शुक्रवार, 30 मार्च 2018

महावीर या महाविनास--(प्रवचन-05)

व्यक्ति है परमात्मा—(प्रवचन-पांचवां)


महावीर के जन्म-उत्सव पर थोड़ी सी बातें आपसे कहूंइससे मुझे आनंद होगा। आनंद इसलिए होगा कि आज मनुष्य को मनुष्य के ही हाथों से बचाने के लिए सिवाय महावीर के और कोई रास्ता नहीं है। मनुष्य को मनुष्य के ही हाथों से बचाने के लिए महावीर के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है।
ऐसा कभी कल्पना में भी संभव नहीं था कि मनुष्य खुद के विनाश के लिए इतना उत्सुक हो जाएगा। इतनी तीव्र आकांक्षा और प्यास उसे पैदा होगी कि वह अपने को समाप्त कर लेइसकी हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी। लेकिन विगत पचास वर्षों से मनुष्य अपने को समाप्त करने के सारे आयोजन कर रहा है! उसकी पूरी चेष्टा यह है कि एक-दूसरे को हम कैसे समाप्त कर देंकैसे विनष्ट कर दें! पिछले पचास वर्षों में दो महायुद्ध हमने लड़े हैं और दस करोड़ लोगों की उसमें हत्या की है। और ये युद्ध बहुत छोटे युद्ध थेजिस तीसरे महायुद्ध की हम तैयारी में हैंसंभव है वह अंतिम युद्ध होक्योंकि उसके बाद कोई मनुष्य जीवित न बचे। मनुष्य ही जीवित नहीं बचेगावरन कहा जा सकता है कि कोई प्राण जीवित नहीं बचेगा।

मैं एक छोटी सीएक छोटी सी गणना आपको दूं--अगर सौ डिग्री तक पानी गर्म किया जाए और उस गरम उबलते पानी में आपको हम डाल दें तो क्या होगाशायद आपका बचना मुश्किल हो। अगर हम पंद्रह सौ डिग्री तक लोहे को गरम करें तो वह पिघल कर पानी हो जाएगा। उस पिघले हुए लोहे में अगर हम आपको डाल दें तो क्या होगाआपका बचना असंभव हो जाएगा। अगर हम पच्चीस सौ डिग्री तक लोहे को गर्म करें तो वह भाप बन कर उड़ने लगेगा। उस पच्चीस सौ डिग्री गर्मी में किसी भी प्राणी के बचने की कोई संभावना शेष नहीं रहेगी।
लेकिन यह कोई गर्मी नहीं हैयह कोई उत्ताप नहीं है। एक हाइड्रोजन बम के विस्फोट से जो गर्मी पैदा होती हैवह होती है दस करोड़ डिग्री। दस करोड़ डिग्री की गर्मी में किसी तरह के प्राणी के बचने की कोई संभावना नहीं होगी। और ऐसे हाइड्रोजन बम आज जमीन पर पचास हजार की संख्या में निर्मित हैं। ये पचास हजार उदजन बम इस जमीन को सात बार मिटाने में समर्थ होंगे। इसको वे पश्चिम में ओवर किल कैपेसिटी कहते हैं। वे कहते हैं कि अगर एक आदमी को हमें सात-सात बार मारना पड़ेतो भी हम जमीन को नष्ट करने में समर्थ हैं। यह बहुत आश्चर्य की बात है। एक आदमी तो एक बार में ही मर जाता हैउसे सात बार मारने की कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन जो सदी लोगों को विनाश करने के लिए इतनी शक्ति पैदा कर रही होउस सदी के संबंध में विचार करना होगासोचना होगाक्या कोई पागल हो गया हैक्या मनुष्य पागल हो गया हैऔर मैं आपको यह आज कहना चाहूंगा कि जो मनुष्य धर्म से संयुक्त नहीं होतावह आज नहीं कल पागल हो जाता है। और एक आदमी पागल हो जाएयह बहुत बड़ा खतरा नहीं है--कोई पूरी कौम पागल हो जाएकोई पूरी सदी पागल हो जाएपूरा मनुष्य समाज पागल हो जाए तो क्या होगा?
मैं एक छोटी सी कहानी आपको कहूंमुझे बहुत प्रीतिकर रही और मुल्क के न मालूम किन-किन लोगों के बीच मैंने जाकर उसे कहा।
ईश्वर ने यह देख कर कि मनुष्य को यह क्या हो गया हैउसने दुनिया के तीन बड़े प्रतिनिधि राष्ट्रों के लोगों को अपने पास बुलाया। ऐसा कोई ईश्वर कहीं है नहीं। ऐसा ईश्वर कहीं भी नहीं हैजो किसी को बुलाए। एक काल्पनिक और झूठी कहानी आपसे कह रहा हूं।
ईश्वर ने दुनिया के तीन बड़े राष्ट्रों के प्रतिनिधियों को अपने पास बुलाया--अमरीका कोरूस कोब्रिटेन को। और उसने उनसे कहा कि तुम इतनी शक्ति तो पैदा कर लिए होलेकिन उस शक्ति से तुम कोई सृजन नहीं कर पाते। तुमने इतनी शक्ति पैदा की हैलेकिन उससे जीवन के लिए तुम सहयोगी नहीं बन रहे हो। तुम्हारी सारी शक्ति तुम्हारी मृत्यु बन जाएयह बहुत आश्चर्यजनक है। अगर मैं तुम्हारे कुछ सहयोगी बन सकूंअगर मेरा कोई वरदान तुम्हारे काम आ सकेतो वरदान मांग लो।
अमरीका के प्रतिनिधि ने कहाएक ही वरदान हम मांगते हैं--एक छोटा सा वरदान पूरा हो जाए और हमारी सब तृप्ति हो जाएगी। ईश्वर ने प्रफुल्लित होकर कहामांगो! और अमरीका के प्रतिनिधि ने कहाएक हमारी आकांक्षा है कि जमीन तो रहेलेकिन जमीन पर रूस का कोई निशान न रह जाए। ईश्वर ने बहुत वरदान दिए होंगे। कहानियां हैं हजारों ईश्वर के वरदान देने कीलेकिन ऐसा वरदान कभी किसी ने मांगा नहीं था! उसने बहुत उदासी और दुख से रूस के प्रतिनिधि की तरफ देखा।
उस प्रतिनिधि ने कहामहानुभाव! एक तो हमारा कोई विश्वास नहीं है कि आपकी कोई सत्ता है। हम मानते नहीं कि ईश्वर है। और पच्चीसों वर्ष हुए हमने अपने मंदिरों और मस्जिदों सेऔर अपने गिरजाघरों से आपको निकाल कर बाहर कर दिया है। लेकिन हम आपको वापस प्रतिष्ठा देंगे और फिर आपकी मूर्तियों के सामने धूप और दीए जलाएंगेअगर एक छोटी सी बात पूरी हो जाए तो वह प्रमाण होगा कि ईश्वर है। ईश्वर ने कहाकौन सी बातउस रूस के प्रतिनिधि ने कहाएक छोटी सी बातजमीन के नक्शे पर अमरीका के लिए कोई रंग और रेखा न रह जाए। ईश्वर ने बहुत हैरान और घबड़ा कर ब्रिटेन के प्रतिनिधि की तरफ देखा। उसने जो कहा वह मन में रख लेने जैसा है। उसने कहा कि मेरे प्रभु! हमारी अपनी कोई आकांक्षा नहीं। इन दोनों की आकांक्षाएं एक साथ पूरी हो जाएंहमारी आकांक्षा पूरी हो जाती है।
यह बात हमें हंसने जैसी लगती है। यह बात हंसने जैसी नहीं हैयह बात रोने जैसी है। और इससे बड़ी बात रोने जैसी दूसरी नहीं हो सकती है। और अगर आप इस पर हंसते हैंतो आप गलती करते हैं। मैंने बहुत सोचा कि मैं भी इस पर हंस पाऊंमैं नहीं हंस पाया। मैंने इस कहानी को अपने से बहुत बार कहा है और मैंने चाहा कि मैं हंस लूंलेकिन मैं नहीं हंस पाया और मेरा हृदय आंसुओं से भर गया है। और यह कहानी बिलकुल झूठ हैमैंने कहालेकिन यह कहानी झूठ नहीं हैयह कहानी बिलकुल सच है।
यह कहानी इसलिए सच है कि हमारी ये आकांक्षाएं आज हैं। आज हम चाहते हैं कि नष्ट हो जाएंदूसरे मिटा दिए जाएं। हम यह समझ रहे हैं कि हमारे जीवन का रहस्य इस बात में है कि दूसरे को मृत्यु मिल जाए! हम नासमझ और पागल हैं। जीवन का रहस्य इसमें है कि दूसरों को और महान जीवन मिल जाए। अगर हम जीवन चाहते हैं खुदतो जीवन हमें बांटना होगा। जो मौत को बांटेगा वह स्वयं मौत में गिर जाएगा।
यह जो कहानी मैंने कहीइसलिए मैंने कहा कि यह रोने जैसी हैयह आज दुनिया की हालत है। और यह दुनिया की हालत हैइससे यह मत समझना कि यह आपकी हालत नहीं है। आपका भी आनंद इसमें है कि आपका पड़ोसी मर जाए! आपकी भी खुशी इसी में है कि कोई समाप्त हो जाए! आप चौबीस घंटे इस प्रयत्न में लगे हैंविचार सेमन सेवाणी से कि किसी को नष्ट कर दें!
अधार्मिक वह है जो दूसरे के नष्ट करने का विचार करता है। और धर्म की शुरुआत इस बात से होती है कि जो अपने निर्माण का विचार करता है। धर्म की शुरुआत इस बात से होती है कि जिसका ध्यान इस बात में है कि मैं जीवन को उपलब्ध हो जाऊं। अधर्म की शुरुआत इस बात से होती हैजिसे इस बात का ध्यान है कि दूसरा मृत्यु को उपलब्ध हो जाएदूसरा मिट जाएदूसरा गिर जाए। धर्म की शुरुआत इस बात में है कि मैं जीवन को उपलब्ध हो जाऊं। और धर्म की सिद्धि इस बात में है कि सब जीवन को उपलब्ध हो जाएं।
ऐसी जो स्थिति हैऐसे जो विनाश का चिंतन है...।
ट्रूमैन कोजब वह अमरीका के प्रेसिडेंट थे और जब उनकी आज्ञा से हिरोशिमा और नागासाकी पर पहला अणु बम गिराया गयाऔर वहां लाख लोग सोते-सोते समाप्त हो गएदूसरे दिन सुबह ट्रूमैन जब उठे तो पत्रकारों ने उनसे पूछा कि रात आपको नींद आईयह पूछने जैसा था। अगर मेरी आज्ञा से एक लाख लोग समाप्त हो जाएंफिर अनंत काल तक इस जगत में मैं सो नहीं सकता हूं। और अगर मैं सो जाऊंतो मुझे आदमी कहना मुश्किल हैमुझे पत्थर कहना होगा। पत्रकारों ने उनसे सुबह-सुबह पूछारात आपको नींद आईट्रूमैन ने कहाबहुत वर्षों के बाद पहली दफा सोया! उन्होंने कहाबहुत वर्षों के बाद पहली दफा सोयामामला खतम हो गया! हम जीत गए!
एक लाख आदमी रात सोए हुए समाप्त हो गए हैंइसकी पीड़ा जिन्हें न छूती होऐसे मनुष्यों के समाज और युग को विक्षिप्त कहने की मुझे आज्ञा नहीं देंगेऐसे समय को पागल कहने की मुझे आज्ञा नहीं देंगेऔर स्मरण रखेंयह मैं किन्हीं और के लिए नहीं कह रहा हूंयह मैं आपसे कह रहा हूं। यह मैं हर एक से कह रहा हूं। क्योंकि हम हैंजो इसे बनाते हैं। हम हैंजो समय को बनाते हैं और सदी को बनाते हैं। समय और सदी आसमान से नहीं उतरतेहम उन्हें निर्मित करते हैंहम उनके निर्माता हैं।
हर आदमी जो मौजूद है इस जमीन परइस जमीन पर जो हो रहा हैउसका सहयोग उसमें है। अगर दुनिया में दस करोड़ लोग मारे गए हैंस्मरण रखेंउस हत्या का जिम्मा आप पर है। कोई यह भूल से न समझे कि उस हत्या पर मेरा जिम्मा नहीं है। जो सोचता हो कि मैं चींटियों को बचा कर निकल जाता हूंजो सोचता हो कि पानी छान कर मैं पी लेता हूंइसलिए मुझ पर हिंसा का क्या भार हैवह नासमझ है। उसे पता नहींहिंसा बहुत गहरी और बहुत सामूहिक है। अगर मेरे मन में थोड़ा सा भी क्रोध उठता हैअगर मेरे मन में थोड़ी सी भी घृणा उठती हैअगर मेरे मन में दूसरे को नष्ट करने का थोड़ा सा भी खयाल उठता हैतो नागासाकी में जो अणु बम गिराउसमें मेरा हाथ है। और भविष्य में भी अगर किसी मुल्क परकिसी का दुर्भाग्य होगा और अणु बम गिरेंगेउसमें मेरा हाथ होगा। वह मेरे छोटे से क्रोध की चिनगारीजब लाखों लोगों के क्रोध की चिनगारियां इकट्ठी होती हैं तो युद्ध में परिणत हो जाती हैं। बड़े युद्ध आकाश में नहीं लड़े जाते हैंलोगों के हृदय में लड़े जाते हैं। 
अगर आपके हृदय में क्रोध उठता हैसारे युद्धों के लिए आप जिम्मेवार होंगे। अगर आपके हृदय में घृणा उठती हैसारे युद्धों का भार और उत्तरदायित्व आपको अनुभव करना होगा। और जब तक यह अनुभव न होजब तक मैं सारी जमीन पर जो हो रहा है उसमें अपने को सहयोगी अनुभव न करूंतब तक मैं धार्मिक नहीं हो सकता हूं।
यह जो स्थिति है समय कीयह जो रुख है चीजों कायह जो प्रवाह है समय काइसे बदलना होगा अगर मनुष्य को बचाना है। अगर मनुष्य को बचाना हैतो मनुष्य को बदलना अपरिहार्य हो गया है। और अगर हम थोड़ी देर भी चूक गए और मनुष्य को हम नहीं बदल सके तो मनुष्यता को बचाना असंभव हो जाएगा। यह पचास वर्ष भी मुश्किल है कि आदमी बच जाए। यह मुश्किल है कि हम सन दो हजार देख पाएं। हम बीसवीं सदी को पूरा होते देख पाएंयह असंभव मालूम होता है। जैसा मनुष्य हैअगर वह वैसा ही रहातो यह मुश्किल है कि मनुष्य के बचने की कोई संभावना मानी जाए। मनुष्य का भाग्य और मनुष्य का जीवन और भविष्य समाप्त हो गया है। एक ही आशा की किरण है कि मनुष्य परिवर्तित हो सके। और वह मनुष्य के परिवर्तन की किरण महावीर से मिल सकती है।
जब मैं यह कहता हूं वह महावीर से मिल सकती हैतो मेरा मतलब यह नहीं है कि वह क्राइस्ट से नहीं मिल सकतीमेरा यह मतलब नहीं है कि वह कृष्ण से नहीं मिल सकतीमेरा यह मतलब नहीं है कि वह बुद्ध से नहीं मिल सकती। जब मैं कहता हूंमहावीर से मिल सकती हैतो मेरा मतलब महावीर में बुद्धकृष्ण और क्राइस्ट सम्मिलित हैं। मुझे यह दिखाई नहीं पड़ता कि एक दीए में जो रोशनी जलती हैवह दूसरे दीए की रोशनी से भिन्न होती है। और जब मैं कहता हूं इस दीए से रोशनी मिल सकती हैतो मैं यह कह रहा हूं कि रोशनी केवल दीए से मिल सकती है। और वे दीए कहीं भी जले होंवे महावीर के नाम से जले होंवे बुद्ध के नाम से जले होंवे कृष्ण के नाम से जले होंइससे कोई फर्क नहीं पड़ता। रोशनी को पहचानें और शरीरों को छोड़ दें। मिट्टी के दीयों को छोड़ दें और प्रकाश की ज्योति को पहचानें।
महावीर में वह ज्योति है। और वह ज्योतिजो लोग उस ज्योति को प्रेम करेंगे और जो लोग उस ज्योति को आमंत्रित करेंगे अपने भीतरउनके भीतर भी जल सकती है। जिनके दीए बुझे होंवे उन दीयों के करीब जाएं जहां रोशनी जल रही है। और जिनके भीतर के प्राण सो गए होंवे उन प्राणों के स्रोतों से संबंधित हो जाएं जहां अनंत जीवन उपलब्ध हुआ है। उनके भीतर भी घटना घट सकती है।
इस विचार से मैं आनंदित हूं कि महावीर के संबंध में थोड़ी सी बातें आपसे कहूंगा। आनंदित इसलिए नहीं हूं कि महावीर के स्मरण का कोई मूल्य हैआनंदित इसलिए हूं कि शायद वह स्मरण आपके भीतर कोई प्यास पैदा कर दे। शायद वह स्मरण आपके भीतर कोई अपमान पैदा कर दे। शायद आपको लगे कि जो महावीर के भीतर संभव हो सकावह जब तक मेरे भीतर संभव न हो जाएतब तक मेरी मनुष्यता अपमानित है। तब तक मैं अपनी ही आंखों में गिरा हुआ और पतित हूं। और इस जगत में अपनी आंखों में गिर जाने से बड़ी दुर्घटना दूसरी नहीं है। हम अपने संबंध में सोचेंगे तो हमें दिखाई पड़ेगाहम अपने संबंध में विचार करेंगे और अंतर्दर्शन करेंगे तो हमें दिखाई पड़ेगा--हम क्या हैं और हम क्या हो सकते हैं?
हम क्या हो सकते हैंइसके सबूत हैं महावीरइसके सबूत हैं बुद्धइसके सबूत हैं कृष्ण। हर मनुष्य क्या हो सकता हैइसके प्रतीक हैं वे। मुझे ऐसा लगता है--आज सुबह ही मैंने कहा--मुझे ऐसा लगता है कि जब मैं आपकी तरफ देखता हूं तो मुझे ऐसा लगता है जैसे बीजों का एक ढेर लगा हो और हर बीज वृक्ष हो सकता होऐसा ही मुझे लगता है। जैसे सारी जमीन पर महावीर भरे होंलेकिन बीज की शक्ल में। और अगर चाहें वे और संकल्प की ऊर्जा उनमें जागे और अग्नि उनमें प्रज्वलित हो साधना कीतो शायद उनके बीज भी फूट जाएं और उनसे वृक्षों का जन्म हो जाए।
महावीर अगर वृक्ष हैंतो आप भी उसी वृक्ष के बीज हैं। अगर यह स्मरणउनकी स्मृति का दिन आपके भीतर यह भाव पैदा कर देअगर यह खयाल पैदा कर देअगर यह सपना पैदा कर दे कि जो उनके लिए संभव हुआवह मुझे भी संभव हो सकता हैतो यह घटना आनंद की बन जाएगी। इसलिए मैंने कहा कि मैं आनंदित हूं। महावीर के संबंध में कुछ कहूंइसके पहले थोड़ी सी बातें मुझे और कह देनी हैं।
मैं यहां आयाआते से ही मुझे पता चलाआते से ही मुझे बताया गया कि कुछ लोगों ने कहा है कि अगर मैं बोलूंगातो वे मुझे पत्थर मारेंगे। वे इसलिए पत्थर मारेंगे कि मेरी बातें महावीर के विपरीत हैं। मैंने उनसे कहाअगर वे पत्थर मुझे मारेंगे तो वे साबित करेंगे कि वे महावीर के प्रेमी नहीं हैं। अगर मेरी बातें महावीर के विपरीत हैंतो भी मुझे पत्थर मारने का कोई कारण पैदा नहीं होता। और जो मुझे पत्थर मारेगावह अगर सोचता हो कि वह महावीर का प्रेमी हैतो वह पागल हैवह नासमझ है। महावीर के प्रेम की पहली शर्त यह है कि जब तुम्हें कोई पत्थर मारे तो तुम उसे प्रेम देना। महावीर के प्रेम की पहली शर्त यह है कि जब तुम्हें कोई पत्थर मारे तो तुम उसे प्रेम देना।
मैंने पूछा कि वे मुझे क्यों पत्थर मारेंगेतो मुझे बताया गयामुझे कुछ बातें बताई गईंउनका मैं उल्लेख करूंउनके माध्यम से महावीर को समझना आसान होगा।
मुझे बताया गया कि मैं जब कहता हूं महावीरतो मैं भगवान नहीं जोड़ता।
मैंने कहामेरा प्रेम भगवान जैसे औपचारिक शब्द को जोड़ने को राजी नहीं होता। जिनको हम प्रेम करते हैंजितना हम उनको प्रेम करते हैं उतनी ही औपचारिक बातें उनके संबंध में व्यर्थ हो जाती हैं। अगर महावीर को स्मरण करते वक्त इतना प्रेम न भरता हो कि हम उन्हें तू कह कर बुला सकेंतो हममें प्रेम ही नहीं है। इसलिए मैंने कहामैं तो उनको भगवान नहीं कहूंगा। भगवान न कहने का मतलब यह है कि मैं उनको भगवान जानता हूं। भगवान न कहने का मतलब यह है कि मैं पहचानता हूं कि वे भगवान हैं। इसे कहने और दोहराने की बात नहीं हैइसे हृदय में समझने और पहचानने की बात है। जो इसे कहेंगे केवलइसे दोहराते रहेंगे मंत्र की तरहइनके दोहराने से कुछ होने का नहीं है।
मुझे कहा गया कि मैं जो कहता हूंवह शास्त्र के विपरीत है।
मैंने कहामहावीर की आस्था शास्त्र में नहीं है। महावीर की आस्था स्वयं में है। और अगर महावीर की कोई क्रांति है बहुमूल्यतो वह यह है कि उन्होंने इस मुल्क को शास्त्र से मुक्त करने की कोशिश की। महावीर के समय शास्त्र सब कुछ थेवेद सब कुछ थे। महावीर ने कहावेद नहींशास्त्र नहींस्वयं का सत्यस्वयं का अनुभव अर्थपूर्ण है। महावीर ने कहाहम शब्दों को न मानेंगेहम तो अनुभूतियों को मानेंगे।
लेकिन हम ऐसे पागल हैं कि जिस महावीर ने यह कहा हो कि शास्त्र नहीं है मूल्यवानस्वयं का अनुभव और स्वाद मूल्यवान हैहम उनकी ही वाणी का शास्त्र बना लेंगे और उसको पूजेंगे! यह घटना सारी जमीन पर घटी है--महावीर के अनुयायियों में ही नहींसारी जमीन पर--कृष्ण के अनुयायियों मेंक्राइस्ट के अनुयायियों में या मोहम्मद के अनुयायियों में।
मोहम्मद ने कहा है शांति और मोहम्मद के इस्लाम धर्म का अर्थ भी होता है शांति का धर्म। लेकिन उनके भक्तों ने क्या कियाउनके भक्तों ने जितनी अशांति दुनिया में फैलाई और किसी ने नहीं फैलाई!
क्राइस्ट ने कहा है कि तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारेतुम दूसरा उसके सामने कर देना। लेकिन क्राइस्ट के मानने वालों ने जितने गालों पर चांटे मारे हैंउनका कोई हिसाब नहीं है! और क्राइस्ट के मानने वालों ने जितनी छातियों पर संगीनें कोंची हैं और जितनी छातियों पर पैर रौंदे हैंउसका कोई मुकाबला नहीं है! बहुत आश्चर्यजनक मालूम होता है।
महावीर ने कहा हैप्रेम! और अगर महावीर का कोई भक्त कहता हो कि हम किसी को पत्थर मारेंगेतो विचारणीय हो जाएगा। और महावीर ने कहा हैअपरिग्रह! और महावीर के भक्तों के पास परिग्रह ही परिग्रह इकट्ठा होतो विचारणीय हो जाएगा। और महावीर ने कहा हैस्वयं का अनुभव! और कोई महावीर की वाणी को ही अगर वेद बना दे तो गलती हो जाएगीतो विचारणीय हो जाएगा।
मैं आपको कहूं कि दुनिया में इस धर्म के जितने मानने वाले हैंउनमें से मुश्किल से कोई अनुयायी है। जिनकी आप पूजा करते हैंउनके ही आप दुश्मन हैंउनके ही आप शत्रु हैं! नीत्शे ने एक वचन कहा था। उसने कहा थापहला और अंतिम क्रिश्चियन सूली पर लटका कर मार डाला गया--पहला और अंतिम क्रिश्चियन! उसने कहा थाक्राइस्ट पहला और अंतिम क्रिश्चियन था। उसके बाद कोई क्रिश्चियन नहीं हुआ। मैं आपको स्मरण दिलाऊंमहावीर के बाद भी कोई जैन नहीं हुआ।
तो कृष्ण के बाद या बुद्ध के बादसबके साथ वैसी घटना घटी है। और जो उनके पीछे दिखाई पड़ते हैंवे उनके पीछे नहीं हैं। जो उनके पीछे मालूम पड़ते हैंवे उनके पीछे नहीं हैं। महावीर के पीछे होना आसान नहीं है। और इस भूल में कोई न पड़ जाए कि मैं जैन घर में पैदा हो गया तो महावीर के पीछे हो गया। पागलअगर बातें इतनी सस्ती होतींअगर मामले इतने आसान होतेतो सब हल हो गया होता।
धार्मिक होना इस जगत में सबसे बड़े दुस्साहस की बात है।
धार्मिक होना पैदाइश से संबंधित नहीं है। धार्मिक होने के लिए तो दूसरा जन्म खुद लेना होता है। एक जन्म है जो मां-बाप से मिलता हैवह कोई जन्म है! वह केवल शरीर का जन्म है। एक दूसरा जन्म हैजो खुद के संकल्प और साधना और श्रम से उत्पन्न करना होता है। वही वास्तविक जन्म है। उसके बाद हीउसके बाद ही व्यक्ति धार्मिक बनता है। तो कोई इस भूल में न रहे कि महावीर के मानने वालों के घर में पैदा हो गए हैंतो हम जैन हो गए हैं।
महावीर के घर में पैदा होने से कोई जैन नहीं होता।
उपनिषदों में एक ऋषि हुआउद्दालक। उसका पुत्र जब अध्ययन करके शास्त्रों का घर वापस लौटासारे शास्त्रों का अध्ययन करके वापस लौटातो गरूर से और अहंकार से भरा हुआ आया। पंडित से ज्यादा प्रगाढ़ अहंकार और किसका होता हैवह गरूर से और अहंकार से भरा हुआ घर में आया। पिता ने देखाअहंकार की सीमा नहीं है! पिता ने पूछासब पढ़ आएउसने कहामैं सब पढ़ आयाजो भी पढ़ने योग्य थासब पढ़ आया। जो भी पढ़ने जैसा थासब पढ़ आया। सब शास्त्रसब वेद पढ़ कर लौटा हूं।
उसके पिता ने आंख नीची कर ली और उसने कहा कि जहां तक मैं देख रहा हूं तुम्हेंमुझे दिखाई पड़ता है कि जो पढ़ना थावही तुम छोड़ कर सब पढ़ आए हो। उसने पूछाक्या है वहउसके पिता ने कहाजो शास्त्रों में नहीं लिखा हैजो वेदों-पुराणों में नहीं लिखा हैजो कभी लिखा नहीं जा सकाजो कभी लिखा नहीं जा सकेगाउसे जो पढ़ लेता हैवही तो पढ़ता है। और उसे जो पढ़ लेता हैउसे जान कर वह सब जान लेता है। तो तुम अगर किताब ही पढ़ कर लौटे होतो अभी पढ़ना तुम्हारा शुरू भी नहीं हुआ।
उसने कहाउसे मैं कैसे जानूंऔर उसे जानना क्या जरूरी है?
उसके पिता ने कहाहमारे परिवार में अब तक ब्राह्मण होते रहे हैंब्राह्मण-बंधु नहीं। उसके पुत्र ने पूछाइसमें फर्क क्या हैउसने कहाजो ब्राह्मण के घर में पैदा होने से ब्राह्मण कहलाएवह ब्राह्मण-बंधु है। और जो ब्रह्म को जानने से ब्राह्मण कहलाएवह ब्राह्मण है।
मुझे बात ठीक लगती है। जो क्रिश्चियन के घर में पैदा होने से क्रिश्चियन कहलाएवह क्रिश्चियन-बंधु है। जो जैन घर में पैदा होने से जैन कहलाएवह जैन-बंधु है। जैन होनाक्रिश्चियन होना बड़ी दूसरी बातें हैं।
तो मैंने उनको कहा कि मुझे तो यह दिखाई पड़ता है कि महावीर की क्रांति शब्द के विपरीत है और निःशब्द के पक्ष में हैशास्त्र के विपरीत है और स्वयं के पक्ष में है। सारे शास्त्रों से और सारे सिद्धांतों के जाल से महावीर मुक्त करना चाहते हैंताकि आपका अंतर्गमन हो सके। शास्त्र बाहर हैं और सत्य भीतर है। जो शास्त्रों में खोजेगावह खोजेगापा नहीं सकेगा। और जो भीतर डूबेगावह पा लेगा।
एक बात और कहूंजो भीतर पा लेता हैवही शास्त्र को समझ भी पाता है। क्योंकि जो भीतर अनुभव कर लेता हैअनुभव ही उन शब्दों के अर्थों को भी स्पष्ट कर जाता है। जो स्वयं को जानता हैवह शास्त्र को समझ पाता है। जो शास्त्र को ही समझता रहता हैवह कभी स्वयं को नहीं जान पाता।
महावीर की बुनियादी क्रांति शब्द केसिंबल के विपरीत हैप्रतीक के विपरीत है। और अगर वे कहते हैं कि मेरी बात शास्त्र के विपरीत मालूम होती हैतो मैंने कहाहो सकता हैमेरी बात महावीर के पक्ष में होइसलिए शास्त्र के विपरीत पड़ जाती हो। अब तक सारे शास्त्रजिन्होंने सत्य जाना हैउनके विपरीत पड़ जाते हैं। यह बड़ी आश्चर्य की बात है! यह बहुत आश्चर्य की बात हैऐसा हो जाता है और उसका कारण है।
मैंने एक बाउल फकीर का एक गीत पढ़ा था। उसने अपने गीत में कहा हैजब कोई व्यक्ति धर्म की ज्योति को उपलब्ध होता हैतो उसके हाथ में ज्ञान की मशाल आ जाती है। उसकी मशाल से प्रभावित होकर न मालूम कितने अंधे और आंखहीन लोग उसके पीछे हो जाते हैं। उसके अनुग्रह मेंउसके प्रेम मेंउसके प्रकाश की संभावना में बहुत लोग उसके पीछे चलने लगते हैं। फिर वह आदमी एक दिन समाप्त हो जाता है। और जब वह आदमी गिरता है तो उसकी मशाल भी गिर जाती है। और तब कोई अंधा उनमें सेजो पीछे उसके हो गए थेउस मशाल को उठा लेता है। लेकिन दुर्घटना यह हो जाती हैउस मशाल में जो ज्योति थीवह डंडे में नहीं थी। उस मशाल में जो ज्योति थीवह उस आदमी के प्राणों में थीजो उसे पकड़े था। उस ज्योति को अपने प्राणों से वह जलाए था। उसके गिरते ही ज्योति तो बुझ जाती हैडंडा हाथ में रह जाता है! और अंधे उस डंडे को लेकर चलते हैं! वह जो धर्म का डंडा हैउसे लेकर चलते हैंजिसकी ज्योति बुझ जाती है! इसलिए ये डंडे आपस में टकराते हैं।
बहुत से अंधे हैं जमीन पर। बहुत से अंधे उन डंडों को लिए हैं। और वे सारे अपने-अपने डंडों को लेकर अंधेरे में चल रहे हैं! इसलिए उनकी आपस में टक्कर हो जाती है। धर्मों की कहीं टक्कर हो सकती हैदो धर्म कहीं लड़ सकते हैं?
लेकिन धर्म लड़ते हुए मालूम पड़ते हैं! इसका अर्थ है कि वहां धर्म नहीं होगावहां डंडे रह गए हैं अंधे आदमियों के हाथों में। और अंधे अंधों का नेतृत्व करते हैं! यह दुर्भाग्य हैऔर यह सदा होता रहा हैऔर इसके पीछे कारण है।
इसके पीछे कारण है। जो व्यक्ति भी यह सोचता हो कि दूसरे की ज्योति से मैं चल सकता हूंवह गलती में है। अपनी ज्योति से ही केवल चलना होता है।
एक साधु एक संध्या को अपने एक मित्र साधु को विदा करता था। रात अंधकार से भरी थी। उसके मित्र ने कहाइस अंधेरे में मैं कैसे जाऊंउसके दोस्त साधु ने कहामैं दीया जला देता हूं। उसने एक दीया जलाया और अपने मित्र के हाथों में दिया। लेकिन जैसे ही वह मित्र दीए को लेकर सीढ़ियां उतरने लगाउस साधु ने उस दीए को फूंक कर बुझा दिया! घुप्प अंधकार और भी गहरा हो गया! उसके मित्र ने कहायह क्या कियादीया दिया और बुझा भी दियाउसके मित्र ने कहादूसरे का दीया काम नहीं पड़ता। अपनी ज्योति हो तो ही अंधकार से बचना है। अपनी ज्योति न होदूसरे के दीए काम नहीं पड़ते हैं।
मैं आपको कहूंमहावीर का दीया भी आपके काम नहीं पड़ सकताजब तक कि आपके भीतर दीया अपना न जल जाए।
इस बात को महावीर ने बड़े अदभुत ढंग से कहा। इस बात को उन्होंने बड़े गहरे ढंग से कहाबड़े गहरे ढंग से प्रतिपादित किया। उन्होंने कहापरमात्मा के प्रसाद से भी कोई सत्य को नहीं पा सकता है। उन्होंने कहाकिसी गुरु-कृपा से कोई सत्य को नहीं पा सकता है। किसी के आशीर्वाद सेकिसी से भिक्षा मेंकिसी से दान मेंकिसी से चोरी में सत्य को नहीं पाया जा सकता। सत्य को पाना हो तो स्वयं का श्रम करना होगा। इसलिए महावीर की परंपरा श्रमण परंपरा कहलाई। उसका अर्थ है कि अपनी मेहनतऔर अपनी मेहनत के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है। और जो अपनी मेहनत के सिवाय कोई रास्ता सोचता होउसके मन में चोरी हैउसके मन में भिक्षा है। और सब मिल जाए चोरी सेसत्य नहीं मिल सकता है। जो न चुराया जा सकता हैजो न मांगा जा सकता हैजो न छीना जा सकता हैजिसे तो केवल अपने श्रम से ही उपजाना होता हैऐसे सत्य को पाने की जो परंपरा हैवह श्रमण परंपरा है। और मेरा मानना यह है कि सारी दुनिया में जब भी किन्हीं ने सत्य पाया हैतब वे श्रमण रहे हैंतब उन्हें श्रम करना पड़ा है। मुफ्त में सत्य कभी किसी को उपलब्ध नहीं हुआ।
तो जिस महावीर ने यह कहा हो कि अपने ही श्रम और अपनी ही प्रतिष्ठा और अपने ही आधार पर खड़े होकरअशरणसारी शरण छोड़ कर जो व्यक्ति अपनी साधना में संलग्न होता हैवह सत्य को पाता है। उसका मानने वाला कोई कहता हो कि मेरी बात शास्त्र के विपरीत पड़ जाती हैतो मैंने कहासोचना तुममेरी बात शास्त्र के विपरीत नहीं पड़ती होगीतुम्हारे विपरीत पड़ जाती होगी। और जिस दिन जानोगे भीतरतो पाओगे कि जो मैं कह रहा हूंवह मैंने चाहे शास्त्र देखा हो या न देखा होइससे भेद नहीं पड़ता। अगर सत्य कुछ है तो आपने कोई भी शास्त्र न देखा हो और अपने भीतर प्रविष्ट हो जाएं तो सारे शास्त्र देख लिए हो जाएंगे। और आपकी वाणी और आपका विचार और आपकी अनुभूति की गवाही सारे शास्त्र बन जाएंगे। और जिसने शास्त्र सीखे होंउनको दोहरा कर रट लिया होउनको स्मरण कर लिया होउनके सूत्रों को दोहरा कर समझाना शुरू कर दिया होउसका कोई मूल्य नहीं है। इसलिए मैंने कहाशास्त्र नहींस्वयं--महावीर की प्रतिष्ठा है। स्वयं के प्रवेश को उनका आग्रह है।
और यह आग्रहयह आग्रह इस पूरे मनुष्य के इतिहास में अलौकिक हैअसाधारण है। इससे ज्यादा सम्मान मनुष्य को और किसी ने नहीं दियाजितना महावीर ने दिया है। इससे ज्यादा सम्मान और गरिमा और गौरवऔर किसी ने नहीं दिया मनुष्य कोजितना महावीर ने दिया है। क्योंकि महावीर ने कहापरमात्मा कहीं ऊपर नहीं हैपरमात्मा प्रत्येक के विकास का अंतिम चरण है। परमात्मा प्रत्येक के भीतर है।
क्षुद्रतम मनुष्य को जिसने परमात्मा कहाक्षुद्रतमनिम्नतमपाप में घिरे मनुष्य के जिसने परमात्मा होने की घोषणा की--इससे बड़ा और सम्मान क्या हो सकता हैऔर जिसको कहा कि स्वयं परमात्मा है व्यक्तिउसके ऊपर कोई शास्त्र नहीं हो सकताउसके ऊपर कोई गुरु नहीं हो सकताउसके ऊपर कोई संप्रदाय नहीं हो सकता। ये सारे बंधन हैं। और व्यक्ति इनको छोड़ कर स्वयं में प्रविष्ट हो तो वह अपने परमात्मत्तत्व कोअपनी आत्मा को जानने में समर्थ होता है।
इसलिए मैंने कहाअगर बात शब्दों के विपरीत भी पड़ती होतो पड़ जाने दें।
फिर मैं यह सोचामुझे यह भी बताया गया कि मैं यह कहता हूं कि महावीर ने मूर्तियों का विरोध किया हैमैं यह कहता हूं कि महावीर ने मूर्तियों का विरोध किया हैऔर परंपरा तो मूर्तियों को पूजती है। मैंने कहामुझे मूर्तियों से क्या लेना-देना हैलेकिन इतना मैं कहूंगामहावीर ने मूर्त का विरोध किया है और अमूर्त में प्रवेश का आग्रह किया है।
महावीर का आग्रह क्या हैमहावीर का आग्रह है कि जो दिखाई पड़ता हैवह मूल्यवान नहीं है। जो नहीं दिखाई पड़ता और जो पीछे छिपा हैजो अदृश्य हैजो दृश्य नहीं बनतावह मूल्यवान है। महावीर यह कहते हैंजिसका रूप हैउसका कोई मूल्य नहीं हैजिसका रूप नहीं हैउसका मूल्य है। यह मेरी देह दिखाई पड़ रही हैयह मेरी मूर्ति हैलेकिन यह मैं नहीं हूं। और अगर मेरी इस देह को आकर कोई पत्थर मारेतो उसने मेरी मूर्ति को पत्थर मारेमुझे पत्थर नहीं मारे। और अगर मेरी इस देह को कोई काट दे और टुकड़े-टुकड़े कर देतो उसने मेरी मूर्ति को खंडित कियामुझे खंडित नहीं किया।
जो दिखाई पड़ रहा हैवह मूर्ति है। जो नहीं दिखाई पड़ताजो कभी दिखाई नहीं पड़ सकताक्योंकि जो हमेशा देखने वाला हैजो हमेशा द्रष्टा है और दृश्य नहीं हो सकताउस आत्मा के लिए महावीर का आग्रह है। महावीर का तो पूरा आग्रह अमूर्त के लिए है। लेकिन पागल हम हो सकते हैं कि महावीर की भी मूर्ति बना कर हम पूजें।
महावीर की जो मूर्ति हैवह महावीर के शरीर की मूर्ति होगीमहावीर की मूर्ति कैसे हो जाएगीमहावीर की जो मूर्ति बनाई हैवह उनकी देह की मूर्ति होगीमहावीर की मूर्ति कैसे हो जाएगीमहावीर की कोई मूर्ति बना सकता हैयह असंभव है और यह कभी संभव नहीं हुआ और न कभी होगा। जिसको देखा भी नहीं जा सकता जिस आत्मा कोउसकी मूर्ति क्या बनाई जा सकेगीऔर महावीर का असली शरीर खंड-खंड होकर नष्ट हो गया और मिट्टी में मिल गयातो तुम्हारी मूर्तियों को तुम कब तक सम्हाले रखोगे?
और पागल होअसली मूर्ति जब खंड-खंड होकर मिट्टी हो जाती है तो अगर मैं तुम्हारी मूर्तियों को कहूं कि उन्हें छोड़ दो--जो खंड-खंड हो जाता हैउसका कोई मतलब नहीं है--तो मुझ पर नाराज मत हो जाना। और यह मत समझ लेना कि महावीर के प्रति मेरी दृष्टि अश्रद्धा की है। मैं जानता हूंअश्रद्धा आपकी हैजो महावीर को पत्थर में खोजते हों। मेरी तो श्रद्धा हैक्योंकि मैं उन्हें चिन्मय में खोजता हूंअमृत में और अमूर्त में खोजता हूं।
फिर मैंने कहाठीक ही है। जो मूर्तिपूजक हैंअगर वे यह सोचें कि हम पत्थर मारेंगेतो ठीक ही सोचते हैंउनकी विचार-सरणी गलत नहीं हैपत्थर से ऊपर वे सोच भी नहीं सकते हैं। पत्थर से ऊपर उनकी धारणा नहीं हो सकती। अपने मित्र को मैंने सुबह कहाउनसे कहो कि वे पत्थर मारेंउससे उनका मूर्तिवादी होना जाहिर होगा और मुझे मौका मिलेगा। अगर उनके पत्थर मुझे लगें और फिर भी मेरे हृदय में उनके प्रति प्रेम होतो मैं समझूंगा कि महावीर के प्रति मैंने श्रद्धांजलि जाहिर कर दी। तो मैंने उनसे कहाउन्हें कहो कि वे पत्थर मारें। वे गलती करेंगे अगर पत्थर मुझे नहीं मारेंगेक्योंकि उससे जाहिर होगा कि उनकी श्रद्धा क्या है और मुझे भी मौका मिलेगा कि मैं जाहिर कर सकूं कि मेरी श्रद्धा क्या है। ईश्वर वह मौका दे कि मुझ पर पत्थर गिरें। ईश्वर मुझे मौका दे कि मैं देख सकूं कि मेरे भीतर उन पत्थरों के बीच भी प्रेम उठता है या नहीं। अगर प्रेम नहीं उठातो फिर प्रेम की बात करना बंद कर दूंगा। फिर उसका कोई मतलब नहीं रह जाएगा। तो मैं निमंत्रण देता हूंअगर किसी के भी मन में पत्थर मारने का कोई खयाल आता होतो जरूर उसका उपयोग कर ले।
और मैं यह कहना चाहता हूं कि महावीर की शिक्षा मेंमहावीर की बुनियादी शिक्षा में मुझे दो ही बातें दिखाई पड़ती हैंऔर उनमें प्रेम प्रथम है। जिसको महावीर ने अहिंसा कहा हैवह प्रेम है। जिसको महावीर ने अहिंसा कहा हैवह प्रेम के सिवाय और क्या है?
महावीर की जीवन-साधना को मैं विचार करता हूंतो मुझे दो बात दिखाई पड़ती हैं। एक तो बात मुझे यह दिखाई पड़ती है कि महावीर सत्य को पाने को उत्सुक हैं। सत्य का वे अनुसंधान कर रहे हैं। और दूसरी बात मुझे यह दिखाई पड़ती है कि वे प्रेम का विस्तार कर रहे हैं। सत्य को भीतर खोद रहे हैं और प्रेम को बाहर फैला रहे हैं। सत्य तो भीतर पाया जाता है और प्रेम बाहर फैलाया जाता है। जब अपने अंतिम अणु की आखिरी इकाई में कोई व्यक्ति प्रविष्ट हो जाता हैतो वह सत्य को उपलब्ध होता है। और जब इस विराट जगत के अंतिम प्राणी तक कोई व्यक्ति अपने प्रेम को पहुंचा देता हैतो वह सत्य को उपलब्ध होता है।
सत्य का विकास दोतरफा है: अपने भीतर प्रविष्ट हों तो आंतरिक गहराई में ज्ञान उपलब्ध होगा और समस्त के भीतर प्रविष्ट हो जाएंतो आंतरिक गहराई में प्रेम या अहिंसा उपलब्ध होगी। जैसे कोई वृक्ष बढ़ता हैतो नीचे उसकी जड़ें गहरी जाती हैं और ऊपर उसका पौधा बढ़ता चला जाता है। जिस व्यक्ति की सत्य में जितनी गहराई बढ़ेगीउसके जीवन के बाहर के पौधे में प्रेम उतना ही बढ़ता चला जाएगा।
प्रेम परीक्षा और कसौटी है।
इसलिए महावीर ने कहाअहिंसा परम धर्म है।
महावीर ने कहाअहिंसा ज्ञान की कसौटी और परख है।
अगर ज्ञान के बाद अहिंसा न आ जाएतो वह ज्ञान झूठा होगावह मिथ्या होगा।
हम ज्ञान को तो नहीं जान सकतेहम तो प्रेम को जान सकते हैं। महावीर के ज्ञान को आपने देखा हैमहावीर के ज्ञान को कैसे देखिएगामहावीर को जो सत्य उपलब्ध हुआ हैवह कैसे दिखाई पड़ेगाक्राइस्ट को जो सत्य उपलब्ध हुआ हैकिसी ने देखावे तो हमारे अनुमान हैं कि उनको सत्य उपलब्ध हुआ। हमने देखा है उनका प्रेमहमने पहचाना है उनका प्रेम। और वह अनंत प्रेम ने हमें यह गवाही दी है कि भीतर सत्य उपलब्ध हुआ होगा। अगर भीतर सत्य उपलब्ध न हो तो इतना अनंत प्रेम कैसे हो सकता है?
प्रेम परीक्षा और प्रमाण है। उसे महावीर ने अहिंसा कहा है।
अहिंसा का मतलब इतना नहीं है कि दूसरे को दुख मत पहुंचाओ। जबरदस्ती दूसरे को कोई दुख पहुंचाने से रुक जाएतो वह अपने को दुख पहुंचाना शुरू कर देता है। दुख पहुंचाने की इतनी इच्छा रहती है कि अगर दूसरे को दुख पहुंचाने से जबरदस्ती रुक जाएंतो आप अपने को दुख पहुंचाना शुरू कर देंगे। ऐसे फकीर और साधु हुए हैंजो अपने शरीर को इसलिए सता रहे हैं कि सताने का जो मजा वे दूसरों पर ले सकते थेवह मजा उन्होंने बंद कर दिया है। वे अपने शरीर को सता रहे हैं। ऐसे फकीर हुए हैं कि जो अपने पेट मेंअपनी कमर में कांटों के पट्टे पहने रहेंगेताकि कांटे उनकी कमर में घुसते रहें और घाव बना रहे। ऐसे फकीर हुए हैंजो जूतों में उलटी खीलियां लगा लेंगेताकि पैरों में घाव बने रहें और उन घावों में से हमेशा रक्त बहता रहे। ऐसे फकीर हुए हैंजो अपनी जननेंद्रियां काट लेंगेअपनी आंखें फोड़ लेंगे।
इन पागलों को कोई साधु कहेगाये वे लोग हैंजिन्होंने हिंसा की वृत्ति को बाहर जबरदस्ती रोक लिया है। लेकिन वेग रुकते नहीं हैंअगर बाहर जाने से रोक देंगेवे खुद पर पलट जाते हैं। जो आदमी जबरदस्ती बाहर हिंसा रोकेगावह आत्म-हिंसा में लग जाता है। वह अपने पर हिंसा करना शुरू कर देता है।
महावीर आत्म-हिंसा को नहीं कह रहे। इसलिए महावीर हिंसा त्याग को नहीं कह रहे हैं। महावीर से किसी ने पूछाअहिंसा क्या हैतो महावीर ने कहाआत्मा अहिंसा है।
बड़ा ही अदभुत उत्तर दिया। और इससे गहरा कोई उत्तर जमीन पर आज तक नहीं दिया गया है। बड़ा अजीबअसंगत मालूम होता है। हम पूछते हैंअहिंसा क्या हैमहावीर कहते हैंआत्मा अहिंसा है! मतलब क्या है?
मतलब यह है कि जो आदमी अपनी आत्मा में प्रतिष्ठित हो जाएगावह आदमी अहिंसा को उपलब्ध हो जाएगा। और जो आदमी अपनी आत्मा में प्रतिष्ठित नहीं हैवह केवल हिंसा निरोध कर सकता हैअहिंसा को नहीं पा सकता है। हिंसा छोड़ देनी एक बात हैअहिंसा पा लेनी बिलकुल दूसरी बात है। अहिंसा बहुत पाजिटिव हैबहुत विधायक है। और विधायक हैइसलिए मैंने कहा प्रेम है।
तो महावीर की साधना दो शब्दों में बंटी है: सत्य और अहिंसा।
सत्य को पाना होतो महावीर कहते हैंसब छोड़ कर अपने भीतर प्रविष्ट हो जाओ। महावीर कहते हैंजो भी मूर्त हैउसे छोड़ दो। आंख से जो दिखाई पड़ता हैआंख में इतने गहरे प्रविष्ट हो जाओ कि वहां कुछ दिखाई न पड़े। कान से सुनाई पड़ता हैकान में इतने गहरे प्रविष्ट हो जाओ कि वहां कुछ सुनाई न पड़े। पांचों इंद्रियों से जो घटित होता हैउसमें इतने गहरे प्रविष्ट हो जाओ कि वहां किसी इंद्रिय का कोई प्रभाव न पहुंचता हो। उस अवस्था मेंजहां इंद्रियों का कोई प्रभाव नहीं पहुंचताअतीन्द्रिय चेतना में प्रवेश शुरू होता है। जहां सब मूर्त प्रभाव क्षीण हो जाते हैंजहां कोई मूर्त खबर नहीं पहुंचतीजहां जगत का कोई समाचार नहीं पहुंचतावहां व्यक्ति अपने से संबंधित और अपने में प्रतिष्ठित होता है। वहां वह स्वयं को जानता है। स्वयं को जानना है तो समस्त पर से विमुक्तसमस्त पर से दूर हट जाओभीतर प्रविष्ट हो जाओ। उस एकांत तनहाई में अपने को जाना जा सकता है।
मैंने एक साधु के संबंध में पढ़ा। एक साधु एक पहाड़ के किनारे खड़ा था। उसके कुछ मित्र उससे मिलने गए। उन्होंने रास्ते में सोचायह साधु उस पहाड़ पर खड़ा-खड़ा क्या करता होगाएक व्यक्ति ने कहाकभी-कभी उसके कुछ मित्र साथ आते हैंवे शायद पीछे छूट गए होंवह उन्हें देख रहा होगाउनकी प्रतीक्षा करता होगा। दूसरे मित्रों ने कहाहमें विश्वास नहीं आता कि वह किसी की प्रतीक्षा कर रहा है। उसे देख कर प्रतीक्षा का बोध नहीं होता। किसी ने कहाकभी-कभी उसकी गाय खो जाती है। वह अपनी गाय को शायद पहाड़ी पर खड़ा होकर खोजता हो। तीसरे मित्र ने कहाऐसा भी मालूम नहीं पड़ता। तीसरे ने कहाऐसा प्रतीत होता हैशायद वह प्रभु का चिंतन और ध्यान कर रहा है। वे निर्णय नहीं कर सके। उन्होंने कहाहम चलें और पूछ लें।
वे गए और उन्होंने उस साधु को पूछा। उससे पूछाआपका कोई मित्र आया हैजो पीछे छूट गया हैऔर आप प्रतीक्षा करते हैंउस साधु ने कहानहीं। उन्होंने पूछाआपकी गाय खो गई है क्याआप पहाड़ी में देख रहे हैंउस साधु ने कहानहीं। उन्होंने पूछाक्या आप प्रभु का चिंतन कर रहे हैंप्रभु की प्रार्थना कर रहे हैंउस साधु ने कहानहीं। वे बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहाफिर आप क्या कर रहे हैंउस साधु ने कहामैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं। सब करना छोड़ कर खड़ा हुआ हूं।
महावीर ने इस अवस्था को सामायिक कहा हैइसको ध्यान कहा है। जब मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं और सब छोड़ कर चुपचाप रह गया हूं। उस मौन की अवस्था में--जब मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूंमेरी इंद्रियों के सारे व्यापार शून्य हो गए हैंजब मेरी सारी इंद्रियों की चहल-पहल बंद हो गई हैजब मेरे चित्त की सारी दौड़ निरुद्ध हो गई है--उस घड़ी मेंउस क्षण में मुझे स्वयं का दर्शन होता है। सत्य को जानना हो तो चित्त-निरोध के माध्यम से स्वयं में प्रविष्ट होना होता है। और जो व्यक्ति स्वयं में प्रविष्ट हो जाता हैउसे अदभुत अनुभव होता है।
उसे अनुभव होता है पहला: उसे दिखाई पड़ता हैजो मेरे भीतर हैवह सबके भीतर है। और जैसे ही उसे यह दिखाई पड़ता हैजो मेरे भीतर हैवह सबके भीतर हैउसका जीवन प्रेम से आपूरित हो जाता हैउसके जीवन में अहिंसा आ जाती है। जैसे ही उसे दिखाई पड़ता है कि जो मेरे भीतर हैउसे यह भी दिखाई पड़ता हैवह जो भीतर हैउसकी कोई मृत्यु नहीं है। उसका सारा भय विलीन हो जाता है। भय के साथ परिग्रह चला जाता है। क्योंकि परिग्रह वे करते हैंजो भयभीत हैं। परिग्रह मूल बीमारी नहीं हैमूल बीमारी भय है। जो जितना भयभीत हैउतना परिग्रह करता है। कंजूस के ऊपर दया करोवह भयभीत हैइसलिए परिग्रह कर रहा है। जो जितना अभय होता हैउतनी ही सुरक्षा का विचार छोड़ देता है। जो जितना अभय होता हैउतना परिग्रह छोड़ देता है।
मोहम्मद जिस रात मरने को थे...। उनका रोज का नियम थासांझ को--लोग जो उन्हें भेंट कर जाते--सांझ को खाने के बाद जो बचतावे बांट देते। एक भी चावल का दाना घर में न रखते। जिस रात वह मरने को थेबीमार थेऔर वैद्यों ने कहामर जाएंगेउनकी पत्नी को डर हुआ। उसने पांच दीनारपांच रुपए बचा कर रख लिए कि शायद रातअसमय में बीमारी बढ़ जाए और वैद्य को बुलाना पड़े।
मोहम्मद आधी रात को बोले कि मुझे ऐसा लगता हैमेरे घर में कोई परिग्रह किया गया है। उसकी पत्नी ने कहातुम्हें यह कैसे पता चलामैंने पांच रुपए रोके हैंलेकिन तुम्हें यह पता कैसे चलामोहम्मद ने कहातू इतनी भयभीत मालूम हो रही है कि मुझे शक हुआ। इतना भयभीत आदमी अपरिग्रही नहीं हो सकता।
सोचते हैं आप! मोहम्मद ने कहातू इतनी भयभीत है मेरे मरने से कि मैं यह समझ भी नहीं सकता कि तूने रुपए न बचाए होंगे। रुपए बांट देताकि मैं निश्चिंत मर सकूंऔर यह नाम मेरे पीछे न रहे कि मोहम्मद के मरते वक्त पांच रुपए पास में थे।
वे रुपए बांट दिए गए और मोहम्मद ने चादर ओढ़ ली और लोगों ने देखाउनकी श्वास विलीन हो गई। मोहम्मद ने यह कहा कि तू इतनी भयभीत हैइसलिए मैं जान रहा हूं कि तूने जरूर कुछ रोका होगा।
यह मैंने इसलिए कहा कि जिसके भीतर भय हैवह परिग्रही होगा। इसलिए मैं आपसे परिग्रह छोड़ने को क्या कहूं! परिग्रह छोड़ने के लिए पागल कहते होंगे। मैं आपसे भय छोड़ने को कहता हूं। भय जड़ है। परिग्रह कोई जड़ नहीं है। और भय तब छूटेगाजब आपको दिखाई पड़े कि मेरे भीतर जो हैउसकी कोई मृत्यु नहीं है। क्योंकि मृत्यु एकमात्र भय हैऔर सब भय का मूल आधार है।
जो व्यक्ति स्वयं में प्रविष्ट होता हैवह देखता है कि मैं अमृत हूंऔर तलवारें मुझे छेद नहीं सकतींऔर अग्नि मुझे जला नहीं सकतीऔर पवन मुझे उड़ा नहीं सकता। कोई रास्ता नहीं है कि मुझे खंड-खंड और टुकड़े-टुकड़े किया जा सके। मैं अखंड और अमृत हूं। ऐसा जो बोध हैउसका परिणाम अपरिग्रह होता है।
और जब कोई अपने भीतर प्रविष्ट होता है तो उसे दिखाई पड़ता हैयह आत्मा न तो स्त्री हैन पुरुष है। इस आत्मा का न तो कोई काम हैन कोई राग है। तब उसके जीवन से अब्रह्मचर्य गिर जाता है और ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है। मैं आपको यह कह रहा हूं कि जो सत्य को जानता हैअनिवार्यतया सत्य के अनुभव के बाद उसके जीवन में अहिंसाअपरिग्रहअचौर्यब्रह्मचर्य के फूल लग जाते हैं। जो सत्य के बीज बोता हैवह अहिंसाअपरिग्रह और ब्रह्मचर्य की फसल काटता है।
तो अगर अहिंसा पानी होप्रेम पाना होअपरिग्रह पाना होतो अपरिग्रह साधने में मत लग जानाअहिंसा साधने में मत लग जाना। वैसी साधी हुई और कल्टीवेटेड अहिंसा झूठी होती है। वह अभिनय हैवह एक्टिंग हैवह असलियत नहीं है। इसलिए ऊपर से अहिंसा मालूम होगी और भीतर हिंसा बनी रहेगी।
कल मुझे किसी ने कहा कि कोई साधु हैंजो मेरा विरोध करते हैं। मेरी एक प्यारी बहन मेरे साथ थी। उसने कहा कि फिर वे साधु नहीं होंगे। क्योंकि साधु को किसी से क्या विरोध हो सकता है! और जिसको विरोध हो सकता है किसी सेवह साधु कैसे हो सकेगा! तो साधुता ऊपर होगीविरोध भीतर है। असाधुता भीतर होगी। हम ऊपर कपड़े ओढ़ ले सकते हैंउसमें क्या दिक्कत हैऔर इस जमीन पर सारे लोग कपड़े ओढ़े हुए हैं और उनके असली नंगे आदमियों का हमें पता नहीं चल रहा है।
तो मैं आपको यह कहूं कि अहिंसा ऊपर से मत थोपनाकागज के फूल ऊपर से मत चिपका लेना। अगर सच में चाहते हैं कि अहिंसा के फूल विकसित होंतो समाधि को साधनासत्य को साधनास्वयं में प्रविष्ट होना।
महावीर की मूल शिक्षा स्वयं-प्रवेश की है।
महावीर की मूल शिक्षा आत्म-बोध और आत्म-ज्ञान की है।
और जो अपने को जानता हैवह सब पा लेता है। सारे गुण उसमें बहे चले आते हैं। सारी श्रेष्ठताएंसारी नैतिकताएं उसके पीछे छाया की तरह लग जाती हैं। जो स्वयं को जानता हैउसके जीवन में क्रांति अनायास हो जाती है। स्वयं को जानना एकमात्र चर्या में परिवर्तनएकमात्र आचरण की क्रांति का मूल आधार है।
ऐसे मैं सत्य को महावीर की मूल आधारमूल साधना अनुभव करता हूं।
और इस सत्य को जो पाना चाहे स्वयं में प्रविष्ट होकरउसे कुछ बातें छोड़ देनी होंगी। पहली बात उसे यह छोड़ देनी होगी कि सत्य के संबंध में उसने जो धारणाएं बना ली होंजो बिलीव्स बना लिए होंजो विश्वास बना लिए होंवे छोड़ देने होंगे। अज्ञान में सत्य के संबंध में जो भी धारणा होगीवह असत्य होगी। सत्य को जिसे जानना हैउसे सारे विश्वाससारी आस्थाएं छोड़ देनी होंगी और हिम्मत से शून्य में कूदना होगा। क्योंकि अगर हम सत्य के संबंध में पहले से धारणाएं बना लेंतो हम सत्य को कभी नहीं जान सकेंगे।
हम सत्य को तभी जान सकेंगेजब हम सत्य के पास धारणा-शून्य होकर पहुंचेंखाली और रिक्त होकर पहुंचेंहमारे मन में कोई विचार न हो। हमारे मन में कोई धारणाकोई कांसेप्ट न होकोई सिद्धांत न होकोई डॉक्ट्रिन न होकोई डॉग्माकोई संप्रदायकोई धर्म न हो। जब खाली और शून्य कोई अपनी आंखों को उठाता हैजब कोई मौन होकर अपनी आंखों को सत्य की तरफ उठाता हैतो उसे दर्शन होते हैं उसकेजो है। और जब तक कोई सोचता-विचारता हैतब तक उसके दर्शन नहीं होतेजो है।
अगर प्रकाश को जानना है तो आंख खोलोप्रकाश को सोचो मत। और अगर सत्य को जानना हैतो स्वयं में भीतर प्रविष्ट हो जाओसत्य के संबंध में विचार और धारणाएं मत बनाओ। धारणाएं और विचार बनाने वाले पंडित हो सकते हैंप्रज्ञा को उपलब्ध नहीं होते।
महावीर कहते हैंसब छोड़ दो और निराधार हो जाओ।
कल-परसों मैं एक कहानी कहता था। महावीर का शिष्य था गौतम। और महावीर के निर्वाण होने के समय तक गौतम को केवल-ज्ञान उपलब्ध नहीं हुआ था। महावीर ने उससे कहा कि तूने सब छोड़ दिया है। तू मुझको भी छोड़ दे। तो तुझे केवल-ज्ञान उपलब्ध हो जाएगा।
लेकिन महावीर जैसे प्यारे आदमी को छोड़ना क्या आसान है! संसार छोड़ देना बहुत आसान है। इन अदभुत पुरुषों के चरण छोड़ने कैसे आसान है! लेकिन अदभुत हैंअलौकिक हैं वे लोग जो अपने चरण छोड़ने को भी कहे हैं।
महावीर ने कहातू मुझे छोड़ दे। एक ही बाधा रह गई है कि तू मुझमें अटका है। यह अटकन भी छोड़ दे और मुक्त हो जा! सारी अटकन छोड़ देनिराधार हो जा!
जो निराधार हो जाता हैवह स्वयं के आधार को पा लेता है। जो बाहर किसी भी आधार को पकड़े हैवह अपने को कैसे पा सकेगाजब तक बाहर दृष्टि हैभीतर कैसे पहुंचेंगेमहावीर भी बाहर हैंतीर्थंकर भी बाहर हैंभगवान भी बाहर हैं। सबसे अशरण हो जाओ।
महावीर का निर्वाण हो गया। जब महावीर की मृत्यु हुईमोक्ष हुआतो गौतम गांव के बाहर गया था। रास्ते में लौटते राहगीरों ने कहामहावीर ने देह छोड़ दी। गौतम रोने लगा। उसने कहामेरा अब क्या होगाउन भगवान के रहते मैं सत्य को न जान सकाअब मेरा क्या होगाअब तो मैं निराधार हो गयाअब तो मेरा दीप बुझ गयाअब तो मेरा मार्गदर्शक खो गया। अब मेरा कौन है?
उन राहगीरों ने कहाउन परम कृपालु भगवान ने अंतिम समय में तुम्हारे लिए एक सूत्र-वचन छोड़ा है। गौतम ने कहाक्या कहा हैमुझे शीघ्र कहो! और वह वचन अदभुत था। और उस वचन को हृदय में रख लें। सारे धर्मों के लोग उस वचन को हृदय में रख लें। बहुमूल्य है वचन। महावीर ने कहागौतमतू सारी नदी को पार कर गयाअब किनारे को पकड़ कर क्यों रुक गया है! किनारे को भी छोड़ दे।
महावीर ने कहागौतमतू सारी नदी पार कर गयाअब किनारे को पकड़ कर क्यों रुक गया है! किनारा भी छोड़ दे। और इस वचन को सुनते ही गौतम को ज्ञान उत्पन्न हो गया। एक ही संध्या बाद गौतम को केवल-ज्ञान उत्पन्न हो गया! उसने सत्य को जाना।
जिसे सत्य को जानना है उसे संपत्ति ही नहीं छोड़नी पड़तीजिसे सत्य को जानना है उसे चित्त से सारा कचरा छोड़ देना होता है और शून्य हो जाना होता है। जो शून्य होगावह पूर्ण को पाने का हकदार हो जाता है। और जो सब छोड़ देगावह सब पाने का अधिकारी बन जाता है। यही संन्यास है।
संन्यास का अर्थ बाहर कपड़े-लत्ते छोड़ देने से नहीं है। संन्यास का अर्थभीतर जो कपड़े-लत्ते और फर्नीचर इकट्ठा हो गया है दिमाग मेंउसको छोड़ देने से है। भीतर जो कचरा-कबाड़ इकट्ठा हो गया हैउसे छोड़ देने से है। और स्मरण रखेंउस कचरे में कई चीजें सोने की भी हैंलोहे की भी हैं। लोहा छोड़ देने में उतनी दिक्कत नहीं होती। असली सवाल सोने को छोड़ देने का है। भीतर चित्त से शुभ और अशुभ के जो विचार छोड़ देगावह शुद्ध आत्मा को उपलब्ध होता है। अशुभ के विचार छोड़ना आसान हैशुभ के विचार छोड़ना कठिन है। लेकिन जो शुभ-अशुभ दोनों को छोड़ देता हैजो पाप-पुण्य दोनों चिंतनाओं को छोड़ देता हैजो धर्म-अधर्म दोनों चिंतनाओं को छोड़ कर शून्य में प्रविष्ट होता हैवह सत्य को उपलब्ध हो जाता है। तब वही केवल शेष रह जाता हैजो है। वही केवल शेष रह जाता हैजिसकी सत्ता है। वही केवल शेष रह जाता है, जो सत्य है। उसे जान कर अपूर्व आनंद कोअपूर्व मुक्ति को व्यक्ति अनुभव करता है। उसके पहले हम मुर्दे हैं। उसके पहले कोई अपने को जीवित न समझे। उस सत्य को जानने के पहले हम मुर्दे हैं।
इसलिए मैं कहता हूं कि मुर्दे हैं। मैं अपना स्मरण करता हूं। मैं जिस दिन पैदा हुआउस दिन से मैं जान रहा हूं कि मैं रोज मर रहा हूंमैं रोज मरता जा रहा हूं। एक दिन यह मरण की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी। इसको मैं जीवन कैसे कहूंयह तो ग्रेजुअल डेथ है! यह तो क्रमिक मृत्यु है! यह तो आहिस्ता-आहिस्ता मरते जाना है! इसे मैं जीवन कैसे कहूंजीवन क्या कभी मर सकता हैजो जीवन हैवह कभी नहीं मरता। जो जीवन हैवह अमृत होगा। जो मर जाता हैवह जीवन नहीं है। अभी हम मुर्दे हैं। लेकिन हमारे भीतर अमृत बैठा हुआ है। और अगर हम मुर्दे की खोल के भीतर प्रविष्ट हो जाएंतो हम अमृत को अनुभव कर सकेंगे और सच्चे जीवन को उपलब्ध कर सकेंगे।
महावीर की ये शिक्षाएं किसी एक धर्म के लिए नहीं हैं। महावीर का यह मार्ग किसी एक व्यक्ति के लिएकिसी एक संप्रदाय के लिएकिसी घेरे के लिए नहीं है। इतने बड़े विराट पुरुष जिनका प्रेम अनंत तक पहुंचता होकिसी के लिए नहीं होतेसबके लिए होते हैं। ईश्वर करे कि जैन जो समझते हैं कि महावीर हमारे हैंमहावीर का पिंड और पीछा छोड़ देंताकि वे सबके हो जाएं।
अभी दस वर्षों बाद महावीर की पच्चीस सौवीं वर्षगांठ होगी। पच्चीस सौ वर्ष उस दिव्य जीवन को हुए पूरे होंगे। और तब मैं चाहता हूं कि सारी दुनिया अनुभव करे कि उनकी मूल शिक्षा क्या है। और सारी दुनिया अनुभव करे महावीर मेंकि उसमें क्राइस्ट भी मौजूद हैं उनमें और कृष्ण भी मौजूद हैं और बुद्ध भी मौजूद हैं। उनकी ज्योति को सारी दुनिया अनुभव कर सके। दस वर्षों बाद सारी दुनिया को यह बोध हो सके कि महावीर सबकी संपत्ति हैं। यह बोध तभी होगाजब उन पर संपत्ति होने का अधिकार उनके पीछे जो खड़े हैंवे छोड़ दें। वे कहें कि महावीर उसके हैं जो उनका प्यासा होगा। और सच है यहपानी उसका है जो प्यासा है। और कुआं उसका है जो उसमें पानी पीता है। वे नासमझ जो कुएं के बाहर बैठे हों और कुएं की बातें करते होंकुआं उनका नहीं है।
महावीर सबके होंसबके हो सकेंउनकी शिक्षा सबके काम आ सकेऔर यह मनुष्य जो विकृत हो गया हैयह मनुष्य जो अस्वस्थ और विक्षिप्त और बीमार हो गया हैइस मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए वे आधार बन सकेंऐसी कामना करता हूं। अंत में सबके भीतर बैठे हुए महावीर के लिए मैं अपने प्रणाम दूंगा और एक बात आपसे कहूंगा।
अगर आपका प्रेम यह कहता हो कि महावीर की यह शिक्षा और उनके प्रेम और ज्ञान की शिक्षा दूर-दूर तक व्याप्त हो जाएऔर ये समुद्र की लहरें उसे दूर किनारों तक ले जाएंऔर ये हवाएं उसे अनंत तक पहुंचा देंतो महावीर का एक छोटा सा वचन हैवह हम सारे लोग अपने हाथों को ऊपर उठा कर कहेंगेताकि वह वचन गूंजे और उसकी लहरें और तरंगें दूर तक पहुंच जाएं। और वह वचन उपयोगी है। सारी दुनिया से उसमें अमृत बरस सकता है। महावीर ने कहा है--महावीर ने कहा है: मित्ति मे सव्व भुए सू--मेरी सारे प्राणियों से मैत्री है। वैरं मज्झ न केवई--और मेरा किसी से कोई विरोध नहीं।
यह सत्ययह विचारउनके जीवन-आधारउनकी साधना का मूल अनुभव है। मैं चाहूंगाहम तीन बार हाथ ऊपर उठा कर इसे दोहराएंगे अपनी पूरी शक्ति सेताकि यह समुद्रताकि ये हवाएंताकि यह आकाश गूंजे उससे और यह विचार करोड़ों-करोड़ों लोगों को प्रभावित करेउनको परिवर्तित करे। हम अपने दोनों हाथ ऊपर उठाएं। सारे लोग उठाएंकोई आदमी इतनी कंजूसी न करे कि थोड़ी देर को दो हाथ न उठा सके और मैं तीन बार दोहराऊंगाहम अपनी पूरी शक्ति से उस वचन को दोहराएंगे। मैं कहूंगा पहलेफिर आप उसे दोहराएंगे।
"मित्ति मे सव्व भुए सू!'
सबकी आवाजें: "मित्ति मे सव्व भुए सू!'
एक साथ और जोर से।
"मित्ति मे सव्व भुए सू!'
सबकी आवाजें: "मित्ति मे सव्व भुए सू!'
"वैरं मज्झ न केवई!'
सबकी आवाजें: "वैरं मज्झ न केवई!'
"मित्ति मे सव्व भुए सू!'
सबकी आवाजें: "मित्ति मे सव्व भुए सू!'
"वैरं मज्झ न केवई!'
सबकी आवाजें: "वैरं मज्झ न केवई!'
"मित्ति मे सव्व भुए सू!'
सबकी आवाजें: "मित्ति मे सव्व भुए सू!'
"वैरं मज्झ न केवई!'
सबकी आवाजें: "वैरं मज्झ न केवई!'





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