शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018

बहुरि ने ऐसा दांव—(प्रश्नोतर) –प्रवचन-07

बहुरि ने ऐसा दांव—(प्रश्नोतर) –ओशो

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक
आशो आश्रम पूना।
संन्यास यानी ध्यान—(प्रवचन-सातवां)

पहला प्रश्न: भगवान,
कुछ बनने की आस में उलझता रहा, कुछ न हुआ। सिर्फ यह बोध रह गया कि मैं हूं। न धन आया, न मकान बना, संगीत, न विद्वान बना। न जीना ही मुझको रास आया। वहां आ कर जीवन को एक नयी दिशा अनजाने ही दे दी। अतीत भटकाव में बीत गया, वर्तमान संन्यास में, और भविष्य का निर्णय आप करें, क्या होगा?

दीपक भारती,
जीवन में एक ही उलझाव है, बस एकमात्र उलझाव--और सबके जीवन में निरपवाद रूप से--कुछ बनने की आशा। तुम जो हो हो, अन्यथा नहीं हो सकते हो। अन्यथा होने की चेष्टा में ही चिंता है, विषाद है, संताप है। अन्यथा होने की चेष्टा में ही दुष्ट-चक्र पैदा होता है। फिर तुम अपने हाथ से नयी-नयी भंवरे खड़ी करते हो; डूबते हो, उबरते हो; डूबते हो, उबरते हो। तुम्हारी जिंदगी फिर एक लंबे सपनों का सिलसिला और हर सपने का बिखराव बन जाती है।

गुलाब अगर कमल बनना चाहे तो विक्षिप्त हो ही जाएगा। चंपा अगर चमेली बनना चाहे तो रोग निश्चित है। जो जो है, जो जैसा है, वैसे के स्वीकार का नाम ही संन्यास है। संन्यास का अर्थ है: तथाता; समग्ररूपेण अपने को अंगीकार का नाम ही किसी हारी हुई मनःस्थिति में नहीं, किसी पराजय में नहीं, सांत्वना के लिए नहीं--क्योंकि वह सब तो झूठ होगा; वरन समझपूर्वक, ध्यानपूर्वक इस सत्य के दर्शन करके कि गुलाब गुलाब है और गुलाब होकर सुंदर है, अप्रतिम है, और कोई जरूरत नहीं है कि कमल बने। अगर सारी पृथ्वी पर कमल हो तो पृथ्वी का सौंदर्य खो जाएगा। मैं नहीं चाहता कि सारी पृथ्वी पर धनुर्धारी राम दिखाई पड़ें। रामलीला हो जाएगी। रामलीला देखने का मजा भी चला जाएगा।
जीवन में वैविध्य है। विविधता में अपूर्व सौंदर्य है, प्रसाद है। इसलिए परमात्मा एक जैसे दो व्यक्ति कभी पैदा नहीं करता। दो जुड़वां बच्चे भी बिलकुल एक जैसे नहीं होते। दो पत्थर भी एक जैसे नहीं होते। दो पत्ते भी एक जैसे नहीं होते। लेकिन सदियों-सदियों से पंडित-पुरोहितों का जाल तुम्हें उल्टी ही बातें समझाता रहा है। मनुष्य-जाति की सारी आधार-शिलाएं गलत हैं, भ्रांत हैं, क्योंकि उनके बीच में महत्त्वाकांक्षा का जहर है। प्रत्येक बच्चे को हम कहते हैं: "कुछ बनो, कुछ करके दिखाओ! कुछ हो जाओ। यूं ही न मर जाना। चार दिन की जिंदगी मिली है, यश कमाओ, नाम कमाओ, पद-प्रतिष्ठा, छोड़ जाओ इतिहास के पृष्ठों पर अपनी स्मृति के चिह्न।'
लेकिन समय की रेते पर किसके चिह्न टिकते हैं? और इतिहास के पृष्ठों पर किसी याद टिप्पणी में अगर तुम्हारा नाम रह भी गया तो क्या लाभ है, सार है? सिकंदर ने पूरा जीवन पृथ्वी का विजेता होने में गंवाया, चलो रह गया इतिहास में नाम, मगर जिंदगी तो हाथ से गयी, अमृत नहीं बरसा जीवन में, संतोष के फूल नहीं खिले जीवन में, तृप्ति का नृत्य नहीं उठा जीवन में। जीवन एक तो एक भागदौड़ रही, आपाधापी रही। हां, इतिहास के पन्ने पर नाम छूट गया। तो इतिहास के पन्ने को चाटोगे? और फिर तुम मर ही गए, इतिहास में नाम रहा कि न रहा, क्या फर्क पड़ता है।
दीपक भारती, तुम कहते हो; "कुछ बनने की आस में उलझता रहा, कुछ न हुआ।' हो ही नहीं सकता, कसूर तुम्हारा नहीं, भाग्य का नहीं, अतीत जन्मों के कर्मों का नहीं--सिर्फ एक भ्रांति का है: तुमने कुछ होना चाहा। तुम कुछ हो ही! तुम जो हो उसको अंगीकार करो तो उसका आविष्कार भी कर सकोगे। अंगीकार में ही आविष्कार है। जिसे हम इनकार करते हैं, उससे हम मुंह मोड़ लेते हैं। जिससे हम इनकार करते हैं, उसे हम देखना भी नहीं चाहते। दुश्मन को कौन देखना चाहता है? उससे हम बच कर निकलते हैं। उसकी हम उपेक्षा करते हैं। तो जिसने अपने को अस्वीकार करना शुरू किया--और कुछ बनने की आशा का एक ही अर्थ होता है कि अपने को अस्वीकार करना--वह अपने से बचने लगता है। वह अपने से भागने लगता है। वह अपने से दूर-दूर होने लगता है। वह और सब चीजों में उलझेगा, अपने भर से वंचित रहेगा--और वहीं है जीवन का सार तत्व! और वहीं है तुम्हारे प्राणों के ऊर्जा का केंद्र। वहीं है मोक्ष। वहीं से बनेगा तुम्हारे जीवन का विकास, गति क्रांति।
मगर अंगीकार पहली शर्त है। और अंगीकार--अहोभावपूर्वक। अंगीकार--आनंद से, कृतज्ञता से। यह मेरी बुनियादी सीख है।
महत्त्वाकांक्षा तुम्हें सिखायी गयी है। मैं तुम्हें महत्त्वाकांक्षा-मुक्ति हूं। जो महत्त्वाकांक्षा से मुक्त है, वह संसार से मुक्त है। मैं नहीं कहता संसार से भागो। कोई जरूरत नहीं। सिर्फ महत्त्वाकांक्षा का पागलपन गिर जाने दो। जो हो उसमें रसमग्न होओ। जो हो उसके लिए परमात्मा को धन्यवाद दो; शिकायत नहीं, शिकवा नहीं--अनुग्रह! और तब प्रार्थना सहज ही उठेगी, उठानी भी न पड़ेगी। और फिर तब प्रार्थना ईसाई नहीं होगी, हिंदू नहीं होगी, जैन नहीं होगी, बौद्ध नहीं--सिर्फ प्रार्थना होगी। शब्द भी नहीं होगे उसमें, सिर्फ भाव की अर्चना होगी, सिर्फ मौन गीतांजलि होगी। चुपचाप! सिर झुक जाएगा इस विराट अस्तित्व के प्रति, क्योंकि जो इसने हमें दिया है क्या हम उसके अधिकारी हैं? क्या हम उसके पात्र हैं?
जीसस की प्रसिद्ध कहानी है, बहुत प्रीतिकर है। छोटी-सी कहानी, सरल-सी कहानी, लेकिन, अर्थ बड़े दूरगामी हैं। कहानी है कि एक अंगूर के बगीचे के मालिक ने, अंगूर पक गए हैं, सुबह-सुबह कुछ मजदूर बुलाए। अंगूरों को तोड़ना है। अब ज्यादा देर अंगूरों को छोड़ा नहीं जा सकता, अन्यथा वे सड़ जाएंगे, अन्यथा अपने-आप गिरने लगेंगे। लेकिन वे मजदूर कम थे। दोपहर उसने और मजदूर बुलाए। वे भी कम पड़े। सांझ उसने और मजदूर बुलाए । सांझ को जो मजदूर आए, वे तो ऐसे समय आए जबकि दीए जलने का समय होने लगा था, अंधेरा उतरने लगा था। काम बंद कर रहे थे और मजदूर। फिर उसने सारे मजदूर इकट्ठे किए और सबको बराबर-बराबर तनख्वाह बांट दी। स्वभावतः जो सुबह आए थे, खिन्न हुए, नाराज हुए। आखिर आदमी थे! तुम होते तो तुम भी नाराज होते। उन्होंने कहा कि यह कैसा अन्याय है, हम सुबह से खून-पसीना कर रहे हैं, हमें भी उतनी ही तनख्वाह; जो दोपहर आए, आधे दिन काम किया उनको भी उतनी तनख्वाह! और यह भी हम बर्दाश्त कर लेते, मगर जो अभी-अभी आए, जिन्होंने काम किया ही नहीं, उन्हें भी उतनी ही तनख्वाह! अन्याय की भी कोई सीमा होती है!
वह मालिक हंसने लगा। उसने कहा: "तुमसे एक बात पूछूं। मैंने तुम्हें जो दिया है वह तुम्हारी मजदूरी से कम है?'
उन्होंने कहा कि नहीं, हमारी मजदूरी से तो ज्यादा है। जितना हमने मांगा था सुबह, उससे तो दो गुना है।
उस मालिक ने कहा: "तुम उसके लिए मुझे धन्यवाद नहीं दे रहे कि मैंने तुम्हें दो गुना दिया। फिर यह संपत्ति मेरी है, मैं किसी को लुटाऊं, तुम्हें शिकायत कैसी? तुम हो कौन? जो दोपहर आए, उनको भी मैंने उतना दिया और जो अभी-अभी आए जिन्होंने काम किया नहीं, उनको भी उतना दिया--इसलिए नहीं कि वे पात्र हैं, इसलिए नहीं कि उन्होंने श्रम किया है, बल्कि इसलिए कि मेरे पास बहुत है। मेरे पास देने को बहुत है। मैं तलाश करता हूं कि किसको दूं। जो मिल जाता है। उसको देता हूं। मैं अपने आधिक्य से देता हूं।'
जीसस कहते थे: परमात्मा ने तुम्हें दिया है अपने आधिक्य से। उसके पास जरूरत से ज्यादा है। उसके पास इतनी आंखें हैं, सो तुम्हें आंखें दे दी, अन्यथा तुम्हारी कोई पात्रता न थी। उसके पास इतना जीवन है कि तुम्हें जीवन दिया, अन्यथा तुम्हारी कोई योग्यता न थी। उसके पास इतना प्रेम है कि तुम्हें प्रेम की क्षमता दी, अन्यथा तुम्हारी कोई योग्यता न थी। उसके पास इतना प्रेम है कि तुम्हें प्रेम की क्षमता दी, अन्यथा तुमने इसे अर्जित न किया था। मगर कोई धन्यवाद नहीं, उल्टी शिकायत
महत्त्वाकांक्षा शिकायत सिखाती है। और महत्त्वाकांक्षा कभी भरती नहीं। कभी नहीं भरती! हारे तो भी हारे, जीते जानती ही नहीं। मगर इस पर ही हमने अब तक मनुष्य के जीवन-आधार रखे हैं। इसलिए हमने एक रुग्ण और विक्षिप्त मनुष्यता को जन्म दिया है। यहां हर आदमी बीमार है। यहां कभी-कभी कोई स्वस्थ आदमी हो पाया--कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कृष्ण, कोई क्राइस्ट। कभी लाखों में एकाध व्यक्ति के जीवन में स्वास्थ्य के फूल खिले। और सारे लोग तो सड़ते रहे और अपने हाथ से सड़ते रहे। खुद गङ्ढे खोदे और गिरते रहे। अपने ही हाथ से हड्डी-पैर तोड़ते रहे। अपने ही हाथ से जीवन गंवाते रहे।
तुम कहते हो दीपक भारती: "कुछ बनने की आस में उलझता रहा, कुछ न हुआ।' क्या तुम सोचते हो, कुछ हो जाता तो आशा पूरी हो जाती? तो भी पूरी न होती। आशा आगे हट जाती। आशा तो ऐसे है जैसे क्षितिज, दिखता है यह रहा, यह रहा, जरा चलूं कि पहुंच जाऊं; मगर कोई भी क्षितिज तक पहुंचा है? तुम आगे बढ़ते हो, क्षितिज भी आगे गढ़ जाता है। तुम दस हजार रुपए चाहते हो, जिस दिन मिल जाएंगे उस दिन दस लाख चाहोगे। दस लाख मिल जाएंगे, दस करोड़ चाहोगे। तुम मांगते ही रहोगे। तुम्हारा मन कभी भरेगा नहीं। यह भरना जानता नहीं।
बुद्ध ने कहा है: तृष्णा दुष्पूर है। क्यों? क्योंकि तृष्णा बुनियाद में ही भूल है। तुम कहते: "सिर्फ यह बोध रह गया कि मैं हूं? न धन आया...।' आ जाता तो भी नहीं आता। जिनके पास आ गया है, जरा उनकी तरफ देखो। क्या आया? जिनके पास पद आ गए हैं, उनके पास क्या आया? मेरे पास धनी आ कर भी यूं ही रोते हैं कि जिंदगी गंवा दी, ठीकरे इकट्ठे हो गए, अब क्या करें? हाथ से जीवन तो सरक गया, अब तो समय भी नहीं बचा। और कंकड़ पत्थर बीनते रहे। हमने समझा था हीरे-जवाहरात हैं।
फिर एक आदत बन जाती है। दौड़ने की भी आदत होती है, चिंता की भी आदत होती है। तृष्णा की भी आदत होती है। यह भी दिखाई पड़ने लगता है कि अब क्या दौड़ने से सार है, करोड़ों रुपये मेरे पास हैं! आखिर बिड़ला को अब दौड़ने से क्या सार है? या टाटा को अब दौड़ने से क्या सार है? अब क्या है जिसकी कमी है! मगर दौड़ की आदत हो गयी। अब सब है, मगर वह जो दौड़ की आदत बन गयी है, वह धक्का देती है। वह कहती है: "दौड़े चलो, और कमाओ, और कमाओ।' वह जो "और' पकड़े हुए है प्राणों को, छोड़ता ही नहीं।
तुम मकान भी बना लेते तो क्या होता! महल बनाने की आकांक्षा पैदा हो जाती। तुम संगीत भी सीख लेते तो क्या होता? कितने-कितने बड़े संगीतज्ञ हैं! वैसे ही दीन-हीन, जैसा कोई और। और विद्वान कुछ कम हैं? मुहल्ले-मुहल्ले हैं, गांव-गांव हैं। क्या पाया है उन्होंने?
न जीना ही मुझको रास आया'--तुम कहते हो। स्वभावतः जब ये सब दौड़े हार जाएंगी और जब हर जगह पराजय मिलेगी तो जीवन में उदासी आएगी। लगेगा बेकार है जीवन। क्या सार जीने से? सफलता ही नहीं तो सार कहां? अहंकार की तृप्ति मांग रहे थे तुम और वह नहीं मिली वह किसी को भी कभी नहीं मिलती है। तो उसका अंतिम परिणाम एक ही हो सकता है कि क्यों न समाप्त कर दूं इस जीवन को?
आत्महत्या का भाव क्यों पैदा होता है आदमी को? उसके मनोवैज्ञानिक कारण हैं। यह बड़ी मजेदार दुनिया है। यहां हम ही महत्वाकांक्षा सिखाते हैं, हमारे ही विश्वविद्यालय महत्वाकांक्षा सिखाते हैं और हमारी ही अदालतें आत्महत्या करने वाले या सोचने वाले को दंडित करने का आयोजन करती हैं। ये विश्वविद्यालय हमारे, ये अदालतें हमारे! ये विश्वविद्यालय में ही शिक्षित होते हैं अदालत के जज। ये विश्वविद्यालय ही सिखाते हैं कि आत्मघात बुरी बात है। और ये ही विश्वविद्यालय सिखाते हैं कि महत्वाकांक्षा शुभ है, सुंदर है, लक्ष्य है। कोई देखता भी नहीं कि दोनों के बीच बड़ा संबंध है। महत्वाकांक्षी हमेशा ही एक न एक दिन आत्महत्या के कगार पर पहुंच जाएगा। जब कभी भी जीतेगा नहीं, जीतेगा नहीं, तो एक न एक दिन सोचेगा: "क्या करना है, कब तक धोखा देना है? कब तक झूठा हंसूं? जब कि हंसी आती नहीं, हंसने को कुछ है नहीं। कब तक मुस्कुराऊं? ये झूठे ओंठ कब तक फैलाऊं? यह कब तक लोगो को दिखलाता फिरूं कि मजे में हूं जब कि भीतर कोई मजा नहीं है? कब तक यह ऊपर-ऊपर का प्रवचन जारी रखूं?'
जीने की शर्त बड़ी जालिम है
कुछ तो गिरवी यहां रखना होगा!
छिप छिप के दोस्त,
कभी बिकना होगा!!
सब के सब व्यापारी
और तामाशाई हैं!
बाहर मसीहा हैं
भीतर कसाई हैं!!
पर सबसे,
मुस्करा के मिलना होगा!
नए-नए चेहरों में
लोगों से मिलना है!
अवसर की तर्ज लिए--
झूठ-मूठ हंसना है!!
चुन-चुन के
शब्दों को, कहना होगा!
स्वाभिमान मिलता है,
केवल किताबों में!
मान यहां मिलता है,
वक्त के हिसाबों में!!
बहती हवा के साथ,
बहना होगा!
जीने की शर्त बड़ी जालिम है
कुछ तो गिरवी यहां रखना होगा!
छिप छिप के दोस्त
कभी बिकना होगा!!
और क्या गिरवी रखना पड़ता है? आत्मा गिरवी रख जाती है। ठीकरे हाथ पड़ते हैं, जीवन लुट जाता है। और जिम्मेवार कोई और नहीं, हम ही जिम्मेवार हैं। हमने ही जीवन को गलत ढंग से पकड़ने की कोशिश की है।
अच्छा ही हुआ कि न बने विद्वान। कहीं भटक जाते शब्दों के जंगल में। बहुत विद्वान भटक गए हैं। शब्दों का जंगल बड़ा है, उसको पार करते-करते जनम-जनम लग जाते हैं। अच्छा हुआ, न धन आया। आ जाता तो और, और...निन्यानबे का चक्कर पैदा होता।
यह कहानी तो तुमने सुनी ही है--एक सम्राट को उसका मालिश करने वाला रोज-रोज आता था। सम्राट चकित था सिर्फ एक रुपया मिलता था मालिश करने वाले को। लेकिन उसकी मस्ती को कोई हिसाब नहीं! उस जैसा आनंदित आदमी सम्राट ने नहीं देखा था। बड़े-बड़े सम्राटों से उसकी दोस्ती थी, बड़े धनपतियों से, बड़े वजीर उसके थे, नगरसेठ, बढ़े सेनापति; मगर यह मालिश करने वाला नाई बेजोड़ था। सदा खिला रहता फूल की तरह। सदा सुवासित। पैरों में चाल और मस्ती! जैसा कोई अपूर्व धन इसको मिल गया है! कि जैसे किसी साम्राज्य का मालिक है!र् ईष्या होती थी सम्राट को। उसने अपने वजीर से कहा कि इस नाई के आनंद का राज क्या है?
वजीर ने कहा: "कुछ खास राज नहीं है। कुछ दिन मुझे मौका दें। यह सब आनंद वगैरह मिटा दूंगा।'
उसने उसी रात निन्यानबे रुपये एक थैली में भर कर उस गरीब के घर में फेंक दिए। उसे एक रुपया रोज मिलता था। पुरानी कहानी है, एक रुपया उन दिनों में बहुत था, जरूरत से ज्यादा था। खुद भी खाए, पड़ोस के लोगों को भी खिलाए; भंग भी छाने, दूध भी पीए, डंड-बैठक भी लगाए, कपड़े भी अच्छे! शाम को बेले का गजरा डाल कर अकड़ कर शान से बाजार में घूमे भी! मजा ही मजा था। और काम कुल सुबह था थोड़ा-सा कि जा कर सम्राट की मालिश कर आना, रुपया मिला कि जिंदगी आनंद ही आनंद थी, दिन भर मजा करना। कल की कोई चिंता न थी, कल सुबह फिर मालिश, फिर रुपया मिलेगा। भविष्य था ही नहीं, अतीत की कोई फिक्र नहीं थी, कभी कुछ इकट्ठा किया नहीं, उसकी चिंता नहीं थी। रोज मिल जाता था, रोज जी लेता था। रोज जी रहा था। वर्तमान में जी रहा था। अनजाने वर्तमान से संबंध जुड़ गया था तो आनंदित था।
इस वजीर ने सब गड़बड़ कर दिया। निन्यानबे की थैली फेंक दी। सुबह उठा। निन्यानबे रुपए गिने। चकित हुआ: कहां से आ गया! सोचा परमात्मा जब देता है छप्पर फाड़ कर देता है। अब एक सवाल उठा कि आज एक रुपया मिलेगा, आज उपवास कर लूं। आज नहीं भंग पीनी, और आज नहीं बेले के फूल खरीदने हैं, और आज नहीं बाजार जाना है, और आज नहीं मिठाई खानी है, आज नहीं कुछ भी करना। यह एक रुपया बच जाए तो सौ रुपए पूरे हो जाएं।
आदमी का मन कुछ ऐसा है! आदमी के मन में कुछ एक बड़ी बुनियाद बात है: हर चीज को पूरा करने की आकांक्षा। तुम्हारा एक दांत गिर जाए तो जीभ वहीं-वहीं जाती है। जब तक थी दांत कि स्थिति, कभी जीभ न गयी। जब तक दांत था, कभी जीभ न गयी। अब नहीं है तो वहीं-वहीं जाती है। लाख बचाओ, वहीं-वहीं जाती है। वह जो खाली जगह है, उसको भरना चाहती है।
वैसा वह रुपया जो एक खाली था...दूसरे दिन उसने उपवास कर लिया। एक ही दिन की तो बात थीं, सोचा। रुपया एक डाल दिया। दूसरे दिन ही सम्राट थोड़ा हैरान हुआ। वह कुछ सुस्त-सा दिखाई पड़ा। भोजन न किया था दिन भर। मालिश भी की तो वह जान न थी, वह गुनगुनाहट न थी। लेकिन जब सौ इकट्ठे हो गए तो मन कहीं मानता है! मन कहा: "ऐसे धीरे-धीरे बचाऊं तो दो सौ भी हो सकते हैं। अब से सिर्फ आठ आने ही खर्च करने हैं, आठ आने बचाने हैं। अरे कुछ बचा लो भविष्य के लिए भी, बुढ़ापे के लिए भी।' सब चिंताएं आने लगी, कभी जिन चिंताओं में न घिरा था। तो आठ आने बचाने लगा। लेकिन फिर और लोभ पकड़ा कि आव आने बचाते-बचाते तो कब दो सौ रुपए हो पाएंगे, बारह आने बचा लूं। काम तो चार आने में ही चल जाएगा। और जीवन में तो सादगी होनी ही चाहिए।
आदमी अपने को कैसे-कैसे समझाता है! "सादा जीवन, उच्च विचार!' एक तख्ती खरीद लाया, लगा ली अपने घर के भीतर--"सादा जीवन, उच्च विचार!' चार आने से फिर दो ही आने पर आ गया। फिर एक आने पर ही आ गया। जमाना सस्ता था, एक आने में भी काम चल जाता था। मगर सूखने लगा, पत्ते झरने लगे, पतझड़ आ गया। जीवन में वह जो बहार थी, वह तो वसंत था, वह खो गया, वह खो गया। वह जो मधुमास था, न मालूम कहां तिरोहित हो गया! महीने भर में उसकी हालत बिगड़ गयी। चेहरा लंबा, बिलकुल साधु-महात्मा मालूम होने लगा! उदास, उदासीन, विरक्त-- जैसे जीवन में कुछ भी नहीं है, सब बेकार है! आता, काम भी करता, क्योंकि करना था, लेकिन अब काम करने में किसी तरह का रस नहीं था। सम्राट ने पूछा: "तुझे हो क्या गया?'
उसने कहा: "अब आपसे क्या छिपाना! न मालूम कौन दुष्ट मेरे घर में निन्यानबे रुपये की थैली फेंक गया। जिस दिन से किसी ने यह हरकत की है, मेरे प्राण संकट में हैं। मैं मरा-मरा हुआ जी रहा हूं। मेरी जान ले ली।'
सम्राट ने वजीर को बुलाया। समझ में आ गयी उसे बात कि किसने फेंकी होगी। वजीर को पूछा कि तूने निन्यानबे की थैली फेंकी। उसने कहा: हां, आपको बताना था कि इसका राज क्या है। इसका राज कुल इतना है कि यह आज जी रहा है। इसको कल पैदा करवा दो, इसके जीवन में कुछ होने की धुन चढ़ा दो--मारा जाएगा। देख ली यह हालत इसकी'!
मिल जाता है तो मिल जाता है तो निन्यानबे का चक्कर पैदा होता, वह जान ले लेता; नहीं मिलता है तो लगता है कि जीवन बेकार है, क्या फायदा जीने से? जीवन रास नहीं आया।
अब तुम कहते हो: "यहां आकर जीवन को एक नयी दिशा अनजाने ही दे ही।' यह दिशा तुम ठीक से समझ लो, अन्यथा फिर चूक जाओगे। अगर ठीक-ठीक पकड़ो तो यह दिशा नहीं है। संन्यास कोई दिशा नहीं है, दिशा से मुक्ति है। दिशा में तो फिर भविष्य आ गया और वह तुम्हारे प्रश्न में भी आया।
तुम कह रहे हो: "अतीत भटकाव में बीत गया।' अभी भी बोझिल है अतीत तुम्हारे ऊपर।' और वर्तमान संन्यास में, और भविष्य का आप निर्णय करें। अभी भविष्य गया नहीं है। तुम नहीं करोगे निर्णय तो मुझसे करवाओ। मकसद यह हुआ कि अब तक तुम अपने को दोषी ठहराते थे, अब तुम मुझे दोषी ठहराओगे। मगर भविष्य अभी है। जब तक अतीत है तब तक भविष्य है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जाते हैं, साथ ही जाते हैं; रहते हैं, साथ ही रहते हैं। और जब तक अतीत और भविष्य है, वर्तमान नहीं है, सिर्फ भ्रांति है।
यहां एक मौज है, एक मस्ती है। यहां एक हवा है, एक वातावरण है। यहां इतने संन्यासियों के बीच स्वभावतः तुम्हें भी लगता होगा बड़ा आनंद है। घर लौटते ही खो जाएगा, क्योंकि तुम्हारा अतीत और भविष्य अभी गया नहीं है। अभी निन्यानबे का चक्कर मौजूद है। अभी भी तुम अतीत की सोच रहे हो, जिसमें कुछ भी नहीं है। आदमी अतीत को छोड़ नहीं पाता, क्योंकि उसमें उसका अहंकार होता है कि मैं क्या इतना मूर्ख था कि मैंने इतने दिन गंवाए! चाहे दिशा गलत पकड़ ली हो, काम तो मैं ठीक ही कर रहा था। अब दिशा भी ठीक मिल गयी। काम तो तुम वही करोगे, अब दिशा भी ठीक मिल गयी। मैंने बिना मार्गदर्शन के आपाधापी की थी। अब मार्गदर्शन मिल गया। अब मार्ग-द्रष्टा मिल गया। अब गुरु मिल गया।...तो तुम गलती में पड़ गए।
मैं वैसा गुरु नहीं हूं, जो दिशाएं देता है। मैं वैसा गुरु हूं जो दिशाएं छीन लेता हूं; जो महत्वाकांक्षाएं छीन लेता है, जो सब छीन लेता है; जो तुम्हें निपट नग्न छोड़ देता है--तुम जैसे हो वैसे।
और मेरी मौलिक क्रांति यही है कि मैं तुमसे कहता हूं कि तुम जैसे हो, परिपूर्ण हो। कुछ करना नहीं है। तत्वमसि! तुम परमात्मा हो! और क्या करने को है? और क्या जोड़ने को है? जाओ! प्रफुल्लित हो कर जीओ! परमात्मा को अभिव्यक्त होने दो! अभिव्यक्त करना है, ऐसा नहीं--होने दो। हो तो ठीक, न हो तो उसकी मर्जी। कोई फूल फूल बने ठीक, कोई फूल कली रह जाए तो भी ठीक। कली का भी अपना सौंदर्य है। कली का भी अपना मजा है। जो हो जाए ठीक। जो न हो ठीक। ऐसी मनोदशा को मैं संन्यास कहता हूं।
तुम कहते हो: "कुछ बनने की आस में उलझता रहा, कुछ न हुआ। सिर्फ यह बोध रह गया कि मैं हूं।' वह बोध भी जाने दो। होना है। "मैं' कहीं भी नहीं है। मैं तो पैदा होता है महत्वाकांक्षा से। महत्वाकांक्षा अहंकार को पैदा करने की कीमिया है, रसायनशास्त्र है। अगर इतना भी बोध रह गया कि मैं हूं, तो फिर सब आ जाएगा, बीज रह गया। और बीज काफी है। जरा-सी बात सारे संसार को ले आती है।
एक दूसरी कहानी तुमने सुनी होगी। एक सम्राट अपने हाथी पर गुजरता था। एक मंदिर के सामने एक युवक बैठा हुआ था, उठा और सम्राट के हाथी की पूंछ पकड़ कर खड़ा हो गया। सम्राट ने लाख कोशिश की, महावत ने हाथी को बहुत डराया-धमकाया, मारा-पीटा, मगर युवक बड़ा बली थी। उसने जो पूंछ पकड़ी, सो हाथी टस से मस न हो सका। भीड़ लगी। बाजार था। सम्राट की बड़ी बेइज्जती हो गयी। हाथी पर चढ़ा बैठा है, है सम्राट, मगर एक युवक ने, एक गरीब युवक ने पानी फेर दिया सारे साम्राज्य पर। दुखी घर लौटा। किसी बुजुर्ग से पूछा: "कुछ करना होगा, क्योंकि अक्सर मुझे उस रास्ते से निकला पड़ता है। अगर यह उपद्रव रोज-रोज होने लगा तो यह बदनामी की बात है। और मुझे बहुत ही हतप्रभ होना पड़ा है।'
उस बुजुर्ग ने कहा: "चिंता न करो। उस युवक को बुलाया। और कहा: "तू करता क्या है?'
उसने कहा: "कुछ नहीं करता।" मेरी मां पीसती है आटा, उतना काफी है। मैं डंड-बैठक लगाता हूं, दूध पीता हूं और यह शंकर जी की मढ़िया, यहीं भंग छानता हूं, यहीं पड़ा रहता हूं। और मेरे पास कुछ काम-वाम है नहीं।'
उस बुजुर्ग ने कहा: "मां का क्या भरोसा, आज है कल न हो। अरे कुछ सीख ले! और एक सस्ता काम तुझे बात देते हैं। छोटा-सा काम है। इस मंदिर पर सम्राट को बड़ा प्रेम है। तू एक दीया रोज इस पर शाम को जला दिया कर, बस एक रुपया रोज तुझे मिलेगा।'
बात तो जंची युवक को। दीया भर जलाना है! दीया भी मिलेगा, तेल भी मिलेगा, बाती भी मिलेगी--सिर्फ जलाना। जलाने के लिए एक रुपया! मां तो पीस-पीस कर मर जाती है तो दो आने कमा पाती है दिन भर में। मजा आ जाएगा, इसने सोचा। एक रुपये में तो गुलछर्रे हो जाएंगे। फिर तो कहना ही क्या है! डट कर दूध पीऊंगा, और भी डंड-बैठक लगाऊंगा। इस इलाके में मेरा कोई मुकाबला न रह जाएगा।
रात भर सो नहीं सका। वह एक रुपया घूमता ही रहा। क्या-क्या योजनाएं न बनायीं, क्या क्या नहीं कर बैठूंगा! अभी रुपया मिला भी नहीं था। और दूसरे दिन जब सम्राट का हाथी निकला और उसने पूंछ पकड़ी और घिसट गया। सम्राट बड़ा हैरान हुआ। उसने बुजुर्ग से पूछा: "तूने क्या किया?'
उसने कहा: "अभी कुछ किया नहीं, सिर्फ योजना दी है इसको। अभी तुम जब मैं करूंगा तब देखना, हाथी क्या कुत्ते की पूंछ पकड़ेगा तो घिसट जाएगा। अभी तो सिर्फ रात भर सो नहीं सका इसलिए घिसट गया। सुबह डंड-बैठक भी लगा नहीं पाया दिल से। यही फिक्र लगी रही कि आज शाम से काम शुरू करना है। और रुपया--एक रुपया--मजा आ जाएगा! क्या-क्या योजनाएं इसने नहीं बना लीं! योजनाएं जब तेज हो तो कौन सोए, कौन डंड-बैठक लगाए! अभी तुम देखो जरा दो-चार दिन
रुपया उसे मिलने लगा। रोज दिया जलाने की एक चिंता पकड़ गयी। इसके पहले उसने चिंता जानी नहीं थी, चिंता से उसकी कोई मुलाकात ही न हुई थी। कुछ करता ही न था। जब मौज आयी, सो गए। जब मौज आयी, जग गए। जब मौज आयी, नदी-स्नान कर आए। जब मौज आयी, मित्रों से मिल आए। मौज थी जिंदगी। अब पहली दफा चिंता बनी। बैठा है मित्रों में, लेकिन पूछे: "भाई कितने बजे, क्योंकि मुझे जरा दीया जलाना है।' गपशप कर रहा है, बीच में से उठ जाए। डंड-बैठक लगा रहा है, घंटाघर की घड़ी देखे कि कहीं शाम का वक्त तो नहीं हो गया है, नहीं रुपया चूक जाएगा। बुजुर्ग ने कह दिया था: "अगर एक भी दिन अंधेरा हो गया और दीया नहीं जला, कि रुपया गया!'
जब महीने भर बाद सम्राट निकला तो उस युवक को देख कर उसे बड़ी दया आयी। वह तो सूख गया था। वह तो पहचान में भी नहीं आता था। यह क्या हाथी को रोकेगा! वह बुजुर्ग ठीक कहता था कि इसको कुत्ता घसीट लेगा।
मनुष्य दो ढंग से जी सकता है। एक तो जीने का ढंग है: अतीत और भविष्य में, अर्थात चिंता का ढंग। और एक ढंग है: वर्तमान में जीना, अर्थात ध्यान का ढंग संन्यास यानी ध्यान।
मैं तुम्हारे भविष्य का कोई निर्णायक नहीं हूं। भविष्य है ही नहीं। भविष्य कभी आता है? कल कभी आया है? जो कल गया वह भी नहीं है; जो कल आने को है वह भी नहीं है। जो है वह यह क्षण है--अभी और यहां!
दीपक भारती, इस क्षण में रस लो, डूबो। इसी क्षण से संगीत उठेगा। इसी क्षण से बुद्धत्व उठेगा। इसी क्षण से जीवन एक रास बन जाएगा। इसी क्षण से धन की वर्षा हो जाएगी।--ऐसे धन की जिसकी न चोरी होती, न जो छीना जा सकता। और इसी धन से वह मंदिर बनेगा जो शाश्वत है।

दूसरा प्रश्न: भगवान,
गीता, रामचरितमानस और गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं में मेरा विश्वास है और उनसे अनुप्रेरित हो कर मैं अपने संपूर्ण जीवन मानव-कल्याण के लिए समर्पित करना चाहता हूं। फिर आप भी तो यही कर रहे हैं। कृपया आशीष दें और सान्निध्य का अवसर दें।

पंडित मोतीलाल जोशी,
मैं समझता हूं तुम मुझे समझ नहीं पाए। और आश्चर्य चकित नहीं हूं। पंडितों से मैं आशा ही नहीं करता कि वे मुझे समझ पाएंगे। पंडित से ज्यादा नासमझ आदमी मैंने नहीं देखे। फिर तुम्हारी तो और मुश्किल है। तुम वाराणसी के निवासी हो! पंडित और वाराणसी का!
यह काशी तो नगरी है--तीन लोक से न्यारी! काशी की मूढ़ता का कोई मुकाबला नहीं। इसकी मूढ़ता पांडित्य के इतने जालों में छिप गयी है कि उसका पता चलाना भी मुश्किल हो जाता है।
तुम कुछ सुनते रहे, मैं कुछ और कहता रहा। तुम कहां की बातें उठा रहे हो--गीता,रामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास!
प्रज्ञा ने मुझसे पूछा है कि भगवान, दीवालों के भी कान होते हैं? पंडितों को छोड़कर और सबके कान होते हैं। अगर दीवाल पंडित हो, फिर उसके कान नहीं होते। आदमियों के कान दिखाई पड़ते हैं। मगर होते हैं कि नहीं, यह तो अवसर पर ही सिद्ध होता है। सुनते कुछ हैं, समझते कुछ हैं। और अपनी पुरानी संस्कारों की जो व्यवस्था है, उसको हटा कर नहीं सुनते, उसके बीच में रख कर सुनते हैं। उसमें से कट-छंट कर कुछ बात पहुंचती है, वह बिलकुल बिगड़ जाती है।
एक सिनेमा-घर के गेट कीपर को दांत में दर्द हो रहा था। खयाल रखना, सिनेमा-घर का गेट कीपर था। वह दौड़ा हुआ डॉक्टर के पास गया और बोला: "डॉक्टर साहब, दांत में मुझे बहुत दर्द हो रहा है।
"कौन से दांत में'--डॉक्टर ने पूछा।
गेट-कीपर ने कहा: "नीचे की बालकनी में, सामने वाली लाइन में, दूसरे नंबर पर।'
गेट-कीपर ही है...तो नीचे की बालकनी में सामने वाली लाइन में, दूसरे नंबर पर!
अपनी भाषा, अपने सोचने के ढंग, अपना जाल हटता नहीं है।
मैं जो कह रहा हूं उसका क्या लेना-देना है गीता से? गीता को गुजरे पांच हजार साल हो गए। पांच हजार साल व्यर्थ नहीं गए। पांच हजार साल में बहुत कुछ हुआ है--बुद्ध हुए, महावीर हुए, गोरख हुए, कबीर हुए, नानक हुए, जीसस हुए, जरथुस्त्र हुए, मूसा हुए, मुहम्मद हुए, बहाऊद्दीन हुआ, जलालुद्दीन हुआ, अलहिल्लाज मंसूर हुआ। कैसे-कैसे गजब के लोग हुए! वे सब दान दे गए। वे सब मनुष्य की प्रतिमा निखार गए, उसे नया-नया रंग दे गए। इस चित्र पर बहुत तूलिकाएं चल गयी।
कृष्ण ने सुंदर चित्र बनाया था, अगर अब बहुत पुराना पड़ गया। आदमी बहुत आगे आ गया। कृष्ण के सोचने के ढंग अब दकियानूसी मालूम होंगे। कृष्ण को हिंसा में भरोसा था। आज जो आदमी हिंसा में भरोसा करे, उसको हम सोच-विचारशील आदमी नहीं कह सकते। उन दिनों बात ठीक थी, ठीक रही होगी। आज हिंसा की बात करना तो पूरे मनुष्य-जाति के विनाश का आयोजन करवा देना है। इतने ऐटम, इतने हाइड्रोजन बम इकट्ठे हैं कि आज से दस साल पहले हम एक-एक आदमी को सात-सात बार मार सकते थे। दस साल पुरानी बात हो गयी वह भी अब तो एक-एक आदमी को हम सात-सात सौ बार मार सकते हैं। पृथ्वी संख्या बहुत कम--कोई चार अरब--और हमारे पास मारने की संभावना सात गुनी ज्यादा। यह कोई गांडीव धनुष लिए हुए अर्जुन नहीं बैठा है, जिसको गीता का उपदेश दे रहे हो। आज आदमी के पास सामूहिक आत्मघात का आयोजन है। हम इस जैसी सात सौ पृथ्वियों को भस्मीभूत कर सकते हैं! हमें भाषा बदलनी होगी। हमें कुछ बुद्ध से, महावीर से सीखना होगा। कृष्ण से बात को हमें आगे ले जाना होगा।
कृष्ण के सोचने का ढंग वही था--ब्राह्मण का, क्षत्रिय का, शूद्र का। कृष्ण वर्ण व्यवस्था में विचार करते थे। आज यह बात गयी-गुजरी हो गयी। आज जो वर्ण-व्यवस्था को मानता है, वह मंदबुद्धि है। उन्हीं मंद-बुद्धियों के कारण हरिजन जलाए जा रहे हैं, उनकी स्त्रियों के साथ बलात्कार हो रहे हैं, उनके बच्चों को अग्नि में भूना जा रहा है, उनके झोपड़ों में ओ लगायी जा रही है। आज गीता पूरी की पूरी नहीं मानी जा सकती। उसमें से कुछ चुन लो, कुछ हीरे-जवाहरात हो तो चुन लो, बाकी तो कचरा हो गया।
फिर भी, कृष्ण अदभुत व्यक्ति थे। और उस समय तक मनुष्य की चेतना में जो निखार आया था, उसके वे सर्वाधिक प्रखर, सर्वाधिक ज्योतिर्मय पुरुष थे। इसलिए उस समय के लोगों ने उन्हें पूर्णावतार कहा था। मगर अब बात पीछे पड़ गयी। अब तो कृष्ण को पूर्णावतार कहना ऐसा ही है, जैसे बैलगाड़ी को वाहन का श्रेष्ठतम साधन कहना। अब आदमी चांद पर पहुंचने लगा। कृष्ण बैलगाड़ी के जमाने के आदमी हैं। मनुष्य विकास कर रहा है।
मैं अतीत से बंधा हुआ नहीं हूं। मैं किसी चीज से बंधा हुआ नहीं हूं। तो छोटे-छोटे बच्चों को भी यह बात समझ में आ सकती है कि कृष्ण ने जो कहा, अगर आज माना जाए तो सिवाय हिंसा, हत्या, हिरोशिमा और नागासाकी के कुछ भी न होगा। आज जीत हो ही नहीं सकती। न कोई जीत सकता है, न कोई हार सकता है। विनाश की इतनी क्षमता है हमारे पास कि जो भी लड़ेगा आज, अगर कोई महायुद्ध हो, तो जो लड़ेंगे वे तो नष्ट हो ही जाएंगे, जो नहीं लड़ेंगे वे भी नष्ट हो जाएंगे। जीतने वाला तो कोई बचेगा नहीं। आदमी की तो बात छोड़ दो, पशु-पक्षी नहीं बचेंगे, पौधे नहीं बचेंगे, जमीन की हरियाली समाप्त हो जाएगी। जीवन ही नष्ट हो जाएगा।
आज गीता की बात को ज्यादा समर्थन नहीं दिया जा सकता। और ये क्षत्रिय और वैश्य और शूद्र की धारणा..."स्वधर्मे निधनं श्रेय:' कृष्ण कहते हैं अपने धर्म में मरना श्रेयस्कर है। "पर धर्मों भयावहः'। दूसरे के धर्म में मरना बहुत भयकारक है। और उनका प्रयोजन क्या है? क्षत्रिय को क्षत्रिय की तरह मरना चाहिए। वह उसका धर्म है। कोई क्षत्रिय है? कोई ब्राह्मण है! जो ब्रह्म को जाने वह ब्राह्मण। बुद्ध ब्राह्मण हैं, महावीर ब्राह्मण हैं, मुहम्मद ब्राह्मण हैं, जीसस ब्राह्मण हैं--मेरे हिसाब में। लेकिन कृष्ण कहते हैं: 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः' वे अर्जन को समझा रहे हैं कि तू क्षत्रिय पैदा हुआ, क्षत्रिय है, तुझे क्षत्रिय में ही, क्षत्रिय के स्वभाव में ही मरना श्रेयस्कर है। तू ये ब्राह्मणों जैसी बातें न कर। तू त्यागियों और तपस्वियों जैसी बातें न कर। तू ये कैसी बातें कर रहा है--संन्यास, ध्यान, समाधि, योग! तू ये क्या बातें कर रहा है कि जंगल चला जाऊंगा, कि मुझे नहीं लड़ना है! यह तेरा धर्म है, लड़!
कृष्ण समझा-बुझा कर अर्जुन को लड़ा देते हैं। शायद उस दिन की यह जरूरत थी। शायद उस दिन यह ठीक भी था। शायद उस दिन यह न होता तो कौरवों ने बहुत अनाचार किया होता। तो दो बुराइयों के बीच कृष्ण ने कम बुराई को चुन लिया था। अगर आज तो चुनाव का उपाय ही नहीं है।
पंडित मोतीलाल जोशी, तुम्हें कुछ भी पता नहीं है कि हिरोशिमा में जिस दिन बम गिरा उस दिन के बाद मनुष्य दूसरे जगत में प्रवेश कर गया। इतिहास कट गया दो हिस्सों में--हिरोशिमा-पूर्व और हिरोशिमा-पश्चात। हिरोशिमा-पूर्व जो इतिहास था वह सब व्यर्थ हो गया। अब हमें नये ढंग से, नयी शैली से सोचना पड़ेगा। हमें जीवन को देखने के नए दृष्टिकोण अपनाने होंगे।
और फिर तुम रामचरितमानस और गोस्वामी तुलसीदास की बातें करते हो! कृष्ण तो फिर भी कम से कम प्रज्ञापुरुष हैं, तुलसीदास तो सिर्फ एक कवि है, इससे ज्यादा नहीं; कोई प्रज्ञा पुरुष नहीं है; कोई बुद्ध पुरुष नहीं हैं। उनकी रचनाओं में इसका कोई सबूत नहीं है। उनकी रचनाओं में तो बड़ी ओछी बातें हैं, बड़ी छोटी बातें हैं। सच पूछो तो हिंदू-समाज को भ्रष्ट करने वाले लोगों में गोस्वामी तुलसीदास का जितना हाथ है उतना किसी और व्यक्ति का नहीं है। क्योंकि वे गांव-गांव पर छा गए। उनकी भाषा ग्रामीण है। उनके सोचने का ढंग ग्रामीण है। इसलिए गांव-गांव पर उनका प्रभाव पड़ गया। अपढ़ से अपढ़ आदमी को उनकी चौपाइयां याद हैं और उनकी चौपाइयों से जी रहा है और उनकी चौपाइयों को आधार मान कर चल रहा है। इस देश के सड़े-गलेपन से अगर छुटकारा पाना हो तो गोस्वामी तुलसीदास से भी छुटकारा पाना होगा।
तुम तो बच्चों जैसी बातें कर रहे हो। अब तो बच्चे भी थोड़े ज्यादा समझदार हो गए हैं।
श्रीमान जी का छोटा लड़का अपनी उम्र के हिसाब से कुछ ज्यादा ही होशियार था। एक दिन घर आया तो उसके हाथ में लाइब्रेरी की एक पुस्तक थी: "बच्चों का लालन-पालन'। उसकी मां ने आश्चर्य से पूछा: "क्यों मुन्ने, इस पुस्तक का तुम क्या करोगे?'
मुन्ने ने जवाब दिया: "मैं इसे पढ़ कर जानना चाहता हूं कि मेरा पालन-पोषण उचित तरीके से किया जा रहा है या नहीं।'
बच्चे भी होशियार हुए जा रहे हैं--और तुम कैसी बचकानी बातें कर रहे हो! और तुम कहते हो: "मैं गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं में विश्वास करता हूं।'
विश्वास तो सिर्फ अंधे लोग करते हैं। आंख वाले लोग विश्वास नहीं करते, जानते हैं। मेरा तो सारा जोर जानने पर है, विश्वास पर नहीं। जब जाना जा सकता हो तो विश्वास क्यों करना? जब अनुभव किया जा सकता हो तो अंधे की तरह क्यों मानना? ईश्वर तो अनुभूति बन सकता है। विश्वास तो सस्ती चीज है, मुफ्त मिल जाती है? कुछ करना नहीं--ध्यान नहीं, समाधि नहीं, प्रार्थना नहीं, प्रार्थना नहीं। मान लिया, क्योंकि और लोग मानते हैं। और लोग हजार तरह की गधापच्चीसियों में मानते हैं, तो तुम भी मानोगे। क्योंकि और लोग मानते हैं, बाप-दादे मानते रहे। अब बाप-दादों के खिलाफ थोड़े ही जा सकते हैं। जैसा बाप-दादे मानते रहे वैसा हम मानेंगे। तो विकास कैसे होगा?
विश्वास धर्म नहीं है। अविश्वास धर्म नहीं है, फिर धर्म क्या है? अविश्वास नास्तिकता लाता है। विश्वास आस्तिकता लाता है। दोनों धर्म नहीं हैं। धर्म है--जिज्ञासा मुमुक्षा, खोज, अन्वेषण। न तो मानने की जल्दी करो, न न मानने की जल्दी करो। अपने को मुक्त रखो, खोजो। और जो तुम्हारे अनुभव में आ जाए उसको ही मानना। फिर उसको मानने का सवाल ही नहीं उठता, मानना ही पड़ेगा। अंधा आदमी प्रकाश में विश्वास करता है; आंख वाला विश्वास नहीं करता, जानता है।
मैं तुम्हें आंख वाला बनाना चाहता हूं। मैं तो विश्वास का दुश्मन हूं। और तुम कहते हो: "मैं गोस्वामी तुलसीदास से अनुप्रेरित हो कर अपना संपूर्ण जीवन मानव-कल्याण के लिए समर्पित करना चहता हूं।'
तुम्हारे पास है क्या जिसको तुम मानव-जीवन के कल्याण के लिए समर्पित करोगे? समाधि है? आनंद है? ईश्वर-अनुभव है? मोक्ष की प्रतीत है? क्या है तुम्हारे पास?
बुद्ध के पास एक आदमी आया। बहुत बड़ा धनी था उस समय का--असाधारण धनी था! उसने बुद्ध को कहा कि आपकी बातों से मैं अनुप्रेरित हो कर अपना सारा जीवन मनुष्य के कल्याण के लिए लगा देना चाहता हूं।
बुद्ध ने उसे गौर से देखा और कहते हैं, बुद्ध ने जीवन में पहली बार किसी ने उनकी आंखों. में आंसू देखे। झर-झर दो बूंद आंसू टपक गए। वह सेठ तो बहुत हैरान हुआ। उसने कहा: "आपकी आंख में आंसू! मैंने कुछ गलत बात कहीं?'
बुद्ध ने कहा: "नहीं, मैं इसलिए चिंतित और दुखी हो गया कि तुम्हारे पास है ही क्या जो तुम मनुष्य जाति का कल्याण करोगे? अभी तुम्हारा ही कल्याण नहीं हुआ। बुझा दीया और दीयों को जलाने चला! मुर्दा लोगों को जीवन देने चला! खतरा यही है कि बुझा दीया कहीं और जले दीयों को न बुझा दे।'
और यही हुआ है। ये सारी दुनिया में जो धर्मों के प्रचारक घूम रहे हैं--ईसाई मिशनरी और आर्य-समाजी और तरह तरह के मार्के और ट्रेड-मार्क के लोग, तिलकधारी इत्यादि-इत्यादि और लगे हैं कल्याण में! और कल्याण किसका हो रहा है? कल्याण किसी का हो नहीं रहा है। हिंदू को ईसाई बना लो, ईसाई को हिंदू बना लो। खींचातानी करो आदमी की। कोई उसको ईसाई बना लेता है, फिर कोई भड़का कर उसको आर्य-समाजी बना लेता है। कोई किसी को जैन बना लेता है, कोई किसी को हिंदू बना लेता है। मगर कल्याण! जो हिंदू पहले से हैं उनका कल्याण हो गया है? जो ईसाई पहले से हैं उनका कल्याण हो गया? जो आदमी कल्याण करने आ गया उसका कल्याण हो गया?
मैं ईसाई मिशनरियों से बहुत मिलता रहा। और मैं उनसे एक बात जरूर पूछता रहा कि तुम बड़ी सेवा में लगे हो, मगर यह तो मुझे बताओ कि तुमने अपने जीवन में कुछ पाया है, कोई ज्योति मिली है, कोई अनुभव हुआ है? तो तुम बांटोगे क्या? दीन हो तुम, दरिद्र हो तुम, भिखमंगे हो तुम, बांटोगे क्या? तुम्हारी खुद की हालत अभी कहां इस योग्य है कि तुम किसी का कल्याण करो?
अब पंडित मोतीलाल जोशी, तुम जीवन समर्पित करना चाहते हो। जीवन में तुम्हारे है क्या? भिक्षापात्र भी नहीं होगा। क्या समर्पित करोगे? "मानव-कल्याण के लिए, मानव ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा भैया? तुम अपना ही कल्याण करो। मगर दूसरे का कल्याण करने में बहुत मजा आता है। है एक मजा दूसरे के कल्याण करने में। अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है कि देखो इसका कल्याण कर दिया, इसका कर दिया अब इसका करने में लगे हैं! कल्याण करने का मतलब यह होता है कि इसकी खोपड़ी को पचा डाला, इसको अपने विचारों से भर दिया, अपना कचरा इसके मस्तिष्क में डाल दिया, अब इसको भी बना दिया बाबा तुलसीदास का भक्त, कि बेटा तू भी पढ़ गीता, कि पढ़ हनुमान-चालीसा, कि रोज सुबह उठ कर बजरंग-बली की याद किया कर! जो तुम बेवकूफियां कर रहे हो वही बेवकूफियां तुम दूसरों को सिखा दोगे। इसको तुम कल्याण कहते हो।
तुम्हारे जीवन में कुछ हो तो कल्याण करना नहीं पड़ता, होना शुरू हो जाता है। कुआं प्यासे के पास नहीं जाता, जिसको प्यास है वह कुएं के पास आ जाता है। पर कुएं में जल होना चाहिए। सूखा कुआं क्या करेगा? प्यासा भी आ जाए तो सूखा कुआं क्या देगा उसे?
एक साहित्यिक गोष्ठी में कुछ स्त्रियों ने आपत्ति उठायी कि नारी को अबला कहना उसका सरासर अपमान है। गोष्ठी के महापंडित अध्यक्ष ने उनकी आपत्ति को जायज ठहराया और कहा कि मैं निर्णय देता हूं कि भविष्य में स्त्री को अबला न कहा जाए, बल्कि बला कहा जाए।
अब ये महापंडित हैं! इन ने "अबला' से 'बला' कर दिया उसको।
तुम क्या कल्याण करोगे? तुम पहले अपने को सम्हाल लो। मैं परोपकार की शिक्षा नहीं देता। परोपकार तो जिसने अपना स्वार्थ साध लिया, उसके जीवन की सुगंध का नाम है। लेकिन स्वार्थ शब्द का अर्थ समझ लेना--जिसने स्वयं का अर्थ जान लिया, जिसने स्व की अनुभूति कर ली--वही स्वार्थ को साध लिया। अब इसके जीवन की जो सुगंध है वह परोपकार बन जाएगी, सेवा बन जाएगी। अन्यथा तुम जो भी करोगे उससे नुकसान होगा, हानि होगी। तुम अच्छा ही करना चाहोगे तो भी बुरा होगा। अज्ञानी कर ही नहीं सकता। ज्ञानी बुरा नहीं कर सकता। ज्ञानी बुरा करने भी जाए तो भी अच्छा होता है और अज्ञानी अच्छा भी करना जाए तो भी बुरा होता है। अंग्रेजी में बड़ी प्रीतिकर कहावत है कि नर्क का रास्ता शुभ आकांक्षाओं से पटा पड़ा है। यह तुम्हारी आकांक्षा शुभ है। कोई भी कहेगा कि वाह पंडित जी, क्या बात कही! अरे यही तो मनुष्य-जीवन का असली राज है, लगा दो कल्याण में, कर दो समर्पित! मैं कह नहीं सकता। मैं कहूंगा: अभी तुम्हारे पास समर्पित करने को कुछ नहीं है। अभी तुम कल्याण क्या करोगे, तुम्हें बोध ही नहीं है। ये बाबा तुलसीदास की चौपाइयां पढ़ते तुमको अगर बोध होता तो? तो पांच हजार साल पुरानी गीता को तुम थोपने की चेष्टा में संलग्न होते? तो तुम्हारे जीवन की गीता खुद पैदा होती।
भगवान कृष्ण से गा सका, समझे क्यों नहीं गा सकता, तुमसे क्यों नहीं गा सकता? जिसके भीतर भी समाधि फलित होती है उसी के भीतर भगवतगीता पैदा हो जाती है। भगवतगीता का अर्थ है: भगवान का गीत, भगवत्ता का गीत। समाधि को उपलब्ध होओ तो तुम्हारे भीतर से अपने-आप वे स्वर फूटने लगेंगे जो न मालूम कितने लोगों की हृदयत्तंत्री को कंपित कर दें, न मालूम कितने लोगों के पैरों को नृत्य से आपूरित कर दें। मगर उसके पहले नहीं। उसके पहले तो तुम जो भी करोगे वे तुम्हारी पुरानी आदतें ही होंगी। उन्हीं को तुम लोगों पर थोपोगे।
एक अदालत में सेठ चंदूलाल पर मुकदमा था। मजिस्ट्रेट ने पूछ: "सेठजी, एक बात मेरी समझ में नहीं आयी। जब आप कहते हैं कि आप अपने घर गए तो आपने अपनी पत्नी को किसी पर-पुरुष के साथ बिस्तर पर सोए देखा। तो आपने उन दोनों को एक-दूसरे के पीछे खड़े होने को क्यों कहा?'
तो सेठ चंदूलाल ने कहा: "ताकि मैं एक ही गोली में दोनों का सफाया कर सकूं।' इसको कहते हैं मारवाड़ी बुद्धि! ऐसे समय में भी एक गोली बचाने का खयाल रखा कि अब दोनों को अलग-अलग गोली मारना...! मजिस्ट्रेट ने पूछा: "और मैं यह भी जानना चाहता हूं सेठ जी कि बजाय तुमने पत्नी को मार डालने के, अगर क्रोध ही आया था, तो उसके प्रेमी को मार डालना था, बात खत्म हो जाती।'
चंदूलाल ने कहा: "आप समझे नहीं, पत्नी जिंदा रहेगी तो कल का क्या भरोसा, कल कोई दूसरा प्रेमी खोज ले। ऐसे मैं किस-किस को गोली मारता फिरूंगा? तो एक ही बार जड़-मूल से ही खत्म कर देना ठीक है न! रोज-रोज गोली मारते फिरना, आखिर खर्च का भी कोई हिसाब रखना होता है!'
आदमी अपनी आदतों से भिन्न नहीं जाता।
सेठ धन्नालाल ने मरणासन्न अवस्था में यह इच्छा जाहिर कि कि उनके द्वारा जिंदगी भर में अर्जित किया धन तीन पेटियों में बराबर-बराबर बांट कर उनके कब्र में ही रख दिया जाए, क्योंकि उन्होंने कहा: "लोग कहते हैं कि धन को तुम परलोक नहीं ले जा सकते और मैं सिद्ध करना चाहता हूं कि ले जाऊंगा।'
यह बात उन्होंने गुप्त रूप से सिर्फ तीन व्यक्तियों को बतलाई, जिन पर उनका भरोसा था--मंदिर के पुजारी मटकानाथ ब्रह्मचारी को, अपने लंगोटिया यार मुल्ला नसरुद्दीन को और अपने दामाद से सेठ चंदूलाल को। क्योंकि ये तीन ही व्यक्ति थे जिन पर उन्हें थोड़ा-बहुत भरोसा था। एक आदमी धोखा दे सकता है, इसलिए उन्होंने तीनों को बुलाकर एक एक पेटी थमा दी, जिनमें एक-एक लाख रुपया नगद भरा था। यह महान कार्य कर के उन्होंने संतोष की गहरी सांस ली और अपने प्राण त्याग दिए।
कुछ दिन बाद तीनों भले-मानुष एक होटल में मिले। तीनों दुखी एवं गंभीर थे। कुछ मिनिट मौन रहते के पश्चात मटकानाथ ने कहा: "सज्जनों, मुझसे झूठ नहीं बोला जाता। बड़ा पाप अनुभव होता है इसलिए मैं तो साफ बता देना चाहता हूं कि मैंने पेटी में से दस हजार रुपये निकाल लिए थे--जराजीर्ण मंदिर की मरम्मत के लिए। उन्हें धर्म के काम में लगा देने से स्वर्गीय सेठ जी की आत्मा को संतोष ही होगा।'
कुछ मिनिट मौन छाया पर अब की बार मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: "जब आपने सच बात बता दी तो फिर मैं भला क्या सत्य छिपाऊं! बात यह है, यद्यपि हो सकता है कि आप लोगों को विश्वास न हो, मगर मैं भी भला क्या करता! आप में से अगर कोई मेरी जगह होता तो आप भी यही करते। रात को मुझे सपने में सेठ जी दिखे और वे बोले--"नसरुद्दीन, तुम पेटी में से पचास हजार निकाल लो और उससे एक अस्पताल बनवा दो गरीबों के कल्याण के लिए। और यदि तुम ऐसा न करोगे तो तुम्हारे बेटे एक साल के अंदर मर जाएंगे।' अतः मैंने तो पेटी में से पचास हजार रुपए निकाल लिए थे।
दस मिनिट तक चुप्पी छायी रही। अंततः आंखों में आंसू पोंछते हुए सेठ चंदूलाल ने कहा: "आप दोनों ने ही मेरे स्वर्गीय ससुर को धोखा दिया है, इसका फल ठीक न होगा।'
उन दोनों ने निगाहें नीची किए ही पूछा: "क्या आपने पूरे एक लाख रुपये पेटी में रख दिए थे?'
चंदूलाल ने सिसकियां लेते हुआ कहा: "नहीं, रुपये तो मैंने सारे निकाल लिए थे। तुम लोगों ने जो रखे वे भी, क्योंकि मैंने सोचा कि वैसे ही सेठ जी अपनी छाती पर काफी बोझ लिए मरे, अब और क्यों उनकी छाती का बोझ बढ़ाना चाहिए। इसलिए रुपयों के बजाय मैंने उनके ऊपर उतने ही रुपयों का चैक रख दिया था।'
आदमी अपनी आदतों से बाज नहीं आता। अब तुम कह रहे हो पंडित मोतीलाल जोशी कि "मैं अपना संपूर्ण जीवन मानव-कल्याण के लिए समर्पित करना चाहता हूं। फिर आप भी तो यही कर रहे हैं।' यह तुमको किसने कहा? मैंने ऐसा गलत काम जीवन में कभी किया ही नहीं। मैंने न तो मानव-कल्याण की कोई अभीप्सा की है कभी और न ही अपने जीवन को किसी के कल्याण के लिए समर्पित किया है। मैं तो अपना जीवन अपनी मौज और मस्ती में जी रहा हूं। जिनको उससे कुछ सीखना हो सीख लें; वह उनकी मौज। मेरी कोई आकांक्षा अपने को किसी के ऊपर थोप देने की नहीं है। किसी के लिए कोई आदेश नहीं दे रहा हूं कि तुम ऐसा करो, कि नहीं करोगे तो नरक जाओगे, कि नहीं करोगे तो मैं अनशन कर दूंगा। मेरी मौज है कि मुझे जो दिखाई पड़ता है वह मैं कह रहा हूं; तुम्हारी मौज है कि तुम सुन लेते हो।
मगर पंडित मोतीलाल जोशी कुछ का कुछ सुन रहे हैं। इसलिए प्रज्ञा का सवाल मुझे ठीक लगा कि क्या दीवालों के भी कान होते हैं? होते ही होंगे, क्योंकि जीसस बार-बार अपने शिष्यों से कहते हैं कि अगर तुम्हारे कान हों तो सुन लो और आंखों हों तो देख लो। या तो जीसस हमेशा ही अंधे और बहरों के बीच बोलते थे, जो कि बात सच नहीं मालूम होती। इतने अंधे-बहरे भी कहां खोजेंगे? लेकिन वे ठीक कह रहे हैं। लोग सुनते कहां हैं!
पुरुषों के संबंध में चीन में कहावत है। एक कान से सुनते हैं, दूसरे कान से निकाल देते हैं। और स्त्रियों के संबंध में कहावत है: दोनों कान से सुनती हैं और मुंह से निकाल देते हैं। इसलिए जिस बात को फैलाना, हो बस किसी स्त्री के कान में कह दो। शाम होते-होते पूरे गांव को पता चल जाएगा। और अगर जल्दी फैलाना हो तो इतना और कह देना कि बाई, किसी को बताना मत। या अगर बहुत ही मजबूरी आ जाए बताने की तो इतना जरूर कह देना उससे भी कि बाई, किसी को बताना मत। बस शाम होत-होते सारा गांव जान लेगा। विज्ञापन का इससे ज्यादा और कोई सुंदर उपाय नहीं है।
मगर क्या तुम सुनते हो, यह इस पर निर्भर करता है कि क्या तुम्हारी पूर्व-धारणाएं हैं। तुम किन पक्षपातों से भरे हुए हो। अब यह गीता और रामचरितमानस और तुमने जाना कुछ भी नहीं है। तुमने अनुभव कुछ भी नहीं किया है। तुम मुसलमान घर में पैदा हुए होते तो कुरान में विश्वास करते--इसी तरह। और ईसाई घर में पैदा होते तो बाइबिल में विश्वास करते--इसी तरह। जरा भी भेद नहीं होता। और रूस में पैदा हुए होते तो तुम दास केपिटल में और कम्यूनिस्ट मेनीफेस्टो में और माक्र्स, लेनिन और स्टेलिन में विश्वास करते। तुम्हें तो विश्वास करना था, खूंटी कोई भी हो। तुम्हें तो अपने विश्वास का कोट टांगना था, सो तुम टांग देते--खूंटी कम्यूनिस्ट हो कि कैथोलिक, क्या करना; हिंदू हो कि मुसलमान, क्या करना! अरे अपने को आम खाना कि गुठलियां गिननी! तुम तो आम खाते। आम यानी विश्वास। तुम तो चूसते विश्वास। संयोग की बात कि तुम हिंदू हो, इसलिए रामचरितमानस। तुम्हारे ही पड़ोस में जो जैन रहता है, उसने रामचरितमानस पढ़ी भी नहीं। तुम्हारे पड़ोस में ही जो जैन रहता है, वह गीता को धर्मग्रंथ भी नहीं मानता। उसने कृष्ण को नरक में डाल रखा है, क्योंकि इस आदमी ने महाहिंसा करवायी। अहिंसा परमो धर्माः अगर सिद्धांत है तो कृष्ण से ज्यादा हिंसक आदमी कहां खोजे से मिलेगा? चंगेजखान ने भी हिंसा की है, नादिरशाह ने भी हिंसा की है; मगर उनको भी थोड़ा अपराध लगता है। और कृष्ण तो हिंसा करने में अपराध ही नहीं मान रहे, उल्टे उसको धार्मिक बता रहे हैं। तो कह रहे हैं अर्जुन से कि दिल भर के कर, जी भर के कर! अरे तू है कौन, मारने वाला परमात्मा है, तू तो उपकरण मात्र है। तू तो मार!
अर्जुन भी मुझे पक्का बुद्धू मालूम होता है। उसने यह नहीं कहा कि में भी संन्यास लेने वाला कौन, अब परमात्मा ही को संन्यास लेना है तो ले रहा है, यह चला! मैं होता उसकी जगह तो सीधी बात वहीं निपट जाती, मामला आगे बढ़ाने का नहीं था। तुम कहते हो कि परमात्मा को युद्ध करवाना है, मैं कहता हूं परमात्मा को संन्यास लिवाना है। अब तुम्हारी मानूं कि अपनी मानूं? परमात्मा मुझसे खुद बोल रहा है। और अगर तुम से बोल रहा है तो तुम लड़ लो, तुम्हारी मर्जी। यह रहा गांडीव, धनुष, सम्हालो! क्या बकवास लगा रखी है गीता की! तुम लड़ो, मैं तो यह चला।
और जब मनुष्य को कर्म-फल की आशा नहीं करनी चाहिए और जब मनुष्य को अपना कर्तव्य-भाव ही छोड़ देना चाहिए, तो युद्ध के लिए ही क्यों, संन्यास के लिए भी कर्तव्य भाव छोड़ देना चाहिए। अर्जुन रहा महाबुद्धू। नहीं तो कृष्ण की बात में ऐसी कोई जान नहीं है। क्योंकि जो तर्क वे दे रहे हैं, वह तर्क इतना ही है कि परमात्मा जो कराए वह करो। अर्जुन कहता: "जय राम जी! यह चला। जो परमात्मा करवा रहा है, करूंगा। अब बाधा मत डालो। तुम से जो करवाए, तुम करो। मेरे पीछे आना हो, तुम भी आ जाओ। और तुम्हें लड़ना हो तो लड़ो। यह रहा धनुष और यह रहा रथ और यह खड़े हैं सारे दुश्मन, जी भर कर लड़ो। तुम कहते हो उसने तो जिनको मारना है, मार ही डाला है, तू तो निमित्त ही है। अरे तो जब निमित्त ही है तो वह किसी और को निमित्त बना लेगा, तो मैं ही क्योंकि निमित्त बनूं? जब उसे मारना ही है तो मार ही डालेगा वह, तो मारने दो उसको। वह जाने, उसका काम।'
जैन तो गीता को धर्मग्रंथ नहीं मान सकते। और रामचरितमानस तो बहुत बचकाना है और बहुत बेहूदा भी, असंस्कृत भी। स्त्रियों के संबंध में ऐसे वक्तव्य हैं, जो बड़े अशोभन हैं। शूद्रों के संबंध में ऐसे उल्लेख हैं, जो अमानवीय हैं--जो राम की प्रतिष्ठा गिराते हैं। और सारी कथा बहुत सामान्य स्तर की है। कोई ऊंचाइयां नहीं। मगर तुम्हारे मन में बैठी हैं तो तुम सोच रहे हो मैं भी वही कर रहा हूं। भैया, मुझे क्षमा करो! मैं कुछ नहीं कर रहा हूं। करने वगैरह में मुझे भरोसा नहीं है। मैं तो अपनी मस्ती में जी रहा हूं। अब इसमें से जो हो जाए; हो जाए तो ठीक, न हो तो ठीक। नहीं होगा तो मुझे कुछ विषाद नहीं है। न हो तो मुझे कोई चिंता नहीं होगी, हो जाए तो मुझे कुछ अहोभाव नहीं होगा। मैं अपनी मौज से जीया; उसमें जिन लोगों को मौज आयी, जुड़ गए; जिनको मौज नहीं आयी, नहीं जुड़े। मेरी न किसी से दोस्ती है, न किसी से दुश्मनी है। औरों की होगी दोस्ती-दुश्मनी मुझसे, लेकिन मेरी कोई दोस्ती नहीं, कोई दुश्मनी नहीं। तुम अगर मेरे पास इकट्ठे हो गए, यह तुम्हारी मौज है।
मैं न तो किसी से अनुप्रेरित हूं और न मेरा कोई विश्वास है। मेरा तो अपना जीवंत अनुभव है। उस जीवंत अनुभव के अनुसार में प्रतिपल आह्लादित हूं, आनंदित हूं। इसको ही मैं श्रीमदभगवदगीता कहता हूं। यह चाहे मैं बोलूं और चाहे मैं चुप रहूं, जो भी घट रहा है, उसकी मर्जी है। इसमें जिसको अच्छा लगे, सम्मिलित हो जाए। यह नदी तो जा रही है सागर की तरफ; जिसको बहना हो बहे, न बहना हो वह उसकी मौज। जो न बहे उसका मेरे मन में कोई अपमान नहीं, कोई निंदा नहीं। मैं यह नहीं कह सकता कि जो मेरे साथ नहीं है वह नरक जाएगा। उसका अपना स्वर्ग जाने का ढंग होगा।
मेरे पास किसी तरह की मतांधता नहीं है। और मैं किसी की सेवा नहीं कर रहा हूं। उस तरह की भ्रांतियां भी मैं नहीं पालता हूं।
इसलिए पंडित मोतीलाल जोशी, अगर मुझे समझना हो तो अपने सारे पक्षपात एक तरफ हटा कर रखो। अपने मन को ही हटा कर रखो। थोड़ा ध्यान में डूबो, ताकि मुझे समझ सको।

आखिरी प्रश्न: भगवान,
आपने श्री पूनमचंद भाई को अहमक क्यों कहा? मैं भी अहमदाबादी हूं, इसलिए पूछ रहा हूं।

भाई दास भाई,
यह मैंने नहीं कहा कि अहमदाबाद के रहने वाले सभी लोग अहमक हैं। मगर तुम्हें अगर चोट पड़ी तो थोड़ा विचार करना। तुम्हारे भीतर कहीं न कहीं अहमक होगा। अहमक तो सब जगह भरे पड़े हैं, अहमदाबाद में हो सकता है थोड़े ज्यादा हों। अहमदाबादी होता भी आदमी गजब का है!
अब पूना को देखते हो, सींग निकल आए--"पुणे' हो गया। बाम्बे को लोग मुंबई करने पर उतारू हैं, पुरुषों से एकदम स्त्री बना देना चाहते हैं। शर्म भी नहीं आती!
मैं नहीं कह रहा हूं कि अहमदाबाद को तुम अहमकाबाद कर दो। मगर नाम बदलने का बड़ा शौक चला हुआ है। रहेगी मजाक। रहेगी शानदार बात--अहमकाबाद!
मगर पूनमचंद भाई को अहमक कहने के मेरा कारण था यह कि उन्होंने योग तीर्थ को कहा कि मैंने संन्यास इसलिए छोड़ा कि अरविंद आश्रम की माताजी की फोटो से मुझे ऐसी प्रेरणा मिली, स्पष्ट भाव हुआ: "मुक्त हो जाओ!'
पहली बात, फोटुओं वगैरह से ये भावनाएं मिलती नहीं। यह खुद ही की विचारणा है, जो फोटो पर आरोपित कर दी होगी। पर चलो, खुद की हो कि फोटो की हो, कोई हर्जा नहीं। सवाल यह है "मुक्त हो जाओ', इतना ही आदेश मिला था, इसमें यह कहां था कि संन्यास से मुक्त हो जाओ? मुक्त होने को और कुछ नहीं था? क्रोध था, काम था लोभ था, सारा संसार था; उसमें एक ही चीज से मुक्त हुए--संन्यास इसलिए अहमक कहा। अहमक का मतलब अब तुम समझे?
अहमक में उस बुद्धू को कहता हूं, तो अपने बुद्धूपन को भी पांडित्य सिद्ध करने की कोशिश में लगा रहता है। मुक्त होने की बात अगर आयी थी तो मुक्त ही हो जाते। फिर सभी चीजों से मुक्त हो जाते! पत्नी से मुक्त न हुए, बच्चों से मुक्त न हुए, धन-दौलत से मुक्त न हुए, धंधे-व्यवसाय से मुक्त न हुए। और सब जाल वैसे के वैसे रहे। संन्यास से हुए! और मजा यह है कि संन्यास तो मुक्ति का उपाय है, सो तुम मुक्ति से ही मुक्त हो गए!
संन्यास है ही क्या? मुक्ति का उपाय। अगर यह वचन तुम्हें सुनाई पड़ा था कि मुक्त हो जाओ तो तो संन्यास में और गहरे डूब जाना था।
मगर नहीं, संन्यास से वे मुक्त होना चाहते थे, क्योंकि संन्यास ही गलत कारणों से लिया था। मैं किसी को इनकार नहीं करता संन्यास देने से, हालांकि मैं जानता हूं कौन गलत कारणों से ले रहा है। और जो गलत कारणों से ले रहा है, वह आज नहीं कल छिटक ही जाएगा। संन्यास के पीछे कोई सत्य की खोज की बात नहीं थी। संन्यास के पीछे कुछ और मामला था। पूनमचंद भाई की आंखें कमजोर हैं और रोज-रोज कमजोर होती जा रही हैं। और चिकित्सकों ने कह रखा है कि आंखें ठीक नहीं होगी। सो किसी ने उनको सुझा दिया कि आप संन्यास ले लो, उनके आशीर्वाद से सब ठीक जो जाएगा। सो वे संन्यास ले लिए। यह भी अहमकपन! आंखें जरूर मैं ठीक करता हूं, मगर भीतर की, बाहर की आंखों का मेरा धंधा नहीं है। तो जब भी मेरे पास आते थे, उनका बस एक ही खास आग्रह था कि किसी तरह मेरी आंखें ठीक कर दें। मैं उनसे कहता कि भीतर की आंखें तो ठीक होने दो; बाहर की हो गयी तो ठीक, नहीं भी हुई तो कोई हर्जा नहीं, सूरदास जी हो जाना। यह बात सुन कर ही उनको बहुत धक्का लगा था, जब मैं उनसे कहूं सूरदास जी हो जाना। ऐसे तो मुस्कुरा कर कहते कि हां ठीक है, असली बात तो यही है कि भीतर की आंख ठीक होनी चाहिए; मगर फिर दुबारा जब आते तब फिर बाहर की आंख। मैंने उनसे कहा: "कितनी बार आपको कहूं कि बाहर की आंख ठीक करने का मेरे पास कोई उपाय नहीं है! मैं कोई चमत्कार नहीं करता हूं और न मैं मानता हूं कि किसी ने कभी कोई चमत्कार किए। चमत्कार होते ही नहीं। चमत्कार सरासर झूठ हैं, या मदारीगिरी है, या धोखाधड़ी है।'
लेकिन उनको बस वही लगा था कि कोई तरह से मैं चमत्कार कर दूं और उनकी आंखें ठीक हो जाएं। अब बाहर की आंखें ठीक भी हो गयीं अगर तो क्या होना है? कितने लोगो को तो ठीक हैं, इनको क्या हो रहा है? जब उनने देखा कि मैं उनकी बाहर की आंखें ठीक नहीं करता, बस अड़चन शुरू हो गयी। एक तो अड़चन यह हुई कि अब संन्यास रखने से फायदा! दूसरी अड़चन थी पत्नी। बिलकुल पत्नी के पिछलग्गू हैं। पत्नी के पीछे पूंछ हिलाते फिरते हैं। आम पतियों की जो हालत होती है, वही हालत उनकी है। तो पत्नी पीछे पड़ी थी। और फिर पत्नी एक और ईजाद कर ली। पत्नी की बहन चल बसी और पत्नी कहने लगी कि पत्नी की बहन चल बसी हैं, वे भूत हो गयी हैं और वे बार-बार आ कर कह रही हैं कि पूनमचंद भाई का संन्यास छुड़वाओ, नहीं तो मैं सताऊंगी, पूरे घर को सताऊंगी।
ये सब अहमकपन की बातें हैं। अब यह पत्नी होशियार है। ऐसे ही उनके पीछे पड़ी थी। अब इसने एक और तरकीब निकाल ली--भूत की। भूत से वे भी घबड़ाए। फिर मेरे पास भागे आए कि इस भूत का क्या करना! अब मेरी पत्नी के पीछे उसकी जो बहन मर गयी, वह लगी है।
मैंने कहा:" तुम्हें दिखाई पड़ती है?' उन्होंने कहा: "मुझे दिखाई नहीं पड़ती।'
मैंने कहा: "तुम क्यों बकवास में पड़े हो? पड़ी रहने दो तुम्हारी पत्नी के पीछे। तुम्हारी पत्नी को अगर संन्यास नहीं लेना है, जाने दो उसको। तुम क्यों परेशान हो?' मगर बोले कि चौबीस घंटे वह मेरा सिर खाती है कि जब तक तुम संन्यास नहीं छोड़ोगे तब तब वह मेरी बहन मेरा पीछा नहीं छोड़ेगी, वह मुझे सता रही है।
मैंने कहा: "यह भी बड़ा अजीब जाल है!'
अब वे कहें: "किसी तरह इस भूत से मेरा छुटकारा करवा दो।'
मैंने कहा: "अगर ये गोरखधंधा में मैं पड़ने लगूं तो कुछ और करने को है नहीं?'
न कोई भूत हैं न कोई प्रेत हैं, मगर उनकी जान निकली जा रही है। अब वे घबड़ाने लगे और कि कहीं ऐसा न हो कि पत्नी पर चढ़ते-चढ़ते यह भूत हम पर चढ़ने लगे! सो सोचा कि संन्यास छोड़ देना ही अच्छा है। और कायर भी हैं नंबर एक। संन्यास छोड़ा तो आए भी नहीं। कम से कम इतना साहस तो होना चाहिए कि यहां आ कर मुझसे कहते कि मैं अब संन्यास से मुक्त होना चाहता हूं। मैं तो किसी को रोकता नहीं। अहमदाबाद कोई बहुत दूर नहीं है। अहमदाबाद से ही खबर भेज दी कि अब मेरा मन संन्यास से मुक्त होने का हो रहा है, क्योंकि ऐसा आदेश माताजी का मिल गया कि मुक्त हो जाओ।
इन सारी बातें को मैं मूढ़ता कहता हूं--अपने हिसाब से निकाल लेते हैं।
भाईदास भाई, तुम घबड़ाओ मत। ऐसे तुम्हारा घबड़ाना भी ठीक है, क्योंकि अहमदाबाद में होते तो हैं अहमक बहुत।
एक आदमी ने अहमक अहमदाबादी से पूछा: "इस खतरनाक मोड़ पर कोई साइनबोर्ड नहीं है?
अहमक अहमदाबादी ने कहा: "लगातार तीन साल तक जब कोई दुर्घटना नहीं हुई तो इस जगह लगे साइनबोर्ड को म्युनिसिपल कमेटी ने निकाल लिया, क्योंकि बेकार साइनबोर्ड लगाने से क्या फायदा, जब दुर्घटना होती ही नहीं।'
एक व्यक्ति ने अहमक अहमदाबादी से पूछा: "यह रजत पदक आपको किसलिए मिला?'
अहमक अहमदाबादी ने कहा: "गाना गाने के लिए।'
और उसने पूछा: "और स्वर्ण पदक?'
तो अहमक अहमदाबादी ने कहा: "गाना बंद करने के लिए।'
अहमक अहमदाबादी से जज ने पूछा: "अपनी बीबी को इस प्रकार पीटने के लिए तुम्हें किसने उकसाया?'
अहमक अहमदाबादी ने कहा: "श्रीमान, उसकी पीठ मेरी ओर थी। छड़ी पास ही मेज पर रखी थी। जूते मैं निकाल कर रखे थे। भागने के लिए दरवाजा भी खुला था। और ऐसा शानदार मौका दस साल में पहली बार ही मिला था।'
अहमक अहमदाबादी भाषण दे रहे थे तो उन्होंने भाषण में बड़े जोर से कहा कि यह बात सरासर गलत है कि मैंने अपना नया मकान भाषणों के दौरान फेंके गए ईंट-पत्थरों से बनाया है।
अहमक अहमदाबादी की पत्नी उनसे कह रही थी: "अजी सुनो सुनते हो कि नहीं घर में लड़की जवान हो गयी है, तुम्हीं तनिक भी परवाह नहीं है इसकी?'
अहमक अहमदाबादी ने कहा: "इसकी तुम से ज्यादा चिंता मुझे है, पर ढंग का कोई लड़का भी तो मिले। जो भी मिलता है, गधा ही मिलता है।'
पत्नी बोली: "अगर मेरे पिताजी भी यही सोचते रहते आज तक मैं भी कुंआरी ही बैठी रहती'
अहमक अहमदाबादी को पांच साल की सजा हो गयी। जब पांच साल की सजा काट कर घर लौटे तो देखा, उनकी बीबी की गोद में एक छोटा बच्चा था। अहमक अहमदाबादी तो गुस्से से भर गए, पूछा: "यह किसका बच्चा है?'
उनकी पत्नी ने जवाब दिया: "मेरा, और यह तुम्हारा भी हो सकता था, अगर तुमने एक शरीफ आदमी की जिंदगी जीने की कोशिश की होती।'
अहमकों की तो कमी कहीं भी नहीं है, लेकिन अहमदाबादी में वे थोड़े ज्यादा ही हैं। अहमक अहमदाबादी से किसी ने पूछा: "भाई, तुम तो पूरे जोरू के गुलाम हो, कल शाम तुम अपने कोट में खुद बटन टांक रहे थे।' अहमक अहमदाबादी ने कहा: "तुम्हारा कहना बिलकुल गलत है। वह कोट मेरा नहीं, मेरी बीबी का था।'
एक दिन अहमक अहमदाबादी सुबह-सुबह उदास सिर झुकाए बैठे थे, तभी उनके एक दोस्त ने पूछा: "भाई, क्या बात है, क्यों उदास हो?'
उन्होंने उत्तर दिया: "पहले पंद्रह रुपए किलो घी मिलता था और अब दस रुपए किलो हो गया है।'
यह सुन कर दोस्त ने कहा: "फिर तो तुम्हें खुश होना चाहिए। एक किलो घी लेने पर पांच रुपए बचेंगे।'
उन साहब ने कहा: "यही तो दुख है। पहले में घी न खा कर पंद्रह रुपए बचाता था, अब सिर्फ दस रुपए बचेंगे।'
एक मित्रों ने अहमक अहमदाबादी से पूछा: "अगर आपको अकेले में शेर मिल जाए तो आप क्या करेंगे?'
अहमक अहमदाबादी ने कुछ सोच कर जवाब दिया: "मैं भला क्या करूंगा! जो कुछ करना होगा, शेर ही करेगा।'
विदा के समय साले साहब ने दसवीं बार अहमक अहमदाबादी से कहा: -जीजाजी, मेरी बहन का खयाल रखिएगा, बड़े नाजों से पली है। इसे कोई तकलीफ न हो।'
बार-बार यही बात सुन कर, अहमक अहमदाबादी झुंझलाए हुए तो थे ही, गुस्से में कहा कि अमा कह तो दिया कि खयाल रखूंगा। जैसी तुम्हारी बहन वैसी मेरी!
डॉक्टर ने अहमक अहमदाबादी से पूछा कि क्यों जी, तुमने अपनी पत्नी को दवा तो बराबर दी या नहीं? अहमक अहमदाबादी ने कहा: "नहीं, अब तक मेरी समझ में यह नहीं आया कि एक गोली तीन बार कैसे दी जा सकती है!'
तो थोड़े ज्यादा ही हैं। इसलिए भाईदास भाई, कुछ चिंता न लो। और मैं तो यूं ही सभी के साथ मजाक करता रहता हूं, जो जब पकड़ में आ जाए। कभी सरदार आ जाते हैं पकड़ में, कभी मारवाड़ी पकड़ में आ जाते हैं, कभी कोई और पकड़ में आ जाता है। संयोग की बात कि इस बार अहमदाबादी पकड़ में आ गए। इससे दुख न लेना। ये मेरे प्रशंसा करने के ढंग है।

आज इतना ही।
सातवां प्रवचन; दिनांक ७ अगस्त १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना





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