मंगलवार, 14 अगस्त 2018

क्या ईश्वर मर गया है?-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन--(ज्ञान की पहली किरण)

आज की चर्चा मैं एक छोटी-सी घटना से प्रारंभ करूंगा। एक सराय में मुझे ठहरना था। सराय में बहुत-से लोग ठहरे थे, जगह भी न थी। फिर भी मुझे एक कमरा मिल गया। आधी रात गए, वहां मैं आ गया।
हमेशा ही सभी सरायों  में ऐसे मेहमान आ जाते हैं। इसलिए कोई जगह नहीं होती, लेकिन फिर जगह बनानी पड़ती है। मैं जिस कमरे में था, उस कमरे में ही नए मेहमान को, लाकर ठहरा दिया गया था। कमरा छोटा था और मेहमान ज्यादा हो गए। लेकिन देख कर मैं हैरान हो गया। आधी रात हो गई थी, वह थका हुआ मेहमान, अपनी पगड़ी भी उसने अलग नहीं की, अपने जूते भी नहीं खोले और बिस्तर पर लेट गया, फिर वह करवटें बदलने लगा। फिर भी उसे नींद आने की संभावना मुझे नहीं दिखाई पड़ी तो मैंने उससे पूछा--मित्र! क्या उचित नहीं होगा कि तुम अपने कपड़े उतार दो पगड़ी और जूते अलग कर दो, ताकि आराम से सो सको?

वह बोला--सोचता तो मैं भी था कि कपड़े अलग कर दूं, लेकिन एक खतरा है। खतरा यह है कि मैं स्वभाव से बहुत भुलक्कड़ हूं। कपड़ों के कारण मुझे याद रहती है कि मैं, मैं ही हूं। कपड़े मैंने अलग कर दिए तो सुबह कैसे तय करूंगा कि मैं कौन हूं और आप कौन हैं? मेरी मुश्किल बिलकुल ही सच्ची थी। अगर आप सब के कपड़े अलग कर दिए जाएं तो कौन किसको पहचान सकेगा? हम सभी लोग तो एक-दूसरे को कपड़ों से पहचानते हैं। और इसीलिए तो कपड़े और कपड़े इकट्ठे किए जाने की अपनी दौड़ है।
मैंने कहा कि बात तुम बिलकुल ही ठीक कहते हो। और मुझे एक घटना याद आ गई। एक बहुत बड़े महाकवि को, एक बादशाह ने अपने घर भोजन पर निमंत्रित किया। वह गरीब था कवि। उसके मित्रों ने कहा--इन कपड़ों को पहन कर मत जाओ, क्योंकि बादशाह से मिलना मुश्किल है। दरवाजे पर द्वारपाल ही तुम्हें वापस लौटा देंगे। ये कपड़े इस योग्य नहीं कि तुम्हें कोई पहचाने। लेकिन कवि अपनी कविताओं में भूला था और वह गया और जो होना था हुआ। द्वारपाल ने वापस लौटा दिया। उसने बहुत कहा कि मैं कौन हूं, मुझे जाने दो। लेकिन उन्होंने कहा--छोड़ो भी। ऐसे पागल यहां रोज आकर परेशान करते हैं। भाग जाओ।
वह लौट गया। उसके मित्रों ने कहा--मैंने पहले कहा था। दूसरे दिन उधार कपड़े पहन कर वह गया। द्वारपाल, जिसने कल उसे हटा दिया था, उसने उसके पैर छुए और कहा--महाराज भीतर आयें आप। कहां से पधारे हैं? बादशाह ने उसे अपने भोजन-गृह में ले जाकर पूछा--कल मैं प्रतीक्षा करता रहा, आप आये नहीं? वह कुछ बोला नहीं, मुस्कराता रहा।
भोजन की थाली लगा दी गई। उसने भोजन उठाया और अपने कपड़ों को कहा कि मेरे कोट इसे खा लो, मेरी पगड़ी इसे खा लो। वह राजा बोला--आपका मस्तिष्क तो ठीक है? कविता करते-करते पागल तो नहीं हो गए, जैसा कि अक्सर हो जाता है? कविता करते-करते लोग पागल हो जाते हैं। या पागल कविता करने लगते हैं। वही तो नहीं हो गए? उसने कहा--नहीं, मैं तो कल भी आया था, लेकिन ये कपड़े मेरे साथ नहीं थे। मैं बाहर से ही वापस लौटा दिया गया। जिन कपड़ों के कारण मैं भीतर आया हूं, उन्हें सम्मान पहले न दें तो यह अशिष्टता होगी। तो मैंने उस मेहमान को यह कहा, बात तो तुम ठीक कहते हो।
दुनिया में सभी कपड़ों से पहचाने जाते हैं, दुनिया में तरहत्तरह के कपड़े हैं। और उन्हीं से हम एक-दूसरे को पहचानते हैं। और यह भी तुम ठीक कहते हो कि दूसरे तुम्हें कपड़ों से पहचानते हैं। हम खुद भी तो अपने ही को, अपने कपड़ों से पहचानते हैं। अगर हम बिलकुल नग्न खड़े हो जाएं तो खुद को भी पहचानना गलत हो जाएगा कि मैं कौन हूं, क्योंकि हम अपने को भी दूसरों की मार्फत पहचानते हैं। कोई सीधा अपने को नहीं पहचानता है। हम उसी भांति अपने को पहचानते हैं जिस तरह दूसरे लोग अपने को पहचानते हैं। दूसरे लोगों की नजर से ही हम अपने को देखते हैं। सीधे अपनी नजर से कौन अपने को देखता है? इसलिए, अगर कपड़े न होंगे तो दूसरे तुम्हें न पहचान पाएंगे। तो यह भी तुम ठीक कहते हो कि तुम अपने को न पहचान पाओगे।
तो उसने कहा इसी मुसीबत में मुझे नींद नहीं आ रही है। कमरे में अकेला होता तो मैं कपड़े अलग करके सो जाता। मैं अभी कपड़े अलग कर दूंगा तो सुबह कैसे तय होगा कि मैं कौन हूं और आप कौन हैं? मैंने कहा--मित्र! एक तरकीब है। हमसे पहले उस कमरे में जो ठहरे रहे, उनमें से कोई एक छोटा बच्चा अपना गुब्बारा खेलते हुए छोड़ गया है और एक छोटी गुड़िया छोड़ गया है। तो मैंने उससे कहा कि ऐसा करो कि गुब्बारे को मैं तुम्हारे पैर में बांध देता हूं और इस गुड़िया को तुम्हारे पास रखे देता हूं, ताकि पहचान रहे, आइडेंटिटी रहे कि तुम तुम्हीं हो। तो सुबह उठकर तुम अपने कपड़े पहन लेना। मैंने पूछा--तुम्हारा नाम क्या है? उसने कहा--मेरा नाम? मेरा नाम मुल्ला नसरुद्दीन है। तो उसने कपड़े उतार दिए। मैंने उसके पैर में गुब्बारा बांध दिया और उसके पास गुड़िया रख दी। वह निश्चिन्त होकर सो गया।
और जब उसकी घरघराहट की आवाज आने लगी तो मेरे मन में एक खयाल उठा। और मैं उठा मैंने उसका गुब्बारा निकाल कर अपने पैर में बांध लिया और उसकी गुड़िया उठाकर अपने बिस्तर पर रख ली। और जैसा होना था, वही हुआ।
कोई चार बजे वह चिल्लाया और कहा--देखिये जी! गड़बड़ होने वाली थी तो मालूम होता है कि हो गई। वह उठा और मुझे हिलाया और कहा कि मुसीबत हो गई है, उठिए। मैंने कहा--क्या हुआ? उसने कहा--मुसीबत यह हो गई कि गुब्बारा आपके पैर में बंधा है और गुड़िया आपके बिस्तर पर है। तो अगर आप मुल्ला नसरुद्दीन हैं तो मैं कौन हूं?
जैसे आप हंसे, वैसे मैं भी हंसा। लेकिन उस हंसी के लिए आज तक रोना पड़ रहा है, क्योंकि मैं हंसा तो वह दरवाजा खोलकर बाहर निकल गया और चिल्लाने लगा कि मैं कौन हूं? और मेरी समझ में आना मुश्किल हो गया। मैं उसके पीछे-पीछे गया, लेकिन थोड़ी देर हो गई, क्योंकि मैं भी बिस्तर पर था और उठ कर मैंने कपड़े पहने और तब तक वह आदमी दूर निकल गया। बाहर आया तो एक झाड़ के नीचे से आवाज आ रही थी। कोई पूछ रहा था, मैं कौन हूं? तो मैं वहां गया और जो आदमी पूछ रहा था कि मैं कौन हूं, उससे मैंने पूछा--क्या तुम मुल्ला नसरुद्दीन हो? लेकिन उसे पता नहीं कि मैं कौन हूं।
तो मैं मुल्ला नसरुद्दीन के कपड़े साथ में लिए घूम रहा था। वह कहीं मिल जाए तो उसके कपड़े दे दूं। लेकिन आज तक उस आदमी का कहीं पता नहीं चल रहा है। और जिस आदमी को भी गौर से देखता हूं तो वही आदमी पूछता हुआ मालूम पड़ता है कि मैं कौन हूं। किसी को भी वह पता नहीं है। यह उस आदमी पर हम हंसे और मैं भी हंसा था। लेकिन मुझे पता चला कि वह आदमी तो सब मनुष्यों का प्रतिनिधि था, क्योंकि किसी भी आदमी को पता नहीं है कि वह कौन है? इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि आपको पता है कि आपका नाम क्या है और आपका घर कहां है। ये सब बिस्तर की बाबत बातचीत है। ये सब कपड़ों की है। आपका नाम बदला जा सकता है, पर आप नहीं बदलेंगे। और आपके कपड़े बदले जा सकते हैं, मकान भी बदला जा सकता है और आप नहीं बदलेंगे। आपका पद छीना जा सकता है। आपकी धन-दौलत छीनी जा सकती है और आप सड़क के भिखारी हो सकते हैं, फिर भी आप नहीं बदलेंगे। आप बच्चे, जवान हो गए, बूढ़े हो गए, सब बदल गया, फिर भी आप नहीं बदले।
वह कौन है भीतर, जो बिना बदले हुए मौजूद है। उसकी कोई पहचान है? उसका कोई स्मरण, उसकी कोई रिमेम्बरिंग है? नहीं, उसकी कोई भी पहचान नहीं है। मनुष्य को यह भी पता नहीं कि वह क्या है? और ऐसा मनुष्य खोज करता है परमात्मा की, परमात्मा कैसे मिलेगा? ऐसा मनुष्य खोज करता है सत्य की, सत्य कैसे मिलेगा?
परमात्मा को जानने के पहले, स्वयं को जानना जरूरी है। और सत्य को जानने के पहले, स्वयं को पहचानना जरूरी है, क्योंकि जो मेरे निकटतम हैं, अगर वही अपरिचित हैं तो जो दूरतम है, वह कैसे परिचित हो सकेगा? तो इसके पहले कि किसी मंदिर में परमात्मा को खोजने जाएं, इसके पहले कि किसी सत्य की तलाश में शास्त्रों  में भटकें, उस व्यक्ति का मत भूल जाना जो कि आप हैं। पहले और सबसे पहले और सबसे प्रथम, उससे परिचित होना होगा जो कि आप हैं।
लेकिन कोई स्वयं से परिचित होने को उत्सुक नहीं। सभी लोग दूसरों से परिचित होना चाहते हैं। दूसरे से जो परिचय है, वही विज्ञान है और स्वयं से जो परिचय है, वही धर्म है। तो दूसरे से जो परिचय है वही साइंस है, खुद से जो परिचय है, वही रिलीजन है। जो स्वयं को जान लेता है, बड़े आश्चर्य की बात है, वह दूसरे को भी जान लेता है। और जो दूसरे जानने में समय व्यतीत करता है और भी बड़े आश्चर्य की बात है, वह दूसरे को तो जान ही नहीं पाता, धीरे-धीरे स्वयं को जानने के द्वार भी उसके बंद हो जाते हैं।
ज्ञान की पहली किरण स्वयं से प्रकट होती है और धीरे-धीरे सर्व पर फैल जाती है। ज्ञान की पहली ज्योति स्वयं में जलती है और फिर समस्त जीवन में उसका प्रकाश, उसका आलोक दिखाई पड़ने लगता है।
मैंने पहले दिन कहा कि ईश्वर मर गया है। ईश्वर इसलिए मर गया है कि कोई स्वयं को जान ले। जो भी स्वयं को जान लेता है, उसके लिए ईश्वर पुनरुज्जीवित हो जाता है। और जो स्वयं को जान लेता है, उसके लिए ईश्वर पुनरुज्जीवित हो जाता है। और जो स्वयं को नहीं जानता है, उसके लिए ईश्वर मृत है। चाहे वह कितनी ही पूजा करे और कितनी ही अर्चनाएं करे और मंदिर बनाए, मूर्तियां बनाए और कुछ भी करे। एक काम अगर उसने छोड़ रखा है, स्वयं को जानने का तो जान लें ठीक से कि परमात्मा से उसका कोई संबंध कभी नहीं हो सकेगा।
परमात्मा से संबंध की पहली बुनियादी आधारभूत शर्त है, स्वयं से संबंधित हो जाना। कैसे कोई स्वयं से संबंधित हो सकता है, उसकी ही आज बात करूंगा, क्योंकि वही सूत्र है, वही सेतु है, वही मार्ग है, वही द्वार है, परमात्मा से संबंधित होने का। और तब जो परमात्मा प्रगट होता है, वह मनुष्य द्वारा निर्मित परमात्मा की कल्पना नहीं है, बल्कि वही है, जो है। तब वह हिंदू का परमात्मा नहीं है और मुस्लिम का परमात्मा नहीं है,जैन का और ईसाई का नहीं है, तब वह बस, परमात्मा है। उसका कोई रूप नहीं, नाम नहीं, उसका आदि नहीं, अंत नहीं। फिर उसकी कोई सीमा नहीं है।
वैसा जो सत्य है, जो हमें सब तरफ घेरे हुए है, कैसे दिखाई पड़ेगा? और यदि हम स्वयं को जानें, उसे देखने की दौड़ में पड़ गए तो वह दौड़ शुरू से ही भ्रांत है। और हम जो भी जान लेंगे उस भांति वह हमारे अज्ञान को और गहन करेगा और महान बनाएगा।
एक अंधा आदमी अपने एक मित्र के घर मेहमान था। मित्र ने उसके स्वागत में बहुत-बहुत मिष्ठान्न बनाए। उस अंधे को कुछ पसंद आए। उसने पूछा यह क्या है? दूध से बनी कोई मिठाई थी। उसके मित्र ने कहा--दूध से बनी मिठाई। उस अंधे आदमी ने कहा--क्या तुम कृपा करोगे और दूध के संबंध में मुझे कुछ समझाओगे? मुझे कुछ बताओगे कि यह दूध कैसा होता है? तो मित्र ने वही किया जो तथाकथित ज्ञानी हमेशा से करते रहते हैं। वे उसको समझाने लग गए। एक मित्र ने कहा--दूध होता है शुद्ध सफेद। बगुले की पंखों की भांति, वह अंधा आदमी बोला--मजाक करते हैं मुझसे आप? मैं तो दूध ही नहीं समझ पा रहा। यह बगुला और उसके पंख! एक और कठिनाई हो गई। क्या मुझे बतायेंगे कि यह बगुला और उसके पंख! एक और कठिनाई हो गई। क्या मुझे बतायेंगे कि यह बगुला और उसके सफेद पंख कैसे होते हैं? मैं पहले बगुले को समझूं तो दूध को समझ पाऊंगा!
पहली समस्या तो वहीं रह गई, यह दूसरा प्रश्न खड़ा हो गया कि ये बगुले के सफेद पंख कैसे होते हैं, ये बगुला कैसा होता है। मित्र अचरज में पड़ गए।
एक मित्र ने तरकीब निकाली। उसने अपना हाथ उठाया। अंधे का हाथ पकड़ा और अपने हाथ पर रखकर कहा कि हाथ फिराओ और कहा कि जिस तरह मेरा हाथ थोड़ा मुड़ा हुआ है, उसी तरह बगुले की गर्दन मुड़ी हुई होती है। उस अंधे आदमी ने मुड़े हुए हाथों पर हाथ फेरा। वह उठकर नाचने लगा और बोला कि मैं समझ गया। मुड़े हुए हाथ की भांति दूध होता है। समझ गया कि दूध मुड़े हुए हाथ की भांति होता है। वे मित्र बहुत परेशान हो गए। इससे तो बेहतर था कि वे अंधे आदमी को न समझाते, क्योंकि यह जानना ही अच्छा था कि नहीं जानते हैं। यह जानना तो और खतरनाक हो गया कि दूध मुड़े हाथ की भांति होता है।
जिन्होंने स्वयं की आंखें खोलकर नहीं देखा, उनके हाथों में शास्त्रों की यही गति हो जाती है, सिद्धांतों की यही गति हो जाती है। परमात्मा कैसा होता है? वह मुड़े हाथ की भांति जैसे दूध होता है, ऐसे परमात्माओं की समझ में पकड़ जाता है। वैसे गलत परमात्मा की मृत्यु हो गई है। इसी पर मैं आपसे बात कर रहा हूं। और अच्छा हुआ है। और उसकी मृत्यु से भी एक नयी सूचना आपको देता हूं। उसकी मृत्यु इसलिए हुई है कि हमारी आंखें बंद हैं। हम अंधे हैं। इसलिए परमात्मा को मरना पड़ा है। हमारे अंधेपन ने उसकी हत्या कर दी! क्या हम आंखें खोलने को राजी हैं? जिनको प्रेम है जीवन से, सत्य से, वे आंखें खोलने को राजी हों तो सारे जगत में परमात्मा का आलोक प्रकाशित हो सकता है। वे आंखें कैसे खुलेंगी, स्वयं के द्वार जो बंद हैं। उन्हें कैसे खोलेंगे, उनके कुछ सूत्र आज की संध्या मैं आपसे कहूंगा।
पहला सूत्र है, जैसा मैंने कहा, ज्ञान नहीं बल्कि अज्ञान। एक्सैप्टेड नाट नोइंग। एक ऐसे चित्त की दशा, जहां हम स्पष्ट रूप से जानते हैं कि मैं कुछ भी नहीं जान रहा हूं, मुझे कुछ भी पता नहीं है। ऐसे अबोध अज्ञान की स्पष्ट स्वीकृति पहला सूत्र है तो ज्ञान को छोड़ना पड़ेगा। मनुष्य के मन पर ज्ञान बहुत बोझिल है। पत्थरों और पहाड़ों की भांति, उसकी छाती पर ज्ञान सवार है। हम सब कुछ जानते हुए मालूम होते हैं। जबकि हम कुछ भी नहीं जानते हैं।पति अपनी पत्नी को भी नहीं जानता है। पिता अपने पुत्र को भी नहीं जानता है। इतना रहस्यपूर्ण है यह शब्द। आपके द्वार पर जो पत्थर पड़ा है, उसे भी आप नहीं जानते हैं। आपके आंगन में जो फूल खिलते हैं, उनको भी नहीं जानते! कुछ भी तो हम नहीं जानते हैं। जीवन में इतना अननोन इतना मिस्टीरियस इतना रहस्य भरा हुआ है। लेकिन हमारा अहंकार कहता है कि हम कुछ जानते हैं। पिता का अहंकार कहता है कि तुम मेरे लड़के हो। मैं तुम्हें भली-भांति जानता हूं।
बुद्ध बारह वर्ष के बाद अपने गांव वापस लौटे तो सारा गांव उन्हें लेने गया। पिता भी लेने गए, लेकिन पिता तो बारह वर्ष पहले के क्रोध से भरे हुए थे कि लड़का छोड़ कर भाग गया था।
उन्होंने जाते ही गौतम बुद्ध को कहा--सुनो! मैं तुम्हारा पिता हूं और तुम्हें अभी भी क्षमा कर सकता हूं। वापस लौट आओ अपने घर और क्षमा मांग लो कि तुमने भूल की है।
बुद्ध ने क्या कहा? बुद्ध ने कहा कि आप भूल करते हैं। मुझे आप जानते हैं, यह गलती करते हैं। स्वयं को भी जानते हों, यह भी संदिग्ध है तो मुझे कैसे जान सकेंगे? क्या मैं आपका पुत्र हूं, इससे आप मुझे जान गए? तो भी आप भूल करते हैं। मैं आपके द्वारा पैदा हुआ हूं, लेकिन आप से पैदा नहीं हुआ हूं। आप मेरे लिए रास्ता थे दुनिया में आने के लिए। मेरे बनाने वाले नहीं हैं। आप मार्ग थे, इससे ज्यादा नहीं।
अभी मैं जिस चौरस्ते से होकर आया हूं, वह लौटते वक्त खड़ा होकर कहे कि ठहरो! मैं तुम्हें भली-भांति जानता हूं, क्योंकि थोड़ी देर पहले तुम मेरे पास से गुजरे थे। ऐसे ही एक पिता अपने बच्चे से कहता है कि मैं तुम्हें भली-भांति जानता हूं। ऐसी वह गलती कर रहा है। एक चौरस्ता था पिता, जिससे बच्चा गुजरा और दुनिया में आया।
लेकिन जानना और इस जानने के भ्रम में जो मिस्ट्री थी, वह जो रहस्य था जीवन का, उससे वह अपरिचित रह गया। हम सभी चीजों को जानते हुए मालूम पड़ते हैं। यह जानने का भ्रम छूटना चाहिए तो ही जीवन में रहस्य का जन्म होता है। तो ही अननोन और अज्ञात के प्रति आंखें खुलनी शुरू होती हैं। ज्ञात के तट से जो मुक्त नहीं होता है, अज्ञात सागर की यात्रा उसके लिए नहीं है। और परमात्मा तो बिलकुल अज्ञात है। और हम स्वयं बिलकुल अज्ञात हैं और हमारे भीतर क्या है, हम नहीं जानते तो जो हम जानते हैं, उसी को अगर हम पकड़े रहें तो इस अज्ञात में यात्रा नहीं हो सकेगी।
एक छोटी-सी घटना कहूं, उससे शायद मेरी बात समझ में आ जाए। एक रात, एक गांव में ऐसा हुआ जैसा कि हर रात प्रायः सभी गांवों में होता है कि कुछ जवान लड़के एक शराब-गृह में गए और शराब पीकर बेहोश हो गए। जैसा कि हर रात हर गांव में होता है, उस गांव में भी हुआ। लड़के बेहोश हो गए शराब पीकर। बाहर निकले मधुशाला से तो आकाश में चांद था। पूर्णिमा की रात थी। उन्होंने कहा कि बहुत अच्छी रात है। चलो, झील पर चलें।
वे झील पर गए। एक नाव में सवार हुए। पतवारें उठायी और उन्होंने यात्रा शुरू कर दी। रात बीत गई। वे रात भर पतवार चलाते रहे। नाव को खेते रहे, खेते रहे। और सुबह जब ठंडी हवाएं आने लगीं तो उनका नशा कुछ उतरा। तब उनमें से किसी ने कहा, न मालूम कितनी दूर निकल आए,? न मालूम किस दिशा में? अब तो सुबह भी होने के करीब आ गई है। पता लगाओ कि हम कहां आ गए हैं। वापस लौट कर चलें। गांव के लोग जाग चुके होंगे।
उनमें से दो लोग किनारे से नीचे उतरे और हैरानी से चिल्ला उठे और कहा--घबराओ मत, नीचे उतर आओ? हम वहीं खड़े हैं, जहां रात खड़े थे। वे नीचे उतर कर बहुत हैरान हुए। जंजीर रात को खोलना भूल गए थे। नाव वहीं बंधी थी। वे पतवार चलाते रहे, चलाते रहे। रातभर का श्रम व्यर्थ गया। श्रम तो बहुत किया, यात्रा तो बहुत की, लेकिन जहां थे वहीं रहे। कहीं गए नहीं।
अधिकतर लोग, जब मौत की ठंडी हवाएं आती हैं और जीवन का नशा उखड़ता है तो पाते हैं कि किनारे पर ही नाव बंधी है। जहां से यात्रा शुरू होती थी, वहीं खड़े हैं। क्योंकि किनारे से जंजीर छोड़ना भूल गए।
यह जो हमारे ज्ञान का कारण है, यह जो हम जानते हैं, उसी से हम बंधे हैं। किसी ने एक शास्त्र पढ़ लिया। गीता या कुरान या बाइबिल या कुछ और। किसी ने कुछ और सुन लिया, किसी ने कुछ और अनुभव कर लिया, वह उससे ही बंधा है।
जो ज्ञान से बंधता है, वह अतीत से बंध जाता है, क्योंकि ज्ञान हमेशा बीते हुए का हो गया है। वह "पास्ट' है, बीत गया है। जो आप ने जान लिया, वह अतीत हो गया है। जो जान लिया, वह गया। वह मुर्दा हो गया, वह मर गया। उस मरे हुए के साथ जो बंधा रहता है, उसकी भविष्य में यात्रा कैसे हो सकेगी? वह आगे कैसे जाएगा? ज्ञान तो हमेशा बीता हुआ है। जो भी आपने जान लिया, वह गया।
और परमात्मा है अनजाना, अननोन। तो इस जाने हुए से अगर हम बंध गए तो उस अनजाने को कैसे जान सकेंगे? इसलिए अज्ञान की गठरी जो उतार देता है, वही उस अज्ञात के सागर में यात्रा कर पाता है, जो कि परमात्मा का है, जो ईश्वर का है।
पहला सूत्र है--ज्ञान से मुक्त हो जाना।
लेकिन हम सब तो ज्ञान की तलाश में हैं। हम सब तो इस खोज में हैं कि ज्ञान कहां मिल जाए। भगवान न करे कि आपको कहीं ज्ञान मिल जाए। ज्ञान मिला कि आप वहीं बंद हो जाएंगे, वहीं ठहर जाएंगे, रुक जाएंगे। तो जो ज्ञानी हो जाते हैं, वहीं ठहर जाते हैं और मुर्दा हो जाते हैं। पंडित से ज्यादा मरा हुआ कोई आदमी कभी देखा है? इतना डैड? नहीं, मुश्किल है, बिलकुल मुश्किल है, एकदम कठिन है। दुनिया में जितना पांडित्य बढ़ता है, उतना मुर्दापन बढ़ता है।
क्यों? क्योंकि वे अपने जानने से, अपने ज्ञान से बंध जाते हैं। वह बंधन, उनके चित्त को फिर उड़ान नहीं लेने देता है। अनंत सागर की, आकाश की, परमात्मा की उड़ान में जाने में वे असमर्थ हो जाते हैं। उनके पैर जमीन से बंध जाते हैं। ज्ञान से मुक्त होने का साहस, ज्ञान से मुक्त होने का साहस ही किसी व्यक्ति को धार्मिक बनाता है। फिर ज्ञान से मुक्त होने का साहस?
पहला सूत्र है--ज्ञान के तट पर अपनी जंजीरें तोड़ दीजिए। बड़ी घबराहट लगेगी। धन छोड़ देना बहुत आसान है, लेकिन ज्ञान छोड़ना बहुत कठिन है। इसलिए जो लोग धन छोड़कर भाग जाते हैं, वे लोग ज्ञान नहीं छोड़ते, धन छोड़कर भाग जाते हैं। लेकिन उसी धन से जो किताबें खरीदते हैं, उनका बस्ता बांध कर साथ ले जाते हैं। वे ज्ञान नहीं छोड़ते। एक आदमी संन्यासी हो जाता है, घर छोड़ देता है, परिवार छोड़ देता है, पत्नी और बच्चों को छोड़ देता है। लेकिन हिंदू होने को नहीं छोड़ता है, मुसलमान होने को नहीं छोड़ता है, जैन होने को नहीं छोड़ता है। कैसी अदभुत और आश्चर्य की बात है कि अब तक जमीन पर "साधु' पैदा नहीं होते! हिंदू साधु होता है, मुसलमान साधु होता है, ईसाई साधु होता है। यह क्या पागलपन की बात है। साधु होना चाहिए जमीन पर।
हिंदू, ईसाई और मुसलमान, ये नाम साधु के पीछे कैसे लगे हैं? असाधु के साथ ये बीमारियां लगी रहें, समझ में आता है। साधु के साथ इन बीमारियों को देखकर बहुत हैरानी होती है, बहुत आश्चर्य होता है। लेकिन ज्ञान जो पकड़ लिए गए हैं, हिंदू का, मुसलमान का, जैन का, वे छूटते नहीं, उसे छोड़ना क्यों नहीं चाहते?
वह भी एक आंतरिक संपदा है, इसलिए वह भी एक धन है। रुपया बाहर की संपत्ति है, ज्ञान भीतर की संपत्ति है। बाहर की संपत्ति छोड़ना बहुत कठिन नहीं है। भीतर की संपत्ति जो छोड़ता है, वही केवल परमात्मा से संबद्ध होता है। क्राइस्ट ने कहा है कि "ब्लैस्ड आर द पुअर'। धन्य हैं वे जो दरिद्र हैं। किनके पास? उनके पास, जिनके पास लंगोटी नहीं है। अगर वे ही धन्य हैं तो क्राइस्टस ने बहुत गलत बात कही है। तो उसका मतलब यह हुआ कि वह गरीबी, दीनता और दरिद्रता के समर्थन में नहीं है।
क्राइस्ट ने कहा है कि "पुअर इन स्प्रिट।' जो आत्मा से दरिद्र हैं। क्या मतलब? आत्मा से दरिद्र का मतलब वे, जिन्होंने ज्ञान की संपदा को फेंक दिया और जिन्होंने कहा कि हमारे पास भीतर कोई संपदा नहीं है। जानने वाली। हम कुछ भी नहीं जानते, हम बिलकुल अज्ञान में हैं। अपने को बांध नहीं रखा है। धन्य हैं वे लोग, जो दरिद्र हैं आत्मा में।
आत्मा की दरिद्रता का मतलब? आत्मा की दरिद्रता का मतलब है, जिन्होंने ज्ञान की संपत्ति को छोड़ दिया है वे ही लोग? केवल वे ही थोड़े से लोग सत्य को, परमात्मा को जान सकते हैं।
तो क्या तैयारी है इस बात की कि आप ज्ञान को छोड़ दें? धन को छोड़ने की तैयारी करने वाले लोग गलत साबित हुए हैं। धन छोड़ने का कोई सवाल नहीं है बड़ा। धन बाहर है। अगर उसे छोड़ दीजिए आप तो जो उपलब्धि होगी वह भीतर की होगी। और स्मरण रखिए, दुनिया में केवल दो ही सिक्के है--धन के और ज्ञान के। और दो ही तरह के लोग हैं धन को इकट्ठा करने वाले लोग और ज्ञान को इकट्ठा करने वाले लोग।
एक बादशाह समुद्र के किनारे अपने महल में निवास करता था। एक सांझ वह खड़ा हुआ था छत पर। सैंकड़ों जहाज आते थे और जाते थे समुद्र में। उसने अपने वजीर को कहा--देखते हो सैंकड़ों जहाज आ रहे हैं और जा रहे हैं। उसके वजीर ने कहा--पहले मुझे भी सैंकड़ों दिखाई पड़ते थे। कुछ दिन से मुझे केवल दो जहाज दिखाई पड़ रहे हैं। उस राजा ने कहा--दिमाग खराब हो गया है? दो जहाज दिखाई पड़ते हैं? सैंकड़ों आ रहे हैं, जा रहे हैं। उसके वजीर ने कहा। हो सकता है कि मुझे गलत दिखाई पड़ता हो, लेकिन फिर भी मुझे दो ही जहाज दिखाई पड़ते हैं। एक तो धन का जहाज है और एक ज्ञान का जहाज है। और इन दो जहाजों की सारी यात्रा है। या तो कोई धन खोजने जा रहा है या कोई ज्ञान खोजने।
धन से भी अहंकार तृप्त होता है। धन है मेरे पास। धन की खोज से तृप्ति होती है। मैं कुछ हूं, समबडी, कोई हूं। आइडेंटिटी मिल जाती है। कपड़ा मिल जाता है धन से। भूल जाते हैं हम कि मैं अपने को नहीं जानता। धन है मेरे पास, मैं कुछ हूं। जरा किसी धनी को धक्का दें तो कहेगा, जानते नहीं कि मैं कौन हूं? लेकिन अगर उसका धन छिन जाएगा तो फिर वह यह नहीं कहेगा कि जानते नहीं कि मैं कौन हूं? धन था तो वह कुछ था।
एक आदमी मंत्री है तो वह कुछ है। वह मंत्री न रह जाए, जैसा कि रोज होता है, कोई मंत्री है तो "नहीं,' रह जाता है, भूतपूर्व मंत्री रह जाता है। मर गया। वह मंत्री अब नहीं रह गया। जैसे कपड़े की क्रीज निकल जाए, वैसा आदमी हो जाता है। बिलकुल ढीला-ढाला। उसको धक्का दो, वह बिलकुल नहीं कहता कि मैं कौन हूं। बल्कि वह कहेगा कि कहीं आपको चोट तो नहीं लग गई। लेकिन कल वह अगर मंत्री था और आप पास से निकल जाते धक्का देकर, आपकी छाया का भी धक्का लग जाता है तो कहता कि ठहरो, जानते नहीं कि मैं कौन हूं?
तो धन, पद, अनुभव यह भाव देता है कि मैं कौन हूं। इस "मैं कुछ हूं' के भ्रम में वह यह खयाल ही भूल जाता है कि मैं यह नहीं जानता कि मैं कौन हूं। "कुछ' के भ्रम में "मैं कौन हूं,' इस बात का स्मरण नहीं रह जाता।
एक और खोज है ज्ञान की। ज्ञानी को भी दंभ पैदा हो जाता है कि मैं कुछ हूं। और ज्ञानी धनी से कहीं ज्यादा दंभी होता है, क्योंकि वह यह कहता है कि यह धन तो बाहर की संपत्ति है। यह तो भौतिकवादी मैटिरियलिस्ट है! हम, हम तो अध्यात्मवादी हैं, हम तो ज्ञान के खोजी हैं। धन, यह तो क्षुद्रवाद है। लेकिन इस ज्ञान को भी क्या हो रहा है? ज्ञान से भी अहंकार मजबूत हो रहा है कि "मैं कुछ हूं'। ज्ञानियों की आंखों में देखिए, उनके आस-पास ढूंढिए और खोजिए, वहां शांति नहीं मिलेगी, मिलेगा अहंकार। नहीं तो ज्ञानी शास्रार्थ करते घूमते? और एक-दूसरे को हराते और पराजित करते?
जहां किसी को हराने का भाव आता है, वहां सिवाय अहंकार के और क्या होगा? क्या ज्ञानी शास्त्र लिखते, दूसरे शास्त्रों के खंडन, निंदा, गाली-गलौज में? अगर इन ज्ञानियों के शास्त्र देखें तो बहुत हैरान हो जाएंगे। जितनी गाली-गलौज की जा सकती है वह सब वहां मौजूद है। जितना भी मनुष्य के मन में, दूसरे मनुष्य के प्रति हिंसा, घृणा और क्रोध हो सकता है, वह सब वहां मौजूद है। यह क्या है? इन ज्ञानियों ने खुद भी लड़ा और दुनिया को भी लड़ाया और ऐसी दीवाल खड़ी कर दी जिसको तोड़ना मुश्किल हुआ जा रहा है। ये दीवालें सब अहंकार की दीवालें हैं और ये ज्ञानी अगर धन को छोड़ भी दें तो छोड़ने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। अहंकार फिर भी तृप्त होता है।
एक साधु ने मुझसे कहा--मैंने लाखों रुपये पर लात मार दी। एक बार कहा, दो बार कहा, तीन बार कहा। तो मैंने उनसे पूछा कि लात कब मारी थी? वह बोले--कोई बीस-पच्चीस वर्ष हुए। मैंने उनसे कहा--अगर बुरा न मानें तो मैं यह कहना चाहूंगा कि ये लात ठीक से लग नहीं पाई। उन्होंने कहा--क्यों? मैंने पूछा--बीस-पच्चीस वर्ष पहले जो लात मारी, उसकी अब तक याद क्यों है? उसकी स्मृति क्यों हैं? वह लग नहीं पाई होगी लात। बार-बार क्यों स्मरण करते हैं कि मैंने लाखों रुपये छोड़ दिये। लाखों रुपये आपके पास रहे, तब यह अहंकार, यह "ईगो' नहीं होगी कि मेरे पास लाखों रुपये हैं। जब छोड़ दी, तब अहंकार आ गया कि मैंने लाखों रुपये छोड़ दिये हैं।
अहंकार अपनी जगह है। आपके छोड़ने से कोई फर्क नहीं पड़ा। अहंकार होता है। धर्म का अहंकार होता है। त्यागी का अहंकार होता है। और त्यागी का अहंकार धर्म के अहंकार से ज्यादा खतरनाक होता है, क्योंकि वह ज्यादा सूक्ष्म है और दिखाई नहीं पड़ता। ज्ञानी का अहंकार होता है कि मैं जानता हूं। यह जो जानने का भाव है, यह सूक्ष्मतम भीतरी दीवालें हैं। यह नहीं जुड़ने देगी समग्र से, सर्व से। यह तोड़ देगी। अहंकार तोड़ने वाली इकाई है। वह आपको तोड़ता है सबसे। आप अकेले रह जाते हैं एक आइने की तरह, एक छोटे से दीप की तरह। आप सबसे टूट जाते हैं। अहंकार तोड़ता है, इसलिए अहंकार परमात्मा की तरफ ले जाने वाला नहीं होता है। अहंकार किसी भी भांति अपने को भर सकता है। स्वार्थ से, सेवा से, ज्ञान से, धन से। न मालूम कितने और किन रूपों से भर सकता है। अहंकार जहां हैं, "मैं कुछ हूं' यह भाव जहां है, वहां सर्व के साथ सामंजस्य नहीं हो सकेगा, क्योंकि मैं कुछ हूं यही स्वर, सारे संगीत को वितरित कर देगा। क्या नहीं हो सकता कि यह "मैं' चला जाए? यह हो सकता है, यह हुआ है। जमीन पर आगे भी यह होता रहेगा। यह आपके भीतर भी घटित हो सकता है।
पहला सुख है ज्ञान को जानना। उसे जाने बिना पिघल जाना, बह जाना। उसके बहने में डर है कि अगर मेरा ज्ञान ही गया तो फिर में "न कुछ' हो गया। फिर तो मैं नामहीन हो गया। फिर तो "न कुछ', फिर "नोबडी' हो गया, अगर मेरा ज्ञान गया तो। जिन्हें परमात्मा को खोजना है, वे स्मरण रखें कि उन्हें" न कुछ' होना पड़ेगा। प्रेम के द्वार पर "कुछ' होकर जाता है, उसे खाली हाथ वापस लौटना पड़ता है। प्रेम के द्वार पर जो "न कुछ' होकर जाता है, उसे हमेशा द्वार खुले मिलते हैं और स्वागत मिलता है।
रूमी ने एकक गीत गया है। गाया है कि प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पर द्वार गया, द्वार खटखटाया। किसी ने पूछा, कौन हो? प्रेमी ने कहा, मैं हूं तेरा प्रेमी! तुरंत सन्नाटा हो गया। उसने बहुत बार द्वार भड़भड़ाए और कहा--बोलती क्यों नहीं हो? मैं तुम्हारा प्रेमी द्वार पर खड़ा हूं और चिल्ला रहा हूं। आधी रात हो गई, भीतर से किसी ने कहा--लौट जाओ। यह द्वार न खुल सकेगा, क्योंकि प्रेमी के द्वार पर जो आदमी कहता है कि "मैं हूं' प्रेमी के द्वार उसके लिए कैसे खुल सकते हैं? प्रेम के घर में दो के लिए कोई जगह नहीं है, लौट जा!
वह प्रेमी लौट गया। बरसात आई, सर्दी आई, धूप आई, दिन आए और गए, चांद उगे और गिरे और न मालूम कितने वर्ष बीते और फिर एक दिन, एक रात उस दरवाजे पर फिर दस्तक सुनी गई। और फिर उससे किसी ने पूछा कि कौन हो?
बाहर से किसी ने कहा--अब तो मैं नहीं हूं, अब तो तू ही है। और कहते हैं कि द्वार खुल गए। और पीछे पता चला कि द्वार तो खुले ही हुए थे। केवल "मैं' के कारण बंद मालूम पड़ते थे। "मैं' नहीं था तो कोई दीवाल न थी।
"मैं' परमात्मा और मनुष्य के बीच में रुकावट है। "मैं' पर पहली और गहरी और सूक्ष्म चोट जहां कहीं होगी, वहीं "मैं' की सबसे गहरी जड़े हैं। वह जो जानने का भाव, वह जो जानने का खयाल है, उसे तोड़ना होगा। और सचाई तो यह है कि हम जानते कुछ हैं नहीं। तोड़ने में कठिनाई क्या है? जहां जानते हैं, क्या जाना है, कुछ भी तो नहीं? जीवन ऐसे निकल जाता है जैसे पानी पर कोई लकीर खींचता है। जान क्या पाते हैं? कभी सोचा है, क्या जान पाए हैं? कुछ भी नहीं! लेकिन छोड़ने में भय हो सकता है। उस भय को जो पार नहीं करता, वह परमात्मा के रास्ते में यात्री नहीं हो सकता है। उस भय को पार करना ही होगा।
पहला सूत्र है--ज्ञान के अहंकार को चोट देना। उसे बिखेरना, उसे जानना। चोट देते ही एक अदभुत क्रांति भीतर मालूम देगी। जिंदगी बिलकुल और तरह की दिखाई पड़ने लगेगी। जिस पुल के पास से कल गुजरे थे, उसी पुल के पास से गुजरेंगे तो दूसरा दिखाई पड़ेगा, क्योंकि कल आप सोचते थे कि मैं जानता हूं इस पुल को। मैं जिस पुल को आप "कुछ' जानते थे वह पुल "न कुछ' है, लेकिन आज उस पुल के पास से निकलेंगे और ज्ञात, जानते हुए कि नहीं जानते हैं इस पुल को तो शायद एक दिन ठहर जाएं।
उस फूल को देखें। शायद वह रहस्यपूर्ण मालूम देगा। शायद यह न मालूम कितनी दूर का संदेश लाता हुआ मालूम पड़े। तो उस फूल को भी अगर पूरी तरह शांति से देखें तो शायद परमात्मा के किसी सौंदर्य की झलक वहां दिखाई पड़ जाए। लेकिन जानने वाले व्यक्ति को वह नहीं दिखाई पड़ेगा, क्योंकि वह सब जगह से अंधे की भांति निकल जाता है। यह जो ज्ञान का दंभ है, यह आदमी को अंधा कर देता है। यह चीजों को देखने नहीं देता है। और पैर के नीचे जो दूब है, परमात्मा वहां भी है। आस-पास जो लोग हैं, परमात्मा वहां भी है। हवाएं हैं, आकाश है और बादल हैं। और सब कुछ है और जो कुछ है सबमें वही है। लेकिन वह दिखाई तो नहीं पड़ता है, क्योंकि दिखने वाली आंख नहीं है। यह तो ज्ञान रोके हुए है सारे रहस्य के द्वार परदे की तरह, दीवालों की तरह तो पहली चोट ज्ञान पर करनी पड़ेगी। और अगर ज्ञान पर चोट कर पाएं तो एक दूसरा अभिनव क्षितिज खुलता हुआ दिखाई पड़ेगा जो कि प्रेम का है। जो ज्ञान को छोड़ने को राजी होता है, उसके प्रेम के द्वार खुल जाते हैं।
दूसरा सूत्र है--ज्ञान से तोड़ना अपने को और प्रेम से जोड़ना!
यह जानने का भाव छोड़ दें और प्रेम करने के भाव को जान लें। जानने वाला नहीं जान पाता है और प्रेम करने वाला जान लेता है। लेकिन हम तो कुछ ऐसे हजारों-हजारों वर्षों से प्रेम के विरोध में पाले गए हैं जिसका कोई हिसाब नहीं। ज्ञान के पक्ष में और प्रेम के विरोध में पाले गए हैं। मैं आपसे निवेदन करता हूं कि ज्ञान के विरोध में प्रेम से प्रेम के जीवन में, गति करें। प्रेम में चरण रखें। जब प्रेम की दिशा में चित्त प्रवाहित हो जाएगा तो परमात्म से ज्यादा निकट कोई भी नहीं है। और अगर ज्ञान की दिशा में बुद्धि काम करने लगेगी तो परमात्मा से ज्यादा दूर कोई नहीं है।
विज्ञान कभी परमात्मा को नहीं जान पाएगा, क्योंकि विज्ञान की खोज किसी तथाकथित ज्ञान की खोज है। इसलिए विज्ञान जितना बढ़ता जाता है, वह कहता है कि ईश्वर कहीं नहीं हैं। साइंस जितनी बढ़ती जाती है, वह कहती है कि नहीं, कहीं कोई ईश्वर नहीं मिलता। कोई ईश्वर नहीं है, ईश्वर गया। विज्ञान उस तथाकथित ज्ञान की अंतिम चरम परिणति है, लेकिन प्रेम तो कदम-कदम पर परमात्मा को पाता है। प्रेम तो मिल भी नहीं पाता बिना परमात्मा के। लेकिन प्रेम की भाषा को गणितज्ञ कैसे समझेगा? ज्ञानी कैसे समझेगा? प्रेम की भाषा उसकी समझ में बिलकुल भी नहीं है।
एक फकीर था। वह प्रेम के गीत गाता था और प्रेम की बात करता था। अनेक लोग उससे कहते थे, तुम परमात्मा की बातें नहीं करते। वह कहता कि परमात्मा की बातें क्या करें? जो प्रेम को नहीं जानता, उससे परमात्मा की बातें करना नासमझी है। वह कहता था कि हम तो प्रेम की बातें करते हैं।
जो प्रेम को नहीं जानता, उनसे परमात्मा के लिए क्या कहें? जिन्होंने दीया ही नहीं देखा, उनको सूरज की क्या खबर कहें? वह क्या समझें सूरज को? वह मिट्टी के दीये की ही बातें करते हैं, सूरज की बातें नहीं करते। और जिसने दीया देख लिया है, उसने सूरज भी देख लिया है। वह कहता था कि हम परमात्मा की बात नहीं करते।
वह प्रेम की बात करता था। एक दिन एक पंडित पहुंचा और उसने कहा कि तुम प्रेम ही प्रेम रटे जाते हो। यह भी पता है कि प्रेम कितने प्रकार का होता है? पंडित हमेशा यह पूछता है, कितने प्रकार का प्रेम होता है? कितने प्रकार के सत्य होते हैं? कितने प्रकार के ईश्वर होते हैं? वह तो हर जगह यही बात पूछता है। उस पंडित ने भी उस फकीर से पूछा, कितने प्रकार का प्रेम होता है, मालूम है? वह फकीर बोला, हैरान कर दिया तुमने! प्रेम तो हम जानते हैं। प्रकार का तो हमें आज तक कोई पता नहीं चला। यह प्रकार क्या होता है? प्रेम में और प्रकार?
पंडित हंसा। उसने कहा--हंसने की बारी मेरी है! अपनी झोली से उसने किताब निकाली और कहा--यह किताब देखो। इसमें लिखा है कि प्रेम पांच प्रकार का होता है और तुम प्रेम-प्रेम की बकवास कर रहे हो और प्रकार तक का पता नहीं। क्या खाक तुम्हें प्रेम का पता होगा? अभी अ, ब, स भी नहीं आता है प्रेम का तुम्हें और अभी प्रकार का भी मालूम नहीं है। यह तो पहली क्लास है प्रेम की। पहले प्रकार सीखो, प्रेम के संबंध में शास्र पढ़ो, प्रेम के सिद्धांत सीखो, फिर प्रेम की बातें करो। वह फकीर बोला--भूल है भाई! हम तो प्रेम ही करने लगे। यह तो गलती हो गई। प्रकार सीखने के लिए किसी प्रेम के विद्यालय में भर्ती होना था। मैं नहीं हो पाया। यह गलती हो गई। उसने कहा--सुनो! मैं तुम्हें अपना शास्त्र सुनाता हूं। उसने शास्त्र सुनाया। वे भारी व्याख्या की। जैसा कि पंडितों की हमेशा से आदत रही है। वे भारी व्याख्यान करते रहे हैं, बिना इस बात को जाने कि जिसकी वे व्याख्या कर रहे हैं वह कहीं है ही नहीं।
उसने बड़ी बारीक व्याख्या की। बड़े सूक्ष्म तर्क उठाए। जबाब दिए और फकीर शांति से सुनता रहा। पंडित ने सोचा, ठीक है। फकीर प्रभावित है, क्योंकि वह तो एक ही बात जानता है। या तो विवाद करो या फिर शांत रह जाओ। विवाद मत करो। उसने देखा कि फकीर विवाद नहीं करता है तो वह मान रहा है। तब उसने कहा--सुनी पूरी बात? समझ में आयी? कैसा लगा? तुम्हें कैसा लगा मेरी बात सुनकर?
उस फकीर ने कहा--मुझे ऐसा लगा। और एक उसने गीत गाया खड़े होकर। फकीर नाचा और कहा--मुझे ऐसा लगा, जैसे एक दफा, शायद कहीं तुमने सुना हो, जैसे एक दफा एक फूल की बगिया में एक सोने का जौहरी, सोने को कसने के पत्थर को लेकर घुस आया और माली से बोला--देखो, कौन-कौन फूल सच्चे हैं। मैं अभी पता लगाता हूं और अपने सोने के कसने के पत्थर पर फूलों को घिस-घिस कर देखने लगा और सभी फूल कच्चे साबित हुए। सभी फूल झूठे साबित हुए। तो जैसा उस माली को लगा था, वैसा ही मुझे भी लगा, जब तुम प्रेम के प्रकार करने लगे।
प्रेम की भाषा अभेद की भाषा है, ज्ञान की भाषा भेद की भाषा है। ज्ञान तोड़ता है। ज्ञान विश्लेषण करता है, एनेलसिरा करता है। प्रेम जोड़ता है। जोड़ना और तोड़ना। विज्ञान तोड़ता है। तोड़ता ही चला जाता है। आखिर में मिलता है एटम, अणु, आखिरी टुकड़ा। प्रेम-धर्म जोड़ता चला जाता है, जोड़ता चला जाता है। आखिर में मिलता है परमात्मा!
विज्ञान परमाणु पर पहुंचता है, जो कि तोड़ता है। प्रेम परमात्मा पर पहुंचता है, क्योंकि जोड़ता है। जोड़ने से द्वार मिलेगा परमात्मा का, तोड़ने से नहीं। इसलिए पहला सूत्र है--ज्ञान छोड़ना।
दूसरा सूत्र है--प्रेम को फैलने दें और विकसित होने दें। लेकिन कैसे यह प्रेम फैलेगा और विकसित होगा? क्या कोई जबरदस्ती है? क्या जबरदस्ती किसी को जाकर प्रेम करना शुरू कर दीजिएगा? ऐसे लोग भी हैं, जो जबरदस्ती भी प्रेम करते हैं, इस आशा में कि शायद परमात्मा मिल जाए। सेवा करते हैं।
एक स्कूल में एक पादरी ने बच्चों को समझाया कि तुम प्रेम करो सेवा करो। बिना एक सेवा का काम किए सोओ ही मत। दूसरे दिन उसने बच्चों से पूछा कि तुमने कोई सेवा का, प्रेम का कृत्य किया? तीन बच्चों ने हाथ उठाए और कहा कि हमने किया। बड़ा खुश हुआ पादरी। तीस बच्चे थे। कम से कम तीन ने तो बात मानी। एक बच्चे को खड़ा किया और उसने पूछा कि तुमने क्या प्रेम का कृत्य किया? बच्चे ने कहा--मैंने एक बूढ़ी स्री को सड़क पार कराई थी। उस पादरी ने कहा--धन्यवाद। बहुत अच्छा किया। दूसरे लड़के से पूछा--तुमने क्या किया? उसने कहा मैंने भी एक बूढ़ी स्री को सड़क पार कराई थी।
पादरी को थोड़ा-सा खयाल हुआ कि इन दोनों ने एक ही काम किया है। उसने कहा कि तुमने भी अच्छा किया। तीसरे बच्चे को पूछा कि तुमने क्या किया? उसने कहा कि मैंने भी एक बूढ़ी स्री को सड़क पार कराई! पादरी थोड़ा हैरान हुआ। उसने कहा--क्या तुम तीनों ने एक ही सेवा का कृत्य किया? तुमको तीन बूढ़ी स्त्रियां मिल गई, जिनको सड़क पार कराई? उन्होंने कहा--नहीं, आप गलत समझे। तीन नहीं थीं। बूढ़ी तो एक ही थी। हम तीनों ने उसी को पार कराया। उसने पूछा कि क्या तुम तीन जनों की सहायता की जरूरत पड़ी उसके पार कराने में। उन बच्चों ने कहा--वह पार होना नहीं चाहती थी। हमने जबरदस्ती किसी तरह पार किया। वह तो भागती थी। पार होना ही नहीं चाहती थी।
ये जो सेवक सारी दुनिया में सेवा और सर्विस करते हुए मालूम पड़ते हैं, ये उसी तरह के खतरनाक लोग हैं। इनसे ज्यादा मिस्टिीरियस आधुनिक दुनिया में कोई नहीं। ये जबरदस्ती सेवा किए चले जाते हैं। ये उन बूढ़े लोगों को सड़क पार करवा देते हैं, जिनको पार करनी नहीं है।
दुनिया में सेवकों ने जितना उपद्रव किया है, उतना और किसी ने नहीं किया। ये सोचते हैं कि इस भांति हम अपना मोक्ष तय कर रहे हैं। आपको क्या फिक्र है कि आपको सड़क पार करनी है या नहीं करनी है। हम अपने मोक्ष का इंतजाम कर रहे हैं। आपको पार करना है या नहीं करना है। हम आपको पार कराए देते हैं।
इस तरह कोई जबरदस्ती प्रेम और सेवा उत्पन्न नहीं होती है। प्रेम देने में कोई भी बाधा नहीं है। प्रेम आपका प्राण बने, यह अच्छा है। प्रेम आपका प्राण कैसे बनेगा? कैसे यह संभव होगा कि प्रेम आपसे प्रवाहित हो उठे?
एक छोटी-सी बात अगर खयाल में आ जाए तो प्रेम को प्रवाहित होने देने में कोई भी बाधा नहीं है। और वह छोटी-सी बात यह है, यह नहीं कि आपके प्रेम से दूसरे को लाभ होगा, बल्कि वह छोटी-सी बात यह है कि प्रेम के अतिरिक्त आप कभी भी आनंद में प्रतिष्ठित नहीं हो सकेंगे।
प्रेम आनंद को प्रतिष्ठा देता है। प्रेम किसी का कल्याण नहीं है। प्रेम आपका ही आनंद है। कभी आपने कोई ऐसा आनंद जाना है, जो प्रेम से रिक्त और शून्य रहा हो? जब भी आप आनंद में रहे होंगे, तब जरूर किसी प्रेम की दशा में ही आनंद में रहे होंगे। लेकिन प्रेम में खुद को खोना पड़ता है, छोड़ना पड़ता है। खुद को छोड़ने की सामर्थ्य जिसमें है, उसी के भीतर उसके प्राण प्रेम से भर सकते हैं। हम अपने को जरा भी छोड़ने को राजी नहीं है। हम अपने को खोने को राजी नहीं हैं। हम तो अपने को बचाना चाह रहे हैं।
एक राजा का रथ सुबह-सुबह सड़क पर आया, धूल उड़ाते हुए। जैसा सभी राजाओं के रथ धूल उड़ाते हैं। न मालूम कितने लोगों की आंखें उससे अंधी हो जाती हैं। वह राजा का रथ भी धूल उड़ाता हुआ आया। एक भिखारी ब्राह्मण सुबह-सुबह घर से बाहर निकला ही था, अपनी झोली लेकर भिक्षा मांगने। खाली झोली थी। लेकिन वह बिलकुल खाली नहीं थी। झोली में चने के कुछ दाने, चावल के कुछ दाने उसने रख लिए थे।
भिखारी भी बहुत सी बातें जानते हैं। झोली अगर खाली हो तो देने वाला जरा देने में अड़चन पैदा करता है। झोली थोड़ी भरी हो तो देने वाले को ऐसा लगता है कि औरों ने दिया है तो हम भी दे दें। तो सभी भिखारी अपनी झोली में थोड़े-से दाने रखकर बाहर निकलते हैं। और यहां कोई मौजूद हो और न डाल कर निकलते हों तो गलती करते हैं। डाल कर निकलना चाहिए। और यहां बहुत-से मौजूद होंगे, क्योंकि ऐसा आदमी खोजना कठिन नहीं है, जो भिखारी न हो। जो कोई भी कुछ मांग रहा है, वह भिखारी है।
सामने ही सूरज निकलता था। राजा का रथ भी आ गया। भिखारी ने कहा, धन्य हैं मेरे भाग्य! रोज-रोज तो वह राजा के द्वार पर, संतरी से थोड़े भीख के दाने लेकर वापस लौट आता था। राजा का दर्शन भिखारी को कैसे हो? राजा के दर्शन के लिए तो खुद राजा होना चाहिए। वह था भिखारी। आज सौभाग्य था कि राजा मार्ग पर मिल गया और उसने कहा कि आज तो रथ को रोक कर झोली फैला दूंगा और जन्म-जन्म को सफल हो जाऊंगा, कृतार्थ हो जाऊंगा।
रथ आ भी गया। रथ रुक भी गया। राजा नीचे उतर भी आया, लेकिन भिखारी तो आखिर भिखारी ही था। वह इतना घबड़ा गया कि राजा के समक्ष वह भूल ही गया कि झोली फैलाना है। और इसके पहले कि उसे स्मरण आए कि वह झोली फैलाए, राजा ने खुद अपनी झोली उसके सामने फैला दी।
ऐसा मजाक कभी-कभी हो जाता है कि भिखारी के सामने राजा अपनी झोली फैला देता है। भिखारी तो बड़ी मुश्किल में पड़ गया। उस भिखारी की पीड़ा अनुभव कर सकते हैं, सब अनुभव कर सकते हैं, क्योंकि उसने कभी दिया नहीं है। उसने हमेशा पाया है। उसने कभी देने की कल्पना भी नहीं की। उसने हमेशा मांगा है। देना वह जानता नहीं है।
आप जानते हैं देना? देना मुश्किल से ही कभी कोई जानता है। देना कोई नहीं चाहता। पाना सभी चाहते हैं। उसने भी नहीं जाना था। वह भी एक सामान्य जन था बेचारा! उसके हाथ झोली में जाते थे और खाली वापस लौट आते थे। उसकी हिम्मत कभी न हो पाती थी कि मुट्ठी भर दाने उठाऊं और झोली में डाल दूं। मुट्ठी भर दाने देना कठिन है। लेकिन राजा ने कहा--जल्दी करो। मुझे जाना है। जो भी दे सको, दे दो। इंकार करना भी कठिन था। तो उसने मुश्किल से, बहुत मुश्किल से एक चावल का दाना निकाला और राजा की झोली में डाल दिया! हिम्मत तो की। एक दाना भी देने की हिम्मत कौन करता है। राजा आया, बैठा और रथ चला गया।
धूल उड़ती रह गई और वह भिखारी पछताता खड़ा रह गया कि यह तो उलटा हो गया। एक दाना और चला गया। एक दाना कितनी मुश्किल से मिलता है। और वह सारे सपने ही भूल गए, जो मैंने सोचा था कि राजा से मिल जाएगा। वह तो उलटा हो गया। उस दिन भिखारी दिन भर दुखी रहा। हालांकि उसे दिन भर में बहुत-बहुत दाने मिले थे। जितने कि कभी नहीं मिले थे। दिन भर में उसकी झोली पूरी भर गई ।
सांझ आई तो झोली में जगह नहीं थी, लेकिन आज दुखी था। क्योंकि एक दाना उसे देना पड़ा था। एक दाना कम हो गया। उतनी झोली कभी नहीं भरी थी। शायद शुभ मुहूर्त हुआ। शायद शुभ घड़ी हुई थी, शायद देने के कारण उसके भाग्य, सौभाग्य में परिवर्तित हो गए थे, एक दाना देने के कारण उसे बहुत मिला था, लेकिन वह दुखी था, पछताता था। घर अया तो उदास था।
उसकी पत्नी ने पूछा--इतने दुखी, इतने उदास क्यों हैं? उसने कहा--आज सुबह ही कुछ देना पड़ा है। एक दाना कम लेकर घर लौटा। उसने झोली उलटाई, अभी तक उदास था। झोली उलटाकर रोने लगा। उस भरी झोली में एक चावल का दाना सोने का हो गया था और अब वह छाती पीट-पीट कर रोने लगा कि यह तो बड़ी भूल हो गई। मैंने सारी झोली क्यों न राजा के पास में उलट दी? तो आज सब सोना हो गया होता। लेकिन अब मैं क्या करूं? अब क्या द्वार है, अब क्या मार्ग है?
जो दिया जाता है वह सोने का हो जाता है। देने वाला हृदय प्रेम करने वाला हृदय है। मांगने वाला हृदय प्रेम करने वाला हृदय नहीं है। इसलिए मंदिर में जाकर जो परमात्मा से मांगता है कि मुझे यह दो, वह दो, वह प्रार्थना नहीं करता है, वह तो मांग रहा है। धन्य है वह, जो मंदिर में जाकर दे देता है अपने को।
फरीद एक फकीर था अकबर के समय में। उसके गांव के लोगों ने कहा कि अकबर तुम्हें बहुत प्रेम करता है। जाओ, अकबर से कुछ गांव की सहायता करवाओ और गांव में एक स्कूल खुलवा दो। फरीद गया। सुबह-सुबह जल्दी-जल्दी गया, अकबर नमाज पढ़ रहा था। फरीद पीछे जाकर खड़ा हो गया। उसने सोचा कि नमाज पूरी हो जाए तो मैं कहूं, मौका भी अच्छा है। शायद उस समय अकबर इंकार भी न करे।
अकबर ने नमाज पूरी की और हाथ ऊपर उठाए उसे पता भी नहीं था कि पीछे कोई खड़ा है। उसने कहा--हे परमात्मा! मेरे राज्य को और बड़ा कर मेरे धन को और बड़ा कर, मेरी दौलत को दुगुना कर, मुझ पर कृपा कर। फरीद ने यह सुना और चुपचाप बिना आवाज किए वापस लौट आया। अकबर उठा तो उसने देखा कि फरीद सीढ़ियां उतर रहा है तो भागा। उसने पूछा--आए और चले गए और बिना कुछ कहे?
फरीद ने कहा--बड़ी भूल हो गई। मैं तो तुम्हें बादशाह समझता था, पाया कि तुम भी भिखारी हो। मैं तो सोचकर आया था कि तुमसे आज कुछ मांग लूं, लेकिन मैंने पाया कि तुम तो खुद ही मांग रहे हो तो मांगने वाले से मांगकर उसे दुख देना मुझे न हो सकेगा। और फिर अगर मांगना ही होगा तो जिससे तुम मांग रहे थे, उसी से मैं मांग लूंगा। हम वापस जाते हैं।
यह जो मांगने वाला हृदय है, यही प्रेम न करने वाला हृदय है। हम सब चौबीस घंटे मांग रहे हैं। और जब सभी लोग मांग रहे हैं तो जिंदगी अगर घृणा से भर जाए, हिंसा से भर जाए तो आश्चर्य क्या? और अगर ईश्वर की हत्या हो जाए तो आश्चर्य कैसा? इसमें कौन-सी आश्चर्य की बात है। नहीं, मांगने वाला हृदय धार्मिक हृदय नहीं है। बांटने वाला, देने वाला जरूरी नहीं है कि अपना कपड़ा बांट दे और धन बांट दे। यह सवाल नहीं है। हृदय, बांटने वाला भाव, हृदय को बांटने वाला भाव। चौबीस घंटे मौके हैं, चौबीस घंटे चुनौतियां हैं, चौबीस घंटे चैलेंज है। सब तरफ से, सब तरफ से। सब तरफ से मौका है कि प्रेम आपके दिल में जगे और फैले।
लेकिन इस प्रेम के लिए, खोना पड़ेगा खुद को, देना पड़ेगा खुद को। खुद को खोए बिना कोई रास्ता नहीं है। और खोने के दो रास्ते हैं--या तो नशा करें और अपने को खो दें, जैसा कि सब लोग खोते हैं। शराब पीते हैं और खुद को खो देते हैं। राम-राम जपते हैं और इतना देर जपते हैं कि दिमाग ऊब जाता है और नींद आ जाती है और खो जाते हैं। कोई नाटक देखता है, संगीत सुनता है और मूर्च्छित हो जाता है, खो जाता है। अपने को भुला लेने के लिए "फारगेटफुलनेस' होने के बहुत से रास्ते हैं। एक तो यह खोना है। यह खोना हम सारे लोग जानते ही हैं। यह खोना नहीं है, यह सोना है। यह मूर्च्छित होना है।
एक और खोना है प्रेम में। प्रेम में जो खोता है, उसे आत्मा का स्मरण हो जाता है और नशे में जो खोता है, उसे तो आत्मा का स्मरण और भी भूल जाता है। प्रेम में कैसे खोएं, क्या करें? क्या करने के लिए हो सकता है? एक बात--अगर आंख खुल जाए तो प्रेम आपसे बहेगा। और आप खो सकेंगे और वह बात यह है कि स्वयं को एक इकाई की तरह समझ लेना भूल है।
आप पैदा हुए हैं। आपको पता है, कैसे और कहां से? आप मर जाएंगे। पता है कहां और क्यों? आप जीवित हैं, पता है कैसे? आपकी श्वास चल रही है। पता है कैसे चल रही है? कौन चला रहा है? क्यों चल रही है?
लोग कहते हैं कि हम यहां हैं। मैं श्वास ले रहा हूं। कभी आपने सोचा है कि इससे ज्यादा झूठी कोई बात हो सकती है कि आप कहें कि मैं श्वास ले रहा हूं। अगर आप श्वास ले रहे हैं तो फिर दुनिया में कोई आपको मार नहीं सकेगा। वह मारे, आप श्वास लेते चले जाएं, फिर क्या होगा? फिर तो मृत्यु कभी न आ सकेगी, क्योंकि वह श्वास लेता चला जाएगा। मृत्यु क्या करेगी?
लेकिन हम कहते हैं कि हम श्वास ले रहे हैं। श्वास हम लेते नहीं हैं, श्वास चल रही है। और कहते हम यह हैं कि मैं श्वास ले रहा हूं। जिंदगी भर हम कहते हैं कि मेरा जन्म। झूठ है बात। मेरा जन्म, क्या हो रहा है, मैं कहां हूं? उस जन्म में कहते हैं, मेरी श्वास, मेरा जीवन। इसमें हम व्यर्थ ही जुड़ते चले जाते हैं, जो कि कहीं भी सच्चा नहीं है और जो कि है भी नहीं। इसको जोड़ते-जोड़ते हम मन में कल्पना कर लेते हैं। ऐसा लगता है कि "मैं हूं'। और यह "मैं हूं' मांगने लगता है, क्योंकि वह बिना मांगे जी नहीं सकता है। इकट्ठा करने लगता है, धन, ज्ञान, त्याग और पूछने लगता है कि मैं मोक्ष कैसे जाऊं। स्वर्ग कैसे जाऊं? परमात्मा को कैसे पाऊं? वह सब "मैं' की वजह से है। वह, वही "मैं' जो हूं ही नहीं!
मैं आपसे यह नहीं कह रहा हूं कि आप अहंकार को छोड़ने की कोशिश करें। और यदि आपने कोशिश की तो कभी नहीं छोड़ पाएंगे, क्योंकि छोड़ने की कोशिश कौन करेगा? वही मैं। और हो सकता है कि एक दिन वह यह घोषणा कर दे कि मैं अब बिलकुल अहंकारी नहीं हूं। मैं तो अब बिलकुल विनम्र हो गया हूं, ह्ययुमिलिटी आ गई है मुझमें। अहंकार तो मुझ में है ही नहीं।
राजमहल के निकट पत्थरों का ढेर लगा हुआ है। एक बच्चा कहीं से घूमता हुआ आया और उसने पत्थर उठाया और राजमहल की तरफ फेंका। पत्थर ऊपर उठा, जिसकी आदत हमेशा नीचे जाने की है, वह ऊपर उठा। स्वाभाविक है कि उसने नीचे पड़े पत्थरों से कहा--मित्रो! मैं जरा आकाश की सैर को जा रहा हूं।
यह बात बिलकुल ठीक थी, बिलकुल उचित थी, स्वाभाविक थी। नीचे पड़े पत्थर नीचे पड़े थे। अपनी वेदना से दबे थे, हिल भी नहीं सकते थे। उड़ने की बात तो दूर।
यह कोई महापुरुष पैदा हो गया था पत्थरों में, जो ऊपर जा रहा था। यह कोई अदभुत अवतारी पुरुष मालूम होता था, जो ऊपर जा रहा था। पत्थरों के लिए कल्पनातीत था ऊपर की तरफ जाना। और वह जा रहा था और उस पत्थर को भी ऐसा खयाल हुआ कि मैं ऊपर जा रहा हूं। उठा ऊपर। जाकर महल की कांच की खिड़की से टकराया। कांच चकनाचूर हो गया। उस पत्थर ने कहा--मैंने कितनी दफा कहा, मेरे रास्ते में कोई न आए, नहीं तो चकनाचूर हो जाएगा। बिलकुल ही ठीक थी बात। कोई झूठ भी नहीं थी। चकनाचूर होकर कांच नीचे पड़ा था, रो रहा था, आंसू बहा रहा था।
पत्थर ने कहा--कितने दफा कहा? लेकिन न मालूम नासमझों को समझ में नहीं आता कि मेरे बीच में आ जाते हैं और फिर टूटना पड़ता है। हमारे बीच में आने की जुर्रत कोई न करे। जो भी आएगा, मिटेगा--पत्थर ने ठीक ही कहा। वह नीचे गिरा। कालीन था महल में बिछा, उस पर गिर गया। उसने कहा--थोड़ा थक गया हूं। एक शत्रु का सफाया किया है। लंबी यात्रा की और वह ऐसी यात्रा थी कि मेरे वंशजों ने कल्पना न की कभी। मेरे पूर्वजों ने कभी जिसकी कामना नहीं की, ऐसी एक महान और अभिनव यात्रा मैंने की। थोड़ा विश्राम कर लूं।
वह विश्राम करने बैठ गया। कालीन पर गिरा था। लेकिन उसने कहा--बैठ जाऊं और थोड़ा विश्राम कर लूं। और उसने कहा--धन्य है यह राजपरिवार। कितने अच्छे लोग हैं? ज्ञात होता है मेरे आने की खबर पहले ही कर दी गई। कालीन बिछा दिया गया है। अच्छे लोग मालूम होते हैं। और तभी राजमहल का नौकर दौड़ा आया आवाज सुनकर! उसने पत्थर को उठाया और उस पत्थर ने कहा--कैसे भले लोग हैं, कितने अधिक प्रेमी कि मुझे उठाकर मेरा स्वागत किया जा रहा है?
और उस नौकर ने उस पत्थर को वापस फेंका। पत्थर को लौटना पड़ा और उसने अपने मन में कहा कि अब घर की बहुत याद आती है बहुत होमसिकनेस मालूम होता है, बहुत घर की याद आती है । चलें, मित्रों की बहुत याद आती है। वह नीचे आकर अपने पत्थर के ढेर में गिरा तो उसने कहा--मित्रो! एक अदभुत यात्रा करके आ रहा हूं। अन्य पत्थर चकित आंखें फाड़े देखते रह गए और उन्होंने कहा--धन्य हैं हम। जो तुम्हारे बीच जन्म लिया और इतना महान कार्य किया। तुम अपनी आत्मकथा लिखो। आटोबाईग्राफी लिखो। बच्चों के काम आएगी। आगे काम आएगी। बच्चे पढ़ेंगे, प्रसन्न होंगे और पढ़ेंगे कि उनके बीच कोई पैदा हुआ था और पत्थर फूलकर और बड़ा हो गया।
इसी तरह तो पत्थर फूलकर पहाड़ हो जाते हैं। वह पत्थर फूलकर पहाड़ हो गया, अहंकार में कि वह अपनी आत्मकथा लिख रहा है। सुनते हैं जल्दी ही छपेगी। जल्दी ही लोगों को मिलेगी। कई पत्थरों ने पहले भी लिखी है। वह भी लिख रहा है।
क्या हमारा जीवन इस पत्थर से भिन्न है? नहीं, नहीं। बिलकुल ही नहीं। जन्म अज्ञात है। मृत्यु अज्ञात है, यात्रा अज्ञात है और हम कहते हैं "मैं'। इससे ज्यादा झूठ क्या हो सकता है? पत्थर के लिए झूठ था। आपके लिए सच है, अगर ऐसा फर्क करते हैं तो पत्थर से भी गए-बीते हैं। पत्थर के लिए झूठ था। आपके लिए और झूठ है। और पत्थर तो पत्थर ही था।
अगर उसे पागलपन का यह खयाल भी आ गया तो ठीक है। आप तो पत्थर नहीं हैं। लेकिन मनुष्य-जाति के बीच, जिनके हृदय जितने ज्यादा पत्थर हैं, उतने ही ज्यादा उनको यह खयाल आता है कि "मैं' हूं। जो जितना पाषाण है, अपने हृदय में पत्थर, उसको खयाल आता है "मैं' हूं। इस "मैं' को समझो। इस "आइ' को, इस "ईगो' को देखें। इस पत्थर की कहानी से ज्यादा आपकी कहानी भी सिद्ध न होगी।
और जिस दिन यह दिखाई पड़ जाए तो "मैं' को छोड़ना नहीं पड़ेगा, वह विलीन हो जाएगा, वह पाया नहीं जाएगा, एक हंसी आएगी और लगेगा कि "मैं' तो था ही नहीं। और जिस दिन दिखाई पड़ जाए कि "मैं' नहीं है। उसी दिन दिखाई पड़ेगा वह, जो है। उसका नाम ही परमात्मा है। और उसी दिन वह बहने लगेगा, जिसका नाम प्रेम है। और उसी दिन सारे हृदय के द्वार, एक प्रेम की गंगा, चारों तरफ बहने लगेगी और एक प्रकाश और एक आनंद और एक थिरक और एक संगीत अपने में पैदा हो जाएगा। उस पुलक और संगीत का नाम ही धर्म है। उस पुलक, और संगीत, उस प्रेम, उस आलोक में जो जाना चाहता है, उसी का नाम परमात्मा है।
पत्थरों का परमात्मा मर गया है! और अगर हम प्रेम के परमात्मा को जन्म नहीं दे सके तो फिर मनुष्य-जाति को बिना परमात्मा के रहना होगा। और सोच सकते हैं कि बिना परमात्मा के मनुष्य-जाति का क्या होगा?
पत्थर, जो कि जहां प्रेम नहीं है वहां पत्थर होंगे और जहां परमात्मा नहीं है, वहां पत्थर होंगे। जीवन में जो भी पाने जैसा है, वह प्रेम है। क्यों, क्योंकि प्रेम परमात्मा की सुगंध के मूल स्रोत को पा लेता है। किसी का भी नहीं है और वह परमात्मा सबका है। और वह परमात्मा किसी मंदिर और मस्जिद में कैद नहीं है। और वह परमात्मा किसी मूर्ति में आबद्ध नहीं है। और वह सब तरफ फैला है।
उसे देखने वाली प्रेम की आंखें चाहिए। अंधे शास्त्रों  को पढ़ते रहेंगे तो कुछ भी नहीं होगा। और प्रेम की आंख वाली आंख खोल कर देख लें तो सब आनंद हो जाता है।
मैंने कहा कि ईश्वर मर गया है। जिम्मेदारी आप पर है। ईश्वर पुनरुज्जीवित हो सकता है। आपके प्रेम से, आपके आनंदित हो उठने से, आपके अहंकार के विलीन हो जाने से।
ये दो सूत्र मैंने कहे, ज्ञान के तट से जंजीरें तोड़ लें और प्रेम के आकाश की यात्रा में खोल दें। पाल खोल दें। प्रेम की हवाएं उसे ले जाएं। लेकिन ये दोनों बातें तभी हो सकती हैं जब इन दोनों के बीच एक मध्य बिंदु हो। वह मैंने आपसे अंत में कहा। वह आपका अहंकार है। अहंकार छोड़ें तो ही ज्ञान से छुटकारा हो सकता है और अहंकार जाए तो ही प्रेम के और परमात्मा के द्वार खुल सकते हैं। और अहंकार बिलकुल भी नहीं, उनको विदा करना है जा है ही नहीं, उससे हाथ जोड़ लेना है जो है ही नहीं, ताकि उसे पाया जा सके, जो है, सदा से है और सदा रहेगा। अभी है, यही है।
मेरी इन बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, मैं बहुत आनंद में हूं। सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।




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