शुक्रवार, 16 मार्च 2018

बिरहिनी मंदिर दियना बार—(प्रवचन-03)

निरगुन चुनरी निर्बान—(प्रवचन—तीसरा)
दिनांक 13 जनवरी, 1979;
श्री ओशो आश्रम, पूना।

सारसूत्र :

निरगुन चुनरी निर्बान, कोउ ओढ़ै संत सुजान।।
षट दरसन में जाइ खोजो, और बीच हैरान।।
जोतिसरूप सुहागिनी चुनरी, आव बधू धर ध्यान।।
हद बेहद के बाहरे यारी, संतन को उत्तम ज्ञान।।
कोऊ गुरु गम ओढ़ै चुनरिया, निरगुन चुनरी निर्बान।।
उडू उडू रे विहंगम चढु आकाश।
जहं नहिं चांद सूर निसबासर, सदा अमरपुर अगम बास।।
देखै उरध अगाध निरंतर, हरष सोक नहिं जम कै त्रास।।
कह यारी उहं बधिक फांस नहिं, पल पायो जगमग परकास।।


इये, हाथ उठाएं हम भी
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोजे-मोहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई खुदा याद नहीं
आइए, अर्ज गुजारें कि निगारे-हस्ती
जहरे-इमरोज में शीरानी-ए-फर्दा भर दे
वह जिन्हें ताबे-गरांबारी-ए-अप्याम नहीं
उनकी पलकों पे शब-ओ-रोज को हल्का कर दे
जिनकी आंखों को रुखे-सुबह का यारा भी नहीं
उनकी रातों में कोई शम्ह मुनव्वर कर दे
जिनके कदामों को किसी राह का सहारा भी नहीं
उनकी नजरों पे कोई राह उजागर कर दे
जिनका दीन पैरवी-ए-कज्ब-ओ-रिया है उनको
हिम्मते-कुफ्र मिले, जुरअतेत्तहकीक मिले
जिनके सर मुंतजिरेत्तेगे-जफा हैं उनको
दस्ते-कातिल को झटक देने की तौफीक मिले
इश्क का तीर निहां, जान तपां है जिससे
आज इकरार करें और तपिश मिट जाए
हर्फे-हक दिल में खटकता है जो कांटे की तरह
आज इजहार करें और खलिश मिट जाए
आइये, हाथ उठाएं हम भी
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोजे-मोहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई खुदा याद नहीं
प्रेम को जिसने जाना, उसे फिर कुछ और जानने की आवश्यकता भी नहीं है; क्योंकि प्रेम ही अपनी ऊंचाइयों में प्रार्थना बन जाता है। और प्रार्थना ही अंततः परमात्मा का रूप ले लेती है। प्रेम सीढ़ी का पहला पायदान है; प्रार्थना मध्य है; परमात्मा अंत।
जिन्होंने प्रेम को परमात्मा से भिन्न समझा है, वे चूक ही गए रास्ते से, भटक ही गए रास्ते से। जिन्होंने प्रेम के बिना प्रार्थना की है, उनकी प्रार्थना दो कौड़ी की है, क्योंकि उनकी प्रार्थना में कोई रसधार नहीं है। उनकी प्रार्थना में उनके हृदय का कोई संग-साथ नहीं है। उनकी प्रार्थना गणित है, हिसाब है। उनकी प्रार्थना तर्क है। और तर्क, हिसाब से, गणित से कोई कभी परमात्मा तक पहुंचा है? वहां तो चाहिए हृदय की मस्ती--वहां तो बेहोश होने की क्षमता चाहिए!
आइये, हाथ उठाए हम भी
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं
अच्छा ही है कि रस्मे-दुआ याद नहीं है। जिन्हें प्रार्थना की तरकीब पता है, तरकीब के कारण ही प्रार्थना मर जाती है। प्रार्थना कोई तकनीक नहीं है, कोई तरकीब नहीं है। प्रार्थना का कोई शास्त्र नहीं है। प्रार्थना की कोई विधि नहीं है। प्रार्थना तो एक पागलपन है--प्रेम से भरा पागलपन--प्रेम और दीवानगी। प्रार्थना तो एक नशा है। परमात्मा के नशे से मदमस्त आंखों का नाम प्रार्थना है। परमात्मा के आनंद में, अहोभाव में, झूमता हुआ आदमी प्रार्थना है।
आइये, हाथ उठाएं हम भी
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं
हिंदू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं...अड़चन कहां हो गई है? मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, सब भक्तों से भरे हैं और भगवान की कहीं झलक मिलती नहीं है। इतने लोग प्रार्थनाएं कर रहे हैं और प्रेम की वर्षा कहीं होती नहीं। इतने लोग नमाजों में झुके हैं और अहंकार उनके अकड़े ही खड़े हैं। शरीर झुक जाते हैं, अहंकार अकड़े के अकड़े रह जाते हैं। औपचारिक है सब; और औपचारिक से कोई रहस्य के द्वार न खुलेंगे।
परमात्मा के साथ कोई शिष्टाचार नहीं निभाना है। और जिसने शिष्टाचार निभाया, उसने दूसरी कायम रखी। प्रेम में इतनी दूरी न चलेगी। प्रेम दूरी मानता नहीं है। प्रेम आलिंगन है--अस्तित्व से आलिंगन। इसका कोई विधि-विधान नहीं होता। लेकिन हर बच्चे को हम प्रार्थना सिखा देते हैं और इस तरह प्रार्थना से वंचित कर देते हैं। हम उसे शब्द सिखा देते हैं थोथे, जो उसके हृदय में उभरे नहीं, हमने ऊपर से थोप दिए हैं। अब इन्हीं शब्दों को दोहराता रहेगा जीवन-भर। और सोचता रहेगा कि कहां कोई भूल हो गई है। शब्द तो रोज दोहरा लेता हूं, परमात्मा को रोज पुकार लेता हूं, लेकिन मेरी पुकार सुनी क्यों नहीं जाती, प्रार्थना उसके कानों तक पहुंचती क्यों नहीं?
कबीर ने किसी को जोर से खुदा को पुकारते देखकर कहा था: इतने जोर से क्यों, क्या तेरा खुदा बहरा है? इतने जोर से क्यों? सच तो यह है कि ओंठ भी नहीं हिलते और प्रार्थना पूरी हो जाती है। ओंठ तक भी नहीं आती; वहीं गहन अंतसतल में पूरी हो जाती है। शब्द भी नहीं बनती, निःशब्द में ही पूरी हो जाती है।
शब्द तो सीखे हुए हैं। शब्द तो आदमी के गढ़े हुए हैं। शब्द तो बाजार में जरूरी हैं; प्रेम में अनावश्यक हैं।
जितना गहरा प्रेम होता है, उतना ही अभिव्यक्त करना कठिन हो जाता है। और जहां प्रेम की परिपूर्णता होती है, वहां शून्य अपने-आप ठहर जाता है। शब्द विलीन हो जाते हैं, निःशब्द का आकाश...। उस निःशब्द के आकाश में ही उड़ता है प्रेम का पक्षी।
आइए, हाथ उठाएं हम भी
हम जिन्हें रम्मे-दुआ याद नहीं
तो मेरा पहला काम तो यहां यही है--जो कि सदा से ही मेरे जैसे लोगों का काम रहा है--कि तुमने जो रस्मे-दुआ सीख ली है, वह जो तुमने झूठी प्रार्थना सीख ली है, वह तुमसे छीन ली जाए। वह जो उधार है, वह तुमसे झटक ली जाए। वह जो तुम्हारे ऊपर दूसरों ने थोप दी है, उसे तुम्हें छोड़ना होगा, उससे तुम्हें मुक्त होना होगा। तभी तुम्हारी अंतस धारा चट्टान के हट जाने पर बह उठेगी।
काश, हम बच्चों को प्रार्थना न सिखाएं, सिर्फ प्रेम सिखाएं, तो प्रार्थना एक दिन अपने-आप पैदा हो। होनी ही चाहिए। बीज बोते हैं, वृक्ष की फिक्र करते हैं, एक दिन फूल अपने से आ जाते हैं, फूलों को लाना नहीं पड़ता। कोई खींच-खींच कर फूलों को निकालना नहीं पड़ता। कलियों को जबर्दस्ती पकड़-पकड़ कर फूल नहीं बनाना पड़ता। सब अपने से हो जाता है।
प्रेम का बीज हम सिखाएं तो प्रार्थना का फूल अपने-से खिलेगा। इस पृथ्वी पर प्रार्थना के फूल नहीं खिल रहे हैं। मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारे और चर्च बहुत हैं; मगर प्रार्थी कहां है, प्रार्थना करनेवाला आदमी कहां है? उंगलियों पर गिने जा सकें, इतने लोग भी जमीन पर प्रार्थना करना जान पाते हैं। क्या हो जाता है अनंत-अनंत लोगों को, असंख्य लोगों को? सोच में भी न आए, ऐसी भूल हो जाती है।
प्रार्थना सिखा दी जाती है, वहीं अड़चन हो जाती है, वहीं चट्टान पड़ जाती है, फिर सीखे हुए लोग तोते की भांति दोहराते रहते हैं। और जब तक तुम्हारे हृदय के भाव न उमगेंगे, तब तक परमात्मा से दूरी बनी रहेगी। क्योंकि परमात्मा मस्तिष्क से नहीं मिलता है, हृदय से मिलता है। सिखाया हुआ मस्तिष्क में रह जाता है, हृदय तक नहीं पहुंचता है।
आइए, हाथ उठाएं हम भी
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोजे-मोहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई खुदा याद नहीं।
बस इतनी बात हो जाए तो सब हो जाए। इतनी हो बात, तो मेघ घिर जाएं तुम्हारे प्राणों के आकाश में, अमृत की वर्षा हो जाए। हम जिन्हें सोजे-मोहब्बत के सिवा...प्रेम की ज्वाला के सिवाय हमें कुछ भी याद न हो, बस...न कोई बुत न कोई खुदा।
लोग पूछते हैं, परमात्मा कहां है? यह प्रश्न ही गलत है; पूछना चाहिए प्रेम कहां है? और परमात्मा का फूल अपने से खिलेगा। प्रेम की तो लोग पूछते ही नहीं, लोगों ने तो मान लिया है कि प्रेम उन्हें आता ही है। उसी मानने में भूल हो गई। प्रेम नहीं आता है तुम्हें। प्रेम के नाम पर तुमने न मालूम और क्या-क्या जाल रच रखे हैं, मगर प्रेम नहीं है वहां। प्रेम के नाम पर अक्सर कुछ और ही छिपा है। प्रेम की आड़ में घृणा छिपी है। प्रेम की आड़ में दूसरों पर मालकियत करने की राजनीति छिपी है। प्रेम की आड़ में महत्वाकांक्षा छिपी है। प्रेम की आड़ में वासना छिपी है। प्रेम की आड़ में न मालूम कितना जहर है! प्रेम का प्यारा शब्द स्वभावतः अच्छी आड़ बन गया है। उसमें कुछ भी छिपा लो तो चल जाता है।
मां-बाप बच्चों को प्रेम करते हैं, कहते हैं; लेकिन बच्चों को प्रेम नहीं करते। अपने हैं, अपना खून हैं; इसलिए प्रेम करते हैं। अपना विस्तार है, अपने ही बढ़े हुए हाथ हैं; इसलिए प्रेम करते हैं। अपने ही अहंकार की पूर्ति है; इसलिए प्रेम करते हैं। यह प्रेम न रहा। और इन बच्चों के कंधों पर बंदूकें रखकर चलाना चाहते हैं। कोई बाप खूब धन कमाना चाहता था, नहीं कमा पाया। इस दुनिया में कौन कब कमा पाता है उतना जितना कि चाहता है! चाहें हमेशा अधूरी रह जाती हैं। अब सोचता है बेटा करेगा। अब बेटे को तैयार करता है कि मेरी महत्वाकांक्षा जो अधूरी रह गई है, वह मेरा बेटा पूरी करे। प्रेम की आड़ में महत्वाकांक्षा छिपी है।
मेरे एक मित्र थे। उनका छोटा बेटा मर गया। वे बहुत दुखी हुए। इतने कि आत्मघात का विचार करने लगे। मुझसे मिलने आए थे तो कहने लगे कि मैं अपने बच्चों को--दो ही तो मेरे बेटे हैं--इतना प्रेम करता हूं कि अब मैं जी नहीं सकता। एक बेटा मेरा मर गया, अब जीना फिजूल है। मैं जानता था, जो बेटा मर गया, वह मंत्री था। और उनकी महत्वाकांक्षा को पूरी कर रहा था। यही उनके जीवन भर की महत्वाकांक्षा थी। जिंदगी भर राजनीति में रहे, मंत्री कभी हो न पाए। दूसरा बेटा तो मंत्री नहीं था। मैंने उनसे पूछा कि एक बात पूछूं, नाराज न होना। आप दुखी हैं। ऐसी घड़ी में ऐसी बात पूछनी भी नहीं चाहिए--अगर आपका बड़ा बेटा मर गया होता तो भी आप इतने दुखी होते?
एक क्षण झिझके, फिर मेरे सामने झूठ बोले भी न सके, और कहा कि अजीब सी बात आपने पूछी है, लेकिन मैं भी चौंका हूं। नहीं, मेरा बड़ा बेटा मरता तो मैं इतना दुखी नहीं होता। उससे मुझे मिला ही क्या? उससे मुझे बदनामी ही मिली, क्योंकि बड़ा बेटा शराबी है और जुआरी भी। उससे मुझे बदनामी के सिवाय क्या मिला? वह मर जाता तो अच्छा था। वह तो होता ही न तो अच्छा था। उसके लिए मैं नहीं मर सकता था। उसके मरने पर तो शायद मैं अपने को निर्भार अनुभव करता कि चलो एक झंझट मिटी, एक दाग मिटा!
बेटे से भी प्रेम नहीं होगा, अगर बदनामी लाए! क्योंकि तब अहंकार को चोट लगती है। बेटे से प्रेम होगा--अगर नाम लाए, यश लाए, प्रशंसा लाए, सम्मान लाए। क्योंकि अहंकार पर नए-नए आभूषण चढ़ते जाते हैं। यह तो प्रेम न हुआ। यह तो राजनीति हुई। यह तो महत्वाकांक्षा हुई। यह तो अहंकार की यात्रा हुई।
पति प्रेम करते हैं पत्नियों को, पत्नियां प्रेम करती हैं पतियों को; लेकिन कुछ और है भीतर।र् ईष्या है बहुत, जलन है बहुत, भय है बहुत, संदेह है बहुत; प्रेम में इन सब चीजों का कहीं पता भी नहीं चलता। प्रेम के आकाश में संदेह के बादल नहीं होते। प्रेम के आकाश मेंर् ईष्या की लपटें नहीं होतीं। प्रेम के आकाश में दूसरे की मालकियत करने का सपना नहीं जगता। मगर यही सब है।
और तुम सब ने मान रखा है, कि प्रेम तुम्हें पता है। प्रेम तो पता ही है! इसलिए तुम परमात्मा को पूछने चल पड़ते हो। मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं: प्रेम पता हो तो परमात्मा अपने-आप पता चल जाए। इसलिए परमात्मा असली सवाल नहीं है, असली सवाल प्रेम है।
हम जिन्हें-सोजे-मोहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई खुदा याद नहीं।
चाहता हूं कि तुम ऐसी जगह आ जाओ, जहां तुम यह कह सको कि हम तो सिर्फ प्रेम की ज्वाला जानते हैं, फिर न किसी मूर्ति को जानते हैं, न किसी मंदिर को जानते हैं न मस्जिद को, न काबा को, न काशी को, न कैलाश को। हम कुछ नहीं जानते। हमें कोई और तीर्थ पता नहीं है; हमने तो सिर्फ प्रेम का तीर्थ पता है। प्रेम हमारा काबा है। प्रेम हमारा मंदिर है।
और तब तुम चकित हो जाओगे कि कैसी अजस्र धार प्रकाश की तुम्हारे ऊपर पड़नी शुरू हो गई। तुम समझ ही बूझ न पाओगे कि तुम्हारे ऊपर चारों तरफ से कैसे-कैसे रहस्य के अनुभव बरसने लगे, कैसे अमृत की बूंदाबांदी होने लगी, कब, कहां से! तुमने न तो कमाया था यह अमृत, न तुम्हारे ऐसे पुण्य थे।
नहीं, लेकिन प्रेम पर्याप्त पुण्य है। प्रेम से बड़ा कोई और पुण्य नहीं है।
आइए, अर्ज गुजारें कि निगारे-हस्ती
जहरे-इमरोज में शीरानी-ए-फर्दा भर दे
वह जिन्हें ताबे-गरांबारी-ए-अप्याम नहीं
उनकी पलकों पे शब-ओ-रोज को हल्का कर दे।
और जहां प्रेम है, वहां अपने लिए ही प्रार्थना नहीं होती, वहां तो समष्टि के लिए प्रार्थना होती है। जहां प्रेम नहीं है, वहां प्रार्थना सिर्फ अपने लिए होती है। वहां प्रार्थना भी बड़ी संकीर्ण होती है। और जब प्रार्थना प्रार्थना होती है तो मर जाती है। क्योंकि प्रार्थना विस्तार है। जितनी संकीर्ण होगी, उतनी ही उसकी सांसें घुट जाएंगी।
बुद्ध ने कहा है: तुम जब ध्यान करो तो तत्क्षण ध्यान के बाद जो अमृत के बाद जो अमृत तुम्हें अनुभव में आए, उसे सारे जगत को बांट देना। उसे बचाना मत। उसे बचाया कि सड़ जाएगा।
तो हर प्रार्थना के बाद, हर पूजा के बाद, हर आराधना के बाद, हर ध्यान के बाद बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा था--स्मरणपूर्वक, ध्यानपूर्वक जो भी पाया है, कहना कि यह सबको मिल जाए, यह सारे जगत को, प्राणी मात्र को मिल जाए, यह मेरा ही न हो।
एक बड़ी प्रसिद्ध कथा है कि एक आदमी बुद्ध को सुनने आता था। और बुद्ध इस पर नित्य प्रतिदिन जोर देते थे कि ध्यान के बाद जो भी मैंने पाया है वह सारे जगत को मिल जाए। उस आदमी ने कहा कि आपकी बात बिलकुल ठीक है, लेकिन मैं इतना पूछना चाहता हूं कि अगर मैं ऐसा कहूं कि मेरे पड़ोसी को छोड़कर सारे जगत को मिल जाए, तो चलेगा? क्योंकि पड़ोसी की मैं कल्पना ही नहीं कर सकता; वह इतना दुष्ट है और उसने मुझे इस तरह सताया है और मेरी जिंदगी इस जहर से भर दी है कि मैं उसको भर छोड़ना चाहता हूं, बाकी सब को मिल जाए।
बुद्ध ने कहा: एक को भी छोड़ा तो सब छूट गए। वह छोड़ने की वृति...यह तो इस बात का सबूत हुआ कि तुमने अभी ध्यान भी नहीं जाना और प्रेम भी नहीं जाना। नहीं तो छोड़ने की बात ही न उठेगी। बेशर्त होगा दान।
आइए, अर्ज गुजारें कि निगारे-हस्ती...प्रार्थना करें कि जीवन का सौंदर्य...जहरे-इमरोज में शीरानी-ए-फर्दा भर दे। यह जो वर्तमान का दुख है, यह जो नर्क है, इस जहर में थोड़ा अमृत आ जाए। इस कड़वाहट में थोड़े भविष्य की मिठास उतर आए। वह जिन्हें ताबे-गरांबारी-ए-अप्याम नहीं...जिनको जीवन के बोझ को उठाने की शक्ति नहीं है...उनकी पलकों पे शब-ओ-रोज को हल्का कर दे। उनकी आंखों पर बोझ थोड़ा हल्का हो जाए, उनकी दृष्टि थोड़ी निर्मल हो जाए। उन्हें भी दिखाई पड़ने लगे जीवन का सौंदर्य।
जिनकी आंखों को रुखे-सुबह का यारा भी नहीं। जिनकी आंखों ने कभी सुबह का प्यारा मुखड़ा नहीं देखा है। जिन्होंने कभी सूर्योदय नहीं जाना है। जिनका संबंध प्रकाश से नहीं हुआ है...
जिनकी आंखों को रुखे-सुबह का यारा भी नहीं
उनकी रातों में कोई शम्ह मुनव्वर कर दे
...हे प्रभु! जिन्होंने सुबह का मुखड़ा नहीं देखा है, जिन्होंने सुबह का कभी घूंघट नहीं उठाया है, हिम्मत नहीं जुटा सके हैं आंख खोलने की और हिम्मत नहीं जुटा सके हैं घूंघट उठाने की, जिन्होंने रोशनी से कोई दोस्ती नहीं बांधी है--तू इतना कर, उनकी अंधेरी रातों में...इतना तो कर कम से कम कि एक शमा जला दे, एक दीया जला दे! न सही सूर्योदय, एक दीया भी बहुत है। न सही सागर, एक बूंद भी बहुत है।
जिनकी आंखों को रुखे-सुबह का यारा भी नहीं
उनकी रातों में कोई शम्ह मुनव्वर कर दे
जिनके कदमों को किसी राह का सहारा भी नहीं
उनकी नजरों पे कोई राह उजागर कर दे।
इतने लोग हैं जगत में और भटके चले जाते हैं!
जिनके कदमों को किसी राह का सहारा भी नहीं
उनकी नजरों पे कोई राह उजागर कर दे।
प्रार्थना ऐसी होगी, समस्त के लिए होगी, अस्तित्व मात्र के लिए होगी, जीवन मात्र के लिए होगी। जब भी तुम अपने लिए प्रार्थना करते हो, तभी चूक हो जाती है। इसीलिए तुम्हारी प्रार्थना नहीं पहुंचती। उसकी उड़ान बहुत नहीं हो सकती। जितनी विस्तीर्ण होगी, उतनी जल्दी परमात्मा तक पहुंच जाएगी। अगर बेशर्त हो और समस्त के लिए हो तो तुमने यहां की, उसके पहले पहुंच जाएगी।
जिनका दी पैरवी-ए-कब्ज-ओ-रिया है उनको...जिनका धर्म ही झूठ और मक्कारी का समर्थन हो गया है...जिनका दीन पैरवी-ए-कब्ज-ओ-रिया है उनको...हिम्मते-कुफ्र मिले...विद्रोह करने का साहस मिले। हिम्मते-कुफ्र मिले, जुरअतेत्तहकीक मिले! और जिज्ञासा करने का साहस मिले।
यह वचन प्यारा है:
जिनका दीन पैरवी-एक-कब्ज-ओ-रिया है उनको
हिम्मते-कुफ्र मिले, जुरअतेत्तहकीक मिले।
तुम जरा सोचना अपने संबंध में, औरों के संबंध में। तुमने अपने धर्म को क्या बना लिया है? तुम्हारा धर्म है अंधविश्वासों का समर्थन। तुम्हारा धर्म है झूठ और मक्कारी को समर्थन। तुम्हारे धर्म की बुनियाद ही असत्य पर है।
लोग अपने बच्चों से कहते हैं: परमात्मा पर भरोसा करो, विश्वास करो। और बच्चे अगर पूछें कि हमें दिखाई तो नहीं पड़ता, तो वे कहते हैं: चुप रहो! भरोसा करो तो दिखाई पड़ेगा। यह बात तो उल्टी हो गयी। दिखाई पड़े तो भरोसा होता है। यह तो झूठ हो गई, यह तो मक्कारी हो गई कि भरोसा करो तो दिखाई पड़ेगा। और इस मक्कारी में बड़ा जाल है। जब तक दिखाई नहीं पड़ेगा, वे कहेंगे तुमने भरोसा नहीं किया। और भरोसा तब तक किया ही नहीं जा सकता, जब तक दिखाई न पड़े। तो न तुम भरोसा कर सकोगे, न दिखाई पड़ेगा और वे सदा कहते रहेंगे कि भरोसा करते तो जरूर दिखाई पड़ता। तुमने भरोसा ही न किया। कसूर तुम्हारा है। परमात्मा करे भी तो क्या करे?
और यही लोग उसी जबान से यह भी कहते हैं कि ईश्वर पर भरोसा करो, यद्यपि तुम्हें अभी उसका पता नहीं है। और उसी जबान से यह भी कहते हैं; ईमानदार रहना, सच्चे रहना! एक ही जबान से दोनों बातें चल रही हैं। अगर कोई आदमी सच्चा रहे तो जिस परमात्मा को नहीं जाना है उस पर भरोसा कैसे करे? और जो आदमी उस परमात्मा पर भरोसा कर ले जिसे जाना नहीं, देखा नहीं, पहचाना नहीं, तो सच्चा कैसे रहे?
तुम्हारी नीति तुम्हें पाखंड सिखाती है। तुम्हारे धर्म तुम्हें खंडों में बांट देते हैं। तुम्हारे धर्म तुम्हें मक्कार बना देते हैं, बेईमान बना देते हैं। तुम्हारी समझ की ज्योति को नहीं जलाते हैं; वरन तुम्हारी समझ की ज्योति न जल पाए, इसकी पूरी चेष्टा करते हैं। तुम अंधेरे में ही जीयो, यहीं पंडित और पुरोहित के हित में है। क्योंकि तुम जितने अंधेरे में, उतने ही तुम उसके कब्जे में। तुम रोशन हो जाओ तो तुम मुक्त हो जाओगे।
जिनका दीन-पैरबी-ए-कज्ब-ओ-रिया है उनको
हिम्मते-कुफ्र मिले, जुरअतेत्तहकीक मिले
ऐसी करना प्रार्थना कि जिन्होंने अंधविश्वास और मक्कारी को ही धर्म समझ लिया है और उसको सहारा दे रहे हैं, उनको धर्म-द्रोह की हिम्मत मिले। कि उठ सकें वे विद्रोह में--उस सब के विद्रोह में, जो जबर्दस्ती थोपा गया है--परंपरा के विद्रोह में, अतीत के विद्रोह में, पंडित-पुरोहित के विद्रोह में--ताकि परमात्मा से सीधा संबंध हो सके। हटाओ सब को बीच से! कोई बिचवइयों की जरूरत नहीं है। किन्हीं दलालों की कोई जरूरत नहीं है।
परमात्मा तुम्हारा है उतना, जितना बुद्ध का था, जितना कृष्ण का था, जितना यारी का था, मीरा का था; जितना मेरा है उतना तुम्हारा है। किसी को बीच में लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। सीखो सबसे, समझो सबसे, मगर किसी को भी बीच में खड़ा करने का कोई प्रयोजन नहीं है। तुम्हें परमात्मा सीधा-सीधा मिलेगा। तुम उसी से आते हो। वह तुम्हारी प्रतीक्षा करता है कि कब तुम लौट आओ घर।
जिनका दीन-पैरवी-ए-कज्ब-ओ-रिया है उनको
हिम्मते कुफ्र मिले, जुरअतेत्तहकीक मिले
और हे प्रभु! ऐसा कर कि जो जिज्ञासा ही नहीं करते हैं, वे जिज्ञासा करें, मुमुक्षा करें। उनके जीवन में प्रश्न उठे। तुमने प्रश्न ही उठाना बंद कर दिया है। तुम्हारे प्रश्नों की गर्दन घोंट दी गई हैं। प्रश्नों को मार डाला गया है और जबर्दस्ती विश्वास उनके ऊपर आरोपित कर दिए गए हैं। प्रश्न सच्चे थे; विश्वास झूठे हैं। जो प्रश्नों को मानकर चलेगा, वह एक दिन सच्चे ज्ञान तक पहुंच जाता है। और जो प्रश्नों को दबा लेगा, उनकी गर्दन घोंट देगा और झूठे, उधार विश्वासों को आरोपित कर लेगा, वह सत्य से रोज-रोज दूर निकलता जाता है।
इसलिए जगत में जिन्होंने भी जाना है, उन्होंने बगावत दी। जिन्होंने जाना है, वे क्रांति लाए। और इस जगत में सिर्फ क्रांतिकारी ही सत्य के प्रेम में रहे हैं--बगावती और विद्रोही। लेकिन पंडित और पुरोहित तो स्थिति-स्थापक हैं। वह तो जो चलती हुई व्यवस्था है, उसका ही अंग है, उसका ही चाकर है। वह विद्रोह नहीं सिखाता, विश्वास सिखाता है।
इसे तुम कसौटी समझना। जहां विद्रोह सिखाया जाता हो, उसे सत्संग जानना। जहां बगावत के बीच बोए जाते हों, वहां समझना कि परमात्मा कार्य में संलग्न है। और जहां विश्वास सिखाए जाते हों, गुलामी सिखाई जाती हो, अंधविश्वासों से तुम्हें थोपा जाता हो, अंधविश्वासों में दबाया जाता हो, वहां से भाग खड़े होना, वहां से हट जाना। वहां तुम्हारी हत्या की जा रही है। यद्यपि बड़े-बड़े प्यारे नाम उन्होंने हत्या को दिए हैं और बड़े-बड़े सुंदर शास्त्रीय विवेचन तुम्हारी हत्या के किए हैं। लेकिन तुम्हें जगाने का, तुम्हें उज्ज्वल करने का, तुम्हारे जीवन को एक ज्योतिशिखा बनाने का वहां आयोजन नहीं है। तुम अंधकार में ही रहो, इसी में उनके न्यस्त स्वार्थ हैं।
जिनका दीन पैरवी-ए-कज्ब-ओ-रिया है उनको
हिम्मते-कुफ्र मिले, जुरअतेत्तहकीक मिले
जिनके सिर मुंतजिरेत्तेगे-जफा हैं उनको
दस्ते-कातिल को झटक देने की तौफीक मिले।
ऐसी प्रार्थना करना कि जो आदी हो गए हैं अत्याचारियों की तलवार गर्दन पर झेलने के, उनके हाथों को इतनी ताकत मिले कि अत्याचारियों के हाथों को झटके दे दें।
जिनके सिर मुंतजरित्तेगे-जफा हैं उनको
दस्ते-कातिल को झटक देने की तौफीक मिले।
...इतनी सामर्थ्य मिले कि झटके दें कातिलों के हाथों को।
इश्क का तीर निहां जान तपां है जिससे
आज इकरार करें और तपिश मिट जाए।
एक प्रेम का तीर ही है, जो चुभ जाए तो जीवन की सारी तपिश मिट जाती है; जीवन का सारा ताप, जीवन का सारा संताप, जीवन की सारी बेचैनी मिट जाती है। एक प्रेम की बरखा ही है जो जीवन की सारी प्यास को बुझा देती है।
इश्क का तीर निहां, जान तपां है जिससे
आज इकरार करें और तपिश मिट जाए
हर्फे-हक दिल में खटकता है जो कांटे की तरह
आज इजहार करें और खलिश मिट जाए
आइए हाथ उठाएं हम भी
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोजे-मोहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई खुदा याद नहीं।
ऐसी प्रार्थना के साथ यारी के इन सूत्रों को समझो। ये सूत्र प्रेम के सूत्र हैं। इन सूत्रों में तुम न तर्क पाओगे, न कोई प्रमाण पाओगे। इन सूत्रों में तुम कोई बौद्धिक विलास न पाओगे। ये सूत्र सीधे-सीधे हृदय से झरे हुए सूत्र हैं। इनमें जरूर तुम प्यार की गर्मी पाओगे, आलिंगन का आस्वाद पाओगे, जीवन के सौंदर्य की झलक पाओगे।
निरगुन चुनरी निर्बान, कोउ ओढ़ै संत सुजान।
एक-एक शब्द प्यारा है। थोड़े-से ही शब्द हैं; मगर एक-एक शब्द एक-एक शास्त्र बन जाए, इतना गहन! इतना सरल और इतना गहन! इतना सीधा-साफ और इतना गंभीर।
निरगुन चुनरी निर्बान! निर्वाण को यारी ने चुनरी कहा। जैसे नई-नई वधू चुनरी पहन लेती है, अपने प्यारे से मिलने जा रही है। सुहागरात के लिए तैयार होती है। रंगबिरंगी चुनरी पहन लेती है।
कबीर ने तो कहा है कि मैं रंगरेज हूं; तुम आओ, तुम्हारी चुनरी रंग दूं।
किस चुनरी की बात हो रही है? निरगुन चुनरी निर्बान! निर्वाण प्रेमियों के लिए चुनरी है, जो हम उस परम प्यारे से मिलने के लिए ओढ़ते हैं।
निर्वाण शब्द का अर्थ समझो। निर्वाण शब्द का अर्थ होता है: दीए का बुझ जाना। तुमने अभी जो दीया अपने भीतर जला रखा है अहंकार का, वह बुझ जाए तो निर्वाण। तुम्हारे अहंकार का दीया बुझ जाए तो उसी क्षण तुम्हारे भीतर शाश्वत दीए का अनुभव हो। उस दीए की ज्योति प्रकट हो--बिन बाती बिन तेल...जो जलता ही रहा है, जलता ही रहेगा! जो तुम्हारे जीवन का जीवन है, प्राणों का प्राण है!
लेकिन तुम अहंकार की धुंधली सी रोशनी में जी रहे हो, धुंधियाती रोशनी में जी रहे हो। निर्वाण का अर्थ होता है: अहंकार को जाने दो। यह मैं भाव चला जाए। और जिसका मैं भाव गिरा, उसने उस परम प्यारे से मिलने की तैयारी कर ली, उसने चुनरी ओढ़ ली!
और यह चुनरी निर्गुण है, निर्दोष है, निराकार है। आकाश जैसी कोरी है। इस चुनरी में कोई दाग नहीं। दाग तो सब विचारों के हैं, वासनाओं के हैं। इस चुनरी में न कोई विचार है, न कोई वासना है। चित्त की एक ऐसी दशा, जहां सारे विचार खो गए, सारी वासनाएं खो गईं, बस एक सन्नाटा रह गया! एक शून्य संगीत तुम्हारे भीतर बजने लगा! शून्य का इकतारा बजा तुम्हारे भीतर! खोजने से विचार नहीं मिलते हैं। खोजने से वासना का पता नहीं चलता। किसी कोने-कातर में भी छिपी कहीं कोई वासना और विचार की धारा नहीं रही। ऐसे शांत क्षण का नाम: निर्गुण तुम निर्गुण हुए। तुम पर सारे आवरण थे, वे गिर गए। भीतर अहंकार गिर गया, बाहर आवरण गिर गए। एक अर्थ में तुम मर ही गए।
झेन फकीर रिंझाई से किसी ने पूछा कि हम कैसे जीएं कि जीवन में कोई भूल न हो, चूक न हो, कोई पाप न हो। रिंझाई ने कहा: ऐसे जीयो, जैसे मर गए हो। ऐसे जीयो जैसे हो ही नहीं।
महावीर घर छोड़ना चाहते थे। अपनी मां से आज्ञा चाही। चरणों में सिर रखा होगा, और कहा कि मैं संन्यासी होना चाहता हूं, संसार छोड़ देना चाहता हूं। लेकिन मां ने कहा कि बस, दोबारा यह बात मेरे सामने मत उठाना। जब मैं मर जाऊं तब तुम्हें जो करना हो करना। मैं न झेल सकूंगी यह बात। मैं न देख सकूंगी तुम्हें जंगल में जाते।
तो महावीर, कहते हैं, चुप हो गए। फिर जब मां की मृत्यु हो गई, तो पिता से पूछा। पिता ने कहा: बस, यह बात मेरे सामने करना मत। एक तो तुम्हारी मां चली गई, और अब तुम जंगल जाओगे! मुझ बूढ़े को क्यों सताना? मैं जब मर जाऊं, तब तुम्हें जो करना हो करना।
फिर पिता भी चल बसे, तो मरघट से लौटते थे, अपने बड़े भाई से कहा कि अब मुझे आज्ञा मिल जाए। अब मैं काफी प्रतीक्षा कर चुका। मां ने कहा तो रुका, फिर पिता ने कहा तो रुका; अब तुम मत रोकना।
भाई ने कहा यह बात ही मत उठना। मां मर गई, पिता मर गए, तुम ही हो एक अकेले मेरे। मुझे छोड़कर जाओगे...तुम्हें थोड़ी भी दया-ममता नहीं है?
तो महावीर ने कहा: ठीक। वे घर छोड़कर नहीं गए; लेकिन घर में ही ऐसे हो रहे जैसे कि हों ही न। उनकी मौजूदगी का पता चलना ही बंद हो गया। नकार की तरह जीने लगे। किसी के बीच न आएं। किसी को बाधा न बनें। किसी को आज्ञा न दें। किसी से काम न करवाएं। इस तरह रहने लगे कि पैर की आवाज भी किसी को सुनाई न पड़े। धीरे-धीरे घर के लोग ही भूल गए कि महावीर हैं भी या नहीं। फिर भाई को लगा कि अब रोकना व्यर्थ है। हमारा रोकना काम नहीं आया। उन्होंने तो घर को ही जंगल बना लिया है।
सारे घर के लोग इकट्ठे हुए और महावीर से प्रार्थना की कि आप जाएं। आप तो जा ही चुके हैं, छाया मात्र रह गई है। आत्मा का पक्षी तो कभी का उड़ गया है। अब आप हमारे बीच हैं नहीं; इसलिए अब हम रोकें, यह उचित भी नहीं है। हमने इतना रोका, उसके लिए क्षमा करें।
ऐसी आज्ञा मिल गई तो महावीर जंगल चले गए। महावीर जंगल न भी जाते तो भी निर्वाण घट गया था। महावीर जंगल न भी जाते तो भी जंगल घट गया था। एक तो है हिमालय जाना, और एक है हिमालय को अपने भीतर ले आना। दूसरी बात ज्यादा मूल्यवान है। जहां भी हो, धीरे-धीरे अपने को विदा कर दो। अपने को नमस्कार कर लो, अलविदा कह दो! और इस तरह रहने लगो कि तुमसे किसी को बाधा न पड़े, कि तुम किसी के आड़े न आओ, कि तुम किसी के बीच में विघ्न न बनो, कि तुम किसी के जीवन में किसी तरह का अवरोध न खड़ा करो। तो निर्वाण घट गया। तो तुम निर्गुण हो गए। चुनरी तैयार हो गई। यह बड़ी प्यारी चुनरी है। इसको जिसने ओढ़ लिया, उससे प्यारे को मिलना ही होगा।
यारी ने शब्द तो ज्ञानियों के उपयोग किए हैं, लेकिन रंग प्रेमियों का दे दिया। निर्वाण शब्द ज्ञानियों का है, निर्गुण शब्द भी ज्ञानियों का है। लेकिन प्रेमी के हाथ में जो भी पड़ जाए, उस पर प्रेम का रंग चढ़ जाता है। बदल दिए शब्द, रंग दिए प्रेम में। बह गई उनमें रसधार प्रेम की। बुद्ध के हाथ में निर्वाण शब्द रूखा-सूखा है। महावीर के हाथ में निर्गुण शब्द रूखा-सूखा है। यारी ने संगीत छेड़ दिया! एक छोटा-सा शब्द दोनों के बीच में रख दिया--निरगुन चुनरी निर्बान! यह चुनरी शब्द जो बीच में रख दिया, सारा रंग बदल दिया! गद्य को पद्य कर दिया! सूनी पड़ी सितार पर तार छेड़ दिए! बांस की पोंगरी थी, फूंक मार दी! मधुर संगीत जनम उठा! एक छोटा सा शब्द चुनरी है। एक साधारण बोलचाल का शब्द चुनरी है, लेकिन चुनरी निर्वाण पर पड़ गई, निर्गुण पर पड़ गई--और निर्वाण और निर्गुण भी दुल्हन जैसे सज गए।
निरगुन चुनरी निर्बान, कोउ ओढ़ै संत सुजान।
पर विरले ही ओढ़ पाते हैं, इस चुनरी को! कोउ ओढ़ै संत सुजान! क्यों विरले ओढ़ पाते हैं? सभी संत भी नहीं ओढ़ पाते हैं। साधारणजनों की तो बात ही छोड़ दो, उन्हें तो प्रेम का ही पता नहीं तो वे कैसे ओढ़ेंगे? लेकिन सभी संत भी नहीं ओढ़ पाते हैं, इसलिए शर्त जोड़ी है यारी ने--कोउ ओढ़ै संत सुजान...जो सुजान भी हो नहीं तो संत भी रूखे-सूखे रह जाते हैं। उनका संतत्व भी औपचारिकता रह जाता है। उनका संतत्व भी गणित ही रह जाता है; उसमें काव्य की धारा नहीं बहती। उनका संतत्व भी संगीत-शून्य रह जाता है। न हरे पत्ते लगते हैं, न लाल फूल खिलते हैं, न चांदत्तारे उगते हैं। उनका संतत्व ऐसा होता है, जैसे जबर्दस्ती संसार को छोड़ दिया है। सिकुड़ जाते हैं तुम्हारे संत, फैल नहीं पाते हैं। और जो नहीं फैल पाता, वह चाहे कितना ही सात्विक जीवन जीए, उसके जीवन में कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में, कोई न कोई कमी रह जाती है। ब्रह्म तो विस्तार है। जो फैलता है, वही उस फैले हुए को पाता है। उस जैसे होओगे तो ही उसे पाओगे।
दीदा-एत्तर पे वहां कौन नजर करता है
शीशा-ए-चश्म में खूं-नाबे-जिगर लेके चलो
अब अगर जाओ पये-अर्ज-ओ तलब उनके हुजूर
दस्त-ओ-कशकोल नहीं कासा-ए-सर लेके चलो।
दीदा-एत्तर पे वहां कौन नजर करता है! आंसू-भरी आंख पर्याप्त नहीं है। रोते गिड़गिड़ाते मत जाना। तुम्हारी प्रार्थना रोना और गिड़गिड़ाना न हो। तुम्हारी प्रार्थना भिखमंगे की प्रार्थना न हो। और प्रार्थना करीब-करीब भिखमंगे की हो गई है। तुम्हारी प्रार्थना का रंग-ढंग भिक्षापात्र का है। तुम जाते ही हो प्रार्थना करने जब तुम्हें कुछ मांगना होता है। तुमने प्रार्थना कर-कर के इतना मांगा है कि प्रार्थना शब्द का ही अर्थ मांगना हो गया है। और मांगनेवाले को हम प्रार्थी कहते हैं। यह तो बात ही बिगड़ गई। तुम स्वर्ग के तारों को जमीन की कीचड़ में उतार लाए। तुमने फूलों को मिट्टी से भर दिया!
दीदा-एत्तर पे वहां कौन नजर करता है!...ये गिड़गिड़ाती आंखें ये गिड़गिड़ातीं बातें, यह भिखमंगापन लेकर वहां मत जाना। वहां कोई नजर भी न करेगा। शीशा-ए-चश्म में खूं-नाबे-जिगर लेके चलो! अगर आंख ही ले जानी है तो गिड़गिड़ाते हुए आंसू नहीं--मस्ती, सुर्खी मस्ती की! आंखें जीवन के खून से लाल हों, जीवन के आनंद से मदमस्त हों।
शीशा-ए-चश्म में खूं-नाबे-जिगर लेके चलो
अब अगर जाओ पए-अर्ज-ओ तलब उनके हुजूर
अब अगर विनती करने उस मालिक के सामने खड़े होओ, उसका आमना-सामना हो...अब अगर जाओ पए-अर्ज-ओ तलब उनके हुजूर, दस्त-ओ-कशकोल...तो हाथों को भिक्षापात्र मत बनाना। हाथों के भिक्षापात्र नहीं पहुंचते हैं। दस्त ओ-कशकोल नहीं कासा-ए-सर लेके चलो! अब अगर बनाना ही हो भिक्षापात्र तो अपने सिर का बनाना। अपनी गर्दन काट कर ही रख सकोगे तो सम्राट की तरह पहुंचोगे।
फूल मत चढ़ाओ प्रार्थना में, अपने को चढ़ाओ। और चूंकि बहुत कम लोग अपने को चढ़ा पाते हैं, बहुत विरले लोग अपने को चढ़ा पाते हैं। इतनी हिम्मत कहां जुटा पाते हैं लोग! लोग अपने को जैसा है वैसा ही रखना चाहते हैं। और परमात्मा भी मिल जाए। लोग चाहते हैं मैं जैसा हूं; इसी में परमात्मा आकर जुड़ जाए। ऐसा तो नहीं हो सकता। परमात्मा तुमसे नहीं जुड़ सकता। तुम मिटो, तो परमात्मा हो सकता है । यह शर्त पूरी क्योंकि विरले लोग करते हैं, इसलिए विरले लोग उपलब्ध होते हैं।
कोउ ओढ़ै संत सुजान। यह जो निर्वाण की, निर्गुण की चुनरी है, इसे कभी कोई ओढ़ पाता है। वह भी सभी संत नहीं ओढ़ पाते। क्योंकि कुछ संत सिर्फ रुखे-सूखे गणित बिठाने में रह जाते हैं। हिसाब-किताब ही लगाते रहते हैं। पिछले जन्मों में बुरे कर्म किए हैं, इसलिए अच्छे कर्म करके बुरे कर्मों को काटते रहते हैं, हिसाब-किताब ही बिठाते रहते हैं। उनका सोचना, सौंदर्य...जीवन के महोत्सव में सम्मिलित होने का नहीं है, उनका सोचना-समझना दुकानदार का है। खोते-बही ही उनकी जीवन-दृष्टि है। इसलिए इस प्यारी चुनरी को बहुत कम लोग ओढ़ पाते हैं। साधारणजन तो छोड़ ही दो, सभी संत भी नहीं ओढ़ पाते; संतों में कोई विरले संत ओढ़ पाते हैं।
इन दिनों रस्म-ओ-रहे-शहरे निगारां क्या है
कासिदा कीमते-गुलगश्ते-बहारां क्या है
कू-ए-जानां है कि मकतल है, कि मयखाना है
आजकल सूरते-बर्बादी-ए-यारां क्या है।
पूछता है कवि--इन दिनों रस्म-ओ-रहे-शहरे-निगारां क्या है? रूप-नगर की रस्म इन दिनों क्या चल रही है? इन दिनों क्या हालचाल हैं? उस परम सौंदर्य को पाने के रास्ते पर इन दिनों कौन सी चाल चलनी पड़ती है?
इन दिनों रस्म-ओ-रहे-शहरे निगारां क्या है? उस प्यार के रास्ते पर, इन दिनों कौन-सी विधियां कारगर हो रही हैं?
कासिदा कीमते-गुलगश्ते-बहारां क्या है? उसके वसंत में प्रवेश करने के लिए, उसकी बहार में सैर करने के लिए आजकल क्या कीमत चुकानी पड़ती है?
कू-ए-जानां है कि मकतल है, कि मयखाना है? प्रेमिका की गली के संबंध में कुछ बताओ कि आजकल वहां हालत क्या है? क्या अभी तक वहां कत्ल होना पड़ता है? क्या अभी भी वहां मदमस्त हुए बिना पहुंचने का कोई रास्ता नहीं है?
आजकल सूरते-बर्बादी-ए-यारां क्या है? अभी भी प्रेमियों को बर्बाद ही होना पड़ता है? क्या वही पुराना रिवाज चल रहा है?
ऐसा जो लोग पूछते हैं, वे तो चल ही नहीं पाते। वही है रिवाज अब भी जो सदा का है। उस रिवाज में कोई फर्क नहीं आता, और न कभी आएगा। वहां तो बर्बाद होने की क्षमता रखने वाले लोग ही पहुंचते हैं। वहां तो पागल होने की हिम्मत जुटाने वाले लोग ही पहुंचते हैं। वहां तो मद मस्तों की ही गति है। हिसाब-किताब करने वाले तो क्षुद्र से ही अटके रह जाते हैं। हिसाब-किताब क्षुद्र है! विराट को हिसाब-किताब से नहीं पाया जाता। दुकान चल जाती होगी, मंदिर नहीं। बाजार में ठीक है।
प्रेम की गली में--कुएं-ए-जाना--प्रेम की गली में, उस प्यारे की गली में, ये हिसाब-किताब नहीं चलते हैं। वह तो मकतल ही है। वहां तो जो कत्ल होने को तैयार हैं, वे ही पहुंचते हैं। वह तो मैखाना ही है। वहां तो जो उसके प्रेम में अपने को भूलने, अपने को डुबाने का साहस जुटा पाते हैं, बस उनकी ही गति है। इसलिए बहुत कम लोग ओढ़ पाते हैं इस निर्वाण की, निर्गुण की चुनरी को।
तुम ओढ़ना! क्योंकि बिना इस चुनरी को ओढ़े, आए न आए सब बराबर है। इस जमीन पर कुछ और पाने जैसा नहीं है। यहां कुछ और बनाने जैसा नहीं है। यहां तो वही निर्गुण-निर्वाण की चुनरी बन जाए। उसी के तागे बिठाओ, उसी के ताने-बाने बुनो।
सूफियों की एक कहानी है, ईसा के संबंध में। बाइबिल में तो नहीं है; लेकिन सूफियों के पास कई कहानियां हैं ईसा के संबंध में, जो बाइबिल में नहीं हैं। और बड़ी प्यारी कहानियां हैं। कहानी है कि ईसा ध्यान करने पर्वत पर गए। पर्वत बिलकुल निर्जन था; मीलों-मीलों तक किसी का कोई पता न था। लेकिन एक बूढ़ा आदमी उन्हें उस पर्वत पर मिला। एक वृक्ष के नीचे बैठा--मस्त! पूछा उस बूढ़े आदमी से: कितने दिनों से आप यहां हैं? क्योंकि वह इतना बूढ़ा था कि लगता था होगा कम से कम दो सौ साल उम्र का। उस बूढ़े ने कहा: सौ साल के करीब मुझे यहां रहते-रहते हो गए हैं। तो ईसा ने चारों तरफ देखा, न कोई मकान है, न छप्पर है। तो पूछा कि धूप आती होगी, वर्षा आती होगी...न कोई छप्पर न कोई मकान! यहां सौ साल से रह रहे हैं? कोई मकान नहीं बनाया?
तो वह बूढ़ा हंसने लगा। उसने कहा: मालिक, तुम जैसे और जो पैगंबर पहले हुए हैं, उन्होंने मेरे संबंध में यह भविष्यवाणी की थी कि केवल सात सौ साल जीऊंगा। अब सात सौ साल के लिए कौन झंझट करे मकान बनाने की--केवल सात सौ साल! दो सौ तो गुजर ही गए। और जब दो सौ गुजर गए तो बाकी पांच सौ भी गुजर जाएंगे। दो और पांच में कुछ फासला बहुत तो नहीं। सात सौ साल मात्र के लिए कौन चिंता करे छप्पर बनाने की।
यह कहानी प्रीतिकर है। हम तो सत्तर साल रहते हैं तो इतनी चिंता करते हैं, इतनी चिंता करते हैं कि भूल ही जाते हैं कि यहां सदा नहीं रहना है! भूल ही जाते हैं कि मौत है, और मौत प्रतीक्षा कर रही है। और आज नहीं कल, कल नहीं परसों द्वार पर दस्तक देगी। और सब जो बनाया है छिन जाएगा। सिर्फ निर्वाण की चुनरी मौत नहीं छीन पाती। उसी के ताने-बाने बुनो। उसका ही ताना-बाना जो बुनने लगे उसे मैं संन्यासी कहता हूं।
और मेरे लिए संन्यास चुनरी है। मेरे लिए संन्यास रूखी-सूखी बात नहीं। मेरे लिए संन्यास बड़ी रस-विमुग्ध दशा है। इसलिए तो इस जगह को मैं मंदिर नहीं कहता, मैखाना कहता हूं।
षट दर्शन में जाइ खोजो, और बीच हैरान। खोजते रहो दर्शन शास्त्रों में। छहों दर्शन उलट कर देख लो। सब पढ़ डालो शास्त्र। मगर यारी कहते हैं: मैं तुम्हें बताए देता हूं, हैरानी बढ़ जाएगी, कम न होगी। और भी हैरान हो जाओगे! जितना सोचोगे उतना दूर निकल जाओगे, पास नहीं। क्योंकि सोचना जोड़ता नहीं, तोड़ता है। विचार तोड़ते हैं, जोड़ते नहीं। भाव जोड़ते हैं।
इस दुनिया में इतने लोग हैं, इनको किसने तोड़ दिया है? कोई हिंदू, कोई मुसलमान, कोई ईसाई, कोई जैन, कोई बौद्ध...इनको किसने तोड़ दिया है? विचारों ने! हिंदू का अपना विचार है, वह मुसलमान से कैसे राजी हो! मुसलमान का अपना विचार है, वह ईसाई से कैसे राजी हो! और फिर इतनी तो छोड़ ही दो बात, ईसाई में भी कैथलिक का अपना विचार है, प्रोटेस्टेंट का अपना विचार है; वे एक-दूसरे से कैसे राजी हों? फिर उनके भी और-और छोटे-छोटे संप्रदाय हैं। हिंदुओं में तो कितने संप्रदाय हैं जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है कौन किससे राजी हो?
विचार तोड़ता है, विचार जोड़ता नहीं है। यह दुनिया अति विचार के कारण खंड-खंड में टूट गई है। और विचार लड़ाता है। झगड़े ही क्या हैं? विचार के झगड़े हैं।
प्रेम जोड़ता है। और जो जोड़ता है, वही सेतु बन सकता है। विचार तो दीवाल बन जाता है। यारी कहते हैं: षट दरसन में जाइ खोजो, और बीच हैरान। और मैं तुमसे कहे देता हूं, बहुत हैरानी में पड़ोगे। बहुत बिगूचन में पड़ोगे। बहुत किर्कतव्यविमूढ़ हो जाओगे।
और सच है यह बात। जिस व्यक्ति ने भारत के छहों दर्शन पढ़ लिए हैं, वह विक्षिप्त हो जाएगा। क्योंकि किसी बात पर ये दर्शनशास्त्री राजी नहीं हैं--किसी बात पर! हिंदू कहते हैं: आत्मा है, परमात्मा है। जैन कहते हैं; सिर्फ आत्मा है, कोई परमात्मा नहीं। बौद्ध कहते हैं: न आत्मा है न परमात्मा है। क्या करोगे? किसकी सुनोगे, किसकी मानोगे। छोटी-छोटी बात में विरोध है। छोटी-छोटी बात में बाल की खाल निकाली जाती है। और इस तरह के व्यर्थ के विवादों में लोग उलझे रह जाते हैं।
और जिंदगी बड़ी छोटी है, यूं ही सरक जाती है, हाथ से यूं ही खिसक जाती है। जिंदगी खिसकी ही जा रही है। तुम किताबों में मत गंवा देना। यारी कहते हैं: सोचने-विचार में ही मत पड़े रह जाना।
इक जरा सोचने दो
इस खियाबां में जो इस लहजा बियाबां भी नहीं।
कौन सी शाख में फूल आए थे सब से पहले
कौन बेरंग हुई दर्द-ओ ताब से पहले
और अब से पहले
किस घड़ी कौन से मौसम में यहां
खून में कहत पड़ा
गुल की शह-रग पे कड़ा
वक्त पड़ा
सोचने दो
इक जरा सोचने दो
यह भरा शहर जो वादी-ए-वीरां भी नहीं
इसमें किस वक्त, कहां
आग लगी थी
इसके सफबस्ता दरीचों में से किस में अव्वल
जह हुई सुर्ख शुआओं की कमां
सोचने दो
हमसे उस देस का तुम नाम-ओ-निशां पूछते हो
जिसकी तारीख न जुगराफिया, अब याद आए
और याद आए तो महबूबे-गुजश्ता की तरह
रूबरू आने से जी घबराए
हां, मगर जैसे कोई
ऐसे महबूब का दिल रखने को
आ निकलता है कभी रात बिताने के लिए
हम अब इस उम्र को आ पहुंचे हैं जब हम भी यूं ही
दिल से मिल आते हैं बस रस्म निभाने के लिए
दिल की क्या पूछते हो
सोचने दो!
लोग तो प्रेम के संबंध में भी सोच रहे हैं! दिल की क्या पूछते हो, सोचने दो! और तो ठीक, लोग प्रेम के संबंध में भी सोचते हैं! और सोचना तो ऊपर-ऊपर है, तुम्हारी परिधि है। प्रेम तुम्हारा अंतरतम है। परिधि तुम्हारे अंतरतम को न छू पाएगी। जैसे सागर की छाती पर लहरें होती हैं, ये लहरें लाख उपाय करें तो भी सागर की गहराइयों में नहीं पहुंच पाएंगी। हो ही सकती हैं सतह पर, गहराई में कोई लहर नहीं हो सकती। सतह पर हो सकती हैं, क्योंकि सतह पर हवाओं के झोंके टकराते हैं। गहराइयों में हवाएं कहां?
ऐसे ही तुम्हारे मस्तिष्क की सतह पर विचारों की लहरें होती हैं, क्योंकि संसार की हवाओं के झोंके तुम्हें आंदोलित करते हैं। लेकिन तुम्हारे अंतरतम में, तुम्हारे मंदिर के गहन गर्भगृह में, न कोई संसार की लहर पहुंचती है, न कोई हवा, न कोई आंधी, न कोई तरंग। वहां कोई तूफान नहीं पहुंचता, कोई भूकंप नहीं पहुंचता। और वहीं तुम हो, और वहीं तुम्हारा प्रेम है, और वहीं तुम्हारी प्रार्थना है, और वहीं तुम्हारा परमात्मा है। सोचने-विचारने का सवाल नहीं है, भाव में मग्न होने का सवाल है।
षट दरसन में जाइ खोजो, और बीच हैरान।
क्या करोगे? परमात्मा के संबंध में लोग सोच रहे हैं; सोचते ही रहे हैं, सदियां बीत गईं। सदियां आईं और गईं और आदमी सोचता ही रहा है। अब तक एक भी प्रमाण नहीं जुटा पाया परमात्मा के लिए। जरा सोचो तो आदमी के सोचने की नपुंसकता! कम से कम दस हजार साल आदमी ने सोचा है, और ज्यादा सोचा होगा, दस हजार साल का तो इतिहास है। दस हजार साल से आदमी सोच रहा है--ईश्वर के लिए कोई प्रमाण। एक प्रमाण नहीं खोज पाया। और ऐसा नहीं है कि प्रमाण नहीं खोजे; खोजे, मगर कोई प्रमाण प्रमाण नहीं बन पाता। कुछ भी कहो, सब प्रमाण अधकचरे हैं। और सभी प्रमाणों में भूल निकल आती है। और सभी प्रमाण बचकाने हैं। हां, बच्चों को भला राजी कर देते हों, लेकिन जो जरा सोच-विचार करता है, उसे राजी नहीं कर सकते। सारे सोच-विचार का परिणाम है कि दुनिया में नास्तिकता सघन हो गई है; कम नहीं हुई, रोज बढ़ती गई है, जितनी शिक्षा बढ़ी, जितना विचार बढ़ा, जितनी विचार की क्षमता बढ़ी, जितनी तर्क की कुशलता बढ़ी, उतना ही पाया गया कि तुम्हारे सब प्रमाण झूठे हैं। छोटे बच्चे को समझाना हो तो काम कर जाती है यह बात। गांव के ग्रामीण को समझाना हो तो काम कर जाती है यह बात। आदिवासी को समझाना हो तो चल जाती है यह बात। कि जैसे कुम्हार के बिना घड़ा कैसे बनेगा? वैसे इतना बड़ा संसार है, इसको बनानेवाला कोई होना चाहिए। यह बच्चे को बात जंच जाती है। लेकिन यह बात बच्चे को ही जंचती है। और यह भी हो सकता है कि यह बच्चा कभी इस पर सवाल न उठाए। मगर फिर भी, जैसे ही उम्र बड़ी होगी वैसे ही सवाल भीतर कहीं उठना शुरू हो जाएगा, किसी अचेतन तल पर खड़ा होगा। होना ही चाहिए, नहीं तो यह बच्चा बच्चा की रह जाएगा।
यह भी कोई बात हुई! नास्तिक कहता है कि ठीक है, चलो मान लें कि जैसे कुम्हार चाहिए घड़ा बनाने को, ऐसे ही परमात्मा ने इस संसार को बनाया; वह कुंभकार है। मगर हम यह पूछते हैं, परमात्मा को किसने बनाया? जब घड़े को बनाने के लिए कुम्हार चाहिए, कुम्हार को बनाने के लिए परमात्मा चाहिए, तो परमात्मा को किसने बनाया?
और नास्तिक को जवाब नहीं दे पाता आस्तिक। और आस्तिक जो भी जवाब देता है, वह जवाब नहीं है। या तो वह नाराज हो जाता है। या तो वह झगड़ने को तैयार हो जाता है। या म्यान से तलवार निकाल लेता है। लेकिन गर्दन काटना कोई तर्क नहीं है। या जो उत्तर देता है, वह उसके ही प्रमाण को काट जाता है।
आस्तिक कहते हैं: परमात्मा को बनाने वाला कोई भी नहीं! यह तो बात ही व्यर्थ हो गई! नास्तिक पूछता है: अगर परमात्मा बिना बनाए बन सकता है, तो फिर घड़ा क्यों नहीं बन सकता? जब परमात्मा जैसा अपूर्व व्यक्तिव बिना बनाए बन सकता है तो घड़ा तो छोटी-मोटी चीज है। फिर घड़े को ही बनाने वाले कुम्हार की क्या जरूरत है? यह तो तर्क नहीं हुआ। यह तो बच्चों को समझाया...बच्चों को समझाना हुआ। यह तो बड़ी बचकानी बात है!
मैंने सुना है, एक आदमी ने विज्ञापन पढ़ा कि पच्चीस रुपए में सिर्फ पच्चीस रुपए, में...पच्चीस रुपये भेज दो और एक ऐसा वाद्य यंत्र हम भेजेंगे, जो सभी जगह संगीत पैदा करता है। जंगल में जाओ, पहाड़ पर जाओ, साथ रखो उसे, हर जगह संगीत पैदा करता है। मधुर संगीत पैदा होता है--हर स्थिति में, हर जगह! बिजली की जरूरत नहीं बैटरी की जरूरत नहीं।
आदमी उत्सुक हुआ, पच्चीस रुपये में ऐसे संगीत का वाद्य मिल जाए जो हर जगह संगीत पैदा करे। बिजली की जरूरत नहीं, बैटरी की जरूरत नहीं--सिर्फ पच्चीस रुपये में! भेज दिए उसने-- बड़ा सुंदर बाक्स आया। बड़ी उसने आतुरता से उसे खोला। और जो वाद्य मिला, वह था बच्चों का एक घुनघुना। स्वभावतः कहीं भी बजाओ, न बैटरी की जरूरत, न बिजली की जरूरत, जंगल में ले जाओ, पहाड़ पर ले जाओ, हवाई जहाज पर ले जाओ, कहीं भी घुनघुना बजाओ, बजेगा।
अब तक आस्तिकों ने जितने तर्क खोजे हैं, सब बच्चों के घुनघुने हैं। और मैं तुमसे कहना चाहता हूं: परमात्मा है। लेकिन उसके लिए खोजे गए सब तर्क व्यर्थ सिद्ध हुए हैं। परमात्मा केवल उनके लिए ही प्रमाणित होता है, जो प्रेम से उसे जान पाते हैं। और तर्क से जो मानता है, वह तो एक तरह के झूठ में जीता है। उसने ठीक से तर्क नहीं किया, बस इतनी ही बात है। अगर तर्क के कारण तुम आस्तिक हो तो तुमने ठीक से तर्क नहीं किया इसलिए आस्तिक हो। अगर ठीक से तर्क करते तो तुम नास्तिक हो जाते।
तर्क की अंतिम परिणति नास्तिकता है और प्रेम की अंतिम परिणति आस्तिकता है। प्रेम की अंतिम परिणति में कभी नास्तिकता नहीं आ सकती। और तर्क की अंतिम परिणति में कभी आस्तिकता नहीं आ सकती।
एक और ढंग है जीवन को देखने का--प्रेम का ढंग। एक और आंख है; उस आंख से दिखाई पड़ता है परमात्मा।
खामुशी दश्त पे जिस वक्त कि छा जाती है
उम्र भर जो न सुनी हो वो सदा आती है।
जब चित्त चुपचाप होता है, मौन में होता है, लवलीन होता है, प्रेम की गंध में आंदोलित होता है, ध्यान में होता है तब एक ऐसी आवाज आने लगती है, जो कभी नहीं सुनी थी। एक ऐसा संगीत सुनाई पड़ता है जो अनसुना है। और एक ऐसा रूप दिखाई पड़ता है जो इन आंखों से नहीं देखा जाता--जो केवल हृदय की आंखों से देखा जाता है!
खामुशी दश्त पे जिस वक्त कि छा जाती है
उम्र भर जो न सुनी हो वो सादा आती है
भीनी भीनी सी मचलती है फजां में खुशबू
ठंडी-ठंडी लबे-साहिल से हवा आती है
दस्ते-खामोश की उजड़ी हुई राहों से मुझे
जादा-पैमाओं को कदमों की सदा आती है
पास आकर मिरे गाती है कोई जहरा-जमाल
और गाती हुई फिर दूर निकल जाती है
मुस्कुराती है जो रह रह के घटा में बिजली
आंख सी कोहे-बयाबां की झपक जाती है
करने लगते हैं नजारे से जो बादल मायूस
बर्क आहिस्ता से कुछ कान में कह जाती है
झाड़ियों को जो हिलाते हैं हवा के झोंके
दिले-शबनम के धड़कने की सदा आती है
मुझसे करते हैं घने बाग के साए बातें
ऐसी बातें कि मिरी जान पे बन आती है
गुनगुनाते हुए मैदान के सन्नाटे में
आप ही आप तबीयत मिरी भर आती है
यूं नबातात को छूती हुई आती है हवा
दिल में हर सांस से इक फांस सी चुभ जाती है
जब हरी दूब के मुड़े जाते हैं नाजुक रेशे
शीशा-ए-कल्ब में इक ठेस सी लग जाती है
बांसुरी जैसे बजाता हो कहीं दूर कोई
यूं दबे पांव बयाबां से हवा आती है
हसरतें खाक की गुंचों से उबल पड़ती हैं
रूह मैदान के फूलों से निकल आती है
तब्ए-शायर को, रवानी का इशारा करके
नहर शाखों के घने साए में सो जाती है
इन मनाजिर को मैं बेजान समझ लूं कैसे
जोश! कुछ अक्ल में यह बात नहीं आती है।
एक ऐसी घड़ी है--प्रेम के अनुभव की, सौंदर्य के अनुभव की--कि तुम इस अस्तित्व को बिना जान के कैसे समझ लोगे। यह बात समझ में ही न आएगी कि इतना अपूर्व सौंदर्य है, यह रहस्य का अनंत उत्सव, प्राणहीन है, चैतन्य हीन है? इन मनाजिर को मैं बेजान समझ लूं कैसे! इस अपूर्व दृश्य को मैं प्राणहीन कैसे देख लूं? कैसे मान लूं? जोश! कुछ अक्ल में यह बात नहीं आती है।
तर्क से नहीं, सौंदर्य के प्रतीति से। तर्क से नहीं, संगीत के आह्लाद से। तर्क से नहीं, प्रेम के हृदय में उठते हुए गीत से। तर्क से नहीं, संवेदनशीलता से परमात्मा का प्रमाण मिलता है। उस सारी संवेदनशीलता का ही नाम प्रेम है।
तुम जितने संवेदनशील होओगे, जितने इस जगत को खुले, उपलब्ध--सूरज को, हवा को, चांदत्तारों को तुम जितना पीओगे--फूलों को, नदियों को, पहाड़ों को--तुम जितने करीब आकर प्रेम और आनंद से मग्न होकर देखोगे, अनुभव करोगे--उतना ही तुम्हारे भीतर एक प्रमाण उठने लगेगा, जो प्रमाण तर्क पर आधारित नहीं है; जो प्रमाण तुम्हारी हार्दिक अनुभूति है।
जोतिसरूप सुहागिनी चुनरी, आव बधू धर ध्यान।
प्रेयसी बनकर आओ, वधू बनकर आओ। प्रेम में पड़कर आओ। जैसे नववधू नाचती हुई चली आए, ऐसे आओ तो जान पाओगे। परमात्मा को प्रियतम की तरह जानो तो ही जान पाओगे।
यह जो तुमने बकवास लगा रखी है। कि परमात्मा स्रष्टा है, तो एक इंजीनियर हो कर रह जाता है। कोई बड़ा संबंध नहीं जुड़ता। अब बनायी होगी दुनिया, और अच्छी बनायी है, सुंदर बनायी है। मगर एक इंजीनियर कितना ही सुंदर भवन बना दे, इससे भी कोई प्रेम का नाता तो नहीं पैदा हो जाता! या परमात्मा होगा बड़ा गणितज्ञ। खूब गणित बिठाया है कि जिंदगी चलती है एक व्यवस्था से और व्यवस्था टूटती नहीं। मगर गणितज्ञ होने से कोई प्रेम तो नहीं हो जाता! अलबर्ट आइंसटीन रहे होगे बड़े गणितज्ञ, इससे कुछ प्रेम तो न हो जाएगा।
परमात्मा न तो स्रष्टा, न गणितज्ञ, न यांत्रिक, न वैज्ञानिक। इन शब्दों में सोचा तो चूकते चले जाओगे। प्रीतम की तरह सोचो। कबीर कहते हैं, मैं राम की दुल्हनिया! ऐसे सोचो। दुल्हन बनकर सोचो।
जोतिसरूप सुहागिनि चुनरी आव बधू धर ध्यान।
अब तो ऐसा ध्यान करो उसका, जैसे नव वधु ध्यान करती है अपने प्यारे का।
अब जिन दिनों ये पद लिखे गए थे, उन दिनों की याद तुम्हें आए तो ही तुम समझ पाओगे। अब हालत बदल गई है। जिन दिनों ये पद लिखे गए थे, उन दिनों नई वधू को, अपने पति, अपने प्यारे का चेहरा भी पता नहीं होता था। छोटे-छोटे बच्चों के विवाह होते थे। विवाह के पहले उन्हें मिलने-जुलने नहीं दिया जाता था। एक-दूसरे को देखने का तो सवाल ही न उठता था! तो नववधू यारी के जमानों की सोचना। उसे कुछ पता नहीं, उसका प्यारा कैसा है! उसे कुछ उसका रूप-रंग, कुछ भी पता नहीं।  लेकिन फिर भी उसके हृदय में एक गहरी उमंग है, एक उत्साह है--प्यारे से मिलने जा रही है! डोले पर सवार हुई है। शायद दिनों लगेंगे। लंबी यात्रा होगी। पैदल यात्रा होती थी। या बैलगाड़ी पर सवार होगी, या डोले पर सवार होगी। दिन, दो-दिन चार-दिन की यात्रा होगी। लेकिन हृदय में बस प्यारा ही धड़कता रहेगा--अनजाना, अपरिचित, जिसके चेहरे का पता नहीं! जो कैसा होगा कुछ पता नहीं। लेकिन फिर भी एक भीतर ज्योति जल रही है, एक स्मरण चल रहा है!
आव बधू धर ध्यान! जैसे वधू अनजान-अपरिचित पति का ध्यान धरती हुई चली आती है, ऐसे ही तुम्हें भी उस प्यारे का ध्यान धर कर आना होगा, तो ही आ पाओगे। और ऐसे आओ तो तुम्हारी चुनरी के भीतर अपने-आप ज्योतिर्मय प्रकट होने लगे।
जोतिसरूप सुहागिनी चुनरी...। और जब तक तुमने परमात्मा से संबंध नहीं जोड़ा है, तब तक तुम सुहागिन नहीं हो। तब तक तुम्हारा सौभाग्य ही कहां? सुहागिन कैसे? उससे संबंध जुड़े तो ही सुहाग। और उससे संबंध जुड़े तो सुहागरात, तो मिलन का वह अपूर्व क्षण! उस क्षण की ही आकांक्षा है; वही निर्वाण है, वही मोक्ष है।
भाव गीतों का समझती हूं न पर मैं साथ गाती
मैं तुम्हारे साथ गाती।
ज्योति के पायल पहन नक्षत्र-सी मैं जगमगाती
मैं तुम्हारे साथ आती।
अर्थ समझूं मैं न--कड़ियों की विकलता जानती हूं
मैं स्वरों के साथ उठती आग को पहचानती हूं।
पूर्णता की प्यास ले ज्यों सरि चले सागर मिलन को
मैं तुम्हारे राग में तृष्णा वही--मैं मानती हूं।
लांघ सीमा रिक्तता की मैं चली पूर्णत्व पाने
मैं अपरिचित थी--पवन की लय मुझे आई बुलाने
और मेरे फुल्ल मन में भी पिकी का दाह जागा
छोड़ घूंघट और अकुलाहट उठी मैं स्वर मिलाने
मैं सजीली, प्यारी-भीनी छांह सी हूं साथ जाती।
मैं तुम्हारे साथ गाती।
मुग्ध होठों बीच सिमटी बंसरी सी मैं नहाती!
दौड़ती फिरती तुम्हारे साथ जीवन की गली में
मैं घुली जाती लहर सी मैं तुम्हारी काकली में
प्राण की यह सिक्त तन्मयता--न रस का अंत जैसे
जाग उठा हो मूर्ति का ज्यों देवता प्रस्तरत्तली में
वायु चंचल प्राण की किस मुक्ति का मर्मर लिए है
आज मेरा कंठ किस मधु का महासागर पीए है
ज्योति यह आनंद की मन की द्विधाएं भस्म करती
गीत का लय भार मेरे कंकणों को रत किए है
हो शिथिल अवरोह में--आरोह में न नभ चूम आती
मैं तुम्हारे साथ गाती!
मैं वसंती वायु से उठती लता सी कसमसाती
रूप पाती रश्मि मुझसे-सृष्टि नव प्राणद विपुलता
है यही संगीत अंबर के घनों में पूर्ति भरता
भीग कर उस तान में शारद निशा अवदात होती
है वसंती तारकों का राग यह पथत्ताप हरता
बांध लेता है प्रकृति को संचरण पुलकावती का
गंध के परिप्रोत से बनता सुमन लघु तन कली का
इस अनामी गीत का मैं अर्थ समझी हूं न अब तक
किंतु रंग देता यही मुख प्रति पवन की अंजली का
मैं गुंथी जाती इसी की मुग्धमीड़ों में समाती
मैं तुम्हारे साथ गाती!
न अर्थ समझ में आता है, न कभी आएगा समझ में। इस जगत का अर्थ इतना बड़ा है कि जितना समझोगे, उतना ही पाओगे कि समझने को पड़ा है। इस जगत का अर्थ इतना बड़ा है कि जितना समझोगे, उतना ही पाओगे कि नासमझ हूं। यहां नासमझ अपने को समझदार समझ लें, मगर यहां समझदार अपने को समझदार नहीं समझ सकते हैं।
उपनिषद कहते हैं: जो कहे कि मैंने जाना, जान लेना कि नहीं जाना। सुकरात ने कहा है: जब जाना तो इतना ही जान कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। अर्थ यह समझ में न आएगा। अर्थ यह समझ के परे है। अर्थ यह समझ से बड़ा है। यह अर्थ समझ में न आएगा, ऐसे ही जैसे कोई चाय की चम्मच में और सागर को भरने चले! अब सागर कैसे चाय की चम्मच में समाए। और हमारा सिर, हमारी बुद्धि, हमारी समझ--चाय की चम्मच से भी छोटी है इस विराट के समक्ष। शायद सागर तो किसी दिन चाय की चम्मच में समा भी जाए, क्योंकि सागर की सीमा है। यह विराट तो असीम है। यह तो हमारे मस्तिष्क में न समा सकेगा।
अर्थ नहीं समझा जा सकता, लेकिन फिर भी गीत तो गाया जा सकता है। और वही भक्त का राज है, रहस्य है। अर्थ को समझने की पड़ी किसको है। इतना आनंद बरस रहा है! इस महोत्सव में जो अर्थ को समझने बैठे हैं कुछ रुग्ण होंगे।
नाचो! नृत्य का अर्थ क्या समझना है! अनुभव कर लो। और अगर अनुभव ही अर्थ हो जाए तो ठीक। लेकिन अनुभव अर्थ नहीं होता। जैसे अनुभव बढ़ता है, वैसे ही रहस्य और गहन होता जाता है। जिस दिन रहस्य इतना अनंत हो जाता है कि तुम्हें स्पष्ट हो जाता है कि मेरा जानना ना कुछ है और रहस्य अनंत है; जिस दिन जानना शून्य और रहस्य पूर्ण हो जाता है--उसी दिन भक्त की बूंद भगवान के सागर में लीन हो जाती है। उसी दिन भक्त भगवान हो जाता है।
हद बेहद के बाहरे यारी! वह हद के तो बाहर है ही, बेहद के भी बाहर है। सीमा के तो बाहर है ही, असीमा के भी बाहर।
...संतन को उत्तम ज्ञान। और यह जो संतों का उत्तम ज्ञान है, इसको इसीलिए उत्तम कहा है कि इसमें ज्ञान का कोई बोध नहीं है। जहां ज्ञान का बोध है, जहां ज्ञान की अकड़ है, वहां तो समझना कि पांडित्य है। और जहां ज्ञान का कोई बोध नहीं है, जहां ज्ञान की कोई अकड़ नहीं है, जहां ज्ञान का कोई दावा नहीं है, वहां जानना कि उत्तम ज्ञान है। उत्तम ज्ञान का लक्षण यही है कि जानने वालों को सिर्फ इतना पता चलता है कि मुझे कुछ भी पता नहीं है।
कोउ गुरु गम ओढ़ै चुनरिया, निरगुन चुनरी निर्बान!
कोई मिल जाए सदगुरु। कोई मिल जाए जिसने चुनरिया ओढ़ ली हो।  कोई मिल जाए ऐसा ज्ञानी, जिसे अपने अज्ञान का पता हो। कोई मिल जाए ऐसा, जो मिट चुका हो। कोई मिल जाए ऐसी बूंद, जो सागर में अपने को खो चुकी हो। तो उसके प्रसाद से ही, उसकी सामर्थ्य से ही, उसकी अनुकंपा, उसके आशीष से ही--तुम्हारे सिर पर भी चुनरिया पड़ जाए! यही शिष्यत्व का अर्थ है। गुरु ने ओढ़ ली चुनरिया, वह जानता है चुनरिया का रंग-ढंग, वह तुम्हें भी चुनरिया ओढ़ना सिखा देगा।
कोउ गुरु गम ओढ़ै चुनरिया, निरगुन चुनरी निर्बान!
उडू उडू रे विहंगम चढु आकाश।
और मिल जाए गुरु तो बस एक ही पुकार उठने लगती है--उडू उडू रे विहंगम चढु आकाश! कि उड़ो पक्षी! यह खुला आकाश तुम्हारा है। यह सारा आकाश तुम्हारा है कि उड़ो, कि खोलो पंख।
तुम्हें पता है, अगर किसी पक्षी को अंडे से, जन्म के पहले मां से अलग कर लिया जाए, बिजली के इन्कुवेटर में अंडे को रख कर ताप दिया जाए और पक्षी बिजली के यंत्र में ही अंडे से बाहर निकले--तो उड़ नहीं सकेगा। पंख तो होंगे, मगर उड़ नहीं सकेगा। इस पर वैज्ञानिकों ने प्रयोग किए हैं। पंख हैं, पक्षी उड़ता क्यों नहीं है! उसने किसी को उड़ते देखा नहीं कभी। बिना किसी को उड़ते देखे, कैसे पता चले कि उड़ना भी होता है!
तुमने कहानियां सुनी होंगी, घटनाएं हैं वास्तविक। अभी कुछ दिन पहले लखनऊ के पास...कुछ वर्ष पहले, एक छोटा बच्चा जंगल में मिला था। भेड़ियों ने पाला था उसे। राम उसका नाम था। अखबारों में तुमने खबर सुनी होगी। उसको ले आया गया। जब लाया गया तो उसकी उम्र कोई नौ साल थी, मगर वह दो पैरों पर खड़ा होना नहीं जानता था। वह चारों हाथ-पैर से चलता था, जैसे भेड़िये चलते हैं। उसने किसी को कभी दो पैर पर खड़े देखा ही न था। तो स्मरण भी कैसे आए? छह महीने डाक्टरों को लग गए, उसे दो पैर पर खड़ा करना सिखाने में। और उसी में उसकी जान गई। मर गया वह! जब आया था तो इतना स्वस्थ...भेड़ियों जैसे स्वस्थ था! दो-चार आदमियों को पछाड़ देना उसे कठिन काम न था। और उसकी दौड़ इतनी तेज थी कि कोई आदमी उतनी तेज नहीं दौड़ सकता था। और चारों हाथ-पैर से दौड़ता था। उसके नाखून बड़े थे और खतरनाक थे। खूंखार था, मांसाहारी था। उसको कर-कर के मालिश, दे-दे कर दवाएं खड़ा करने की कोशिश की, क्योंकि उसकी रीढ़ चार हाथ-पैर से चलने की आदी हो गई थी। उसकी जो छह महीने मालिश और चिकित्सा की गई, वह जो उसको सताया गया...वे सोच रहे थे उसके भले के लिए कर रहे हैं, लेकिन उसको मार डाला। वह मर गया। वह रोज कमजोर होता गया।
यह मनुष्य का बच्चा दो पैर से खड़ा न हो सका! यह नौ साल का था, लेकिन एक शब्द नहीं बोल सकता था। इसने शब्द सुने ही न थे तो बोलता कैसे! फ्रेंच घर में बच्चा पैदा होता है तो फ्रेंच भाषा बोलता है। चीनी घर में पैदा होता है तो चीनी भाषा बोलता है। चीनी घर में पैदा होकर फ्रेंच भाषा नहीं बोलता। बोल ही नहीं सकता! अगर पक्षी को अपनी मां को, अपने पिता को उड़ते देखने का मौका न मिले, तो उसे कभी याद भी न आएगी कि मेरे पास पंख हैं, कि मैं भी उड़ सकता हूं।
यही तुम्हारी दशा है। तुम्हें किसी आकाश में उड़ते पक्षी का संग-साथ खोजना होगा। सदगुरु का इतना ही अर्थ है: जिसे तुम उड़ता हुआ देख सको। और उसको उड़ते देखते ही, तत्क्षण तुम्हारे पंखों में एक सरसराहट हो जाएगी, एक बिजली दौड़ जाएगी। तुम्हें पहली दफा याद आएगी कि यही मैं भी हूं। ऐसा ही मैं भी उड़ सकता हूं। यह आकाश और इसके सारे तारे मेरे हैं--उतने ही, जितने किसी और के। मैं भी बुद्ध हो सकता हूं।
मगर बुद्ध के पास ही यह स्मरण आएगा।
उडू उडू रे विहंगम चढु आकाश। सब एक ही गूंज उठने लगती है भीतर कि हे पक्षी, तू भी उड़! कि हे प्राणों के पक्षी तू भी उड़! हो सकता है कि याद आ जाने के बाद भी, कुछ दिन पंखों को सम्हालना सीखना पड़े। क्योंकि जन्मों-जन्मों से पंखों का उपयोग नहीं हुआ है। उनमें खून की धार नहीं बही है। वे निष्प्राण हो गए होंगे! शायद थोड़े दिन पंखों को फड़फड़ाना सीखना पड़े। शायद थोड़े दिन, थोड़ी-थोड़ी छलांगें ही भर कर अपने को तृप्त रखना पड़े--एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर। इतने ही बहुत होगा। फिर धीरे-धीरे, शनैः शनैः हिम्मत भी बढ़ेगी, साहस भी बढ़ेगा। पंख भी पुनरुज्जीवित हो उठेंगे। फिर लहू की धार उनमें बहेगी। फिर उत्साह जगेगा। और आकाश की चुनौती स्वीकार हो जाएगी।
उसी दिन जिस दिन तुम आकाश की चुनौती स्वीकार करते हो, तुम्हारे भीतर मनुष्य का जन्म होता है। उसके पहले नाम मात्र की मनुष्यता है। सिर्फ शिष्य ही मनुष्य है।
उडू उडू रे विहंगम चढु आकाश।
अजल से ही मुझको तेरी आरजू थी
तिरी आरजू थी तिरी जुस्तजू थी।
प्रथम दिन से ही यही आकांक्षा है कि आकाश में उड़ना हो। प्रथम दिन से ही हम परमात्मा की तलाश कर रहे हैं। प्रथम दिन से ही, सृष्टि के प्रथम क्षण से ही हम अपने मूल उदगम को खोज रहे हैं।
अजल से ही मुझको तिरी आरजू थी
तिरी आरजू थी, तिरी जुस्तजू थी
बहुत सैर की हमने दैरो हरम,
अजब शोरगुल था अजब हायो हू थी
खुदी का उठाया जो पर्दा तो देखा,
वह शमअ,दरख्शां मेरे रूबरू थी
रसा हो न हो तेरी फरियाद बुलबुल,
सरापात्तरन्नुम बहुत खुश गुलू थी
चले तो हैं जीनत इबादत को लेकिन,
न फिक्रे-नमाज और न यदे वजू थी।
याद आए न आए, मगर तुम खोज उसी को रहे हो। धन में, पद में, प्रतिष्ठा में, संसार में तुम खोज उसी को रहे हो। खोज गलत हो भला, दिशा गलत हो भला, लेकिन आकांक्षा, जुस्तजू उसी परम सत्य की है, उसी परम प्यारे की है।
बहुत सैर की हमने दैरो हरम। मंदिरों में गए, मस्जिदों में गए। अजब शोरगुल था अजब हायो हू थी। वहां बहुत ढंग देखे, बहुत तरकीबें, बहुत व्यवस्थाएं, बहुत औपचारिकताएं, बहुत क्रियाकांड!
बहुत सैर की हमने दैरो-हरम,
अजब शोरगुल था अजब हायो हूं थी
खुदी का उठाया जो पर्दा तो देखा,
वह शमअ-दरख्शां मेरे रूबरू थी।
लेकिन जिस दिन अहंकार को हटाया, अहंकार का पर्दा उठाया तो देखा कि वह शमा, वह ज्योति मेरे ही भीतर जल रही थी, और सदा से मेरे समक्ष थी। मैं ही पीठ किए खड़ा था। मैं ही अपने अहंकार में डूब गया था और उसे भूल गया था।
खुदी का उठाया जो पर्दा तो देखा,
वह शमअ-दरख्शां मेरे रूबरू थी
और फिर कोई चिंता नहीं रह जाती।
रसा हो न हो तेरी फरियाद बुलबुल। फिर तो प्रार्थना सुनी जाए या न सुनी जाए, कौन चिंता करता है। मालिक भीतर विराजमान है। जिसे खोजने चले हैं, वह खोजी में ही है। फिर भी प्रार्थना उठती है, यही मजा है। फिर ही प्रार्थना उठती है, यही मजा है। लेकिन तब प्रार्थना सिर्फ एक अहोभाव होता है, एक धन्यवाद, कोई मांग नहीं।
रसा हो न हो तेरी फरियाद बुलबुल
सरापात्तरन्नुम बहुत खुश गुलू थी।
फिर कौन फिक्र करता है कि मेरी मांग सुनी गई कि नहीं, कि मेरी आवाज उस तक पहुंची या नहीं। फिर तो इतना ही काफी तृप्तिदायी है कि जो मैंने गाया गीत वह बड़ा प्यारा था, कि उससे मैं भी मस्त हुआ! कि बुलबुल ने जो गीत गाया, फूल उसमें खूब नाचे! बस इतना काफी है। फूल में भी वही है, बुलबुल में भी वही है।
चले तो हैं जीनत इबादत को लेकिन...। और तब एक नए ढंग की पूजा शुरू होती है, एक नई प्रार्थना, एक नई अर्चना।
चले तो हैं जीनत इबादत को लेकिन,
न फिक्रे-नमाज और न यादे वजू थी।
फिर कौन फिक्र करता है नमाज की, कि मुसल्ला बिछाया गया कि नहीं, कि नमाज ढंग से पढ़ी गई कि नहीं, कि नमाज में कोई भूल-चूक तो नहीं हो गई, कि शब्द ठीक-ठीक थे कि नहीं, व्याकरण दुरुस्त थी कि नहीं!
चले तो हैं जीनत इबादत को लेकिन...। फिर भी इबादत तो चलती है। मगर फिर कौन फिक्र करता है कि मंदिर में की गई कि मस्जिद में की गई। फिर तो जहां बैठ जाता है भक्त, वहीं मंदिर बन जाता है। फिर तो जहां उसके पैर पड़ते हैं, वहीं तीर्थ निर्मित हो जाते हैं।
न फिक्रे-नमाज और न यादे वजू थी--फिर कौन फिक्र करता है कि हाथ धोए गए कि नहीं, कि नमाज ठीक-ठीक पढ़ी गई कि नहीं, कि ठीक समय पर पढ़ी गयी कि नहीं। फिर क्रियाकांड छूट जाते हैं। फिर एक सहजता होती है प्रार्थना में। एक सहज-स्फूर्तता होती है अर्चना में। फिर जैसे दीए से प्रकाश झरता है, और जैसे फूल से गंध बहती है, ऐसे ही फिर भक्त से प्रार्थना उठती रहती है!
उडू उडू रे विहंगम, चढु आकाश।
जहं नहिं चांद सूर निसबासर...।
यह किस आकाश की बात हो रही है? यह बाहर के आकाश की बात नहीं हो रही है। जैसे बाहर एक आकाश है, ऐसे ही भीतर एक आकाश है--चिदाकाश, चैतन्य का आकाश।
जहं नहिं चांद सूर निसबासर...। वहां चांद भी नहीं है, सूरज भी नहीं है। न वहां दिन होता है कभी, न कभी रात होती है। वहां सब एकरस है, सदा एकरस है। वहां कुछ बदलता ही नहीं। वहां शाश्वत है, और वैसा का वैसा है, जैसा था वैसा ही है। वहां समय नहीं है, परिवर्तन नहीं है।
जहं नहिं चांद सूर निसबासर, सदा अमरपूर अगम बास। वहां तो अमृत है, मृत्यु नहीं है। क्योंकि जहां समय नहीं, वहां जन्म नहीं, मृत्यु नहीं। न कुछ प्रारंभ होता है, न कुछ अंत होता है। वहां सब ठहरा हुआ है--शांत, थिर। वहां कोई तरंग नहीं उठती। उस निस्तरंग, उस अमृत के लोक में वास हो जाता है भक्त का। जरा अहंकार गिरे। जरा निर्वाण सधे।
निर्गुण चुनरी निर्बान! जरा चुनरी ओढ़ो निर-अहंकार की! अपने को मिटाओ--और तुम पहली दफा पाओगे कि तुम वस्तुतः हुए। मिट कर ही कोई होता है। खो कर ही कोई पाता है।
देखै उरध अगाध निरंतर, हरष सोक नहिं जम कै त्रास।
वहां जो भीतर का लोक है, उसमें प्रवेश किया तो बस ऊपर से ऊपर उठते चले जाते हो। बाहर के जगत में नीचे ही नीचे गिरना पड़ता है। बाहर का जगत अधोगामी है; अंतर्जगत ऊर्ध्वगामी है। बाहर के जगत में हर चीज नीचे की तरफ जाती है, जैसे जलधार बस बहती है गङ्ढों की तरफ--नीचे, नीचे, नीचे...। भीतर के जगत में हर चीज ऊपर की तरफ जाती है; जैसे दीए की ज्योति, जैसे अग्नि की लपट--बस ऊपर ही ऊपर जाती है। तुम दीए को उलटा भी कर दो, तो दीया उलटा हो जाएगा, मगर ज्योति ऊपर की तरफ ही भागती रहेगी। ज्योति नीचे की तरफ जा ही नहीं सकती।
तुम्हारे भीतर उस ज्योति का आवास है। तुम्हारे भीतर परम ज्योति विराजमान है। जरा आंख भीतर मुड़े! यारी ने कहा न, जरा आंख उलटी करो। बहुत देखा बाहर, अब भीतर देखो।
देखै उरध अगाध निरंतर...। और तब चकित हो जाना पड़ता है--ऊपर और ऊपर...और अंत नहीं ऊपर का! अगाध है! जैसे सागर नीचे की तरफ अगाध है, ऐसे अंतस चैतन्य का सागर ऊपर की तरफ अगाध है, अंत नहीं आता।
हरष सोक नहिं जम कै त्रास! न वहां हर्ष है, न शोक। न वहां दुख, न सुख। वहां तो परम शांति है, पूर्ण शांति है। उस पूर्ण शांति का ही नाम आनंद है। और वहां मृत्यु का कोई त्रास नहीं है। वहां कुछ मिटा ही नहीं कभी और मिटता ही नहीं कभी। इस शाश्वत को पाए बिना संतोष नहीं होगा। मृत्यु का भय बना रहेगा। मौत द्वार पर दस्तक देती रहेगी। एक बार भीतर जिसने देख लिया, उसकी मृत्यु मिट जाती है।
कह यारी उंह बधिक फांस नहिं, फल पायो जगमग परकास।
कह यारी उंह बधिक फांस नहिं! वहां काल नहीं है। वहां कोई तुम्हें मारने न आएगा। वहां तुम्हारी मृत्यु नहीं है। कृष्ण कहते हैं: नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः! मुझे न तो शस्त्र छेद सकते हैं, न अग्नि जला सकती है।
तुम्हारे भीतर भी वह छिपा है, जिसे शस्त्र नहीं छेद सकते, अग्नि नहीं जला सकती! देह मरती है, जन्मती है। तुम अजन्मा हो। तुम अमृत हो! अमृतस्य पुत्राः! वेद कहते हैं कि तुम अमृत के पुत्र हो और भूल गए, भटक गए और मृत्यु के साथ अपना संबंध जोड़ लिया और देह के साथ तादात्म्य कर लिया! अब बड़े चिंतित हो, बड़े परेशान हो।
...फल पायो जगमग परकास! और जिसने भीतर देखा, उसे फल मिला। नहीं तो जीवन निष्फल है। बाहर तुम कितना ही कमा लो, निष्फल के निष्फल रहोगे, असफल के असफल रहोगे! कितना ही कमा लो, खाली हाथ ही जाना पड़ेगा! बाहर की कमाई, कमाई नहीं है, गंवाई है! क्योंकि उन्हें क्षणों को तुम भीतर लगा सकते थे; और वहां कुछ कमा लेते तो मौत तुमसे छीन न पाती, लुटेरे लूट न पाते। और जो तुम भीतर कुछ पा लेते, तुम्हारे साथ जाता।
बाहर संपदा नहीं है, संपदा भीतर है। बाहर तो विपदा है। संपत्ति नहीं है बाहर, विपत्ति है। संपत्ति तो भीतर है।
तुम देखते हो: संपत्ति, संपदा, ये उसी धातु से बने हैं जिससे समाधि। उसी धातु से बने हैं जिससे सम्यकत्व, संबोधि। ये सब सम शब्द से बने हैं। और सम का अर्थ होता है--न जहां शोक, न जहां हर्ष--समता, सम्यकत्व, संतुलन। जहां बीच में ठहर गए, न यह न वह। नेति-नेति! जहां मध्य में आ गए। उसी से संपत्ति शब्द बना है। बाहर तो संपत्ति हो ही नहीं सकती, क्योंकि वह मध्य बिंदु तुम्हारे भीतर है। न बाएं न दाएं। न संसारी न त्यागी। ठीक मध्य में आ गए। न भोगी न त्यागी। न धन को पकड़ने को आतुर, न धन को छोड़ने को आतुर।
न बाहर कुछ पकड़ने योग्य है न कुछ छोड़ने योग्य है--स्मरण रखो, बार-बार स्मरण रखो! क्योंकि बाहर अगर कुछ छोड़ने योग्य है तो उसका अर्थ हुआ, बाहर कुछ पकड़ने योग्य भी है। पकड़ने योग्य ही नहीं, छोड़ने योग्य कैसे होगा! तुम्हारा भोगी भी भ्रांत है, तुम्हारा त्यागी भी भ्रांत है। बाहर न तो कुछ पकड़ने योग्य है, न छोड़ने योग्य है। जो कुछ है भीतर है।
कह यारी उंह बधिक फांस, नहिं, फल पायो जगमग परकास।
वहां मृत्यु का कोई डर नहीं है। वहां मृत्यु खो गई; मृत्यु के साथ ही सारा अंधकार भी खो गया, सारा भय भी खो गया। फिर प्रकाश ही प्रकाश जगमग हो रहा है। इस प्रकाश का ही दूसरा नाम परमात्मा है।
शुरू-शुरू में इसकी क्षण-भर को झलक मिलेगी और खो जाएगी, जैसे बिजली कौंधे। मगर उतने से ही भरोसा आने लगेगा। उसको ही मैं भरोसा कहता हूं; विश्वास को नहीं, अनुभव को। पहले झलक आएगी, जैसे क्षण-भर को झरोखा खुल गया और तुमने आकाश देख लिया! फिर बंद हो जाएगा; पुरानी आदतें, संस्कार, मन, चित्त, अहंकार फिर वापिस हमला कर देंगे। मगर एक बार भी धीरे-धीरे झलक मिलने लगे तो तुम्हारे जीवन में क्रांति शुरू हो गयी। अब तुम जान लोगे कि बाहर कुछ भी नहीं है। अब तुम बाहर जीओगे, लेकिन धुन भीतर की बनी रहेगी। आव बधू धर ध्यान!
जस पनिहार धरै सिर गागर! रख लेती है सिर पर गागर पनिहारिन, हाथ से पकड़ती भी नहीं, सहेलियों से बातें भी करती जाती है, गीत भी गुनगुनाती है। गपशप भी करती है, राह में हंसी-ठिठोली भी करती है। मगर ध्यान उसका लगा ही रहता है गागर पर, कि गागर कहीं गिर न जाए। जस पनिहार धरै सिर गागर!
एक बार तुम्हें भीतर की झलक आने लगे, फिर तुम बाजार में रहोगे, दुकान भी करोगे...करनी ही है, कहीं भागना नहीं है। सब भगोड़े हो जाएंगे तो जगत बहुत बेरौनक हो जाएगा। सब वैसा ही करना है जैसे करते थे लेकिन अब एक याद तुम्हारे भीतर आनी शुरू हो जाएगी। झलक को धीरे-धीरे तुम पकड़ोगे, टिकाओगे। अपने को योग्य बनाओगे कि थोड़ी और टिके, थोड़ी और टिके।
ठहर जाओ, घड़ी भर और
तुमको देख लें आंखें!
अभी कुछ देर मेरे कान--
में स्वर गूंजे तुम्हारा
बहे प्रतिरोम से मेरे
सरस उल्लास का निर्झर
बुझा दिल का दीया शायद
किरण सा खिल उठे जलकर,
ठहर जाओ, घड़ी भर और
तुमको देख लें आंखें!
तुम्हारे रूप का सित आवरण
कितना मुझे शीतल
तुम्हारे कंठ की मधु-बंसरी
जलधारा सी चंचल
तुम्हारे चितवनों की छांह
मेरी आत्मा उज्जवल,
उलझतीं फड़फड़तीं प्राण
पंछी की तरुण पांखें।
लुटाता फूल सौरभ सा
तुम्हें मधु-वात ले आया,
गगन की दूधिया गंगा
लिए ज्यों शशि उतर आया
ढहे मन के महल में भर
गई किस स्वप्न की माया
ठहर जाओ घड़ी-भर और
तुम को देख लें आंखें!
मुझे लगता तुम्हारे सामने
मैं सत्य बन जाता,
न मेरी पूर्णता को देवता
कोई पहुंच पाता,
मुझे चिर प्यास वह अमरत्व
जिसे जगमगा जाता,
ठहर जाओ, घड़ी भर और
तुमको देख लें आंखें!
धीरे-धीरे पुकार उठेगी, प्यास उठेगी, प्रार्थना जगेगी। और जो क्षण-भर को होता है, देर-देर तक टिकने लगेगा। उस प्यारे के साथ संबंध गहन होने लगेगा। और आज नहीं कल, कल नहीं परसों...। प्रतीक्षा और धैर्य--बस इतना ही चाहिए साधक को। घटना निश्चित ही घटती है।
और एक दिन ऐसा आ जाता है कि वह प्रीतम सदा को तुम्हारे भीतर ठहर जाता है। द्वारे खुले, फिर बंद नहीं होते। उसी घड़ी निर्वाण की चदरिया तुम्हारे ऊपर पड़ गई चुनरी ओढ़ ली!
निरगुन चुनरी निर्बान, कोउ ओढ़ै संत सुजान!
स्मरण रखो, इस चुनरी की तलाश करनी है। इस चुनरी को बिना लिये इस जगत से मत जाना। क्योंकि इस चुनरी को बिना लिए जो जाता है, वह अकारथ आया, अकारथ गया। यह चुनरी मिलनी ही चाहिए। यह हमारा अधिकार है, इसी की खोज के लिए हम आए हैं। इस खोज को पूरा करना है। जगाओ इस संकल्प को, इस खोज को पूरा करना है। प्राणों को भरो इस संकल्प से--इस खोज को पूरा करना है। और यह खोज पूरी हो जाती है एक छोटे से सूत्र से। उस सूत्र का नाम प्रेम है।
आइए, हाथ उठाएं हम भी
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोजे-मोहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई खुदा याद नहीं।
आज इतना ही।





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें