतीय गिनते हो? क्योंकि अष्टावक्र न तो वेदों के पक्ष में हैं, न
हवनऱ्यज्ञ, पूजा-पाठ, मंदिर-मूर्ति।
तुम अष्टावक्र में ऐसा क्या पाते हो जिसको तुम भारतीय कह सकते हो और जिसको तुम
लाओत्सु में नहीं पाओगे? तो या तो भारत की परिभाषा बदल दो,
भौगोलिक न रखो। फिर सारे बुद्धपुरुषों का जो गगन-मंडल है, वह भारत है। लेकिन उसको भारत ही क्यों कहो, उसको
जापान क्यों न कहो, उसको चीन क्यों न कहो, उसको अरब क्यों न कहो, उसको इजराइल क्यों न कहो?
आखिर भारत कहने का क्या मोह है उसे? अगर भारत
पूरब है तो जापान और भी पूरब है, ठेठ पूरब, जहां सूरज ही उगता है, सूरज का ही देश! हमसे भी
ज्यादा पूरब। जापान के हिसाब से तो हम पश्चिमी हैं। हम पश्चिम में पड़ते हैं। अगर
पूरब का ही प्रतीक चुनना है तो जापान को चुन लो। मगर यह बड़ी मुश्किल की बात है।
जापान के लिए अमरीका पूरब है। जमीन गोल है। कौन है पूर्वीय और कौन है पाश्चात्य?
इस तरफ से देखो तो वही व्यक्ति पाश्चात्य है, इस
तरफ से देखो तो वही व्यक्ति पूर्वीय है।
भारत शब्द से ऐसा क्या मोह है? इस शब्द में ऐसी क्या
खूबी है? ये सिर्फ हमारे मोह हैं। यहूदियों का मोह है:
इजरायल। मुसलमानों का मोह है: मक्का-मदीना, अरब। ये सब मोह
हैं। न तो अष्टावक्र में कुछ भारतीय है, न कृष्णमूर्ति में
कुछ भारतीय है, न मुझमें कुछ भारतीय है। और जो मुझमें है,
जो कृष्णमूर्ति में है, जो अष्टावक्र में है,
वही बहाउद्दीन में है, वही जलालुद्दीन में है,
वही पाइथागोरस में है, वही जरथुस्त्र में है,
वही जीसस में है, वही बासो में है, वही लिंची में है, वही हुआंग-पो में है। वह तत्व,
जिससे व्यक्ति जीवन को पहचान लेता है--जागरूकता है। जागरूकता का
क्या भारत से लेना-देना? जागरूकता क्या कोई भौगोलिक चीज है?
जाग तो कोई कहीं भी सकता है। तिब्बत में भी जाग सकता है, चीन में भी जाग सकता है, भारत में भी जाग सकता है।
देह तो मिट्टी है, किसी भी देह में जाग सकता है। गोरी चमड़ी
हो तो जाग सकता है, काली चमड़ी हो तो जाग सकता है।
अष्टावक्र शरीर से आठ जगह ऐढ़े-टेढ़े थे, इसलिए तो उनका
नाम--अष्टावक्र। आठ जगह से ऐढ़ा-टेढ़ा आदमी देखा कभी? बिलकुल
ऊंट जैसा होगा। अष्टावक्र के आठ जगह से ऐढ़े-टेढ़े शरीर में एक पैर पड़ता होगा इधर तो
दूसरा पड़ता होगा उधर, एक आंख देखती होगी इधर तो दूसरी देखती
होगी उधर।
एक मजिस्टे्रट के संबंध में मैं पढ़ रहा था कि उसकी आंखें अलग-अलग
दिशाओं में देखती थीं। दो आंखें दो तरफ जाती थीं। तीन मुजरिम उसके सामने खड़े थे।
पहले से उसने पूछा कि तुम्हारा धंधा क्या है? दूसरे ने कहा कि जी,
मैं होटल करता हूं। उसने कहा, मैंने तुमसे
नहीं पूछा जी! तो तीसरे ने कहा कि मैं कपड़े का धंधा करता हूं। अभी पहले पर तो आंख
ही नहीं पड़ रही उसकी।
अष्टावक्र की हालत ऐसी रही होगी: देखते होंगे कहीं, चलते होंगे कहीं, जाते होंगे कहीं। वह तो अच्छा हुआ
पहले हो गए, नहीं तो आजकल के ट्रेफिक में कहीं भी कुचल गए
होते। एक कदम आगे जाते होंगे, दो कदम पीछे सरकते होंगे।
एक छोटा सा बच्चा स्कूल देर से पहुंचा। अध्यापक ने पूछा कि इतनी देर
कैसे हुई? उसने कहा कि मैं क्या करूं, वर्षा
हो रही है, आप देख रहे हैं और कैसी कीचड़ मची हुई है! एक कदम
आगे चलता था, दो कदम पीछे सरकता था।
शिक्षक भी था तो होशियार, गणितज्ञ था। उसने कहा,
अच्छा एक कदम आगे चलते, दो कदम पीछे सरकते,
तो फिर पहुंचे कैसे?
लड़का भी होशियार था। उसने कहा कि फिर मैंने घर की तरफ चलना शुरू किया, तब बामुश्किल पहुंच पाया!
अष्टावक्र जैसी देह में भी ज्ञान जल गया, दीया जग गया तो किसी भी देह में जग सकता है। फिर यह भारत शब्द का, भारत भूषण क्यों तुम्हारा मोह है? इसमें ऐसी क्या
खास बात है?
तो मैं तो कोई अष्टावक्र या कृष्णमूर्ति को भारतीय नहीं कह सकता और न
बुद्धपुरुषों की इस लंबी शृंखला को भारतीय संस्कृति की दीपमालिका कह सकता हूं। इन
सबका भूगोल से कुछ लेना-देना नहीं, इतिहास से भी कुछ
लेना-देना नहीं। सच तो यह है, इनकी परंपरा को परंपरा कहना भी
ठीक नहीं। परंपरा शब्द भी खतरनाक है, और भ्रामक है। विज्ञान
की परंपरा होती है, धर्म की कोई परंपरा नहीं होती।
इस सत्य को समझने की कोशिश करो। आमतौर से हालत उलटी है।
लोग विज्ञान की तो परंपरा की बात ही नहीं करते और धर्म की परंपरा की
बात करते हैं; जबकि हालत और ही है, असलियत कुछ
और है। विज्ञान की परंपरा होती है। जैसे अगर न्यूटन न पैदा हो तो एडीसन पैदा नहीं
हो सकता, क्योंकि न्यूटन ने जो खोजें कीं, उनके ही आधार पर एडीसन की खोजें बनेंगी। न्यूटन, एडीसन
ने जो खोजें कीं, अगर वे न की गई होतीं तो आइंस्टीन कभी पैदा
नहीं हो सकता। विज्ञान तो एक सीढ़ी के बाद दूसरी सीढ़ी बनाता है। और पहली सीढ़ी न हो
तो दूसरी सीढ़ी कैसे बने? वैज्ञानिक एक शृंखला खड़ी करते हैं।
एक वैज्ञानिक दूसरे के कंधों पर खड़ा होता है। इसलिए तो न्यूटन से एडीसन ज्यादा दूर
तक देख सकता है, क्योंकि न्यूटन के कंधों पर खड़ा है। और
आइंस्टीन और भी ज्यादा दूर तक देख सकता है, क्योंकि वह एडीसन
के कंधों पर खड़ा है। आगे आने वाले वैज्ञानिक और आगे देख सकेंगे क्योंकि वे
आइंस्टीन के कंधों पर खड़े होंगे।
विज्ञान की एक परंपरा है, एक शृंखला है,
कड़ी-कड़ी है। लेकिन धर्म की कोई कड़ी नहीं है। अगर अष्टावक्र न हुए
होते तो कुछ ऐसा नहीं है कि बुद्ध को होने में अड़चन होगी। कोई अड़चन नहीं।
अष्टावक्र हों या न हों, बुद्ध को होने में कोई अड़चन नहीं
होगी। अगर बुद्ध को बिना जाने लाओत्सु हो सकता है और लाओत्सु को बिना जाने बुद्ध
हो सकते हैं, तो क्या फर्क पड़ता था अष्टावक्र हुए होते या न
हुए होते? बुद्ध न भी हुए होते तो भी कृष्णमूर्ति हो सकते
हैं, तो भी रमण हो सकते हैं, कोई अंतर
नहीं पड़ता। क्योंकि धर्म की कोई परंपरा नहीं होती।
बाहर की खोजें तो दूसरों पर निर्भर होती हैं। जिस आदमी ने बैलगाड़ी
खोजी, हमें उसका नाम पता नहीं है, लेकिन
अगर उसने बैलगाड़ी न खोजी होती तो हवाई-जहाज नहीं खोजा जा सकता था, इतना पक्का है। क्योंकि बैलगाड़ी ही न होती तो रेलगाड़ी न होती, कार न होती, साइकिल न होती। और जब ये चीजें ही न
होतीं तो हवाई-जहाज कहां से होता?
यह तो तुम्हें पता ही होगा कि जिन राइट बंधुओं ने पहला हवाई-जहाज
बनाया उनका बाप साइकिल की दुकान करता था, किराए से साइकिलें
चलाता था। और साइकिलें टूटती-फूटती थीं तो उसने अपने नीचे घर के तलघरे में एक
कबाड़खाना बना रखा था, जिसमें टूटी-फूटी साइकिलें इकट्ठी करता
जाता था। कभी किसी का सामान काम में आ जाता था, नहीं तो पड़ा
रहता था। ये दो बेटे राइट बंधु ज्यादा उम्र के नहीं थे--एक बीस साल का, एक बाईस साल का। ये उस तलघरे में घुसकर साइकिलों के टूटे-फूटे सामानों से
उन्होंने पहला हवाई-जहाज बनाया था। और तलघरा न होता तो बना भी नहीं सकते थे,
क्योंकि पूरा गांव इनको पागल समझता था और बाप भी इनको पागल समझता
था। लेकिन बाप दुकान करे कि तलघरे में जाकर देखे कि ये क्या कर रहे हैं। बाप दुकान
में लगा रहे, ये तलघरे में घुसे रहें। बाप सोया रहे, ये तलघरे में घुसे रहें। तलघरे की वजह से ही हवाई-जहाज
बन सका। और पहला हवाई-जहाज जब उन्होंने बना लिया तो तलघरे से निकाल नहीं सकते थे,
क्योंकि हवाई-जहाज तो बन गया लेकिन तलघरे से निकालने की जगह नहीं थी,
तो उसको तोड़-फोड़कर निकाला। गांव के बाहर जाकर फिर से उसको जमाया और
कसा। और किसी को खबर नहीं की, क्योंकि खुद भी भरोसा नहीं था,
उड़ेगा कि नहीं उड़ेगा। जब साठ सेकंड तक एक भाई हवा में ठहरा रहा तब
उन्होंने गांव में खबर की कि अब बुला लो लोगों को, जो पागल
समझते थे हमें।
लेकिन बिना साइकिलों के हवाई-जहाज नहीं बनता और बिना बैलगाड़ी के
साइकिल नहीं बन सकती और हवाई-जहाज के बिना चांद पर जाने वाला यान नहीं बन सकता। इन
सबकी शृंखला है, सब एक-दूसरे से बंधे हैं। लेकिन बुद्धत्व की कोई
शृंखला नहीं होती, कोई एक-दूसरे से बंधन नहीं होता। प्रत्येक
बुद्ध निज होता है; अपनी निजता में होता है; अद्वितीय होता है। कोई पीछे हुआ हो बुद्ध या न हुआ हो, कोई आगे हो या न हो, कुछ फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि
बुद्धत्व की घटना वर्तमान में घटती है, उसका अतीत से कोई
संबंध नहीं है--अतीत से मुक्त होने में ही घटती है। और विज्ञान अतीत पर निर्भर
होता है, अतीत के बिना नहीं हो सकता।
इसलिए खयाल रखना, जब विज्ञान वर्तमान की बात करता
है तो वर्तमान शब्द तो वही है लेकिन विज्ञान का शब्द वर्तमान अतीत पर निर्भर होता
है। और जब धर्म वर्तमान की बात करता है तो धर्म का अतीत से कोई संबंध नहीं होता;
धर्म का वर्तमान अतीत से मुक्त होता है। एक ही शब्द है, लेकिन बड़े अलग उनके अर्थ होते हैं।
इन सबकी कोई दीपमालिका नहीं है, कोई शृंखला नहीं है।
लेकिन तुम्हारे मन में एक स्वाभाविक रोग है, जो सभी के मन
में है, सारी दुनिया में है। प्रत्येक व्यक्ति अपने देश को,
अपने देश की गौरव-गरिमा को बढ़ा-चढ़ाकर बताना चाहता है। अपने देश के
गौरव में उसे अपने अहंकार की तृप्ति भी मालूम होती है। इसीलिए हम बातें करते हैं
अतीत-गौरव की, गरिमा की। चाहे अतीत सड़ा हुआ हो...सड़ा हुआ ही
था, मगर हम अतीत की सड़ांध को फूलों में ढांक देते हैं।
सुगंधियां छिड़क देते हैं कब्रों पर। लाशों पर सुंदर रेशमी वस्त्र उढ़ा देते हैं,
चांदी-सोना मढ़ देते हैं, हीरे-जवाहरात जड़ देते
हैं। क्यों? कि हमारा अतीत अगर गौरववान है तो हम भी गौरववान
हैं, क्योंकि हम उसके अंग हैं।
यह सिर्फ अहंकार की ही चेष्टा है। भारत भूषण, इस अहंकार से मुक्त होओ, तो तुम भी अष्टावक्र हो
सकते हो, तुम भी कृष्णमूर्ति हो सकते हो, तुम भी बुद्ध हो सकते हो। लेकिन यह अहंकार रुकावट डालेगा।
मुझे कोई विरोध नहीं है किसी से। मुझे क्या लेना-देना? लेकिन जिन मित्रों ने चुना है मेरा संग-साथ, उनके
अहंकार को तोड़ने की तो हर कोशिश करूंगा। और उसमें यह सबसे महत्वपूर्ण बात है कि
उनका अहंकार टूटे, ताकि वे वर्तमान में जी सकें। उन्हें अतीत
से मुक्त करना होगा।
तुम कहते हो, "निवेदन है कि आप मुझे अपना आलोचक न समझें।'
मैंने समझा भी नहीं। तुमने प्रश्न ही पूछे हैं, आलोचना तो कुछ भी नहीं की। जिज्ञासा ही की है।
तुम ठीक कहते हो, "क्योंकि मैं भलीभांति
समझता हूं कि आप जो कर रहे हैं उससे ही मनुष्यमात्र का कल्याण संभव है।'
तुम समझते तो हो, लेकिन अभी समझ ऊपर-ऊपर है। अगर
यह समझ गहरी हो जाए तो तुम्हें इस महत कार्य में सम्मिलित होना चाहिए। यह गैरिक
वस्त्रों का मजाक तुम्हीं को ग्रहण करना होगा। यह माला तुम्हें भी गले में लटकानी
होगी। और घबड़ाओ नहीं, नाम कुछ ऐसा देंगे--स्वामी भारतानंद
भारती। ऐसा कुछ नाम देंगे कि तुम्हें याद रहे। कुछ नाम की चिंता न करो। मुझसे
प्रेम है तो मुझसे जुड़ो। लेकिन अभी बहुत सी शंकाएं होंगी मन में। कल फिर लिख ले
आना।
जुड़े बिना कोई राह नहीं। पीए बिना कोई मार्ग नहीं। समाधि के बिना कोई
समाधान नहीं।
योग प्रीतम का यह गीत--
मेरी हुसयारियां लो, मुझे इक जाम दे दो
मिटे हस्ती हमारी, वही अंजाम दे दो
बड़ा है बोझ सर का, करूंगा क्या इसे ले
मेरे सब नाम ले लो, मुझे विश्राम दे दो
हवाएं चल रही हैं, घटाएं घिर रही हैं
सभी कुछ हो रहा है, मुझे निष्काम दे दो
हजारों फूल खिलते, सितारे जगमगाते
खिलूं चुपचाप मैं भी, वही पैगाम दे दो
बड़ा ही शोरगुल है, मची है हायत्तोबा
मुझे इससे बचा लो, हमारा धाम दे दो
खुदी के पांव से चल, बहुत ही थक चुका हूं
चले अब राम ही खुद, मुझे आराम दे दो
यही इच्छा लिए मैं, दर पर खड़ा हूं
सहर हो तो उसी की, उसी की शाम दे दो
मेरी हुसयारियां लो, मुझे इक जाम दे दो
मिटे हस्ती हमारी, वही अंजाम दे दो
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें