शुक्रवार, 2 जून 2017

प्रेम—पंथ ऐसो कठिन-(प्रश्नोत्तर)-प्रवचन-01

प्रेम—पंथ ऐसो कठिन-(प्रश्नोत्तर)-ओशो

प्रवचन-पहला
दिनांक 27 मार्च सन् 1979,
ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क पूना।

प्रश्न-सार

1—साधु-संतों से सुना है कि भक्ति-मार्ग ही एकमात्र सरल और सुगम मार्ग है।
लेकिन रहीम का प्रसिद्ध वचन है:
रहिमन मैन तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक माहिं।
प्रेम-पंथ ऐसो कठिन, सब कोई निबहत नाहिं।।
इस विरोधाभास पर कुछ कहें।

2—क्या प्रभु के लिए अभीप्सा पर्याप्त है?

3—क्या भगवान भक्त के बिना हो सकता है?


पहला प्रश्न: साधु-संतों से सुना है कि भक्ति-मार्ग ही एकमात्र सरल और सुगम मार्ग है। लेकिन रहीम का प्रसिद्ध वचन है:
रहिमन मैन तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक माहिं।
प्रेम-पंथ ऐसो कठिन, सब कोई निबहत नाहिं।।
इस विरोधाभास पर कुछ कहें।

सागर! साधु-संत वही कहते हैं, जो तुम सुनना चाहते हो। वह नहीं जो है। वैसा नहीं, जैसा है; वरन वैसा, जैसा तुम्हें प्रीतिकर लगेगा, मधुर लगेगा। वैसा, जैसा है, कटु भी हो सकता है, कठोर भी हो सकता है। तुम सांत्वना चाहते हो, सत्य नहीं। सत्य को तो तुम सूली देते हो। तुम मलहम-पट्टी चाहते हो, चिकित्सा नहीं। क्योंकि चिकित्सा तो कभी-कभी शल्य- चिकित्सा भी होती है। साधु-संत तुम्हारी पीठ थपथपाते हैं, तुम्हें प्रसन्नचित्त करते हैं।
क्षणभंगुर है वह प्रसन्नता। और उनका पीठ थपथपाना तुम्हारे किसी काम न आएगा। लेकिन हां, थोड़ी राहत मिलती है। क्षण भर को सही, थोड़ी आशा बंधती है।
तुम्हारे साधु-संत तुम्हारी आशा पर जीते हैं। वे सपनों के सौदागर हैं। उन्हें भलीभांति पता है तुम क्या चाहते हो। एक बात तो सुनिश्चित रूप से उन्हें ज्ञात है कि तुम सत्य नहीं चाहते। सत्य के साथ तो तुम बहुत दर्ुव्यवहार करते हो। तुम मधुर झूठ चाहते हो, मीठा झूठ चाहते हो। तुम झूठों का एक जाल चाहते हो, जिसमें सुरक्षित तुम अपने जीवन को जैसा जी रहे हो वैसा ही जी सको। तुम्हें जीवन को रूपांतरण न करना पड़े।
सिगमंड फ्रायड ने अपने बहुत महत्वपूर्ण वचनों में एक वचन यह भी कहा है कि मैं ऐसी कोई संभावना नहीं देखता भविष्य में कि आदमी बिना भ्रम के जी सकेगा।
भ्रम जैसे आदमी के लिए अनिवार्य भोजन है। तुम्हें बड़े-बड़े भ्रम चाहिए, तुम्हें बड़े-बड़े झूठ चाहिए--स्वर्ग के, नरक के, पाप के, पुण्य के। तुम्हें इतने झूठ चाहिए, तो तुम कहीं उन झूठों की सहायता लेकर, उन झूठों की बैसाखियां लेकर किसी तरह अपनी जिंदगी को गुजार पाते हो। कोई तुमसे कह दे कि तुम लंगड़े हो, तो तुम्हें पीड़ा होती है। कोई कह दे कि तुम अंधे हो, तो तुम्हें पीड़ा होती है। कोई कह दे कि ये तुम्हारे पैर नहीं हैं, लकड़ी है, बैसाखियां हैं, तो तुम्हें अच्छा नहीं लगता। इसीलिए तो हम अंधे को भी सूरदास जी कहते हैं। बुरा न लग जाए!
साधु-संत परजीवी हैं, तुम्हारे ऊपर निर्भर हैं। तुमसे रोटी पाते हैं, तुमसे वस्त्र पाते हैं, तुमसे सम्मान पाते हैं। वे तुम्हारे नौकर-चाकर हैं। तुम उन्हें सम्मान देते हो, सत्कार देते हो, उसके बदले में तुम उनसे सांत्वना चाहते हो। लेन-देन है, व्यवसाय है, समझौता है, सौदा है। इसलिए साधु-संत क्या कहते हैं, बहुत सोच-समझ कर पकड़ना। गौर से देख लेना। कहीं ऐसा तो नहीं है कि सिर्फ तुम्हारे झूठों को सहारा दिया जा रहा है? तुम्हारे घावों को सहलाया जा रहा है? भुलाया जा रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि धर्म के नाम पर तुम्हें अफीम पिलाई जा रही है?
मजदूर स्त्रियां काम करने जाती हैं तो बच्चों को अफीम खिला देती हैं। अफीम में मस्त पड़े रहते हैं बच्चे--रोते नहीं, गाते नहीं, चिल्लाते नहीं। मां दिन भर काम करेगी, बच्चा अफीम में मस्त झाड़ के नीचे टोकरी में पड़ा रहेगा।
कार्ल माक्र्स ने कहा है कि धर्म ने आज तक आदमी को अफीम दी है।
और इसमें बहुत दूर तक सचाई है। कम से कम जिनको तुम साधु-संत कहते हो, उनके संबंध में तो यह बात सौ प्रतिशत सच है। हां, दो-चार लोगों को छोड़ दो--एक बुद्ध को, एक कृष्ण को, एक महावीर को, एक क्राइस्ट को, एक मोहम्मद को, ऐसे कुछ लोग छोड़ दो, वे अपवाद हैं--बाकी जो भीड़-भाड़ है कुंभ के मेले में तुम्हारे साधु-संतों की, उनके संबंध में माक्र्स बिलकुल ठीक कहता है कि जनता को अफीम पिलाई गई है।
लेकिन तुम अफीम मांगते हो। तुम कहते हो, किसी तरह जिंदगी को झेलने योग्य बना दो। तुम्हारी जिंदगी दुखपूर्ण है, यह सच है। यह दुख मिट भी सकता है, यह भी सच है। मगर दुख को मिटाना अफीम से नहीं होता। दुख को मिटाने के लिए श्रम करना होगा, साधना करनी होगी। दुख को मिटाने के लिए दुख की आधारभूत जड़ें काटनी होंगी। दुख है तो उसके कारण हैं। उन कारणों को मिटाना होगा। बीमारी है तो उसकी वजह है। सिर्फ बीमारी के लक्षण मिटाने से बीमारी न मिट जाएगी।
तुम्हें बुखार चढ़ा है, तुम्हारे साधु-संत कहते हैं: ठंडे पानी में बैठ जाओ; शरीर गर्म है, ठंडा हो जाएगा। शरीर तो ठंडा होगा ही होगा, तुम भी ठंडे हो जाओगे। मरीज का इलाज नहीं है यह, यह मरीज की मौत है। शरीर गर्म है, यह तो लक्षण है। तुम्हारे भीतर रोग है कहीं। और जब तक रोग है, शरीर उत्तप्त रहेगा। शरीर तो केवल भीतर चल रहे किसी महाभारत की खबर दे रहा है, कि तुम्हारे भीतर अंतर-युद्ध छिड़ा है। उस अंतर-युद्ध के कारण सब उत्तप्त हो गया है। उस अंतर-युद्ध को समाप्त करना होगा, तो शरीर का ताप जाएगा। ठंडे पानी में बिठा देने से ताप नहीं जाएगा। मरीज मर सकता है, बीमारी समाप्त नहीं होगी।
लेकिन ठंडे पानी में बैठना अच्छा लगेगा। अच्छे लगने से ही कोई बात अच्छी नहीं हो जाती।
साधु-संत तुम्हारे लक्षणों का इलाज करते हैं। इलाज भी कहां करते हैं! लक्षणों के लिए तुम्हें व्याख्याएं दे देते हैं। निश्चित साधु-संत लोगों को समझा रहे हैं कि यह कलिकाल है, यह समय बहुत बुरा है। जैसे कि पहले कोई अच्छे समय रहे हैं! समय ही बुरी चीज है। समय के पार जाने में अच्छाई है। सभी युग कलियुग हैं। सतयुग न कभी रहा है, न है, न होगा। सतयुग तो सिर्फ तुम्हारी कल्पना है--अफीम! पहले लोग सोचते थे: सतयुग पहले हो चुका; वह एक ढंग की अफीम थी। एक तरह के पंडित-पुरोहित ने उसका उपयोग हजारों साल तक किया और आदमी को सुलाए रखा। फिर धीरे-धीरे उस अफीम का प्रभाव कम हो गया--लोग उसके आदी हो गए--उससे फिर नशा नहीं आना संभव रहा। जब एक आदमी अफीम रोज-रोज खाता रहे, तो धीरे-धीरे उस अफीम का परिणाम समाप्त हो जाता है। वह अफीम आदत हो जाती है। फिर नशा नहीं लाती। तो फिर नई अफीम की जरूरत पड़ती है।
कम्युनिज्म नई अफीम है। कम्युनिज्म कहता है कि सतयुग आगे आने वाला है। पुरानी अफीम कहती थी कि राम-राज्य पहले हो चुका। नई अफीम कहती है: राम-राज्य आगे आने वाला है। जो पुरानी अफीम से बच गए हैं, वे नई अफीम की दुकान पर पहुंच गए हैं। वे वे ही लोग हैं जो काशी और काबा जाते थे, वे ही क्रेमलिन जाते हैं। वे वे ही लोग हैं जो गीता और कुरान में अपनी सांत्वना खोजते थे, अब दास कैपिटल और कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में खोजते हैं। मगर बात नहीं बदली। पहले पीछे था स्वर्ग, अब आगे है स्वर्ग। और जिंदगी अभी है! और जिंदगी यहीं है! और जिंदगी में कुछ भी करना हो तो अभी करना होगा, आज करना होगा, तत्क्षण करना होगा! मगर तत्क्षण करने के लिए तो हमारी तैयारी नहीं। हम तो कहते हैं, कोई हमें एक प्यारा सपना दे दो कि हम सपने को ओढ़ लें और सो जाएं।
तो तुम्हारे साधु-संत कह रहे हैं कि कलियुग है, बुरा समय है, बड़ा कठिन समय है। इस कठिन समय में तो बस भक्ति-मार्ग ही एक सरल उपाय है। तपश्चर्या कठिन है, योग कठिन है, और सब ध्यान कठिन हैं, भक्ति सरल है--गए मंदिर में, उतार ली आरती, चढ़ा दिए दो फूल, सिर पटका पत्थर की किसी मूर्ति पर, कि घर के ही एक कोने में भगवान को बना लिया--खुद का ही बनाया हुआ भगवान, खुद ही उसके सामने सिर झुका कर बैठ गए, इन खेलों का नाम भक्ति है। यह सरल है। निश्चित ही सरल है। और सस्ता क्या हो सकता है? और तुम सोचते हो कि बस हल हो गया। कलियुग है, समय कठिन है, सुगम मार्ग हाथ लग गया।
और छोटे-छोटे लोगों की बात छोड़ो! जयप्रकाश नारायण अधमरी हालत में लटके हैं, जबरदस्ती मशीनों पर लटकाए गए हैं--विनोबा ने उनको दो संदेश भेजे। पहला संदेश भेजा एक संदेशवाहक के हाथ। जयप्रकाश न बोल सकते हैं, न बोलने की हालत में हैं, न लोगों को पहचानते हैं, और विनोबा क्या संदेश पहुंचाते हैं, मालूम है? कि शाकाहारी हो जाओ! कि जब तक मांसाहार न छोड़ोगे, तब तक स्वस्थ न होओगे!
यह कोई वक्त है? और जिंदगी भर क्या किया? जयप्रकाश जिंदगी भर वर्षों विनोबा के चरणों में बैठे रहे, तब न उनसे कहा कि शाकाहार करो, मांसाहार छोड़ो! मांसाहारी बने रहे और सर्वोदयी बने रहे। मांसाहारी बने रहे और गांधीवादी बने रहे। मांसाहारी बने रहे और अहिंसा पर प्रचार करते रहे। अब मरते वक्त, जब कि न होश है, न सुनने-समझने की क्षमता है--अपनी सगी बहिन को भी नहीं पहचान पाए; लोग जाते हैं, उनको आंख खोल कर देखते हैं, कुछ पहचान नहीं पाते--ऐसी नब्बे प्रतिशत मृत अवस्था में उनको संदेश भेजा जा रहा है, साधु-संत संदेश भेज रहे हैं: शाकाहारी हो जाओ! अब तो शाकाहारी हैं ही, अब कौन मांसाहार कर रहा है? कौन मांसाहार करवाएगा?
और दूसरा संदेश भेजा है कि राम-हरि, राम-हरि जपते रहना। सांस बाहर जाए तो राम कहना, सांस भीतर जाए तो हरि कहना। राम-हरि, राम-हरि जपते रहना।
यह आदमी मर रहा है, जिंदगी भर न राम जपा, न हरि जपा, और अब तो कुछ होश भी नहीं है--अब सांस के साथ राम-हरि, राम-हरि जपते रहना! और तुम भी कहोगे कि विनोबा ने भी क्या धार्मिक संदेश भेजे हैं!
धार्मिक नहीं हैं, सिर्फ एक ही बात की खबर देते हैं कि ये लोग सठिया गए हैं। इन्हें खुद भी होश-हवास नहीं है कि ये क्या कर रहे हैं और क्या कर रहे हैं। तुम्हारे साधु-संत तुमसे वही कहे चले जाते हैं जो तुम्हें प्रीतिकर लगे। जिंदगी में तो नहीं कहा कि मांसाहार छोड़ दो, क्योंकि तब तो प्रीतिकर न लगता; अब तो कहने में कोई अड़चन नहीं है, अब तो शाकाहारी होकर मरा जा सकता है। मरते वक्त कोई भी शाकाहारी हो जाता है। जिंदगी भर राम-हरि, राम-हरि की कोई फिकर की नहीं; तब तो और राजनीति के हजार गणित बिठाने थे। अब मरते वक्त राम-हरि, राम-हरि कह लो! और बस राम-हरि, राम-हरि कह लिया कि पहुंच गए परमात्मा के लोक में, मिल जाएगा मोक्ष। तुम्हारे साधु-संत सिर्फ तुम्हें सांत्वना दे रहे हैं। और सांत्वना के बदले में तुमसे सत्कार ले रहे हैं, तुमसे सम्मान ले रहे हैं।
तो पहली तो बात मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि साधु-संतों से सावधान! बुद्ध-पुरुष कुछ बात और। बुद्ध-पुरुषों को तो तुम गाली दोगे, अपमान करोगे, सूली लगाओगे, जहर पिलाओगे, पत्थर मारोगे। साधु-संतों की पूजा करोगे! जिसकी भी तुम पूजा करो, जरा सोच लेना--क्यों कर रहे हो पूजा? कहीं ऐसा तो नहीं है कि वह तुम्हें भुलावे देता है--मीठे भुलावे, सुंदर भुलावे, मनमोहक सपने! तुम जो चाहते हो, वैसा ही। तुम तपश्चर्या नहीं करना चाहते, तुम ध्यान नहीं करना चाहते, राम-हरि, राम-हरि जपते रहना।
ध्यान कठिन है। क्योंकि ध्यान के लिए विचार की सारी शृंखला तोड़नी होगी।
ध्यान संघर्ष है। क्योंकि जब तक तुम मन के पार न जाओगे, ध्यान उपलब्ध न होगा।
राम-हरि, राम-हरि जपना बिलकुल आसान है। लेकिन राम-हरि जपना भक्ति नहीं है, सिर्फ तोतारटंत है। तो तोते भी रट लेते हैं राम-हरि, राम-हरि। एक दफा सिखा दो उन्हें। वह तो ओंठों की बात है। तुम्हारे हृदय में परमात्मा का स्मरण उतना ही कठिन है, शायद ज्यादा ही कठिन है, जितना ध्यान। मैं रहीम से राजी हूं। रहीम ठीक कहते हैं:
रहिमन मैन तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक माहिं।
जैसे कोई घोड़े पर चढ़ कर, घोड़े पर बैठ कर, जंगल में आग लगी हो और उसमें से गुजरे।
रहिमन मैन तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक माहिं।
जंगल लगा है आग से, सारे जंगल में आग है, और कोई घोड़े पर चढ़ कर उस जंगल में से गुजरे--जैसा वह कठिन है--
प्रेम-पंथ ऐसो कठिन, सब कोई निबहत नाहिं।।
प्रेम-पंथ इतना ही कठिन है, सबसे नहीं निभता। राम-हरि जपते रहना, उससे प्रेम-पंथ नहीं निभ जाएगा! उससे तुम अपने को धोखा दे लेना; शायद और अपने आस-पास जो मूढ़ इकट्ठे हों, उनको धोखा दे लेना; मगर प्रेम-पंथ न सधेगा।
प्रेम को समझो, उसका अर्थ समझो। प्रेम का अर्थ क्या होता है?
प्रेम के तीन अर्थ होते हैं। पहला अर्थ, जिसको तुम सामान्यतया जानते हो, जिसको हम कहते हैं: प्रेम में गिरना, फालिंग इन लव। वह गिरना ही है। वस्तुतः गिरना है। जब कोई प्रेम में गिर जाता है, तो उसका अर्थ क्या होता है?
उसका अर्थ होता है कि उसने अपनी स्वायत्तता खो दी, निजता खो दी, वह दूसरे का गुलाम हो गया। तुम एक स्त्री के प्रेम में गिर गए, तुम उस स्त्री के गुलाम हो गए; या किसी पुरुष के प्रेम में पड़ गए, तो तुम उस पुरुष के गुलाम हो गए। अब यह एक गुलामी का नया सिलसिला शुरू हुआ, जिसका तुमने बड़ा सुंदर नाम दिया है: प्रेम। अब तुम उस स्त्री के बिना नहीं रह सकते, अब वह स्त्री तुम्हारी अनिवार्यता हो गई, तुम्हारी आवश्यकता हो गई, उसके बिना तुम्हें मुश्किल होगी, कठिनाई होगी, जीना व्यर्थ मालूम होगा; अकेलापन लगेगा, खालीपन लगेगा। उस स्त्री ने तुम्हारी आत्मा में जगह बना ली। और निश्चित ही जिसके ऊपर तुम निर्भर हो जाओगे, वह तुम्हारा मालिक हो गया। और मालिक जब कोई हो जाएगा तो प्रीतिकर नहीं लगेगा, दुखद लगेगा।
इसलिए प्रेम के ये सारे संबंध दुख में ले जाते हैं, कलह में ले जाते हैं। क्योंकि कौन किसको अपना मालिक बनाना चाहता है? गए थे प्रेम करने और हो गया कुछ और। गए थे राम-भजन को, ओटन लगे कपास। सोचा तो था कि प्रेम में उठेंगे और प्रेम मुक्ति लाएगा, लेकिन प्रेम लाया बंधन, कारागृह, जंजीरें। जिस पर तुम निर्भर हो, उसको तुम कभी क्षमा नहीं कर सकते। उस पर तुम क्रुद्ध ही रहोगे। इसलिए पति पत्नियों पर क्रुद्ध हैं, पत्नियां पतियों पर क्रुद्ध हैं। कहते हों, न कहते हों, उसका सवाल नहीं है; मगर भीतर क्रोध की आग है। और कारण?
कारण पत्नी नहीं है, न पति है, कारण तुम्हारी निर्भरता है। निर्भरता के प्रति रोष पैदा होता है। कोई नहीं चाहता कि अपनी आत्मा को बेचे और गुलाम हो जाए। मगर जिसको तुम प्रेम कहते हो वह ऐसा ही प्रेम है कि उसमें आत्मा बेचनी पड़ती है और गुलाम होना पड़ता है। और तुम जिसके गुलाम होते हो, वह तुम्हारा गुलाम हो रहा है। यह एक पारस्परिक गुलामी है। पति पत्नियों को गुलाम कर रहे हैं, पत्नियां पतियों को गुलाम कर रही हैं। यह एक-दूसरे पर गुलामी थोपी जा रही है। और दोनों की आत्माएं मरती हैं। और धीरे-धीरे दोनों अपंग हो जाते हैं।
तुमने वह देखी न, स्कूलों में बच्चे दौड़ करते हैं, लंगड़ी दौड़, जिसमें दो टांगें दो बच्चों की बांध दी जाती हैं, तो तीन टांगों से दौड़ना पड़ता है। लंगड़ी दौड़ का नाम विवाह है। उसमें दो व्यक्तियों की एक-एक टांग बांध दी गई, अब तीन टांग से उनको भागना पड़ता है। दोनों एक-दूसरे पर नाराज होते हैं। क्योंकि दोनों की गति में बाधा पड़ती है। एक पूरब जाना चाहता है, एक पश्चिम जाना चाहता है, और नहीं जा सकते। एक तेजी से जाना चाहता है, दूसरा नहीं तेजी से जाना चाहता; तो सदा दूसरे का ध्यान रखना पड़ता है। और हर बार दूसरे के लिए झुकना पड़ता है। और जब दूसरा तुम्हें झुकाता है तुम्हारी मजबूरी के क्षण में, तो उसकी मजबूरी के क्षण में तुम उसे झुकाते हो। यह एक तरह की दुश्मनी हुई, दोस्ती न हुई। एक तरह का शोषण हुआ, प्रेम न हुआ।
यह तो साधारण प्रेम है जिसको तुम जानते हो। इस प्रेम ने तुम्हारे जीवन को नरक बना दिया है। इस प्रेम की बात नहीं कर रहे हैं रहीम। प्रेम-पंथ ऐसो कठिन! यह तो कठिन है ही नहीं। यह तो बड़ा सरल है। दुनिया में सभी इसको सम्हाल लेते हैं। इसमें कठिनाई क्या होगी? हर घर में चल रहा है, हर परिवार में चल रहा है, हर व्यक्ति में चल रहा है। यह तो बड़ा सरल है।
इससे ऊंचा एक प्रेम होता है। उसको प्रेम में गिरना नहीं कह सकते। उसको हम कहेंगे: प्रेम में होना, बीइंग इन लव। वह बड़ी और बात है। उसका स्वभाव मैत्री का है। खलील जिब्रान ने ठीक कहा है कि सच्चे प्रेमी मंदिर के दो स्तंभों की भांति होते हैं। बहुत पास भी नहीं, क्योंकि बहुत पास हों तो मंदिर गिर जाए। बहुत दूर भी नहीं, क्योंकि बहुत दूर हों तो भी मंदिर गिर जाए।...देखते हो ये स्तंभ, जिन्होंने च्वांग्त्सु-मंडप को सम्हाला हुआ है? ये बहुत पास भी नहीं हैं, बहुत दूर भी नहीं हैं। थोड़ी दूरी, थोड़े पास। तो ही छप्पर सम्हला रह सकता है। एकदम पास आ जाएं तो छप्पर गिर जाए; बहुत दूर हो जाएं तो छप्पर गिर जाए। एक संतुलन चाहिए।
असली प्रेमी न तो एक-दूसरे के बहुत पास होते हैं, न बहुत दूर होते हैं। थोड़ा सा फासला रखते हैं, ताकि एक-दूसरे की स्वतंत्रता जीवित रहे। ताकि एक-दूसरे की स्वतंत्रता में व्याघात न हो, अतिक्रमण न हो। ताकि एक-दूसरे की सीमा में अकारण हस्तक्षेप न हो।
मैं एक छोटे बच्चे के साथ घूमने गया हुआ था। एक बगीचे के सामने तख्ती लगी थी: नो ट्रेसपासिंग, प्रवेश निषिद्ध। वह छोटा बच्चा नई-नई अंग्रेजी भाषा सीख रहा था, उसने पढ़ा: नो ट्रेसपासिंग। फिर थोड़ा सोच-विचार में पड़ गया।
मैंने उससे पूछा कि तू क्या सोच रहा है?
वह कहने लगा कि मैं यह सोच रहा हूं कि क्या दुनिया में ऐसी भी कोई जगह है जहां तख्ती लगी हो: ट्रेसपासिंग; कि यहां प्रवेश आमंत्रित है; ऐसी भी कहीं कोई तख्ती होगी दुनिया में?
इस दुनिया में तो नहीं होगी। यहां तो हर एक अपने को सम्हाले है। या तो गुलाम हो गया है किसी का, तो इतना दब गया है, रुंद गया है दूसरों के पैरों से, कि अब कहने वाला ही नहीं बचा कोई। और या फिर इतना घबड़ा गया है दबने से कि भाग गया है जंगल में, अकेला बैठा है, चारों तरफ तख्ती लगा दी है: नो ट्रेसपासिंग। उसी को तो हम संन्यासी कहते हैं, साधु कहते हैं, जो जंगल भाग जाता है, चारों तरफ तख्ती लगा देता है: नो ट्रेसपासिंग। लक्ष्मण-रेखा खींच कर बैठ जाता है: भीतर मत आना। क्योंकि डरता है कि भीतर तुम आए कि गुलामी शुरू हुई।
दुनिया में लोग हैं जो रौंदे जा रहे हैं। और कुछ लोग हैं जो भाग गए हैं। ये दोनों अपंग हैं। प्रेम में होने का अर्थ होता है: हम पास भी होंगे इतने कि हमें एक-दूसरे से कोई भय का कारण नहीं, और हम इतने दूर भी होंगे कि हम एक-दूसरे को रौंद भी न डालेंगे, हमारे बीच आकाश होगा। और तुम्हारा निमंत्रण होगा तो मैं आऊंगा, और मेरा निमंत्रण होगा तो तुम मेरे भीतर आओगे। मगर निमंत्रण पर। यह हक न होगा, अधिकार न होगा।
रवींद्रनाथ के एक उपन्यास में एक युवती अपने प्रेमी से कहती है कि मैं विवाह करने को तो राजी हूं, लेकिन तुम झील के उस तरफ रहोगे और मैं झील के इस तरफ।
प्रेमी की बात समझ के बाहर है। वह कहता है: तू पागल हो गई है? प्रेम करने के बाद लोग एक ही घर में रहते हैं।
उसने कहा कि प्रेम करने के पहले भला एक घर में रहें, प्रेम करने के बाद एक घर में रहना ठीक नहीं, खतरे से खाली नहीं। एक-दूसरे के आकाश में बाधाएं पड़नी शुरू हो जाती हैं। मैं झील के उस पार, तुम झील के इस पार। यह शर्त है तो विवाह होगा। हां, कभी तुम निमंत्रण भेज देना तो मैं आऊंगी। या मैं निमंत्रण भेजूंगी तो तुम आना। या कभी झील पर नौका-विहार करते अचानक मिलना हो जाएगा। या झील के पास खड़े वृक्षों के पास सुबह के भ्रमण के लिए निकले हुए अचानक हम मिल जाएंगे, चौंक कर, तो प्रीतिकर होगा। लेकिन गुलामी नहीं होगी। तुम्हारे बिना बुलाए मैं न आऊंगी, मेरे बिना बुलाए तुम न आना। तुम आना चाहो तो ही आना, मेरे बुलाने से मत आना। मैं आना चाहूं तो ही आऊंगी, तुम्हारे बुलाने भर से न आऊंगी। इतनी स्वतंत्रता हमारे बीच रहे, तो स्वतंत्रता के इस आकाश में ही प्रेम का फूल खिल सकता है।
ऐसा दूसरा प्रेम बहुत कठिन है।
और रहीम जिसकी बात कर रहे हैं वह तो तीसरा प्रेम है, वह तो अति कठिन है। यह दूसरा प्रेम भी शायद कभी-कभी संभव हो जाता है--किसी कवि को, किसी चित्रकार को, किसी मूर्तिकार को, किसी संगीतज्ञ को। पहला प्रेम तो साधारण, आम जन का प्रेम है; पृथक जन का प्रेम है; भीड़-भाड़ का, भेड़ों का। दूसरा प्रेम मनुष्यों का प्रेम है, जिनकी थोड़ी गरिमा है, जिनमें थोड़ा बोध है, प्रतिभा है। दूसरा भी बहुत कठिन है। और रहीम तो तीसरे प्रेम की बात कर रहे हैं।
पहला प्रेम: फालिंग इन लव, प्रेम में गिरना।
दूसरा प्रेम: बीइंग इन लव, प्रेम में होना।
और तीसरा: बीइंग लव, प्रेम ही होना।
तीसरा कोई संबंध ही नहीं है, उसका दूसरे से कोई नाता ही नहीं है। वह तो प्रेम की चैतन्य दशा है। वह तो भीतर से उमगता हुआ प्रेम है सारे अस्तित्व के प्रति--इस कूकती कोयल के प्रति, इन पक्षियों की आवाजों के प्रति, सूरज की इन किरणों के प्रति, वृक्षों के प्रति, लोगों के प्रति--यह सारे समग्र अस्तित्व के प्रति। सच तो पूछो, प्रति का सवाल ही नहीं है। किसी का पता नहीं है उस प्रेम पर। जैसे कोई झरना फूट रहा हो, या जैसे किसी फूल से सुगंध उठ रही हो। वह किसी पते-ठिकाने पर नहीं जा रही। वह पहले पोस्ट-आफिस नहीं जाएगी, वह किसी पोस्टमैन पर सवार नहीं होगी, वह किसी लिफाफे में बंद नहीं होगी। वह उड़ेगी खुले आकाश में। जिसको लेना हो, ले ले। और न लेना हो तो न ले। जैसे दीये से झरता प्रकाश है। वह झर रहा है सिर्फ, वह दीये का स्वभाव है।
ऐसे प्रेम की बात कर रहे हैं रहीम। ऐसा प्रेम तो बुद्धों का होता है। ऐसा प्रेम तो उनका ही होता है जो ध्यान की परम अवस्था को उपलब्ध हो गए। ऐसा प्रेम तो ध्यान का परिणाम है। और ऐसा प्रेम सरल नहीं हो सकता--जैसा तुम्हारे साधु-संत कह रहे हैं।
रहिमन मैन तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक माहिं।
प्रेम-पंथ ऐसो कठिन, सब कोई निबहत नाहिं।।
यह सबसे निभ नहीं सकता। यह तो विरले, बहुत विरले, बड़े जागरूक पुरुष इस अवस्था को उपलब्ध हो पाते हैं। और जो ऐसे प्रेम को जानते हैं, वे ही परमात्मा को जानते हैं। और ऐसे प्रेम का नाम भक्ति है। मंदिर में चढ़ा आए दो फूल, जला आए एक दीप, कि उतार आए आरती, कि करवा ली घर में सत्यनारायण की कथा, कि मरते वक्त हरि-राम, हरि-राम जपते रहे, या खुद न बना जपते तो किसी पंडित-पुजारी को बिठा कर जपवाते रहे हरि-राम, हरि-राम, इससे नहीं होगा! रहीम इस प्रेम की बात नहीं कर रहे हैं। वे तो प्रेम के उस पंथ की बात कर रहे हैं जो परमात्मा से मिला देता है। वह तो अति कठिन है, कठिन से कठिन है। गौरीशंकरों पर चढ़ जाना आसान, चांदत्तारों पर पहुंच जाना आसान, प्रेममय हो जाना सर्वाधिक कठिन है।
मैं तो रहीम से राजी हूं, तुम्हारे साधु-संतों से नहीं। तुम्हारे साधु-संत तो तुम्हें खिलौने दे रहे हैं, घुनघुने दे रहे हैं।
मैंने सुना है, एक आदमी ने विज्ञापन पढ़ा। विज्ञापन बड़ा प्रीतिकर था, जैसे कि विज्ञापन होते हैं। जरा विज्ञापनों को गौर से देखा करो! वे तुम्हारी मनोदशा की खबर देते हैं।
केडिलक कार का विज्ञापन होता है, तो विज्ञापन में लिखा होता है: समथिंग टु बिलीव इन! कार, उसका विज्ञापन: समथिंग टु बिलीव इन! कुछ जिस पर भरोसा किया जा सके, विश्वास किया जा सके, जिस पर श्रद्धा की जा सके! सोचो, किन लोगों के लिए यह विज्ञापन दिया जा रहा है? ईश्वर पर श्रद्धा हट गई है, जीवन से श्रद्धा हट गई है, प्रेम से श्रद्धा हट गई है, सारी बहुमूल्य श्रद्धाएं समाप्त हो गईं। अब केडिलक कार पर श्रद्धा करनी पड़ेगी। अब कुछ तो चाहिए, श्रद्धा करने को कुछ तो चाहिए। श्रद्धा खाली रह गई है। तो लोग कारों में भरोसा कर रहे हैं, कारों में श्रद्धा कर रहे हैं।
या कोकाकोला का विज्ञापन पढ़ो: एवरीथिंग गोज वेल विद कोकाकोला।
तो अगर पत्नी से झगड़ा है, कोकाकोला लाओ! अगर घर में वैमनस्य है, तो रेफ्रिजरेटर में कोकाकोला की बोतलें भर कर रखो! हर चीज बड़े रंग से चलती है, मौज से चलती है--बस कोकाकोला संग में हो, सब ठीक होता है। लोग कर रहे हैं इस तरह के अभ्यास। अब और तो कोई उपाय नहीं रहा। बाइबिलें धोखा दे गईं, गीताएं काम नहीं पड़ीं, अब कोकाकोला पर भरोसा करो! कुछ तो चाहिए! तुम्हारे विज्ञापन तुम्हारे ही संबंध में खबर देते हैं।
एक आदमी ने पढ़ा कि एक नया आविष्कार हुआ है, एक ऐसे संगीत-वाद्य का कि न बिजली की जरूरत, न बैटरी की जरूरत; जंगल में ले जाओ, कहीं भी जाओ--संगीत सुनो! तत्क्षण उसने मनीआर्डर किया। पच्चीस रुपये। सस्ता भी था, महंगा भी नहीं था--ऐसा संगीत-वाद्य। सीखने की कोई जरूरत नहीं, यह भी उसमें। किसी स्कूल में नहीं जाना, सीखना नहीं, बैटरी नहीं, बिजली नहीं--कहीं भी, जंगल में बैठो! बड़ी सुंदर पार्सल आई। बड़ी उत्सुकता से, आतुरता से खोली, सारा घर इकट्ठा हो गया, निकला एक घुनघुना! जहां जाओ, वहीं बजाओ। सीखने की कोई जरूरत नहीं। न बैटरी की, न बिजली की जरूरत।
तुम्हारी भक्ति घुनघुनों जैसी है, खेल-खिलौनों जैसी है। और साधु-संत कह रहे हैं कि भक्ति का मार्ग बड़ा सरल, बड़ा सुगम। और तुम्हें जंचती है बात। जंचती है, क्योंकि तुम चाहते हो कि कोई सुगम बात हो, घुनघुने जैसी बात हो; न सीखनी पड़े, न बिजली की जरूरत, न बैटरी की जरूरत; न तपना पड़े, न गलना पड़े, न जीवन को समर्पित करना पड़े, कुछ भी न करना पड़े। एक गोबर के बना कर गणेश जी बिठाल लिए। चलो गौ-गोबर ही सही! पवित्र गोबर के बना लिए! चढ़ा दी फूल की माला, हाथ जोड़ कर बैठ गए, झूठे आंसू बहाने लगे, गणपति की प्रार्थना करने लगे--और तुमने सोचा हो गया सब, भक्ति हो गई। तुम्हें भी लगेगा कि साधु-संत ठीक ही कह रहे हैं, मामला बिलकुल सरल है, अड़चन क्या है इसमें?
लेकिन यह भक्ति ही नहीं है। तुमने जो चाहा, साधु-संतों ने तुम्हें दे दिया। घुनघुना चाहा, घुनघुना दे दिया। उन्हें घुनघुने बेचने हैं, तुम घुनघुनों के खरीददार हो, दोनों के बीच मेल बन जाता है। दोनों एक-दूसरे से प्रसन्न। वे तुमसे प्रसन्न हैं, तुम उनसे प्रसन्न हो।
तुम्हारे साधु-संत साधु-संत नहीं हैं, सिर्फ शोषक हैं। तुम्हारी कमजोरियों का शोषण किया जा रहा है। मगर इस ढंग से किया जा रहा है और इतनी सदियों से किया जा रहा है और इतना प्राचीन है शोषण कि तुम्हें याद भी नहीं आता कि यह शोषण शोषण है। तुम्हें तो लगता है, यह सत्संग हो रहा है।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं: प्रेम-मार्ग निश्चित ही सर्वाधिक कठिन मार्ग है। इससे तुम यह मत समझना कि मैं तुमसे यह कह रहा हूं: तुम प्रेम को उपलब्ध न हो सकोगे। मैं यह नहीं कह रहा हूं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि प्रेम-मार्ग असंभव है। इतना ही कह रहा हूं, सस्ता नहीं है। इतना ही कह रहा हूं कि तुम्हारे झूठे आयोजनों से उपलब्ध न होगा। तुम्हें कसौटी पर से गुजरना होगा।
रहिमन मैन तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक माहिं।
आग की कसौटी से गुजरना होगा, अग्नि-परीक्षा देनी होगी। पकोगे अग्नि में तो ही निखरोगे, कुंदन की तरह स्वच्छ होगा स्वर्ण तुम्हारा। प्रभु के चरणों में चढ़ने के योग्य होगा स्वर्ण तुम्हारा। तुम आभूषण बनोगे। आग से बिना गुजरे यह नहीं हो सकता। और प्रेम से बड़ी आग नहीं है दुनिया में। और सब आगें तो शरीर को जला सकती हैं, प्रेम है अकेला जो आत्मा को जलाता है और निखारता है। और आगें तो बाहर रह जाती हैं, प्रेम है अकेली आग जो भीतर अंतरतम तक जाती है; जो तुम्हें पोर-पोर निखारती, कोर-कोर निखारती। जो तुम्हारे रोएं-रोएं को शुद्ध कर जाती है, तुम्हारी श्वास-श्वास को शुद्ध कर जाती है।
लेकिन तुम्हें तब तीसरे ढंग का प्रेम सीखना होगा। तुम्हें प्रेम होना होगा। प्रेम करना नहीं, प्रेम संबंध नहीं, वरन प्रेम तुम्हारे अंतर की दशा होनी चाहिए। तुम्हें प्रेमपूर्ण होना होगा।
पहला प्रेम कामवासना है, दूसरा प्रेम मैत्री है, तीसरा प्रेम करुणा है। और जब प्रेम करुणा बनता है, तो परमात्मा का द्वार बनता है। लेकिन इस प्रेम तक जाने के लिए तुम्हें ध्यान का उपाय करना ही है। उसके सिवाय कोई उपाय नहीं है दूसरा। क्योंकि प्रेम का अर्थ होता है, मस्तिष्क से हृदय में उतर आना। और मस्तिष्क तुम्हें जकड़े हुए है। और तुम्हारे साधु-संत समझा रहे हैं कि राम-हरि जपते रहना। वह राम-हरि तुम कहां जपोगे? शब्द तो मस्तिष्क में ही होते हैं, हृदय में नहीं जाते।
लेकिन विनोबा का संदेश जयप्रकाश नारायण को दिया गया। अनेक लोगों को लगा होगा: बड़ा धार्मिक संदेश!
यह देश तो बड़ा अजीब है। इस देश के साधु-संत, इस देश के नेता एक से एक अदभुत हैं! जयप्रकाश मरे ही नहीं और पार्लियामेंट ने शोक-संवेदना प्रकट कर दी, और देश के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने घोषणा कर दी कि मर गए! मोरारजी देसाई का मनोविश्लेषण करवाना जरूरी है। अगर फ्रायड से पूछो तो वह कहेगा कि वे चाहते हैं कि मर जाएं। इसलिए जल्दी घोषणा कर दी। भीतर चाह थी। आकांक्षा की पूर्ति वही है कि किसी तरह मरें, झंझट मिटे। मरने की जरा भी खोजबीन न की गई। आश्चर्य! किसी से पूछताछ न की गई। सरकार का इतना बड़ा आयोजन है, बड़े-बड़े नेता जसलोक अस्पताल में बैठे हुए हैं, जसलोक अस्पताल चौबीस घंटे प्रधानमंत्री से फोन से जुड़ा हुआ है। लेकिन बिना कोई खोज-खबर किए, किसी एक आदमी ने अफवाह उड़ा दी कि मर गए--उस आदमी का भी पक्का पता नहीं चल रहा कि कौन? किसी ने यूं ही मजाक कर दिया हो, बंबई से किसी ने फोन ही कर दिया हो उठा कर--मगर इतनी जल्दी भरोसा कर लिया? जिनसे हमारा प्रेम होता है वे तो मर भी जाते हैं तो भी भरोसा नहीं आता कि मर गए।
तुम जानते हो यह बात। अगर तुम्हारा किसी से प्रेम है, वह मर जाए, तो मर जाने के बाद भी कई दिन लग जाते हैं यह भरोसा लाने में कि मर गया। बार-बार भूल जाती है यह बात कि मर गया। कैसे यह हो सकता है? यह हो ही नहीं सकता। किसी मां का बेटा मर जाए, मरी लाश सामने पड़ी है, मगर वह मान नहीं पाती, वह पूछती है--कैसे? यह हो कैसे सकता है? मेरा बेटा मर कैसे सकता है? नहीं-नहीं, मरा नहीं है। शायद सो गया है; शायद बेहोश हो गया है; शायद लौट आएगा।
मर जाने पर भरोसा नहीं आता है, यहां जिंदा आदमी बैठा है, रेडियो पर खबर दे दी गई, पार्लियामेंट में शोक-संवेदनाएं हो गईं, राज्य-सभाओं में शोक-संवेदनाएं हो गईं, दफ्तर बंद हो गए, झंडे झुका दिए गए। इस तरह की मूढ़ता किसी और देश में घट सकती है? भारत धन्य है! धन्य हैं इसके नेता! और धन्य हैं इसके साधु-संत! इसका कोई मुकाबला ही नहीं दुनिया में, यह बेजोड़ है।
कहीं भीतरी आकांक्षा है कि खत्म हो जाए यह आदमी। कहीं बड़े गहरे अचेतन में छुपा भाव है, वही प्रकट हो गया है। इसीलिए इतनी जल्दी भरोसा कर लिया बिना एक बार भी पूछताछ किए। और दूसरी तरफ विनोबा जैसे लोग हैं, वे कह रहे हैं: हरि-नाम जपते रहना। एक तरफ मोरारजी देसाई हैं, वे कहते हैं: तैयारी करो, अरथी बांधो, राम-नाम सत है! एक तरफ राम-नाम सत करवाने वाले लोग हैं, एक तरफ कह रहे हैं: हरि-नाम जपते रहना!
सस्ती बातें!
प्रेम को उपलब्ध होना है तो मस्तिष्क से सारी चेतना हृदय की तरफ प्रवाहित होनी चाहिए। यह बड़ी क्रांति है, रूपांतरण है। यह कोई छोटा काम नहीं है। यह बड़े से बड़ा काम है जो आदमी जीवन में कर सकता है। यह बड़ी से बड़ी चुनौती है। चेतना मस्तिष्क में जाकर अटक गई है। क्योंकि तुम्हारा सारा शिक्षण, तुम्हारे स्कूल, तुम्हारे विद्यालय, तुम्हारे विश्वविद्यालय, तुम्हारा समाज, संस्कृति, सभ्यता, सबका एक ही आग्रह है कि चेतना को मस्तिष्क में ले जाओ। तो गणित सिखाओ, तर्क सिखाओ, भूगोल-इतिहास सिखाओ--सब सिखाओ, एक प्रेम भर नहीं सिखाया जाता। एक प्रेम की झलक भर मत उतरने देना। प्रेम को तो बिलकुल काट ही दो। आदमी को ऐसे हमने गुजारना सिखाया है कि हृदय से बच कर निकल जाता है। हृदय रास्ते पर आता ही नहीं। हमें हृदय का मार्ग ही भूल गया है। तो अगर हम भक्ति भी करते हैं तो वह भी मस्तिष्क में ही रहती है, वह भी हृदय तक नहीं आती। और हृदय तक न आए, तो भक्ति ही नहीं है, प्रेम ही नहीं है।
हृदय तक लाने का उपाय क्या है?
ध्यान की कुदाली से काट डालने होंगे विचार के सारे तंतु। ध्यान की तलवार से विचार की सारी की सारी जड़ें काट डालनी होंगी, ताकि चेतना मस्तिष्क से मुक्त हो जाए। और मस्तिष्क से मुक्त हो तो तत्क्षण हृदय में प्रवेश हो जाती है। प्रेम ध्यान की परिणति है। और आज का मनुष्य तो बिना ध्यान के प्रेम की तरफ नहीं जा सकता।
मुझसे अक्सर लोग पूछते हैं कि मैं भक्ति पर इतना बोलता हूं, और करवाता तो हूं आश्रम में ध्यान! कारण साफ है। आधुनिक मनुष्य इतना मस्तिष्क से भर गया है कि ध्यान से ही उसके मस्तिष्क को अब तोड़ा जा सकता है। और मस्तिष्क से उसके संबंध शिथिल हो जाएं, मस्तिष्क से उसकी ऊर्जा मुक्त हो जाए, तो दूसरी कोई जगह ही नहीं है तुम्हारे भीतर जहां ऊर्जा जा सके। दो ही स्थान हैं, या तो मस्तिष्क या हृदय। या तो तर्क या प्रेम। या तो गणित या काव्य। अगर गणित, तर्क से मुक्त हो जाए तुम्हारी चेतना, तो तत्क्षण, अपने आप चेतना की लहर हृदय में पहुंच जाएगी। और उस हृदय में लहर का पहुंच जाना सबसे अपूर्व घटना है। मगर उसके लिए मस्तिष्क से मुक्त होना! और मस्तिष्क में हमारे बड़े न्यस्त स्वार्थ हैं। वही हमारी शिक्षा, वही हमारा तादात्म्य, वही हमारा अहंकार, उसी में तो हम नियोजित हैं। उसको छोड़ना सरल नहीं हो सकता; साधु-संत झूठी बातें कहते हैं। तुम सुनना चाहते हो झूठी बातें तो तुमसे झूठी बातें कही जाती हैं।
छोटे बच्चे भूत-प्रेत की परीकथाएं सुनना चाहते हैं तो उनको भूत-प्रेत की और परियों की कथाएं सुनाई जाती हैं। ऐसे ही तुम छोटे बच्चे हो। तुम सस्ती बातें सुनना चाहते हो, सस्ते साधु-संत हैं, जो गांव-गांव घूम कर तुम्हें तृप्ति देते रहते हैं, तुम्हारी मलहम-पट्टी करते रहते हैं; तुम्हारे घावों को उघड़ने नहीं देते, तुम्हारी बीमारियों को प्रकट नहीं होने देते; तुम्हारे रोगों को ढांके रखते हैं, फूलों में सजाए रखते हैं। और यह ठीक भी है। तुम जो भाषा समझते हो, वही भाषा वे बोलते हैं, तो ही तुम उन्हें सम्मान दोगे, तो ही उनका व्यवसाय चलेगा। भाषा-भाषा की बात है। मैंने सुना है--

एक नेता ने
दूसरे नेता को
जन्मदिन पर बधाई
देते हुए लिखा
ईश्वर करें, आपके
उदघाटन भाषण की मीटिंग में
नहीं हो हूटिंग,
न ही पथराव हो
विरोधियों के आक्रोश से, गुरु बचाए
न ही छात्रों द्वारा घेराव हो
शनि की कृपा से
आपका क्षेत्र
बाढ़, अकाल
और सूखाग्रस्त घोषित हो जाए
राहत कार्य
के अंतर्गत
आपकी सारी गरीबी धुल जाए,
राजनीति में सदा, यूं ही
चलती रहे तिजारत
वर्षगांठ मुबारक!
भाषा भाषा की बात है। अब राजनेता किसी दूसरे राजनेता को अगर वर्षगांठ में मुबारक भी भेजे तो और क्या मुबारक भेजे? इसी तरह की भाषा समझी जा सकती है।
तुम जो चाहते हो, तुम्हें दिया जाता है। और जब तुम जो चाहते हो वही तुम्हें मिलता है, तो तुम बड़े प्रसन्न होते हो। तुम्हारी धारणाएं, अंधी धारणाएं, तुम्हारे अंधविश्वास परिपुष्ट किए गए, तुम्हारा अहंकार मजबूत हुआ, तुम प्रसन्नचित्त लौटते हो।
सदगुरु के पास जाओगे तो झकझोरे जाओगे, तोड़े जाओगे, मिटाए जाओगे। सदगुरु के पास जाने के लिए साहस चाहिए, दुस्साहस चाहिए। सदगुरु के पास बैठने के लिए तैयारी चाहिए, कि गर्दन कटे तो कट जाए। कबीर कहते हैं: कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ, जो घर बारै आपना चलै हमारे साथ। घर जलाने की हिम्मत चाहिए। सरल नहीं है भक्ति। घर जलाना है; आग में उतरना है। कठिन है, क्योंकि अहंकार का बीज टूटेगा, तो तुम्हारे भीतर प्रेम का अंकुर उठेगा। बीज अगर टूटने से डरे, बीज अगर मरने से डरे, तो पौधा कभी पैदा न हो।

अंधकार में
दबा हुआ मैं
मुझको अनजाना रहने दो!
जीवन-शक्ति तुम्हें जो दी है
उससे बेधो
तमस-भार यह
बढ़ो जिधर तुमको पुकारता है प्रकाश
रवि की किरणों का!
नाता मत तोड़ो धरती से,
यह माता है!
जीवन-रस तुमको देती है!
पर न अनसुनी करो
व्योम की भी पुकार,
उस ओर बढ़ो तुम
मुक्त वायु में!
तुम्हें पल्लवित पुष्पित होकर
नत-मस्तक ही सहना होगा भार फलों का!
तभी सार्थक मैं भी होऊंगा!
छोड़ो मेरा मोह
बढ़ो तुम रवि-किरणों की ओर,
बढ़ो ले मुक्त वायु में सांस
सदा तुम मुक्त गगन की ओर!

बीज टूटता है तो पीड़ा तो होगी। लेकिन बीज बिना टूटे वृक्ष न हो सकेगा। और वृक्ष होने के लिए दो अपूर्व काम करने होते हैं। एक, जमीन से नाता गहराना होता है। बीज जमीन में भी पड़ा रहे तो उसका नाता नहीं होता--खयाल रखना। बीज तो टूटता है, जब उसमें जड़ें निकलती हैं, तब जमीन से नाता होता है। तो एक तरफ तो बीज टूट कर जमीन में अपनी जड़ें फैलाता है, भूमि से अपना नाता बनाता है, भूमि से रस लेता है। और दूसरी तरफ आकाश की तरफ उठना शुरू होता है; पल्लव निकलते हैं, अंकुर निकलते हैं। अदभुत यात्रा है, विरोधाभासी। एक तरफ जमीन में उतरने लगती हैं गहरी जड़ें और दूसरी तरफ उठने लगती हैं शाखाएं आकाश की ओर।
मेरी दृष्टि में संन्यासी ऐसा ही व्यक्ति है जो एक तरफ भूमि में जड़ें जमाता है और दूसरी तरफ आकाश की ओर पंख फैलाता है। जो भूमि में ही रह जाते हैं, वे नासमझ हैं। और जो भूमि के डर के कारण सिर्फ आकाश की आकांक्षा करने लगते हैं, वे भी उतने ही नासमझ हैं। जिनको तुम गृहस्थ कहते हो, वे भूमि में ही पड़े रह जाते हैं, बीज की तरह। और जिनको तुम अब तक साधु-संत कहते रहे हो, वे भाग खड़े होते हैं भूमि से, डर के कारण कि कहीं भूमि में जड़ें न जम जाएं, कहीं संसार जकड़ न ले। भाग जाते हैं दूर जंगल में, इस आशा में कि इस तरह आकाश की तरफ उड़ सकेंगे। लेकिन आकाश की तरफ जाने का एक ही उपाय है--बड़ा विरोधाभासी उपाय है--भूमि में जाओ गहरे, तो आकाश में उठोगे ऊंचे। जितनी होगी गहराई तुम्हारी जड़ों की, उतनी ऊंचाई होगी तुम्हारी शाखाओं की। अगर तुम पाताल छू लोगे जड़ों से, तो तुम आकाश छू लोगे अपने फूलों से।

अंधकार में
दबा हुआ मैं
मुझको अनजाना रहने दो!
जीवन-शक्ति तुम्हें जो दी है
उससे बेधो
तमस-भार यह
बढ़ो जिधर तुमको पुकारता है प्रकाश
रवि की किरणों का!
नाता मत तोड़ो धरती से,
यह माता है!
जीवन-रस तुमको देती है!
पर न अनसुनी करो
व्योम की भी पुकार,
उस ओर बढ़ो तुम
मुक्त वायु में!
तुम्हें पल्लवित पुष्पित होकर
नत-मस्तक ही सहना होगा भार फलों का!
तभी सार्थक मैं भी होऊंगा!
छोड़ो मेरा मोह
बढ़ो तुम रवि-किरणों की ओर
बढ़ो ले मुक्त वायु में सांस
सदा तुम मुक्त गगन की ओर!

इस दोहरे रूप को जो एक साथ सम्हाल लेता है, इस द्वंद्व को जो एक साथ सम्हाल लेता है, इस द्वैत के बीच जो अद्वैत साध लेता है आकाश और पृथ्वी के बीच, वही मेरा संन्यासी है। जो संसार में होकर और संसार का नहीं है। संसार में जड़ें जमाए है, मगर जिसकी अभीप्सा आकाश की है। जो शरीर में है और आत्मा की तलाश में लगा है। शरीर जिसका मंदिर है। यह अस्तित्व परमात्मा का मंदिर है।
मैं तुम्हें किसी ऐसे प्रेम की शिक्षा नहीं दे रहा हूं जो जीवन-विरोधी हो। मैं तुम्हें ऐसे प्रेम की शिक्षा दे रहा हूं कि जिसके माध्यम से ही तुम्हें परिपूर्ण जीवन के दर्शन होंगे। परिपूर्ण जीवन का दर्शन ही तो ईश्वर-दर्शन है। ईश्वर और है क्या? जीवन की समग्रता, जीवन की परिपूर्णता, जीवन की पूरी निश्छलता, जीवन का पूरा निर्दोष रूप, जीवन का परम निखार, जीवन की आत्यंतिक ऊंचाई। और काश ऐसा हो सके, तो राम-राज्य अभी हो सकता है। मेरे लिए अभी है! जो व्यक्ति भी जागा, वह राम-राज्य में है। राम-राज्य से मेरा मतलब दशरथ के बेटे राम से नहीं है। राम से मेरा अर्थ है: प्रभु का राज्य। जिसको जीसस किंगडम ऑफ गॉड कहते हैं, प्रभु-राज्य।

आएगा वह दिन, बहुत ही शीघ्र आएगा।
जब मदी बिलकुल बदल कर
स्वच्छ, शीतल, सौम्य, शोभायुक्त, नई हो जाएगी,
जिस तरह कोई नहा कर स्वच्छ हो जाए।

व्योम यह उजली किसी कोमल विभा से पूर्ण होगा।
और यह नैराश्य तम का भाग जाएगा।
आदमी को पंख निकलेंगे।
जहां तक स्वप्न उड़ता है
वहां तक आदमी निर्बंध होकर उड़ सकेगा।

बसंती वायु के मादक झकोरों में
उड़ेंगे रक्तलोचन श्वेत पारावत खुशी से।
सुनेगी शांति का कूजन मही सर्वत्र सुख से।
गगन पर जो घिरेंगे मेघ वे पीयूष देंगे।
दिवस में सूर्य से संजीवनी, निशि में सुधाकर से
सुधा की बूंद टपकेगी।

नहीं, मैं भविष्य की बात नहीं कहता। मैं यह नहीं कह सकता--आएगा वह दिन, बहुत ही शीघ्र आएगा। नहीं, मैं तो कहता हूं: आ ही गया है वह दिन, सदा से आया हुआ है वह दिन। अमी झरत, बिगसत कंवल। अभी झर रहा अमृत, अभी कमल खिल रहे हैं। तुम आंख खोलो। तुम जरा सजग होओ। तुम जरा ध्यान के जल में स्नान करो। गंगाओं में नहीं, यमुनाओं में नहीं, नर्मदाओं में नहीं, ध्यान में! ध्यान की सरस्वती में थोड़े नहाओ। उस अदृश्य ध्यान की धारा में थोड़े उतरो। मन के विचार, मन के कोलाहल को थोड़ा जाने दो। शांत, मौन निर्विचार--और तुम्हारे भीतर उठेगी एक लपट, जो तुम्हारे अतीत को भस्मीभूत कर देगी। और जो तुम्हारे भविष्य को सदा के लिए विदा कर देगी। रह जाएगा शुद्ध वर्तमान। और उस वर्तमान में उठती है प्रेम की गंध। उस वर्तमान में झरता है प्रेम का प्रकाश। मगर कठिन है बात!
रहिमन मैन तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक माहिं।
प्रेम-पंथ ऐसो कठिन, सब कोई निबहत नाहिं।।
हिम्मत हो तो चुनौती स्वीकार करो! तो चढ़ो इस तुरंग पर! तो चलो चलें, आग तो लगी है जंगल में। जिनके भीतर थोड़ी भी क्षमता है, प्रतिभा है, वे इस चुनौती को स्वीकार करेंगे ही, क्योंकि यह चुनौती अभियान है।
सिर्फ नपुंसक, सिर्फ कायर मुंह ओढ़ कर चुनौती को इनकार करके रह जाते हैं, सिर्फ आलसी। और उनकी भीड़ है। और साधु-संत उन पर जीते हैं। तो वे समझाते हैं कि भक्ति-मार्ग बड़ा सरल है। घंटी बजा दी टुन-टुन-टुन, और भक्ति-मार्ग पूरा! खुद भी न बजाई तो एक नौकर रख लिया घंटी बजाने के लिए, उसने बजा दी, भक्ति-मार्ग पूरा! तिलक-चंदन लगा लिया, भक्ति-मार्ग पूरा!
पागल हो गए हो? जलना होगा! प्राणों के अंतरतम को निखारना होगा! प्रेम तुम्हारी सर्वाधिक शुद्ध दशा है। और शुद्ध का ही शुद्ध से मिलन हो सकता है। प्रेम तुम्हारे न होने की दशा है, शून्य की, निर-अहंकार की। और शून्य से ही महाशून्य का मिलन हो सकता है। कठिन है, मैं कहता, लेकिन असंभव नहीं। और सच तो यह है, कठिन है, इसलिए रसपूर्ण है। सस्ता होता, बाजार में बिकता होता, मजा ही क्या रह जाता! कठिन है, चुनौती है, अभियान है, पुकार है। जिनमें भी थोड़ा बल है, वे जगेंगे और यात्रा पर निकलेंगे।
लेकिन एक बात अंत में जोड़ दूं--अंत में जोड़ रहा हूं, क्योंकि पहले यह बात मैं कहता तो तुम गलत समझते। जिस दिन तुम प्रेम को जान लोगे, उस दिन तुम भी शायद कहो कि सरल है, सुगम है। क्यों? क्योंकि प्रेम तुम्हारी निजता है, तुम्हारा स्वरूप है। इसलिए जान कर तो कोई कह सकता है कि सरल है, सुगम है। लेकिन उस सरलता और सुगमता का कलियुग से कोई संबंध नहीं है। उस सरलता और सुगमता का तुमसे कोई संबंध नहीं है। हां, बुद्ध को, नारद को, मीरा को सरल है, सुगम है। सच तो यह पूछो, मंजिल पहुंच कर सभी को सुगम हो जाती है। पहुंच कर। मगर यह बात उनको मत कहना जो रास्ते पर हैं। उन्हें तो कठिन है। उन्हें तो पुकारे जाना, उन्हें तो नये-नये और निमंत्रण दिए जाना। नहीं तो वे कहीं भी शिथिल होकर बैठ जाएंगे, किसी मील के पत्थर को छाती से लगा लेंगे। पहुंच कर तो सभी मंजिलें सुगम हो जाती हैं। बड़े से बड़ी खोज सत्य की, एक बार हो गई, तो सुगम हो जाती है। जानते ही सुगम हो जाती है।
मगर यह मंजिल पर पहुंचने वाले की बात है। अगर बुद्ध कबीर को कहें कि सुगम है, तो ठीक। कि कबीर दादू को कहें कि सुगम है, तो ठीक। मगर यह गुफ्तगू है, यह संत आपस में एक-दूसरे को कहें तो ठीक। यह बीमारों से कहने की बात नहीं है कि सुगम है। नहीं तो बीमार तो अपना चादर ओढ़ कर पड़े रहेंगे; कि सुगम ही है तो फिर जाना कहां? और कलियुग है, तो हरि-नाम जपते रहना और शाकाहार करते रहना, सब ठीक हो जाएगा। जिंदगी भर करो मांसाहार, जिंदगी भर कभी हरि-नाम न लेना, मरते वक्त हरि-नाम ले लेना!
और यही साधु-संत तुम्हें कहानियां सुनाते हैं कि एक पापी मर रहा था और उसने अपने बेटे को पुकारा, लेकिन ऊपर का परमात्मा धोखे में पड़ गया। बेटे का नाम भगवान का नाम था--जैसा कि पुराने दिनों में सभी नाम भगवान के नाम होते थे। किसी का नाम ईश्वर, किसी का नाम भगवान, किसी का राम, किसी का कृष्ण, किसी का अब्दुल्ला, किसी का रहीम, किसी का कुछ, लेकिन ये सब नाम परमात्मा के हैं। ये उसी के गुण हैं। तो बुलाया तो अपने बेटे को, ऊपर के राम ने समझा कि मुझे बुला रहा है--और पापी तत्क्षण बैकुंठ चला गया! शायद उसी हिसाब से लोग सोचते हैं: मरते वक्त याद कर लेंगे। जब बड़े-बड़े पापी बैकुंठ चले गए हैं--सिर्फ अपने बेटे को बुला रहे थे और ऊपर का परमात्मा धोखे में आ गया कि मुझे बुला रहे हैं--तो हम तो ऊपर के ही परमात्मा को बुला रहे हैं, हमारा बैकुंठ तो निश्चित है।
काश, इतना आसान होता! जिंदगी जीनी होगी प्रेम में, जिंदगी जीनी होगी प्रेम के आधार पर, जिंदगी का पूरा मंदिर बनाना होगा प्रेम से, प्रेम की ईंटों से चुनना होगा जीवन का मंदिर, तभी इसका अंतिम शिखर--मृत्यु--परमात्मा के चरण को छू पाएगा, अन्यथा नहीं। मरते वक्त राम का नाम लेने से कुछ भी न होगा। राम का नाम लेने की जरूरत ही अगर मरते वक्त पड़े, तो समझना कि जिंदगी बेकार गई। क्योंकि जिसने जिंदगी प्रेम से जी है, वह राम का नाम नहीं लेगा मरते वक्त--राममय होगा, नाम क्या लेगा! राम ही राम होगा--बाहर, भीतर, सब ओर। राम के ही सागर में होगा। नाम किसका लेना है! नाम तो परायों का लिया जाता है, औरों का लिया जाता है।
विनोबा ने ऐसा तो नहीं लिखा कि हे जयप्रकाश, मरते वक्त जयप्रकाश-जयप्रकाश रटते रहना। लिखा है: राम-हरि जपते रहना। तो राम-हरि यानी कुछ और, दूर, पराए। जो जानता है, वह क्या अपना ही नाम जपेगा? वही मैं हूं, वही तुम हो, वही सब में व्याप्त है, वही सर्वव्यापी है।
लेकिन जानो तो सरल, बहुत सुगम; क्योंकि स्वभाव, स्वरूप, तुम्हारी निजता। लेकिन जब तक नहीं जाना, बहुत कठिन, अति कठिन।
रहिमन मैन तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक माहिं।
प्रेम-पंथ ऐसो कठिन, सब कोई निबहत नाहिं।।



दूसरा प्रश्न: क्या प्रभु के लिए अभीप्सा पर्याप्त है?

शोभा! अभीप्सा से क्या प्रयोजन है, इस पर सब निर्भर होगा। अगर अभीप्सा केवल कामना के लिए दिया गया सुंदर नाम है, तो पर्याप्त नहीं। अगर अभीप्सा वासना को ही पहनाया गया सुंदर परिधान है, तो पर्याप्त नहीं। अगर अभीप्सा सच में ही अभीप्सा है...अभीप्सा का अर्थ होता है: प्रज्वलित अग्नि। तुम्हारे भीतर एक ही आकांक्षा रह गई...
ऐसा समझो--फरीद से किसी ने पूछा कि मैं ईश्वर को पाना चाहता हूं, क्या करूं? फरीद ने कहा, आ मेरे साथ नदी पर, हम स्नान करें। या तो स्नान करने में ही अगर हाथ अवसर लगा, तो जवाब दे दूंगा। और नहीं तो फिर स्नान करके घाट पर बैठ कर दे दूंगा।
जिज्ञासु थोड़ा तो डरा कि यह मामला क्या है? यह बात क्या कह रहा है? यह कह रहा है, अगर मौका लगा तो स्नान करने में ही जवाब दे दूंगा! मगर फिर भी सोचा कि फकीर तो इस तरह की अल्हड़पन की बातें कहते हैं। चलो देखें, क्या करता है? क्या जवाब देता है नहाने में?
उसे कुछ पता नहीं था। जवाब दिया गया। जैसे ही वह नहाने उतरा--फरीद भी उसके साथ उतरा--जैसे ही उसने डुबकी मारी, फरीद उसके ऊपर चढ़ बैठा। दबा दिया उसको, उसके सिर को। फरीद तगड़ा, मस्त फकीर था। और जिज्ञासु तो तुम जानते हो जैसे होते हैं--दुबले-पतले, दार्शनिक वृत्ति के आदमी, हड्डी-मांस...मांस तो था नहीं, हड्डी-हड्डी! मगर फरीद है कि दबाए जा रहा है।
मगर जब मौत सामने आ जाए तो अस्थिपंजर भी जिंदा हो जाते हैं! जब देखा कि अब मामला बिलकुल खतरनाक ही हो गया है, आखिरी स्थिति आ गई, अब और एक क्षण कि मौत आई, तो उस अस्थिपंजर दार्शनिक ने एक झटका दिया और फरीद को फेंक दिया! उठ आया बाहर।
फरीद ने पूछा, कहो, कैसा रहा? कुछ अनुभव हुआ?
उसने कहा, क्या खाक अनुभव हुआ! यह कोई उत्तर है? मैं आया था प्रश्न पूछने: ईश्वर कैसे खोजा जाए? यह उत्तर है? मारे डालते थे! मैं तो साधु-संत समझ कर आया था, तुम तो हत्यारे मालूम होते हो। वह तो मेरी आयु शेष होगी, सो बच गया। अन्यथा तुम्हें देख कर मुझे शक होता है कि मैं बचा कैसे? निकला कैसे?
फरीद कहने लगा, मैं यह पूछता हूं कि जब मैंने तुम्हें दबाया, तो तुम्हारे भीतर कितनी वासनाएं थीं?
उसने कहा, कितनी वासनाएं? सब वासनाएं खो गईं, एक ही वासना बची कि किसी तरह बाहर निकल आऊं।
फिर क्या हुआ?
उसने कहा, फिर तो यह वासना भी खो गई। फिर तो यह पता ही नहीं रहा कि मैं क्या कर रहा हूं, क्या हो रहा है। फिर तो एक अनजानी अभीप्सा थी श्वास लेने की! वह भी शब्दों में नहीं थी, मेरे भीतर शब्द बनाने की फुरसत भी नहीं थी, सुविधा भी नहीं थी। प्राण संकट में हों तो कोई शब्द और विचार इत्यादि में पड़ता है? मेरा रोआं-रोआं एक ही पुकार से भरा था--वह पुकार भी मैं अब शब्द दे रहा हूं, तब शब्द नहीं थे।
फरीद हंसने लगा, उसने कहा, तो तुम समझ गए। तुम आदमी समझदार हो, बुद्धू नहीं हो। बस जिस दिन तुम ईश्वर को पाने के लिए ऐसी ही अभीप्सा से भर जाओगे, उस दिन ईश्वर मिल जाएगा। अब रास्ता लगो। अब अपने काम से लगो। अब जाओ, उत्तर हो गया। सत्संग पूरा हो गया।
यह है सत्संग।
अभीप्सा का अर्थ क्या है? ऐसे ही जैसे तुम चाहते हो कि एक बड़ा मकान बना लें? बन जाए तो ठीक, न बने तो ठीक। ऐसे ही जैसे तुम चाहते हो कि थोड़ा धन कमा लें? कि यह सुंदर स्त्री जा रही है, यह मिल जाए? ऐसे ही तुम परमात्मा को चाहते हो? तो यह अभीप्सा नहीं है। यह वासना का ही नया रूप है। तुम्हारे मन में लोभ जगा। तुमने देखा कुछ लोगों को, कुछ साधु, कुछ संत, कुछ फकीर, वे ईश्वर की बातें करते हैं। वे कहते हैं: ईश्वर को पाकर बड़ा आनंद मिलता है। तुम सोचते हो, चलो यह भी करके देख लें। और सब तो करके देख लिया, यह भी क्यों छोड़ें! अब आए ही हैं जिंदगी में तो चलो ईश्वर को भी थोड़ा चख लें! तुम्हारे मन में लोभ जगता है।
और कभी अगर तुम संयोग से किन्हीं बुद्धों के पास आ गए, तो बड़ा ही प्रगाढ़ लोभ जगता है कि जो इन्हें हुआ है, हमें भी हो जाए।र् ईष्या भी जग सकती है, जलन भी जग सकती है, स्पर्धा भी जग सकती है, अहंकार को चोट भी लग सकती है--कि अगर इस बुद्ध को हो गया, महावीर को हो गया, कृष्ण को हो गया, तो मुझे क्यों नहीं? मुझे भी होना चाहिए! मैं भी पाकर रहूंगा!
अगर ऐसी महत्वाकांक्षा है, तो अभीप्सा नहीं। तो फिर अभीप्सा काफी नहीं है।
लेकिन अगर वैसी अभीप्सा है जैसी फरीद ने समझाई कि तुम्हारे भीतर सच ही बिना किसी लोभ के, जीवन की व्यर्थता को जान कर, जीवन की अर्थहीनता को जान कर, जीवन के सारे अनुभवों को देख कर एक भाव साफ हो गया है कि यहां पाने योग्य कुछ और नहीं है, जानने योग्य कुछ और नहीं है; सत्य को जानना है, उस अदृश्य को जानना है जो सबको सम्हाले हुए है; क्योंकि उसी को जान कर हम परम विश्राम को उपलब्ध हो सकेंगे, अन्यथा यह आपाधापी जारी रहेगी; और सब पा लिया, और सब पाकर देख लिया, और देख लिया कि कुछ भी मिलता नहीं, हाथ खाली के खाली हैं। अगर ऐसे अनुभव से तुम्हारे भीतर एक प्रज्वलित अग्नि की लपट उठे, या किसी बुद्ध के सत्संग में संक्रामक हो जाए उसकी प्यास, वह तुम्हें उकसा दे, तुम्हें जला दे, तुम्हें आतुरता से भर दे, तुम्हारे भीतर एक विरह-अग्नि पैदा हो जाए, तो अभीप्सा पर्याप्त है। कुछ और चाहिए नहीं। प्यास पूर्ण हो जाए, तो परमात्मा उसी क्षण घट जाता है।

नयन नहीं मिलते नयनों से, मन का ज्वार मिला करता है।
दीप नहीं जलते दीपक में, संचित नेह जला करता है।
ज्योति धूम से नेह जोड़ कर,
बाती जल काजल बन जाती।
दिवा रश्मि का हाथ पकड़ कर,
नभ के अंतर में खो जाती।
चरण नहीं चलते प्रिय पथ पर, प्यासा हृदय चला करता है।

चरणों से नहीं पहुंचता कोई परमात्मा तक, प्यासे हृदय से पहुंचता है। दीपक नहीं जलते, दीपक में वह जो स्नेह का तेल जो भरा है, वह जो प्रीति जो भरी है, वह जलती है।
नयन नहीं मिलते नयनों से, मन का ज्वार मिला करता है।
तुम्हारे मन में ज्वार उठेगा, तो परमात्मा से मिलन होगा। आंखों से आंखें थोड़े ही मिला सकोगे।
दीप नहीं जलते दीपक में, संचित नेह जला करता है।
ज्योति धूम से नेह जोड़ कर,
बाती जल काजल बन जाती।
दिवा रश्मि का हाथ पकड़ कर,
नभ के अंतर में खो जाती।
चरण नहीं चलते प्रिय पथ पर, प्यासा हृदय चला करता है।
प्यास ही ले जाती है। पूर्ण प्यास पूर्ण तक ले जाती है। जगाओ प्यास को! लोभ न हो तुम्हारा प्यास,र् ईष्या न हो, महत्वाकांक्षा न हो, शुद्ध प्रेम हो।

क्या बतलाऊं इन नयनों में नीर अधिक या प्यास अधिक है।

नीर भरे, ज्यों नभ आंगन में,
उमड़े पावस मेघ सजीले!
और तृषित ज्यों शत-शत युग के,
चातक के नव बाल हठीले।
नहीं जानती इन नयनों में नीर अधिक या प्यास अधिक है।
क्या बतलाऊं इन नयनों में नीर अधिक या प्यास अधिक है।

पल में अंकित हो जाती हैं,
ओंठों पर स्वर्णिम मुसकानें।
और दूसरे क्षण नयनों में,
सावन की रिमझिम अनजाने।
क्या बतलाऊं इस जीवन में रुदन अधिक या हास अधिक है।
क्या बतलाऊं इन नयनों में नीर अधिक या प्यास अधिक है।

धूप-छांह सी आश-निराशा
पल में आती, पल में जाती।
विगत कहानी बन रह जाता,
भावी सपना बन छा जाती।
क्या बतलाऊं अधिक निराशा या उर में विश्वास अधिक है।
क्या बतलाऊं इन नयनों में नीर अधिक या प्यास अधिक है।

सब तुम्हारी आंखों पर निर्भर है। प्यास को तो प्यास बनाना ही है, नीर को भी प्यास बनाना है। आंसू-आंसू प्यास बन जाए। तुम्हारी आंखें उसे तलाशने ही लगें, खोजने ही लगें। और ऐसा ही नहीं कि मंदिरों और मस्जिदों में खोजें--वह तो झूठी खोज है। मंदिर-मस्जिद में वह कभी किसी को मिला नहीं। हां, जिन्हें कहीं और मिल गया है, उन्हें मंदिर और मस्जिद में भी मिल जाता है, वह दूसरी बात। लेकिन मंदिर-मस्जिद में पहले वह किसी को नहीं मिलता। पहले तो तुम्हें तलाशना होगा इस विराट अस्तित्व में। और यहां वह खूब है। घना होकर है। सघन होकर है। यहां बादल-बादल उससे भरा है। यहां तलाशो। वृक्षों की हरियाली में झांको। पत्तों में खोजो उसके हस्ताक्षर। झरनों में बैठ कर उसकी कलकल आवाज सुनो, वहां तुम्हें ओंकार का नाद सुनाई पड़ेगा। तारों में देखो, और कभी-कभी तुम्हें उसकी झलक और उसकी रोशनी बरसती मालूम पड़ेगी। और अपने अंतर में झांको, और अपने हृदय में टटोलो--और कभी-कभी उसका हाथ हाथ में आ जाएगा। जैसे-जैसे ये अनुभव बढ़ने लगेंगे, वैसे-वैसे भरोसा, श्रद्धा जन्मेगी।
मैं विश्वास का पक्षपाती नहीं हूं। मैं तुमसे यह नहीं कहता कि ईश्वर में विश्वास करो। विश्वास का ईश्वर तो झूठा होता है। हिंदू का होता है, मुसलमान का होता है, ईसाई का होता है--मगर झूठा होता है। मैं तो कहता हूं, ईश्वर को जानना है, विश्वास नहीं करना है। जिसे जाना जा सकता है, उस पर विश्वास क्यों करो? विश्वास तो वे ही लोग कर लेते हैं जो जानने की झंझट से बचना चाहते हैं।
मेरे देखे, तुम्हारे तथाकथित आस्तिक जरा भी आस्तिक नहीं हैं। छिपे हुए नास्तिक हैं। नास्तिक कम से कम ईमानदार है, तुम्हारे आस्तिक बेईमान हैं। नास्तिक कम से कम इतना तो कहता है कि मुझे मालूम नहीं है, मैं कैसे मानूं? मुझे कोई प्रमाण नहीं मिलता, मैं कैसे मानूं? प्रमाण दो तो मैं मान लूं। नास्तिक कम से कम इतनी तो ईमानदारी बरत रहा है। मगर आस्तिक तो महा बेईमान है। वह कहता है, प्रमाण भी नहीं है, पता भी नहीं है, लेकिन मैं मानता हूं क्योंकि मेरे पिताजी मानते हैं, मेरे पिताजी के पिताजी मानते रहे हैं, हमारी पीढ़ियों में सदा से यह चला आया है, हम हमेशा से मानते रहे हैं।
उधार, अंधविश्वास तुम्हें कहीं न ले जाएंगे। उनसे अभीप्सा पैदा नहीं होगी। ज्यादा से ज्यादा छोटा-मोटा लोभ पैदा हो सकता है। और लोभ गंदा होता है, कुरूप होता है। गंदे लोभ से कोई ईश्वर तक नहीं पहुंचता। एक आदमी तिजोड़ी भरता रहता है--गंदा लोभ तिजोड़ी भरवाता है। फिर उसको मौत करीब आने लगती है तो डर लगता है कि अब मौत करीब आ रही है, कुछ आगे के लिए भी कर लूं, तो उसी गंदी तिजोड़ी में से कुछ निकाल कर दान भी करता है। मगर वे ही गंदे हाथ और वही गंदी आकांक्षा कि अब ईश्वर पर भी कब्जा पा लूंगा।
मैंने सुना है, एक मारवाड़ी मरा।...मारवाड़ी नाराज न हों। मैं भी क्या करूं? मारवाड़ी मरते हैं। इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है।...वह बड़ा अकड़ कर स्वर्ग पहुंच गया। मारवाड़ी था, अपनी पगड़ी-वगड़ी लगाए, मारी दस्तक उसने जाकर जोर से स्वर्ग पर। पैसे वाला था! अकड़ से गया था! दरवाजा खोला देवदूत ने, पूछा कि आप कौन हैं? और यहां कैसे दस्तक मार रहे हैं? और कैसे अकड़े खड़े हैं? तो उसने कहा, मैं फलां-फलां सेठ हूं, स्वर्ग आया हूं!
देवदूत ने पूछा, आपने किया कुछ जिसकी वजह से आप स्वर्ग आए हैं?
उसने कहा, हां, किया क्यों नहीं? एक अंधी औरत को मैंने तीन पैसे दिए थे।
साधु-संत समझा रहे हैं तुम्हें कि यहां दो एक पैसा, वहां मिले एक करोड़ गुना। ब्याज की भी कोई सीमा होती है! चक्रवृद्धि ब्याज भी इतना नहीं होता! लाटरी भी इस तरह नहीं खुलती है! तीन पैसे में तो उसने समझो कि अरबों-खरबों का काम कर लिया है।
देवदूत भी जरा हैरान हुआ, इसकी अकड़ भी देखी, कहा: अच्छा, खाता-बही देखते हैं। खाता-बही देखी। दिए थे तीन पैसे उसने। मारवाड़ी को देख कर उसे भरोसा तो नहीं आया कि इसने दिए होंगे, मगर दिए थे। बड़ी चिंता में पड़ गया। अपने सहयोगी से पूछा कि भई, क्या करना? इसने तीन पैसे दिए हैं जरूर, दान तो किया है। मगर इस आदमी को स्वर्ग में लेना! तीन पैसे के पीछे! तीन पैसे में स्वर्ग खरीद ले! तो बड़ी सस्ती हो गई बात! सहयोगी ने कहा, ऐसा करो, इसको चार पैसे दे दो--ब्याज सहित--और कहो कि नरक जा!
उसे चार पैसे दे दिए गए और कहा कि नरक जा।
यह तो उसने सुना ही नहीं था, साधु-संतों ने कभी बताया ही नहीं था कि ब्याज सहित लौटा दिया जाएगा और कहा जाएगा नरक जाओ। साधु-संत असली बातें तो बताते ही नहीं! उतना बताते हैं जितना तुम्हारे हृदय को सांत्वना दे, संतोष दे।
तुम्हारे पुण्य अगर तुम्हारे लोभ से ही प्रभावित हैं, लोभ से ही निकले हैं, उनका कोई अर्थ नहीं है, वे तुम्हें नरक ले जाएंगे। और तुम जिस ईश्वर पर विश्वास करते हो--सिर्फ विश्वास--जिसका तुम्हें कोई अनुभव नहीं है जीवंत, जिसकी तुम्हें कोई झलक नहीं मिली है, तुम उसके लिए समर्पित हो भी कैसे सकते हो? मैं तुमसे विश्वास करने को नहीं कहता।
शोभा! अभीप्सा काफी हो सकती है, अगर अंधविश्वास न हो। अगर जिज्ञासा हो, खोज हो, मुमुक्षा हो, अगर सत्य को जान लेने की--सत्य फिर कैसा ही क्यों न हो--जैसा हो वैसा ही जान लेने की निष्पक्ष भाव-दशा हो, तो अभीप्सा काफी है। वही तुम्हें निखार देगी। वही तुम्हें पहुंचा देगी।
परमात्मा शब्द को तुम एक तरफ रख दो तो चलेगा। सत्य से काम चल जाएगा। आत्मा से काम चल जाएगा। परमात्मा शब्द से ही थोड़ी भ्रांति शुरू हो जाती है। परमात्मा से लगता है: दूर वहां आकाश में बैठा कोई सिंहासन पर सारे संसार को चला रहा है।
ऐसा कोई भी नहीं कहीं सिंहासन पर बैठा है। और न कोई ऐसा कहीं बैठा संसार को चला रहा है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, परमात्मा सिद्धांत है--जगत की लयबद्धता का सिद्धांत। जगत के भीतर जो सुसंबद्धता है, उसका सिद्धांत। जगत के भीतर जो संगीत है, उसका सिद्धांत। तुम अपने भीतर थोड़ा संगीत खोजो, अपने बाहर थोड़ा संगीत खोजो, तुम अपने भीतर थोड़ी लय खोजो और बाहर थोड़ी लय खोजो, और जहां भी तुम्हें लय की प्रतीति हो, साक्षात्कार हो, जानना कि परमात्मा के बहुत करीब हो। उसके पैरों की आवाज सुनाई पड़ने लगी।
मुझसे लोग आकर पूछते हैं कि यहां आश्रम में इतना संगीत, इतना नृत्य--ऐसा तो हम किसी आश्रम में नहीं देखते।
वे आश्रम ही न होंगे। जहां संगीत न हो, जहां नृत्य न हो, जहां गीत न उठ रहे हों, जहां प्रेम की सुवास न उठ रही हो, वे आश्रम ही न होंगे--मरघट होंगे। लेकिन इस देश में मरघट ही आश्रम बन गए हैं। और मरे-मराए लोग वहां इकट्ठे हो गए हैं। हरि-नाम जपते रहना!
अमरीका के एक विश्वविद्यालय में एक सर्वे किया गया कि ऐसे कितने लोग हैं जिनके जीवन में कोई ऐसा एकाध भी अनुभव हुआ हो जिससे उन्हें परमात्मा का प्रमाण मिलता है। हजारों लोगों से पूछताछ की गई। सकुचाते, क्योंकि यह बात ऐसी हो गई है आज की दुनिया में। आज की दुनिया में तुम किसी से कहो कि मुझे परमात्मा का अनुभव हुआ है, तो लोग समझेंगे तुम पागल हो गए। होश की बातें करो! किसको बुद्धू बना रहे हो? आज तो तुम्हें अगर अनुभव भी हो जाए कुछ, तो तुम कह न पाओगे, अपनी पत्नी से भी कहते डरोगे। और आज ही ऐसा नहीं है कुछ, पहले भी ऐसा था।
मोहम्मद को जब पहली दफा परमात्मा का अनुभव हुआ, तो वे घर भागे आए--बुखार चढ़ गया उनको, हाथ-पैर कंपने लगे, पसीना-पसीना! थर्मामीटर तो था नहीं उन दिनों, लेकिन एक सौ दस डिग्री से कम नहीं रहा होगा। अनुभव ऐसा था! एकदम पत्नी से कहा कि जितनी दुलाइयां घर में हैं, सब मेरे ऊपर डाल दे, मैं कंप रहा हूं।
पत्नी ने पूछा, अचानक हुआ क्या? घर से तो ठीक-ठाक गए थे।
उन्होंने कहा, अभी तू पूछ मत! या तो मैं कवि हो गया हूं या पागल हो गया हूं।
दो बातें कहीं, कि या तो मैं कवि हो गया हूं या पागल हो गया हूं। जो दोनों बराबर, एक ही मतलब रखती हैं; पर्यायवाची। जब दोत्तीन घंटे के बाद थोड़ी सी राहत मिली, पत्नी ने पूछा, कुछ कहो तो, बात क्या है? तुम आंखें फाड़े-फाड़े देखते हो! तुम कुछ नये-नये मालूम पड़ते हो! तो मोहम्मद ने कहा, मैं तुझसे कहता हूं, किसी और को मत कहना...
वह पहली मुसलमान थी, मोहम्मद की पत्नी। वह मोहम्मद से उम्र में बड़ी थी। मोहम्मद छब्बीस साल के थे, वह चालीस साल की थी। अनुभवी भी थी। मोहम्मद को उसने सम्हाला। वह घड़ी सम्हालने की थी। एक नया जन्म हुआ था। मोहम्मद द्विज हो गए। उसने मां का काम किया।
मोहम्मद ने कहा, तुझसे मैं कहता हूं, क्योंकि मैं सोचता हूं तू हंसेगी नहीं, तू समझ सकेगी। कुछ हुआ। मैंने आवाज सुनी। अपने ही भीतर से आती और फिर भी बाहर से आती!...कुरान की पहली आयत उतरी थी। परमात्मा के पहले पदचिह्न दिखाई पड़े थे।...मोहम्मद ने कहा, मैं मानता नहीं कि यह सच हो सकता है। मैंने सपना देखा हो, मैं किसी विभ्रम में पड़ गया हूं, या मुझे बुखार चढ़ा है, सन्निपात है, कुछ भी हो सकता है।
लेकिन पत्नी ने कहा, मैं तुम्हें देख रही हूं, तुम्हारे चेहरे पर ऐसी आभा है, ऐसा तेज जैसा मैंने कभी नहीं देखा; तुम्हारी आंखों में ऐसी गहराई है जैसी मैंने कभी नहीं देखी; और तुम्हारे पास ऐसी सुगंध है जैसी मैंने कभी नहीं पाई; तुम एक नई ही लयबद्धता में बंधे हो। तुम घबड़ा जरूर गए हो, तुम्हारा सारा अस्तित्व डगमगा गया है, लेकिन कुछ अनूठा हुआ है! निश्चित ही तुम परमात्मा के करीब से गुजर गए हो। उसका आंचल तुम्हें छू गया है। घबड़ाओ मत।
पत्नी ने सम्हाला। दिनों तक सम्हाला। फिर धीरे-धीरे और आयतें उतरनी शुरू हुईं। वर्षों लगे कुरान को उतरने में--एक दिन में नहीं उतरा कुरान, वर्षों में उतरा; धीरे-धीरे उतरा। जैसे-जैसे मोहम्मद राजी होते गए वैसे-वैसे उतरा।
तो आज ही नहीं कि तुम किसी से कहो जाकर कि मुझे ईश्वर का अनुभव हुआ तो कोई भरोसा कर लेगा! और आज तो ऐसी पत्नी भी पाना मुश्किल है कि जो तुम्हें इतना सहारा दे सके।
तो जब विश्वविद्यालय के लोग पूछने गए लोगों से, तो लोग इधर-उधर देखें। लोग बताना भी चाहें तो बड़े सकुचाए हुए बताएं। पर उन्होंने आश्वस्त किया कि तुम्हारे नाम प्रकट न करेंगे। तो धीरे-धीरे लोगों ने कहा कि हां, कुछ अनुभव हमें हुए हैं। अब पता नहीं कितने सच हैं, कितने झूठे हैं, लेकिन कुछ अनुभव हुए हैं। कोई पहाड़ पर गया था, और अचानक जैसे कोई द्वार खुल जाए क्षण भर को, और यह लोक तिरोहित हो गया और कोई दूसरा लोक प्रकट हुआ। कोई लेटा था अपने कमरे में सन्नाटे में, अंधेरे में, और अचानक कुछ हुआ और अंधेरा अंधेरा न रहा, रोशन हो गया। हजारों लोगों ने अनुभव दिए हैं।
हैरानी की बात है! कम से कम तैंतीस प्रतिशत लोगों को अनुभव होते हैं। सामान्य, तैंतीस प्रतिशत लोगों को ऐसे अनुभव होते हैं; जिन अनुभवों को अगर कोई सदगुरु मिल जाए, तो वे बीज न रह जाएं, वृक्ष हो जाएं। मगर वे तैंतीस प्रतिशत लोग भी किसी को कहते नहीं। किसी को कहना तो दूर, खुद भी उनको झुठला देते हैं। खुद भी अपने को समझा लेते हैं कि रही होगी कोई कल्पना; रहा होगा कोई सपना; आई-गई बात हो गई। ज्यादा उस पर ध्यान नहीं देते। क्योंकि खुद भी डर लगता है कि ऐसी चीजों पर ध्यान देने में खतरा है। ऐसे द्वार, फिर पता नहीं कहां इनका अंत हो! ऐसी झंझटों में पड़ना ठीक नहीं! अपने काम-धाम में उलझ जाते हैं। तैंतीस प्रतिशत लोग बड़ी सरलता से...
यह जान कर तुम हैरान होओगे कि यह तैंतीस प्रतिशत का आंकड़ा बहुत रूपों में मूल्यवान है। दुनिया में तैंतीस प्रतिशत लोग ही हैं जो संगीत में गहराई पा सकते हैं। और तैंतीस प्रतिशत लोग ही हैं जो ध्यान में गहराई पा सकते हैं। और तैंतीस प्रतिशत लोग ही हैं जो सम्मोहन में बड़ी सरलता से प्रवेश पा सकते हैं। और तैंतीस प्रतिशत लोग ही हैं जिनके भीतर प्रतिभा है। बाकी शेष को और कठिन हो जाता है। मगर तैंतीस प्रतिशत बड़ी संख्या है। एक तिहाई! हर तीन आदमी में एक आदमी प्रज्वलित रोशनी बन सकता है। बाकी दो भी बन सकते हैं, उन्हें थोड़ी कठिनाई होगी। मगर वह एक भी नहीं बन रहा है जो कि सरलता से बन सकता है।
और भी उस सर्वे से जो बातें पता चली हैं उनमें विचारणीय बातें हैं। एक बात जो पता चली वह यह कि सर्वाधिक ऐसे विशिष्ट अनुभव संगीत के माध्यम से हुए थे--पचास प्रतिशत। जिन लोगों को भी परमात्मा की थोड़ी सी आभा, आभास मिला, उनमें से पचास प्रतिशत लोगों को संगीत से मिला।
इसलिए संगीत को मैं ध्यान की बड़ी निकट अवस्था मानता हूं। संगीत खोज ही ध्यानियों की है। जिन्होंने पहले अंतर्नाद सुना है, जिन्होंने पहले भीतर का ओंकार सुना है, उन्होंने ही फिर धीरे-धीरे वाद्यों पर उस ओंकार को बजाने की बाहर व्यवस्था की है। संगीत का जन्म ऋषियों और द्रष्टाओं से हुआ है। हमारा तो एक वेद, सामवेद, संगीत का स्रोत है। संगीत का ही मूल शास्त्र है।
पचास प्रतिशत लोगों को जीवन में जो अनूठे अनुभव होते हैं, वे संगीत से होते हैं। तब तो निश्चित ही संगीत का खूब उपयोग किया जाना चाहिए। क्योंकि बाहर का संगीत तुम्हारे भीतर के तारों को कंपित कर सकता है। इसलिए इस आश्रम में तुम्हें संगीत दिखाई पड़ेगा।
नंबर दो पर जिन लोगों के अनुभव हैं, वे नृत्य से हुए हैं। या तो स्वयं नृत्य करते हुए या किसी को नृत्य करते देख कर।
एक लयबद्धता है नृत्य की। अगर स्वयं तुम नृत्य कर रहे हो, तब तो बड़े गहरे अनुभव हो सकते हैं। क्योंकि नृत्य की एक ऐसी घड़ी आती है, ऐसा उतार-चढ़ाव होते-होते-होते एक ऐसी घड़ी आती है, जहां तुम्हारा शरीर, तुम्हारा मन, तुम्हारी आत्मा, तीनों एक रेखा में आबद्ध हो जाते हैं। और जिस घड़ी तुम्हारी आत्मा, तुम्हारा मन, तुम्हारा शरीर एक रेखा में जाते हैं, एक संतुलन में, उसी क्षण परमात्मा की झलक मिल जाती है।
लेकिन कभी-कभी दूसरे को भी नृत्य करते देख कर यह हो सकता है।
गुरजिएफ ने इस तरह के बहुत से नृत्य विकसित किए थे, जिनको सिर्फ देखने से लोग ध्यान को उपलब्ध हो जाते। सिर्फ देखते-देखते! क्योंकि जब तुम किसी को नृत्य करते देखते हो, तो उसकी भाव-भंगिमाएं, उसकी मुद्राएं, उसकी लयबद्धता तुम्हारी आंख को आंदोलित करती है। और तुम्हारी आंख आंदोलित होने लगे तो तुम्हारा अस्सी प्रतिशत प्राण आंदोलित हो उठता है। तुम्हारी आंख तुम्हारी अस्सी प्रतिशत जीवन-ऊर्जा है। और आंख के माध्यम से तुम्हारा हृदय धीरे-धीरे आंदोलित होने लगता है। तुमने देखा नहीं, कोई नाचता हो तो तुम्हारे पैर तड़फड़ाने लगते हैं। कि कहीं कोई मृदंग पर थाप देता है तो तुम्हारे हाथ भी कुर्सी के हत्थे को बजाने लगते हैं, कि तुम ताली देने लगते; तुम्हारे भीतर कुछ होना शुरू हो जाता है।
इसलिए इस आश्रम में नृत्य है, संगीत है। और जैसे-जैसे आश्रम यह विकसित होगा, बढ़ेगा--और नृत्य, और संगीत; और संगीत के नये-नये आयोजन! और आज तो विज्ञान ने बहुत सी सुविधाएं बना दी हैं जो पहले नहीं थीं। उन सबका उपयोग करके तो लोगों को बड़ी सरलता से ध्यान में सरकाया जा सकता है। बड़ी सरलता से! अब तो इस तरह के संगीत की व्यवस्था हो गई है--जो कि नये कम्यून में की जाने वाली है--कि तुम ईयर-फोन लगा कर उसे सुनो तो तुम्हें ऐसा नहीं मालूम पड़ेगा कि संगीत बाहर से आ रहा है, तुम्हें मालूम पड़ेगा संगीत भीतर से आ रहा है, ठीक तुम्हारे हृदय से आ रहा है। और जब तुम्हें संगीत भीतर से आता हुआ मालूम पड़े, तो निश्चित ही तुम्हारे भीतर के संगीत को झकझोर देगा।
परमात्मा पर विश्वास करने की जरूरत नहीं है। हां, परमात्मा को अनुभव करने की जरूर जरूरत है। खुले द्वार रखो मन के, पक्षपातहीन रहो--न आस्तिक, न नास्तिक, खोजी बनो। अभीप्सा का अर्थ होता है: खोज! आकांक्षा खोजने की! पहले से तय मत करो कि ईश्वर है या ईश्वर नहीं है। कुछ भी तय किया तो बाधा बन जाएगी। इतना ही काफी है कि मैं हूं और मुझे पता नहीं कि यह सब क्या है। इसे मैं जानना चाहता हूं। मैं हूं, और मुझे पता नहीं कि मैं कौन हूं। और मैं जानना चाहता हूं कि मैं कौन हूं? यह सारे जगत का राज क्या है? रहस्य क्या है? इसके लिए तो आस्तिक भी होने की जरूरत नहीं है, नास्तिक भी होने की जरूरत नहीं है।
इसलिए जो लोग खोजी हैं, उनसे मेरा नाता गहरा बन जाता है। जो आस्तिक या नास्तिक तय ही कर चुके हैं, उनसे मेरा नाता नहीं बन पाता। क्योंकि उन्होंने तो पहले ही पूर्वधारणा निश्चित कर ली। उनकी पूर्वधारणा उनका कारागृह रहेगी, उनका अंधापन रहेगी।
शोभा! प्रभु के लिए अभीप्सा पर्याप्त है, लेकिन अभीप्सा किसी विश्वास पर आधारित नहीं होनी चाहिए वरन जीवंत अनुभवों पर--संगीत पर, नृत्य पर, सौंदर्य पर, प्रेम पर। इनके अनुभव से तुम्हारे भीतर धीरे-धीरे बूंदें टपकनी शुरू होंगी अमृत की। और वही अमृत की बूंद तुम्हें इतना प्यासा कर देगी कि पूरे सागर को पीने की आकांक्षा पैदा हो जाएगी। वही आकांक्षा अभीप्सा है। वैसी अभीप्सा पर्याप्त है।



आखिरी प्रश्न: क्या भगवान भक्त के बिना हो सकता है?

किशोरी लाल! न तो भक्त भगवान के बिना हो सकता है, न भगवान भक्त के बिना हो सकता है। भगवान और भक्त एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भक्त है तो भगवान है। भगवान है तो भक्त है। ये दोनों घटनाएं एक साथ घटती हैं, अलग-अलग नहीं। भगवान अलग बैठा है और भक्त अलग, ऐसा नहीं है। भक्ति के क्षण में ही भगवान का आविर्भाव होता है। फिर मैं तुम्हें याद दिला दूं: भगवान कोई व्यक्ति नहीं है, भगवान एक अनुभूति है। अच्छा हो कि हम भगवान शब्द को छोड़ कर भगवत्ता शब्द का प्रयोग करें; तो ज्यादा सरल हो जाएगा। भगवत्ता का एक पहलू भक्त और दूसरा पहलू भगवान। अंतिम घड़ी में भक्त भी खो जाता है, भगवान भी खो जाता है, भगवत्ता रह जाती है, भगवत्ता का सागर रह जाता है।

सैकड़ों पाषाण में से एक तू पाषाण होता,
मैं न होती भावना फिर तू कहां भगवान होता।

स्नेह के लघु दीप में मैं
वर्तिका बन कर जली हूं,
तव चरण की कोर छूने
अर्घ्य जल बन कर ढुली हूं।
मैं न यदि निज को मिटाती दूर क्या व्यवधान होता,
मैं न होती भावना फिर तू कहां भगवान होता।

एक युग से बन रही थी
कल्पना मेरी चितेरी,
रूप क्या तुझको दिया है
तनिक क्षमता देख मेरी।
मैं न तुझमें रंग भरती तू न यों छविमान होता,
मैं न होती भावना फिर तू कहां भगवान होता।

यामिनी होती न, दिनकर
को कहां यह मान मिलता,
दीनता होती न, प्रभुता
को कहां सम्मान मिलता।
मैं न होती साधना यदि तू कहां वरदान होता,
मैं न होती भावना फिर तू कहां भगवान होता।

आदि युग से विवशता के
गीत क्यों मानव सुनाता,
एक इस चिर सत्य को वह
क्यों समझ अब तक न पाता।
देवता का भी मनुज के हाथ से निर्माण होता,
मैं न होती भावना फिर तू कहां भगवान होता।

मनुष्य की महिमा अपार है। मनुष्य की महिमा की अंतिम चरम अवस्था उसके भीतर भक्त का भगवान में रूपांतरण है; उसके भीतर भगवत्ता के फूल का खिल जाना है। उस परम अनुभूति में भक्त और भगवान अलग-अलग नहीं होते। ऐसा नहीं होता कि तुम हाथ जोड़े खड़े हो और उधर भगवान सामने खड़े हैं, आशीर्वाद दे रहे हैं। हिंदी फिल्मों में तुम जो देखते हो, भगवान आशीर्वाद देते हुए और भक्त हाथ जोड़े हुए खड़े हैं, ऐसा मत सोच लेना। वहां कहां भक्त, वहां कहां भगवान! भक्त और भगवान, तो भगवत्ता को हमने भाषा में दो टुकड़ों में तोड़ लिया।
भाषा हमेशा हर चीज को दो टुकड़ों में तोड़ लेती है। दिन और रात तोड़ लेती है। जीवन और मृत्यु तोड़ लेती है। सुख और दुख तोड़ लेती है। सौंदर्य-कुरूपता तोड़ लेती है। भाषा हर चीज को दो हिस्सों में तोड़ लेती है। और जीवन एक है। ऐसे ही हमने भक्त और भगवान को तोड़ लिया है। लेकिन न कोई भक्त है अलग भगवान से और न कोई भगवान अलग है भक्त से, भगवत्ता है।
भगवत्ता को स्मरण रखो। ताकि भक्त भी मिट जाए, भगवान भी मिट जाए। दोनों जब एक में लीन हो जाएं, उस अद्वैत के अनुभव की आकांक्षा करो, अभीप्सा करो। और जहां अभीप्सा है, वहां द्वार है।

आज इतना ही।



1 टिप्पणी: